Jangali107
Jangali
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Isiliye ise chuth me dalker use Lund se kut kut ke gisad gisad ke uska rass nikalneka ka irada he S_Kumar Bhai ka... Haa...?Bhatkaiya village side me jhaad jhankaar me ugti hai jiska phal chota, round aur black colour ka hota hai jo poora ras se bhara hota hai. Thoda pressure lagane pe hi phal se ras nikal jata hai. Taste me khatta meetha hota hai.
Wonderful updateUpdate-1
टिंग टोंग….टिंग टोंग….टिंग टोंग
इसी तरह कुछ देर तक doorbell बजने पर सत्तू उर्फ सतेंद्र की नींद खुली, थोड़ा झुंझलाकर उठते हुए कमरे के दरवाजे तक आया और दरवाजा खोलकर बोला- कौन है इतनी सुबह सुबह यार?
पोस्टमैन- सत्येंद्र आप ही हैं
सत्येंद्र- हां मैं ही हूं।
सतेंद्र सामने पोस्टमैन को देखकर थोड़ा खुश हो गया, समझ गया कि घर से चिट्ठी आयी है जरूर।
पोस्टमैन एक चिट्ठी थमा कर चला गया, सतेंद्र लेटर देखकर खुश हुआ, लेटर उसके गांव से आया था, आंख मीजता वापिस आया औऱ वापिस बिस्तर पर लेटकर अपनी माँ द्वारा भेजा गया लेटर खोलकर पढ़ने लगा।
सतेन्द्र उत्तर प्रदेश के राजगढ़ गांव का रहने वाला एक लड़का था जो कि लखनऊ में रहकर अपनी पढ़ाई के साथ साथ एक छोटी सी पार्ट टाइम नौकरी भी करता था।
सतेन्द्र के घर में उसके पिता "इंद्रजीत", मां "अंजली", बड़े भैया "योगेंद्र", बड़ी भाभी "सौम्या", छोटे भैया "जितेंद्र" छोटी भाभी "अल्का" थी।
सतेन्द्र की एक बहन भी थी "किरन", जिसकी शादी हो चुकी थी, सतेन्द्र सबसे छोटा होने की वजह से सबका लाडला था, लखनऊ उसको कोई आने नही देना चाहता था क्योंकि वो सबका लाडला था उसका साथ सबको अच्छा लगता था, पर जिद करके वो पढ़ने के लिए लखनऊ आया था अभी एक साल पहले, कॉलेज में दाखिला लिया और खाली वक्त में आवारागर्दी में न पड़ जाऊं इसलिए एक पार्ट टाइम नौकरी पकड़ ली थी, बचपन से ही बड़ा नटखट और तेज था सतेन्द्र, इसलिए सबका लाडला था, खासकर अपनी माँ, बहन और भाभियों का। अपने बाबू से डरता था पर छोटी भाभी और बहन के साथ अक्सर मस्ती मजाक में लगा रहता था, बड़ी भाभी के साथ भी मस्ती मजाक हो जाता था पर ज्यादा नही और माँ तो माँ ही थी
सतेन्द्र के दोनों भैया दुबई में कोई छोटी मोटी नौकरी करते थे, पहले बड़ा भाई गया था दुबई फिर वो छोटे भैया को भी लिवा गया पर सतेन्द्र का कोई मन नही था दुबई रहकर कमाने का, वो तो सोच रखा था कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई खत्म करके किसानी करेगा और खेती से पैसा कमाएगा, दोनों भाई दुबई से साल में एक बार ही एक महीने के लिए आते थे, उस वक्त मोबाइल फ़ोन की सुविधा नही होने की वजह से चिट्टी का चलन था।
सतेन्द्र अपनी बड़ी भाभी को भाभी माँ और छोटी भाभी को छोटकी भौजी बोलता था, दरअसल जब अलका इस घर में ब्याह के आयी थी उस वक्त सत्तू उनको भी भाभी माँ ही बोलता था पर एक दिन अलका ने ही कहा कि मेरे प्यारे देवर जी मुझे तुम छोटकी भौजी बुलाया करो, इसका सिर्फ एक कारण था कि अलका और सत्तू की उम्र में कोई ज्यादा अंतर नही था, इसलिए अलका को बहुत अजीब लगता था जब सत्तू उनको भाभी माँ बोलता था, इसलिए उसने सत्तू को भाभी माँ न बोलकर छोटकी भौजी बोलने के लिए कहा था, दोनों में हंसी मजाक भी बहुत होता था, छोटे छोटे कामों में वो घर के अंदर अपनी छोटकी भौजी का हाँथ बंटाता था।
पर सत्तू की बड़ी भाभी ने तो सत्तू का काफी बचपना देखा था जब वो ब्याह के आयी थी तो सत्तू उस वक्त छोटा था, इसलिए वो उनको भाभी माँ बोलता था और उन्हें ये पसंद था क्योंकि सौम्या ने सत्तू को बहुत लाड़ प्यार से पाला पोसा भी था। बचपन से ही उसकी आदत बड़ी भाभी को भाभी माँ बोलने की पड़ी हुई थी
सतेन्द्र को माँ को चिट्ठी पढ़कर पता चला कि उसको अब शीघ्र ही घर जाना होगा अब कोई बहाना नही चलेगा क्योंकि उसकी शादी को अब मात्र एक महीना रह गया था और शादी के 15 दिन पहले उसे परंपरा के अनुसार एक कर्म पूरा करना होगा तभी उसकी शादी हो सकती है और उसका आने वाला वैवाहिक जीवन सुखमय होगा, ये कर्म उस शख्स को तब बताया जाता था जब उसकी शादी को एक महीना रह जाए, इस कर्म के बारे में किसी को कुछ पता नही होता था कि इसमें करना क्या है?
Nice start storyUpdate- 2
उस चिट्ठी में भी सत्तू की माँ ने बस उसे जल्द ही वक्त रहते घर बुलाया था, कर्म के बारे में उन्होंने ज्यादा कुछ लिखा नही, क्योंकि उन्हें खुद नही पता था इसके बारे में, बस उन्होंने यही लिखा था कि तेरे बाबू ही बात करेंगे इस विषय में तू बस अब आ जा, ज्यादा दिन नही रह गए हैं, सत्येन्द्र ने चिट्टी पढ़ी और थोड़ा सोच में डूब गया कि आखिर कौन सा कर्म, क्या करना होगा इसमें, इससे पहले तो उसे ये सब पता नही था, खैर अब तो गांव जा के ही पता चलेगा, एक उत्सुकता ने उसे अब जल्दी से जल्दी गांव जाने के लिए विवश कर दिया।
सत्तू ने अपनी कंपनी और कॉलेज से अगले ही दिन छुट्टी ली और पहुंच गया अपने घर, घर जब पहुंचा तो उसकी छोटकी भाभी ने उसे घर के द्वार पर नीम के पेड़ के पास ही रोक दिया उसे आता देखकर वो पहले ही घर के अंदर से एक लोटा जल लेकर आई थी उसमे कुछ चावल के दाने और तुलसी के पत्ते डालकर उन्होंने सत्तू के सर के ऊपर सात बार घुमाया और फिर नीम के पेड़ को जल अर्पित करके अपने देवर का घर में बहुत ही स्नेह और लाड़ से स्वागत किया।
अलका- आओ मेरे देवर जी, अब चलो घर में।
सत्तू- छोटकी भौजी...जब भी मैं घर आता हूँ हर बार आप लोटे में जल लेकर मेरी नज़र उतारती हो ये क्यों करती हो, क्या है ये?
