तभी राजमाता ने अपने एक पैर में बंधी पायल को खोल दिया और जोर से जमीन पर फेंका... उस पायल की खनक सुनते ही शक्तिसिंह खंड का द्वार खोलकर अंदर आ गया। क्योंकी बलवानसिंह की नज़रे और ध्यान राजमाता के पुष्ट स्तनों को चूसने पर केंद्रित था इसलिए उसे शक्तिसिंह के अंदर आने की भनक नही लगी।
शक्तिसिंह उन दोनों के करीब पहुँच तब तक उसने अपने वस्त्र उतार दिए थे।
बलवानसिंह की नजर अब शक्तिसिंह के ऊपर गई। उस नग्न विकराल पुरुष को इस समय कक्ष में देखकर एक पल के लिए वह चोंक गया। लेकिन उसकी मौजूदगी पर राजमाता ने कोई आपत्ति न जताई इसलिए वह भी कुछ नही बोला.. उसे इतना तो पता चला की वह राजमाता की आज्ञा से ही अंदर आया था। चूंकि अब संभोग का संचालन राजमाता के पास था इसलिए बलवानसिंह ने बिना कुछ कहे ही धक्के लगाना जारी रखा।
शक्तिसिंह अपना तना हुआ लिंग हाथ में पकड़कर राजमाता के निर्देश का इंतज़ार कर रहा था।
बलवानसिंह को अपना लंड बहुत बड़ा लगता था पर शक्तिसिंह के लंड के आगे उसका लंड एक छोटी सी पुंगी के बराबर ही था।
बलवानसिंह और राजमाता के बीच चले रहे इस आनंदमय सहवास को देखकर शक्तिसिंह भी काफी उत्तेजित हो गया था। बलवानसिंह के लंड पर राजमाता के नंगे गुलाबी नितंबों का ऊपर-नीचे होते देखा वह अपने लंड की त्वचा को आगे पीछे करते हुए हिलाने लगा।
लंड हिलाते शक्तिसिंह की आँखों में देखकर राजमाता ने इशारा किया। राजमाता की ओर से हरी झंडी मिलते ही शक्तिसिंह ने अपने मुंह से काफी मात्रा में लार निकाली और अपने लंड पर उस गर्म तरल पदार्थ को फैलाते हुए उसकी पूरी लंबाई पर मालिश की। बिस्तर पर लेटे बलवानसिंह के ऊपर राजमाता सवार थी। शक्तिसिंह अब राजमाता के पिछवाड़े की ओर पहुंचा। उसने राजमाता के नितम्बों को चौड़ा किया, गुलाबी सिकुड़ी हुई गांड पर लार लगाई और पहले एक और फिर दोनों उंगलियाँ उनकी गांड के छेद में डाल दी।
जब वह अपनी उंगलियों को राजमाता की गांड के अंदर और बाहर घुमा रहा था तब राजमाता सिहर कर बलवानसिंह के लंड पर ओर तेजी से कूदने लगी। शक्तिसिंह ने राजमाता के कंधों को पकड़कर उनकी गति को नियंत्रित कर उन्हे स्थिर किया ताकि उसे अपना लंड उनके छेद में डालने की सहूलियत हो। राजमाता की चुत में घुसे बलवानसिंह के लँड के कारण उनकी गांड में लंड घुसा पाना थोड़ा सा कठिन था।
शक्तिसिंह ने दोनों हाथों से राजमाता की कमर पकड़ी और अपना लिंग छेद के अंदर धकेल दिया। एक ही झटके में उसका सुपाड़ा गाँड़ के छिद्र के अंदर गुज़र गया और राजमाता अचानक दर्द से कराह उठी। "शांत रहिए, राजमाता," शक्तिसिंह बड़बड़ाया और अपने लंड को धीरे धीरे और अंदर डालने लगा।
धीरे-धीरे शक्तिसिंह ने दबाव बनाए रखा और उसका लिंग राजमाता की गांड में गायब होने लगा। राजमाता ने बलवानसिंह की सवारी बंद कर दी थी और अब दो लंड एक साथ लेकर उनका चेहरा पीला पड़ गया था और वह ठंडे पसीने से लथपथ हो गई थी।
लेकिन उन्होंने शक्तिसिंह को रुकने के लिए नही कहा। वह झुकी हुई पड़ी रही और तब तक स्थिर रही जब तक शक्तिसिंह का पूरा लंड उनकी गांड के अंदर नही घुस गया। शक्तिसिंह ने स्वीकृति भरी घुरघुराहट के साथ अपने लंड को उसके सिरे तक बाहर खींचा और तेजी से गति बढ़ाते हुए उसे वापस अंदर घुसा दिया।
