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Romance मोहब्बत का सफ़र [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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प्रकरण (Chapter)अनुभाग (Section)अद्यतन (Update)
1. नींव1.1. शुरुवाती दौरUpdate #1, Update #2
1.2. पहली लड़कीUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19
2. आत्मनिर्भर2.1. नए अनुभवUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3. पहला प्यार3.1. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह प्रस्तावUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21
3.3. पल दो पल का साथUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
4. नया सफ़र 4.1. लकी इन लव Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15
4.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
4.3. अनमोल तोहफ़ाUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
5. अंतराल5.1. त्रिशूल Update #1
5.2. स्नेहलेपUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10
5.3. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24
5.4. विपर्ययUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
5.5. समृद्धि Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20
6. अचिन्त्यUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28
7. नव-जीवनUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5
 
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avsji

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अरे नहीं भैया ऐसी कोई बात नहीं है, मुझे लगा आप व्यस्त होंगे इसीलिए आपको क्यों परेशान करना।
और मैं बढ़िया से हूँ, व्यायाम करना शुरू किया है इस महीने तो पहले से भी बेहतर हूँ। आप बताइए आप कैसे हैं?
इस बार कुछ टिप्पणी नहीं की मैंने बस emoji डाल दिये क्योंकि काजल, सुमन और लतिका की बातें सुन कर मन ज़ोर की झप्पी देने को किया।💕

व्यस्त तो हम सभी हैं ही - या तो काम से, नहीं तो बिना काम से! :)
हम सभी बढ़िया हैं! सब कुछ बढ़िया है।
व्यायाम करना बहुत अच्छी बात है - इससे शरीर में हार्मोनों का संतुलन रहता है, और मन चंगा रहता है।
इसलिए करते रहें। प्रोटीन भी लेते रहें आवश्यक मात्रा में (शरीर का जितना वज़न है, उतने ग्राम प्रोटीन अवश्य लें प्रतिदिन)
 

avsji

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Yes sir.. All well but bat ye hai ki liking stories of elite writers seems gone for holidays 😆😆😆. Jokes apart.. Some domestic consequences only but I yes we need your kind gesture in this forum.

इस फ़ोरम में यही ट्रेजेडी है - लेखकों को उनके लिखे का पारितोषिक नहीं देते पाठक लोग, लेकिन समय पर अपडेट चाहिए!
मुफ़्त में मज़े करने का सबसे सुन्दर उदाहरण यहीं है 😂😂 - अगर मुफ़्त में कुछ दो, तो लोग 'दो दो क्यों नहीं दे रहे हो' कर के डिमांड करते हैं यहाँ
 
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avsji

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ओ तेरी मतलब जयंती तक खबर पहुँच चुकी थी

याद करें - पहले के किसी अपडेट में जब सुमन और काजल आपस में बातें कर रहे थे, तब यह बात उठी थी।

यार थोड़ी फास्ट हो गई क्या कहानी
सिर्फ अमर ही लगता है अंतर्द्वंद में फंसा रहेगा
बाकी सभी की ओर से क्लीयर हो गया है

सभी की तरफ़ से क्लियर क्यों नहीं होगा? सभी अमर को अपने अपने तरीके से पसंद करते हैं।
अमर ने ऐसा कोई काम नहीं किया कि किसी से उसका कोई बैर हो - बस रचना से है, और वो चैप्टर बंद हो गया है।
जयंती भी काजल की ही उम्र की है, लिहाज़ा, उसके मन में भी अमर के लिए ममता वाले भाव हैं।
वो भी चाहती है कि उसकी भांजी को प्रेम करने वाली माँ मिले - जो इस समय केवल लतिका से ही संभव दिख रहा है।

ह्म्म्म्म
अब चक्रव्यूह बनेगा
बेचारा अमर अभिमन्यु बन कर फंसेगा

प्रोप्राईटी (सुचरित्रता) के चक्कर में पड़ कर अमर लतिका को जीवनसाथी के रूप में नहीं देख सकता।
वो ऐसा है ही नहीं। उसको बताना पड़ेगा कि लतिका एक desirable लड़की है।

चलो कुछ तो सोल्यूशन मिल गया
हैप्पी एंडींग की तरफ अग्रसर हो रहा है

यह भी एक बड़ा मुद्दा है। लेकिन सॉल्व होगा।

भाई जैसे शृंगार रस लिखना एक कला है उसी प्रकार पारिवारिक आनंदमय क्षण को लेखन के माध्यम से जिवंत कर अनुभव कराना भी एक अद्भुत कला है
इसलिये उस प्रत्यक्ष क्षण को पढ़ तो सका पर उस पर सविशेष विश्लेषण लिखाने मुझसे सम्भव ना हुआ l
अद्भुत था और है

बहुत बहुत धन्यवाद मेरे भाई! :)

अब आगे शायद अमर की आत्म ग्लानिबोध और अंतर्द्वंद देखने को मिलेगा
प्रतीक्षा रहेगी अगले अपडेट की

अमर को 'बोध' होना ज़रूरी है। बस, उसी की कवायद है!
उम्मीद है कि शनिवार को अगला अपडेट आए :)
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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इस फ़ोरम में यही ट्रेजेडी है - लेखकों को उनके लिखे का पारितोषिक नहीं देते पाठक लोग, लेकिन समय पर अपडेट चाहिए!
मुफ़्त में मज़े करने का सबसे सुन्दर उदाहरण यहीं है 😂😂 - अगर मुफ़्त में कुछ दो, तो लोग 'दो दो क्यों नहीं दे रहे हो' कर के डिमांड करते हैं यहाँ
दुनिया का दस्तूर यही है, जो आराम से सब देता है वो कभी न दे पाए तो उससे बुरा और कोई नही होता, और जो मुश्किल से कुछ दे, वो देवता
 

avsji

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दुनिया का दस्तूर यही है, जो आराम से सब देता है वो कभी न दे पाए तो उससे बुरा और कोई नही होता, और जो मुश्किल से कुछ दे, वो देवता

हर समय ये बात सच है।
जिसके सामने भीख मांगनी पड़े, वो देवता होता है।
बाकी तो जैसे आपके एहसान तले दबे हुए हैं 😂👌👌👌
 

