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दुल्हनिया का तो कहना ही क्यापापा उनको अभी भी छेड़ते कि ‘दुल्हनिया अब और भी सेक्सी हो गई है’!
काल का प्रवाहअंतराल - समृद्धि - Update #20
रचना से छुटकारा पाने के बाद मन बहुत ही खराब हो गया। मैं ही क्या, घर में सभी लोग अपसेट हो गए थे। क्या क्या सोच रहे थे हम, और क्या हो गया! अब मुझे समझ में आ गया था कि इस जीवन में तो फिर से सच्चा प्यार क्या, कोई भी प्यार नहीं मिलने वाला। मेरे हिस्से का प्यार मुझको मिल चुका था - एक बार नहीं, कई बार! और सच कहूँ, मैं इस बात से बहुत संतुष्ट भी था!
उस प्यार की निशानी - मेरी आभा - भी फल फूल रही थी। उसको बढ़ते हुए देखना - मुझे ऐसा लगता था कि जैसे मेरा और देवयानी का प्यार ही बढ़ रहा हो। ससुर जी और जयंती दी, और उनका परिवार भी, मेरे परिवार का अभिन्न हिस्सा थे, तो उनका भी प्यार मुझको मिल ही रहा था। उधर, गैबी के परिवार के साथ भी मेरी घनिष्ठता भी काफ़ी बढ़ गई थी। वो मुझको ब्राज़ील बुलाते, और मैं उनको भारत! आ जा हम दोनों ही नहीं पा रहे थे, लेकिन बातचीत का आदान प्रदान हमारे सम्बन्ध में प्रगाढ़ता को ही दर्शाता था। वहाँ की हर छोटी बड़ी बात मुझसे साझा करी जातीं! गैबी का भाई और उसकी पत्नी भी अपनी खबर देते और मेरी खबर लेते रहते। जब इस तरह का संपर्क रहता है, तो मुझको कभी महसूस ही नहीं होता, कि मैं उनसे किसी तरह से अलग हूँ।
इस समय सबसे बड़ी चिंता मुझे माँ और अम्मा की थी - माँ गर्भवती थीं, और अम्मा की एक बहुत ही नन्ही सी बच्ची थी। अगर मेरे कारण इन दोनों को थोड़ा भी तनाव होता है, तो उन पर उनके बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा। मैं नहीं चाहता था कि इस घर में खुशियों की कोई कमी रहे। मेरे घर का कोई भी सदस्य कम खुशियाँ डिज़र्व नहीं करता - ऐसा मेरा मानना था। दोनों को तनाव न हो, इसलिए आवश्यक था कि कोई हर्षोल्लास वाला आयोजन हो! थोड़ा आनंद का माहौल बने! इसलिए मैंने सोचा कि माँ की गोदभराई की रस्म थोड़ा पहले ही कर लेते हैं। इस विचार से सभी लोग सहमत थे।
यह बात तो ठीक है कि पिछले कुछ वर्षों में, गाँव के विकास में मैंने डैड की ही तरह भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। मुझे वो बड़ेगांव वाले महंत जी का आशीर्वाद याद हो आया, जिसमें उन्होंने मुझसे कहा था कि धनोपार्जन के साथ साथ समाज कल्याण का भी काम होना चाहिए! मैंने इस काम पर विशेष ध्यान दिया। अपनी कंपनी में तो नहीं, लेकिन अपने और आस पास के गाँवों के कई लोगों को - ख़ास कर उनको, जिनके पास पर्याप्त ज़मीनें नहीं थीं - अपनी पहचान की कंपनियों में छोटी-मोटी नौकरियों के लिए सिफारिश कर के लगवाया। अपनी कंपनी में इसलिए नहीं, क्योंकि उसमें छोटी-मोटी नौकरी उपलब्ध नहीं थी। बच्चों की शिक्षा बेहतर हो सके, उसके लिए गाँव के स्कूल के लिए एक नई इमारत बनवाई, और उसको इंटरमीडिएट तक की मान्यता दिलवाई। मेरे और पास के तीन चार गाँवों के बच्चे बच्चियाँ यहाँ आते थे पढ़ने! माँ की दूसरी शादी से हमारे निकट-जन नाराज़ थे, इसलिए मैंने स्कूल का नाम माँ और डैड के नाम पर ही रखवाया। जिससे कि लोग रोज़ देखें, और समझें कि वो किस से नाराज़ हैं, और क्यों! माँ और अम्मा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी - उन्होंने गाँव के स्कूल, मेरे कस्बे वाले स्कूल, और पापा वाले स्कूल में छात्रवृत्तियाँ घोषित की हुई थीं, जिससे मेधावी और गरीब बच्चों को, धन के अभाव में अपनी पढ़ाई का सौदा न करना पड़े।
मेरा और मेरे परिवार का गाँव और उसके आस-पास के क्षेत्र में इतना अधिक प्रभाव था कि जो भी उम्मीदवार ग्रामप्रधान के चुनाव में खड़ा होता था, उसकी यही कोशिश रहती कि किसी तरह से मेरी कृपा-दृष्टि उस पर पड़ जाए। वो अलग बात है कि राजनीति से मैंने स्वयं को दूर ही रखा। लेकिन अंत में एक बढ़िया व्यक्ति मिला - जिसको नेतागिरी के साथ साथ समाज कल्याण का भी कीड़ा लगा हुआ था। मुझे वो उम्मीदवार बहुत पसंद आया - युवा, पढ़ा लिखा, सभ्य, मेहनती और सच में, गाँव में बहुत लोकप्रिय! तो मैंने उनके लिए गाँव में प्रचार भी किया। उनके जीतने के बाद हम दोनों ने मिल कर गाँव में सड़क और बिजली की समुचित व्यवस्था करवा दी थी। अब मुख्य सड़क से एक पक्की सड़क गाँव को जोड़ती थी। गाँव में बिजली की सप्लाई भी सुबह और शाम नियमित रूप से आती थी। हाँ, दिन में अभी भी बिजली की समस्या थी! एक नया ट्यूबवेल भी बन गया था, जिससे गाँव में सभी के खेतों में पानी जाता था। इन सामाजिक कल्याण के कार्यों में मैं लगा हुआ था।
साथ ही साथ अपने विरासत के संरक्षण में भी जुटा हुआ था। गाँव का घर पुराना हो गया था और अधिकतर नए निर्माण किसी पैच-वर्क के जैसे लगते। तो मेरा मन हुआ कि उस घर का पुर्ननिर्माण कराना चाहिए। कोई बहुत खर्च नहीं होने वाला था, लेकिन इसका लाभ बहुत था! घर के पुर्ननिर्माण के लिए मैंने गाँव के ही युवकों और कारीगरों को नियुक्त किया, जिससे उनको रोज़गार मिले। वैसे भी हमेशा से ही स्थानीय कारीगर ही घर बनाते आए थे, तो आज क्यों सब अलग हो? आस पास के गाँवों के कुछ युवाओं ने आई टी आई में कारीगरी सीखी थी; उन्होंने ही मेरे नए घर की पूरी प्लानिंग करी - दिशा, नक्शा, सब कुछ! और घर का पूरा निर्माण उन्होंने ही कराया। गृह-निर्माण की सारी सामग्री स्थानीय साधनों से ही आई थी, या फिर पुराने घर के लकड़ियों और पत्थरों से! लोकल काम के कारण गाँव के युवाओं को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन रोज़गार भी मिला और अपनी कारीगरी दिखाने का अवसर भी!
बड़ा सुन्दर घर बन कर आया! पहले के मुकाबले बड़ा घर! फ़ालतू के स्थानों को ऑप्टिमाइज़ किया गया था, बढ़िया रौशनी आती थी, और हवा का आवागमन भी बेहतर होता था! घर में नीचे चार कमरे, और ऊपर छत पर एक छोटा कमरा था! ऊपर वाला कमरा मैंने ख़ास तौर पर अपने लिए बनवाया था - हर तरफ से हवादार था। गर्मियों में दिन में दिक्कत होती थी, क्योंकि यह कमरा तपने लगता था, लेकिन रात में इससे अधिक सुकून वाली जगह घर भर में नहीं थी। एक स्टोर-रूम भी था। रसोई पहले से बड़ी, और बेहतर थी - रौशनी और हवा ठीक तरह से आती थी, और धुआँ रहने की स्थिति नहीं हो पाती थी। घर में ही एक शौचालय और एक स्नानागार बनवाया - जो थोड़ा खुला हुआ था। आँगन पहले जैसा ही था - बस उसमें से बरसाती पानी के निकास के लिए पक्की, ढँकी हुई नाली लगवा दी, और फर्श पहले से बेहतर करवा दी। अनाज भण्डारण के लिए पहले ही जैसा एक भंडार कक्ष था। सबसे अच्छी बात यह थी कि छत पर अब पहले से अधिक स्थान था - बैठने, सोने, या छोटे मोटे कार्यक्रम के आयोजन के लिए! वर्षा जल संचयन [रेन वाटर हार्वेस्टिंग] सिस्टम पहले जैसा ही था, और अब आँगन में एकत्र पानी का भी संचयन हो सकता था। घर के पीछे एक सँकरा कुँआ था, जिसमें एक छोटे पंप से पानी सीधे घर में लाया जा सकता था। इसका उपयोग प्रायः नहीं होता था, क्योंकि वर्षा जल का मुख्य संचयन इसी कुँए में होता था। लिहाज़ा, वो पानी से लबालब भरा रहता था। अब तो खपरैल पर सोलर पैनल भी लगे हुए थे, तो देखने में बड़ा सुन्दर सा लगता था! मुख्य कमरे में छोटी टीवी भी लगी हुई थी, जिसमें डिश कनेक्शन भी था। हाँ - घर में एक कमी थी। पहले के जैसे खपरैल पर सब्ज़ियों की लताएँ नहीं फैलाई जा सकती थीं, नहीं तो वो सोलर पैनल को ढँक लेतीं, और फिर घर में बिजली न आ पाती! लेकिन उससे घर की सुंदरता में कोई कमी नहीं आ रही थी। कहने का मतलब, अगर हम चाहते, तो इस घर को किसी रिसोर्ट या आज कल के एयर बी एन बी की तरह पैसे ले कर किराए पर दे सकते थे। लेकिन मैं इस विचार के विरुद्ध था। मेरे बाप-दादाओं की संपत्ति थी यह, और मैं उससे किराया ले कर उसका अपमान नहीं कर सकता था। डैड का बनवाया हुआ बाहर का शौचालय तो ग्राम समाज के ही काम आता था। गाँव के ही लोग उसकी देख रेख करते। इसलिए अपनी संपत्ति होते हुए भी अब मैं उसको अपना नहीं मानता था।
एक और काम किया - एक समय था जब मेरे और आस पास के गाँव में खांड शक्कर बनाने का अति-लघु उद्योग फलता था। लेकिन सरकारी उपेक्षा, और लोगों की चीनी की पसंद के कारण, वो उद्योग लगभग लुप्त हो गया था। मैं जानता था एक दो वृद्ध लोगों को जो इस काम में सिद्ध थे। पिछले दो तीन साल से मैं खांड शक्कर के उद्योग को पुनर्जीवित करने में जुटा हुआ था। और इस प्रयास में थोड़ी बहुत सफ़लता भी मिली थी। जब अपने हुनर कर सही दाम मिलता है, तब लोग उत्साह से काम करते हैं। यही हुआ - कुछ अपस्केल रेस्टोरेंट्स में नेचुरल लिविंग या आर्गेनिक के नाम पर खांड शक्कर का प्रयोग होना शुरू हो गया था। लिहाज़ा इन कारीगरों से सामान लगभग सीधे ही इन उद्योगों को मिलने लगा, और कारीगरों को अच्छा दाम भी मिला। छोटे छोटे प्रयास, लेकिन गाँव वालों की आर्थिक स्थिति में बहुत सुधार हुआ। लगभग इसी समय कुछ नई सरकारी रोजगार योजनाएँ शुरू हुईं, जिसका लाभ गाँव वालों को मिलना शुरू हो गया। जब पेट भरता है, तब फालतू की बातें काटती नहीं है।
शीघ्र ही गाँव के लोगों का रवैया भी हमारे प्रति उदार होने लगा...
पड़ोस के चाचा जी ने भी माँ को एक तरह से ‘क्षमा’ कर दिया - किस बात के लिए, यह मत पूछिए! उनका कहना था कि माँ एक तरह से उनकी बेटी जैसी ही हैं, इसलिए वो उनसे नाराज़ नहीं रह सकते। शायद उनको इस बात का गुस्सा था कि उनसे बिना कोई राय जाने, कोई सलाह पूछे, बिना उनकी अनुमति लिए माँ ने पुनः विवाह कर लिया था। वो माँ को अपनी पुत्री जैसी ही मानते थे, इसलिए शायद उनको लगा कि बिना उनको बताए विवाह करना - जैसे उनको हमारे जीवन से पृथक कर देना हुआ। लेकिन जब उनको ज्ञात हुआ कि माँ अपने नए जीवन में प्रसन्न हैं, और उनकी संताने भी हैं, तो वो भी प्रसन्न हुए बिना न रह सके। विवाह में उम्र का अंतर न तो उनके लिए और न ही गाँव में कोई बहुत बड़ी घटना थी - उनकी छोटी बहू उनके छोटे और बड़े दोनों ही बेटों से उम्र में बड़ी थीं, और ऐसे ही अनेकों विवाह गाँव में होते आये थे। अभी हाल ही में गाँव में हुई शादी में एक लड़के की पत्नी उससे कोई सात साल बड़ी थी। खैर, चाचा जी ने एक बार मुझसे कहा कि ‘अपने बच्चों’ को देखने का मोह उनको हो रहा था। अच्छी बात थी! इससे हमारे कार्यक्रम का मार्ग और भी प्रशस्त होता है!
उनकी क्षमा का आरम्भ हुआ उनकी बहुओं से। उनकी दोनों बहुएँ (मतलब मेरी भाभियाँ) गाँव के स्कूल में शिक्षिका थीं। इस तरह से उनकी योग्यता का भी उपयोग होने लगा। छोटी भाभी ने बीए किया हुआ था, इसलिए उनको प्रधान शिक्षिका की पोस्ट दी हुई थी। वैसे भी गाँव में हमारे परिवार से किसी को कोई बैर-भाव नहीं था। और इतना तो सभी को समझ में आ रहा था कि बिना मुझसे इंटरैक्ट किए किसी का गुज़ारा नहीं होने वाला। इसलिए बैर-भाव रखने का कोई मतलब ही नहीं था।
जब अम्मा ने माँ की गोदभराई की रस्म गाँव में कराने की मंशा ज़ाहिर करी, तब मैंने चाचा जी को यह खबर सुनाई, और उनसे इस आयोजन की अनुमति माँगी। जैसी आशा थी, चाचा जी और चाची जी यह खबर सुन कर बहुत अधिक खुश हुए। उन्होंने साफ़ कह दिया कि वो ही सारा बंदोबस्त करेंगे गोदभराई का! जो वो कहेंगे, हमको करना होगा। मैंने तो उनको कभी अपने परिवार से अलग माना ही नहीं था - इसलिए अच्छा लगा कि वो परिवार के मुखिया की तरह व्यवहार कर रहे थे, और मैंने उनको सहर्ष वो भूमिका अंगीकार करने दी। कम से कम मेरे जीवन में कुछ अच्छी बातें हो रही थीं।
*
बहुत से परिवारों में गोदभराई को बहुत सीरियसली लिया जाता है, लेकिन हमारे यहाँ वैसा नहीं था। यह सभी कार्यक्रम मनोरंजन के साधन अधिक हैं, और रस्म-ओ-रिवाज़ के कम! कम से कम मेरा तो यही मानना है कि यह शादी-ब्याह, मुंडन, दाह-संस्कार इत्यादि सब सामाजिक मेलजोल के कार्यक्रम हैं! ये सब अपने हित-मित्रों से मिलने जुलने का बहाना है सब! प्रसन्नता तो मिलती है सभी से - दुःख बाँटने से घटता है, और ख़ुशी बाँटने से बढ़ती है! इसलिए इन सभी कार्यक्रमों के जरिए अपनी साख दिखाना छोड़ कर, अगर लोग केवल मनोरंजन पर ध्यान दें, तो सभी को बड़ा आनंद मिलेगा। सबसे अच्छी बात यह थी कि अब तो गाँव में सभी का हमारे प्रति रवैया भी बहुत सुधर गया था, तो आशा थी कि आनंद आएगा!
एक बड़ी दिक्कत थी गर्मी के मौसम की! इस मौसम में इतना लम्बा सफ़र करने की इच्छा तो नहीं थी, लेकिन क्या करें? जुलाई अगस्त में ज़ोर की बारिश होने लगेगी, तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। यह सब सोच कर हमने जून के अंत में ही माँ की गोदभराई की रस्म करने का तय कर लिया। तब तक लगभग सात महीने की प्रेग्नेंसी हो जाती, जो अम्मा के हिसाब से ठीक (मतलब, सुरक्षित) थी। दिल्ली से गाँव का रास्ता अब पहले से बेहतर हो गया था। फिर भी दस घण्टे लगने ही थे। लेकिन, अगर ब्रेक ले ले कर चलें, तो तेरह चौदह घण्टे लग जाते। इतना समय तो लगना ही था - हमारे साथ छोटे छोटे बच्चे और दो कमज़ोर स्त्रियाँ थीं! अब इतनी देर तक गर्मी में छोटे बच्चों के साथ नहीं जाया जा सकता। इसलिए मैंने सोचा कि छः सात घंटे की दूरी पर, बीच में किसी जगह होटल में रुक कर रात में विश्राम कर लेंगे, और फिर अगले दिन की यात्रा करेंगे। बच्चों की छुट्टियाँ शुरू हो गई थीं, इसलिए इस कार्यक्रम में कोई दिक्कत नहीं थी।
*
दिल्ली से गाँव तक की यात्रा बड़े ही आराम से हो गई! माँ के लिए गाँव आना एक अद्भुत सी, मिक्स्ड फ़ीलिंग्स लिए हुए था। बहुत लम्बे समय के बाद वो वापस यहाँ आई थीं। अपने विवाह के समय हुए अपने बहिष्कार के कारण वो बहुत आहत हुई थीं। एक समय वो मुझसे बोलीं भी थीं कि मैं अब गाँव से नाता न रखूँ, और वहाँ की संपत्ति बेच दूँ। वो तो मैं ही था जो अपने स्तर पर प्रयास करता रहा, और लोगों के रवैये को बदलता रहा। हाँलाकि वो भी यह बात समझ रही थीं, लेकिन उनको नहीं मालूम था कि ‘अब’ गाँव के लोग उनके साथ कैसे पेश आयेंगे! आज से पहले उनकी पहचान डैड की पत्नी की थी - उस पहचान में वो गाँव की बहू थीं। लेकिन अब पापा की पत्नी के रूप में वो क्या हैं गाँव की? बहू? बेटी? या कुछ नहीं? फिर भी, उनका मेरे द्वारा गाँव से एक नाता तो था ही। तो वही काफी है!
हम दोपहर में अपने घर के सामने पहुँचे! वैसे तो गाँव के बच्चे मुख्य सड़क से ही हमारी गाड़ी के साथ साथ भागते भागते घर तक चले आए, लेकिन घर के सामने गाँव के कुछ गणमान्य लोगों को देख कर माँ की आँखें भर आईं। वो सभी सुखद यादें वापस लौट आईं जब वो पहली बार बहू बन कर इस घर आई थीं! उस दिन भी ऐसे ही सभी उनके स्वागत में... उनको अपना आशीर्वाद देने के लिए खड़े थे। सभी प्यार के भूखे होते हैं। सबसे अच्छी बात उनको यह लगी कि चाचा जी और चाची जी उन सब के सामने खड़े थे। उन दोनों के चेहरों पर गर्व और प्रसन्नता के भाव स्पष्ट थे।
माँ चाचा जी के पैर छूने को हुईं, लेकिन उन्होंने उनको थोड़ा भी झुकने से पहले रोक लिया - शायद इसलिए क्योंकि माँ इस समय गर्भ के सातवें महीने में थीं - और उनकी हथेलियों को अपने हाथों में ले कर अपनी आँखों से लगा लिया। चाचा जी की आँखें भर आई थीं, और उनके आँसू माँ की हथेलियों को भिगो रहे थे। माँ रुक न सकीं, और किसी बच्ची की ही तरह उनके आलिंगन में समां गईं और फूट फूट कर रोने लगीं! गाँव देहात में बहुएँ अपने जेठ के गले नहीं लगतीं; लेकिन माँ के लिए वो दोनों माता-पिता जैसे ही थे - आज से नहीं, हमेशा से!
“बस बस... अब न रोवौ बिटिया...” चाचा जी ने बड़े ही भावुक स्नेह से कहा, “हम बहुत बड़ा अपराध कै दिहन... जब तुंहका हमार मदद चाहत रही, हमार सहारा चाहत रहा, तब हम तुंहका दुत्कार दिहन! ... हमका माफ कै दिहौ बिटिया! ... हम सबहि तोहार दोसी होई!”
“नहीं भैया... गलती मेरी थी!” माँ ने भरे गले से कहा - रोने से उनकी हिचकियाँ बंध गई थीं, “आप और भाभी बड़े हैं हमारे! हम आपके बच्चे हैं! ... आपकी आज्ञा के बिना हमको इतना बड़ा कदम नहीं उठाना चाहिए था!”
“नाही बिटिया... अपने सुख के ताईं तुंहका केहू कै आज्ञा न चाही! तू सबहि सुखी हौ... वही मा हम सबहि कै सुख है!”
चाचा जी के मुँह से यह बात सुन कर अच्छा लगा। लगने लगा कि अब सब ठीक हो जाएगा। किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार उसका बल होता है। परिवार में प्रेम हो, कौशल हो, मति-भ्रम न हो, एक दूसरे के हित की कामना हो, तो व्यक्ति की प्रगति और सफ़लता निश्चित है। मेरा तो सभी के साथ बढ़िया चल ही रहा था, लेकिन माँ पापा के लिए ऐसी बातें सुन कर लगा कि अब वो सभी भी चैन की साँस ले सकेंगे।
फिर पापा की तरफ देखते हुए चाचा जी ने बड़े प्रेम से कहा, “आवो पाहुन! आवो!”
पापा ने बड़े आदरपूर्वक चाचा जी के चरण स्पर्श किये।
“सुखी रहौ भईया... खूब तरक्की करौ...” चाचा जी ने उनको आशीर्वाद दिया, फिर बात करने की गरज से बोले, “नान्ह कै रह्यो जब तुंहका पहली बेर देखे रहैन, पाहुन! अब देखो... कितने बड़े होय गयौ! ... दू बच्चन कै बाप होय गयौ!”
“काहे? बाप न बनिहैं?” चाची जी ने भावनात्मक रूप से भारी हो चले माहौल को अपने मज़ाक से हल्का करने की कोशिश करी, “इतरी नीक, गुड़िया जस सुन्दर मेहरारू पाइन हैं...”
चाची जी की बात सुन कर माँ के गाल शर्म से लाल हो गए। अड़तालीस की उम्र होने पर भी अपने लिए ‘गुड़िया’ जैसे शब्द सुन कर कोई भी स्त्री शरमा जाएगी! लेकिन चाची जी सही थीं - माँ अभी भी बहुत सुन्दर लगती थीं। गर्भ के कारण उनके चेहरे पर एक अलग ही आभा, एक अलग ही सौंदर्य आ गया था!
उधर पापा भी चाची जी की बात पर शर्मा गए, और शर्माते हुए ही उन्होंने चाची जी के पाँव छुए।
“खूब बड़े होय जाओ मोर भैया! ... अइसे ही हँसत खेलत रहौ दूनौ परानी!” उन्होंने पापा को आशीर्वाद देते हुए कहा, फिर माँ की तरफ देख कर बोलीं, “ई हमार देऊरानी बन कै आई रहिन... लेकिन बिटिया जस मन लागा बाय इनसे! ... तू दूनौ का अइसे फलत फूलत देख कै आनंद आई गवा! ... खूब खुस रहौ दूनौ जने!”
उनका मिलना जुलना और हाल चाल सब हो गया, तो अम्मा ने भी चाचा जी और चाची जी के चरण छूने चाहे। इस पर चाचा जी हाथ जोड़ कर बोले,
“ई अपराध न करावौ हमसे बहिनी... हमार बिटिया तोहार पतोहू भई... अउर तू हमार समधिन! हमार गोड़ न छुवौ! बस यही बिनती करित हय कि तू सबहिं खुसी बनाये रख्यो!”
