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भाई यह अंक पढ़ा तो था पर शायद मैंने जल्दबाजी में स्कीप कर गया था lअंतराल - स्नेहलेप - Update #10
अगली दोपहर :
रोज़ ही की तरह, माँ, काजल और सुनील की तिकड़ी के कमरे में बैठे हुए, घर में एक बड़ी पार्टी का आयोजन करने पर चर्चा कर रही थी, और सामान्य गप-शप में मशगूल थी। घर में कोई पार्टी किए हमको कुछ समय हो गया था। काजल का मानना था कि कुछ रागरंग हो, नृत्य संगीत हो, बढ़िया खाना पीना हो - तो मज़ा आए। माँ भी इस विचार की उत्साहपूर्वक सराहना कर रही थीं - वो भी चाहती थीं कि सुनील के ग्रेजुएशन, उसकी हालिया नौकरी, और व्यापार में मेरी सफलता का जश्न जाए।
जब यह सब चर्चा चल रही थी, काजल ने टीवी चालू कर दिया... किसी चैनल पर हेमा मालिनी की एक फिल्म दिखा रहे थे। माँ और काजल दोनों ही हेमा की बड़ी फैन थीं - इसलिए उन्होंने फिल्म को चालू रखा। यह उसकी अन्य फिल्मों से थोड़ी अलग थी। फिल्म की कहानी एक युवक (कमल हासन) के बारे में थी जो हेमा मालिनी वाले किरदार को लुभाने की कोशिश कर रहा था, जो कि उम्र में उससे बहुत बड़ी थी। जहाँ हेमा, कमल हासन को हर संभव तरीके से मना करने की कोशिश कर रही थी, वहीं कमल के काफी प्रयत्नों के बाद वो भी बदले में उससे प्यार करने लगती है।
यह एक जटिल कहानी थी, लेकिन जो बात सभी के दिल को छू गई वह यह थी कि यह एक बड़ी उम्र की महिला की कहानी थी, और उसके फिर से प्यार पाने की संभावना की कहानी थी। माँ और काजल दोनों एक ही नाव में सवार थीं - और यह फिल्म उन दोनों को बहुत अलग तरीके से छू गई। जहाँ काजल के पास मेरे रूप में एक वास्तविक विकल्प था, वहीं माँ के पास कोई विकल्प नहीं था। दोनों महिलायें एक दूसरे को शादी करने के लिए प्रोत्साहित करती रहतीं, लेकिन दोनों ही कोई भी संकल्प न लेतीं।
हेमा और कमल के बीच कुछ संवादों के दौरान, माँ और सुनील आँखों ही आँखों में अपनी बातों का आदान-प्रदान कर रहे थे - सुनील मानों जैसे कमल के संवादों के साथ अपनी बात बोल रहा था, वहीं माँ हेमा के संवादों के जरिए अपनी बात रख रही थी। लेकिन अंत में, जब हेमा के विरोध का किला ढह जाता है, और जब वो महमूद के सामने स्वीकार करती है - संवाद के साथ नहीं बल्कि आंखों में आंसू के साथ - कि वो कमल के साथ प्यार में थी, तब माँ ने सुनील की ओर नहीं देखा। कहानी का ऐसा मोड़ आ जाएगा, वो उसने सोचा भी नहीं था। वो दृश्य देख कर माँ के अंदर एक उथल-पुथल मच गई।
काजल ने तभी कहा, “वो एक्स-मेन वाला हीरो है ना... उसकी बीवी भी तो उससे उम्र में बहुत बड़ी है।”
nice update..!!नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #3
शाम होते होते देवयानी का पूरा परिवार भी हमारे साथ सम्मिलित हो गया। सभी ने मुझे बहुत बधाइयाँ दीं।
“अमर यार ये बहुत गलत बात है!” जयंती दी ने आते ही शिकायत करनी शुरू कर दी, “तुमको मुझे सवेरे ही बता देना चाहिए था कि पिंकी को हॉस्पिटल ले जा रहे हो!”
“अरे दीदी, आप नाराज़ मत होईए। माँ हैं न साथ में। और आपका तो काम भी है!”
“अरे, काम गया तेल लेने। काम तुम्हारे बच्चे से ज़्यादा इम्पोर्टेन्ट थोड़े न है!” उन्होंने मेरे कान पकड़ते हुए कहा, “चल अब! जल्दी से बच्ची की शकल दिखा हमको!”
तो मैं उनको देवयानी के कमरे में ले गया। डेवी ने जैसे ही अपनी बहन और अपने पिता को देखा, वो मुस्कुराने लगी।
“वेलकम टू द क्लब, पिंकी रानी!” दीदी ने कहा, “बहुत बहुत बधाईयाँ!”
“कॉन्ग्रैचुलेशन्स बेटा,” ससुर जी ने भी बधाई दी।
“कॉन्ग्रैचुलेशन्स साली साहिबा,” उसके जीजा बोले, “एन्जॉय द पेरेंटहुड, बोथ ऑफ़ यू!”
माँ ने ससुर जी के पाँव छुए।
“गॉड ब्लेस यू बेटा,” उन्होंने आशीर्वाद दिया, “तुमको बहुत तकलीफ हो गई!”
“ऐसे कैसे बाबू जी,” माँ बोलीं, “पिंकी तो अपनी ही बेटी है! फिर क्या तकलीफ?”
“फिर भी! तुम सभी सीधे घर आओ। सभी का खाना पीना वहीं होगा अब से।” उन्होंने जैसे निर्णय सुनाते हुए कहा, “कुछ सेवा हमको भी तो करने दो!”
“हा हा हा हा!” माँ हँसने लगीं, “अरे खूब सेवा कीजिए अब! ऐसे शुभ मौके पर जन्मी है बिटिया रानी। इसकी सेवा में तो सभी को पुण्य मिलेगा!”
“हाँ - सो तो है! लेकिन कहाँ है नन्ही?”
“नर्स ले गई है उसको नहलाने। बस आती ही होगी!”
“कैसी हो पिंकी?”
“आई ऍम गुड डैडी!”
“वैरी नाइस!” फिर मेरी तरफ मुखातिब होते हुए, “अमर, डैड को भी बुला लाओ!”
“जी डैडी, वो जितना जल्दी पॉसिबल है, आने वाले हैं!”
“बढ़िया!”
फिर हम ‘आभा’ के वापस आने से पहले ऐसी ही अनेकों बातें करते रहे। जब उसको उसके नाना जी ने अपनी गोद में लिया, तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। दो नाती उनको हो चुके थे, और अब ये पहली नातिन हुई थी। ‘आभा’ सबसे छोटी थी, और छोटी बेटी की पहली संतान थी, इसलिए उनका भावुक होना स्वाभाविक था। पूरा समय वो अपने नाना जी की गोद में रही - बाकी लोगों को ऐसे ही मन बहलाना पड़ा उस शाम।
फिर डॉक्टर से बात होने लगी कि कब देवयानी हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो सकती है। उन्होंने बताया कि कल शाम ही हम बिना किसी दिक्कत के उसको ले जा सकते हैं। बढ़िया है। कल शाम घर, और परसों, मतलब विजयादशमी! बढ़िया! तय किया गया कि डिस्चार्ज होने के एक दो दिनों में ही हम अपने सभी मित्रों और परिजनों के साथ ‘आभा’ के जन्म का जश्न मनाएँगे! जो भी कुछ होगा, यहीं हमारे घर पर होगा - देवयानी ठीक थी, लेकिन फिर भी इतनी जल्दी उससे यात्रा इत्यादि नहीं करवाया जा सकता।
देर शाम मित्र और सहकर्मी लोग भी आ कर मिलने लगे। इतने सारे बूके और खिलौने इत्यादि मिले कि मुझे उनके जाने के बाद एक ट्रिप घर का लगाना पड़ा - वो सब सामान घर पर रखने के लिए। एक तो कमरे में जगह ही नहीं बची थी, और इस बात का भी डर कि कहीं ऐसा न हो कि बच्चे को फूलों से कोई परेशानी न हो जाए।
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अगले दिन डैड, काजल, लतिका और सुनील घर आ गए। केवल दो कनफर्म्ड टिकट मिले थे डैड को तत्काल में। लेकिन न जाने क्या क्या जुगाड़ बैठा कर वो सभी को यहाँ लिवा लाए। दोनों बच्चों की दशहरा की छुट्टियाँ थीं, इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। उसके अगले दिन डेवी भी हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो गई, और हम सभी घर आ गए। मेरा पूरा घर पूरी तरह से भर गया और चहल पहल के कारण घर में उत्सव का माहौल हो गया। एक कमरे में देवयानी और बच्चे के चैन से रहने का इंतजाम कर के, हम सभी जहाँ संभव था, वहाँ फिट हो गए। मुश्किल तो था, लेकिन जितनी व्यवस्था हो, उतने में ही संतोष करना चाहिए।
डैड दादा बन कर बहुत खुश हुए - उनको एक छणिक ख़ुशी पहले भी मिली थी जान काजल को संतान हुई थी। लेकिन... वही सब बातें दोहराने से क्या लाभ? उनको ऐसे प्रसन्न होते हुए मैंने पहली बार देखा था - वो पूरा दिन कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते - ज्यादातर बच्चों वाले गीत - और मुस्कुराते रहते। जब भी अवसर मिलता, आभा को गोदी में लिए रहते, उसको दुलारते रहते। एक खिलौना मिल गया था उनको। और मुझे समझ आ रहा था कि घर वापस जाने के बाद वो ही आभा को सबसे अधिक मिस करेंगे।
काजल की प्रतिक्रिया बहुत अनोखी थी। उसने तो सबसे पहले देवयानी को एक सोने की जंजीर पहनाई। उसका इंतजाम उसने कैसे किया, वो मैं अभी तक नहीं जान पाया, और न ही मैंने जानने की बहुत कोशिश भी करी।
“दीदी,” डेवी ने कहा, “मुझे क्यों?”
“दीदी, बच्चे को तो सभी कुछ न कुछ देंगे ही - बस माँ को ही कुछ नहीं मिलता। काम के अलावा। तुम माँ बनी हो - हमको तो वो सेलिब्रेट करना है।”
काजल की बात पर डेवी की आँखों में आँसू आ गए और दोनों एक दूसरे से लिपट कर आँसू बहाती रहीं।
जब उन दोनों को एकांत मिला, तब काजल ने देवयानी से कहा, “दीदी, तुमसे एक बात पूछूँ?”
“अरे दीदी, तुम मुझसे क्यों ऐसे फॉर्मल होती हो! तुम्हारा जो मन करे, मुझसे कहो। तुम हमसे अलग थोड़े ही हो!”
काजल मुस्कुराई, लेकिन झिझकती हुई बोली, “दीदी, बिटिया को मैं... मेरा मतलब... क्या मैं भी उसको...”
“दीदी!” देवयानी समझ गई, “ये जितनी मेरी है, उतनी ही तुम्हारी है। मैंने पहले भी कहा है न - तुम हमसे अलग थोड़े ही हो! तुम जो चाहो, करो! मुझे ही थोड़ा आराम मिल जाएगा!”
“मतलब मैं...”
“हाँ दीदी! तुम्हारा इसको दूध पिलाने का मन है, पिला लो! जब मन करे! तुम्हारी बेटी है!”
“ओह दीदी! थैंक यू!”
“अच्छा - तो अब तुम हमको थैंक यू कहोगी? ऐसे तो हमको न जाने किन किन बातों के लिए तुम्हारा शुक्रिया अदा करना पड़ेगा!”
“नहीं नहीं! ऐसी कोई बात नहीं! तुम मुझको इतना सम्मान देती हो, वही बहुत बड़ी बात है!”
“दीदी, सम्मान हमारा है, और इस बच्ची का सौभाग्य कि इसको ऐसे प्यार करने वाली ‘बड़ी माँ’ मिली हैं!”
डेवी की बात पर काजल इस बार रोने लग गई।
संसार में हर कोई बस प्रेम का भूखा है। बहुत ही दुर्भाग्यशाली लोग होते हैं जो प्रेम के भूखे नहीं होते। वस्तुएँ मिल जाती हैं - देर सवेर - कुछ कम, कुछ अधिक। बस शुद्ध प्रेम का मिलना ही दुर्लभ है।
कुछ संयत हो कर काजल ने आभा को अपनी गोदी में उठाया, और अपने स्तनों का प्रसाद उसके अनुगृहीत मुँह में दे दिया। देवयानी काजल और आभा दोनों के ही चेहरों पर संतोष वाले भाव देख कर मुस्कुराने लगी। अद्भुत थीं दोनों महिलाएँ और अद्भुत था दोनों का प्रेम! कहाँ सौतिया डाह का डर था, और अब कहाँ ऐसा असंभव प्रेम दोनों के बीच!
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सुनील से अधिक लतिका उत्साहित थी आभा को ले कर। उसके लिए आभा कोई गुड्डे जैसी साइज़ की ही थी। वो कभी आभा के गालों को उत्सुकतापूर्वक छूती, तो कभी उसकी उँगलियों से खेलती। इतनी छोटी बच्ची में इतना प्रेम, इतनी उत्सुकता! कमाल है। उसको वो ‘गुड्डा’ ‘गुड्डा’ ही बोलती रही पूरा समय। हा हा हा! बच्चे कमाल के होते हैं।
सुनील ने आभा को देखा, तो बस बड़े प्यार से उसने उसके माथे को चूम लिया। जब काजल ने बच्ची को उसकी गोद में देना चाहा, तो वो बेचारा सकपका गया और उसने उसको लेने से साफ़ मना कर दिया, कि कहीं बच्ची गिर न जाए!
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इस बार विजयदशमी बहुत ही धूम से मनाई हमने। मैंने यह त्यौहार कभी मनाया नहीं। कैसे मनाते हैं, वो भी नहीं पता। लेकिन इस बार पूरे घर को रंगबिरंगी झालरों से सजाया गया, और फूलझड़ियाँ चलाई गईं। तय कर लिया कि इस बार दिवाली यहीं मनाई जाएगी, और जब अवसर मिलेगा, और जब देवयानी पूरी तरह से रिकवर कर लेगी, तब हम तीनों ‘घर’ आ कर कुछ समय बिताएँगे।
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आभा के होने का जश्न, चूँकि जल्दी जल्दी में आयोजित था, इसलिए बहुत धूम से नहीं कर सके, लेकिन आनंद बहुत आया। सुबह सुबह ही पूजा और हवन का आयोजन था, जिसमें हम तीनों को बैठना आवश्यक था। उसी समय आभा का नामकरण भी कर दिया गया। अपनी बच्ची के होने का जहाँ एक तरफ उन्माद भी था, वहीं दूसरी तरफ एक डर सा भी था - मेरी बच्ची सुरक्षित रहे, स्वस्थ रहे, और आगे चल कर सफलता के मुकाम हासिल करे! शायद यही सभी माता पिता अपनी संतानों के लिए ईश्वर से मांगते हैं, और मैं भी अपवाद नहीं था। पूजा पाठ के बाद खाने पीने का बढ़िया इंतजाम आयोजित था - और क्या चाहिए? एक तो त्यौहार का आनंद, और ऊपर से संतान का सुख। सबसे बड़ी बात - हम ऐसे लोगों से घिरे हुए थे, जो हमारे शुभचिंतक थे। बस, आनंद ही आनंद!
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यह कहानी अधूरी है और बेकार है, अगर मैं अपने पेरेंटहुड की बात न करूँ। माता-पिता बनने का सुख ऐसा अलौकिक होता है कि क्या कहें? हाँ - यह डगर बहुत ही काँटों भरी है, लेकिन फिर भी अंत में पारलौकिक सुख भी मिलने की बड़ी सम्भावना होती है। सच है कि मैंने बस अभी अभी ही पेरेंटहुड के एक लम्बे सफर में बस अपना पहला कदम ही रखा था, लेकिन फिर भी, ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह सफर बहुत सुखदायक होगा!
माता पिता होना शायद सबसे बड़ा स्वार्थहीन कार्य होता है। इसमें भी अपवाद हैं - किस चीज़ में नहीं होते? अपने बच्चों से हमको बड़ी सारी उम्मीदें होती हैं। इसलिए यह कोई निःस्वार्थ काम नहीं है। लेकिन कम से कम शुरू के दिनों में माता पिता होना शायद सबसे बड़ा स्वार्थहीन कार्य होता है! हाँ - यह ठीक रहेगा। खुद माता-पिता बनने से पहले, मुझे कई सारे किस्से कहानियां और अनुभव उपलब्ध थे - मेरे माता-पिता के, गैबी के, देवयानी के माता-पिता के, काजल के, जयंती दी के अनुभव और कथाएँ! लेकिन वो सब केवल कहानियाँ ही थीं। उनको सुनना सुनाना आसान बात है। असल बात तो तब होता है जब आप उन कहानियों को जीते हैं।
छोटी छोटी बातें, जो हर माता पिता के जीवन में होती हैं, लेकिन खुद के लिए वो बहुत ही अनोखी और बहुत ही आश्चर्यजनक होती हैं। जब आपकी संतान आपको देख कर मुस्कुराती है, जब वो सोते सोते ही अचानक ही मुस्कुराती है, आपकी आवाज़ सुन कर जब उसका रोना बंद हो जाता है, आपकी गोद में आ कर जब उसका रोना बंद हो जाता है, आपकी तोतली आवाज़ सुन कर जब वो मुस्कुराने लगती है -- इन सभी बातों का औरों के लिए क्या मोल? लेकिन आपके लिए यह सभी बातें अमूल्य होती हैं! आप चाहते हैं कि वो सभी दृश्य आपके मानस पटल पर सदैव अंकित रहें। बच्चों का यही भोलापन उनको धरती पर ईश्वर का रूप बना देता है। बाद में उनके अंदर दुनियादारी की बदमाशी आ जाती है। इसलिए बच्चे भोले रहें, तो अच्छा! बहुत भावुक नहीं होऊँगा यहाँ, लेकिन अपनी दो संतानों के खोने के बाद आभा बहुत ही अमूल्य है मेरे लिए। मरी के साथ मेरा एक और बच्चा होने वाला था - लेकिन उसकी परवरिश में मेरा कोई प्रभाव नहीं होना था। वो गेल और मरी की संतान थी। इन सभी कारणों से मेरे मन में इतना स्नेह, इतना प्रेम भरा हुआ था अपनी संतान के लिए, कि मुझे डर था कि आगे चल कर कहीं मैं अपनी बच्ची को बिगाड़ न दूँ! लेकिन मुझे यह भी मालूम था कि देवयानी के होते हुए आभा का लालन पालन सही ढंग से ही होगा। बच्चे प्रेम के कारण नहीं बिगड़ते, वरन, ग़ैर ज़िम्मेदार पैरेंटिंग की वजह से बिगड़ते हैं।
आभा अपने नाम के अनुरूप ही हमारे जीवन का वैभव थी। हम सभी के जीवन का। वो बहुत कम रोती थी - जब भूखी रहती, या फिर जब उसको सू-सू पॉटी होता - तब। बाकी पूरे समय वो मुस्कुराती रहती थी, और अपने चारों तरफ ख़ुशियाँ बिखेरती रहती थी। कोई भी उसको देखता, तो मुस्कुराए बिना न रह पाता। और दिन प्रतिदिन उसका भोला सौंदर्य साफ़ होता जाता। गोल गोल, फलों जैसे मीठे गाल! रूई के फाहों जैसे कोमल, मुलायम, और स्वादिष्ट अंग - उसको देख कर उसको खा लेने का मन करता था। लगता था कि कैसे कर के उसको अपने अंदर समाहित कर लूँ। आभा में हम दोनों के ही सबसे बेस्ट फ़ीचर्स आए हुए थे - और यह देख कर मैं बहुत खुश होता! मैं चाहता था कि हमारी संतान हो तो बहुत सुन्दर सी हो, बुद्धिमान हो, और स्वस्थ हो। आभा को देख कर ऐसा ही लगता था। और मैं ईश्वर को इसके लिए तहेदिल से शुक्रिया करता था - हर रोज़!
एक बार की बात है। मैं और डेवी ड्राइंगरूम में बैठे टीवी देख रहे थे - पेरेंट्स बनने के बाद एक असंभव सा काम! अचानक ही हम दोनों को लगा कि कहीं से बहुत धीमी सी आवाज़ आ रही है। ये आभा थी, जो अपनी सुरीली सी आवाज़ में रो रही थी। माँ की ममता - देवयानी ने तुरंत कहा, ‘भूखी होगी’!
मैं भाग कर कमरे में गया, और सम्हाल कर आभा को बाहर उठा लाया।
डेवी ने उसको चेक किया - हाँ, भूख ही लगी थी। उसने अपने गाउन का बटन खोलना शुरू कर दिया। नए नवेले पेरेंट्स को क्या अनुभव होता है? लेकिन प्रकृति उनको अंतर्दृष्टि देती है, कि अपनी संतान की देखभाल वो कैसे करें! कुछ ही पलों में देवयानी के दूध से भरे स्तन बाहर प्रदर्शित थे।
उसने आभा को अपनी गोदी में लिया, और सोफे पर बैठ गई। मैं जल्दी से गया और एक तकिया लेता आया, डेवी के पीठ के नीचे लगाने के लिए, जिससे कि उसको आराम से बैठने को मिले। डेवी ने आभा के गाल पर अपना निप्पल फिराया - बच्चे को जानी पहचानी गुदगुदी महसूस हुई। वो मुस्कुराने लगी! एंजेलिक स्माइल! डेवी भी उसकी मुस्कुराने पर मुस्कुराए बिना न रह सकी। उसने ऐसे ही आभा को गुदगुदाते हुए अपना निप्पल उसके मुँह में दे दिया। उधर मैं इस अद्भुत से क्रिया कलाप को आश्चर्य और उत्सुकता से देख रहा था। पहली बार नहीं था - लेकिन फिर भी अद्भुत लगता। मैं उसके बगल में ही बैठा आभा को स्तनपान करते देखता रहा। दूध पीते हुए वो ऐसी संतोष भरी आवाज़ निकाल रही थी कि लग रहा था कि मेरा ही पेट भरा जा रहा हो। और भी एक बात पर आश्चर्य हो रहा था मुझको - देवयानी एक आधुनिक महिला थी। उसका सब कुछ बड़ा ही नया था। वो करियर वुमन थी, बहुत ही बड़ी पोस्ट पर थी, बढ़िया कमा रही थी इत्यादि! लेकिन फिर भी मातृत्व को ले कर वो कितनी ट्रेडिशनल थी! मैं सच में विश्वास नहीं करता था जब वो बोलती थी कि वो हमारे बच्चे को यथासंभव स्तनपान कराएगी।
लेकिन माँ बनना सब कुछ बदल देता है शायद? या फिर नहीं? हो सकता है कि डेवी हमेशा से ही ऐसी ही, कोमल हृदय की, सीधी सादी सोच वाली लड़की रही हो!
मैं बिना कुछ कहे, पूरा समय आभा को देखता रहा। जब उसका पेट भर गया तो वो यूँ ही, हमेशा की तरह निढाल हो कर सो गई। किसी प्रेरणावश मैंने देवयानी का हाथ अपने हाथ में लिया, और उसको चूम लिया।
“थैंक यू!” मैंने कहा।
“हे,” वो बोली, “क्या हो गया तुमको?”
“इट वास अ डिवाइन सीन!”
“हम्म! वेल, इट इस अ डिवाइन एक्सपीरियंस!”
“व्हाई डस इट फ़ैसीनेट मी सो मच?” मैंने आभा के नन्हे से हाथ को अपनी ऊँगली से सहलाते हुए कहा।
“क्योंकि तुम इसके पापा हो! आई थिंक यू विल बी फ़ैसीनेटेड बाई ऑलमोस्ट एवरीथिंग दैट शी डस! इस्पेसिअलि ड्यूरिंग द फर्स्ट थ्री ऑर फोर इयर्स!”
“हा हा! कितनी नन्ही सी है न? डर लगता है कि कहीं मैं इसको गिरा न दूँ, दबा न दूँ! कहीं इसको चोट न लग जाए!”
“मत डरो! दैट कंसर्न विल मेक यू अ ग्रेट डैड! यू आर सो जेंटल, एंड आई थिंक दैट आभा विल गेट सो मच लव फ्रॉम यू! सो, डोंट वरि!”
“आई ऍम हर फादर! आई ऍम सपोस्ड टू वरि!”
“हा हा हा हा हा! सोचो, जब ये अपने बॉयफ्रेंड को तुमसे मिलवाने लाएगी, तब तुम्हारा क्या हाल होगा?”
“बॉयफ्रेंड! हे भगवान्! अभी ये ठीक से दस दिन की भी नहीं हुई है, और हम बॉयफ्रेंड की बातें करने लग रहे हैं! अभी तो इसको सूसू पोटी से ही फुर्सत नहीं है!”
“हनी, रिलैक्स! बहुत समय है अभी। बॉयफ्रेंड तब आएगा, जब ये पंद्रह सोलह की होगी। अभी टाइम है।” डेवी हँसते हुए बोली, “और मैं भी तो हूँ न तुम्हारे साथ! अकेले थोड़े न ये सब झेलने दूँगी तुमको!”
“आई लव यू!”
“आई नो!”
“यू आर द बेस्ट!”
“आई नो!”
“आई ऍम सो ग्लैड दैट यू आर इन माय लाइफ!”
“सेम हियर!” वो मुस्कुराई, फिर कुछ रुक कर बोली, “पियोगे?”
“सच में?”
“हाँ - बहुत बन रहा है। डोंट वरि!”
मैंने देवयानी का एक चूचक अपने मुँह में लिया, और जीभ और तालू के बीच दबा कर हलके से चूसा। मीठे दूध की पहली पतली धाराएँ तुरंत उसके चूचक से बाह निकलीं और मेरे गले को तर करते हुए मेरे पेट को भरने लगीं। माँ और काजल के दूध का स्वाद भूल चुका था। यह एक नया स्वाद था। अलग ही तरह का! ऐसा लग रहा था कि जो हम खा रहे थे, उसकी महक, उसका स्वाद मिला हुआ हो डेवी के दूध में! लेकिन स्वादिष्ट, और थोड़ा क्रीमी।
दूध ख़तम होने पर मैंने महसूस किया कि डेवी के स्तन का भार थोड़ा कम हो गया। बाप रे, बेचारी को कितनी तकलीफ होती होगी न? अभी भी उसको रह रह कर शरीर में दर्द होता था। हम किसी मालिश वाली की तलाश में थे, और एक घर का काम करने वाली के भी। हाँलाकि माँ कभी कभी डेवी की मालिश कर देती थीं, लेकिन वो हमेशा यहाँ रह तो नहीं सकती थीं। जैसे ही कोई कामवाली मिल जाए, उनको डैड के पास वापस भेजा जा सकता था।
“कैसा लगा?” उसने पूछा।
“नेक्टर!”
वो मुस्कुराई। मैं उसको कुछ देर यूँ ही देखता रहा, और फिर हठात उठ कर उसके होंठों को चूम लिया। उसकी मुस्कान और भी चौड़ी हो गई।
“क्या हुआ?”
वो बोली, “कुछ नहीं। एक नर्स की बात याद हो आई - वो कह रही थी कि नए नए डैडीज़ को उनके बच्चों का नाम ले कर आराम से उल्लू बनाया जा सकता है!”
“बदमाश औरतें!” मैंने बुरा न मानते हुए कहा, “सब की सब!”
“बदमाश? हम?” वो हँसते हुए बोली, “मैं तो इनोसेंट सी थी - तुमने ही मुझे ख़राब कर दिया! और देखो, तुम्हारा बच्चा पाल रही हूँ!”
“मतलब ख़राब हो गई!”
“सेक्सी से नॉन सेक्सी हो गई!”
“वापस सेक्सी हो जाओगी! लेकिन मेरे लिए तुम दुनिया की सबसे सुन्दर लड़की हो!”
“सच में?”
“आई नेवर लाई टू यू!”
“कम हियर,” उसने मुझे चूमा, और फिर बोली, “गिव मी अ फ्यू वीक्स! देन व्ही विल हैव अमेज़िंग सेक्स!”