Ritz

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इस फ़ोरम में यही ट्रेजेडी है - लेखकों को उनके लिखे का पारितोषिक नहीं देते पाठक लोग, लेकिन समय पर अपडेट चाहिए!
मुफ़्त में मज़े करने का सबसे सुन्दर उदाहरण यहीं है 😂😂 - अगर मुफ़्त में कुछ दो, तो लोग 'दो दो क्यों नहीं दे रहे हो' कर के डिमांड करते हैं यहाँ
Agree sir and yes everything is free here but CHAHAT matter a lot sir. Your epic creation kayakalp.. I can't count how many times I have read and same as yours short stories. All contains of rich values and emotions. So this is the invisible thread that connect with lots of thirsty readers ..and in return virtual respects 🙏and love ❤.
So no hard feelings sir please🙏🙏.
 

avsji

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Agree sir and yes everything is free here but CHAHAT matter a lot sir. Your epic creation kayakalp.. I can't count how many times I have read and same as yours short stories. All contains of rich values and emotions. So this is the invisible thread that connect with lots of thirsty readers ..and in return virtual respects 🙏and love ❤.
So no hard feelings sir please🙏🙏.
धन्यवाद मित्र
 
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avsji

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अचिन्त्य - Update # 10


आज अन्नकूट था, और शनिवार भी! मतलब छुट्टी का दिन!

सवेरे करीब सवा पाँच बजे उठ गया मैं। छुट्टी के दिन तो वैसे थोड़ी आरामतलबी रहती है मेरी, लेकिन आज सोचा कि व्यायाम कर लूँ। जल्दी उठा हूँ, तो कब तक अकेला ही बैठा रहूँगा यहाँ? मैं तैयार हो ही रहा था कि लतिका भी मुझको अपने ट्रैक-सूट में दिखाई दी।

“आ... आप... दौड़ने जा रहे हैं?”

“हाँ,”

“मैं भी साथ हो लूँ?” न जाने क्यों उसकी बातों में झिझक सुनाई दे रही थी।

“अरे, मैंने कब रोका तुमको! ... चलो, एक से भले दो!”

वो मुस्कुराई, “बस, पाँच मिनट?”

मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

पाँच मिनट बाद मैं और लतिका लगभग ख़ामोश सड़कों पर दौड़ने लगे। वैसे तो मुंबई में कहीं ठीक से दौड़ने के लिए फुटपाथ या स्थान नहीं मिलता, लेकिन जहाँ पर ये घर था, वहाँ के आस पास उचित फुटपाथ थे। एक क्रॉस बनाता हुआ फ्लाई-वे था, जिसका एक क्रॉस एक ट्रेन स्टेशन से दूसरे को जाता था, और दूसरा नीचे की रेल की पटरियों के ऊपर से! अगर केवल क्रॉस पर दौड़ लें, तो उस लूप से ही लगभग आठ नौ किलोमीटर की दौड़ हो जाती थी। मतलब आज बढ़िया दौड़ होने वाली थी। हम दोनों वैसे भी सामान्य जॉगिंग नहीं करते थे - कम से कम दस बारह किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ते थे। उस गति से दौड़ते समय बात कर पाना कठिन काम है। लतिका स्टैमिना के लिए अवश्य दौड़ रही थी, लेकिन फिर भी उसकी स्पीड तेज थी। उसको साथ देने के लिए मैं भी तेज ही दौड़ रहा था, इसलिए साँसें भी तेज ही चल रही थीं। रास्ते में सड़क की सफाई करने वालों ने भी धूल उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। ऐसे में बातचीत नहीं हो पाती। लतिका और मेरे प्रयास में अंतर था - उसका वज़न हल्का था, और शरीर तेज धाविकाओं जैसा ही था। मैं भारी था - शरीर में माँस पेशियाँ भारी थीं। लिहाज़ा, मैं उसके बगल दौड़ पा रहा था, वही बहुत बड़ी बात थी। तब तक बढ़िया उजाला भी होने लगा था। करीब एक घंटे बाद - और कोई पंद्रह किलोमीटर की दौड़ के बाद हम घर वापस आ गए।

कहने को नवम्बर का महीना था, लेकिन हम दोनों की हालत बेहाल थी। बाहर उमस थी, इसलिए दौड़ की मेहनत और उमस के प्रभाव से हम दोनों ही पसीने से लथपथ हो गए। कपड़ों से पसीना चू रहा था। साँसें चढ़ आई थीं - कम से कम मेरी तो!

“आपको प्रोटीन शेक दूँ?” लतिका ने घर के दरवाज़े पर आते आते पूछा।

“हाँ... बर्फ़ के साथ प्लीज!”

लतिका घर के दरवाज़े में चाबी लगाने ही वाली थी कि दरवाज़ा खुल गया। अम्मा वहीं खड़ी थीं... जैसे हमारी ही राह देख रही हों।

“तुम दोनों न... आज छुट्टी के दिन भी दौड़भाग हो रही है?” अम्मा अपना सर हिलाते हुए बोलीं, “कभी तो थोड़ा आराम कर लिया करो!”

“अम्मा... ट्रेनिंग में कमी नहीं रहनी चाहिए न! ... और वैसे भी आपने और बोऊ दी ने कल इतना खिला दिया था कि उसकी भरपाई तो करनी ही पड़ेगी न!” लतिका ने अम्मा को अपने आलिंगन में भरने की कोशिश करते हुए कहा।

“ए चल चल...” अम्मा ने उसको परे रहने को कहा, “पसीने से लथपथ है पूरी! छीः! जब तक नहा न ले, तब तक मुझको छूना मत! ... अभी अभी नहाई हूँ...”

