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Adultery राजमाता कौशल्यादेवी

vakharia

Supreme
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राजनीती सडयंत्रो के खेल के बिच काम ज्ञान. बहोत खूब. उस समय सायद साइंस इतना आगे ना हो. आंध्र श्रद्धा हो. लेकिन पद्मिनी को देखकर लगता है. वह काम ज्ञान को बहुत अच्छे से जानती समझती है. साथ में वह राजनीति की भी निपुण है. बस उसे मौके की तलाश है.

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बहोत ही उमदा समीक्षा.. इतनी बारीकी से एक लेखक की नजर ही शब्दों के ताने बानों को समझ सकती है

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vakharia

Supreme
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वाह शाही परिवार मे बीज धारण करने का अनोखा रीवाज. विधि की आड़ मे ज्ञानी और सिद्ध पुरुष के बीज को बहोत सावधानी और चालाकी से गर्भ मे ले लेना. संतान भी वैसा ही होगा और कानो कान किसी को खबर नहीं.

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शुक्रिया Shetan जी :heart:
 
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Ek number

Well-Known Member
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तभी राजमाता ने अपने एक पैर में बंधी पायल को खोल दिया और जोर से जमीन पर फेंका... उस पायल की खनक सुनते ही शक्तिसिंह खंड का द्वार खोलकर अंदर आ गया। क्योंकी बलवानसिंह की नज़रे और ध्यान राजमाता के पुष्ट स्तनों को चूसने पर केंद्रित था इसलिए उसे शक्तिसिंह के अंदर आने की भनक नही लगी।

शक्तिसिंह उन दोनों के करीब पहुँच तब तक उसने अपने वस्त्र उतार दिए थे।

बलवानसिंह की नजर अब शक्तिसिंह के ऊपर गई। उस नग्न विकराल पुरुष को इस समय कक्ष में देखकर एक पल के लिए वह चोंक गया। लेकिन उसकी मौजूदगी पर राजमाता ने कोई आपत्ति न जताई इसलिए वह भी कुछ नही बोला.. उसे इतना तो पता चला की वह राजमाता की आज्ञा से ही अंदर आया था। चूंकि अब संभोग का संचालन राजमाता के पास था इसलिए बलवानसिंह ने बिना कुछ कहे ही धक्के लगाना जारी रखा।

शक्तिसिंह अपना तना हुआ लिंग हाथ में पकड़कर राजमाता के निर्देश का इंतज़ार कर रहा था।

बलवानसिंह को अपना लंड बहुत बड़ा लगता था पर शक्तिसिंह के लंड के आगे उसका लंड एक छोटी सी पुंगी के बराबर ही था।

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बलवानसिंह और राजमाता के बीच चले रहे इस आनंदमय सहवास को देखकर शक्तिसिंह भी काफी उत्तेजित हो गया था। बलवानसिंह के लंड पर राजमाता के नंगे गुलाबी नितंबों का ऊपर-नीचे होते देखा वह अपने लंड की त्वचा को आगे पीछे करते हुए हिलाने लगा।

लंड हिलाते शक्तिसिंह की आँखों में देखकर राजमाता ने इशारा किया। राजमाता की ओर से हरी झंडी मिलते ही शक्तिसिंह ने अपने मुंह से काफी मात्रा में लार निकाली और अपने लंड पर उस गर्म तरल पदार्थ को फैलाते हुए उसकी पूरी लंबाई पर मालिश की। बिस्तर पर लेटे बलवानसिंह के ऊपर राजमाता सवार थी। शक्तिसिंह अब राजमाता के पिछवाड़े की ओर पहुंचा। उसने राजमाता के नितम्बों को चौड़ा किया, गुलाबी सिकुड़ी हुई गांड पर लार लगाई और पहले एक और फिर दोनों उंगलियाँ उनकी गांड के छेद में डाल दी।

जब वह अपनी उंगलियों को राजमाता की गांड के अंदर और बाहर घुमा रहा था तब राजमाता सिहर कर बलवानसिंह के लंड पर ओर तेजी से कूदने लगी। शक्तिसिंह ने राजमाता के कंधों को पकड़कर उनकी गति को नियंत्रित कर उन्हे स्थिर किया ताकि उसे अपना लंड उनके छेद में डालने की सहूलियत हो। राजमाता की चुत में घुसे बलवानसिंह के लँड के कारण उनकी गांड में लंड घुसा पाना थोड़ा सा कठिन था।

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शक्तिसिंह ने दोनों हाथों से राजमाता की कमर पकड़ी और अपना लिंग छेद के अंदर धकेल दिया। एक ही झटके में उसका सुपाड़ा गाँड़ के छिद्र के अंदर गुज़र गया और राजमाता अचानक दर्द से कराह उठी। "शांत रहिए, राजमाता," शक्तिसिंह बड़बड़ाया और अपने लंड को धीरे धीरे और अंदर डालने लगा।

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धीरे-धीरे शक्तिसिंह ने दबाव बनाए रखा और उसका लिंग राजमाता की गांड में गायब होने लगा। राजमाता ने बलवानसिंह की सवारी बंद कर दी थी और अब दो लंड एक साथ लेकर उनका चेहरा पीला पड़ गया था और वह ठंडे पसीने से लथपथ हो गई थी।

लेकिन उन्होंने शक्तिसिंह को रुकने के लिए नही कहा। वह झुकी हुई पड़ी रही और तब तक स्थिर रही जब तक शक्तिसिंह का पूरा लंड उनकी गांड के अंदर नही घुस गया। शक्तिसिंह ने स्वीकृति भरी घुरघुराहट के साथ अपने लंड को उसके सिरे तक बाहर खींचा और तेजी से गति बढ़ाते हुए उसे वापस अंदर घुसा दिया।

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राजमाता और शक्तिसिंह के बीच जो चल रहा था उसके सदमे के कारण बलवानसिंह के लंड ने अपनी सख्ती खो दी थी। एक कारण यह भी था की आज तक उसने कभी भी अपनी चुदाई के साथी को किसी अन्य पुरुष के साथ साझा नहीं किया था। उसका लंड मुरझा गया लेकिन पूरी तरह से नहीं और वह अभी भी राजमाता की योनी में घुसा हुआ था। मजे की बात यह थी कि राजमाता का यह दोहरा उत्पात इतने करीब से देख कर वह फिर से उत्तेजित होने लगा। अपने लंड को फिर से सख्त होता महसूस किया।

अब राजमाता फिर से बलवानसिंह के ऊपर सवारी करने लगी; अपनी गांड में हो रहे दर्द के अनुभव से वह उभर चुकी थी। अब जब शक्तिसिंह अपने लंड को उनकी गांड से बाहर खींचता तब वह अपनी योनि को बलवानसिंह के लंड पर नीचे कर देती और जैसे ही वह अपने चूतड़ ऊपर उठाती, शक्तिसिंह अपना लंड पेल देता। इस तरह दोनों लंड के तालमेल से वह तालबद्ध तरीके से चुद रही थी।

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तीनों ने बड़ी ही बखूबी से एक लय सी बना ली थी। बलवानसिंह अब तेजी से ऊपर की ओर जोर लगा रहा था। थोड़ी ही देर में, एक कर्कश चीख के साथ वह स्खलित हो गया और उसने राजमाता की योनिगुफा को गरम वीर्य से भर दिया। फिलहाल उसका कार्य समाप्त हो गया।

शक्तिसिंह ने राजमाता की गांड मारना जारी रखा। उसने राजमाता के शरीर को बलवानसिंह के ऊपर से उठा लिया और खड़ा हो गया। फिर उनको जाँघों से पकड़कर अपने लंड पर घुमाने लगा। उसका लंड अभी भी राजमाता की गांड में गड़ा हुआ था।

राजमाता पीछे की ओर मुड़ी और अपनी बाँहें उसकी गर्दन के चारों ओर लपेट दीं। शक्तिसिंह ने उन्हे नितंबों से उचक रखा था। बलवानसिंह देख सकता था कि शक्तिसिंह का मूसल लंड हिंसक रूप से राजमाता की गांड के अंदर बाहर हो रहा था।

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राजमाता पसीने से नहा रही थी और बुरी तरह कराह भी रही थी क्योंकि शक्तिसिंह उसे एक गुड़िया की तरह अपने लंड पर के ऊपर उछाल रहा था। अब उसने अपना लंड उनकी गांड के छेद से निकाले बिना ही उन्हे ज़मीन पर उतार दिया। राजमाता अब फर्श पर चारों पैरों हो गई और शक्तिसिंह ने पीछे से वार करना शुरू कर दिया।

