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हाँ भाईअचिन्त्य - Update #8
दोपहर बाद ससुर जी, और जयंती दी और उनका परिवार भी हमारे घर आ गए। उनकी सेहत पहले से अधिक बेहतर लग रही थी - जो कि बड़ी अच्छी बात थी। हम सभी ने उनका आशीर्वाद लिया। ससुर जी और जयंती दी की सोहबत मुझको बड़ी अच्छी लगती थी। वो हमारे हितैषी थे, हमारा परिवार थे, और देवयानी के जाने के दस साल बाद भी एक पल को भी ऐसा नहीं लगा कि हमारा बंधन एक क्षण को भी कमज़ोर पड़ा हो। बड़ी गहन आत्मीयता थी हमारे बीच। ससुर जी हमारे समस्त परिवारों के मुखिया थे और हम उनको वैसा ही आदर और सम्मान भी देते थे। उनसे बात कर के भी बड़ा आनंद आता था - न केवल व्यवसाय की ही बातें, बल्कि सांसारिक और आध्यात्मिक बातें भी उनको भली भाँति आती थीं। ज्ञानी व्यक्ति की सँगत इसीलिए अच्छी मानी जाती है... उनसे सीखने को बहुत कुछ मिलता है।
हा हा हाआभा और लतिका उनकी दुलारी थीं, क्योंकि दोनों ही उनको इतना प्यार करती थीं, कि क्या कहें! मुझसे अधिक वो दोनों उनसे मिलती रहती थीं, और उनका हाल चाल लेती रहती थीं। उनको सोफ़े पर बिठा कर, लतिका उनके पैरों से लग कर उनको पकड़ कर बैठ गई और बड़ी आत्मीयता से बातें करने लगी। पापा और मैं लतिका दी और जीजा जी से बातें करने में मशगूल हो गए। उन सभी को आये कोई एक घण्टा बीता होगा, कि माँ और आभा भी शॉपिंग कर के वापस आ गए।
“अरे आ गई बिटिएँ मेरी...” दरवाज़े पर माँ की आवाज़ सुनते ही ससुर जी बोले, और उनकी अगुवाई को उठे।
माँ ने सदा की ही तरह ससुर जी के पैर छू कर आशीर्वाद लिया।
“सौभाग्यवती भव पुत्री... सौभाग्यवती भव... सुखी भव... दीर्घायु भव... निरोगी भव!” उन्होंने माँ को आशीर्वाद दिया, फिर पापा की तरफ़ देख कर बोले, “बेटे सुनील, मोह तो मुझे तुम सभी का बहुत है... लेकिन, अपनी इस बिटिया से मिल लेता हूँ, तो बड़ी शांति मिलती है। ... हम धन्य हैं कि ये हमारे जीवन में है!”
पापा मुस्कुराए, “आप ठीक कह रहे हैं बाबू जी! हम सभी वाक़ई धन्य हैं!”
उधर आभा अपने साइज़ और अपने नाना जी की उम्र का लिहाज़ किए बग़ैर उनकी गोदी में चढ़ गई, और उनके दोनों गालों को चूमने लगी।
“क्या बाबू जी,” माँ इस तरह से किसी की बढ़ाई का केंद्र बनने में बहुत संकोच महसूस करती थीं, इसलिए उन्होंने विनम्रता से कहा, “धन्य तो हम हैं कि आप हैं हमारे साथ... आपका आशीर्वाद है हमारे सर पर!”
“अरे अपने बच्चों से दूर हो के कहाँ जाऊँगा बच्चे!” उन्होंने अपनी आँखों को पोंछते हुए कहा, “अच्छा... ये इमोशनल विमोशनल नहीं बनना है आज!” और फिर आभा को चूमा, “अले मेला बच्चा, तुम्हारे गाल तो मीठे मीठे टमाटर जैसे हो गए हैं!”
“ही ही ही ही... नानू... टमाटर तो खट्टे होते हैं!”
हाँ भाई औरतों का सभी सीक्रेट रसोई घर में ही रिवील होते हैं“हाँ, लेकिन तुम्हारे मीठे वाले हैं!” कह कर ससुर जी आभा को गोदी में ही लिए सोफ़े तक आ गए; वो जाहिर तौर पर थक गए थे; उनकी साँसे चढ़ गई थीं।
“मिष्टी,” लतिका ने कहा, “उतर आओ बेटू... देखो न, नाना जी थक गए लगते हैं!”
“अरे नहीं बेटा,” ससुर जी ने तपाक से कहा, “तुम सब पास रहते हो तो थकावट नहीं होती! तुम बड़ी हो गई हो थोड़ी, नहीं तो तुमको भी तो यूँ ही गोदी खिलाता रहा हूँ...” ससुर जी वाक़ई आनंदित थे, “क्या आनंद आ रहा है... इतना सुन्दर त्यौहार है... मेरा पूरा परिवार मेरे साथ में है! मैं तो बड़े आनंद से रहूँगा! और खूब डंट कर स्वादिष्ट व्यंजन उड़ाऊँगा!”
“आई विल होल्ड यू टू इट, नाना जी,” लतिका ने लाड़ और मनुहार से कहा, “अगर आपने खूब मज़ा नहीं किया न, तो मैं बहुत नाराज़ होऊँगी आपसे!”
“अरे बाप रे! नहीं बेटू, तुम नाराज़ हो जाओगी, तो मेरा क्या होगा?” उन्होंने हँसते हुए कहा, “जो तुम कहोगी, मैं वैसा ही करूँगा!”
जयंती दी भी माँ से मिल कर बहुत खुश हुईं, “कैसी हो दीदी?” उन्होंने माँ से गले लगते हुए पूछा।
“खूब बढ़िया हूँ, जया! तुम सब कैसे हो? ... याद नहीं आती हमारी?”
“अरे क्या कह दिया तुमने दीदी! बहुत याद आती है... इसीलिए तो हर हफ़्ते दो तीन बार फ़ोन पर बात करती हूँ तुमसे! जहाँ तक आने जाने की बात है... ये काम और गृहस्थी का जंजाल... इतने सालों बाद कहीं और जा कर छुट्टी बिताने का मौका मिला है।”
माँ भी समझती थीं। अच्छी बात यह थी कि तीनों महिलाएँ - अम्मा, माँ, और जयंती दी - फ़ोन पर रेगुलरली बातचीत करती थीं। मेरे जैसी नहीं थीं, कि महीने में एक बार बात कर के छुट्टी!
“हाँ... ठीक है! लेकिन ऐसे चलेगा नहीं। एक बार आ कर साथ में रहो कुछ दिन हमारे साथ!”
“रहेंगे दीदी... ज़रूर रहेंगे। छोटे वाले के एक्साम्स हो जाएँ, फिर आती हूँ फुर्सत में!”
“हाँ... लेकिन बस एक दिन के लिए नहीं आना है!”
“कम से कम एक सप्ताह के लिए आऊँगी!” जयंती दी ने हँसते हुए कहा, “तुम्हारे खर्चे पर पूरी मौज उड़ाऊँगी!”
“पक्का वायदा?”
“पक्का वायदा!”
उधर ससुर जी मारे लाड़ के आभा को अपनी गोदी में बैठाने की कोशिश करने लगे, लेकिन आभा को मालूम हो गया था कि उसके नाना जी अब कमज़ोर हो गए हैं, और उसके वज़न से उनको दिक्कत हो सकती है। इसलिए वो कुछ देर ही बैठी, फिर उठ कर उनके बगल बैठ गई, और उनसे और लतिका के साथ मीठी, मनोरंजक बातें करने लगी। उधर दीदी के दोनों बच्चे बोर होने लगे। मैं और जीजा जी, उन दोनों के साथ बिल्डिंग के नीचे बने खेल-प्राँगण चले गए, जहाँ उनके पसंद की चीज़ें थीं।
ऊपर कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद माँ और जयंती दी दोनों रसोई में जा कर सभी के लिए नाश्ते का इंतजाम करने लगीं। लतिका आना चाहती थी, लेकिन दोनों ने ही उसको रोक दिया, कि वो आराम करे, अपने नाना जी से बातें करे इत्यादि।
ओ तेरी मतलब जयंती तक खबर पहुँच चुकी थीरसोई में एकांत पाते ही जयंती दी ने माँ से पूछा, “दीदी, तुमने मेरी बात पर कोई विचार किया?”
“किस बात पर?” माँ समझ रही थीं कि किस बात की तरफ जयंती दी का इशारा था।
“लतिका और अमर... बताया तो था तुमको!”
माँ मुस्कुरा कर और बड़े उत्साह से बोलीं, “कल ‘इनसे’ बात करी थी...”
“अच्छा? फिर?”