राजमाता और शक्तिसिंह के बीच जो चल रहा था उसके सदमे के कारण बलवानसिंह के लंड ने अपनी सख्ती खो दी थी। एक कारण यह भी था की आज तक उसने कभी भी अपनी चुदाई के साथी को किसी अन्य पुरुष के साथ साझा नहीं किया था। उसका लंड मुरझा गया लेकिन पूरी तरह से नहीं और वह अभी भी राजमाता की योनी में घुसा हुआ था। मजे की बात यह थी कि राजमाता का यह दोहरा उत्पात इतने करीब से देख कर वह फिर से उत्तेजित होने लगा। अपने लंड को फिर से सख्त होता महसूस किया।
अब राजमाता फिर से बलवानसिंह के ऊपर सवारी करने लगी; अपनी गांड में हो रहे दर्द के अनुभव से वह उभर चुकी थी। अब जब शक्तिसिंह अपने लंड को उनकी गांड से बाहर खींचता तब वह अपनी योनि को बलवानसिंह के लंड पर नीचे कर देती और जैसे ही वह अपने चूतड़ ऊपर उठाती, शक्तिसिंह अपना लंड पेल देता। इस तरह दोनों लंड के तालमेल से वह तालबद्ध तरीके से चुद रही थी।
तीनों ने बड़ी ही बखूबी से एक लय सी बना ली थी। बलवानसिंह अब तेजी से ऊपर की ओर जोर लगा रहा था। थोड़ी ही देर में, एक कर्कश चीख के साथ वह स्खलित हो गया और उसने राजमाता की योनिगुफा को गरम वीर्य से भर दिया। फिलहाल उसका कार्य समाप्त हो गया।
शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड मारना जारी रखा। उसने राजमाता के शरीर को बलवानसिंह के ऊपर से उठा लिया और खड़ा हो गया। फिर उनको जाँघों से पकड़कर अपने लंड पर घुमाने लगा। उसका लंड अभी भी राजमाता की गांड में गड़ा हुआ था।
राजमाता पीछे की ओर मुड़ी और अपनी बाँहें उसकी गर्दन के चारों ओर लपेट दीं। शक्तिसिंह ने उन्हे नितंबों से उचक रखा था। बलवानसिंह देख सकता था कि शक्तिसिंह का मूसल लंड हिंसक रूप से राजमाता की गांड के अंदर बाहर हो रहा था।
राजमाता पसीने से नहा रही थी और बुरी तरह कराह भी रही थी क्योंकि शक्तिसिंह उसे एक गुड़िया की तरह अपने लंड पर के ऊपर उछाल रहा था। अब उसने अपना लंड उनकी गांड के छेद से निकाले बिना ही उन्हे ज़मीन पर उतार दिया। राजमाता अब फर्श पर चारों पैरों हो गई और शक्तिसिंह ने पीछे से वार करना शुरू कर दिया।
शक्तिसिंह ने अपने विशाल हाथ राजमाता की योनि पर रखे और उसकी उंगलियाँ उनके भगोष्ठ से से खेलने लगी। आख़िरकार, वह स्खलित होने की कगार पर पहुँच गया और एक ज़ोर की चीख के साथ राजमाता की गांड में झड़ गया।
काफी देर तक दोनों वैसे ही पड़े रहे. राजमाता अपने हाथों और घुटनों पर, हांफते हुए, और उनके पीछे शक्तिसिंह। उसका लंड धीरे-धीरे आकार में छोटा होता जा रहा था और उसकी फैली हुई गांड में धीरे-धीरे सिकुड़ रहा था। अंत में पक्क की आवाज के साथ उसका लंड उनके छेद से बाहर निकल गया और फिर राजमाता का छेद पूरी तरह से बंद हो गया।
आगे जो हुआ उससे देख बलवानसिंह स्तब्ध हो गया!! राजमाता ने पलट कर शक्तिसिंह के लंड को अपने मुँह में भर लिया और लगभग आधा लंड निगल लिया। फिर वह उस डंडे को चाटने लगी जो अभी-अभी उनकी गांड से बाहर निकला था!!