“आई ऍम इन नो हरी माय लव!” मैंने फिर से उसके होंठों को चूमा, “तुम जल्दी से ठीक हो जाओ, बस, मेरा इतना ही कंसर्न है!”
“कल ऑफिस जाओगे?”
“हाँ - छुट्टी ख़तम हो गई न!” मैंने उदास होते हुए कहा।
“ओह्हो! चिंता न करो!”
“कैसे न करूँ? और फिर इसकी याद भी तो बहुत आएगी न!”
देवयानी मुस्कुराई - वो समझ रही थी कि मैं क्या महसूस कर रहा था।
“यू ऑलवेज वांटेड अ बेबी, डिडन्ट यू?” उसने कहा।
“यस!” मैंने आभा को सोते हुए देखते हुए कहा।
“एक और चाहिए?”
मैं मुस्कुराया, “डेवी, माय लव... तुम्हारे कारण मुझे पहले ही इतनी सारी खुशियाँ मिल गई हैं!” फिर थोड़ा ठहर कर, “हाँ, एक और! लेकिन केवल तभी जब तुम पूरी तरह से हेल्दी हो जाओ! और ये, हमारी नन्ही सी गुड्डा थोड़ा बड़ी हो जाए!”
“हाऊ वैरी वाइज़ मिस्टर सिंह! आई ऍम हैप्पी दैट यू सेड इट! वैसे भी दो बच्चों में तीन से चार साल का गैप तो होना चाहिए! तब मैं फिर से परफेक्ट शेप और हेल्थ में रहूँगी बच्चे के लिए!”
“डेवी, मैंने पहले भी कहा है, कि ये सब तुम्हारा डिसीज़न रहेगा! तुमको इन बदमाशों को अपने पेट में नौ महीना पालना है! इसलिए मैं दूसरे बच्चे के लिए कभी ज़ोर नहीं दूँगा। तुम बढ़िया हो, तो सब अच्छा है! तुम मेरा प्यार हो! अगर तुमको कुछ हो गया, तो मेरा सब कुछ तबाह हो जायेगा!”
“अरे, ऐसे क्यों बोल रहे हो? मैं हूँ! ऐसे मत सोचो! ऐसे नहीं जाने वाली और इतनी जल्दी नहीं जाने वाली! मैं तुमको बहुत सताने के बाद ही जाऊँगी! कहे देती हूँ!”
“वायदा?”
“पक्का वायदा!” वो मुस्कुराई, “आई ऍम सो हैप्पी दैट आई ऍम योर वाइफ!”
“सो ऍम आई! मोर दैन यू नो!”
देवयानी ने मेरी आँखों में देखते हुए कहा, “आई थिंक आई नो, अमर! तुम्हारा चेहरा खुली किताब है - तुम्हारे थॉट्स सब साफ़ साफ़ दिखते हैं! तुमको क्या लगता है कि मैंने ऐसे ही तुमसे शादी कर ली? अरे तुम्हारे पास आने से मेरे दिल की धमक बढ़ जाती है! ऐसा शानदार हस्बैंड है मेरा! यू आर अ वंडरफुल हस्बैंड, एंड यू विल बी अ ग्रेट फादर!”
“एंड यू विल बी एन अमेज़िंग मदर!”
हाँ - माता पिता बन के हमारे बीच सेक्स गायब हो गया लेकिन हमको उस बात की कोई चिंता नहीं थी। सेक्स गायब हो गया हो तो होता रहे! लेकिन हमारे बीच का प्रेम प्रगाढ़ हो गया है। डेवी ने मेरी ज़िन्दगी में वो मुकाम, वो स्थान हासिल कर लिया था, जहाँ वो मेरे दिल की, मेरे संसार की रानी हो गई थी। हमारा सम्बन्ध अब अटूट हो गया था।
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nice update..!!नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #4
इस बार दीपावली बड़ी धूम धाम से मनाने का मन था। लेकिन दिल्ली से बाहर जाना असंभव था। आभा के जन्म के तीन ही हफ़्तों में दीपावली थी, और इतने कम समय में वो किसी सफ़र के योग्य नहीं थे। इसलिए माँ और डैड इस बार स्वयं आ गए। साथ में काजल, सुनील और लतिका। मेरा पूरा परिवार मेरे साथ! त्यौहार के दो दिन पहले मुझे एक कामवाली मिल गई, तो माँ और काजल ने उसको सब काम समझा दिया, और त्यौहार के बाद आने को कह दिया। उसको रवाना करने से पहले मैंने उसको कुछ रुपए दे दिए त्यौहार के लिए। वो बेचारी भी खुश हो कर चली गई।
वैसे देवयानी की हालत भी अब तक काफी ठीक हो गई थी - और समय के हिसाब से उसका गर्भावस्था वाला वज़न भी काफी कम हो चला था। माँ इस पूरे समय तक हमारे साथ रहीं, और उनके रहने से हमको बहुत सम्बल मिला। लेकिन अब उनको भी डैड से अलग रहते हुए एक लम्बा अर्सा हो गया था। दीपावली के बाद सुनील के बोर्ड की परीक्षा, और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं वाला दौर बस शुरू ही होने वाला था। इसलिए उनका वापस घर जाना आवश्यक था। अकेले काजल के ऊपर ही सब डाल कर निश्चिन्त तो नहीं रहा जा सकता था न? देवयानी और खुद मैंने भी उनसे कहा कि सब कुछ पटरी पर आ गया है, इसलिए वो त्यौहार के बाद निश्चिन्त हो कर वापस जा सकती हैं। माँ ने भी संतुष्ट हो कर वापस जाने के लिए हाँ कह दी। डैड इतने दिनों तक माँ के बग़ैर शायद पहली बार रहे थे। बीच बीच में वो यहाँ आते रहे, लेकिन हर बार, केवल एक दो ही दिनों के लिए!
दीपावली की जगमग देखने योग्य थी। हमारा पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। हमारा - मतलब मेरा और देवयानी का, देवयानी के डैडी का, और डैड और माँ का! ख़ुशी थी, तो उसका इज़हार करना बहुत आवश्यक होता है। इस बार उपहार देने की बारी हमारी थी - देवयानी और मैंने ने लतिका के लिए सोने के कंगन और सोने की ज़ंजीर बनवाई थी... काजल के लिए सोने और हीरे के कर्णफूल... और सुनील के लिए नया सूट! उसको हमने वायदा किया कि अगर वो आई-आई-टी गया, तो उसको हम एक डेस्कटॉप देंगे! वो मारे ख़ुशी के फूला नहीं समाया। उधर डैड भी अपने समधी और अन्य छोटे बच्चों के लिए उपहार लाए हुए थे, और ससुर जी भी सभी के लिए उपहार लाए हुए थे। मैंने ससुर जी के लिए एक इम्पोर्टेड स्कॉच खरीदी थी। जयंती दी को मैंने एक साड़ी दी, और माँ और डैड ने सोने का हार! परिवार में सभी कुछ न कुछ उपहार पा कर प्रसन्न थे। स्वादिष्ट भोजन, संगीत, पटाखों, और हंसी मज़ाक करते करते दीपवाली के दो दिन कैसे बीत गए, पता ही न चला! फिर आई सबके वापस जाने की बेला।
अपनी पोती को छोड़ कर जाने का सोच कर ही माँ और डैड हलकान हुए जा रहे थे। काजल भी रो रही थी। जैसे तैसे उन सभी को समझा बुझा कर विदा किया गया। मैंने डेवी को एक बार बताया था कि माँ और डैड दीपावली पर सम्भोग अवश्य करते हैं। तो ये शायद पहली बार था कि इस परंपरा में अवधान हुआ था। वो भी यह सोच कर दुखी हुई। एक तो इतने दिनों का बिछोह, और ऊपर से अपनी प्यारी पोती को छोड़ कर जाना। लेकिन, यह ऐसा कोई कष्ट नहीं था जिसका कोई निवारण न हो। हमने सभी से वायदा किया कि जैसे ही हम तीनों यात्रा योग्य होंगे, भागे भागे चले आएंगे घर्म उन सभी से मिलने।
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डैड अव्वल दर्ज़े के सज्जन पुरुष थे। अपनी प्यारी सी, सुन्दर सी पत्नी के इतने लम्बे वियोग में उनको तड़प तो हुई होगी - लेकिन उन्होंने इस जैसे कैसे कर के भी अपने ऊपर नियंत्रण रखा हुआ था। यह समझना आवश्यक है कि उनकी सज्जनता इसलिए भी गुणगान करने योग्य है क्योंकि घर में काजल जैसी सुन्दर सी स्त्री भी रह रही थी - जिससे उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। कोई भी पुरुष उसकी सुंदरता पर बड़ी आसानी से फिसल सकता था। लेकिन डैड ने उसको अपनी बेटी का दर्जा दिया था, लिहाज़ा, वो पूरी मर्यादा से उस रिश्ते का पालन कर रहे थे। काजल भी उनका बहुत आदर सम्मान करती थी, और पूरे मनोयोग से उनकी देखभाल कर रही थी। अगर उसका फिसलने का मन भी किया होगा, तो उसने उस इच्छा पर नियंत्रण रखा था।
और सबसे बड़ी बात है माँ का व्यवहार! किसी परस्त्री को इतने प्रेम से, इतने विश्वास से अपने घर में, अपने संसार में जगह देना किसी छोटे मन वाली स्त्री के बस की बात नहीं। माँ ने अपने संसार का सब कुछ काजल और उसके बच्चों से बाँट लिया था। भोले बच्चों के व्यवहार से समझ में आता है कि उनको कितने प्रेम से पाला जाता है - लतिका अपनी माँ से अधिक, मेरी माँ से लिपटी रहती। उसको घर के सभी लोग ‘मम्मा की पूँछ’ कह कर छेड़ते। लेकिन वो इस बात से बुरा नहीं मानती थी। पूँछ तो वो थी ही अपनी मम्मा की!
घर आ कर डैड और माँ इन महीनों में पहली बार सम्भोग कर रहे थे।
“अरे यार, एक गड़बड़ हो गई!”
“क्या?”
“प्लीज तुम नाराज़ मत होना मुझसे?”
“बोलिए भी न! ऐसा क्या हो गया? और मैं आपसे कभी नाराज़ हुई हूँ, जो आज हो जाऊँगी?
“मुझे काजल का दूध पीना पड़ गया!”
“क्या? सच में? हा हा! कैसे?” माँ ने हँसते हुए पूछा।
फ्लैशबैक -
अचानक देर रात दरवाज़े पर दस्तख़त हुई, तो डैड की झपकी टूटी।
‘इस समय कौन?’
“ह... हाँ?” उन्होंने चौंक कर जागते हुए कहा।
“बाबू जी?” दरवाज़े से काजल की हिचक भरी आवाज़ सुनाई दी।
“हाँ बेटा?”
“जी मैं अंदर आ जाऊँ?” काजल बड़े संकोच से बोली।
“अरे, इसमें पूछने वाली क्या बात है? आओ!”
कमरे में अँधेरा था, लेकिन डैड को लग रहा था कि काजल उनके बिस्तर के बगल आ कर खड़ी हो गई है।
“क्या हुआ बेटा?”
डैड ने चिंतिति स्वर में कहा। काजल ने आज से पहले ये काम (मतलब उनके कमरे में बिना माँ की उपस्थिति के प्रवेश) नहीं किया था - इसलिए डैड की चिंता लाज़मी थी।
“बाबू जी, कैसे कहूँ! कुछ समझ ने नहीं आ रहा है!”
“क्या हुआ काजल?” अब उनकी चिंता और भी अधिक बढ़ गई थी, “कोई समस्या है?”
“बाबू जी, व... वो वो मैं!”
“क्या हुआ बेटा?” डैड ने काजल का हाथ पकड़ कर बिस्तर पर बैठा कर कहा, “संकोच न करो! बताओ न! क्या हुआ? सब ठीक है न? कोई तकलीफ है?”
“जी! व... वो मेरे सीने में दर्द हो रहा है!”
“सीने में दर्द?”
काजल ने अँधेरे में ही ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“गले और बाँह में तो नहीं?”
जब भी आप कुछ नया सुनते हैं, या देखते हैं, तो अक्सर उसके ‘चरम सीमा’ पर जा कर सोचने लगते हैं। अल्प-ज्ञान इसीलिए दुःखदायक होता है, और हानिकारक भी। डैड को लगा कि शायद काजल को दिल से सम्बंधित कोई समस्या हो गई है - हार्ट अटैक जैसी! काजल का मन हुआ कि वो अपना सर पीट ले - लेकिन गलती उसी की थी। ठीक से बताना चाहिए न अपनी समस्या।
“जी, वो वाला दर्द नहीं है ये...”
“क्या हुआ काजल? ठीक ठीक बताओ?”
“बाबू जी, बात दरअसल ये है कि पुचुकी तबियत खराब होने की वजह से चार दिन से मेरा दूध नहीं पी रही है। और सुनील भी पिछले दो दिनों न जाने क्यों दूध पीने से इंकार कर रहा है।”
“अच्छा?” फिर अचानक ही पूरी बात समझते हुए, “ओह, ओह! मतलब स्तनों में दर्द है?”
काजल - झिझकते हुए, “जी!”
“ओह!” डैड को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें इस मामले में।
“डॉक्टर को दिखा दें?”
“डॉक्टर?” काजल ने ही उनकी गुत्थी सुलझा दी, “आप पी लेंगे?”
“क्या?”
“बाबू जी, बहुत दर्द है! प्लीज आ पी लीजिए?”
“लेकिन बेटा, मैं तो तुमको अपनी बेटी मानता हूँ! मैं कैसे?” डैड उसकी बातों से एकदम भौचक्के रह गए!
“बाबू जी, आपके उसी विश्वास, उसी भरोसे के कारण ही तो मैं ये सब बोलने की हिम्मत कर पा रही हूँ।” काजल ने कहा।
उसकी आँखों में आँसू आ गए थे अब तक। कुछ दर्द के कारण, कुछ शर्म, और कुछ झिझक के कारण!
“वो सब तो ठीक है, लेकिन...”
“मैं मर जाऊँगी बाबू जी! बहुत दर्द हो रहा है। अगर बर्दाश्त कर पाती, तो मैं न कहती कुछ!”
बात तो सही थी।
ढाई साल से वो हमारे साथ रह रही थी, और एक बार भी उसने अपनी शीलता को अनावृत नहीं होने दिया। बस एक बार ‘वैसा’ कुछ हुआ था - वो नहाने के बाद जब बाथरूम से बाहर निकली थी, तो डैड ने उसको केवल पेटीकोट पहने बाहर आते देखा था। डैड को देखते ही उसने झट से अपने स्तन अपने हाथों से छुपा लिए थे, और वहाँ से भाग खड़ी हुई थी। डैड ने भी अपनी ‘बेटी’ को ऐसी हालत में देख कर तुरंत अपनी नज़रें हटा ली थीं। इसलिए दोनों में बाप बेटी वाला ही स्नेह, आदर, और विश्वास था।
“हे प्रभु! क्या करूँ मैं! अजीब धर्म-संकट है!” डैड ने बुदबुदाते हुए कहा।
“ठीक है! मत पीजिए। लेकिन ज़ोर से दबा दीजिए इनको। कुछ दूध निकल जायेगा, तो थोड़ा आराम मिल जाएगा! मुझ से तो वो भी नहीं हो पा रहा है। खुद से करने की हिम्मत नहीं हो पा रही है! छूने से ही इतना दर्द हो रहा है। दर्द से फ़ट जाएँगे दोनों, ऐसा लग रहा है!” काजल ने मिन्नत करी।
“मैं सुनील को बुला देता हूँ।” डैड ने कुछ देर सोच कर बीच का, और सुरक्षित रास्ता निकाला।
“सो रहा है वो... आहहह!”
“हे भगवान्!”
“आप ही… ओह्ह्ह बाबू जी! बहोत दर्द है!”
डैड घबरा गए। उनके पास काजल की सहायता करने का साधन था, इसलिए उनको ग्लानि भी हो रही थी कि वो उसकी सहायता नहीं कर रहे हैं। लेकिन उसकी उस कातर, दर्द भरी कराह ने डैड की हिचक तोड़ दी।
“अच्छा ठीक है! मैं ही...”
“ओह थैंक यू बाबू जी! थैंक यू!” काजल ने राहत की साँस ली।
“बेटा, मैं सिरहाने पर तकिए लगा देता हूँ; तुम पीठ से टेक लगा आराम से बैठ जाओ।”
“और... आप?”
“मैं तुम्हारे सामने रहूँगा!”
“नहीं! मेरा मतलब है - आप पिएंगे या कि दबाएँगे?” काजल अभी भी झिझक रही थी।
दोनों के बीच में एक अलग ही तरीके की दीवार थी, जो अब गिरने वाली थी।
“तुम क्या चाहती हो?”
“पी लीजिए न?” काजल ने झिझकते हुए कहा, भली भाँति जानते हुए कि स्तनपान करने में क्या करना होता है, “वेस्ट क्यों करना?”
“ठ ठीक है!”
डैड ने सिरहाने पर तीन तकिए लगा कर ऐसी व्यवस्था कर दी, कि काजल को आराम मिल सके। उसके दोनों स्तनों में प्रचुर मात्रा में दूध भरा हुआ था, और और भी बनता जा रहा था। वो तनाव तो कम नहीं हो रहा था। ऊपर से गुरुत्व के प्रभाव से और भी भीषण तनाव और दबाव बन रहा था। बात ठीक थी - एक कोण पर लेटने से वो तनाव कुछ कम हो जाता। काजल को लगभग तुरंत ही थोड़ा सा आराम तो मिला।
“आह्ह्ह!”
“क्या हुआ?”
“कुछ नहीं! थोड़ा आराम मिला।”
“हम्म! मैं बत्ती जला दूँ, या ऐसे ही?”
“जला दीजिए...”
डैड बिस्तर से उठे, और जा कर कमरे की बत्ती जला आए। रौशनी में उनको काजल का कातर, पीड़ित, और अश्रुपूरित चेहरा दिखाई दिया। उसके सीने पर उसका ब्लाउज़ और साड़ी का आँचल दूध के रिसने से भीग गए थे।
“मत रो काजल! अभी सब ठीक हो जाएगा।”
डैड की बात पर काजल बड़े जतन से मुस्कुराई।
डैड काजल से सामने आ बैठे। माहौल को थोड़ा हल्का बनाने की गरज से डैड ने कहा,
“अम्मा के बाद तुम्हारा ही दूध पी रहा हूँ!”
“दीदी ने नहीं पिलाया कभी?” काजल ने तुरंत कहा।
“दीदी?”
“मेरा मतलब माँ जी! मैं उनको दीदी कहती हूँ अब!”
“हा हा! सुमन को दीदी, और मुझे बाबू जी? अरे भई, अब इतना बूढ़ा भी नहीं हूँ मैं!”
“नहीं! आप बूढ़े नहीं है! आप मेरे दादा हैं - मेरे बड़े भैया! लेकिन ऐसा होने से आपका स्थान मेरे पिता से कम तो नहीं हो जाएगा!” काजल ने बड़ी शिष्टता से कहा, “आप मेरे लिए हमेशा मेरे बड़े, मेरे आदरणीय रहेंगे!”
“कौन बाप या भाई, अपनी बेटी या बहन के साथ ऐसे करता है?”
“आप ऐसे क्यों सोच रहे हैं? मैं तकलीफ़ में हूँ, और आप मेरी मदद कर रहे हैं! बस!” काजल ने कहा, और फिर उसने अपना आँचल अपने सीने से हटा दिया।
उसकी ब्लाउज पर दोनों स्तनों के सामने दूध रिसने के कारण बड़े बड़े गीले धब्बे बन गए थे। डैड ने काँपते हाथों से काजल की ब्लाउज सारे बटन धीरे धीरे, एक एक कर के खोल दिए। काजल की भी साँसें चढ़ गई थीं। यह सामान्य सी घटना नहीं थी। न तो काजल स्वेच्छा से डैड के सामने नग्न हुई थी, और न ही डैड के उसको नग्न देखने की कोई इच्छा पाली थी।
काजल ने ब्रा नहीं पहनी हुई थी - वरना अब तक तो वो पक्का दर्द से मर जाती। दोनों स्तन आकार में काफ़ी बड़े लग रहे थे - तनावग्रस्त! दोनों चूचक तन गए थे। और एरोला भी बाहर उभर आए थे। डैड ने ऊँगली से उसके चूचक के गिर्द छुआ। काजल की सिसकी निकल गई।
“बहुत सख्त हो गई है!” उन्होंने कहा।
“खेलिएगा बाद में! अभी जल्दी से पी कर इन्हे खाली कर दीजिए?”
“अरे, खेल नहीं रहा हूँ!”
“जो भी है!”
डैड ने कुछ नहीं कहा, और आगे बढ़ कर उन्होंने काजल के एक चूचक को अपने मुँह में भर लिया। साथ ही दोनों हाथों से उन्होंने उसके स्तन को पकड़ भी लिया। दरअसल उनका प्लान था कि उसके स्तनों को दोनों हाथों से दबा कर वो उसके चूचक को चूस लेंगे। और किया भी वही। दूध तुरंत ही फौव्वारे के रूप में निकला, लेकिन काजल को अपने स्तन में विस्फ़ोट की अनुभूति हुई।
“आआआहहहहह!” दर्द से उसकी चीख निकल गई।
डैड रुकने की हालत में नहीं थे। उनका मुँह दूध से भर गया था। जब तक उन्होंने दूध को थोड़ा थोड़ा कर के गटका, तब तक फिर से उनका मुँह भर गया। काजल सही कह रही थी - इतना दूध भरा रहेगा, तो दर्द तो अवश्यम्भावी ही है।
“आअह्ह्ह! मर गई! लेकिन कितना आराम मिला!”
डैड कुछ बोलते, कि काजल ने अपनी प्रतिक्रिया दिखा दी।
“आह! दूसरा वाला भी...”
डैड ने पहला चूचक छोड़ दिया - लेकिन उसमे से बूँद बूँद कर के दूध गिर रहा था। उन्होंने दूसरे वाले पर भी वही प्रक्रिया करी, जो पहले वाले पर करी थी। इस बार काजल केवल कराही - चीखी नहीं। उसके स्तनों में दो दिनों से बन रहा दबाव और भीषण दर्द अब समाप्त हो चुका था। लेकिन अभी भी उसके स्तन भरे हुए थे - कम से कम अस्सी प्रतिशत!
“दर्द कम हुआ बेटा?”
“हाँ भैया!” काजल ने राहत की साँस लेते हुए कहा, “बहुत आराम है!”
“मैं कल सुनील से कहूँगा कि वो दूध पीना बंद न करे!”
“जी! प्लीज समझा दीजिए उसको। बहुत दूध बनता है - अगर कोई पिएगा नहीं, तो मेरी तो हालत ही खराब हो जाएगी।”
“ठीक है! कल मैं उसको और पुचुकी - दोनों को समझा दूँगा!” डैड ने कहा, और काजल से अलग होने लगे।
“लेकिन आप कहाँ जा रहे हैं?”
“तुमने ही तो कहा कि दर्द कम हो गया!” डैड ने न समझते हुए कहा।
“जी, दर्द कम हुआ है, लेकिन आधे घंटे में फिर से होने लगेगा! मेरी दोनों छातियाँ अभी भी भरी हुई हैं!”
“ओह!”
“आप ही को पीना है सारा!”
“अच्छी बात है!” डैड ने कहा, “लेकिन अब थोड़ा आराम से हो जाओ?”
डैड ने कहा और उसकी ब्लाउज उतारने लगे, “तुम बहुत अच्छी हो काजल बेटा! मैं तुमको बहू के रूप में तो न पा सका, लेकिन मुझे ख़ुशी है कि तुम मेरी बेटी ज़रूर बन गई!”
“मैं भी तो बहुत भाग्यशाली हूँ बाबू जी,” काजल स्नेह से मुस्कुराई, “कि मुझे आप लोग मिले! आप दोनों मेरे लिए मेरे खुद के माँ बाप से कहीं अधिक बढ़ कर हैं!”
काजल के नग्न स्तनों को देख कर अचानक से ही डैड के चेहरे पर उदासी वाले भाव आ गए, “काश कि मेरी पोती रह जाती!”
“ओह बा...बू...जी…” काजल ने कहा और डैड को उसने अपने आलिंगन में भर लिया, “आ तो गई है न एक प्यारी सी गुड़िया!”
“हाँ बेटा,” डैड ने भरे हुए गले से, बहुत भावुक होते हुए कहा, “आ तो गई है!” फिर वो मुस्कुराए, “मेरा परिवार कितना सुन्दर सा है अब - मेरी एक बेटी है और एक बेटा है!”
काजल भी भावुक हुए बिना न रह सकी, लेकिन डैड की बात पर वो मुस्कुराई। उधर डैड बोलते जा रहे थे,
“और अब इतनी सुन्दर सी, गुणी बहू मिल गई! मेरा घर नाती, नातिन और पोती से भर गया है! मुझसे अधिक धनी कौन है भला?”
“हाँ बाबू जी! देवयानी दीदी बहुत प्यारी हैं! और बिटिया भी बिलकुल गुड़िया सी है!” फिर वो कुछ सोच कर मुस्कुराई, “हम तीनों सगी बहनों जैसी हो गई हैं!”
“हा हा हा!” उस भावुक अवस्था में भी डैड हँस पड़े, “विचित्र है मेरा परिवार!”
“आइए, अब आपको दूध पिला दूँ!” कह कर काजल ने एक स्तन डैड के मुँह में दे दिया।
कोई आधे घंटे के स्तनपान के बाद काजल के दोनों स्तन पूरी तरह से खाली हो गए, और वो पूरी तरह से संतोष हो कर मुस्कुराने लगी।
“थैंक यू, बाबू जी!”
“अपने बाप को थैंक यू बोलेगी अब?”
काजल उनकी बात पर मुस्कुराई; लेकिन उसकी आँखों में आँसुओं की झिलमिलाहट भी दिखाई दे रही थी।
“आपकी शरण में आ कर मैं आपकी बेटी भी बन गई, और आज आपको अपना दूध पिला कर आपकी माँ भी!”
डैड दबी आवाज़ में हँसने लगे, “सच में, बहुत विचित्र है मेरा परिवार! रिश्तों में कैसा उलटफेर!”
“विचित्र नहीं, स्नेही! आपके परिवार जैसा स्नेही परिवार मैंने कभी नहीं देखा! भगवान् सभी को ऐसे ही परिवार में पलने बढ़ने दें!” काजल ने आँसू पोंछते हुए कहा, “मैं सच में आपकी छाया में आ कर धन्य हो गई हूँ!”
“नहीं बेटा, धन्य हम हुए हैं, तुम सभी को पा कर!” डैड ने काजल का माथा चूमते हुए कहा, “भगवान् की बड़ी दया है मुझ पर! बेटी की तमन्ना थी - तुम मिल गई! तुम्हारे आने के बाद तो बस, खुशियाँ ही खुशियाँ आई हैं! मैं बहुत सुखी आदमी हूँ!”
“बाबू जी, एक बात बोलूँ?”
“बोलो बेटा?”
“मैं सोचती हूँ कि अब अमर को एक बेटा जाए, तो अपनी लतिका ब्याह दूँगी उसके साथ!”
“तुम भी न काजल! हा हा हा हा!” डैड ठठा कर हँसने लगे, “कितनी छोटी सी तो है पुचुकी और तुम उसकी शादी की सोच रही हो!”
“क्यों? क्यों न सोचूँ? माँ हूँ! और, क्या बुराई है मेरी बेटी में?”
“कोई भी बुराई नहीं है!” डैड बड़ी प्रसन्नता से बोले, “बहुत प्यारी बिटिया है पुचुकी! जहाँ भी जाएगी, उस घर को सुखी कर देगी! तो अगर पुचुकी इस घर की बहू बन कर आएगी, तो सबसे खुश मैं होऊँगा!”
“आप बहुत अच्छे हैं बाबू जी!”
