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इसमे कोई दो राय नही कि आप सुहागरात के सीन्स काफी अच्छा लिखते है।
लेकिन यह भी सत्य है कि वो ओपनली , खुलकर लिखने के बावजूद भी उत्तेजक महसूस नही कराते। शायद इसलिए कि इस रिश्ते मे कोई गलत या पाप नही होता। कोई फाॅरविडेन फ्रूट का तड़का नही मिला होता।
काजल की लाइफ सत्या से शादी के पहले काफी उतार-चढ़ाव जैसा रहा। पहली शादी की कड़वाहट , फाइनेंशियल परिस्थितियां जिसकी वजह से घर-घर जाकर नौकरानी का कार्य करना पड़ा , उसके छोटे छोटे बच्चों का अंधकार भविष्य और फिर उसके जीवन मे अमर का पदार्पण। लेकिन फिर अमर के बच्चे को खो देना , उसकी बहन जैसी सहेली का विधवा होना , अमर से जुदाई और फिर उसके बाद उसके एक मात्र पुत्र सुनील का फ्यूचर सिक्योर होना एवं सुमन को बहू के रूप पाना।
और अब पैंतालीस साल की उम्र मे सत्या के साथ उसकी शादी।
यह सब इसलिए कहा कि उसने जीवन के हर रंग को करीब से देखा है , महसूस किया है। इसलिए यह औरत मुझे पहले से ही प्रिय थी। अब जाकर पतवार को किनारा नसीब प्राप्त हुआ। बढ़ती उम्र के बाद पति पत्नि ही एक दूसरे के सही साथी सिद्ध होते है।
कभी कभी अजीब जैसा जरूर लगता है जब रिश्ते बदल जाने के बाद लोगो के पद और पहचान भी एकदम से परिवर्तित हो जाते है।
लतिका का सुमन को बोदी ( भाभी ) कहना , अमर का लतिका को बुआ कहकर सम्बोधित करना , काजल का सुमन को बहू कहकर पुकारना , अमर का सुनील को डैड कहना सबकुछ तो बदल चुका है।
ग्रेट अपडेट अमर भाई। आउटस्टैंडिंग।
ये जो आपका अवलोकन है कि लड़कियां स्टड जैसे लड़कों से ज्यादा अट्रैक्ट होती है, एकदम सही है, ये हर उस लड़की की कहानी है जो थोड़ा सा भी आजादी पाती है, और अपने मां बाप की सोच से इतर जाने का सोचती है।आत्मनिर्भर - नए अनुभव - Update 1
इस घटना के बाद माँ ने स्वयं भी रचना की मम्मी से हमारी शादी की संभावना के बारे में बात की। मुझे यह तो नहीं पता कि उन्होंने क्या चर्चा की, लेकिन रचना की मम्मी ने माँ से साफ़ साफ़ कह दिया कि हमारा सम्बन्ध संभव नहीं था। रचना का परिवार ब्राह्मण था और वो हमसे जाति में उच्च थे। और तो और वे अपनी इकलौती बेटी से अपनी ही जाति में करना चाहते थे। रचना की मम्मी ने माँ को आश्वासन दिया कि उन्हें मेरे, और हमारे परिवार के बारे में सब कुछ पसंद है - उन्होंने स्वीकारा कि हमारा रचना के व्यवहार और आचरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। वह अब अच्छी तरह से पढ़ाई कर रही थी, घर का काम काज भी सीख रही थी, और हमारे संपर्क में आने के बाद से उसका व्यवहार बेहतर हो गया था। उन्होंने माँ से यह भी कहा कि मैं एक अच्छा लड़का हूँ, और वो मुझे रचना के संभावित पति के रूप में पसंद करती हैं, वो अपने समाज से अलग हो कर कोई निर्णय नहीं ले सकेंगी। और वैसे भी यह सब सोचने में अभी समय था - पहले मुझे अपने पैरों पर खड़ा हो जाना चाहिए; कुछ बन जाना चाहिए।
कहने की जरूरत नहीं है कि इसके बाद अचानक ही रचना का हमारे घर आना जाना काफ़ी कम हो गया। अब हम एक दूसरे से ज्यादातर कॉलेज में ही मिलते थे। एक बार कारण पूछने पर उसने मुझे बताया कि उसकी मम्मी ने उसको कहा था कि अब हम उसको ‘उलझाने’ के लिए उससे मीठी-मीठी बातें करेंगे, विभिन्न प्रलोभन देंगे, और उसको बरग़लायेंगे! और भी बातें कही गईं, लेकिन वो छुपा गई। रचना नहीं चाहती थी कि हम में से किसी पर भी, और ख़ास तौर पर माँ पर, ऐसा कोई भी इलज़ाम लगे। इसलिए अब वो बस कभी कभी ही घर आ सकेगी, और वो भी बस कुछ देर के लिए। यह सब मुझे सुन कर ख़राब तो बहुत लगा लेकिन कुछ कर नहीं सकते थे। मित्रता का ढोंग करने वाली उसकी मम्मी में इतना कपट भरा होगा, मैं सोच भी नहीं सकता था। सत्य है - मुँह में राम, बगल में छूरा वाली कहावत चरितार्थ हो गई थी यहाँ। माँ को भी थोड़ा दुःख तो हुआ, लेकिन उनकी प्रवृत्ति ही ऐसी थी कि वो सबको क्षमा कर देती थीं, और सबकी बुरी बातें भूल जाती थीं।
जल्द ही हमने अपनी अपनी स्नातक की शिक्षा शुरू कर दी। रचना का दाख़िला उसी राज्य के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया [क्योंकि उसके पेरेंट्स उसको घर से बाहर जाने नहीं देना चाहते थे - क्या पता अगर उनकी लड़की हाथ से निकल गई, तो?], जबकि मैं अपनी स्नातक की शिक्षा के लिए भारत के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक में गया। पढ़ाई लिखाई में की गई मेरी मेहनत रंग लाई। और इसी के साथ रचना और मेरा नवोदित रिश्ता खत्म हो गया। चार साल की दूरी बहुत होती है। वैसे भी इंजीनियरिंग कॉलेजों में छात्रों का व्यक्तित्व बदल जाता है। हम दोनों भी बहुत बदल जाएँगे।
लेकिन रचना और मेरी कहानी का अंत यह नहीं था। रचना बाद में मेरे जीवन में लौटने वाली थी।
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इंजीनियरिंग कॉलेज का मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा - और उसका कारण था वहाँ का मुझ पर, और मेरे व्यक्तित्व पर काफी परिवर्तनकारी प्रभाव! अपने कस्बे की दुनिया से दूर, एक अलग ही दुनिया देखने को मिली वहाँ। पूरे देश भर से छात्र-छात्राएँ वहां पर आये थे, और सभी के जीवन के अनुभव अलग अलग थे। कुछ ही समय में मैं कुएँ के मेंढक से कुछ अलग बन गया। सोचने समझने की क्षमता भी काफी आई। सभी सहपाठियों से बहुत कुछ जानने और सीखने को मिला। मेरे बोलने और रहने सहने का ढंग भी काफ़ी बदला। दो साल के बाद मैं अच्छी अंग्रेजी भी बोलने लगा, जो की आगे चल कर मेरे लिए एक वरदान साबित हुआ। नए स्पोर्ट्स, जैसे कि लॉन टेनिस और तैराकी भी सीखी। अपना इंजीनियरिंग का विषय तो सीख ही रहा था। मेरी सोच भी काफ़ी विकसित हुई। समसामयिक विषयों की जानकारी और उनका विश्लेषण करने की क्षमता आई। संगीत भी सीखा - गिटार जैसे वाद्य-यंत्र मैं अब बजा लेता था। सबसे अच्छी बात यह थी कि यह सब करने में मुझे कैसा भी अतिरिक्त खर्च नहीं करना पड़ा। मेरा इंजीनियरिंग कॉलेज साधन संपन्न था, और छात्रों को अपने व्यक्तिगत विकास की सारी सुविधाएँ निःशुल्क उपलब्ध थीं। लेकिन एक कमी भी थी।
ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे कामदेव ने मेरी स्नातक शिक्षा के दौरान मेरा साथ छोड़ दिया था। विपरीत लिंग, अर्थात लड़कियों से निकट जाने का कोई अवसर नहीं मिल रहा था। हालाँकि, मेरे आसपास बहुत सारी लड़कियाँ थीं, मुझे उनमें से कोई भी आकर्षक नहीं लगी। या शायद, उन्होंने मुझे आकर्षक नहीं पाया। मेरी सहपाठिनियों के मुकाबले रचना तो अप्सरा कहलाएगी। रचना से जैसी सन्निकटता हुई थी, यहाँ तो सोचना मुश्किल हो गया था। आप देखते हैं, जब कॉलेज और छात्रावास की नई नई आजादी मिलती है, तो लड़कियां उसका भरपूर इस्तेमाल करती हैं - लड़कियां ही क्या, लड़के भी। लेकिन लड़कियाँ आमतौर पर उन ‘तथाकथित’ ‘स्टड लड़कों’ की ओर झुकाव दिखाती हैं, जो प्रायः अमीर परिवार से होते हैं, और जिनके पास मोटरसाइकिल होती हैं! हो सकता है कि यह सब पिछले कुछ दशकों के दौरान बदल गया हो सकता है, लेकिन मेरे इंजीनियरिंग कॉलेज के दिनों में ऐसा ही था। मुझे यह कहते हुए कोई शर्म नहीं आती कि मेरे पास न तो फालतू पैसे थे, और न ही मोटरसाइकिल! और तो और मेरे पास साइकिल भी नहीं थी। मुझे अपने माता-पिता से बहुत थोड़ा सा पॉकेट मनी मिलता था। यह हॉस्टल की कैंटीन में कभी-कभार परांठे और चाय के लिए पर्याप्त था, लेकिन किसी भी तरह के भोग विलास की अनुमति देने के लिए पर्याप्त नहीं था।
इसलिए, जब कॉलेज के समय के रोमांस के लिए मेरे पास कोई अवसर नहीं था। लोग, जिन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेजों में भाग लिया है या भाग ले रहे हैं, इस तथ्य की पुष्टि करेंगे कि वास्तव में अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेजों में सुन्दर लड़कियाँ बिरले ही आ पाती हैं। ब्यूटी एंड ब्रेन एक मुश्किल कॉम्बिनेशन है। फेमिनिस्ट लोग - यह सब केवल मेरा सीमित अवलोकन हो सकता है ... यह मैं जो भी बता रहा हूँ वो मेरे कई दशकों पहले के, एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में बिताए गए चार सालों के अवलोकन [कुल मिला कर सात (7) देखे गए बैच] पर आधारित है। मुझे स्त्रियों और लड़कियों के लिए बहुत आदर है - लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं अँधा हूँ।
ठीक है, इससे पहले कि मैं मूल विषय से बहुत अधिक दूर हट जाऊँ, मैं वापस कहानी पर आता हूँ।
एक और काम जो मैंने अपने कॉलेज के दिनों में ‘सही’ किया था, वह था अपनी शरीर निर्माण का कार्य। मैं अर्नोल्ड श्वार्ज़नेगर के व्यक्तित्व से बेहद प्रेरित था, उनकी कई फिल्में [खास तौर पर टर्मिनेटर, प्रिडेटर, टोटल रिकॉल] देख कर, और यह जानते हुए भी कि मैं उनके जैसा कभी नहीं बना सकता, मैं एक अच्छी गढ़न वाले, मजबूत शरीर बनाने के लिए प्रेरित था। मेरी शकल भी ठीक-ठाक ही थी। तो एक बढ़िया मस्कुलर शरीर के साथ मैं काफी प्रेसेंटेबल और हैंडसम दिखता था। उस समय बैगी और पैरेलल [सामानांतर] पैन्ट्स का फैशन चल रहा था। लेकिन वो कपड़े मुझे कभी पसंद नहीं आते थे। मैं हमेशा चुस्त पैन्ट्स सिलवाता था। वैसी ही चुस्त शर्ट्स भी। तो कपड़ों से सीने और बाहों की माँसपेशियों की बनावट दिखती थी। कपड़े सिलवाना सस्ता पड़ता था। जब तक मैंने अपनी पहली नौकरी शुरू नहीं की, तब तक मैंने अपनी पहली जोड़ी जींस नहीं खरीदी। लेकिन सस्ते कपड़ों में कमाल का गेटअप आपको नहीं मिल सकता। आज कल लोग कॉटन की शर्ट पहनना पसंद करते हैं, तब लोग ज्यादातर सिंथेटिक कपड़े पहनते थे। क्योंकि उसका ‘फॉल’ या ‘गेट अप’ अच्छा आता था। लेकिन मैंने पाया था कि अगर कॉटन के कपड़े ढीले वाले न सिलवाए जाएँ, तो उनका गेट अप भी अच्छा आता है।
वर्कआउट करने के अलावा, मैंने कॉलेज के दिनों में अपने सामाजिक कौशल पर भी ध्यान केंद्रित किया, जिससे मुझे एक बेहतर इंसान बनने में बहुत मदद मिली। मैंने अंग्रेजी में वाद-विवाद [डिबेट] प्रतियोगिताओं और सार्वजनिक भाषण [पब्लिक स्पीकिंग] में भाग लिया, और मैं दो साल तक छात्र प्रतिनिधि के रूप में काम करने के लिए चुनाव भी जीता। इन सभी चीजों ने मुझे एक परिपक्व व्यक्ति के रूप में विकसित किया।
मैं बहुत भाग्यशाली था कि मैं ऐसे इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ा, जो पहाड़ों के करीब स्थित था [कृपया मुझसे उस कॉलेज का नाम न पूछें - इस कहानी में पात्रों की गोपनीयता की रक्षा करना अनिवार्य है]! पहाड़ों की तलहटी में ऐसे कई रास्ते थे जिनसे आप पहाड़ो के ऊपर जा सकते थे और आसपास के क्षेत्र को ऊपर से देख सकते थे। कॉलेज में साहसिक खेलों [एडवेंचर स्पोर्ट्स], जैसे साइकिल चलाना, नौकायन, ट्रेकिंग इत्यादि की एक पुरानी संस्कृति थी। व्यायाम के एक अभिन्न अंग के रूप में, मैंने साइकिल बहुत चलाई [सहपाठियों से मांग मांग कर], खासकर पहाड़ी की तरफ! साइकिलिंग शरीर को शक्ति और सहनशक्ति दोनों देता है, और साथ-साथ में शरीर की चर्बी कम करने में मदद करता है।
मैं घर भी बहुत कम ही जाता था - कॉलेज में कुछ न कुछ करने को रहता ही था हमेशा। पहले दो साल एक एक महीने के लिए गर्मी की छुट्टियों में घर गया, उसके बाद नहीं। पूरे चार साल में, कुल मिला कर मैं बस तीन या साढ़े तीन महीने ही छुट्टियां बिताने घर गया। इंटर्नशिप, या किसी प्रोफेसर के साथ काम - या किसी और बहाने, मैं वहीं रहता था। यह सब करने के कुछ अतिरिक्त पैसे भी मिल जाते थे, और खर्चा भी कम होता था। और सच कहूँ, तो अब वापस कस्बे में जाने का मन नहीं होता था। यहाँ की दुनिया में बहुत कुछ सीखने को था, और मैं यह मौका दोनों हाथों से समेट लेना चाहता था।
हाँ पुरी कहानी में काजल की यही विशेषता रही हैअंतराल - समृद्धि - Update #9
अपनी माँ को कहते सुना था एक बार -
‘घर दरअसल एक कच्चा घड़ा होता है... और बहू होती है कुम्हार। अच्छी बहू घर को बढ़िया आकार देती है, उसकी वैल्यू बढ़ाती है...’