लेकिन अम्मा ने उनकी न सुनी, और उनके चरण स्पर्श कर के बोलीं, “आप हमसे बड़े हैं, भैया! आपका आशीर्वाद तो छोड़ नहीं सकती... आप चाहे जो कह लें! ... और आपकी बिटिया है ही इतनी अच्छी कि घर स्वर्ग बन गया है मेरा! ... उसके रूप में इतना सुन्दर सा आशीर्वाद आपने मुझको दिया है...”
“यही हुआ चाहै का रहा बहिनी,” चाचा जी ने अम्मा की बात के बीच में कहा, “लेकिन हमहि मूरख रह्यन! तोहार पूर संसार देख कै आनंद आई गवा सच्ची!” फिर उनको आशीर्वाद देते हुए बोले, “ईस्वर से यही चाहित है कि तू सबही सुखी रहौ! आनंद से रहौ... खुस रहौ... खूब तरक्की करौ!”
करीब दस साल पहले जिन परिस्थितियों में उन सभी की मुलाकात हुई थी, वो सभी परिस्थितियाँ बदल गई थीं अब! उन सभी ने अम्मा को हमारी परिचारिका को देखा होगा, लेकिन अब वो उनकी समधिन थीं। लेकिन अगर हमको स्वीकार करना था, तो हमसे जुड़े हर व्यक्ति को बिना किसी शर्त के स्वीकार करना था। अच्छी बात यह थी कि जात बिरादरी की बात एक बार भी नहीं उठी, अन्यथा यह सौहार्द न बन पाता। शायद गाँव के लोगों ने अंदाजा लगा लिया हो कि अगर पापा इतने पढ़े लिखे, और इतना कमाऊ हैं, तो अवश्य ही उच्च जातीय होंगे! बढ़िया है - मैं ऐसा कोई विषय नहीं उठने देना चाहता था, जिससे हमारी खुशियों के माहौल में थोड़ी सी भी खलल पड़े। बहुत कठिन श्रम से खुशियाँ वापस आई थीं, उनको यूँ ही जाने नहीं दे सकता था।
इसी तरह हमारी सभी से मुलाकात हुई। अम्मा, माँ, और सभी बच्चों को सभी ने हाथों-हाथ ले लिया और हमारे ‘नए’ घर के अंदर ले गए।
नया घर सभी के लिए उत्सुकता का विषय था। मेरे अतिरिक्त परिवार के किसी भी अन्य सदस्य ने उसका नया रूप नहीं देखा था। इसलिए नए घर को सभी बड़ी उत्सुकतावश देख रहे थे। हर कमरे में हवा और प्रकाश का आवागमन इतना सुचारू था कि सभी दंग रह गए! चाहे बिजली रहे, या न रहे, उससे कोई मतलब नहीं था। आराम भरपूर था। सुन्दर, और एक तरह से विलासमय घर!
‘कितना सुन्दर घर!’ यह बात सभी के मुँह पर थी। सुन कर अच्छा लगा मुझको। अपने प्रयासों पर जब सकारात्मक फीडबैक मिलता है, तो सभी को अच्छा लगता है!
खैर, मैंने सभी को आराम करने और घर में सेटल होने के लिए छोड़ दिया, और मुझसे मिलने की आशा लगाए लोगों से मिलने बाहर आ गया। एक समय था जब डैड से मिलने वालों का ताँता लगा रहता था गाँव में... और आज... आज मुझसे मिलने वालों का ताँता लगा हुआ था। समय समय की बात है बस! मुझे यह देख कर गर्व हुआ कि डैड ने जो परम्परा चलाई थी, मैं उसको आगे बढ़ा रहा था... उसको बढ़ाने में सक्षम था! बेहद प्रसन्नता की बात यह थी कि अधिकतर मिलने आए लोग मेरे और डैड के हितैषी ही थे - वो मेरा हालचाल पूछने आए हुए थे। बहुत कम लोग ही थे, जो अपनी निजी आवश्यकतावश वहाँ उपस्थित थे। खैर, आज का दिन तो इन्ही सामाजिक व्यस्तताओं में बीत गया।
रात्रिभोज हमेशा की ही तरह पड़ोसी चाचा जी के यहाँ आयोजित था। बहुत दिनों बाद ऐसा शुद्ध देसी भोजन किया मैंने। साधारण भोजन, लेकिन मिट्टी की शुद्ध मिठास लिए हुए! ऊपर से डाले गए देसी घी ने तो व्यंजन के स्वाद में जैसे चार चाँद लगा दिए हों! बातचीत के दौरान मेरी उपलब्धियों की बात उठी - सभी एक स्वर हो कर मेरी उपलब्धियों की बढ़ाई करने लगे... कि अगर आज भैया (डैड) जीवित होते, तो मुझको देख कर उनको अपार गर्व होता। मेरा हमेशा से ही मानना था कि जो मैंने किया, या जो भी मैंने पाया, वो सब बिना सभी स्वजनों के योगदान के संभव नहीं था। यही बात मैंने कही भी,
“आप लोग सभी न जाने क्यों मेरी इतनी बढ़ाई कर रहे हैं... मैंने जो भी कुछ किया... जो भी कुछ कर पाया... उस हर बात के पीछे आप सभी का आशीर्वाद है!”
इस बात पर छोटी भाभी बोलीं, “भईया... यह तो आपकी बड़ाई है कि आप ऐसे बोल रहे हैं... सच कहूँ? आपका क़द तो इतना ऊँचा हो गया है कि आपको आशीर्वाद देने के लिए हमारे हाथ... आपके शीश तक अब नहीं पहुँच सकते।”
“नहीं भाभी! ऐसे न कहिए! भला अपने बड़ों के सामने किसी का क़द ऊँचा हो सकता है?”
“हो सकता है भईया...” कह कर उन्होंने मेरी बलैयाँ अपने सर ले कर अपनी उंगलियाँ चटका दीं।
सच कहूँ, मेरा मन भर आया इतना प्यार देख कर!
वो दृश्य याद हो आया जब छोटी भाभी बदहवास सी भागी भागी आ रही थीं, चाची जी का संदेसा देने मेरे पीछे! माँ के पुनर्विवाह के कारण सभी का दुर्व्यवहार पा कर मेरा मन खट्टा हो गया था! लेकिन उस समय चाची जी ने, और छोटी भाभी ने अपना समर्थन मुझको और माँ को दिया था! सब याद है!
“भाभी...” मैंने ‘न’ में सर हिलाते हुए, और भरे हुए गले से कहा, “अब और इमोशनल मत करिए! आप लोगों के सामने मैं हमेशा छोटा ही रहूँगा! बस, अपना प्यार, अपना आशीर्वाद बनाए रखिए! उसकी की भूख है... उसी की चाहत!”
*
इतना तो पता था कि आज हमको घेर के बैठेंगे सभी - इतने समय बाद जो मिले हैं! भोजन के बाद सभी हमारे घर आए, तो माँ और अम्मा ने सभी के लिए उपहार निकाल कर दिए। चाचा जी, चाची जी, उनके सभी पुत्रों और पुत्रियों, और दोनों भाभियों और उनकी संतानों के लिए! इस समय उनका परिवार पंद्रह लोगों का था अगर दीदी को न गिना जाए! दोनों भाभियाँ अब तीन तीन बच्चों की माँ थीं। चाची जी को एक और संतान हुई थी - एक बेटा, जो उन्होंने माँ की ही उम्र में आ कर जना था। लिहाज़ा माँ के साथ शेयर करने के लिए उनके पास बहुत से किस्से थे और नसीहतें थीं। ऐसा नहीं था कि माँ को उन नसीहतों की कोई आवश्यकता थी, लेकिन इन बातों को बड़ों का आशीर्वाद समझ कर ग्रहण कर लेना चाहिए।
*
मैं छत के कमरे में बैठा हुआ, रात को सोने की तैयारी कर रहा था।
“भैया...” छोटी भाभी की आवाज़ आई।
“जी भाभी?” मैंने कहा, “आइए न अंदर!”
“क्या बात है भाभी?” जब वो अंदर आ गईं, तो मैंने उनसे पूछा।
“कुछ नहीं भैया। इतने दिनों बाद आपको देखा... अलग से बात करने की इच्छा हुई। इसलिए चली आई!”
“अच्छा किया भाभी!”
“माँ जी की शादी को... पाँच साल हो गए हैं न!” उन्होंने पूछा।
“हाँ भाभी!”
“कितनी सुन्दर लगती हैं वो अभी भी! सच में, कोई परिवर्तन ही नहीं आया है उनमें! नज़र न लग जाए!”
“अब आपकी नज़र माँ को लगेगी?” मैंने हँसते हुए कहा।
“हा हा हा! लगनी तो नहीं चाहिए... लेकिन अम्मा जी सही कह रही थीं! गुड़िया जैसी ही तो लगती हैं अभी भी!”
“हाँ न भाभी! माँ बहुत सुन्दर लगती हैं! ... पापा के भाग्य खुल गए हैं!”
भाभी मुस्कुराईं, “बहुत अच्छा लगा देख कर कि दोनों इतने खुश हैं!”
“हाँ भाभी... माँ की शादी के बाद हमको बहुत सारी खुशियाँ मिलीं... बहुत तरक्की हुई!”
“हाँ भैया... तरक्की तो बहुत हुई! इतने दिनों में ही सब काया-पलट कर दिया आपने... गाँव देश का हुलिया ही बदल दिया!”
“मैंने कुछ नहीं किया भाभी! सब आप लोगों का ही आशीर्वाद है!”
भाभी ने कुछ कहा नहीं, बस एक अलग बात बोलीं, “भैया, आप माँ जी के हस्बैंड को ‘पापा’ कह कर बुलाते हैं...”
यह कोई प्रश्न नहीं था - या शायद था। इस पर मुझे भाभी की ही कही हुई पुरानी बात याद आ गई!
मैंने मुस्कुराते हुए उन्ही की बात दोहरा दी, “क्यों न कहूँ भाभी? जब रिश्ते बनाते हैं, तो निभाने भी तो चाहिए न?”
वो मुस्कुराईं, “मेरी ही बात मुझ पर ही चिपका दी आपने! ... लेकिन ठीक भी तो है!”
फिर थोड़ी देर सोच कर - एक भूमिका सी बनाते हुए, “भैया, आप भी शादी कर लीजिए न?”
“हा हा! अरे भाभी! अब कौन मुझसे शादी करेगी? दो बार कर चुका... एक बेटी का बाप हूँ! ... हमारा परिवार भी आपने देखा ही है... जानती भी हैं! इसमें कोई साधारण लड़की कैसे आ सकती है?”
“नहीं आ सकती भैया... आपकी बात सही है!” उन्होंने स्वीकारा, “लेकिन फिर भी... इतनी बड़ी उम्र है! कैसे कटेगी अकेली? अभी आपकी उम्र ही क्या हुई? आपसे पाँच साल बड़ी हैं हम! ... ऐसे थोड़े ही रहा जाता है अकेले!”
“भाभी, मैं आपकी बात मानता हूँ... लेकिन सच में, अब मैं थक गया हूँ! आपकी नज़र में कोई लड़की हो तो बताइए! ... मैं खुद से नहीं ढूंढने वाला!”
“अगर मैं ढूंढ दूँ, तो?”
“तो भी... बिना उससे बात किए, बिना उसको अपनी सारी सच्चाई बताए... मैं शादी की सोच भी नहीं सकूँगा!”
“अच्छी बात है भैया! मैं कोशिश करती हूँ! ... क्या पता! भगवान ने आपके लिए कोई सुन्दर सी लड़की बनाई हो!”
“हा हा!”
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गोद भराई का मुहूर्त आज से दो दिनों बाद का था। मतलब कल पूरे दिन का आराम। अच्छा है, कम से कम सभी बच्चे इस गाँव से परिचित हो पाएँगे। इसी बहाने मुझको भी थोड़ा ब्रेक मिलेगा। लेकिन शायद मैंने बहुत जल्दी ही आराम की कल्पना कर ली थी। अगले दिन भी मुझसे सभी मिलने जुलने वालों का ताँता लगा रहा, जो शाम को ही जा कर कम हुआ। लेकिन मानसिक कष्ट और थकावट नहीं हुआ इस कारण, जो कि बहुत अच्छी बात थी। लोगों से मिल कर अच्छा ही लगा; मनोरंजन ही हुआ।
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खैर, समारोह अगले दिन अपने समय पर शुरू हो गया। सवेरे संछिप्त सी पूजा पाठ कर के एक लम्बे मनोरंजन का समारोह था। गाँव की लगभग सभी महिलाएँ और लड़कियाँ घर में एकत्र थीं। हम सभी मर्द लोग बाहर मौसम के आखिरी आमों का आनंद उठा रहे थे। घर से ढोलक और मंजीरे के बजने की आवाज़ें आ रही थीं, और पूरी मस्ती के साथ गाने की भी। आँगन से लगे खुले से चौक में माँ के बैठने के लिए एक आराम कुर्सी लगा दी गई थी। बगल में पानी से भरे लोटे में आम की पत्तियाँ लगा कर उसको कलश बनाकर उस पर दीपक जला दिया गया था। आने वाली औरतें बारी-बारी से माँ की गोद भराई करतीं, उनको आशीशें देतीं और फिर स्थान देख कर बैठ जातीं। कुछ लोग छोटे बच्चों के लिए उपहार भी लाए हुए थीं। खैर, दोपहर में सभी को भोजन करा कर सभी से विदा लिया, और इस तरह से माँ की गोद भराई की रस्म पूरी हुई। देखिए न - यह सब एक बहाना है एक दूसरे से मिलने का! सामाजिक सरोकार नहीं, तो और क्या है?
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गोदभराई के कोई दो महीने बाद माँ को उनकी पहली बेटी, और आखिरी संतान हुई। असिस्टेड लेबर था - लेकिन सीज़ेरियन नहीं। इस बच्ची का नाम ‘अभया’ रखा हमने। अम्मा की बेटी गार्गी की ही तरह, अभया भी गोल मटोल और सुन्दर सी गुड़िया जैसी थी। इतने वर्षों बाद जा कर माँ की एक बेटी की भी माँ बनने की इच्छा पूरी हुई थी। अब संतानों को ले कर उनकी और कोई तमन्ना शेष नहीं रह गई थी! उनके लिए अगले बीस बाईस वर्षों तक करने के लिए एक बड़ा काम सामने था - अपने तीन नन्हे मुन्ने बच्चों के लालन पालन का!
एक बार मन में यह विचार अवश्य ही आया कि संभव है, जब अभया विवाह योग्य होगी, तब माँ की उम्र सत्तर - बहत्तर की होगी! विचार बड़ा सुन्दर था! अब मैं चाहता था कि माँ अपनी तीनों संतानों का विवाह और उनकी संताने देख सकें!
लेकिन उसमें अभी समय था! बहुत लम्बा समय!
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जैसा कि मैंने कहा जीवन कहाँ रुकती हैअचिन्त्य - Update #1
दुनिया भर के बारे में मैंने इस कहानी में लिखा है, लेकिन मेरे जीवन के दो बहुत ही अहम किरदारों के बारे में शायद ही विस्तार से कुछ बताया। वो दो किरदार हैं, लतिका और आभा! सबसे पहले बात करते हैं लतिका की। लतिका और माँ के बारे में आप अच्छी तरह जानते हैं - दोनों में जिस तरह की नज़दीकियाँ थीं, वो भी सभी को मालूम है। लेकिन उससे अलग भी लतिका का बड़ा सकारात्मक प्रभाव था मेरे जीवन में!
लतिका - जिसको हम प्यार से पुचुकी कहते हैं - जब हमारे घर पहली बार रहने आई, लगभग तभी से ही वो आभा - जिसको हम प्यार से मिष्टी कहते हैं - की गार्जियन बन गई। गार्जियन - बड़ी दीदी - दोस्त... लतिका, आभा की सब कुछ थी। लतिका आभा के लिए ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना चाहती थी, जिसकी नक़ल आभा कर सके... उससे कुछ सीख सके! बच्चों को बड़ा होते समय अपने हमउम्र बच्चों का साथ बड़ा लाभकारी होता है। अकेला बच्चा होता है, तो उसको सम्हालने में माँ बाप का पूरा समय निकल जाता है। लेकिन बड़ा भाई / बहन होने पर माँ बाप को थोड़ी सुविधा हो जाती है। आभा के लालन पालन और पोषण में लतिका का वही महत्त्व था। उसकी नक़ल कर कर के आभा के अंदर भी अच्छे गुण उत्पन्न होने लगे थे।
अपने हाई स्कूल के बोर्ड एक्साम्स में हमारे उम्मीदों के विपरीत लतिका अपने स्कूल के टॉप दस क्षात्रों में थी! तो इस बार, उसके इंटरमीडिएट के बोर्ड एक्साम्स में हमको उससे बहुत उम्मीदें हो गईं। बच्चे अक्सर उम्मीदों के बोझ तले दब कर अपने लिए कठिनाई बना लेते हैं। लेकिन लतिका ने हमारी सभी उम्मीदों पर खरा उतरते हुए एक बार फिर से अपने स्कूल के टॉप दस क्षात्रों में शिरक़त करी!
अद्भुत सी बात!
सच में - गर्व से सीना चौड़ा हो गया। समझ में आ गया कि ये लड़की बहुत कुछ हासिल करेगी आगे चल कर। उन महंत जी की भविष्यवाणी सब सच साबित होती जा रही थीं! अद्भुत!
लेकिन हमको बड़ा आश्चर्य हुआ जब लतिका ने हमसे कहा कि वो खेल-कूद में अधिक हिस्सा लेना चाहती है, तो वो अधिक डिमांडिंग पढ़ाई नहीं कर सकेगी! पाठकों को ज्ञात होगा कि लतिका खेल कूद में - ख़ास तौर पर तेज दौड़ में - बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती थी। और अब तक वो अनगिनत ट्रॉफियां, मेडल्स, और पुरस्कार जीत चुकी थी! उसकी दृष्टि नेशनल गेम्स पर थी, जिसका होने का आसार नहीं दिखाई दे रहा था फिलहाल! लेकिन, वो अभी नॅशनल गेम्स जीतने लायक हुई भी नहीं थी। साथ दौड़ते समय मैं अक्सर उसको बेहद छोटे अंतर से ही सही, हरा देता था। इसलिए अच्छा था कि वो रनिंग पर फोकस करना चाहती थी। वैसे भी बच्चों पर किसी बात का दबाव नहीं था। पैसों की कोई कमी नहीं थी, इसलिए उनका जो जी चाहे, वो सपना साकार करने का सोच सकते थे!
दिल्ली यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध, लड़कियों के एक अग्रणी डिग्री में लतिका ने बीए इकोनॉमिक्स में दाखिला लिया। पढ़ाई कोई सरल नहीं थी, लेकिन अन्य विकल्पों के मुकाबले, कम से कम वो खेल कूद पर अपना ध्यान अधिक लगा सकती थी। इकोनॉमिक्स उसका पसंदीदा विषय भी था। उसमें एक और परिवर्तन आया - वो बहुत सौम्य हो गई थी। रमणी बन गई थी हमारी लतिका! शोभन रमणी! ग्रेसफुल रमणी! जयंती दी का कहा सही साबित हो रहा था - जवान हो कर वाक़ई कहर ढा रही थी लतिका अपनी खूबसूरती से! मुस्कान ऐसी कि फूलों में भी रौनक आ जाए! बोली इतनी मीठी कि कानों को सुकून आ जाए! अभी वो केवल सोलह की ही थी, लेकिन सच में - बेहद सुन्दर हो गई थी! अगर धूप में इतना भाग दौड़ न करे, तो आसानी से वो मॉडलिंग इत्यादि कर सकती थी; अभिनेत्री बन सकती थी!
लेकिन, जवानी आने के साथ साथ बचपना चला जाता है! लतिका का भी बचपना चला गया! अक्सर सोचता था कि काश वो इतनी जल्दी बड़ी न होती। लेकिन समय पर किसका वश चलता है? जवानी की सौम्यता ने बचपन की अल्हड़ता को दरकिनार कर दिया। खेलने कूदने के समय को छोड़ कर, अब वो शलवार कुर्ता ही पहन कर रहती। ऐसा नहीं है कि मैं उसको नग्न देखना चाहता था - बस, कभी कभी उसका बचपना मिस करता था। लेकिन सच में - अपने बच्चों को जवान होते हुए देखना बड़ा सुखद होता है! वो सुख मुझे फिलहाल लतिका से मिल रहा था!
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दूसरी है मेरी आभा! आभा मेरे प्यार - मेरी देवयानी - की निशानी है!
उसको देखता हूँ तो लगता है कि उसको देवयानी और मेरे बेस्ट फ़ीचर्स मिले हैं। गज़ब की सुन्दर, बुद्धिमान, स्वस्थ बच्ची है मेरी! उसको देख कर वाक़ई बहुत गर्व होता है! तीन साल की उम्र में अपनी माँ को खो देना - कितना कठिन है बच्चों के लिए! कितने ही बच्चों को न जाने कैसे कैसे मानसिक विकार आ जाते हैं अपने माँ या पिता को खो देने पर! लेकिन आभा वैसी नहीं है। उसमें लेशमात्र भी कड़वाहट नहीं! हमेशा मुस्कुराती रहती है। उसकी मुस्कान देख कर दिन भर की थकावट दूर हो जाती है। अपनी दीदी (लतिका) की ही देखा देखी वो भी व्यायाम, योगाभ्यास इत्यादि में बहुत रूचि लेती है। एक्साम्स में वो क्लास में हमेशा फर्स्ट नहीं आती, लेकिन टॉप के पाँच बच्चों में हमेशा ही रहती! पढ़ाई में अव्वल रहने के साथ साथ वो विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं में भी भाग लेती रहती है, और अब तक न जाने कितने पुरस्कार जीत चुकी है। क्विज़िंग के कई पुरस्कार भी जीत चुकी है! आज कल के एक बड़े राजनेता हैं, लेकिन पहले वो क्विज़-मास्टर हुआ करते थे... उनके भी प्रोग्राम्स में वो दो बार जीत चुकी है। क्रिएटिव कुकिंग भी उसका बड़ा शौक है - हर वीकेंड पर हमको नया एक्सपेरिमेंटल डिश खाने को मिलता है! छोटी बच्ची है, लेकिन हम सबको ऐसे रखती है, जैसे वो ही सबसे बड़ी हो! हमको उस पर गर्व केवल इन्ही बातों से नहीं होता। बहुत सुशील, साफ़ सफ़ाई से रहने वाली बच्ची है - ऐसे गुण जो उसकी उम्र की लड़कियों / लड़कों में आज कल देखने को मिलते नहीं। लतिका भी वैसी ही है।
कहानी को मैं इतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ाना चाहता - लेकिन इन दोनों को देख कर लगता है कि हम सब कितने भाग्यशाली हैं। सोचता हूँ तो पाता हूँ कि लड़के तो नाहक ही बदनाम हैं! लड़कियाँ उनसे कोई कम नहीं हैं! आज कल की, बीस बाइस साल की लड़कियों में मुझे किसी बात का कोई शऊर नहीं दिखता। न बात चीत करने का ढंग - केवल बनावटी अंदाज़ में बातें! न अपने शरीर पर कोई नियंत्रण! कचर कचर कर के खाती रहती हैं। और तो और, घर के कामों में भी ठन ठन गोपाल! कुछ नहीं आता। कोई गुण नहीं। पढ़ाई लिखाई से भी नमस्ते! समझ नहीं आता, कि जीवित रह कर वो किस पर एहसान कर रही हैं! वो कहावत है न, ‘थोथा चना, बाजे घना’ - बस, वो आज कल की लड़कियों पर चरितार्थ है।
यहाँ तक भी ठीक है। कई बार तो करेला नीम चढ़ा वाली कहावत सत्य हो जाती है! कुछ लड़कियाँ तो इतनी गन्दी रहती हैं, कि उनके कमरे देख लो, तो उल्टी आ जाए! बस, अपना चेहरा चमका कर रहना जानती हैं। लेकिन असल में होती हैं इतनी गन्दी, कि उनको छू कर अपना हाथ गन्दा हो जाए! उनको देख कर लगता है कि न जाने कैसे लड़के उनको छूना भी चाहते हैं!
