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Thriller "विश्वरूप"

Kala Nag

Mr. X
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Aks123

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नाग भाई
बहुत ही शानदार अपडेट दिया है
भैरव सिंह अब कुछ बड़ा करने की कोसिस करेगा
पर विश्वा उसकी हर चाल को नाकाम कर देगा
वकील वल्लभ का भी कुछ करो
कहानी बहुत ही रोमांचक मोड़ पर आ गई है
अब कोर्ट से भी इनको कुछ मदद नहीं मिलने वाली
अब जो भी कुछ होगा वो भैरव की मौत की तैयारी ही होंगी

भाई अपडेट अब जल्दी जल्दी देकर कहानी का समापन करो
 
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विक्रम साहब ने रंगमहल मे सतू की प्रेमिका के साथ जो कुछ किया था उसमे उनकी सहमति नही थी । वह सब परम्परा के नाम पर एक कुरीति थी जिसे भैरव सिंह ने जबरन विक्रम पर थोपा था ।
लेकिन इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि भैरव सिंह के बहुत सारे कुकर्मों के वह भी साझेदार थे , हिस्सेदार थे ।
विक्रम ही नही , उनके दिवंगत भाई वीर साहब और गांव वालों के साथ साथ सतू ने भी एक तरह से अत्याचार , बर्बरता , जुल्म पर तटस्थ रूख अपनाया था ।
ऐसे ही लोगों के लिए राष्ट्र कवि दिनकर जी ने लिखा है - " जो तटस्थ है , समय लिखेगा उनके भी अपराध । "
विक्रम साहब के साथ जो कुछ हुआ , वीर साहब के साथ जो हुआ और सतू के साथ जो कुछ हुआ , वह उनके कर्म का फल ही था ।

भैरव सिंह ने आर पार की लड़ाई करने की ठान ही ली है । एक्चुअली यह भैरव सिंह के सेंस आफ एंटाइटलमेंट पर चोट था । यह लोग सोचते हैं कि वो सिर्फ सता पर काबिज होने के लिए ही बने हैं । इनका काम सिर्फ राज करना है । लेकिन विश्वा और वैदेही ने इनके सेंस आफ एंटाइटलमेंट पर आघात पहुंचाई ।
खैर , भैरव सिंह अब सीधा जंग चाहते है लेकिन क्या विश्वा इसके लिए पुरी तरह से तैयार है ?

रूप और विश्व के इश्क के बारे मे क्या ही कहें ! लगता है जैसे गुलशन मे रंग बिरंगे फुल खिल उठे हों ।

इस अपडेट मे आपने मेरी दोनो मांग पर गौर किया । पहला सतू से विक्रम का क्षमा याचना करना और दूसरा रूप और विश्व की शादी विधिवत सेनापति दंपति के मौजदूगी मे सम्पन्न होना ।
सेनापति दंपति ने अपने एकलौते पुत्र को खोकर जो दुख भोगा वह अत्यंत ही असहनीय और दर्दनाक है । इस असहनीय परिस्थिति के बावजूद भी उन्होने जिस तरह से विश्वा का ख्याल रखा और उसकी मदद की वह और भी सराहनीय काम है । यही लोग तो देवदूत कहे जाते हैं ।

फिलहाल एक अबोध बच्ची मल्ली पर भैरव सिंह की वक्र दृष्टि मंडराती हुई नजर आ रही है और उसके साथ एक दिलेर और नेक रिपोर्टर सुप्रिया रथ पर भी बुरे ग्रह का साया दिखाई दे रहा है । यहां बहुत आवश्यक है कि विश्वा के संज्ञान मे इसे लाया जाए । अन्यथा रिजल्ट बहुत बुरा हो सकता है ।

जगमग जगमग अपडेट बुज्जी भाई ।
 

Ajju Landwalia

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👉एक सौ बासठवाँ अपडेट
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उमाकांत सर जी का घर
सुबह धूप खिल चुका है, विश्व और उसके चारों दोस्त घर में नहीं हैं l सत्तू नहा धो कर अपना पूजा पाठ ख़तम करता है और कपड़े बदल कर लाइब्रेरी वाले कमरे में आता है l अंदर एक शख्स को देख कर ना सिर्फ वह चौंकता है बल्कि उसके कदम ठिठक जाते हैं l वह विक्रम था जो एक कुर्सी पर बैठा किसी गहरी सोच में खोया हुआ था l जैसे ही वह सत्तू को देखता है हड़बड़ा कर कुर्सी से उठता है और एक झिझक के साथ अपना सिर झुका कर खड़ा होता है l

सत्तू - युवराज... आ प...
विक्रम - हाँ... (कुछ पल की चुप्पी के बाद) क्या... क्या मैं... तुमसे बात कर सकता हूँ...
सत्तू - जी... कहिए..
विक्रम - (झिझक और बैचेनी के साथ सत्तू के पास आता है) सत्तू... सबसे पहले... मैं तुम्हें थैंक्यू कहना चाहता हूँ... अगर तुम ना होते... तो मेरी बहन की राखी का लाज ना रख पाया होता...
सत्तू - कोई बात नहीं युवराज जी...
विक्रम - सत्तू... मैं... वह मैं
सत्तू - कहिए युवराज...
विक्रम - (संजीदा हो कर) सत्तू... मैं.. तुम्हारा... गुनाहगार हूँ... (कहकर अपनी जेब से एक खंजर निकालता है और सत्तू के हाथ में थमा देता है, सत्तू उसे हैरानी से देखता है ) तुम्हें... बदला लेना था ना... यह लो... तुम्हारा गुनाहगार तुम्हारे सामने है... मार डालो...

सत्तू एक पल के लिए खंजर को हाथ में लेकर देखता है फिर विक्रम को देखता है l फिर विक्रम के हाथ में खंजर रख देता है l

सत्तू - युवराज जी... किस्मत ने मुझे इस लायक ना छोड़ा... के किसीसे वफा निभा सकूँ... और खुद को इस लायक नहीं बना पाया... के... किसी से बदला ले सकूँ... ऐसा नाकारा... क्या किसी से बदला लेगा...
विक्रम - ऐसा ना कहो सत्तू... अभी तुम्हारे सामने भले ही खड़ा हुआ हूँ... पर... सच यह है कि.... की मैं अपनी नजरों में अभी गिरा हुआ हूँ...
सत्तू - मेरी शिकायत और नफरत जिससे थीं... आज वह अपनी लाचारी और बेबसी में घिरा हुआ है... जो कभी वक़्त को मुट्ठी में कर... खुद अपनी ही नहीं... दूसरों की किस्मत लिखने का दावा भर रहा था.... आज वह खुद वक़्त की ठोकर में पड़ा हुआ है... यह वक़्त बहुत जालीम है युवराज...
विक्रम - तुम... तुम किसकी बात कर रहे हो...
सत्तू - (हँसता है) मैं राजा भैरव सिंह की बात कर रहा हूँ... जिसने कभी भी... क्या वक़्त... क्या जिंदगी... किसी की ना परवाह किया... ना कदर... वक़्त बढ़कर कोई नहीं होता युवराज जी... आज वक़्त ने उसी राजा को छोड़ दिया है...
विक्रम - तुम्हारे साथ वक़्त ने क्या न्याय किया है सत्तू...
सत्तू - वक़्त कभी किसीके साथ न्याय नहीं करता.. वक़्त उसका साथ देता है... जो उसकी कदर करता है... और उसे छोड़ देता है जो उसकी बेकद्री करता है... मैंने भी कभी वक़्त की बेकद्री की थी... वक़्त ने मेरे साथ वही किया... आज जब जिंदगी का फलसफा समझ में आ गया.. मैंने वक़्त के साथ चलने और साथ देने का फैसला किया युवराज...
विक्रम - यह... यह तुम मुझे बार बार... युवराज मत कहो... मेरे दिल को ही नहीं... मेरे वज़ूद को चोट पहुँचा रही है...
सत्तू - (चुप रहता है और गौर से विक्रम को देखने लगता है l विक्रम को सत्तू की वह नजर असहज करने लगता है इसलिये विक्रम दूसरी तरफ जा कर एक कुर्सी पर बैठ जाता है)
विक्रम - (सत्तू से नजर मिलाने से कतराते हुए) तुमने कौनसी वक़्त की बेकद्री की है....
सत्तू - (विक्रम के दूसरी तरफ एक कुर्सी पर बैठ जाता है) मेरी रिश्ता जब... कर बाबु की बेटी से तय हो गई थी... तब विश्व के साथ हो रहे हर अन्याय का मैं... साक्षी रहा हूँ... मेरा मौन समर्थन... अपने ससुर के हर कुकर्म के प्रति... वक़्त के प्रति मेरी बेकद्री थी...
विक्रम - वक़्त ने तुम्हें बहुत जल्द आईना दिखा दिया... जब कि राजा साहब... अभी भी झुके नहीं हैं...
सत्तू - जिसकी कमाई जितनी... उसकी गंवाई भी उतनी है... मेरे हिस्से की... मैंने गंवा दी... राजा जी की तो हालात खराब है... वह अपने साथ अपनी पुरखों की कमाई भी गंवा रहे हैं... युवराज...

विक्रम के पास कहने के लिए कुछ सूझ नहीं रहा था l विक्रम अपनी नजर उठा कर सत्तू को देखता है, सत्तू उसे एक टक देखे ही जा रहा था l

विक्रम - तुम्हारा गुस्सा... तुम्हारा नफरत किसके लिए है सत्तू...
सत्तू - राजा साहब के लिए... पर मेरी खून में ना तो वह उबाल था... ना ही मेरे जज्बातों में.. उतनी गर्मी... जब एहसास हुआ... के राजा साहब के वज़ूद को ललकारना मेरे बस की बात नहीं है.. तब मैंने वैदेही दीदी को देखा... जो डटकर राजा साहब की आदमियों से लोहा ले रही थी... एक दिन मौका पाकर... उनसे बात की... तो उन्होंने ही कहा था... के एक दिन उनका भाई लौटेगा... राजा की महल का... ईंट से ईंट बजा देगा... कोई तो हो... उस महल की दरवाजा अंदर से खोलने के लिए...
विक्रम - तो तब जाकर तुमने... भीमा के जरिए.. महल में घुसने की कोशिश की...
सत्तू - हाँ... युवराज...
विक्रम - (चिढ़ जाता है) यह बार बार मुझे युवराज क्यूँ कह रहे हो...
सत्तू - (चुप रहता है)
विक्रम - (झिझकते हुए) तुम चाहते... तो... विश्व और रुप के बारे में राजा साहब से कह देते... उससे भी तो तुम्हारा बदला... (रुक जाता है)
सत्तू - नहीं युवराज... बदला वह होता है... जो अपनी नाकामी के ज़ख्मों को... दुश्मन के दुश्मन की जीत से... भरता है... विश्व और रुप की प्रेम की जीत में... मेरी जीत है... बदला भी है... और क्या चाहिए युवराज...
विक्रम - ( उठ खड़ा होता है) मैं तुम्हारा गुनाहगार जितना था... हूँ... उतना ही कर्जदार भी रहूँगा... मैं चाहे किसी के भी सामने अपनी नजरें और सीना ताने खड़ा हो जाऊँ... पर तुम्हारे सामने मेरी नजरें हमेशा झुकी हुई रहेगी... जो मुझे मेरे किए उस गुनाह को याद दिलाता रहेगा... जो मैंने जान बुझ कर या होशोंहवास में नहीं किया था... पर गुनाह हुआ था... जिसकी भरपाई वक़्त ने की है... मैंने अपने भाई को खो दिया... मैंने उस पहचान को छोड़ दिया... जिसके बदौलत यह सब हुआ... आज मैं एक आम राजगड़ वासी हूँ... मैं फिर से पूछ रहा हूँ... क्या तुम कभी भी... मुझे माफ कर पाओगे...
सत्तू - (कुछ पल के लिए चुप हो जाता है) नहीं... नहीं युवराज... आप महान हो... सच्चाई के लिए... अपनों को छोड़ किसी आम के लिए खड़े हो गए... आपका कद अब बहुत बड़ा हो गया है... आपके आगे मेरा कद बहुत छोटा है... आप मुझसे कुछ मांगीए मत... आप झुक तो सकते हैं... पर मैं ऊपर उठ नहीं सकता... हम सब एक अनचाहे लड़ाई का अब हिस्सा हैं... अपने अपने किरदार में हैं... इस लड़ाई का अंजाम सिर्फ और सिर जीत ही होनी चाहिए... यह जीत मेरे भीतर की हीन भावना... आपके भीतर की युवराज को ख़तम कर देगी... तब हम सब एक होंगे...
विक्रम - देखो सत्तू... इतनी बड़ी बड़ी बातेँ मेरी समझ से परे हैं... मैंने तुमसे एक सीधा सा सवाल किया है... तुम उसका सीधा सा जवाब क्यूँ नहीं दे रहे...
सत्तू - जिंदगी छोटी है युवराज... पर तजुर्बे बहुत दिए... आप और मैं एक ही कश्ती में सवार क्यूँ हैं... क्यूँकी हम सब ने कुछ न कुछ खोया है... कोई ज्यादा... कोई कम... हम सबको ज़ख्म मिला है... दर्द किसीका ज्यादा है... किसी का कम... पर सामने तूफान है... हम सब अपनी अपनी भूमिका को लिए... इस कश्ती को किनारे पर पहुँचाना है... उसी वक़्त जब हम किनारे पर होंगे... ना आपके दिल में कोई गिला होगा... ना मेरे दिल में कोई शिकवा... इसलिए... आपका यह सवाल इस वक़्त जायज नहीं है... और सच कहूँ तो मेरे पास इसका जवाब नहीं है... (विक्रम उसे एक टक देखे जा रहा था) युवराज... आप मेरी नज़र में अब भी युवराज हैं... मेरी भावनायें भड़की जरूर थी पर... लाचारी और बेबसी मुझ पर हावी रही... मुझे बदला लेना नहीं आया... ऐसा सिर्फ मेरी हालत नहीं है... इस गाँव के हर एक उस शख्स का है... जो अपनी लाचारी और बेबसी के तले... पुश्तों से झेल रहे सितम के खिलाफ आग को बुझने नहीं दिया है... आज विश्व की लड़ाई में... अपनी लड़ाई देख रहे हैं... एक दिन विश्व के साथ खडे होकर बवंडर बन जाएंगे... उस बवंडर का हम भी हिस्स होंगे... तब जो जीत होगी... वह जीत हम सबकी होगी... आपकी... मेरी... इन गाँव वालों की... वही जीत... हमारी अतीत के ज़ख्मों को हमेशा के लिए भर देगी... बस उस जीत की प्रतीक्षा कीजिए... उस जीत के बाद... आपमे और हम में कोई फर्क़ ना होगा... तब ना आप युवराज होंगे... ना मैं ऐसा...

सत्तू चुप हो जाता है l विक्रम उसे सुन रहा था और सत्तू की कही हर एक शब्द उसे झिंझोड रहा था l विक्रम नजरें उठा कर सत्तू की ओर और देख नहीं पाया l झुके कंधे और थके कदम को उठा कर बाहर निकल जाता है l पीछे सत्तू एक गहरी साँस लेकर अंदर चला जाता है l



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अपनी कार से उतर कर महल की सीडियां चढ़ते हुए बल्लभ दरवाजे पर खड़े भीमा के पास आकर खड़ा होता है l

बल्लभ - राजा साहब कहाँ है भीमा...
भीमा - अपने खास कमरे में... आप ही का इंतजार कर रहे हैं...
बल्लभ - चलो फिर...
भीमा - नहीं वकील बाबु... राजा साहब... खास आपसे बात करना चाहते हैं... हमें... हिदायत दी गई है... जब तक ना बुलाया जाए... तब तक हममें से कोई... अंदर नहीं जाएगा...
बल्लभ - ओ...

बल्लभ और कुछ नहीं कहता है l भीमा को वहीँ छोड़ कर आगे बढ़ता है और रणनीतिक प्रकोष्ठ में दरवाजे पर खड़ा होता है l देखता है दीवार पर लगे टीवी के स्क्रीन पर एक न्यूज क्लिप पॉज हो कर रुक गया है l

बल्लभ - गुस्ताखी माफ राजा साहब... क्या मैं अंदर आ सकता हूँ...
भैरव सिंह - हूँह्ह्हम्म्म्... आओ... प्रधान आओ... (बल्लभ अंदर आता है) (टीवी की ओर इशारा करते हुए) क्या इस लड़की को जानते हो... (बल्लभ टीवी की स्क्रीन पर देखता है, वह सुप्रिया रथ थी)
बल्लभ - जी राजा साहब... यह सुप्रिया रथ है... नभ वाणी न्यूज एजेंसी में... एडिशनल एडिटर है... और...
भैरव सिंह - और...
बल्लभ - प्रवीण रथ की बहन है...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म...

भैरव सिंह चुप हो जाता है, बल्लभ उसे देखता है, भैरव सिंह आँखे मूँद कर बड़े शांत स्वभाव से अपनी हाथ मल रहा था l

बल्लभ - राजा साहब... क्या कुछ गलत हो गया है...
भैरव सिंह - नहीं... बल्कि जो गलत कर रहे हैं... उनके लिए... हम कुछ सोच रहे हैं...
बल्लभ - मैं कुछ समझा नहीं...
भैरव सिंह - हम एक... वाइल्ड लाइफ पर डॉक्यूमेंट्री देख रहे थे... एक शेर बुढ़ा हो गया है... कुछ करने की हालत में नहीं है... तब कुछ कुत्ते उस पर टुट पड़े... (कह कर बल्लभ की ओर देखता है) पर यहाँ शेर बुढ़ा नहीं हुआ है... हाँ पर... शांत बैठा हुआ है... और वह भी अपनी मांद के अंदर... तो कुत्तों ने झुंड बना कर... मांद में घुसने की कोशिश में हैं.... उनके लिए एक अच्छी खबर है... के शेर थोड़ा घायल है... पर वह... जो भूल रहे हैं... शेर जब घायल हो जाता है... तब जंगल में... मौत शिकारी के ऊपर मंडराने लगती है... पर यहाँ शेर... अपनी ही मांद में है... अब उनकी खुशफहमी बहुत जल्द दूर करना होगा...

भैरव सिंह बल्लभ की ओर देखता है l बल्लभ कुछ सोच रहा था l भैरव सिंह बल्लभ से पूछता है

भैरव सिंह - क्या सोचने लगे प्रधान....
बल्लभ - मैं सब समझ रहा हूँ राजा साहब... विश्व अपना कुनबा बढ़ा रहा है... जो खेल हमने उसे फंसाने के लिए खेला था... वही खेल वह हमसे खेल रहा है... हमने तब मीडिया का साथ लिया था... विश्व अब मीडिया को हमारे खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है...
भैरव सिंह - कुछ नया बोलो प्रधान...
बल्लभ - मैं समझा नहीं राजा साहब...
भैरव सिंह - कुछ ऐसा... जो हमारी जेहन से छूट गया हो...
बल्लभ - (कुछ कहने को होता है पर चुप हो जाता है)
भैरव सिंह - कुछ कहते कहते रुक क्यूँ गए प्रधान...
बल्लभ - राजा साहब... मुझे लगा... और दो दिन बाद... हमें... कोर्ट के सामने पेश होना है... तो उसके लिए हमारी क्या तैयारी है... या करनी है... आप उस पर बात करना चाह रहे हैं...
भैरव सिंह - (बल्लभ के पास आता है और उसके आँखों में आँखे डाल कर पूछता है) तुम्हें क्या लगता है प्रधान... क्या मैं पागल हो गया हूँ...
बल्लभ - (सकपका जाता है)
भैरव सिंह - चौंको मत... कभी कभी इस हम को ढोते ढोते... थक जाता हूँ... इसलिए हम को छोड़ कर... मैं को बाहर लाया हूँ... अब बोलो... क्या मैं तुम्हें पागल लगता हूँ...
बल्लभ - (हकलाते हुए) न.. नह.. नहीं.. र.. रा.. राजा साहब... मैं ऐसा सोच... भी.. नहीं सकता...
भैरव सिंह - अगर मैं पागल नहीं हूँ... तो क्या मैं... बेवकूफ़ी कर रहा हूँ... क्या लगता है तुम्हें...
बल्लभ - आई एम सॉरी... राजा साहब... मैं बाद में आता हूँ...
भैरव सिंह - हँसते हुए) हा हा हा हा... डर गए... (अचानक सीरियस हो कर) हाँ डरना चाहिए... तुम्हें ही नहीं... मुझसे जुड़े हर एक शख्स को... मेरे बारे में जानने वाले हर एक शख्स को... डरना चाहिए... फिर... (कुछ देर के लिए एक पॉज लेता है) फिर क्यूँ... कुछ लोग मुझसे डरना छोड़ रहे हैं... और उनका कुनबा बढ़ता ही जा रहा है...
बल्लभ - ऐसा नहीं है राजा साहब... अगर विश्वा आप से डर ना रहा होता... तो सेनापति दंपति को छुपाता क्यूँ...
भैरव सिंह - मेरा मन मत बहलाओ प्रधान... मत बहलाओ... यह डर... जिसकी धार पर... हम आजादी के बाद भी... शाशन में दखल रखा करते थे... वह डर जिसकी जागीर... हमने विरासत में... विरासत में पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल की... वही डर की जागीर... अब किसी रेत की तरह... मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है... (एक पॉज) है ना...
बल्लभ - नहीं... राजा साहब... यह सच नहीं है...
भैरव सिंह - मेरे परदादा... सौरभ सिंह क्षेत्रपाल... इस डर की जागीर... लंबोदर पाइकरॉय परिवार को तबाह व बर्बाद कर... कायम की थी... जिसे पुस्तैनी विरासत को तरह... मुझ तक... जिम्मेदारी आई.... पर... मेरे आगे की पीढ़ी... मुझसे ही तौबा कर ली है... और मुझसे... अब यह जागीर छूटने लगा है... (चुप हो जाता है)
बल्लभ - राजा साहब...
भैरव सिंह - नहीं प्रधान नहीं... मैं मायूस या निरास नहीं हूँ... बल्कि... मैं अब संकल्पबद्ध हूँ...
बल्लभ - किस चीज़ के लिए राजा साहब...
भैरव सिंह - सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के दिए... हम की बोझ ढोते ढोते... वह बोझ कहीं फिसल गया है... अब मुझे कुछ ऐसा करना होगा... जिससे मेरी आने वाली पीढ़ी... मेरे दिए हम को ढोएगी....