“इनकी तरफ़ से तो हाँ है!”
“सही में? बहुत बढ़िया!” जयंती दी यह सुन कर खुश हो गईं तुरंत ही
यार थोड़ी फास्ट हो गई क्या कहानी“अरे इसमें आश्चर्य कैसा? ये तो होना ही था... इनको अपना बड़ा बेटा सबसे अच्छा लगता है... उसके लिए इनको सब मंज़ूर है!”
“हा हा... अच्छा है न दीदी! हमारे लिए भी तो ये दोनों हमारे बच्चे ही हैं न! उनका भला तो हम सब चाहते हैं!”
“हाँ, भला तो चाहते हैं... अमर का तो हो भी जाएगा... लेकिन पुचुकी का भी तो भला होना चाहिए न?”
“ऐसे क्यों कह रही हो दीदी? अगर लतिका अमर को चाहती है, और वो उसको मिल जाए, तो उसमें उसका भला नहीं है?”
“हाँ हाँ... है! उस बात से इंकार नहीं कर रही हूँ!”
“तो फिर?” फिर थोड़ा सा रुक कर, “सच में दीदी... मुझे यकीन है कि लतिका के मन में अमर के लिए है कुछ न कुछ... कुछ नहीं तो एक चिन्ना सा प्यार का पौधा है!” जयंती दी ने बड़े विश्वास के साथ कहा, “वैसे भी, अब वो जवान हो गई है... सुन्दर है, गुणी है, और क्या चाहिए?”
जयंती दी ने कहा, “और जहाँ तक अमर को मैं जानती हूँ, लतिका के आगे पढ़ने लिखने में, या फिर उसके कैरियर में वो किसी तरह की भी दिक्कत नहीं करेगा... उल्टा उसको सपोर्ट ही करेगा!”
“खूब दूर की सोच रही है जया!” माँ ने दी की टाँग खींची, लेकिन उनको भी सब सुन कर आनंद आ रहा था।
हाँ यह तो मैंने पहले ही भांप लिया था“क्यों न सोचूँ? ... इतना अच्छा लड़का न होता न, तो मैं अपनी पिंकी को उससे शादी न करने देती... और इतने सालों से पहले की ही तरह उसको इतना प्यार न कर रही होती।”
माँ कुछ बोली नहीं।
“खैर, वो सब छोड़ो... काजल क्या कहती है?” जयंती दी ने पूछा।
“अम्मा को भी बात बड़ी अच्छी लगी। उनकी तरफ़ से भी हाँ है!”
“अरे वाह! ... मतलब घर की तरफ़ से कोई प्रॉब्लम नहीं है, फिर तो थोड़ा आसान हो गया है!” दी ने कहा, “मुझे काजल की तरफ से थोड़ी चिंता थी। ... अब नहीं है!”
“हाँ... बस अमर और पुचुकी के दिल की टोह लेनी है।”
“वो कर लो... अगर मेरी हेल्प चाहिए हो, तो बता देना!”
“जया... देखो अगर पुचुकी के मन में अमर के लिए प्यार है भी, तो भी अमर के लिए यह सब आसान नहीं होगा!”
ह्म्म्म्म“आई अंडरस्टैंड दैट! ... आसान होना भी नहीं चाहिए। उसका चरित्र पक्का है... ऐसे चुटकी बजाते मानेगा नहीं! समझाना पड़ेगा... और उसके लिए मैं हूँ न... समझा दूँगी उसको!” जयंती दी ने कहा, फिर थोड़ा रुक कर बोलीं,
“... सच कहूँ दीदी, मैं भी नहीं चाहती कि कोई और लड़की पिंकी की जगह ले! मैं चाहती हूँ कि कोई आ कर अमर को एक अलग तरह से प्यार करे, जिससे अमर और मिष्टी की लाइफ में पिंकी की मेमोरीज़ भी इंटेक्ट रहें, और उस लड़की की खुद की भी अपनी पहचान बने और रहे! ... अमर के साथ ही साथ मिष्टी का भी तो देखना है न... वो टीनऐज में है अब... ऐसे किसी को भी उसकी अम्मा बना कर तो नहीं थोप सकते न उसके सर?”
माँ ने समझते हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“... यह सब सोचती हूँ तो लतिका के अलावा और कोई लड़की समझ नहीं आती! मिष्टी को तो वो तब से पाल रही है, जब वो खुद से एक छोटी बच्ची थी! ... सच कहूँ? वो इंटेलीजेंट भी बहुत है... आँखों में दिखता है! और गुण तो तुम्हारे और काजल के हैं ही सारे के सारे! ... वो सबसे बढ़िया बहू है इस परिवार के लिए!”
“तुम बहुत अच्छी हो जयंती!”
“नहीं दीदी... कोई अच्छी वच्छी नहीं हूँ... सच्ची बात करती हूँ, बस! ... मुझसे अधिक तो लतिका रखती है डैडी का ख़याल। ... वो सही कहते हैं... भले ही पिंकी चली गई, लेकिन उनको बेटियों की कमी नहीं हुई!”
“चल... ऐसी रुलाने वाली बातें न कर अब! ... चलो, नाश्ता कर लो! आज खूब मज़ा करेंगे!”
*
यही प्रॉब्लम रहती हैचूँकि आज छोटी दिवाली थी, इसलिए गृहस्वामिनी, मतलब मेरी माँ ने पहले तो संध्या पूजन किया, जिसमें सभी लोग शामिल थे, और फिर पाँच दीये जलाए - एक घर के मुख्य द्वार पर, दूसरा रसोईघर में, तीसरा भी वहीं, लेकिन पीने के पानी के पास, चौथा घर के मुँडेर पर, और पांचवां बालकनी में एक बड़े पौधे के सम्मुख! पूरा घर झालरों की रौशनी से जगमगा रहा था, वो एक अलग बात थी। शानदार, स्वादिष्ट भोजन पका और हम सभी ने छक कर खाया भी! एक दर्जन से अधिक लोगों का खाना पकाना कोई मामूली बात नहीं है। बच्चों को कम न आंकें - उनका भी वयस्कों के समान ही भोजन होता है। लेकिन माँ, जयंती दी, और साथ में लतिका ने लग कर सब आराम से कर दिया। पापा ने माँ की मदद की पेशकश करी, लेकिन माँ और दी ने उनको रसोई से भगा दिया। हम चारों आदमी लोग आराम से बालकनी में बैठ कर एक दो राउंड स्कॉच का आनंद उठाए। वो अलग बात है कि ससुर जी ने माँ से इस बाबत पहले से ही आज्ञा ले ली थी।
ख़ैर, रात्रि-भोज शुरू हुआ, तो पापा ने ही बात का सूत्र सम्हाला,
“बाबू जी,” उन्होंने कहा, “हमारी एक इच्छा है!”
“क्या बेटा?”
“इच्छा क्या... समझिए कि विनती है!”
“अरे बेटे बोलो भी! इतना फॉर्मल मत बनो! ... मुझसे अपने मन की बातें करने में इतना फॉर्मल बनोगे, तो कैसे चलेगा?”
“जी, हम सभी सोच रहे थे कि क्यों न आप हमारे साथ यहीं रहें?”
“हाँ बाबू जी,” माँ ने पापा की बात का अनुमोदन करते हुए कहा, “आप अकेले से हो जाते हैं! यहाँ इतना बड़ा घर है, मैं हूँ, बच्चे हैं, आपकी अच्छी देखभाल हो जाएगी और आपका मन भी लगा रहेगा! ... और आपके साथ रह कर ये तीनों भी कुछ सीख लेंगे!”
मैंने देखा कि लतिका आश्चर्यजनक रूप से चुप रही; मैं भी कुछ नहीं बोला।
“सुनील बेटे, बिटिया, तुम दोनों ने मुझको जैसा आदर दिया है न, मैं सच में धन्य हो गया हूँ! ... जब मैं मूर्ख था, तब सोचता था कि मेरी बेटियाँ जब अपनी शादी के बाद चली जाएँगी, तो फिर क्या होगा! लेकिन यहाँ देखो - भरा पूरा परिवार है मेरा! ... तुम सब मेरे बारे में इतना सोचते हो न, मैं इसी बात से बहुत सुखी हूँ!”
“तो फिर... रहिए न हमारे साथ?” माँ ने बड़ी उम्मीद से कहा।
“सुमन बेटे,” ससुर जी बोले, “आदमी की ज़िन्दगी में एक समय आता है जब उसको बदलाव की ज़रुरत नहीं होती... उल्टा उसको बदलाव से परेशानी होने लगती है। ... इतनी उम्र हो गई मेरी... मेरे सब दोस्त दिल्ली में हैं। अधिकतर जान पहचान दिल्ली में है... सोशल सर्किल वहाँ है! अब ऐसे में मैं यहाँ आ कर नए सिरे से कैसे सब करूँ?”