“हाँ! पता है मुझे!” डैड मुस्कुराए, “चल, अब सो जा!”
“गुड नाईट बाबू जी!” कह कर काजल ने डैड के पाँव छू लिए!
“गुड नाईट बेटा!” डैड ने मुस्कुरा कर कहा, “और याद रखो - इस घर में बिटियाएँ अपने माँ बाप के पैर नहीं छूतीं! वो घर की लक्ष्मी होती हैं!”
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प्रिय पाठकों - ये ‘फ्लैशबैक’ लिखने वाली उंगली मुझे अपने प्रिय Kala Nag भाई के कारण हुई है। उन्होंने अपनी कहानी ‘विश्वरूप’ में फ्लैशबैक पर फ्लैशबैक दे कर इतना पकाया है कि मैंने सोचा कि मैं भी अपने पाठकों को थोड़ा पकाऊँ!
nice update..!!नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #5
“अच्छा जी!” माँ ने हँसते हुए कहा, “तो आपको अपनी बेटी का दूध पीने को मिल गया!”
“अरे ऐसे न कहो भाग्यवान! बेचारी को तकलीफ हो रही थी। और क्या करता मैं?”
“हा हा हा हा! अरे ठाकुर साहब, अच्छा किया आपने! मैं बस मज़ाक कर रही हूँ!” फिर माँ ने सोच कर कहा, “फिर सुनील को समझाया आपने?”
“हाँ!”
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फ्लैशबैक -
सवेरे सवेरे सुनील नहा धो कर गुसलखाने से बाहर निकला ही था कि डैड ने उसको अपने पास बुलाया।
“जी बाबू जी?”
“बेटा सुनील, तुमसे एक बात कहनी थी!”
“जी बाबू जी! आप आदेश दीजिए!”
सुनील ने पूरी विनम्रता से कहा। सुनील इतना सभ्य, और सुशील था कि डैड का दिल बाग़ बाग़ हो गया! कैसे अच्छे संस्कार दिए थे काजल ने उसको! कैसा आज्ञाकारी, सुन्दर, और बलवान पुत्र है!
“नहीं बेटा! आदेश नहीं। बस इतना कहना था कि अपनी अम्मा का दूध पीना मत छोड़ो।”
“ओह्हो! अम्मा ने आपको भी परेशान कर दिया इतनी सी बात के लिए!” सुनील ने लड़कपन वाले अंदाज़ में कहा।
“अरे! इतनी सी बात नहीं है बेटा! और ऐसा नहीं है न कि तुम्हारे नुकसान के लिए हम ये कह रहे हैं।”
तब तक काजल भी वहाँ आ गई।
“पर बाबू जी, दूध पीना बच्चों का काम है! पुचुकी को पिलाएँ न! मैं तो अब बड़ा हो गया हूँ! इण्टर में हूँ! कौन लड़का इण्टर में अपनी माँ का दूध पीता है?”
“अमर भैया तो पीते थे?” काजल बोली, “और इतने बड़े हो गए हो, तो सब काम खुद से कर लो!”
“हाँ! पीते तो थे!” डैड ने काजल की बात का अनुमोदन किया।
सुनील चुप हो गया।
“अब बोलो?” काजल को डैड के सहारा मिला तो वो भी सम्मिलित हो गई, “इतने साल तुमको इतना सेया है, दूध पिलाया है, तभी तो ऐसे हुए हो!”
“अम्मा, इस बात से कहाँ इंकार कर रहा हूँ!”
लेकिन काजल अपनी ही झोंक में थी, “तुमको मुझसे शर्म आती है? बाबू जी से शरम आती है? माँ जी से शर्म आती है? इतने बड़े हो गए हो क्या तुम?”
“अम्मा?”
“इस घर में जितना प्यार मिलता है, वो सोच भी सकते हो?”
“अरे काजल,” डैड ने कहा, “ऐसे मत बोलो! तुम सभी हमारे बच्चे हो!”
“सुना?” काजल ने सुनील को सुनाते हुए कहा, “सुना तूने?”
“अम्मा, दूध पीने वाली बात को कहाँ से कहाँ ले जा रही हो!”
“तूने ही तो कहा न, कि बड़ा हो गया हूँ! इसलिए! और ये क्यों पहनी है? चल, हटा ये तौलिया... देखूँ तो कि कितने बड़े हो गए हो?”
कह कर उसने सुनील की कमर पर बंधी तौलिया खोल दी।
सुनील और लतिका - दोनों ही को मेरी ही तरह प्राकृतिक तरीके से रहने की शिक्षा दी जा रही थी, लेकिन सुनील थोड़ा शर्माता था। वो बहुत कम समय के लिए ही नग्न रहता था। शायद इसलिए क्योंकि उसकी एक छोटी बहन भी थी।
डैड ने उसको कोई डेढ़ साल बाद ऐसे नग्न देखा था। अब तक उसके अंडकोष भी थोड़े बढ़ गए थे, और उसका लिंग भी आंशिक रूप से स्तंभित हो गया था। उसके जघन क्षेत्र में घुंघराले बाल भी आने लग गए थे - मतलब लड़का जवान हो गया था! मेरी अपेक्षा सुनील ने दो साल पहले ही जवानी की दहलीज़ पर कदम रख दिया था। उसका शरीर वाकई उम्र के हिसाब से मज़बूत, दृढ़ और विकसित हो गया था। वैसे इस बात में उसके गुणवत्ता युक्त भोजन और नियमित व्यायाम करने का भारी योगदान था, लेकिन इससे माँ के दूध की महत्ता कम नहीं हो जाती। काजल की इस हरकत की आवश्यकता तो नहीं थी, लेकिन उसकी अपने एकलौते पुत्र को स्तनपान कराने की चाह बड़ी बलवती थी। अब वो इस काम को तब तक रोक नहीं सकती थी, जब तक उसकी छाती का दूध पूरी तरह से सूख न जाए।
उधर डैड भी अपने पुत्र की जवानी को देख कर प्रभावित और गौरान्वित हुए बिना न रह सके। उसके वृषण, खुद उनके वृषणों के मुकाबले, बस थोड़े ही छोटे थे।
“वैरी गुड, बेटा!” उन्होंने कहा, और फिर काजल की तरफ़ मुखातिब हो कर बोले, “काजल बेटा, मेरे बेटे के छुन्नू की तेल मालिश कर दिया करो! इसके पूरे शरीर के जैसा ये भी मज़बूत हो जाएगा!”
“बाबू जी!” सुनील ने शरमा कर अपना लिंग अपने हाथों से ढँक लिया!
“अरे इसमें शरमाने वाली क्या बात है? अच्छा बेटा एक बात बताओ - तुम्हारी क्लास में बाकी के लड़के तुम्हारी तरह बुद्धिमान हैं? बलशाली हैं?”
सुनील कुछ बोला नहीं।
डैड ने कहना जारी रखा,
“माँ का दूध अमृत होता है बेटा! जब तक मिले, पीते रहो। इससे शरीर मज़बूत और निरोगी होता है, और दिमाग तेज़!”
“जी,” सुनील ने शरमाते हुए कहा, “ठीक है बाबू जी!”
“आयुष्मान भव पुत्र! विजयी भव!” उन्होंने उसको आशीर्वाद दिया।
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“अच्छा किया आपने, जो सुनील को आपने दूध पीने के लिए मना लिया।” माँ ने कहा, “बेचारी काजल! वो भी क्या करे! माँ है न! दूध जब बनता है, तो कोई क्या करे? मेरी भी तो वैसी ही हालत थी न!”
“हाँ अच्छा लगता है! आज कल बच्चे थोड़े बड़े क्या हो जाते हैं, खुद को माँ बाप से ऊपर मानने लगते हैं!”
“नहीं नहीं, सुनील वैसा नहीं है। बस थोड़ा शर्माता है!”
“काजल बता रही थी, कि तुम अभी भी सुनील को नहलाती हो?”
“हा हा! हाँ न! मैं तो उसको उसकी शादी के दिन भी नहलाऊँगी! बड़ा आया!”
“हा हा हा!” डैड ने हँसते हुए कहा, “तुम भी न!”
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माँ डैड के कमरे के बाहर खड़े सुनील को जब अपना नाम सुनाई दिया तो वो ठिठक कर रुक गया।
आज उसको सोने में बहुत देर हो गई थी - अक्सर ही हो रही थी आज कल! बोर्ड एग्जाम की तैयारी, और फिर उसके साथ ही प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में वो अब बहुत ही मशगूल हो गया था। उसकी हालत अर्जुन जैसी हो गई थी - अब उसको केवल अपना लक्ष्य दिख रहा था - और कुछ भी नहीं! अपनी अम्मा के सपने, बाबू जी और माँ जी की आशाएँ, अपने भैया का प्रोत्साहन और मार्गदर्शन - यह सब उसके लक्ष्य साधने में आयुध (weapons) जैसे थे! और पिछले चार सालों में उसने किसी को भी निराश नहीं किया था। वो हमेशा अपनी कक्षा में अव्वल आता रहा था, और पिछले चार सालों से लगातार उसको वजीफ़ा मिल रहा था। वो चाहता था कि यही क्रम आगे भी बरकरार रहे। अभी अव्वल आना, और प्रतियोगी परीक्षाओं में अव्वल आना - ये दोनों बड़ी अलग बातें हैं। इसलिए उसने एक तपस्या जैसी साध ली थी, और सुनिश्चित किया था कि वो अगले आधे साल तक कड़ी लगन से प्रतियोगिता को साधेगा। आज जब उसने अंततः घड़ी देखी तो पाया कि आधी रात हो गई है, और उसके जग का पानी ख़तम हो गया है। और इसीलिए वो सोने से पहले पानी पीने के लिए अपने कमरे से बाहर रसोई में आया था।
“क्या बात है ठाकुर साहब? दोबारा रेडी हैं आप तो?”
“इतने दिनों बाद मिली हो ठकुराईन! दो बार तो बनता है!”
“हा हा हा! हाँ जी! बिलकुल बनता है!”
सुनील का मन हुआ कि वो चुपचाप अपने काम से काम रखे, लेकिन कमरे के अंदर से आने वाली आहों ने उसके पैर रोक लिए। ऐसा नहीं है कि उसको सेक्स के बारे में कुछ आता नहीं था - मेरे मुकाबले तो वो बहुत ज्ञानी था। उसकी उम्र में मैं तो निरा भोंदू था। दोनों लिंगों के शरीर में जो भेद होता है, उसके कारण और उसके आकर्षण के बारे में उसको पूरा ज्ञान था। लिहाज़ा वो तुरंत समझ गया कि कमरे के अंदर क्या चल रहा था। उत्सुकतावश वो वहीं रुक गया। अगले कुछ मिनट तक कमरे के अंदर से बिस्तर के चरमराने की लयबद्ध आवाज़ें आती रहीं।
“आह्ह्ह! धीरे धीरे!” माँ की आवाज़ आई।
“आह मेरी जान! मज़ा आ गया! हमारी शादी के दिन याद आ गए!” डैड बोले!
“क्यों जी? ऐसे एक रात में मुझको कई बार सताने में आपको बहुत मज़ा आता है?”
“और नहीं तो क्या?”
“हा हा! उई माँ! धीरे धीरे! पहले ही मेरी हालत चरमरा गई है!”
“हा हा हा! हाँ, सॉरी मेरी जान! आज इतने दिनों के बाद मिली हो! इसलिए काबू नहीं रख पा रहा हूँ!”
“तो मत रखिए काबू! लेकिन थोड़ा आराम से!”
“हाँ मेरी प्यारी!”
सुनील उत्सुकतावश दरवाज़े से सट कर खड़ा हो गया। अंदर से वो डैड और माँ की बातचीत, और उनके बिस्तर की लयबद्ध तरीके से आगे पीछे खिसकने की आवाज़ आराम से सुन रहा था। कुछ मिनटों तक दोनों ऐसी ही मीठी मीठी बातें करते रहे और... साथ ही साथ कमरे से बिस्तर की लयबद्ध आवाज़ें आती रहीं।
“देखते देखते हमारा एक बेटा बड़ा हो गया, और बाप भी बन गया,” माँ बोलने लगीं, “और अब दूसरा बेटा भी बड़ी तेजी से बड़ा हो रहा है... कितना अच्छा लगता है न! अपना परिवार फलते फूलते देख कर?”
“हाँ! सच में! मुझे मालूम है, जैसे अमर ने किया है, वैसे ही सुनील भी बहुत तरक्की करेगा!”
“हा हा हा! हाँ - दोनों लगभग एक जैसे ही हैं! जैसे अमर था, वैसे ही सुनील भी!”
“हा हा हा! अच्छा है न! कम से कम हमारे बच्चे खुल के, अपने तरीके से जी रहे हैं! सोसाइटी के दबाव में नहीं जी रहे हैं! मेरे लिए तो बस इतना ही काफी है!” डैड ने कहा।
“हाँ, सच में!” माँ बोलीं।
“बस, ये अपनी काजल की भी कहीं बढ़िया सी जगह शादी हो जाए, तो समझो लाखों पुण्य पाए!”
‘अम्मा की शादी!’ सुनील के मन में ये बात बिजली की तरह कौंधी!
बच्चे अपने माँ बाप को ले कर बहुत पसेसिव होते हैं। यद्यपि सुनील को अच्छी तरह मालूम था कि उसका बाप एक नंबर का वाहियात, लम्पट और उग्र आदमी था, तथापि वो अपनी माँ को किसी और की पत्नी होते सोच नहीं पा रहा था। काजल अगर मेरी पत्नी बनती, तो अलग बात थी। मेरी शादी देवयानी से होने पर सुनील को थोड़ी निराशा तो अवश्य हुई थी। गैबी की मृत्यु के बाद उसको उम्मीद थी कि मैं और काजल शादी कर लेंगे। लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था।
“एक आदमी से बात तो हुई,” डैड ने कहा, “लेकिन उसके भी दो बच्चे हैं, और उम्र में भी वो बड़ा है बहुत! मुझे ठीक नहीं लगा! अपनी लड़की है। उसको ऐसे ही कहीं किसी खूँटे से थोड़े न बाँध देंगे!”
डैड की बात सुन कर सुनील को राहत हुई।
बिस्तर की कुछ और चरमराती हुई आवाज़ें आईं। हर धक्के के साथ माँ की आह निकल रही थी। और फिर अचानक ही डैड की एक लंबी, संतुष्टि भाई ‘आह्ह्ह्ह’ वाली आवाज़ सुनाई दी। उसके बाद सब कुछ शांत हो गया। सुनील भी दम साधे, दरवाज़े से कान सटाए सुन रहा था कि अंदर क्या हो रहा है। लेकिन आवाज़ें आनी बंद हो गईं। फिर कोई दो तीन मिनट के बाद माँ की आवाज़ आई,
“मैं पानी पीने जा रही हूँ! आपको चाहिए?”
डैड की आवाज़ नहीं सुनाई दी।
“सुनिए?” माँ ने पुकारा।
कोई आवाज़ नहीं।
“सो गए?”
फिर से कुछ नहीं।
सुनील को मालूम था कि माँ जी अब कमरे से बाहर निकलने ही वाली हैं। उसकी स्थिति कुछ ऐसी थी कि वो वहाँ से दूर, अपने कमरे में भाग नहीं सकता था - उसकी पदचाप से कोई भी समझ जाता कि वो वहीं कमरे के पास था। इसलिए वो कोशिश कर के जितनी जल्दी हो सके, रसोई की तरफ़ जाने लगा। वैसे तो सुनील के कमरे को छोड़ कर पूरे घर में अँधेरा था, लेकिन सुनील की समस्या कोई एक नहीं थी। एक तो वो पूर्णतः नग्न था; और दूसरा, माँ और डैड के इस अंतरंग ‘खेल’ को सुन कर उसका लिंग स्तंभित हो गया था। उसकी उम्र ऐसी थी कि एक बार लिंग में स्तम्भन आ जाए, तो जल्दी उतरता नहीं।
वो जब तक तेजी से रसोई में काउंटर तक ही पहुँच पाया कि माँ कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गईं। ठंडक का मौसम तो था, लेकिन घर के अंदर वैसी ठंडक नहीं थी। डैड ने कुछ इस तरह का घर बनवाया था कि सर्दियों में वो अपेक्षाकृत गर्म, और गर्मियों में अपेक्षाकृत ठंडा रहता था। मतलब बाहर अगर पाँच छः अंश तापमान भी हो, तो घर के अंदर कम से कम दस अंश अधिक तापमान रहता था। हाँ, बस, खिड़कियाँ बंद रखनी ज़रूरी थी। वैसे भी घर के हर कमरे में कोयले का अलाव जलता रहता था। एक बार कोयले में आँच बन जाए तो देर तक गर्मी देता है। उसकी राख में आलू डाल दी जाती थी। सवेरे तक हर अलाव में आलू अच्छी तरह से भुन कर तैयार हो जाता था - सवेरे उसका या तो आलू पराठा बन जाता, या फिर भरता, या फिर कोई सब्ज़ी! है न बढ़िया आईडिया!
सुनील की आकृति देख कर माँ ठिठक गईं।
“अरे, सुनील?”
“ज्जी!”
माँ को एक पल समझ में नहीं आया कि वो क्या करें!
माँ की भी एक दिक्कत थी - डैड के साथ सम्भोग के दौरान वो भी पूरी तरह निर्वस्त्र हो गई थीं, और कमरे से बाहर निकलते समय उन्होंने सोचा भी नहीं था कि किसी अन्य से मुलाकात हो सकती है। वैसे अँधेरे में न तो सुनील को माँ की नग्नता के बारे में, और न ही माँ को सुनील की नग्नता के बारे में संज्ञान हो सकता था। लेकिन हिचक दोनों को ही हो रही थी। सुनील की हिचक अपने लिंग के स्तम्भन को ले कर थी - माँ के सामने नग्न तो वो अक्सर ही होता रहता था। और माँ की हिचक अपनी पूर्ण नग्नता को ले कर थी। सुनील ने अक्सर लतिका को माँ के स्तनों से लगे देखा था, लेकिन वो एक अलग बात थी। इस समय माँ के शरीर पर वस्त्र का एक धागा भी नहीं था।
“कुछ चाहिए बेटा?”
“ज्जी व्वो म्मैं पानी पीने आया था!”
“ओह! मैं भी! नींद नहीं आ रही है?”
“ज्जी ब्बस सोने वाला ही था!”
तभी रसोईघर बाहर जाती हुई किसी गाड़ी की हेडलाइट के तेज प्रकाश से पूरी तरह से नहा गया। उस एक-डेढ़ सेकंड के प्रकाश में सुनील ने माँ का नग्न शरीर बखूबी देखा, और माँ ने उसका स्तंभित लिंग भी! जिस बात को ले कर दोनों घबरा रहे थे, वही बात हो गई। लेकिन अब क्या हो सकता था? दोनों ने बिना कुछ कहे पानी पिया।
फिर माँ ने ही कहा, “मैं सुला दूँ?”
माँ अक्सर ही सुनील को सुलाती थीं - ज्यादातर जबरदस्ती कर के। कि कहीं देर तक पढ़ने से आँखें न खराब हो जाएँ, या नींद ठीक न आने से कहीं सेहत न बिगड़ जाए। कभी कभी उसको पढ़ाते पढ़ाते देरी हो जाती थी, तो उसके साथ ही सो जाती थीं।
सुनील ने कुछ कहा नहीं। शायद ‘हाँ’ में सर हिलाया हो, या शायद ‘न’ में!
“बहुत देर हो गई है! मैं सुला देती हूँ!”
माँ ने उसका हाथ पकड़ा, और उसको उसके कमरे की ओर ले जाने लगीं। सुनील झिझक रहा था, लेकिन वो माँ को मना नहीं कर पा रहा था। उसका कमरा रौशनी से नहाया हुआ था। ऐसे में माँ का नग्न शरीर उससे छुप नहीं सकता था। वो उनकी अद्भुत सुंदरता को देख कर दंग रह गया - माँ कम उम्र लगती थीं, लेकिन निर्वस्त्र होने के बाद तो जैसे उनकी उम्र से पंद्रह बीस वर्ष घट गए हों! अगर वो फ़िटेड कुरता और चूड़ीदार शलवार पहन लें, तो कोई उनको बीस बाईस साल से अधिक का कह ही नहीं सकता! शायद इसीलिए वो कुछ ऐसे कपड़े पहनती थीं, कि उनकी उम्र अधिक लगे! उन कपड़ों में भी वो सत्ताईस अट्ठाईस से अधिक की नहीं लगती थीं।
ओह, कैसे गोल और ठोस स्तन! और बालों से ढंकी उनकी योनि!
‘इसी में बाबू जी अभी मेहनत कर रहे थे!’ उसके दिमाग में विचार कौंधा!
अगले ही क्षण उसको अपने विचार पर ग्लानि हुई।
वो दोनों की ही बड़ी इज़्ज़त करता था, और उनसे बहुत प्रेम भी करता था। इसलिए उसको दोनों के बारे में ऐसी सोच रखने के लिए बहुत ग्लानि हुई। उसको तो खुश होना चाहिए कि दोनों पति-पत्नी इतने प्रेम से रहते हैं। एक उसका बाप था, जो उसकी अम्मा को और उसको मारता पीटता रहता था। न उसको उसकी पढ़ाई लिखाई की चिंता थी, और न ही उसकी अम्मा की सेहत और इज़्ज़त से कोई सरोकार! उसको मोहब्बत थी तो बस शराब से और अपने आप से! एक कोठरी की कुटिया में हर रोज़ उसकी अम्मा का बलात्कार करता था वो आदमी! वो तो एक दिन उसकी अम्मा ने न जाने किस प्रेरणा से कुटिया में पड़ी लकड़ी का लट्ठा उसके बाप के सर दे मारा, नहीं तो यही सिलसिला हमेशा चलता रहता।
अचानक ही जैसे उसके भाग्य की उस बदसूरत इबारत को किसी ने मिटा कर, स्वर्णिम अक्षरों से एक नई किस्मत लिख दी हो! उसकी अम्मा की उस एक हरकत से जैसे उसके परिवार की दिशा ही बदल गई। पहले तो भैया ने, और फिर बाबू जी ने उनको संरक्षण दिया! और अब देखो - क्या ऐसा कभी लगता भी है कि वो इस घर का हिस्सा नहीं? लतिका अपनी अम्मा से अधिक, अपनी मम्मा से प्यार करती है! और वो खुद, वो सपने देख पा रहा है, जो वो देखने का सोचता भी नहीं था। उसका तो पूरा जीवन ही सपने जैसा लगता है न?
वो अपने विचारों की उधेड़बुन से बाहर तब आया जब उसने देखा कि माँ जी ने उसको बिस्तर पर लिटा दिया है, और खुद भी उसके बगल आ कर लेट गई हैं।
उसका लिंग अभी भी तना हुआ था - पहले से भी अधिक!
वो कैसे इस तथ्य को झुठला दे कि एक अनन्य सुंदरी उसके बगल नग्न लेटी हुई है? वो और उसकी अम्मा (काजल) कभी कभी ये बात करते थे, कि अगर माँ जी बम्बई या दिल्ली में रहतीं, तो अवश्य ही वो आज फिल्मों में टॉप की हेरोईन होतीं! इतनी सुन्दर हैं वो! और उनका व्यवहार तो - आह! कैसा भोलापन! कैसी निश्छलता!! और कितना प्रेम!!! साक्षात् देवी हैं देवी! और वही देवी उसके बगल लेटी हुई हैं। नग्न! उसको शर्म भी आ रही थी कि चाह कर भी उसका लिंग बैठ नहीं पा रहा था। पूरी निर्लज्जता से वो स्तंभित था, और रह रह कर झटके खा रहा था।
माँ ने उसके शरीर की नक़ाबू हरकतों को देखा और उसको शांत करने के लिए हाथ बढ़ा कर उसके वृषणों को हल्का सा दबाया। सुनील की आँखें बंद हो गईं और उसके गले से एक आह निकल पड़ी। उसको लग रहा था कि उसका लिंग फ़ट पड़ेगा। उसी समय माँ का हाथ उसके लिंग पर आ गया। उसके लिंग को अपनी हथेली में पकड़ कर उन्होंने दो बार सरकाया ही था, कि सुनील को अपने आसन्न स्खलन का अनुभव हुआ। वो कुछ कह पाता या कर पाता, कि उसके पहले ही वीर्य की एक मोटी धारा उसके लिंग से निकल पड़ी, और उसके पेट और माँ के हाथ पर आ कर गिरी।
“आह्ह्ह्ह!” सुनील कांपती हुई आवाज़ में कराहा।
“कुछ नहीं, कुछ नहीं!” माँ ने उसको स्वांत्वना देते हुए कहा, “होने दो!”
यह जो कुछ हुआ, माँ ने उसका प्लान तो नहीं किया था, इसलिए वो भी हतप्रभ रह गईं। लेकिन सुनील को शर्म न हो, ग्लानि न हो, इसलिए वो ऐसे बर्ताव कर रही थीं कि जैसे यह सामान्य क्रिया हो।
“उम्मफ्फ...”
“बस बस, हो गया!” माँ अभी भी उसके लिंग पर अपना हाथ चला रही थीं। सुनील को तीन चार और स्खलन हुए।
थोड़ी ही देर में उसका लिंग सिकुड़ कर शांत हो गया। उसको समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे! माँ की उम्मीदों के विपरीत उसको बहुत शर्म भी आ रही थी, और बहुत ग्लानि भी हो रही थी। और भी शर्मनाक बात यह हो गई कि जब वो यह सब (हस्त-मैथुन) खुद से करता था तो दो तीन मिनट तो करता ही था, लेकिन यहाँ तो इनके छूते ही सब निकल गया! माँ का हाथ उसके वीर्य से भीग गया था। लेकिन उन्होंने अभी भी उसका लिंग नहीं छोड़ा था।
“अभी ठीक लग रहा है?”
सुनील ने कुछ नहीं कहा।
“सुनील! प्लीज़ ऐसे मत रहो!” माँ ने मनुहार करते हुए कहा, “बोलो न! ठीक लग रहा है?”
सुनील ने ‘न’ में सर हिलाया। उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े।
“अरे अरे,” माँ ने सुनील को अपनी छाती में भींचते हुए कहा, “मेरा जवान लड़का हो कर ऐसे रो रहा है?”
सुनील अभी भी कुछ नहीं बोला - बस फ़फ़क कर रोने लगा। उसके आँसू माँ की छाती को भिगोने लगे। माँ कुछ देर तक उसको बहलाती रहीं।
“बस बस! अब और रोना नहीं!”
कुछ देर बाद वो शांत हो गया - अब उसको और भी शर्म आ रही थी। एक तो पहले ही बेइज़्ज़ती हो गई थी, और अब रो रो कर उसने अपनी इज़्ज़त कर और भी फालूदा बना दिया।
“मुझसे बात नहीं करोगे?”
सुनील ने ‘न’ में सर हिलाया।
“नहीं करोगे?” माँ उसकी लड़कपन भरी हरकत पर मुस्कुरा दीं।
सुनील ने फिर से ‘न’ में सर हिलाया।
“मतलब मुझसे कट्टी?”
वो इस बार कुछ नहीं बोला।
“चलो अच्छा है! कम से कम कट्टी तो नहीं है!” माँ मुस्कुराते हुए बोलीं।
सुनील अभी भी कुछ नहीं बोला।
“अच्छा चलो! अब सुला दूँ तुमको?”
सुनील ने फिर से ‘न’ में सर हिलाया।
“आज रात नहीं सोना है?”
सुनील कुछ नहीं बोला।
“ठीक है! मत सोना! लेकिन मुझे तो बहुत नींद आ रही है!” माँ ने कहा और सुनील से लिपटते हुए बोलीं, “मैं तो यहीं सो रही हूँ!”
सुनील फिर से कुछ नहीं बोला।
माँ कुछ क्षण कुछ नहीं बोली, फिर उन्होंने सुनील से पूछा,
“अभी ठीक लग रहा है?”
इस बार सुनील ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
फिर उसने अचानक ही कहा,
“ओह! देखिये न - आपका भी सब गन्दा हो गया!”