इतना कह कर भैरव सिंह चुप हो जाता है l बल्लभ भी खामोश हो जाता है l कमरे में इस कदर शांति थी के भैरव सिंह के तेज तेज चलते साँसे बल्लभ को सुनाई दे रही थी l

बल्लभ - (थूक को हलक से उतारते हुए) मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ... आपने... फ्री लांसर मर्सीनरीज को क्यूँ बुलाया है... पर उन्हें आने में अभी भी वक़्त है... पर कोर्ट में तो हमें... दो दिन के बाद पेश होना है....
भैरव सिंह - हाँ... उसके लिए... तुम अपना दिमाग लगाओ... कुछ सिचुएशन बनाओ.... ताकि अदालत हमें कुछ वक़्त दे दे... (बल्लभ खामोश रहता है) क्या सोचने लगे...
बल्लभ - राजकुमारी जी की शादी टुट गई...
भैरव सिंह - गलत... सगाई...
बल्लभ - जी जी... सगाई... पर अब...
भैरव सिंह - कुछ करो... इसीलिये तो तुम हमारे... लीगल एडवाइजर हो...
बल्लभ - ठीक है... मैं कुछ... सोच कर बताता हूँ... क्या मैं अब... आपसे इजाजत ले सकता हूँ...
भैरव सिंह - बेशक...

सुन कर वापस जाने लगता है l दरवाजे पर पहुँच कर मुड़ता है और भैरव सिंह से पूछता है l

बल्लभ - राजा साहब... जाने से पहले... एक बात पूछूं...
भैरव सिंह - (तब तक अपनी कुर्सी पर बैठ चुका था) हाँ... पूछो...
बल्लभ - आप... आप करना क्या चाहते हैं...
भैरव सिंह - इतिहास... तुमने हमेशा एक कहावत सुनी होगी... इतिहास खुद को दोहराता है...
बल्लभ - जी... सुना है...
भैरव सिंह - (मुस्कराते हुए) इस गाँव में... लंबोदर पाइकरॉय की संख्या बढ़ रही है... उन्हें अब सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के इलाज की जरूरत है... राजगड़ ही नहीं... बहुत जल्द पूरा स्टेट वह दौर देखेगा... जो अब तक... किंवदन्तीओं में सुनते आए हैं...

बल्लभ के तन बदन में कप कपी दौड़ जाता l वह अपना सिर झुका कर कमरे से निकल जाता है l

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अगले दिन
वैदेही कनाल के पास आती है, देखती है विक्रम सीढ़ियों पर बैठा बहती पानी की धार को देख रहा था l वैदेही सीढ़ियां उतरकर विक्रम के बगल में बैठ जाती है l विक्रम वैदेही को देखता है और फिर बहती पानी की ओर देखने लगता है l

वैदेही - जानते हो... इस कनाल को मेरे पिता... रघुनाथ महापात्र ने बनाया था...
विक्रम - ओह... तो क्या प्रताप... अपने पिता को याद करने के लिए... यहाँ आता है...
वैदेही - नहीं ऐसी बात नहीं है... वह जब भी... थोड़ा अंदर से अस्तव्यस्त या भ्रम में होता है... या खुद से नाराज होता है... तब वह इसी कनाल के पास आता है... और कभी कभी... महल के पीछे वाली घाट पर जाता है... कभी उगते सूरज को देखता रहता है... तो कभी डूबते सूरज को....
विक्रम - हाँ... मैं भी उससे दो तीन बार... नदी की घाट पर मिला हूँ...
वैदेही - हूँ... वैसे तुम इस वक़्त... यहाँ क्या कर रहे हो...
विक्रम - क्या आप प्रताप को ढूंढने आई थीं...
वैदेही - सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता विक्रम...
विक्रम - हाँ... सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता... पर जिसे ज़वाब की तलाश हो... वह क्या जवाब देगा...
वैदेही - तुम्हें किस सवाल का जवाब तलाश है विक्रम...
विक्रम - पता नहीं... मैं सवाल का जवाब ढूंढ रहा हूँ... या सवालों से भाग रहा हूँ...
वैदेही - हूँम्म्म्... मतलब तुम अब भ्रमित हो...
विक्रम - (कोई जवाब नहीं देता)
वैदेही - कल सुबह... तुम लाइब्रेरी गए थे... फिर वहाँ से निकले... घर में बहुत अशांत रहे... आज सुबह से घर से निकले हो... और अब यहाँ मिल रहे हो... (विक्रम अपनी नजरें फ़ेर लेता है) क्या इसीलिए... तुम कनाल के किनारे... जवाब ढूंढने आए हो...
विक्रम - (वैदेही से नजरें चुराते हुए) हाँ शायद...
वैदेही - कल लाइब्रेरी में क्या हुआ विक्रम... (विक्रम फिर भी ना नजरें मिलाता है ना ही कोई जवाब देता है) कम से कम... मेरे इस सवाल का जवाब तो दो...
विक्रम - (बहती पानी की धार की ओर देखते हुए) मैं... एक नाकामयाब... नाकारा आदमी हूँ... जब कभी अच्छा बनने की कोशिश की... तो ना तो दुनिया ने... ना अपनों ने... मुझे अच्छा बनने दिया... जब बुराई की हद तक बुरा बनने की कोशिश की.. बुरा भी ना बन पाया... बाप की दी हुई पहचान... और अपनी वज़ूद के बीच झूलता ही रह गया... जिससे दोस्ती करी... उसे खो दिया... जिसे बेटे की तरह... खुद से ज्यादा चाहा... वही भाई मुझे छोड़ कर चला गया... बाप दादाओं की पहचान से छुटकारा चाहा... पर... मैं अपने अतीत से... अतीत की हर गुनाह से छूटना चाहता हूँ... पर... (रुक जाता है)
वैदेही - मुझे फिर भी... जवाब नहीं मिला... कल सुबह तुम लाइब्रेरी गए थे... वहाँ क्या हुआ...

विक्रम एक हारे हुए आदमी की तरह वैदेही की ओर देखता है और मायूसी भरे आवाज में सुबह हुई सत्तू के साथ सारी बातों को वैदेही से जिक्र करता है l सब सुनने के बाद

वैदेही - ह्म्म्म्म... तो तुम्हें लगता है... सत्तू तुम्हें माफ नहीं किया... (विक्रम कोई जवाब नहीं देता) देखो विक्रम... तुमने... अपने पिता का खेमा छोड़ दिया... इसका मतलब यह तो नहीं हुआ... के तुमने अपनी सारे गुनाहों से तौबा कर लिया... अनजाने सही... गुनाह तो हुआ है... जितना तुम खुद को गुनाहगार समझ रहे हो... तुम उतना ही... सत्तू के भावनाओं के गुनाहगार हो... विक्रम... तुम्हें परिवार ने... इस गाँव के साथ नजाने कितनी पीढ़ियों से... किस किस तरह से जुल्म किए हैं... उनके आत्मा और जेहन में... नजाने कितने और कैसे कैसे ज़ख्म दिए हैं... तुमने अपने पिता का खेमा बेशक छोड़ दिया... पर तुमने गाँव वालों को तो बदले में नहीं चुना ना... बस तुम उन्हें चुन लो... तुम्हारे इसी कर्म से... तुम्हारे पुरखों के गुनाहों के वज़ह से... पीढ़ियों से दर्द झेल रहे गाँव वालों के ज़ख्म... भर जाए...
विक्रम - क्या इसीलिए आपने मुझे... गाँव में रुक जाने के लिए कहा था...
वैदेही - हाँ... विक्रम... तुम अगर उस दिन... गाँव से चले गए होते... तो तुम आगे चल कर अपनी ही नजरों में भगोड़े हो जाते... तुम अगर यहाँ रुकते हो... तो इस गाँव पर हुए हर अत्याचार का प्रायश्चित... तुम्हारे हाथों हो पाएगा...
विक्रम - प्रताप... गाँव वालों के लिए लड़ तो रहा है...
वैदेही - हाँ वह लड़ रहा है... क्यूँकी उसके हिस्से युद्ध है... पर तुम्हारे हिस्से प्रायश्चित है... जो कि तुम्हें यहाँ रह कर... उन्ही के बीच रह कर... तुम्हें करना है... हाँ अगर इन सबसे बच कर जाना चाहते हो... तो जा सकते हो... तुम्हें तुम्हारी पहचान कचोट रही है... सिर्फ सत्तू ही नहीं... पुरे गाँव वालों के लिए... तुम युवराज ही हो... तुम्हें विक्रम बनना है... उनके नजर में... उनके लिए बनना है... तो तुम्हें यहाँ उनके साथ उनके बीच रहकर बनना पड़ेगा...
विक्रम - मैं अकेला...
वैदेही - तुम अकेले नहीं हो... तुम्हारे साथ वह है... जो मुझे यहाँ लेकर आई है...

विक्रम पीछे मुड़ कर देखता है सीढ़ियों के ऊपर शुभ्रा टीलु के साथ खड़ी थी l विक्रम अपनी जगह से उठ खड़ा होता है l वैदेही भी खड़ी होती है l

वैदेही - तुम सुबह से घर से निकले... शाम तक घर नहीं लौटे... तुमने यह भी नहीं सोचा... के छह आँखे तुम्हारी राह तक रहीं हैं...
विक्रम - मैं... मैं वाकई शर्मिंदा हूँ..
वैदेही - होनी भी चाहिए... जाओ... शुभ्रा को लेकर घर जाओ... यह मत भूलो... वह अकेली जान नहीं है...

विक्रम और वैदेही दोनों शुभ्रा के पास आते हैं l विक्रम शुभ्रा की हाथ पकड़ कर कहता है

विक्रम - मुझे माफ कर दो शुब्बु... मैं भूल गया था... के मैं अकेला नहीं हूँ...
वैदेही - यह तुम्हारी गलती है विक्रम... तुम अकेले नहीं हो... फिर भी... खुद को अकेलेपन में घेरे रखे हुए थे...
विक्रम - कहा तो था... मैं शर्मिंदा हूँ... (शुभ्रा से) मुझे माफ कर दो... मुझे हर सजा मंजुर है... बस रूठना मत...
शुभ्रा - विकी... रूठ कर... मैंने क्या खोया था... यह मैं जानती हूँ... मैं बस चाहती हूँ... आप उस दौर से कभी ना गुजरें... मैं आज आपके हर कदम... हर फैसले में... आपके साथ हूँ... बस आप कभी खुद को अकेला मत समझिए... खुद को अकेला मत कीजिए...
विक्रम - वादा... आगे से... ऐसा नहीं होगा...
वैदेही - बस बस... भावनाएँ ज्वार की तरह उमड़ रही है... बाकी जो भी बात करनी हो घर पर करो...
विक्रम - (अपना सिर हिला कर शुभ्रा को साथ लेकर जाने लगता है फिर अचानक रुक कर मुड़ता है और वैदेही से) दीदी... आप महान हो...
वैदेही - मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है... जिससे कोई मुझे महान कहे... जाओ जाओ... मेरी बड़ाई मत करो...

विक्रम मुस्करा देता है और शुभ्रा का हाथ थाम कर चल देता है l टीलु और वैदेही उन्हें जाते हुए देखते हैं l थोड़ी देर के बाद

टीलु - दीदी... विक्रम ने तो सही कहा ना... आप वाकई महान हो...
वैदेही - अब तु शुरु हो गया...
टीलु - तुम सबको चुप करा दोगी... पर विश्वा भाई को कैसे चुप कराओगी... वह तो कहते ही हैं... तुम महान हो...
वैदेही - हम्म... मतलब तुमने कुछ किया है.... अब सच सच बता... क्या गुल खिला कर आया है...
टीलु - कुछ... कुछ तो नहीं...
वैदेही - देख अगर मुझे कुछ पता चला तो तेरी खैर नहीं...
टीलु - दीदी... मैंने कुछ नहीं किया... बस गाँव वालों के कान भरे... वह भी अपनी मीठी मीठी बातों से...
वैदेही - ऐ... क्या किया
टीलु - कुछ नहीं... शुकुरा और भूरा की कुटाई करवा दिया...
वैदेही - क्या... पर क्यों...
टीलु - वे दोनों हरामी साले...
वैदेही - (एक थप्पड़ मारती है) अपनी दीदी के सामने गाली देता है...
टीलु - आह.. (गाल सहलाते हुए) वे दोनों हैं ही... उस गाली के लायक... (वैदेही हाथ उठाती है मारने को) पुरी बात तो सुनो... (वैदेही का हाथ रुक जाता है) वे दोनों... मल्लि से... उसके के बारे में.. पूछताछ कर रहे थे...
वैदेही - क्या...
टीलु - हाँ... पास ही खड़ा था... मैंने गाँव वालों उल्टा सीधा जो भी आया... उन दोनों के बारे में बोल दिया... बोलते बोलते... गाँव वालों की अंदर की मर्दानगी को ललकारा... बस और क्या... उन दोनों की कंबल कुटाई करवा दिया... वह साले... अपने पैरों पर भी नहीं चल पाए... हम लोगों ने ही उठा कर रंग महल के बाहर फेंक आए... मेरा मतलब है छोड़ आए...
वैदेही - (संजीदा हो जाती है) ह्म्म्म्म... मतलब... भैरव सिंह... वह अनुष्ठान करेगा...
टीलु - हाँ दीदी... मुझे भी यही लगता है... क्यूँ ना विश्वा भाई से इस बारे में बात करें...
वैदेही - नहीं... हरगिज नहीं... विशु को... सिर्फ केस पर ध्यान देने दे... मल्लि को मैं अपनी निगरानी में रखूंगी... उसे मैं कुछ भी होने नहीं दूंगी...

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कोई अनजान हस्पताल का एक विशेष कमरा l मेडिकल बेड पर प्रतिभा लेटी हुई है l उसे सलाईन चढ़ाया जा रहा है l तापस प्रतिभा को जूस पीला कर ग्लास को बगल की टेबल पर रख देता है l बुझे मन से तापस प्रतिभा से सवाल करता है l

तापस - अब कैसा लग रहा है...
प्रतिभा - हाँ... थोड़ा बेहतर लग रहा है... (तापस उठ कर खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता है) क्या हुआ...
तापस - (मूड कर प्रतिभा को देख कर) जान... तुम बहुत स्वार्थी हो... तुम्हें मेरे बारे में... जरा भी खयाल नहीं है...
प्रतिभा - आप ऐसे तो ना कहिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - एक कैद सी जिंदगी हो गई है... आदत नहीं थी मुझे... इसलिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - प्रताप को भी तो... मेरी खबर लेनी चाहिए थी...
तापस - अब से वह तुमसे बात करेगा...
प्रतिभा - (चेहरे पर रौनक आ जाती है) क्या..
तापस - हाँ... मैंने लेनिन को... कुछ अरेंजमेंट करने के लिए कहा है... वह जुगाड़ लगाने गया है...
प्रतिभा - तो यह शुरु से कर देना चाहिए था... सत्रह दिन... ऐसा लग रहा है... जैसे... अर्सा हो गया है...
तापस - ह्म्म्म्म...
प्रतिभा - क्या ह्म्म्म्म... प्रताप भी... मेरी कोई खैर लेता ही नहीं...

तभी कमरे में लेनिन आता है l हाथ में कुछ फल वगैरह थे l उसे देखते ही प्रतिभा सवाल दाग देती है l

प्रतिभा - क्या अरेंजमेंट किया तुमने...
लेनिन - आंटी जी... मैंने खबर भिजवा दिया है... कुछ ही देर में... एक मोबाइल हमें मिल जाएगा... पर कॉल... विश्वा भाई करेंगे... तब तक के लिए... आपको इंतजार करना पड़ेगा...
प्रतिभा - (लेनिन से) आजा मेरे बच्चे.. आ.. तेरा माथा चूम लूँ... आ...

लेनिन तापस की ओर देखता है l तापस उसे इशारे से प्रतिभा के पास जाने को कहता है l लेनिन प्रतिभा के पास जा कर झुकता है l प्रतिभा लेनिन के कान को जोर से पकड़ लेती है l लेनिन दर्द से चिल्लाने लगता है l

प्रतिभा - यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया... मेरी जान पर बन आई... तब जाकर कर रहा है...
लेनिन - आह आह... आपने ही तो... भाई से वादा किया था... आप रह लेंगी... भाई को आपकी बहुत चिंता थी...
प्रतिभा - मालूम है... उसे मेरी कितनी चिंता है... अब बोल उस तक कैसे खबर पहुँचाई तुने...
लेनिन - डैनी भाई... कटक में हैं... मैंने उन तक खबर पहुँचाई है... वह एक एनक्रीपटेड़ मोबाइल भिजवा रहे हैं... और विश्वा भाई को भी खबर कर दिया होगा... विश्वा भाई अपना टाइम निकाल कर... आपको फोन करेंगे...
प्रतिभा - यह एनक्रीपटेड़ क्या होता है...
तापस - जान... एनक्रीपटेड़ का मतलब होता है...
प्रतिभा - मैंने आपसे नहीं पूछा है... आप चुप रहिए... (तापस चुप हो जाता है) (लेनिन से) हाँ मैं तुझसे कुछ पूछ रही थी...
लेनिन - आह... एनक्रीपटेड़ मतलब... जिस पर कॉल ट्रेस ना हो पाए...
प्रतिभा - अच्छा... तो यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया...
लेनिन - मुझे लगा था... सॉरी सॉरी... भाई को लगा था... आप महीना चालीस दिन रह लेंगी... पर भाई गलत निकले...
प्रतिभा - (और जोर से कान खींचती है) क्या कहा... मेरा प्रताप गलत है...
लेनिन - नहीं नहीं... आह... मैं... मैं गलत निकला... आंटी जी... प्लीज मेरा कान छोड़ दीजिए... दर्द हो रहा है...
प्रतिभा - (लेनिन का कान छोड़ देती है और बेड पर पालथी मार कर बैठ जाती है) ले छोड़ दिया... तो फोन कब लाकर दे रहा है...
लेनिन - बस दो ढाई घंटे के अंदर...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अब आ मेरे पास...
लेनिन - नहीं नहीं आंटी... मैं...
प्रतिभा - अब तु सीधी तरीके से मेरे पास आता है... या...

डरते डरते बेमन से लेनिन फिर से अपना सिर झुकाता है l इसबार प्रतिभा लेनिन का सिर अपनी हाथों में लेती है और लेनिन के माथे को चूम लेती है l लेनिन हैरानी से प्रतिभा की ओर देखता है l

प्रतिभा - अब क्या हुआ...
लेनिन - (हैरान हो कर) आप पहली बार मुझे प्यार किया है...
प्रतिभा - हाँ तो... पहली बार कोई काम ढंग से किया...
लेनिन - (आँखे छलकने को होता है पर मुस्करा देता है) मैं जा रहा हूँ... मोबाइल लाने...

कह कर बाहर चला जाता है l प्रतिभा अपनी हाथ से सलाइन की सुई को निकाल देती है l तापस हैरानी और फिक्र से प्रतिभा के पास आता है l पर तब तक प्रतिभा बेड से उठ खड़ी हो चुकी थी l

तापस - जान... तुम कमजोर हो अभी...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा... मेरा दवा लाने लेनिन गया है...
तापस - कहीं तुम... जानबूझकर अपनी सेहत खराब तो नहीं कि..
प्रतिभा - ऐसा कुछ नहीं है... मैं प्रताप के जुदाई में आधी हो गई थी... पर उसकी आवाज़ सुनने की चाहने... मेरे अंदर... फिर से ऊर्जा भर दी है...
तापस - (पास के एक कुर्सी पर बैठ जाता है) ह्म्म... एक उम्र में आते आते... जरूरतें बदल जाती हैं... पति से ज्यादा औलाद चाहिए होता है...
प्रतिभा - हो गया... ताना मारने की कोई जरूरत नहीं है... मैं जानती हूँ... तुम बाप बेटे... कॉन्टैक्ट में हो... उसकी हर खबर तुम्हारे पास है... मेरा दिल कह रहा है... कुछ ना कुछ हुआ ज़रूर है... पर तुमने मुझे बताया नहीं है... आज तो मैं जान कर ही रहूँगी.. समझे...
तापस - (दबी आवाज में) मर गए...
प्रतिभा - ऐसे कैसे... यम राज आयेंगे तो... सामने खड़ी हो जाऊँगी...
तापस - तुमने सुन लिया क्या...
प्रतिभा - हाँ... और आप भी सुन लीजिए... आज प्रताप की भी खैर नहीं है... तुम बाप बेटे मिलकर क्या गुल खिलाए हैं... यह जान कर ही रहूँगी... (तापस उठ कर जाने की कोशिश करता है) बैठिए... कहाँ जा रहे हैं...
तापस - (बैठ जाता है) मैं वह... लेनिन कहाँ गया... यह देखने जा रहा था...
प्रतिभा - वह आ जाएगा... ह्म्म्म्म... पहले यह बताइए... क्या कहा आपने.. उम्र के हिसाब से... जरूरतें... कुछ ऐसा ही कहा ना आपने...
तापस - अरे जान... तुम क्यूँ अपना बीपी बढ़ा रही हो... बेकार में... तुम्हारे गुस्से का शिकार बन गया... बेचारा लेनिन...
प्रतिभा - अच्छा... क्या ऐसा कर दिया मैंने...
तापस - अरे जरा सोचो... कितना बढ़िया अरेंजमेंट किया है... एक प्राइवेट हास्पिटल में... तुम्हें एक वीआईपी कमरे में रखा है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और... मुझे मेल नर्स के रुप में... हॉस्पिटल में... रखवा दिया है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और क्या...
प्रतिभा - मैं आज आपके चिकनी चुपड़ी बातों में आने वाली नहीं... समझे... आज एक एक करके सबकी खबर लूँगी... अभी आपको लेनिन बेचारा लग रहा है ना... प्रताप से फोन पर बात हो जाने दीजिए... फिर बेचारों की फ़ेहरिस्त में आप भी नजर आओगे...
तापस - (बड़बड़ाते हुए) जो पहले से ही बेचारा हो... वह क्या नजर आएगा...
प्रतिभा - हो गया...
तापस - क्या... तुमको यह भी सुनाई दिया...