काजल ठीक वैसी ही बहू साबित हुई सत्यजीत के परिवार के लिए! बस कुछ ही हफ़्तों में न केवल वो सत्या के ससुर की भी चहेती बन गई, बल्कि उसके बेटे और बहू की भी। प्यार से किसी को भी जीता जा सकता है - काजल ने यह सिद्ध कर दिखाया। बिना किसी भी सदस्य पर दबाव बनाए, उसने शीघ्र ही सभी का मन मोह लिया। उसकी ‘बहू’ शुरू शुरू में उससे खिंची खिंची रहती थी... उसकी कोशिश रहती थी कि अपनी ‘सास’ से सामना न होने पाए। लेकिन बस कुछ ही हफ़्तों में दोनों का व्यवहार ऐसा हो गया कि जैसे बरसों पुराने दोस्त हों दोनों! पुरानी बहू का घर पर स्वामित्व वैसा ही रहा - काजल ने कभी भी उसकी स्थिति को चुनौती नहीं दी। बल्कि जैसा बहू कहती, वो वैसा करती, और मन लगा कर सब काम करती। बहू बेचारी ने कुछ ही दिनों में अपना स्वामित्व अधिकार छोड़ दिया, और काजल की बुद्धिमत्ता और कार्य कौशल में शरण ले ली।
हा हा हासत्या जैसा चाहता था, उसकी बहू में भी सकारात्मक परिवर्तन आ गए थे। उसने अपने बेटे को पुनः स्तनपान कराना शुरू कर दिया, और वो भी बिना किसी पूर्वाग्रह और डर के! बेचारी छोटी सी लड़की थी और उसकी माँ ने उसको ससुराल का डर दिखा दिखा कर उसके सामने ससुराल का हौव्वा बना दिया था और उसके मन में तरह तरह की भ्रांतियाँ भर दी थीं। काजल ने उसके डर को चुटकियों में दूर कर दिया, और उसको अपने तरीके से जीने के लिए प्रेरित किया। यह उसका संसार था, और उसमे किसी का भी हस्तक्षेप ठीक नहीं था। बहू ने इस बात को समझा और अपनाया। दोनों में सबसे बढ़िया बॉन्डिंग तब हुई जब काजल ने अपने ‘पोते’ को स्तनपान कराने की पेशकश करी। पहले तो बहू को भी आश्चर्य हुआ, लेकिन फिर उत्सुकतावश उसने इस बात के लिए ‘हाँ’ कह दी। अपनी सास के स्तनों से दूध उतरता देख कर उसको बेहद और सुखद आश्चर्य हुआ।
हाँ यह स्वाभाविक हैसत्या और काजल की गृहस्थी में क्या हुआ, उसका व्यापक ब्यौरा देने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन सही मायने में काजल सत्या के बेटे और उसकी पत्नी की माँ ही बन गई थी! काजल के आने से बहू का कार्यभार भी बहुत कम हो गया, तो वो अपने पति के साथ अधिक अंतरंग समय व्यतीत कर पाती थी। काजल दोनों को बहुत प्रोत्साहित भी करती अधिक से अधिक समय साथ व्यतीत करने के लिए और सम्भोग करने के लिए। कोई आश्चर्य नहीं कि उसकी बहू दोबारा गर्भवती हो गई - अपने आरंभिक डर के विपरीत! काजल भी वंश वृद्धि के मामले में कोई पीछे नहीं थी - सत्या और काजल की शादी के चार महीने बाद हमको खबर आई कि काजल भी गर्भवती हो गई है, और उसका पहला ट्राईमेस्टर पूर्ण हो चुका है।
बहुत ही अधिक ख़ुशी की बात थी।
हाँ मोनोपॉज हो सकता हैकुछ स्त्रियाँ श्री का रूप होती हैं। काजल... माँ... ये सभी उन्ही स्त्रियों में से हैं। इनके आने से परिवार में समृद्धि आती है, वंश बढ़ता है, सुख बढ़ता है, ख़ुशियाँ आती हैं! हम सभी बहुत खुश थे। हमारा इतना बड़ा परिवार हो गया था - कुछ समय पहले हम क्या थे? अपनी अपनी नींव से उखड़ कर, इधर उधर भटकते हुए चंद लोग! लेकिन अब... अब हमारा भी ‘खानदान’ बन गया था। बड़ा परिवार। काजल उस परिवार का सूत्र थी। उसका अंश तीन तीन परिवारों में था या आने वाला था! मेरे साथ लतिका; माँ के साथ पापा; और काजल स्वयं सत्या के साथ! उसने हम सभी को बाँध कर एक साथ रखा हुआ था, और उसके ही कारण हम सभी एक परिवार जैसा महसूस करते थे।
काजल को माँ वाली ही गाइनोकोलॉजिस्ट ने देखना शुरू किया था। काजल की प्रेग्नेंसी को ले कर उसको थोड़ी चिंता तो थी, लेकिन वो चिंता बहुत अधिक नहीं थी। माँ के केस को दो बार हैंडल करने के बाद, उस डॉक्टर को भी काजल की प्रेग्नेंसी को ले कर बहुत आत्मविश्वास था। इस बीच एक और कमाल हुआ!
एक दिन पापा और माँ किसी पार्टी के लिए तैयार हो रहे थे।
कपड़े पहनते हुए माँ ने यूँ ही, ऐसे ही, चलते फिरते पापा से कहा,
“ये ब्लाउज़ थोड़ी कसी हुई महसूस हो रही है!” माँ ने पापा के सामने सम्मुख होते हुए कहा, “देखिए न, ये सामने, बटनों के बीच खिंच नहीं रहा है क्या?”
दूसरे बेटे के होने बाद, माँ बढ़िया स्वास्थ्य लाभ उठा रही थीं, और उनके शरीर से वसा की मात्रा भी बहुत कम हो गई थी, इसलिए उनको थोड़ा आश्चर्य हुआ और निराशा भी!
“ब्रा चेंज कर लो न! हो सकता है उसके कारण...”
“किया न! फिर भी... सेम रिजल्ट!”
“अरे कोई बात नहीं मेरी जान,” पापा ने अपने उसी चिर परिचित आश्वस्त अंदाज़ में माँ को अपने आलिंगन में लेते हुए कहा, “आज कल थोड़ा अधिक दूध बन रहा होगा, इसलिए ऐसा हो गया होगा! और वैसे भी, थोड़े बड़े बूब्स तो बहुत सेक्सी लगेंगे तुम्हारे सीने पर!”
“आप भी न,” माँ ने मुस्कुराते हुए और उनको परे ढकेलते हुए कहा, “हर बात में आपको मज़ाक ही लगता है! इतनी मेहनत करती हूँ, और उस पर ये!”
“अरे हो गया होगा! बॉडी है! ऊपर नीचे तो चलता ही रहता है!”
“नीचे नीचे रहे तो बढ़िया!”
“वैसे एक बात कहूँ?” पापा ने माँ को अपने आलिंगन में फिर से भरते हुए कहा, “तुम्हारी नारंगियाँ सबसे टेस्टी हैं!”
“और किस किस की चखीं हैं आपने?” माँ ने पापा को छेड़ा।
“हाय... ये अदा! किसी की भी नहीं दुल्हनिया! ... इतनी स्वाद नारंगियों को कौन गधा छोड़ेगा?”
“पता है...” माँ ने उनकी बात को नज़रअंदाज़ किया, “दो बार से पीरियड्स भी नहीं हुए मुझे!”
“ओह,” पापा ने बस थोड़ा गंभीर होते हुए कहा, “शायद... बुरा न मानना... लेकिन... मेरी जान, क्या पता... तुमको मेनोपॉज़ होने लगा हो? ... पॉसिबल है न?”
हाँ, संभव तो था ही। उम्र तो आ ही गई थी उस क्षेत्र में।
भाई मानना पड़ेगा सुनील हरदम प्रेम और परिणय के मूड में ही रहता हैपापा की बात सुन कर माँ थोड़ा उदास हो गईं - जनन-क्षमता और स्त्रियाँ - समझिए एक दूसरे के पर्याय ही हैं। केवल स्त्री ही संतान उत्पन्न कर सकती है। जब वो शक्ति, वो क्षमता जाने लगती है, तो एक खालीपन सा महसूस होना लाज़मी ही है। पापा ने माँ के चेहरे पर वो उदासी वाले भाव देखे, और उनको स्वांत्वना देते हुए बोले,
“दुल्हनिया... ओ मेरी जान... इसके लिए क्या उदास होना? यह तो नेचुरल है न! ... सब ठीक रहेगा! मैं हूँ न तुम्हारे साथ!” फिर अचानक ही बदमाशी वाले स्वर में बोले, “अब तो हम बिना रोक टोक के मस्ती करेंगे!”
“हाँ जी,” माँ उनकी बात पर हँसे बिना न रह सकीं - उन्होंने उनको फिर से अपने से परे धकेला, और बोलीं, “जैसे कि अभी किसी रोक टोक के साथ मस्ती करते हैं हम!”
ओ तेरीबात मज़ाक में आई गई हो तो गई, लेकिन माँ के दिमाग में एक शंका बैठ गई।
जब निर्बाध तरीके से किसी उर्वर महिला के साथ सम्भोग होता है, तो गर्भ ठहरने के चांस तो बड़े होते ही हैं। माँ और पापा इतने आश्वस्त थे कि उनको कभी लगा ही नहीं कि माँ एक और बार गर्भवती हो सकती हैं। अक्सर ट्रकों के पीछे लिखा देखा है, ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’! और यहाँ तो सावधानी का नामोनिशान ही नहीं था। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि माँ का पुनः गर्भवती होना कोई दुर्घटना हो जाएगी!