अब अम्मा ने उसको एक कमज़ोर कड़ी पकड़ा दी, तो लतिका मानने वाली कहाँ थी? वो उंगली से अम्मा को छूने की कोशिश - या यह कहिए कि उनको छूने का डराने लगी, और अम्मा बचने की। उन दोनों के खेल से मुझको हँसी आने लगी। अच्छा लगा लतिका को इस तरह से हँसते खेलते देख कर। ऐसे ही चंचला रूप में वो अच्छी लगती है। मेरे साथ रहते रहते वो कैसी धीर गंभीर सी हो गई थी।

‘काश हम सभी यहीं रहते!’ मन में ये बात आए बिना न रह सकी।

जब लतिका का खेल थम गया तो अम्मा हार कर बोलीं, “अच्छा अच्छा, बस... मेरी भी एक्सरसाइज हो गई! उतना खाया ही नहीं जितना तूने थका दिया... चल अब, नहा ले! ऐसे बन्दर की तरह मत रह!”

“हाँ अम्मा! बस, प्रोटीन पी कर...”

लतिका ने मेरे और अपने लिए प्रोटीन शेक बनाने लगी।

मैंने घर में नज़र दौड़ाई - बड़ी ख़ामोशी थी। मतलब सभी सो रहे होंगे। अम्मा के अलावा कोई और अभी तक जगा नहीं दिख रहा था। पापा और माँ अभी तक नहीं उठे थे शायद - नहीं तो दिख जाते। वैसे, इतनी देर नहीं हुई थी अभी भी - पौने सात ही बजे थे लगभग! लेकिन वो दोनों अक्सर जल्दी उठने वालों में से थे। वैसे, दोनों उठते भी कैसे? मैंने मन ही मन सोचा कि पूरी रात उन दोनों ने दिवाली मनाई होगी कल!

“पहले आप नहाएँगे कि मैं?” लतिका ने मुझको शेक का गिलास पकड़ाते हुए पूछा।

घर में दो इन-सुईट बाथरूम थे - एक माँ पापा के कमरे से लगा हुआ, और दूसरा उस कमरे में जिसमें ससुर जी रह रहे थे। उसके अलावा एक और बाथरूम था, जिसके लिए लतिका पूछ रही थी, और एक छोटा वाशरूम था - जिसमें नहाया नहीं जा सकता था।

“तुम नहा लो... मैं थोड़ा और समय लूँगा!”

“ठीक है!”

लतिका नहाने चली गई, तो अम्मा ने मुझको अपने पास, सोफे पर बैठाया। लेकिन शरीर पसीने से भीगा हुआ था, इसलिए मैं उनके सामने ज़मीन पर ही बैठ गया।

“क्यों रे गंदे बच्चे! कल मेरे पास क्यों नहीं आया?”

“हा हा! कुछ नहीं अम्मा... बस, सोचा कि आपको माँ और पुचुकी के साथ टाइम बिताने दूँ! आप लोगों को समय ही कहाँ मिलता है?”

“अच्छा! तू मेरा कुछ नहीं है?”

“हूँ अम्मा, क्यों नहीं हूँ?”

“तो फिर? ... अगर मेरे बच्चे ही मुझसे फॉर्मेलिटी करने लगेंगे, फिर कैसे कुछ होगा?”

“कोई फॉर्मेलिटी नहीं है अम्मा!”

उतने में दरवाज़े पर दस्तक़ हुई। मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला, देखा दूध की बोतलें देने वाला आया था। मैंने उससे सामान लिया, और उसको त्यौहारी भी दी। वो ख़ुशी ख़ुशी चला गया। उसके पीछे ही कार साफ़ करने वाला भी खड़ा था, और चाबी माँगने आया था कि कार को अंदर से भी साफ़ कर देगा। मैंने उसको चाबी दी, और उसको भी त्यौहारी दी। काम होने से पहले ही धन मिलने से वो भी बहुत खुश था। सामान अंदर रख के मैं फिर से अम्मा के सामने बैठ गया।

“पुचुकी को यूँ हँसता खेलता देख कर बड़ा अच्छा लगता है अम्मा!”

“हाँ! बहुत! ... बहुत अच्छा लगता है! मैं तो सोचती रहती हूँ कि न जाने किस घर जाने को लिखा है इसकी किस्मत में? ... काश अपने जैसा घर मिले इसको, जहाँ इसको खूब प्यार मिले, जहाँ ये खूब प्यार दे सके!”

“अरे अम्मा, अभी तो छोटी है पुचुकी!”

“क्या छोटी है? अट्ठारह की हो गई... इतने पर तो मेरी दोनों बहुएँ माँ बन गई थीं!”

“हा हा... हाँ, वो तो है!”

“मेरे कहने का ये मतलब नहीं कि लतिका भी माँ बन जाए अभी... बस ये कि अब वो छोटी नहीं है! ... उसकी ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं... उसकी शादी का सोचना पड़ेगा! एक अच्छा सा लड़का चाहिए!”

“बहुत से अच्छे लड़के हैं अम्मा... मेरे ऑफिस में ही इतने बढ़िया बढ़िया हैं!”

“हम्म्म... देखते हैं! मेरे भी मन में हैं एक दो...” अम्मा ने बात पूरी नहीं करी।

कुछ क्षणों को चुप्पी रही।

फिर मैंने सोचते हुए कहा, “अम्मा... जब लतिका भी चली जाएगी, तो मैं और आभा अकेले रह जाएँगे बिलकुल ही!”

“क्यों, ऐसा क्या करती है वो?”

“अम्मा! आप न, लतिका को बहुत कम कर के आँकती हैं... वो पूरे घर को इतना बढ़िया से सम्हालती है कि क्या कहूँ! आभा को तो ऐसे देखती है कि जैसे वो उसकी माँ हो! आभा भी बहुत रेस्पेक्ट करती है उसकी! ... अपने हाउसहेल्प उसको मालकिन कह कर पुकारते हैं!”

“अच्छा?” अम्मा ने हँसते हुए कहा।

“हाँ... और जब वो ऑफिस में आती है, तो वहाँ भी छा जाती है! मैंने एक दो बार लोगों को कहते सुना है कि इतनी कम उम्र में भी कितनी ग्रेसफुल है... सभी से कैसे हँसते मुस्कुराते मिलती है!”

“बढ़िया है...”

“लोग उसको कंपनी का अगला सीईओ सोचते हैं... हा हा!”

“और तू? मेरा मतलब... तुझे? तुझको देखती है वो?”