शक्तिसिंह ने अपने विशाल हाथ राजमाता की योनि पर रखे और उसकी उंगलियाँ उनके भगोष्ठ से से खेलने लगी। आख़िरकार, वह स्खलित होने की कगार पर पहुँच गया और एक ज़ोर की चीख के साथ राजमाता की गांड में झड़ गया।


काफी देर तक दोनों वैसे ही पड़े रहे. राजमाता अपने हाथों और घुटनों पर, हांफते हुए, और उनके पीछे शक्तिसिंह। उसका लंड धीरे-धीरे आकार में छोटा होता जा रहा था और उसकी फैली हुई गांड में धीरे-धीरे सिकुड़ रहा था। अंत में पक्क की आवाज के साथ उसका लंड उनके छेद से बाहर निकल गया और फिर राजमाता का छेद पूरी तरह से बंद हो गया।

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आगे जो हुआ उससे देख बलवानसिंह स्तब्ध हो गया!! राजमाता ने पलट कर शक्तिसिंह के लंड को अपने मुँह में भर लिया और लगभग आधा लंड निगल लिया। फिर वह उस डंडे को चाटने लगी जो अभी-अभी उनकी गांड से बाहर निकला था!!

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राजमाता ने बड़े प्यार से अपनी जीभ को सुपाड़े से लेकर नीचे तक और फिर पीछे तक, तब तक चलाया जब तक कि वह फिर से ताव में न आ गया।

घृणित होने के बजाय उसे यह दृश्य अत्यंत उत्तेजक लगा। क्योंकि इस घृणित कार्य को करते समय भी राजमाता इतनी सुंदर और नियंत्रित दिख रही थी! और फिर राजमाता ने शक्तिसिंह के विशाल अंडकोश पर भी जीभ फेरना शुरू कर दिया और उन दोनों गेंदों को अपने मुंह में भर लिया। बलवानसिंह के लिए यह आश्चर्यचकित करने वाला द्रश्य था। और अगला द्रश्य देखकर तो बलवानसिंह के जैसे होश ही उड़ गए।

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राजमाता ने शक्तिसिंह को जमीन पर लिटा दिया। वह उसके ऊपर चढ़ गई और अपनी गांड उसके चेहरे पर रख दी। शक्तिसिंह ने बड़ी ही नम्रता से राजमाता के नितंबों को चाटना शुरू कर दिया और फिर उनकी गांड के छेद को उजागर करके उसे अपनी जीभ से वास्तव में चोदना शुरू कर दिया। राजमाता अब इस तरह घूम गई कि वह शक्तिसिंह के पैरों को देख सके और उस दौरान उन्हों ने एक क्षण के लिए भी शक्तिसिंह की जीभ को अपने गुदा से बाहर नहीं जाने दिया। अब राजमाता ने उसकी बालों वाली छाती पर पेशाब की बूंदें टपका दीं और अपनी दोनों हथेलियों से उस प्रवाही को शक्तिसिंह की छाती पर रगड़ने लगी।

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"गजब की स्त्री है यह राजमाता" बलवानसिंह सोच रहा था। तभी राजमाता ने झुककर शक्तिसिंह का लंड अपने मुंह में भर लिया और चूसने लगी। तब तक चूसती रही जब तक वह खड़ा नही हो गया। अब वह चुदने के लिए फिर से तैयार हो रही थी!!

राजमाता ने अपने चूतड़ शक्तिसिंह के मुंह से उठाए और उसके लंड पर सवार हो गई, उसकी गति उसकी वासना के साथ बढ़ती गई। इस दौरान शक्तिसिंह ने अपनी उँगलियाँ राजमाता की गांड में डालकर अंदर बाहर करना शुरू किया।

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शक्तिसिंह ने इशारे से बलवानसिंह को इस कार्रवाई में शामिल होकर राजमाता की खुली गांड में अपना लंड डालने के लिए आमंत्रित किया। इन दोनों को इस तरह चोदते देखकर बलवानसिंह का लंड कब से सख्त हुए खड़ा था।

बलवानसिंह खड़ा होकर राजमाता के पीछे पहुँच गया, अपने लंड पर थूका और बिना सोचे-समझे एक जोरदार धक्के में अपना लंड उनकी गांड में ठोक दिया। इतनी बेरहमी से अप्राकृतिक यौनाचार किए जाने पर राजमाता की अनैच्छिक चीख निकली जिसे शक्तिसिंह ने उनके मुंह पर अपना मुंह दबाकर तुरंत दबा दिया।

बलवानसिंह के लिए तो यह स्वर्ग था। गांड मारना उसे बेहद पसंद था। और इस अप्सरा की गांड सब से अनोखी थी। राजमाता की योनी में शक्तिसिंह का विशाल लंड घुसे होने के कारण राजमाता की गांड इतनी कसी हुई और चुस्त लग रही थी जैसे उन्होंने कभीअप्राकृतिक यौनाचार किया ही न हो।

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बलवानसिंह ने इस स्वर्गीय क्षण का पूरा आनंद लिया और अपने लंड को स्थिर और पूरी तरह से जड़े रखा। सचमुच उसके लंड को गांड के अंदर हिलाना मुश्किल हो रहा था पर साथ ही साथ उसके लंड में अविश्वसनीयअनुभूति भी हो रही थी। आज तक जीतने छेदों में उसने लंड घुसाया था उन सब में यह सब से ज्यादा तंग और कसा हुआ छेद था।।

इस दौरान बलवानसिंह ने राजमाता के जिस्म को शक्तिसिंह के ऊपर से उठाने की कोशिश भी की, लेकिन शक्तिसिंह का लंड उनकी चुत में ऐसा फंसा हुआ था की दोनों अलग होने का नाम ही नही ले रहे थे।

राजमाता की कसैली गांड में थोड़ी ही देर में बलवानसिंह के लंड ने अपना वीर्य उगल दिया। उसके लिए यह अब तक की श्रेष्ठ चुदाई थी। थका हुआ बलवानसिंह बिस्तर पर ढेर होकर अपनी साँसे पूर्ववत करने का प्रयत्न कर रहा था।

राजमाता अब शक्तिसिंह के लंड पर से उठ खड़ी हुई... और चलते चलते बलवानसिंह के बगल में लेट गई.. शक्तिसिंह भी लपक कर बिस्तर पर कूद पड़ा और राजमाता के पैर फैलाकर उनकी चुत में लंड घुसाते हुए धमाधम पेलने लगा। धक्कों की गति तीव्र हो गई और कुछ ही देर में वह चरमसीमा पर पहुँच गया... चुत के अंदर विपुल मात्रा में द्रव्य छोड़कर वह निढाल हो कर बिस्तर पर गिर गया।

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काफी देर तक तीनों बिस्तर पर लेटे हांफते रहे। कुछ देर बाद शक्तिसिंह उठ खड़ा हुआ और अपने वस्त्र पहनने लगा... बिस्तर के पास बलवानसिंह और राजमाता के वस्त्र यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे...

"राजमाता," बलवानसिंह ने कहा, "क्या आप मेरी रानी बनेंगी?" वह निश्चित रूप से इस तथ्य का जिक्र कर रहे थे कि उनके दोनों राज्य भविष्य में एकजुटता से कार्य करने जा रहे थे।

राजमाता ने एक लंबी सांस लेते हुए बलवानसिंह के गले को अपनी बाहों में भरकर कहा, "दुर्भाग्य से यह संभव नहीं होगा। मैं एक शासक और जीतना मेरी आदत है और मैं इस तथ्य को बर्दाश्त करने में असमर्थ हूं कि आपने मेरे सैनिकों को बंधक बनाया। में आज एक ऐसे उदाहरण की रचना करने जा रही हूँ की जिसके बाद कोई भी मेरी सेना पर हमला करने की हिम्मत न कर सके। आपकी गुस्ताखी को उचित प्रतिशोध से उत्तर देने का समय आ चुका है।"

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यह कहते ही राजमाता चीते की तरह झपटी और बलवानसिंह की गर्दन पर सवार हो गई। तभी शक्तिसिंह ने बलवानसिंह के उतारे हुए वस्त्रों के बीच से उसकी कटार उठा ली... इससे पहले की बलवानसिंह कुछ बोल या समझ पाता... वह छलांग लगाकर बिस्तर के करीब आया... और राजमाता के बोझ तले दबे हुए बलवानसिंह की गर्दन पर कटार की धार फेर दी!!!