राजमाता ने बड़े प्यार से अपनी जीभ को सुपाड़े से लेकर नीचे तक और फिर पीछे तक, तब तक चलाया जब तक कि वह फिर से ताव में न आ गया।
घृणित होने के बजाय उसे यह दृश्य अत्यंत उत्तेजक लगा। क्योंकि इस घृणित कार्य को करते समय भी राजमाता इतनी सुंदर और नियंत्रित दिख रही थी! और फिर राजमाता ने शक्तिसिंह के विशाल अंडकोश पर भी जीभ फेरना शुरू कर दिया और उन दोनों गेंदों को अपने मुंह में भर लिया। बलवानसिंह के लिए यह आश्चर्यचकित करने वाला द्रश्य था। और अगला द्रश्य देखकर तो बलवानसिंह के जैसे होश ही उड़ गए।
राजमाता ने शक्तिसिंह को जमीन पर लिटा दिया। वह उसके ऊपर चढ़ गई और अपनी गांड उसके चेहरे पर रख दी। शक्तिसिंह ने बड़ी ही नम्रता से राजमाता के नितंबों को चाटना शुरू कर दिया और फिर उनकी गांड के छेद को उजागर करके उसे अपनी जीभ से वास्तव में चोदना शुरू कर दिया। राजमाता अब इस तरह घूम गई कि वह शक्तिसिंह के पैरों को देख सके और उस दौरान उन्हों ने एक क्षण के लिए भी शक्तिसिंह की जीभ को अपने गुदा से बाहर नहीं जाने दिया। अब राजमाता ने उसकी बालों वाली छाती पर पेशाब की बूंदें टपका दीं और अपनी दोनों हथेलियों से उस प्रवाही को शक्तिसिंह की छाती पर रगड़ने लगी।
"गजब की स्त्री है यह राजमाता" बलवानसिंह सोच रहा था। तभी राजमाता ने झुककर शक्तिसिंह का लंड अपने मुंह में भर लिया और चूसने लगी। तब तक चूसती रही जब तक वह खड़ा नही हो गया। अब वह चुदने के लिए फिर से तैयार हो रही थी!!