चलो कुछ तो सोल्यूशन मिल गया“लेकिन डैडी,” मैंने कहना शुरू किया, तो ससुर जी ने मुझको बीच में ही रोक दिया,
“अमर... तुमको मैंने बेटे जैसा नहीं, अपना बेटा ही माना है। मुझे मालूम है कि तुम भी चाहते हो कि मेरी अच्छी देखभाल हो। ... लेकिन अपने हमउम्र लोगों के साथ मौज मस्ती करता हूँ, मैं उसमें खुश रहता हूँ। ... ये नई जगह रास नहीं आएगी मुझको।”
मेरा चेहरा बुझ गया। मुंबई आ कर पापा और माँ के साथ रहने का अरमान ठण्डा होता दिख रहा था।
“बेटे... ऐसे दुःखी मत होवो!” उन्होंने मेरे मन के भाव पढ़ लिए, “... मैं जानता हूँ कि तुम अपने मम्मी पापा के साथ यहाँ रहना चाहते हो! मैंने तुमको पहले भी समझाया था कि आगे का देखो! ... तुम्हारे सामने तो पूरा जीवन पड़ा है। ... हम तो अपना जी लिए!” उन्होंने हँसते हुए कहा, “ये तो उधारी का जी रहे हैं अब... कभी भी बुलावा आ जाएगा, तो हँसी ख़ुशी चला जाऊँगा!”
“बाबू जी,” माँ ने रुँधे गले से कहा, “आपने ऐसा कुछ अनाप शनाप कहा न, तो मैं बात नहीं करूँगी आपसे!”
“हाँ डैडी!” जयंती दी ने भी कहा, “आप भी क्या कहने लगे! दीदी और सुनील तो क्या कह रहे हैं, और आप कुछ और ही डिरेक्शन में ले जा रहे हैं बात को!”
“अरे बेटा... ऐसा कुछ नहीं है! ... सॉरी बच्चों अगर मेरी बात कुछ गलत लगी हो। लेकिन मेरी नज़र से भी तो देखो न? सारे रिटायर्ड अफ़सरान दोस्त मेरे आस पास रहते हैं। ... सभी के बच्चे तुम लोगों जैसे ही तरक्की कर के देश दुनिया में इधर उधर फैले हुए हैं। यही तो हमारी सक्सेस स्टोरी है! यही तो हमारी लिगेसी है। हम लोग संतुष्ट हैं... खुश हैं! ... तुम सब यूँ ही सन्मति बनाए रखो, और तरक्की करते रहो, हम इसी में खुश हैं! अब ज़िन्दगी का चौथपन लगा है... जो समय है, उसको मस्ती में, खाते पीते बिताना चाहते हैं... हमारा भी एक लाइफ-स्टाइल है... यहाँ आ कर वो सब नहीं हो पाएगा न!”
हम सभी मायूस हो गए; केवल जयंती दी के होंठों पर मुस्कान थी।
“इसलिए मुझे वहीं रहने दो!”
“नाना जी, एक बात कहूँ?” अंततः लतिका ने कहा।
“बोलो बेटा?”
“ठीक है, आप दिल्ली में ही रहिए... लेकिन क्या ये पॉसिबल है कि आप हमारे साथ रहें? अकेले न रहें? ... आई थिंक बोऊ दी और दादा का सबसे बड़ा वरी आपका अकेला रहना है... आप साथ में रहेंगे तो मैं आपकी देखभाल कर सकूँगी न? ... और आपका अपने फ्रेंड्स से डिस्टेंस भी नहीं बदलेगा! बताईए? ठीक है?”
लतिका ने इतनी चतुराई से अपनी बात रखी कि हम सभी आश्चर्यचकित रह गए। इस बात का काट तो किसी के पास नहीं हो सकता था।
“हा हा... और वो जो बंगला है, उसका क्या करें?”
“वो मेरे नाम लिख दीजिए,” लतिका ने हँसते हुए कहा - सभी समझते थे कि वो मज़ाक कर रही है।
“अरे बिटिया... तेरे नाम तो सब कुछ है।” फिर एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए उन्होंने कहा, “... ठीक है फिर! अगर मेरे बच्चे यही चाहते हैं, तो ठीक है! ... अमर बेटे, मेरे रहने का इंतजाम करो!”
“जी डैडी,” मैंने कहा।
आंशिक प्रसन्नता! आंशिक दुःख! हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता। इसलिए जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट रहना चाहिए और ईश्वर को उसका धन्यवाद देना चाहिए। पापा माँ और मैं, ससुर जी की बात से थोड़े मायूस हो गए। क्योंकि इसका मतलब यह था कि फिलहाल हम साथ में नहीं रह सकते थे। लेकिन यह भी अच्छी बात थी कि कम से कम वो हमारे साथ रहने को तैयार थे। लिहाज़ा, उनकी संगत, उनका मार्गदर्शन मुझको तो मिलता रहेगा। एक और ख़याल आया,
“पापा,” मैंने कहा, “आप ही क्यों नहीं आ जाते दिल्ली? ... इतना बड़ा बिज़नेस है... आप भी आ जाएँगे तो हम दोनों मिल कर इसको और बढ़ाएँगे। ... फिर अगर पुचुकी का मन हुआ, तो वो भी शामिल हो जाएगी! ... व्हाट डू यू से? डैडी... आपका क्या कहना है?”
मेरी इस बात पर पापा थोड़ी देर को अचकचा गए। उनसे कुछ कहते नहीं बना।
“बात तो अमर बेटा बढ़िया कह रहा है सुनील बेटे! तुम भी साथ में हो लोगे तो फिर दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की होगी! ... दूसरों के लिए काम कर रहे हो, अब अपने लिए करना?”
“बाबू जी, ऐसा नहीं है कि मैंने इस बारे में सोचा नहीं। ... लेकिन, मेरा मानना है कि ये बेटे का बिज़नेस है... वो ही सम्हाले। हम सब इसमें शामिल हो जाएँगे, तो एवरी वेकिंग ऑवर, हम बिज़नेस की ही बातें करेंगे... जो मैं नहीं चाहता। बिज़नेस से परे हमारा अपना जीवन है... हमारा परिवार है... मैं अपने बेटे को बाप वाला सपोर्ट, बाप वाला प्यार देना चाहता हूँ, और उसमें संतुष्ट हूँ!”
फिर से मन मायूस हो गया।
पापा ने यह देख कर कहा, “लेकिन हाँ, दिल्ली में कोई बढ़िया नौकरी मिलेगी, तो मैं एक पल को नहीं सोचूँगा... दौड़ा चला आऊँगा यहाँ!”
“अच्छी बात कही है तुमने बेटा...” ससुर जी ने कहा, “मैंने भी इसीलिए बैकसीट ले लिया। आराम करने की उम्र में अमर को परेशान नहीं करूँगा। ... वो अच्छे से सब कर रहा है! ... वैसे सही में, अगर हो सके, तो यहाँ दिल्ली में ही कोई बढ़िया से जॉब ले लो!”
“बिल्कुल बाबू जी! मैं भी यही चाहता हूँ कि हम सब साथ रह सकें!”
“अच्छा है...”