लेकिन मैं कहानी से भटक गया! ऐसी लड़कियाँ इस कहानी का मुद्दा नहीं हैं।
आभा के दादा जी ने लाड़ कर कर के उसको बिगाड़ रखा है। एक बेटी का पिता बनने के बाद पापा और भी मृदुल हो गए। उसके पहले भी लतिका और आभा को उन्होंने बड़ा प्यार दिया है - यहाँ तक कि हम सब शिकायत करते कि वो बिगड़ जाएँगे (बच्चे बिगड़े नहीं, वो अलग बात है)! जब भी वो दिल्ली आते हैं, दोनों दादा पोती अपने आस पास की दीन दुनिया भूल जाते हैं। आभा के लिए मुंबई से गिफ्ट्स - जैसे कपड़े, गैजेट्स, किताबें - इत्यादि आने आवश्यक हैं! रात में उसके दादा जी उसको कहानी सुना कर सुलाते हैं, और सवेरे उसके लिए - केवल उसके लिए - नाश्ता बनाते हैं, और अपने हाथों से खिलाते हैं। लतिका हमेशा शिकायत (हंसी मज़ाक वाली) करती है कि पोती को देख कर अपनी बहन को भूल जाते हैं दादा!
मेरे ख़याल से बच्चों को प्यार करने का भी एक तरीका होता है - उनको उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराते हुए भी उन पर प्यार की असीम वर्षा करी जा सकती है। संभवतः मुझसे ले कर अब तक के सभी बच्चों को उसी तरीके से पाला गया है... पाला जा रहा है। प्रेम में बच्चों की जो भी जायज़ नजायज़ मांग है, वो सब पूरी करी गई है! सोचिए, क्या मेरी स्तनपान करने की कोई उम्र है अब? लेकिन अभी भी बदस्तूर जारी है! मेरा ही क्या, लतिका और आभा का भी! लेकिन इसके साथ ही साथ हम बच्चों ने भी अच्छा, आज्ञाकारी, और जिम्मेदार बनने का पूरा प्रयास किया है।
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अभया को हुए अब लगभग तीन साल हो रहे थे।
मेरा व्यवसाय इस समय बहुत तेजी से बढ़ रहा था! देश के साथ साथ विदेशों से भी ऑर्डर्स मिल रहे थे, लिहाज़ा अब मैं और भी व्यस्त रहने लगा। ऐसे में लतिका का हमारे साथ होना, समझिए दैवीय आशीर्वाद था मेरे लिए! मैं तो उसको घर की मालकिन जैसा ही मानता था। वो ही कामवालियों को निर्देश देती थी कि क्या करना है इत्यादि!
लतिका के एथलेटिक्स में बढ़िया प्रदर्शन को देख कर मैंने उसके लिए एक ट्रेनिंग कोच, और एक न्यूट्रिशन कोच नियुक्त कर दिया था। खेलों के प्रति उसका जुनून ही था कि वो सुबह चार - साढ़े चार बजे उठकर योग करती, और फिर समुचित व्यायाम करती। आभा भी उसकी ही देखा देखी सुबह जल्दी उठने लगी थी। और मैं भी! मैं और लतिका जिम में साथ में रेस लगाया करते! स्पीड और स्टैमिना में मैं उसको चुनौती देता रहता। शुरुआत में मैं जीत जाता था, लेकिन बाद में उसने मुझको हराना शुरू कर दिया! और अच्छे मार्जिन से! अच्छी बात यह भी थी कि लतिका के कॉलेज में भी उसको एथलेटिक क्षमताओं के लिए प्रोत्साहन मिला। वो शीघ्र ही अपने कॉलेज की सर्वश्रेष्ठ धाविका बन गई, और इंटर-कॉलेजिएट एथलेटिक्स प्रतियोगिता में वो अपने कॉलेज के लिए कई सारे मैडल्स जीत लाई!
लेकिन उसकी राह कठिन थी। फुल-टाइम स्प्रिंटर का पेशेवर (प्रोफेशनल) जीवनकाल बहुत कम होता है! यदि वो भाग्यशाली हुए, और उनके पास बहुत अच्छी टीम है, तो वे अपने परफॉरमेंस के चरम पर पहुंच भी जाते हैं, और लगभग 5-6 वर्षों तक अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन को बनाए रखने में सक्षम भी होते हैं। लेकिन चूँकि यह एक बहुत ही प्रतिस्पर्धी क्षेत्र है, इसलिए अधिकतर एथलीट्स निराश ही होते हैं। लेकिन लतिका इन सब बातों से व्याकुल या विचलित नहीं हुई, और वो केवल अपने रनिंग की परफॉरमेंस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखे रही। शीघ्र ही वो राज्य-स्तरीय टीम में चयनित होने लायक मानी जाने लगी। सुनने में आने लगा कि वो अगले साल के राष्ट्रीय खेलों में दिल्ली की टीम का हिस्सा हो सकती है। यह सुन कर हम सभी बड़े रोमांचित हुए!
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लतिका और आभा दोनों बहुत ही करीब थे एक दूसरे से... जैसे छीमी में दो दाने! लतिका पूरी तरह से आभा की गार्जियन थी। वो उसकी पढ़ाई, खाने-पीने, सोने, और सेहत इत्यादि का पूरा ध्यान रखती थी। देखकर आश्चर्य होता है कि एक युवा लड़की इतनी निःस्वार्थ भाव वाली कैसे हो सकती है! यह कहना कि हर पुरुष की सफलता के पीछे एक महिला का हाथ होता है, पूरी तरह सच है! मेरे पीछे तो कई महिलाओं का हाथ था।
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“दीदीईई... ओ मेरी स्वीटू दीदी... मैं आ गई,” आभा ने घर में प्रवेश करते ही गाते हुए घोषणा करी।
“आ रही हूँ बेटू...” लतिका अपने कमरे से बोली।
“दीदी… जल्दी से खाना दे दो... बहुत भूख लगी है!”
“खाना आ रहा है तुरंत... लेकिन पहले अपने कपड़े तो बदल लो... और अपने हाथ, पैर और मुँह धो लो।”
“अरे दीदी! मुझको इतनी भूख लगी है, और तुम्हें नहाने-धोने के थॉट्स आ रहे हैं!”
“हा हा! बेटू... मुझे पता है कि तुमको भूख लगी है! खाना भी तैयार है... लेकिन हम ये तो नहीं चाहते न कि तुम बीमार पड़ो! या फिर गन्दा बच्चा जैसी रहो! है न?”
“लेकिन दीदी… मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं!”
“मेरे पेट में तुम्हारे पेट के चूहों से भी बड़े चूहे दौड़ रहे हैं।” लतिका ने आभा की बात पर कहा।
तो ये थी आभा और लतिका की रोज़ की कहानी... रोज़ रोज़ यही संवाद होता दोनों के बीच! आभा स्कूल से वापस आती; बिना हाथ-मुंह धोए और बिना कपड़े बदले, लतिका से खाना मांगती; उधर लतिका उससे कपड़े बदलने और हाथ-मुंह-पैर धोने की ज़िद करती; और आभा यह सब करने से बचने के लिए दुनिया भर के बहाने करती।
आभा के स्कूल से वापस आने तक लतिका भी कभी खाना नहीं खाती थी। जब आभा के सारे बहाने ख़तम हो जाते, तो वो दोनों डाइनिंग टेबल पर बैठ जाते, जहाँ लतिका आभा को अपने हाथ से खाना खिलाती... नहीं तो आभा नहीं खाती। रोज़ रोज़ की बात!
खाना खाने के बाद, आभा लतिका के कमरे में आती और स्कूल में जो भी कुछ हुआ होता, वो सब कुछ उसको बताती! इस बीच, लतिका आभा की डायरी देखती, और उसका होमवर्क करवाती, और खेलने का समय निर्धारित करती!
लतिका एक एथलीट थी, इसलिए वो खुद आभा को फिजिकल एक्टिविटीज़ में बहुत कुछ सिखाती थी। कम से कम दो घंटे खेलते दोनों, फिर वापस आतीं! तब तक दोनों बहुत थक चुकी होतीं। लतिका ने आभा में जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत भी डाली। इसलिए, रात का खाना आमतौर पर उनके लिए जल्दी होता था। उनके चक्कर में मैं भी कोशिश कर के जल्दी ही घर आने लगा, कि तीनों साथ में खाना खाएँगे। और बहुत देर हुई तो साढ़े नौ बजे तक दोनों सो जातीं!
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करीब एक साल पहले, दोनों के इस रूटीन में एक नई गतिविधि जुड़ गई थी!
एक रात जब लतिका सोने से पहले अपने कपड़े बदल रही थी, तो उसी समय आभा ने भी उसके कमरे में प्रवेश किया। सोने के लिए लतिका हमेशा नाइट-शर्ट पहनती थी। लेकिन आज आभा थोड़ा जल्दी आ गई। आभा अपनी दीदी के स्तनों के सौम्य उभारों को देख कर बड़ी उत्सुक हुई। जैसा कि मैंने बताया था, लतिका का पहनावा अब शालीन हो गया था, इसलिए आभा ने उसके स्तनों को कोई तीन साल बाद देखा था।
“दीदी... योर दुद्धू आर सो क्यूट! म्ममुआहहह!” कह कर उसने हवा में ही पप्पी दी!
“यू थिंक सो?” लतिका ने आभा की ओर मुड़ते हुए कहा, लेकिन उसने अपने स्तनों को छुपाया नहीं।
आभा ने खुशी से ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“खूब शुंदोर!” आभा ने बनावटी बंगाली में कहा, “योर्स आर द बेस्ट! दोनों दादी माँ के ब्रेस्ट्स बड़े बड़े हैं... लेकिन आपके खूब सुन्दर हैं दीदी!”
अपनी बढ़ाई से कौन खुश नहीं होता? लिहाज़ा लतिका भी खुश हो कर मुस्कुराने लगी।
“आई थिंक दे आर स्माल... मेरे लिए सबसे सुन्दर ब्रेस्ट्स बोऊ दी के हैं! लेकिन... अगर मेरी मिष्टी बेटू बोल रही है कि ये सुन्दर हैं, तो सुन्दर ही होंगे!” उसने अपनी नाइट-शर्ट के बटन लगाते हुए कहा, “अच्छा चलो अब... देर हो रही है! सोई सोई करते हैं?”
आभा ने ‘हाँ’ में सर हिलाया और बिस्तर में घुसने लगी।
“दीदी,” आभा ने पूछा, “आपकी प्रीपेरशन कैसी चल रही है? नेशनल गेम्स की?”
“मेरे ख़याल से ठीक है बेटू... परफॉरमेंस अभी भी इम्प्रूव हो रही है! ... लेकिन मुझे अभी भी लगता नहीं कि इस बार नेशनल गेम्स होंगे भी! इतनी बार तो रद्द हो गए! ... अब तो हम सुन सुन कर बोर हो गए! ... गेम्स हो जाते तो इंचियोन [2014 एशियाड गेम्स] के लिए चांस बन जाता! बिना परफॉरमेंस के कैसे सिलेक्शन होगा, पता नहीं! हाँ, एकाध मेडल्स मिल जाते, तो कुछ ट्रेनिंग भी मिल जाती... डेल्ही गवर्नमेंट शायद कोई स्कॉलरशिप भी दे दे... या बाद में नौकरी भी!”
“क्या दीदी... क्या आपको अभी भी लगता है कि आपको नौकरी की ज़रूरत है?” आभा ने सर पर हथेली मारते हुए लतिका की बात का मज़ाक उड़ाया, “आप तो कऱोड़ोंपति - आई मीन, करोड़ोंपत्नी हो अभी से ही!”
“हा हा! करोड़ोंपत्नी की अम्मा... इधर तो आ!” कह कर लतिका ने आभा के गाल पर प्यार से चिकोटी काटी।
“सीरियसली दीदी... आप ये सब मत सोचो... बस, अपनी ट्रेनिंग पर ध्यान दो!”
“आह... सच में मिष्टी, कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मुझे ये खेल के अलावा कुछ और करना चाहिए था... लेकिन मैं दादा जितनी स्मार्ट नहीं हूँ, न!”
“स्मार्ट तो आप इस घर में सभी से अधिक हो! लेकिन बुद्धू भी! दादा और डैडी दोनों ही बहुत स्मार्ट हैं, लेकिन आप सबसे अधिक स्मार्ट हैं! दोनों दादियाँ बहुत इंटेलीजेंट हैं। लेकिन आप सबसे अधिक इंटेलीजेंट हैं! एंड ऑन टॉप ऑफ़ एवरीथिंग, आप सबसे क्यूट भी हो! मेरे लिए इतना ही काफी है। ... आई लव यू सो मच, दीदी! सच में!” आभा ने लतिका से चिपकते हुए उसके गाल पर एक मीठा सा चुम्बन दे दिया।
“एंड, आई लव यू टू!” लतिका ने कहा और आभा को कई बार चूम लिया, “खूब खूब!”
उसने कुछ देर चुप रह कर कुछ सोचा और फिर बोली, “मुझे आज भी वो दिन याद है जब अम्मा ने तुम्हें मेरे हवाले किया था, और मुझे तुम्हारी देखभाल करने के लिए कहा था...”
आभा उस दिन की याद दिलाने (हाँलाकि उसको उस दिन का कुछ याद नहीं) से खुश हो गई, और ख़ुशी से लतिका से और भी लिपट गई।
“और... आपने मेरी सबसे अधिक... सबसे अच्छी देखभाल करी है दीदी! ... यू आर स्टिल डूइंग इट!” आभा ने लतिका के होंठों को चूमते हुए कहा, “सच में दीदी! आई थिंक, यू हैव टेकेन केयर ऑफ़ मी मोर दैन हाऊ मम्मी वुड हैव डन!”
“ऐसे मत बोलो मेरी प्यारु! ... माँ से अधिक प्यार कोई नहीं कर सकता!”
“कर सकता है... आपने किया है! ... आप करती हो...” आभा ने ज़िद करते हुए कहा, “आपने डैडी में मेरे लिए कभी कोई वरी देखी है? मैंने तो नहीं देखी! यू नो व्हाई? बिकॉज़ ही नोज़ दैट आई ऍम इन वेरी गुड एंड कैपेबल हैंड्स!”
इस बात पर लतिका के होंठों पर एक चमकदार मुस्कान आ गई।
“और दीदी... आई थिंक यू आर वे मोर ब्यूटीफुल दैन मम्मी!”
“हा हा हा!”
“मम्मी की याद ही नहीं आती मुझको दीदी... पता है क्यों? ... क्योंकि आप मेरी मम्मी हो! आपसे मम्मी वाला ही प्यार मिलता है मुझको...”
“ओह बेटू! ... तुम बहुत स्वीट हो! इसीलिए तो हम तुमको मिष्टी बुलाते हैं!” लतिका ने बड़े लाड़ से कहा, और आभा को कई बार चूमा, “... लेकिन मैं... तुम्हारी मम्मी नहीं, दादी माँ हूँ!”
“हाआआ...” आभा ने बनावटी आश्चर्य दिखाते हुए कहा, “बिना बेबीज़ के दादी! हा हा!”
“हा हा हा!” लतिका ने हँसते हुए कहा, “रिश्ते में मैं तुम्हारे डैडी की मम्मी... आई मीन, बुआ ही तो हूँ!”
“धत्त दीदी... ये बाई प्रॉक्सी वाले रिलेशंस में मज़ा नहीं आता!” आभा ने लतिका से और भी लिपटते हुए कहा - अब उसके पैर भी लतिका के पैरों से लिपट गए थे, “एंड इन एनी केस, यू आर टू यंग टू बी डैडीज़ मम्मी!”
“बट ओल्ड एनफ टू बी योर मम्मी?”
“हाँ,” आभा लतिका की नाईट शर्ट के बटन से खेलते हुए बोली, “यू आर माय मम्मी... आप मानो, या न मानो!”
“हा हा हा! ओह बेटू, तुम सबसे स्वीट हो!” लतिका ने आभा का माथा चूमते हुए कहा, “ओन्ली अ वेरी लकी वुमन विल गेट यू ऐस हर डॉटर!”
“एंड ओन्ली अ वेरी लकी गर्ल विल गेट टू बी योर डॉटर!” आभा ने अब तक लतिका की शर्ट के ऊपरी तीन बटन खोल दिए थे, “व्हिच, आई ऍम! आई ऍम योर डॉटर!”
“यस, यू आर,” लतिका ने बड़ी कोमलता से आभा के माथे से बालों की लटें हटाते हुए कहा, “एंड आई ऍम लकी, माय बेटू! इतना प्यार... इतना सब कुछ... यह सब मिलने को लोग तरस जाते हैं! मुझको तो हमेशा से यह सब मिला है!”
तब तक आभा ने लतिका की शर्ट का आगे के पट खोल कर, उसके उन्नत स्तनों को एक बार फिर से अनावृत कर दिया था। लतिका ने देखा कि आभा बड़ी आशा से उसके स्तनों को देख रही थी। उसने अपना एक हाथ बड़ी कोमलता से उसके एक स्तन के उभार पर रखा हुआ था। वो शायद कुछ सुन नहीं रही थी - बस देखे डाल रही थी, मंत्रमुग्ध सी!
“क्या हो गया मेरी बेटू?”
अपने प्रश्न के उत्तर में लतिका ने देखा कि उसका एक चूचक, आभा के खुले हुए मुख में लुप्त हो गया।
“आह...” जैसे ही आभा ने उसके चूचक को चूसा, लतिका के गले से एक दबी हुई आह निकल गई।
एक अद्भुत सी तरंग उसके चूचक से उठी, और उसके पूरे शरीर में फ़ैल गई। यह एक अपरिचित सी अनुभूति थी - इसलिए शुरू शुरू में लतिका को समझ में नहीं आया कि इस छुवन के साथ कौन सा भाव जोड़ा जाए! आभा का चूषण जारी रहा। कुछ पलों के बाद लतिका को लगा कि जैसे उसके मन में आभा के लिए जो भी प्रेम था, वो इस समय उसके चूचकों में उतर आया हो। उसके मन में एक अबूझ सी इच्छा, ‘काश, इनमें दूध उतर आता’, उत्पन्न हो आई। आभा के लिए अपने अनाम प्रेम को एक नाम मिलने से उसको वैसे भी एक अद्भुत शांति सी मिल रही थी! एक अलग सा अनुभव हो रहा था! अब उसको समझ में आ रहा था कि उसकी बोऊ दी को कैसा लगता रहा होगा जब वो उनके सीने से लग कर उनका स्तनपान करती थी। इस बोध पर वो मुस्कुराई। आभा अभी आँखें बंद किए स्तनपान का आनंद ले रही थी।
“क्या कर रही हो बेटू?” लतिका ने शुरुवाती झटके से उबरते हुए, और लगभग मातृत्व वाली शांति भाव से पूछा।
“अपनी मम्मी का दूधू पी रही हूँ!”
लतिका ने कुछ पल इस बारे में सोचा, ‘मेरी छुटकू कितनी क्यूरियस है!’
लतिका को यह बात बहुत अच्छी लगी कि आभा उसके साथ इतना सहज महसूस कर पा रही थी कि वो उसके साथ इतना व्यक्तिगत, इतना अंतरंग कार्य कर रही थी! वो भी तो आभा को अपने से अलग कभी नहीं सोचती थी। और क्या ही नुकसान हो जाएगा अगर आभा उसके ब्रेस्ट्स को पिए! आभा उसकी गुड़िया थी... उसकी छोटी बहन... और वो अक्सर उसको अपने ही बच्चे जैसा मानती थी। उसने फैसला किया कि अगर आभा उसको अपनी माँ जैसा मानती है... उसके साथ माँ-बेटी वाला बॉन्डिंग महसूस कर पाती है, तो न तो उसको, और न ही किसी और को इस बात से कोई दिक्कत होनी चाहिए! वो खुद अपनी बोऊ दी का स्तनपान करती है! तो इसमें क्या प्रॉब्लम है?
“आपको बुरा तो नहीं लगा न माँ?” आभा ने भोलेपन से पूछा।
“बिलकुल भी नहीं मेरी जान!” आभा मुँह से अपने लिए ‘माँ’ शब्द सुन कर लतिका का दिल भर आया, “तुम नहीं, तो और कौन पियेगा इनको? एंड ऐस योर मदर, आई मस्ट फीड यू!” उसने कहा और आभा को अपने स्तन में भींचते हुए बोली, “माय बेबी, माय लव... सकल योर मम्मीज़ ब्रेअस्ट्स!”
आभा ने पूरी तन्मयता से चूसना जारी रखा। लतिका को अपने स्तनों में गुदगुदी हो रही थी, लेकिन साथ में वो समझ रही थी कि आज एक बेहद पर्सनल सा बांड बन गया था दोनों के बीच! कुछ ऐसा था, जो भावनात्मक रूप से बहुत ही कोमल था, जो उसके दिल में उमड़ रहा था! अगर ये आभा के लिए उसकी ममता नहीं, तो और क्या हो सकती है? अब लतिका को समझ आ रहा था कि महिलाएं अपने बच्चों को स्तनपान क्यों कराना चाहती हैं। यह तो स्वर्गिक आनंद है!
कुछ देर बाद लतिका ने पूछा, “टेस्ट अच्छा है बेटू?”
“साल्टी...” आभा ने थोड़ा निराश होते हुए, संछिप्त से शब्द में कहा।
“आआआ... मेरा बच्चा! अभी तो स्किन का ही टेस्ट आ रहा होगा! ... इनमें अभी दूध नहीं आता है न!”
“कोई बात नहीं, माँ!” आभा ने अपने चुलबुले अंदाज में ही लतिका को ‘माँ’ कह कर पुकारा - लेकिन उस एक शब्द की सच्चाई लतिका को साफ़ साफ़ सुनाई दी!
आभा बोलती रही, “आपके निप्पल की फीलिंग बहुत अच्छी है... आई डोंट नीड योर मिल्क... बट माँ, आई डेफ़िनिटेली नीड योर लव!”
“ओह मेरा बच्चा! मेरा बच्चा!” लतिका ममता के मारे आभा को अपने में समेटते हुए बोली, “यू हैव माय लव... एंड यू विल हैव माय मिल्क ऐस वेल!”
“कैसे माँ?”
“जब मेरी शादी होगी, तब मेरे भी तुम्हारे जैसे ही प्यारे से बच्चे होंगे! ... और इन ब्रेस्ट्स में बनेगा ढेर सारा दुद्धू!”
“ओह... यस्स!” आभा बड़े उत्साह से लगभग लतिका पर चढ़ते हुए बोली, “यू विल बी ऐन अमेजिंग मदर, माँ!” और लतिका के ऊपर, उसके पेट के ऊपर चढ़ कर, अपनी टाँगों को उसके शरीर के इधर उधर रख कर, उसके दूसरे स्तन को चूसने लगी।
कुछ देर बाद वो बोली, “डैडी विल बी सो लकी टू हैव यू एस हिस वाइफ!”
“अरे?!” लतिका आभा के सुझाव से चौंक गई।
“क्यों? आप डैडी से शादी नहीं करोगी?”
इस बात पर लतिका को समझ ही नहीं आया कि वो क्या कहे, “पता नहीं बेटू! पता नहीं!”
“कोई बात नहीं, माँ! व्ही हैव अ लॉट ऑफ़ टाइम! बट आई ऍम वेरी ग्रीडी ... है न! इसलिए आपको अपने से दूर नहीं जाने देना चाहती! ... किसी और से शादी कर के आप मुझसे दूर चली जाओगी... इसलिए डैडी से क्यों नहीं...”
“पता नहीं बेटू... सच में... पता नहीं!”
“आपको वो अच्छे तो लगते हैं न?”
“बहुत अच्छे लगते हैं बेटा... बहुत अच्छे!”
“आई थिंक यू टू विल मेक ग्रेट कपल... बट एस आई सेड, व्ही हैव टाइम!” आभा ने कहा, और वापस लतिका के चूचक को मुँह में भर के आनंद से उनको चूसने लगी।
लेकिन लतिका में मन में उथल पुथल मच गई।
*
अभी अभी पढ़ाअचिन्त्य - Update #2
लतिका का अट्ठारहवाँ जन्मदिन था आज!