सुनील का इशारा अपने वीर्य की तरफ था, जो माँ के लिपटने के कारण उनके शरीर पर भी लग गया। कमरे की ठंडक से वो भी ठण्डा हो रहा था, और अब शरीर पर महसूस हो रहा था।
“अरे! तो आप उतना नाराज़ नहीं है मुझसे!” माँ ने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा।
सुनील उनकी बात को अनसुना करते हुए बोला, “मैं साफ़ कर देता हूँ!”
और उठ कर अपना एक रूमाल ले आया और उसने सबसे पहले माँ का पेट और हाथ साफ़ किया और फिर अपना। फिर वो बिस्तर पर वापस आ कर लेट गया।
“आप सच में यहीं सोएँगी?”
“क्यों? अपने बेटे के साथ सोने में मुझे किसी से कोई परमिशन लेनी पड़ेगी क्या?”
“नहीं नहीं!” सुनील उनकी बात से अचकचा गया, “ठीक है!”
उसने कम्बल खींचा, और माँ को ओढ़ा दिया। उसका बिस्तर सिंगल बेड था - इसलिए चिपक कर सोना अपरिहार्य था। माँ को इस बात में कोई परेशानी नहीं थी।
“दूध पियोगे?”
सुनील ने ‘न’ में सर हिलाया।
माँ मुस्कुरा दीं और फिर सुनील से चिपक कर सो गईं। कुछ देर में सुनील को भी नींद आ गई।
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“अरे काजल, कब से बैठी हो?”
सवेरे माँ की आँख खुली, तो सामने काजल को बैठे पाया।
“यही कोई दस मिनट से,” काजल मुस्कुराते हुए, दबी आवाज़ में बोली, “तुम दोनों खूब प्यारे लग रहे थे, इसलिए जगाया नहीं!”
माँ भी मुस्कुराईं, “तू भी न!” और अँगड़ाई लेने को हुईं। तब उनको महसूस हुआ कि सुनील का हाथ उनके एक स्तन पर था।
“तब से पकड़े हुए है - एक पल के लिए भी नहीं छोड़ा!” काजल ने माँ को छेड़ते हुए कहा, “और मेरा तो मुँह में लेने में शरम आती है लाट साहब को!”
“ऐसा नहीं है काजल! बस शर्माता है, और कुछ नहीं!”
“कल पिलाया था क्या इसको?”
“न रे! अपने आप से तो पीता ही नहीं! और अगर मुझको दूध आता, तो जबरदस्ती न पिला देती?”
कह कर माँ बिस्तर से चुपके से उतर खड़ी हुईं - उनको पूर्ण नग्न देख कर काजल मुस्कुराई।
“क्या दीदी, मेरा लड़का बहक जाएगा ऐसे तो!”
“हाँ! अपनी माँ को नंगी देख कर कोई बेटा बहकता है क्या?”
काजल कुछ कहने को हुई, लेकिन चुप रह गई। फिर उसकी नज़र बिस्तर पर सोते हुए सुनील पर पड़ी। माँ के हटने से उसकी चादर भी उतर गई थी। उसका लिंग तना हुआ था - मॉर्निंग वुडी कहते हैं न, वही! किसी अन्य घर में यह कोई सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती। लेकिन हमारे यहाँ यह कोई बहुत असामान्य घटना नहीं थी। माँ ने देखा कि काजल क्या देख रही है।
“ए, नज़र मत लगा!”
“क्या दीदी, माँ की भी नज़र लगती है क्या अपने बच्चों को!”
उसकी बात पर माँ मुस्कुरा दीं, “जवान हो गया है बेटा!”
“हाँ न! इसका नुनु भी बड़ा हो गया और बिची भी!”
“अभी और होगा! इसीलिए तो तुमको कहा था कि जब तक पॉसिबल हो, तब तक पिलाओ अपना दूध!”
“हाँ, तो मैंने ही कब मना किया? ये तो ये ही लाट साहब हैं, जो मानते नहीं!”
माँ मुस्कुराईं, “सोचो - कुछ ही दिनों में इसके लिए लड़की ढूंढनी पड़ेगी!”
“हाँ न! अपनी ही जैसी कोई लड़की ढूंढनी शुरू कर दो इसके लिए!” काजल बोली।
“अरे, अपने जैसी क्यों?” माँ ने अंततः अँगड़ाई लेते हुए कहा, “थोड़ा जवान होती, तो मैं खुद ही कर लेती इससे शादी!”
“हाँ, अभी खुद को माँ बोल रही थी, और अभी खुद को बीवी!”
काजल और माँ दोनों ही इस बात पर हँसने लगीं। सुनील ने उठने की आवाज़ निकाली।
“शशशीहह!” माँ ने अपने होंठों पर उंगली रखते हुए काजल को चुप रहना का संकेत किया, “देर में सोया है! और सो लेने दो!”
काजल ने ‘हाँ’ में सर हिलाया, और कमरे से बाहर निकल आई। माँ भी पीछे पीछे बाहर आ गईं।
“बिट्टो रानी उठी?” माँ ने पूछा।
“उठी होती तो तुम्हारी छाती से न चिपकी रहती?”
“अरे तो तू क्यों जल रही है?” माँ ने काजल को छेड़ा, “तू भी तो चिपकी रहती है मौका पा कर!”
माँ ने ज़ोर की अँगड़ाई भरी। काजल की नज़र माँ की योनि पर पड़ी।
“क्या दीदी, कल रात मज़े किए तुमने और बाबूजी ने?”
“मुझको दीदी, और उनको बाबूजी बोल कर ये सब बोलती हो न तो लगता है जैसे न जाने क्या कर दिया हम दोनों ने!”
“हा हा हा! अरे, लेकिन तुमको माँ जी कहने का मन नहीं करता न अब! और बाबूजी को बाबूजी ही कहने का मन होता है।”
“ठीक है - जो मन करे कहो हमको! लेकिन प्यार बनाए रखना बस!”
“तुम तो मेरी पक्की सहेली हो दीदी! तुमसे मैं कैसे प्यार न करूँ!” काजल अचानक ही भावुक हो गई।
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nice update..!!नया सफ़र - अनमोल तोहफ़ा - Update #6
एक बार की बात है - आभा की नींद रात में तीन बार टूटी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। डेवी थकी हुई होने के कारण सोती रही। मैंने भी उसको बोल कर सुला दिया और बच्ची को अपने सीने से लगाए पूरे घर भर में घूम घूम कर सुलाता रहा। अंततः उसको नींद आ ही गई। तब कहीं जा कर मैं भी आराम से बिस्तर पर आ कर, सिरहाने पर तकिया लगा कर आधा लेट गया। आभा मेरे सीने पर ही सोती रही - सवेरे तक। न तो वो एक बार भी रोई और न ही उसको भूख लगी - बस वो शांति से सोती रही। शायद मेरे शरीर की गर्मी, और मेरे दिल की धड़कन की आवाज़ से उसको आराम मिल रहा हो। इतनी नन्ही सी जान, लेकिन उसको इस तरह देख कर किसी का भी दिल पसीज जाए। उसको आराम से सोता हुआ देख कर मैं भी चैन से सो गया।
जब सवेरे उठा तो देखा देवयानी हम दोनों को बड़े मज़ाकिया अंदाज़ में देख रही थी।
“ठीक से सोए मेरे जानू?” उसने मुझे चूमते हुए कहा, “हाऊ डिड यू कीप फ्रॉम मूविंग?” उसने फिर आभा के सर को चूमा।
“पता नहीं यार! सच में इसको इस तरह से सीने से लगा कर सोने में क्या अच्छी नींद आती है!”
“हा हा हा! ये इस बात में अपनी मम्मी पर गई है! जैसे उसकी मम्मी उसके पापा के सीने पर सर रख कर गहरी नींद सो जाती है, वैसे ही ये भी है, लगता है!”
“आअह! फिर तो मुश्किल हो जाएगी!”
“वो क्यों?”
“हमारी बिटिया तो सोएगी मेरे सीने पर! मतलब तुम मेरे पेट पर सो जाना!”
“हा हा हा हा! पेट पर! तुम्हारे पेट से जैसी जैसी आवाज़ें आती हैं, वो सब सुन कर मुझे जो नींद आनी होगी, वो भी उड़ जाएगी!”
उस दिन के बाद से आभा को रात में सुलाने का जिम्मा मेरा हो गया। वो मेरे सीने से ही लग कर सोती, और देर तक सोती। कम से कम डेवी को इस कारण से थोड़ी राहत मिल जाती। दिन भर वो वो ही उसको देख रही होती। मन में एक डर सा लगा रहता कि बच्ची कहीं गिर न जाए, दब न जाए, लेकिन वैसा कभी हुआ नहीं।
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आभा के जन्म के लगभग कोई पाँच सप्ताह बाद हमको गेल और मरी का कॉल आया कि उनके घर बेटा हुआ है। वो बिलकुल स्वस्थ था, और अपनी माँ के जैसा दिखता था। मैं और डेवी इस खबर से बहुत खुश हुए। अच्छा लगा कि दो बेहद अच्छे लोगों के मन की आस पूरी हो गई है। उन्होंने हमको फिर से न्योता दिया कि हम दोनों फ्राँस आएँ। वो बच्चे का बप्तीस्म तब करना चाहते थे जब हम वहाँ पर हों, जिससे कि हम दोनों को उस बच्चे का गॉड पेरेंट्स बनाया जा सके। मैंने और डेवी ने वायदा किया कि हम जल्दी से जल्दी वहाँ आने की कोशिश करेंगे।
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डेवी का डिलीवरी के बाद स्वास्थ्य लाभ भी बड़ी तेजी से हुआ। माँ के जन्मदिन और हमारी शादी की सालगिरह तक आते आते देवयानी लगभग पहले जैसी ही लगने लगी। हाँ, उसके स्तन थोड़ा बड़े अवश्य हो गए थे, लेकिन पेट और नितम्ब पर जो अतिरिक्त वसा थी, वो अब नहीं थी। अभी पिछले ही महीने से हमने पहले की ही भांति प्रतिदिन सम्भोग करना शुरू कर दिया था। आभा एक प्यारी सी बच्ची थी, लेकिन फिलहाल दूसरा बच्चा हम दोनों को ही नहीं चाहिए था। तीन साल तक नहीं। इसलिए पहली बार मैंने प्रोटेक्शन का इस्तेमाल करना शुरू किया था। अभी भी उसके पास लगभग दो महीने की हॉफ पे मैटरनिटी लीव थीं। लेकिन लग रहा था कि थोड़ा जल्दी ही जोइनिंग हो सकती है। उसके पहले हमने निर्णय लिया कि कुछ दिन माँ और डैड के साथ बिता कर, और फ्राँस घूम कर वापस आ जाएँगे। फिर डेवी ऑफिस में काम फिर से शुरू कर सकती है।
तो इस बार माँ के जन्मदिन पर हम तीनों डैड के घर गए। इतने लम्बे अर्से के बाद मैं उनके घर आया था - थोड़े बहुत परिवर्तन तो थे, लेकिन घर अभी भी वैसा ही था। डैड ने एक और कमरा बनवा लिया था - क्योंकि अब सारे कमरों में कोई न कोई होता था। मेहमानों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उनको आवश्यक लगा कि एक और कमरा चाहिए। पाँचवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद, उनका वेतन बढ़ गया था, और पिछली बकाया राशि भी मिली थी। इसलिए उनका हाथ खर्चा करने में थोड़ा खुल गया था। फ़िज़ूलखर्च नहीं, बस, अपने आराम के लिए आवश्यक ख़र्च करने में अब उनको सोचना नहीं पड़ रहा था। उसके बाद से घर में कोई परिवर्तन नहीं आया।
थी तो हमारी शादी की सालगिरह भी उसी दिन, लेकिन उस दिन को हमने माँ के जन्मदिन के रूप में मनाया। पूरे पर्व का डेवी और मैंने ही आयोजन किया था। माँ कह रही थीं कि यह सब करने की क्या ज़रुरत है, लेकिन बात दरअसल यह थी कि अगर ख़ुशी है, तो उसका इज़हार करने में कोई हिचक क्यों होनी चाहिए? और ख़ुशी तो हम सभी को भरपूर थी। उसी दिन सवेरे आभा का मुंडन करवा दिया गया। ज्यादातर बच्चे बाल कटने पर रोने धोने लगते हैं। लेकिन आभा उसमें भी खुश थी और रह रह कर मुस्कुरा रही थी। उसको जब कुछ फनी सा लगता तो रोने जैसा मुंह बना लेती, लेकिन रोई एक बार भी नहीं। सर के बाल गायब होने के बाद वो और भी क्यूट, और भी लड्डू जैसी लगने लगी। अब तो वो हर तरह से गोल गोल लगती। बच्चे शायद इसलिए बहुत प्यारे से लगते हैं कि जो भी लोग उनको देखें, वो उनसे प्यार करें। उनका नुकसान न करें। तो प्यारा दिखना, एक तरह का सर्वाइवल स्किल है बच्चों का! खैर जो भी हो, मुंडी हो कर आभा और भी अधिक प्यारी लगने लगी थी।
शाम को भोज का आयोजन किया गया। उसमें हमने माँ और डैड - दोनों के मित्रों को आमंत्रित किया था। कितने ही सालों बाद कस्बे के बहुत से पुराने जान पहचान वालों से मिलने का मौका मिला था मुझे। इसलिए अच्छा भी बहुत लगा।
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माँ और डैड के यहाँ से वापस आने के एक सप्ताह बाद हमारा फ्राँस जाने का प्रोग्राम था। बहुत डर लग रहा था कि एक नन्ही सी बच्ची के साथ इतना लम्बा सफर कैसे करेंगे! उसके पहले मैं जब भी हवाई जहाज़ में यात्रा करता था, तो किसी नन्हे बच्चे को देख कर मेरा दिल बैठ जाता था कि ‘भई, गए काम से’! पक्की बात थी कि बच्चा पूरी यात्रा भर पेंपें कर के चिल्लाता रहेगा, और हम सबकी जान खाएगा। डर इस बात का था कि मम्मी-पापा बनने के बाद बाकी लोग भी हमारे बारे में यही सोचेंगे, और हमारी बच्ची भी बाकी बच्चों के जैसे पेंपें कर के रोएगी। लेकिन घोर आश्चर्य कि बात यह थी कि आभा लगभग न के बराबर रोई। एक बार तब जब केबिन प्रेशर थोड़ा कम हो गया तो बेचारी के कान में दर्द होने लगा - हम सभी के कान में दर्द हो रहा था। और दूसरी बार तब जब उसका नैपी पूरी तरह से ग़ैर-आरामदायक हो गया था। बस! वरना पूरे समय वो हंसती खेलती रही, और अपने पड़ोसियों का भी मन बहलाती रही। आभा इतनी खुशमिज़ाज़ बच्ची थी कि जिसको मन करता, वो उसको अपनी गोदी में उठा कर इधर उधर घुमा कर ले आता - क्या एयर होस्टेस, और क्या यात्री!
हमारी फ्रांस की यात्रा दस दिनों की थी। उसके बाद एक हफ्ते का आराम, और फिर डेवी वापस ऑफिस ज्वाइन कर लेती। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, गेल और मरी, नीस नामक शहर में रहते हैं। नीस भूमध्य-सागर के किनारे पर बसा हुआ एक बहुत ही सुन्दर शहर है, और शायद फ्राँस के सबसे अधिक घने बसे शहरों में से एक है। ऐसा नहीं है कि बहुत ही कलात्मक शहर है - बस, जिस सलीके से, जिस तमीज़ से शहर को रखा गया है, वो उसको सुन्दर बना देता है। एक पहाड़ी है - माउंट बोरॉन कर के - वहाँ से फ्रेंच रिवेरा का नज़ारा साफ़ दिखाई देता है। बहुत ही सुन्दर परिदृश्य! वहाँ से ऐल्प्स पर्वत-श्रंखला को भूमध्यसागर से मिलता हुआ देखा जा सकता है। सड़कों और गलियों के दोनों तरफ छोटे छोटे घर! बड़े सुन्दर लगते हैं। हवाई जहाज़ से नीचे उतरते समय भी अंदर बैठे यात्री ‘वाओ’ ‘वाओ’ कह कर आहें भर रहे थे।
हमको एयरपोर्ट पर लेने गेल और मरी दोनों आए थे। उनका बेटा घर पर ही पार्ट-टाइम नैनी के साथ था, जो उसकी देखभाल करती थी। उनको देख कर हम दोनों ही बहुत खुश हुए! फ्रेंड्स फॉर लाइफ - हाँ, यही कहना ठीक होगा। हम अब एक दूसरे से इस तरह जुड़ गए थे, कि हमारे परिवारों का बंधन अटूट हो गया था। अवश्य ही हमारी जान पहचान कोई दस दिनों की ही थी, लेकिन उसकी गुणवत्ता बहुत अधिक थी।
इस पूरी यात्रा के लिए हम उन दोनों पर ही निर्भर थे। हमने उनको अपने टिकट और यात्रा का पूरा प्लान पहले ही बता रखा था, इसलिए उन्होंने बच्चे का बप्तीस्म हमारे आने के अगले ही दिन तय कर रखा था। हमारे पाठकों को शायद न मालूम हो, लेकिन किसी बच्चे के गॉड पेरेंट्स बनना बहुत ही सम्मान का विषय होता है। एक तरह से आप उस बच्चे के अघोषित माता-पिता ही होते हैं। ठीक है, मैं उस बच्चे का जैविक पिता था, लेकिन उन दोनों के कारण मुझे उसके जीवन में सक्रिय भूमिका अदा करने का अवसर मिल रहा था। मुझे उम्मीद थी कि मैं जैसा भी संभव हो सकेगा, उस बच्चे से प्रेम करूँगा।
गेल और मरी के लिए हम बहुत से उपहार ले कर आए हुए थे - उनमें से मरी के लिए साड़ी ब्लाउज, और गेल के लिए धोती कुर्ता। बहुत सम्मान और आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने वही परिधान बच्चे के बप्तीस्म के दिन भी पहना हुआ था। तो हम चारों जने, सौ प्रतिशत भारतीय परिधान में एक विदेशी मुल्क में बच्चे का बप्तीस्म कर रहे थे। चर्च में हम ही ऐसी अतरंगी पोशाक पहने हुए थे और दूर से ही साफ़ नज़र आ रहे थे। कोई हमको आश्चर्य से, तो कोई हमको मज़ाकिया अंदाज़ में देखता। खैर, दूसरों की परवाह हमने करी ही कब, जो आज करते? बेटे के साथ हमारी बेटी का भी बप्तीस्म कर दिया गया, और गेल और मरी ने हमारी ही तरह आभा का गॉड पेरेंट्स बनने की शपथ ली। उन्होंने पूछा कि हमने आभा का सर क्यों मुंडा कर दिया, तो हमने मुंडन के बारे में उनको बताया। तो उन्होंने भी निर्णय लिया कि अपने बेटे का मुंडन करवाएँगे। जो कुछ आभा का होगा, वो ही रॉबिन का होगा। हाँ - रॉबिन नाम था बेटे का। तो मैंने हँसते हुए उनको समझाया कि आभा का नाक और कान का छेदन होगा। कम से कम रॉबिन को वो मत करवाना।
रॉबिन में ज्यादातर मरी के फीचर्स आए हुए थे। वो उसी की ही तरह गोरा गोरा बच्चा था। लेकिन ध्यान से देखने पर उसकी आँखों, उसकी नाक, और होंठ मेरे समान दिखते थे। मुझे मालूम है कि हमारे वहाँ आने पर वहाँ उपस्थित लोगों को हम चारों के सम्बन्ध के बारे में संदेह तो अवश्य ही हुआ होगा। ऐसे थोड़े ही कोई यूँ ही चला आता है, और वो भी इतनी आत्मीयता दिखाते हुए! लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं - कम से कम हमसे तो कुछ नहीं कहा। और कोई कुछ कहता भी तो क्या फ़र्क़ पड़ता? गेल और मरी अमेजिंग लोग थे, और उनको भी माता-पिता बनने का पूरा अधिकार था। और मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि मैं इस सन्दर्भ में उनकी कुछ मदद कर सका। लेकिन, आगे जो उन्होंने मेरी आभा के लिए किया, वो अद्भुत है। खैर, भविष्य की बातें, भविष्य के ही गर्भ में रहने देते हैं!
एक दूसरे को तोहफा देने में गेल और मरी भी कोई पीछे नहीं थे। वो भी हमारे लिए ढेर सारे उपहार लाए हुए थे - मतलब जितना हमने लाया हुआ था, उससे अधिक हमको मिला। देवयानी के लिए उन्होंने सबसे आधुनिक फैशन के कपड़े, जूते, और परफ़्यूम लाया था, मेरे लिए भी वही सब, और आभा के लिए तो पूरा सूटकेस भर के सामान था! पूरे दस दिन यूँ ही मौज मस्ती करने में बीत गया - हम दोनों के परिवार बहुत करीब आ गए और हमारे सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो गए। हमने उनसे वायदा लिया कि जब उनको लम्बी छुट्टी मिले, तो हमारे घर आ कर रहें। हमारे साथ समय बिताएँ। उन्होंने भी वायदा किया कि वो अवश्य ही फिर से भारत आएँगे।
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सुनील ने इंटरमीडिएट में नब्बे प्रतिशत से ऊपर अंक प्राप्त किए थे। लेकिन वो उसका लक्ष्य नहीं था। उसका लक्ष्य था इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाएँ। जब उनका रिजल्ट आया, तो पता चला कि सुनील ने जे-ई-ई में बढ़िया रैंक पाई है! कौन्सेलिंग में उसको खड़गपुर में दाखिला मिला। अंततः काजल का, मेरा, और माँ और डैड का सपना पूरा हो ही गया! आनंद ही आनंद!
टॉप रैंक में होने के कारण उसको स्कॉलरशिप भी मिली थी, और इकोनॉमिकली वीक सेक्शन से आने के कारण उसको एक अलग तरह का वजीफ़ा मिला था, जिसमें उसको पढ़ने की किताबें, और रहने सहने का ख़र्च भी सम्मिलित था। कुल मिला कर उसके इंजीनियरिंग की पढ़ाई में हमारी तरफ से शायद ही कोई खर्चा आता। मैंने और देवयानी ने उससे वायदा किया था कि अगर उसका दाखिला आई आई टी में हो जाता है, तो हम उसको एक डेस्कटॉप उपहार स्वरुप देंगे। तो मैं उसके साथ ही खड़गपुर गया, और जब वो हॉस्टल के रूम एलोकेशन की लाइन में धक्के खा रहा था, तब मैं एक लोकल वेंडर से बातें कर के उसके लिए एक कंप्यूटर की व्यवस्था कर रहा था।
आठ वर्षों पहले की बातें याद हो आईं! तब मैं भी इसी तरह इंजीनियरिंग स्टूडेंट बन कर दाखिल हो रहा था, और जब वहाँ से बाहर आया तो एक अनोखी दुनिया मेरे सामने कड़ी थी। मुझे उम्मीद थी कि सुनील को भी वैसा ही अनुभव मिले। उसका जीवन भी सम्पन्न और समृद्ध और सुखी हो। उसको कंप्यूटर, और ढेर सारा आशीर्वाद दे कर मैं वापस दिल्ली आ गया।
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उन दिनों आज कल के जैसे हाफ़ बर्थडे, फुल बर्थडे मनाने का चलन नहीं था। केवल जन्मदिन ही मनाया जाता था। आभा का पहला जन्मदिन बेहद यादगार था। मुझे भी उसके कुछ दिनों पहले ही एक प्रमोशन मिला था और देवयानी अब तक अपने काम में वापस रंग गई थी। हमारी नई कामवाली कुशल थी, और भरोसेमंद थी। उसकी देख रेख में आभा स्वस्थ थी। हम या तो केवल काम करते, या फिर घर आ कर आभा की देखभाल करते। ऐसा ही जीवन हो गया था लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं थी। अपने बच्चे के लिए कुछ भी करना मंज़ूर था। तो अवश्य ही मेरी दोनों शादियाँ बिना किसी चमक धमक के थीं, लेकिन आभा का पहला जन्मदिन पूरे उत्साह और तड़क भड़क वाला था। हम दोनों ही बढ़िया कमा रहे थे, तो अपनी संतान से सम्बंधित कार्यों पर न खर्च करें, तो किस पर करें? लेकिन एक साल की बच्ची को इन सब बातों का कोई बोध नहीं होता। वो अपने में ही मगन रहते हैं। शायद उसको, और उसके जितनी उम्र के बच्चों को छोड़ कर, बाकी सभी ने बहुत मौज मस्ती करी। देवयानी अभी भी उसको स्तनपान कराती थी इसलिए वो मदिरा नहीं पीती थी। और जिस उत्साह से डेवी को ब्रेस्टफीडिंग कराने में आनंद आता था, वो देख कर मुझे पक्का यकीन था कि आभा खुद ही पीना छोड़ दे, तो छोड़ दे, वरना डेवी तो जब तक संभव है, उसको अपना दूध पिलाती रहेगी। आनंदमय दिन था वो! यादगार!
ख़ुशी और भी अधिक बढ़ गई जब गेल और मरी ने फ्रांस से एक बड़ा सा गिफ्ट का डब्बा आभा के लिए भेजा। उन्होंने तब से ले कर आभा के प्रत्येक जन्मदिन पर उपहार दिया है, और हमने भी। रॉबिन भी तेजी से बढ़ रहा था - वो एक स्वस्थ और स्ट्रांग बच्चा था - बिलकुल अपनी ‘बहन’ के जैसा!
एक बार यूँ ही मज़ाक मज़ाक में बात निकल आई कि कितना अच्छा हो अगर आगे चल कर ये दोनों बच्चे एक साथ, एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर सकें। बात मज़ाक में ही हुई थी, लेकिन डेवी को यह बात बहुत जँच गई। गेल और मरी ने कहा कि उनका घर भी आभा का घर है, और अगर संयोग बैठता है, तो अवश्य ही वो उनके साथ रह कर अपनी पढ़ाई कर सकती है फ्राँस में। हाँ, कहीं और जा कर पढ़ना है, तो अलग बात है! हमने यह भी निर्णय किया कि हम उन दोनों को आगे चल कर यह बात बताएँगे कि दोनों दरअसल भाई बहन ही हैं। और हम दोनों, एक तरह से एक ही परिवार हैं।
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आभा के पहले जन्मदिन तक आते आते डेवी का स्वास्थ्य पूरी तरह से पहले जैसा हो गया। हमारी सेक्स लाइफ भी बिलकुल पहले जैसी हो गई - हाँ, बस, गर्भनिरोधकों का प्रयोग आवश्यक हो गया। आभा तेजी से सीख रही थी - तोतली आवाज़ में कुछ की बुड़बुड़ करना, डगमगाते हुए चलना, लगभग हर प्रकार का भोजन करना, यह सब वो करने लगी थी। और तो और उसके सोने और जागने का समय भी काफी निर्धारित हो गया था, और इस कारण से हमको भी सोने जागने में दिक्कत नहीं होती थी। आभा सच में ईश्वर का प्रसाद थी, और हम उस जैसी पुत्री को पा कर वाकई धन्य हो गए थे! उसको देख देख कर देवयानी को अक्सर एक और बच्चा करने की तलब होने लगती - वो यही सोचती कि अगला बच्चा भी आभा के ही जैसा होगा। लेकिन मैं उसकी इस तलब को जैसे तैसे, समझा बुझा कर शांत करता। सबसे पहला प्रश्न था उसकी सेहत का, फिर प्रश्न था दोनों बच्चों की उम्र के बीच में समुचित अंतर का, और तीसरा प्रश्न था कि सभी बच्चे एक समान नहीं होते।
ऐसा नहीं था कि मुझे और बच्चों की इच्छा नहीं थी, लेकिन देवयानी की सेहत सर्वोपरि थी। मैं उसको समझाता कि कैसे मेरे माँ और डैड ने केवल मुझे ही पाल पोस कर बड़ा किया था। और देखो, वो दोनों कैसे जवान और खुश दिखते थे! डेवी को यह बात समझ आ जाती थी। आखिर कौन लड़की जवान नहीं दिखना चाहती?