गरम रक्त का एक फव्वारा सा उड़ा और राजमाता का आधे से ज्यादा शरीर खून से सन गया... स्तब्ध होकर दोनों यह द्रश्य देखते ही रहे... बलवानसिंह की आँख फटी की फटी रह गई... और एक ही झटके में उसके प्राण निकल गए...

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"शक्ति, वो कटार मुझे दो... और तुम अभी के अभी हमारे सैनिक और उन दासियों के पास पहुँच जाओ" आंखे फाड़कर देख रहे शक्तिसिंह को राजमाता की आवाज ने झकझोर दिया...

बलवानसिंह की कटार राजमाता के हाथ में थमाकर उसने दीवार पर सुशोभन के लिए लगी तलवार निकाल ली और तुरंत शयनखंड के बाहर गया। बहार खड़े सैनिक को एक झटके में उड़ाकर वह दरबार के खंड तक भागता हुआ गया। दरबार के आगे वाले खंड में सूरजगढ़ के बंदी सैनिक और राजमाता की १०० दासियों बैठे हुए थे। शक्तिसिंह का इशारा मिलते ही सारी दासियों ने कपड़े उतारना शुरू कर दिए... हकीकत में वह सैनिक ही थे जो महिला के वस्त्र पहनकर, अंदर शस्त्र छुपाकर, घूँघट तानकर, राजमाता के साथ अंदर घुस आए थे।

सैनिकों ने अपने घाघरे उतारकर पैरों के साथ बंधी तलवारों को बहार निकाला... उन बंदी सैनिकों को एक एक शस्त्र थमा दिया गया.. अब कुल मिलाकर २०० सैनिकों का दल शक्तिसिंह के सामने तैयार खड़ा था और उसके निर्देश का इंतज़ार कर रहा था।

"आप लोग दो दलों में बँट जाओ... एक दल आगे के द्वार की ओर जाएगा और एक दल पीछे की ओर... हमारा प्रयत्न यह रहेगा की हम जल्द से जल्द द्वार को खोल सके ताकि हमारी सेना अंदर दाखिल हो सके... एक बार सेना अंदर घुस गई फिर हमे हावी होने में समय नही लगेगा... में और चन्दा तब तक किले के बुर्ज पर खड़े सिपाहीयों से निपटते है। याद रहे, यह हमारे लिए आखिरी मौका है... ऐसे शौर्य से लड़ो की शत्रु घुटने टेक दे... सूरजगढ़ की जय हो!!" विजयी घोष करते हुए सैनिक दो दिशाओं में दौड़ गए...

शक्तिसिंह और चन्दा तेजी से भागते हुए किले के बुर्ज पर चढ़ने की सीढ़ी से होते हुए ऊपर चढ़ गए... राह में जीतने भी सैनिक आए उसे बड़ी ही बहादुरी से दोनों मारते गए... करीब १५ सैनिकों को ऊपर पहुंचकर केवल आखिरी सैनिक की गर्दन पर तलवार रखते हुए शक्तिसिंह ने उसे लकड़ी का पूल गिराने को कहा... बेचारे सैनिक के पास और कोई विकल्प न था... रस्सी को खोलकर उसने लकड़ी का पुल गिरा दिया... उस सैनिक का काम खतम होते ही शक्तिसिंह ने उसे धक्का देकर किले की दीवार के उस पार फेंक दिया।

पुल का रास्ता खुल चुका था.. अब जरूरत थी किले के दरवाजे को खोलने की!! शक्तिसिंह और चन्दा अब नीचे उतार आए जहां सूरजगढ़ के सैनिक बलवानसिंह की सेना से वीरतापूर्वक लड़ रहे थे... स्थापना-दिवस का उत्सव मनाते सैनिक शराब के नशे में धुत होकर लड़ रहे थे इसलिए उनकी तरफ से अधिक प्रतिरोध नही हो रहा था। फिर भी उनका संखयाबल अधिक था इसलिए शक्तिसिंह अपनी मनमानी कर नही पा रहा था...

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भीषण युद्ध हुआ... सूरजगढ़ के सैनिक पूरे जोश से शौर्यगढ़ की सेना पर टूट पड़े थे... फिर भी उनके प्रयास सफल होते नजर नही आ रहे थे। शौर्यगढ़ के सनिकों की संख्या कम ही नही हो रही थी... परिश्रम के कारण अब शक्तिसिंह और उसके सैनिक काफी थक भी गए थे।

तभी... एक काले अश्व पर सवार होकर रणचंडी की तरह राजमाता महल से निकलकर उस युद्धस्थल पर पहुंची... उनके बाल खुले हुए थे और कपड़े रक्तरंजित थे... और उनके हाथ में था, बलवानसिंह का कटा हुआ सर.. !!!

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अपने राजा का कट हुआ सर देखकर, शौर्ययगढ़ के सैनिकों के हौसले पस्त हो गए... पूरी सेना में अफरातफरी मच गई और सब यहाँ वहाँ भागने लगे... यही मौका था!! शक्तिसिंह और उसके सैनिक उन पुर पूरे जोश से टूट पड़े... शौर्यगढ़ के सैनिक गाजर-मुली की तरह कटने लगे। अश्व पर बैठे अपनी तलवार से राजमाता ने भी कहर बरसा दिया...

उसी दौरान कुछ सैनिकों ने किले का मुख्य द्वार खोल दिया... द्वार खुलते ही सेनापति के नेतृत्व में सूरजगढ़ की सेना ने अंदर प्रवेश किया... अगले एक घंटे के अंदर, शौर्यगढ़ की आधे से ज्यादा सेना मर चुकी थी और बाकी आधी को बंदी बना लिया गया था।

यह सारी योजना राजमाता की ही थी। सैनिकों के दासियों के रूप में अंदर ले जाना... बलवानसिंह के साथ संभोग में अधिक से अधिक समय व्यतीत करना ताकि वह थक जाए और सामना करने की स्थिति में न रहे... और उस दौरान उत्सव में व्यस्त सैनिक भी शराब के नशे में चूर हो जाए ताकि उनका प्रतिरोध ना के बराबर हो!!

आखिरकार राजमाता ने शौर्यगढ़ को जीत लिया और अपना बदला भी ले लिया...
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विजयी होकर वापिस सूरजगढ़ पहुंची सेना और राजमाता का नगरवासियों बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया..

अगले दो महीनों में शक्तिसिंह को शौर्यगढ़ का नया सूबेदार घोषित कर दिया गया... शक्तिसिंह अब सूरजगढ़ के ताबे में शौर्यगढ़ पर शासन करेगा... अपने सेनापति के रूप में शक्तिसिंह ने चन्दा को चुना था.. यह काबिल जोड़ा अब बड़ी ही बखूबी से शौर्यगढ़ का संचालन करने लगा।

पूर्व से लेकर पश्चिम तक सारे राज्य, कस्बे और रजवाड़े अब राजमाता के शासन तले थे.. जिस प्रकार की साम्राज्ञी बनने की उनकी ख्वाहिश थी.. वो अब पूरी हो गई थी.. विद्याधर के सिखाए राह पर चलकर और शक्तिसिंह के सहयोग से राजमाता ने यह असामान्य सिद्धि हाँसील कर ली थी।


समाप्त

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Fantastic end
 

DEVIL MAXIMUM

"सर्वेभ्यः सर्वभावेभ्यः सर्वात्मना नमः।"
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26,638
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राजमाता को अब इस खुले अस्तबल में इससे आगे की गतिविधियां करना सही नही लगा... उन्हों ने इशारे से उस युवक को अपने तंबू में आने के लिए कहा... अपने वस्त्र ठीक कर वह फौरन तंबू की तरफ चल दी।

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युवक ने अपने तंग लंड को दबाकर अपनी पतलून पहन ली... ऊपर का वस्त्र चढ़ाकर, वह सब से नजर बचाते हुए, पीछे के रास्ते से राजमाता के तंबू में पहुँच गया... उसके अंदर आते ही राजमाता ने तंबू के द्वार को गांठ से बांधकर सुरक्षित कर दिया...