राजमाता ने अपने चूतड़ शक्तिसिंह के मुंह से उठाए और उसके लंड पर सवार हो गई, उसकी गति उसकी वासना के साथ बढ़ती गई। इस दौरान शक्तिसिंह ने अपनी उँगलियाँ राजमाता की गांड में डालकर अंदर बाहर करना शुरू किया।
शक्तिसिंह ने इशारे से बलवानसिंह को इस कार्रवाई में शामिल होकर राजमाता की खुली गांड में अपना लंड डालने के लिए आमंत्रित किया। इन दोनों को इस तरह चोदते देखकर बलवानसिंह का लंड कब से सख्त हुए खड़ा था।
बलवानसिंह खड़ा होकर राजमाता के पीछे पहुँच गया, अपने लंड पर थूका और बिना सोचे-समझे एक जोरदार धक्के में अपना लंड उनकी गांड में ठोक दिया। इतनी बेरहमी से अप्राकृतिक यौनाचार किए जाने पर राजमाता की अनैच्छिक चीख निकली जिसे शक्तिसिंह ने उनके मुंह पर अपना मुंह दबाकर तुरंत दबा दिया।
बलवानसिंह के लिए तो यह स्वर्ग था। गांड मारना उसे बेहद पसंद था। और इस अप्सरा की गांड सब से अनोखी थी। राजमाता की योनी में शक्तिसिंह का विशाल लंड घुसे होने के कारण राजमाता की गांड इतनी कसी हुई और चुस्त लग रही थी जैसे उन्होंने कभीअप्राकृतिक यौनाचार किया ही न हो।
बलवानसिंह ने इस स्वर्गीय क्षण का पूरा आनंद लिया और अपने लंड को स्थिर और पूरी तरह से जड़े रखा। सचमुच उसके लंड को गांड के अंदर हिलाना मुश्किल हो रहा था पर साथ ही साथ उसके लंड में अविश्वसनीयअनुभूति भी हो रही थी। आज तक जीतने छेदों में उसने लंड घुसाया था उन सब में यह सब से ज्यादा तंग और कसा हुआ छेद था।।
इस दौरान बलवानसिंह ने राजमाता के जिस्म को शक्तिसिंह के ऊपर से उठाने की कोशिश भी की, लेकिन शक्तिसिंह का लंड उनकी चुत में ऐसा फंसा हुआ था की दोनों अलग होने का नाम ही नही ले रहे थे।
राजमाता की कसैली गांड में थोड़ी ही देर में बलवानसिंह के लंड ने अपना वीर्य उगल दिया। उसके लिए यह अब तक की श्रेष्ठ चुदाई थी। थका हुआ बलवानसिंह बिस्तर पर ढेर होकर अपनी साँसे पूर्ववत करने का प्रयत्न कर रहा था।
राजमाता अब शक्तिसिंह के लंड पर से उठ खड़ी हुई... और चलते चलते बलवानसिंह के बगल में लेट गई.. शक्तिसिंह भी लपक कर बिस्तर पर कूद पड़ा और राजमाता के पैर फैलाकर उनकी चुत में लंड घुसाते हुए धमाधम पेलने लगा। धक्कों की गति तीव्र हो गई और कुछ ही देर में वह चरमसीमा पर पहुँच गया... चुत के अंदर विपुल मात्रा में द्रव्य छोड़कर वह निढाल हो कर बिस्तर पर गिर गया।
काफी देर तक तीनों बिस्तर पर लेटे हांफते रहे। कुछ देर बाद शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और अपने वस्त्र पहनने लगा... बिस्तर के पास बलवानसिंह और राजमाता के वस्त्र यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे...
"राजमाता," बलवानसिंह ने कहा, "क्या आप मेरी रानी बनेंगी?" वह निश्चित रूप से इस तथ्य का जिक्र कर रहे थे कि उनके दोनों राज्य भविष्य में एकजुटता से कार्य करने जा रहे थे।
राजमाता ने एक लंबी सांस लेते हुए बलवानसिंह के गले को अपनी बाहों में भरकर कहा, "दुर्भाग्य से यह संभव नहीं होगा। मैं एक शासक और जीतना मेरी आदत है और मैं इस तथ्य को बर्दाश्त करने में असमर्थ हूं कि आपने मेरे सैनिकों को बंधक बनाया। में आज एक ऐसे उदाहरण की रचना करने जा रही हूँ की जिसके बाद कोई भी मेरी सेना पर हमला करने की हिम्मत न कर सके। आपकी गुस्ताखी को उचित प्रतिशोध से उत्तर देने का समय आ चुका है।"
यह कहते ही राजमाता चीते की तरह झपटी और बलवानसिंह की गर्दन पर सवार हो गई। तभी शक्तिसिंह ने बलवानसिंह के उतारे हुए वस्त्रों के बीच से उसकी कटार उठा ली... इससे पहले की बलवानसिंह कुछ बोल या समझ पाता... वह छलांग लगाकर बिस्तर के करीब आया... और राजमाता के बोझ तले दबे हुए बलवानसिंह की गर्दन पर कटार की धार फेर दी!!!