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ससुर जी ने किसी प्रेरणावश रिटायरमेंट के इतने साल बाद अपनी एक सॉफ्टवेयर से सम्बंधित कंपनी शुरू करी। उनको सॉफ्टवेयर के बारे में कोई ज्ञान नहीं था, लेकिन इतने लम्बे समय तक आई ए एस ऑफिसर होने के कारण, उनकी महत्वपूर्ण जगहों पर अच्छी जान पहचान थी। बिज़नेस के लिए जान पहचान बहुत ही आवश्यक वस्तु होती है। छोटी सी कंपनी और बहुत ही आला दर्ज़े का काम। दरअसल उनके पास समय ही समय था, और पैसा भी था। तो सोचा कि क्यों न उसका उपयोग कर लिया जाए! दिल्ली में वैसे भी स्किल की कमी नहीं थी। बढ़िया इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स आसानी से उपलब्ध थे। मैं भी इसी क्षेत्र से सम्बंधित था, लिहाज़ा मैं उनकी अक्सर ही मदद करता रहता।
वो मुझको कहते कि पिंकी तो बढ़िया कर ही रही है, तो क्यों न मैं उनके साथ लग जाऊँ और कंपनी के मालिक के जैसे उसको चलाऊँ। अपना काम है। तरक्की होगी। लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार से आने के कारण अपना बिज़नेस करने में डर लगता था। नौकरी एक सुरक्षित ऑप्शन था। वैसे भी कमाई अच्छी हो रही थी, इसलिए ‘तनख़्वाह’ से प्रेम हो गया था। तो मैं उनको कहता कि मैं आपकी सहायता करूँगा। जब एक ढंग के लेवल तक पहुँच जाएगी कंपनी, तो मैं फॉर्मली ज्वाइन कर लूँगा।
देवयानी से जब इस बाबत बातचीत करी, तो वो बहुत सपोर्टिव तरीके से पेश आई। बात तो सही थी - उसकी सैलरी बढ़िया थी, और तो और, उसके पास अपना एक बड़ा घर था (शादी से पहले यह बात मुझे मालूम नहीं थी)! तो अगर मैं स्ट्रगल करना चाहता था, तो यह बढ़िया समय था। मेरी उम्र तक तो लोगों की नौकरी नहीं लगती - और मेरे पास इतने सालों का एक्सपीरियंस भी हो गया था। वैसे भी ससुर जी की कंपनी ख़राब काम नहीं कर रही थी - प्रॉफिट नहीं था, तो बहुत नुकसान भी नहीं हो रहा था। और कुछ लोगों को बढ़िया रोज़गार मिल रहा था, सो अलग!
फिर भी मेरे मन में हिचक थी। सैलरी का मोह ऐसे नहीं जाता। वैसे भी काम और आभा को ले कर इतनी व्यस्तता रहती कि मैं पूरी तरह से अपने बिज़नेस में लिप्त नहीं हो सकता था। इसलिए मैंने उनसे ठीक से सोचने के लिए मोहलत मांगी। ससुर जी को कोई दिक्कत नहीं थी। वो भी सब बातें समझते थे, इसलिए उन्होंने कोई ज़ोर नहीं दिया। हाँ - लेकिन मेरा उनके बिज़नेस में दखल बदस्तूर जारी रहा। बिज़नेस से सम्बंधित कई सारे महत्वपूर्ण निर्णय मैं ही लेता था।
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dukhad update..!!अंतराल - त्रिशूल - Update #1
जब हम प्रसन्न होते हैं, तरक्की करते हैं, सुखी रहते हैं, तो ऐसा लगता है कि दिन पंख लगा कर उड़े जाते हैं! हमारी शादी को हुए दो साल हो गए, और कुछ ही महीनों में आभा भी दो साल की हो गई। मस्त, चंचल, और बहुत ही सुन्दर सी, प्यारी सी बच्ची! गुड़िया जैसी बिलकुल! मीठी मीठी बोली उसकी। पहले तो हम सभी निहाल थे ही, अब तो और भी हो गए थे। प्यारी प्यारी, भोली भली अदाएँ दिखा दिखा कर आभा हम सबको अपना मुरीद बनाये हुए थी। हमने इस अंतराल में बहुत ही कम छुट्टियाँ ली थीं, और ऑफिस में भी दिसंबर की तरफ आते आते काम कम जाता था।
इसलिए हमने निर्णय लिया कि इस बार विदेश यात्रा पर चलते हैं। कहाँ चलें? यह तय हुआ कि ऑस्ट्रेलिया जायेंगे! ऑस्ट्रेलिया सुनने पर लगता है पूरा देश घूम लेंगे! लेकिन ऑस्ट्रेलिया देश नहीं, एक पूरा महाद्वीप है! पूरा ऑस्ट्रेलिया घूमने के लिए महीनों लग जाएँ! तो हम ऑस्ट्रेलिया में क्वीन्सलैण्ड गए। क्वीन्सलैण्ड ऑस्ट्रेलिया के उत्तरपूर्व में स्थित एक बड़ा राज्य है। और विश्व विख्यात ‘ग्रेट बैरियर रीफ़’ यहीं स्थित है!
क्वीन्सलैण्ड की सामुद्रिक तट रेखा कोई सात हज़ार किलोमीटर लम्बी है! समुद्र और सामुद्रिक जीवन के जो नज़ारे वहाँ देखने को मिलते हैं, पृथ्वी पर और कहीं संभव ही नहीं! सचमुच - ऐसा लगता है कि जैसे जादुई सम्मोहन है समुद्र में! असंख्य छोटे छोटे, बड़े बड़े टापू, साफ़, सफ़ेद रेत, नारियल के झूमते हुए पेड़, साफ़ समुद्र, रंग बिरंगे कोरल, असंख्य मछलियाँ, व्हेल, डॉलफिन, सील, नानाप्रकार के जीव जंतु, और ट्रॉपिकल रेन-फारेस्ट! ओह, लिखने बैठें, तो पूरा ग्रन्थ लिख सकते हैं क्वीन्सलैण्ड पर! भारत में हमने जंगल देखे हुए थे और हमको नहीं लगता था कि बाघ या हाथी को देखने जैसा रोमांचक अनुभव और कहीं मिल सकता है, इसलिए हमने केवल समुद्र पर फोकस किया।
अंडमान की ही भांति, हमने क्वीन्सलैण्ड में स्कूबा-डाइविंग का अनुभव किया। क्योंकि ग्रेट बैरियर रीफ एक संवेदनशील स्थान है, तो हम जैसे नौसिखिया डाइवर्स एक सुनिश्चित स्थान पर ही डाइव करते हैं। लेकिन वो छोटी सी जगह भी इतनी सुन्दर है कि क्या कहें! उम्र भर वो चित्र, वो अनुभव दिमाग में ताज़ा रहेंगे! चूँकि मैं और डेवी, दोनों को ही तैराकी का अनुभव था, और हम दोनों को ही उसमें आनंद आता था, इसलिए हमको बहुत ही मज़ा आया! आभा को भी होटल के पूल में पहली बार तैरने का अनुभव दिया। उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे। अपनी टूटी फूटी भाषा में उसने बताया कि उसको बहुत मज़ा आ रहा है। दिल खुश हो गया कि मेरी बिटिया को भी तैराकी सीखने और तैराकी करने में मज़ा आएगा!
लोग ऑस्ट्रेलिया का नाम सुन कर तुरंत ही कंगारूओं के बारे में सोचने लगते हैं। लेकिन सच में, वहां के लोग कंगारूओं को सर का दर्द समझते हैं। जैसे हमारे यहाँ नीलगाय खेती का आतंक है, वैसे ही कंगारू आतंक हैं। खेती में, और सड़क पर भी! न जाने कितने ही एक्सीडेंट्स होते हैं उनके कारण। इसलिए कई स्थानों पर कंगारू का मीट खाया जाता है (अभी भी खाते हैं या नहीं - कह नहीं सकता! यह सब थोड़ा पुरानी बातें हैं)! खैर, कुल मिला कर हमारा दो हफ़्तों का ऑस्ट्रेलिया भ्रमण बहुत ही आनंद-दायक रहा।
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इसी बीच ऐसी घटना हो गई जिसकी उम्मीद नहीं थी। काजल की अम्मा की तबियत कुछ अधिक ही खराब हो गई। वो अकेली ही रहती थीं, और उनकी देखभाल के लिए कोई भी नहीं था। जिन पुत्रों की चाह में उन्होंने जीवन स्वाहा कर दिया, जिनकी पढाई लिखाई में उन्होंने अपना सर्वस्व आग में झोंक दिया, वही लड़के (पुत्र) उनकी ज़रुरत पड़ने पर उनको लात मार कर आगे चल दिए। काजल ने जब यह सुना, तो वो पूरी तरह से घबरा गई। उसने निर्णय लिया कि वो अपनी अम्मा की सेवा करने वहां, अपने गाँव चली जाएगी। लेकिन इस बात का लतिका की पढ़ाई लिखाई पर बहुत ही बुरा असर पड़ता - गाँव में कोई ढंग का स्कूल नहीं था। यहाँ वो अच्छा सीख रही थी, लेकिन वहां उसका न जाने क्या होता! और फिर खान पान, रहन सहन - हमारी मेहनत पर पानी फिरने वाला था।
लेकिन फिर सवाल तो काजल की माँ का था। माँ तो एक ही होती है। भले ही कैसी भी हो? और फिर काजल का तो दिल ही ऐसा था कि वो हम जैसे लोगों के लिए, जिनसे उसका न तो कोई नाता था, और न ही कोई सम्बन्ध, भागी भागी चली आई थी, तो अपनी माँ के लिए तो उसको जाना ही जाना था। माँ का दिल टूट गया - काजल से आत्मीयता तो थी ही, लेकिन लतिका के साथ उनका जो सम्बन्ध था, वो माँ बेटी से कैसे भी कम नहीं था। लेकिन अपनी बेटी के बगैर काजल वहाँ जाती भी तो कैसे? और माँ और डैड किस अधिकार से उसको या लतिका को अपने पास रोक पाते?
लिहाज़ा, काजल अचानक ही अपने गाँव चली गई। ऐसा नहीं है कि उसको इस बात में कोई आनंद आ रहा था, लेकिन वो भी क्या करती? संतान का दायित्व, संतान का कर्तव्य तो निभाना ही था न उसको! यह हमारे ऑस्ट्रेलिया से वापस आने के कुछ हफ़्तों बाद की बात है। मैंने भी एक दो बार काजल को रुक जाने को कहा, और उसको समझाया कि उसकी अम्मा को यहाँ दिल्ली ले आते हैं। वहां अच्छे अस्पताल में उनकी देखभाल हो सकती है। लेकिन काजल ने कहा कि उनका मरना निश्चित है, और वो अपने गाँव में ही अपना दम तोड़ना चाहती थी। अब इस बात पर हम क्या ही कर सकते थे?
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इतने सालों की आनाकानी के बाद अंततः मैंने निश्चय कर ही लिया कि मैं ससुर जी की कंपनी में बतौर सी ई ओ ज्वाइन करूँगा। कंपनी का काम पटरी पर था, और एक जानकार निर्देशन में वो बहुत फल फूल सकती थी। ऐसे में मुझे कोई कारण नहीं दिख रहा था कि मैं क्यों न वहां काम करूँ। देवयानी मेरे निर्णय पर बहुत खुश हुई, और उसने मुझे बहुत बधाइयाँ भी दीं। ससुर ही ने मेरे ज्वाइन करते ही कंपनी छोड़ दी। उन्होंने रिटायरमेंट में थोड़ा व्यस्त रहने के लिए यह काम शुरू किया था, लेकिन अब जब मैं आ गया था, तब उनको बिना वजह मेहनत करने की आवश्यकता नहीं थी। कुछ ही दिनों में उन्होंने कंपनी भी मेरे नाम कर दी।
काम बहुत ही व्यस्त करने वाला था। लेकिन बड़ा ही सुकून भी था। अपना काम था, अपने तरीके से किया जा सकता था। नेटवर्क भी इतना बढ़िया था कि शुरुवाती दौर में छोटे छोटे प्रोजेक्ट और कॉन्ट्रैक्ट बड़ी आसानी से मिल रहे थे। उनके दम पर मैंने बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करना शुरू किया, और जल्दी ही कंपनी ने प्रॉफिट देना शुरू कर दिया। मुझको कंपनी से कोई लाभ या वेतन नहीं मिल रहा था - घर का खर्च इत्यादि सब देवयानी की सैलरी पर ही निर्भर था। किसी नए धंधे में तुरंत ही वेतन नहीं लिया जा सकता। सब कुछ री-इन्वेस्ट किया जाता है। तो फिलहाल वही चल रहा था। लेकिन कंपनी का वैल्युएशन हर तिमाही में बढ़ता जा रहा था। प्रॉफिटेबल वेंचर होने के अपने लाभ तो हैं!
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मैं अपने व्यवसाय में बस रमा ही था कि एक दिन अचानक ही देवयानी ने कहा कि कुछ दिनों से न जाने क्यों उसको खाने पीने का मन नहीं कर रहा है। ऐसा नहीं था कि मैंने उसमें यह परिवर्तन नहीं देखा - अवश्य देखा। वो थोड़ी थकी थकी सी रहती, कम खाती! सोचा था कि शायद काम बढ़ा हुआ होने के कारण उसको यह अनुभव हो रहे हों। देवयानी ऐसी लड़की नहीं थी जो यूँ ही, आराम से एक जगह पर बैठी रहे। वो हमेशा से ही एक्टिव थी - शारीरिक रूप से भी, और मानसिक रूप से भी। और आभा के होने के बाद वो और भी एक्टिव हो गई थी। उसने पहले तो इसको सीरियस्ली नहीं लिया - बोली कि सर्दी जुकाम हुआ होगा। लेकिन जब मैंने और पूछा, तो वो बोली कि उसके स्टूल में भी थोड़े परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। यह शंका वाली बात थी।
मैंने उसको कहा कि एक बार डॉक्टर से मिल ले। लेकिन फिर बात आई गई हो गई। लेकिन एक रात जब वो पानी पीने के लिए बिस्तर से उठी, तो उसको चक्कर सा आ गया और वो वापस बिस्तर पर बैठ गई। अब ये बेहद शंका वाली बात थी। मैंने सवेरे उठते ही उसको डॉक्टर के पास ले जाने की ठानी। डेवी अभी भी ज़िद किये हुए बैठी थी कि शायद कम खाने से कमज़ोरी हो गई होगी, लेकिन सबसे घबराने वाली बात यह थी कि उसने दस दिनों में ठीक से खाना नहीं खाया था। मुझको अब बेहद चिंता होने लगी थी। कहीं पीलिया तो नहीं था?
डॉक्टर के यहाँ कई सारे टेस्ट, स्कैनिंग, और बाईओप्सी करि गईं। मैं सोच रहा था कि बिना वजह यह सब नौटंकी चल रही है। लेकिन जिस डॉक्टर की देख रेख में यह ‘नौटंकी’ चल रही थी, उसने कहा कि उसको थोड़ा डाउट है, और उसी के निवारण के लिए वो यह सभी टेस्ट करवा रहा है। मैंने पूछा कि क्या डाउट है, तो उसने बताया कि उसको शक है कि देवयानी के पेट में कोई ट्यूमर है। ट्यूमर? यह नाम सुनते ही मेरा दिल उछल कर मेरे गले में आ गया।
‘हे प्रभु, रक्षा करें!’
पूरा समय वो देवयानी से पूछता रहा कि उसको पेट में दर्द तो नहीं। और वो बार बार ‘न’ में उत्तर देती।
मैं ऊपर ऊपर हिम्मत दिखा रहा था, लेकिन मुझे मालूम है कि मेरी हालत खराब थी। प्रति क्षण मैं यही प्रार्थना कर रहा था कि उसको कोई गंभीर रोग न हो!
फिर अल्ट्रासाउंड किया गया। उसमें साफ़ दिख रहा था कि देवयानी के पेट में सूजन थी, और उसका बाईल डक्ट जाम हो गया था! ट्यूमर तो था। इसी कारण से उसको भूख नहीं लग रही थी, और थकावट हो रही थी। बाईल डक्ट का जाम होना पैंक्रिअटिक कैंसर का चिन्ह है!
‘हे भगवान्!’
सी टी स्कैन में निश्चित हो गया कि ट्यूमर है, और पैंक्रियास में है। मतलब कैंसर है। पैंक्रिअटिक कैंसर, सभी कैंसरों में सबसे जानलेवा कैंसर है। अगर हो गया, तो मृत्यु लगभग निश्चित है।
‘यह सब क्या हो गया!’
पूरा दिमाग साँय साँय करने लगा। कोई क्या कह रहा है, क्यों कह रहा है, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पहले गैबी, और अब डेवी! ये तो अन्याय है भगवान्! सरासर अन्याय! ऐसा क्या कर दिया मैंने? इसको छोड़ दो प्रभु, मुझे ले लो। मेरी बच्ची की माँ छोड़ दो! उस नन्ही सी जान को किसके भरोसे छोड़ूँ? ऐसे मुझे बार बार बिना हमसफ़र के क्यों कर रहे हो प्रभु? ऐसे बार बार मुझे अनाथ क्यों बना रहे हो?
मैं दिखाने के लिए डेवी को हंसाने का प्रयास कर रहा था, लेकिन वो भी जानती थी कि मैं अंदर ही अंदर डर गया था। हमसफ़र से क्या छुपा रह सकता है भला? एकांत पा कर डेवी ने बड़े प्यार से मेरे गले में अपनी बाँहें डाल कर मेरे होंठों को चूमा, और कहा,
“मेरी जान, ये साढ़े तीन साल मेरी ज़िन्दगी के सबसे शानदार साल रहे हैं! मैं बहुत खुश हूँ! तुम गड़बड़ मत सोचो! मेडिकल फील्ड बहुत एडवांस्ड है! तुमको ऐसे नहीं छोडूँगी!”
वो यह सब कह तो रही थी, लेकिन मुझे उसकी बातों में केवल ‘अलविदा’ ही सुनाई दे रही थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। सारी मज़बूती धरी की धरी रह गई।
एक्स-रे में पता चला कि देवयानी के फेफड़ों के एक छोटे से हिस्से में कैंसर ट्यूमर के छोटे छोटे टुकड़े थे। मतलब यह स्टेज फोर कैंसर में तब्दील हो चुका था, और हमको मालूम भी नहीं चला! पैंक्रिअटिक कैंसर का इलाज स्टेज वन में हो जाय तो ठीक! स्टेज फोर का मतलब है, अब कुछ नहीं हो सकता।
इस बात पर मेरा दिल डूब गया। ऐसा लगा कि जैसे मुझे दिल का दौरा हो जाएगा! मन हुआ कि देवयानी से पहले मैं ही मर जाऊँ। दोबारा यह दर्द, यह दुःख - अब यह सब झेलने की शक्ति नहीं बची थी।
‘यह सब कैसे हो गया?’
‘फिर से!’
देवयानी ने इतने सालों में शराब की एक बूँद तक नहीं छुई थी। न ही वो सिगरेट पीती थी। वो नियमित व्यायाम करती थी, और तंदरुस्त थी। फिर भी! कैसे? अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रह गया था। स्टेज फोर कैंसर! ओह प्रभु!
केवल एक ही दिन में मेरी हंसती खेलती दुनिया तहस नहस हो गई थी।
किस्मत ने कैसी क्रूरता दिखाई थी मेरे साथ! फिर से! जब लगा कि ज़िन्दगी पटरी पर आ गई, तब ऐसी दुर्घटना!!
काश कि ऊपर वाला मुझे उठा ले, लेकिन मेरी देवयानी को बख़्श दे! मेरी बच्ची को उसकी माँ के स्नेह से वंचित न होने दे! ओह प्रभु, प्लीज! मुझे देवयानी की बहुत ज़रुरत है! उसको वापस मत लो!
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सच कहूँ - ये पूजा प्रार्थना - यह सब मन बहलाने का साधन है। कुछ नहीं होता इन सब से। जीवन पर मनुष्य का कोई वश नहीं होता - और यह बात ही परम सत्य है। हमको लगता है कि यह सब कर के हम खुद को जीवन की मार से बचा सकते हैं। लेकिन नहीं! कुछ नहीं होता - केवल क्षणिक मन बहलाव के अतिरिक्त!
देवयानी का कैंसर के साथ संघर्ष बेहद दुर्धुर्ष था। डॉक्टरों ने सुझाया कि ऑपरेशन कर के ट्यूमर तो हटाया जा सकता है, लेकिन स्टेजिंग हो जाने के कारण कीमो-थेरेपी करनी ही पड़ेगी। लेकिन मरता क्या न करता! देवयानी को मालूम था कि यह लड़ाई जीती नहीं जा सकती। लेकिन उसने जब मेरी मरी हुई हालत देखी, तो उसने ऑपरेशन के लिए हाँ कह दिया। चौदह घंटे चले ऑपरेशन के बाद ट्यूमर तो हटा दिया गया। कम से कम वो अब ढंग से खा तो सकती थी! कभी सोचा नहीं था कि ऐसा कहने, ऐसा चाहने की नौबत भी आ सकती है।
इस ऑपरेशन के बाद, जब उसके शरीर ने थोड़ा रिकवर किया, तब कीमो-थेरेपी शुरू हो गई। पाठको को यह ज्ञात होना चाहिए कि कीमो-थेरेपी बेहद कठिन चिकित्सा होती है। शरीर को लुंज पुंज करने के लिए यह पर्याप्त होती है। बेचारी नन्ही सी बच्ची अपनी माँ को ऐसी छिन्न अवस्था में देखती, तो समझ न पाती कि उसकी माँ के साथ क्या हुआ है! लेकिन आभा हमारे जीवन की रौशनी थी - उसको देख कर चाहे मृत्यु भी सामने खड़ी हो, होंठों पर मुस्कान आ ही जाती। देवयानी भी मुस्कुरा देती। और मेरी आँखों से बस, आँसू ढलक जाते! दुर्धुर्ष संघर्ष!
डेवी समझ रही थी कि कुछ लाभ नहीं होना। लेकिन वो बेचारी मेरे और आभा के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर रही थी। उसको भी मेरे लिए, आभा के लिए जीने का मन था। लेकिन सब व्यर्थ सिद्ध हो रहा था। कभी कभी मन में यह प्रश्न उठता अवश्य है कि उसने ऐसा क्या किया कि वो ऐसे झेले! शायद मुझसे शादी करने का गुनाह! और क्या कहा जा सकता है? मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी दलदल में फंस गया हूँ, और वो मुझे धीरे धीरे लील रहा है! डेवी मर रही थी, और उसके साथ हर दिन, हर पल मैं मर रहा था। खुद को काम में व्यस्त रख कर मैं दुःख की तरफ पीठ कर के खड़ा तो होता, लेकिन फिर भी दुःख का प्रत्येक वार सीधे दिल पर आ कर लगता।
हाँ - यह एक संघर्ष था। लेकिन ऐसा कि जिसमें विजेता पहले से ही निश्चित था।
आखिरी दिनों में डॉक्टरों ने सुझाया कि कोई अल्टरनेटिव दवाओं को आज़मा लें! लेकिन फ्राँस के डॉक्टरों ने कहा, कि देवयानी के शरीर को प्रयोगशाला के जैसे इस्तेमाल न किया जाए। उसको थोड़ी डिग्निटी दी जाय। और अब केवल उपशामक चिकित्सा ही करी जाय तो बेहतर। उसको कोई तकलीफ न हो, बस इस बात का ध्यान रखा जाए। थोड़ी बहुत - जो भी ख़ुशी दी जा सकती है, दी जाए। दिल टूट गया यह सुन कर!
कैसी ज़िंदादिल लड़की है मेरी देवयानी और कैसी हो गई! उसकी छाया भी ऐसी कांतिहीन नहीं थी जैसी कांतिहीन वो हो चली थी! कैसी सुन्दर सी थी वो! और कैसी हो गई! लेकिन इस समय मेरी बस एक ख्वाईश थी - कैसे भी कर के वो रह जाए। जीवन में कोई तमन्ना नहीं बची थी।
हमको मालूम था कि हर अगले दिन उसका दर्द, उसकी तकलीफ बढ़ती जाएगी। इसलिए सभी को उससे मिलने बुला लिया गया। देवयानी बड़ी ज़िंदादिली से सभी से मिली। सबसे मुस्कुरा कर बातें करी उसने। लेकिन हर मिलने वाले का दिल टूट गया।
आखिरी बार उसने जब बुझती आँखों से मेरी तरफ देख कर “आई लव यू” कहा, तो मेरा दिल छिन्नभिन्न हो गया। वो दर्द आज भी महसूस होता है मुझको। लेकिन एक सुकून भी है कि मुझे देवयानी जैसी लड़की का हस्बैंड बनने का सौभाग्य मिला!
आखिरी तीन दिन वो आयोजित कोमा में रही! शरीर में कोई हरकत नहीं। बस ऑक्सीजन का रह रह कर टिक टिक कर के आने वाली आवाज़! मॉनीटर्स का बीप बीप! ओह, कितना भयानक मंज़र था वो! कितनी सुन्दर लगती थी वो - और अब - उसकी त्वचा काली पड़ गई थी, और सिकुड़ गई थी। उसको उस अवस्था में देख कर मैंने वो किया, जो मैं अपने सबसे भयावह सपने में भी करने का नहीं सोच सकता था। और वो था उसके मृत्यु की प्रार्थना।
ऐसे कष्ट से तो मृत्यु ही भली है!
तीन दिनों बाद देवयानी चली गई!
कैंसर के संज्ञान से मृत्यु तक केवल अट्ठारह हफ्ते लगे! बस! क्षण-भंगुर! और वो बस छत्तीस साल की थी! बस! हमारा पूरा परिवार उस दिन वहाँ उपस्थित था। मेरे डैड अभी भी किसी करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे थे। वो बेचारे इसी बात से हलकान हुए जा रहे थे कि उनका चहेता बेटा एक बार फिर से वही पीड़ा, वही कष्ट झेल रहा था, जो उसने कुछ वर्षों पहले झेला था। वो हमारे सामने कभी नहीं स्वीकारेंगे, लेकिन उनको देवयानी से अगाध प्रेम था। वो न केवल उनकी पुत्रवधू थी, बल्कि उनकी पोती की माता भी थी और एक तरह से अपनी पुत्री से बढ़ कर थी। देवयानी ने ऐसे ऐसे अनमोल तोहफे उनको दिए थे, कि उनका दिल भी टूट गया था। आभा उनके जीवन का केंद्र बन गई थी। और उसकी मम्मी के जाने की बात सोच कर वो हलकान हुए जा रहे थे। यह सब बहुत अप्रत्याशित सा था। देवयानी उनके लिए ‘श्री’ का स्वरुप थी। उसके आने के बाद से हमारे घर में कितनी सम्पन्नता, कितनी ख़ुशी आई थी कि कुछ कहने को नहीं! कुछ न कुछ कर के वो भी देवयानी से भावनात्मक तौर पर बहुत मज़बूती से जुड़ गए थे।
उसी दिन मैंने देवयानी की आखिरी क्रिया संपन्न कर दी।
इस बार किसी में हिम्मत नहीं हुई कि मुझे किसी तरह की कोई स्वांत्वना दे। क्यों मुझे ऐसा दंड मिला - वो भी दो दो बार, इसका उत्तर मुझे मिल ही नहीं रहा था। क्या मेरे में ही कोई खोट था? कि मेरी वजह से मेरे जीवन में आने वाली लड़कियों का जीवन ऐसे कम हो जा रहा था? संभव है न?