किसी के भी जीवन में कानूनन ‘बालिग़’ बनना एक बड़ा माइलस्टोन होता है। कितना कुछ कर सकते हैं आप - वोट डाल सकते हैं; शादी कर सकते हैं; ड्राइविंग लाइसेंस ले सकते हैं; शेयर ट्रेड कर सकते हैं; शराब पी सकते हैं - अगर दिल्ली में हैं तो नहीं... क्योंकि चूतियापे का कोई सर-पैर नहीं होता; इत्यादि! मतलब, इंसान होने के सभी अधिकार आपको अट्ठारह के होते ही मिल जाते हैं! बड़ा माइलस्टोन! इसलिए मैंने सोचा कि लतिका का यह जन्मदिन बड़ा धूमधाम से मनाया जाए! लेकिन उस पूरे प्लान पर पानी पड़ गया क्योंकि न तो माँ और न ही अम्मा आ सके। आदित्य और आदर्श का स्कूल शुरू हुए दो महीना ही हुआ रहेगा, इसलिए यूँ अचानक ही, सप्ताह के मध्य में आ पाना संभव न हुआ; उधर अम्मा की तबियत थोड़ी नासाज़ हो गई - बारिश के बदले मौसम से उनको असमय सर्दी हो गई थी। ऐसे में उनका यात्रा कर पाना संभव नहीं था। अब ऐसे में लतिका का उदास होना स्वाभाविक ही था, लेकिन, जयंती दीदी और ससुर जी को आमंत्रित किया था कि उसको ऐसा न लगे कि किसी को उसके जीवन के इतने बड़े मौके से कोई सरोकार ही नहीं है।
लतिका सवेरे सवेरे उठ जाती थी योग इत्यादि करने के लिए, इसलिए मैंने एक फ्लोरिस्ट से कह कर पाँच बजे की एक डिलीवरी बुक कर दी थी - उसके लिए एक बुके की! अधिक सम्भावना थी कि लतिका ही वो डिलीवरी रिसीव करती! मैं भी पूर्वानुमान से जाग रहा था और थोड़ा छुप कर डिलीवरी आने का इंतज़ार कर रहा था - हाथ में कैमरा लिए, कि उसके हाव भाव और प्रतिक्रिया की फोटो ले लूँगा।
पाँच बज के दस मिनट पर दरवाज़े की घंटी बजी। इतने समय कोई आता नहीं था, इसलिए थोड़ा अचरज से लतिका ने दरवाज़ा खोला।
“लतिका मैम?” डिलीवरी बॉय ने पूछा।
“जी?”
“मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे मैम!” डिलीवरी बॉय ने कहते हुए बुके लतिका को थमा दिया।
लतिका के चेहरे के भाव शब्दों में कह पाना संभव नहीं था - आश्चर्य, प्रसन्नता, शॉक, इलेशन, और ऐसे ही अन्य भाव उसके चेहरे पर तत्क्षण दिखाई देने लगे। मैंने बखूबी उस पल को कैमरा में क़ैद कर लिया। मेहनत सफल रही! दिन की शुरुवात ऐसी हो, तो पूरा दिन मस्त जाता है!
“थैंक यू... थैंक यू सो मच...” उसने कहा, “किसने भेजा है?”
“ओह मैम... लिखा नहीं था! ... सॉरी!”
“इट्स ओके! थैंक यू... एंड हैव अ नाइस डे!”
“यू टू मैम!”
लतिका आनंद से उस गुलाब के बड़े बड़े अट्ठारह फूलों वाले गुलदस्ते को अपने आलिंगन में ऐसे पकड़ कर अंदर आ रही थी कि जैसे वो कोई बेहद अनमोल वस्तु हो! लेकिन उसके इस व्यवहार से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वो है ही छोटी छोटी बातों से खुश हो जाने वाली लड़की! अम्मा और माँ के सभी अच्छे गुण उसको मिल गए हैं। उसके चेहरे की मुस्कान देख कर इतना अच्छा लगा कि क्या बताएँ! कहने की आवश्यकता नहीं, कि कैमरे में वो सब हाव भाव कैद हो गए थे! हमेशा के लिए!
उसने बहुत सम्हाल कर वो गुलदस्ता सेंट्रल टेबल पर रखा... और उसको अपनी तर्जनी से कुछ देर छूने - सहलाने के बाद, उसको चूम लिया। उसकी इस हरकत से मुझे भी थोड़ी हैरत हुई। उसको क्या लगा कि यह बुके किसकी तरफ़ से आया है? मैंने देखा कि उसने अपना फ़ोन निकाला, और उस पर कुछ टाइप किया। वो मुस्कुराई... उसने फिर से गुलदस्ते को चूमा... और फिर वो छत पर जा कर पुनः योगाभ्यास करने में व्यस्त हो गई।
‘चलो एक काम बढ़िया से हो गया,’ मैंने सोचा।
फिर मैं आज के प्लान की अगली कड़ी पर काम करने लगा।
लतिका के लिए मैंने लखनऊ से एक बेहद फ़ीके पीले रंग के मलमल के कपड़े पर रेशम के धागों वाला चिकन के काम वाला अनारकली टाइप कुर्ता, चूड़ीदार पजामी, और उसी से मिलता दुपट्टा मँगाया था। इतनी नफ़ासत से किया हुआ काम था कि क्या कहें! कारीगरों ने बड़ी तबियत से काम किया था! उसको पैकेट से निकाल कर मैं इंतज़ार करने लगा कि कब वो नहाने बाथरूम में जाएगी। लतिका का रूटीन बड़ा लम्बा होता है। योगाभ्यास के बाद मेरे साथ जिम जाना, फिर वापस आ कर बाकी के काम करना। लिहाज़ा अब मेरे भी ‘जागने’ का समय हो गया था। लेकिन चूँकि मैं भी दिखावा कर रहा था, तो उस दिखावे को बरकरार रखना आवश्यक था। मैंने एक बहुत छोटा सा पैकेट गिफ्टरैप करवाया हुआ था - जिससे लतिका को चिढ़ाया जा सके! सवेरे जब हम मिले, तो वो मुझे देख कर मुस्कुराई।
“मैनी मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे बुआ जी!” मैंने उसको छेड़ते हुए जन्मदिन की बधाई दी।
वो मुस्कुराते हुए बोली, “थैंक यू सो मच!”
मैंने उसकी तरफ़ वो छोटा पैकेट बढ़ाया। उसको देख कर लतिका के चेहरे पर भ्रांत भाव आ गया। बात तोहफे के साइज की नहीं थी - लेकिन अगर मैं उसके लिए ये तोहफा लाया था, तो वो बुके किसने भेजा?
“मेरे लिए?” उसने चहकते हुए पूछा।
“नहीं! दस ग्राम की चॉकलेट है! ... पूरे खानदान को खिलाएँगे!” मैंने उसकी टाँग खींची, “क्या बुआ जी! आप भी न...”
वो मेरी बात पर शर्मा कर हँसने लगी। और पूरे उत्साह से पैकेट खोलने लगी, जैसे चॉकलेट नहीं, न जाने कैसी बड़ी नियामत मिल गई हो उसको! चॉकलेट को खोल कर उसने पहले मेरी तरफ़ बढ़ाया, लेकिन मैंने वापस उसी की तरफ़ बढ़ा कर पहले उसको खाने को कहा। जब उसने एक बाईट ले ली, तब मैंने अगली बाईट ली। करीब आधी चॉकलेट अभी भी बची हुई थी।
“इसको मिष्टी के लिए रखते हैं!” उसने सुझाया।
“अरे, छोटी सी चॉकलेट है... खा लो न!”
“बात उसकी नहीं है... मैं आपको समझा नहीं पाऊँगी...” उसके चेहरे पर बड़े रहस्यमई भाव थे, “बस, रख देते हैं बेटू के लिए!”
‘बेटू?’ यह शब्द हमारे घर में स्त्रियाँ ‘मातृत्व’ वाले भाव से इस्तेमाल करती हैं - माँ यही शब्द लतिका और मेरे के लिए इस्तेमाल करती हैं, और अम्मा मेरे लिए!
“ठीक है... बुआ जी!” मैंने फिर से उसको छेड़ा।
उसने कुछ कहा नहीं, बस एक स्निग्ध सी, इतनी प्यार भरी, और इतनी सुन्दर मुस्कान दी, कि मेरे भी दिल में कुछ अलग सा हो गया।
खैर, जिम में जा कर हमने खूब पसीना बहाया फिर हम वापस आ गए। आभा भी उस समय तक जग गई थी, और स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी। लतिका अपने कमरे में चली गई, और मुझको मालूम था कि वो कुछ ही देर में नहाने चली जाएगी। मैंने पाँच मिनट और इंतज़ार किया, फिर उसका यह तोहफा ले कर उसके कमरे में दबे पाँव चला आया। उसके बिस्तर पर उसके आज के पहनने के कपड़े रखे हुए थे - जीन्स, टीशर्ट, और उसके अंदरूनी कपड़े!
एक आश्चर्य की बात हुई - मैं शायद पहले नोटिस न करता, लेकिन न जाने कैसे और क्यों, मुझे उसके अधोवस्त्रों को जाँचने - देखने में रूचि हो आई! मैंने झिझकते हुए उसकी ब्रा और पैंटीज उठा कर देखी - साधारण से सूती कपड़े, लेकिन उनकी बनावट बड़ी रोचक थी! काले रंग की डेमी कप ब्रा - लगभग वैसी ही, जैसी गैबी भी पहनती थी! शायद छोटे स्तनों के लिए इसी तरीके की ब्रा मुफीद है! उसी से मिलती जुलती चड्ढी भी! साइज देखने की कोशिश करी, लेकिन लेबल में कुछ स्पष्ट दिख नहीं रहा था।
मैं इन्ही बातों का आँकलन कर रहा था कि उसी समय... अचानक ही, अपनी नीच हरकत को देख कर और सोच कर मुझे खुद से ही घृणा हो आई! अपने ही घर की बच्ची पर ऐसी नज़र! क्या हो गया है मुझको? इतनी नीचता? इतना गहरा नैतिक पतन! हे प्रभु! लगता है किसी मनोचिकित्सक को अपना हाल दिखाना पड़ेगा! मैं लगता है कि सच में एक ठरकी बुड्ढा बनता जा रहा हूँ! पहले तो केवल शक था, लेकिन अब यकीन होने लगा था कि मैं नाड़े का ढीला हूँ! सेक्स की पिपासा क्या इतनी तीव्र होती है कि रिश्तों नातों, लिहाज़, तमीज, नैतिकता, मानवता - सबको टाक पर रख दिया जाए! शायद मेरे जैसे ही लोग होते हैं जो मस्तराम की कहानियों में अपनी माँ, बहनों, और बेटियों पर बुरी नज़र रखते हैं! उनके साथ नीचतम व्यवहार करते हैं! अपने बारे में इस नए बोध को देख कर मेरा मन खट्टा हो गया। मैंने मन ही मन लतिका से माफ़ी माँगी और बिस्तर पर से उसके कपड़ों के ऊपर उसके नए कपड़े रख दिए।
अपने कमरे में तेजी से वापस आ कर मैं भी ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगा। नहा कर जब आज सवेरे से पहली बार अपना फ़ोन चेक किया - तो देखा कि दो एस ऍम एस आए हुए थे। सवेरे सवा पाँच पर लतिका का एस ऍम एस आया हुआ था, “थैंक यू सो मच फॉर दीज़ लवली फ्लावर्स! यू मेड माय डे! थैंक यू! म्मुआह!” और चुम्बन का स्माइली बना हुआ था; और दूसरा एस ऍम एस भी लतिका का ही था, जो कोई पाँच मिनट पहले आया हुआ था, “ओह गॉड! दिस इस रियली डिवाईन! दिस इस द बेस्ट बर्थडे गिफ़्ट एवर! आई लव यू मेरे बेटू... के डैडी! म्मुआह!” और मुस्कान का स्माइली बना हुआ था। अच्छा लगा पढ़ कर! शायद उसको शलवार कुर्ता पसंद आया! मेरे मन का मैल भी थोड़ा धुल गया लतिका को खुश हुआ सोच कर। तैयार हो कर वापस आया तो लतिका मेरे कमरे के बाहर ही खड़ी थी, आभा के साथ!
मुझको देखते ही वो दौड़ कर मुझसे लिपट गई,
“थैंक यू... थैंक यू... थैंक यू...” वो बार बार बस यही बोलती रही।
“नो... थैंक यू! तुमने सच में इस घर को घर बना कर रखा हुआ है लतिका,” मैंने बहुत समय के बाद उसको उसके नाम से पुकारा - नहीं तो मैं या तो उसको बुआ जी कहता, या फिर पुचुकी, “आई मस्ट डू समथिंग फॉर योर स्पेशल डे! दिस इस द लीस्ट आई कैन डू!”
लतिका मुस्कुराई! कैसी निश्छल, पवित्र मुस्कान! कैसी निश्छल, पवित्र लड़की! और मैंने उसके साथ कैसा कुकृत्य किया था बस कुछ ही क्षण पहले! मन पाप-बोध से भर गया। रहा न गया मुझ से। माँ ने ऐसे संस्कार नहीं दिए थे मुझको। मैं लतिका के सामने घुटनों के बल बैठ गया और उसके पैर पकड़ कर बोला,
“आई ऍम सो सॉरी लतिका! प्लीज मुझको माफ़ कर दो!”
एक पल को उसको समझ ही नहीं आया कि ये हुआ क्या? किस बात की माफ़ी मांग रहा था मैं?
“क्या हो गया आपको? किस बात की माफ़ी मांग रहे हैं आप?”
“मैं बोल नहीं पाऊँगा लतिका... लेकिन बहुत नीच काम किया है मैंने! बहुत ही नीच! बस... इतना ही कह सकता हूँ कि मुझको माफ़ कर दो... प्लीज! ... आई ऍम सो सो सॉरी!”
“ले...” वो कुछ बोलती बोलती रह गई, फिर बात बदल कर बोली, “आप कुछ गलत नहीं कर सकते... आप मेरा विश्वास हैं! ... लेकिन अगर आप माफ़ी मांग रहे हैं, तो मैं माफ़ कर देती हूँ! ... अपने मन को हल्का कर लीजिए... कोई ऐसी वैसी बात न लाईए अपने मन में! ठीक है?”
उसकी माफ़ी पा कर दिल हल्का हो गया।
“थैंक यू सो मच लतिका... बुआ जी!” मैंने मुस्कुराने की कोशिश करी।
वो फिर से मुस्कुराई - वही स्निग्ध सी, सुन्दर सी मुस्कान!
“अच्छा एक और बात,” मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा, “आज शाम को पार्टी है... इसलिए, जल्दी आ जाना घर! पाँच बजे तक!”
मैंने कहा और लतिका के माथे को चूम लिया।
उसने सिमटते हुए बस ‘हाँ’ में सर हिलाया, और कुछ बोली नहीं।
आभा हमको देख कर मुस्कुरा रही थी।
“तू क्या खीसें काढ़ रही है बदमाश? दीदी को बर्थडे विश किया?”
“हाँ डैडी! कब का! आपकी तरह थोड़े ही हूँ... रात में बारह बजे उठा कर विश किया मैंने... लेकिन दीदी को नहीं...” कहते हुए आभा ने उसकी तरफ़ देखा - लतिका के चेहरे के भाव बदलने लगे, “... दादी को!”
यह आखिरी वाक्य सुन कर लतिका के भाव वापस शांत हो गए।
“दादी?”
“और क्या? आपकी बुआ जी, मतलब मेरी दादी हुईं न?”
“वो किसी की दादी हो या नहीं, लेकिन तू सबकी दादी अम्मा है!” मैंने हँसते हुए आभा को भी चूमा, और बोला, “चलो अच्छा, जल्दी से नाश्ता कर लेते हैं। तुम दोनों को स्कूल भी तो छोड़ना है न?”
*
दोनों को अपने अपने स्कूल - कॉलेज छोड़ कर मैं ऑफिस गया। वहाँ अपने सेनापतियों, मतलब मेरे रिपोर्टीज़ को थोड़े बहुत निर्देश दे कर लतिका के जन्मदिन के लिए आर्डर दिए हुए केक को लेने गया। वहाँ से कैटरिंग वाले के यहाँ जा कर शाम की तैयारी का जायज़ा लिया। होटल में जा कर कुछ भी और कभी भी खाया जा सकता है, लेकिन क्या मज़ा आए कि आपके सामने ही ‘लाइव फ़ूड’ परोसा जाए! वैसे भी जयंती दी और ससुर जी के साथ साथ लतिका के कुछ दोस्त भी आने वाले थे। तो एक अलग ही तरह का मज़ा आना आवश्यक था। घर की समुचित सजावट कामवाली से कह कर करवा दी गई थी। लतिका के आशा के विपरीत, जब वो घर वापस आई, तब लगभग सभी लोग पहले से ही वहाँ उपस्थित थे।
“सरप्राइज़!!!!”
उसके घर के अंदर प्रविष्ट होते ही हम सभी ने इतनी ज़ोर से चिल्ला कर उसका स्वागत किया कि वो बेचारी चौंक ही गई! फिर सभी ने बारी बारी से उसको जन्मदिन की बधाईयाँ दीं। सबसे मिल कर वो ख़ुशी ख़ुशी कपड़े बदलने अपने कमरे में चली गई।
जब वापस वो मेरा दिया हुआ चिकनकारी वाला शलवार कुर्ता पहन कर बाहर निकली, तो सच में अप्सरा जैसी सुन्दर लग रही थी। बेहद हल्का सा मेकअप - होंठों पर एक हल्की सी लिपस्टिक, आँखों में काजल की एक पतली सी रेखा, माथे पर एक छोटी सी बिंदी - बस! आभूषण के नाम पर उसने गर्दन में एक पतली सी सोने की ज़ंजीर, और कानों और नाक में क्रमशः छोटी छोटी बालियाँ और कील पहनी हुई थी! जब सौंदर्य सच्चा होता है, तो उस पर किसी आवरण की आवश्यकता नहीं होती! इतनी सुन्दर है लतिका - इस बात का मुझे आज आभास हुआ! दुनिया की दो सबसे बेहतरीन स्त्रियों के सबसे बेहतरीन गुणों का मिश्रण था उसमें! न केवल सौंदर्य, बल्कि बुद्धि, प्रज्ञा, कौशल, और नज़ाकत का अद्भुत मिलन था उसमें!
‘जिसको ये मिलेगी, वो तो धन्य हो जाएगा!’ आज पहली बार - पहली बार यह विचार मन में आया!
और उसी विचार के साथ साथ उस काल्पनिक व्यक्ति के लिए मेरे मन में ईर्ष्या भाव भी आ गया। लेकिन अगले ही पल फिर से वही पाप-बोध हो आया। ‘मैं क्यों जल रहा हूँ, अगर लतिका किसी से शादी करेगी! करेगी ही... उसको भी तो अपना घर बसाना ही होगा न कभी न कभी!’ लेकिन फिर थोड़ा सोचने पर लगा कि यह ईर्ष्या वाला भाव नहीं, बल्कि क्षति-बोध वाला भाव था। हाँ, लतिका किसी का घर तो बसायेगी ही, लेकिन उस कारण से मेरा घर सूना हो जाएगा। एक एक कर के, पहले माँ, और फिर अम्मा अपने अपने गृहस्थी में मशगूल हो गए... और मैं पीछे रह गया सबके! ऐसा विचार कोई नया नहीं था - मेरी तो रोते रहने कि और आत्म-केंद्रित रहने की आदत सी ही है!
मैंने एक और काम किया था - सवेरे वाली पहली तस्वीर मैंने बड़ी सी प्रिंट करवा कर फ्रेम करवा लिया था। उसको केवल रंगीन कागज़ से पैक परवाया था क्योंकि मैं चाहता था कि लतिका वो सबके सामने खोले। साथ ही लाया था मैं उसके लिए एक सोने का ब्रेसलेट! जब मैंने उसको गहने का पैकेट दिया तो वो तुरंत समझ गई कि कोई आभूषण ही हो सकता है।
“आप पहना दीजिए...”
“अरे...” मैंने झिझकते हुए कहना शुरू किया।
“हाँ हाँ भाई,” लेकिन जयंती दी ने कहा, “बर्थडे गर्ल की सब बातें माननी पड़ेंगी आज तो हम सभी को! तुम कोई स्पेशल नहीं... चलो चलो!”
उनके कहने का अंदाज़ कुछ ऐसा होता है कि कोई भी हँसने पर बाध्य हो जाए। लिहाज़ा मैंने भी हँसते हुए ही पैकेट खोला और उसमें से ब्रेसलेट निकाल कर लतिका की कलाई पर बाँध दिया। वो आभूषण जौहरी की दुकान पर उतना सुन्दर नहीं लग रहा था जितना कि लतिका की कलाई पर! मुझे अपनी पसंद बहुत पसंद आई! फिर मैंने उसको वो फ्रेम दिया।
“लेकिन ये वाला तो तुमको ही खोलना पड़ेगा...” मैंने उसके कुछ भी कहने से पहले कहा।
लतिका ने कोई विरोध नहीं किया; बस वही अपनी अनूठी सी मुस्कान देती हुई उस कागज़ को उतारने लगी!
“अरे... हा हा हा!” वो उस तस्वीर में अपने हाव भाव को देख कर हँसने लगी।
फिर उसने सभी की तरफ वो तस्वीर कर दी, जिससे सभी उसको देख सकें। गुलदस्ते को देख कर उसके हाव भाव इतने सुन्दर और इतने विशुद्ध थे, और वो इतनी मोहक लग रही थी कि वहाँ उपस्थित सभी लोग खुश हो कर हँसने लगे। फिर मैंने सभी को पूरी कहानी सुनाई। पूरे समय वो सचेत हो कर मेरी बातें सुन रही थी।
“मुझे लगा था... कि आप ने ही किया होगा...” सब सुन कर वो अंत में बोली। उसके गालों पर हलकी सी लाल रंगत साफ़ दिख रही थी।
हाँ - सच्ची बात! उसका एस ऍम एस उस बात का गवाह है!
खैर, जन्मदिन में बाद में जो कुछ हुआ, उसकी स्मृतियाँ अब धुँधली पड़ गई हैं। लेकिन वो एक यादगार दिन था - किसी के लिए नहीं, तो कम से कम मेरे लिए तो था! बड़ा मज़ा आया! मन में हुआ कि अगर माँ पापा, बच्चे, अम्मा सभी यहाँ होते तो इस आनंद में कई गुणा और बढ़ोत्तरी हो जाती।
*
रात में आभा मेरे पास सोने को आई। न जाने कितने ही दिनों के बाद! बिस्तर में मेरे साथ चिपक कर वो लेट गई, और मुझसे बातें करने लगी।
“क्या बात है मिष्टी मेरी, आज आपको डैडी के पास सोने की याद आई? दीदी से फुर्सत मिल गई?” मैंने मज़ाक में उसको छेड़ा।
“दीदी विल बी हैविंग सम वैरी स्वीट ड्रीम्स टुनाईट न डैडी!” उसने अपने अंदाज़ में कहा, “आपने इतना बढ़िया सेलिब्रेशन ऑर्गेनाइज़ किया था आज कि वो तो पूरे टाइम सुपर हैप्पी थी!”
“सच में?” जान कर बड़ा अच्छा लगा।
“सच में!” आभा ने मुस्कुराते हुए कहा, “शी कुड नॉट स्टॉप गोइंग गा गा ओवर इट!”
“गुड! आई ऍम हैप्पी देन!”
“डैडी?” कुछ देर की चुप्पी के बाद आभा बोली।
“हाँ बेटा?”
“मेरा अक्सर मन होता है कि मेरी माँ होतीं...”
“आई नो बेटू... आपकी मम्मी बहुत स्वीट थीं...” डेवी की याद ने दिल को कचोट लिया, “आपको बहुत प्यार करती थीं...”
“आप भी उनको बहुत प्यार करते थे?”
“बहुत... बहुत... शी वास द बेस्ट!” मैं पुरानी यादों में खोता हुआ बोला, “आई विश कि वो आज भी हमारे साथ होतीं... हम सब बहुत मज़ा करते... सच में!”
“आई अंडरस्टैंड डैडी! मौसी जी भी तो कितना प्यार करती हैं मुझको... आपको!”
“हाँ बेटा... जयंती दी - आपकी मौसी - समझो कि माँ और अम्मा की अब्सेंस में गार्जियन हैं हमारी। उनका मन भी तो हममें ही लगा रहता है।”
“आई लव यू डैडी!”
