Update-18
रजनी बैलगाड़ी में बनी छपरी मे आ गयी और काकी के गोदी से बेटी को लिया और दूध पिलाने के लिए सूट ऊपर करके जैसे ही बायीं चूची को एकाएक बाहर निकाला, काकी निप्पल से रिसते हुए दूध को देखकर मुस्कुरा दी, हल्के से दबाव से ही एक दो बूँदें अब भी निकल जा रही थी, जैसे किसी ने जमे हुए दही को मथ दिया हो और वह रिस रिस कर बह रहा हो।
रजनी भी मुस्कुरा दी
काकी- अपने बाबू के पास बैठी थी क्या?
रजनी- हां काकी, बैलगाड़ी चलाना सीख रही थी।
काकी- सीख लिया।
रजनी- हां, बहुत आसान है।
काकी- सिर्फ बैलगाड़ी ही चलाई (काकी में छेड़ते हुए कहा)
रजनी- हां....तो और क्या करूँगी। काकी आप भी न।
काकी हंसते हुए - कुछ देखा न मैंने इसलिए।
रजनी- क्या?
काकी- तेरे निप्पल रस बरसा रहे थे।
रजनी- धत्त काकी आप भी न, क्या क्या सोचती और बोलती हो, अब गुड़िया नही पी पाएगी सारा दूध तो रिसेगा ही न।
काकी- जरूरी थोड़ी है कि केवल गुड़िया ही दूध की भूखी है क्या पता कोई और भी हो? (काकी ने चुटकी लेते हुए कहा)
रजनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया, शर्म की तरंगें चेहरे पर दौड़ गयी।
रजनी- अब बस भी करो काकी, वो बाबू है मेरे, आपको तो हर वक्त मस्ती सूझती रहती है इस उम्र में भी, बड़ी बदमाश को आप।
काकी हंसने लगी फिर बोली- अरे बाबा मैं तो मजाक कर रही थी। अच्छा ये बता चलते चलते काफी देर हो गयी है न, हमे कहीं रुकना चाहिए अब, जंगल के अंदर वक्त का पता नही चल रहा है लेकिन मेरे ख्याल से 1 या 2 बज गए होंगे, बैल भी बिचारे चलते चलते थक गए होंगे उनको भी आराम चाहिए होगा।
रजनी- हां काकी मुझे तो भूख भी लग आयी।
काकी- वो तो मुझे भी लगी है, रुक मैं उदयराज से पूछती हूँ, बोलती हूँ उसको कहीं रुकने को।
उदय! ओ उदय! अरे कहीं रुकना नही है क्या तुझे, बस चलते ही जा रहा है, थोड़ा बैलों को भी आराम दे, तू भी आराम कर।
उदयराज- हां काकी रुकता हूँ, थोड़ा सही जगह देख रहा हूँ, लगभग आधे रास्ते तो पहुचने वाले हैं शायद, रुकता हूँ।
रजनी- हां बाबू रुको न अब कहीं।
उदयराज- हां बिटिया जरूर।
उदयराज बैलगाड़ी चलाये जा रहा था लगभग 2 किलोमीटर आगे जाने के बाद उन्हें एक झोपड़ी दिखी, उस झोपड़ी के आगे और घना जंगल दिख रहा था, उदयराज को थोड़ी उम्मीद जगी की हो न हो इसमें कोई तो होगा, इतने घने जंगल में अगर यहां झोपड़ी है तो कोई तो रहता होगा।
उदयराज ने वहां पँहुच कर बैलगाडी रोकी, काकी और रजनी भी झोपड़ी देख थोड़ी खुश हुई पर बैलगाडी से अभी नही उतरी। उदयराज थोड़ा आगे बढ़ा तो वहां उसे एक बुढ़िया दिखी जो लकड़ियां इकट्ठी कर रही थी, उनकी उम्र काफी थी।
उदयराज को देखते ही वो लकड़ियां छोड़ छड़ी लेकर उठते हुए बोली- कौन? इस घने जंगल में बैलगाड़ी से कौन आया है? कौन हो तुम?
उदयराज- माता जी प्रणाम, मैं विक्रमपुर गांव का मुखिया उदयराज हूँ।
बूढ़ी औरत- प्रणाम पुत्र, यहां जंगल में कैसे? अकेले आये हो?