*
यह पुजा पाठ में मेरा बेटा सबसे आगे रहता हैअचिन्त्य - Update # 9
दीपावली - एक ऐसा त्यौहार, जो मेरे मन के बहुत निकट है। वैसे तो मुझे सारे त्यौहार अच्छे लगते हैं; क्रिसमस भी पूरी धूम से मनाता हूँ - गैबी से निकटता के कारण; लेकिन दीपावली की बात ही कुछ और है! जैसी रौनक, जैसा उत्साह इस समय देखने को मिलता है, वो शायद ही किसी अन्य त्यौहार में मिलता हो! आज तो इस बात की भी ख़ुशी थी कि अम्मा भी आ रही थीं। जयंती दी और उनका परिवार अपने अतिप्रतीक्षित छुट्टियों के लिए सवेरे ही गोवा के लिए निकल गया था। इसलिए घर कुछ समय के लिए खाली खाली हो गया था; लेकिन वो कोई बात नहीं थी। घर में चहल पहल रखने के लिए आभा और तीनों बच्चे - आदित्य, आदर्श, और अभया काफ़ी थे।
हम सभी का दिन भर बड़ी व्यस्तता में बीता - माँ और लतिका को रसोई में सहयोग देने मैं और पापा आ गए। सब्ज़ियाँ काटने से ले कर पूरियाँ छानने के सभी काम में हमने पूरा सहयोग किया। संध्याकाल में ईश पूजन की एक अवधि होती है। अम्मा ने फ़ोन कर के पहले से ही इत्तला दे दी थी कि वो पूजा कर के तुरंत घर से निकल लेंगी। घर में उनके बेटा बहू, बच्चे और ससुर जी रह जाएँगे, और वो, गार्गी और सत्या जी यहाँ आ जाएँगे। बढ़िया बात थी। माँ ने निश्चय किया कि जब अम्मा आ जाएँगीं, तो साथ ही में यहाँ घर में भी पूजा कर ली जाएगी। बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ा - त्यौहार के कारण रास्ते में भीड़ कम थी। हमने हमेशा की ही तरह देर तक मेल-मिलाप किया; सत्या जी लतिका से बहुत लाड़ से मिले - रिश्ते में दोनों बाप बेटी ही थे। और कालांतर में दोनों को एक दूसरे के बारे में और भी मालूम पड़ा। लिहाज़ा, घनिष्टता होनी लाज़मी ही थी। देख कर अच्छा लगा - परिवार है, तो सब कुछ है! खैर, मेल मुलाक़ात के बाद हम सभी पूजा-वंदना करने बैठ गए। माँ और पापा ने पूजा की अगुवाई करी, और हम सभी ने उनका साथ दिया।
थाक दादा थाकसभी बच्चे कब से तो ललायित बैठे हुए थे कि पूजा पाठ ख़तम हो, और उनको आतिशबाज़ी छुड़ाने का मौका मिले। बिल्डिंग काम्प्लेक्स में खुले अहाते में एक साझा आतिशबाज़ी का इंतजाम किया गया था। लेकिन नीचे जाने से पहले, माँ ने बच्चों से कहा कि घर पर कुछ फूलझड़ियाँ ज़रूर खेल लें। कुछ देर हम सभी ने उसका आनंद उठाया, फिर सभी बच्चे, मिष्टी की देख-रेख में नीचे चले गए। सत्या जी से कुछ देर बातें हुईं। उनकी भी तरक़्क़ी बढ़िया चल रही थी। अम्मा से शादी होने के बाद न केवल बिज़नेस ही अच्छा फल फूल रहा था, बल्कि घर में भी ख़ुशियाँ ठहरने लगी थीं। पता चला कि उनकी बहू एक बार फिर से गर्भवती हैं, और इस कारण से वो तीनों नहीं सके। बड़ी ख़ुशी की बात थी! लेकिन इसका मतलब यह था कि हमको ही उनसे मिलने उनके घर जाना पड़ेगा।
अम्मा खाली हाथ नहीं आई थीं - माताएँ वैसे भी अन्नपूर्णा होती हैं! वो अपने साथ इतने सारे व्यंजन पका कर ले आई थीं, कि अगर हम यहाँ कुछ न भी पकाते, तो भी आराम से चल जाता। लेकिन अम्मा के समान ही माँ का भी कुछ वैसा ही प्लान था! सत्या जी यहाँ भोजन कर के वापस अपने घर जाने वाले थे, अम्मा को यहीं छोड़ कर! दीपावली के अगले दिन वो अपने बिज़नेस में छुट्टी रखते थे। उस प्रयोजन की अगुवाई सत्या जी के ससुर करते। लिहाज़ा अम्मा को एक दो दिन का अवकाश मिल जाता। सत्या जी को कमी न पड़े, उस कारण माँ ने उनके परिवार के लिए भी ढेर सारे व्यंजन और उपहार पैक कर दिए थे।
हम सभी ने आनंद से भर पेट स्वादिष्ट भोजन किया! लतिका का मन हो रहा था कि वो आवश्यकता से अधिक खा ले - लेकिन न जाने कैसे उसने स्वयं पर नियंत्रण रखा। उसके अतिरिक्त किसी अन्य को किसी दौड़ वाली प्रतियोगिता में भाग नहीं लेना था, इसलिए सभी ने छक कर खाया। खाने के बाद कुछ देर के विश्राम के बाद सत्या जी जाने को हुए। जाते जाते उन्होंने हम सभी से वायदा लिया कि हम वापस जाने से पहले भोजन के लिए एक बार उनके घर अवश्य पधारेंगे!
देर शाम को जब थोड़ी फुर्सत हुई, तब अम्मा ने माँ को उनके पास बैठने को कहा। माँ ने कहा कि वो खाने का सब सामान अंदर रख कर, और बर्तन साफ़ कर के आती हैं। उन्होंने अम्मा को सुझाया कि क्यों न वो पुचुकी के साथ थोड़ी देर बैठ लें। अम्मा समझ रही थीं कि माँ ने ऐसा क्यों कहा। उनके मन में भी यही बात थी, लेकिन वो सोच रही थीं कि अगर बहू के सामने यह बात हो जाती, तो बढ़िया था। खैर, उन्होंने अपने कमरे से जाने से पहले पुचुकी को बुलाया।
“अम्मा... आपनी केमोन आछेन?” लतिका ने एकांत पा कर अपनी माँ से लिपटते हुए कहा।
“खूब भालो पुचुकी... खूब भालो! ... तोमाके देखे आमी औरो भालो होय गेलोमा... औरो ख़ुशी होयेची।”
“हैं,” लतिका ने अपनी माँ से बनावटी शिकायत करी, “आपनी आपनार पुत्रोबोधूर काच थेके शमय पान न!”
वाव क्या बात है“ऐती ओईतोर मातो न बेटू... तू भी जानती है ये बात!” अम्मा ने अपराधबोध में आ कर कहा, “तुम सब में तो मेरी जान बसती है! ... क्या मेरा मन नहीं होता कि हम सब साथ में रहें! ... लेकिन मेरी भी मजबूरियाँ हैं न बच्चे!” उनकी आँखें भर आईं, “इतनी भरी पूरी गृहस्थी छोड़ कर कैसे चली आऊँ? ... तुम सब दूर दूर हो गए हो, तो उसमें मेरा क्या क़सूर है?”
“अरे अम्मा,” लतिका ने अम्मा के आँसू पोंछते हुए कहा, “मैं तो मज़ाक कर रही थी! सीरियसली मत लो मेरी बातों को... बहुत दिनों बाद सभी मिलते हैं, तो मैं ऐसे ही सभी को छेड़ती हूँ!” लतिका ने अम्मा की बाँह पकड़ कर कहा, “मुझको तो सभी का लाड़ मिलता है... और सबसे ज्यादा तो बोऊ दी से ही! ... लेकिन उनको केवल आपका! मेरा और उनका कोई कम्पटीशन थोड़े न है... वो तो मेरी माँ हैं! ... मैं तो बस आपको छेड़ रही थी... बोऊ दी को भी तो ऐसे ही छेड़ती हूँ! ... ऐसे मत रोवो अम्मा!”
ऐसा कह कर उसने अम्मा को चूम लिया।
“हाँ, इसलिए ऐसी बातें मत किया कर मुझसे!” अम्मा आँसू पोंछते हुए बोलीं, “दिल दुःखता है!”
“नहीं करूँगी अम्मा... नहीं करूँगी!” लतिका ने अपनी खनकदार, मीठी आवाज़ में कहा, “अच्छा, आप बताओ न... बापू (सत्या जी) और आप दोनों ठीक से तो हैं?”
“बहुत अच्छे से हैं बेटा...”
लतिका प्रसन्नता से मुस्कुराई, “बापू भी पहले से बेहतर दिख रहे थे,” फिर अम्मा के साथ शैतानी करते हुए बोली, “आपके प्यार का असर है लगता है!”
उसकी बात पर अम्मा के चेहरे पर शर्म की लालिमा दौड़ गई, “सच में पुचुकी... मेरी बढ़िया किस्मत है कि इतनी उम्र होने पर भी प्यार हुआ, और उस प्यार का अंजाम भी मिला।”
लतिका मुस्कुराई, “आप दोनों खुश हैं, बस इतना बहुत है! ... गार्गी भी खूब क्यूट हो गई है!”
“हा हा... अरे खुश क्यों न होंऊगी? तुझ जैसी बेटी है... सुनील जैसा बेटा... तुम दोनों मेरा अभिमान हो! एक पल भी ऐसा नहीं आया मेरी लाइफ में कि मेरा सर नीचा हो! ... बस मन में यही रहता है कि ये छुटकी भी तुम दोनों जैसी ही निकले!”
लतिका ने खुश हो कर अम्मा को आलिंगन में पकड़ लिया।
“एक समय था जब हम बिना किसी जड़ के, इधर उधर उड़ते आए थे... और अब देखो... इतना सुन्दर सा, बड़ा सा परिवार है मेरा!” अम्मा ने लतिका के सर पर हाथ फिराते हुए कहा।
“मुझको पहले का ठीक से कुछ याद ही नहीं अम्मा!”
