• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Incest प्रेम बंधन

Status
Not open for further replies.

Sanju@

Well-Known Member
4,562
18,404
158
अध्याय – 8



आरोही अपने कमरे में बैठी थी, और हमेशा की तरह आज भी वो अपने बिस्तर के नज़दीक रखी विवान की तस्वीर को अपलक निहार रही थी। पर आज उसके भाव कुछ अलग थे,जहां हमेशा विवान की तस्वीर को देखते वक्त उसी आंखों में केवल पीड़ा ही होती थी, वहां आज पीड़ा के साथ – साथ जिज्ञासा भी दिखाई पड़ रही थी। जिज्ञासा इस बात को जानने की, क्या विवान सत्य में यशपुर लौटने वाला था? यदि हां, तो क्या वो केवल स्नेहा से मिलकर वापिस चला जाएगा या फिर हमेशा के लिए यहीं रह जाएगा? परंतु, सबसे बड़ा प्रश्न आरोही के मन में यही था की विवान के लौटने पर उसकी प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए?

वो समझ नहीं पा रही थी कि वो विवान से नाराज़ थी या नहीं। इस दुविधा का सबसे बड़ा कारण यही था की आज तक उसने कभी भी अपने मनोभाव किसी के संग बांटे नहीं थे। इन तीन सालों में उसकी व्यथा केवल उस तक ही सीमित थी, अगर उसने कभी किसी से अपनी बात कही होती तो शायद आज हालात बेहतर होते। परंतु, मुख्य बात ये थी की आरोही को एक असामान्य सी अनुभूति भी हो रही थी, एक नकारात्मक अनुभूति। उसे याद था जब कुछ सालों पहले उसने विवान के शरीर पर वो घाव देखा था, उससे एक दिन पहले भी आरोही को कुछ ऐसी ही अनुभूति हुई थी। अर्थात, जब विवान को वो घाव लगा था उस दिन प्रथम बार आरोही ने ऐसा महसूस किया था और आज फिर वही चीज़ उसे डरा रही थी।

इन सब बातों पर विचार करते हुए आरोही को बिलकुल भी आभास नहीं हुआ की कब एक महिला उसके कमरे में अंदर आ चुकी थी। वो औरत जब इस बार आरोही की तरफ बढ़ी तो आरोही का ध्यान भी उस पर चला गया, और अचानक ही वो चौंक गई।

आरोही : तुम.. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे कमरे में आने की!

आरोही को पसंद नहीं था की कोई उसके कमरे में आए, और इस बात से हवेली में रहने वाले सभी अवगत भी थे। सिवाय शुभ्रा के कोई भी आरोही के कमरे में नहीं जा सकता था, और एक – दो बार जब भी ऐसा हुआ तो आरोही की प्रतिक्रिया ने सबको मजबूर कर दिया की वो वापिस उसके कमरे में ना जाएं। परंतु, इसके बावजूद, वो औरत आरोही की बात सुनकर बिलकुल नहीं सकुचाई, बल्कि एक अजीब सी मुस्कान उसके होंठों पर आ गई। वो आरोही की तरफ बढ़ने को हुई तो आरोही भी अपने बिस्तर से उठ कर खड़ी हो गई और उसे क्रोधपूर्ण आंखों से घूरने लगी।

जैसे ही आरोही पुनः उसे कुछ कहने को हुई उसका मुंह हैरानी से खुल गया और ज़बान बंद हो गई। कारण, उस औरत ने सहसा ही आरोही पर बंदूक तान दी थी। वो अपनी साड़ी में ही बंदूक छिपा कर लाई थी और इस बात की आरोही को बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी। परंतु, फिर भी अपने भय को ज़ब्त करते हुए, आरोही ने कहा,

आरोही : रेशमा, तुम्हें पता है ना इसका अंजाम क्या होगा!

प्रथम बार वो औरत यानी रेशमा बोली,

रेशमा : तू अपने अंजाम की चिंता कर, मेरी नहीं।

उसका तीखा स्वर सुनकर आरोही की हैरानी और भी बढ़ गई। उनकी हवेली में दो साल से नौकरानी बनकर काम कर रही ये औरत, जिसने आज तक हवेली के किसी सदस्य से आंख उठाकर बात करने की हिम्मत तक नहीं की थी, वो आज उससे इस लहज़े में बात कर रही थी। आरोही को किसी षड्यंत्र का आभास हो गया था, पर उसे अभी भी रेशमा का मंतव्य समझ नहीं आ रहा था। यदि वो उसे मारना ही चाहती तो कब का मार देती, यूं बंदूक तान कर खड़े रहने का क्या तात्पर्य था?

अचानक से आरोही को बाहर से कुछ शोर सुनाई दिया, वो इस स्वर को पहचान गई थी। ये कुछ और नहीं बल्कि गोलीबारी का शोर था। आरोही के हाथ कांपने लगे थे और इधर उसकी हालत देखकर रेशमा की मुस्कुराहट तीक्ष्ण हो चुकी थी। आरोही जानती थी की वो फंस चुकी है पर फिर भी हिम्मत कर वो खिड़की की तरफ भागने को हुई, दूसरी मंज़िल से कूदना मूर्खता ही होती परंतु आरोही के पास यही एक उपाय बचा था। लेकिन जैसे ही वो खिड़की से कूदने को हुई एक तेज़ दर्द का एहसास उसे अपने सर के पीछे हुआ, और उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।

जिस खिड़की से वो कूदने वाली थी, वो उसी के नज़दीक मूर्छित पड़ी थी, और उसे देख कर रेशमा और रेशमा के साथ, हाथ में एक रॉड लिए खड़ा व्यक्ति, अट्टहास करने लगे।


“भईया"...

मैं मंदिर के बाहर एक पेड़ के नज़दीक ही हाथ बांधे खड़ा था, अभी तक मैंने मंदिर के प्रांगण में कदम नहीं रखा था और शायद मैं रखने भी नहीं वाला था। जैसा मैंने पहले ही बताया था की भगवान और मेरे बीच फिलहाल काफी दूरियां बनी हुई थीं। मैं शुरू से ही नास्तिक प्रवृत्ति का नहीं था, हां मेरी कभी भी अगाध श्रद्धा नहीं रही थी भगवान में, परंतु बचपन में कई बार मैं इस मंदिर में अपने परिवार के साथ पूजा – अर्चना हेतु आ चुका था। परंतु, पिछले कुछ वर्षों से वो सिलसिला बिलकुल टूट सा गया था, और मैं एक अव्वल दर्जे के नास्तिक में परिवर्तित हो गया था।

खैर, मैं वहीं खड़ा था और मेरे हृदय में एक हलचल सी मची हुई थी। जब आरोही मंदिर से बाहर आएगी और मुझे यहां खड़ा देखेगी, तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? बस यही प्रश्न मेरे भीतर चल रहा था, मैं जानता था की वो अवश्य मुझसे नाराज़ होगी, शायद कुछ दिन मुझसे बात भी ना करे, परंतु मैं ये भी जानता था कि उसका प्रेम मेरे प्रति अटूट था, और किसी भी हालत में वो अधिक समय तक मुझसे नाराज़ नहीं रह सकती थी। इधर, वो सभी अंगरक्षक, मेरे आस – पास ही खड़े थे और विस्मित नज़रों से मुझे देखते हुए आपस में ही धीरे – धीरे बातें करने में लगे थे। तभी, मुझे प्रतीत हुआ जैसे मंदिर से कोई बाहर आ रहा हो, और मेरी नजरें उसी ओर मुड़ गईं।

मेरा अंदेशा उचित ही था, जैसे ही मैंने उस ओर देखा, सर्वप्रथम वहां से दादा जी ही निकल रहे थे। उनके चेहरे पर वही तेज और कठोरता थी जिसके लिए वो जाने जाते थे पर उन्हे देखकर मैं थोड़ा हैरान भी हो गया। कारण यही था कि उनके उनके कंधे मुझे झुके – झुके से लग रहे थे, जैसे किसी हारे हुए व्यक्ति के हों। ये बात रामेश्वर सिंह राजपूत के व्यक्तित्व से बिलकुल मेल नहीं खाती थी। मैं ये भी जानता था कि इसका कारण वही फैसला था जो वो कभी नहीं लेना चाहते थे, परंतु अपने कर्तव्य से बाध्य होकर उन्हें वो फैसला सुनाना पड़ा।

दादाजी के संग ही दादी भी मंदिर से बाहर आ रहीं थीं। उनकी भाव – भंगिमाएं भी दादाजी जैसी ही थीं। उनके पीछे – पीछे परिवार के बाकी सदस्य भी चले आ रहे थे और सर्वप्रथम मेरा ध्यान मां की तरफ गया। मां ने हमेशा की ही तरह हरे रंग की साड़ी पहनी हुई थी, बचपन में जब भी वो इस मंदिर में आती थीं तो हमेशा हरे रंग की साड़ी ही पहनती थीं, इसका कारण तो मैं आज तक नहीं जान पाया था परंतु उन्हें देखकर मुझे असीम खुशी की अनुभूति अवश्य हुई। मां की हालत भी ठीक नहीं थी, या कहूं की बहुत ही खराब थी। बचपन से लेकर तीन वर्ष पूर्व तक, हर पल मैंने उन्हें संघर्ष ही करते देखा था।