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नागेंद्र को रुप बाउल से कुछ तरल चम्मच से खिला रही थी l कमरे में दोनों के सिवा कोई है नहीं l नागेंद्र गुस्से में था, आनाकानी के बावजूद रुप के हाथों से खाना खा रहा था l नागेंद्र का खाना पूरा हो जाता है l रुप उसके मुहँ को गिले टावल से साफ करने लगती है l उसी वक़्त रूप कि फोन वाइब्रेट होने लगती है और मोबाइल की स्क्रीन चमकने लगती है l नागेंद्र हैरान हो कर रुप को देखता है l रुप मोबाइल निकाल कर देखती है, स्क्रीन पर बेवक़ूफ़ डिस्प्ले हो रहा था l नाम देख कर रुप की होंठों पर मुस्कान बिखर जाती है l मुस्कराते हुए नागेंद्र से कहती है

रुप - आपके दामाद जी का फोन है... (कॉल उठा कर, दबी आवाज में) हैलो...
विश्व - आप कहाँ हैं...
रुप - दादाजी को खाना खिला चुकी हूँ... उन्हें सुला कर... आपसे बात करती हूँ...
विश्व - नहीं... आप जल्दी अपने कमरे में आइये... मैं आपका इंतजार कर रहा हूँ...
रुप - क्या.. आप महल में हैं...
विश्व - हाँ...
रुप - (थोड़ी घबराहट के साथ) कैसे.. क्यूँ... राजा साहब के होते हुए...
विश्व - ससुरा नहीं है... रंग महल गया हुआ है... इसीलिए तो... आया हूँ...
रुप - अच्छा... आ रही हूँ...

रुप फोन काट कर नागेंद्र की तरफ देखती है l नागेंद्र हैरत से आँखे चौड़ी कर देख रहा था l रुप भी उसे देख कर शर्माने की नाटक करते हुए चिढ़ाते हुए l

रुप - यह फोन उन्होंने ही दिया था... वह सेबती है ना... उसके हाथों... ताकि मुझे कभी अकेलापन महसूस ना हो... अब वह मेरे कमरे में आ गए हैं... वह क्या है ना... महल में पहरेदारी अब सात दिन से ना कि बराबर हो गया है... और ऊपर से राजा साहब रंग महल गए हैं... अब मैं उन्हें समझा बुझा कर.. भेज कर... वापस आपके पास आती हूँ... आप तब तक... लेट कर आराम कीजिए... ह्म्म्म्म...

नागेंद्र को जितना गुस्सा आ रहा था उतना ही लाचार और बेबस था l शरीर के कुछ ही हिस्से में जान थी पर मुहँ के साथ साथ हाथ पैर भी उसके लकवा ग्रस्त था l अपनी गुस्सा जताने के लिए लंबी लंबी साँसे ले रहा था l रुप मुस्कराते हुए नागेंद्र को देख कर उसे उसी हालत में छोड़ कर कमरे से बाहर निकलती है l बाहर दो नौकर थे उन्हें कमरे के बाहर ठहरने के लिए कह कर अंतर्महल की ओर चली जाती है l

कमरे में पहुँच कर देखती है बेड पर विश्व हेड रेस्ट पर अपना सिर टिका कर बैठा हुआ था l रुप थोड़ी एटिट्यूड के साथ विश्व से कहती है

रुप - क्या हुआ... आप इस वक़्त... यहाँ... इरादा क्या है..
विश्व - यह आप मुझे... आप आप क्यों कह रही हैं...
रुप - वह इसलिए... की अब आप... हमारे पति परमेश्वर जो हैं...
विश्व - मैंने पहले ही आपसे कहा था... आप मेरे लिए... हमेशा राजकुमारी रहेंगीं... और मैं आपका गुलाम... अनाम...
रुप - हाँ तब तक... जब तक... राजकुमारी... रुप नंदनी सिंह क्षेत्रपाल थीं... अब वह एक... मामूली एडवोकेट को पत्नी... मिसेज़... रुप नंदिनी महापात्र है... और हाँ... वह एक सच्ची भारतीय गृहिणी है...
विश्व - ओ अच्छा... पर मुझे आपसे... आप सुनना बड़ा अजीब लग रहा है...
रुप - तो आदत डाल लीजिए... चाहे आगे चल कर... आप हमें आप कहें या ना कहें... हम तो आपको आप ही कहेंगे... वैसे आपने बताया नहीं... आप यहाँ आए किस लिए...
विश्व - (सीधा हो कर बेड पर पालथी मार कर बैठ जाता है) बतायेंगे बतायेंगे... जरा पास तो आइये... आप ही का बेड है... हमारे पास बैठिए तो सही...
रुप - अच्छा... मुझे अभी मालूम पड़ा... वह भी आपसे कि यह बेड मेरा है...

विश्व मुस्करा देता है और रुप की ओर देखने लगता है l रुप मुहँ पर शरारती पाउट बना कर विश्व से कहती है l

रुप - अगर वह बात सोच रहे हो... तो भूल जाओ... हाथ भी लगाने नहीं दूंगी...
विश्व - क्यूँ भई... हक बनता है हमारा... आखिर पति परमेश्वर जो हैं आपके... वैसे भी... शिकायत रहती है आपको मुझसे... की मैं... डरपोक हूँ... फट्टु हूँ...
रुप - तो... प्यार में हमेशा... मर्जी तो हमारी ही रहेगी... वैसे भी... आप ही ने कहा था... छत वाली आखिरी मुलाकात पे... अगली बार जब आयेंगे... मुझे ले जायेंगे...
विश्व - आप अभी कहिये... ले चलते हैं...
रुप - नहीं... अगर ले जाने आए हैं... तो अभी नहीं... जब तक केस निपट नहीं जाती... तब तक तो नहीं... हाँ अगर इस बीच दादाजी को कुछ हो गया तो...
विश्व - उन्हें कुछ नहीं होगा... वह जिंदा इसलिए हैं... ताकि मुझे राजा साहब के कदमों पर घुटनों के बल गिरा देख सकें... बड़ी सख्त जान है उनकी...
रुप - वैसे इस वक़्त... आप क्यूँ आए हैं... वह भी शाम को... राजा साहब अगर आ गए तो...
विश्व - तो आपके कमरे में तो सीधा नहीं आयेंगे ना... वैसे भी... माँ... मुझसे बात करना चाहती थीं...
रुप - (भाग कर आती है और विश्व के सामने बैठ जाती है) ऊइ माँ... हमने इतना बड़ा कांड कर दिया... और उन्हें खबर तक नहीं की...
विश्व - आप जानती हैं... क्यूँ... वह रूठीं हुईं हैं... हम दोनों मिलकर मनाएंगे और माफी भी मांग लेंगे...

इतना कह कर विश्व अपना मोबाइल निकालता है और एक नंबर पर विडियो कॉल करता है l थोड़ी देर बाद स्क्रीन पर प्रतिभा दिखती है पर ज़वाब में वह कुछ नहीं कहती l

विश्व - कैसी हो माँ...
प्रतिभा -(रूखी आवाज में) मरी तो नहीं हूँ...
विश्व - माँ प्लीज... ऐसी बातेँ मत करो... तुम जानती हो... मैं क्यूँ तुम्हें लेनिन के साथ भेज दिया था...
प्रतिभा - हाँ पता है... पर... सत्रह दिन हो गए हैं... मुझे कुछ भी पता नहीं चल रहा है... तेरा यह दोस्त लेनिन... ऐसी ऐसी जगहों पर घुमा रहा है... जहां मोबाइल की टावर भी नहीं है... इसलिए वैदेही से भी बात नहीं हो पा रही है...
विश्व - माँ... देखते देखते जब सत्रह दिन बीत गए... तो और बीस पच्चीस दिन भी बीत ही जायेंगे... बस इतनी सी बात के लिए... तुम अपनी जान पर ले आई...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा मुझे... मर नहीं सकती मैं... (नर्म और प्यार से) मुझे तो... पोते पोतीयों के साथ खेलना है... कितना कुछ करना है... (एक पॉज) तु कैसा है...
विश्व - अच्छा हूँ... तुम्हारा आशीर्वाद है... बस कुछ ऐसा हो रहा है... जो मेरे बस से बाहर था...
प्रतिभा - क्यूँ... तेरा केस तो मजबूत है ना...
विश्व - पर उसके लिए केस की सुनवाई शुरु भी तो होनी चाहिए... राजा साहब ने... अपनी चाल चल दी... वैसे मुझे कोई शिकायत नहीं है... क्यूँकी ऐसा तुमने चाहा था...
प्रतिभा - क्या मतलब मैंने चाहा था... मैंने चाहा था... तु केस जीत जाए बस...
विश्व - और तुमने यह भी कहा था... जब मैं कटक लौटुं... तो तुम्हरी बहु के साथ ही लौटुं...
प्रतिभा - तो इससे... इस केस का क्या संबंध...
विश्व - यह आप अपनी बहु से पूछिये...

कह कर विश्व रुप की ओर मोबाइल का रुख कर देता है l रुप घबरा कर प्रतिभा को झिझकते हुए नमस्ते करती है l

प्रतिभा - अरे नंदिनी... तुम... मतलब... प्रताप अभी तुम्हारे साथ... महल में है क्या...
रुप - (मुस्कराने को कोशिश करते हुए) जी... जी.. माँ जी...
प्रतिभा - एक मिनट... प्रताप महल में तुम्हारे साथ... और यह कह रहा है... राजा साहब अपनी चाल चल दी... क्या माजरा है...
रुप - माँ जी... आप ठंडे दिमाग से... मेरी पूरी बात सुनिए..

रुप कहना शुरु करती है, कैसे केके से मुलाकात के बाद उसे मालूम हुआ कि उसकी शादी भैरव सिंह ने केके से तय कर दी थी l कैसे भैरव सिंह ने किस किस को शादी का न्योता दिया था l कैसे और किस तरह से उसके दोस्तों को राजगड़ लाया गया था l रुप कैसे विक्रम तक खबर पहुँचाई और उसकी शादी हो गई l जिसको आधार बना कर भैरव सिंह ने केस की सुनवाई को सात दिन के लिए टाल पाने में कामयाब हो पाया l सारी बातेँ सुनने के बाद

प्रतिभा - इतना कुछ हो गया... और तुम दोनों अभी बता रहे हो...
रुप - आपसे कॉन्टैक्ट करना मुश्किल था... और हमारे पास वक़्त ही नहीं था...
विश्व - हाँ... और यह सब आपके वज़ह से हुआ...
प्रतिभा - मेरी वज़ह से कैसे...
विश्व - आप ही ने कहा था.. मैं कटक आपके बहु के साथ लौटुं... आपके मुहँ से जैसे ही निकला... भगवान ने तथास्तु कर दिया... इसलिए इतना कुछ हो गया...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) ठीक है... मैं समझ गई... (तापस की ओर देख कर) क्या तेरे डैड को खबर थी...
तापस - अरे भाग्यवान कैसा सवाल कर रही हो...
प्रतिभा - आप चुप रहिए... (विश्व से) देख सच सच बताना...
विश्व - (झिझकते हुए) हाँ... हाँ..
प्रतिभा - देख प्रताप... तूने मुझे खबर क्यूँ नहीं की... मैं समझ गई... तुझे लगा होगा... तेरी माँ कमजोर दिल की है... पर तुने यह कैसे सोच लिया... तेरी माँ का दिल ही नहीं है...
विश्व - (शर्मिंदा होते हुए) स.. सॉरी माँ...
प्रतिभा - खैर जो भी हुआ... मुझे खुशी है... पर तुम दोनों... दुसरी बार शादी के लिए तैयार रहना... यहाँ तुम दोनों की... फिर से... धूम धाम से शादी होगी... (तापस से) क्यूँ जी...
तापस - हाँ हाँ क्यूँ नहीं...
विश्व - जैसा तुम ठीक समझो माँ...
प्रतिभा - अच्छा अब तु हट... मुझे अब बहु से बात करने दे... (विश्व मोबाइल को रुप की हाथ में दे देता है) हाँ तो बहु रानी... तुम्हारे कमरे में... यह ऐसे ही चला आता है...
रुप - (शर्मा कर अपना सिर हिलाती है)
प्रतिभा - कहीं तुम दोनों ने... सुहाग रात तो नहीं मना लिया...
रुप - (चौंक जाती है) नहीं... नहीं माँ जी... नहीं...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अच्छी बात है... वैसे क्यूँ नहीं मनाया...
रुप - आपकी आशीर्वाद नहीं था... इसलिए...
प्रतिभा - इसलिए... या मौका नहीं मिल पाया... इसलिए...
तापस - यह क्या भाग्यवान... बहु से कैसी बातेँ कर रही हो...
प्रतिभा - आप तो चुप ही रहिए... (रुप से) ऐ... मैंने कुछ पूछा तुम से...
रुप - बात मौके की नहीं है माँ जी... सुहाग रात ससुराल में होती है... मैं अभी तक मैके में हूँ...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) अच्छा विचार है... चलो... कोई तो काम हमारे हिस्से छोड़ा तुम दोनों ने...
विश्व - माँ... अब तो कोई शिकायत नहीं है ना तुम्हें...
प्रतिभा - है... अभी भी है... पर तुम दोनों को एक साथ देख कर सब भूल गई... (तभी फोन पर सीलु का नाम डिस्प्ले होने लगता है)
विश्व - अच्छा माँ... अपना खयाल रखना... सीलु कॉल कर रहा है... लगता है... ससुरा वापस आ रहा है... मुझे जाना होगा...
प्रतिभा - ठीक है बेटा... पर ध्यान रहे... जैसे अपने डैड को हर बात शेयर कर रहा है... मुझसे भी करते रहना...
विश्व - जी.. माँ..
प्रतिभा - लव यू... कुडोस...
दोनों - लव यू मॉम...

फोन कट जाता है l सीलु बार बार कॉल लगा रहा था l विश्व कॉल उठाता है l उसके बाद रुप को देखता है और कॉल काट कर दरवाज़े के पास जाता है और मुड़ कर रुप से कहता है

विश्व - अच्छा... तो हम चलते हैं...
रुप - फिर कब मिलोगे...
विश्व - जब आप कहोगे...
रुप - अच्छा तो अब आप जाइए...
विश्व - क्या... रूखा सूखा...
रुप - (बेड से उतर कर विश्व के पास जाती है) तो जनाब को... क्या चाहिए...
विश्व - भई शादी किए हैं... कम से कम... मुहँ तो मीठा कर ही सकती हैं...
रुप - (इतराते हुए) आज आपके इरादे नेक नहीं लग रहे हैं... कहीं... कोई... हरकत कर दी... तो...
विश्व - इरादा तो केवल मुहँ मीठा करने का है... अब हाथों का क्या... भई हाथ हैं... हरकत तो करेंगे ही...
रुप - (विश्व की गिरेबान पकड़ कर खिंच कर दीवार से सटा देती है) आप शायद भूल रहे हैं... मैं बहुत खतरनाक हूँ...
विश्व - (रुप के हाथों को पकड़ कर पलट जाता है, अब रुप पीठ के बल दीवार से सटी हुई थी और विश्व का चेहरा रुप के चेहरे के पास था) हमें सब याद है... पर आप यह भूल रहीं हैं... मैं बिल्कुल भी खतरनाक नहीं हूँ...

शर्म से रुप के गाल लाल हो जाते हैं, अनिच्छा से अपनी हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है l विश्व हाथ छोड़ देता है पर दोनों हाथ दीवारों से लगा कर बीच में रुप को रोक देता है और l विश्व और रुप एक दुसरे की आँखों में झाँक रहे थे l एक दुसरे की साँसे टकरा रहे थे l दोनों की साँसों में धीरे धीरे तेजी आने लगती है l रुप की आँखों में मदहोशी साफ झलक रही थी l अपने निचले होंठ को दांत से हल्का दबा लेती है l मुस्कराते हुए आँखे बंद कर अपनी होंठ को खोल कर विश्व की तरफ आगे बढ़ा देती है l रुप के होठों पर विश्व की गर्म साँसों को महसूस होती है l रुप की बदन एक सर्द भरी आह के साथ कप कपा जाती है l पर कुछ देर के बाद भी कुछ नहीं होता l हैरानी के मारे अपनी आँखे धीरे से खोलती है l विश्व नहीं था, गायब हो चुका था l रुप अपनी दांत भिंच लेती है, चिढ़ जाती है और बड़बड़ाने लगती है

रुप - बेवक़ूफ़... फट्टु.. स्टुपिड... अगली बार देखना... काट खाऊँगी...


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एक हाथ में एक शराब का बोतल और दूसरे हाथ में दो ग्लास लिए भैरव सिंह नागेंद्र के कमरे में आता है l कमरे के भीतर दो नौकर दरवाजे के पास खड़े थे l भैरव सिंह उन्हें देखता है और नागेंद्र सिंह को देखता है l जो आँखे मूँदे अपनी बिस्तर पर लेटा हुआ था l भैरव सिंह उन नौकरों से पूछता है

भैरव सिंह - बड़े राजा जी का खाना हो गया...
एक नौकर - कुछ देर पहले... राजकुमारी जी ने शाम का खाना खिला दिया था...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म... ठीक है... तुम दोनों जाओ यहाँ से... मतलब इस कमरे से दूर... हम थोड़ी देर... बड़े राजाजी के साथ बैठेंगे...
दुसरा नौकर - दूर मतलब... कहाँ राजा साहब...

भैरव सिंह का चेहरा सख्त हो जाता है l मुड़ कर उस नौकर की ओर देखता है l नौकर का पसीना छूट जाता है l

भैरव सिंह - जाओ... उतना ही दूर जहां तुम्हें... कॉलिंग बेल सुनाई दे...
दोनों - जी राजा साहब... हम समझ गए...
भैरव सिंह - अब दफा हो जाओ यहाँ से...

दोनों नौकर बाहर निकल जाते हैं l उनके जाते ही भैरव सिंह एक टेबल खिंचते हुए बेड के पास लता है l उस पर शराब की बोतल और दो ग्लास रख देता है l भैरव सिंह नागेंद्र की ओर देखता है, नागेंद्र की आँखे खुल चुकी थी l

भैरव सिंह - आपकी नींद में खलल पड़ी, उसके लिए हमें माफी चाहते हैं...

भैरव सिंह बेड की हैंडल को घुमाता है l बेड का सिरा थोड़ा ऊपर उठ जाता है l ऐसा लगता है जैसे नागेंद्र पैर फैला कर बेड पर पीठ के बल बैठा हुआ है l भैरव सिंह बोतल की ढक्कन खोल कर दोनों ग्लास में शराब उड़ेलता है l फिर एक ग्लास लेकर नागेंद्र के पास बैठता है और

भैरव सिंह - ना जाने कब आखरी बार... मिलकर पिया था... आज आपके साथ... हम पीना चाहते हैं...

हैरानी के साथ नागेंद्र भैरव सिंह को देखता है l भैरव सिंह ग्लास को नागेंद्र के होठों पर लगा देता है और अपना ग्लास उठा कर नागेंद्र से कहता है

भैरव सिंह - चियर्स बड़े राजा जी...