अब आगे कैसा बढ़ा जाए यह सोच में डूबे उस युवक का सर पकड़कर राजमाता ने उसे नीचे की ओर दबा दिया... इतने नीचे की वह लगभग जमीन पर बैठ गया... राजमाता ने दोनों हाथों से अपना घाघरा उठाया और अपना फनफनाता हुआ भोसड़ा, उसके चेहरे के सामने पेश कर दिया।

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असमंजस में वह युवक मूर्ति की तरह उनकी चुत के सामने देखता ही रहा... उसे पता ही नही चल रहा थी की आगे क्या करें!! राजमाता ने नाड़ी खोलकर अपना घाघरा निकाल ही दिया... और अपनी चोली खोलकर स्तनों को मुक्त कर दिया... फिर उस घुग्गू बनकर बैठे युवक का सर पकड़कर, अपने झांटेदार भोसड़े में उसका चेहरा दबा दिया...

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उस हांफ रहे कामुक युवक को पता नहीं चल रहा था कि अब उसे आगे क्या करना था!! उसके नथुने राजमाता की सुलगती चुत की गंध से भर गए। काफी अलग फिर भी बेहद मादक गंध थी। अस्थायी तौर पर उसकी जीभ ने उसकी योनि के होठों को छुआ। उसने ख़ुशी से आह भरी. इससे उन्हें आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिला। सिर्फ अंदाजे से उसने अपनी जीभ बाहर निकाली... और राजमाता की चुत के होंठों पर फेरने लगा.. राजमाता कराह उठी... और उस युवक को वैसे ही करते रहने के लिए उत्तेजित करने लगी।

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राजमाता को अधिक प्रसन्न करने के लिए उत्सुक होकर वह अपनी जीभ से उनकी पूरी चुत को चाटने लगा.. चुत के होंठों को.. जंगामूल को और ऊपरी चर्बीयुक्त हिस्से को। वह धीरे-धीरे उनके मदनमणि तक पहुँच गया और फिर अपनी गरम जीभ को उनकी चुत में डाल दिया। अन्दर-बाहर और गोल-गोल तब तक घुमाता रहा जब तक की राजमाता मजे से सिहरने न लगी। इस युवक की अनुभवहीन हरकतें राजमाता को बड़ा ही अनोखा आनंद दे रही थी।

अचानक उन्होंने उसे अपनी चुत से धक्का देकर दूर कर दिया और उसे हाथ खींचकर खड़ा किया। फिर वह उसे धकेलते हुए अपने बिस्तर तक ले गई और आखिर एक धक्का देकर उसे अपने बिस्तर पर गिरा दिया।

राजमाता अब बिस्तर पर चढ़कर इस युवक के दोनों पैरों के बीच जम गई। नीचे झुककर उन्होंने उसके आधे खड़े लंड को अच्छी तरह चूसकर फिर से उसे सख्त कर दिया। युवक नौसिखिया था... राजमाता के तीन-चार बार चूसने पर ही उसके लंड तन कर खड़ा हो गया।

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अब वह उस पर सवार होने लगी और उसके लंड को पकड़कर धीरे-धीरे अपनी चुत फैलाकर अंदर डालने लगी। आहहह... कठोर लंड को गरमाई चुत में अंदर लेने की वह दिव्य अनुभूति... उनकी चुत में भूचाल सा आ गया..!!

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अब राजमाता ने अपने चूतड़ों खुद को ऊपर उठाया और फिर नीचे गिरा दिए, धीरे-धीरे स्थिर गति से वह उस नौजवान लंड पर उछलने लगी। वह युवक अब पूरी तरह मंत्रमुग्ध हो चुका था, उसकी इंद्रियाँ अभिभूत हो चुकी थीं। अब वह राजमाता के शरीर के और अधिक अंगों का आनंद चाहता था। उसने अपना सिर उठाकर पहले एक और फिर उनके दूसरे स्तन को दोनों हाथों से पकड़कर पागलों की तरह चूसने लगा। फिर उसने अपने हाथों से उनके नितंबों को खोज लिया और राजमाता के प्रत्येक नीचे के धक्के के साथ उन्हे अपने ऊपर खींचने लगा।

राजमाता इस संभोग की अनुभूति जितना हो सके लंबा करना चाहती थी, उस उत्तेजना और अंतरंगता का स्वाद लेना चाहती थी जो वह महसूस कर रही थी, लेकिन कई दिनों के चुदाई के अभाव के बाद मिले लंड के कारण, उनका अतिउत्साह उन पर हावी हो गया और वह एक लंबी और तेज़ कराह के साथ झड़ने लगी। उनकी चुत से निकले तरल पदार्थ की एक धार ने उस युवक को लंड को सराबोर कर दिया।

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उस युवक ने मोर्चा संभाल लिया और उनके चूतड़ों को मजबूती से पकड़कर नीचे से प्रहार करने लगा। जब वह निष्क्रिय रूप से उठती थी और उसके लंड पर गिरती थी, तब भी वह उसके लंड को अपने अंदर चुभवाती थी। युवक ने उनकी भरपूर नितंबों को दोनों हथेलियों में मजबूती से दबोच लिया... राजमाता ने उसके होंठों को चूम लिया तब वह उनके मुंह की लार को शहद की तरह चूसने लगा।


नीचे से ताबड़तोड़ धक्के लगाते हुए वह लम्बी घुरघुराहट और एक चीख के साथ झड़ गया। उसके स्खलित होते ही राजमाता ने उसका लंड अपनी चुत से निकाला... बाहर निकले उस डंडे की नोक से अभी भी वीर्य की धराएं निकल रही थी... तृप्त राजमाता बिस्तर पर लेटकर हांफने लगी।

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उस युवक को अपने तंबू में ज्यादा देर तक रोके रखना उन्हे ठीक नही लग रहा था... अगर वह इस मिलन को गुप्त रखेगा तो आगे भी ऐसे मौके मिलेंगे, ऐसा वचन देकर राजमाता ने उसे कपड़े पहनकर रुखसत होने को कहा... जिस रास्ते से वह आया था उसी रास्ते अस्तबल लौट गया।

और राजमाता ने अपना वादा निभाया, उचित समय और स्थानों पर उससे मिलने की व्यवस्था की। यदि कोई व्यक्ति समय और स्थान का चयन बहुत सावधानी से करता है तो उस जंगल के आस-पास के वातावरण में ऐसी कई जगहें थी, जो उनकी गुप्त मुलाकातों के लिए उत्कृष्ट थी। और राजमाता ने बड़ी ही सावधानी से यह काम किया!

उन्होंने अस्तबल के एकांत मे(दोपहर के समय जब सब का भोजन और विश्राम का समय होता था) पीछे से खड़े-खड़े चुदवाया; दोपहर की धूप की गर्मी में तंबू के बिस्तर पर, शाम के समय जंगल की झाड़ियों में... राजमाता ने अपने नग्न रूप को एक पेड़ के सामने पकड़ रखा था और अपने लंबे पैरों को उस युवक की कमर के चारों ओर लपेटकर, उछल उछलकर चुदवाया। रात के अंधेरे में, खुले मैदान में जाकर, उसके लंड को तब तक चूसा जब तक कि वह उनके खूबसूरत मुँह में झड़ नहीं गया, फिर उन्होंने पास के एक टीले के शिखर पर घास की शैया में सोये सोये भरपूर चुदाई करवाई।


चूँकि उन दोनों को समय की हमेशा कमी रहती थी इसलिए उनका मैथुन उन्मत्त होता था। वह कभी-कभी चाहती थी कि उनका प्रेम-प्रसंग अधिक आरामदायक और लंबा चले, जैसा कि शक्तिसिंह के साथ होता था। पर वह युवक अनुभवहीन था.. और राजमाता की मदमस्त सुंदरता उसे ज्यादा देर टिकने नही देती थी... इसलिए उन्हे जो कुछ भी मिल सकता था और जब भी मिलता था, वह ले लेते थे।
WOW bahaut he sexy update
 
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DEVIL MAXIMUM

"सर्वेभ्यः सर्वभावेभ्यः सर्वात्मना नमः।"
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शुरुआती हमले में मिली सफलता के बाद शक्तिसिंह के दल को फिर दोबारा ऐसा मौका नही मिला... दुश्मन सतर्क हो गया था... और अपने ढेरों साथियों की लाशें देखकर सकते में भी था... उस दिन के बाद कई सप्ताह बीत गए लेकिन वह द्वार दोबारा नही खुला..