उत्तराखंड के सबसे रईस और विख्यात परिवार की बहू होने के बावजूद उन्हें मैंने कभी भी प्रसन्न नहीं देखा। पापा को मैंने हमेशा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जिसके लिए अपना काम और व्यापार ही सब कुछ था, मुझे ठीक से याद भी नहीं पड़ता की अंतिम बार कब वो सारे परिवार के साथ किसी त्योहार में समिल्लित हुए थे। मैंने करवाचौथ पर हर बार, मां को उदास बैठे देखा था, जब चाची और दादी अपना व्रत खोल लिया करतीं थीं तब मां अपने पति के आने की राह देखती रह जाती थीं। क्या जीवन था उनका! सदैव एक प्रश्न मेरे मन में उठता की मां के जीवन में खुशियां कब आएंगी।

ऐसे में, मैं और आरोही ही थे जिनकी मौजूदगी में मां के चेहरे पर एक सच्ची मुस्कान हुआ करती थी। परंतु, इन तीन वर्षों में जब मैं उनसे दूर था और मेरे वियोग में तड़पती आरोही, उनके पास होते हुए भी दूर थी... सहसा ये विचार मेरे मन में आया और मेरी आंखें नम हो गई। कितना कुछ सहा होगा इन तीन वर्षों में उन्होंने। अभी मैं कुछ और सोचता की एक तेज़ स्वर मेरे कानों में पड़ा, स्नेहा.. उसी ने मुझे पुकारा था।

उन सबमें से सर्वप्रथम स्नेहा की ही नज़रें मुझ पर पड़ीं और इसका ही नतीजा था उसका वो उल्लास और विस्मय से भरा स्वर। मैंने उसकी और देखा तो मेरे होंठों पर एक मुस्कान उभर आई। तीन वर्ष बाद देखा था मैंने उसे, उसने एक आसमानी रंग की सलवार – कमीज़ पहनी हुई थी जिसमें उसका वो मासूम सा चेहरा और भी प्यारा लग रहा था। स्नेहा के द्वारा मुझे पुकारे जाने पर सभी का ध्यान उसकी तरफ चला गया, और जब उन सबने स्नेहा की नज़रों का पीछा किया तो वहां मौजूद, लगभग सभी के कदम डगमगा गए।

परंतु, उन सबसे अलग स्नेहा, बिना एक पल की भी देरी किए दौड़कर आई और मुझसे लिपट गई। उसकी आंखों से एक तीव्र अश्रुधारा बह निकली थी, उसके साथ ही, मुझ पर हर पल मज़बूत होती उसकी पकड़, ये दोनों ही उसके प्रेम और दुख का सबूत दे रही थी। जाने कितनी देर तक वो मेरे सीने से लगी आंसू बहाती रही और फिर मुझसे थोड़ा दूर होकर मुझे देखने लगी। एक अनजानी सी मुस्कान उसके होंठों पर उभर आई, और पुनः वो मेरे गले से लग गई। “बड़ी हो गई है मेरी छोटी सी गुड़िया तो", मैंने उसके कान में कहा तो रूदन के मध्य ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट सज गई।

स्नेहा : और आप पहले से भी अच्छे दिखने लगे हो।

मैं : अपने ही भाई को छेड़ रही है मोटी।

मजाकिया अंदाज़ में कहा मैंने जिसपर स्नेहा पुनः मुझसे अलग होकर मेरी ओर देखने लगी। बचपन में स्नेहा थोड़ी मोटी हुआ करती थी और इसी कारण मैं अक्सर उसे इसी नाम से चिढ़ाया करता था, जिसके बाद वो घंटों मुझसे बात नहीं करती थी। पर आज मेरे मुख से अपने लिए वही संबोधन सुन, उसके चेहरे पर गुस्से अथवा चिढ़ के स्थान पर एक खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने उसके सर पर एक बार हाथ फेरा और,

मैं : जन्मदिन की बहुत सारी बधाई। हमेशा खुश रहना...

इसके साथ ही मैंने अपनी जेब से एक छोटा सा तोहफे का डब्बा निकालकर उसके हाथ में रख दिया। उसकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी, एक बार फिर उसने मुझे गले लगा लिया पर इस बार मेरा ध्यान बाकी सब की तरफ भी था। मैंने स्नेहा को खुद से अलग करते हुए उसके माथे पर एक चुम्बन अंकित किया और फिर उन सबकी तरफ बढ़ गया।

सबसे पहले मैं दादा जी के समक्ष जाकर खड़ा हो गया और उन्हें देखने लगा। इस आयु में भी उनकी आंखें ज्वलंत प्रतीत हो रही थी, एक तेज था उनकी आंखों में जो शायद खानदानी था। मैं झुका और घुटनों के बल बैठकर अपना सर उनके चरणों में रख दिया। मैं ऊपर नहीं देख रहा था पर मैं जानता था की शायद सभी मेरी इस गतिविधि से चकित हो गए होंगे। हालांकि, ये कोई नई बात नहीं थी, मैं अक्सर दादा जी को इसी तरह प्रणाम किया करता था, परंतु शायद इस समय उनमें से किसी को भी इसकी अपेक्षा नहीं होगी। शायद, उन सबकी मानसिकता यही रही होगी कि जो दंड दादाजी ने मुझे तीन बरस पहले दिया था, उसके कारण मैं उनसे नाराज़ होऊंगा। परंतु, ऐसा कुछ भी नहीं था। तभी मुझे एहसास हुआ की दादाजी ने हल्के से अपना हाथ मेरे सर पर रख दिया। शायद किसी की भी नजरों में आए बगैर।

फिर अगले ही पल उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए और ये देख कर मैं मुस्कुरा उठा। मैं अपने स्थान पर उठ खड़ा हुआ तो पाया की अब उनके चेहरे पर कठोरता उभर आई थी, उन्होंने पारखी नज़रों से मुझे देखा और,

दादाजी : विवान राजपूत.. तुम्हारा साहस कैसे हुआ यहां आने का। भूल गए हो कि हमारे हुक्म को ना मानने पर क्या होता है?

उन्होंने कड़क आवाज़ में कहा। अभी तक उनके पीछे – पीछे ही कुछ लोग भी मंदिर से बाहर निकल आए थे। ये सभी यशपुर और पास के गांवों के निवासी थे और सभी मुझे वहां देखकर चकित हो रहे थे। तीन साल पहले घटी उस घटना से वो सब भी अवगत थे। मैंने उन सभी को नजरंदाज करते हुए पुनः दादाजी की ओर देखा,

मैं : आपके हुक्म को मैंने कैसे तोड़ा आप बताएंगे, दादा साहब?

मुझे उनकी आंखों में आंखें डालकर बात करते देख जहां वो ग्रामवासी हतप्रभ रह गए वहीं मेरे द्वारा उन्हें दादाजी की जगह दादा साहब पुकारे जाने पर मैंने उनकी आंखों में दुख के भाव उठते देखे। ये वही संबोधन था जिससे ग्रामवासी दादाजी को पुकारा करते थे, परंतु मेरे मुख से अपने लिए दादाजी की जगह ये संबोधन सुन उनका दुखी होना जायज़ भी था। फिर एक बार अपने भावों को नियंत्रित करते हुए उन्होंने कहा,

दादाजी : भूल रहे हो क्या तुम, यशपुर से निष्कासित किया जा चुका है...

मैं : ये यशपुर नहीं है दादा साहब।

एक बार पुनः, उन ग्रामवासियों का मुंह खुला का खुला रह गया। रामेश्वर सिंह राजपूत की बात कोई काटेगा, ये उन लोगों ने अपने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा। पर यहां आज एक बार नहीं अपितु दो बार मैंने वो सीमा लांघ दी थी जो ग्रामवासी दादाजी से बात करते वक्त बनाए रखते थे। परंतु, ग्रामवासियों से अलग दादाजी के चेहरे पर कुछ और ही भाव थे। ना जाने क्यों मुझे प्रतीत हो रहा था की उन्हें मेरी बातों से तनिक भी बुरा नहीं लगा अपितु उनके भाव प्रशंसा के दिखाई पड़ रहे थे।

मैंने इसके पश्चात मां की तरफ रुख किया, उनकी आंखों से आंसुओं की एक अविरल धारा बह रही थी, जो मुझे अपने समक्ष देख, और भी तीव्र हो गई। सर्वप्रथम, उन्होंने मेरे चेहरे पर थप्पड़ों की बौछार कर दी और फिर अपने आप ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। मां का रूदन हर पल तेज़, और तेज़ होता जा रहा था, उस ममता की मूरत का दुख शायद वहां मौजूद सभी को द्रवित कर देने के लिए पर्याप्त था। “इतनी देर क्यों लगा दी तूने मेरे बच्चे.. क्यों लगा दी तूने इतनी देर"...