लेकिन माँ समझ रही थीं कि उनको क्या हो रहा है। उनको अपने शरीर में हो रहे परिवर्तन परिचित से लग रहे थे - भूख भी थोड़ी बढ़ गई थी, और उसका मौसम से कोई लेना देना नहीं था। इसलिए उनको शंका थी कि मेनोपॉज़ नहीं, बल्कि वो शायद फिर से गर्भवती हैं। यह बच्चा प्लान नहीं किया था, इसलिए इस बार उनको इतना आश्चर्य हुआ। आश्चर्य भी, और लज्जा भी!
‘इस उम्र में फिर से माँ बनना!’
हा हा हा हाइसी लज्जा के मारे माँ अपनी गाइनाकोलॉजिस्ट के पास दो सप्ताह और नहीं गईं। लेकिन अब उनको लगभग विश्वास हो गया था कि वो वाकई गर्भवती हैं। अंततः जब उन्होंने डॉक्टर को दिखाया, तब यह निश्चित हो ही गया। माँ एक बार फिर से गर्भवती थीं!
‘उफ़्फ़ ये हमारे बुज़ुर्ग लोग! इनको स्वयं पर कोई नियंत्रण ही नहीं! हा हा!’ मैं यही सोच कर हँसने लगा।
भाई होनी भी चाहिएलेकिन लतिका, और आभा दोनों इस खबर को सुन कर बहुत उत्साहित हुए और खुश भी! काजल तो हर्षातिरेक से पागल ही हो गई।
वाह बहुत ही बढ़िया नाममाँ के डॉक्टर को काजल के मुकाबले, माँ को ले कर अधिक चिंता थी। उसका सबसे बड़ा कारण था उनकी उम्र, और जल्दी जल्दी प्रेग्नेंसी! सबसे अच्छी बात जो माँ के पक्ष में थी, वो यह कि उनका स्वास्थ्य अभी भी बढ़िया था - उम्र के हिसाब से तो बहुत ही बढ़िया! और अभी तक एक बार भी उनकी किसी भी प्रेग्नेंसी में कोई व्यवधान नहीं आया था। कुशल देखरेख, अच्छे खानपान, और नियमित व्यायाम से काजल और माँ दोनों के ही स्वास्थ्य में वृद्धि हुई थी। इसलिए हम सभी यही सोच रहे थे कि उनकी डिलीवरी नार्मल, प्राकृतिक तरीके से हो जाएगी।
काजल ने अपने नियत समय पर एक स्वस्थ पुत्री को जन्म दिया। बहुत सुन्दर सी गुड़िया थी वो! उस क्षण मुझे न जाने क्यों लगा कि जैसे हमारी ही बेटी वापस आ गई हो। बहुत भावनात्मक दिन था वो मेरे लिए! मैं न जाने कितने उपहार सामान ले कर सत्यजीत के घर गया था उस बच्ची से मिलने! बेवकूफों के जैसे! बच्चों को सामानों की क्या ज़रुरत? उनको तो बस प्यार और दुलार चाहिए! लेकिन न जाने क्यों वो मुझे अपनी वही वाली बच्ची लगी। उधर सत्या के घर में भी खुशियों का माहौल था। दो बच्चे जल्दी जल्दी हुए थे, और अब उनका घर भी खुशहाल हो गया था। उस बच्ची का नाम गार्गी रखा।
अभयाकाजल के कोई चार महीने बाद माँ ने भी अपनी पहली बेटी को जन्म दिया। असिस्टेड लेबर था, लेकिन भगवान की दया सीज़ेरियन की आवश्यकता नहीं हुई। से मेरे बाद, उनकी ‘एक बेटी’ की तमन्ना - वो तमन्ना, जिसके कारण वो अपने रस्ते आते किसी भी लड़की को ‘अपनी बेटी’ कहने लगती थीं - आज पूरी हुई! ये भी गार्गी के जैसी ही स्वस्थ, सुन्दर, और गोल मटोल सी गुड़िया थी। माँ पापा ने इस बच्ची का नाम अभया रखा। पाठकों को याद होगा कि मेरी आभा के लिए संभावित नामों में से एक नाम यह भी था। माँ के हिसाब से यह बच्ची एक ईश्वरीय प्रसाद है! उनकी सारी इच्छाएँ पूरी हुई थीं और अब कोई इच्छा शेष नहीं रह गई थी। इसलिए उन्होंने बच्ची यही नाम रखा।
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हाँ भाई किशोर अवस्था में स्तनपानमेरे परिवार में इतना कुछ घटित हो रहा था। ऐसा नहीं है कि मेरे साथ कुछ भी नहीं हो रहा था।
क्या आप लोगों को वो शर्मा परिवार याद है? हम्म्म, हो सकता है कि नहीं! ठीक है, शर्मा परिवार नहीं, लेकिन क्या आप लोगों को रचना याद है? नहीं? मेरे जीवन की ‘पहली लड़की’? याद आया? हाँ? बढ़िया!
ह्म्म्म्म अभी तक जो भी हुआ हैगार्गी के जन्म के कुछ ही दिनों बाद की बात है। एक क्लाइंट के साथ मैं एक बिज़नेस मीटिंग करने गया हुआ था, और वहाँ संयोग से मेरी मुलाक़ात रचना के पिता जी से हुई। वो अभी हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे, और अब एक निजी कंपनी में एक अंशकालिक कंसलटेंट के रूप में काम कर रहे थे। मीटिंग में वो अवश्य ही मुझे पहचान नहीं पाए, लेकिन मैंने उनको पहचान लिया और अपना परिचय दिया। यह देख कर अच्छा लगा कि वो मुझे देखकर वास्तव में बहुत खुश हुए! लग रहा था कि शायद न पहचानें! करीब सत्रह अट्ठारह साल जो हो गए थे उनको आखिरी बार देखे! उन्होंने मुझे इतना ‘बड़ा’ उद्यम स्थापित करने के लिए बहुत बहुत बधाई दी, और मुझसे बोले कि बड़ा अच्छा लगा यह देख कर कि मैंने इतनी तरक्की कर ली है। अपने बीच में से उठे लोगों को इतना मुकम्मल जहान हासिल करते देख कर अच्छा लगता है, वगैरह वगैरह!
मीटिंग के बाद हम फिर से मिले। बातें बढ़ीं, एक बात से दो बातें, और ऐसे ही करते करते हम अपने निजी जीवन के बारे में बात करने लगे। मैंने उन्हें डैड की मृत्यु के बारे में बताया (मैंने उनको माँ के पुनर्विवाह, उनके दोनों बच्चों, और उनकी वर्तमान गर्भावस्था के बारे में कुछ नहीं बताया - न जाने क्या सोच कर), गैबी और देवयानी के बारे में बताया, और आभा के बारे में बताया।
करेक्ट मैं यही सोच रहा थामेरी बातों को सुन कर उनको सच में दुःख हुआ - यह उनके चेहरे पर दिख रहा था। शर्मा जी सज्जन आदमी थे। शायद इसीलिए डैड और उनका साथ हो सका था। खैर, उन्होंने मुझे अपनी तरफ से सच्ची संवेदना दी, और आभा के बारे में उन्होंने बहुत कुछ पूछा। मेरा मन हो रहा था कि रचना के बारे में उनसे पूछूँ, लेकिन मैंने खुद को ज़ब्त कर लिया। हम उस दिन काफी देर तक बातें करते रहे। फिर उन्होंने ही खुद ही रचना के बारे में मुझको बताया - यह कि उसकी शादी बहुत पहले ही हो गई थी, और यह कि कुछ सालों पहले उसका अपने पति से तलाक हो गया था। शायद मेरी आभा से दो तीन साल बड़ी उसकी भी एक बेटी थी (जो कि नहीं था - वो मुझे बाद में मालूम हुआ)। जिस तरह से शर्मा जी मुझसे बात कर रहे थे, वो थोड़ा अप्राकृतिक सा लग रहा था मुझे। उनकी बातों में शुभचिंतक वाला भाव तो था, लेकिन थोड़ा चापलूसी वाला भाव भी लग रहा था।
दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डाला तो समझ में आ गया कि इनके मन में क्या है। उनको मालूम था कि रचना और मैं बचपन के दोस्त थे, और यह कि माँ उसको बहुत पसंद करती थीं। अब, जबकि रचना तलाक़शुदा है, तो मुझे यकीन है कि वो उसकी दोबारा शादी कराने के लिए बेताब हो रहे होंगे! एकलौती लड़की है उनकी - यह चाह तो किसी भी बाप की होती है। और जब उन्होंने मुझे देखा - और जाहिर सी बात है, एक कंसलटेंट के रूप में उनको मेरी कंपनी के बारे में, उसकी इंडस्ट्री स्टैंडिंग के बारे में, और टर्नओवर के बारे में काफी कुछ पता होगा - तो उन्होंने सोचा होगा कि क्या मेरा और रचना का संग संभव है।
मुझे बहुत देर इस बात के सामने आने का इंतज़ार नहीं करना पड़ा। एक समय उन्होंने मुझसे कह ही दिया,
“अमर बेटे, आप से एक बात कहूँ?”