“आई लव यू टू बेटा! तुम हमारे प्यार की निशानी हो... मोस्ट प्रेशियस इन दिस होल वर्ल्ड!”
कुछ देर हम फिर से चुप रहे।
“दीदी खूब सुन्दर लग रही थीं न आज डैडी!”
“हाँ बेटा! बहुत सुन्दर!” मैंने शाम के दृश्य याद करते हुए कहा, “आज तो उसका स्पेशल डे था न!”
“बर्थडे तो स्पेशल ही होता है न डैडी!”
“हाँ - बट शी इस नाउ ऐन एडल्ट!” मैंने आभा को समझाया, “अब वो अपनी मर्ज़ी का सब कुछ कर सकती है!”
“वाओ!”
“हाँ न!” मैं आभा के उत्साह पर मुस्कुराया।
“मतलब... शादी भी?”
“हाँ बेटा... हा हा... शादी भी!”
“आई विल मिस हर... व्हेन शी गोस!”
“आई नो बेटू... लेकिन तब तक तुम बड़ी हो जाओगी! व्ही विल बी ओके!”
“बट इफ़ शी मैरीस इन... से... फ्यू मंथ्स टाइम, देन?”
अरे भाई, इस बात की सम्भावना तो मैंने सोची ही नहीं थी!
“देन व्ही विल हैव टू लर्न टू स्टैंड अप ऑन आवर टू फ़ीट!”
सच में - अगर लतिका आज हमारे जीवन से चली जाए, तो फिर से हम अंतहीन समुद्र में बिना किसी एंकर, बिना किसी इंजन, बिना किसी पतवार, और बिना किसी पाल की नाव जैसे इधर उधर मंडराते रहेंगे! शायद ही कोई भविष्य हो हमारा!
“यू शुड गेट मैरीड डैडी!”
“हा हा... सो जा बेटू... सो जा!”
*
ह्म्म्म्म कहानी सच में एक नया आयाम ले रही हैअचिन्त्य - Update #3
उसका जन्मदिन वो दिन था, जब मुझको लगा कि अचानक ही लतिका के व्यवहार में अंतर आ गया हो!
जब वो मेरे आस पास होती, तो उसका व्यवहार थोड़ा बदला हुआ सा रहता। मेरे साथ अब वो थोड़ा संकोच दिखाती थी... वो पहले वाला, उन्मुक्त, खुला हुआ व्यवहार कम होने लगा था। अभी भी हम दोनों साथ में जिम जाते थे, साथ में रेस लगाते, एक दूसरे को चैलेंज करते; लेकिन अब मेरी उपस्थिति में उसके व्यवहार में एक नज़ाकत भी दिखने लगी थी। ऐसा नहीं था कि पहले नहीं दिखती थी; लेकिन अब कुछ अधिक होने लगा था। कुछ समय पहले वो मुझको ‘अमर बेटे’ कह कर हँसी मज़ाक कर लेती थी... लेकिन वो भी बंद हो गया! अब वो मेरे लिए ‘आप’ के अतिरिक्त किसी और सम्बोधन का प्रयोग नहीं करती थी! थोड़ा संकोच करती मेरे साथ... जिम में भी, स्ट्रेचिंग, बैक रबिंग इत्यादि के लिए अब वो जिम-फ्लोर के ट्रेनर्स को पुकारती थी... मुझे नहीं। इसके अलावा, उसके कपड़े अब और भी शालीन हो गए थे - बिना आवश्यकता के मेरे सामने अंग प्रदर्शन नहीं होता था। छोटे निक्कर, टैंक टॉप्स पहनना उसका अचानक ही बंद हो गया! खैर, उससे मुझे कोई दिक्कत भी नहीं थी। मैं ऑफिस से आता, तो मेरे दिन के बारे में वो पूछती; उसकी बातों में परवाह - दायित्व वाला बोध अधिक होता। उसका वस्तुओं के लिए मुझसे ज़िद करना बंद हो गया! कोई बड़ा अंतर नहीं - बस, ऐसी ही छोटी छोटी बातें थीं, जो अचानक से ही अलग हो गई थीं!
छोटी बातें, लेकिन मैंने नोटिस करीं। फिर सोचा, कि बढ़ती, सायानी होती लड़की है! व्यवहार में अंतर तो आएगा ही। अच्छी बात है! सच कहूँ, तो उसका वो अल्हड़, खुलेपन वाला हँसता खिलखिलाता रूप भी मुझको बड़ा भाता था, और ये सायना, सौम्य मुस्कान लिए हुआ रूप भी! कितनी ग्रेसफ़ुल हो गई थी वो! और भी सुन्दर हो गई थी वो!
लेकिन एक बात जो मैंने नोटिस करी वो यह कि मेरे अतिरिक्त, घर के सभी सदस्यों के साथ उसका व्यवहार पूर्ववत ही था! आभा के साथ वो अभी भी खेलती, हँसती, खिलखिलाती, और उसका ख़याल रखती। आभा तो वैसे भी उसकी पूँछ थी... जो लतिका करती, या कहती, वो सब आभा को करना ही होता। माँ के साथ, वही पुराना ननद-बेटी वाला व्यवहार! उनके साथ वैसा ही अल्हड़पन, उनसे हँसी मज़ाक करना, उनको छेड़ना, उनसे ज़िद करना - वो सब बदस्तूर जारी था!
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केवल लतिका पर यह इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं कि उसके व्यवहार में अंतर आ गया था। मैं स्वयं भी अपने आप को थोड़ा सम्हाल कर रहने लगा - ख़ास कर लतिका के सामने। उस दिन जो मैंने किया, उसकी एक अमिट छाप मेरे मष्तिष्क पर छूट गई। हवस के कारण आदमी कितना गिर सकता है, अब मुझको समझ में आ गया था। मैंने निश्चित कर लिया कि शिष्टाचार के दायरे में रह कर, एक समुचित दूरी बना कर ही मैं लतिका के साथ बात चीत, और अन्य क्रिया कलाप करूँगा। अब मैं लतिका के सामने थोड़ा अधिक सतर्क हो कर रहने लगा - कि कहीं कोई ऐसी वैसी बात न निकल जाए मुँह से। अपना रहन सहन भी थोड़ा ठीक कर लिया। स्कॉच पीना बहुत कम हो गया - हफ़्ते में बस एक स्टैण्डर्ड ड्रिंक! इससे स्वास्थ्य लाभ भी तो होगा! काम में थोड़ा और भी व्यस्त रहने लगा।
लेकिन उसके अलावा मैं लतिका की उन्नति में लगातार शामिल था - उसके ट्रेनर्स के साथ नियमित रूप से मिलता और हर आवश्यक चीज़ मुहैया करवाता। उसके कॉलेज में भी जब भी कोई मीटिंग होती, मैं ही उपस्थित रहता। कभी कभी मैं उसको ऑफिस भी आने को आमंत्रित करता - जिससे वो देखे कि जिस कंपनी की वो ‘मालकिन’ है (उसकी शेयरहोल्डिंग है), वो कंपनी क्या करती है, और कैसे करती है! अब वो बालिग़ थी, और कानूनन भी अब वो अपने मालिकान अधिकार का इस्तेमाल कर सकती थी। इसलिए दीपावली के पहले जो एडमिनिस्ट्रेटिव मीटिंग थी, उसमें लतिका भी शामिल थी। उसके जन्मदिन के बाद मैंने उसको ड्राइविंग लाईसेंस लेने के लिए भी प्रेरित किया। मन में ख़याल आया कि उसके अगले जन्मदिन पर एक कार भेंट दूँगा!
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लतिका के जन्मदिन से कोई तीन महीने बाद इस साल की दीपावली थी।
इस बार निश्चित हुआ कि हम तीनों त्यौहार में मुंबई जाएँगे और वहीं पर, सभी के साथ त्यौहार मनाएँगे। सभी के साथ मतलब - पूरे खानदान के साथ! माँ पापा के साथ अम्मा और सत्यजीत का परिवार भी, और ससुर जी और जयंती दी का परिवार भी - हम सब एक साथ, एक छत के नीचे होंगे! वीकेंड मिला कर आराम से पाँच दिन की छुट्टी मिल रही थी। अच्छा था - पूरे खानदान के साथ त्यौहार मनाने का अलग ही मज़ा है! मैं तो अभी से ही उत्साहित होने लगा था।
जीवन के इस पड़ाव तक हमने मुंबई के एक उपनगर में दो बड़े फ्लैट्स अगल-बगल ले कर, उनको बीच से जोड़ दिया था। इस तरह से हमारे पास एक बहुत बड़ा सा घर हो गया था मुंबई में - पूरे छः कमरे वाला! साथ में स्टोर-रूम, आवश्यकता पड़ने पर एक फुल-टाइम कामवाली के रहने की व्यवस्था, एक बड़ा सा मुख्य हॉल, एक छोटा उप-हॉल - यह सब मिल कर इतना बड़ा घर हो गया था, कि अगर मन करे, तो हमारा पूरा खानदान आराम से रह सकता था! आधा हिस्सा तो वैसे बंद रहता, क्योंकि उसके रख-रखाव में कठिनाई होती थी। लेकिन इस बार उसका भी कुछ नहीं तो एक सप्ताह के लिए इस्तेमाल हो जाता! लेकिन यह केवल एक बहाना था।
एक बात और भी थी, जो मेरे मन की हो रही थी - पापा और माँ पिछले कुछ महीनों से हमेशा कह रहे थे कि क्यों न हम सभी यहीं आ कर रहें, एक साथ! इतना बड़ा घर, और खाली खाली अच्छा नहीं लगता! दिल्ली वाला बंगला किराए पर दिया जा सकता था, या बेचा जा सकता था। किराए पर न भी देते या न भी बेचते, तो भी उस प्रॉपर्टी का उचित इस्तेमाल संभव था। खैर, जो भी हो - अब पूरे परिवार को साथ में रहना चाहिए, ऐसा पापा कह रहे थे। माँ भी बड़े दिनों से इसी टीस में थीं। सुझाव अच्छा था - दिल्ली का बंगला बेचने का नहीं, मुंबई में सभी के साथ में रहने का - मेरा काम भी अब इतना बढ़ गया था कि लगभग पूरे देश में मेरे क्लाइंट्स थे; कुछ विदेश में भी। लिहाज़ा, अब मुंबई में मुख्य कार्यालय बनाया जा सकता था, दिल्ली से हटा कर! इससे उत्तर और दक्षिण दोनों भागों के क्लाइंट्स से मिलने में आसानी रहती।
दिल्ली से मुंबई जाने का एक और भी अभिप्रेरण था - दिल्ली में पिछले कुछ वर्षों से दो प्रकार के प्रदूषण बहुत ही अधिक बढ़ गए थे : पहला था पर्यावरण प्रदूषण, और दूसरा था चरित्र प्रदूषण! पर्यावरण प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था, और चरित्र प्रदूषण परिवार और समाज की सुरक्षा के लिए! मैंने महसूस किया था - एक अजीब सा, असुरक्षित सा एहसास बना रहता... हमेशा! दो लड़कियाँ घर में थीं, तो उनकी सुरक्षा को ले कर अब बड़ी चिंता होने लगी थी, कि कहीं उनके साथ कुछ ग़लत न हो जाए! एक डर सा बना रहता! अच्छा नहीं लगता... ऐसे अनजाने से ख़ौफ़ के माहौल में परिवार को कैसे बड़ा किया जा सकता है? तो मैंने पापा और माँ को दिलासा दिया कि एक बार लतिका का ग्रेजुएशन पूरा हो जाए, फिर हम चले आएँगे! अब मेरा भी मन माँ पापा के साथ ही रहने का होने लगा था। लतिका के साथ ही आभा की भी आठवीं पूरा हो जाता, और उसका एडमिशन होना भी आसान था। बढ़िया!
बस एक ही कठिनाई थी - ससुर जी लगभग अकेले से हो जाते! रहते वो अभी भी अकेले ही थे, लेकिन जयंती दी, और हम लोग सप्ताह में दो बार तो उनसे मिल ही लेते थे, और वो भी जब मन होता, चले आते। करीब सतहत्तर साल की उनकी उम्र थी, इसलिए अब उनका अपने रहने सहने में आमूल चूल परिवर्तन कर पाना संभव नहीं था। एक बार मैंने इस बारे में उनसे बात करी कि अगर हम मुंबई चलते हैं, तो क्यों न वो भी हमारे साथ ही मुंबई में रहें? उन्होंने इस बात से न तो इक़रार किया और न ही इंकार! बस इतना बोले कि ‘बेटे, आगे की सुध लो! हम तो अपना जी चुके!’
सच कहूँ, ये बात सुन कर इतना खराब लगा कि क्या कहें! हमारा पूरा परिवार उनको अपना ही मानता था - अपना अग्रज! परिवार का अघोषित मुखिया! लेकिन फिर लगा कि पूरी तरह से इंकार नहीं किया है, तो संभव है कि साथ में आ कर रह सकें! देखते हैं।
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हम तीनों - मतलब मैं, लतिका, और आभा, सबसे पहले पहुँचे मुंबई! बाकी के सभी लोग अगले दो दिनों में आने वाले थे। जब हम घर पहुँचे, तो देखा कि पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। पापा ने बड़े उत्साह से घर को गेंदे के फूलों की मालाओं से सजवाया था। दरवाज़े पर आम्र-पल्लव के तोरण सजे हुए थे, और जहाँ भी संभव था, सुन्दर सी झालरें सजी हुई थीं। बड़े उत्साह से उन्होंने बच्चों के लिए आतिशबाज़ी का बंदोबस्त भी कर रखा था! उत्साह क्यों न हो? एक लम्बे समय के बाद सभी का यूँ साथ में होने का अवसर बना! अनायास ही डैड की याद हो आई - आज भी याद है मुझको कि जब मैं और गैबी साथ में रह रहे थे, और वो पहली बार दीपावली में आए थे, तो कैसे आराम फ़रमा रहे थे - सारा काम मेरे जिम्मे छोड़ कर! डैड की अदा भी निराली थी। मन में कहीं एक हलकी सी टीस अवश्य उठी, कि काश वो यूँ न चले गए होते! एयरपोर्ट से आते हुए हमने फ़ोन कर दिया था; इसलिए दरवाज़े पर माँ, पापा, और तीनों बच्चे पहले से ही हमारे स्वागत में खड़े थे।
आज धनतेरस था, तो माँ ने त्यौहार के ही अनुरूप रेशम की रंगीन, लाल बैंगनी साड़ी पहनी हुई थी और थोड़े भारी आभूषण भी! बालों में जूड़ा बंधा हुआ था और उसमें मोगरे का गजरा भी सजा हुआ था! बालों के बीच कढ़ी हुई माँग में लाल रंग का सिन्दूर सुशोभित हो रहा था! होंठों पर उनके रंग को निखारने वाली हल्के लाल रंग की लिपस्टिक रची हुई थी, और आँखों में बेहद पतली एक रेखा काजल की! इस रंग-रोगन ने केवल उनको छुवा था, और कुछ नहीं! लेकिन उतने में ही ऐसा अद्भुत सौंदर्य निखर कर निकला था उनका कि क्या कहें! सच में, उनको देख कर हमेशा लगता है कि एक सौभाग्यवती, गुणवती, और रूपवती स्त्री का रूप और सौंदर्य कैसा होता है! श्री का रूप हैं माँ! सच में, पापा का घर और जीवन उन्होंने सम्पन्नता से भर दिया था!
माँ लगभग बावन की हो रही थीं, लेकिन उनकी उम्र-चोरी अभी भी ज्यों की त्यों थी! बहुत अधिक हुआ तो चालीस वर्ष की एक सुन्दर महिला लगतीं! आज तो कोई उनको पैंतीस से अधिक का कह ही नहीं सकता था! जल्दी जल्दी तीन बच्चे करने और तीनों को अनवरत स्तनपान कराने के कारण उनके स्तन अब पहले से थोड़े अधिक बड़े हो गए थे, और उनके नितम्ब भी आकार में थोड़े बढ़ गए थे। लेकिन उनका पेट वापस, पहले जैसा ही लगभग सपाट हो गया था, और क्षीण कमर होने के कारण अब वो पहले से भी अधिक सुडौल लग रही थीं!
पापा उनको अभी भी छेड़ते कि ‘दुल्हनिया अब और भी सेक्सी हो गई है’!
इस बात में बड़ी सच्चाई थी - पापा की संगत में माँ बहुत चञ्चल, उन्मुक्त, हँसमुख, और मुखर हो गई थीं, जैसी वो अपने किशोरवय में रही होंगी। साथ ही साथ वो अपने शरीर का बहुत ख़याल रखतीं, जिससे उनका आकर्षण बना रहे। ऐसा नहीं है कि उनका शरीर बेडौल होने से पापा के मन में उनके लिए प्रेम में कोई कमी हो जाती - क्योंकि दोनों का प्रेम शारीरिक आकर्षण पर निर्भर नहीं था। लेकिन माँ पापा को संतुष्ट करना अपना धर्म भी मानती थीं, और अधिकार भी। जिससे प्रेम और विवाह हुआ है, उसको हर तरह की संतुष्टि मिलनी चाहिए - ऐसा उनका मानना था। शायद इसी प्रेरणा के कारण माँ के सौंदर्य में प्रत्येक प्रसूति के बाद और भी अधिक निखार आ रहा था।
पापा ने बंगाली स्टाइल का हल्के पीले रंग का कुर्ता और सफ़ेद धोती पहनी हुई थी। पापा अब मेरी उम्र के लगने लगे थे - तीन बच्चों के लालन पालन, और कार्यस्थल पर पदोन्नति और बढे हुए कार्यभार ने उन पर अपनी छाप छोड़ ही दी थी! कलम के बाल थोड़े सफ़ेद होने लगे थे और चेहरे पर हँसी मुस्कान की लक़ीरें साफ़ दिखाई देतीं। आँखों पर चश्मा भी चढ़ गया था, तो थोड़ा उम्रदराज़ भी लग रहे थे! घर के बड़े होने के कारण सभी की चिंता करना, हर काम में आगे रहना, सामाजिक कार्यों और प्रयोजनों में परिवार का प्रतिनिधित्व करना - यह सब अब उन्ही के जिम्मे था। उनके विपरीत मैं अवश्य ही अपनी उम्र से कम लगने लगा था - नियमित व्यायाम, अनुशासित जीवन, और लतिका जैसी स्वास्थ्य प्रेरक की संगत में मेरा स्वास्थ्य बहुत बढ़िया हो गया था। माँ के जीन्स का प्रभाव अब मुझमें भी दिखने लगा था शायद! खुश भी बहुत था मैं अब! और, ख़ुशी के कारण वैसे भी उम्र कम लगती ही है!
मैंने सबसे पहले पापा के पैर छुए। उन्होंने ‘मेरा बेटा’, ‘मेरा बेटा’ कहते हुए मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए और कस कर अपने गले से लगा लिया... और जब छोड़ा तो कई बार मेरे माथे को चूम लिया! सच में - लोग चाहे कुछ भी सोचें या कहें - मुझको तो पापा से पापा वाला ही प्यार मिलता था! अब तो उम्र के अंतर वाली बात याद भी नहीं आती थी! उनके साथ हो कर ऐसा ही लगता कि मेरे पापा ही हैं मेरे साथ! मैं उनके सामने बच्चा ही हो जाता - इतना प्यार, इतना दुलार मिलता मुझको! उनके लिए मेरे भाव भी वैसे ही थे कि जैसे मैं उनकी ही संतान हूँ। ऐसा नहीं है कि डैड को मैं भूल गया - वो तो संभव ही नहीं। लेकिन हाँ, मुझको इस बात पर गर्व अवश्य होता था कि मैं दो बहुत ही महान, और अच्छे पुरुषों का बेटा हूँ! उनसे कुछ पल हाल चाल का आदान प्रदान हुआ, फिर मैंने माँ के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया। माँ ने भी ‘मेरा बेटा’, ‘मेरा बच्चा’ कहते हुए मुझे अपने से चिपका लिया और खूब चूमा। सच कहूँ - आपकी उम्र चाहे कुछ हो जाए, लेकिन अपनी माँ के सीने से लग कर आपको उसी सुख का आनंद मिलता है, जो सुख आपको शायद पहली बार मिला होगा। ईश्वर और माँ में शायद यही समानता होती है!
आभा अपने टीन-ऐज में प्रवेश कर चुकी थी, लेकिन उस बात से उसका अपने दादा जी से लाडलेपन में कोई अंतर नहीं आया। पापा ने उसको झट से अपनी गोदी में उठा लिया और उसके गालों को पूरा अपने मुँह में भर कर मज़ाक के तौर पर काटा और बोले, कि ‘मैं खा लूँगा इन मीठे मीठे रसगुल्लों को’! और आभा खिलखिला खिलखिला कर हँसते हुए पूरे घर को गुलजार करने लगी। मज़ेदार बात यह थी कि क़द में आभा अब काफी ऊँची हो गई थी - मतलब उसको गोद में उठाने से दिक्कत होने लगती... लेकिन पापा को इस बात से कोई सरोकार नहीं था - और पापा की गोद में वो इस तरह लटकी हुई थी कि उसके पैर पापा के घुटनों से टकरा रहे थे। लेकिन न तो उसको इस बात की परवाह, न पापा को! वो अलग बात है कि उन दोनों को ऐसे देख कर बाकी लोगों की हंसी छूटने लगी।
आदित्य अब लगभग साढ़े सात साल का एक सुदर्शन बालक था; आदर्श पाँच साल से थोड़ा ऊपर हो गया था, और बड़ा चञ्चल बच्चा था - लगभग माँ जैसी ही चञ्चलता थी उसमें; और अभया अब तीन साल की पूरी हो गई थी, और बहुत ही सुन्दर, गुड़िया जैसी लगती! उसकी आवाज़ बड़ी मीठी थी, और हाल ही में सीखी हुई कविताएँ सुना सुना कर सबको तंग कर डालती। अम्मा की बेटी गार्गी भी साढ़े तीन की हो चुकी थी - वो भी स्वस्थ और सुन्दर सी बच्ची थी। सत्या और अम्मा के जेनेटिक गुणों का संतुलित मिश्रण था उसमें। हमारे खानदान की पौध तेजी से विकसित हो रही थी; सभी बच्चे स्वस्थ, सुन्दर, चञ्चल, लेकिन बड़े ही मृदुल स्वभाव के थे। साथ ही साथ वो संस्कारी भी थे - माँ बाप जैसी शिक्षा देते हैं, जैसे संस्कार देते हैं, वो सब बच्चों के व्यवहार में परिलक्षित होने ही लगता है। तीनों बच्चों ने हम सभी के पैर छू कर आशीर्वाद लिए। क्यों न हो? जब माँ बाप ऐसे हों, तो उनके गुण बच्चों में आने स्वाभाविक ही हैं। आदित्य हम सभी के लिए ट्रे में पानी ले कर आया... स्वयं! घर में गृह-कार्य सहायिका थी, लेकिन फिर भी काम और सेवा करने में गर्व होना चाहिए! बड़ा अच्छा लगा उसको ऐसे करता देख कर! सभी बच्चों के लिए बैग भर भर कर त्योहारी लाई गई थी, तो शाम उसी सब में बीत जानी थी। वैसे भी अभी कुछ ही देर में आभा, सभी बच्चों की गैंग लीडर बन कर पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाने ही वाली थी।
लतिका जब माँ से मिली तो बहुत भावुक हो गई! माँ के पैर छू कर वो अपनी ‘बोऊ दी’ से वैसे ही लिपट गई, जैसे हमेशा करती आई थी। माँ भी उसको उसी तरह का लाड़ कर रही थीं, जैसे कि वो अट्ठारह नहीं, बल्कि पंद्रह साल पहले वाली नन्ही सी बच्ची हो! ‘मेरी पूता’, ‘मेरी बच्ची’, ‘मेरी गुड़िया’, ‘मेरा बेटू’ यह सब कह कह कर माँ खुद भी भावुक हो रही थीं। लतिका ने और भी भावुक होते हुए माँ को ज़ोर से अपने आलिंगन में पकड़ लिया।
“क्या हो गया मेरा बच्चा?” माँ ने बड़े लाड़ से लतिका से पूछा।
“लॉस ऑफ़ लव हो गया है हमको,” उसने ठुनकते हुए माँ से शिकायत करी, “आप सभी यहाँ आ गए! अब कौन करेगा मुझको प्यार? बताइए?”
