Kala Nag
Mr. X
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यह तो बड़ा ही रोचक मुहूर्त समक्ष आयाअध्याय – 8
आरोही अपने कमरे में बैठी थी, और हमेशा की तरह आज भी वो अपने बिस्तर के नज़दीक रखी विवान की तस्वीर को अपलक निहार रही थी। पर आज उसके भाव कुछ अलग थे,जहां हमेशा विवान की तस्वीर को देखते वक्त उसी आंखों में केवल पीड़ा ही होती थी, वहां आज पीड़ा के साथ – साथ जिज्ञासा भी दिखाई पड़ रही थी। जिज्ञासा इस बात को जानने की, क्या विवान सत्य में यशपुर लौटने वाला था? यदि हां, तो क्या वो केवल स्नेहा से मिलकर वापिस चला जाएगा या फिर हमेशा के लिए यहीं रह जाएगा? परंतु, सबसे बड़ा प्रश्न आरोही के मन में यही था की विवान के लौटने पर उसकी प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए?
वो समझ नहीं पा रही थी कि वो विवान से नाराज़ थी या नहीं। इस दुविधा का सबसे बड़ा कारण यही था की आज तक उसने कभी भी अपने मनोभाव किसी के संग बांटे नहीं थे। इन तीन सालों में उसकी व्यथा केवल उस तक ही सीमित थी, अगर उसने कभी किसी से अपनी बात कही होती तो शायद आज हालात बेहतर होते। परंतु, मुख्य बात ये थी की आरोही को एक असामान्य सी अनुभूति भी हो रही थी, एक नकारात्मक अनुभूति। उसे याद था जब कुछ सालों पहले उसने विवान के शरीर पर वो घाव देखा था, उससे एक दिन पहले भी आरोही को कुछ ऐसी ही अनुभूति हुई थी। अर्थात, जब विवान को वो घाव लगा था उस दिन प्रथम बार आरोही ने ऐसा महसूस किया था और आज फिर वही चीज़ उसे डरा रही थी।
इन सब बातों पर विचार करते हुए आरोही को बिलकुल भी आभास नहीं हुआ की कब एक महिला उसके कमरे में अंदर आ चुकी थी। वो औरत जब इस बार आरोही की तरफ बढ़ी तो आरोही का ध्यान भी उस पर चला गया, और अचानक ही वो चौंक गई।
आरोही : तुम.. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे कमरे में आने की!
आरोही को पसंद नहीं था की कोई उसके कमरे में आए, और इस बात से हवेली में रहने वाले सभी अवगत भी थे। सिवाय शुभ्रा के कोई भी आरोही के कमरे में नहीं जा सकता था, और एक – दो बार जब भी ऐसा हुआ तो आरोही की प्रतिक्रिया ने सबको मजबूर कर दिया की वो वापिस उसके कमरे में ना जाएं। परंतु, इसके बावजूद, वो औरत आरोही की बात सुनकर बिलकुल नहीं सकुचाई, बल्कि एक अजीब सी मुस्कान उसके होंठों पर आ गई। वो आरोही की तरफ बढ़ने को हुई तो आरोही भी अपने बिस्तर से उठ कर खड़ी हो गई और उसे क्रोधपूर्ण आंखों से घूरने लगी।
जैसे ही आरोही पुनः उसे कुछ कहने को हुई उसका मुंह हैरानी से खुल गया और ज़बान बंद हो गई। कारण, उस औरत ने सहसा ही आरोही पर बंदूक तान दी थी। वो अपनी साड़ी में ही बंदूक छिपा कर लाई थी और इस बात की आरोही को बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी। परंतु, फिर भी अपने भय को ज़ब्त करते हुए, आरोही ने कहा,
आरोही : रेशमा, तुम्हें पता है ना इसका अंजाम क्या होगा!