“अच्छा है याद नहीं है। कोई ऐसा बढ़िया नहीं हुआ जा रहा था... मुझको भी ऐसे याद नहीं रहता... दिमाग पर ज़ोर डालती हूँ, तभी याद आता है।”
“हा हा! अच्छा है न अम्मा।”
“अच्छा सुन,” अम्मा ने अचानक ही एक अलग अंदाज़ में कहना शुरू किया, “ज़रूरी बात कहनी थी... तेरे बापू कह रहे थे कि बिटिया सयानी हो गई है... और उसकी पढ़ाई भी बस पूरी ही हो गई है... तो क्यों न उसकी शादी कर दी जाए!”
“क्या?” लतिका के चेहरे पर पहले तो हास्य, फिर अविश्वास के भाव आ गए, “इतनी जल्दी?”
“हाँ, मैंने भी ऐसे ही कहा... लेकिन फिर वो बोले कि उन्होंने एक अच्छा सा लड़का देखा है... पुणे से हैं वो लोग! मिठाई के व्यापार में हैं... बड़े नामी गिरामी लोग हैं... खानदानी और धनाढ्य!” अम्मा कहती जा रही थीं, और लतिका के चेहरे पर आते जाते भावों को बारीक़ी से देखती पढ़ती भी जा रही थीं।
“ले... लेकिन... अम्मा...”
“हाँ... क्या हुआ पुचुकी?”
“ऐ... ऐसे कैसे?”
“अरे! हम लड़कियों को दूसरे के घर जाना ही पड़ता है न! ... आज नहीं तो कल...”
“ह... हाँ... लेकिन...”
“अरेंज्ड मैरिज नहीं करनी है?” अम्मा ने हँसते हुए कहा।
लतिका कुछ कह न सकी।
“हाँ ठीक है। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है... उनको एक बढ़िया परिवार, बढ़िया लड़का मिला, तो उन्होंने बात आगे चला दी। तुमको नहीं जमता, तो कोई बात नहीं। ... अरेंज्ड नहीं, तो लव मैरिज कर लो! ... मेरी तरफ़ से कोई पाबन्दी थोड़े ही है!”
अम्मा ने लतिका की हथेलियों को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा, “कोई पसंद है क्या?”
“म... मु... अम्मा!” अचानक ही लतिका ने लगभग झुँझलाते हुए कहा, “क्या यार अम्मा! आप भी!”
“अरे मैंने क्या कह दिया ऐसा?” अम्मा ने उसको समझाते हुए कहा, “देख न... तुझे जिसके साथ भी, जब भी, और जिस तरह भी शादी करनी हो, मुझसे कहना! मैं करवाऊँगी! ... ये अरेंज्ड मैरिज मुझको भी समझ नहीं आती। ... सोच न, तेरी माँ ने लव मैरिज करी है, तो तेरी तो अरेंज्ड नहीं करवाऊँगी! कम से कम उसके लिए जबरदस्ती नहीं करूँगी! ... इतना पढ़ाया लिखाया है अपनी बेटी को... मुझे मालूम है कि तू अपना भला बुरा जानती है, और भले बुरे का अंतर करना जानती है।”
अम्मा ने बड़े गर्व से कहा। उनकी बात सुन कर लतिका का झुँझलाना शांत हुआ।
“सॉरी अम्मा! आई नो! आप मेरे अच्छे के लिए ही कह रही हैं। लेकिन... मैं... ओह... आई डोंट नो अम्मा!”
“क्या हो गया?”
“पता नहीं अम्मा!” लतिका ने बड़ी निराशा से कहा।
“तुझको किसी से... किसी से प्यार हो गया है?”
लतिका दो पल को चुप रही, फिर बोली, “वही तो अम्मा... आई डोंट नो!”
“आएँ! ... अरे ऐसे कैसे पता नहीं? ... कुछ तो पता होगा ही न? कंफ्यूज होने के लिए भी कुछ तो आना चाहिए न... कहने का मतलब है कि अगर प्यार में कंफ्यूज हो, तो कुछ प्यार तो होगा ही?” अम्मा ने हँसते हुए कहा।
अपनी माँ को ऐसे दोस्ताना तरीके से बात करते हुए देख कर लतिका को भी थोड़ा कॉन्फिडेंस आया। वो भी हँसने लगी।
“मतलब बहुत नहीं, बस... छोटू सा प्यार है?” अम्मा ने उसको कुरेदा।
“हाँ... शायद!”
“अरे रे रे... इसमें भी शायद?”
“हा हा... हाँ अम्मा, छोटू सा प्यार है।”
“अरे वाह! ... हम्म... देखो, नाम तो नहीं पूछूँगी... क्योंकि अभी तुम सर्टेन नहीं हो... लेकिन... कैसा है वो?” अम्मा ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
“ही इस गुड, अम्मा! ... उनको पसंद करने के बहुत से रीज़न हैं!”
“हम्म... हाँ, क्वालिटीज़ होती हैं, तभी तो पसंद आता है कोई!”
दोनों कुछ क्षण चुप रहे।
अम्मा ने ही चुप्पी तोड़ी, “अरे कुछ और भी तो बता न?”
“क्या बताऊँ अम्मा? ... ही इस हार्डवर्किंग... रिस्पेक्टफुल... लविंग... अ जेम ऑफ़ अ पर्सन!”
“दिल्ली का ही है?”
“हाँ अम्मा!”
“हम्म...” अम्मा ने आगे कुरेदा, “क्या करता है?”
“बिज़नेस है अम्मा...”
“हा हा! माँ बेटी दोनों को बिजनेसमैन ही पसंद आया!” अम्मा ने हँसते हुए कहा, “अच्छा ... उसके मम्मी पापा...? उनके बारे में कुछ बता?”
“वो अलग रहते हैं अम्मा...” लतिका ने अचानक ही बुझी आवाज़ में कहा, और कहते कहते उसकी आँखें भर आईं, और आवाज़ भी रूँध गई।
“अरे क्या हो गया बेटू? ... तू क्यों रोने लगी?”
“पता नहीं अम्मा...”
“हे बच्चा!” अम्मा ने लतिका को अपने सीने में समेटते हुए प्यार से कहा, “अब तू मुझसे छुपाएगी? अपनी अम्मा से?”
“नहीं अम्मा... आपसे क्या छुपाऊँगी! ... कभी कभी न चाहते हुए भी, अनजाने ही हम अपने लोगों को दुःख पहुँचा देते हैं न... बस, वही यहाँ भी हो रहा है!”
“क्या हो गया बेटा?”
“पता नहीं अम्मा... आई थिंक आई ऍम रेस्पोंसिबल!”
“किस बात के लिए?”
“कि वो क्यों अपने मम्मी पापा से अलग रहते हैं...”
“अरे... बात यहाँ तक पहुँच गई है... और तू कह रही है कि छोटू सा प्यार है?”
लतिका ने डबडबाई हुई, शिकायती आँखों से अम्मा को देखा। अम्मा को लगा कि शायद ये नहीं कहना चाहिए था।
“ओह सॉरी सॉरी!” अम्मा ने उसका माथा चूमते हुए उससे माफ़ी माँगी, “... लेकिन बेटा, मुझे सारी बात तो बता! बिना सब जाने समझे मुझको समझ कैसे आएगा? ... कुरेद कुरेद कर पूछ रही हूँ... और उस पर भी तू थोड़ा थोड़ा बता रही है!”
लतिका चुप ही रही।
अम्मा ने ही कहा, “अच्छा, मुझे नहीं... अपनी बोऊ दी को बताएगी?”
लतिका ने ‘न’ में सर हिलाया, और गहरी साँस ले कर, थोड़ा संयत हो कर बोली, “नहीं अम्मा! ... आप और बोऊ दी मेरे लिए अलग अलग नहीं हैं। आप दोनों मेरी माएँ हैं, और आप दोनों ही मेरी सहेलियाँ भी हैं। ... दुनिया की ऐसी कोई बात नहीं जो मैं आप दोनों में से किसी से न कह सकूँ, या फिर केवल एक से कह सकूँ!”
“तो बता न बच्चे...”
लतिका कुछ समय चुप रही। अम्मा को भी लगा कि वो अपने मन की बात बताने के लिए भूमिका बाँध रही है, इसलिए उन्होंने भी उसको अपनी बात अपने तरीके से कहना का अवसर दिया।
“अम्मा...”
“हाँ बेटा?”
“अम्मा... मुझे... मुझे मिष्टी बहुत पसंद है...”