“जी अंकल जी, कहिए न!”
“प्लीज मुझको गलत मत समझना! लेकिन... मेरा मतलब है आप फिर से शादी करने के बारे में क्या सोचते हैं? आई नो, कि आपके मन में गैब्रिएला और देवयानी के लिए बहुत बड़ी जगह होगी... लेकिन यूँ अकेले कब तक रहेंगे आप? ... इसीलिए मैं आपको कहता हूँ कि आप इस मसले पर फिर से विचार करें...”
उन्होंने कहा, और अपनी बात क्या प्रभाव हुआ है, वो देखने के लिए थोड़ा ठहरे।
मैंने कुछ नहीं कहा। फिर उन्होंने ही हार कर आगे कहा,
“मेरी रचना… तुम तो जानते ही हो उसको। हाँ, वो तलाकशुदा है… लेकिन वो उस तलाक में निर्दोष थी... उसका हस्बैंड एक शराबी आदमी था। न अपनी कमाई सम्हाल पाया, और ऊपर से खानदानी दौलत भी उड़ा दी। और तो और, अपनी बीवी और बच्ची की देखभाल भी नहीं कर सका। ऐसे लम्पट के साथ कोई कैसे रहे? ... तुम दोनों तो एक-दूसरे को जानते भी हो... अगर तुम चाहो... तो... तो क्यों न उससे एक बार मिल लो?”
पाठक गण जानते ही होंगे कि रचना के बारे में मेरे विचार अच्छे रहे हैं। उसकी सिफ़ारिश करने की उनको कोई ज़रुरत नहीं थी। इसलिए मैंने भी पूरी संजीदगी से उनसे कहा,
“अंकल जी, क्या आप इस बारे में श्योर हैं? न जाने मुझे ऐसा लगने लगा है कि जो कोई लड़की मेरी लाइफ में आती है, मैं उसके लिए बैड लक ले आया हूँ!”
“क्या बकवास है! इतना पढ़े लिखे हो कर ऐसी बातें क्यों कर रहे हो बेटे? मेरे ख़याल से ये तो तुम हो, जो दुर्भाग्य का शिकार हो रहे हो! जो चला गया, वो तो मुक्त हो गया। उनके साथ जो हुआ, उसमें तुम्हारी क्या गलती है? वो तो सब भाग्य की गलती है! उसके लिए तुम खुद को दोष नहीं दे सकते…”
वो इंतज़ार कर रहे थे कि मैं कुछ कहूँगा।
जब मैंने कुछ नहीं कहा, तो उन्होंने कहा, “देखो बेटे, मैं घुमा फिरा कर कह नहीं पाऊँगा, इसलिये सीधा सीधा कहता हूँ। भाभी जी को भी मेरी रचना बहुत पसंद थी। उनकी छाया में वो बेवक़ूफ़ कितना कुछ सीख गई थी, और कितनी तमीज आ गई थी उसमें! मेरी मिसेज़ मुझसे अक्सर इस बात का जिक्र करती थी। तुम्हारी माँ ने मेरी मिसेज़ से बात भी करी थी... लेकिन उस समय तुम दोनों बच्चे ही थे।”
‘अच्छा, तो इनको भी माँ के प्रपोजल के बारे में मालूम हो गया था!’
“... तुम दोनों को ही अपना अपना करियर बनाने पर फ़ोकस करना चाहिए था उस वक़्त! और देखो न... तुमने आज जो हासिल किया है, उसके लिए तो मुझे भी तुम पर बहुत गर्व है! एक अच्छी सी बीवी आ जाएगी, तो तुम और भी आगे बढ़ सकते हो! और तरक्की कर सकते हो।”
मैंने मुस्कराया।
‘भाई साहेब ऐसे कह रहे हैं जैसे कि उनको उस समय भविष्य का सब मालूम था!’ मन में मेरे कसैलापन आ गया, ‘और मेरी माँ के साथ जो दुर्व्यवहार किया था, वो?’
चलो पानी कहीं रूकनी नहीं चाहिएमन में कसैलापन आया, लेकिन कुछ ही देर के लिए। रचना अपनी तरफ़ से बड़ी ऑनेस्ट रही, और उसके मन में माँ के लिए बहुत आदर और प्रेम था। बात रचना की हो रही थी। शर्मा लोग भाड़ में जा सकते हैं। मैं अपने विचार पर फिर से मुस्कुराया।
उनको लगा कि मुझको उनकी बात भली लगीं! तो उन्होंने उत्साहित होते हुए कहा,
“बेटे, इस के बारे में थोड़ा कुछ सोचो। ये रहा मेरा नंबर... और पता,” उन्होंने अपने विजिटिंग कार्ड के पीछे अपने घर का पता लिख कर मुझे दे दिया, “रचना और उसकी बेटी हमारे साथ ही रहती है! अगर कभी आपका मन करे, तो चाय पर, या तो लंच या डिनर पर बिना संकोच चले आना! आपका ही घर है बेटे!”
**
हाँ पुरी कहानी में काजल की यही विशेषता रही है
उसे स्वामित्व नहीं चाहिए पर उसे मिल जाता है
उसके अपने आचार विचार और व्यवहार से और सबसे अहम बात उसकी बहु के साथ मित्रवत हो जाना और उसका साथ पा जाना
हा हा हा
यह कहानी की एक विशेषता है
जाहिर है बहु को पहले हैरानी हुई होगी फिर स्वीकर
हाँ यह स्वाभाविक है
हाँ मोनोपॉज हो सकता है
यह स्वाभाविक प्रकृति का नियम भी है
भाई मानना पड़ेगा सुनील हरदम प्रेम और परिणय के मूड में ही रहता है
अवसर मिले तो छोड़ता बिलकुल भी नहीं है
ओ तेरी
मतलब फिर से
उर्वरता प्रचुर है
हा हा हा हा
भाई होनी भी चाहिए
घर पर नया मेहमान कौन नहीं चाहता
वाह बहुत ही बढ़िया नाम
गार्गी
अभया
सुंदर बहुत ही बढ़िया नाम
हाँ भाई किशोर अवस्था में स्तनपान
ह्म्म्म्म अभी तक जो भी हुआ है
सामाजिक तौर पर सामाजिक बोध पर बहुतों को स्वीकार्य नहीं होगा
जैसे अमर के माँ के परिवार वालों ने स्वीकर नहीं कर सके
करेक्ट मैं यही सोच रहा था
चलो पानी कहीं रूकनी नहीं चाहिए
बहती रहनी चाहिए
रुक गई तो....
आगे समझ लो मित्र
चलो अमर के विरान जीवन में बाहर आने का समय आ गया है
अब प्रश्न है
अमर किसी स्वार्थ वश कुछ भी छुपायेगा नहीं अपने और अपने परिवार के बारे में जो अब तक घटित हुआ है
पर रचना और उसके परिवार क्या अमर के वर्तमान को सहसा स्वीकर कर पाएंगे
?????
पहला नशा पहला खुमारअंतराल - समृद्धि - Update #10
रचना के बारे में सोच कर अच्छी फीलिंग आ तो रही थी, लेकिन फिर भी मैंने स्वयं पर थोड़ा काबू रखा। उसके संग के लिए बहुत तत्परता दिखाना, मतलब अपनी ही कमज़ोरी दिखाना!