मैं इस प्रश्न से अचकचा गया, “ऐं... ह... हाँ! हाँ हाँ... मैं अलग थोड़े ही हूँ!”

“कैसे देखती है?” अम्मा ने आँखें चमकाते हुए पूछा - उनके दाँत दिखाई दे रहे थे।

साफ़ तौर पर वो मुझसे मज़े ले रही थीं।

“अम्मा... म मतलब?”

“अरे,” अम्मा ने चेहरे पर सहज भाव बरकरार रखे हुए कहा, “तुझे कैसे देखती है वो? बेटू को माँ के जैसे देखती है, और तुझे?”

“मुझे भी...”

“हैं? तुझे भी माँ के जैसे देखती है?”

अम्मा! नहीं... आप भी न,” मैं अम्मा की बात से झेंप गया, “शायद... दोस्त के जैसे... या फिर...” फिर अचानक से एक विचार आया कि मैं बात को पलट सकता था, “अब है तो वो मेरी बुआ ही न!” मैंने दाँत निपोरते हुए कहा, “माँ के जैसे भी देखे, तो भी क्या?”

“हाँ... ये बढ़िया है! एक काम क्यों नहीं करता तू? दुनिया की हर लड़की का बेटा ही बन जा... हो भई शादी तेरी ऐसे तो!”

“आएँ! लतिका की शादी की बात होते होते, मेरी शादी की बात कहाँ से आ गई?”

“क्यों? तेरी भी शादी नहीं करवानी क्या मुझे?”

“क्या अम्मा... मैं क्या कह रहा था, और आप क्या कह रही हैं!”

“हाँ हाँ, जानती हूँ, तू क्या कह रहा है!”

दो पल हम चुप रहे, फिर अम्मा ही बोलीं, “सुन्दर भी खूब हो गई है,”

मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“जब वो छोटी थी, तो मैं सोचती थी कि बड़ी हो कर कहीं साधारण सी न दिखे! ... लेकिन अब अच्छी लगती है... चेहरा सुन्दर है... अच्छी गढ़न है... मोटी और साधारण चेहरे की होती, तो शादी में दिक्कत होती है न... साँवली भी तो है...”

अम्मा की बात पर मुझे अनायास ही लतिका के जन्मदिन की सुबह याद हो आई... जब मैंने उसके... उसके अंदरूनी कपड़े...! अनायास ही मानस पटल पर वही काले रंग की डेमी कप वाली ब्रा और काली पैंटीज़ पहने हुए उसकी तस्वीर खिंच गई। गज़ब की तस्वीर थी वो... मॉडल जैसी जैसी लग रही थी वो... बेहद सुन्दर... बहुत कॉंफिडेंट... गज़ब की हसीन... वो तस्वीर देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं... अनायास ही!

“साँवली होने से सुंदरता थोड़े ही छुप जाती है...” मेरे मुँह से अपने आप ही निकल गया।

अम्मा मेरी बात पर मुझको रोचकता से देखने लगीं। मैंने उनको अपनी तरफ देखते हुए देखा... मैं फिर से अचकचा गया। अम्मा के सामने ही, उनकी बेटी के बारे में मैं क्या क्या सोच रहा था! थोड़ी ग्लानि सी होने लगी।

मैंने बात पलटने की गरज से कहा, “व वो... मैं ये कह रहा था अम्मा, कि उसकी ऐसी बढ़िया पर्सनालिटी है... उसमें इतना कौशल है... अब क्या कहूँ अम्मा... हम बहुत मिस करेंगे लतिका को!”

“क्यों मिस करोगे?”

“बताया तो अम्मा... जब उसकी शादी हो जाएगी...?”

“एक बात कहूँ अमर बेटे?” अम्मा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, “तू ऐसा वैसा मत सोचना मेरी बात पर... लेकिन मेरे मन में आई है, तो कहूँगी ज़रूर,”

“क्या हुआ अम्मा? बोलिए न?”

“लतिका के लिए न... तेरे जैसा कोई चाहती हूँ मैं...”

“अम्मा?”

“हाँ बेटा... अगर... अगर तू... तू लतिका को चाहता हैं न, तो मैं तेरी और उसकी शादी कर दूँगी!”

“क्या!!!” मुझे यकीन ही नहीं हुआ जो मैंने सुना, “क्या कह रही हैं अम्मा?!!”

‘क्या हो गया था अम्मा को? कैसी बातें कर रही थीं वो आज!’

“अरे ऐसा क्या कह दिया मैंने?” अम्मा भी भी निस्पृह भाव से कह रही थीं, “तुम दोनों को साथ में देखती हूँ न, तो मन में यह ख़याल आए बिना नहीं रह पाता! ... खूब अच्छे लगते हो दोनों साथ में!”

“आप मज़ाक कर रही हैं न?”

“ये बात मज़ाक करने वाली होती है क्या?”

मुझसे कुछ समय कुछ कहते नहीं बना, “कुछ भी बोलती हो अम्मा!”

“उल्लू हो तुम!” अम्मा ने प्यार से मेरी नाक का अग्र भाग अपनी उँगलियों से पकड़ कर हिलाया।

“प्यार से आप जो बनाएँगी, मैं बन जाऊँगा...”

“मेरा बेटा...” अम्मा ने मेरे माथे को चूमा।

मेरे मन में भी कई सारे विचार आ-जा रहे थे।

“अमर... बेटे... तुझे वो दिन याद है, जब मैंने तुझे अपना दूध पहली बार पिलाया था?”

मैंने उत्तर नहीं दिया।

“उसके बाद जो कुछ भी हुआ हो हमारे बीच... वो अलग बातें हैं। लेकिन जब मैंने पहली बार तुझे अपना दूध पिलाया था न, तब मैंने वो तेरी माँ बन कर किया था! मन में वही भावना थी। उस दिन, उस पल, मैं तेरी माँ ही थी!”

मैं अवाक रह गया।

“ये बात झूठी हो, तो भगवान उठा लें मुझे!”

“अम्मा...” ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती मुझे!