दुख.. दर्द.. संताप और शिकायत, सब कुछ था उनके शब्दों में जो उन्होंने मुझे अपने गले से लगाए हुए ही कहे थे। जाने कब तक वो उसी मुद्रा में खड़ी रहीं और लगातार अश्रु बहाती रहीं। यहां, एक और बात मैं मन ही मन तय कर चुका था की अब कभी भी मैं मां को दुखी नहीं होने दूंगा और यही कोशिश करूंगा की पापा को एहसास हो सके की उनकी मां के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी है जिसे वो कभी भी नहीं निभा पाए। शायद पापा ही मां का जीवन पुनः खुशियों से भर सकते थे।

कुछ देर बाद मां ने मुझे खुद से अलग किया और मेरे चेहरे पर चुंबनों की बौछार कर दी। पहले थप्पड़, और फिर प्रेम, मां की ममता को समझ पाना किसी के भी बूते की बात नहीं। मैंने स्वतः ही उन्हें गले लगा लिया और धीरे से कहा,

मैं : मां, शांत हो जाओ। मैं.. मैं वादा करता हूं की मैं वापिस ज़रूर आऊंगा आपके पास, हमेशा – हमेशा के लिए।

शायद उन्हें मेरे इसी आश्वासन की आवश्यकता थी। वो स्वयं ही मुझसे अलग हो गईं और एक बार फिर मेरे माथे को चूम लिया। इसके पश्चात मैं पापा की तरफ बढ़ा पर मुझे देखकर उन्होंने मुंह फेर लिया, मुझे इसी चीज़ की अपेक्षा थी इसीलिए मैंने भी बस उनके पांव छूकर अपना कर्तव्य निभा लिया। इधर उनसे कुछ पीछे खड़े चाचा – चाची की आंखों में भी आंसू थे, मुझे इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की चाची ने कभी भी मुझसे स्नेहा से कम स्नेह नहीं किया था। सदैव उन्होंने मुझे अपने ही बेटे की तरह दुलार किया और रही बात चाचू की तो वो मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे और शायद आज भी हैं। आज पुनः उन्हें अपने सामने देखकर मुझे बचपन के वही पल स्मरण हो आए, जो उनके सानिध्य में मैंने व्यतीत किए थे।

मैं उनकी ओर बढ़ा और बारी – बारी से दोनों के चरणों को छूकर उनका आशीष लिया। इधर मेरी नज़र स्नेहा पर भी पड़ गई जो मुझे अपने माता – पिता से मिलते देख खुश हो रही थी। तभी वहां खड़े एक शख्स की तरफ मेरा ध्यान गया जिसके भाव मुझे देख कर बाकी सबसे अलग थे। मैं मुस्कुराया और अपने बड़े भाई, विक्रांत की तरफ बढ़ गया। मुझे अपनी तरफ आता देखकर उनके चेहरे का रंग उड़ने लगा। मैं बिना कुछ कहे उनके गले लग गया और उनके कान में धीरे से बोला,

मैं : कैसे हो भईया? काम कैसा चल रहा है?

जैसे ही मैंने ये कहा, उन्होंने भी मुझे जोर से जकड़ लिया, मानों मुझे चोटिल करना चाहते हों, पर उनकी इस गतिविधि पर मैं मुस्कुरा पड़ा।

मैं : लगता है काफी गुस्से में हो। अच्छा है, आदत डाल लो...

उनके साथ खड़ी एक युवती पर भी मेरी नज़र पड़ गई थी, जोकि मुझे विस्मित नज़रों से देख रहीं थीं। मुझे समझते देर ना लगी की ये विक्रांत भईया की पत्नी ही थीं, परंतु अभी मैं कुछ और सोचता की मेरा मोबाइल बजने लगा और इसी की कबसे मुझे प्रतीक्षा थी। मेरा अंदेशा सही था, ये उसी का फोन था। मैंने एक बार सभी को तरफ देखा और फिर थोड़ी दूर आकर फोन उठा लिया,

मैं : बोल आरिफ...

आरिफ : भाईजान गड़बड़ हो गई है। अशफ़ाक ने प्लान बदल दिया है।

मैं ये सुनकर चौंक पड़ा,

मैं : मतलब!?

आरिफ : भाईजान अशफ़ाक के कहने पर मैं और मेरे साथ लगभग 30 आदमी उस पहाड़ी की तरफ निकल गए थे और अभी आधे रास्ते में उसका फोन आया की हमें आपके परिवार पर हमला नहीं करना है।

मैं : तू जल्दी से अशफ़ाक के पास पहुंच और पता करने की कोशिश कर की उसके दिमाग में क्या चल रहा है।

आरिफ : भाईजान मैं अभी यशपुर में हूं, मैं गांव से होकर पहाड़ियों की तरफ जा रहा था, मुझे वहां गोदाम पहुंचने में वक्त लगेगा।

मैंने आगे कुछ नहीं कहा और फोन काट दिया पर मेरे दिमाग में ये सब सुनकर हैरानी भर चुकी थी। आखिर कर क्या रहा था अशफ़ाक...


X––––––––––X
अध्याय – 9



आरिफ से बात करने के बाद मेरे चेहरे का रंग पूरी तरह उड़ चुका था। मुझे हल्की सी भी भनक तक नहीं थी की अशफ़ाक आखिरी वक्त पर अपनी योजना में तब्दीली कर देगा, परंतु जिस बात को लेकर मैं परेशान था वो ये की अब उसकी योजना क्या होने वाली थी। आरिफ से कुछ खबर मिलने तक का मैं इंतज़ार नहीं कर सकता था। सहसा मेरा दिल ज़ोर से धड़क पड़ा और मुझे एहसास हुआ कि आरोही यहां उपस्थित नहीं थी और इधर अशफ़ाक का अपनी योजना में तब्दीली करना.. मैं अगले ही पल पलटा और स्नेहा की ओर देखते हुए बोला,

मैं : आरोही कहां है?

मेरे स्वर में आया बदलाव स्नेहा जान गई थी और उसने उत्तर दिया,

स्नेहा : घर पर। उन्होंने आने से मना कर दिया था।

स्नेहा का जवाब सुनकर मुझे अपनी धड़कन शिथिल सी होती महसूस हुई, मानो कोई मेरी सांसों को जकड़ रहा हो। परंतु, अभी मेरे पास वक्त बहुत ही कम था इसीलिए मैं बिना कुछ कहे, अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ा और अगले ही पल मेरी गाड़ी वापिस सड़क पर दौड़ने लगी थी। वहां मौजूद सबकी प्रतिक्रिया क्या थी मेरी इस हरकत पर मैं नहीं जानता था और इस वक्त मुझे उस बात से कोई फर्क भी नहीं पद रहा था। मैं बस तेज़ रफ्तार से गाड़ी चलाता हुआ आरोही की तरफ बढ़ रहा था। हर बीतता पल मुझे और भी विचलित कर रहा था परंतु मैं जानता था की मुझे किसी भी हालत में जल्द से जल्द वहां पहुंचना ही था।

लगभग 20 मिनट तक पूरी रफ्तार से गाड़ी चलाने के बाद मैं उस स्थान के निकट पहुंच गया था जहां मुझे जान था। मेरा मोबाइल लगातार बज रहा था, और मैं जानता था की ये आरिफ ही होगा परंतु अभी के लिए मेरा ध्यान केवल आरोही पर ही केंद्रित था। कुछ ही देर में मुझे वो गोदाम नज़र आने लगा जहां का पता आरिफ ने मुझे दिया था। वही गोदाम जो पिछले कुछ वक्त से अशफ़ाक का ठिकाना था। मैंने पास ही गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया। यहां से लगभग 500 – 600 मीटर की दूरी पर वो गोदाम था। मैंने मोबाइल निकाला तो पाया की वो अभी भी बज ही रहा था। मैंने उठाकर उसे कान से लगाया और आरिफ के कुछ कहने से पहले ही,

मैं : मैं पहुंच चुका हूं। बता कहां से से अंदर जा सकता हूं मैं।

आरिफ एक पल को चुप हो गया। मैं समझ गया था की मेरे यहां पहुंचने की बात पर वो भौंचक्का रह गया होगा पर फिर,

आरिफ : गोदाम के पीछे एक पेड़ है, अगर आप उस पर चढ़ सको, तो आप गोदाम की दूसरी मंज़िल तक पहुंच सकते हो। लेकिन पीछे की तरफ ध्यान से जाना...