अलका- ये….ये तो इसलिए किया जाता है मेरे देवर जी कि रास्ते में अगर कोई ऊपरी छाया या हवा या नज़र लगी हो तो वो उतर जाए और घर का प्यारा सदस्य स्वक्छ होकर घर में प्रवेश करे…..समझे बुद्धूराम
सत्तू- जिसकी छोटकी भौजी इतना ख्याल रखने वाली हो उसको भला किसी की क्या नज़र लगेगी।
अलका और सत्तू दोनों एक साथ द्वार से चलकर घर के दरवाजे की ओर बातें करते हुए जाने लगे।
अलका- तभी अपनी छोटकी भौजी का बहुत खयाल है न तुम्हें, जब शादी को एक महीना रह गया तब ही आये हो, इससे पहले नही आ सकते थे, कितनी याद आती थी तुम्हारी।
सत्तू- याद तो मुझे भी बहुत आती थी तुम सबकी भौजी...ऐसा मत बोलो तुम तो मेरी प्यारी भौजी हो, अपने परिवार से कोई कितने दिन दूर रहेगा, तुम्हे तो पता है पढ़ाई की वजह से जल्दी जल्दी नही आ सकता, एक बार पढ़ाई पूरी हो जाये फिर तो यहीं रहूंगा अपनी भौजी के पास।
अलका- भौजी के पास रहोगे या अपनी दुल्हनिया के साथ रहोगे।
सत्तू- अरे बाबा दोनों के साथ
और अलका जोर से हंस पड़ती है कि तभी सत्तू के बाबू घर से बाहर आते हैं जिन्हें देखकर अलका झट से घूंघट कर लेती है।
सत्तू अपने बाबू के पैर छूकर प्रणाम करता है।
इन्द्रजीत- आ गए बेटा, सफर कैसा रहा, रास्ते में कोई दिक्कत तो नही हुई न।
सत्तू- नही बाबू कोई दिक्कत नही हुई आराम से आ गया, आप कैसे हैं?
इंद्रजीत- मैं ठीक हूं बेटा….तू घर में जा, पानी वानी पी...मैं जरा एक घंटे में खेत से आता हूँ कुछ काम है।
सत्तू- ठीक है पिताजी।
सत्तू घर में जाता है
सत्तू ने बड़ी भाभी मां (सौम्या) और अपनी माँ (अंजली) के पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया और जब जानबूझकर छोटकी भाभी (अल्का) के पैर छूने चला तो वो लपककर पीछे हटते हुए ये बोली " अरे न न सत्तू, मेरे पैर न छुआ कर मुझे बहुत अजीब लगता है, फिर भी सत्तू ने जानबूझकर मजाक में जबरदस्ती छोटकी भाभी के पैर छू ही लिए और वो शरमा कर फिर हंसते हुए खूब आशीर्वाद देने लगी और सब हंसने लगे।
अंजली- अरे तो क्या हो गया दुलहिन, है तो सतेंद्र तुमसे पद में छोटा ही न, पैर छू कर आशीर्वाद लेता है तो दे दिया करो, अब आ गया है न तो दे खूब आशीर्वाद….(सत्येन्द्र की तरफ देखते हुए) सतेंद्र देख जब तक तू नही आया था तब तक ये मेरी जान खा रखी थी कि अम्मा देवर जी कब आएंगे?...कब आएंगे?….तेरे से न जाने कितना लगाव है इसे…..ले अब आ गया तेरा देवर…..अब शर्मा मत दे आशीर्वाद…..अब तो खुश है न।
अलका- हां अम्मा बहुत….अम्मा भले ही मेरा पद बड़ा है पर मैं अपने देवर जी को अपना दोस्त मानती हूं, इसलिए मुझे अजीब लगता है और रही बात मेरे आशीर्वाद की तो वो तो हमेशा ही इनके साथ है।
अंजली- बेटा मुझे तो लगता है तेरी शादी न इसी के साथ होनी चाहिए थी, इतना तो ये जितेंद्र को नही याद करती होगी जितना तुझे करती है।
ये सुनकर अलका बेहद शर्मा गयी और सब हंस पड़े।
सौम्या(बड़ी भाभी माँ) - तो अम्मा बदल देते हैं न
और सब फिर जोर से हंस पड़े, अलका और शर्मा गयी- क्या दीदी आप भी, बस भी करो, वो मेरा लाडला देवर है याद नही करूँगी।
सौम्या- लाडला तो ये हम सबका है...अच्छा जा अपने लाडले के लिए पानी वानी तो ले आ।
अल्का गयी और झट से मिठाईयां और पानी लेकर आई।
सत्तू का जबरदस्त स्वागत हुआ, सत्तू की बहन किरन भी आ चुकी थी, खूब हंसी मजाक भी हुआ, शादी का घर था सब प्रफुल्लित थे, कई काम हो चुके थे कई काम होने अभी बाकी थे, जिसमे सबसे बड़ा काम था वो कर्म, जिसे सत्तू को पूरा करना था।
शाम को ही सतेन्द्र के पिता ने उसको कमरे में बुलाया वहां उसकी माँ भी बैठी थी।
इंद्रजीत- बेटा तुम्हे एक महीना पहले इसलिए बुलाया है कि अब वक्त बहुत कम रह गया है, मुझे तुम्हे कुछ बताना है।
सतेन्द्र- हां बाबू जी कहिए।
इंद्रजीत- बेटा हमारे खानदान में, हमारे कुल में और हमारे कुल के अलावा दो चार कुल और हैं गांव में, जिनमे न जाने कब से एक अजीब तरीक़े की परंपरा चली आ रही है, जिसको पूरा करना ही होता है, और अगर उसको न किया जाए तो शादी नही हो सकती, और अगर जबरदस्ती शादी कर भी दी तो आने वाले उस शख़्स के जीवन में अनेक तरह की परेशानियां आती ही रहती हैं और उसका जीवन नर्क हो जाता है, और कभी कभी तो अनहोनी भी हो जाती है, इसलिए इस कर्म को उसे करना ही पड़ता है जिसकी शादी हो।
सत्तू ये सुनकर चकित रह गया, उसके मन में कई सवाल उठने लगे, इससे पहले उसे इस बारे में बिल्कुल पता नही था, क्या इससे पहले किसी को बताया नही जाता? आखिर ये परंपरा और कर्म क्या है? क्यों है? हमारे खानदान के अलावा गांव के और कौन कौन से कुल में भी ये परंपरा है? और सबसे बड़ी बात इस कर्म के बारे में किसी को कुछ पता क्यों नही होता? अगर ये परंपरा है तो इसको इतना गुप्त क्यों रखा गया है? और यह पीढ़ी दर पीढ़ी संचालित कैसे किया जाता है? क्या दोनों भैया ने भी अपनी शादी के वक्त ये कर्म किया था जरूर किया होगा और देखो सच में मुझे इसका आभास तक नही हुआ, कितना गुप्त कर्म है ये।
सत्तू के मन में कई तरह की भावनाएं जन्म लेने लगी, आश्चर्य, कौतूहल, जिज्ञासा, कि परंपरा शुरू किसने की होगी और क्यों की होगी? ऐसा क्यों होता है कि अगर इसको न किया जाए तो अनेकों परेशानियां आती है।
उसने ये सारे प्रश्न एक ही बार में अपने बाबू के सामने रख दिया तो उसके बाबू ने उससे कहा- देखो बेटा ये किसने शुरू किया, क्यों किया, किन परिस्थितियों में किया होगा और इसको न करने से परेशानियां क्यों आती हैं ये तो मुझे नही पता और न ही मेरे पिता ने मुझे बताया, बताते भी क्या उन्हें भी नही पता होगा, पर हमारे गांव में एक कुल में एक बार इस कर्म को करने से मना कर दिया और शादी के दो महीने बाद ही दुल्हन की मौत हो गयी, इसलिए भी सब डर गए और दुबारा किसी की हिम्मत नही हुई कि इसको टाल दें, और फिर सब वैसे भी सोचते हैं कि जब इतना कुछ होता ही है तो मन्नत के तौर पर एक कर्म और कर लेते हैं इसमें क्या हो जाएगा, इसमें कुछ घट तो नही जाएगा, इसलिए इस कर्म को करते ही है, जोखिम उठाकर क्या फायदा?
