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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

  • Total voters
    14

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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354
बहुत बहुत शुक्रिया , ... तारीफ़ तो मुझे आप की पसंद की करनी चाहिए ,



हजार साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है ,

बड़ी मुश्किल से होता है , चमन में कोई दीदावर पैदा
Achha ji meri pasand ki kaise..?
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए,
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए!

अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में,
है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए!

दिल भी किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं,
दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए!

मैं ख़ुद भी करना चाहता हूँ अपना सामना,
तुझ को भी अब नक़ाब उठा देनी चाहिए!

मैं फूल हूँ तो फूल को गुल-दान हो नसीब,
मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए!

मैं ताज हूँ तो ताज को सर पर सजाएँ लोग,
मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए!

मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद बंद हो,
मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए!

मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाइए मुझे,
मैं नींद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए!

सच बात कौन है जो सर-ए-आम कह सके,
मैं कह रहा हूँ मुझ को सज़ा देनी चाहिए !

 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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3,733
143
Waahh komaalrani Ji what a shayri______

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं


हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं


हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं


सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं


वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी
फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं


दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है
तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते हैं
 
Last edited:

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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Waahh The_InnoCent bhai what a shayri________

बहुत बहुत शुृक्रिया भाई आपकी इस खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए,,,,,,,,
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए,
कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गए!

सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़,
सारे सिपाही मोम के थे घुल के आ गए!

मस्जिद में दूर दूर कोई दूसरा न था,
हम आज अपने आप से मिल-जुल के आ गए!

नींदों से जंग होती रहेगी तमाम उम्र,
आँखों में बंद ख़्वाब अगर खुल के आ गए!

सूरज ने अपनी शक्ल भी देखी थी पहली बार,
आईने को मज़े भी तक़ाबुल के आ गए!

अनजाने साए फिरने लगे हैं इधर उधर,
मौसम हमारे शहर में काबुल के आ गए!
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो,
ये सब तुम्हारे ही घर हैं किसी भी घर में रहो!

जला न लो कहीं हमदर्दियों में अपना वजूद,
गली में आग लगी हो तो अपने घर में रहो!

तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं,
हमारी तरह अगर चार दिन सफ़र में रहो!

है अब ये हाल कि दर दर भटकते फिरते हैं,
ग़मों से मैं ने कहा था कि मेरे घर में रहो!

किसी को ज़ख़्म दिए हैं किसी को फूल दिए,
बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर में रहो!
 

Romeo 22

Well-Known Member
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एक बस तू ही नहीं मुझ से ख़फ़ा हो बैठा
मैं ने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

उठ के मंज़िल ही अगर आए तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मिरा आबला-पा हो बैठा

मस्लहत छीन ली है क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मिरा मेरी ख़ता हो बैठा

शुक्रिया ऐ मिरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तू ने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुमला-ए-आ'दा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा
 
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