“मैं जानती हूँ कि तूने मुझ पर चाँस लेने के लिए मुझसे दूध पिलाने को कहा था... लेकिन वो पल... ओह, वो पल याद करती हूँ न, तो मेरे स्तनों में दर्द होने लगता है। ... बस यही इच्छा होती है कि तू मेरे सीने से लग कर फिर से मुझे माँ का सुख दे!”

अम्मा की हर बात सच थी। मैं भावनाओं से ओत प्रोत हो कर अम्मा के चरणों में गिर गया।

“वो पहली भावना... ईश्वर की कृपा थी कि हम फिर से माँ बेटे हो गए! कुछ तो सोचा ही होगा न उन्होंने? है कि नहीं? ... नहीं तो ये सब क्यों होता? बता? बोल... है कोई लॉजिकल रीज़न?”

मेरी आँखों से भी आँसू आ गए, “नहीं मालूम अम्मा, नहीं मालूम!”

“सोच न! किस रूप में मैंने तुझे प्यार नहीं दिया? दोस्त बनी, प्रेमिका बनी... बड़ी बहन... और अब माँ! ... बहुत पहले मन में इच्छा थी कि मेरा सुन्दर सा परिवार हो! खूब सारे बच्चे हों, सब सुशील, गुणी, पढ़े-लिखे हों!”

अम्मा जाने किसी और ही दुनिया में चली गईं जैसे, “... सपने कहाँ पूरे होते हैं लेकिन? देखते रहो जितने मन करे! ... मैं जहाँ से आई थी, वहाँ तो सपने देखना भी गुनाह है! ... लेकिन सपने पूरे होते हैं... मेरे हुए! हो रहे हैं... इक्कीस लोगों का परिवार है मेरा... ससुर हैं, पति हैं... बाबू जी हैं... जयंती जैसी बहन हैं, जीजा हैं, और इतने सारे बच्चे हैं!”

फिर एकदम से धरातल पर आकर बोलीं, “माँ हूँ मैं तुम सब की!”

“इस बात से मैंने कब मना किया अम्मा?”

“इसीलिए तो तेरा सुख भी मेरा ही सुख है न बेटे? ... एक माँ का सुख तो अपने बच्चों के सुख से ही तो आता है!”

“हाँ अम्मा, मानता हूँ इस बात को... लेकिन...”

“यही बात मैंने बहू को भी समझाई थी...” अम्मा ने जैसे मेरी बात ही न सुनी हो, “जब उसको सुनील को ले कर असमंजस था न, तब!”

“लेकिन अम्मा... मुझे लतिका को ले कर कोई असमंजस थोड़े ही है!”

“बहुत बढ़िया!”

“मेरा मतलब... मैं... क्या अम्मा! मैं उससे कोई प्यार व्यार थोड़े ही करता हूँ!”

“नहीं करते?”

“आई मीन... हाँ... करता हूँ, लेकिन वैसा नहीं जैसा आप कह रही हैं!”

“हम्म... शेम!” अम्मा ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा।

मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने ऐसे इतनी आसानी से इस वार्तालाप को कैसे बंद कर दिया! लेकिन जो भी हो दिमाग में उनकी बात घर कर ही गई। मेरे मानस पटल पर लतिका का जो चित्र खिंचा था, मिट ही नहीं रहा था!

‘बाप रे! ये लड़की कब बड़ी हो गई?’

‘अम्मा क्या वाक़ई सीरियस थीं? ... मैं और लतिका?’


*
 

avsji

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मित्र : ये वाहियात से चित्र और चैट, मेरे सूत्र में चेपने की आपको कौन सी आवश्यकता आन पड़ी थी?
 

Riky007

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अचिन्त्य - Update # 10


आज अन्नकूट था, और शनिवार भी! मतलब छुट्टी का दिन!

सवेरे करीब सवा पाँच बजे उठ गया मैं। छुट्टी के दिन तो वैसे थोड़ी आरामतलबी रहती है मेरी, लेकिन आज सोचा कि व्यायाम कर लूँ। जल्दी उठा हूँ, तो कब तक अकेला ही बैठा रहूँगा यहाँ? मैं तैयार हो ही रहा था कि लतिका भी मुझको अपने ट्रैक-सूट में दिखाई दी।

“आ... आप... दौड़ने जा रहे हैं?”

“हाँ,”

“मैं भी साथ हो लूँ?” न जाने क्यों उसकी बातों में झिझक सुनाई दे रही थी।

“अरे, मैंने कब रोका तुमको! ... चलो, एक से भले दो!”

वो मुस्कुराई, “बस, पाँच मिनट?”

मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

पाँच मिनट बाद मैं और लतिका लगभग ख़ामोश सड़कों पर दौड़ने लगे। वैसे तो मुंबई में कहीं ठीक से दौड़ने के लिए फुटपाथ या स्थान नहीं मिलता, लेकिन जहाँ पर ये घर था, वहाँ के आस पास उचित फुटपाथ थे। एक क्रॉस बनाता हुआ फ्लाई-वे था, जिसका एक क्रॉस एक ट्रेन स्टेशन से दूसरे को जाता था, और दूसरा नीचे की रेल की पटरियों के ऊपर से! अगर केवल क्रॉस पर दौड़ लें, तो उस लूप से ही लगभग आठ नौ किलोमीटर की दौड़ हो जाती थी। मतलब आज बढ़िया दौड़ होने वाली थी। हम दोनों वैसे भी सामान्य जॉगिंग नहीं करते थे - कम से कम दस बारह किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ते थे। उस गति से दौड़ते समय बात कर पाना कठिन काम है। लतिका स्टैमिना के लिए अवश्य दौड़ रही थी, लेकिन फिर भी उसकी स्पीड तेज थी। उसको साथ देने के लिए मैं भी तेज ही दौड़ रहा था, इसलिए साँसें भी तेज ही चल रही थीं। रास्ते में सड़क की सफाई करने वालों ने भी धूल उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। ऐसे में बातचीत नहीं हो पाती। लतिका और मेरे प्रयास में अंतर था - उसका वज़न हल्का था, और शरीर तेज धाविकाओं जैसा ही था। मैं भारी था - शरीर में माँस पेशियाँ भारी थीं। लिहाज़ा, मैं उसके बगल दौड़ पा रहा था, वही बहुत बड़ी बात थी। तब तक बढ़िया उजाला भी होने लगा था। करीब एक घंटे बाद - और कोई पंद्रह किलोमीटर की दौड़ के बाद हम घर वापस आ गए।

कहने को नवम्बर का महीना था, लेकिन हम दोनों की हालत बेहाल थी। बाहर उमस थी, इसलिए दौड़ की मेहनत और उमस के प्रभाव से हम दोनों ही पसीने से लथपथ हो गए। कपड़ों से पसीना चू रहा था। साँसें चढ़ आई थीं - कम से कम मेरी तो!