प्रथम बार वो औरत यानी रेशमा बोली,
रेशमा : तू अपने अंजाम की चिंता कर, मेरी नहीं।
उसका तीखा स्वर सुनकर आरोही की हैरानी और भी बढ़ गई। उनकी हवेली में दो साल से नौकरानी बनकर काम कर रही ये औरत, जिसने आज तक हवेली के किसी सदस्य से आंख उठाकर बात करने की हिम्मत तक नहीं की थी, वो आज उससे इस लहज़े में बात कर रही थी। आरोही को किसी षड्यंत्र का आभास हो गया था, पर उसे अभी भी रेशमा का मंतव्य समझ नहीं आ रहा था। यदि वो उसे मारना ही चाहती तो कब का मार देती, यूं बंदूक तान कर खड़े रहने का क्या तात्पर्य था?
अचानक से आरोही को बाहर से कुछ शोर सुनाई दिया, वो इस स्वर को पहचान गई थी। ये कुछ और नहीं बल्कि गोलीबारी का शोर था। आरोही के हाथ कांपने लगे थे और इधर उसकी हालत देखकर रेशमा की मुस्कुराहट तीक्ष्ण हो चुकी थी। आरोही जानती थी की वो फंस चुकी है पर फिर भी हिम्मत कर वो खिड़की की तरफ भागने को हुई, दूसरी मंज़िल से कूदना मूर्खता ही होती परंतु आरोही के पास यही एक उपाय बचा था। लेकिन जैसे ही वो खिड़की से कूदने को हुई एक तेज़ दर्द का एहसास उसे अपने सर के पीछे हुआ, और उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।
जिस खिड़की से वो कूदने वाली थी, वो उसी के नज़दीक मूर्छित पड़ी थी, और उसे देख कर रेशमा और रेशमा के साथ, हाथ में एक रॉड लिए खड़ा व्यक्ति, अट्टहास करने लगे।
“भईया"...
मैं मंदिर के बाहर एक पेड़ के नज़दीक ही हाथ बांधे खड़ा था, अभी तक मैंने मंदिर के प्रांगण में कदम नहीं रखा था और शायद मैं रखने भी नहीं वाला था। जैसा मैंने पहले ही बताया था की भगवान और मेरे बीच फिलहाल काफी दूरियां बनी हुई थीं। मैं शुरू से ही नास्तिक प्रवृत्ति का नहीं था, हां मेरी कभी भी अगाध श्रद्धा नहीं रही थी भगवान में, परंतु बचपन में कई बार मैं इस मंदिर में अपने परिवार के साथ पूजा – अर्चना हेतु आ चुका था। परंतु, पिछले कुछ वर्षों से वो सिलसिला बिलकुल टूट सा गया था, और मैं एक अव्वल दर्जे के नास्तिक में परिवर्तित हो गया था।
खैर, मैं वहीं खड़ा था और मेरे हृदय में एक हलचल सी मची हुई थी। जब आरोही मंदिर से बाहर आएगी और मुझे यहां खड़ा देखेगी, तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? बस यही प्रश्न मेरे भीतर चल रहा था, मैं जानता था की वो अवश्य मुझसे नाराज़ होगी, शायद कुछ दिन मुझसे बात भी ना करे, परंतु मैं ये भी जानता था कि उसका प्रेम मेरे प्रति अटूट था, और किसी भी हालत में वो अधिक समय तक मुझसे नाराज़ नहीं रह सकती थी। इधर, वो सभी अंगरक्षक, मेरे आस – पास ही खड़े थे और विस्मित नज़रों से मुझे देखते हुए आपस में ही धीरे – धीरे बातें करने में लगे थे। तभी, मुझे प्रतीत हुआ जैसे मंदिर से कोई बाहर आ रहा हो, और मेरी नजरें उसी ओर मुड़ गईं।