इस तरफ राजमाता की छावनी में सूरजगढ़ की सेना इंतज़ार करते करते थक गई थी... वह चाहते थे के एक बार आर-पार की लड़ाई हो और उन्हे दुश्मनों को सबक सिखाने का अवसर मिलें... पर किले का अगला दरवाजा खुलने की कोई संभावना नजर नही आ रही थी। सुरंग के ढह जाने के बाद कोई नई योजना कार्यान्वित भी नही थी... ऐसी सूरत में ओर कितने दिन प्रतीक्षा में व्यतीत हो जाएंगे, उसका किसी को अंदाजा न था... ऊपर से भीषण गर्मी ने सारे सैनिकों को सुस्त कर दिया था... भोजन की रसद तो विपुल मात्रा में थी पर पानी की बड़ी ही किल्लत थी... किले के अंदर ढेर सारे कुएं और बावरियाँ थी पर किले के बाहर जल का कोई स्त्रोत नही था... हर सप्ताह सूरजगढ़ से पानी की रसद भेजी जाती थी उसी पर सब निर्भर थे... ऐसी सूरत में पानी की हर बूंद को संभालकर इस्तेमाल करना पड़ रहा था...

हररोज राजमाता और सेनापति इस बारे में विचार विमर्श करते... पर उनकी मुलाकातें किसी भी ठोस नतीजे पर नही पहुँच पाती थी... आखिरकार उन्होंने शौर्यगढ़ की सेना को उकसा कर उन्हे लड़ने पर मजबूर करने की योजना बनाई।

योजना यह थी की प्रशिक्षित तीरंदाजों को किले की दीवार के जीतने नजदीक हो सके भेजा जाएँ... वह तीरंदाज लंबी दूरी तक जा सके ऐसे बाणों से बुर्ज पर खड़े चौकीदारों को एक के बाद एक मार गिराएं... किले की दीवार के करीब लगे घने पेड़, इस कार्य के लिए उत्कृष्ट स्थान थे.. शाखों में छुपकर तीरंदाज आसानी से वार कर सकते थे।

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सारा घटनाक्रम योजना के मुताबिक चलता नजर आया... रात के अंधेरे में वह तीरंदाजों ने पेड़ों पर अपना स्थान ले लिया... सुबह होते ही, किले की दीवार पर गश्त लगाते सैनिकों पर एक साथ तीर चलाए गए... कुछ ही पलों में करीब २५ सैनिकों की लाशों का अंबार लग गया... शौर्यगढ़ में अफरातफरी मच गई... कुछ ही दिन पहले वह ५० से अधिक सैनिकों को गंवा चुके थे... और आज कई सारे सैनिक हताहत हो गए..!!

बलवानसिंह का क्रोध सातवे आसमान पर पहुँच गया... अपने सेना अध्यक्ष को बुलाकर एक बड़े ही विस्तृत हमले के लिए तैयारी करने का उन्होंने आदेश दिया... हमला घातक, सटीक और निर्दयी होना चाहिए, यह उन्होंने स्पष्ट किया..

इस तरफ राजमाता भी जानती थी की अब शौर्यगढ़ की सेना जरूर हमला करेगी... सूरजगढ़ की सेना भी पूरी तरह से तैयार थी...

दूसरे दिन भोर की पहली किरण के साथ... किले की दीवार से युद्ध के बिगुल बजने की आवाज सुनाई देते ही राजमाता और उनका सैन्य सतर्क हो गए... कड़कड़ाहट की आवाज के साथ किले का मुख्य दरवाजा खुला... पहले तो उसमे से धूल मिट्टी का बड़ा सा बवंडर नजर आया... और फिर उसमे से प्रकट हुई तेज तर्रार घोड़ों पर सवार सैनिकों की सेना... उनके सैनिकों का प्रवाह, उस द्वार से निकलता ही जा रहा था... रुकने का नाम ही नही ले रहा था... सेनापति के आकलन से कई ज्यादा संख्याबल था उनका...

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अलग अलग श्रेणियों में सूरजगढ़ की सेना किले की तरफ आगे बढ़ी... किले की दीवारों से अनगिनत तीर छोड़े गए... सूरजगढ़ की सेना की प्रथम दो श्रेणियों के सैनिक उन बरसते तीरों के शिकार बन गए... फिर दोनों सेनाओ में घमासान युद्ध हुआ... शाम ढलने तक सूरजगढ़ की आधे से ज्यादा सेना वीरगति को प्राप्त हो गई.. शौर्यगढ़ के सैनिकों की संख्या और उनके जुनून का सामना वह नहीं कर पाए... कई सप्ताहों की थकावट ने उनका जोश भी कम कर दिया था...

उसी रात किले का पीछे का दरवाजा भी खुला... पिछली बार के मुकाबले, इस बार सैनिकों की संख्या २० गुना थी... बाहर निकलते ही वह दस्ता तीन हिस्सों में बँट गया.. एक हिस्सा दायी ओर गया.. एक बायी ओर और एक हिस्सा सीधा जंगल में घुस गया... जंगल में पहुंचते ही शक्तिसिंह के दल ने पहले पेड़ पर बैठे बैठे हमला किया... अश्वदल ने भी मजबूत टक्कर दी.. लेकिन थोड़ी ही देर बाद दोनों तरफ गए सैनिकों के गुट ने शक्तिसिंह के दल को पूरी तरह से घेर लिया... शक्तिसिंह के दल की संख्या १०० के करीब थी जबकी दुश्मन १००० से भी ज्यादा थे...

शुरुआती हमले के बाद इतनी बड़ी संख्या में दुश्मन को देखकर शक्तिसिंह पेड़ की टहनी से नीचे कूदने ही वाला था जब उसकी टांग फिसल गई... और वह सिर के बल जमीन पर गिरा... और वहीं मूर्छित हो गया... दुश्मनों ने चारों तरफ से सिकंजा कसकर पूरे दल को बंदी बना लिया और उन्हे उठाकर वापिस किले के अंदर चले गए...

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दूसरी सुबह होश में आए शक्तिसिंह ने अपने आसपास का नजारा देखकर उसे झटका लगा... कहीं पर भी उसके दल के सदस्य नजर नही आ रहे थे... अगर वह मारे गए होते तो उनकी लाशें नजर आती... और उसे छोड़कर वह छावनी में लौट गए हो ऐसा मुमकिन नही था... शक्तिसिंह को यकीन हो गया की उन्हे बंदी बनाकर ले जाया गया है... और उन सब में चन्दा भी शामिल थी...

बड़ी मुश्किल से उठे शक्तिसिंह को अपना अश्व कहीं भी नजर नही आया... उसके सर में भयानक दर्द के झटके लग रहे थे... वह काफी अशक्त भी महसूस कर रहा था... फिलहाल उसे राजमाता और सेनापति को इस दुर्घटना के बारे में सूचित करने की आवश्यकता नजर आई... पर उन तक खबर पहुंचाने का कोई माध्यम नही था... शक्तिसिंह को खुद ही यह समाचार लेकर मुख्य छावनी पहुंचना था..


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जंगल के रास्ते लड़खड़ाते हुए वह जब मुख्य छावनी तक पहुंचा तब तक वह अधमरा हो चुका था... छावनी के पहले तंबू के आगे ही वह फिर से बेहोश हो गया... तुरंत उसे तंबू में ले जाकर लेटाया गया... और वैद्य के परामर्श अनुसार उसका इलाज किया गया...

शक्तिसिंह के आगमन की खबर मिलते ही राजमाता के उदास चेहरे पर चमक आ गई.. पर उसे इस अवस्था में देखकर वह काफी चिंतित हो गई... उन्हे दूसरी चिंता यह भी थी की उसके बाकी साथियों का क्या हुआ!! शक्तिसिंह के होश में आने तक उस पहेली का उत्तर नही मिलने वाला था..

करीब ३० घंटे के बाद शक्तिसिंह को होश आया... उससे सारा वृतांत जानकर सभी को गहरा सदमा पहुंचा... इतने सारे सैनिक अब दुश्मन की गिरफ्त में थे... और इस खेमे के आधे से ज्यादा सैनिक मर चुके थे... स्थिति काफी गंभीर थी।

एक दिन पश्चात, शक्तिसिंह और राजमाता उनके तंबू के बिस्तर पर बैठे हुए थे... यह पहली बार था की रात्री के समय, तंबू के एकांत में, दोनों बिस्तर पर बैठे हो... और दोनों मे से किसी के भी मन में संभोग या उससे जुड़े कोई विचार न चल रहे हो... होश में आने के बाद शक्तिसिंह ज्यादा कुछ बोल नही रहा था... अगर कुछ बोलता या पूछता तो राजमाता के पास उसका कोई उत्तर नही था..