मैंने उसकी बात सुने बिना ही फोन काट दिया और मोबाइल वापिस अपनी जेब में डालकर पीछे की तरफ चल दिया। ये गोदाम यशपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर था, और आस – पास दलदल और चिकनी मिट्टी की मौजूदगी के कारण, कम ही कोई यहां आता था। इसीलिए अशफ़ाक जैसे इंसान के लिए इससे बेहतर जगह कोई और नहीं हो सकती थी। गोदाम में जाने का केवल एक ही रास्ता था, जोकि सामने की तरफ था, और वहां काफी आदमी तैनात रहते थे। साफ शब्दों में कहूं तो सीधे रास्ते से अगर मैं जाता तो किसी भी कीमत पर बिना किसी की नज़रों में आए अंदर जाना असंभव था। इसीलिए मुझे पीछे के रास्ते से जाना था, जहां एक नई परेशानी मेरा इंतज़ार कर रही थी।

मैं जैसे ही घूमकर गोदाम के पिछली तरफ पहुंचा तो पाया की वहां मिट्टी काफी चिकनी थी और संभाल कर चलने के बावजूद मेरे पांव उसमें धंस रहे थे। वो पेड़, जिसका ज़िक्र आरिफ ने किया था, वो मुझसे कुछ 40 – 50 कदमों की दूरी पर था, परंतु ये रास्ता भी काफी लंबा दिखाई पड़ रहा था। अभी मैं दो ही कदम आगे बढ़ा था की मिट्टी का खिंचाव अपने पैरों पर मुझे अधिक महसूस हुआ, मुझे समझते देर न लगी की ये कीचड़ नहीं बल्कि दलदल थी। मैं पूरी कोशिश कर रहा था की उससे निकल पाऊं पर जितना प्रयास मैं बाहर निकलने का करता उतना ही खिंचाव नीचे की तरफ से बढ़ता जा रहा था।

घुटनों तक उस दलदल में धंसने के बाद जब कोई भी बाहर जाने की तरकीब मुझे नहीं सूझ रही थी तभी मुझे अनुभूति हुई जैसे आरोही किसी दर्द में है। ये अनुभूति व्यर्थ ही नहीं थी, जुड़वा होने के कारण, बचपन से हम दोनों को एक – दूसरे के दर्द – तकलीफ अथवा खुशी का एहसास दूर से ही हो जाया करता था। सहसा, मुझमें जैसे एक नई जान सी आ गई। मैंने आस – पास नज़र डाली तो पाया की मुझसे कुछ दूर ही गोदाम की दीवार थी जिसकी ऊंचाई लगभग 5 फीट थी। मैंने अपनी पूरी शक्ति को अपनी टांगों की और केंद्रित किया और उस तरफ बढ़ने का प्रयास करने लगा।

इसमें मुझे कामयाबी भी मिली परंतु जितना मैं दीवार की तरफ बढ़ता, उतनी ही तेज़ी से मैं नीचे धंसता जा रहा था। जब मेरी दूरी दीवार से केवल एक हाथ की ही रह गई तब मैं कमर तक दलदल में धंसा हुआ था, पर इस बात को नजरंदाज करते हुए मैंने दीवार पर अपने हाथ टिका दिए। दीवार पांच फीट की थी और इस बात का लाभ मुझे मिला, मैंने अपने दोनों हाथों से दीवार के ऊपरी हिस्से पर दबाव बढ़ाया और खुद का शरीर दलदल से बाहर खींचने का प्रयास करने लगा। मेरी बाजुओं में जितनी भी शक्ति थी, सारी लगा देने के बाद मुझे सफलता प्राप्त होने लगी और मैं बाहर की तरफ निकलने लगा। लगभग 2 मिनट तक लगातार इसी क्रम को जारी रखने के बाद मैं दीवार पर लटका हुआ था। हल्के से प्रयास के बाद मैं दीवार के ऊपर ही बैठ गया।

मेरी श्वास फूल चुकी थी और शरीर में थकान महसूस होने लगी थी परंतु आरोही के खतरे में होने की बात मुझे ना रुकने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी। मैंने थकान को नजरंदाज किया और दीवार के ऊपर चलते हुए पेड़ के करीब पहुंच गया। दीवार से एक हल्की सी कूद लगाने के बाद मैं पेड़ की डाली पर लटका हुआ था। पेड़ से कई शाखाएं निकलकर फैली हुई थीं, इसलिए उसपर चढ़ना मेरे लिए आसान ही था। कुछ ही पलों बाद मैं पेड़ के ऊपर था, और सामने गोदाम की दूसरी मंजिल थी। पेड़ की एक शाखा उसकी खिड़की के नज़दीक से गुजरती थी, और ये उम्मीद करते हुए की वो शाखा मज़बूत हो, मैं उसके ऊपर से जाने लगा।

किस्मत से वो शाखा काफी मज़बूत थी और मुझे खिड़की के नज़दीक पहुंचने में कोई परेशानी नहीं हुई। मैंने खिड़की के बाएं पल्ले को हल्का सा धक्का दिया तो वो खुल गया। सही ही था, किसी को कहां उम्मीद होगी की कोई यहां से भी गोदाम में घुस सकता था। मैंने खिड़की के दाएं पल्ले को पकड़ा और पेड़ से हटकर खिड़की पर पहुंच गया। खिड़की के अंदर झांकने पर मैंने पाया की वहां फिलहाल कोई भी नहीं था। यही मौका था मेरे पास अंदर कूदने का और मैंने किया भी वही। मैं अंदर पहुंचकर कुछ पल शांत हो गया और कोई आस – पास है या नहीं, उसकी आहट सुनने का प्रयास करने लगा।

अब तक मेरी श्वास भी सामान्य हो चुकी थी और मुझे ये भी अंदाज़ा हो गया था की शायद यहां नज़दीक तो कोई भी नहीं था। बाईं तरफ आगे जाकर एक खिड़की थी और वहीं पर वो रास्ता समाप्त हो जाता था, साफ था की मुझे दाईं ओर जाना था। मैं दबे पांव उस तरफ बढ़ रहा था और तभी मुझे एक आदमी वहां खड़ा दिखाई दिया। दाईं और थोड़ा आगे जाने के बाद एक मोड़ था, और ये आदमी वहीं दीवार से टेक लगाकर खड़ा था, उसके हाथों में शायद तंबाकू था, जिसे वो रगड़ने में व्यस्त था। मैंने उसे तनिक भी भनक नहीं लगने दी और उसके पीछे से ही उसकी गर्दन को हल्के हाथों से पकड़ कर मोड़ दिया।

उसका मुंह खुला का खुला रह गया, और वो दुनिया छोड़ कर ऊपर निकल चुका था। मैंने उसे घसीटकर वहीं राहदारी में ही छोड़ दिया ताकि किसी की उस पर नज़र ना पड़े। जिस मोड़ पर वो खड़ा था वहां से सीढियां थीं, जोकि नीचे की तरफ जाती थी। मैं दबे पांव सीढ़ियों से उतरने लगा तो पाया की जैसी ही सीढियां नीचे की तरफ मुड़ती, वहीं पर दो और आदमी मौजूद थे और वो पूरी तरह मुस्तैद भी थे। मैंने अपनी जेब से मेरी गाड़ी की चाबी निकालकर ऊपर राहदारी में फेंक दी। जिसकी आवाज़ से वो दोनों ही हरकत में आ गए, उनमें से एक बोला, “कालू, क्या कर रहा है बे"!

शायद ऊपर जिसे मैंने मारा था उसका नाम कालू रहा होगा। पर जब उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला, तो दोनों ने एक – दूसरे की तरफ देखा और उनमें से एक ऊपर आने लगा। मैं भी वापिस पीछे हो गया और राहदारी में पहुंचकर दीवार से लगकर खड़ा हो गया। सीढियां चढ़कर ऊपर आने पर दीवार के इस तरफ यदि कोई मौजूद हो तो दिखाई नहीं देने वाला था क्योंकि दीवार एक – डेढ़ फीट आगे की तरफ बनी हुई थी। जैसे ही मुझे उस आदमी के कदमों की आहट आने लगी, मैं सतर्क हो गया।

अगले ही पल,जैसे ही वो ऊपर वाली सीढ़ी से आगे बढ़ा और मुझे उसका साया नज़र आया, मैं उस पर झपट पड़ा। मैंने सर्वप्रथम उसके मुंह को अपने हाथ से बंद किया और फिर उसकी गर्दन की एक नब्ज़ अपने दूसरे हाथ से दबा दी। नतीजतन, कुछ ही पलों में वो मूर्छित होकर लुढ़क गया। पर इसके बाद मैं उसकी गर्दन तोड़नी नहीं भूला, एक को भी जीवित छोड़ना बाद में मुझे परेशानी में डाल सकता था। मैंने उसकी जेब से नीचे गिरा चाकू उठा लिया पर तभी, मुझे फिर से कदमों की आहट सुनाई दी, लेकिन इस बार देर हो चुकी थी, मैं मुड़ा तो मुझसे दो – तीन फीट दूर, चौथी सीढ़ी पर वो दूसरा आदमी खड़ा था। वो शायद चिल्लाकर किसी और को भी पुकारने वाला था की तभी मैंने उसकी गर्दन पर उस चाकू का निशाना लगा दिया।