वह मारालेकिन मैंने इस सन्दर्भ में सभी बड़ों से बात अवश्य करी। सबसे पहले बात काजल से ही हुई। वो रचना के बारे में सुन कर बहुत खुश हुई - क्यों न हो? अब उसका रवैया मुझको ले कर ‘माँ’ जैसा ही हो गया था। हमारा वो पुराना रिश्ता कब का बदल गया था। किसी भी माँ के जैसे वो भी चाहती थी कि मेरा घर फिर से बस जाए, मेरे भी जीवन में थोड़ी बहार आए। लिहाज़ा, उसने मुझको शीघ्र-अतिशीघ्र रचना से मिलने के लिए कहा।
माँ का भी कमोवेश वैसा ही रवैया था। पुरानी यादें उनकी ताज़ा हो आईं। रचना उनको पसंद बहुत थी - इसमें कोई शक नहीं। लेकिन मिसेज़ शर्मा का व्यवहार उनके दिल को कचोट गया था। लेकिन माँ ऐसी उदार हृदय वाली स्त्री हैं कि किसी को भी माफ़ कर सकती हैं। वो तो स्वयं ही मिलना चाहती थीं रचना से, लेकिन गर्भावस्था के नाज़ुक महीनों के कारण उनका ट्रेवल फिलहाल बंद था। उन्होंने भी मुझको रचना से यथासंभव जल्दी ही मिलने को कहा।
पापा का ऑब्ज़र्वेशन दोनों स्त्रियों से थोड़ा अलग था। उनको रचना के बारे में कुछ नहीं मालूम था। और जब उन्होंने पूरा किस्सा सुना, तो उनको बहुत उत्साह नहीं आया। उनका मानना था कि यह थोड़ा अरेंज मैरिज जैसा हो गया है - ऐसे में जो बेस्ट ऑप्शन हो, वो लेना चाहिए! रचना वाला ऑप्शन ऑप्परच्युनिस्टिक (अवसरवादी) है। उनके पिता को लगा कि बढ़िया लड़का है, अच्छा बिज़नेस है, सम्पन्नता है, कोई ‘बैगेज’ नहीं - तो क्यों न यहीं बात कर ली जाए! पापा ने यह भी कहा कि वो खुद भी मेरे लिए एक ‘सूटेबल’ लड़की ढूंढ रहे थे। लेकिन उनके ‘लायक बेटे’ के लिए कोई ढंग की लड़की अभी तक नहीं मिली। जब मैंने उनसे पूछा कि मैं क्या करूँ, तो उन्होंने कहा कि मिलो ज़रूर। उसमें बुराई नहीं है। लेकिन सतर्क रहना। अरेंज मैरिज में प्यार बाद में होता है, शादी पहले होती है। अगर उसमें उल्टा हो रहा है, तो समझ लेना कि तुमको ‘फँसाने’ के लिए जाल फेंका गया है।
नव यौवना तो नहीं पर नव प्रौढ़ा कहा जा सकता हैमेरे तीन शुभचिंतक, और उनके तीन अलग तरह की सलाहें! लकिन एक बात तीनों में कॉमन थी कि रचना से मिलना तो चाहिए, और वो भी बिना बहुत देर किए।
तो मैं मिला उससे।
सभी से सलाह करने के अगले सप्ताहाँत मैं रचना से मिलने, उसके पिता के घर गया। रचना से आज कोई सत्रह - अट्ठारह साल बाद मिलने वाला था, इसलिए थोड़ा सा उत्साह भी बना हुआ था। जानता हूँ कि यह एक बेहद लंबा समय है। इस दौरान मेरे जीवन में कितना कुछ बदल गया था! जाहिर सी बात हैं रचना के जीवन में भी बहुत कुछ बदल गया होगा। शादी होने के बाद स्त्रियों और पुरुषों में तो वैसे भी परिवर्तन आ ही जाते हैं। जिस रचना को मैं जानता था वह नवयौवना थी, एक टीनएज लड़की थी! उसके अंदर जीवन को ले कर जिज्ञासा थी; उत्साह था। मैं नहीं जानता था कि यह नई वाली रचना कौन थी?
वाव भाई पहला प्यार का आकर्षण ही ग़ज़ब का होता हैजब मैंने रचना को देखा तो एक प्रश्न का उत्तर मिल ही गया - यह नई वाली रचना थी तो बहुत सुंदर! मतलब बहुत ही सुन्दर! माँ बड़ी सुन्दर थीं - लेकिन वो भी नहीं टिकतीं उसके सामने! और न ही गैबी, डेवी, और काजल ही! मतलब अगर वो चाहती, तो अवश्य ही मिस इंडिया या मिस वर्ल्ड जैसी प्रतियोगिता में शामिल हो सकती! इतना निरुद्यमी सौंदर्य था उसका! जब वो टीनएज थी, तो भी सुन्दर लगती थी। लेकिन वो लड़की, इस महिला के सामने कुछ भी नहीं थी!
निगाहों निगाहों में दिल लेने वालीरचना ने स्वयं को और अपने सौंदर्य को बड़ा सम्हाल कर रखा था और यह साफ़ दिखता था! हालाँकि, उसका शरीर थोड़ा गुदाज़ था - जो उसकी आरामदायक जीवनशैली की तरफ इंगित करता था - लेकिन फिर भी, यह तय था कि वो अपनी त्वचा और रूप-रंग का बहुत ध्यान रखती थी। पैंतीस की हो गई होगी, लेकिन जवान दिख रही थी! उसकी मुस्कान बड़ी चमकदार, थोड़ी रहस्यमय, और बेहद संक्रामक थी। उसको मालूम था कि वो बहुत सुन्दर है, और वो जानती थी कि अपने आकर्षण का जादू कैसे चलाना है।
और वो अपने आकर्षण का जादू मुझ पर चलाने के लिए पूरी तरह से तैयार हो कर आई थी। आज के डिनर के लिए उसने शिफॉन साड़ी और चमकदार, स्किन-हगिंग ब्लाउज पहना था। ब्लॉउस का कपड़ा, कपड़ा न लग कर कोई तरल जैसा लग रहा था - ऐसा कि जैसे वो रचना की त्वचा का ही एक हिस्सा हो! ब्लाउज आगे से भी गहरी कटाव वाली थी, और पीछे भी! शिफॉन साड़ी अपने आप में बहुत पारभासी होती है, उसके अंदर से रचना का क्लीवेज (वक्ष-विदरण) और उसके सीने का एक बड़ा हिस्सा बड़ी आसानी से दिख रहा था! साड़ी स्वयं भी उसके शरीर के हर अंग के उतार चढ़ाव को दिखा रही थी! ठीक से वर्णन करना कठिन है, लेकिन इतना कहना उचित है कि मैं वहाँ किसी शिकार की भाँति बैठा हुआ था, और मेरा शिकार करने आई थी... रचना! उसका पहला ही तीर सीधा मुझको बेबस कर गया।
हा हा हाआज अपने बारे में मुझे एक बात पहली बार मालूम पड़ी - सुन्दर लड़कियाँ मुझे बहुत पसंद हैं!
है ना भड़काऊजहाँ एक तरफ़ मेरा नब्बे प्रतिशत दिमाग रचना के सौंदर्य रस का पान करने में व्यस्त था, वहीं दूसरी तरफ़ वो बचा हुआ दस प्रतिशत दिमाग - जो शायद मेरा विवेकी, तर्कसंगत दिमाग होगा - सोच रहा था कि ये शर्मा परिवार तो बड़ा रूढ़िवादी हुआ करता था न? मुझे याद है कि रचना की माँ, उसके पहनावे को के कर कितना नाटक करती थी। उसी रूढ़िवादिता के चलते उसका हमारे घर आना जाना बंद हुआ था। तो उस हिसाब से रचना का पहनावा बड़ा भड़काऊ नहीं था क्या? तब यह सब ठीक नहीं था, लेकिन अब ठीक है?
ओ तेरीलेकिन जैसा मैंने कहा, मेरा नब्बे प्रतिशत दिमाग उसके ही वश में था। मंत्रमुग्ध हो कर मैं उससे मिला। कई सालों की भूख सामने आ ही गई। रचना का मक्खन जैसा शरीर देखने, महसूस करने और भोगने का मन हो आया! आदमी का मन कमज़ोर होता है। इसीलिए उसको अपना विवेक नहीं खोना चाहिए! भगवान् की दया से दस प्रतिशत विवेक बचा हुआ था मेरे पास - और उसी ने मुझको रचना का गुलाम बनने से बचा रखा था अभी तक। अच्छा हुआ कि उसी समय उसकी बेटी भी आ गई - उसका नाम नीलिमा था। वो एक प्यारी सी लड़की थी, और मेरी आभा से कुछ साल बड़ी थी। एक्चुअली, वो लतिका की हमउम्र होनी चाहिए - उससे एक दो साल छोटी!