“अरे मेरी बच्ची... अरे मेरी पूता...” माँ ने लाड़ से कहा, “खूब सॉरी बेटा! खूब सॉरी! ... देखो न, अब जल्दी ही तुम सब यहाँ आ जाओगे... हमारे साथ! सब साथ में रहेंगे! अब कोई कमी नहीं रहेगी तुम्हारे हिस्से के प्यार में!”
“नहीं,” लतिका ने मुँह फुलाते हुए फिर से शिकायत करी।
“मेरी बात पर विश्वास नहीं बेटू?” माँ ने मुस्कुराते हुए उसका माथा चूमा।
उसने बिना कुछ कहे ‘न’ में सर हिलाया। उसका मुँह अभी भी फूला हुआ था - हाँ, सब बनावटी बातें ही थीं, लेकिन माँ को देख कर कोई भी बच्चा बन जाए! वो प्यार ही इतना लुटाती थीं!
“अले मेला बेटू... हमसे गुच्चा हो गया,” माँ ने उसको तोतली जुबान में बहलाया, “अपनी बोऊ दी से गुच्चा है? माफ़ कर दो मुझे... खूब प्यार करूँगी तुमको बच्चे! ... तुम्ही सब तो हो मेरा परिवार... मेरा सब कुछ!”
लतिका हाँलाकि खेल खेल में ही नाराज़ थी, लेकिन वो भावुक भी थी। उसकी आँखों से आँसू निकल गए,
“आप भी चली गईं... अम्मा भी चली गईं... किसके भरोसे छोड़ दिया था हमको? हम सभी को?” उसने फिर से मनुहारते हुए शिकायत करी।
“सॉरी बेटा... आई नो, तुम सभी को बहुत तकलीफ़ हुई है!” माँ थोड़ा दुःखी होते हुए बोलीं।
उसके कारण माँ दुःखी हो जाएँ, यह लतिका को गवारा नहीं था।
“नहीं मम्मा... तकलीफ़ नहीं... लेकिन हमको भी आपका प्यार चाहिए न! ... खूब प्यार चाहिए!”
लतिका ने माँ को बहुत समय के बाद ‘मम्मा’ कह कर पुकारा था - यह बात माँ से छूटी नहीं।
“हाँ बेटू... बहुत प्यार चाहिए!” माँ ने उसको प्यार से अपने में ही दुबकाते हुए कहा, “खूब प्यार दूँगी अपने बच्चे को! तू तो मेरी लाडली है... ये क्यों भूल जाती है?”
पहली बार वो मुस्कुराई। माँ के साथ अपने आलिंगन से अलग होते हुए उसने उनको एक बार चूमा, और उनके स्तनों को कोमलता से छुआ। माँ समझ गईं कि लतिका को क्यों लॉस ऑफ़ लव हो गया, और उसको क्या चाहिए!
“बस थोड़ी ही देर में बेटू... नाश्ता लगा दूँ... कुछ खा लो, फिर अपनी बिटिया रानी को अपनी गोदी में बिठा कर दूध पिलाऊँगी!” माँ ने उसको दुलारते हुए वायदा किया।
पापा तब तक लतिका को अपनी गोदी में चढ़ाए माँ के बगल ही आ गए थे, और उनकी बात उन्होंने सुन ली थी।
“अरे भाग्यवान,” पापा ने कहा, “उसका मन है तो अभी पिला दो न! ... हमारे तीनों बच्चे न जाने कब से तरस रहे हैं माँ के दूध के लिए!”
पापा की बात सुन का लतिका ने दयनीय सा मुँह बनाया। मुझे हँसी आ गई, लेकिन मैंने उसको दबा लिया। क्या पता... मेरे हँसने से कहीं लतिका को बुरा न लग जाए! वैसे भी स्तनपान करना हमारे घर में कोई हँसने वाली बात नहीं थी - मैं स्वयं इसका लाभार्थी था। जब अपना घर शीशे का हो, तो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए!
“अभी पिएगा, मेरा बच्चा?” माँ ने लतिका को दुलारते हुए कहा।
उसने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“ठीक है... आ जा मेरा शोना... मेरी जान!”
“लव यू सो मच, बोऊ दी!”
“लव यू टू माय बेबी!”
माँ ने कहा, और मुख्य हाल से निकल कर, उप-हाल में रखे दीवान पर बैठ कर, अपनी ब्लाउज के बटन खोलने लगीं। उन्होंने ब्रा पहनी हुई थी - शायद इसलिए क्योंकि ब्लाउज रेशम का था, जो कोमल नहीं होता। रेशम अगर उनके स्तनों की कोमल त्वचा पर रगड़ खाता, तो निशान पड़ जाते। जब माँ ने ब्रा को ऊपर उठाया, तो लतिका अधीरता से उनका एक चूचक अपने मुँह में रखने की चेष्टा करने लगी, तो माँ ने हँसते हुए उसको थोड़ा सब्र रखने को कहा।
“बोऊ दी... इसको उतार दो न पूरा...” लतिका ने बेसब्री से सुझाव दिया।
माँ को उसकी बात पर हँसी आ गई; लेकिन उन्होंने ब्लाउज पूरी उतार दी, और उनका एक स्तन मुक्त होते ही लतिका उसके दुग्ध-पूरित चूचक से जा लगी। लगभग तत्क्षण ही उसको माँ के अमृत का रसपान करने को मिलने लगा। लतिका बड़ी अधीरतापूर्वक दूध पी रही थी, लेकिन माँ के स्तनों में उसके लिए पर्याप्त से भी अधिक दूध था! मेरी भी हिस्सेदारी थी, लेकिन मैं लतिका या आभा के सामने उनका स्तनपान नहीं करना चाहता था।
“आराम से बेटू,” उन्होंने उससे बड़े प्यार से कहा, “बहुत दूध है! जब मन करे तेरा, मैं पिलाऊँगी! ... तुझको कब से मनाही होने लगी?”
“खूब दिन हो गए मम्मा...”
“हाँ बेटा... खूब दिन हो गए!” माँ ने उसका माथा चूमते हुए कहा, “तू भी तो खूब सायानी हो गई है! कितनी सुन्दर सी लगती है मेरी गुड़िया!”
अब इस बात पर वो क्या कहती? बस, चुपचाप दूध पीती रही।
माँ ने ही बातों की कड़ी आगे जोड़ी, “... पुचुकी बेटा... तेरे अट्ठारहवें बर्थडे पर हम नहीं आ सके, उसके लिए माफ़ कर दे बच्चे!”
“नहीं मम्मा... आई नो आपके लिए पॉसिबल नहीं था!”
“लेकिन हमने सोचा हुआ है... इस दिवाली पर मनाएँगे तेरा, मिष्टी का, और अमर का बर्थडे! एक साथ!” माँ ने चहकते हुए कहा, “क्या कहती है बेटू?”
वो कुछ बोली नहीं; लेकिन उसके गालों में लाल रंगत उतर आई। माँ की नज़रों से यह बात भी नहीं छुप सकी। लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ कहा नहीं। उन्होंने उसके अंगों और प्रत्यंगों को छूते हुए कहा,
“कुछ खाती भी है? कैसी सूख गई है!”
“कहाँ मम्मा... आप भी न! खूब खाती हूँ और अच्छी भी हूँ!”
“कोई अच्छी वच्छी नहीं हो! यहाँ आओ, कुछ ही दिनों में सब दुरुस्त कर दूँगी!”
“हा हा! ... मेरी प्यारी सी बोऊ दी... गेम्स होने वाले हैं न... इसलिए वज़न नहीं बढ़ा सकते! ओन्ली हेल्दी फूड्स! ... इसलिए मैं जब तक यहाँ हूँ, आप मुझको अपना दूध पिलाती रहना!”
“मेरे बच्चों के लिए ही तो है ये...” माँ ने बड़े लाड़ से कहा।
“क्यों बोऊ दी? दादा नहीं पीते क्या?” लतिका ने आँख मारते हुए माँ को छेड़ा।
“धत्त बेशरम...”
“अरे बेशरम क्यों? ... इधर हम बच्चे आँखों से ओझल हुए, और उधर दादा जी आपसे चिपक जाएँगे!”
“बेशरम हो गई है तू पूरी की पूरी...”
“हा हा... लेकिन सच में बोऊ दी! आप और दादा तो मेरे लिए दुनिया के ‘बेस्ट कपल’ हैं! परफेक्ट कपल! ... आप दोनों को प्यार करते देख... प्यार से बातें करते देख कर इतना अच्छा लगता है मुझको...!”
“थैंक यू बेटा...” कह कर माँ ने उसका माथा चूम लिया।
लतिका खुश होते हुए बोली, “बोलिए न बोऊ दी... दादा नहीं पीते क्या?”
“हा हा... अरे हस्बैंड वाइफ में छुपा ही क्या होता है रे?”
“लेकिन कुछ तो ख़ास है जो दादा कर रहे हैं! आपकी रंगत दिनों दिन निखरती आ रही है बोऊ दी!”
“हा हा... अब मैं तुमको क्या बताऊँ कि तुम्हारे दादा क्या नहीं करते!” माँ ने भी मज़ाक में शामिल होते हुए कहा - कुछ भी हो, लतिका आखरकार उनकी ननद ही थी, और उसके साथ उनका हँसी मज़ाक वाला रिश्ता भी था, “दिन में मेरे दो तीन घण्टे उन्ही के नाम हैं...” माँ कहते कहते रुक गईं!
“सच में बोऊ दी?”
“और नहीं तो क्या! ... बच्चे पीछे रह जाते हैं लेकिन उनकी सेवा सबसे पहले होनी होती है! ... सो कर उठने पर... सोने से पहले... बहुत बदमाश हैं तुम्हारे दादा!” माँ ने दबी आवाज़ में अपनी ननद से अपने वैवाहिक जीवन का रहस्य शेयर किया।
“बाप रे!”
“बाप रे? हा हा! अरे मेरी लाडो, मैं तो चाहती हूँ कि जब तेरी शादी हो, तो तुझे भी ऐसी ही बदमाशी करने वाला हस्बैंड मिले!”
“हाआआआ...” लतिका के गाल फिर से लाल हो गए, “ऐसा बदमाश हस्बैंड होगा मेरा, तो फिर सोऊँगी कब मैं?”
“अरे सोना, जागना, खाना, पीना, सब कुछ ‘उन’ कामों के साथ में ही होता रहता है!”
“आप भी न... बोऊ दी!”
“अरे मुझको क्या बोलती है? अपने दादा को बोल! आज तुम सब आने वाले थे न, इसलिए बच गई! नहीं तो ‘ये’ ब्रेकफास्ट बनाने के टाइम से शुरू हो जाते हैं...”
“हा हा हा... सच में बोऊ दी?” लतिका हँसते हुए बोली, “फिर?”
“फिर क्या? एक तरफ मैं पराँठे बनाती हूँ, और दूसरी तरफ़ ‘ये’ मेरा पराठा बनाते हैं!”
“हा हा... सो क्यूट! दादा लव्स यू सो मच बोऊ दी! ... है न?” लतिका ने माँ के एक गाल पर बड़ी कोमलता से अपनी तर्जनी फिराई।
“हाँ बेटू... बहुत!” माँ ने प्रसन्न होते हुए कहा।
“आप उनके साथ खुश हैं न?”
“बहुत खुश बेटा! ... बहुत बहुत खुश!” माँ ने कहा और अपने स्तन को थोड़ा दबाया, जिससे दूध की थोड़ी अधिक मात्रा लतिका के मुँह में जा सके। लतिका ने बड़ी ख़ुशी से यह अतिरिक्त दूध पी लिया।
“सच में पुचुकी... जो सारा सुख इन्होने मुझे पिछले आठ सालों में दे दिया है न, वो मुझे कभी नहीं मिला!” माँ ने कहा, “पहले भी खुश रहती थी... लेकिन इन्होने खुशियों के सभी मायने बदल दिए! इतना सुन्दर सा परिवार दिया है इन्होने मुझको! ... मैं इन तीन बच्चों की बातें नहीं कर रही हूँ! ... तुम... तुम सब!”
“आई ऍम सो हैप्पी टू हीयर दिस, बोऊ दी!”
“मुझे तुमको भी इसके लिए थैंक्स कहना चाहिए... तुम... तुम लोग मुझको न समझाते, तो मैं न जाने कितनी बड़ी बेवकूफ़ी कर देती इनसे शादी न कर के!”
“हो ही नहीं सकता था बोऊ दी! ... आपके अलावा मैं किसी और को अपनी बोऊ दी न बनने देती! ... हाँ!” लतिका ने अल्हड़पन से कहा, “मुझे तो बस आप ही चाहिए थीं... क्योंकि अगर आप दादा से शादी न करतीं, तो मुझे आपका मीठा मीठा दूधू कैसे पीने को मिलता?”
“अच्छा जी, तो आपको बस मेरा दूधू पीना था?”
“हाँ... वो भी, और आपके खूब सारे बच्चे देखने थे... उनके साथ खेलना था! आपको खुश देखना था... हमेशा हँसते मुस्कुराते हुए! इसलिए!”
“हाँ बेटा... ‘इन्होने’ तीन अनमोल तोहफ़े दिए हैं मुझको! और ये ही क्यों? देखो न... इनसे जुड़ने के कारण ही तो मैं अम्मा की बेटी बन सकी! ... मुझे मन में ही फ़ील नहीं होता कि मैं बावन की हूँ!”
“आप बावन की हो? झूठी बोऊ दी... यू डोंट लुक अ डे ओल्डर दैन थर्टी फाइव!” लतिका ने माँ के खाली हो चुके स्तन को चूमते हुए कहा, “फॉर मी... यू आर एन ऐपिटोमी ऑफ़ द अल्टीमेट ब्यूटी!” माँ के गले में अपना आलिंगन डालते हुए लतिका बोली।
“हा हा... बुड्ढी हूँ मैं!”
“धत्त! बुड्ढे होंगे आपके दुश्मन!” लतिका ने उतने ही अल्हड़पन से कहा, “अभी तो आपको एक दो और बच्चे हो सकते हैं!”
“हा हा... न बाबा! अब बस! चार बच्चे हैं मेरे... बहुत हैं!”
“चार?” लतिका ने शिकायती अंदाज़ में कहा।
“ओह, सॉरी सॉरी... चार नहीं, छः!”
“हाँ!”
माँ और लतिका कुछ देर कुछ बोली नहीं। एक पूरा स्तन पी कर वो संतुष्ट हो गई थी, लेकिन वो माँ के स्तनों को रह रह कर चूम रही थी - जैसे वापस उनसे अपना परिचय कर रही थी। कई महीनों के बाद उसको अवसर मिला था माँ से स्तनपान करने का। वो शायद वापस उन कोमल भावों को जीवित करना चाहती थी। माँ कुछ सोच कर मुस्कुराईं।
“क्या सोच रही हैं, बोऊ दी?”
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं यह सोच रही थी बेटू, कि अभी तू मेरी गोदी में लेट कर मेरा दूध पी रही है... लेकिन वो दिन दूर नहीं जब तेरी भी शादी हो जाएगी... तू भी माँ बनेगी...”
फिर लतिका के स्तनों को अपनी हथेलियों से ढँकते हुए, “फिर ये तेरे क्यूट से ब्रेस्ट्स में भी दूध भर जाएगा!”
“हाआआआ... बोऊ दी!”
“अरे क्या हाआआ? याद है? मैंने तुझसे वायदा किया था... कभी तेरी शादी किसी राजकुमार से करवाऊँगी! ... अब वो राजकुमार ढूँढने का समय आ गया है!”
लतिका ने एक स्निग्ध मुस्कान दी - कोई विरोध नहीं किया इस बात का।
“आप लोगों को छोड़ कर मैं थोड़े ही चली जाऊँगी कहीं!”
“अरे मेरा बस चले, तो तुझको अपने से दूर न जाने दूँ! लेकिन क्या करें...”
“बोऊ दी?”
“हम्म?”
“अगर बस नहीं चल पा रही है, तो ट्रेन ही चलवा दीजिए न!” लतिका ने बड़े सीरियस अंदाज़ में बड़ी मज़ाकिया बात बोली।
“अरे! हा हा हा! बदमाश लड़की!”
“आपको ऐसे खिलखिला कर हँसते देख कर खूब अच्छा लगता है...”
“थैंक यू बेटा... मेरी हँसी, मेरी ख़ुशी... सब कुछ तुम सब से है... मेरे बच्चों से... मेरे परिवार से!”
लतिका मुस्कुराई, “हम सब हैं आपके पास...”
“हाँ...” बात बहुत इमोशनल होने जा रही थी, इसलिए माँ ने बात पलट दी, “अच्छा... अगर तुमको अपने लिए कोई पसंद हो, तो पहले ही बता देना! ... हिचकना नहीं!”
“आई लव यू मम्मा!” लेकिन लतिका किसी और ही दुनिया में थी... कहीं दूर खोई हुई सी वो बोली।
“आई लव यू टू मेरी जान... खूब प्यारू!” फिर माँ उसको छेड़ती हुई बोलीं, “अच्छा... अगर तेरा हो गया हो, तो ब्लाउज पहन लूँ?”
“हो तो गया है बोऊ दी! लेकिन आपको ब्लाउज क्यों पहनना है? बाहर या तो आपके बच्चे हैं, या फिर आपके हब्बी! दोनों से ही क्या शर्म?”
“अच्छा जी! बड़ी बड़ी बातें बनाने लगी है मेरी लाडली!” माँ ने उसकी नाक के अग्रभाग पर चिकोटी काटते हुए कहा, “लगता है कि सच में आपकी शादी करानी होगी, जल्दी ही!”
*
जब लतिका और माँ हॉल से चले गए, तो मैंने पापा से कहा, “पापा, आपके साथ बैठ कर स्कॉच पीने का मन था!”
“अरे धीरे बोलो बेटे... तुम्हारी माँ ने सुन लिया तो तुम्हारा और मेरा - दोनों का स्कॉच पीने का फिर कभी मन नहीं होगा!” पापा ने हँसते हुए कहा।
पापा और माँ की बातें हमारे सामने वैसी ही होतीं थी जैसे किसी बहुत लम्बे अर्से से विवाहित जोड़े की हो। लेकिन हमको मालूम था कि उन दोनों के बीच गज़ब की इंटिमेसी है! इतना मज़बूत था उन दोनों का प्रेम, कि क्या कहें। उन दोनों के देख कर मेरे भी मन में विवाहित होने की इच्छा होती। एक समय था जब माँ के चेहरे पर सूनेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं था, और एक आज का दिन है - गुलाब के जैसा ही खिला खिला रहता है माँ का चेहरा! ऐसा नहीं है कि उनका जीवन बेड ऑफ़ रोज़ेस रहा है! लेकिन दोनों ने मिल कर, साथ में, शून्य से शुरू कर के आज यह सब बना लिया है।
फिर वो दबी आवाज़ में बोले, “ग्लेनफ़िडिक है क्या?”
मैंने मुस्कुराते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“ट्वेल्व ऑर एटीन?”
“एटीन!” मैंने लगभग हँसते हुए कहा।
“रुको, दो ग्लास लाता हूँ तुरंत!”
ऐसा नहीं है कि माँ हम दोनों में से किसी को भी मना करतीं या कुछ भी कहतीं। अगर बाप बेटे के साथ बैठने का यह एक बहाना था, तो उनको पूरी तरह से मंज़ूर था। लेकिन वो मुझको चाय तक नहीं देती थीं, कि बेटे को अपना ही अमृत देना है। अपने पति को खैर, वो क्या ही कहतीं, ख़ास तौर पर तब जब उनका पति उनकी सब बातें सुनता, और मानता! ऐसे में इस तरह के एक दो छोटे अतिऋमण माँ नज़रअंदाज़ कर देतीं। हाँ, लेकिन, हम बाप बेटे के बीच इस बात का बढ़िया जोक बन जाता। पापा से इस तरह का मज़ाक कर के ऐसा लगता कि वो हमेशा से ही मेरे पापा हैं। अच्छा लगता यह सोच कर!
पापा गिलास ले आए और मैंने हम दोनों के लिए डबल पेग बनाया - स्कॉच में बर्फ़ हम दोनों को ही पसंद नहीं थी। इतनी स्वादिष्ट और महँगी मदिरा का मज़ा क्यों खराब करना?
हमने गिलास टकरा कर ‘चीयर्स’ किया और पहला सिप लिया!
“आह, क्या बढ़िया टेस्ट है!” पापा ने कहा, फिर अचानक से कुछ याद करते हुए, “अरे रुको दो मिनट... चखना भी ले कर आता हूँ!”
“कहाँ रखा है? मैं ले आता हूँ!”
“अरे रुको बेटा... थोड़ा बैठो! अपने पापा के राज में हो... थोड़ा आराम कर लो!” उन्होंने कहा, और चखना लेने चले गए।
वापस आए तो चखने के नाम पर भुजिया और नमकीन पारे थे, जो माँ ने त्यौहार के लिए बनाएँ होंगे।
‘हाँ,’ पहला चखते ही माँ के हाथों के हुनर का स्वाद आ गया।
हम लोग कुछ देर बातें करते हुए पहला पेग ख़तम ही कर रहे थे कि माँ वहाँ आ गईं।
“शुरू हो गया आप दोनों का?” माँ ने हमको देखते ही कहा, “खुद तो बिगड़े ही हैं, बेटे को भी बिगाड़ रहे हैं!”
“सही कह रही हैं बोऊ दी आप...” लतिका ने अपने दादा की टाँग खींचते हुए कहा, “इन्होने पीना छोड़ दिया है! ... दादा ही हैं अपनी गन्दी आदतें लगा रहे हैं इनको...”
“अबे... फूटी हुई पुचुकी!” पापा ने अपनी बहन को मज़ाक करते हुए चिढ़ाया, “तुझसे बाप बेटे का प्यार देखा नहीं जाता? ... खुद तो अपनी बोऊ दी का दूध पीती है, तो मैंने मना किया क्या?”
“दादू,” उधर आभा ने अपने दादा जी की क्लास ले ली, “नो नेम कॉलिंग टू माय मीठी दीदी!”
“आS मेरा मिष्टु बाबू... सॉरी बेटू!” पापा ने आभा को अपनी गोदी में समेटते हुए कहा, “लेकिन भाई बहनों में कभी कभी ऐसा हँसी मज़ाक चलता है।” फिर लतिका की तरफ़ बाँह बढ़ाते हुए, “इधर आप मेरी गुड़िया,”
जब लतिका उनके बाहों में आ गई, तो उन्होंने उसके माथे को चूम कर कहा, “तू तो मेरी बहुत प्यारी गुड़िया है न! सॉरी बेटू!”
“अरे दादा... आप भी! सॉरी क्यों कहा आपने! मैंने कोई बुरा थोड़े ही माना! मैं भी तो आपकी चुगली कर रही थी!”
“मेरे बच्चों,” पापा ने दोनों को अपने आलिंगन में समेटते हुए कहा, “तुम दोनों तो मेरी आँखों के तारे हो! एक मेरा हीरा... और एक मेरा मोती!”
“कौन हीरा है, दादू,” आभा अपने चंचल स्वभाव के चलते पूछा, “और कौन मोती?”
“अब बताइए इसका उत्तर! बचपन से इस सवाल का जवाब देते नहीं बन रहा है मेरा तो!” माँ ने हँसते हुए कहा।
“मैं हूँ हीरा,” लतिका ने आभा को छेड़ते हुए कहा, “और तुम मोती!”
“और आपका हीरा कौन है दीदी?” आभा ने चहकते हुए कहा।
“तुम हो बेटू... और कौन?” अचानक ही लतिका का स्वर ममतामई हो गया, “तुम हो मेरा हीरा!”
*
खूब लम्बा और वात्सल्य से भरपूर अपडेट है।अचिन्त्य - Update #3
उसका जन्मदिन वो दिन था, जब मुझको लगा कि अचानक ही लतिका के व्यवहार में अंतर आ गया हो!