"राजमाता जी, आप से विनती है... की मुझे मेरे साथीयों को छुड़ाने के लिए जाने की अनुमति दीजिए" शक्तिसिंह ने हाथ जोड़कर कहा

"कैसे छुड़ाएगा तू उनको? कोई योजना है तेरे पास?" राजमाता ने पूछा

"में रात्री के समय रस्सियों के सहारे किले की दीवार चढ़कर अंदर जाऊंगा... कुछ भी कर उन्हे ढूंढ निकालूँगा" शक्तिसिंह बावरा हो गया था

"पागलों जैसी बात मत कर... अंदर घुस भी गया तो अकेले तू कर भी क्या पाएगा? में तुझे इस तरह मौत के मुंह में जाने की अनुमति नही दे सकती"

शक्तिसिंह बिस्तर से उतरकर राजमाता के पैरों में गिर गया... उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे...

"में अब और बर्दाश्त नही कर सकता... में मर भी जाऊँ तो मुझे मंजूर है.. पर बिना कुछ प्रयास किए में अपने दल को उस दृष्ट के हाथों मरने के लिए छोड़ नही सकता... में आपसे भीख माँगता हूँ... मुझे जाने दीजिए" शक्तिसिंह अब फुटफुट कर रोने लगा...

राजमाता ने शक्तिसिंह को अपने पैरों से उठाया और वापिस बिस्तर पर बैठा दिया

"मूर्ख मत बन... हम हमारे सैनिकों को छुड़ाएंगे... में कोई न कोई तरीका ढूंढ निकालूँगी... फिलहाल तू जा और विश्राम कर..."

उदास शक्तिसिंह सुस्त कदमों से चलते हुए तंबू से बाहर चला गया..
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दूसरे दिन सुबह, राजमाता ने सेनापति और शक्तिसिंह दोनों को अपने तंबू में बुलाया... दोनों ही के मन में अनगिनत प्रश्न उठ रहे थे...

तंबू में पहुंचते ही सेनापति ने राजमाता के सामने रखी कुर्सी पर स्थान ग्रहण किया... शक्तिसिंह वहीं मूरत की तरह खड़ा रहा और राजमाता की ओर देखता रहा...

काफी देर तक चुप रहने के बाद राजमाता ने अपना मौन तोड़ा...

"मैंने यह सारी समस्या का हल ढूंढ लिया है... " बोलकर वह फिर से चुप हो गई

यह अंतराल सेनापति और शक्तिसिंह दोनों को व्यग्र कर रहा था... पर इतना तो मालूम हो रहा था की जो भी हल था वह राजमाता के लिए आसान नही था... वरना वह इतने भारी मन से न कहती...

"क्या हल निकाला है आपने, राजमाता जी?" सेनापति ने पूछा

एक भारी सांस लेकर राजमाता ने उत्तर दिया...

"हम शौर्यगढ़ के राजा बलवानसिंह को शांति संदेश भेजेंगे और साथ ही गुहार लगाएंगे की वह सारे बंदियों को छोड़ दे"

यह सुन सेनापति व्याकुल हो गए... यह क्या कह रही थी राजमाता? दुश्मन के सामने घुटने टेक देना...? यह तो सूरजगढ़ की शान के विरुद्ध था... यह बलवान राज्य की सेना ने कभी भी हार नही मानी थी... पिछले कई महीनों से चल रही इस मुहिम में उन्होंने अनगिनत राज्य और रजवाड़े जीत लिए थे... हाँ, यह एक मजबूत दुश्मन जरूर था... पर इस तरह शांतिसंदेश भेजकर संधि का प्रस्ताव रखना उन्हे राज्य के गौरव को नष्ट कर देने के बराबर प्रतीत हो रहा था। शक्तिसिंह की प्रतिक्रिया भी कुछ अलग नही थी

"यह आप क्या कह रही है राजमाता जी? इसे तो हमारी पराजय मान लिया जाएगा" सेनापति ने कहा

"सेनापति जी, में जानती हूँ की मैं क्या कह रही हूँ... हम पर्याप्त प्रयत्न कर चुके है... आधे से ज्यादे सैनिक गंवा चुके है... कई सैनिक उनके कब्जे में है.. बाकी के सैनिक थक चुके है... शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से... फिलहाल शौर्यगढ़ का जो किला है, उसे भेद पाना नामुमकिन है... अंदर वह इतनी रसद जमा कर बैठे है की वह अगले दो साल तक उस दुर्ग के अंदर सुरक्षित भाव से जी सकते है... बाहर बैठे रहकर हम कुछ नही कर पाएंगे.. अगर भावनाओ को नियंत्रण में रखकर सोचे तो यही सबसे श्रेष्ठ विकल्प है.. हमारी प्राथमिकता उन बंदियों को छुड़ाना है... भविष्य में हम बेहतर शस्त्रों के साथ उन पर फिर हमला कर सकते है... मुहिम को यूं ही जारी रखने से हमारा ही नुकसान होगा... बेहतर यही होगा की अभी के लिए हम उनसे संधि कर ले और अपने सैनिकों को छुड़ाकर, सूरजगढ़ वापिस ले जाए... इस लिए मैंने तय किया है की कल शक्तिसिंह मेरा लिखा शांतिसंदेश लेकर राजा बलवानसिंह के पास जाएगा" राजमाता ने उत्तर दिया

"पर राजमाता जी, मुझे ऐसे हार मान लेना उचित नही लगता" सेनापति ने कहा

"सेनापति जी, यह मेरा आदेश है" बड़े ही ठंडी और दृढ़ सवार में राजमाता ने कहा

"जैसी आपकी आज्ञा" सेनापति ने हथियार डाल दिए

"मैं कल संदेशा लिखकर तैयार रखूंगी... शक्ति, तुम ५ सैनिकों के साथ कल वह संदेश बलवानसिंह को पहुंचाओगे... "

"जी राजमाता जी... " शक्तिसिंह ने सिर झुकाकर कहा...

दूसरी सुबह.. शक्तिसिंह अपने सैनिकों के गुट के साथ, हाथ में सफेद ध्वज लिए शौर्यगढ़ के किले की ओर निकल गया... द्वार पर पहुंचते ही उसने अपना झण्डा फहराया, जिसे देख किले का द्वार खोल दिया गया....

पूरी तरह से तलाशी लेने के बाद शक्तिसिंह और उसके साथियों के हथियार जब्त कर लिए गए...

शौर्यगढ़ के नगर की शोभा और समृद्धि देखकर शक्तिसिंह दंग रह गया... वैभवशाली इमारतें, भव्य घंटाघर, पक्की सड़कें, जगह जगह बने प्याऊ, सुवर्ण लेपित धार्मिक स्थान वगैरह देखकर ही इस नगर की धनवानता का अंदाजा लग रहा था... नगवासियों की वेशभूषा भी उनकी अमीरी दर्शा रही थी... किले की अंदर की दीवारें लोहे के स्तंभों से अधिक मजबूत की गई थी... सैनिकों के शस्त्र भी आम हथियारों से अलग और ज्यादा कार्यक्षम नजर आ रहे थे... सुवर्ण की उपलब्धि के कारण यह नगर अतिसमृद्ध था।

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शस्त्रधारी सैनिकों से घिरकर शक्तिसिंह और उसके साथी महल में पहुंचे... गुलाबी दुर्लभ पत्थरों से बनी महल की दीवारें, रत्नों से सुशोभित थी.. भव्य प्रवेशद्वार से चलकर वह सभाखण्ड तक पहुंचे... महल में चारों तरफ भारी सुरक्षा का इंतेजाम था... दरबार की गतिविधियां चल रही थी... और इसलिए शक्तिसिंह को इंतज़ार करना पड़ा...

बलवानसिंह काले रंगे के राक्षस जैसा दिखने वाला लंबा तगड़ा पुरुष था... गहरी दाढ़ी और मुछ के कारण वह दिखने में विकराल था... बोलते वक्त दिख रहे उसके बड़े दाँत, ताम्बूल खा खा कर लाल हो गए थे... बड़े बड़े मोतियों की माला गले में लटकाकर वह विशाल मुकुट सिर पर धारण किए दरबार की कार्यवाही का संचालन कर रहा था...