भैरव सिंह अपना ग्लास खाली कर देता है फिर नागेंद्र के मुहँ में थोड़ा डाल देता है l नागेंद्र वह शराब का घूंट गटक लेता है l फिर शराब की ग्लास को नीचे रख कर

भैरव सिंह - जो हुकूमत की डोर विरासत में मिला था... हम उसे कायम रखने में.. नाकाम रहे... इन कुछ दिनों में... हालात ने... हमें क्या कुछ नहीं दिखाया... (उठ का कमरे में चहल कदमी करते हुए) महल के दर के अंदर कभी पुलिस आ नहीं पा रही थी... आती भी तो जुते बाहर खोल कर आते थे... (नागेंद्र को देखते हुए) आज आलम यह है कि... दो टके का पुलिस ऑफिसर... महल में... अपने लोगों के साथ घुस आता है... वह भी जुते पहन कर... (फ़िर से चहल कदमी करते हुए) गाँव वाले... कभी नजरें उठा कर इस महल की तरफ़ देखना तो दूर... अगर आ जाते थे... तो उल्टे पाँव लौट जाते थे... पर... पहली बार ऐसा हुआ... के हमें पीठ दिखा कर... गाँव वाले लौटे... और आज तो हद हो गई... हमारे नाम के साये में... महल के लोगों से डरने वाले... आज.. महल के लोगों पर... लाठी डंडे चाला दिए... (फिर रुक जाता है और नागेंद्र के तरफ देखते हुए) यह सब हमारी ही गलती है... गलती शायद बहुत छोटा शब्द है... अपराध हो गया है हमसे... (पास आता है और नागेंद्र के सामने बैठकर) हमनें जिसे... चींटी समझा... आज वह बाज बन गया है... जिसकी अहमियत दीवारों पर रेंगने वाली छिपकली से ज्यादा नहीं थी... आज वह मगरमच्छ बन गया है... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... विश्वा के बारे में बात कर रहे हैं... (अब फिर से शराब को ग्लास में डालता है और एक घूंट पहले नागेंद्र को पिलाता है फिर खुद अपना ग्लास ख़तम कर देता है, फिर नागेंद्र को देख कर) हमनें... गलतियाँ बहुत की है... अपनी खानदानी गुरुर के चलते... वैदेही को जिंदा रहने दिया... विश्व को जिंदा छोड़ दिया... यही दोनों... अब हमें... हमारा दुर्दिन दिखा रहे हैं... (एक गहरी साँस छोड़ते हुए) वर्ना किसी पुलिस वाले की औकात कहाँ हो सकती थी... के हमें हमारी ही महल में नजर बंद कर सके... किसी अदालत में कहाँ जुर्रत थी... के हमें कठघरे में खड़ा कर सके... पर यह सब हुआ... हमारे साथ हुआ... (अपनी जगह से उठ कर खिड़की के पास जाता है और बाहर की ओर देख कर) हम जानते हैं... आपने अपनी मौत को रोके रखा है... क्यूँकी आपको उस जलील... हराम खोर विश्व का अंत देखना है... हमने भी आपको इस बात का वादा किया है... पर उस वादे ने.. हमसे बहुत बड़ी कीमत ली है... हम हर जलालत को झेलते रहे... के ठीक है... राजगड़ के लोग... अभी भी हमसे खौफ खा रहे हैं... विश्व चाहे कितना भी बरगला ले... गाँव वाले हमारे खिलाफ जा नहीं सकते... (नागेंद्र के तरफ़ मुड़ कर) पर आज यह भरम भी टुट गया... आज गाँव वाले... हमारे लोगों पर लाठी चला कर... हमें हमारे आने वाले कल का... ऐलान कर दिया... अभी भी अगर हम खामोश रहे... तो यह क्षेत्रपाल की नाकारा पन होगा... नपुंसकता होगी... (नागेंद्र के पास बैठ जाता है) एक बात हमेशा से कही जाती है... इतिहास खुद को दोहराता है... हाँ बड़े राजा जी... अब इतिहास खुद को दोहराएगा... जो इतिहास सौरभ सिंह क्षेत्रपाल ने रचा था... पाईकरॉय परिवार के खिलाफ... अब वही इतिहास... राजगड़ के हर एक परिवार के खिलाफ दोहराया जाएगा... जिससे ऐसा भूगोल का रचना होगा... के आइंदा कोई माईकालाल फिर कभी... महल की तरफ़ आँख उठा कर नहीं देखेगा... फिर कभी कोई ख़ाकी वर्दी वाला इस महल की चौखट पर नहीं आएगा... फिर कभी किसी क्षेत्रपाल को... अदालत में पेश करने की... सपने में भी नहीं सोच पाएगा... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... इस बार सभी ने... अपना अपना लक्ष्मण रेखा लांघ लिया... अब हर कोई... अपनी अपनी अमर्यादा के लिए... कीमत चुकाएंगे... आप सोच रहे होंगे... यह सब... कैसे होगा... हा हा... हा हा हा हा हा... हाँ मैंने अपनी चालें चल दी है... एक बहुत बड़ी प्राइवेट आर्मी को मैंने हायर किया है... क्यूँकी ना सिर्फ लोग... बल्कि सिस्टम में रह कर भी... जिन्होंने सिस्टम के जरिए... हमें यह दिन दिखाए हैं... हर एक जान को... हम सजा देंगे... मर्सीनरीज बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं... उनके पहुँचने के बाद... सिर्फ खून खराबा होगा... सिर्फ खून खराबा... कुछ इतिहास दफन हो जाएंगे... कुछ किवदंती जन्म लेंगे.... इसलिए आज आपके पास... आपका आशीर्वाद लेने आए हैं... (नागेंद्र की आँखे बड़ी हो जाती है) हाँ आपको हैरानी हो रही है... यह सिर जो कभी किसी के आगे नहीं झुकता... आज कैसे आपके आगे झुक गया... वह इसलिए... के पूरी दुनिया में.... एक आप ही हैं... जो मेरे साथ हैं... और रिश्ते में... मेरे पिता भी हैं...

भैरव सिंह नागेंद्र के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सिर पर रख लेता है और और कुछ देर बाद नागेंद्र का हाथ छोड़ देता है और जब अपना सिर उठाता है नागेंद्र को उसकी आँखों में एक शैतानी चमक दिखती है l वह चमक इतनी तेज थी के नागेंद्र के चेहरे पर डर साफ नजर आने लगती है l

Behad shandar update he Kala Nag Bhai,

Ab bhairav singh apna behad krur rup dikhayega.......private army ke through vo Rajgarh me tabahi machayega.....

Vishwa ki ab asli priksha shuru hogi........kaise vo apne parivar, dosto aur Rajgarh ki janta ko bahirav singh ki private army se bachayega, ye dekhne wali baat hogi

Keep rocking Bro
 

parkas

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उमाकांत सर जी का घर
सुबह धूप खिल चुका है, विश्व और उसके चारों दोस्त घर में नहीं हैं l सत्तू नहा धो कर अपना पूजा पाठ ख़तम करता है और कपड़े बदल कर लाइब्रेरी वाले कमरे में आता है l अंदर एक शख्स को देख कर ना सिर्फ वह चौंकता है बल्कि उसके कदम ठिठक जाते हैं l वह विक्रम था जो एक कुर्सी पर बैठा किसी गहरी सोच में खोया हुआ था l जैसे ही वह सत्तू को देखता है हड़बड़ा कर कुर्सी से उठता है और एक झिझक के साथ अपना सिर झुका कर खड़ा होता है l

सत्तू - युवराज... आ प...
विक्रम - हाँ... (कुछ पल की चुप्पी के बाद) क्या... क्या मैं... तुमसे बात कर सकता हूँ...
सत्तू - जी... कहिए..
विक्रम - (झिझक और बैचेनी के साथ सत्तू के पास आता है) सत्तू... सबसे पहले... मैं तुम्हें थैंक्यू कहना चाहता हूँ... अगर तुम ना होते... तो मेरी बहन की राखी का लाज ना रख पाया होता...
सत्तू - कोई बात नहीं युवराज जी...
विक्रम - सत्तू... मैं... वह मैं
सत्तू - कहिए युवराज...
विक्रम - (संजीदा हो कर) सत्तू... मैं.. तुम्हारा... गुनाहगार हूँ... (कहकर अपनी जेब से एक खंजर निकालता है और सत्तू के हाथ में थमा देता है, सत्तू उसे हैरानी से देखता है ) तुम्हें... बदला लेना था ना... यह लो... तुम्हारा गुनाहगार तुम्हारे सामने है... मार डालो...

सत्तू एक पल के लिए खंजर को हाथ में लेकर देखता है फिर विक्रम को देखता है l फिर विक्रम के हाथ में खंजर रख देता है l

सत्तू - युवराज जी... किस्मत ने मुझे इस लायक ना छोड़ा... के किसीसे वफा निभा सकूँ... और खुद को इस लायक नहीं बना पाया... के... किसी से बदला ले सकूँ... ऐसा नाकारा... क्या किसी से बदला लेगा...
विक्रम - ऐसा ना कहो सत्तू... अभी तुम्हारे सामने भले ही खड़ा हुआ हूँ... पर... सच यह है कि.... की मैं अपनी नजरों में अभी गिरा हुआ हूँ...
सत्तू - मेरी शिकायत और नफरत जिससे थीं... आज वह अपनी लाचारी और बेबसी में घिरा हुआ है... जो कभी वक़्त को मुट्ठी में कर... खुद अपनी ही नहीं... दूसरों की किस्मत लिखने का दावा भर रहा था.... आज वह खुद वक़्त की ठोकर में पड़ा हुआ है... यह वक़्त बहुत जालीम है युवराज...
विक्रम - तुम... तुम किसकी बात कर रहे हो...
सत्तू - (हँसता है) मैं राजा भैरव सिंह की बात कर रहा हूँ... जिसने कभी भी... क्या वक़्त... क्या जिंदगी... किसी की ना परवाह किया... ना कदर... वक़्त बढ़कर कोई नहीं होता युवराज जी... आज वक़्त ने उसी राजा को छोड़ दिया है...
विक्रम - तुम्हारे साथ वक़्त ने क्या न्याय किया है सत्तू...
सत्तू - वक़्त कभी किसीके साथ न्याय नहीं करता.. वक़्त उसका साथ देता है... जो उसकी कदर करता है... और उसे छोड़ देता है जो उसकी बेकद्री करता है... मैंने भी कभी वक़्त की बेकद्री की थी... वक़्त ने मेरे साथ वही किया... आज जब जिंदगी का फलसफा समझ में आ गया.. मैंने वक़्त के साथ चलने और साथ देने का फैसला किया युवराज...
विक्रम - यह... यह तुम मुझे बार बार... युवराज मत कहो... मेरे दिल को ही नहीं... मेरे वज़ूद को चोट पहुँचा रही है...
सत्तू - (चुप रहता है और गौर से विक्रम को देखने लगता है l विक्रम को सत्तू की वह नजर असहज करने लगता है इसलिये विक्रम दूसरी तरफ जा कर एक कुर्सी पर बैठ जाता है)
विक्रम - (सत्तू से नजर मिलाने से कतराते हुए) तुमने कौनसी वक़्त की बेकद्री की है....
सत्तू - (विक्रम के दूसरी तरफ एक कुर्सी पर बैठ जाता है) मेरी रिश्ता जब... कर बाबु की बेटी से तय हो गई थी... तब विश्व के साथ हो रहे हर अन्याय का मैं... साक्षी रहा हूँ... मेरा मौन समर्थन... अपने ससुर के हर कुकर्म के प्रति... वक़्त के प्रति मेरी बेकद्री थी...
विक्रम - वक़्त ने तुम्हें बहुत जल्द आईना दिखा दिया... जब कि राजा साहब... अभी भी झुके नहीं हैं...
सत्तू - जिसकी कमाई जितनी... उसकी गंवाई भी उतनी है... मेरे हिस्से की... मैंने गंवा दी... राजा जी की तो हालात खराब है... वह अपने साथ अपनी पुरखों की कमाई भी गंवा रहे हैं... युवराज...

विक्रम के पास कहने के लिए कुछ सूझ नहीं रहा था l विक्रम अपनी नजर उठा कर सत्तू को देखता है, सत्तू उसे एक टक देखे ही जा रहा था l

विक्रम - तुम्हारा गुस्सा... तुम्हारा नफरत किसके लिए है सत्तू...
सत्तू - राजा साहब के लिए... पर मेरी खून में ना तो वह उबाल था... ना ही मेरे जज्बातों में.. उतनी गर्मी... जब एहसास हुआ... के राजा साहब के वज़ूद को ललकारना मेरे बस की बात नहीं है.. तब मैंने वैदेही दीदी को देखा... जो डटकर राजा साहब की आदमियों से लोहा ले रही थी... एक दिन मौका पाकर... उनसे बात की... तो उन्होंने ही कहा था... के एक दिन उनका भाई लौटेगा... राजा की महल का... ईंट से ईंट बजा देगा... कोई तो हो... उस महल की दरवाजा अंदर से खोलने के लिए...
विक्रम - तो तब जाकर तुमने... भीमा के जरिए.. महल में घुसने की कोशिश की...
सत्तू - हाँ... युवराज...
विक्रम - (चिढ़ जाता है) यह बार बार मुझे युवराज क्यूँ कह रहे हो...
सत्तू - (चुप रहता है)
विक्रम - (झिझकते हुए) तुम चाहते... तो... विश्व और रुप के बारे में राजा साहब से कह देते... उससे भी तो तुम्हारा बदला... (रुक जाता है)
सत्तू - नहीं युवराज... बदला वह होता है... जो अपनी नाकामी के ज़ख्मों को... दुश्मन के दुश्मन की जीत से... भरता है... विश्व और रुप की प्रेम की जीत में... मेरी जीत है... बदला भी है... और क्या चाहिए युवराज...
विक्रम - ( उठ खड़ा होता है) मैं तुम्हारा गुनाहगार जितना था... हूँ... उतना ही कर्जदार भी रहूँगा... मैं चाहे किसी के भी सामने अपनी नजरें और सीना ताने खड़ा हो जाऊँ... पर तुम्हारे सामने मेरी नजरें हमेशा झुकी हुई रहेगी... जो मुझे मेरे किए उस गुनाह को याद दिलाता रहेगा... जो मैंने जान बुझ कर या होशोंहवास में नहीं किया था... पर गुनाह हुआ था... जिसकी भरपाई वक़्त ने की है... मैंने अपने भाई को खो दिया... मैंने उस पहचान को छोड़ दिया... जिसके बदौलत यह सब हुआ... आज मैं एक आम राजगड़ वासी हूँ... मैं फिर से पूछ रहा हूँ... क्या तुम कभी भी... मुझे माफ कर पाओगे...
सत्तू - (कुछ पल के लिए चुप हो जाता है) नहीं... नहीं युवराज... आप महान हो... सच्चाई के लिए... अपनों को छोड़ किसी आम के लिए खड़े हो गए... आपका कद अब बहुत बड़ा हो गया है... आपके आगे मेरा कद बहुत छोटा है... आप मुझसे कुछ मांगीए मत... आप झुक तो सकते हैं... पर मैं ऊपर उठ नहीं सकता... हम सब एक अनचाहे लड़ाई का अब हिस्सा हैं... अपने अपने किरदार में हैं... इस लड़ाई का अंजाम सिर्फ और सिर जीत ही होनी चाहिए... यह जीत मेरे भीतर की हीन भावना... आपके भीतर की युवराज को ख़तम कर देगी... तब हम सब एक होंगे...
विक्रम - देखो सत्तू... इतनी बड़ी बड़ी बातेँ मेरी समझ से परे हैं... मैंने तुमसे एक सीधा सा सवाल किया है... तुम उसका सीधा सा जवाब क्यूँ नहीं दे रहे...
सत्तू - जिंदगी छोटी है युवराज... पर तजुर्बे बहुत दिए... आप और मैं एक ही कश्ती में सवार क्यूँ हैं... क्यूँकी हम सब ने कुछ न कुछ खोया है... कोई ज्यादा... कोई कम... हम सबको ज़ख्म मिला है... दर्द किसीका ज्यादा है... किसी का कम... पर सामने तूफान है... हम सब अपनी अपनी भूमिका को लिए... इस कश्ती को किनारे पर पहुँचाना है... उसी वक़्त जब हम किनारे पर होंगे... ना आपके दिल में कोई गिला होगा... ना मेरे दिल में कोई शिकवा... इसलिए... आपका यह सवाल इस वक़्त जायज नहीं है... और सच कहूँ तो मेरे पास इसका जवाब नहीं है... (विक्रम उसे एक टक देखे जा रहा था) युवराज... आप मेरी नज़र में अब भी युवराज हैं... मेरी भावनायें भड़की जरूर थी पर... लाचारी और बेबसी मुझ पर हावी रही... मुझे बदला लेना नहीं आया... ऐसा सिर्फ मेरी हालत नहीं है... इस गाँव के हर एक उस शख्स का है... जो अपनी लाचारी और बेबसी के तले... पुश्तों से झेल रहे सितम के खिलाफ आग को बुझने नहीं दिया है... आज विश्व की लड़ाई में... अपनी लड़ाई देख रहे हैं... एक दिन विश्व के साथ खडे होकर बवंडर बन जाएंगे... उस बवंडर का हम भी हिस्स होंगे... तब जो जीत होगी... वह जीत हम सबकी होगी... आपकी... मेरी... इन गाँव वालों की... वही जीत... हमारी अतीत के ज़ख्मों को हमेशा के लिए भर देगी... बस उस जीत की प्रतीक्षा कीजिए... उस जीत के बाद... आपमे और हम में कोई फर्क़ ना होगा... तब ना आप युवराज होंगे... ना मैं ऐसा...

सत्तू चुप हो जाता है l विक्रम उसे सुन रहा था और सत्तू की कही हर एक शब्द उसे झिंझोड रहा था l विक्रम नजरें उठा कर सत्तू की ओर और देख नहीं पाया l झुके कंधे और थके कदम को उठा कर बाहर निकल जाता है l पीछे सत्तू एक गहरी साँस लेकर अंदर चला जाता है l



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अपनी कार से उतर कर महल की सीडियां चढ़ते हुए बल्लभ दरवाजे पर खड़े भीमा के पास आकर खड़ा होता है l

बल्लभ - राजा साहब कहाँ है भीमा...
भीमा - अपने खास कमरे में... आप ही का इंतजार कर रहे हैं...
बल्लभ - चलो फिर...
भीमा - नहीं वकील बाबु... राजा साहब... खास आपसे बात करना चाहते हैं... हमें... हिदायत दी गई है... जब तक ना बुलाया जाए... तब तक हममें से कोई... अंदर नहीं जाएगा...
बल्लभ - ओ...

बल्लभ और कुछ नहीं कहता है l भीमा को वहीँ छोड़ कर आगे बढ़ता है और रणनीतिक प्रकोष्ठ में दरवाजे पर खड़ा होता है l देखता है दीवार पर लगे टीवी के स्क्रीन पर एक न्यूज क्लिप पॉज हो कर रुक गया है l

बल्लभ - गुस्ताखी माफ राजा साहब... क्या मैं अंदर आ सकता हूँ...
भैरव सिंह - हूँह्ह्हम्म्म्... आओ... प्रधान आओ... (बल्लभ अंदर आता है) (टीवी की ओर इशारा करते हुए) क्या इस लड़की को जानते हो... (बल्लभ टीवी की स्क्रीन पर देखता है, वह सुप्रिया रथ थी)
बल्लभ - जी राजा साहब... यह सुप्रिया रथ है... नभ वाणी न्यूज एजेंसी में... एडिशनल एडिटर है... और...
भैरव सिंह - और...
बल्लभ - प्रवीण रथ की बहन है...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म...

भैरव सिंह चुप हो जाता है, बल्लभ उसे देखता है, भैरव सिंह आँखे मूँद कर बड़े शांत स्वभाव से अपनी हाथ मल रहा था l

बल्लभ - राजा साहब... क्या कुछ गलत हो गया है...
भैरव सिंह - नहीं... बल्कि जो गलत कर रहे हैं... उनके लिए... हम कुछ सोच रहे हैं...
बल्लभ - मैं कुछ समझा नहीं...
भैरव सिंह - हम एक... वाइल्ड लाइफ पर डॉक्यूमेंट्री देख रहे थे... एक शेर बुढ़ा हो गया है... कुछ करने की हालत में नहीं है... तब कुछ कुत्ते उस पर टुट पड़े... (कह कर बल्लभ की ओर देखता है) पर यहाँ शेर बुढ़ा नहीं हुआ है... हाँ पर... शांत बैठा हुआ है... और वह भी अपनी मांद के अंदर... तो कुत्तों ने झुंड बना कर... मांद में घुसने की कोशिश में हैं.... उनके लिए एक अच्छी खबर है... के शेर थोड़ा घायल है... पर वह... जो भूल रहे हैं... शेर जब घायल हो जाता है... तब जंगल में... मौत शिकारी के ऊपर मंडराने लगती है... पर यहाँ शेर... अपनी ही मांद में है... अब उनकी खुशफहमी बहुत जल्द दूर करना होगा...