निशाना सटीक था, और अगले ही पल वो नीचे पड़ा तड़प रहा था। इसे मारकर मुझे एक और लाभ मिल गया और वो थी इसके पास मौजूद पिस्तौल जिसमें रवशामक (साइलेंसर) भी लगा हुआ था। मेरे लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता था। मैंने गाड़ी की चाबी और पिस्तौल उठाई और बिना वक्त गंवाए नीचे की तरफ बढ़ गया। सीढ़ियों के अंतिम छोर पर पहुंचकर मैंने देखा की नीचे एक बहुत बड़ी खाली जगह थी, जिसमें एक कमरे के बाहर मौजूद कई सारे आदमियों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। मैं समझ गया की अशफ़ाक इसी कमरे में होगा।

मैंने अगले ही पल बंदूक पर अपनी पकड़ मज़बूत की और एक के बाद एक सात गोलियां उस पिस्तौल से चलीं। मेरा निशाना इस बार भी बिलकुल सटीक था। वो सातों आदमी, अगले हो पल ज़मीन पर पड़े थे। हालांकि, एक साथ सात गोलियां नहीं चल सकती, ये ज़ाहिर सी बात है। परंतु, जब एक – एक कर वो आदमी गिरने लगे, तब उनके बाकी साथी बिलकुल हतप्रभ रह गए। ये हमला अचानक हुआ था, उन्हें बिलकुल उम्मीद नहीं थी की यहां उन पर हमला हो जाएगा, इसके साथ ही बंदूक में रवशामक लगे होने के कारण वो गोलियों की दिशा का भी अंदाज़ा नहीं लगा सके। बस, इतना वक्त काफी था मेरे लिए और उनके लिए भी।


“म.. मैं कहां"...

आरोही ने धीरे – धीरे अपनी आंखें खोली तो उसे अपने सर के पीछे तेज़ पीड़ा का अनुभव हुआ जिस कारण उसने ज़ोर से अपनी आंखें भींच ली। वो अपना हाथ उठाकर सर को सहलाना चाहती थी पर जब उसने अपने हाथ को हिलाने का प्रयास किया तो वो असफल रही। दो – तीन विफल प्रयासों के बाद उसने पुनः अपनी आंखें खोली और उस धुंधलेपन के मध्य वो इतना समझ गई की वो एक कुर्सी पर थी और उसके दोनों हाथ और पैर उस कुर्सी से बंधे हुए थे। सर पर महसूस होती उस पीड़ा के मध्य आरोही की आंखों के आगे का वो धुंधलापन धीरे – धीरे छंटने लगा और स्वतः ही टूटी सी आवाज़ में उसके मुख से वो शब्द निकले।

कुछ पलों बाद आरोही पूरी तरह होश में आई तो उसने पाया की उसके हाथों पर खून के धब्बे थे और उसके कपड़े भी कुछ जगहों से लाल हो चुके थे। उसे बहुत ज़्यादा कमज़ोरी का अनुभव हो रहा था और साथ ही किसी अनिष्ट की आशंका भी। उसने आस – पास नजर घुमाई तो पाया की वो एक पुराने से कमरे में थी जिसमें कुछ गत्ते के डब्बे रखे हुए थे जिनमें से सीलन की दुर्गंध आ रही थी। कमरा कुछ दस फीट ऊंचा था और ऊपरी छोर पर एक छोटा सा रोशनदान लगा था जिसमें से सूर्य की रोशनी छन कर कमरे में फैल रही थी। उसके अतिरिक्त कोई भी रोशनी का स्त्रोत कमरे में नहीं था।

आरोही समझ गई थी की उसका अपहरण हो चुका है पर असल में उसके साथ हुआ क्या था, ये उसे याद नहीं आ रहा था। उसने अपने दिमाग पर ज़ोर डाला और आज सुबह से उसके साथ क्या – क्या हुआ, उसके बारे में सोचने लगी। कुछ ही पलों बाद झटके से उसकी आंखें खुल गई और वो खुद से ही बोली, “इस.. इसका मतलब रेशमा ने मेरा अपहरण किया है"...

तभी उसे किसी के वहां आने का स्वर सुनाई दिया। उसकी नज़रें उस स्वर के स्त्रोत की ओर मुड़ी और उसका अंदेशा सत्य में परिवर्तित हो गया। वहां कमरे के दरवाज़े पर कुछ आदमी मौजूद थे और उन्हीं के साथ एक तीस – पैंतीस वर्ष की औरत भी थी, ये कोई और नहीं बल्कि वही रेशमा थी जिसके बारे में आरोही सोच रही थी। वो सभी आरोही के प्रश्नों से भरे चेहरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। चलते हुए वो सब,आरोही के निकट आ गए और उसकी लाचारी पर खुद को शाबाशी देने के भाव उनके चेहरों पर गर्दिश करने लगे।

वो रेशमा नाम की औरत सबसे पहले आगे बढ़ी और आरोही के करीब जाकर, बिना कुछ कहे उसके चेहरे पर थप्पड़ मारने लगी। वो तब तक मारती रही जब तक की पीछे खड़े एक शख्स ने उसे नहीं रोका, ये शख्स, और कोई नहीं बल्कि अशफ़ाक ही था।

अशफ़ाक : बस कर, एक बार में थोड़े ही मारना है इसे।

अब तक आरोही के होंठ किनारों से फट चुके थे और उनमें से खून रिसने लगा था। वो लगातार थप्पड़ खाते हुए भी कुछ नहीं बोली क्योंकि अभी तक उसका दिमाग इस सारी घटना को समझ ही नहीं पाया था। पर इतने थप्पड़ों के बाद उसके गाल पर और सर पर उसे असहनीय पीड़ा होने लगी थी और उसकी आंखें भी बह निकली थी। उसने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा,

आरोही : क.. क्यों.. कर रहे...

उस पीड़ा के बीच वो अपनी बात भी नहीं कह पाई और ये देखकर उन जल्लादों के चेहरे की मुस्कान और भी बढ़ गई। रेशमा ने आरोही के चेहरे को पकड़कर अपनी तरफ किया और,

रेशमा : क्यों तेरे उस भाई ने बताया नहीं तुझे की किस – किस से दुश्मनी मोल लिए बैठा है वो?

आरोही उसकी बात का तात्पर्य नहीं समझ पाई पर तभी अचानक ही उसे विवान की डायरी का स्मरण हो आया और उसने रेशमा की और देख कर कहा,

आरोही : कौन.. हो तुम?

रेशमा : सुधीर की पत्नी.. याद आया कुछ?

आरोही कुछ सोचने लगी और तभी उसे सारा मामला समझ आ गया। उसने अशफ़ाक की ओर देखा और,

आरोही : और तुम अशफ़ाक...

उसके मुख से अपना परिचय सुन जहां अशफ़ाक हैरान हो गया वहीं उसकी हैरानी देखकर आरोही के चेहरे के भाव बदलकर एक मुस्कान में तब्दील हो गए। ये दूसरा झटका था रेशमा, अशफाक और उसके आदमियों के लिए।

आरोही : और तुम्हें फिर भी लगा की तुम लोग मुझे चोट पहुंचाकर ज़िंदा बच जाओगे?

आरोही के स्वर में मौजूद विश्वास से दोनों का विश्वास डगमगाया ज़रूर परंतु अपने अति – आत्मविश्वास के चलते अशफ़ाक ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा,

अशफ़ाक : तुझे क्या लगता है, कोई आएगा यहां तुझे बचाने?

आरोही ने भी उसी लहज़े में जवान दिया,

आरोही : तुझे नहीं पता? तुझे तो कुत्ते के जैसा मारा था ना उसने!

ये सुनकर अशफ़ाक के जबड़े भींच गए, वो आगे बढ़ा और आरोही के बालों को खींचकर बोला,

अशफ़ाक : यहां कोई नहीं आने वाला कुतिया, और तेरी इस बकवास की तुझे ऐसी कीमत चुकानी पड़ेगी की ज़िंदगी भर याद रखेगी।

इस धमकी के बाद भी आरोही के चेहरे का विश्वास थोड़ा भी नहीं बदला, तो अशफ़ाक और भी ज़्यादा बौखला गया। इसी बौखलाहट में उसने आरोही के चेहरे पर एक थप्पड़ मार दिया। रेशमा के और अशफ़ाक के हाथ में बहुत फर्क था और इसीलिए आरोही की पीड़ा कई गुना बढ़ गई। अशफ़ाक यहीं नहीं रुका, इससे अगला प्रहार उसने आरोही की आबरू पर किया, जोकि शायद उसके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। जैसे ही अशफ़ाक ने उसके दुपट्टे को खींचा तो आरोही ने अपनी आंखें बंद कर ली और विवान के चेहरे को अपने मन में उभरते देख खुद से ही बोली, “जल्दी आ विवान। तेरी आरोही को तेरी ज़रूरत है, मुझे बहुत ज़रूरत है तेरी"...