सत्तू- हां बाबू बात तो सही है। पर विस्तार से बताइए कि इसमें क्या करना होता है, कैसे पता चलता है और आगे इसको कैसे संचालित किया जाता है।
बहुत ही शानदार अपडेट हैंUpdate- 3
इंद्रजीत- बेटा परंपरा के अनुसार हर पुरुष अपने जीवन में अपनी शादी होने और पुत्र होने के बाद, जब बच्चे हो जायें और वो वयस्क हो जाये तो अपने पुत्रों के हिसाब से अपने पोतों के लिए, पुत्र के लिए नही बल्कि अपने पोतों के लिए कर्म लिखता है, वो लगभग ये मानकर चलता है कि उसके पांच पोते होंगे और पांच कर्म पांच पोतों के लिए लिखता है, ये मानकर चलता है कि पांच पोते होंगे और अगर कम हुए तो जो बचेंगे वो खाली चले जायेंगे और अगर ज्यादा पैदा हुए तो क्रम से वही कर्म दुबारा बचे हुए पोतों के लिए दोहराया जाएगा, अब जैसे कि तुम्हारे दादा ने पांच कर्म लिखे होंगे और तुम हुए तीन भाई तो दो कर्म खाली चले गए होंगे और अगर पांच से ज्यादा होते तो वही कर्म दोहरा दिया जाता। ये कर्म बेटे के लिए नही पोतों के लिए लिखा जाता है, और कर्म लिखकर उसको रखा कहाँ है ये बताया बेटों को जाता है वो भी उनकी शादी के वक्त जैसे कि मेरे लिए मेरे दादा जी ने लिखा था और तुम तीनो भाइयों के लिए तुम्हारे दादा जी ने लिखा है
सत्तू अब और अचंभित हो गया - तो क्या भैया लोग अपना कर्म पूरा कर चुके हैं?
इंद्रजीत- हाँ बिल्कुल, तभी तो उनकी शादी पूर्ण हुई है।
सत्तू- और दोनों भैया अपने अपने पोतों के लिए कर्म लिख चुके हैं।
इंद्रजीत- हाँ बेटा बिल्कुल।
सत्तू- देखो जरा भी भनक नही लगी, मुझे तो पता ही नही।
इंद्रजीत- यही तो रहस्य है इस कर्म का की इस कर्म के बारे में तब बातचीत की जाती है और केवल उसी से बातचीत की जाती है जिसकी शादी हो, कर्म पूरा होने के बाद उससे प्रण कराया जाता है कि वह किसी को भी इस विषय में बिल्कुल नही बताएगा, वह बताएगा तो सिर्फ अपने बेटे को की उसने वह कर्म अपने पोते के लिए लिखकर कहाँ रखा है फिर उसका बेटा अपने बेटे को उसकी शादी के वक्त ये बताएगा कि वह कर्म उसे कैसे पता चलेगा कि वह कहां रखा है।
सत्तू- मैं समझा नही बाबू जी
इंद्रजीत- देखो जैसे तुम्हारे दादा जी ने तुम तीनो भाइयों के लिए कर्म लिखकर रख दिया और जब मेरी शादी होने लगी तो मुझे ये बताया कि मेरे दादा जी ने मतलब तुम्हारे परदादा ने मेरे लिए मेरा कर्म कहाँ रखा है और उन्होंने अपने पोतों के लिए मतलब तुम लोगों के लिए कर्म कहाँ रखा है, सिर्फ ये बताया कि कर्म कहाँ रखा है ये नही बताया कि उसमे लिखा क्या होगा क्योंकि ये तो उन्हें खुद ही नही पता होगा, मेरे कर्म के लिए उन्हें नही पता होगा और जो कर्म उन्होंने तुम्हारे लिए लिखा है वो तो उन्हें पता ही होगा पर वो वचनबद्ध होने की वजह से मुझे बताएंगे नही, इसलिए मुझे ये नही पता कि तुम्हारे कर्म में लिखा क्या है परंतु ये पता है कि वो रखा कहाँ है। इसी तरह तुम तुम्हारी शादी पूर्ण होने के बाद जब तुम्हे पुत्र हो जाएंगे तो उनके अनुसार पांच का हिसाब लगाते हुए अपने पोतों का कर्म लिखोगे और उसको कहाँ रखोगे ये अपने पुत्र को बताओगे जब तुम्हारे पुत्र की शादी होने लगेगी उस वक्त और उसे ये भी बताओगे की मैंने उसके लिए जो कर्म लिखा है वो कहाँ रखा है।
सत्तू- अच्छा मतलब दो काम हुए जब पुत्र की शादी होने लगेगी तो उसको ये बताना है कि उसके दादा ने उसके लिए कर्म लिखकर कहाँ रखा है और खुद उसने अपने पोतों के लिए कर्म लिखकर कहाँ रखा है, औऱ कर्म पांच पोते होंगे ये मानकर पांच कर्म लिखना है, फिर यही सिलसिला आगे चलता जाएगा। इसमें ये तो पता होता है कि मैंने अपने पोतों के लिए क्या कर्म लिखा है पर ये नही पता होता कि मेरे पुत्र के लिए उसके दादा ने क्या कर्म लिखा होगा और अपना लिखा हुआ भी कभी किसी को बताना नही है।
इंद्रजीत- बिल्कुल बिल्कुल बेटा अब सही समझे।
सत्तू- तो बाबू जी आपने मेरे पुत्र मतलब अपने पोते के लिए कर्म लिख दिया है, लेकिन आप तो हम तीनों भाइयों के पुत्रों के लिए कर्म लिखोगे न।
इंद्रजीत- लिखूंगा नही लिख कर रख भी दिया है, बच्चे हो जाने के बाद जब वो किशोर अवस्था में प्रवेश करने लगे तो उनके हिसाब से पोतों के लिए कर्म लिखा जाता है जितने बेटे हों उसी हिसाब से पांच पांच मान कर लिखा जाता है, अब जैसे तुम तीन भाई हो तो मैंने 15 कर्म लिखकर रख दिया है, पांच तुम्हारे पुत्रों के लिए, पांच योगेंद्र और पांच जितेंद्र के पुत्रों के लिए, समझे अब।
सत्तू- हां बाबू जी समझ तो गया पर मान लो उस पुरुष की किसी वजह से मृत्यु हो जाये तो ये सिलसिला तो टूट ही जायेगा फिर उसके पुत्र और पोतों को उनका कर्म कैसे पता चलेगा? और इस कर्म को लिखकर हर कोई रखता कहाँ है?