शायद ये विवेकी मन ही था, जिसके कारण मुझे लगा - और हो सकता है कि मुझे गलत लगा हो - कि वहाँ उपस्थित सभी लोगों का व्यवहार थोड़ा बनावटी है... जैसे सभी मुझे ‘खुश करने’ या ‘इम्प्रेस करने’ की कोशिश कर रहे हों! रचना का तो ठीक था, लेकिन उसकी बेटी के व्यवहार में भी बनावटपन लगा। लेकिन मैंने इस बारे में बहुत ज्यादा नहीं सोचा, और सभी के साथ अच्छी तरह से, घुल मिल कर बातचीत की।
ह्म्म्म्म कभी कभी सुंदरता विवेक को बंदर बना ही देता हैकुछ देर उससे बात करने के बाद, मुझे समझ आया कि रचना का अपने जीवन को ले कर कोई बड़ा सपना जैसा नहीं था। वो पहले भी, और अब भी बस किसी की पत्नी ही बनना चाहती थी। इस बात में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जैसा कि मैंने पहले महसूस किया था, रचना एक आरामदायक जीवनशैली की आदी रही थी, और उस जीवनशैली को जीने के लिए उसको एक संपन्न व्यक्ति से शादी करना ठीक बात लग रही थी। यार कुछ भी हो, शादी करने का यह सही कारण नहीं हो सकता। अवश्य ही घर में बैठो, और आराम से बैठो, आराम का जीवन जियो, लेकिन अपने जीवनसाथी को ले कर कुछ उत्साह तो चाहिए न! यह मेरा दस प्रतिशत वाला विवेकी मन बोल रहा था!
क्यूँ ठीक कहा नानब्बे प्रतिशत गुलाम मन तो बस उसके मक्खन जैसे शरीर के विभिन्न कटाव और उसकी भाव-भंगिमाओं की समीक्षा करने में लगा हुआ था।
हा हा हाअगर कोई स्त्री अपनी पर उतर आए न, तो मर्द की औकात नहीं! वो स्त्री जैसा चाहे, उसको वैसा नचा सकती है। मेरी उस समय वही हालत थी।
अररेदोस्तों - पुरुषों को अपना जीवनसाथी चुनने में बहुत सावधानी बरतने की ज़रूरत है। सेक्स कुछ देर चलता है, लेकिन पति होना एक फुल-टाइम जॉब है! इसलिए अपने लिए स्त्री (पत्नी) ऐसी ढूंढनी चाहिए, जिसका साथ आपको अच्छा लगे। जिसको प्रेम (सेक्स नहीं) किया जा सके। सुन्दर ज़हर की पुड़िया के साथ जीवन नहीं जिया जा सकता। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि रचना कोई ज़हर की पुड़िया है। बस एक मिसाल दी है मैंने। अभी तक मेरे जीवन में जो लड़कियाँ और स्त्रियाँ आई थीं, वो सभी बढ़िया किस्म की थीं। किस्मत मेरी अच्छी थी कि अभी तक इस तरह की स्त्रियाँ मिली। किस्मत अच्छी होना एक अपवाद है - नॉर्म नहीं! खैर, मैं यहाँ दर्शनशास्त्र पर चर्चा करने नहीं आया हूँ!
कहानी पर वापस लौटते हैं।
रचना के परिवार ने हमको कुछ देर अकेले में मिलने, और बात करने के लिए छोड़ दिया। यही एक्सपेक्टेशन भी थी न आज रात की... कि हम दोनों मिलें, और पुरानी बातें याद करें! जब हम दोनों गेस्ट रूम में अकेले हो गए, तो रचना ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा,
“अमर... मुझे अभी भी हमारे बचपन के दिन याद हैं... क्या तुमको याद हैं?”
“मैं कैसे भूल सकता हूँ?” रचना मेरे तार खेल रही थी, और मैं उसकी हर छेड़खानी पर बज रहा था, “तुमने तो मुझे बहुत कुछ सिखाया है... तुम ही तो मेरी जिंदगी की पहली लड़की हो!”
“और तुम मेरे...” वो मुस्कुराई और बोली, “सोचो न! अगर सब कुछ ठीक ठीक चल गया होता, तो हम हस्बैंड वाइफ भी हो सकते थे... है न?” वो जैसे सोचते हुए बोली, “आंटी जी तो मुझे कितना प्यार करती थीं!”
“हाँ... सच में।”
“कैसी हैं वो?”
“ठीक हैं... खुश हैं, और हेल्दी भी!” मैंने कुछ सोच कर माँ से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारियां रचना से छुपा लीं। क्यों? मुझे नहीं पता।
फिरनहीं नहीं! मुझे यह ख़याल नहीं आया कि वो क्या सोचेगी! मेरी जान पहचान दिल्ली के कई संपन्न और संभ्रांत घरानों में थी, और सभी को मेरे पूरे परिवार के बारे में मालूम था। मेरी समस्या वो नहीं थी। कुछ और ही थी। क्या थी, कह नहीं सकता अभी।
एक बेचारा फंस गया जाल में प्यार के लिए“जान कर बहुत अच्छा लगा, अमर। ... अकेले रहना ... अकेले जीवन काटना बड़ा मुश्किल है!” उसने आह भरते हुए कहा।
हम कुछ मिनट चुपचाप बैठे रहे और फिर उसने अचानक ही, पूछ लिया, “अच्छा बताओ, मैं कैसी दिखती हूँ?”
“तुम बहुत सुंदर लग रही हो, रचना!” मैंने पूरी सच्चाई से कहा, “पहले से भी कहीं अधिक सुन्दर...”
“मुझे बहुत खुशी हुई कि तुमको सुन्दर लग रही हूँ...” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “... मैंने तुम्हारे लिए ही तो यह सब किया है!” फिर एक रहस्य्मय मुस्कान के साथ उसने कहा, “मैं अपने अमर के लिए अच्छा दिखना चाहती थी!”
‘अपने अमर...!”
जी बिलकुल कौन गधा ठुकराएगाबिछ गया भाई... इस बात पर तो मैं पूरी तरह बिछ गया! विवेक अब सो गया। रचना ने जिस तरह यह बात कही थी, मेरा संदेह जाता रहा। जाहिर सी बात है, वो मेरे लिए ही तो तैयार हुई थी आज की रात! यह तो बड़े सम्मान वाली बात थी मेरे लिए!
“हा हा! ओह रचना, तुम सुन्दर ही नहीं... बल्कि स्मैशिंग लग रही हो!” मैंने कहा, “तुम जैसी सुन्दर लड़की नहीं देखी है मैंने!”
जादू...
“क्या तुम उनको छूना चाहते हो?” रचना ने बड़े रहस्य्मय तरीके से कहा।
मैं तुरंत समझ गया कि रचना की बात का क्या मतलब है... लेकिन मैंने मासूमियत का नाटक किया, “क्या छूना है? किसको?”
“मेरे बूब्स, स्टुपिड!” उसने फुसफुसाते हुए कहा, “इतनी देर से देख रहे हो इनको... तरस रहे हो...”
“डू यू वांट मी टू?”
“आई इवन वांट यू टू सकल देम... तुम पूरे बेवक़ूफ़ हो!” वो अभी भी मुस्कुरा रही थी, “लेकिन हमें कहीं से तो शुरुआत करनी ही होगी न... तो क्यों न इनको छू कर शुरू किया जाए?”
ऐसा अद्भुत निमंत्रण! कौन गधा उसको ठुकराएगा?
मतलब भरा हुआ शरीर पर चर्बी रहिततो, मैंने रचना के स्तनों को उसके अद्भुत से ब्लाउज के ऊपर से महसूस किया। ओह प्रभु! कैसे नर्म टीले थे उसके स्तन! बचपन वाली कसावट अब नहीं थी... ऐसा लग रहा था कि स्तन नहीं, बल्कि लीची के बहुत बड़े बड़े फल थे, जिनके अंदर बीज नहीं था! बस, गूदा ही गूदा और रस! जाहिर सी बात है, उसके स्तन भी बड़े बड़े थे... माँ से भी बड़े, काजल से भी बड़े, और देवयानी के स्तनों से भी बड़े!
जैसा कि मैंने कहा, प्रचुर भोजन, और आरामदायक जीवनशैली!
लो हो गया शिकारउसके स्तनों को छूकर अच्छा लगा - यह एक न्यूनोक्ति है! एक लम्बे अर्से के बाद किसी ऐसी स्त्री के स्तन छुए, जो माँ या माँ समान नहीं थी! सच में - स्वर्गिक आनंद मिला। कुछ देर छूने टटोलने के बाद मैंने उसके ब्लाउज के नीचे हाथ लगा कर उनको उठाने की कोशिश करी। भारी थे! बड़े और भारी! ऐसे उन्नत स्तनों को पीना, उनका आस्वादन करना कैसा भाग्य का लाभ होगा! मैंने उसकी आँखों में देखा। उसकी हँसी छूट गई।
मुझे लगा मुझे ‘हरी झंडी’ मिल गई है, और मैंने फटाफट उसके ब्लाउज के बटन खोलना शुरू कर दिया।
“जल्दी करो... नहीं तो कोई आ जाएगा!” वो फुसफुसाई।
तो मैंने जल्दी जल्दी उसकी ब्लाउज के बटन खोले। रचना ने अंदर ब्रा नहीं पहनी हुई थी। मेरे सामने दुनिया के सबसे आश्चर्यजनक स्तनों की जोड़ी थी!