भैरव सिंह बल्लभ की ओर देखता है l बल्लभ कुछ सोच रहा था l भैरव सिंह बल्लभ से पूछता है

भैरव सिंह - क्या सोचने लगे प्रधान....
बल्लभ - मैं सब समझ रहा हूँ राजा साहब... विश्व अपना कुनबा बढ़ा रहा है... जो खेल हमने उसे फंसाने के लिए खेला था... वही खेल वह हमसे खेल रहा है... हमने तब मीडिया का साथ लिया था... विश्व अब मीडिया को हमारे खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है...
भैरव सिंह - कुछ नया बोलो प्रधान...
बल्लभ - मैं समझा नहीं राजा साहब...
भैरव सिंह - कुछ ऐसा... जो हमारी जेहन से छूट गया हो...
बल्लभ - (कुछ कहने को होता है पर चुप हो जाता है)
भैरव सिंह - कुछ कहते कहते रुक क्यूँ गए प्रधान...
बल्लभ - राजा साहब... मुझे लगा... और दो दिन बाद... हमें... कोर्ट के सामने पेश होना है... तो उसके लिए हमारी क्या तैयारी है... या करनी है... आप उस पर बात करना चाह रहे हैं...
भैरव सिंह - (बल्लभ के पास आता है और उसके आँखों में आँखे डाल कर पूछता है) तुम्हें क्या लगता है प्रधान... क्या मैं पागल हो गया हूँ...
बल्लभ - (सकपका जाता है)
भैरव सिंह - चौंको मत... कभी कभी इस हम को ढोते ढोते... थक जाता हूँ... इसलिए हम को छोड़ कर... मैं को बाहर लाया हूँ... अब बोलो... क्या मैं तुम्हें पागल लगता हूँ...
बल्लभ - (हकलाते हुए) न.. नह.. नहीं.. र.. रा.. राजा साहब... मैं ऐसा सोच... भी.. नहीं सकता...
भैरव सिंह - अगर मैं पागल नहीं हूँ... तो क्या मैं... बेवकूफ़ी कर रहा हूँ... क्या लगता है तुम्हें...
बल्लभ - आई एम सॉरी... राजा साहब... मैं बाद में आता हूँ...
भैरव सिंह - हँसते हुए) हा हा हा हा... डर गए... (अचानक सीरियस हो कर) हाँ डरना चाहिए... तुम्हें ही नहीं... मुझसे जुड़े हर एक शख्स को... मेरे बारे में जानने वाले हर एक शख्स को... डरना चाहिए... फिर... (कुछ देर के लिए एक पॉज लेता है) फिर क्यूँ... कुछ लोग मुझसे डरना छोड़ रहे हैं... और उनका कुनबा बढ़ता ही जा रहा है...
बल्लभ - ऐसा नहीं है राजा साहब... अगर विश्वा आप से डर ना रहा होता... तो सेनापति दंपति को छुपाता क्यूँ...
भैरव सिंह - मेरा मन मत बहलाओ प्रधान... मत बहलाओ... यह डर... जिसकी धार पर... हम आजादी के बाद भी... शाशन में दखल रखा करते थे... वह डर जिसकी जागीर... हमने विरासत में... विरासत में पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल की... वही डर की जागीर... अब किसी रेत की तरह... मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है... (एक पॉज) है ना...
बल्लभ - नहीं... राजा साहब... यह सच नहीं है...
भैरव सिंह - मेरे परदादा... सौरभ सिंह क्षेत्रपाल... इस डर की जागीर... लंबोदर पाइकरॉय परिवार को तबाह व बर्बाद कर... कायम की थी... जिसे पुस्तैनी विरासत को तरह... मुझ तक... जिम्मेदारी आई.... पर... मेरे आगे की पीढ़ी... मुझसे ही तौबा कर ली है... और मुझसे... अब यह जागीर छूटने लगा है... (चुप हो जाता है)
बल्लभ - राजा साहब...
भैरव सिंह - नहीं प्रधान नहीं... मैं मायूस या निरास नहीं हूँ... बल्कि... मैं अब संकल्पबद्ध हूँ...
बल्लभ - किस चीज़ के लिए राजा साहब...
भैरव सिंह - सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के दिए... हम की बोझ ढोते ढोते... वह बोझ कहीं फिसल गया है... अब मुझे कुछ ऐसा करना होगा... जिससे मेरी आने वाली पीढ़ी... मेरे दिए हम को ढोएगी....

इतना कह कर भैरव सिंह चुप हो जाता है l बल्लभ भी खामोश हो जाता है l कमरे में इस कदर शांति थी के भैरव सिंह के तेज तेज चलते साँसे बल्लभ को सुनाई दे रही थी l

बल्लभ - (थूक को हलक से उतारते हुए) मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ... आपने... फ्री लांसर मर्सीनरीज को क्यूँ बुलाया है... पर उन्हें आने में अभी भी वक़्त है... पर कोर्ट में तो हमें... दो दिन के बाद पेश होना है....
भैरव सिंह - हाँ... उसके लिए... तुम अपना दिमाग लगाओ... कुछ सिचुएशन बनाओ.... ताकि अदालत हमें कुछ वक़्त दे दे... (बल्लभ खामोश रहता है) क्या सोचने लगे...
बल्लभ - राजकुमारी जी की शादी टुट गई...
भैरव सिंह - गलत... सगाई...
बल्लभ - जी जी... सगाई... पर अब...
भैरव सिंह - कुछ करो... इसीलिये तो तुम हमारे... लीगल एडवाइजर हो...
बल्लभ - ठीक है... मैं कुछ... सोच कर बताता हूँ... क्या मैं अब... आपसे इजाजत ले सकता हूँ...
भैरव सिंह - बेशक...

सुन कर वापस जाने लगता है l दरवाजे पर पहुँच कर मुड़ता है और भैरव सिंह से पूछता है l

बल्लभ - राजा साहब... जाने से पहले... एक बात पूछूं...
भैरव सिंह - (तब तक अपनी कुर्सी पर बैठ चुका था) हाँ... पूछो...
बल्लभ - आप... आप करना क्या चाहते हैं...
भैरव सिंह - इतिहास... तुमने हमेशा एक कहावत सुनी होगी... इतिहास खुद को दोहराता है...
बल्लभ - जी... सुना है...
भैरव सिंह - (मुस्कराते हुए) इस गाँव में... लंबोदर पाइकरॉय की संख्या बढ़ रही है... उन्हें अब सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के इलाज की जरूरत है... राजगड़ ही नहीं... बहुत जल्द पूरा स्टेट वह दौर देखेगा... जो अब तक... किंवदन्तीओं में सुनते आए हैं...

बल्लभ के तन बदन में कप कपी दौड़ जाता l वह अपना सिर झुका कर कमरे से निकल जाता है l

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अगले दिन
वैदेही कनाल के पास आती है, देखती है विक्रम सीढ़ियों पर बैठा बहती पानी की धार को देख रहा था l वैदेही सीढ़ियां उतरकर विक्रम के बगल में बैठ जाती है l विक्रम वैदेही को देखता है और फिर बहती पानी की ओर देखने लगता है l

वैदेही - जानते हो... इस कनाल को मेरे पिता... रघुनाथ महापात्र ने बनाया था...
विक्रम - ओह... तो क्या प्रताप... अपने पिता को याद करने के लिए... यहाँ आता है...
वैदेही - नहीं ऐसी बात नहीं है... वह जब भी... थोड़ा अंदर से अस्तव्यस्त या भ्रम में होता है... या खुद से नाराज होता है... तब वह इसी कनाल के पास आता है... और कभी कभी... महल के पीछे वाली घाट पर जाता है... कभी उगते सूरज को देखता रहता है... तो कभी डूबते सूरज को....
विक्रम - हाँ... मैं भी उससे दो तीन बार... नदी की घाट पर मिला हूँ...
वैदेही - हूँ... वैसे तुम इस वक़्त... यहाँ क्या कर रहे हो...
विक्रम - क्या आप प्रताप को ढूंढने आई थीं...
वैदेही - सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता विक्रम...
विक्रम - हाँ... सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता... पर जिसे ज़वाब की तलाश हो... वह क्या जवाब देगा...
वैदेही - तुम्हें किस सवाल का जवाब तलाश है विक्रम...
विक्रम - पता नहीं... मैं सवाल का जवाब ढूंढ रहा हूँ... या सवालों से भाग रहा हूँ...
वैदेही - हूँम्म्म्... मतलब तुम अब भ्रमित हो...
विक्रम - (कोई जवाब नहीं देता)
वैदेही - कल सुबह... तुम लाइब्रेरी गए थे... फिर वहाँ से निकले... घर में बहुत अशांत रहे... आज सुबह से घर से निकले हो... और अब यहाँ मिल रहे हो... (विक्रम अपनी नजरें फ़ेर लेता है) क्या इसीलिए... तुम कनाल के किनारे... जवाब ढूंढने आए हो...
विक्रम - (वैदेही से नजरें चुराते हुए) हाँ शायद...
वैदेही - कल लाइब्रेरी में क्या हुआ विक्रम... (विक्रम फिर भी ना नजरें मिलाता है ना ही कोई जवाब देता है) कम से कम... मेरे इस सवाल का जवाब तो दो...
विक्रम - (बहती पानी की धार की ओर देखते हुए) मैं... एक नाकामयाब... नाकारा आदमी हूँ... जब कभी अच्छा बनने की कोशिश की... तो ना तो दुनिया ने... ना अपनों ने... मुझे अच्छा बनने दिया... जब बुराई की हद तक बुरा बनने की कोशिश की.. बुरा भी ना बन पाया... बाप की दी हुई पहचान... और अपनी वज़ूद के बीच झूलता ही रह गया... जिससे दोस्ती करी... उसे खो दिया... जिसे बेटे की तरह... खुद से ज्यादा चाहा... वही भाई मुझे छोड़ कर चला गया... बाप दादाओं की पहचान से छुटकारा चाहा... पर... मैं अपने अतीत से... अतीत की हर गुनाह से छूटना चाहता हूँ... पर... (रुक जाता है)
वैदेही - मुझे फिर भी... जवाब नहीं मिला... कल सुबह तुम लाइब्रेरी गए थे... वहाँ क्या हुआ...

विक्रम एक हारे हुए आदमी की तरह वैदेही की ओर देखता है और मायूसी भरे आवाज में सुबह हुई सत्तू के साथ सारी बातों को वैदेही से जिक्र करता है l सब सुनने के बाद

वैदेही - ह्म्म्म्म... तो तुम्हें लगता है... सत्तू तुम्हें माफ नहीं किया... (विक्रम कोई जवाब नहीं देता) देखो विक्रम... तुमने... अपने पिता का खेमा छोड़ दिया... इसका मतलब यह तो नहीं हुआ... के तुमने अपनी सारे गुनाहों से तौबा कर लिया... अनजाने सही... गुनाह तो हुआ है... जितना तुम खुद को गुनाहगार समझ रहे हो... तुम उतना ही... सत्तू के भावनाओं के गुनाहगार हो... विक्रम... तुम्हें परिवार ने... इस गाँव के साथ नजाने कितनी पीढ़ियों से... किस किस तरह से जुल्म किए हैं... उनके आत्मा और जेहन में... नजाने कितने और कैसे कैसे ज़ख्म दिए हैं... तुमने अपने पिता का खेमा बेशक छोड़ दिया... पर तुमने गाँव वालों को तो बदले में नहीं चुना ना... बस तुम उन्हें चुन लो... तुम्हारे इसी कर्म से... तुम्हारे पुरखों के गुनाहों के वज़ह से... पीढ़ियों से दर्द झेल रहे गाँव वालों के ज़ख्म... भर जाए...
विक्रम - क्या इसीलिए आपने मुझे... गाँव में रुक जाने के लिए कहा था...
वैदेही - हाँ... विक्रम... तुम अगर उस दिन... गाँव से चले गए होते... तो तुम आगे चल कर अपनी ही नजरों में भगोड़े हो जाते... तुम अगर यहाँ रुकते हो... तो इस गाँव पर हुए हर अत्याचार का प्रायश्चित... तुम्हारे हाथों हो पाएगा...
विक्रम - प्रताप... गाँव वालों के लिए लड़ तो रहा है...
वैदेही - हाँ वह लड़ रहा है... क्यूँकी उसके हिस्से युद्ध है... पर तुम्हारे हिस्से प्रायश्चित है... जो कि तुम्हें यहाँ रह कर... उन्ही के बीच रह कर... तुम्हें करना है... हाँ अगर इन सबसे बच कर जाना चाहते हो... तो जा सकते हो... तुम्हें तुम्हारी पहचान कचोट रही है... सिर्फ सत्तू ही नहीं... पुरे गाँव वालों के लिए... तुम युवराज ही हो... तुम्हें विक्रम बनना है... उनके नजर में... उनके लिए बनना है... तो तुम्हें यहाँ उनके साथ उनके बीच रहकर बनना पड़ेगा...
विक्रम - मैं अकेला...
वैदेही - तुम अकेले नहीं हो... तुम्हारे साथ वह है... जो मुझे यहाँ लेकर आई है...

विक्रम पीछे मुड़ कर देखता है सीढ़ियों के ऊपर शुभ्रा टीलु के साथ खड़ी थी l विक्रम अपनी जगह से उठ खड़ा होता है l वैदेही भी खड़ी होती है l

वैदेही - तुम सुबह से घर से निकले... शाम तक घर नहीं लौटे... तुमने यह भी नहीं सोचा... के छह आँखे तुम्हारी राह तक रहीं हैं...
विक्रम - मैं... मैं वाकई शर्मिंदा हूँ..
वैदेही - होनी भी चाहिए... जाओ... शुभ्रा को लेकर घर जाओ... यह मत भूलो... वह अकेली जान नहीं है...

विक्रम और वैदेही दोनों शुभ्रा के पास आते हैं l विक्रम शुभ्रा की हाथ पकड़ कर कहता है

विक्रम - मुझे माफ कर दो शुब्बु... मैं भूल गया था... के मैं अकेला नहीं हूँ...
वैदेही - यह तुम्हारी गलती है विक्रम... तुम अकेले नहीं हो... फिर भी... खुद को अकेलेपन में घेरे रखे हुए थे...
विक्रम - कहा तो था... मैं शर्मिंदा हूँ... (शुभ्रा से) मुझे माफ कर दो... मुझे हर सजा मंजुर है... बस रूठना मत...
शुभ्रा - विकी... रूठ कर... मैंने क्या खोया था... यह मैं जानती हूँ... मैं बस चाहती हूँ... आप उस दौर से कभी ना गुजरें... मैं आज आपके हर कदम... हर फैसले में... आपके साथ हूँ... बस आप कभी खुद को अकेला मत समझिए... खुद को अकेला मत कीजिए...
विक्रम - वादा... आगे से... ऐसा नहीं होगा...
वैदेही - बस बस... भावनाएँ ज्वार की तरह उमड़ रही है... बाकी जो भी बात करनी हो घर पर करो...
विक्रम - (अपना सिर हिला कर शुभ्रा को साथ लेकर जाने लगता है फिर अचानक रुक कर मुड़ता है और वैदेही से) दीदी... आप महान हो...
वैदेही - मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है... जिससे कोई मुझे महान कहे... जाओ जाओ... मेरी बड़ाई मत करो...

विक्रम मुस्करा देता है और शुभ्रा का हाथ थाम कर चल देता है l टीलु और वैदेही उन्हें जाते हुए देखते हैं l थोड़ी देर के बाद

टीलु - दीदी... विक्रम ने तो सही कहा ना... आप वाकई महान हो...
वैदेही - अब तु शुरु हो गया...
टीलु - तुम सबको चुप करा दोगी... पर विश्वा भाई को कैसे चुप कराओगी... वह तो कहते ही हैं... तुम महान हो...
वैदेही - हम्म... मतलब तुमने कुछ किया है.... अब सच सच बता... क्या गुल खिला कर आया है...
टीलु - कुछ... कुछ तो नहीं...
वैदेही - देख अगर मुझे कुछ पता चला तो तेरी खैर नहीं...
टीलु - दीदी... मैंने कुछ नहीं किया... बस गाँव वालों के कान भरे... वह भी अपनी मीठी मीठी बातों से...
वैदेही - ऐ... क्या किया
टीलु - कुछ नहीं... शुकुरा और भूरा की कुटाई करवा दिया...
वैदेही - क्या... पर क्यों...
टीलु - वे दोनों हरामी साले...
वैदेही - (एक थप्पड़ मारती है) अपनी दीदी के सामने गाली देता है...
टीलु - आह.. (गाल सहलाते हुए) वे दोनों हैं ही... उस गाली के लायक... (वैदेही हाथ उठाती है मारने को) पुरी बात तो सुनो... (वैदेही का हाथ रुक जाता है) वे दोनों... मल्लि से... उसके के बारे में.. पूछताछ कर रहे थे...
वैदेही - क्या...
टीलु - हाँ... पास ही खड़ा था... मैंने गाँव वालों उल्टा सीधा जो भी आया... उन दोनों के बारे में बोल दिया... बोलते बोलते... गाँव वालों की अंदर की मर्दानगी को ललकारा... बस और क्या... उन दोनों की कंबल कुटाई करवा दिया... वह साले... अपने पैरों पर भी नहीं चल पाए... हम लोगों ने ही उठा कर रंग महल के बाहर फेंक आए... मेरा मतलब है छोड़ आए...
वैदेही - (संजीदा हो जाती है) ह्म्म्म्म... मतलब... भैरव सिंह... वह अनुष्ठान करेगा...
टीलु - हाँ दीदी... मुझे भी यही लगता है... क्यूँ ना विश्वा भाई से इस बारे में बात करें...
वैदेही - नहीं... हरगिज नहीं... विशु को... सिर्फ केस पर ध्यान देने दे... मल्लि को मैं अपनी निगरानी में रखूंगी... उसे मैं कुछ भी होने नहीं दूंगी...

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कोई अनजान हस्पताल का एक विशेष कमरा l मेडिकल बेड पर प्रतिभा लेटी हुई है l उसे सलाईन चढ़ाया जा रहा है l तापस प्रतिभा को जूस पीला कर ग्लास को बगल की टेबल पर रख देता है l बुझे मन से तापस प्रतिभा से सवाल करता है l

तापस - अब कैसा लग रहा है...
प्रतिभा - हाँ... थोड़ा बेहतर लग रहा है... (तापस उठ कर खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता है) क्या हुआ...
तापस - (मूड कर प्रतिभा को देख कर) जान... तुम बहुत स्वार्थी हो... तुम्हें मेरे बारे में... जरा भी खयाल नहीं है...
प्रतिभा - आप ऐसे तो ना कहिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - एक कैद सी जिंदगी हो गई है... आदत नहीं थी मुझे... इसलिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - प्रताप को भी तो... मेरी खबर लेनी चाहिए थी...
तापस - अब से वह तुमसे बात करेगा...
प्रतिभा - (चेहरे पर रौनक आ जाती है) क्या..
तापस - हाँ... मैंने लेनिन को... कुछ अरेंजमेंट करने के लिए कहा है... वह जुगाड़ लगाने गया है...
प्रतिभा - तो यह शुरु से कर देना चाहिए था... सत्रह दिन... ऐसा लग रहा है... जैसे... अर्सा हो गया है...
तापस - ह्म्म्म्म...
प्रतिभा - क्या ह्म्म्म्म... प्रताप भी... मेरी कोई खैर लेता ही नहीं...

तभी कमरे में लेनिन आता है l हाथ में कुछ फल वगैरह थे l उसे देखते ही प्रतिभा सवाल दाग देती है l

प्रतिभा - क्या अरेंजमेंट किया तुमने...
लेनिन - आंटी जी... मैंने खबर भिजवा दिया है... कुछ ही देर में... एक मोबाइल हमें मिल जाएगा... पर कॉल... विश्वा भाई करेंगे... तब तक के लिए... आपको इंतजार करना पड़ेगा...
प्रतिभा - (लेनिन से) आजा मेरे बच्चे.. आ.. तेरा माथा चूम लूँ... आ...

लेनिन तापस की ओर देखता है l तापस उसे इशारे से प्रतिभा के पास जाने को कहता है l लेनिन प्रतिभा के पास जा कर झुकता है l प्रतिभा लेनिन के कान को जोर से पकड़ लेती है l लेनिन दर्द से चिल्लाने लगता है l

प्रतिभा - यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया... मेरी जान पर बन आई... तब जाकर कर रहा है...
लेनिन - आह आह... आपने ही तो... भाई से वादा किया था... आप रह लेंगी... भाई को आपकी बहुत चिंता थी...
प्रतिभा - मालूम है... उसे मेरी कितनी चिंता है... अब बोल उस तक कैसे खबर पहुँचाई तुने...
लेनिन - डैनी भाई... कटक में हैं... मैंने उन तक खबर पहुँचाई है... वह एक एनक्रीपटेड़ मोबाइल भिजवा रहे हैं... और विश्वा भाई को भी खबर कर दिया होगा... विश्वा भाई अपना टाइम निकाल कर... आपको फोन करेंगे...
प्रतिभा - यह एनक्रीपटेड़ क्या होता है...
तापस - जान... एनक्रीपटेड़ का मतलब होता है...
प्रतिभा - मैंने आपसे नहीं पूछा है... आप चुप रहिए... (तापस चुप हो जाता है) (लेनिन से) हाँ मैं तुझसे कुछ पूछ रही थी...
लेनिन - आह... एनक्रीपटेड़ मतलब... जिस पर कॉल ट्रेस ना हो पाए...
प्रतिभा - अच्छा... तो यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया...
लेनिन - मुझे लगा था... सॉरी सॉरी... भाई को लगा था... आप महीना चालीस दिन रह लेंगी... पर भाई गलत निकले...
प्रतिभा - (और जोर से कान खींचती है) क्या कहा... मेरा प्रताप गलत है...
लेनिन - नहीं नहीं... आह... मैं... मैं गलत निकला... आंटी जी... प्लीज मेरा कान छोड़ दीजिए... दर्द हो रहा है...
प्रतिभा - (लेनिन का कान छोड़ देती है और बेड पर पालथी मार कर बैठ जाती है) ले छोड़ दिया... तो फोन कब लाकर दे रहा है...
लेनिन - बस दो ढाई घंटे के अंदर...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अब आ मेरे पास...
लेनिन - नहीं नहीं आंटी... मैं...
प्रतिभा - अब तु सीधी तरीके से मेरे पास आता है... या...

डरते डरते बेमन से लेनिन फिर से अपना सिर झुकाता है l इसबार प्रतिभा लेनिन का सिर अपनी हाथों में लेती है और लेनिन के माथे को चूम लेती है l लेनिन हैरानी से प्रतिभा की ओर देखता है l

प्रतिभा - अब क्या हुआ...
लेनिन - (हैरान हो कर) आप पहली बार मुझे प्यार किया है...
प्रतिभा - हाँ तो... पहली बार कोई काम ढंग से किया...
लेनिन - (आँखे छलकने को होता है पर मुस्करा देता है) मैं जा रहा हूँ... मोबाइल लाने...