तभी आरोही की तो आंखें खुली हीं पर साथ ही बाकी सबकी आंखें भी फैल गईं। भले ही उस बंदूक में रवशामक लगा हुआ था पर फिर भी अशफ़ाक जैसे मंझे हुए खिलाड़ी के लिए मुश्किल नहीं था ये पहचानना की बाहर गोलियां चलीं हैं। साथ ही, बाहर खड़े आदमियों के गिरने की आवाज़ भी उन सभी के कानों तक पहुंच गई थी। अशफ़ाक समझ गया की उस पर किसी ने हमला कर दिया था, पर किसने, ये वो समझ नहीं पा रहा था।

इधर रेशमा की भी हालत पतली हो चुकी थी। भले ही वो पिछले दो साल से उस “बड़े मालिक" नामक आदमी के लिए काम कर रही थी और राजपूत भवन में उसकी गुप्तचर भी बनी बैठी थी, परंतु उसके लिए ये खेल अभी भी नया ही था। ऊपर से अशफ़ाक के चेहरे के भाव उसे और भी डरा रहे थे। इधर इन तीनों से जुदा, आरोही के भाव बिलकुल ही अलग थे। उसके चेहरे पर हैरानी थी, एक मुस्कान थी, और साथ ही अताह खुशी भी थी। उसकी हर पल तेज़ होती धड़कन ने उसे बता दिया था की बाहर कौन है। पर फिर भी वो ये स्वीकार नहीं कर पा रही थी की विवान लौट आया था, वो भी उसे बचाने के लिए।


मैंने उन सभी आदमियों को खत्म करने के बाद वक्त बर्बाद करना सही नहीं समझा। मैं जानता था की अंदर मौजूद बाकी लोगों को भी ये सब समझ आ गया होगा और ऐसे में यदि आरोही भी अंदर ही थी तो उसके लिए खतरा हो सकता था। इसीलिए, मैं तेज़ कदमों से आगे बढ़ा और वहां नीचे गिरे आदमियों में से एक की बंदूक उठा ली, कारण, इस पुरानी पिस्तौल की गोलियां अब खत्म होने वाली थीं। सामने दरवाजा बंद नहीं था ये मैं देखते ही समझ गया, क्योंकि उसके पल्लों के बीच से कुछ रोशनी निकलकर बाहर आ रही थी। मैंने दरवाज़े को लात मारी,पर यही मेरी आज की पहली गलती साबित हुई।

जैसे ही दरवाज़ा खुला दो गोलियां सीधे मेरी दाईं बांह में आकर लगीं। और इसके साथ ही एक तेज़ स्वर भी मेरे कानों में पहुंचा, “विवान"....


X––––––––––X
अध्याय – 10



“आज तेरे ही सामने तेरे इस भाई को मारूंगा मैं"...

अशफ़ाक, रेशमा और उनके साथ मौजूद आदमियों की हैरानी हर पल बढ़ती जा रही थी। बाहर से आई गोलियों की आवाज़ और साथ ही बाहर मौजूद आदमियों के नीचे गिरने से पैदा हुई ध्वनि, काफी थी बताने के लिए की उन पर हमला हो गया था। अब बाहर कितने आदमी थे, उन्हें मारने के लिए, इसके बारे में अशफ़ाक और उसके साथियों को कोई जानकारी नहीं थी। तभी, रेशमा की नज़र आरोही पर पड़ी, जिसके चेहरे पर आत्मविश्वास से भरी एक मुस्कान थी, रेशमा को अंदेशा हो गया की बाहर कौन हो सकता था। जब उसने अशफ़ाक को इस बात से अवगत किया तो एक पुरानी घटना को याद कर उसके गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठा। उसने आरोही की तरफ देखा और क्रोधपूर्ण लहज़े में उससे ये शब्द बोला। परंतु, उसकी बात सुनने के बाद भी आरोही के भाव बिलकुल नहीं बदले थे।

अशफ़ाक: तुम सब अपनी – अपनी बंदूकें निकालो और जैसे ही वो दरवाज़ा खोले, भून डालो साले को।

इस बार आरोही के चेहरे पर चिंता की लकीरें लाने में कामयाब हो चुका था अशफ़ाक, और अपनी इस कामयाबी पर उसके चिंतित चेहरे पर अहंकार उभरते देर ना लगी। रेशमा, अभी भी वो कुछ घबराई हुई थी। जैसे ही कदमों की आवाज़ दरवाज़े की तरफ बढ़ी उन सभी आदमियों ने अपनी बंदूकों को मजबूती से थाम लिया और फिर एक साथ उन सभी की बंदूकों से गोलियां निकली, जिसके साथ ही आरोही के मुख से वो चींख भी निकल गई, “विवान"...


मैं दरवाज़े के बगल में दीवार से टेक लगाए बैठा था, दो गोलियां लगीं थीं मेरी दाईं बांह में परंतु मुझे थोड़ी भी पीड़ा अनुभव नहीं हो रही थी। आरोही की आवाज़ सुनकर जैसे मेरे ज़ख्म अपने आप ही भर गए थे। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, उसी पल मेरी बाज़ू में वो दो गोलियां लग गईं थीं, हालांकि गोलियां तो और भी चलीं थीं परंतु उनमें से अपने लक्ष्य, यानी मुझ पर केवल दो ही लग पाई। जैसे ही मुझे वो गोलियां लगीं तभी मैं दरवाज़े के इस तरफ कूद गया और दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। मैं जानता था कि वो लोग एक दम से बाहर नहीं आयेंगे क्योंकि उन्हें मेरे पास बंदूक होने का भय तो होगा ही।

अंदर से लगातार मुझे आरोही का स्वर सुनाई दे रहा था जो मुझे पुकार रही थी। उसकी आवाज़ में छलकती उस चिंता ने मुझे आश्वस्त कर दिया की वो चाहे मुझसे नाराज़ हो, पर उसे मनाना उतना मुश्किल नहीं होगा। खैर, इस वक्त हालात वैसे नहीं थे की मैं इसपर अधिक विचार कर पाता। मैंने उस बंदूक पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी और अंदर से कोई यदि बाहर आता, तो उसके कदमों की आहट सुनने का प्रयास करने में लग गया था। कुछ ही देर बाद मुझे एहसास हो गया की कोई बाहर आ रहा था, शायद दो लोगों के कदमों की आहट थी ये। मैंने अपनी श्वास को नियंत्रित किया और दरवाज़े पर अपनी आंखें गड़ा दीं। अगले ही पल उस बंदूक से दो गोलियां निकली जो सीधे उन दोनों के माथे के पर हो गईं।

अभी वो दरवाज़े से केवल थोड़ा ही बाहर निकले थे कि पहले ही ऊपर पहुंच गए। आज मुझे खुद के निशाने इतने सटीक लगने पर, उस परिश्रम का मूल्य पता चल रहा था जो गुरुजी मुझसे करवाया करते थे। खैर, अभी मैं इस बारे में कुछ सोचता, की तभी मुझे अंदर से आवाज़ सुनाई दी,

“बंदूक अंदर फेंक दे और अंदर आ, वरना तेरी इस बहन को मारने में मुझे एक मिनट भी नहीं लगेगा"...

वही हुआ जिसे लेकर मैं चिंतित था, आरोही का अंदर होना ही मेरे लिए सबसे बड़ी मुश्किल थी, मैं किसी भी कीमत पर उसकी जान दांव पर नहीं लगा सकता था, इसीलिए जैसी अंदर से आवाज़ आई थी मैंने वही करने का फैसला किया। परंतु, एक छोटे से बदलाव के साथ। मैंने वो बंदूक तो अंदर फेंक दी, पर वहां पहले से ही मरे पड़े एक दूसरे आदमी के पास से उसकी पिस्तौल उठा ली और उसे अपनी कमर में फंसा लिया। पीछे की तरफ रखने से अंदर मौजूद लोगों को इसकी भनक भी नहीं लगनी थी। इसके बाद मैं उठा और बाज़ू में हो रही पीड़ा को अपने अंदर ज़ब्त करता हुआ उठकर अंदर की तरफ चल दिया।

जैसे ही दरवाज़े से अंदर मेरी नज़र पड़ी, सर्वप्रथम मुझे उसका ही चेहरा दिखाई दिया, जिसके होने से मैं था.. जिसके कारण ही मेरा वजूद था, उसकी नज़रें भी मुझ पर ही थीं और आज तीन बरस बाद उसे देख कर मुझे वो मिल गया था, जिसके बाद शायद मुझे किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं थी।