उदयराज- माता जी मैं अकेला नही हूँ मेरे साथ मेरा छोटा सा परिवार भी है, मैं अपने गांव की एक समस्या के हल की खोज में किसी के द्वारा बताए गए मार्ग पर हूँ, चलते चलते थक कर जब मैंने कहीं रुकने का मन बनाया तभी आपकी कुटिया मुझे नज़र आई और मैं यहां चला आया।
बुढ़िया- अच्छा किया जो यहां चले आये, आओ पहले बैठो पानी पियो, और कौन है तुम्हारे साथ?
उदयराज- मेरी बेटी, और काकी है।
बूढ़ी औरत- मेरा नाम सुलोचना है और मैं यहां अपनी बेटी पूर्वा के साथ रहती हूं।
उदयराज थोड़ा हैरत से- आप इस जंगल में अपनी बेटी के साथ अकेले कैसे रह लेती हो?, और यहां रहने की जरूरत क्यों पड़ी?, क्या आप यहीं की हो या कहीं से आकर बसी हो? उदयराज ने एक साथ कई सवाल कर दिए।
सुलोचना- पुत्र पहले बैठो पानी पियो फिर सब बताऊंगी, पूर्वा! ओ पूर्वा, बेटी सुन, देख कोई आया है बैलगाड़ी से।
पूर्वा- हां अम्मा, आयी
घर के अंदर से पूर्वा आयी और सुलोचना ने उसे बैलगाड़ी के अंदर बैठी रजनी और काकी को बुला कर लाने के लिए कहा।
पूर्वा ने उदयराज को देखते ही प्रणाम किया
उदयराज- प्रणाम बेटी
पूर्वा गयी और उसने रजनी और काकी को प्रणाम किया और ले आयी।
रजनी, काकी और उदयराज को मन ही मन बड़ी राहत मिली कि चलो ऐसे नेक लोग मिले और ऐसी जगह मिली इस जंगल में जहां थोड़ा रुककर विश्राम कर सकते हैं
काकी और रजनी ने सुलोचना को प्रणाम किया।
सुलोचना- ये आपकी बेटी है।
उदयराज- हां, माता जी, इसका नाम रजनी है।
सुलोचना- परम सूंदरी है तुम्हारी कन्या।
रजनी शर्मा गयी
उदयराज- और ये मेरी काकी, इन्होंने ही रजनी को पाला पोशा है।
सुलोचना- अच्छा!.....पूर्वा सबको अंदर ले जाओ और विश्राम कराओ।
पूर्वा- जी अम्मा, (और वो काकी और रजनी को कुटिया में ले गयी)
सुलोचना- पुत्र तुम आओ यहां बैठो, पानी पियो।
उदयराज ने हाँथ मुह धोया पानी पिया। फिर उसने बैलगाड़ी से बैलों को खोल कर बड़ी रस्सी से पेड़ से ऐसी जगह बांध दिया जहां काफी घास थी बैल भूखे थे, घास चरने लगे।
उदयराज आकर सुलोचना के पास बैठ गया।
सुलोचना- पुत्र इतना तो मेरा अनुमान है कि तुम उस महात्मा पुरुष के पास जा रहे हो जो घने जंगल में आदिवासियों के साथ रहते हैं।
उदयराज- हां माता जी अपने ठीक समझा, पर आप हमें आगे का रास्ता अच्छे से समझा दे तो बहुत महेरबानी होगी।
सुलोचना- हां हां, क्यों नही पुत्र, ये तो हमारा कर्तव्य है। देखो इस जगह जहां ये कुटिया है यहां से सिंघारो जंगल की सीमा शुरू होती है जो कि बहुत विशाल है।
उदयराज- सिंघारो जंगल नाम है इसका।
सुलोचना- हां, ये जंगल काफी बड़ा है, कई जंगली जानवर भी हैं इसमें, जो कि कभी कभी बाहर तक भी आ जाते हैं, आम इंसान के लिए इसके अंदर जाना मुश्किल भरा हो सकता है, क्योंकि जितना डर जंगली जानवरों का नही है उससे ज्यादा डर बुरी आत्माओं का रहता है जो इंसान को डरा और भटका देती हैं