इंद्रजीत- यह कर्म लिखकर गांव के किसी भी परिवार में कोई भी एक दूसरे के यहां रखते हैं, जैसे कि तुम्हारा कर्म सुखराम नाई के घर में जमीन में गाड़कर रखा हुआ है, तुम्हारे दोनों भाइयों का कहाँ रखा हुआ था ये मैं तुम्हे नही बता सकता, कर्म लिखकर रखने के बाद जिस घर में जिस परिवार के लोगों को ये जिम्मेदारी दी जाती है ये उनका भी फ़र्ज़ होता है कि समय आने पर जिसका वो कर्म है उसको वो लोग जानकारी दें, ये उनका भी फ़र्ज़ होता है, और यह इश्लिये है कि मान लो किसी की मृत्यु हो जाय तो उसके पुत्र और पोतों को अपने कर्म मिल जाएं और उनको इस परंपरा की जानकारी उस परिवार द्वारा दे दी जाय, इश्लिये कर्म किसी दूसरे परिवार के यहां उनकी जिम्मेदारी पर उनके वहां रखा जाता है। तुम्हारा कर्म सुखराम नाई के यहां तुम्हारे दादा जी ने रखा हुआ है। अगर मैं तुम्हे ये सब न भी बताऊं तो सुखराम नाई तुम्हे जरूर बताएगा क्योंकि ये उसकी भी जिम्मेदारी है, देख लेना वो कल ही घर आएगा तुमसे मिलने और तुम्हे अपने घर लिवा जाएगा, तुम कल खुद ही चले जाना उसके घर और अपना कर्म ले लेना और एकांत में उसको पढ़कर समझकर कर्म पूरा होने पर उसको जला देना।
सत्तू- ठीक है बाबू जी और बाबू जी इस कर्म को लिखकर रखते कैसे हैं? क्या हमारे घर भी किसी कुल के लोगों का कर्म रखा हुआ है?
इन्द्रजीत- कर्म को एक अच्छे से मोटे कागज पर लिखकर एक अच्छे से पके हुए मिट्टी के घड़े में डालकर उसपर अपना नाम अपने पुत्र का नाम और फिर किस नम्बर का वो कर्म है वो लिखना होता है जैसे एक, दो, तीन….जो भी हो, जैसे तुम्हारे कर्म के घड़े पर पहले सबसे ऊपर तुम्हारे दादा जी का नाम होगा फिर मेरा नाम लिखा होगा फिर लिखा होगा तीन, समझे अब
सत्तू- हाँ बाबू जी समझ गया
इन्द्रजीत- और हमारे घर भी दो कुल के परिवारों का कर्म रखा जाता है, दो घर की जिम्मेदारी हमारे पास है, वो मैं तुम्हे बाद में बताऊंगा की किस परिवार की है वो।
तभी सतेन्द्र का ध्यान अपनी माँ पर गया जो कि सब सुनते हुए बड़े प्यार से बीच बीच में मुस्कुरा दे रही थी।
सत्तू- पर बाबू जी जैसा कि आपने कहा कि किसी और को नही पता चलना चाहिए तो आपने तो माँ के सामने ही मुझे सबकुछ बताया।
इन्द्रजीत- घर की स्त्रियों के लिए कोई परहेज नही है, उनको बताया जा सकता है पर ये नही बताना की तुमने अपने पोतों के लिए क्या कर्म लिखा है बस ये सब बता सकते हो कि तुम्हारा कर्म कहाँ रखा हुआ है, तुम्हारे खुद के कर्म में लिखा क्या है अगर उसको पूर्ण करने में घर की किसी स्त्री या पुरुष की भागीदारी है तब तो उसको बताना ही पड़ेगा पर वचन भी लेना होगा कि वो कभी किसी को न बताएं।
सत्येंद्र सारी बात समझ जाता है, उसके बाबू उठकर चले जाते है और उसकी माँ अंजली उसके लिए खाना लगाने को उसकी बड़ी भाभी को कहती है, आज का दिन बड़ी जिज्ञासा में बीतता है पर घर का माहौल बहुत खुशनुमा था, छोटकी भाभी अलका सत्तू से दिन भर हंसी मजाक करती रहती है जिसमे बीच बीच में बड़ी भाभी सौम्या और बहन किरन भी खूब खुलकर हंसी मजाक में लगी हुई थी। कभी कभी सत्तू थोड़ा अश्लील मजाक से झेंप भी जाता पर फिर भाभियों को ऐसा छेड़ता की वो भी शर्म से लाल हो जाती।
Nice ये कर्म काण्ड तो फाड़ू है यार इनके चक्कर में कांड होना तय हैUpdate- 4
अगले दिन सत्तू सुबह सुबह ही सुखराम के घर गया, सुखराम अपने द्वार पर बैठ सुबह सुबह बांस की टोकरी बिन रहा था, वह नाई का काम करने के साथ साथ बांस और अरहर की लकड़ी की टोकरियाँ बनाकर बाजार में बेचता था, सत्तू को देखते ही वो समझ गया और उसका स्वागत करते हुए बोला- आओ बेटा आओ, कब आये शहर से?
सत्तू- कल ही आया चाचा, आप कैसे हो?
सुखराम- ठीक हूँ बेटा, आओ बैठो, आज मैं आने ही वाला था तुम्हारे घर, एक जिम्मेदारी है तुम्हारी हमारे पास, उसी के विषय में तुम्हे बताने आता, पर तुम ही आ गए तो अच्छा ही किये।
सत्तू- हां चाचा मैं ही आ गया, बाबू ने बता दिया सब और बोला कि आपके पास मेरा कर्म रखा हुआ है।
सुखराम- हां बेटा तुम्हारा कर्म हमारे घर पर रखा हुआ है, लो पहले पानी पियो, फिर देता हूँ निकाल कर।
सत्तू ने पानी पिया, सुखराम ने अपने घर वालों को थोड़ी देर के लिए बाहर बैठने के लिए बोला और कुदाल लेकर आंगन में आकर खोदने लगा, लगभग दो हाँथ गहरा गढ्ढा खोद डाला तो सत्तू ने देखा कि एक पुराना सा बक्सा रखा था, उसको सुखराम ने खोला तो उसमे एक घड़ा रखा था, सुखराम ने वो घड़ा उठाकर सत्तू को पकड़ाते हुए बोला- लो बेटा ये अपनी अमानत, यही है तुम्हारा कर्म, इसको एकांत में कहीं रास्ते में खोलना।
सत्तू ने सुखराम को धन्यवाद किया और बड़ी ही उत्सुकता से वो घड़ा लेकर चल पड़ा, रास्ते में काफी दूर आने के बाद, जब उसने देखा कि कोई आस पास नही है तो एक पेड़ के पास बैठकर उस घड़े को फोड़ा, उसके अंदर एक पुराना से कागज था, उस कागज को देखकर उसकी धड़कने बढ़ गयी, बड़ी ही उत्सुकता से उसने अपने हिस्से के कर्म को पढ़ने के लिए उस कागज को खोला तो उसमे जो कर्म सत्तू के दादा जी ने उसके लिए लिखा था वो कुछ इस प्रकार था-
"मेरे प्रिय पौत्र,
अपने सुखी विवाहित जीवन के लिए तुम्हे यह कर्म करना अनिवार्य है, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम इसे जरूर पूरा करोगे।
तुम्हारा कर्म-
