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आवरण तन का हटा हर दृश्य दर्पण हो गया
भ्रांत दृष्टि-मरीचिकाए पारदर्शी हो गयी
प्यास कामातुर हुई तो स्वरिणी पतिता हुई
तृप्ति ने तप को वरा पियूषवर्षी हो गई
जब थका पुरुषार्थ ,जब असिधार का पानी घटा
संधि की संभावनाएं चीर-विमर्शी हो गई
Zabardast,,,,,रूप की छवि देखता ही रह गया दर्पण
अनकहे की जाने क्या-क्या कह गया दर्पण
एक दिन जिस रूप का यश-केतु बन फहरा
क्यों उसी को राहु बन कर गह गया दर्पण
जो ह्रदय की धड़कने सुनता रहा छुप कर
रूप की आँखों मैं हो दुर्वह गया दर्पण।