“हैं? मिष्टी? तू मिष्टी से शादी करना चाहती है?” अम्मा ने संक्षुब्ध होने का अभिनय करते हुए कहा, “पागल हो गई है? ये सब नहीं होता हमारे यहाँ...”
“अरे नहीं अम्मा... हा हा... पागल हो आप पूरी!” लतिका ने कहा, “... मुझे मिष्टी से शादी नहीं करनी है... वो मुझे... वो मुझे माँ मानती है अपनी...” लतिका थोड़ा सा हिचकी, “मुझे... मुझे... वाक़ई में उसकी माँ बनना है...”
“व्हाट?” अम्मा का अभिनय भी अपने चरम पर था - शायद ही लतिका को एक पल के लिये भी लगा हो कि अम्मा को इस बारे में मालूम है, “मतलब... तू... तू अमर से...”
लतिका ने बड़े हल्के से ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“तू अमर से प्यार करती है?”
लतिका ने फिर से ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“अमर से शादी करना चाहती है तू?” अम्मा ने जैसे कन्फर्म करने के लिए पूछा।
“हा हा... आपको मेरे मन की बात सुननी थी, तो मैंने कह दी। ... अब आपको जो कहना हो, कह दीजिए... मुझे बुरा भला कहना हो, तो कह लीजिए!” लतिका ने थके हुए स्वर में कहा।
“अरे मैं तुझे ये सब क्यों करूँगी... तूने किसी का ख़ून थोड़े ही कर दिया!”
अम्मा की बात सुन कर लतिका चौंक गई - उसको इतनी आसान प्रतिक्रिया की आशा नहीं थी अम्मा से।
“मतलब... आपको यह सुन कर ख़राब नहीं लगा?”
“अरे! क्यों खराब लगेगा? ... बस सोच रही हूँ कि मैंने मेरे दोनों बच्चों को इतने अच्छे संस्कार दिए... इतनी अच्छी समझ है उनकी कि उनको संसार के सबसे अच्छे लोगों से मोहब्बत हुई!”
“क्या अम्मा! सच में?”
“और नहीं तो क्या?” अम्मा ने खुश होते हुए कहा, “तुझे अमर पसंद आया है, तो बहुत अच्छी बात है! अमर मेरा बच्चा है... उसके गुण तो ऐसे हैं कि कौन लड़की उसको पसंद नहीं करेगी? सच में... जो लड़की उसकी लाइफ में आएगी, वो बड़ी किस्मत वाली होगी। ... मुझे आश्चर्य नहीं हुआ कि तुमको वो पसंद आया है!”
लतिका ने झटपट अपने आँसू पोंछे, और अम्मा के चिपक गई।
“तू अभी भी कंफ्यूज है?”
“हाँ अम्मा! क्या पता कि ये केवल अट्रैक्शन हो... वो... वो मुझसे इतने रेस्पेक्ट से बात करते हैं कि मैं क्या, कोई भी लड़की होती मेरी जगह, तो उसको उनसे प्यार हो जाता!”
“हम्म बात तो सही है!” यही बात अम्मा ने भी कही थी।
लतिका थोड़ा खुल कर कह रही थी, “लेकिन मन में लगता तो है कि कुछ नहीं, तो चिन्ना सा प्यार तो है उनसे!”
अम्मा समझते हुए मुस्कुराईं।
“कुछ बोलोगी नहीं अम्मा?”
“प्यार में होना कैसा लगता है मेरी चिरैया?” अम्मा ने बड़े लाड़ से पूछा।
लतिका के होंठों की मुस्कान चौड़ी हो गई, “कितने सालों बाद आपने मुझे चिरैया कह कर बुलाया... नहीं तो ये सारे मीठे बोल आप बोऊ दी के लिए ही बचा कर रखती हैं!” लतिका ने मीठी शिकायत करी।
“पिटेगी तू अब...”
“हा हा अम्मा!” लतिका ने कहा, और फिर से अम्मा से लिपट गई।
इतने में माँ अपने हाथ पोंछती हुई कमरे में आईं।
“अरे अरे... बड़ा याराना हो रहा है ननदिया और ससुरिया के बीच!” माँ ने दोनों को छेड़ते हुए कहा, “मेरी शिकायत हो रही थी? हम्म? मैंने सब सुन लिया!”
“आ बहू! आ जा!”
“हाँ, आपकी शिकायत हो रही थी,” लतिका ने बड़े लाड़ से कहा, और माँ से लिपट गईं, “मैं अम्मा से कह रही थी कि मेरे हिस्से का सारा प्यार वो आप पर ख़र्च कर देती हैं!”
“अरे क्यों नहीं करेंगी?” माँ ने लतिका के होंठों को चूमते हुए कहा, “अम्मा की छोटी बिटिया हूँ मैं...”
“हाँ, छोटी बिटिया तो ये ही है!” अम्मा ने कहा।
“कुछ नहीं मिलेगा आपको आज अम्मा से,” लतिका ने माँ को चिढ़ाया - उनकी ननद-भौजाई वाली नोक-झोंक बड़ी प्यारी होती थी, “आज दिवाली की रात है। जाईए जाईए... आपके ऐ जी, ओ जी, पतिदेव जी आपका इंतज़ार कर रहे होंगे!” लतिका ने आँख मारते हुए माँ को छेड़ा।
“अम्मा,” माँ ने बनावटी रूप में चिढ़ते हुए लतिका की शिकायत करी, “देखिए इसको!”
“ए लड़की, मेरी शोन चिरैया को कुछ मत कहना,” अम्मा ने लतिका से कहा।
यह कोई डाँट नहीं थी। बस, एक मीठी सी छेड़खानी थी, जो माहौल को हल्का कर रही थी। लतिका को संतोष था कि अम्मा से उसने अपने मन की बात कह दी है। बस बोऊ दी से कहना बाकी था। जैसा प्यार उसकी बोऊ दी उससे करती हैं, अगर वो उनसे अपना दिल निकाल कर रखने को कहेगी, तो वो बिना कोई प्रश्न पूछे, उसको अपना दिल निकाल कर दे देंगी।
“ये देखो इनको!” लतिका ने अम्मा की, अम्मा से ही मज़ाकिया शिकायत करी, “मुझको केवल चिरैया... और इनको शोन चिरैया! वाह वाह! ... माँ हो तो आप जैसी!”
“अरे ऐसी बात नहीं है बिटिया रानी मेरी!” अम्मा ने कहा।
“कैसी बात नहीं है अम्मा! कैसी बात नहीं है?” लतिका ने कहा, फिर माँ से मुखातिब होते हुए, “आइए शोन चिरैया जी! आपकी अम्मा के दुद्धू लबालब भरे हुए हैं आप ही के पीने के लिए!”
“अच्छा जी, तो इस बात से कोई जल रहा है,” माँ ने अपनी ननद को छेड़ा, “और आप जो मेरे सीने से लग कर रोज़ दूध पी रही हैं... वो?”
“वो तो मेरा हक़ है!”
“हाँ, तो ये मेरा हक़ है!”
अम्मा के सामने माँ सच में छोटी बन जाती थीं। ऐसा नहीं है कि लतिका को उनसे कोई जलन थी - उसको बहुत अच्छा लगता था कि उसकी अम्मा के सामने, उसकी माँ जैसी बोऊ दी को अपना बचपन जीने का मौका मिलता है।
“हा हा!” लतिका इस बनावटी नोक झोंक पर हँसने लगी; माँ भी। दोनों एक दूसरे के आलिंगन में लिपट कर देर तक खिलखिला कर हँसती रहीं।
“अब क्या पूरी रात तुम दोनों जनी पगलियों के जैसी हँसती रहोगी?” अम्मा, माँ और लतिका के बीच के प्रगाढ़ बंधन को देख कर मन ही मन खुश हो रही थीं।
“नहीं अम्मा,” माँ ने हँसते हुए कहा, “... लेकिन जब आप सामने होती हैं न, तो बच्ची बने बिना रहा नहीं जाता!”
“हाँ, तो चलो चलो,” लतिका ने माँ को फिर से छेड़ते हुए कहा, “बनो अम्मा की छोटी बच्ची! ये भी तो तरस रही हैं, जब से आई हैं!”
“तू समझती नहीं पुचुकी,” माँ अम्मा के बगल आते हुए बोलीं, “इस उम्र में भी किसी बच्चे के लिए, अपनी माँ का अमृत पीना... बड़ी किस्मत चाहिए इसके लिए! किस्मत ही नहीं, भगवान की अनुकम्पा चाहिए!”
“अरे मेरी पूता,” अम्मा ने माँ को अपने सीने में समेटते हुए कहा, “मेरी इतनी प्यारी प्यारी बिटिएँ हैं... माता जी की अनुकम्पा तो है मेरे ऊपर!”