मेरा अंदेशा उचित ही था, जैसे ही मैंने उस ओर देखा, सर्वप्रथम वहां से दादा जी ही निकल रहे थे। उनके चेहरे पर वही तेज और कठोरता थी जिसके लिए वो जाने जाते थे पर उन्हे देखकर मैं थोड़ा हैरान भी हो गया। कारण यही था कि उनके उनके कंधे मुझे झुके – झुके से लग रहे थे, जैसे किसी हारे हुए व्यक्ति के हों। ये बात रामेश्वर सिंह राजपूत के व्यक्तित्व से बिलकुल मेल नहीं खाती थी। मैं ये भी जानता था कि इसका कारण वही फैसला था जो वो कभी नहीं लेना चाहते थे, परंतु अपने कर्तव्य से बाध्य होकर उन्हें वो फैसला सुनाना पड़ा।
दादाजी के संग ही दादी भी मंदिर से बाहर आ रहीं थीं। उनकी भाव – भंगिमाएं भी दादाजी जैसी ही थीं। उनके पीछे – पीछे परिवार के बाकी सदस्य भी चले आ रहे थे और सर्वप्रथम मेरा ध्यान मां की तरफ गया। मां ने हमेशा की ही तरह हरे रंग की साड़ी पहनी हुई थी, बचपन में जब भी वो इस मंदिर में आती थीं तो हमेशा हरे रंग की साड़ी ही पहनती थीं, इसका कारण तो मैं आज तक नहीं जान पाया था परंतु उन्हें देखकर मुझे असीम खुशी की अनुभूति अवश्य हुई। मां की हालत भी ठीक नहीं थी, या कहूं की बहुत ही खराब थी। बचपन से लेकर तीन वर्ष पूर्व तक, हर पल मैंने उन्हें संघर्ष ही करते देखा था।
उत्तराखंड के सबसे रईस और विख्यात परिवार की बहू होने के बावजूद उन्हें मैंने कभी भी प्रसन्न नहीं देखा। पापा को मैंने हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जिसके लिए अपना काम और व्यापार ही सब कुछ था, मुझे ठीक से याद भी नहीं पड़ता की अंतिम बार कब वो सारे परिवार के साथ किसी त्योहार में समिल्लित हुए थे। मैंने करवाचौथ पर हर बार, मां को उदास बैठे देखा था, जब चाची और दादी अपना व्रत खोल लिया करतीं थीं तब मां अपने पति के आने की राह देखती रह जाती थीं। क्या जीवन था उनका! सदैव एक प्रश्न मेरे मन में उठता की मां के जीवन में खुशियां कब आएंगी।
ऐसे में, मैं और आरोही ही थे जिनकी मौजूदगी में मां के चेहरे पर एक सच्ची मुस्कान हुआ करती थी। परंतु, इन तीन वर्षों में जब मैं उनसे दूर था और मेरे वियोग में तड़पती आरोही, उनके पास होते हुए भी दूर थी... सहसा ये विचार मेरे मन में आया और मेरी आंखें नम हो गई। कितना कुछ सहा होगा इन तीन वर्षों में उन्होंने। अभी मैं कुछ और सोचता की एक तेज़ स्वर मेरे कानों में पड़ा, स्नेहा.. उसी ने मुझे पुकारा था।
उन सबमें से सर्वप्रथम स्नेहा की ही नज़रें मुझ पर पड़ीं और इसका ही नतीजा था उसका वो उल्लास और विस्मय से भरा स्वर। मैंने उसकी और देखा तो मेरे होंठों पर एक मुस्कान उभर आई। तीन वर्ष बाद देखा था मैंने उसे, उसने एक आसमानी रंग की सलवार – कमीज़ पहनी हुई थी जिसमें उसका वो मासूम सा चेहरा और भी प्यारा लग रहा था। स्नेहा के द्वारा मुझे पुकारे जाने पर सभी का ध्यान उसकी तरफ चला गया, और जब उन सबने स्नेहा की नज़रों का पीछा किया तो वहां मौजूद, लगभग सभी के कदम डगमगा गए।