विवान के जल्दबाजी में वहां से निकलने पर सभी हैरान रह गए, और जाने से पहले आरोही के बारे में विवान द्वारा पूछे जाने पर उनकी चिंता और भी बढ़ गई। रामेश्वर जी ने सर्वप्रथम स्नेहा से आरोही को फोन करने को कहा, पर आरोही का फोन बंद आ रहा था। दिग्विजय ने चिंतित होकर घर के लैंडलाइन पर फोन किया पर उधर से किसी ने उत्तर नहीं दिया। सभी लोग बेहद चिंतित हो गए थे, और घर के सभी नौकरों और सुरक्षा कर्मियों के द्वारा भी फोन ना उठाए जाने पर उन सभी को किसी अनिष्ट का आभास हो गया।

बिना देर किए, सभी परिवारजन गाड़ियों में बैठकर यशपुर के लिए निकल गए। पूरे रास्ते सभी केवल यही कामना कर रहे थे की आरोही सकुशल हो, कुछ देर के सफर के बाद जब गाडियां हवेली पर पहुंचीं तो सभी की आंखें हैरानी से भर गई। कारण, हवेली के बाहर ग्रामवासियों की भीड़ लगी हुई थी जो आपस में कुछ बातें कर रहे थे। जैसे ही उन सबने गाड़ियों को देखा तो वो सभी सतर्क मुद्रा में आ गए।

“दादा साहब, हमने हवेली की दिशा से कई गाड़ियों को गांव के बाहर जाते देखा तो जिज्ञासा के चलते हम इधर आ गए। चूंकि आप लोग तो सुबह ही बाहर चले गए थे, इसलिए हम समझ नहीं पाए की वो गाडियां किसकी थीं। हम काफी देर से यहां खड़े हैं और अंदर आवाज़ लगा रहें हैं पर अभी तक कोई बाहर नहीं आया"।

गाड़ियों से जैसे ही सब लोग उतरे तो रामेश्वर जी ने सबसे पहले उन लोगों से यहां आने का प्रयोजन पूछा, जिसका जवाब सुनकर उनकी हैरानी और भी बढ़ गई। पर तभी अंदर से उन्हें दिग्विजय की आवाज़ आई जो चिल्लाकर उन्हें पुकार रहा था। सभी लोग, और उनके पीछे ज– पीछे ग्रामवासी भी जैसे ही अंदर पहुंचे, सभी का कलेजा मुंह को आ गया। अंदर का दृश्य ही इतना भयावह था। हवेली के सभी नौकरों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें अंदर मौजूद थीं, और फर्श पर हर तरफ खून के धब्बे फैले हुए थे। अचानक से, नंदिनी आरोही का नाम लेकर चिल्ला पड़ीं और भागती हुई उसके कमरे की तरफ जाने लगीं।

बाकी सभी भी उनके पीछे ही चल दिए पर आरोही के कमरे में पहुंचकर एक और झटका उन सबका इंतज़ार कर रहा था। सर्वप्रथम, आरोही के कमरे में हर तरफ विवान और उसकी तस्वीरें थीं। तीन साल बाद, आज प्रथम बार शुभ्रा के अतिरिक्त कोई और आरोही के कमरे में आया था और ये उन सबको हैरान कर गया। परंतु, तभी जब उनकी नजर खिड़की के नज़दीक फर्श पर पड़े रक्त के छींटों पर पड़ीं तो सभी की हालत खराब हो गई। नंदिनी इस दृश्य को और बर्दाश्त नहीं कर पाईं और मूर्छित हो गईं।

इसके बाद उन सबने मिलकर पूरी हवेली को छान मारा पर आरोही कहीं नहीं मिली। नंदिनी अभी भी बेहोश थीं और वंदना उनके पास ही बैठी थीं। सभी बेहद चिंतित थे, जहां दिग्विजय ने पुलिस विभाग के आला अधिकारियों को इसकी सूचना दे दी थी, और वो लोग अपने काम में जुट गए थे, वहीं राजपूत परिवार के अंगरक्षक भी निकल चुके थे आरोही को खोजने के लिए। ग्रामवासियों ने उन्हें उस दिशा की सूचना दे दी थी जिस ओर वो सारी गाड़ियां गईं थीं।


मैं अपलक आरोही को ही देख रहा था, मुझे पता भी नहीं चला कब अशफ़ाक मेरे नज़दीक आ गया और मेरे मुंह पर मुक्के बरसाकर अपनी सालों पुरानी भड़ास निकालने लगा। मेरी नज़रें आरोही से हट ही नहीं रहीं थीं। कितना निश्छल चेहरा था आज भी उसका, जो आज भी वो अपने भाव छुपा पाने में नाकाम रही थी। पर तभी, मेरा ध्यान उसके गाल पर गया तो मुझे अपना रक्त उबलता सा महसूस हुआ। उसके होंठों से खून बह रहा था और गाल बुरी तरह सूजा हुआ था, मुझे समझते देर ना लगी की यहां क्या हुआ था। मेरा हाथ मेरी पीठ की तरफ जींस पैंट में लगाई हुई बंदूक पर गया और इस बार जैसे ही अशफ़ाक मुझ पर हाथ उठाने को हुआ मैंने उसके पेट में अपना घुटना मार दिया।

नतीजतन, अशफ़ाक कराहता हुआ नीचे झुक गया और इतने में मेरे हाथ में मौजूद उस बंदूक से एक के बाद एक गोलियां चलीं जिनका क्रम तभी रुका जब वो बंदूक खाली हो चुकी थी। रेशमा और अशफ़ाक आंखें फाड़े, जो हुआ उसे समझने का नाकाम प्रयास कर रहे थे, और उधर उनके पीछे खड़े वो सभी आदमी ज़मीन पर गिरे अपनी मौत से मिलन करने में व्यस्त थे। बंदूकें उनके हाथों में भी थीं पर जो हमला मैंने किया उसकी उन्हें अपेक्षा नहीं थी। मैंने पहले वाली बंदूक अंदर फेंक दी थी जिसके कारण ये मूर्ख निश्चिंत हो गए थे और यही इनकी भूल साबित हुई।

इसके बाद मैंने बिना एक भी पल गवाएं अशफ़ाक को गर्दन से पकड़कर चार इंच ऊपर हवा में उठाकर दीवार से लगा दिया। आरोही को चोट पहुंचाकर, उसका रक्त बहाकर अशफ़ाक ने मेरे जीवन के उस भाग को चोट पहुंचाई थी जिसे मैं खुद से ज़्यादा चाहता था। मुझे नहीं पता की इसके बाद मैं कब तक अशफ़ाक को भिन्न – भिन्न तरीकों से मारता रहा, परंतु मैं जब हकीकत में लौटा तो मैंने पाया की उसके चेहरे का नक्शा बुरी तरह से बिगड़ चुका था। मेरा ध्यान खींचा था रेशमा की उस आवाज़ ने, “रुक जा, वरना इसे खत्म कर दूंगी"!

मैंने अशफ़ाक को छोड़कर पलटा तो पाया की रेशमा ने आरोही की गर्दन पर चाकू रखा हुआ था, एक बार फिर परिस्थिति बदल चुकी थी और मैं फिर एक बार भूल वश रेशमा पर से ध्यान हटाने का नतीजा देख रहा था।

मैं : हट जा, मैं वादा करता हूं की तुझे जिंदा छोड़ दूंगा, दूर हट जा उससे।

रेशमा : तू पहले खुद तो ज़िंदा निकल यहां से, तब मेरी सोचना।

मैं : हट जा रेशमा, वही गलती मत कर जो तेरे पति ने की थी। याद कर उसे कैसी मौत दी थी मैंने, इसे चोट पहुंचाकर तू पहले ही गलती कर चुकी है, मुझे मजबूर मत कर नहीं तो हर एक पल मौत की भीख मांगने पर मजबूर हो जाएगी।

अपने पति का ज़िक्र सुनकर रेशमा जहां और भी क्रोधित हो गई वहीं, अशफ़ाक अभी तक संभाल चुका था। वो लड़खड़ाता हुआ उठा, और रेशमा का मनोबल बढ़ता हुआ बोला,

अशफ़ाक : तू चिंता मत कर, कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा ये तेरा।

रेशमा की नज़रें मुझ पर ही थीं, जैसे ही मैं कोई भी हरकत करता, उसका खामियाजा आरोही को भुगतना पड़ता, इसलिए मैं शांत खड़े रहने के लिए मजबूर था। इतने में अशफ़ाक ने वहां पड़ी एक बंदूक उठाकर मुझ पर तान दी थी, पर जैसे ही वो घोड़ा दबाने को हुआ, एक साथ दो प्रतिक्रिया हुईं। पहली अशफ़ाक पूरी तरह हतप्रभ रह गया वहीं दूसरी ओर मेरे चेहरे पर दिख रही चिंता की लकीरें छांट गईं।

अशफ़ाक : ये.. ये क्या कर रहा है आरिफ..