" भटकइयाँ के पके हुए रसीले फल को घर की सभी शादीशुदा स्त्री (बहन, बुआ और रिश्ते में कोई बेटी लगती हो उसको छोड़कर) की योनि में रखें फिर अपने लिंग की चमड़ी को बिना खोले लिंग योनि में डालकर भटकइयाँ के फल को योनि की गहराई में गर्भाशय तक लिंग से ठेलकर ले जाएं, बच्चेदानी के मुहाने पर भटकइया का फल पहुँचने के बाद स्त्री अपने हांथों से योनि में पूर्णतया समाये हुए लिंग को आधा बाहर निकलकर उसकी चमड़ी पीछे खींचकर योनि के अंदर ही लिंग को खोले और फिर पुरुष अपने लिंग से योनि में ठोकर मार मार कर बच्चेदानी के मुहाने पर पड़े भटकइया के फल को कुचलकर, दबाकर फोडें और लिंग से ही फल को मसल मसल कर मीज दे, फल फूटने पर पट्ट की आवाज आने के बाद योनि और लिंग जब उसके रस से सराबोर हो जाये तो योनि को लिंग का सुख देते हुए योनि को चोदें, योनि और लिंग स्लखित होने के बाद निकलने वाले काम रस को किसी चीज़ में इकठ्ठा करें, ध्यान रहे यह कर्म घर की सभी स्त्रियों के साथ एक साथ नही होना चाहिए और न ही उन्हें एक दूसरे के बारे में पता चलना चाहिए कि यह कर्म उनके साथ भी हुआ है,ताकि उनकी शर्मो हया, मान सम्मान, घर की इज़्ज़त बरकरार रहे, सभी के साथ किये गए इस कर्म से इकट्ठा काम रस को मिलाकर इकट्ठा करें और अपनी सुहागरात में अपने लिंग पर यही लेप लगाएं और अपनी पत्नी का योनि भेदन करें।
सुखमय विवाहित जीवन का आनंद लें।
मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा।"
सुपर अपडेट सतू के दादा के कर्म काम आने वाले हैं फिर तो मजे करने के दिन शुरूUpdate- 5
कागज में लिखे कर्म को पढ़कर सतेंद्र सन्न रह गया, एक बार में विश्वास नही हुआ तो चार पांच बार पढ़ा, माथे पर पसीने की बूंदें उसका अचरज बयां कर रही थी, दिमाग सुन्न हो गया, विश्वास ही नही हो रहा था कि उसके दादा ऐसा कर्म उसके लिए लिख गए हैं, आखिर क्या उनके दिमाग में सूझा जो उन्होंने उसके हिस्से में ऐसा कर्म लिखा, क्या वो ये चाहते थे? कि मैं उनका पोता घर की सगी स्त्रियों के साथ जिसमे से कोई मेरी भौजी है तो कोई माँ है वो करूँ जो अनैतिक है, महापाप है।
और चाहते भी थे तो क्यों? ये कैसा कर्म लिख दिया मेरे दादा ने मेरे लिए? क्या उन्हें इतना विश्वास था कि घर की स्त्रियां इसके लिए राजी हो जाएंगी। हे भगवान! ये मेरे हिस्से में क्या आ गया। क्या दादा जी ने भैया के हिस्से में भी ऐसा कुछ कर्म लिखा होगा? क्या पता कौन जाने? क्या दादा जी इतने कामुक थे कि वो सगे रिश्ते में भी ऐसा सोचते थे, क्या उन्होंने खुद भी ये सब किया होगा? जो मेरे लिए लिख दिया।
सत्तू यही सब काफी देर तक सोचता रहा। बार बार उस कागज को देखता रहा। समझ में नही आ रहा था कि अपने को कोसे या खुशी के मारे झूमे, कैसे होगा ये सब?, कैसे कहेगा और करेगा वो भौजी और मां के साथ ये सब?
बताएगा भी तो कैसे? उसी स्त्री को बताना है जो कर्म में साथ है और तो और इसमें ये भी लिख दिया है की सभी स्त्रियों को एक दूसरे के बारे में पता भी नही लगना चाहिए, अगर ये कागज प्रमाण के तौर पे भी दिखाऊंगा तो उस स्त्री को तो पता चल ही जायेगा कि ये कर्म घर भी सभी स्त्री के साथ करना है, और एक स्त्री का राज दूसरी स्त्री को पता भी नही लगने देना है, ये कागज तो दिखा नही सकता, इसमें तो दोनों ही बातें लिखी है, और ये भटकइयाँ का फल साला इसको कहाँ ढूंढूं मैं?, पता नही कहीं मिलेगा भी की नही, मुझे तो देखे हुए भी काफी वक्त हो गया उसको।
सतेंद्र अपनी दोनों भौजी, उसमें से भी छोटकी भौजी से हंसी मजाक जरूर करता था पर आज तक उसने कभी उन्हें वासना की नज़र से नही देखा था, न ही उसके मन में कभी ऐसा कोई ख्याल आता था, और माँ तो माँ ही थी, भाभी माँ भी माँ के समान ही थी, जिन्होंने लगभग उसे बचपन से ही देखा था, सन्न बैठा हुआ था वो, कुछ सूझ ही नही रहा था कि कागज में लिखी इन चीजों को वास्तविकता में कैसे बदलेगा? संभोग की बात तो दूर स्त्री की योनि को भी अभी तक वास्तविक रूप से उसने नही देखा था, ब्लू फिल्म की बात अलग थी, अभी तक तो वो अपने जीवन में आने वाली अपनी दुल्हन के साथ मनाए जाने वाले सुहागरात की बात को ही सोच सोच कर हर वक्त उत्तेजित होता आ रहा था, पर आज इस कर्म की वजह से जब जेहन में अपनी छोटकी भौजी, भाभी माँ और माँ का ख्याल आया तो एक अजीब सी सुरसुरी से बदन का रोवाँ रोवाँ खड़ा हो गया। न चाहते हुए भी हल्की हल्की उत्तेजना उसे होने ही लगी, क्योंकि आने वाली दुल्हन के साथ संभोग के विषय में सोच सोच कर वो उत्तेजित पहले ही रहता था और अब तो उन स्त्रियों के साथ यौन सुख मिलना था जो उसके साथ बचपन से हैं, कैसा लगेगा? कैसी होंगी छोटकी भौजी अंदर से, भाभी माँ और अम्मा? बार बार हल्की हल्की वासना चढ़ती और बार बार वो उसे झटक सा देता, फिर उस कागज में लिखे कर्म की ओर देखता जिसमे वही कर्म करने को लिखा था जिसे वह बार बार ख्याल आने पर झटक सा दे रहा था।
तभी उसके ध्यान कर्म में लिखी उस बात पर गया कि "योनि के मुख पर भटकइयाँ का फल रखकर लन्ड की चमड़ी को बिना पीछे खिंचे लन्ड से भटकइयाँ के फल को ठेलकर योनि की गहराई में गर्भाशय द्वार तक ले जाना है"
सत्तू सोचने लगा अब ये कैसे संभव होगा? योनि के अंदर लंड जाते ही रगड़ से चमड़ी तो पीछे को खुलती चली ही जाएगी, भला ये कैसे संभव है कि लन्ड गर्भाशय तक उतर जाए और उसकी चमड़ी भी न खुले, ये एक और समस्या खड़ी हो गयी।
तभी लन्ड पर ध्यान गया जो कि सोचकर ही फुंकार मारने लगा था, एक हाँथ से उसने लन्ड को आखिर न चाहते हुए मसल ही दिया।
आज तक उसने स्त्री की योनि के दर्शन भी अच्छे से नही किये थे योनि के अंदर लिंग डालकर परम सुख लेना तो दूर की बात थी, कैसे करेगा वो? ये ऐसी चीज़ थी न तो निगला जा रहा था न उगला, उत्तेजना, शर्म, घबराहट, ग्लानि सब का मिला जुला अहसास बार बार बदन के रोएँ खड़े कर दे रहा था।