गरम रक्त का एक फव्वारा सा उड़ा और राजमाता का आधे से ज्यादा शरीर खून से सन गया... स्तब्ध होकर दोनों यह द्रश्य देखते ही रहे... बलवानसिंह की आँख फटी की फटी रह गई... और एक ही झटके में उसके प्राण निकल गए...
"शक्ति, वो कटार मुझे दो... और तुम अभी के अभी हमारे सैनिक और उन दासियों के पास पहुँच जाओ" आंखे फाड़कर देख रहे शक्तिसिंह को राजमाता की आवाज ने झकझोर दिया...
बलवानसिंह की कटार राजमाता के हाथ में थमाकर उसने दीवार पर सुशोभन के लिए लगी तलवार निकाल ली और तुरंत शयनखंड के बाहर गया। बहार खड़े सैनिक को एक झटके में उड़ाकर वह दरबार के खंड तक भागता हुआ गया। दरबार के आगे वाले खंड में सूरजगढ़ के बंदी सैनिक और राजमाता की १०० दासियों बैठे हुए थे। शक्तिसिंह का इशारा मिलते ही सारी दासियों ने कपड़े उतारना शुरू कर दिए... हकीकत में वह सैनिक ही थे जो महिला के वस्त्र पहनकर, अंदर शस्त्र छुपाकर, घूँघट तानकर, राजमाता के साथ अंदर घुस आए थे।
सैनिकों ने अपने घाघरे उतारकर पैरों के साथ बंधी तलवारों को बहार निकाला... उन बंदी सैनिकों को एक एक शस्त्र थमा दिया गया.. अब कुल मिलाकर २०० सैनिकों का दल शक्तिसिंह के सामने तैयार खड़ा था और उसके निर्देश का इंतज़ार कर रहा था।
"आप लोग दो दलों में बँट जाओ... एक दल आगे के द्वार की ओर जाएगा और एक दल पीछे की ओर... हमारा प्रयत्न यह रहेगा की हम जल्द से जल्द द्वार को खोल सके ताकि हमारी सेना अंदर दाखिल हो सके... एक बार सेना अंदर घुस गई फिर हमे हावी होने में समय नही लगेगा... में और चन्दा तब तक किले के बुर्ज पर खड़े सिपाहीयों से निपटते है। याद रहे, यह हमारे लिए आखिरी मौका है... ऐसे शौर्य से लड़ो की शत्रु घुटने टेक दे... सूरजगढ़ की जय हो!!" विजयी घोष करते हुए सैनिक दो दिशाओं में दौड़ गए...
शक्तिसिंह और चन्दा तेजी से भागते हुए किले के बुर्ज पर चढ़ने की सीढ़ी से होते हुए ऊपर चढ़ गए... राह में जीतने भी सैनिक आए उसे बड़ी ही बहादुरी से दोनों मारते गए... करीब १५ सैनिकों को ऊपर पहुंचकर केवल आखिरी सैनिक की गर्दन पर तलवार रखते हुए शक्तिसिंह ने उसे लकड़ी का पूल गिराने को कहा... बेचारे सैनिक के पास और कोई विकल्प न था... रस्सी को खोलकर उसने लकड़ी का पुल गिरा दिया... उस सैनिक का काम खतम होते ही शक्तिसिंह ने उसे धक्का देकर किले की दीवार के उस पार फेंक दिया।
पुल का रास्ता खुल चुका था.. अब जरूरत थी किले के दरवाजे को खोलने की!! शक्तिसिंह और चन्दा अब नीचे उतार आए जहां सूरजगढ़ के सैनिक बलवानसिंह की सेना से वीरतापूर्वक लड़ रहे थे... स्थापना-दिवस का उत्सव मनाते सैनिक शराब के नशे में धुत होकर लड़ रहे थे इसलिए उनकी तरफ से अधिक प्रतिरोध नही हो रहा था। फिर भी उनका संखयाबल अधिक था इसलिए शक्तिसिंह अपनी मनमानी कर नही पा रहा था...