दिल टूट चुका था और जीने की आस भी छूट गई थी। लेकिन मेरे भाग्य में जो दंड लिखा था, अभी समाप्त नहीं हुआ था।
देवयानी की मृत्यु के बाद डैड का दिल भी टूट गया। वो एक भयंकर अवसाद में चले गए थे। उसकी मृत्यु के कोई एक महीने बाद उनको दिल का दौरा पड़ा। वो बेचारे बिस्तर पर आ गए। उनको दिल्ली लिवा लाया मैं, कि माँ अकेले उनकी देखभाल नहीं कर सकतीं! उन बेचारी का इन सब में क्या दोष? लेकिन बात इतने में सुलझ जाती तो क्या दिक्कत थी। तीन महीने बाद उनको एक और दिल का दौरा पड़ा। और इस बार उसने वो हासिल कर लिया, जो पहली बार में उसको हासिल नहीं हुआ था। डैड भी चल बसे!
भाग्य ने मेरे हृदय में त्रिशूल भोंक दिया था - पहले गैबी, फिर देवयानी और फिर डैड! तीन मेरे सबसे अज़ीज़ - और तीनों जाते रहे! देवयानी से बिछुड़ने के केवल चार महीनों में डैड भी चले गए। वो बस पचास साल के थे।
भाग्य ने मेरे किये किसी पाप का बेहद ख़राब दंड दिया था मुझको।
अब मेरे दिल में एक डर सा बैठ गया था - ‘अगला कौन होगा’ - मैं अक्सर यही सोचता! माँ? ससुर जी? आभा? ओह प्रभु! कैसे सम्हालूँ इन सभी को? मैं तो नहीं मर सकता - नहीं तो आभा को कौन देखेगा? और माँ - वो अवश्य ही मेरी माँ थीं, लेकिन उनका भोलापन ऐसा था कि वो भी एक बच्चे समान ही थीं। ऐसी खुश खुश रहने वाली माँ ऐसे अचानक ही विधवा हो गईं। उनके जीवन के रंग यूँ ही अचानक से उड़ गए! सच में, अब मुझे उनकी बेहद चिंता होने लगी थी। कभी सोचा भी न था कि मैं माँ की चिंता करूंगा! उनकी कोई उम्र थी यह सब झेलने की? उफ़!
माँ एक ज़िंदादिल महिला थीं। उनके अंदर जीने की, ज़िन्दगी की प्रबल लौ थी। डैड और माँ एक तरह से परफेक्ट कपल थे - जीवन से भरपूर! लेकिन अब - अपने लगभग अट्ठाईस साल के जीवन साथी को यूँ खो देना, उनके लिए बहुत बड़ा सदमा था। और इस सदमे से दो चार होना उनके लिए आसान काम नहीं था। इतनी कम उम्र में उनकी शादी हुई थी, और तब से डैड उनके एकलौते सहारा थे। वो कहते हैं न - वन एंड ओन्ली वन! उनका पूरा संसार! बस, वही थे डैड उनके लिए। कोई कहने की आवश्यकता नहीं कि डैड के जाने के बाद माँ एक गहरे अवसाद में चली गईं! उस ज़माने में मानसिक तकलीफों को इतना गंभीरता से नहीं लिया जाता था, जितना कि आज कल है। लेकिन मुझे लगा कि उनको डॉक्टर को दिखाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि माँ भी डैड के पीछे चल बसें! इसलिए माँ को एक बढ़िया मनोचिकित्सक की देख रेख में रख दिया। रहती वो मेरे - हमारे साथ थीं - लेकिन उनका मन शायद डैड के साथ ही कहीं चला गया।
माँ बहुत घरेलु किस्म की महिला थीं। डैड भी वैसे ही थे। वो ही माँ की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करते थे। उनके लिए माँ की छोटी छोटी कमियाँ ही उनका सौंदर्य थीं। वो उनके लिए छोटे छोटे, रोमांटिक तोहफे लाते थे। उनका मन बहलाते थे। उनको कविताएँ सुनाते थे। और माँ में ही खोए रहते थे - ऐसे कि जैसे धरती पर उनके लिए अन्य किसी महिला का कोई वज़ूद न हो! माँ उनका प्रेम थीं, और वो माँ के!
डैड के बिना जीवन कठिन था। बयालीस की उम्र में विधवा होना - यह एक कठिन चुनौती है। किसी के लिए भी। उस सच्चाई से दो चार होना उनके लिए संभव ही नहीं हो रहा था। सामान्य दिन वो जैसे तैसे बिता लेतीं - लेकिन त्यौहार, जन्मदिन, सालगिरह - यह उनको बड़ा सालता। इन सबके कारण उनको डैड की बड़ी याद आती। दीपावली में वो दोनों सम्भोग करते - लेकिन अब उसी दीपावली के नाम पर उनको अवसाद हो आता। उनके चेहरे की रंगत उड़ जाती।
वो रंग बिरंगी साड़ियाँ पहनतीं। खूब सजतीं - मेकअप नहीं, बल्कि गजरा, काजल, बिंदी इत्यादि से। उतने से ही उनका रूप ऐसा निखार आता कि अप्सराएँ पानी भरें उनके सामने! लेकिन अब तो उनको रंगों से ही घबराहट होने लगी थी। बस दुःख का आवरण ओढ़े रहतीं हमेशा। होंठों पर लाली, और आँखों में काजल लगाने के नाम पर वो दुखी हो जातीं। हमारे लाख कहने पर भी उनसे सजना धजना न हो पाता। वो घर से बाहर भी नहीं निकलती थीं। बस डॉक्टर के पास जाते समय, और मुँह अँधेरे वाकिंग करते समय ही वो बाहर निकलती थीं।
कोई तीन महीने हो गए थे अब डैड को गए हुए। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी।
कभी कभी मन में ख़याल आता कि क्यों न माँ की शादी करा दी जाए। विधवा होना कोई गुनाह नहीं। माँ को खुश रहने का पूरा हक़ था। लेकिन फिर यह भी लगता कि इतनी जल्दी क्या माँ किसी और को अपनाने का भी सोच सकती हैं? मुश्किल सी बात थी। लेकिन कोई बुरी बात नहीं।
उनको अकेली क्यों होना चाहिए? इस बात का कोई उत्तर नहीं था। अगर कोई ऐसा मिल जाए जो माँ को भावनात्मक रूप से सम्हाल सके, उनको प्रेम कर सके, उनके उदास वीरान जीवन में कोई फिर से रंग भर सके, तो मुझे वो व्यक्ति मंज़ूर था। मैं उदास था, और खुद भी डिप्रेशन में था; लेकिन माँ को देख कर मैं अपना ग़म भूल गया। और फिर मेरे सर पर आभा और बिज़नेस की ज़िम्मेदारी भी थी। उधर ससुर जो भी देवयानी के जाने के बाद से बेहद दुखी रहने लगे थे। एक और बाप न चला जाय कर के एक और डर मेरे मन में समां गया था। वो तो भला हो जयंती दी का, जिन्होंने कुछ समय के लिए आभा के पालन की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। लेकिन वो बच्ची उनकी परमानेंट ज़िम्मेदारी नहीं हो सकती थी।
इस समय बस यही दो तीन ख़याल मन में रहते - कैसे भी कर के माँ बहुत दुखी न हों, और आभा की परवरिश ठीक से हो। कहाँ कुछ ही दिनों पहले मेरी पूरी ज़िन्दगी कैसी खुशहाल थी, और कहाँ अब सब कुछ पटरी से उतर गया था।
उसी बुरी दशा में मुझे फिर से काजल की याद आई। काजल - मेरे जीवन का लौह स्तम्भ! मेरा निरंतर सहारा।
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nice update..!!अंतराल - स्नेहलेप - Update #1
कोई डेढ़ साल पहले, अपनी अकेली पड़ी अम्मा की सेवा करने हेतु काजल अपने गाँव चली गई थी। और फिर उसके बाद मेरे जीवन में ऐसी अप्रत्याशित उथल पुथल मची कि मेरी तरफ से उससे संपर्क ही नहीं हो पाया। हालाँकि उसके अपने गाँव जाने के आरंभिक दिनों में हम एक-दूसरे से चिट्ठी और फोन से संपर्क में बने रहे थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों में वो भी नहीं हुआ था। उसकी आखिरी खबर मुझे यह मालूम हुई थी कि उसकी अम्मा नहीं रही थीं। उसके अपने गाँव जाने के कोई दस महीने बाद ही उनका देहांत हो गया। लगभग उसी समय देवयानी को कैंसर डिटेक्ट हुआ था। उसकी अम्मा की मृत्यु के उपरान्त उनकी जो थोड़ी बहुत संपत्ति थी, उसको ले कर उसका उसका उसके भाइयों के साथ झगड़ा चल रहा था। काजल अपने माँ बाप का घर बिकने नहीं देना चाहती थी, इसलिए उसने वहीं पर अपना डेरा डाल लिया था। इसी कारणवश, वो माँ और डैड के पास वापस नहीं जा पा रही थी। फिर अचानक ही हमारा सब कुछ बदल गया। खैर...
इस समय सुनील इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, और अभी अभी अपने फाइनल ईयर में गया था। सुनील ने मेहनत करनी बंद नहीं की थी - वो एक बुद्धिमान स्टूडेंट था, और हर सेमेस्टर अपनी क्लास के टॉपरों में से रहता था। तो मतलब, हमारी मेहनत रंग लाई। वो हमेशा से ही एक होशियार और ज़िम्मेदार लड़का रहा है; इसलिए, मुझे उसकी उपलब्धियों पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उससे मुझे यही उम्मीदें थीं! मैं उसकी उपलब्धियों से बहुत खुश था, और बहुत गौरान्वित भी! सुनील मेरे लिए एक बेटे की तरह था, और उसने भी मुझे अगर अपना पिता नहीं, तो अपने पिता से कम भी नहीं माना। मुझे उम्मीद थी कि भविष्य में हम दोनों के बीच संबंध और भी घनिष्ठ और सौहार्दपूर्ण हो सकते हैं।
दूसरी ओर, काजल की बेटी लतिका, एक सुन्दर सी, प्यारी सी, गुणी लड़की के रूप में उभर रही थी। बुद्धिमान होने के बावजूद पढ़ाई लिखाई में वो बहुत तेज़ नहीं लग रही थी - संभव है कि गाँव में ट्रांसफर होने के कारण उसकी पढ़ाई लिखाई में व्यवधान आ गए हों! ऐसे में मन उचटना बहुत आसान होता है। लेकिन उसने फिजिकल एजुकेशन में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था। स्कूली स्तर पर होने वाले खेलों में - ख़ासतौर पर दौड़ में - वो हमेशा अव्वल नंबर आती थी - न जाने कितने मैडल, ट्रॉफियां और शील्ड्स उसने जीते थे - और वो भी इतनी कम उम्र में। वैसे भी, उसके व्यक्तित्व को विकसित होने, और निखरने में वैसे भी अभी बहुत समय था, क्योंकि वो अभी भी बहुत छोटी थी।
मैंने बहुत हिचकते हुए काजल को फोन किया। हिचक इस बात की थी कि जब मुझे अपनी ज़रुरत पड़ी, तब ही उसकी याद आई। काजल ने कभी भी अपने स्वार्थ के लिए मुझसे संपर्क नहीं किया। हमेशा मेरा भला चाहने देखने की आस में ही वो मुझसे बातें करती। लेकिन मैं... कैसा हो गया था मैं?
इतने दिनों के बाद बातचीत करते हुए हम दोनों ही बहुत भावुक हो गए। बिना कोई जलेबी बनाए मैंने उसको अपनी दयनीय स्थिति के बारे में बताया। काजल और देवयानी पिछले कोई डेढ़ सालों में नहीं मिले थे। लेकिन इस तरह की दूरियों से मन नहीं बँटता - प्रेम के सम्बन्ध नहीं बँटते। उसकी मौत की खबर ने काजल को भी तोड़ दिया। उसके जेहन में सबसे पहला ख़याल आभा का ही आया। ‘बिना माँ की बच्ची’ - यह सोच कर ही उसका दिल टूट गया। लेकिन उसको और भी गहरा भावनात्मक आघात तब लगा जब मैंने उसको डैड की मौत के बारे में बताया। वो खबर सुन कर वो पूरी तरह से टूट गई। कितनी देर तक वो रोई, मैं कह नहीं सकता। डैड ने काजल को इतना प्यार और इतना सम्मान दिया था, और उसको अपनी बेटी की तरह माना था। इसलिए उनका जाना, काजल के लिए भी बहुत बड़ा और व्यक्तिगत नुकसान था।
उसने बड़ी शिकायतें करीं, बहुत नाराज़गी दिखाई। मैंने भी अपराधी बने अपने ऊपर लगे हर आरोप को स्वीकार किया - हाँ अपराध तो किया था। काजल को इन सब के बारे में न बता कर मैंने उसको अपने से पराया कर ही दिया था। लेकिन जो दंड मुझे मिल गया था, और जो मिल रहा था, वो भी कोई कम नहीं था। उधर, काजल ऐसी स्त्री नहीं थी जो अपने मन में किसी के लिए द्वेष पाले। उसके विचार तुरंत ही माँ पर केंद्रित हो गए, और वो उनके बारे में पूछने लगी।
मैंने धैर्यपूर्वक उसे सब कुछ बताया। माँ के डिप्रेशन के बारे में, और अपने दैनिक संघर्षों के बारे में समझाया। अचानक ही उसको अपना पैतृक घर और संपत्ति बचाने या सम्हालने का ख्याल बचकाना और छोटा लगने लगा। उसकी ज़रुरत हमको थी। उसको भी यह बात समझ में आ रही थी। और यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं, कि उसके अंदर हमारी देखभाल करने की इच्छा बलवती होने लगी।
बड़ा सम्बल मिला। भगवान् मुझसे ले रहे थे, लेकिन मेरे पास उन्होंने एक अचूक औषधि - मेरी संजीवनी - छोड़ रखी थी। मुझे हमेशा ही न जाने क्यों लगता कि अगर काजल है, तो सब साध्य है। वो सम्हाल लेगी मुझे। ऐसा यकीन आता। सात साल से अधिक के साथ ने यह विश्वास मेरे हृदय में पुख़्ता कर दिया था।
लेकिन उसके भी अपने खुद के कई काम तो थे ही। उनकी महत्ता मेरी समस्याओं के सामने कम तो नहीं थी।
“काजल, ऐसी कोई जल्दी नहीं है... अगर तुम जल्दी नहीं आ सकती, तो हम समझते हैं!”
“कैसी बकवास बात कर रहे हो तुम, अमर! तुम ये सब कह भी कैसे सकते हो? क्या तुम सभी मेरा परिवार नहीं? तुमको मेरी ज़रुरत है! उस नन्ही सी जान को मेरी ज़रुरत है! दीदी को मेरी ज़रुरत है! और ऐसे में मैं न आऊँ, तो लानत है मुझ पर!” काजल ने बड़े भावनात्मक जोश, और थोड़ा नाराज़गी से कहा!
“दीदी डिप्रेशन में हैं, और उस नन्ही सी, बिन माँ की बच्ची को देखभाल की ज़रूरत है! और तुम इन सब मुसीबतों के साथ बिलकुल अकेले हो! मैं कैसे देर कर सकती हूँ? पुचुकी की चिंता न करो। बस अभी अभी वो अगली क्लास में दाखिल हुई है। उसका नाम तो वहाँ, दिल्ली में भी लिख जाएगा। इसलिए मैं जैसे भी, जितनी जल्दी हो सकता है, वहाँ आ रही हूँ!”
हाँ, लतिका के लिए स्कूल देखना है। वो कोई समस्या नहीं थी। मेरा खुद का नेटवर्क इतना बड़ा हो गया था कि उस छोटी सी बच्ची के एक बढ़िया से स्कूल में दाखिले में कोई प्रॉब्लम न आती।
तो, यह तय रहा! मैंने कलकत्ता की फ्लाइट ली, और वहाँ से एक गाड़ी बुक कर के सीधे उसके गाँव पहुँच गया। हम आज कोई डेढ़ साल बाद मिले थे। मैं भावनाओं से ओतप्रोत था और काजल भी। कितनी ही सारी पुरानी यादें दौड़ कर चली आईं। मैं उसके गले मिल कर कितनी देर रोया! शायद उसने अपने मन में सैकड़ों शिकायतें भरी हुई हों - लेकिन मेरी हालत देख कर उसने कुछ कहा नहीं। कह नहीं सकता कि उसने मुझे माफ़ किया था या नहीं, लेकिन जब मेरे पैरों ने जवाब दे दिया, और जब मैं उसके पैरों में गिर पड़ा, तब उसकी आँखों से भी अनवरत आँसू फूट पड़े। उसके गिले शिकवे दूर हो गए।
लतिका अब नौ साल की हो गई थी, और बहुत प्यारी सी बच्ची लगती थी। अपनी माँ से भी प्यारी! बहुत सुखद आश्चर्य हुआ जब वो मुझे पहचान गई, और भाग कर मेरी गोदी में चढ़ गई। उसको देख कर मुझे आभा की याद हो आई। छोटे छोटे बच्चे! बिना पूरे परिवार के सुख के कैसे बड़े होंगे? अब बहुत हो गया - काजल को साथ में आना ही पड़ेगा। सच में, मैंने अपने परिवार को ही अपने से दूर हो जाने दिया था, और इस बात का ग़म मुझे हमेशा रहेगा। लेकिन अब और नहीं - मेरा जो भी परिवार बचा हुआ था, उसको मैं सहेज कर रखूँगा। मैंने उस समय यही प्रण लिया।
खैर, हमने जो कुछ भी बातचीत की, वो सब कुछ यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं है। बस यह बता देना पर्याप्त है कि काजल वापस मेरे - या यूँ कह लीजिए कि अपने - घर आने के लिए तैयार हो गई। वो जानती थी कि वो खुद भी इसी परिवार का हिस्सा है, इसलिए उसके लिए हमारे साथ फिर से जुड़ना मुश्किल नहीं होगा।
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जब इतने लम्बे अर्से के बाद जब माँ ने काजल और लतिका को देखा तो वह बेहद भावुक हो गईं।
कोई छः साल पहले काजल उनके पास रहने को आई थी। और साथ रहते रहते उन दोनों में स्नेह और निकटता बहुत अधिक बढ़ गई थी। माँ ने काजल को हमेशा अपनी बहन और बेटी समान ही माना, और काजल ने माँ को! दोनों का पारस्परिक प्रेम रक्त के रंग से भी गाढ़ा था। दोनों का सम्बन्ध प्रेम, विश्वास, और आदर सम्मान पर आधारित था। एक समय था जब माँ इस उम्मीद में थीं कि शायद काजल और मैं शादी कर लेंगे - इस तरह से काजल में वो अपनी होने वाली बहू की छवि भी देखती थीं!
दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया और बहुत देर तक रोती रहीं! वैसे मैं माँ को रोता देख कर उनको चुप कराने लगता था, लेकिन आज नहीं। अपनी सखी-सहेली की संगत में उनका रोना अच्छी बात थी। क्योंकि हो सकता है कि माँ खुद को अपने डिप्रेशन से कुछ हद तक उबार सकती हैं! काजल हमारा परिवार थी, इसलिए उसका सहारा हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी।
काजल की उपस्थिति से मुझे कुछ तसल्ली हुई! माँ को, मुझे, और आभा को अंततः सहारा मिल गया। माँ को इतनी तेजी से घुलता ढलता देखना हृदय-विदारक था। विधवा होने की ये भी कोई उम्र है? उन्होंने अभी अपने जीवन में देखा भी क्या ही था? पूरी उम्र उन्होंने केवल त्याग ही किया था! क्या ही सुख मिला था उनको अभी तक? वो इतनी हंसमुख, मजाकिया, और चंचल महिला हुआ करती थीं... लेकिन अब, अब तो वो अपने उस रूप की परछाईं मात्र थीं! अब तो हमेशा उदास उदास रहती थी। न होंठों पर कोई मुस्कान, न आँखों में कोई चमक! जीवन की रंगत उनके चेहरे पर फ़ीकी पड़ती जा रही थी।
लेकिन काजल के आने से मुझे यह उम्मीद हो गई कि संभवतः वो फिर से अपने पुराने रूप में लौट आएँगी!
आभा उस समय लगभग चार साल की थी। उसको देखते ही काजल अपने घुटनों पर आ गई। उसे देख कर काजल को ‘हमारी’ बेटी की याद हो आई। उसके हृदय में ममता की टीस उठ गई। ‘बिन माँ की बच्ची’ को देख कर उसके दिल में ममता की नदी, अपना बाँध तोड़ कर उसकी आँखों के रास्ते से बहने लगी। आभा को काजल की याद नहीं थी - वो कोई ढाई साल की ही रही होगी, जब उसने आखिरी बार काजल को देखा था। इसलिए उसने अपने सामने बैठी, रोती हुई महिला को आश्चर्य से देखा।
“आजा मेरी पूता! अपनी अम्मा के सीने से लग जा मेरी बच्ची!” काजल सुबक सुबक कर बोल रही थी।
उसकी आवाज़ में कुछ ऐसी बात थी कि आभा के पैर स्वतः ही उसकी तरफ़ चल दिए। वो अलग बात है कि हमने उसको समझाया हुआ था कि वो अजनबियों से दूर रहा करे, उनसे बात चीत न करे इत्यादि। लेकिन शायद ममता की बोली में एक अलग प्रकार की शक्ति होती है! जिन्हे ममता की दरकार होती है, वो उस भाषा को सुन ही लेते हैं। नन्ही सी आभा को अपने सीने से चिपकाए, काजल न जाने कितनी देर तक रोती रही।
उधर माँ की हालत भी काजल के समान ही थी। लतिका ने उनके जीवन में एक पुत्री की कमी पूरी कर दी थी। वो उसकी ‘मम्मा’ थीं। अपनी बेटी से इतने समय बाद मिलने के कारण वो बेहद भावुक हो गईं थीं। लतिका ने जब प्रसन्नता और उत्साह से “मम्मा” कहा और उनसे चिपक गई, तो भावातिरेक में माँ के गले से आवाज़ आनी ही बंद हो गई कुछ देर तक!
घर का माहौल बेहद भावुक हो गया था - एक तरफ़ काजल रो रही थी; और दूसरी तरफ़ माँ और लतिका, दोनों के आँसू गिर रहे थे। बस मैं ही था, जिसने खुद को जैसे तैसे सम्हाले हुए था। आभा यह सब समझने के लिए अभी बहुत छोटी थी।
माहौल भावनात्मक रूप से भारी था, लेकिन न जाने क्यों अब मुझे लग रहा था कि अब सब ठीक हो जाएगा। काजल हमेशा से ही मेरा सम्बल रही है। उसके आ जाने मात्र से मेरा मन मज़बूत हो गया था।
“आप कौन हैं?” बहुत देर के बाद आभा ने काजल से पूछा।
“तेरी माँ हूँ मैं, मेरी बच्ची! तेरी माँ!” काजल की आँखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
“माँ?” आभा ने कहा।
आभा ने प्रश्न किया था, लेकिन काजल को लगा कि उसने उसको ही ‘माँ’ कह कर पुकारा है। उसके लिए संचित सारी ममता उसके स्तनों में उतर आई। काजल को अपने स्तनों में एक टीस सी महसूस हुई।
“कोबे थेके अमार मेये बुकेर दूध पायानी?”
अब आभा को कैसे याद रहे कि उसने कब से माँ का दूध नहीं पिया। देवयानी अपने काम में बिजी रहने के बावजूद उसको नियमित स्तनपान कराती थी। लेकिन कैंसर होने से उसके मन में यह बात बैठ गई कि दूध से कैंसर की कोशिकाएँ आभा के अंदर चली जाएँगी। और तब से आभा का स्तनपान बंद हो गया। कीमो-थेरेपी शुरू होने के बाद वैसे भी स्तनपान पर पूर्ण विराम लग गया था।
उसने अपने ब्लाउज के बटन खोलते हुए कहा, “चिंता न कर मेरी पूता! तेरी माँ पिलाएगी न! तुझे मैं वो सारा प्यार दूँगी, जो तुझे चाहिए! वो सब प्यार! आजा बेटा!”
मुझे आश्चर्य हुआ कि ये क्या हो रहा है! फिर सोचा कि काजल ममतावश आभा को माँ वाला प्यार देना चाहती हो! लेकिन जब मैंने उसके एक चूचक के सिरे पर दूध की बूँद देखी, तब मुझे समझ में आया कि काजल को अभी भी दूध आता है। एक तरह से मुझे सही भी लगा कि आभा - मेरी बेटी - काजल का दूध पिए! दूध, जो मेरी - हमारी - बेटी के कारण उत्पन्न हुआ था। एक तरह से आभा का भी उस दूध पर अधिकार है!
आभा ने मेरी तरफ़ देखा - उसको मालूम नहीं था कि उसको क्या करना है। स्तनपान किये उसको एक साल से ऊपर हो गया था। बच्चे इतने अंतराल में बहुत कुछ भूल जाते हैं। उसको मेरी तरफ देखते देख कर काजल ने आभा को अपनी गोदी में उठा लिया।
“पापा को नहीं, अपनी माँ को देख मेरी बच्ची!” उसने आभा को अपनी गोदी में व्यवस्थित करते हुए कहा, “और मेरा दूध भी पहचान ले!”
आभा ने काजल के स्तनों की ओर देखा।
“इसको पी कर मुझे अपनी माँ होने का एहसास करा दे मेरी गुड़िया!”
काजल ने कहा, और आभा के मुँह में अपना एक चूचक दे दिया। बच्चों में एक सिक्स्थ सेन्स होता है शायद। पैदा होते भी जान लेते हैं कि स्तनों का क्या उपयोग है। और आभा को इसका ज्ञान तो था ही। उसने उस चूचक को चूसना शुरू कर दिया, और अगले ही पल उसको अपना पुरस्कार भी मिल गया। माँ का दूध! मीठा दूध!!
आभा को स्तनपान करते देख कर लतिका कहाँ पीछे रहने वाली थी? अपने गाँव वापस जाने से पहले, अपनी मम्मा की गोदी में बैठ कर उनका स्तनपान करना उसका सबसे पसंदीदा काम था। लिहाज़ा, लतिका ने भी माँ के ब्लाउज के बटन खोलने शुरू कर दिए। उसने बस एक बार माँ की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि डाली। माँ ने उसका मंतव्य समझ कर ‘हाँ’ में सर हिलाया। इतना इशारा बहुत था उसके लिए। कुछ ही समय में लतिका ने भी माँ के स्तनों को अनावृत कर के उनके चूचक पीना शुरू कर दिया। एक बच्चे का पुरस्कार माँ का दूध था, तो दूसरे का पुरस्कार माँ का स्नेह!
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nice update..!!अंतराल - स्नेहलेप - Update #2
लतिका बहुत प्यारी लड़की थी! और बहुत चंचल भी! कम से कम मुझे तो वैसा ही याद है उसके बारे में। वो ऐसे रहती थी कि जैसे उसे दुनिया की कोई परवाह ही न हो! बच्चों को तो ख़ैर वैसे ही रहना भी चाहिए। वो हमेशा हंसते खेलती रहती, हमेशा कोई न कोई प्यारी सी शरारत करती रहती। और ऐसी होने के बावजूद, दिल से वो बहुत ज़िम्मेदार लड़की भी थी। काजल इस बात को जानती थी, इसलिए उसने बड़ी चालाकी से लतिका को आभा की कस्टडी दे दी।
“लतिका, अब से इस नन्ही गुड़िया को सम्हालने की जिम्मेदारी तुम्हारी!” काजल ने कहा, और आभा की ज़िम्मेदारी उसको सौंप दी।
काजल ने लतिका को समझाया कि वो अपनी ‘छोटी बहन’ के लिए एक बढ़िया ‘रोल मॉडल’ बने। छोटी अपनी बड़ी बहन के हर काम का अनुसरण करेगी न - तो वो कैसे बोलती है, कैसा व्यवहार करती है, क्या करती है, कैसे पढ़ाई लिखाई करती है - इन सब बातों का असर आभा पर पड़ेगा। इसलिए लतिका को चाहिए कि वो उस बच्चे के लिए एक ‘अच्छा रोल-मॉडल’ बने।
दरअसल, इसी बहाने काजल चाहती थी कि उनकी बेटी थोड़ा ज्यादा जिम्मेदार तरीके से व्यवहार करने लगे। लतिका की पढ़ाई में व्यवधान तो आ ही गया था, इसलिए काजल को उसे ले कर थोड़ी चिंता सी रहती थी। बेशक, उसने यह सब बातें बड़े हल्के-फुल्के अंदाज में कहीं। और अगर उम्मीद के अनुसार लतिका ने वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर दिया, तो बहुत अच्छा था! है न?