“आपको प्रोटीन शेक दूँ?” लतिका ने घर के दरवाज़े पर आते आते पूछा।

“हाँ... बर्फ़ के साथ प्लीज!”

लतिका घर के दरवाज़े में चाबी लगाने ही वाली थी कि दरवाज़ा खुल गया। अम्मा वहीं खड़ी थीं... जैसे हमारी ही राह देख रही हों।

“तुम दोनों न... आज छुट्टी के दिन भी दौड़भाग हो रही है?” अम्मा अपना सर हिलाते हुए बोलीं, “कभी तो थोड़ा आराम कर लिया करो!”

“अम्मा... ट्रेनिंग में कमी नहीं रहनी चाहिए न! ... और वैसे भी आपने और बोऊ दी ने कल इतना खिला दिया था कि उसकी भरपाई तो करनी ही पड़ेगी न!” लतिका ने अम्मा को अपने आलिंगन में भरने की कोशिश करते हुए कहा।

“ए चल चल...” अम्मा ने उसको परे रहने को कहा, “पसीने से लथपथ है पूरी! छीः! जब तक नहा न ले, तब तक मुझको छूना मत! ... अभी अभी नहाई हूँ...”

अब अम्मा ने उसको एक कमज़ोर कड़ी पकड़ा दी, तो लतिका मानने वाली कहाँ थी? वो उंगली से अम्मा को छूने की कोशिश - या यह कहिए कि उनको छूने का डराने लगी, और अम्मा बचने की। उन दोनों के खेल से मुझको हँसी आने लगी। अच्छा लगा लतिका को इस तरह से हँसते खेलते देख कर। ऐसे ही चंचला रूप में वो अच्छी लगती है। मेरे साथ रहते रहते वो कैसी धीर गंभीर सी हो गई थी।

‘काश हम सभी यहीं रहते!’ मन में ये बात आए बिना न रह सकी।

जब लतिका का खेल थम गया तो अम्मा हार कर बोलीं, “अच्छा अच्छा, बस... मेरी भी एक्सरसाइज हो गई! उतना खाया ही नहीं जितना तूने थका दिया... चल अब, नहा ले! ऐसे बन्दर की तरह मत रह!”

“हाँ अम्मा! बस, प्रोटीन पी कर...”

लतिका ने मेरे और अपने लिए प्रोटीन शेक बनाने लगी।

मैंने घर में नज़र दौड़ाई - बड़ी ख़ामोशी थी। मतलब सभी सो रहे होंगे। अम्मा के अलावा कोई और अभी तक जगा नहीं दिख रहा था। पापा और माँ अभी तक नहीं उठे थे शायद - नहीं तो दिख जाते। वैसे, इतनी देर नहीं हुई थी अभी भी - पौने सात ही बजे थे लगभग! लेकिन वो दोनों अक्सर जल्दी उठने वालों में से थे। वैसे, दोनों उठते भी कैसे? मैंने मन ही मन सोचा कि पूरी रात उन दोनों ने दिवाली मनाई होगी कल!

“पहले आप नहाएँगे कि मैं?” लतिका ने मुझको शेक का गिलास पकड़ाते हुए पूछा।

घर में दो इन-सुईट बाथरूम थे - एक माँ पापा के कमरे से लगा हुआ, और दूसरा उस कमरे में जिसमें ससुर जी रह रहे थे। उसके अलावा एक और बाथरूम था, जिसके लिए लतिका पूछ रही थी, और एक छोटा वाशरूम था - जिसमें नहाया नहीं जा सकता था।

“तुम नहा लो... मैं थोड़ा और समय लूँगा!”

“ठीक है!”

लतिका नहाने चली गई, तो अम्मा ने मुझको अपने पास, सोफे पर बैठाया। लेकिन शरीर पसीने से भीगा हुआ था, इसलिए मैं उनके सामने ज़मीन पर ही बैठ गया।

“क्यों रे गंदे बच्चे! कल मेरे पास क्यों नहीं आया?”

“हा हा! कुछ नहीं अम्मा... बस, सोचा कि आपको माँ और पुचुकी के साथ टाइम बिताने दूँ! आप लोगों को समय ही कहाँ मिलता है?”

“अच्छा! तू मेरा कुछ नहीं है?”

“हूँ अम्मा, क्यों नहीं हूँ?”

“तो फिर? ... अगर मेरे बच्चे ही मुझसे फॉर्मेलिटी करने लगेंगे, फिर कैसे कुछ होगा?”

“कोई फॉर्मेलिटी नहीं है अम्मा!”

उतने में दरवाज़े पर दस्तक़ हुई। मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला, देखा दूध की बोतलें देने वाला आया था। मैंने उससे सामान लिया, और उसको त्यौहारी भी दी। वो ख़ुशी ख़ुशी चला गया। उसके पीछे ही कार साफ़ करने वाला भी खड़ा था, और चाबी माँगने आया था कि कार को अंदर से भी साफ़ कर देगा। मैंने उसको चाबी दी, और उसको भी त्यौहारी दी। काम होने से पहले ही धन मिलने से वो भी बहुत खुश था। सामान अंदर रख के मैं फिर से अम्मा के सामने बैठ गया।

“पुचुकी को यूँ हँसता खेलता देख कर बड़ा अच्छा लगता है अम्मा!”

“हाँ! बहुत! ... बहुत अच्छा लगता है! मैं तो सोचती रहती हूँ कि न जाने किस घर जाने को लिखा है इसकी किस्मत में? ... काश अपने जैसा घर मिले इसको, जहाँ इसको खूब प्यार मिले, जहाँ ये खूब प्यार दे सके!”