परंतु, उन सबसे अलग स्नेहा, बिना एक पल की भी देरी किए दौड़कर आई और मुझसे लिपट गई। उसकी आंखों से एक तीव्र अश्रुधारा बह निकली थी, उसके साथ ही, मुझ पर हर पल मज़बूत होती उसकी पकड़, ये दोनों ही उसके प्रेम और दुख का सबूत दे रही थी। जाने कितनी देर तक वो मेरे सीने से लगी आंसू बहाती रही और फिर मुझसे थोड़ा दूर होकर मुझे देखने लगी। एक अनजानी सी मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई, और पुनः वो मेरे गले से लग गई। “बड़ी हो गई है मेरी छोटी सी गुड़िया तो", मैंने उसके कान में कहा तो रूदन के मध्य ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट सज गई।
स्नेहा : और आप पहले से भी अच्छे दिखने लगे हो।
मैं : अपने ही भाई को छेड़ रही है मोटी।
मजाकिया अंदाज़ में कहा मैंने जिसपर स्नेहा पुनः मुझसे अलग होकर मेरी ओर देखने लगी। बचपन में स्नेहा थोड़ी मोटी हुआ करती थी और इसी कारण मैं अक्सर उसे इसी नाम से चिढ़ाया करता था, जिसके बाद वो घंटों मुझसे बात नहीं करती थी। पर आज मेरे मुख से अपने लिए वही संबोधन सुन, उसके चेहरे पर गुस्से अथवा चिढ़ के स्थान पर एक खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने उसके सर पर एक बार हाथ फेरा और,
मैं : जन्मदिन की बहुत सारी बधाई। हमेशा खुश रहना...
इसके साथ ही मैंने अपनी जेब से एक छोटा सा तोहफे का डब्बा निकालकर उसके हाथ में रख दिया। उसकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी, एक बार फिर उसने मुझे गले लगा लिया पर इस बार मेरा ध्यान बाकी सब की तरफ भी था। मैंने स्नेहा को खुद से अलग करते हुए उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित किया और फिर उन सबकी तरफ बढ़ गया।
सबसे पहले मैं दादा जी के समक्ष जाकर खड़ा हो गया और उन्हें देखने लगा। इस आयु में भी उनकी आंखें ज्वलंत प्रतीत हो रही थी, एक तेज था उनकी आंखों में जो शायद खानदानी था। मैं झुका और घुटनों के बल बैठकर अपना सर उनके चरणों में रख दिया। मैं ऊपर नहीं देख रहा था पर मैं जानता था की शायद सभी मेरी इस गतिविधि से चकित हो गए होंगे। हालांकि, ये कोई नई बात नहीं थी, मैं अक्सर दादा जी को इसी तरह प्रणाम किया करता था, परंतु शायद इस समय उनमें से किसी को भी इसकी अपेक्षा नहीं होगी। शायद, उन सबकी मानसिकता यही रही होगी कि जो दंड दादाजी ने मुझे तीन बरस पहले दिया था, उसके कारण मैं उनसे नाराज़ होऊंगा। परंतु, ऐसा कुछ भी नहीं था। तभी मुझे एहसास हुआ की दादाजी ने हल्के से अपना हाथ मेरे सर पर रख दिया। शायद किसी की भी नजरों में आए बगैर।
फिर अगले ही पल उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए और ये देख कर मैं मुस्कुरा उठा। मैं अपने स्थान पर उठ खड़ा हुआ तो पाया की अब उनके चेहरे पर कठोरता उभर आई थी, उन्होंने पारखी नज़रों से मुझे देखा और,
दादाजी : विवान राजपूत.. तुम्हारा साहस कैसे हुआ यहां आने का। भूल गए हो कि हमारे हुक्म को ना मानने पर क्या होता है?