जब वो मेरे आस पास होती, तो उसका व्यवहार थोड़ा बदला हुआ सा रहता। मेरे साथ अब वो थोड़ा संकोच दिखाती थी... वो पहले वाला, उन्मुक्त, खुला हुआ व्यवहार कम होने लगा था। अभी भी हम दोनों साथ में जिम जाते थे, साथ में रेस लगाते, एक दूसरे को चैलेंज करते; लेकिन अब मेरी उपस्थिति में उसके व्यवहार में एक नज़ाकत भी दिखने लगी थी। ऐसा नहीं था कि पहले नहीं दिखती थी; लेकिन अब कुछ अधिक होने लगा था। कुछ समय पहले वो मुझको ‘अमर बेटे’ कह कर हँसी मज़ाक कर लेती थी... लेकिन वो भी बंद हो गया! अब वो मेरे लिए ‘आप’ के अतिरिक्त किसी और सम्बोधन का प्रयोग नहीं करती थी! थोड़ा संकोच करती मेरे साथ... जिम में भी, स्ट्रेचिंग, बैक रबिंग इत्यादि के लिए अब वो जिम-फ्लोर के ट्रेनर्स को पुकारती थी... मुझे नहीं। इसके अलावा, उसके कपड़े अब और भी शालीन हो गए थे - बिना आवश्यकता के मेरे सामने अंग प्रदर्शन नहीं होता था। छोटे निक्कर, टैंक टॉप्स पहनना उसका अचानक ही बंद हो गया! खैर, उससे मुझे कोई दिक्कत भी नहीं थी। मैं ऑफिस से आता, तो मेरे दिन के बारे में वो पूछती; उसकी बातों में परवाह - दायित्व वाला बोध अधिक होता। उसका वस्तुओं के लिए मुझसे ज़िद करना बंद हो गया! कोई बड़ा अंतर नहीं - बस, ऐसी ही छोटी छोटी बातें थीं, जो अचानक से ही अलग हो गई थीं!
छोटी बातें, लेकिन मैंने नोटिस करीं। फिर सोचा, कि बढ़ती, सायानी होती लड़की है! व्यवहार में अंतर तो आएगा ही। अच्छी बात है! सच कहूँ, तो उसका वो अल्हड़, खुलेपन वाला हँसता खिलखिलाता रूप भी मुझको बड़ा भाता था, और ये सायना, सौम्य मुस्कान लिए हुआ रूप भी! कितनी ग्रेसफ़ुल हो गई थी वो! और भी सुन्दर हो गई थी वो!
लेकिन एक बात जो मैंने नोटिस करी वो यह कि मेरे अतिरिक्त, घर के सभी सदस्यों के साथ उसका व्यवहार पूर्ववत ही था! आभा के साथ वो अभी भी खेलती, हँसती, खिलखिलाती, और उसका ख़याल रखती। आभा तो वैसे भी उसकी पूँछ थी... जो लतिका करती, या कहती, वो सब आभा को करना ही होता। माँ के साथ, वही पुराना ननद-बेटी वाला व्यवहार! उनके साथ वैसा ही अल्हड़पन, उनसे हँसी मज़ाक करना, उनको छेड़ना, उनसे ज़िद करना - वो सब बदस्तूर जारी था!
*
केवल लतिका पर यह इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं कि उसके व्यवहार में अंतर आ गया था। मैं स्वयं भी अपने आप को थोड़ा सम्हाल कर रहने लगा - ख़ास कर लतिका के सामने। उस दिन जो मैंने किया, उसकी एक अमिट छाप मेरे मष्तिष्क पर छूट गई। हवस के कारण आदमी कितना गिर सकता है, अब मुझको समझ में आ गया था। मैंने निश्चित कर लिया कि शिष्टाचार के दायरे में रह कर, एक समुचित दूरी बना कर ही मैं लतिका के साथ बात चीत, और अन्य क्रिया कलाप करूँगा। अब मैं लतिका के सामने थोड़ा अधिक सतर्क हो कर रहने लगा - कि कहीं कोई ऐसी वैसी बात न निकल जाए मुँह से। अपना रहन सहन भी थोड़ा ठीक कर लिया। स्कॉच पीना बहुत कम हो गया - हफ़्ते में बस एक स्टैण्डर्ड ड्रिंक! इससे स्वास्थ्य लाभ भी तो होगा! काम में थोड़ा और भी व्यस्त रहने लगा।
लेकिन उसके अलावा मैं लतिका की उन्नति में लगातार शामिल था - उसके ट्रेनर्स के साथ नियमित रूप से मिलता और हर आवश्यक चीज़ मुहैया करवाता। उसके कॉलेज में भी जब भी कोई मीटिंग होती, मैं ही उपस्थित रहता। कभी कभी मैं उसको ऑफिस भी आने को आमंत्रित करता - जिससे वो देखे कि जिस कंपनी की वो ‘मालकिन’ है (उसकी शेयरहोल्डिंग है), वो कंपनी क्या करती है, और कैसे करती है! अब वो बालिग़ थी, और कानूनन भी अब वो अपने मालिकान अधिकार का इस्तेमाल कर सकती थी। इसलिए दीपावली के पहले जो एडमिनिस्ट्रेटिव मीटिंग थी, उसमें लतिका भी शामिल थी। उसके जन्मदिन के बाद मैंने उसको ड्राइविंग लाईसेंस लेने के लिए भी प्रेरित किया। मन में ख़याल आया कि उसके अगले जन्मदिन पर एक कार भेंट दूँगा!
*
लतिका के जन्मदिन से कोई तीन महीने बाद इस साल की दीपावली थी।
इस बार निश्चित हुआ कि हम तीनों त्यौहार में मुंबई जाएँगे और वहीं पर, सभी के साथ त्यौहार मनाएँगे। सभी के साथ मतलब - पूरे खानदान के साथ! माँ पापा के साथ अम्मा और सत्यजीत का परिवार भी, और ससुर जी और जयंती दी का परिवार भी - हम सब एक साथ, एक छत के नीचे होंगे! वीकेंड मिला कर आराम से पाँच दिन की छुट्टी मिल रही थी। अच्छा था - पूरे खानदान के साथ त्यौहार मनाने का अलग ही मज़ा है! मैं तो अभी से ही उत्साहित होने लगा था।
जीवन के इस पड़ाव तक हमने मुंबई के एक उपनगर में दो बड़े फ्लैट्स अगल-बगल ले कर, उनको बीच से जोड़ दिया था। इस तरह से हमारे पास एक बहुत बड़ा सा घर हो गया था मुंबई में - पूरे छः कमरे वाला! साथ में स्टोर-रूम, आवश्यकता पड़ने पर एक फुल-टाइम कामवाली के रहने की व्यवस्था, एक बड़ा सा मुख्य हॉल, एक छोटा उप-हॉल - यह सब मिल कर इतना बड़ा घर हो गया था, कि अगर मन करे, तो हमारा पूरा खानदान आराम से रह सकता था! आधा हिस्सा तो वैसे बंद रहता, क्योंकि उसके रख-रखाव में कठिनाई होती थी। लेकिन इस बार उसका भी कुछ नहीं तो एक सप्ताह के लिए इस्तेमाल हो जाता! लेकिन यह केवल एक बहाना था।
एक बात और भी थी, जो मेरे मन की हो रही थी - पापा और माँ पिछले कुछ महीनों से हमेशा कह रहे थे कि क्यों न हम सभी यहीं आ कर रहें, एक साथ! इतना बड़ा घर, और खाली खाली अच्छा नहीं लगता! दिल्ली वाला बंगला किराए पर दिया जा सकता था, या बेचा जा सकता था। किराए पर न भी देते या न भी बेचते, तो भी उस प्रॉपर्टी का उचित इस्तेमाल संभव था। खैर, जो भी हो - अब पूरे परिवार को साथ में रहना चाहिए, ऐसा पापा कह रहे थे। माँ भी बड़े दिनों से इसी टीस में थीं। सुझाव अच्छा था - दिल्ली का बंगला बेचने का नहीं, मुंबई में सभी के साथ में रहने का - मेरा काम भी अब इतना बढ़ गया था कि लगभग पूरे देश में मेरे क्लाइंट्स थे; कुछ विदेश में भी। लिहाज़ा, अब मुंबई में मुख्य कार्यालय बनाया जा सकता था, दिल्ली से हटा कर! इससे उत्तर और दक्षिण दोनों भागों के क्लाइंट्स से मिलने में आसानी रहती।
दिल्ली से मुंबई जाने का एक और भी अभिप्रेरण था - दिल्ली में पिछले कुछ वर्षों से दो प्रकार के प्रदूषण बहुत ही अधिक बढ़ गए थे : पहला था पर्यावरण प्रदूषण, और दूसरा था चरित्र प्रदूषण! पर्यावरण प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था, और चरित्र प्रदूषण परिवार और समाज की सुरक्षा के लिए! मैंने महसूस किया था - एक अजीब सा, असुरक्षित सा एहसास बना रहता... हमेशा! दो लड़कियाँ घर में थीं, तो उनकी सुरक्षा को ले कर अब बड़ी चिंता होने लगी थी, कि कहीं उनके साथ कुछ ग़लत न हो जाए! एक डर सा बना रहता! अच्छा नहीं लगता... ऐसे अनजाने से ख़ौफ़ के माहौल में परिवार को कैसे बड़ा किया जा सकता है? तो मैंने पापा और माँ को दिलासा दिया कि एक बार लतिका का ग्रेजुएशन पूरा हो जाए, फिर हम चले आएँगे! अब मेरा भी मन माँ पापा के साथ ही रहने का होने लगा था। लतिका के साथ ही आभा की भी आठवीं पूरा हो जाता, और उसका एडमिशन होना भी आसान था। बढ़िया!
बस एक ही कठिनाई थी - ससुर जी लगभग अकेले से हो जाते! रहते वो अभी भी अकेले ही थे, लेकिन जयंती दी, और हम लोग सप्ताह में दो बार तो उनसे मिल ही लेते थे, और वो भी जब मन होता, चले आते। करीब सतहत्तर साल की उनकी उम्र थी, इसलिए अब उनका अपने रहने सहने में आमूल चूल परिवर्तन कर पाना संभव नहीं था। एक बार मैंने इस बारे में उनसे बात करी कि अगर हम मुंबई चलते हैं, तो क्यों न वो भी हमारे साथ ही मुंबई में रहें? उन्होंने इस बात से न तो इक़रार किया और न ही इंकार! बस इतना बोले कि ‘बेटे, आगे की सुध लो! हम तो अपना जी चुके!’
सच कहूँ, ये बात सुन कर इतना खराब लगा कि क्या कहें! हमारा पूरा परिवार उनको अपना ही मानता था - अपना अग्रज! परिवार का अघोषित मुखिया! लेकिन फिर लगा कि पूरी तरह से इंकार नहीं किया है, तो संभव है कि साथ में आ कर रह सकें! देखते हैं।
*
हम तीनों - मतलब मैं, लतिका, और आभा, सबसे पहले पहुँचे मुंबई! बाकी के सभी लोग अगले दो दिनों में आने वाले थे। जब हम घर पहुँचे, तो देखा कि पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। पापा ने बड़े उत्साह से घर को गेंदे के फूलों की मालाओं से सजवाया था। दरवाज़े पर आम्र-पल्लव के तोरण सजे हुए थे, और जहाँ भी संभव था, सुन्दर सी झालरें सजी हुई थीं। बड़े उत्साह से उन्होंने बच्चों के लिए आतिशबाज़ी का बंदोबस्त भी कर रखा था! उत्साह क्यों न हो? एक लम्बे समय के बाद सभी का यूँ साथ में होने का अवसर बना! अनायास ही डैड की याद हो आई - आज भी याद है मुझको कि जब मैं और गैबी साथ में रह रहे थे, और वो पहली बार दीपावली में आए थे, तो कैसे आराम फ़रमा रहे थे - सारा काम मेरे जिम्मे छोड़ कर! डैड की अदा भी निराली थी। मन में कहीं एक हलकी सी टीस अवश्य उठी, कि काश वो यूँ न चले गए होते! एयरपोर्ट से आते हुए हमने फ़ोन कर दिया था; इसलिए दरवाज़े पर माँ, पापा, और तीनों बच्चे पहले से ही हमारे स्वागत में खड़े थे।
आज धनतेरस था, तो माँ ने त्यौहार के ही अनुरूप रेशम की रंगीन, लाल बैंगनी साड़ी पहनी हुई थी और थोड़े भारी आभूषण भी! बालों में जूड़ा बंधा हुआ था और उसमें मोगरे का गजरा भी सजा हुआ था! बालों के बीच कढ़ी हुई माँग में लाल रंग का सिन्दूर सुशोभित हो रहा था! होंठों पर उनके रंग को निखारने वाली हल्के लाल रंग की लिपस्टिक रची हुई थी, और आँखों में बेहद पतली एक रेखा काजल की! इस रंग-रोगन ने केवल उनको छुवा था, और कुछ नहीं! लेकिन उतने में ही ऐसा अद्भुत सौंदर्य निखर कर निकला था उनका कि क्या कहें! सच में, उनको देख कर हमेशा लगता है कि एक सौभाग्यवती, गुणवती, और रूपवती स्त्री का रूप और सौंदर्य कैसा होता है! श्री का रूप हैं माँ! सच में, पापा का घर और जीवन उन्होंने सम्पन्नता से भर दिया था!
माँ लगभग बावन की हो रही थीं, लेकिन उनकी उम्र-चोरी अभी भी ज्यों की त्यों थी! बहुत अधिक हुआ तो चालीस वर्ष की एक सुन्दर महिला लगतीं! आज तो कोई उनको पैंतीस से अधिक का कह ही नहीं सकता था! जल्दी जल्दी तीन बच्चे करने और तीनों को अनवरत स्तनपान कराने के कारण उनके स्तन अब पहले से थोड़े अधिक बड़े हो गए थे, और उनके नितम्ब भी आकार में थोड़े बढ़ गए थे। लेकिन उनका पेट वापस, पहले जैसा ही लगभग सपाट हो गया था, और क्षीण कमर होने के कारण अब वो पहले से भी अधिक सुडौल लग रही थीं!
पापा उनको अभी भी छेड़ते कि ‘दुल्हनिया अब और भी सेक्सी हो गई है’!
इस बात में बड़ी सच्चाई थी - पापा की संगत में माँ बहुत चञ्चल, उन्मुक्त, हँसमुख, और मुखर हो गई थीं, जैसी वो अपने किशोरवय में रही होंगी। साथ ही साथ वो अपने शरीर का बहुत ख़याल रखतीं, जिससे उनका आकर्षण बना रहे। ऐसा नहीं है कि उनका शरीर बेडौल होने से पापा के मन में उनके लिए प्रेम में कोई कमी हो जाती - क्योंकि दोनों का प्रेम शारीरिक आकर्षण पर निर्भर नहीं था। लेकिन माँ पापा को संतुष्ट करना अपना धर्म भी मानती थीं, और अधिकार भी। जिससे प्रेम और विवाह हुआ है, उसको हर तरह की संतुष्टि मिलनी चाहिए - ऐसा उनका मानना था। शायद इसी प्रेरणा के कारण माँ के सौंदर्य में प्रत्येक प्रसूति के बाद और भी अधिक निखार आ रहा था।
पापा ने बंगाली स्टाइल का हल्के पीले रंग का कुर्ता और सफ़ेद धोती पहनी हुई थी। पापा अब मेरी उम्र के लगने लगे थे - तीन बच्चों के लालन पालन, और कार्यस्थल पर पदोन्नति और बढे हुए कार्यभार ने उन पर अपनी छाप छोड़ ही दी थी! कलम के बाल थोड़े सफ़ेद होने लगे थे और चेहरे पर हँसी मुस्कान की लक़ीरें साफ़ दिखाई देतीं। आँखों पर चश्मा भी चढ़ गया था, तो थोड़ा उम्रदराज़ भी लग रहे थे! घर के बड़े होने के कारण सभी की चिंता करना, हर काम में आगे रहना, सामाजिक कार्यों और प्रयोजनों में परिवार का प्रतिनिधित्व करना - यह सब अब उन्ही के जिम्मे था। उनके विपरीत मैं अवश्य ही अपनी उम्र से कम लगने लगा था - नियमित व्यायाम, अनुशासित जीवन, और लतिका जैसी स्वास्थ्य प्रेरक की संगत में मेरा स्वास्थ्य बहुत बढ़िया हो गया था। माँ के जीन्स का प्रभाव अब मुझमें भी दिखने लगा था शायद! खुश भी बहुत था मैं अब! और, ख़ुशी के कारण वैसे भी उम्र कम लगती ही है!
मैंने सबसे पहले पापा के पैर छुए। उन्होंने ‘मेरा बेटा’, ‘मेरा बेटा’ कहते हुए मुझे ढेरों आशीर्वाद दिए और कस कर अपने गले से लगा लिया... और जब छोड़ा तो कई बार मेरे माथे को चूम लिया! सच में - लोग चाहे कुछ भी सोचें या कहें - मुझको तो पापा से पापा वाला ही प्यार मिलता था! अब तो उम्र के अंतर वाली बात याद भी नहीं आती थी! उनके साथ हो कर ऐसा ही लगता कि मेरे पापा ही हैं मेरे साथ! मैं उनके सामने बच्चा ही हो जाता - इतना प्यार, इतना दुलार मिलता मुझको! उनके लिए मेरे भाव भी वैसे ही थे कि जैसे मैं उनकी ही संतान हूँ। ऐसा नहीं है कि डैड को मैं भूल गया - वो तो संभव ही नहीं। लेकिन हाँ, मुझको इस बात पर गर्व अवश्य होता था कि मैं दो बहुत ही महान, और अच्छे पुरुषों का बेटा हूँ! उनसे कुछ पल हाल चाल का आदान प्रदान हुआ, फिर मैंने माँ के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया। माँ ने भी ‘मेरा बेटा’, ‘मेरा बच्चा’ कहते हुए मुझे अपने से चिपका लिया और खूब चूमा। सच कहूँ - आपकी उम्र चाहे कुछ हो जाए, लेकिन अपनी माँ के सीने से लग कर आपको उसी सुख का आनंद मिलता है, जो सुख आपको शायद पहली बार मिला होगा। ईश्वर और माँ में शायद यही समानता होती है!
आभा अपने टीन-ऐज में प्रवेश कर चुकी थी, लेकिन उस बात से उसका अपने दादा जी से लाडलेपन में कोई अंतर नहीं आया। पापा ने उसको झट से अपनी गोदी में उठा लिया और उसके गालों को पूरा अपने मुँह में भर कर मज़ाक के तौर पर काटा और बोले, कि ‘मैं खा लूँगा इन मीठे मीठे रसगुल्लों को’! और आभा खिलखिला खिलखिला कर हँसते हुए पूरे घर को गुलजार करने लगी। मज़ेदार बात यह थी कि क़द में आभा अब काफी ऊँची हो गई थी - मतलब उसको गोद में उठाने से दिक्कत होने लगती... लेकिन पापा को इस बात से कोई सरोकार नहीं था - और पापा की गोद में वो इस तरह लटकी हुई थी कि उसके पैर पापा के घुटनों से टकरा रहे थे। लेकिन न तो उसको इस बात की परवाह, न पापा को! वो अलग बात है कि उन दोनों को ऐसे देख कर बाकी लोगों की हंसी छूटने लगी।
आदित्य अब लगभग साढ़े सात साल का एक सुदर्शन बालक था; आदर्श पाँच साल से थोड़ा ऊपर हो गया था, और बड़ा चञ्चल बच्चा था - लगभग माँ जैसी ही चञ्चलता थी उसमें; और अभया अब तीन साल की पूरी हो गई थी, और बहुत ही सुन्दर, गुड़िया जैसी लगती! उसकी आवाज़ बड़ी मीठी थी, और हाल ही में सीखी हुई कविताएँ सुना सुना कर सबको तंग कर डालती। अम्मा की बेटी गार्गी भी साढ़े तीन की हो चुकी थी - वो भी स्वस्थ और सुन्दर सी बच्ची थी। सत्या और अम्मा के जेनेटिक गुणों का संतुलित मिश्रण था उसमें। हमारे खानदान की पौध तेजी से विकसित हो रही थी; सभी बच्चे स्वस्थ, सुन्दर, चञ्चल, लेकिन बड़े ही मृदुल स्वभाव के थे। साथ ही साथ वो संस्कारी भी थे - माँ बाप जैसी शिक्षा देते हैं, जैसे संस्कार देते हैं, वो सब बच्चों के व्यवहार में परिलक्षित होने ही लगता है। तीनों बच्चों ने हम सभी के पैर छू कर आशीर्वाद लिए। क्यों न हो? जब माँ बाप ऐसे हों, तो उनके गुण बच्चों में आने स्वाभाविक ही हैं। आदित्य हम सभी के लिए ट्रे में पानी ले कर आया... स्वयं! घर में गृह-कार्य सहायिका थी, लेकिन फिर भी काम और सेवा करने में गर्व होना चाहिए! बड़ा अच्छा लगा उसको ऐसे करता देख कर! सभी बच्चों के लिए बैग भर भर कर त्योहारी लाई गई थी, तो शाम उसी सब में बीत जानी थी। वैसे भी अभी कुछ ही देर में आभा, सभी बच्चों की गैंग लीडर बन कर पूरे घर में धमाचौकड़ी मचाने ही वाली थी।
लतिका जब माँ से मिली तो बहुत भावुक हो गई! माँ के पैर छू कर वो अपनी ‘बोऊ दी’ से वैसे ही लिपट गई, जैसे हमेशा करती आई थी। माँ भी उसको उसी तरह का लाड़ कर रही थीं, जैसे कि वो अट्ठारह नहीं, बल्कि पंद्रह साल पहले वाली नन्ही सी बच्ची हो! ‘मेरी पूता’, ‘मेरी बच्ची’, ‘मेरी गुड़िया’, ‘मेरा बेटू’ यह सब कह कह कर माँ खुद भी भावुक हो रही थीं। लतिका ने और भी भावुक होते हुए माँ को ज़ोर से अपने आलिंगन में पकड़ लिया।
“क्या हो गया मेरा बच्चा?” माँ ने बड़े लाड़ से लतिका से पूछा।
“लॉस ऑफ़ लव हो गया है हमको,” उसने ठुनकते हुए माँ से शिकायत करी, “आप सभी यहाँ आ गए! अब कौन करेगा मुझको प्यार? बताइए?”
“अरे मेरी बच्ची... अरे मेरी पूता...” माँ ने लाड़ से कहा, “खूब सॉरी बेटा! खूब सॉरी! ... देखो न, अब जल्दी ही तुम सब यहाँ आ जाओगे... हमारे साथ! सब साथ में रहेंगे! अब कोई कमी नहीं रहेगी तुम्हारे हिस्से के प्यार में!”
“नहीं,” लतिका ने मुँह फुलाते हुए फिर से शिकायत करी।
“मेरी बात पर विश्वास नहीं बेटू?” माँ ने मुस्कुराते हुए उसका माथा चूमा।
उसने बिना कुछ कहे ‘न’ में सर हिलाया। उसका मुँह अभी भी फूला हुआ था - हाँ, सब बनावटी बातें ही थीं, लेकिन माँ को देख कर कोई भी बच्चा बन जाए! वो प्यार ही इतना लुटाती थीं!
“अले मेला बेटू... हमसे गुच्चा हो गया,” माँ ने उसको तोतली जुबान में बहलाया, “अपनी बोऊ दी से गुच्चा है? माफ़ कर दो मुझे... खूब प्यार करूँगी तुमको बच्चे! ... तुम्ही सब तो हो मेरा परिवार... मेरा सब कुछ!”
लतिका हाँलाकि खेल खेल में ही नाराज़ थी, लेकिन वो भावुक भी थी। उसकी आँखों से आँसू निकल गए,
“आप भी चली गईं... अम्मा भी चली गईं... किसके भरोसे छोड़ दिया था हमको? हम सभी को?” उसने फिर से मनुहारते हुए शिकायत करी।
“सॉरी बेटा... आई नो, तुम सभी को बहुत तकलीफ़ हुई है!” माँ थोड़ा दुःखी होते हुए बोलीं।
उसके कारण माँ दुःखी हो जाएँ, यह लतिका को गवारा नहीं था।
“नहीं मम्मा... तकलीफ़ नहीं... लेकिन हमको भी आपका प्यार चाहिए न! ... खूब प्यार चाहिए!”