कह कर बाहर चला जाता है l प्रतिभा अपनी हाथ से सलाइन की सुई को निकाल देती है l तापस हैरानी और फिक्र से प्रतिभा के पास आता है l पर तब तक प्रतिभा बेड से उठ खड़ी हो चुकी थी l

तापस - जान... तुम कमजोर हो अभी...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा... मेरा दवा लाने लेनिन गया है...
तापस - कहीं तुम... जानबूझकर अपनी सेहत खराब तो नहीं कि..
प्रतिभा - ऐसा कुछ नहीं है... मैं प्रताप के जुदाई में आधी हो गई थी... पर उसकी आवाज़ सुनने की चाहने... मेरे अंदर... फिर से ऊर्जा भर दी है...
तापस - (पास के एक कुर्सी पर बैठ जाता है) ह्म्म... एक उम्र में आते आते... जरूरतें बदल जाती हैं... पति से ज्यादा औलाद चाहिए होता है...
प्रतिभा - हो गया... ताना मारने की कोई जरूरत नहीं है... मैं जानती हूँ... तुम बाप बेटे... कॉन्टैक्ट में हो... उसकी हर खबर तुम्हारे पास है... मेरा दिल कह रहा है... कुछ ना कुछ हुआ ज़रूर है... पर तुमने मुझे बताया नहीं है... आज तो मैं जान कर ही रहूँगी.. समझे...
तापस - (दबी आवाज में) मर गए...
प्रतिभा - ऐसे कैसे... यम राज आयेंगे तो... सामने खड़ी हो जाऊँगी...
तापस - तुमने सुन लिया क्या...
प्रतिभा - हाँ... और आप भी सुन लीजिए... आज प्रताप की भी खैर नहीं है... तुम बाप बेटे मिलकर क्या गुल खिलाए हैं... यह जान कर ही रहूँगी... (तापस उठ कर जाने की कोशिश करता है) बैठिए... कहाँ जा रहे हैं...
तापस - (बैठ जाता है) मैं वह... लेनिन कहाँ गया... यह देखने जा रहा था...
प्रतिभा - वह आ जाएगा... ह्म्म्म्म... पहले यह बताइए... क्या कहा आपने.. उम्र के हिसाब से... जरूरतें... कुछ ऐसा ही कहा ना आपने...
तापस - अरे जान... तुम क्यूँ अपना बीपी बढ़ा रही हो... बेकार में... तुम्हारे गुस्से का शिकार बन गया... बेचारा लेनिन...
प्रतिभा - अच्छा... क्या ऐसा कर दिया मैंने...
तापस - अरे जरा सोचो... कितना बढ़िया अरेंजमेंट किया है... एक प्राइवेट हास्पिटल में... तुम्हें एक वीआईपी कमरे में रखा है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और... मुझे मेल नर्स के रुप में... हॉस्पिटल में... रखवा दिया है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और क्या...
प्रतिभा - मैं आज आपके चिकनी चुपड़ी बातों में आने वाली नहीं... समझे... आज एक एक करके सबकी खबर लूँगी... अभी आपको लेनिन बेचारा लग रहा है ना... प्रताप से फोन पर बात हो जाने दीजिए... फिर बेचारों की फ़ेहरिस्त में आप भी नजर आओगे...
तापस - (बड़बड़ाते हुए) जो पहले से ही बेचारा हो... वह क्या नजर आएगा...
प्रतिभा - हो गया...
तापस - क्या... तुमको यह भी सुनाई दिया...

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नागेंद्र को रुप बाउल से कुछ तरल चम्मच से खिला रही थी l कमरे में दोनों के सिवा कोई है नहीं l नागेंद्र गुस्से में था, आनाकानी के बावजूद रुप के हाथों से खाना खा रहा था l नागेंद्र का खाना पूरा हो जाता है l रुप उसके मुहँ को गिले टावल से साफ करने लगती है l उसी वक़्त रूप कि फोन वाइब्रेट होने लगती है और मोबाइल की स्क्रीन चमकने लगती है l नागेंद्र हैरान हो कर रुप को देखता है l रुप मोबाइल निकाल कर देखती है, स्क्रीन पर बेवक़ूफ़ डिस्प्ले हो रहा था l नाम देख कर रुप की होंठों पर मुस्कान बिखर जाती है l मुस्कराते हुए नागेंद्र से कहती है

रुप - आपके दामाद जी का फोन है... (कॉल उठा कर, दबी आवाज में) हैलो...
विश्व - आप कहाँ हैं...
रुप - दादाजी को खाना खिला चुकी हूँ... उन्हें सुला कर... आपसे बात करती हूँ...
विश्व - नहीं... आप जल्दी अपने कमरे में आइये... मैं आपका इंतजार कर रहा हूँ...
रुप - क्या.. आप महल में हैं...
विश्व - हाँ...
रुप - (थोड़ी घबराहट के साथ) कैसे.. क्यूँ... राजा साहब के होते हुए...
विश्व - ससुरा नहीं है... रंग महल गया हुआ है... इसीलिए तो... आया हूँ...
रुप - अच्छा... आ रही हूँ...

रुप फोन काट कर नागेंद्र की तरफ देखती है l नागेंद्र हैरत से आँखे चौड़ी कर देख रहा था l रुप भी उसे देख कर शर्माने की नाटक करते हुए चिढ़ाते हुए l

रुप - यह फोन उन्होंने ही दिया था... वह सेबती है ना... उसके हाथों... ताकि मुझे कभी अकेलापन महसूस ना हो... अब वह मेरे कमरे में आ गए हैं... वह क्या है ना... महल में पहरेदारी अब सात दिन से ना कि बराबर हो गया है... और ऊपर से राजा साहब रंग महल गए हैं... अब मैं उन्हें समझा बुझा कर.. भेज कर... वापस आपके पास आती हूँ... आप तब तक... लेट कर आराम कीजिए... ह्म्म्म्म...

नागेंद्र को जितना गुस्सा आ रहा था उतना ही लाचार और बेबस था l शरीर के कुछ ही हिस्से में जान थी पर मुहँ के साथ साथ हाथ पैर भी उसके लकवा ग्रस्त था l अपनी गुस्सा जताने के लिए लंबी लंबी साँसे ले रहा था l रुप मुस्कराते हुए नागेंद्र को देख कर उसे उसी हालत में छोड़ कर कमरे से बाहर निकलती है l बाहर दो नौकर थे उन्हें कमरे के बाहर ठहरने के लिए कह कर अंतर्महल की ओर चली जाती है l

कमरे में पहुँच कर देखती है बेड पर विश्व हेड रेस्ट पर अपना सिर टिका कर बैठा हुआ था l रुप थोड़ी एटिट्यूड के साथ विश्व से कहती है

रुप - क्या हुआ... आप इस वक़्त... यहाँ... इरादा क्या है..
विश्व - यह आप मुझे... आप आप क्यों कह रही हैं...
रुप - वह इसलिए... की अब आप... हमारे पति परमेश्वर जो हैं...
विश्व - मैंने पहले ही आपसे कहा था... आप मेरे लिए... हमेशा राजकुमारी रहेंगीं... और मैं आपका गुलाम... अनाम...
रुप - हाँ तब तक... जब तक... राजकुमारी... रुप नंदनी सिंह क्षेत्रपाल थीं... अब वह एक... मामूली एडवोकेट को पत्नी... मिसेज़... रुप नंदिनी महापात्र है... और हाँ... वह एक सच्ची भारतीय गृहिणी है...
विश्व - ओ अच्छा... पर मुझे आपसे... आप सुनना बड़ा अजीब लग रहा है...
रुप - तो आदत डाल लीजिए... चाहे आगे चल कर... आप हमें आप कहें या ना कहें... हम तो आपको आप ही कहेंगे... वैसे आपने बताया नहीं... आप यहाँ आए किस लिए...
विश्व - (सीधा हो कर बेड पर पालथी मार कर बैठ जाता है) बतायेंगे बतायेंगे... जरा पास तो आइये... आप ही का बेड है... हमारे पास बैठिए तो सही...
रुप - अच्छा... मुझे अभी मालूम पड़ा... वह भी आपसे कि यह बेड मेरा है...

विश्व मुस्करा देता है और रुप की ओर देखने लगता है l रुप मुहँ पर शरारती पाउट बना कर विश्व से कहती है l

रुप - अगर वह बात सोच रहे हो... तो भूल जाओ... हाथ भी लगाने नहीं दूंगी...
विश्व - क्यूँ भई... हक बनता है हमारा... आखिर पति परमेश्वर जो हैं आपके... वैसे भी... शिकायत रहती है आपको मुझसे... की मैं... डरपोक हूँ... फट्टु हूँ...
रुप - तो... प्यार में हमेशा... मर्जी तो हमारी ही रहेगी... वैसे भी... आप ही ने कहा था... छत वाली आखिरी मुलाकात पे... अगली बार जब आयेंगे... मुझे ले जायेंगे...
विश्व - आप अभी कहिये... ले चलते हैं...
रुप - नहीं... अगर ले जाने आए हैं... तो अभी नहीं... जब तक केस निपट नहीं जाती... तब तक तो नहीं... हाँ अगर इस बीच दादाजी को कुछ हो गया तो...
विश्व - उन्हें कुछ नहीं होगा... वह जिंदा इसलिए हैं... ताकि मुझे राजा साहब के कदमों पर घुटनों के बल गिरा देख सकें... बड़ी सख्त जान है उनकी...
रुप - वैसे इस वक़्त... आप क्यूँ आए हैं... वह भी शाम को... राजा साहब अगर आ गए तो...
विश्व - तो आपके कमरे में तो सीधा नहीं आयेंगे ना... वैसे भी... माँ... मुझसे बात करना चाहती थीं...
रुप - (भाग कर आती है और विश्व के सामने बैठ जाती है) ऊइ माँ... हमने इतना बड़ा कांड कर दिया... और उन्हें खबर तक नहीं की...
विश्व - आप जानती हैं... क्यूँ... वह रूठीं हुईं हैं... हम दोनों मिलकर मनाएंगे और माफी भी मांग लेंगे...

इतना कह कर विश्व अपना मोबाइल निकालता है और एक नंबर पर विडियो कॉल करता है l थोड़ी देर बाद स्क्रीन पर प्रतिभा दिखती है पर ज़वाब में वह कुछ नहीं कहती l

विश्व - कैसी हो माँ...
प्रतिभा -(रूखी आवाज में) मरी तो नहीं हूँ...
विश्व - माँ प्लीज... ऐसी बातेँ मत करो... तुम जानती हो... मैं क्यूँ तुम्हें लेनिन के साथ भेज दिया था...
प्रतिभा - हाँ पता है... पर... सत्रह दिन हो गए हैं... मुझे कुछ भी पता नहीं चल रहा है... तेरा यह दोस्त लेनिन... ऐसी ऐसी जगहों पर घुमा रहा है... जहां मोबाइल की टावर भी नहीं है... इसलिए वैदेही से भी बात नहीं हो पा रही है...
विश्व - माँ... देखते देखते जब सत्रह दिन बीत गए... तो और बीस पच्चीस दिन भी बीत ही जायेंगे... बस इतनी सी बात के लिए... तुम अपनी जान पर ले आई...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा मुझे... मर नहीं सकती मैं... (नर्म और प्यार से) मुझे तो... पोते पोतीयों के साथ खेलना है... कितना कुछ करना है... (एक पॉज) तु कैसा है...
विश्व - अच्छा हूँ... तुम्हारा आशीर्वाद है... बस कुछ ऐसा हो रहा है... जो मेरे बस से बाहर था...
प्रतिभा - क्यूँ... तेरा केस तो मजबूत है ना...
विश्व - पर उसके लिए केस की सुनवाई शुरु भी तो होनी चाहिए... राजा साहब ने... अपनी चाल चल दी... वैसे मुझे कोई शिकायत नहीं है... क्यूँकी ऐसा तुमने चाहा था...
प्रतिभा - क्या मतलब मैंने चाहा था... मैंने चाहा था... तु केस जीत जाए बस...
विश्व - और तुमने यह भी कहा था... जब मैं कटक लौटुं... तो तुम्हरी बहु के साथ ही लौटुं...
प्रतिभा - तो इससे... इस केस का क्या संबंध...
विश्व - यह आप अपनी बहु से पूछिये...

कह कर विश्व रुप की ओर मोबाइल का रुख कर देता है l रुप घबरा कर प्रतिभा को झिझकते हुए नमस्ते करती है l

प्रतिभा - अरे नंदिनी... तुम... मतलब... प्रताप अभी तुम्हारे साथ... महल में है क्या...
रुप - (मुस्कराने को कोशिश करते हुए) जी... जी.. माँ जी...
प्रतिभा - एक मिनट... प्रताप महल में तुम्हारे साथ... और यह कह रहा है... राजा साहब अपनी चाल चल दी... क्या माजरा है...
रुप - माँ जी... आप ठंडे दिमाग से... मेरी पूरी बात सुनिए..

रुप कहना शुरु करती है, कैसे केके से मुलाकात के बाद उसे मालूम हुआ कि उसकी शादी भैरव सिंह ने केके से तय कर दी थी l कैसे भैरव सिंह ने किस किस को शादी का न्योता दिया था l कैसे और किस तरह से उसके दोस्तों को राजगड़ लाया गया था l रुप कैसे विक्रम तक खबर पहुँचाई और उसकी शादी हो गई l जिसको आधार बना कर भैरव सिंह ने केस की सुनवाई को सात दिन के लिए टाल पाने में कामयाब हो पाया l सारी बातेँ सुनने के बाद

प्रतिभा - इतना कुछ हो गया... और तुम दोनों अभी बता रहे हो...
रुप - आपसे कॉन्टैक्ट करना मुश्किल था... और हमारे पास वक़्त ही नहीं था...
विश्व - हाँ... और यह सब आपके वज़ह से हुआ...
प्रतिभा - मेरी वज़ह से कैसे...
विश्व - आप ही ने कहा था.. मैं कटक आपके बहु के साथ लौटुं... आपके मुहँ से जैसे ही निकला... भगवान ने तथास्तु कर दिया... इसलिए इतना कुछ हो गया...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) ठीक है... मैं समझ गई... (तापस की ओर देख कर) क्या तेरे डैड को खबर थी...
तापस - अरे भाग्यवान कैसा सवाल कर रही हो...
प्रतिभा - आप चुप रहिए... (विश्व से) देख सच सच बताना...
विश्व - (झिझकते हुए) हाँ... हाँ..
प्रतिभा - देख प्रताप... तूने मुझे खबर क्यूँ नहीं की... मैं समझ गई... तुझे लगा होगा... तेरी माँ कमजोर दिल की है... पर तुने यह कैसे सोच लिया... तेरी माँ का दिल ही नहीं है...
विश्व - (शर्मिंदा होते हुए) स.. सॉरी माँ...
प्रतिभा - खैर जो भी हुआ... मुझे खुशी है... पर तुम दोनों... दुसरी बार शादी के लिए तैयार रहना... यहाँ तुम दोनों की... फिर से... धूम धाम से शादी होगी... (तापस से) क्यूँ जी...
तापस - हाँ हाँ क्यूँ नहीं...
विश्व - जैसा तुम ठीक समझो माँ...
प्रतिभा - अच्छा अब तु हट... मुझे अब बहु से बात करने दे... (विश्व मोबाइल को रुप की हाथ में दे देता है) हाँ तो बहु रानी... तुम्हारे कमरे में... यह ऐसे ही चला आता है...
रुप - (शर्मा कर अपना सिर हिलाती है)
प्रतिभा - कहीं तुम दोनों ने... सुहाग रात तो नहीं मना लिया...
रुप - (चौंक जाती है) नहीं... नहीं माँ जी... नहीं...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अच्छी बात है... वैसे क्यूँ नहीं मनाया...
रुप - आपकी आशीर्वाद नहीं था... इसलिए...
प्रतिभा - इसलिए... या मौका नहीं मिल पाया... इसलिए...
तापस - यह क्या भाग्यवान... बहु से कैसी बातेँ कर रही हो...
प्रतिभा - आप तो चुप ही रहिए... (रुप से) ऐ... मैंने कुछ पूछा तुम से...
रुप - बात मौके की नहीं है माँ जी... सुहाग रात ससुराल में होती है... मैं अभी तक मैके में हूँ...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) अच्छा विचार है... चलो... कोई तो काम हमारे हिस्से छोड़ा तुम दोनों ने...
विश्व - माँ... अब तो कोई शिकायत नहीं है ना तुम्हें...
प्रतिभा - है... अभी भी है... पर तुम दोनों को एक साथ देख कर सब भूल गई... (तभी फोन पर सीलु का नाम डिस्प्ले होने लगता है)
विश्व - अच्छा माँ... अपना खयाल रखना... सीलु कॉल कर रहा है... लगता है... ससुरा वापस आ रहा है... मुझे जाना होगा...
प्रतिभा - ठीक है बेटा... पर ध्यान रहे... जैसे अपने डैड को हर बात शेयर कर रहा है... मुझसे भी करते रहना...
विश्व - जी.. माँ..
प्रतिभा - लव यू... कुडोस...
दोनों - लव यू मॉम...

फोन कट जाता है l सीलु बार बार कॉल लगा रहा था l विश्व कॉल उठाता है l उसके बाद रुप को देखता है और कॉल काट कर दरवाज़े के पास जाता है और मुड़ कर रुप से कहता है

विश्व - अच्छा... तो हम चलते हैं...
रुप - फिर कब मिलोगे...
विश्व - जब आप कहोगे...
रुप - अच्छा तो अब आप जाइए...
विश्व - क्या... रूखा सूखा...
रुप - (बेड से उतर कर विश्व के पास जाती है) तो जनाब को... क्या चाहिए...
विश्व - भई शादी किए हैं... कम से कम... मुहँ तो मीठा कर ही सकती हैं...
रुप - (इतराते हुए) आज आपके इरादे नेक नहीं लग रहे हैं... कहीं... कोई... हरकत कर दी... तो...
विश्व - इरादा तो केवल मुहँ मीठा करने का है... अब हाथों का क्या... भई हाथ हैं... हरकत तो करेंगे ही...
रुप - (विश्व की गिरेबान पकड़ कर खिंच कर दीवार से सटा देती है) आप शायद भूल रहे हैं... मैं बहुत खतरनाक हूँ...
विश्व - (रुप के हाथों को पकड़ कर पलट जाता है, अब रुप पीठ के बल दीवार से सटी हुई थी और विश्व का चेहरा रुप के चेहरे के पास था) हमें सब याद है... पर आप यह भूल रहीं हैं... मैं बिल्कुल भी खतरनाक नहीं हूँ...

शर्म से रुप के गाल लाल हो जाते हैं, अनिच्छा से अपनी हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है l विश्व हाथ छोड़ देता है पर दोनों हाथ दीवारों से लगा कर बीच में रुप को रोक देता है और l विश्व और रुप एक दुसरे की आँखों में झाँक रहे थे l एक दुसरे की साँसे टकरा रहे थे l दोनों की साँसों में धीरे धीरे तेजी आने लगती है l रुप की आँखों में मदहोशी साफ झलक रही थी l अपने निचले होंठ को दांत से हल्का दबा लेती है l मुस्कराते हुए आँखे बंद कर अपनी होंठ को खोल कर विश्व की तरफ आगे बढ़ा देती है l रुप के होठों पर विश्व की गर्म साँसों को महसूस होती है l रुप की बदन एक सर्द भरी आह के साथ कप कपा जाती है l पर कुछ देर के बाद भी कुछ नहीं होता l हैरानी के मारे अपनी आँखे धीरे से खोलती है l विश्व नहीं था, गायब हो चुका था l रुप अपनी दांत भिंच लेती है, चिढ़ जाती है और बड़बड़ाने लगती है

रुप - बेवक़ूफ़... फट्टु.. स्टुपिड... अगली बार देखना... काट खाऊँगी...


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एक हाथ में एक शराब का बोतल और दूसरे हाथ में दो ग्लास लिए भैरव सिंह नागेंद्र के कमरे में आता है l कमरे के भीतर दो नौकर दरवाजे के पास खड़े थे l भैरव सिंह उन्हें देखता है और नागेंद्र सिंह को देखता है l जो आँखे मूँदे अपनी बिस्तर पर लेटा हुआ था l भैरव सिंह उन नौकरों से पूछता है

भैरव सिंह - बड़े राजा जी का खाना हो गया...
एक नौकर - कुछ देर पहले... राजकुमारी जी ने शाम का खाना खिला दिया था...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म... ठीक है... तुम दोनों जाओ यहाँ से... मतलब इस कमरे से दूर... हम थोड़ी देर... बड़े राजाजी के साथ बैठेंगे...
दुसरा नौकर - दूर मतलब... कहाँ राजा साहब...

भैरव सिंह का चेहरा सख्त हो जाता है l मुड़ कर उस नौकर की ओर देखता है l नौकर का पसीना छूट जाता है l

भैरव सिंह - जाओ... उतना ही दूर जहां तुम्हें... कॉलिंग बेल सुनाई दे...
दोनों - जी राजा साहब... हम समझ गए...
भैरव सिंह - अब दफा हो जाओ यहाँ से...

दोनों नौकर बाहर निकल जाते हैं l उनके जाते ही भैरव सिंह एक टेबल खिंचते हुए बेड के पास लता है l उस पर शराब की बोतल और दो ग्लास रख देता है l भैरव सिंह नागेंद्र की ओर देखता है, नागेंद्र की आँखे खुल चुकी थी l

भैरव सिंह - आपकी नींद में खलल पड़ी, उसके लिए हमें माफी चाहते हैं...

भैरव सिंह बेड की हैंडल को घुमाता है l बेड का सिरा थोड़ा ऊपर उठ जाता है l ऐसा लगता है जैसे नागेंद्र पैर फैला कर बेड पर पीठ के बल बैठा हुआ है l भैरव सिंह बोतल की ढक्कन खोल कर दोनों ग्लास में शराब उड़ेलता है l फिर एक ग्लास लेकर नागेंद्र के पास बैठता है और

भैरव सिंह - ना जाने कब आखरी बार... मिलकर पिया था... आज आपके साथ... हम पीना चाहते हैं...