उदयराज- तो फिर माता जी, कैसे होगा, हमारे साथ तो एक छोटी सी गुड़िया भी है, हमने तो सोचा था कि सरल रास्ता होगा, जाना है और मिलकर आ जाना है, पर ये तो रास्ता ही बहुत कठिन है, कैसे होगा? मेरी बेटी रजनी सही कहती थी कि न जाने कैसा रास्ता हो? उसकी बात सच निकली।
सुलोचना- तू घबरा मत पुत्र, हर समस्या का हल होता है, जरा सोच इस समस्या के हल के लिए ही तो नियति ने तुम्हे मुझसे मिलाया।
उदयराज- क्या मतलब? मैं समझा नही।
सुलोचना- इस खतरनाक सिंघारो जंगल में कोई भी आम आदमी बिना किसी तंत्र मंत्र के सहारे नही जा सकता, इसके लिए उसको तंत्र मंत्र से सिद्ध की हुई ताबीज़ को अपने साथ रखना होगा ताकि रास्ते में कोई परेशानी न हो।
उदयराज- पर अब ये ताबीज कहाँ मिलेगी।
सुलोचना- वो तुम्हे मैं तंत्र मंत्र द्वारा सिद्ध करके दूंगी पुत्र, लेकिन इसके लिए मुझे एक रात का समय चाहिए होगा, अगर तुम मेरी बात मानो तो अब धीरे धीरे शाम होने को आई है, अभी लगभग आधा रास्ता तुम पार कर चुके हो आधा बाकी है, तुम यहीं रात भर रुको, खाना पीना खाकर विश्राम करो, कल सुबह तक मैं तुम सबके लिए ताबीज़ तैयार कर दूंगी और हो सके तो मैं तुम लोगों के साथ उन महात्मा के आश्रम तक भी चलूंगी अगर तुम चाहोगे तो।
क्योंकि मुझे वहां जाने में कम समय लगता है, मुझे वहां जाने के छोटे रास्ते पता है और मैं नही चाहती कि तुम लोग अकेले इधर उधर भटकते हुए जाओ, मैं रहूँगी तो समय की बचत हो जाएगी।
उदयराज उनके सामने हाथ जोड़ कर बोलता है- न जाने मैंने पिछले जन्म में क्या पुण्य किये होंगे जो आप मुझे माँ के रूप में इस कठिन यात्रा में न केवल मेरा मार्ग दर्शन करने के लिए मिल गयी बल्कि स्वयं मेरे साथ चल रही है।
सुलोचना- ये तो मेरा फ़र्ज़ है पुत्र, एक दुखी इंसान ही दूसरे दुखी इंसान की पीड़ा को समझ कर उसकी मदद कर सकता है और कोई नही, तुम्हारे मुख से माँ सुनकर मुझे मेरे पुत्र की याद आ गयी।
उदयराज- मैं भी तुम्हारा पुत्र ही हूँ माँ, ईश्वर ने शायद आज इस जंगल में तुम्हे मेरी माँ बनाकर ही मिलाया है, भला मुझे किसी बात का क्यों ऐतराज होगा, आप मेरी मदद ही तो कर रही हैं, मैं चाहूंगा कि आप भी मेरे साथ चलें, और मैं रात भर रुकने के लिए तैयार हूं।
सुलोचना- हां ठीक है पुत्र, अब तुम विश्राम करो और जब रात में सब लोग खाना पीना खा लेंगे तब मैं हवन करके मंत्र जगाऊंगी और ताबीज़ तैयार कर दूंगी, उसके लिए मुझे जंगल से कुछ दैवीय जड़ी बूटियां इकट्ठी करनी पड़ेगी।
उदयराज- तो क्या आप रात्रि का भोजन नही करेंगी।
सुलोचना- नही पुत्र, अब ताबीज़ तैयार होने के पश्चात ही मैं भोजन करूँगी। यही नियम है।
उदयराज- आप हमारे लिए कितना कष्ट झेल रही है इस उम्र में माता।
सुलोचना- अब तुमने मुझे माँ कहा है तो माँ का फर्ज है ये, इसमें कष्ट कैसा, और ये तो मेरी आदत है।
उदयराज- अच्छा आप ये तंत्र मंत्र कैसे जानती हैं, आपको देख के लगता भी है जैसे कि आप कोई सिद्धि प्राप्त स्त्री हैं। आपने अपने बारे में कुछ बताया नही।