फिर जेहन में ये आया कि अम्मा के साथ भी करना होगा, वो मेरी माँ हैं, उन्होंने जन्म दिया है मुझे, कैसे करूँगा मैं ये सब उनके साथ, क्या वो तैयार होंगी, कैसे कहूंगा मैं उनसे की मेरे कर्म में ये लिखा है, लेकिन जब ध्यान में ये आया कि "मां की योनि" कैसी होगी? तो हलचल तो हुई, जरूर हुई, उस वक्त सत्तू को ये हल्का सा महसूस हो ही गया कि लिंग और योनि का कोई रिश्ता नही होता, योनि किसी की भी हो ख्याल करने पर ये साला हरकत करता ही करता है, पर क्यों, अगर ये गलत है तो ईश्वर के यहां से ही इस पर अंकुश क्यों नही लगा हुआ है, क्यों ऐसा हो रहा है, एक सीमा तक न न करने के बाद उत्तेजना होनी ही लग रही है।
बहुत उधेड़बुन सत्तू के मन में चल रहा था, समझ नही आ रहा था कि अफसोस करूँ या खुशी से नाचूँ, अपने दादा को कोसूं या धन्यवाद दूँ, कभी मन खुश हो जाता तो कभी ग्लानि से भर जाता, कैसे घर जाए अब वो? बहुत कुछ बदल चुका था उसके जेहन में अब।
अगर एक चींटे ने पैंट के अंदर घुटनों तक चढ़कर वहां पर न काटा होता तो शायद सत्तू झनझना कर न उठता अभी भी वो खोया ही रहता, पैंट के ऊपर से ही उसने कस के चींटे को मारकर मसल दिया और हाँथ अंदर डालकर दर्द से थोड़ा सी सी करता हुआ मरे हुए चींटे को बाहर निकाल कर फेंका, देखा तो वहां पर काटकर साले ने लाल कर दिया था, कागज को मोड़ कर जेब में रखा और उठकर बहुत बेचैनी से घर की तरफ चल दिया।
रास्ते में सामने से आता हुआ उसका एक गांव का पुराना दोस्त दिखाई दिया, जिसका नाम था विकास।
विकास- अरे सतेंद्र, आ गया, यार कोई खबर नही, कुछ पता भी नही कब आता है कब चला जाता है, शादी है न तेरी, बताया था काका ने की शादी पड़ गयी है अब आने वाला है।
सतेंद्र- हां यार एक दो दिन हुए आये, शादी में बारात में चलना है जरूर, अभी से बोल दे रहा हूँ, फिर मत बोलियो की बोला ही नही, शादी का कार्ड भी लेकर आऊंगा घर पे, सबको आना है।
विकास- अबे तू नही भी बुलायेगा न तो भी आएंगे और बोल, यार की शादी में भला हम न आएं। अच्छा ये बता सुबह सुबह इधर से कहाँ से आ रहा है।
सतेंद्र- कुछ नही यार काका के यहाँ कुछ काम था। अच्छा ये बता ये भटकइयाँ कहाँ मिलेगी।
विकास- भटकइयाँ.... वो जंगली फल
सतेंद्र- हां वही जो छोटी छोटी लाल लाल सी होती है, हम लोग बचपन में जब कभी खेत में जाते थे तो रास्ते में उगी रहती थी मेड़ों पर, खाते नही थे तोड़ तोड़ के, वही तो?
विकास- हां तो जब तेरे को पता ही है कि खेतों में मेड़ों पर उगी हुई मिल जाती है तो पूछ क्यों रहा है।
सतेंद्र- अबे चूतिये confirm कर रहा हूँ कि आज कल भी मिल जाती है न आस पास, है भी या लुप्त हो गयी, अब मैं तो गांव में ज्यादा रहता नही हूँ इसलिए पूछ रहा हूँ।
विकास- मिलेगी क्यों नही आस पास न मिले तो नहर पे चले जा, वहां तो बहुत मिल जाएंगी, जंगली पौधा ही तो होता है, मिल जाएगी, पर तूझे चाहिए क्यों? आने वाली भौजी को खिलायेगा क्या, की देखो जी हम लोग यही खा खा के बड़े हुए हैं।
सत्तू- पागल हो गया है क्या? अरे कुछ काम है इसलिए पूछ रहा था, दवाई भी बनती है न उसकी, उसी के पत्ते चाहिए थे।
विकास- मिल जाएगी यार नहर पे बहुत मिल जाएगी।
सत्तू- चल ठीक है, चलता हूँ आऊंगा एक दो दिन में तेरे घर पे।
विकास- चल ठीक है
सतेंद्र घर की ओर चल पड़ता है, फिर से वही सारी बातें दिमाग में आने लगती हैं।
बहुत ही शानदार अपडेट हैं लगता है दोनो भाभी काफी प्यासी लग रही है सत्तू को प्यास बुझानी पड़ेगीUpdate- 6
सत्येन्द्र रास्ते में सोचता जा रहा था कि वो इस कागज़ का करे क्या? क्या इसे नष्ट कर दे या प्रमाण के तौर पर रखे, पर यह किसी को दिखाना तो है नही, हां जिस स्त्री के साथ कर्म करना है उसको दिखा सकते हैं पर इसमें लिख ऐसा दिया है कि घर की हर स्त्री (बेटी, बुआ और बहन को छोड़कर) के साथ यह करना है और ये भी लिखा है कि एक दूसरी स्त्री को आपस में कभी पता भी नही चलना चाहिए तो यह कागज प्रमाण के तौर पर दिखाऊंगा भी कैसे? अगर एक स्त्री को दिखाया तो वो तो पढ़ ही लेगी की घर की सभी स्त्रियों के साथ करना है।
यह तो संभव ही नही, इसको घर जा के जला ही दूंगा। परंतु इस कर्म को अंजाम भी जल्द से जल्द ही देना होगा क्योंकि शादी का घर है और
जैसे जैसे शादी नज़दीक आएगी रिश्तेदार इकट्ठा होने शुरू हो जाएंगे, भैया भी आने वाले हैं। यही सब सोचता हुआ वो घर पहुंचा तो दोपहर हो चुकी थी।
उसकी छोटकी भाभी अलका और भाभी माँ सौम्या दोनों बड़े से कटोरे में चूने का लाल और सफेद घोल लेकर कच्चे व पक्के घर की दीवारों पे हाँथ के छापे मार कर सजा रही थीं।
अलका ने लाल रंग के घोल का कटोरा लिया हुआ था और सौम्या ने सफेद रंग के घोल का कटोरा लिया हुआ था, सौम्या आगे आगे थी और अलका उनके पीछे पीछे, सौम्या एक हाँथ में कटोरे में लिए सफेद घोल में दूसरे हाँथ का पंजा डुबोती और दीवार पर ऊपर नीचे छपाक से दो छापे मारती फिर थोड़ा दूरी पर ऐसे ही दुबारा छापे मारते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ रही थी और अलका लाल रंग से बीच में बची जगह पर अपने हाँथ से लाल छापा मारती हुई आगे बढ़ रही थी, सौम्या का हाँथ थोड़ा बड़ा था अलका से, तो दोनों हाँथ से बने छापे के आकार में साफ पता चल रहा था कि कौन सा अलका का हाँथ है और कौन सा सौम्या का।
जैसे ही सतेंद्र घर पहुंचा, अलका ने मुड़कर अपने देवर को देखा तो मुस्कुराते हुए छापे मारने लगी, सत्तू थोड़ी दूर पर पेड़ के नीचे खाट डालकर बैठ गया और थोड़ा जोर से बोला- मेरी जो भौजी जैसी है वैसा ही रंग भी चुन रखा है।
सौम्या सत्तू को देखकर हंसने लगी और अलका बोली- अच्छा तो मैं लाल हूँ और दीदी सफेद?