हैरानी के साथ नागेंद्र भैरव सिंह को देखता है l भैरव सिंह ग्लास को नागेंद्र के होठों पर लगा देता है और अपना ग्लास उठा कर नागेंद्र से कहता है

भैरव सिंह - चियर्स बड़े राजा जी...

भैरव सिंह अपना ग्लास खाली कर देता है फिर नागेंद्र के मुहँ में थोड़ा डाल देता है l नागेंद्र वह शराब का घूंट गटक लेता है l फिर शराब की ग्लास को नीचे रख कर

भैरव सिंह - जो हुकूमत की डोर विरासत में मिला था... हम उसे कायम रखने में.. नाकाम रहे... इन कुछ दिनों में... हालात ने... हमें क्या कुछ नहीं दिखाया... (उठ का कमरे में चहल कदमी करते हुए) महल के दर के अंदर कभी पुलिस आ नहीं पा रही थी... आती भी तो जुते बाहर खोल कर आते थे... (नागेंद्र को देखते हुए) आज आलम यह है कि... दो टके का पुलिस ऑफिसर... महल में... अपने लोगों के साथ घुस आता है... वह भी जुते पहन कर... (फ़िर से चहल कदमी करते हुए) गाँव वाले... कभी नजरें उठा कर इस महल की तरफ़ देखना तो दूर... अगर आ जाते थे... तो उल्टे पाँव लौट जाते थे... पर... पहली बार ऐसा हुआ... के हमें पीठ दिखा कर... गाँव वाले लौटे... और आज तो हद हो गई... हमारे नाम के साये में... महल के लोगों से डरने वाले... आज.. महल के लोगों पर... लाठी डंडे चाला दिए... (फिर रुक जाता है और नागेंद्र के तरफ देखते हुए) यह सब हमारी ही गलती है... गलती शायद बहुत छोटा शब्द है... अपराध हो गया है हमसे... (पास आता है और नागेंद्र के सामने बैठकर) हमनें जिसे... चींटी समझा... आज वह बाज बन गया है... जिसकी अहमियत दीवारों पर रेंगने वाली छिपकली से ज्यादा नहीं थी... आज वह मगरमच्छ बन गया है... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... विश्वा के बारे में बात कर रहे हैं... (अब फिर से शराब को ग्लास में डालता है और एक घूंट पहले नागेंद्र को पिलाता है फिर खुद अपना ग्लास ख़तम कर देता है, फिर नागेंद्र को देख कर) हमनें... गलतियाँ बहुत की है... अपनी खानदानी गुरुर के चलते... वैदेही को जिंदा रहने दिया... विश्व को जिंदा छोड़ दिया... यही दोनों... अब हमें... हमारा दुर्दिन दिखा रहे हैं... (एक गहरी साँस छोड़ते हुए) वर्ना किसी पुलिस वाले की औकात कहाँ हो सकती थी... के हमें हमारी ही महल में नजर बंद कर सके... किसी अदालत में कहाँ जुर्रत थी... के हमें कठघरे में खड़ा कर सके... पर यह सब हुआ... हमारे साथ हुआ... (अपनी जगह से उठ कर खिड़की के पास जाता है और बाहर की ओर देख कर) हम जानते हैं... आपने अपनी मौत को रोके रखा है... क्यूँकी आपको उस जलील... हराम खोर विश्व का अंत देखना है... हमने भी आपको इस बात का वादा किया है... पर उस वादे ने.. हमसे बहुत बड़ी कीमत ली है... हम हर जलालत को झेलते रहे... के ठीक है... राजगड़ के लोग... अभी भी हमसे खौफ खा रहे हैं... विश्व चाहे कितना भी बरगला ले... गाँव वाले हमारे खिलाफ जा नहीं सकते... (नागेंद्र के तरफ़ मुड़ कर) पर आज यह भरम भी टुट गया... आज गाँव वाले... हमारे लोगों पर लाठी चला कर... हमें हमारे आने वाले कल का... ऐलान कर दिया... अभी भी अगर हम खामोश रहे... तो यह क्षेत्रपाल की नाकारा पन होगा... नपुंसकता होगी... (नागेंद्र के पास बैठ जाता है) एक बात हमेशा से कही जाती है... इतिहास खुद को दोहराता है... हाँ बड़े राजा जी... अब इतिहास खुद को दोहराएगा... जो इतिहास सौरभ सिंह क्षेत्रपाल ने रचा था... पाईकरॉय परिवार के खिलाफ... अब वही इतिहास... राजगड़ के हर एक परिवार के खिलाफ दोहराया जाएगा... जिससे ऐसा भूगोल का रचना होगा... के आइंदा कोई माईकालाल फिर कभी... महल की तरफ़ आँख उठा कर नहीं देखेगा... फिर कभी कोई ख़ाकी वर्दी वाला इस महल की चौखट पर नहीं आएगा... फिर कभी किसी क्षेत्रपाल को... अदालत में पेश करने की... सपने में भी नहीं सोच पाएगा... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... इस बार सभी ने... अपना अपना लक्ष्मण रेखा लांघ लिया... अब हर कोई... अपनी अपनी अमर्यादा के लिए... कीमत चुकाएंगे... आप सोच रहे होंगे... यह सब... कैसे होगा... हा हा... हा हा हा हा हा... हाँ मैंने अपनी चालें चल दी है... एक बहुत बड़ी प्राइवेट आर्मी को मैंने हायर किया है... क्यूँकी ना सिर्फ लोग... बल्कि सिस्टम में रह कर भी... जिन्होंने सिस्टम के जरिए... हमें यह दिन दिखाए हैं... हर एक जान को... हम सजा देंगे... मर्सीनरीज बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं... उनके पहुँचने के बाद... सिर्फ खून खराबा होगा... सिर्फ खून खराबा... कुछ इतिहास दफन हो जाएंगे... कुछ किवदंती जन्म लेंगे.... इसलिए आज आपके पास... आपका आशीर्वाद लेने आए हैं... (नागेंद्र की आँखे बड़ी हो जाती है) हाँ आपको हैरानी हो रही है... यह सिर जो कभी किसी के आगे नहीं झुकता... आज कैसे आपके आगे झुक गया... वह इसलिए... के पूरी दुनिया में.... एक आप ही हैं... जो मेरे साथ हैं... और रिश्ते में... मेरे पिता भी हैं...

भैरव सिंह नागेंद्र के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सिर पर रख लेता है और और कुछ देर बाद नागेंद्र का हाथ छोड़ देता है और जब अपना सिर उठाता है नागेंद्र को उसकी आँखों में एक शैतानी चमक दिखती है l वह चमक इतनी तेज थी के नागेंद्र के चेहरे पर डर साफ नजर आने लगती है l
Bahut hi badhiya update diya hai Kala Nag bhai....
Nice and beautiful update....
 

dhparikh

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उमाकांत सर जी का घर
सुबह धूप खिल चुका है, विश्व और उसके चारों दोस्त घर में नहीं हैं l सत्तू नहा धो कर अपना पूजा पाठ ख़तम करता है और कपड़े बदल कर लाइब्रेरी वाले कमरे में आता है l अंदर एक शख्स को देख कर ना सिर्फ वह चौंकता है बल्कि उसके कदम ठिठक जाते हैं l वह विक्रम था जो एक कुर्सी पर बैठा किसी गहरी सोच में खोया हुआ था l जैसे ही वह सत्तू को देखता है हड़बड़ा कर कुर्सी से उठता है और एक झिझक के साथ अपना सिर झुका कर खड़ा होता है l

सत्तू - युवराज... आ प...
विक्रम - हाँ... (कुछ पल की चुप्पी के बाद) क्या... क्या मैं... तुमसे बात कर सकता हूँ...
सत्तू - जी... कहिए..
विक्रम - (झिझक और बैचेनी के साथ सत्तू के पास आता है) सत्तू... सबसे पहले... मैं तुम्हें थैंक्यू कहना चाहता हूँ... अगर तुम ना होते... तो मेरी बहन की राखी का लाज ना रख पाया होता...
सत्तू - कोई बात नहीं युवराज जी...
विक्रम - सत्तू... मैं... वह मैं
सत्तू - कहिए युवराज...
विक्रम - (संजीदा हो कर) सत्तू... मैं.. तुम्हारा... गुनाहगार हूँ... (कहकर अपनी जेब से एक खंजर निकालता है और सत्तू के हाथ में थमा देता है, सत्तू उसे हैरानी से देखता है ) तुम्हें... बदला लेना था ना... यह लो... तुम्हारा गुनाहगार तुम्हारे सामने है... मार डालो...

सत्तू एक पल के लिए खंजर को हाथ में लेकर देखता है फिर विक्रम को देखता है l फिर विक्रम के हाथ में खंजर रख देता है l

सत्तू - युवराज जी... किस्मत ने मुझे इस लायक ना छोड़ा... के किसीसे वफा निभा सकूँ... और खुद को इस लायक नहीं बना पाया... के... किसी से बदला ले सकूँ... ऐसा नाकारा... क्या किसी से बदला लेगा...
विक्रम - ऐसा ना कहो सत्तू... अभी तुम्हारे सामने भले ही खड़ा हुआ हूँ... पर... सच यह है कि.... की मैं अपनी नजरों में अभी गिरा हुआ हूँ...
सत्तू - मेरी शिकायत और नफरत जिससे थीं... आज वह अपनी लाचारी और बेबसी में घिरा हुआ है... जो कभी वक़्त को मुट्ठी में कर... खुद अपनी ही नहीं... दूसरों की किस्मत लिखने का दावा भर रहा था.... आज वह खुद वक़्त की ठोकर में पड़ा हुआ है... यह वक़्त बहुत जालीम है युवराज...
विक्रम - तुम... तुम किसकी बात कर रहे हो...
सत्तू - (हँसता है) मैं राजा भैरव सिंह की बात कर रहा हूँ... जिसने कभी भी... क्या वक़्त... क्या जिंदगी... किसी की ना परवाह किया... ना कदर... वक़्त बढ़कर कोई नहीं होता युवराज जी... आज वक़्त ने उसी राजा को छोड़ दिया है...
विक्रम - तुम्हारे साथ वक़्त ने क्या न्याय किया है सत्तू...
सत्तू - वक़्त कभी किसीके साथ न्याय नहीं करता.. वक़्त उसका साथ देता है... जो उसकी कदर करता है... और उसे छोड़ देता है जो उसकी बेकद्री करता है... मैंने भी कभी वक़्त की बेकद्री की थी... वक़्त ने मेरे साथ वही किया... आज जब जिंदगी का फलसफा समझ में आ गया.. मैंने वक़्त के साथ चलने और साथ देने का फैसला किया युवराज...
विक्रम - यह... यह तुम मुझे बार बार... युवराज मत कहो... मेरे दिल को ही नहीं... मेरे वज़ूद को चोट पहुँचा रही है...
सत्तू - (चुप रहता है और गौर से विक्रम को देखने लगता है l विक्रम को सत्तू की वह नजर असहज करने लगता है इसलिये विक्रम दूसरी तरफ जा कर एक कुर्सी पर बैठ जाता है)
विक्रम - (सत्तू से नजर मिलाने से कतराते हुए) तुमने कौनसी वक़्त की बेकद्री की है....
सत्तू - (विक्रम के दूसरी तरफ एक कुर्सी पर बैठ जाता है) मेरी रिश्ता जब... कर बाबु की बेटी से तय हो गई थी... तब विश्व के साथ हो रहे हर अन्याय का मैं... साक्षी रहा हूँ... मेरा मौन समर्थन... अपने ससुर के हर कुकर्म के प्रति... वक़्त के प्रति मेरी बेकद्री थी...
विक्रम - वक़्त ने तुम्हें बहुत जल्द आईना दिखा दिया... जब कि राजा साहब... अभी भी झुके नहीं हैं...
सत्तू - जिसकी कमाई जितनी... उसकी गंवाई भी उतनी है... मेरे हिस्से की... मैंने गंवा दी... राजा जी की तो हालात खराब है... वह अपने साथ अपनी पुरखों की कमाई भी गंवा रहे हैं... युवराज...

विक्रम के पास कहने के लिए कुछ सूझ नहीं रहा था l विक्रम अपनी नजर उठा कर सत्तू को देखता है, सत्तू उसे एक टक देखे ही जा रहा था l

विक्रम - तुम्हारा गुस्सा... तुम्हारा नफरत किसके लिए है सत्तू...
सत्तू - राजा साहब के लिए... पर मेरी खून में ना तो वह उबाल था... ना ही मेरे जज्बातों में.. उतनी गर्मी... जब एहसास हुआ... के राजा साहब के वज़ूद को ललकारना मेरे बस की बात नहीं है.. तब मैंने वैदेही दीदी को देखा... जो डटकर राजा साहब की आदमियों से लोहा ले रही थी... एक दिन मौका पाकर... उनसे बात की... तो उन्होंने ही कहा था... के एक दिन उनका भाई लौटेगा... राजा की महल का... ईंट से ईंट बजा देगा... कोई तो हो... उस महल की दरवाजा अंदर से खोलने के लिए...
विक्रम - तो तब जाकर तुमने... भीमा के जरिए.. महल में घुसने की कोशिश की...
सत्तू - हाँ... युवराज...
विक्रम - (चिढ़ जाता है) यह बार बार मुझे युवराज क्यूँ कह रहे हो...
सत्तू - (चुप रहता है)
विक्रम - (झिझकते हुए) तुम चाहते... तो... विश्व और रुप के बारे में राजा साहब से कह देते... उससे भी तो तुम्हारा बदला... (रुक जाता है)
सत्तू - नहीं युवराज... बदला वह होता है... जो अपनी नाकामी के ज़ख्मों को... दुश्मन के दुश्मन की जीत से... भरता है... विश्व और रुप की प्रेम की जीत में... मेरी जीत है... बदला भी है... और क्या चाहिए युवराज...
विक्रम - ( उठ खड़ा होता है) मैं तुम्हारा गुनाहगार जितना था... हूँ... उतना ही कर्जदार भी रहूँगा... मैं चाहे किसी के भी सामने अपनी नजरें और सीना ताने खड़ा हो जाऊँ... पर तुम्हारे सामने मेरी नजरें हमेशा झुकी हुई रहेगी... जो मुझे मेरे किए उस गुनाह को याद दिलाता रहेगा... जो मैंने जान बुझ कर या होशोंहवास में नहीं किया था... पर गुनाह हुआ था... जिसकी भरपाई वक़्त ने की है... मैंने अपने भाई को खो दिया... मैंने उस पहचान को छोड़ दिया... जिसके बदौलत यह सब हुआ... आज मैं एक आम राजगड़ वासी हूँ... मैं फिर से पूछ रहा हूँ... क्या तुम कभी भी... मुझे माफ कर पाओगे...
सत्तू - (कुछ पल के लिए चुप हो जाता है) नहीं... नहीं युवराज... आप महान हो... सच्चाई के लिए... अपनों को छोड़ किसी आम के लिए खड़े हो गए... आपका कद अब बहुत बड़ा हो गया है... आपके आगे मेरा कद बहुत छोटा है... आप मुझसे कुछ मांगीए मत... आप झुक तो सकते हैं... पर मैं ऊपर उठ नहीं सकता... हम सब एक अनचाहे लड़ाई का अब हिस्सा हैं... अपने अपने किरदार में हैं... इस लड़ाई का अंजाम सिर्फ और सिर जीत ही होनी चाहिए... यह जीत मेरे भीतर की हीन भावना... आपके भीतर की युवराज को ख़तम कर देगी... तब हम सब एक होंगे...
विक्रम - देखो सत्तू... इतनी बड़ी बड़ी बातेँ मेरी समझ से परे हैं... मैंने तुमसे एक सीधा सा सवाल किया है... तुम उसका सीधा सा जवाब क्यूँ नहीं दे रहे...
सत्तू - जिंदगी छोटी है युवराज... पर तजुर्बे बहुत दिए... आप और मैं एक ही कश्ती में सवार क्यूँ हैं... क्यूँकी हम सब ने कुछ न कुछ खोया है... कोई ज्यादा... कोई कम... हम सबको ज़ख्म मिला है... दर्द किसीका ज्यादा है... किसी का कम... पर सामने तूफान है... हम सब अपनी अपनी भूमिका को लिए... इस कश्ती को किनारे पर पहुँचाना है... उसी वक़्त जब हम किनारे पर होंगे... ना आपके दिल में कोई गिला होगा... ना मेरे दिल में कोई शिकवा... इसलिए... आपका यह सवाल इस वक़्त जायज नहीं है... और सच कहूँ तो मेरे पास इसका जवाब नहीं है... (विक्रम उसे एक टक देखे जा रहा था) युवराज... आप मेरी नज़र में अब भी युवराज हैं... मेरी भावनायें भड़की जरूर थी पर... लाचारी और बेबसी मुझ पर हावी रही... मुझे बदला लेना नहीं आया... ऐसा सिर्फ मेरी हालत नहीं है... इस गाँव के हर एक उस शख्स का है... जो अपनी लाचारी और बेबसी के तले... पुश्तों से झेल रहे सितम के खिलाफ आग को बुझने नहीं दिया है... आज विश्व की लड़ाई में... अपनी लड़ाई देख रहे हैं... एक दिन विश्व के साथ खडे होकर बवंडर बन जाएंगे... उस बवंडर का हम भी हिस्स होंगे... तब जो जीत होगी... वह जीत हम सबकी होगी... आपकी... मेरी... इन गाँव वालों की... वही जीत... हमारी अतीत के ज़ख्मों को हमेशा के लिए भर देगी... बस उस जीत की प्रतीक्षा कीजिए... उस जीत के बाद... आपमे और हम में कोई फर्क़ ना होगा... तब ना आप युवराज होंगे... ना मैं ऐसा...

सत्तू चुप हो जाता है l विक्रम उसे सुन रहा था और सत्तू की कही हर एक शब्द उसे झिंझोड रहा था l विक्रम नजरें उठा कर सत्तू की ओर और देख नहीं पाया l झुके कंधे और थके कदम को उठा कर बाहर निकल जाता है l पीछे सत्तू एक गहरी साँस लेकर अंदर चला जाता है l



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अपनी कार से उतर कर महल की सीडियां चढ़ते हुए बल्लभ दरवाजे पर खड़े भीमा के पास आकर खड़ा होता है l

बल्लभ - राजा साहब कहाँ है भीमा...
भीमा - अपने खास कमरे में... आप ही का इंतजार कर रहे हैं...
बल्लभ - चलो फिर...
भीमा - नहीं वकील बाबु... राजा साहब... खास आपसे बात करना चाहते हैं... हमें... हिदायत दी गई है... जब तक ना बुलाया जाए... तब तक हममें से कोई... अंदर नहीं जाएगा...
बल्लभ - ओ...

बल्लभ और कुछ नहीं कहता है l भीमा को वहीँ छोड़ कर आगे बढ़ता है और रणनीतिक प्रकोष्ठ में दरवाजे पर खड़ा होता है l देखता है दीवार पर लगे टीवी के स्क्रीन पर एक न्यूज क्लिप पॉज हो कर रुक गया है l

बल्लभ - गुस्ताखी माफ राजा साहब... क्या मैं अंदर आ सकता हूँ...
भैरव सिंह - हूँह्ह्हम्म्म्... आओ... प्रधान आओ... (बल्लभ अंदर आता है) (टीवी की ओर इशारा करते हुए) क्या इस लड़की को जानते हो... (बल्लभ टीवी की स्क्रीन पर देखता है, वह सुप्रिया रथ थी)
बल्लभ - जी राजा साहब... यह सुप्रिया रथ है... नभ वाणी न्यूज एजेंसी में... एडिशनल एडिटर है... और...
भैरव सिंह - और...
बल्लभ - प्रवीण रथ की बहन है...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म...

भैरव सिंह चुप हो जाता है, बल्लभ उसे देखता है, भैरव सिंह आँखे मूँद कर बड़े शांत स्वभाव से अपनी हाथ मल रहा था l

बल्लभ - राजा साहब... क्या कुछ गलत हो गया है...
भैरव सिंह - नहीं... बल्कि जो गलत कर रहे हैं... उनके लिए... हम कुछ सोच रहे हैं...
बल्लभ - मैं कुछ समझा नहीं...
भैरव सिंह - हम एक... वाइल्ड लाइफ पर डॉक्यूमेंट्री देख रहे थे... एक शेर बुढ़ा हो गया है... कुछ करने की हालत में नहीं है... तब कुछ कुत्ते उस पर टुट पड़े... (कह कर बल्लभ की ओर देखता है) पर यहाँ शेर बुढ़ा नहीं हुआ है... हाँ पर... शांत बैठा हुआ है... और वह भी अपनी मांद के अंदर... तो कुत्तों ने झुंड बना कर... मांद में घुसने की कोशिश में हैं.... उनके लिए एक अच्छी खबर है... के शेर थोड़ा घायल है... पर वह... जो भूल रहे हैं... शेर जब घायल हो जाता है... तब जंगल में... मौत शिकारी के ऊपर मंडराने लगती है... पर यहाँ शेर... अपनी ही मांद में है... अब उनकी खुशफहमी बहुत जल्द दूर करना होगा...