उन्होंने कड़क आवाज़ में कहा। अभी तक उनके पीछे – पीछे ही कुछ लोग भी मंदिर से बाहर निकल आए थे। ये सभी यशपुर और पास के गांवों के निवासी थे और सभी मुझे वहां देखकर चकित हो रहे थे। तीन साल पहले घटी उस घटना से वो सब भी अवगत थे। मैंने उन सभी को नजरंदाज करते हुए पुनः दादाजी की ओर देखा,
मैं : आपके हुक्म को मैंने कैसे तोड़ा आप बताएंगे, दादा साहब?
मुझे उनकी आंखों में आंखें डालकर बात करते देख जहां वो ग्रामवासी हतप्रभ रह गए वहीं मेरे द्वारा उन्हें दादाजी की जगह दादा साहब पुकारे जाने पर मैंने उनकी आंखों में दुख के भाव उठते देखे। ये वही संबोधन था जिससे ग्रामवासी दादाजी को पुकारा करते थे, परंतु मेरे मुख से अपने लिए दादाजी की जगह ये संबोधन सुन उनका दुखी होना जायज़ भी था। फिर एक बार अपने भावों को नियंत्रित करते हुए उन्होंने कहा,
दादाजी : भूल रहे हो क्या तुम, यशपुर से निष्कासित किया जा चुका है...
मैं : ये यशपुर नहीं है दादा साहब।
एक बार पुनः, उन ग्रामवासियों का मुंह खुला का खुला रह गया। रामेश्वर सिंह राजपूत की बात कोई काटेगा, ये उन लोगों ने अपने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा। पर यहां आज एक बार नहीं अपितु दो बार मैंने वो सीमा लांघ दी थी जो ग्रामवासी दादाजी से बात करते वक्त बनाए रखते थे। परंतु, ग्रामवासियों से अलग दादाजी के चेहरे पर कुछ और ही भाव थे। ना जाने क्यों मुझे प्रतीत हो रहा था की उन्हें मेरी बातों से तनिक भी बुरा नहीं लगा अपितु उनके भाव प्रशंसा के दिखाई पड़ रहे थे।
मैंने इसके पश्चात मां की तरफ रुख किया, उनकी आंखों से आंसुओं की एक अविरल धारा बह रही थी, जो मुझे अपने समक्ष देख, और भी तीव्र हो गई। सर्वप्रथम, उन्होंने मेरे चेहरे पर थप्पड़ों की बौछार कर दी और फिर अपने आप ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। मां का रूदन हर पल तेज़, और तेज़ होता जा रहा था, उस ममता की मूरत का दुख शायद वहां मौजूद सभी को द्रवित कर देने के लिए पर्याप्त था। “इतनी देर क्यों लगा दी तूने मेरे बच्चे.. क्यों लगा दी तूने इतनी देर"...
दुख.. दर्द.. संताप और शिकायत, सब कुछ था उनके शब्दों में जो उन्होंने मुझे अपने गले से लगाए हुए ही कहे थे। जाने कब तक वो उसी मुद्रा में खड़ी रहीं और लगातार अश्रु बहाती रहीं। यहां, एक और बात मैं मन ही मन तय कर चुका था की अब कभी भी मैं मां को दुखी नहीं होने दूंगा और यही कोशिश करूंगा की पापा को एहसास हो सके की उनकी मां के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी है जिसे वो कभी भी नहीं निभा पाए। शायद पापा ही मां का जीवन पुनः खुशियों से भर सकते थे।
कुछ देर बाद मां ने मुझे खुद से अलग किया और मेरे चेहरे पर चुंबनों की बौछार कर दी। पहले थप्पड़, और फिर प्रेम, मां की ममता को समझ पाना किसी के भी बूते की बात नहीं। मैंने स्वतः ही उन्हें गले लगा लिया और धीरे से कहा,