सत्तू- बिल्कुल, कब से लगी हो भौजी घर सजाने में?
अलका- जब से तुम गए हो बाहर तभी से, अब तो पूरा होने वाला है, देख लो अपनी देवरानी के आने की खुशी में, उसके स्वागत में कोई कमी नही रखूंगी पर वसुलूंगी जरूर तुमसे।
सत्तू- वसूल लेना मेरी लाल भौजी? हमने कब मना किया, पहले तो हम आप ही के हैं।
अलका ने सत्तू की तरफ कनखियों से देखा और मुस्कुराने लगी, सौम्या भी हंसने लगी और बोली- मेरे देवर जी अभी इसमें एक काम बाकी है।
सत्तू- क्या भौजी?
सौम्या- इसमें अभी पीले रंग का बड़ा सा बिंदु बीच में बनाना है अब मैं तो हो गयी सफेद और अलका हो गयी लाल तो पीले हो जाओ तुम या किरन, हम तो बाबा दो घंटे से खड़े खड़े थक गए।
सत्तू- अरे मेरी भाभी माँ आप रहने दो मैं और किरन दीदी बाकी का कर देंगे, ओ मेरी लाल भौजी अब रहने दो आपका देवर आ गया है (सत्तू ने अलका को चिढ़ाते हुए कहा)
अलका- हां मेरे पीले देवर जी, जब अब खत्म होने वाला है तब आये हो, पहले आये होते तो साथ में शुरू करते, अब लगाओ तुम पीला रंग अकेले अपनी बहिनिया के साथ, भाभी चली दूसरा काम करने।
(अलका ने सत्तू की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा)
सतेंद्र आज पहली बार अपनी दोनों भाभियों के बदन को न चाहते हुए भी चुपके चुपके निहार रहा था, ऐसी नज़र से उसने आजतक उन्हें देखा नही था पर आज न जाने क्यों अनायास ही उसकी कामुक नज़र अलका और सौम्या के गदराए बदन पर चली ही जा रही थी, दोनों ने ही साड़ी के पल्लू को ब्लॉउज के ऊपर से चूचीयों को ढकते हुए कमर में खोंस रखी थी ताकि वो बार बार उड़कर रंग में न चला जाये।
सौम्या का बदन अलका से थोड़ा ज्यादा भारी था, वह अलका से बड़ी तो थी ही पर अलका
की दोनों मदमस्त चूचीयाँ सौम्या की गदरायी चुचियों को बराबर टक्कर देती थी, सौम्या के दो बच्चे हो जाने के बाद भी उसके बदन की कसावट में कोई कमी नही थी, उसका बदन अलका के बदन से थोड़ा ज्यादा भरा हुआ था, वहीं अलका बेइंतहां खूबसूरत और चंचल थी, अलका के बदन पर अनावश्यक चर्बी बहुत कम थी, उसको देखकर ही बदन में गर्मी चढ़ने लगती थी न जाने कैसे सत्तू आज तक अपने आप को संभाले रहा, पर आज जिस नज़र से वो उस खजाने को निहार रहा था, यह साबित हो चुका था कि नजरिया अब उसका बदल गया है।
जहां अलका चंचल और थोड़ी अल्हड़ सी थी वहीं सौम्या सौम्य और शीतल स्वभाव की थी, ऐसा नही था कि वो सुंदर नही थी, वो भी बहुत सुंदर थी, पर बदन थोड़ा अलका से भारी था।
अल्का को अभी कोई बच्चा नही हुआ था, वो चाहती तो थी पर उसके पति का कहना था कि अभी नही बाद में, एक दो साल बाद।
सौम्या और अलका भी सतेन्द्र को बार बार अपनी तरफ देखते हुए देखती, सौम्या तो हल्का सा हंसकर अपने काम में लग जाती पर अलका की नज़रें अपने देवर की नज़रों में कुछ देर उलझी रहती फिर वो बड़ी कामुकता से मुस्कुराकर अपने काम में लग जाती, फिर दुबारा देखती तो सत्येन्द्र उसे ही देख रहा होता था, आज पहली बार उसके बदन में भी सिरहन सी दौड़ गयी, आज तक सतेंद्र ने उसे ऐसे नही देखा था, उसे बहुत अच्छा लगने लगा, प्यासी तो दोनों थी ही, क्योंकि साल भर में ही सत्तू के भैया आते थे।
अलका ने सौम्या से नज़र बचा के सत्तू से पूछा- क्या बात है? बहुत बदमाशी हो रही है आज।
सत्तू ने इशारे से "कुछ नही" कहा और अलका फिर मुस्कुराकर अपना काम करने लगी, दोनों देवर भाभी की नजरें आज उलझ गई थी, जब से सत्तू बाहर से आया है उसकी नज़रों में कुछ अलग है ये बात अल्का समझ गयी, कुछ अहसास सौम्या को भी हुआ, पर क्योंकि उसने सत्तू को बचपन से पाला था तो उसने इसे शायद भ्रम समझा, पर अलका के दिल में हलचल हो चुकी थी।
अभी सत्तू अपनी दोनों भाभियों को चोरी चोरी निहार ही रहा था कि किरन घर में से बाहर आई- अरे भाई आ गया, कहाँ गया था सुबह से।
सत्तू ने किरन को देखा तो ठीक से बैठ गया खाट पे और बोला- दीदी गया था किसी काम से, बाबू कहाँ गए हैं?