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कुछ ही देर में सभा बर्खास्त कर दी गई... और शक्तिसिंह को बलवानसिंह के सामने पेश किया गया...

शक्तिसिंह ने झुककर सलाम करने के बाद, अपने हाथों में रखा शांतिसंदेश दिखाया.. एक सैनिक ने उसके हाथों से वह संदेश ले जाकर बलवानसिंह को दिया... वह संदेश पढ़ने के बाद वह जोर जोर से हंसने लगा... बड़ी ही भयानक हंसी थी उसकी...

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"अक्ल ठिकाने आ गई तुम्हारी राजमाता की? आए थे बड़े शौर्यगढ़ को हराने... मेरे सामने ना किसी का घमंड टीका है और ना ही मैं टिकने दूंगा... बाकी राज्यों के जैसे शौर्यगढ़ को कमजोर समझकर जो भूल तेरी राजमाता ने की है... उसका फल तो उसे भुगतना ही होगा... जाकर कह दो अपनी राजमाता से ... मैं बंदियों को मुक्त नही करूंगा... और अगर वह तुरंत अपनी छावनी उठाकर यहाँ से नही लौट गए तो उन सब की गर्दन काटकर उन्हे पेश कर दूंगा... " बलवानसिंह ने बड़ी ही क्रूरता से कहा

सुनकर शक्तिसिंह के होश उड़ गए... वह जमीन पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा...

"आपसे विनती है महाराज, कृपया मेरे साथियों को छोड़ दे... दो राजवीओ की लड़ाई में निर्दोष सिपाहीयों को दंड न दे... में आप से क्षमा माँगता हूँ... आपकी दरियादिली की ख्याति मैंने कई बार सुनी है... दयाभाव रखकर आप उन्हे छोड़ दीजिए" शक्तिसिंह ने कहा

अपनी तारीफ सुनकर बलवानसिंह खुश हो गया...

"चर्चे तो हमने तुम्हारी राजमाता के हुस्न के भी बड़े सुने है... क्या वाकई में वह इतनी सुंदर है? " बलवानसिंह ने पूछा

यह सुनकर शक्तिसिंह थोड़ा सा झेंप गया... बात को बदलने के लिए उसने कहा

"महाराज, मैं कई राज्यों की यात्रा कर चुका हूँ... सब आपकी तारीफ़ों के पूल बांधते है " शक्तिसिंह ने जूठी तारीफ़ करते हुए कहा

"हम्ममम... बात तो तुम्हारी सही है... लेकिन फिर भी... में इतनी आसानी से तुम्हारी राजमाता को बक्श नही दूंगा... में एक उदाहरण स्थापित करना चाहता हूँ... ताकि फिर से को शौर्यगढ़ की तरफ आँख उठाकर देखने की जुर्रत न करें.. " बलवानसिंह ने बड़े ही अहंकार के साथ कहा

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"महाराज, आप तो दयालु है... आपका राज्य कितना महान है वह तो देखते ही बनता है... आपसे गुजारिश है की अगर आप बड़ा दिल रखकर बिना किसी कठोर कदम को उठायें... इस गुस्ताखी को नजरअंदाज करने की कृपा करेंगे तो हमारे दोनों राज्यों के बीच अच्छे संबंध स्थापित होंगे... सूरजगढ़ के पास उत्कृष्ट बंदरगाह है... जिसका उपयोग कर.. आप अपने सुवर्ण को दूर देशों में भेज सकते है... दोनों राज्यों को पारस्परिक लाभ होगा... " शक्तिसिंह इस बड़बोले महाराज को ज्यादा से ज्यादा खुश कर अपने साथियों को छुड़ाना चाहता था..

"हम्ममम... " गहरी सोच में डूब गया बलवानसिंह... थोड़ी देर सोचते रहने के बाद उसने कहा

"में अपनी मांगें लिखकर एक पत्र तुम्हें दे रहा हूँ... याद रहे यह पत्र सिर्फ और सिर्फ राजमाता के लिए है... और किसी को भी इस बारे में भनक नही लगनी चाहिए... यदि तुम्हारी राजमाता मेरी मांग स्वीकारती है तब मैं उन बंदियों को मुक्त कर दूंगा... यदि नही... तो परिणाम तो तुम जानते ही हो..." अपने लाल दाँत दिखाते हुए, हँसते हुए बलवानसिंह ने कहा..

कुछ ही देर में, एक मखमली कपड़े पर... बलवानसिंह ने पत्र लिखा... तांबे की नली में उस पत्र को डालकर शक्तिसिंह को दिया गया...

"यह पत्र देकर राजमाता से कहना... की उनके पास ज्यादा समय नही है, मुझे कल तक उत्तर नही मिला तो में सारे सैनिकों को मार दूंगा " बलवान सिंह ने कहा


क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
Intresting update
Ab ky hone wala hai is khel me dekna ki iccha hai
 
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"सर्वेभ्यः सर्वभावेभ्यः सर्वात्मना नमः।"
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क्रोध से अपनी मुठ्ठी भींचते हुए शक्तिसिंह ने झुककर सलाम की.. उसका मन कर रहा था की वहीं झपट कर उस राक्षस की गर्दन मरोड़ दे.. पर ऐसा करने से उसके साथियों के मुक्त होने की कोई गुंजाइश नही थी... वह मन मारकर वहाँ से लौट गया...
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"यह बलवानसिंह समझता क्या है अपने आप को?" पत्र पढ़कर राजमाता अत्यंत क्रोधित हो गई... गुस्से से तिलमिलाते हुए उन्होंने मेज पर पड़ी सुराही और प्याले को उठाकर फेंक दिया... उनका चेहरा लाल हो गया था... वह क्रोध से कांप रही थी

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शक्तिसिंह वह पत्र लेकर सीधे राजमाता के तंबू में पहुँच गया था.. उसे अंदेशा था की जो भी मांग होंगी वह अप्रिय ही होंगी... पर राजमाता इतनी क्रोधित हो जाएगी, इसका उसे अंदाजा न था... वह स्तब्ध होकर राजमाता के इस रौद्र स्वरूप को देखता रहा... आज से पहले उसने कभी राजमाता को इतने गुस्से में नही देखा था..

"क.. क्या हुआ राजमाता जी... ऐसा तो क्या लिखा है पत्र में..?" डरते हुए शक्तिसिंह ने पूछ लिया...

राजमाता ने उत्तर नही दिया... वह खड़ी हुए और पैर पटकते हुए कोने में पड़े दीपक के पास पहुँच गई... उस पत्र को दीपक की लौ पर रखकर जला दिए... जलते पत्र के अवशेष उन्हों ने जमीन पर फेंक दिए...

अब वह धीमे पैरों से चलकर अपने बिस्तर की ओर आई... और बैठ गई... पत्र को जला देने से प्रायः उनका क्रोध थोड़ा सा कम हुआ लग रहा था.. वह आँखें बंद कर थोड़े समय तक वैसे ही बैठी रही... उनके मन में चल रहे घमासान को दर्शक बनकर निरीक्षण करते हुए उलझी हुई लग रही थी।

शक्तिसिंह तो मुक प्रेक्षक की तरह बस उन्हे निहार रहा था... उन्हे अपने ध्यान से विमुख करने की उसमे हिम्मत नही थी...

थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर राजमाता ने शक्तिसिंह की ओर देखा... उसकी आँखों में वह उसके प्रश्न को पढ़ सकती थी लेकिन फिर भी वह कुछ नही बोली

और थोड़ा समय बीतने पर शक्तिसिंह का इत्मीनान समाप्त हो गया

"कहिए न राजमाता जी... ऐसी कौन सी मांग कर दी बलवानसिंह ने जो आप इतनी गुस्सा हो गई?"

एक लंबी गहरी सांस लेने के बाद राजमाता ने कहा

"उन सैनिकों को छोड़ने के बदले में... वह मेरे शरीर को भोगना चाहता है... " बड़ी ही वेधक नज़रों से उन्होंने शक्तिसिंह की आँखों में देखा

सुनकर शक्तिसिंह हक्का-बक्का रह गया!! यह कैसी मांग कर ली बलवानसिंह ने?? हालांकि उसने राजमाता के हुस्न का जिक्र जरूर किया था पर उसे जरा भी अंदाजा नही था की वह इस तरह की मांग रखेगा...