मुझे लगता है कि प्रत्येक बच्चा अपने तरीके से, बिना किसी पूर्वाग्रह के बड़ा होवे! माँ और डैड ने मुझे वैसे ही पाला था। लेकिन यह भी है कि अगर जिम्मेदारी की भावना, बच्चों में अच्छी आदतें और शिष्टाचार पैदा कर सकती है, तो क्यों न थोड़ी ज़िम्मेदारी बच्चों पर डाली जाएँ!
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कैसे छोटी छोटी सी बातें, आगे चल कर आपके जीवन को बड़ा लाभ देने लगती हैं - या दे सकती हैं! कोई सात साल पहले मैंने अपनी समझ में एक छोटा सा काम किया था - मैंने सिफारिश कर के सुनील का एडमिशन पास ही के एक बढ़िया से स्कूल में करवा दिया था। कितना छोटा सा काम था! लेकिन देखिए - उस एक काम... एक भलाई के बदले, काजल ने कितना कुछ दिया था मुझको और मेरे परिवार को! और अभी भी दे रही थी। सात साल पहले जो मेरे घर कामवाली बाई बन कर आई थी, आज वो इस घर का अभिन्न हिस्सा थी... समझिए कि इस घर की मालकिन थी। काजल पर मेरा भरोसा पृथ्वी के गुरुत्व के जैसा ही अडिग है! कमाल की स्त्री है काजल - नौकरानी, प्रेमिका, मेरी संतान की माँ, और बहन - किस भूमिका में वो मेरे साथ पूरी ईमानदारी से नहीं खड़ी हुई थी?
अपने आने के कुछ ही दिनों में काजल ने घर की सारी ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली - घर का रख-रखाव, साफ़ सफाई, खाना-पीना, घर का सञ्चालन, माँ के देख-रेख, उनकी दवाईयाँ, इत्यादि! अचानक ही हमारे रहन सहन की गुणवत्ता बढ़ गई। हमारी दिनचर्या निश्चित और आरामदायक हो गई। इतने महीनों में इतना सुकून पहले नहीं महसूस किया। अगर प्रेम का कोई मानवीय रूप है, तो मेरे ख़याल से उसका नाम काजल ही होगा। आभा की मुस्कान और चहक, जो अचानक ही गायब होने लगी थी, वो वापस आने लगी। वो स्वस्थ भी दिखाई देने लगी। उसका खाना पीना, खेलना कूदना, यह सब काजल देख रही थी और साथ ही साथ वो उसको नियमित रूप से, दिन में तीन बार स्तनपान कराती।
माँ भी थोड़ा सम्हल गईं - उनकी सबसे पक्की सहेली अब उनके साथ थी। उनको बात चीत करने, और अपने दुःख बाँटने के लिए एक साथी मिल गई थी। वो डिप्रेशन में अवश्य थीं, लेकिन मुझे दिल में लग रहा था कि उनकी हालत शोचनीय नहीं रहेगी। साथ ही उनकी प्यारी ‘बेटी’ भी तो थी। लतिका ने उनके अंदर की माँ को वापस जीवित कर दिया था। दोनों बच्चों की हँसी और खेल कूद से मेरा घर वापस गुलज़ार होने लग गया था।
माँ को लतिका के रूप में अपनी ममता लुटाने का एक और उद्गम मिल गया था। माँ की बड़ी इच्छा थी कि उनकी मेरे अलावा एक और संतान हो, और अगर संभव हो, तो वो लड़की हो। जब काजल उनके साथ रहने को आई थी, तब लतिका में उनको अपनी वही बेटी दिखी। आभा तो खैर घर भर की बच्ची थी ही, और उनकी पोती थी - उससे एक अलग ही तरह का लगाव और दुलार था उनको। लेकिन लतिका को देख कर उनको ऐसा लगता था जैसे वो उनकी अपनी ही बेटी हो। उनका अधिकतर मातृत्व लतिका पर न्योछावर होने लगा। पहले भी यही होता था : जब काजल, लतिका और सुनील के साथ डैड-माँ के घर रहते थे, तब माँ ने लतिका और सुनील को पढ़ाने-लिखाने और उनकी देख-रेख की सारी ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली थी। इसलिए यहाँ भी वही हुआ। सुनील तो नहीं था - लेकिन लतिका और आभा तो थे! तो उनको पढ़ाने-लिखाने और उनकी देख-रेख की ज़िम्मेदारी माँ पर थी। वैसे माँ दोनों बच्चों को उसी प्रकार से पाल रही थीं, जैसे उन्होंने मुझको पाला था। घर में अब वही, नेचुरल और आर्गेनिक जीवन पद्धति फिर से लागू थी। कुछ ही दिनों में दोनों बच्चों ने उस पद्धति को आत्मसात भी कर लिया।
लतिका और आभा का सम्बन्ध भी अनोखा सा था - थी तो वो खुद एक नौ साल की बच्ची, लेकिन अपने से छोटी आभा की देखभाल ऐसे करती जैसे वो खुद उसकी अम्मा हो! वो उसको पढ़ाती, उसके खेल में हिस्सा लेती। उसकी देखभाल करती।
काजल को भी माँ के साथ अपना पुराना रिश्ता कभी कभी याद आ जाता, तो वो भी माँ की छातियों से चिपक जाती। माँ तो ख़ैर थीं भी इतनी ममतामई कि उनका दिल सभी को प्रेम स्नेह देता रहता, फिर भी उनका स्नेह का भण्डार कभी खाली नहीं होता था।
मैं काजल को कोई वेतन नहीं देता था। उसने हमारे साथ रहने की बात मान कर, हम पर एहसान किया था। उसका बदला सैलरी दे कर नहीं चुकाया जा सकता था। मैंने उससे साफ़ कह दिया था कि वो इस घर की ‘स्वामिनी’ है। उसका जैसा मन करे, वो कर सकती है। हममें से कोई भी उससे उस बाबत कोई प्रश्न नहीं करेगा। उसको आदर सम्मान देने के लिए मैंने उसको अपने अकाउंट का जॉइंट होल्डर नियुक्त कर दिया। जब भी और जैसी भी उसको आवश्यकता हो, वो धनराशि बैंक से निकाल सकती थी। वो अलग बात है कि उसने अपने लिए एक पाई भी नहीं ली।
काजल के तरीके में भी कई अंतर आ गए थे - अब वो घर के खर्चे का पूरा लेखा-जोखा वो बराबर से रखती थी। अगर संभव होता, वो हर चीज़ का बिल अपने पास रखती, और एक रजिस्टर भी बना कर रखती। एक बार मैंने देखा था, कि वो लतिका को समझा रही थी कि यह काम कैसे किया जाता है। अद्भुत था यह सब! सच में, बच्चों को यह सब जितना जल्दी हो सीखना चाहिए। इससे ज़िम्मेदारी आती है। रुपए पैसे की समझ आती है।
जयंती दी भी बराबर हमारा हाल चाल लेती रहतीं। वो भी हमारा ही परिवार थीं। ससुर जी अक्सर आ जाते, और अपनी दोनों ‘पोतियों’ के संग खेलते। हमारे ज़ख्म गहरे थे, लेकिन भर रहे थे। वो मेरा दर्द समझते थे - उनको भी वही दर्द था। उनकी पत्नी भी बहुत पहले ही चल बसी थीं। इसलिए उनको समझ आता था कि मैं क्या झेल रहा था।
यह अब तक के मेरे जीवन का सबसे दुर्गम समय था - और मुझे ख़ुशी थी कि इस समय काजल मेरे साथ थी। अब इस समय की कठिनाई कम हो चली थी। यह सब क्यों? बस इसलिए क्योंकि कभी मैंने काजल के लिए ‘कुछ’ किया था। जीवन बहुत लम्बा होता है - इसलिए हमको चाहिए कि औरों के लिए अगर हम कुछ निःस्वार्थ भाव से कुछ कर सकते हैं, तो अवश्य कर दें। न जाने आगे जा कर उसका फल हमको किस रूप में मिल जाए! अगर न भी मिले, तो कम से कम मनःशांति तो मिलेगी ही न?
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अब करते हैं मेरी बात!
देवयानी की मृत्यु के उपरान्त उसकी जीवन बीमा राशि मुझे मिली। उसने जो भी प्रॉपर्टी बनाई थी, वो सब मेरे नाम लिख दी थी। ऑफिस से भी सेटलमेंट की धनराशि मुझे ही मिली। मैंने अधिकतर धनराशि या तो बिज़नेस में डाला, या फिर आभा और लतिका के नाम से इन्वेस्टमेंट कर दिया। जो धनराशि मैंने बिज़नेस में डाला, वो सब काजल, लतिका, और आभा के नाम से डाला। ससुर जी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। वो समझ रहे थे कि काजल और लतिका की मेरे जीवन में क्या अहमियत है, और वो खुद भी इस बात से प्रसन्न हुए कि उनका दामाद इस तरह से सोचता है। माँ को भी डैड की मृत्यु पर बीमा राशि और अन्य धनराशि मिली। उनको डैड के स्थान पर कम्पैशनेट ग्राउंड पर उनके महकमें में नौकरी भी मिल रही थी, लेकिन उन्होंने वो लेने से इंकार कर दिया। क्योंकि नौकरी करने के लिए उनको अपने घर में, अकेले रहना पड़ता, जो कि अब उनके लिए असंभव हो गया था। माँ ने जो भी पैसा मिला, सब मुझे दे दिया। वैसे भी डैड और माँ के नाम जो भी कुछ संपत्ति थी, वो सब उन्होंने मेरे नाम लिख दी थी। तो मैंने वो सब धन अपने बिज़नेस में लगा दिया - माँ के नाम से। अब कंपनी के शेयरहोल्डर्स में मेरा पूरा परिवार शामिल था।
जयंती दी के कहने पर डेवी का जो घर था, उसको किराए पर चढ़ा दिया। मैं यह करना तो नहीं चाहता था, लेकिन दी की बात सही थी - अगर घर इस्तेमाल नहीं होता, तो जल्दी खराब हो जाता है। इसी तर्ज़ पर डैड और माँ के घर को भी साफ़ सफाई करवा कर किराए पर चढ़ा दिया। माँ ने भी जयंती दी जैसा ही तर्क दिया था। मेरा मन तो नहीं था - उस घर से कई सारी यादें जुड़ी हुई थीं। लेकिन माँ ने मुझे ‘बिना वजह’ भावुक न होने की सलाह दी। तो, घर की पहली मंज़िल के दोनों कमरों में हमारे (डैड और माँ के) आवश्यक सामान रखवा कर, ताला लगा दिया, और नीचे का हिस्सा किराए पर दे दिया। किराया कोई ऐसा बड़ा नहीं आता था, लेकिन हमारे घर के खर्च के लिए पर्याप्त धन आ जाता था।
छोटी छोटी बातें थीं, लेकिन इन सबका बड़ा लाभ हुआ। अब मैं अपने बिज़नेस पर पूरा ध्यान दे पा रहा था। काजल घर सम्हाल रही थी। तो वहाँ से भी चिंता समाप्त हो गई। और मुझे इस बात की आवश्यकता भी थी। देवयानी की - डैड की - और गैबी की याद को भुलाने - या यह कह लें कि डुबाने के लिए मुझे काम करने की, व्यस्त रहने की आवश्यकता थी। और यह सब तभी संभव हुआ, जब काजल ने घर सञ्चालन का कार्य-भार सम्हाल लिया। सच में - साक्षात् देवी का अवतार है वो! कोई बहुत ही अच्छे कर्म किये होंगे हम सभी ने, जो हमको काजल के प्रेम का, उसके स्नेह का अंश मिला।
काजल के साथ मेरा साथ अब कोई सात साल पुराना हो चला था। और इस दौरान काजल ने मेरे लिए - मेरे परिवार के लिए इतना कुछ कर डाला था कि मुझे तो लगता है कि उसका शुक्रिया अदा नहीं किया जा सकता। वैसे भी उसके इतने सारे एहसान थे हम पर, कि उसको शुक्रिया कहना मतलब उसका अपमान करने जैसा था।
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nice update..!!अंतराल - स्नेहलेप - Update #2
लतिका बहुत प्यारी लड़की थी! और बहुत चंचल भी! कम से कम मुझे तो वैसा ही याद है उसके बारे में। वो ऐसे रहती थी कि जैसे उसे दुनिया की कोई परवाह ही न हो! बच्चों को तो ख़ैर वैसे ही रहना भी चाहिए। वो हमेशा हंसते खेलती रहती, हमेशा कोई न कोई प्यारी सी शरारत करती रहती। और ऐसी होने के बावजूद, दिल से वो बहुत ज़िम्मेदार लड़की भी थी। काजल इस बात को जानती थी, इसलिए उसने बड़ी चालाकी से लतिका को आभा की कस्टडी दे दी।
“लतिका, अब से इस नन्ही गुड़िया को सम्हालने की जिम्मेदारी तुम्हारी!” काजल ने कहा, और आभा की ज़िम्मेदारी उसको सौंप दी।
काजल ने लतिका को समझाया कि वो अपनी ‘छोटी बहन’ के लिए एक बढ़िया ‘रोल मॉडल’ बने। छोटी अपनी बड़ी बहन के हर काम का अनुसरण करेगी न - तो वो कैसे बोलती है, कैसा व्यवहार करती है, क्या करती है, कैसे पढ़ाई लिखाई करती है - इन सब बातों का असर आभा पर पड़ेगा। इसलिए लतिका को चाहिए कि वो उस बच्चे के लिए एक ‘अच्छा रोल-मॉडल’ बने।
दरअसल, इसी बहाने काजल चाहती थी कि उनकी बेटी थोड़ा ज्यादा जिम्मेदार तरीके से व्यवहार करने लगे। लतिका की पढ़ाई में व्यवधान तो आ ही गया था, इसलिए काजल को उसे ले कर थोड़ी चिंता सी रहती थी। बेशक, उसने यह सब बातें बड़े हल्के-फुल्के अंदाज में कहीं। और अगर उम्मीद के अनुसार लतिका ने वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर दिया, तो बहुत अच्छा था! है न?
मुझे लगता है कि प्रत्येक बच्चा अपने तरीके से, बिना किसी पूर्वाग्रह के बड़ा होवे! माँ और डैड ने मुझे वैसे ही पाला था। लेकिन यह भी है कि अगर जिम्मेदारी की भावना, बच्चों में अच्छी आदतें और शिष्टाचार पैदा कर सकती है, तो क्यों न थोड़ी ज़िम्मेदारी बच्चों पर डाली जाएँ!
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कैसे छोटी छोटी सी बातें, आगे चल कर आपके जीवन को बड़ा लाभ देने लगती हैं - या दे सकती हैं! कोई सात साल पहले मैंने अपनी समझ में एक छोटा सा काम किया था - मैंने सिफारिश कर के सुनील का एडमिशन पास ही के एक बढ़िया से स्कूल में करवा दिया था। कितना छोटा सा काम था! लेकिन देखिए - उस एक काम... एक भलाई के बदले, काजल ने कितना कुछ दिया था मुझको और मेरे परिवार को! और अभी भी दे रही थी। सात साल पहले जो मेरे घर कामवाली बाई बन कर आई थी, आज वो इस घर का अभिन्न हिस्सा थी... समझिए कि इस घर की मालकिन थी। काजल पर मेरा भरोसा पृथ्वी के गुरुत्व के जैसा ही अडिग है! कमाल की स्त्री है काजल - नौकरानी, प्रेमिका, मेरी संतान की माँ, और बहन - किस भूमिका में वो मेरे साथ पूरी ईमानदारी से नहीं खड़ी हुई थी?
अपने आने के कुछ ही दिनों में काजल ने घर की सारी ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली - घर का रख-रखाव, साफ़ सफाई, खाना-पीना, घर का सञ्चालन, माँ के देख-रेख, उनकी दवाईयाँ, इत्यादि! अचानक ही हमारे रहन सहन की गुणवत्ता बढ़ गई। हमारी दिनचर्या निश्चित और आरामदायक हो गई। इतने महीनों में इतना सुकून पहले नहीं महसूस किया। अगर प्रेम का कोई मानवीय रूप है, तो मेरे ख़याल से उसका नाम काजल ही होगा। आभा की मुस्कान और चहक, जो अचानक ही गायब होने लगी थी, वो वापस आने लगी। वो स्वस्थ भी दिखाई देने लगी। उसका खाना पीना, खेलना कूदना, यह सब काजल देख रही थी और साथ ही साथ वो उसको नियमित रूप से, दिन में तीन बार स्तनपान कराती।
माँ भी थोड़ा सम्हल गईं - उनकी सबसे पक्की सहेली अब उनके साथ थी। उनको बात चीत करने, और अपने दुःख बाँटने के लिए एक साथी मिल गई थी। वो डिप्रेशन में अवश्य थीं, लेकिन मुझे दिल में लग रहा था कि उनकी हालत शोचनीय नहीं रहेगी। साथ ही उनकी प्यारी ‘बेटी’ भी तो थी। लतिका ने उनके अंदर की माँ को वापस जीवित कर दिया था। दोनों बच्चों की हँसी और खेल कूद से मेरा घर वापस गुलज़ार होने लग गया था।
माँ को लतिका के रूप में अपनी ममता लुटाने का एक और उद्गम मिल गया था। माँ की बड़ी इच्छा थी कि उनकी मेरे अलावा एक और संतान हो, और अगर संभव हो, तो वो लड़की हो। जब काजल उनके साथ रहने को आई थी, तब लतिका में उनको अपनी वही बेटी दिखी। आभा तो खैर घर भर की बच्ची थी ही, और उनकी पोती थी - उससे एक अलग ही तरह का लगाव और दुलार था उनको। लेकिन लतिका को देख कर उनको ऐसा लगता था जैसे वो उनकी अपनी ही बेटी हो। उनका अधिकतर मातृत्व लतिका पर न्योछावर होने लगा। पहले भी यही होता था : जब काजल, लतिका और सुनील के साथ डैड-माँ के घर रहते थे, तब माँ ने लतिका और सुनील को पढ़ाने-लिखाने और उनकी देख-रेख की सारी ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली थी। इसलिए यहाँ भी वही हुआ। सुनील तो नहीं था - लेकिन लतिका और आभा तो थे! तो उनको पढ़ाने-लिखाने और उनकी देख-रेख की ज़िम्मेदारी माँ पर थी। वैसे माँ दोनों बच्चों को उसी प्रकार से पाल रही थीं, जैसे उन्होंने मुझको पाला था। घर में अब वही, नेचुरल और आर्गेनिक जीवन पद्धति फिर से लागू थी। कुछ ही दिनों में दोनों बच्चों ने उस पद्धति को आत्मसात भी कर लिया।
लतिका और आभा का सम्बन्ध भी अनोखा सा था - थी तो वो खुद एक नौ साल की बच्ची, लेकिन अपने से छोटी आभा की देखभाल ऐसे करती जैसे वो खुद उसकी अम्मा हो! वो उसको पढ़ाती, उसके खेल में हिस्सा लेती। उसकी देखभाल करती।
काजल को भी माँ के साथ अपना पुराना रिश्ता कभी कभी याद आ जाता, तो वो भी माँ की छातियों से चिपक जाती। माँ तो ख़ैर थीं भी इतनी ममतामई कि उनका दिल सभी को प्रेम स्नेह देता रहता, फिर भी उनका स्नेह का भण्डार कभी खाली नहीं होता था।
मैं काजल को कोई वेतन नहीं देता था। उसने हमारे साथ रहने की बात मान कर, हम पर एहसान किया था। उसका बदला सैलरी दे कर नहीं चुकाया जा सकता था। मैंने उससे साफ़ कह दिया था कि वो इस घर की ‘स्वामिनी’ है। उसका जैसा मन करे, वो कर सकती है। हममें से कोई भी उससे उस बाबत कोई प्रश्न नहीं करेगा। उसको आदर सम्मान देने के लिए मैंने उसको अपने अकाउंट का जॉइंट होल्डर नियुक्त कर दिया। जब भी और जैसी भी उसको आवश्यकता हो, वो धनराशि बैंक से निकाल सकती थी। वो अलग बात है कि उसने अपने लिए एक पाई भी नहीं ली।
काजल के तरीके में भी कई अंतर आ गए थे - अब वो घर के खर्चे का पूरा लेखा-जोखा वो बराबर से रखती थी। अगर संभव होता, वो हर चीज़ का बिल अपने पास रखती, और एक रजिस्टर भी बना कर रखती। एक बार मैंने देखा था, कि वो लतिका को समझा रही थी कि यह काम कैसे किया जाता है। अद्भुत था यह सब! सच में, बच्चों को यह सब जितना जल्दी हो सीखना चाहिए। इससे ज़िम्मेदारी आती है। रुपए पैसे की समझ आती है।
जयंती दी भी बराबर हमारा हाल चाल लेती रहतीं। वो भी हमारा ही परिवार थीं। ससुर जी अक्सर आ जाते, और अपनी दोनों ‘पोतियों’ के संग खेलते। हमारे ज़ख्म गहरे थे, लेकिन भर रहे थे। वो मेरा दर्द समझते थे - उनको भी वही दर्द था। उनकी पत्नी भी बहुत पहले ही चल बसी थीं। इसलिए उनको समझ आता था कि मैं क्या झेल रहा था।
यह अब तक के मेरे जीवन का सबसे दुर्गम समय था - और मुझे ख़ुशी थी कि इस समय काजल मेरे साथ थी। अब इस समय की कठिनाई कम हो चली थी। यह सब क्यों? बस इसलिए क्योंकि कभी मैंने काजल के लिए ‘कुछ’ किया था। जीवन बहुत लम्बा होता है - इसलिए हमको चाहिए कि औरों के लिए अगर हम कुछ निःस्वार्थ भाव से कुछ कर सकते हैं, तो अवश्य कर दें। न जाने आगे जा कर उसका फल हमको किस रूप में मिल जाए! अगर न भी मिले, तो कम से कम मनःशांति तो मिलेगी ही न?
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अब करते हैं मेरी बात!
देवयानी की मृत्यु के उपरान्त उसकी जीवन बीमा राशि मुझे मिली। उसने जो भी प्रॉपर्टी बनाई थी, वो सब मेरे नाम लिख दी थी। ऑफिस से भी सेटलमेंट की धनराशि मुझे ही मिली। मैंने अधिकतर धनराशि या तो बिज़नेस में डाला, या फिर आभा और लतिका के नाम से इन्वेस्टमेंट कर दिया। जो धनराशि मैंने बिज़नेस में डाला, वो सब काजल, लतिका, और आभा के नाम से डाला। ससुर जी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। वो समझ रहे थे कि काजल और लतिका की मेरे जीवन में क्या अहमियत है, और वो खुद भी इस बात से प्रसन्न हुए कि उनका दामाद इस तरह से सोचता है। माँ को भी डैड की मृत्यु पर बीमा राशि और अन्य धनराशि मिली। उनको डैड के स्थान पर कम्पैशनेट ग्राउंड पर उनके महकमें में नौकरी भी मिल रही थी, लेकिन उन्होंने वो लेने से इंकार कर दिया। क्योंकि नौकरी करने के लिए उनको अपने घर में, अकेले रहना पड़ता, जो कि अब उनके लिए असंभव हो गया था। माँ ने जो भी पैसा मिला, सब मुझे दे दिया। वैसे भी डैड और माँ के नाम जो भी कुछ संपत्ति थी, वो सब उन्होंने मेरे नाम लिख दी थी। तो मैंने वो सब धन अपने बिज़नेस में लगा दिया - माँ के नाम से। अब कंपनी के शेयरहोल्डर्स में मेरा पूरा परिवार शामिल था।
जयंती दी के कहने पर डेवी का जो घर था, उसको किराए पर चढ़ा दिया। मैं यह करना तो नहीं चाहता था, लेकिन दी की बात सही थी - अगर घर इस्तेमाल नहीं होता, तो जल्दी खराब हो जाता है। इसी तर्ज़ पर डैड और माँ के घर को भी साफ़ सफाई करवा कर किराए पर चढ़ा दिया। माँ ने भी जयंती दी जैसा ही तर्क दिया था। मेरा मन तो नहीं था - उस घर से कई सारी यादें जुड़ी हुई थीं। लेकिन माँ ने मुझे ‘बिना वजह’ भावुक न होने की सलाह दी। तो, घर की पहली मंज़िल के दोनों कमरों में हमारे (डैड और माँ के) आवश्यक सामान रखवा कर, ताला लगा दिया, और नीचे का हिस्सा किराए पर दे दिया। किराया कोई ऐसा बड़ा नहीं आता था, लेकिन हमारे घर के खर्च के लिए पर्याप्त धन आ जाता था।
छोटी छोटी बातें थीं, लेकिन इन सबका बड़ा लाभ हुआ। अब मैं अपने बिज़नेस पर पूरा ध्यान दे पा रहा था। काजल घर सम्हाल रही थी। तो वहाँ से भी चिंता समाप्त हो गई। और मुझे इस बात की आवश्यकता भी थी। देवयानी की - डैड की - और गैबी की याद को भुलाने - या यह कह लें कि डुबाने के लिए मुझे काम करने की, व्यस्त रहने की आवश्यकता थी। और यह सब तभी संभव हुआ, जब काजल ने घर सञ्चालन का कार्य-भार सम्हाल लिया। सच में - साक्षात् देवी का अवतार है वो! कोई बहुत ही अच्छे कर्म किये होंगे हम सभी ने, जो हमको काजल के प्रेम का, उसके स्नेह का अंश मिला।
काजल के साथ मेरा साथ अब कोई सात साल पुराना हो चला था। और इस दौरान काजल ने मेरे लिए - मेरे परिवार के लिए इतना कुछ कर डाला था कि मुझे तो लगता है कि उसका शुक्रिया अदा नहीं किया जा सकता। वैसे भी उसके इतने सारे एहसान थे हम पर, कि उसको शुक्रिया कहना मतलब उसका अपमान करने जैसा था।
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nice update..!!अंतराल - स्नेहलेप - Update #3
काम में व्यस्त था मैं! या यह कह लीजिए कि अपने दुःखों से दो-चार होने से डर कर भाग रहा था मैं। पलायनवादी हो गया था मैं। ऊपर से अवश्य ही मज़बूत लगता और दिखता, लेकिन अंदर ही अंदर हिला हुआ था मैं। माँ का उदास और सूना सूना चेहरा देखने से कतरा रहा था मैं। कायर हो गया था मैं। देर रात घर आता, जल्दी ऑफिस के लिए निकल जाता। अकेले में ही अपनी दुनिया बना बैठा - खुद को सभी से दूर कर के!