“मैं अपनी बात कर रही थी अम्मा,” माँ ने थोड़ा शर्माते हुए कहा। अपनी बढ़ाई सुन कर वो तुरंत ही शर्मा जाती थीं।
“और मैं अपनी!”
“और बोऊ दी, मैं चाहती हूँ कि मेरे ऊपर भी भगवान की अनुकम्पा बनी रहे... मुझे भी अपनी दोनों माँओं का अमृत पीने को मिलता रहे!” लतिका उन दोनों के आलिंगन में खुद भी सिमटती हुई बोली, “इसलिए... आप दोनों न... जल्दी से एक एक बेबी और कर लो...”
“क्या?” अम्मा ने चौंकते और हँसते हुए कहा, “तुझे हमारा दूध पीना है, तो उसके लिए हम बेबी करें?”
“अरे क्यों? अपने बच्चे को दूध पिलाना तो हर माँ का कर्तव्य है!”
“कर्तव्य की बच्ची!” अम्मा ने ब्लाउज़ के बटन खोलने का उपक्रम शुरू करते हुए कहा, “वैसे बात तो सही है! बड़ा सुख मिलता है मुझको!”
“इसीलिए तो कह रही हूँ अम्मा... एक और बेबी कर लो न!” लतिका ने ऐसे मनुहार करी जैसे कि बच्चे करना कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल हो!
“हा हा! देख... उम्र होने लगी है अब! इसलिए अपना कह नहीं सकती मैं...”
“कहाँ अम्मा!” माँ ने अम्मा के अनावृत स्तनों को सहलाते हुए कहा, “अभी तो आप जवान हैं!”
“मेरा दूध तू पी रही है, और जवान मैं बैठी हूँ?” अम्मा ने हँसते हुए माँ को छेड़ा, “तू कर... पुचुकी करे! मेरा तो हो गया बच्चे वच्चे करने का टाइम पूरा...”
“इसीलिए तो मैं बोऊ दी से कह रही थी कि ये दूध वूध पीना छोड़ें, और दादा के पास जाएँ!”
“भरी जवान तो तू ही है हम तीनों में!” अम्मा ने लतिका को भी छेड़ा।
“हा हा हा!” माँ भी हँसने लगीं, “अब बोलो ननदिया... हमारे खर्चे पर बड़े मज़े ले रही थी!”
“हाँ ठीक है, अम्मा नहीं, तो बोऊ दी ही कर लें! वैसे भी... हम दोनों में छोटी तो ये ही हैं... अम्मा की छोटी बिटिया रानी...” लतिका माँ को ऐसे छोड़ने वाली नहीं थी, “बेचारे... मेरे दादा जी तो आपका ही वेट कर रहे होंगे अकेले रूम में पड़े पड़े!”
“अम्मा,” माँ ने कहा, “अपनी लाडो रानी बड़ी सयानी हो गई है... अब इसके भी हाथ पीले कर देने चाहिए!”
“सही कहती हो बहू!” अम्मा ने माँ का साथ दिया, “कोई इसका भी वेट करने वाला ले ही आना चाहिए अब!”
“अरे अम्मा! ... मैं तो छोटी सी हूँ अभी बोऊ दी!”
“अच्छा... अभी अभी मुझको छोटी बता रही थी... अब अचानक से खुद छोटी हो गई...”
माँ बोलीं, और अपनी अम्मा के एक स्तन को मुँह में भर के पीने लगीं।
अम्मा ने लतिका की बात पर कहा, “छोटे में शादी करना तो और भी अच्छी बात है... शादी कर के, खूब मज़े करना दोनों मियाँ बीवी... खूब सालों तक!”
लतिका का चेहरा शर्म से थोड़ा लाल हो गया, जो उसके साँवले रंग को और भी सुन्दर बना रहा था।
“ठीक है... आप दोनों मिल कर मेरी खिंचाई कर रही हैं अब!”
“हाँ बस बस... बहुत झूठी-मूठी शिकायत मत कर अब... ले, दूसरा वाला तू ले ले!”
लतिका ख़ुशी ख़ुशी दूसरा स्तन अपने मुँह में लेने वाली थी कि माँ ने अम्मा के उस स्तन को अपनी हथेली से ढँक दिया। लतिका ने जीभ निकाल कर अपनी बोऊ दी को चिढ़ाया। दोनों की इस मीठी, शरारत भरी नोंक झोंक पर अम्मा खिलखिला कर हँसने लगीं। वैसे तो माँ और लतिका दोनों ही बड़ी धीर गंभीर रहती थीं, लेकिन अम्मा के सामने दोनों नटखट बच्चियाँ बन जाती थीं!
“गन्दी बोऊ दी... ठीक है मत पीने दो,” लतिका ने कहा, और माँ की ब्लाउज के बटन खोलने लगी। त्यौहार के कारण माँ ने आज भी रेशमी ब्लाउज़ पहनी हुई थी, लिहाज़ा उसके नीचे उन्होंने ब्रा भी पहनी हुई थी। अब स्तनपान की अवस्था में, आँचल, ब्लाउज़ और ब्रा ठीक से हटा पाना झँझट का काम था। लिहाज़ा, लतिका ने बनावटी झुँझलाहट - या ये कहिए कि शरारत में आ कर माँ का स्तन पकड़ कर ब्रा से बाहर निकाल लिया।
“आऊ...” माँ के मुँह से पीड़ा की एक आह निकल गई, “जंगली लड़की! ... अपने दादा से सीख रही है क्या ये सब?”
“हाS बोऊ दी!” लतिका को अपनी बोऊ दी को छेड़ने का एक और दाँव मिल गया, “ऐसे छेड़ते हैं दादा आपको?”
उसने कहा और गप से माँ का एक स्तन अपने मुँह में भर लिया।
“अम्मा!” माँ ने फिर से उसकी शिकायत करी, “देखो न इसको!”
“अरे, अब इसमें मैं क्या करूँ?” अम्मा ने इस झगड़े से अपने हाथ ऊपर कर दिए, “तूने ही तो इसको ये दूसरा वाला दुद्धू पीने से रोका था न? अब झेल!”
“आह... रुक न थोड़ा,” माँ ने हथियार डालते हुए कहा, “उतारने दे ठीक से इसको!”
कह कर माँ अम्मा से अलग हुईं, और अपनी ब्लाउज़ और ब्रा ठीक से उतारने लगीं। उतार कर जब वो वापस आने लगीं, तो लतिका ने सुझाया,
“बोऊ दी... उतार दो न पूरा... क्यों पहना हुआ है?”
“हाँ मेरी शोन चिरैया... मेरे सामने तू कपड़े पहनती ही क्यूँ है?” अम्मा ने भी लतिका की बात का अनुमोदन किया।
“हाँ? क्यों पहनती है? ये शोन चिरैया तो नंगू पंगू बड़ी सुन्दर लगती है!” लतिका ने कहा।
माँ शर्म से मुस्कुराईं फिर कुछ ही पलों में पूर्ण नग्न हो कर अपनी अम्मा के सामने उपस्थित थीं।
“हाय,” अम्मा ने अपनी आँखों के कोने से काजल की एक बिंदी उठाई, और माँ के माथे के साइड में लगाते हुए बोलीं, “कहीं मेरी ही नज़र न लग जाए मेरी बच्ची को!”
“हाँ अम्मा, मैं लड़का होती तो मैं भी बोऊ दी से शादी कर लेती!”
“हाँ, फिर मेरा दूध कैसे पीती?”
“क्यों बोऊ दी,” लतिका ने माँ को फिर से छेड़ा, “दादा नहीं पीते क्या? वो इसको मुँह में ले कर केवल चुभलाते हैं क्या?”
“पिटेगी तू अब!” माँ ने लतिका को हाथ उठा कर मारने वाला एक्शन दिखाया।
“अरे क्यूँ पिटूँगी? ... अम्मा, देखो न! जब दादा और ये... दोनों जने खुलेआम एक दूसरे से खेलते हैं तब कुछ नहीं! पता है अम्मा? कल सवेरे रसोई में दादा इनको अपनी बाहों में ले कर बड़े मज़े से इनके दूध पी रहे थे... और ये भी बड़ी मस्ती में आँखें बंद किए मज़े ले रही थीं!”
माँ ने मारे शर्म के हथेलियों के पीछे अपना चेहरा छुपा लिया।
“ए लड़की... मेरी बहू को ऐसे मत छेड़!” अम्मा ने लतिका को प्यार से डाँटा, “पूरे परिवार को इतना सुख दिया है मेरी शोन चिरैया ने! जब से हमारे घर आई है, तब से तो ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ आती जा रही हैं हमारे दामन में!” फिर माँ को अपनी तरफ़ आने के लिए अपनी बाहें खोल कर बोलीं, “आ मेरी पूता... ये तो मेरा भाग्य है कि तेरी जैसी अन्नपूर्णा को अपना दूध पिला रही हूँ!”