न भूतो, न भविष्यति!
मुझे नहीं लग रहा था कि इनसे अधिक सुन्दर कोई अन्य स्तन मुझको मयस्सर होंगे! सच में बड़े स्तन! लेकिन उनमे शिथिलता नहीं थी। उसके स्तनों की त्वचा भी बहुत गोरी थी - कहानियों में अक्सर यह उपमा दी जाती है कि जैसे ‘दूध में केसर मिला दिया गया हो’! यह उपमा पूरी तरह सत्य थी उस पर! उसके चूचक गुलाबी लाल रंग के थे। बचपन से अब तक रचना का रंग बदल गया था - वो अब और भी अधिक गोरी हो गई थी, और उसकी त्वचा दमक उठी थी। कमाल का सौंदर्य!
“सुंदर...” उसके सौंदर्य की तारीफ में मैं बस इतना ही कह सका!
कभी कभी शब्द बहुत कम पड़ते हैं। वैसे भी, सूर्य को क्या दीपक दिखाना?
रचना हँसने लगी! विजई रूप से!
जादू...
“टेस्ट देम...” उसने बड़ी कामुक कशिश के साथ कहा।
उसको कहने की क्या ज़रुरत थी! बेहद प्यासे आदमी के सामने पानी रख दो, तो क्या वो नियंत्रण रख पायेगा? रचना के इस प्रस्ताव ने मुझको पूरी तरह से शक्तिविहीन कर दिया!
मैंने मुँह बढ़ा कर उसका एक चूचक अपने अंदर ले लिया - तुरंत ही मुझे एक मीठा सा स्वाद आया!
‘मीठा?’ स्तनों का स्वाद ऐसा तो नहीं होता।
स्वाद तो एक बात है, उसके सीने से फूलों की महक भी आ रही थी। कहीं रचना ने अपने स्तनों पर शहद तो नहीं लगा लिया? हो सकता है न? कहीं यह सब उसकी प्लानिंग तो नहीं? अगर है भी तो क्या? मैं शिकायत थोड़े ही करूँगा, इस स्वर्गिक आनंद को पाने के लिए! अगर वाकई रचना ने यह सब प्लान किया था, वो भई, बेहद अच्छी प्लानिंग थी! उसने मुझे वाकई बहुत खुश कर दिया! मैंने कुछ पल उसके स्तनों का पान किया और आनंद से उसके स्तनों को भोगा! फिर उसने मेरे सर को परे धकेल दिया।
“अब...” उसने अपने ब्लाउज के बटन लगाते हुए कहा, “बस! अभी रुक जाते हैं... हम फिर कभी कर सकते हैं यह सब।”
“कब?” मैं किसी बच्चे की भांति बोल पड़ा।
“ये तो अब तुम ही बताओगे!”
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पहला नशा पहला खुमार
पुराना प्यार है पुराना इंतजार
वह मारा
यहाँ पर मुझे सुनील का विश्लेषण एकदम सटीक लगा
वाकई एक पिता की तरह सोच रखता है सुनील
नव यौवना तो नहीं पर नव प्रौढ़ा कहा जा सकता है
वाव भाई पहला प्यार का आकर्षण ही ग़ज़ब का होता है
निगाहों निगाहों में दिल लेने वाली
बता यह हुनर तुमने सीखा कहाँ से
हा हा हा
भाई इश्क हमेशा हुस्न के आगे घुटनों पे होता है
है ना भड़काऊ
पर अब उस वक़्त की रूढ़िवादी विचारों की तिलांजलि देने के लिए विवश नहीं ब्लकि स्वयं को बाध्य किए हुए हैं
ओ तेरी
बेटी इतनी छोटी फिर भी उसके व्यावहार में बनावटी
ह्म्म्म्म कभी कभी सुंदरता विवेक को बंदर बना ही देता है
क्यूँ ठीक कहा ना
हा हा हा
भाई रुप और प्रतिभा कुछ ऐसे ही करते हैं
मर्द विवश हो जाता है
हूर मर्द को लंगुर तो बेशक बना सकती है
अररे
अमर के मन में यह कैसा संकोच
मतलब अमर के मन में कहीं ना कहीं ग्लानि है
माँ की खुशी के लिए जो स्वीकर किया है
उसे प्रकाश करने के लिए संकोच कर रहा है
फिर
फिर क्यूँ मेरे बंधु
एक बेचारा फंस गया जाल में प्यार के लिए
प्यार के लिए
जी बिलकुल कौन गधा ठुकराएगा
वह गधा ही होगा जो ठुकराएगा
मतलब भरा हुआ शरीर पर चर्बी रहित
लो हो गया शिकार
हाँ मुझे भी ऐसा लगाप्यार व्यार जैसा नहीं लगता! हवस ज़रूर लग रही है!
हा हा हा हा!!
यह बात आपने शत प्रतिशत सही कहाभावनात्मक परिपक्वता भाई! संबंधों की परख लगती है उसमें।
बचपन में खराब बाप का व्यवहार देखा है उसने, तो समझता है कि क्या क्या घोटाले हो सकते हैं.
अमर भाई को अभी तक सब कुछ आसानी से मिला है (रिस्क लिया है, लेकिन हर बार अच्छी लड़की ही मिली है)
हाँ यौवन तब तक शरीर नहीं छोड़ता जब तक इच्छायें शेष रहती हैंहाँ - पैंतीस में कौन युवा रहता है? लेकिन यौवन रह सकता है अवश्य ही।
हाँ सच कहा आपने लंबे समय तक अगर शारीरिक आवश्यकता पूर्ति ना हो तो ऐसे क्षण में दुर्बलता हावी हो जाती हैंजैसा मैंने पहले भी लिखा - प्यार नहीं है!
आकर्षण ही है बस! और एक लम्बे समय की भूख!
अमर को भी तो तन की आग जलती होगी।
हाँ भाई हुस्न के आगे बंदर बनते देर कहाँ लगती हैबेशक!
भाई रचना आपकी है (मतलब यह कहानी)क्या पता!
हाँ भाई इसमे तो मैं आपके साथ पूर्ण सहमत हूँबच्चों को जैसा सिखाएँगे, वो वैसा ही व्यवहार करेंगे।
इसमें आश्चर्य क्या? मेरे एक्सटेंडेड फॅमिली में एक महिला ने अपनी लड़की को उनके दादा के खिलाफ भड़का रखा है।
वो लड़की एक दिन अपने दादा से कह रही थी कि आपने मेरे मम्मी पापा को घर से क्यों निकाल दिया?
सच्चाई यह है कि दोनों अपनी स्वेच्छा से परिवार से बाहर गए थे। लॉकडाउन में पति की नौकरी की हालत खराब हो गई। तो लेने के देने पड़ गए।
लड़की बस सात साल की है। नीलिमा तो फिर भी बहुत बड़ी है। तेरह के आस पास!
बच्चों का भोलापन बचता है बचाने से। नहीं तो उनके अंदर भी बड़ों वाला ही दोगलापन आ जाता है।
हा हा हा हाअक्सर! बहुत सख्त होना पड़ता है अन्यथा।
या फिर गे! हा हा हा !!!
हाँ पर असरानी नहीं हैंरूप निखार का तो समझ आता है, लेकिन प्रतिभा ऑन्टी के लिए आपने कुछ ख़ास लिखा नहीं है।
तेज़ महिला लगती हैं, लेकिन अपने तापस अंकल भी कोई कम नहीं!
अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं! हा हा!
ह्म्म्म्मखुलेगी यह बात! आगे। जल्दी ही।
फिलहाल इतना कहना काफी है, कि अमर को अपने परिवार को ले कर कोई शर्म नहीं है।
क्यों हो? न तो कानून का हनन हुआ है, और न ही धर्म का। और तो और, सब कुछ सामाजिक बंधनों में बंध कर किया है उन्होंने।
फिर क्यों अपना सर नीचे करना? छुपाने का कारण कुछ और ही है।
बिल्कुलपंछी अकेला देख मुझे ये जाल बिछाया है....
बिल्कुलहा हा हा हा !!!!
गंगा बह रही हैं, हाथ धोने का तो बनता ही है!
हाँ वही मांसल पर चर्बी रहितभरा हुआ, लेकिन थोड़ा गुदाज़!
मोटी नहीं; थुलथुल नहीं।
हाँ यह मानवीय लक्षण होते हैंहो गया जी!
आदमी के शरीर में दो मुख्य अंग होते हैं।
और एक समय में दोनों में से केवल एक ही काम करते हैं!![]()