वो आरिफ ही था, अभी – अभी वो शायद यहां पहुंचा था और कमरे में आते ही उसने बंदूक निकालकर अशफ़ाक के सर पर तान दी। अशफ़ाक की पीठ दरवाज़े की तरफ थी इसलिए वो आरिफ को अंदर आते हुए नहीं देख पाया, पर जैसे ही उसे अपने सर पर मंडरा रही मौत का एहसास हुआ, तो वो पलटा, और पलटते ही उसे ये झटका लगा। वहां आरिफ को पाकर उसकी घिग्गी बंध गई थी। आरिफ ने जब उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वो दोबारा चिल्लाया,

अशफ़ाक : बंदूक हटा आरिफ.. नमकहराम बंदूक हटा!

अशफ़ाक की बात सुनकर आरिफ मेरी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और बोला,

आरिफ : नमक हराम नहीं नमक हलाल हूं मैं, और वही कर रहा हूं जो मुझे करना चाहिए।

मैं : चल अब खेल खत्म करते हैं, बोल इसे की चाकू हटाए।

मैं जानता था की भले ही मैं आरोही की गर्दन पर चाकू होने से बेहद असमर्थ था पर अशफ़ाक की कायरता उस असमर्थता से बहुत बड़ी थी। जब अपनी जान पर बार आती थी, तब अशफ़ाक का क्या हाल होता था मैं भली – भांति जानता था और वही हुआ जो मैंने सोचा था,

अशफ़ाक : अंधी है क्या तू, हट वहां से।

रेशमा को तरफ देखकर हड़बड़ी में वो बोला परंतु रेशमा, खेल में हुए इस परिवर्तन के बाद भी अपनी जगह पर अडिग खड़ी थी।

अशफ़ाक : साली हट वहां से, याद रख अगर मैं मरा तो कभी अपने बेटे से नहीं मिल पाएगी कमीनी।

ये सुनकर प्रथम बार मैंने रेशमा के चेहरे पर डर देखा। रेशमा का कोई बेटा था, ये मेरे लिए भी हैरानी की बात थी। पर अभी मैंने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन रेशमा आरोही से दूर हो चुकी थी।

अशफ़ाक : देख विवान.. मुझे मारकर तुझे कुछ नहीं मिलेगा। मुझे छोड़ दे, मैं किसी और के कहने पर ये सब कर रहा था..

मैं (मुस्कुराकर) : गलती कर दी तूने। कुछ भी करता पर इसे हाथ नहीं लगाना चाहिए था।

अशफ़ाक को ये कहकर मैंने आरोही की तरफ देखा तो पाया की वो अब भी मुझे ही देख रही थी। जो कुछ अभी हुआ उसके कारण विस्मित तो थी वो पर उससे अलग और भी कई भाव मुझे देखते वक्त मौजूद थे उसके चेहरे पर। मैंने आरिफ की तरफ देखा तो वो मेरा मंतव्य समझ गया, आरिफ के साथ मौजूद एक आदमी रेशमा की तरफ बढ़ा तो मैंने उसे रुकने को बोला।

मैं (रेशमा को देखकर) : अपने आप चली जाओ इनके साथ। मैं जिम्मेदारी लेता हूं कोई तुम्हें छुएगा नहीं। तुमने जो किया है उसका हिसाब तो करना ही है पर, तुम्हारी इज्ज़त पर कोई आंच नहीं आएगी।

रेशमा ने अचंभित नज़रों से मुझे देखा और फिर एक मूक स्वीकृति देते हुए हां में सर हिला दिया। इसके बाद आरिफ और उसके आदमी, अशफ़ाक और रेशमा को लेकर वहां से चले गए और मैं पुनः आरोही की तरफ बढ़ने लगा। उसके पास जाकर एक पल को मैं उसे देखता रहा और फिर घुटनों के बल नीचे बैठ गया। पहले, मैंने उसके पैरों को रस्सी से आज़ाद किया और फिर उसके दोनों हाथों को। परंतु, अब उसकी तरफ देखूं, ये हिम्मत नहीं हो रही थी, इसलिए मैं नज़रें झुकाए वैसे ही बैठा रहा। कुछ मिनटों तक वहां एक असहज सी शांति फैली रही और तभी,

आरोही : क्यों आए हो यहां?

आरोही के इस सवाल ने मुझे चकित कर दिया। मैंने उसकी तरफ देखा तो पाया की वो अभी भी कुर्सी पर ही बैठी थी, और मेरी तरफ देख रही थी। एक अजीब सी कठोरता थी उसके चेहरे पर जो मुझे विचलित कर रही थी।

मैं : म.. मतलब?

आरोही : चले जाओ।

सपाट से लहज़े में कहा उसने और उसी के साथ उसकी आंखों से दो बूंदें भी छलक गईं। मैं उसकी बात पर कुछ न कह सका और चुप – चाप उसे देखता रहा। कुछ पल बाद, मैंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और उसके गाल पर धीरे से रख दिया। शायद जलन के कारण उसकी आंखें एक दम से बंद हो गईं पर उसने कुछ कहा नहीं। कुछ देर तक मैं रुमाल की दिशा बदल – बदल कर उसके गालों पर रखता रहा, और अंततः उसके होंठों के किनारों से रिस रहा खून बंद हो गया। अभी भी मैं उसी मुद्रा में बैठा था, मैंने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में लिया, और उसके घुटनों पर सर टिकाकर बोला,

मैं : माफ नहीं करेगी मुझे? सिर्फ एक बार.. दोबारा कभी मैं गलती नहीं..

मैं बोलना तो बहुत कुछ चाहता था पर आगे के शब्द मेरे हलक में ही दम तोड़ गए। अभी तक मेरी आंखों का भी सब्र टूट चुका था और मेरे आंसू टपककर उसकी हथेलियों पर गिर रहे थे। कुछ देर तक उसकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई पर फिर अचानक ही उसने अपने दाएं हाथ को मुझसे छुड़ाकर मेरे सर पर रख दिया। मैंने नज़र उठाकर उसकी ओर देखा तो पाया की उसका हाल भी कुछ मेरे ही जैसा था।

अगले ही पल मैं नीचे से उठा और साथ ही आरोही को भी कंधों से पकड़ कर उठा, अपने गले से लगा लिया। परंतु जब आरोही मेरी बांहों में भी निर्जीव सी होकर खड़ी रही, तो मैं उसके कान पर झुका और,

मैं : रो ले..

इसके बाद हर पल आरोही की पकड़ मुझ पर मज़बूत होती गई। उसने मेरी कमीज़ को सीने के हिस्से से अपनी मुट्ठियों में जकड़ लिया और उसकी आंखों से बहता वो पानी, मेरी कमीज़ को भिगोने लगा। कभी वो मेरे सीने पर मुक्के बरसाती तो कभी मेरी पीठ पर, कभी उसका रूदन तीव्र हो जाता तो कभी वो शांत हो जाती। जाने कब तक वो मेरे सीने से लगी मुझ पर अपना क्रोध जाहिर करती रही, और वो वेदना जो उसके भीतर तीन वर्षों से दबी हुई थी, उसे अपनी आंखों के रास्ते बाहर निकालती रही। जब उसका रोना सिसकियों में तब्दील हो गया, तब मैं धीरे – धीरे से उसकी पीठ को सहलाने लगा और दूसरे हाथ से उसके सर को।

अचानक ही मुझे अपने हाथ पर कुछ तरल सा अनुभव हुआ, मैंने हाथ आगे किया तो पाया की वो रक्त था जो आरोही के सर से बह रहा था। अगले ही पल मुझे आरोही का शरीर ढीला पड़ता महसूस हुआ, और वो मेरी बाहों में झूल गई। आरोही के सर से काफी खून बह चुका था जिसके चलते वो बेहोश हो गई थी और इधर मेरी बाज़ू से लगातार बह रहे खून के कारण, मुझे भी कमज़ोरी महसूस होने लगी थी...


X––––––––––X
तीनो अपडेट लाजवाब है। विवान अपने गांव के मंदिर में आ ही गया है सब से मिलने के बाद उसे एक झटका लगा आरोही का किडनैप हो गया ये गुरुजी कोन है जिसे विवान को प्रशिक्षण किया है लगता है विवान का भाई भी शामिल है विवान को घर से निकालने में। सब से दुखी विवान की मां है पति की बेरुखी बेटी का नाराज होकर अपने कमरे में रहना बेटे को गांव से तड़ीपार कर रखा है इस से ज्यादा दुःख क्या होगा ।आखिर आरोही और विवान की गिले शिकवे भी खतम हो गए मगर इनकी हालत गंभीर लगती है क्या कोई आ पाएगा इनको बचाने???
बहुत ही अनोखा और अदभुत प्रेम है दोनो का...
इसके अलावा देखते हैं रेशमा‌ , सुधीर और उनके बच्चे की कहानी क्या है ! ऐसा क्या हुआ था जिससे सुधीर विवान के हाथों मारा गया था ?
 
Status
Not open for further replies.
Top