अक्सर होता है न - दूसरों की छोटी छोटी कमियाँ हमको साफ़ दिखाई दे जाती हैं। लेकिन अपने तरबूज़ के समान कमियाँ दिखाई नहीं दिखतीं - भले ही आईना सामने रख दिया जाय। वही हो रहा था मेरे साथ। लेकिन इस चक्कर में क्या कुछ नहीं मिस कर रहा था मैं - आभा तेजी से बड़ी हो रही थी। उसका बचपना मिस कर रहा था मैं। इस बार उसका चौथा बर्थडे मैंने लगभग लगभग मिस ही कर दिया था - वो तो आखिरी समय पर काजल ने याद दिला दिया, नहीं तो मैं भूल ही जाता कि उसका जन्मदिन भी था। दूसरी छोटी बच्ची - लतिका - के बड़े होने का आश्चर्यजनक सफर मिस कर रहा था मैं। उसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं था मुझको। और तो और, माँ से दूरी बनती जा रही थी मेरी। ऐसा मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि यह नौबत आ जाएगी - माँ से दूरी और मेरी? असंभव! लेकिन वही असंभव, अब मूर्त रूप ले रहा था, या ले चुका था। वो तो भला हो काजल का - अन्यथा, माँ मेरे लिए एक ‘मानसिक रोगी’ का रूप अख्तियार करने ही वाली थीं।
मेरे एक परम मित्र हैं - बिलकुल श्रवण कुमार जैसे। माता पिता को ईश्वर मानने वाले। लेकिन जब उनकी माता जी रोगिणी बन कर सदा के लिए बिस्तर पकड़ लीं, तब मैंने देखा कि ऐसे व्यक्ति भी अपनी श्रद्धा में कैसे बिखर जाते हैं। कई महीनों तक निर्लिप्त सेवा के बाद वो मित्र एक दिन मुझसे बोले कि उनको अपनी माता से नफरत हो गई है, और वो ईश्वर से मना रहे हैं कि उनको शीघ्र ही अपने पास बुला लें। कष्टप्रद था उनका अनुभव सुनना। लेकिन यही सच्चाई है। अगर कोई व्यक्ति चौतरफ़ा भाग्य की मार ही झेलेगा, तो वो और क्या करे? व्यक्ति ही तो है। मानुष की कमियाँ तो रहेंगी ही सदैव! इसलिए मुझे काजल का धन्यवाद करने में कोई गुरेज नहीं है। आज भी माँ और मेरे बीच जो आत्मीयता है, जो प्रेम है, वो उपस्थित है और निर्मल है तो केवल काजल के कारण! सच में देवी है काजल! कोई बहुत अच्छे कर्म किए होंगे मैंने कि उसकी दया, उसका प्रेम हम सभी पर इस तरह से बरस रहा था।
एक रात बहुत ही अधिक देर हो गई वापस आते आते। करीब करीं एक बजे होंगे रात के। थक कर चूर हो गया था और भूखा भी बहुत था। शायद इसीलिए नाराज़ भी था। उस समय यही हाल था मेरा - नाराज़ रहता - खुद पर, दूसरों पर। चिड़चिड़ाने लगा था। मैं स्वयं एक मानसिक रोगी बनता जा रहा था, या शायद बन गया था। घर में आया, तो देखा कि काजल वहीं सामने बैठी मेरा ही इंतज़ार कर रही थी। उसको देखते ही मेरा मन ग्लानि से भर गया। एक तो ठंडक थी - हल्का हल्का कोहरा छाया हुआ था, और ऊपर से थोड़ी ठंडी हवा भी चल रही थी।
“क्या हो गया काजल? इतनी रात, यहाँ बाहर?” मैंने पूछा - यद्यपि मुझे मालूम था कि वो वहाँ किसके इंतज़ार में बैठी है।
उसने कहा, “आओ, खाना लगा देती हूँ!”
यह सुन कर राहत हुई, “हाँ, भूख तो लग गई!” मैंने जबरदस्ती ही मुस्कुराने की कोशिश करी। लेकिन काजल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
डाइनिंग टेबल पर दो प्लेटें लगी हुई थीं - एक मेरे लिए और एक काजल के लिए। देख कर इतना दुःख हुआ और ग्लानि हुई कि मैं आपसे कह नहीं सकता। बेचारी दिन भर काम करते नहीं थकती, और अब मेरा भी इंतज़ार! मेरी यह हिम्मत भी न हुई कि उससे कह सकूँ कि मेरा इंतज़ार क्यों किया। लगा, कि मैंने शिकायतें करने का अधिकार भी खो दिया।
बड़ी ख़ामोशी से खाना परोसा गया। काजल भी नाराज़ तो होगी ही।
आधा खाना खा लिया तब मुझे कुछ कहने की हिम्मत आई, “काजल, अब से मैं समय पर घर आऊँगा, समय पर जाऊँगा! आई ऍम सॉरी! प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो?”
“पक्का?”
“पक्का - तुमसे वायदा कर के उसको न फॉलो कर के, तुम्हारा अपमान नहीं करूँगा। यू डिज़र्व बेटर! मैं बदतमीज़ी कर रहा हूँ - यह मुझे भी मालूम है। आईन्दा ऐसी गलती नहीं होगी!”
“थैंक यू,” वो मुस्कुराते हुए बोली, “जब ज़रुरत है तब कर लेना लेट सिटिंग! लेकिन हर रोज़ तो ज़रुरत नहीं हो सकती न? और देखो, कितने हफ़्तों से एक्सरसाइज भी नहीं किया है तुमने! हैंडसम से बूढ़े बूढ़े लगने लगे हो!”
“आई ऍम सॉरी!”
“नहीं। सॉरी मत कहो। तुमको बात समझ आ गई, बस!”
फिर माहौल थोड़ा अच्छा हो गया। मैंने सबके बारे में पूछा। काजल ने बताया कि वो दीदी के साथ मॉर्निंग वाक पर जाती है। और तो और दीदी उसको इंग्लिश भी सिखा रही हैं। लतिका की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी दीदी ने ही ले रखी है। इस बार के एक्साम्स में उसके नंबर भी अच्छे आए हैं। और अपनी आभा तो अब उछल कूद अधिक करने लगी है। दोनों बच्चे मायूस थे कि इस साल दिवाली नहीं मनाई गई (इसी साल के पहले क्वार्टर में डैड की मृत्यु हुई थी और इसलिए एक साल तक कोई तयोहार न मनाने की प्रथा का पालन कर रहे थे हम)!
हाँ दुःख तो था। लेकिन उस दुःख के ऊपर थोड़े और दुःख लाद कर भला कौन सा सुख निकल रहा था - यह सुधी जनों की बुद्धि से परे है। मूर्खता अपनी जगह होती है, लेकिन, हाँ - लोक रीति का पालन अपनी जगह है। देवयानी के गए एक साल हो गया था। उसकी याद आते ही आँखें नम हो गईं। बात बदलने के लिए मैंने सुनील के बारे में पूछा। सुनील का सातवाँ सेमेस्टर भी ख़तम होने वाला था। लेकिन वो सर्दी की छुट्टियाँ वहीं बिताने वाला था - किसी प्रोफेसर के साथ प्रोजेक्ट था उसका।
“काजल,” मैंने संजीदा होते हुए कहा, “मैं चाहता हूँ कि सब कुछ पहले जैसा हो जाए! आई मीन, सब कुछ वैसा तो नहीं हो सकता, लेकिन इस घर में थोड़ी खुशियाँ आ सकें, तो क्या हर्ज़ है!”
“मेरे मन की बात कह दी तुमने!” वो बोली, “एक आईडिया तो है!”
“वो क्या?”
“हम अपन चारों जने का कंबाइंड बर्थडे मनाते हैं, इस वीकेंड?”
“चारों जने?”
“हाँ - तुम, आभा, लतिका, और दीदी?”
“और तुम? तुम अलग हो इस घर में? मत भूलो कि तुम इस घर की मालकिन हो। सबसे पहले तुम्हारा बर्थडे मनेगा!”
“मतलब तुमको आईडिया पसंद आया?”
“बहुत पसंद आया! लेकिन बर्थडे मत मनाओ प्लीज़!”
“ठीक है फिर! किसी का नहीं मनेगा!”
“ओह्हो तुम भी न!”
“हाँ - मैं भी न! मालकिन हूँ इस घर की। मेरा हुकुम मानना पड़ेगा सभी को!”
मैं मुस्कुराया।
“दोनों बच्चे कहाँ हैं?”
“सो रहे हैं - पुचुकी (लतिका) के कमरे में!”
“उनको देख लूँ?”
“मुझसे पूछोगे? अपने बच्चों को देखने के लिए?”
न जाने मन में क्या आया कि मैं रोने लगा। काजल ने मुझे अपने आलिंगन में बाँध लिया, और रोने दिया। न जाने कब तक रोया। लेकिन रोना तभी रुका जब नाक इस कदर जम गई कि उससे साँस आनी बंद हो गई और आँखों से आँसू सूख गए। जब काजल ने मेरा रोना बंद होते हुए महसूस किया तब वो बड़ी ममता से बोली,
“बस, बस! अब हो गया! रो लिए - तो दिल का दुःख कम गया। अब बस! अब आगे की सुध लो! धैर्य रखो। भगवान् सब ठीक करेंगे!”
“ओह काजल! यार मैं बिलकुल टूट गया हूँ! अकेला हो गया हूँ!”
“टूट गए हो - हाँ। लेकिन अकेले नहीं हुए हो। मैं हूँ न। बच्चे हैं। दीदी हैं।” वो मुझको समझाते हुए बोली, “हम अपनी अपनी तरीके से टूट गए हैं। लेकिन हमारा साथ तो बना हुआ है। है न? तो अकेले नहीं हैं हम! जब तक हम में से कोई एक भी है न, तब तक तुम अकेले नहीं होने वाले!”
काजल की बात पर मैंने कांपती आवाज़ में सांस छोड़ी। सच में - काजल के रहने से सम्बल तो है ही।
“मन अच्छा करो, और आ जाओ... बच्चों से मिल लो। कल उनके साथ खेलना! बड़ा अच्छा लगेगा। दोनों बहुत नटखट हैं!”
उसकी बात इतनी अच्छी थी कि मेरी मुस्कान खुद-ब-खुद आ गई।
बच्चों के कमरे में गया। दोनों बेसुध पड़े सो रहे थे। आभा को हलके हलके खर्राटे भी आ रहे थे - शायद थोड़ी सर्दी हो गई थी उसको।
“कितना कुछ मिस कर दिया मैंने!” दोनों को देखते हुए मैंने कहा।
“वो सब मत सोचो। यह सोचो कि आगे यह सब मिस न करना पड़े!”
बात सौ प्रतिशत सही थी। जो बीत गया, उसका कुछ किया नहीं जा सकता। हाँ, आगे वही सब फिर से न हो, यह सुनिश्चित किया जा सकता है।
“दोनों कितने प्यारे लगते हैं!”
“बहुत ही प्यारे हैं। जब घर में नहीं होते, तब घर सुनसान लगता है। और जब आ जाते हैं, तो पूरा घर गुलज़ार रहता है!”
हमारी बातें सुन कर लतिका की नींद थोड़ा कच्ची हो जाती है। वो अपनी उनींदी आवाज़ में बोलती है,
“अंकल, आपको निन्नी नहीं आ रही है?”
“अब आ जाएगी बेटू!” मैंने उसको चूमते हुए कहा, “अब आ जाएगी!”
“मैं आपको सुला दूँ?”
“नहीं मेरी बच्ची! लेकिन तुम सो जाओ! मैं भी सो जाऊँगा!”
“ओके!”
“कल मेरे साथ खेलोगी?”
“हाँ!” वो नींद में भी खुश होते हुए बोली, “आई वुड लव टू!”
“ठीक है बेटा,” मैंने उसके मुँह को चूमते हुए कहा, “थैंक यू! आई लव यू!”
“आई लव यू टू!”
कह कर लतिका वापस सो गई। मैंने बारी बारी से दोनों बच्चों को चूमा, और कमरे से बाहर निकल आया। मन बहुत ही हल्का हो गया; शांत भी। काजल भी मुस्कुराते हुए मेरे पीछे बाहर आ गई। इतने महीनों में इतनी मनःशांति नहीं मिली।
देखा कि काजल रसोई की तरफ जा रही थी।
“क्या हुआ?”
“नहीं, कुछ नहीं। बस, थोड़ा रख रखाव कर लूँ!”
“कल आएगी न कामवाली?”
“हाँ!”
“तो उसके लिए कुछ छोड़ दो! तुम भी आराम किया करो न?” मैंने कहा।
“कॉफ़ी पियोगे?”
“अभी नहीं! बाद की बाद में देखेंगे!” मैं बोला, “आओ। मेरे साथ बैठो न कुछ देर?”
काजल मुस्कुराई, “ठीक है!”
कमरे में आ कर मैंने मद्धिम मधुर संगीत बजाया। बहुत दिन हो गए यह काम किये। करीब करीब ढाई बज गए थे। देर रात! ठंडक। मैंने रजाई खींची, और काजल को अंदर आने के लिए आमंत्रित किया। बहुत ही लम्बा अर्सा हो गया था काजल और मुझे साथ लेटे हुए। कैसी आत्मीयता, और कैसी अंतरंगता थी हमारे बीच - लेकिन अब!
बात सुनील से शुरू हुई - काजल को उसके बारे में चिंता थी। उसको कैंपस प्लेसमेंट से एक नौकरी मिली तो थी, लेकिन अमेरिका पर आतंकवादी हमलों के कारण, उसकी कम्पनी ने वो ऑफर वापस ले लिया था। हमको यहाँ दुःख तो हुआ, लेकिन यह भी मालूम था कि सुनील जैसे कैंडिडेट के लिए नया जॉब ऑफर लेना, कोई कठिन काम नहीं होगा। और वैसे भी, उसने कभी जॉब को लेकर चिंता नहीं दिखाई थी। चारों साल उसने कठिन परिश्रम किया था, कई सारे प्रोजेक्ट्स किए थे, वो क्लास टॉपर्स में एक था, और उसका रेज़्यूमे अपने सहपाठियों में सबसे मज़बूत था। इसलिए डरने वाली बात थी ही नहीं। यही सब बातें मैंने काजल को समझाईं।
मैंने उसको यह भी समझाया कि अगर इतनी ही बुरी किस्मत हुई उसकी कि उसको कैंपस से जॉब ऑफर न मिले, तो मेरी कंपनी है ही न! वहाँ काम कर ले! काजल को यह सुन कर संतोष हुआ। फिर बात माँ पर आ गई। उनके जीवन में किसी साथी की आवश्यकता पर भी हमने बात चीत करी। अभी तक मैंने बस एक बार ही माँ से यह बात कही थी, लेकिन माँ की प्रतिक्रिया ऐसी थी कि दोबारा कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन तब से अब तक परस्थितियों में बहुत परिवर्तन हो चुका था। हो सकता है कि अब - जबकि वो पहले के अपेक्षा अधिक शांत थीं, तो इस प्रस्ताव पर वो सकारात्मक प्रतिक्रिया देतीं।
“काजल?”
“हम्म?”
“तुम मुझसे शादी करोगी?”
“ओह अमर! अगर मेरी शादी तुमसे होगी न, तो मैं बहुत ही लकी होऊँगी!” उसने कहा, “लेकिन हमने इस बारे में बात करी है न!”
“हाँ!” मैंने बुझे मन से कहा।
“हे, ऐसे मत रहो अमर! मुझे तुमसे बहुत प्यार है अमर, बहुत ही! ये तुम जानते हो और मैं भी जानती हूँ! लेकिन शादी का नहीं मालूम!”
“पर क्यों?”
“क्योंकि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ, अमर। इसलिए! मैं गंवार हूँ। तुम्हारा समाज में एक अलग ही मुकाम है - मेरा उस मुकाम से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं है!”
मैं कुछ कहना चाहता था, कि उसने मुझे रोक कर कहना जारी रखा, “बीवी ऐसी चाहिए जो तुमको तुम्हारे मुकाम से आगे ले जाए - पीछे नहीं। मुझे न तो तुम्हारे तौर तरीके मालूम, और न ही बोलने का कोई ढंग ही मालूम! पुचुकी के स्कूल जा कर उसकी टीचर से बात करने में भी डर लगता है मुझे। ऐसे थोड़े न होना चाहिए बीवी को! समझा करो। कोई तो बराबरी हो!”
“काजल, अगर मेरा बिज़नेस हमारे बीच की दीवार है, तो मैं जॉब कर लेता हूँ!”
“हाँ, और अपने, देवयानी दीदी, डैडी जी, और दीदी के सपनों को पानी में बहा दो! ठीक है? सबको बहुत अच्छा लगेगा, और सबको संतोष मिलेगा - तुमको भी!”
“पर काजल?”
काजल कुछ पल के लिए कुछ नहीं बोली, फिर रुक कर कहती है, “अच्छा चलो! भूल जाओ कि मैंने यह सब कहा। मैं करूँगी शादी तुमसे!”
“सच में?”
“हाँ! क्यों नहीं! बीवी दिखाने के लिए थोड़े न होती है। बीवी तो जीवन साथी होती है!”
मैं मुस्कुराया। लेकिन अगले ही पल मेरे पूरे शरीर में अज्ञात भय की लहार दौड़ गई।
“तुम सीरियस नहीं हो न?”
“हूँ! क्यों?”
“काजल। मुझे लगता है कि मेरी पत्नियाँ मेरे कारन से जी नहीं पातीं।”
मैंने इतना कहा ही था कि एक झन्नाटेदार झापड़ मेरे गाल पर आ कर लगा। और अगले ही पल काजल आलिंगन में कस कर बाँध लिया।
“तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ऐसा सोचने की?” उसने मुझे डाँटा, “आइंदा ऐसा कहा न तो मुझसे बुरा कोई न होगा! गैबी दीदी का एक्सीडेंट, और देवयानी दीदी का कैंसर - तुम्हारे कारण नहीं था। यह हमारा दुर्भाग्य है कि उनको वो सब झेलना पड़ा और हमको भी। लेकिन यह भी तो देखो, कि वो दोनों चली गईं और तुम रह गए। तुम्हारा दुःख अधिक है कि उनका? वो दोनों तो मुक्त हो गईं।”
उसने मेरे गाल को सहलाया - जहाँ अभी अभी मुझे झापड़ लगा था।
“आई ऍम सॉरी! लेकिन मैं तुमसे उम्र में बड़ी हूँ! इसलिए मेरा हक़ है तुम पर, कि तुमको समझाऊँ, तुमको डांटूं - अगर तुम गलत हो! है कि नहीं? अब बस! ऐसी बकवास फिर मत सोचना।”
उसने कहा, और अपनी ब्लाउज़ के बटन खोलने लगी।
“आओ, अपने को शांत करो! और मुझे भी! बहुत दिन हो गए!”
पहले तो कुछ पल समझ नहीं आया कि क्या करूँ। फिर मैंने उसके स्तनों पर अपने हाथ रखे - ऐसे कि उसके चूचक मेरे उँगलियों के बीच फँस जाएँ। वो स्तंभित हो रहे थे।
“उम्म्म्म... आह... बहुत दिन हो गए!” काजल ने फुसफुसाते हुए कहा।
अंततः मैंने उसके एक चूचक पर अपना मुँह लगाया - सच में, बहुत ही अधिक दिन हो गए थे। कोई चार - साढ़े साल! मेरे बाद काजल ने किसी के साथ सेक्स नहीं किया। उसके चूचकों पर मेरे मुँह की हर क्रिया पर उसकी योनि लरज रही थी। हाँ, उसका दूध अवश्य ही मेरे मुँह में भर रहा था, लेकिन वो एक काम-वर्धक का कार्य कर रहा था। उधर काजल का हाथ मेरे पाजामे को ढीला करने में व्यस्त था। उसकी उँगलियों की छुवन से मेरा लिंग भी तेजी से आकार में बढ़ने लगा। डेढ़ साल हो गए थे मुझे भी सेक्स किए। सेक्स की याद आते ही मुझे आखिरी बार देवयानी के साथ अपने मिलन की घड़ी याद हो आई।
देवयानी की याद आते ही जो भी मूड था, सब रफू-चक्कर हो गया। लिंग जितनी तेजी से स्तंभित हो रहा था, उससे भी दोगुनी गति से शिथिल पड़ने लगा। सब धरा का धरा रह गया। मैं वापस रोने लगा। काजल समझ रही थी कि मुझे क्या हो रहा है। वो मुझे दिलासा भी दे रही थी, और अपने और मेरे कपड़े भी उतारती जा रही थी। शीघ्र ही हम दोनों पूर्ण नग्न हो कर रजाई के भीतर आलिंगनबद्ध हो कर लेटे हुए थे।
“अमर, मत रोओ! मैं हूँ न!” उसने मुझे धीरज बंधाया।
उसका हाथ वापस मेरे लिंग पर चला गया। मेरे गले से एक आह निकल गई। उसने लिंग पर मुट्ठी बाँध कर कामुकता से अपना हाथ फिराया। कुछ ही पलों में मेरे लिंग में जीवन पुनः लौटने लगा। कुछ देर तक वो ऐसे ही मुझे हस्तमैथुन का आनंद देती रही - उसने इस बात का ख़याल रखा कि बहुत न करे। अन्यथा स्खलन की सम्भावना बड़ी तीव्र थी। इतने महीनों बिना सेक्स के...
जब मैं समुचित रूप से तैयार हो गया, तब वो बोली,
“आ जाओ! मेरे ऊपर! सब मीठी बातें याद दिला दो मुझे!”
मैंने किया वो सब।
हमारा यह संसर्ग बेहद संछिप्त था, लेकिन भावनात्मक ज्वार से भरपूर था। हम दोनों के ही मन में वर्षों से दबी हुई कामुक ऊर्जा थी। जो तेजी से निकल गई। बमुश्किल दो तीन मिनट में ही। अवश्य ही शारीरिक संतुष्टि न मिली हो, लेकिन मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि हम दोनों को ही मिली। काजल के शरीर की गुणवत्ता भी बढ़ गई थी। अब लगता था कि हाँ, वो कोई खानदानी स्त्री है। खान-पान, रहन सहन में आमूलचूल बदलाव से यह सब होता ही है।
जब हम दोनों संतुष्ट हो कर लेटे हुए थे, तब मैंने काजल को देखा। वो करीब चालीस साल की हो गई थी। लेकिन अपनी उम्र से कहीं कम लगती थी। और सुन्दर भी वैसी ही थी, जब वो पहली बार मेरे घर आई थी। नहीं - उससे भी अधिक सुन्दर। हमारी बच्ची के जन्म के बाद, इतने सालों तक सतत स्तनपान कराने से उसके स्तन थोड़ा बड़े हो गए थे। लेकिन बाकी शरीर थोड़ा छरहरा ही था। उसमें स्थूलता नहीं थी - न तो पेट निकला था, और न ही नितम्ब। XForum में फोटो सेक्शन में देसी ‘सुंदरियों’ के जैसे स्थूल शरीर होते हैं, वैसा तो उसका बिलकुल भी नहीं था। हाँ - लेकिन उसके शरीर के कटाव बड़े लोचदार थे। माँ उसके सामने कमउम्र लगती थीं क्योंकि उनके शरीर में वैसे कटाव नहीं थे... वैसे लोच नहीं थे।
कुछ देर हम वैसे ही आलिंगनबद्ध अवस्था में ही पड़े पड़े, गहरी नींद सो गए। और बहुत देर तक सोए। माँ समझ गईं कि हम दोनों के बीच कल रात क्या हुआ था। इसलिए उन्होंने हमको परेशान नहीं किया और लतिका और आभा को तैयार करने, और नाश्ता पकने का काम खुद ही कर लिया।
जब हम दोनों उठे, तब तक कोई ग्यारह बज गए थे। कमरे से बाहर आते हुए मुझे भी और काजल को भी शर्म आ रही थी। लेकिन उनका सामना तो करना ही था। माँ ने हमको देखा, तो मुस्कुराईं - वही पुरानी जैसी मुस्कान! मन खुश हो गया। इतने समय में उनको बहुत ही कम बार मुस्कुराते देखा था। और यह मुस्कान स्पेशल थी। मैं तैयार हो कर, नाश्ता कर के ऑफिस के लिए जब रवाना हुआ, तब तक लंच का समय हो गया। ऑफिस पहुँचा तो पाया कि सभी लोग अपने अपने काम में मशगूल थे। और तन्मयता से काम कर रहे थे।
अच्छे, परिश्रमी लोगों को टीम में लेने के यही परिणाम होते हैं। काम ईमानदारी से होता रहता है। सच में - मुझे काम के पीछे अपनी जान निकालने की कोई आवश्यकता नहीं थी। काजल से किया गया वायदा निभाने का एक और कारण मिल गया। मन ही मन मैंने एक नोट बनाया कि कल या अगले दिन, पूरे ऑफिस को लंच मैं कराऊँगा - कहीं बाहर अच्छे होटल में ले जा कर।
मेरे जाने के बाद माँ ने काजल को घेर लिया।
“काजल, बेटा, तुम अमर से शादी क्यों नहीं कर लेती! तुम दोनों साथ में कितने सुन्दर, कितने सुखी लगते हो! पहले भी मना कर चुकी हो। लेकिन क्या तुम देखती नहीं, कि किस्मत ने हम दोनों के परिवारों का एक होना तय कर रखा है?”
“दीदी,” काजल ने बड़े प्रेम से कहा, “तुम्हारी बहू बनना तो बहुत सौभाग्य की बात है। अगर वो होता है, तो मैं सबसे लकी औरत होऊँगी दुनिया की। लेकिन मैं ये कर नहीं सकती। सही नहीं होगा!”
“क्या तुम अमर से प्यार नहीं करती?”
“बहुत करती हूँ! इस बारे में कभी शक न करना दीदी। लेकिन,” और फिर काजल का वही पुराना गाना शुरू हो गया, जो उसने मुझे सुनाया था रात में।
“काजल, इन सब बातों से मेरा विचार नहीं बदलता। तुम बहुत अच्छी हो, और बहुत सुन्दर भी हो! अमर भी बहुत लकी होगा अगर तुम उसकी पत्नी बनो। दोनों के दो तीन बच्चे भी हो सकते हैं।”
“दीदी!”
“क्या दीदी? अब देखो न... सुनील की पढ़ाई पूरी होने वाली है। नौकरी करने लगेगा वो जल्दी ही। वो तो रहेगा अपनी बहू के साथ अलग। रह गए तुम और लतिका। यहीं रह जाओ। इसी घर में। हमेशा। तुम्हारा घर है। इसी को गुलज़ार कर दो। नन्हे नन्हे बच्चों की किलकारियों से सजा दो!”
“दीदी, तुम बहुत अच्छी हो। इसीलिए तो आ गई यहाँ भागी भागी! तुमको छोड़ कर जाने का मेरा मन तो नहीं है। सुनील को कहीं रहना हो रहे! उसकी बीवी उसी को मुबारक। मैं और तुम काफी हैं!” काजल हँसते हुए बोली, “लेकिन यार ये शादी वाली बात न बोलो। अमर के पाँवों की चक्की नहीं बनना मुझे।”
माँ ने भी बहुत तूल नहीं दिया इस बात पर। शादी करना या न करना, एक बेहद व्यक्तिगत निर्णय होता है। इसको ज़ोर जबरदस्ती से नहीं करवाया जा सकता।
“देख लो! मैं तो केवल समझा सकती हूँ। बाकी तो सब तुम्ही दोनों पर है। लेकिन हाँ - अगर तुम दोनों शादी करना चाहोगे तो याद रखना कि मेरा आशीर्वाद है। और मुझे बहुत ख़ुशी होगी उस दिन!”
“मेरी छोड़ो दीदी, अपनी बताओ! तुम क्या सोचती हो शादी करने के बारे में?”
“पागल हो गई है क्या? मैं अब दादी माँ हूँ। इस उम्र में कोई शादी करता है क्या?”
“दीदी, दादी तो तुम हो, लेकिन तुम्हारी उम्र नहीं हुई है कुछ! आज कल तो कितनी सारी औरतें पैंतीस के बाद शादी करने लगी हैं।”
“नहीं रे! यह सब मैं नहीं जानती।”
“दीदी, मैं तुमसे बहस नहीं कर सकती। तुम्हरी बहुत इज़्ज़त करती हूँ। लेकिन, शरीर की ज़रूरतें होती हैं। उनकी संतुष्टि भी ज़रूरी है। तुम्हारी एक और बच्चे की चाहत के बारे में पता है मुझको। अगर कोई अच्छा आदमी मिल जाय, तो क्यों न उससे शादी कर लो?” काजल ने सजींदगी से कहा, “तुम्हारी माँग फिर से सिन्दूर से सज जाय, तुम्हारे चेहरे पर फिर से वही मुस्कान आ जाय, तो क्या बात बने!”
“मत देख सपने काजल। वो सब कुछ ‘उन्ही’ के साथ चला गया बेटा। सब ‘उन्ही’ के साथ चला गया!”
***