मैं : मां, शांत हो जाओ। मैं.. मैं वादा करता हूं की मैं वापिस ज़रूर आऊंगा आपके पास, हमेशा – हमेशा के लिए।
शायद उन्हें मेरे इसी आश्वासन की आवश्यकता थी। वो स्वयं ही मुझसे अलग हो गईं और एक बार फिर मेरे माथे को चूम लिया। इसके पश्चात मैं पापा की तरफ बढ़ा पर मुझे देखकर उन्होंने मुंह फेर लिया, मुझे इसी चीज़ की अपेक्षा थी इसीलिए मैंने भी बस उनके पांव छूकर अपना कर्तव्य निभा लिया। इधर उनसे कुछ पीछे खड़े चाचा – चाची की आंखों में भी आंसू थे, मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की चाची ने कभी भी मुझसे स्नेहा से कम स्नेह नहीं किया था। सदैव उन्होंने मुझे अपने ही बेटे की तरह दुलार किया और रही बात चाचू की तो वो मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे और शायद आज भी हैं। आज पुनः उन्हें अपने सामने देखकर मुझे बचपन के वही पल स्मरण हो आए, जो उनके सानिध्य में मैंने व्यतीत किए थे।
मैं उनकी ओर बढ़ा और बारी – बारी से दोनों के चरणों को छूकर उनका आशीष लिया। इधर मेरी नज़र स्नेहा पर भी पड़ गई जो मुझे अपने माता – पिता से मिलते देख खुश हो रही थी। तभी वहां खड़े एक शख्स की तरफ मेरा ध्यान गया जिसके भाव मुझे देख कर बाकी सबसे अलग थे। मैं मुस्कुराया और अपने बड़े भाई, विक्रांत की तरफ बढ़ गया। मुझे अपनी तरफ आता देखकर उनके चेहरे का रंग उड़ने लगा। मैं बिना कुछ कहे उनके गले लग गया और उनके कान में धीरे से बोला,
मैं : कैसे हो भईया? काम कैसा चल रहा है?
जैसे ही मैंने ये कहा, उन्होंने भी मुझे जोर से जकड़ लिया, मानों मुझे चोटिल करना चाहते हों, पर उनकी इस गतिविधि पर मैं मुस्कुरा पड़ा।
मैं : लगता है काफी गुस्से में हो। अच्छा है, आदत डाल लो...
उनके साथ खड़ी एक युवती पर भी मेरी नज़र पड़ गई थी, जोकि मुझे विस्मित नज़रों से देख रहीं थीं। मुझे समझते देर ना लगी की ये विक्रांत भईया की पत्नी ही थीं, परंतु अभी मैं कुछ और सोचता की मेरा मोबाइल बजने लगा और इसी की कबसे मुझे प्रतीक्षा थी। मेरा अंदेशा सही था, ये उसी का फोन था। मैंने एक बार सभी को तरफ देखा और फिर थोड़ी दूर आकर फोन उठा लिया,
मैं : बोल आरिफ...
आरिफ : भाईजान गड़बड़ हो गई है। अशफ़ाक ने प्लान बदल दिया है।
मैं ये सुनकर चौंक पड़ा,
मैं : मतलब!?
आरिफ : भाईजान अशफ़ाक के कहने पर मैं और मेरे साथ लगभग 30 आदमी उस पहाड़ी की तरफ निकल गए थे और अभी आधे रास्ते में उसका फोन आया की हमें आपके परिवार पर हमला नहीं करना है।
मैं : तू जल्दी से अशफ़ाक के पास पहुंच और पता करने की कोशिश कर की उसके दिमाग में क्या चल रहा है।
आरिफ : भाईजान मैं अभी यशपुर में हूं, मैं गांव से होकर पहाड़ियों की तरफ जा रहा था, मुझे वहां गोदाम पहुंचने में वक्त लगेगा।
मैंने आगे कुछ नहीं कहा और फोन काट दिया पर मेरे दिमाग में ये सब सुनकर हैरानी भर चुकी थी। आखिर कर क्या रहा था अशफ़ाक...
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विवान पहले से ही आरोही के सुरक्षा के लिए पत्ते बिछाये हुए था