"मुझे वह वेश्या या गणिका समझता है... सैनिकों को छोड़ने के लिए वह मेरे जिस्म का सौदा करना चाहता है" राजमाता के क्रोध का ज्वालामुखी फिर से फट पड़ा

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"शांत हो जाइए राजमाता जी.. कोई न कोई तरीका जरूर निकल आएगा" शक्तिसिंह ने ढाढ़स बांधते हुए कहा

"कोई तरीका नही है... मुझे यह अंदेशा तो था ही... उसका राज्य इतना समृद्ध है की उसे सुवर्ण, सैनिक या जमीन देकर संतुष्ट नही किया जा सकता... और दूसरा ऐसा कोई प्रलोभन नही है जो उसके मन को भाएं... जरूर वह किसी और चीज की मांग करेगा... पर क्या मांगेगा वह तय नही कर पा रही थी... उसका पत्र पढ़कर अब स्पष्ट हो गया.. " गहरी सांस लेकर राजमाता ने कहा

समस्या बड़ी ही संगीन थी.. यदि प्रश्न सैनिकों के प्राणों का न होता तो राजमाता इसके बारे में सोचती भी नही... ऐसा भी नही था की राजमाता चंद सैनिकों के लिए अपने आप को सौंप देने के लिए राजी हो जाती... युद्ध में तो कई सैनिक अपनी जान गँवाते है... थोड़े और सही... पर अगर वह उन सैनिकों को छुड़ाने में असफल रही तो अपने सैन्य का विश्वास गंवा बैठती... विद्याधर ने इस बारे में उन्हें बड़े ही विस्तार से शिक्षित किया था... अगर सैनिक को इस बात का आश्वाशन न हो की उसका मुखिया उसके लिए जान तक लड़ा सकता है... तो वह भी अपनी जान को अपने ऊपरी के लिए न्योछावर नही करेगा। सैनिकों के विश्वास को बरकरार रखने के लिए उन बंदियों को छुड़ाना अतिआवश्यक था..

"मुझे अकेला छोड़ दो... " बिस्तर पर लेटते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह ने आजतक राजमाता को इतनी हद तक असंतुलित नही देखा था... वह कुछ पलों के लिए वहीं खड़े होकर उन्हे देखता रहा... और फिर तंबू के बाहर चला गया

शाम तक शक्तिसिंह व्यग्रता से यहाँ वहाँ घूमता रहा... उसे न भोजन की इच्छा हो रही थी... ना ही प्यास लग रही थी... अपने साथियों के साथ साथ वह चन्दा की याद में भी व्यग्र हो रहा था... शक्तिसिंह को यह स्वप्न में भी अंदाजा नही था की उसका दिल चन्दा के लिए इतना व्याकुल हो सकता था...

बड़े ही तनाव में वह छावनी से थोड़े दूर एक पेड़ के नीचे बैठा रहा... राजमाता क्या तय करेगी, इस दुविधा में उसका वक्त ही नही कट रहा था... दिल के किसी कोने में यह आशा जागृत थी की वह सैनिकों को बचाने के लिए कुछ न कुछ तो जरूर करेगी.. लेकिन जो बलवानसिंह की इच्छा थी वह वास्तविकता में परिवर्तित होने की संभावना नजर नही आ रही थी...

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इस तनाव से थका हुआ शक्तिसिंह कब सो गया उसे पता ही न चला... जब उसकी आँख खुली तब रात ढल चुकी थी... उसकी अपेक्षा की विपरीत कोई उसे जगाने या बुलाने नही आया था... हमेशा की तरह उसे प्रतीक्षा थी राजमाता के बुलावे की...बस वजह अलग थी... आज वह उन्हे भोगने की चाह में नही था... उसे उत्कंठा थी यह जानने की, की आखिर राजमाता ने क्या निर्णय लिया...

वह उठकर चलते चलते सैनिकों की छावनी की तरफ गया... हो सकता है राजमाता ने उसे याद किया हो पर सैनिक उसे ढूंढ न पाए हो... पर किसी भी सैनिक ने इस बारे में जिक्र नही किया... निराश शक्तिसिंह अपने तंबू की ओर लौट गया... बिस्तर पर अपना सर पकड़कर काफी समय तक बैठा रहा... इस अवस्था को वह अधिक बर्दाश्त नही कर पाया... अनिश्चितता को सब्र से नियंत्रित करना उसके बस के बाहर की बात थी.. अधिरपना और बेचैनी ने उसे लगभग पागल सा बना दिया...

वह उठ खड़ा हुआ और उसने राजमाता के तंबू की ओर प्रयाण किया... बिना बुलाए राजमाता के तंबू में जाने की गुस्ताखी के एवज में वह हर सजा भुगतने को तैयार था... उसे किसी भी हाल में राजमाता का उत्तर जानना था...

तंबू के द्वार तक पहुंचकर उसने देखा की राजमाता के तंबू में घनघोर अंधेरा छाया हुआ था... वह बाहर तो कहीं भी थी नही.. चूंकि वह अभी अभी उन सभी जगहों से गुजरता हुआ यहाँ आया था... असमंजस में घिरे हुए शक्तिसिंह ने पर्दा उठाया... पूरे तंबू में अंधेरा था.. पर बिस्तर पर किसी मानव आकृति की रेखाएं नजर आ रही थी... शायद राजमाता सो गई थी.. हताश होकर वह वापिस जा ही रहा था तब..

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"अंदर आ जाओ शक्ति... " गंभीर गहरी आवाज में राजमाता ने उसे पुकारा.. अनपेक्षित आवाज सुनकर वह चोंक गया... वह तुरंत पीछे मुड़ा और धीरे से चलकर बिस्तर की ओर आया और वहीं खड़ा रहा

"आप कहें तो दीपक जला दूँ?" शक्तिसिंह ने पूछा

"नही, ऐसे ही ठीक है... जीवन में ऐसे भी पल आते है जब खुद का सामना करना भी कठिन हो जाता है... यह अंधेरा ही वह पर्दा है जो मुझे अपने आप से छुपाने में सहायता कर रहा है... " राजमाता की आवाज ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे वह काफी रो चुकी हो

शक्तिसिंह मौन रहा... वह पूछना चाहता था पर उसकी जुबान साथ नही दे रही थी

"मुझे यह ज्ञात है की तुम यहाँ किस उद्देश्य से आए हो... तो यह जान लो की हम जल्द ही सैनिकों को मुक्ति दिलाएंगे" राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह के चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी नही आई थी... पर फिलहाल अंधेरे में राजमाता को नजर नही आ रही थी... सैनिक मुक्त हो जाएंगे इसका मतलब.. मतलब... एक पल के लिए चेहरे पर आई मुस्कान, भांप बनकर उड़ गई!!!

बेहद गंभीर हो गया शक्तिसिंह... बलवानसिंह जैसे राक्षस के हाथों, इस दैवी सुंदरता की साम्राज्ञी के जिस्म को रौंदे जाने की कल्पना भर से ही शक्तिसिंह के रोंगटे खड़े हो गए... इतना बड़ा त्याग...!! आज पहली बार वह राजमाता को दिल से दंडवत प्रणाम करना चाहता था...

"मेरे करीब आओ शक्ति... " अंधेरे में अंदाजे से उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए राजमाता ने कहा

शक्तिसिंह यंत्रवत बिस्तर पर पहुंचा और राजमाता के बगल में लेट गया... उसके सर पर हाथ फेरने के बाद उन्होंने अपना चेहरा शक्तिसिंह की मजबूत छाती में दबा दिया... और उनकी आँखों से बरसते आंसुओं ने उसकी छाती भिगो कर रख दी..

"आज में बेहद अकेलापन महसूस कर रही हूँ शक्ति... " कहते हुए वह फुट-फुट कर रोने लगी... उन्हे सांत्वना देने के लिए शक्तिसिंह उनकी पीठ पर और गालों पर हाथ फेरता रहा... वह उनकी स्थिति समझ सकता था... बहुत कठिन निर्णय लिया था उन्हों ने..


रात्री का समय था... तंबू में अंधकार था... बिस्तर पर दो जिस्म आपस में लिपटे हुए थे... एक दूसरे के अंगों को सहला रहा थे... पर फिर भी दोनों में से किसी के मन में आज रत्तीभर भी वासना या हवस नही थी... थी तो बस सहानुभूति, प्रेम और सांत्वना की भावना...

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Ky kregi ky such me Maan jaygi bat ko
 
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