“अरे अम्मा, अभी तो छोटी है पुचुकी!”

“क्या छोटी है? अट्ठारह की हो गई... इतने पर तो मेरी दोनों बहुएँ माँ बन गई थीं!”

“हा हा... हाँ, वो तो है!”

“मेरे कहने का ये मतलब नहीं कि लतिका भी माँ बन जाए अभी... बस ये कि अब वो छोटी नहीं है! ... उसकी ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं... उसकी शादी का सोचना पड़ेगा! एक अच्छा सा लड़का चाहिए!”

“बहुत से अच्छे लड़के हैं अम्मा... मेरे ऑफिस में ही इतने बढ़िया बढ़िया हैं!”

“हम्म्म... देखते हैं! मेरे भी मन में हैं एक दो...” अम्मा ने बात पूरी नहीं करी।

कुछ क्षणों को चुप्पी रही।

फिर मैंने सोचते हुए कहा, “अम्मा... जब लतिका भी चली जाएगी, तो मैं और आभा अकेले रह जाएँगे बिलकुल ही!”

“क्यों, ऐसा क्या करती है वो?”

“अम्मा! आप न, लतिका को बहुत कम कर के आँकती हैं... वो पूरे घर को इतना बढ़िया से सम्हालती है कि क्या कहूँ! आभा को तो ऐसे देखती है कि जैसे वो उसकी माँ हो! आभा भी बहुत रेस्पेक्ट करती है उसकी! ... अपने हाउसहेल्प उसको मालकिन कह कर पुकारते हैं!”

“अच्छा?” अम्मा ने हँसते हुए कहा।

“हाँ... और जब वो ऑफिस में आती है, तो वहाँ भी छा जाती है! मैंने एक दो बार लोगों को कहते सुना है कि इतनी कम उम्र में भी कितनी ग्रेसफुल है... सभी से कैसे हँसते मुस्कुराते मिलती है!”

“बढ़िया है...”

“लोग उसको कंपनी का अगला सीईओ सोचते हैं... हा हा!”

“और तू? मेरा मतलब... तुझे? तुझको देखती है वो?”

मैं इस प्रश्न से अचकचा गया, “ऐं... ह... हाँ! हाँ हाँ... मैं अलग थोड़े ही हूँ!”

“कैसे देखती है?” अम्मा ने आँखें चमकाते हुए पूछा - उनके दाँत दिखाई दे रहे थे।

साफ़ तौर पर वो मुझसे मज़े ले रही थीं।

“अम्मा... म मतलब?”

“अरे,” अम्मा ने चेहरे पर सहज भाव बरकरार रखे हुए कहा, “तुझे कैसे देखती है वो? बेटू को माँ के जैसे देखती है, और तुझे?”

“मुझे भी...”

“हैं? तुझे भी माँ के जैसे देखती है?”

अम्मा! नहीं... आप भी न,” मैं अम्मा की बात से झेंप गया, “शायद... दोस्त के जैसे... या फिर...” फिर अचानक से एक विचार आया कि मैं बात को पलट सकता था, “अब है तो वो मेरी बुआ ही न!” मैंने दाँत निपोरते हुए कहा, “माँ के जैसे भी देखे, तो भी क्या?”

“हाँ... ये बढ़िया है! एक काम क्यों नहीं करता तू? दुनिया की हर लड़की का बेटा ही बन जा... हो भई शादी तेरी ऐसे तो!”

“आएँ! लतिका की शादी की बात होते होते, मेरी शादी की बात कहाँ से आ गई?”

“क्यों? तेरी भी शादी नहीं करवानी क्या मुझे?”

“क्या अम्मा... मैं क्या कह रहा था, और आप क्या कह रही हैं!”

“हाँ हाँ, जानती हूँ, तू क्या कह रहा है!”

दो पल हम चुप रहे, फिर अम्मा ही बोलीं, “सुन्दर भी खूब हो गई है,”

मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“जब वो छोटी थी, तो मैं सोचती थी कि बड़ी हो कर कहीं साधारण सी न दिखे! ... लेकिन अब अच्छी लगती है... चेहरा सुन्दर है... अच्छी गढ़न है... मोटी और साधारण चेहरे की होती, तो शादी में दिक्कत होती है न... साँवली भी तो है...”

अम्मा की बात पर मुझे अनायास ही लतिका के जन्मदिन की सुबह याद हो आई... जब मैंने उसके... उसके अंदरूनी कपड़े...! अनायास ही मानस पटल पर वही काले रंग की डेमी कप वाली ब्रा और काली पैंटीज़ पहने हुए उसकी तस्वीर खिंच गई। गज़ब की तस्वीर थी वो... मॉडल जैसी जैसी लग रही थी वो... बेहद सुन्दर... बहुत कॉंफिडेंट... गज़ब की हसीन... वो तस्वीर देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं... अनायास ही!

“साँवली होने से सुंदरता थोड़े ही छुप जाती है...” मेरे मुँह से अपने आप ही निकल गया।

अम्मा मेरी बात पर मुझको रोचकता से देखने लगीं। मैंने उनको अपनी तरफ देखते हुए देखा... मैं फिर से अचकचा गया। अम्मा के सामने ही, उनकी बेटी के बारे में मैं क्या क्या सोच रहा था! थोड़ी ग्लानि सी होने लगी।

मैंने बात पलटने की गरज से कहा, “व वो... मैं ये कह रहा था अम्मा, कि उसकी ऐसी बढ़िया पर्सनालिटी है... उसमें इतना कौशल है... अब क्या कहूँ अम्मा... हम बहुत मिस करेंगे लतिका को!”

“क्यों मिस करोगे?”

“बताया तो अम्मा... जब उसकी शादी हो जाएगी...?”

“एक बात कहूँ अमर बेटे?” अम्मा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, “तू ऐसा वैसा मत सोचना मेरी बात पर... लेकिन मेरे मन में आई है, तो कहूँगी ज़रूर,”

“क्या हुआ अम्मा? बोलिए न?”