लतिका ने माँ को बहुत समय के बाद ‘मम्मा’ कह कर पुकारा था - यह बात माँ से छूटी नहीं।
“हाँ बेटू... बहुत प्यार चाहिए!” माँ ने उसको प्यार से अपने में ही दुबकाते हुए कहा, “खूब प्यार दूँगी अपने बच्चे को! तू तो मेरी लाडली है... ये क्यों भूल जाती है?”
पहली बार वो मुस्कुराई। माँ के साथ अपने आलिंगन से अलग होते हुए उसने उनको एक बार चूमा, और उनके स्तनों को कोमलता से छुआ। माँ समझ गईं कि लतिका को क्यों लॉस ऑफ़ लव हो गया, और उसको क्या चाहिए!
“बस थोड़ी ही देर में बेटू... नाश्ता लगा दूँ... कुछ खा लो, फिर अपनी बिटिया रानी को अपनी गोदी में बिठा कर दूध पिलाऊँगी!” माँ ने उसको दुलारते हुए वायदा किया।
पापा तब तक लतिका को अपनी गोदी में चढ़ाए माँ के बगल ही आ गए थे, और उनकी बात उन्होंने सुन ली थी।
“अरे भाग्यवान,” पापा ने कहा, “उसका मन है तो अभी पिला दो न! ... हमारे तीनों बच्चे न जाने कब से तरस रहे हैं माँ के दूध के लिए!”
पापा की बात सुन का लतिका ने दयनीय सा मुँह बनाया। मुझे हँसी आ गई, लेकिन मैंने उसको दबा लिया। क्या पता... मेरे हँसने से कहीं लतिका को बुरा न लग जाए! वैसे भी स्तनपान करना हमारे घर में कोई हँसने वाली बात नहीं थी - मैं स्वयं इसका लाभार्थी था। जब अपना घर शीशे का हो, तो दूसरे के घर पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए!
“अभी पिएगा, मेरा बच्चा?” माँ ने लतिका को दुलारते हुए कहा।
उसने ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“ठीक है... आ जा मेरा शोना... मेरी जान!”
“लव यू सो मच, बोऊ दी!”
“लव यू टू माय बेबी!”
माँ ने कहा, और मुख्य हाल से निकल कर, उप-हाल में रखे दीवान पर बैठ कर, अपनी ब्लाउज के बटन खोलने लगीं। उन्होंने ब्रा पहनी हुई थी - शायद इसलिए क्योंकि ब्लाउज रेशम का था, जो कोमल नहीं होता। रेशम अगर उनके स्तनों की कोमल त्वचा पर रगड़ खाता, तो निशान पड़ जाते। जब माँ ने ब्रा को ऊपर उठाया, तो लतिका अधीरता से उनका एक चूचक अपने मुँह में रखने की चेष्टा करने लगी, तो माँ ने हँसते हुए उसको थोड़ा सब्र रखने को कहा।
“बोऊ दी... इसको उतार दो न पूरा...” लतिका ने बेसब्री से सुझाव दिया।
माँ को उसकी बात पर हँसी आ गई; लेकिन उन्होंने ब्लाउज पूरी उतार दी, और उनका एक स्तन मुक्त होते ही लतिका उसके दुग्ध-पूरित चूचक से जा लगी। लगभग तत्क्षण ही उसको माँ के अमृत का रसपान करने को मिलने लगा। लतिका बड़ी अधीरतापूर्वक दूध पी रही थी, लेकिन माँ के स्तनों में उसके लिए पर्याप्त से भी अधिक दूध था! मेरी भी हिस्सेदारी थी, लेकिन मैं लतिका या आभा के सामने उनका स्तनपान नहीं करना चाहता था।
“आराम से बेटू,” उन्होंने उससे बड़े प्यार से कहा, “बहुत दूध है! जब मन करे तेरा, मैं पिलाऊँगी! ... तुझको कब से मनाही होने लगी?”
“खूब दिन हो गए मम्मा...”
“हाँ बेटा... खूब दिन हो गए!” माँ ने उसका माथा चूमते हुए कहा, “तू भी तो खूब सायानी हो गई है! कितनी सुन्दर सी लगती है मेरी गुड़िया!”
अब इस बात पर वो क्या कहती? बस, चुपचाप दूध पीती रही।
माँ ने ही बातों की कड़ी आगे जोड़ी, “... पुचुकी बेटा... तेरे अट्ठारहवें बर्थडे पर हम नहीं आ सके, उसके लिए माफ़ कर दे बच्चे!”
“नहीं मम्मा... आई नो आपके लिए पॉसिबल नहीं था!”
“लेकिन हमने सोचा हुआ है... इस दिवाली पर मनाएँगे तेरा, मिष्टी का, और अमर का बर्थडे! एक साथ!” माँ ने चहकते हुए कहा, “क्या कहती है बेटू?”
वो कुछ बोली नहीं; लेकिन उसके गालों में लाल रंगत उतर आई। माँ की नज़रों से यह बात भी नहीं छुप सकी। लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ कहा नहीं। उन्होंने उसके अंगों और प्रत्यंगों को छूते हुए कहा,
“कुछ खाती भी है? कैसी सूख गई है!”
“कहाँ मम्मा... आप भी न! खूब खाती हूँ और अच्छी भी हूँ!”
“कोई अच्छी वच्छी नहीं हो! यहाँ आओ, कुछ ही दिनों में सब दुरुस्त कर दूँगी!”
“हा हा! ... मेरी प्यारी सी बोऊ दी... गेम्स होने वाले हैं न... इसलिए वज़न नहीं बढ़ा सकते! ओन्ली हेल्दी फूड्स! ... इसलिए मैं जब तक यहाँ हूँ, आप मुझको अपना दूध पिलाती रहना!”
“मेरे बच्चों के लिए ही तो है ये...” माँ ने बड़े लाड़ से कहा।
“क्यों बोऊ दी? दादा नहीं पीते क्या?” लतिका ने आँख मारते हुए माँ को छेड़ा।
“धत्त बेशरम...”
“अरे बेशरम क्यों? ... इधर हम बच्चे आँखों से ओझल हुए, और उधर दादा जी आपसे चिपक जाएँगे!”
“बेशरम हो गई है तू पूरी की पूरी...”
“हा हा... लेकिन सच में बोऊ दी! आप और दादा तो मेरे लिए दुनिया के ‘बेस्ट कपल’ हैं! परफेक्ट कपल! ... आप दोनों को प्यार करते देख... प्यार से बातें करते देख कर इतना अच्छा लगता है मुझको...!”
“थैंक यू बेटा...” कह कर माँ ने उसका माथा चूम लिया।
लतिका खुश होते हुए बोली, “बोलिए न बोऊ दी... दादा नहीं पीते क्या?”
“हा हा... अरे हस्बैंड वाइफ में छुपा ही क्या होता है रे?”
“लेकिन कुछ तो ख़ास है जो दादा कर रहे हैं! आपकी रंगत दिनों दिन निखरती आ रही है बोऊ दी!”
“हा हा... अब मैं तुमको क्या बताऊँ कि तुम्हारे दादा क्या नहीं करते!” माँ ने भी मज़ाक में शामिल होते हुए कहा - कुछ भी हो, लतिका आखरकार उनकी ननद ही थी, और उसके साथ उनका हँसी मज़ाक वाला रिश्ता भी था, “दिन में मेरे दो तीन घण्टे उन्ही के नाम हैं...” माँ कहते कहते रुक गईं!
“सच में बोऊ दी?”
“और नहीं तो क्या! ... बच्चे पीछे रह जाते हैं लेकिन उनकी सेवा सबसे पहले होनी होती है! ... सो कर उठने पर... सोने से पहले... बहुत बदमाश हैं तुम्हारे दादा!” माँ ने दबी आवाज़ में अपनी ननद से अपने वैवाहिक जीवन का रहस्य शेयर किया।
“बाप रे!”
“बाप रे? हा हा! अरे मेरी लाडो, मैं तो चाहती हूँ कि जब तेरी शादी हो, तो तुझे भी ऐसी ही बदमाशी करने वाला हस्बैंड मिले!”
“हाआआआ...” लतिका के गाल फिर से लाल हो गए, “ऐसा बदमाश हस्बैंड होगा मेरा, तो फिर सोऊँगी कब मैं?”
“अरे सोना, जागना, खाना, पीना, सब कुछ ‘उन’ कामों के साथ में ही होता रहता है!”
“आप भी न... बोऊ दी!”
“अरे मुझको क्या बोलती है? अपने दादा को बोल! आज तुम सब आने वाले थे न, इसलिए बच गई! नहीं तो ‘ये’ ब्रेकफास्ट बनाने के टाइम से शुरू हो जाते हैं...”
“हा हा हा... सच में बोऊ दी?” लतिका हँसते हुए बोली, “फिर?”
“फिर क्या? एक तरफ मैं पराँठे बनाती हूँ, और दूसरी तरफ़ ‘ये’ मेरा पराठा बनाते हैं!”
“हा हा... सो क्यूट! दादा लव्स यू सो मच बोऊ दी! ... है न?” लतिका ने माँ के एक गाल पर बड़ी कोमलता से अपनी तर्जनी फिराई।
“हाँ बेटू... बहुत!” माँ ने प्रसन्न होते हुए कहा।
“आप उनके साथ खुश हैं न?”
“बहुत खुश बेटा! ... बहुत बहुत खुश!” माँ ने कहा और अपने स्तन को थोड़ा दबाया, जिससे दूध की थोड़ी अधिक मात्रा लतिका के मुँह में जा सके। लतिका ने बड़ी ख़ुशी से यह अतिरिक्त दूध पी लिया।
“सच में पुचुकी... जो सारा सुख इन्होने मुझे पिछले आठ सालों में दे दिया है न, वो मुझे कभी नहीं मिला!” माँ ने कहा, “पहले भी खुश रहती थी... लेकिन इन्होने खुशियों के सभी मायने बदल दिए! इतना सुन्दर सा परिवार दिया है इन्होने मुझको! ... मैं इन तीन बच्चों की बातें नहीं कर रही हूँ! ... तुम... तुम सब!”
“आई ऍम सो हैप्पी टू हीयर दिस, बोऊ दी!”
“मुझे तुमको भी इसके लिए थैंक्स कहना चाहिए... तुम... तुम लोग मुझको न समझाते, तो मैं न जाने कितनी बड़ी बेवकूफ़ी कर देती इनसे शादी न कर के!”
“हो ही नहीं सकता था बोऊ दी! ... आपके अलावा मैं किसी और को अपनी बोऊ दी न बनने देती! ... हाँ!” लतिका ने अल्हड़पन से कहा, “मुझे तो बस आप ही चाहिए थीं... क्योंकि अगर आप दादा से शादी न करतीं, तो मुझे आपका मीठा मीठा दूधू कैसे पीने को मिलता?”
“अच्छा जी, तो आपको बस मेरा दूधू पीना था?”
“हाँ... वो भी, और आपके खूब सारे बच्चे देखने थे... उनके साथ खेलना था! आपको खुश देखना था... हमेशा हँसते मुस्कुराते हुए! इसलिए!”
“हाँ बेटा... ‘इन्होने’ तीन अनमोल तोहफ़े दिए हैं मुझको! और ये ही क्यों? देखो न... इनसे जुड़ने के कारण ही तो मैं अम्मा की बेटी बन सकी! ... मुझे मन में ही फ़ील नहीं होता कि मैं बावन की हूँ!”
“आप बावन की हो? झूठी बोऊ दी... यू डोंट लुक अ डे ओल्डर दैन थर्टी फाइव!” लतिका ने माँ के खाली हो चुके स्तन को चूमते हुए कहा, “फॉर मी... यू आर एन ऐपिटोमी ऑफ़ द अल्टीमेट ब्यूटी!” माँ के गले में अपना आलिंगन डालते हुए लतिका बोली।
“हा हा... बुड्ढी हूँ मैं!”
“धत्त! बुड्ढे होंगे आपके दुश्मन!” लतिका ने उतने ही अल्हड़पन से कहा, “अभी तो आपको एक दो और बच्चे हो सकते हैं!”
“हा हा... न बाबा! अब बस! चार बच्चे हैं मेरे... बहुत हैं!”
“चार?” लतिका ने शिकायती अंदाज़ में कहा।
“ओह, सॉरी सॉरी... चार नहीं, छः!”
“हाँ!”
माँ और लतिका कुछ देर कुछ बोली नहीं। एक पूरा स्तन पी कर वो संतुष्ट हो गई थी, लेकिन वो माँ के स्तनों को रह रह कर चूम रही थी - जैसे वापस उनसे अपना परिचय कर रही थी। कई महीनों के बाद उसको अवसर मिला था माँ से स्तनपान करने का। वो शायद वापस उन कोमल भावों को जीवित करना चाहती थी। माँ कुछ सोच कर मुस्कुराईं।
“क्या सोच रही हैं, बोऊ दी?”
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं यह सोच रही थी बेटू, कि अभी तू मेरी गोदी में लेट कर मेरा दूध पी रही है... लेकिन वो दिन दूर नहीं जब तेरी भी शादी हो जाएगी... तू भी माँ बनेगी...”
फिर लतिका के स्तनों को अपनी हथेलियों से ढँकते हुए, “फिर ये तेरे क्यूट से ब्रेस्ट्स में भी दूध भर जाएगा!”
“हाआआआ... बोऊ दी!”
“अरे क्या हाआआ? याद है? मैंने तुझसे वायदा किया था... कभी तेरी शादी किसी राजकुमार से करवाऊँगी! ... अब वो राजकुमार ढूँढने का समय आ गया है!”
लतिका ने एक स्निग्ध मुस्कान दी - कोई विरोध नहीं किया इस बात का।
“आप लोगों को छोड़ कर मैं थोड़े ही चली जाऊँगी कहीं!”
“अरे मेरा बस चले, तो तुझको अपने से दूर न जाने दूँ! लेकिन क्या करें...”
“बोऊ दी?”
“हम्म?”
“अगर बस नहीं चल पा रही है, तो ट्रेन ही चलवा दीजिए न!” लतिका ने बड़े सीरियस अंदाज़ में बड़ी मज़ाकिया बात बोली।
“अरे! हा हा हा! बदमाश लड़की!”
“आपको ऐसे खिलखिला कर हँसते देख कर खूब अच्छा लगता है...”
“थैंक यू बेटा... मेरी हँसी, मेरी ख़ुशी... सब कुछ तुम सब से है... मेरे बच्चों से... मेरे परिवार से!”
लतिका मुस्कुराई, “हम सब हैं आपके पास...”
“हाँ...” बात बहुत इमोशनल होने जा रही थी, इसलिए माँ ने बात पलट दी, “अच्छा... अगर तुमको अपने लिए कोई पसंद हो, तो पहले ही बता देना! ... हिचकना नहीं!”
“आई लव यू मम्मा!” लेकिन लतिका किसी और ही दुनिया में थी... कहीं दूर खोई हुई सी वो बोली।
“आई लव यू टू मेरी जान... खूब प्यारू!” फिर माँ उसको छेड़ती हुई बोलीं, “अच्छा... अगर तेरा हो गया हो, तो ब्लाउज पहन लूँ?”
“हो तो गया है बोऊ दी! लेकिन आपको ब्लाउज क्यों पहनना है? बाहर या तो आपके बच्चे हैं, या फिर आपके हब्बी! दोनों से ही क्या शर्म?”
“अच्छा जी! बड़ी बड़ी बातें बनाने लगी है मेरी लाडली!” माँ ने उसकी नाक के अग्रभाग पर चिकोटी काटते हुए कहा, “लगता है कि सच में आपकी शादी करानी होगी, जल्दी ही!”
*
जब लतिका और माँ हॉल से चले गए, तो मैंने पापा से कहा, “पापा, आपके साथ बैठ कर स्कॉच पीने का मन था!”
“अरे धीरे बोलो बेटे... तुम्हारी माँ ने सुन लिया तो तुम्हारा और मेरा - दोनों का स्कॉच पीने का फिर कभी मन नहीं होगा!” पापा ने हँसते हुए कहा।
पापा और माँ की बातें हमारे सामने वैसी ही होतीं थी जैसे किसी बहुत लम्बे अर्से से विवाहित जोड़े की हो। लेकिन हमको मालूम था कि उन दोनों के बीच गज़ब की इंटिमेसी है! इतना मज़बूत था उन दोनों का प्रेम, कि क्या कहें। उन दोनों के देख कर मेरे भी मन में विवाहित होने की इच्छा होती। एक समय था जब माँ के चेहरे पर सूनेपन के अतिरिक्त कुछ नहीं था, और एक आज का दिन है - गुलाब के जैसा ही खिला खिला रहता है माँ का चेहरा! ऐसा नहीं है कि उनका जीवन बेड ऑफ़ रोज़ेस रहा है! लेकिन दोनों ने मिल कर, साथ में, शून्य से शुरू कर के आज यह सब बना लिया है।
फिर वो दबी आवाज़ में बोले, “ग्लेनफ़िडिक है क्या?”
मैंने मुस्कुराते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“ट्वेल्व ऑर एटीन?”
“एटीन!” मैंने लगभग हँसते हुए कहा।
“रुको, दो ग्लास लाता हूँ तुरंत!”
ऐसा नहीं है कि माँ हम दोनों में से किसी को भी मना करतीं या कुछ भी कहतीं। अगर बाप बेटे के साथ बैठने का यह एक बहाना था, तो उनको पूरी तरह से मंज़ूर था। लेकिन वो मुझको चाय तक नहीं देती थीं, कि बेटे को अपना ही अमृत देना है। अपने पति को खैर, वो क्या ही कहतीं, ख़ास तौर पर तब जब उनका पति उनकी सब बातें सुनता, और मानता! ऐसे में इस तरह के एक दो छोटे अतिऋमण माँ नज़रअंदाज़ कर देतीं। हाँ, लेकिन, हम बाप बेटे के बीच इस बात का बढ़िया जोक बन जाता। पापा से इस तरह का मज़ाक कर के ऐसा लगता कि वो हमेशा से ही मेरे पापा हैं। अच्छा लगता यह सोच कर!
पापा गिलास ले आए और मैंने हम दोनों के लिए डबल पेग बनाया - स्कॉच में बर्फ़ हम दोनों को ही पसंद नहीं थी। इतनी स्वादिष्ट और महँगी मदिरा का मज़ा क्यों खराब करना?
हमने गिलास टकरा कर ‘चीयर्स’ किया और पहला सिप लिया!
“आह, क्या बढ़िया टेस्ट है!” पापा ने कहा, फिर अचानक से कुछ याद करते हुए, “अरे रुको दो मिनट... चखना भी ले कर आता हूँ!”
“कहाँ रखा है? मैं ले आता हूँ!”
“अरे रुको बेटा... थोड़ा बैठो! अपने पापा के राज में हो... थोड़ा आराम कर लो!” उन्होंने कहा, और चखना लेने चले गए।
वापस आए तो चखने के नाम पर भुजिया और नमकीन पारे थे, जो माँ ने त्यौहार के लिए बनाएँ होंगे।
‘हाँ,’ पहला चखते ही माँ के हाथों के हुनर का स्वाद आ गया।
हम लोग कुछ देर बातें करते हुए पहला पेग ख़तम ही कर रहे थे कि माँ वहाँ आ गईं।
“शुरू हो गया आप दोनों का?” माँ ने हमको देखते ही कहा, “खुद तो बिगड़े ही हैं, बेटे को भी बिगाड़ रहे हैं!”
“सही कह रही हैं बोऊ दी आप...” लतिका ने अपने दादा की टाँग खींचते हुए कहा, “इन्होने पीना छोड़ दिया है! ... दादा ही हैं अपनी गन्दी आदतें लगा रहे हैं इनको...”
“अबे... फूटी हुई पुचुकी!” पापा ने अपनी बहन को मज़ाक करते हुए चिढ़ाया, “तुझसे बाप बेटे का प्यार देखा नहीं जाता? ... खुद तो अपनी बोऊ दी का दूध पीती है, तो मैंने मना किया क्या?”
“दादू,” उधर आभा ने अपने दादा जी की क्लास ले ली, “नो नेम कॉलिंग टू माय मीठी दीदी!”
“आS मेरा मिष्टु बाबू... सॉरी बेटू!” पापा ने आभा को अपनी गोदी में समेटते हुए कहा, “लेकिन भाई बहनों में कभी कभी ऐसा हँसी मज़ाक चलता है।” फिर लतिका की तरफ़ बाँह बढ़ाते हुए, “इधर आप मेरी गुड़िया,”
जब लतिका उनके बाहों में आ गई, तो उन्होंने उसके माथे को चूम कर कहा, “तू तो मेरी बहुत प्यारी गुड़िया है न! सॉरी बेटू!”
“अरे दादा... आप भी! सॉरी क्यों कहा आपने! मैंने कोई बुरा थोड़े ही माना! मैं भी तो आपकी चुगली कर रही थी!”
“मेरे बच्चों,” पापा ने दोनों को अपने आलिंगन में समेटते हुए कहा, “तुम दोनों तो मेरी आँखों के तारे हो! एक मेरा हीरा... और एक मेरा मोती!”
“कौन हीरा है, दादू,” आभा अपने चंचल स्वभाव के चलते पूछा, “और कौन मोती?”
“अब बताइए इसका उत्तर! बचपन से इस सवाल का जवाब देते नहीं बन रहा है मेरा तो!” माँ ने हँसते हुए कहा।
“मैं हूँ हीरा,” लतिका ने आभा को छेड़ते हुए कहा, “और तुम मोती!”
“और आपका हीरा कौन है दीदी?” आभा ने चहकते हुए कहा।
“तुम हो बेटू... और कौन?” अचानक ही लतिका का स्वर ममतामई हो गया, “तुम हो मेरा हीरा!”
*
दुल्हनिया का तो कहना ही क्या
बहुत ही सुंदर अप्डेट, पूरा आनंदमयी माहौल।
काल का प्रवाह
जीवन के कई अनुभव
कुछ मीठे कुछ कड़वे
कहीं आशा कहीं निराशा
प्रेम कभी पर्याप्त लगता है
तो कहीं निरस लगता है
अमर के जीवन में बाल्यावस्था से प्रेम भरपुर मिला पर जीवन का ऐसा भी एक मोड़ आया जब प्रेम से मन विरश हो गया
रचना जो खुद को अमर के अनुसार बदल रही थी
धीरे धीरे अमर के दिल में उतर रही थी
पर अपने ही आचार और विचारों से अमर के दिल से उतर गई
खैर जीवन कहाँ रुकता है बदलाव जीवन का नियम है वही हो रहा है
गांव में सबका आना फिर सबके द्वारा अमर और उसके परिवार को स्वीकर कर लेना
यह एक काल खंड का प्रवाह था जिस में प्रति क्षण एक सुखद अनुभूति को समेटे हुए अपने निर्धारित आयाम पर पहुँच गया
जैसा कि मैंने कहा जीवन कहाँ रुकती है
चलती ही रहती है
अब अमर अपने बाल पन से गुजर कर किशोर
फिर किशोर अवस्था से युवक फिर युवक से अब प्रौढ़ अवस्था पहुँच गया है
और इधर लतिका बाल अवस्था को पीछे छोड़ एक किशोरी बन गई है
अंगों में बदलाव और इंद्रियों में परिवर्तन होना शुरु हो गया है
यह क्षण बहुत ही नाजुक होते हैं
भटकाव और ठोकर इसी उम्र में होता है
अपने घर के माहौल में स्तन पान की आदत में अब तक बच्चों के भूमिका से आगे मातृ तुल्य भूमिका में आ गई है
कहीं मन में मच रहे यह उथलपुथल भटकाव और ठोकर का कारण ना बन जाये
अभी अभी पढ़ा
क्या लतिका और अमर के बीच एक नया रिश्ता करवट ले रहा है
लतिका के संबोधन में मेरे बेटु के पापा क्या इस बात की और इशारा कर रहा है
खैर आगे देखते हैं क्या होता है
ह्म्म्म्म कहानी सच में एक नया आयाम ले रही है
कहीं पर कोई कामुकता नहीं
वात्सल्य और स्वच्छल निश्चल प्रेम है
आगे चल कर शायद अमर के मन में अंतर्द्वंद होगा
कभी विचलित तो कभी भार ग्रस्त होगा
पर शायद जीवन के अंतिम पड़ाव पर केवल शांति सुख और प्रेम ही प्रेम होगा
खूब लम्बा और वात्सल्य से भरपूर अपडेट है।
नवसंवत्सर 2080 की आप सभी को अशेष शुभकामनाएं।