लतिका भी ख़ुशी से मुस्कुरा दी, “हाँ अम्मा, बोऊ दी सच में देवी हैं! बोऊ दी, मैं आपको आपकी ननद होने के रिश्ते से छेड़ती हूँ...” और उनसे लिपटती हुई बोली, “लेकिन मैं आपकी सबसे अधिक रेस्पेक्ट करती हूँ! आप मेरी माँ है... यू डू नो दैट?”
“आई नो पुचुकी...” माँ ने धीमे से कहा, “आई नो!”
“और तू भी बहुत बदमाशी कर ली! अब चुप कर के दूधू पी!” अम्मा ने लतिका को हिदायद दी।
जैसे ही लतिका दूध पीने को हुई, अम्मा बोलीं, “लेकिन पहले तू भी नंगी हो जा! अपनी बोऊ दी जैसी!”
“यस मॉम,” लतिका ने सैल्यूट मारते हुए कहा, और अपने कपड़े उतारने लगी। कुछ ही देर में वो भी पूर्ण नग्न हो कर अपनी अम्मा के सामने खड़ी थी।
“तोमारो ए की ओबोश्था?” अम्मा ने जैसे शॉक में आ कर कहा, “चूतड़ नाई... श्तोनों नाई... कुछ खाती पीती भी है?”
“अम्मा,” में ने इस बात में लतिका का समर्थन किया, “कितनी सुन्दर तो लगती है अपनी पुचुकी! आप भी न!”
माँ ने कम से कम एक साल बाद लतिका को पूर्ण नग्न देखा था - उसका सौम्य शरीर देख कर वो बहुत प्रसन्न हुईं। कमसिन जवान शरीर, छोटे स्तन, छोटे नितम्ब, सपाट पेट, लेकिन शक्तिशाली शरीर! बाहों, पैरों, जाँघों, और श्रोणि पर माँस पेशियाँ साफ़ दिखाई दे रही थीं; उठने बैठने पर उसके पेट पर एब्स भी दिखाई दे रहे थे - खाने पीने के बाद भी! उनको अपनी खुद की किशोरावस्था और जवानी याद आ गई!
“तुम्ही लोगों के दुलार में इसका ये हाल हो गया है बहू... देखो न, सूखी हुई है पूरी!”
“नहीं अम्मा, स्लिम कहते हैं इसको। एथलीट है न, तो वैसी बॉडी भी है!” माँ ने अम्मा को समझाया।
“हाँ अम्मा, इस बॉडी में भी परफॉरमेंस नहीं आ पाती... और आप कहती हैं...”
“पुचुकी, तुम अम्मा की बात का बुरा मत मानना। जब तक यहाँ हो, मैं तुमको दुद्धू पिलाती रहूँगी,” माँ ने बड़े लाड़ से कहा, “मेरी ननदिया सारे मेडल्स जीतेगी इस बार तो!”
“हाँ, सुना अम्मा! तुम भी बोऊ दी के ही जैसे मुझको दुद्धू पिलाओ! ऐसे डाँटो मत!”
“आओ आओ पियो,” अम्मा ने बनावटी तल्ख़ी से कहा, “मेरी तो कोई सुनता ही नहीं!”
तो माँ और लतिका दोनों अम्मा का स्तनपान करने लगीं।
“अम्मा,” लतिका बीच में बोली, “आपको भी बोऊ दी जैसे ही खूब दूध बनता है?”
“नहीं रे... बहू का पीने वाले कई हैं... मेरा पीने वाले कम!”
“बापू पीते हैं?”
लतिका के प्रश्न पर माँ हँसने लगीं।
“तू पी चुपचाप!”
“बताओ न!”
“हाँ!” अम्मा ने संछिप्त सा उत्तर दिया।
“सही है आप लोगों का...”
“तेरा भी हो जाएगा!”
बहुत बातचीत नहीं हुई तीनों के बीच।
कुछ देर बाद अम्मा ने माँ से कहा, “खाली हो गया बहू?”
माँ ने स्तन को मुँह में ही रखे हुए ‘हाँ’ में सर हिलाया।
“और पीना है?”
इस बार माँ ने स्तन छोड़ दिया, लेकिन बिना कुछ कहे ‘न’ में सर हिलाया।
“ठीक है बेटा... जा अब! सुनील भी तेरा इंतज़ार कर रहा होगा। सो जा अब! ... सवेरे बात करेंगे!”
“ठीक है अम्मा!” माँ ने आज्ञाकारिणी बहू की तरह कहा, और अम्मा के पैर छू कर कमरे से बाहर चल दीं।
माँ के जाने के बाद लतिका ने अम्मा से थोड़े उम्मीद भरे स्वर में कहा, “अम्मा, आपको लगता है कि मैं भी बोऊ दी जैसी ही बहू बन पाऊँगी?”
“तुझमें बहू की छाया है... हू-ब-हू! बिल्कुल बनेगी उसकी जैसी ही गुणवती बहू! मुझे अपने खून पर पूरा भरोसा है!”
“थैंक यू अम्मा, थैंक यू!” लतिका बोली, और वापस स्तनपान करने लगी!
*
यह पुजा पाठ में मेरा बेटा सबसे आगे रहता है
उसमे उसे बहुत खुशी भी मिलती है
थाक दादा थाक
बंगाली मिष्टी बहुत मीठा
वाव क्या बात है
दिल बाग बाग हो गया
लतिका से उसकी मन की बात कितनी बढ़िया तरीके से स्वीकारोक्ति लिया गया
बहुत ही सुंदर वर्णन एक एक शब्द एक एक क्षण एक एक एहसास
सच कहूँ तो शब्द ही नहीं मिल पा रहा है
Gr8 update sir..
Retirement life is very unique . I have ever seen people in this age (including my father) loves (not like) to be with their own soil and always try to be the guests of their own kids.!!!
Lots of excuses like "pending works" left and to leave soon. May be they want to live with their own life as if the count down of life cycle starts for them ..!!! And we always miss them and their noble presence in our family.. very hard feelings.
Keep writing sir ..it's a humble demand.
अरे नहीं भैया ऐसी कोई बात नहीं है, मुझे लगा आप व्यस्त होंगे इसीलिए आपको क्यों परेशान करना।कैसे हो मेरे भाई?
मैं अगर नियमित नहीं लिख पाता, तो क्या तुम मैसेज भी नहीं करोगे?
Yes sir.. All well but bat ye hai ki liking stories of elite writers seems gone for holidaysजी भाई! कभी वट वृक्ष देखा है? अवश्य देखा होगा - कैसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न है! तो जैसे जैसे समय बीतता है, वैसे वैसे उसकी टहनियों से भी जड़ें निकल कर भूमि को पकड़ लेती हैं।
हम लोग भी वैसे ही हैं - ज़मीन ही हमारी पहचान बन जाती है। उस पर किसी से यह डिमांड करना कि जीवन के चौथपन में वो सब कुछ छोड़ कर, नए सिरे से जीवन स्थापना करे, ठीक नहीं।
अमर के जीवन में वही विकट समस्या है - ससुर जी को अकेला नहीं छोड़ सकता, लेकिन ससुर जी अपनी ज़मीन नहीं छोड़ सकते। बिना उनके लतिका भी नहीं जा सकती। और अमर बिना अपने माँ बाप के नहीं रहना चाहता! कड़वी गोली है, लेकिन सभी को खानी पड़ेगी। जब तक कोई समाधान न निकल आए।
और जहाँ तक लिखने वाली बात है, वो तो जारी रहेगी मित्र! कहानी तो पूरी होगी।
साथ बने रहें! वैसे एक लम्बे अर्से के बाद दिखाई दिए! सब कुशल मंगल?
भाई जैसे शृंगार रस लिखना एक कला है उसी प्रकार पारिवारिक आनंदमय क्षण को लेखन के माध्यम से जिवंत कर अनुभव कराना भी एक अद्भुत कला हैये अच्छी बात है। मैं भी इस बात में यकीन रखता हूँ कि हम बच्चों को अपने समाज के मूल के बारे में बताएँ।
हा हा! धन्यवाद भाई!
परिवार के मीठे मीठे पल!
बस, जोड़ जोड़ कर, शब्दों को पिरो कर आप लोगों के सामने ले आता हूँ!
इसी उम्मीद में कि शायद आनंद मिले!
कैसे हैं अब? तबियत दुरुस्त हो गई?
डंबल उठा लेंगे अब?![]()