“लतिका के लिए न... तेरे जैसा कोई चाहती हूँ मैं...”

“अम्मा?”

“हाँ बेटा... अगर... अगर तू... तू लतिका को चाहता हैं न, तो मैं तेरी और उसकी शादी कर दूँगी!”

“क्या!!!” मुझे यकीन ही नहीं हुआ जो मैंने सुना, “क्या कह रही हैं अम्मा?!!”

‘क्या हो गया था अम्मा को? कैसी बातें कर रही थीं वो आज!’

“अरे ऐसा क्या कह दिया मैंने?” अम्मा भी भी निस्पृह भाव से कह रही थीं, “तुम दोनों को साथ में देखती हूँ न, तो मन में यह ख़याल आए बिना नहीं रह पाता! ... खूब अच्छे लगते हो दोनों साथ में!”

“आप मज़ाक कर रही हैं न?”

“ये बात मज़ाक करने वाली होती है क्या?”

मुझसे कुछ समय कुछ कहते नहीं बना, “कुछ भी बोलती हो अम्मा!”

“उल्लू हो तुम!” अम्मा ने प्यार से मेरी नाक का अग्र भाग अपनी उँगलियों से पकड़ कर हिलाया।

“प्यार से आप जो बनाएँगी, मैं बन जाऊँगा...”

“मेरा बेटा...” अम्मा ने मेरे माथे को चूमा।

मेरे मन में भी कई सारे विचार आ-जा रहे थे।

“अमर... बेटे... तुझे वो दिन याद है, जब मैंने तुझे अपना दूध पहली बार पिलाया था?”

मैंने उत्तर नहीं दिया।

“उसके बाद जो कुछ भी हुआ हो हमारे बीच... वो अलग बातें हैं। लेकिन जब मैंने पहली बार तुझे अपना दूध पिलाया था न, तब मैंने वो तेरी माँ बन कर किया था! मन में वही भावना थी। उस दिन, उस पल, मैं तेरी माँ ही थी!”

मैं अवाक रह गया।

“ये बात झूठी हो, तो भगवान उठा लें मुझे!”

“अम्मा...” ऐसी बातें अच्छी नहीं लगती मुझे!

“मैं जानती हूँ कि तूने मुझ पर चाँस लेने के लिए मुझसे दूध पिलाने को कहा था... लेकिन वो पल... ओह, वो पल याद करती हूँ न, तो मेरे स्तनों में दर्द होने लगता है। ... बस यही इच्छा होती है कि तू मेरे सीने से लग कर फिर से मुझे माँ का सुख दे!”

अम्मा की हर बात सच थी। मैं भावनाओं से ओत प्रोत हो कर अम्मा के चरणों में गिर गया।

“वो पहली भावना... ईश्वर की कृपा थी कि हम फिर से माँ बेटे हो गए! कुछ तो सोचा ही होगा न उन्होंने? है कि नहीं? ... नहीं तो ये सब क्यों होता? बता? बोल... है कोई लॉजिकल रीज़न?”

मेरी आँखों से भी आँसू आ गए, “नहीं मालूम अम्मा, नहीं मालूम!”

“सोच न! किस रूप में मैंने तुझे प्यार नहीं दिया? दोस्त बनी, प्रेमिका बनी... बड़ी बहन... और अब माँ! ... बहुत पहले मन में इच्छा थी कि मेरा सुन्दर सा परिवार हो! खूब सारे बच्चे हों, सब सुशील, गुणी, पढ़े-लिखे हों!”

अम्मा जाने किसी और ही दुनिया में चली गईं जैसे, “... सपने कहाँ पूरे होते हैं लेकिन? देखते रहो जितने मन करे! ... मैं जहाँ से आई थी, वहाँ तो सपने देखना भी गुनाह है! ... लेकिन सपने पूरे होते हैं... मेरे हुए! हो रहे हैं... इक्कीस लोगों का परिवार है मेरा... ससुर हैं, पति हैं... बाबू जी हैं... जयंती जैसी बहन हैं, जीजा हैं, और इतने सारे बच्चे हैं!”

फिर एकदम से धरातल पर आकर बोलीं, “माँ हूँ मैं तुम सब की!”

“इस बात से मैंने कब मना किया अम्मा?”

“इसीलिए तो तेरा सुख भी मेरा ही सुख है न बेटे? ... एक माँ का सुख तो अपने बच्चों के सुख से ही तो आता है!”

“हाँ अम्मा, मानता हूँ इस बात को... लेकिन...”

“यही बात मैंने बहू को भी समझाई थी...” अम्मा ने जैसे मेरी बात ही न सुनी हो, “जब उसको सुनील को ले कर असमंजस था न, तब!”

“लेकिन अम्मा... मुझे लतिका को ले कर कोई असमंजस थोड़े ही है!”

“बहुत बढ़िया!”

“मेरा मतलब... मैं... क्या अम्मा! मैं उससे कोई प्यार व्यार थोड़े ही करता हूँ!”

“नहीं करते?”

“आई मीन... हाँ... करता हूँ, लेकिन वैसा नहीं जैसा आप कह रही हैं!”

“हम्म... शेम!” अम्मा ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा।

मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होंने ऐसे इतनी आसानी से इस वार्तालाप को कैसे बंद कर दिया! लेकिन जो भी हो दिमाग में उनकी बात घर कर ही गई। मेरे मानस पटल पर लतिका का जो चित्र खिंचा था, मिट ही नहीं रहा था!

‘बाप रे! ये लड़की कब बड़ी हो गई?’

‘अम्मा क्या वाक़ई सीरियस थीं? ... मैं और लतिका?’


*
तो काजल ने सूत्र अपने हाथ लिया अब, बढ़िया।

अमर अब कन्फ्यूजन में आ गया है, उसको याद दिलाया गया कि वो लतिका को चाहता है।
वैसे आदमियों की प्रवृति ही ये होती है कि वो घर के अंदर तो कम से कम ये सब सोचते भी नही, भले ही अवचेतन मन में ये सब चलता रहे, पर चेतन मन इसकी गवाही कभी नहीं देता।
 
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