भीषण युद्ध हुआ... सूरजगढ़ के सैनिक पूरे जोश से शौर्यगढ़ की सेना पर टूट पड़े थे... फिर भी उनके प्रयास सफल होते नजर नही आ रहे थे। शौर्यगढ़ के सनिकों की संख्या कम ही नही हो रही थी... परिश्रम के कारण अब शक्तिसिंह और उसके सैनिक काफी थक भी गए थे।
तभी... एक काले अश्व पर सवार होकर रणचंडी की तरह राजमाता महल से निकलकर उस युद्धस्थल पर पहुंची... उनके बाल खुले हुए थे और कपड़े रक्तरंजित थे... और उनके हाथ में था, बलवानसिंह का कटा हुआ सर.. !!!
अपने राजा का कट हुआ सर देखकर, शौर्ययगढ़ के सैनिकों के हौसले पस्त हो गए... पूरी सेना में अफरातफरी मच गई और सब यहाँ वहाँ भागने लगे... यही मौका था!! शक्तिसिंह और उसके सैनिक उन पुर पूरे जोश से टूट पड़े... शौर्यगढ़ के सैनिक गाजर-मुली की तरह कटने लगे। अश्व पर बैठे अपनी तलवार से राजमाता ने भी कहर बरसा दिया...
उसी दौरान कुछ सैनिकों ने किले का मुख्य द्वार खोल दिया... द्वार खुलते ही सेनापति के नेतृत्व में सूरजगढ़ की सेना ने अंदर प्रवेश किया... अगले एक घंटे के अंदर, शौर्यगढ़ की आधे से ज्यादा सेना मर चुकी थी और बाकी आधी को बंदी बना लिया गया था।
यह सारी योजना राजमाता की ही थी। सैनिकों के दासियों के रूप में अंदर ले जाना... बलवानसिंह के साथ संभोग में अधिक से अधिक समय व्यतीत करना ताकि वह थक जाए और सामना करने की स्थिति में न रहे... और उस दौरान उत्सव में व्यस्त सैनिक भी शराब के नशे में चूर हो जाए ताकि उनका प्रतिरोध ना के बराबर हो!!
आखिरकार राजमाता ने शौर्यगढ़ को जीत लिया और अपना बदला भी ले लिया...
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विजयी होकर वापिस सूरजगढ़ पहुंची सेना और राजमाता का नगरवासियों बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया..
अगले दो महीनों में शक्तिसिंह को शौर्यगढ़ का नया सूबेदार घोषित कर दिया गया... शक्तिसिंह अब सूरजगढ़ के ताबे में शौर्यगढ़ पर शासन करेगा... अपने सेनापति के रूप में शक्तिसिंह ने चन्दा को चुना था.. यह काबिल जोड़ा अब बड़ी ही बखूबी से शौर्यगढ़ का संचालन करने लगा।
पूर्व से लेकर पश्चिम तक सारे राज्य, कस्बे और रजवाड़े अब राजमाता के शासन तले थे.. जिस प्रकार की साम्राज्ञी बनने की उनकी ख्वाहिश थी.. वो अब पूरी हो गई थी.. विद्याधर के सिखाए राह पर चलकर और शक्तिसिंह के सहयोग से राजमाता ने यह असामान्य सिद्धि हाँसील कर ली थी।
समाप्त