किरन- वो तो गए है बाजार तेरी शादी का कार्ड लेने, छप के तैयार हैं न, अब बाटना भी तो है, वक्त ही कितना रह गया है, और भी बहुत काम है।
सत्तू- हां दीदी काम तो बहुत है, मैं भी जल्दी जल्दी और दूसरे काम संभाल लेता हूँ, बाबू अकेले कितना करेंगे।
किरन- हाँ भाई जरूर, पर शादी के पंद्रह दिन पहले से गीत और हल्दी-उबटन लगाने की रसम शुरू हो जाएगी, तो ऐसे में दूल्हे राजा को कहीं बाहर नही जाना होता है, तो उससे पहले जो करना है कर ले, उसके बाद तुझे कहीं बाहर नही जाना, हां खेत वगैरह में आस पास जा सकता है, पर दूर नही, दोनों बड़े भैया भी शादी के एक हफ्ते पहले तक ही आएंगे, उनका खत आया था।
सत्तू- दीदी फिक्र न कर मैं तो हूँ न, पंद्रह दिन में लगभग सारे काम निबटा दूंगा, बाबू जी को इतना परेशान होने की जरूरत नही।
दोनों बहन भाई ऐसे ही बातें कर रहे थे, और सत्तू की नजरें अपनी दोनों भाभियों से बार बार टकरा रही, जिसको सौम्या तो सहज तरीक़े से ले रही थी पर अल्का के दिल में अब तूफान मचा हुआ था।
किरन- रुक तेरे लिए पानी लाती हूँ...... भाभी ओ भाभी पानी लाऊं.....पानी पी लो कब से लगी हो...थक गई होगी।
सौम्या- हां जा ले आ, प्यास तो लगी है बहुत।
अल्का- प्यास तो मुझे भी लगी है, ननद रानी थोड़ी प्यास बुझा दो।
ऐसा कहकर अल्का सत्तू को चुपके से देखते हुए हंसकर फिर छापे मारने लगी।
किरन- चिंता मत करो जल्द ही सारी प्यास बुझेगी, छोटकी भौजी।
किरन ने कह तो दिया पर फिर अपनी ही बात पर झेंप गयी, अलका भी शर्मा गयी, सत्तू खाट पर लेटकर अपनी दोनों भाभी को फिर निहारने लगा।
Hot update please continueसत्तू अल्का को चूमने लगा, अल्का मस्ती में सिसकने लगी और अपने गाल, गर्दन घुमा घुमा कर सत्तू को चुम्बन के लिए परोसने लगी, एकाएक सत्तू ने अपने होंठ अल्का के होंठों पर रख दिये, दोनों की आंखें पूरी तरह नशे में बंद हो गयी, दोनों एक दूसरे के होंठों को चूमने लगे, कितने रसीले होंठ थे अल्का के, दोनों को होश नही, काफी देर तक होंठों को चूमने के बाद जैसे ही सत्तू ने अल्का के मुंह मे जीभ डालना चाहा, अल्का ने उसे रोकते हुए कहा- भैया।
अब आगे-----
Update- 20
सत्तू- ह्म्म्म
अल्का- काश बहुत पहले ही तुम मेरे भैया बन गए होते, कहाँ थे अब तक, यहीं एक ही घर में इतने दिनों से साथ रह रहे हो, ये सब पहले क्यों नही किया....पता है कितनी प्यासी है तुम्हारी बहना।
सत्तू- ओह मेरी दीदी....क्या करूँ तुमने भी तो कभी इशारा नही किया, कभी जिक्र नही किया, कभी अपने मन का दर्द बयां ही नही किया कि ऐसा कुछ था तुम्हारे मन में, नही तो हम कब से प्यार कर रहे होते...खैर जाने दे ये बात जब जिस चीज़ का समय आता है वो हो ही जाती है, अब तो तू बन गयी न मेरी बहन....मेरी दीदी।
अल्का- हां, बन गयी मेरे भैया, मुझे अपनी ही ससुराल में मेरा भाई मिलेगा और वो मुझे ऐसा प्यार देगा जैसा कोई भाई अपनी बहन को नही देता ऐसा मैंने कभी सोचा नही था।
सत्तू- तो मैंने भी कहाँ सोचा था कि मेरी छोटी भौजी ही मेरी बहन है।
(ऐसे कहते हुए सत्तू ने अल्का की गांड की दरार को दोनों हाथों से साड़ी के ऊपर से ही फैलाकर हाँथ को अंदर डालकर सहलाया तो अलका "ऊई अम्मा" कहते हुए मचल सी गयी)
अल्का- एक बात पूछूं?
सत्तू- बोल न
अल्का- मेरे भाई ने सच में वो कभी नही देखी है।
सत्तू- क्या वो? अब खुलकर बोल न दीदी, कैसा शर्माना, देख अब तो कोई है भी नही, तेरे मुँह से सुनकर बहुत उत्तेजना होती है।
(सत्तू अल्का की गांड को हथेली में भरकर हौले हौले मीज ही रहा था, गाड़ ही इतनी मस्त थी कि उसी से फुरसत नही मिल रही थी तो दूसरे अंगों पर कहाँ से ध्यान जाता, जब खाने के लिए ढेरों मिठाईयां एक साथ मिल जाएं तब समझ नही आता कि किसको पहले खाऊं और किसको बाद में, यहीं हाल सत्तू का था)
अल्का- शर्म आती है, उसका नाम बोलने से।
सत्तू- बोल न मेरी जान, उसका नाम मेरी आँखों में देखकर बोल न।
अल्का सत्तू की आंखों में देखकर लज़्ज़ा से भर गई, बड़े हौले से बोली- सच में भैया तुमने "बूर" नही देखी है कभी, सच्ची की "बूर", हम लड़कियों की "बूर"
(जब अल्का "बूर" शब्द बोल रही थी तो उसके लाल रसीले होंठ जब बोलते हुए "उ" के उच्चारण पर गोल हुए तभी सत्तू ने अल्का के होंठों को अपने होंठों में भरकर चूम लिया, दोनों फिर से लिपट गए, साँसें रह रहकर तेज चलने लगी, अल्का की चूचीयाँ, धीरे धीरे सख्त होती जा रही थी)
सत्तू- सच में दीदी, आज तक मैंने सच्ची की बूर नही देखी, किताबों में तो देखी है, फिल्मों में देखी है पर अपने घर की बूर, जिसका नशा ही अलग होता है वो नही देखी।
अल्का- घर की बूर का नशा अलग होता है।
सत्तू- बिल्कुल अलग, दुनियाँ में सबसे अलग।
अल्का ने मस्ती में हल्की सी अपनी जीभ निकाली तो सत्तू ने भी अपनी जीभ निकाली और दोनों एक दूसरे से हल्का हल्का जीभ लड़ाने लगे, की तभी अल्का ने झट से मुंह खोल दिया और सत्तू ने अपनी जीभ अल्का के मुँह में डाल दी, आँखें बंद हो गयी दोनों की, बदन थरथरा गया अल्का का, क्योंकि सत्तू का दायां हाँथ पीछे से हौले हौले सहलाते हुए अल्का की बूर तक पहुंच गया था, जैसे ही सत्तू ने अल्का की बूर को पीछे की तरफ से साड़ी के ऊपर से दबोचा, "आह भैया" की हल्की सी सिसकारी भरते हुए अल्का खुद को सत्तू की बाहों से छुड़ा कर पलंग की तरफ भागी, कुछ ही दूर पर बिछे पलंग पर अल्का पेट के बल अपना चेहरा हथेली में छुपकर लेट गयी, उसके उभरे हुए नितंब मानो अब खुल कर आमंत्रण दे रहे थे, उसकी सांसें जोश के मारे तेजी से चल रही थी, सत्तू का लंड अब तक तनकर लोहा हो चुका था, वो अल्का की ओर बढ़ा और साड़ी के ऊपर से ही जानबूझकर अपना खड़ा लंड अल्का की उभरी हुई गांड की दरार में खुलकर पेलते हुए "ओह दीदी" बोलकर उसपर चढ़ गया,
"ऊऊई मां" भैया, धीरे....
सत्तू ने अल्का को अपने लंड का अहसास कराते हुए साड़ी के ऊपर से ही कई बार सूखे धक्के मारे, अपने भाई का लंड महसूस कर अल्का की बूर पनियाने लगी, सत्तू ने अल्का के गालों पर आ चुके बालों की लटों को एक तरफ सरकाया और गालों पर चुम्बनों की झड़ी लगा दी, अल्का की सांसें तेज चलने लगी, सत्तू ने साड़ी के ऊपर से ही हौले हौले अल्का की गांड मारते हुए वासना में बेसुभ होकर कहा, - दीदी बूर चोदने दे न अब, बर्दाश्त नही हो रहा अब।
अल्का ने बड़ी मुश्किल से धीरे से कहा- पहले फल ले आओ मेरे भैया, तुम्हारी बहन तो बस तुम्हारी ही है अब, मुझसे भी अब रहा नही जा रहा, जाओ न फल लेकर आओ, जल्दी आना।
और शर्म से उसने फिर अपना चेहरा हथेली में छुपा लिया, सत्तू ने एक चुम्बन कस के अल्का के गालों पर लिया, और उठ गया उसके ऊपर से, लंड को ठीक किया और जल्दी से बाहर निकल गया, काफी देर तक अल्का पलंग पर लेटी रही, उसे अभी भी महसूस हो रहा था कि सत्तू का मोटा लंड उसकी गांड की दरार में रगड़ रहा है।