भैरव सिंह बल्लभ की ओर देखता है l बल्लभ कुछ सोच रहा था l भैरव सिंह बल्लभ से पूछता है

भैरव सिंह - क्या सोचने लगे प्रधान....
बल्लभ - मैं सब समझ रहा हूँ राजा साहब... विश्व अपना कुनबा बढ़ा रहा है... जो खेल हमने उसे फंसाने के लिए खेला था... वही खेल वह हमसे खेल रहा है... हमने तब मीडिया का साथ लिया था... विश्व अब मीडिया को हमारे खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है...
भैरव सिंह - कुछ नया बोलो प्रधान...
बल्लभ - मैं समझा नहीं राजा साहब...
भैरव सिंह - कुछ ऐसा... जो हमारी जेहन से छूट गया हो...
बल्लभ - (कुछ कहने को होता है पर चुप हो जाता है)
भैरव सिंह - कुछ कहते कहते रुक क्यूँ गए प्रधान...
बल्लभ - राजा साहब... मुझे लगा... और दो दिन बाद... हमें... कोर्ट के सामने पेश होना है... तो उसके लिए हमारी क्या तैयारी है... या करनी है... आप उस पर बात करना चाह रहे हैं...
भैरव सिंह - (बल्लभ के पास आता है और उसके आँखों में आँखे डाल कर पूछता है) तुम्हें क्या लगता है प्रधान... क्या मैं पागल हो गया हूँ...
बल्लभ - (सकपका जाता है)
भैरव सिंह - चौंको मत... कभी कभी इस हम को ढोते ढोते... थक जाता हूँ... इसलिए हम को छोड़ कर... मैं को बाहर लाया हूँ... अब बोलो... क्या मैं तुम्हें पागल लगता हूँ...
बल्लभ - (हकलाते हुए) न.. नह.. नहीं.. र.. रा.. राजा साहब... मैं ऐसा सोच... भी.. नहीं सकता...
भैरव सिंह - अगर मैं पागल नहीं हूँ... तो क्या मैं... बेवकूफ़ी कर रहा हूँ... क्या लगता है तुम्हें...
बल्लभ - आई एम सॉरी... राजा साहब... मैं बाद में आता हूँ...
भैरव सिंह - हँसते हुए) हा हा हा हा... डर गए... (अचानक सीरियस हो कर) हाँ डरना चाहिए... तुम्हें ही नहीं... मुझसे जुड़े हर एक शख्स को... मेरे बारे में जानने वाले हर एक शख्स को... डरना चाहिए... फिर... (कुछ देर के लिए एक पॉज लेता है) फिर क्यूँ... कुछ लोग मुझसे डरना छोड़ रहे हैं... और उनका कुनबा बढ़ता ही जा रहा है...
बल्लभ - ऐसा नहीं है राजा साहब... अगर विश्वा आप से डर ना रहा होता... तो सेनापति दंपति को छुपाता क्यूँ...
भैरव सिंह - मेरा मन मत बहलाओ प्रधान... मत बहलाओ... यह डर... जिसकी धार पर... हम आजादी के बाद भी... शाशन में दखल रखा करते थे... वह डर जिसकी जागीर... हमने विरासत में... विरासत में पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल की... वही डर की जागीर... अब किसी रेत की तरह... मेरी मुट्ठी से फिसलती जा रही है... (एक पॉज) है ना...
बल्लभ - नहीं... राजा साहब... यह सच नहीं है...
भैरव सिंह - मेरे परदादा... सौरभ सिंह क्षेत्रपाल... इस डर की जागीर... लंबोदर पाइकरॉय परिवार को तबाह व बर्बाद कर... कायम की थी... जिसे पुस्तैनी विरासत को तरह... मुझ तक... जिम्मेदारी आई.... पर... मेरे आगे की पीढ़ी... मुझसे ही तौबा कर ली है... और मुझसे... अब यह जागीर छूटने लगा है... (चुप हो जाता है)
बल्लभ - राजा साहब...
भैरव सिंह - नहीं प्रधान नहीं... मैं मायूस या निरास नहीं हूँ... बल्कि... मैं अब संकल्पबद्ध हूँ...
बल्लभ - किस चीज़ के लिए राजा साहब...
भैरव सिंह - सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के दिए... हम की बोझ ढोते ढोते... वह बोझ कहीं फिसल गया है... अब मुझे कुछ ऐसा करना होगा... जिससे मेरी आने वाली पीढ़ी... मेरे दिए हम को ढोएगी....

इतना कह कर भैरव सिंह चुप हो जाता है l बल्लभ भी खामोश हो जाता है l कमरे में इस कदर शांति थी के भैरव सिंह के तेज तेज चलते साँसे बल्लभ को सुनाई दे रही थी l

बल्लभ - (थूक को हलक से उतारते हुए) मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ... आपने... फ्री लांसर मर्सीनरीज को क्यूँ बुलाया है... पर उन्हें आने में अभी भी वक़्त है... पर कोर्ट में तो हमें... दो दिन के बाद पेश होना है....
भैरव सिंह - हाँ... उसके लिए... तुम अपना दिमाग लगाओ... कुछ सिचुएशन बनाओ.... ताकि अदालत हमें कुछ वक़्त दे दे... (बल्लभ खामोश रहता है) क्या सोचने लगे...
बल्लभ - राजकुमारी जी की शादी टुट गई...
भैरव सिंह - गलत... सगाई...
बल्लभ - जी जी... सगाई... पर अब...
भैरव सिंह - कुछ करो... इसीलिये तो तुम हमारे... लीगल एडवाइजर हो...
बल्लभ - ठीक है... मैं कुछ... सोच कर बताता हूँ... क्या मैं अब... आपसे इजाजत ले सकता हूँ...
भैरव सिंह - बेशक...

सुन कर वापस जाने लगता है l दरवाजे पर पहुँच कर मुड़ता है और भैरव सिंह से पूछता है l

बल्लभ - राजा साहब... जाने से पहले... एक बात पूछूं...
भैरव सिंह - (तब तक अपनी कुर्सी पर बैठ चुका था) हाँ... पूछो...
बल्लभ - आप... आप करना क्या चाहते हैं...
भैरव सिंह - इतिहास... तुमने हमेशा एक कहावत सुनी होगी... इतिहास खुद को दोहराता है...
बल्लभ - जी... सुना है...
भैरव सिंह - (मुस्कराते हुए) इस गाँव में... लंबोदर पाइकरॉय की संख्या बढ़ रही है... उन्हें अब सौरभ सिंह क्षेत्रपाल के इलाज की जरूरत है... राजगड़ ही नहीं... बहुत जल्द पूरा स्टेट वह दौर देखेगा... जो अब तक... किंवदन्तीओं में सुनते आए हैं...

बल्लभ के तन बदन में कप कपी दौड़ जाता l वह अपना सिर झुका कर कमरे से निकल जाता है l

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अगले दिन
वैदेही कनाल के पास आती है, देखती है विक्रम सीढ़ियों पर बैठा बहती पानी की धार को देख रहा था l वैदेही सीढ़ियां उतरकर विक्रम के बगल में बैठ जाती है l विक्रम वैदेही को देखता है और फिर बहती पानी की ओर देखने लगता है l

वैदेही - जानते हो... इस कनाल को मेरे पिता... रघुनाथ महापात्र ने बनाया था...
विक्रम - ओह... तो क्या प्रताप... अपने पिता को याद करने के लिए... यहाँ आता है...
वैदेही - नहीं ऐसी बात नहीं है... वह जब भी... थोड़ा अंदर से अस्तव्यस्त या भ्रम में होता है... या खुद से नाराज होता है... तब वह इसी कनाल के पास आता है... और कभी कभी... महल के पीछे वाली घाट पर जाता है... कभी उगते सूरज को देखता रहता है... तो कभी डूबते सूरज को....
विक्रम - हाँ... मैं भी उससे दो तीन बार... नदी की घाट पर मिला हूँ...
वैदेही - हूँ... वैसे तुम इस वक़्त... यहाँ क्या कर रहे हो...
विक्रम - क्या आप प्रताप को ढूंढने आई थीं...
वैदेही - सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता विक्रम...
विक्रम - हाँ... सवाल के जवाब में सवाल नहीं होता... पर जिसे ज़वाब की तलाश हो... वह क्या जवाब देगा...
वैदेही - तुम्हें किस सवाल का जवाब तलाश है विक्रम...
विक्रम - पता नहीं... मैं सवाल का जवाब ढूंढ रहा हूँ... या सवालों से भाग रहा हूँ...
वैदेही - हूँम्म्म्... मतलब तुम अब भ्रमित हो...
विक्रम - (कोई जवाब नहीं देता)
वैदेही - कल सुबह... तुम लाइब्रेरी गए थे... फिर वहाँ से निकले... घर में बहुत अशांत रहे... आज सुबह से घर से निकले हो... और अब यहाँ मिल रहे हो... (विक्रम अपनी नजरें फ़ेर लेता है) क्या इसीलिए... तुम कनाल के किनारे... जवाब ढूंढने आए हो...
विक्रम - (वैदेही से नजरें चुराते हुए) हाँ शायद...
वैदेही - कल लाइब्रेरी में क्या हुआ विक्रम... (विक्रम फिर भी ना नजरें मिलाता है ना ही कोई जवाब देता है) कम से कम... मेरे इस सवाल का जवाब तो दो...
विक्रम - (बहती पानी की धार की ओर देखते हुए) मैं... एक नाकामयाब... नाकारा आदमी हूँ... जब कभी अच्छा बनने की कोशिश की... तो ना तो दुनिया ने... ना अपनों ने... मुझे अच्छा बनने दिया... जब बुराई की हद तक बुरा बनने की कोशिश की.. बुरा भी ना बन पाया... बाप की दी हुई पहचान... और अपनी वज़ूद के बीच झूलता ही रह गया... जिससे दोस्ती करी... उसे खो दिया... जिसे बेटे की तरह... खुद से ज्यादा चाहा... वही भाई मुझे छोड़ कर चला गया... बाप दादाओं की पहचान से छुटकारा चाहा... पर... मैं अपने अतीत से... अतीत की हर गुनाह से छूटना चाहता हूँ... पर... (रुक जाता है)
वैदेही - मुझे फिर भी... जवाब नहीं मिला... कल सुबह तुम लाइब्रेरी गए थे... वहाँ क्या हुआ...

विक्रम एक हारे हुए आदमी की तरह वैदेही की ओर देखता है और मायूसी भरे आवाज में सुबह हुई सत्तू के साथ सारी बातों को वैदेही से जिक्र करता है l सब सुनने के बाद

वैदेही - ह्म्म्म्म... तो तुम्हें लगता है... सत्तू तुम्हें माफ नहीं किया... (विक्रम कोई जवाब नहीं देता) देखो विक्रम... तुमने... अपने पिता का खेमा छोड़ दिया... इसका मतलब यह तो नहीं हुआ... के तुमने अपनी सारे गुनाहों से तौबा कर लिया... अनजाने सही... गुनाह तो हुआ है... जितना तुम खुद को गुनाहगार समझ रहे हो... तुम उतना ही... सत्तू के भावनाओं के गुनाहगार हो... विक्रम... तुम्हें परिवार ने... इस गाँव के साथ नजाने कितनी पीढ़ियों से... किस किस तरह से जुल्म किए हैं... उनके आत्मा और जेहन में... नजाने कितने और कैसे कैसे ज़ख्म दिए हैं... तुमने अपने पिता का खेमा बेशक छोड़ दिया... पर तुमने गाँव वालों को तो बदले में नहीं चुना ना... बस तुम उन्हें चुन लो... तुम्हारे इसी कर्म से... तुम्हारे पुरखों के गुनाहों के वज़ह से... पीढ़ियों से दर्द झेल रहे गाँव वालों के ज़ख्म... भर जाए...
विक्रम - क्या इसीलिए आपने मुझे... गाँव में रुक जाने के लिए कहा था...
वैदेही - हाँ... विक्रम... तुम अगर उस दिन... गाँव से चले गए होते... तो तुम आगे चल कर अपनी ही नजरों में भगोड़े हो जाते... तुम अगर यहाँ रुकते हो... तो इस गाँव पर हुए हर अत्याचार का प्रायश्चित... तुम्हारे हाथों हो पाएगा...
विक्रम - प्रताप... गाँव वालों के लिए लड़ तो रहा है...
वैदेही - हाँ वह लड़ रहा है... क्यूँकी उसके हिस्से युद्ध है... पर तुम्हारे हिस्से प्रायश्चित है... जो कि तुम्हें यहाँ रह कर... उन्ही के बीच रह कर... तुम्हें करना है... हाँ अगर इन सबसे बच कर जाना चाहते हो... तो जा सकते हो... तुम्हें तुम्हारी पहचान कचोट रही है... सिर्फ सत्तू ही नहीं... पुरे गाँव वालों के लिए... तुम युवराज ही हो... तुम्हें विक्रम बनना है... उनके नजर में... उनके लिए बनना है... तो तुम्हें यहाँ उनके साथ उनके बीच रहकर बनना पड़ेगा...
विक्रम - मैं अकेला...
वैदेही - तुम अकेले नहीं हो... तुम्हारे साथ वह है... जो मुझे यहाँ लेकर आई है...

विक्रम पीछे मुड़ कर देखता है सीढ़ियों के ऊपर शुभ्रा टीलु के साथ खड़ी थी l विक्रम अपनी जगह से उठ खड़ा होता है l वैदेही भी खड़ी होती है l

वैदेही - तुम सुबह से घर से निकले... शाम तक घर नहीं लौटे... तुमने यह भी नहीं सोचा... के छह आँखे तुम्हारी राह तक रहीं हैं...
विक्रम - मैं... मैं वाकई शर्मिंदा हूँ..
वैदेही - होनी भी चाहिए... जाओ... शुभ्रा को लेकर घर जाओ... यह मत भूलो... वह अकेली जान नहीं है...

विक्रम और वैदेही दोनों शुभ्रा के पास आते हैं l विक्रम शुभ्रा की हाथ पकड़ कर कहता है

विक्रम - मुझे माफ कर दो शुब्बु... मैं भूल गया था... के मैं अकेला नहीं हूँ...
वैदेही - यह तुम्हारी गलती है विक्रम... तुम अकेले नहीं हो... फिर भी... खुद को अकेलेपन में घेरे रखे हुए थे...
विक्रम - कहा तो था... मैं शर्मिंदा हूँ... (शुभ्रा से) मुझे माफ कर दो... मुझे हर सजा मंजुर है... बस रूठना मत...
शुभ्रा - विकी... रूठ कर... मैंने क्या खोया था... यह मैं जानती हूँ... मैं बस चाहती हूँ... आप उस दौर से कभी ना गुजरें... मैं आज आपके हर कदम... हर फैसले में... आपके साथ हूँ... बस आप कभी खुद को अकेला मत समझिए... खुद को अकेला मत कीजिए...
विक्रम - वादा... आगे से... ऐसा नहीं होगा...
वैदेही - बस बस... भावनाएँ ज्वार की तरह उमड़ रही है... बाकी जो भी बात करनी हो घर पर करो...
विक्रम - (अपना सिर हिला कर शुभ्रा को साथ लेकर जाने लगता है फिर अचानक रुक कर मुड़ता है और वैदेही से) दीदी... आप महान हो...
वैदेही - मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया है... जिससे कोई मुझे महान कहे... जाओ जाओ... मेरी बड़ाई मत करो...

विक्रम मुस्करा देता है और शुभ्रा का हाथ थाम कर चल देता है l टीलु और वैदेही उन्हें जाते हुए देखते हैं l थोड़ी देर के बाद

टीलु - दीदी... विक्रम ने तो सही कहा ना... आप वाकई महान हो...
वैदेही - अब तु शुरु हो गया...
टीलु - तुम सबको चुप करा दोगी... पर विश्वा भाई को कैसे चुप कराओगी... वह तो कहते ही हैं... तुम महान हो...
वैदेही - हम्म... मतलब तुमने कुछ किया है.... अब सच सच बता... क्या गुल खिला कर आया है...
टीलु - कुछ... कुछ तो नहीं...
वैदेही - देख अगर मुझे कुछ पता चला तो तेरी खैर नहीं...
टीलु - दीदी... मैंने कुछ नहीं किया... बस गाँव वालों के कान भरे... वह भी अपनी मीठी मीठी बातों से...
वैदेही - ऐ... क्या किया
टीलु - कुछ नहीं... शुकुरा और भूरा की कुटाई करवा दिया...
वैदेही - क्या... पर क्यों...
टीलु - वे दोनों हरामी साले...
वैदेही - (एक थप्पड़ मारती है) अपनी दीदी के सामने गाली देता है...
टीलु - आह.. (गाल सहलाते हुए) वे दोनों हैं ही... उस गाली के लायक... (वैदेही हाथ उठाती है मारने को) पुरी बात तो सुनो... (वैदेही का हाथ रुक जाता है) वे दोनों... मल्लि से... उसके के बारे में.. पूछताछ कर रहे थे...
वैदेही - क्या...
टीलु - हाँ... पास ही खड़ा था... मैंने गाँव वालों उल्टा सीधा जो भी आया... उन दोनों के बारे में बोल दिया... बोलते बोलते... गाँव वालों की अंदर की मर्दानगी को ललकारा... बस और क्या... उन दोनों की कंबल कुटाई करवा दिया... वह साले... अपने पैरों पर भी नहीं चल पाए... हम लोगों ने ही उठा कर रंग महल के बाहर फेंक आए... मेरा मतलब है छोड़ आए...
वैदेही - (संजीदा हो जाती है) ह्म्म्म्म... मतलब... भैरव सिंह... वह अनुष्ठान करेगा...
टीलु - हाँ दीदी... मुझे भी यही लगता है... क्यूँ ना विश्वा भाई से इस बारे में बात करें...
वैदेही - नहीं... हरगिज नहीं... विशु को... सिर्फ केस पर ध्यान देने दे... मल्लि को मैं अपनी निगरानी में रखूंगी... उसे मैं कुछ भी होने नहीं दूंगी...

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कोई अनजान हस्पताल का एक विशेष कमरा l मेडिकल बेड पर प्रतिभा लेटी हुई है l उसे सलाईन चढ़ाया जा रहा है l तापस प्रतिभा को जूस पीला कर ग्लास को बगल की टेबल पर रख देता है l बुझे मन से तापस प्रतिभा से सवाल करता है l

तापस - अब कैसा लग रहा है...
प्रतिभा - हाँ... थोड़ा बेहतर लग रहा है... (तापस उठ कर खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता है) क्या हुआ...
तापस - (मूड कर प्रतिभा को देख कर) जान... तुम बहुत स्वार्थी हो... तुम्हें मेरे बारे में... जरा भी खयाल नहीं है...
प्रतिभा - आप ऐसे तो ना कहिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - एक कैद सी जिंदगी हो गई है... आदत नहीं थी मुझे... इसलिए...
तापस - (चुप रहता है)
प्रतिभा - प्रताप को भी तो... मेरी खबर लेनी चाहिए थी...
तापस - अब से वह तुमसे बात करेगा...
प्रतिभा - (चेहरे पर रौनक आ जाती है) क्या..
तापस - हाँ... मैंने लेनिन को... कुछ अरेंजमेंट करने के लिए कहा है... वह जुगाड़ लगाने गया है...
प्रतिभा - तो यह शुरु से कर देना चाहिए था... सत्रह दिन... ऐसा लग रहा है... जैसे... अर्सा हो गया है...
तापस - ह्म्म्म्म...
प्रतिभा - क्या ह्म्म्म्म... प्रताप भी... मेरी कोई खैर लेता ही नहीं...

तभी कमरे में लेनिन आता है l हाथ में कुछ फल वगैरह थे l उसे देखते ही प्रतिभा सवाल दाग देती है l

प्रतिभा - क्या अरेंजमेंट किया तुमने...
लेनिन - आंटी जी... मैंने खबर भिजवा दिया है... कुछ ही देर में... एक मोबाइल हमें मिल जाएगा... पर कॉल... विश्वा भाई करेंगे... तब तक के लिए... आपको इंतजार करना पड़ेगा...
प्रतिभा - (लेनिन से) आजा मेरे बच्चे.. आ.. तेरा माथा चूम लूँ... आ...

लेनिन तापस की ओर देखता है l तापस उसे इशारे से प्रतिभा के पास जाने को कहता है l लेनिन प्रतिभा के पास जा कर झुकता है l प्रतिभा लेनिन के कान को जोर से पकड़ लेती है l लेनिन दर्द से चिल्लाने लगता है l

प्रतिभा - यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया... मेरी जान पर बन आई... तब जाकर कर रहा है...
लेनिन - आह आह... आपने ही तो... भाई से वादा किया था... आप रह लेंगी... भाई को आपकी बहुत चिंता थी...
प्रतिभा - मालूम है... उसे मेरी कितनी चिंता है... अब बोल उस तक कैसे खबर पहुँचाई तुने...
लेनिन - डैनी भाई... कटक में हैं... मैंने उन तक खबर पहुँचाई है... वह एक एनक्रीपटेड़ मोबाइल भिजवा रहे हैं... और विश्वा भाई को भी खबर कर दिया होगा... विश्वा भाई अपना टाइम निकाल कर... आपको फोन करेंगे...
प्रतिभा - यह एनक्रीपटेड़ क्या होता है...
तापस - जान... एनक्रीपटेड़ का मतलब होता है...
प्रतिभा - मैंने आपसे नहीं पूछा है... आप चुप रहिए... (तापस चुप हो जाता है) (लेनिन से) हाँ मैं तुझसे कुछ पूछ रही थी...
लेनिन - आह... एनक्रीपटेड़ मतलब... जिस पर कॉल ट्रेस ना हो पाए...
प्रतिभा - अच्छा... तो यह जुगाड़... पहले क्यूँ नहीं किया...
लेनिन - मुझे लगा था... सॉरी सॉरी... भाई को लगा था... आप महीना चालीस दिन रह लेंगी... पर भाई गलत निकले...
प्रतिभा - (और जोर से कान खींचती है) क्या कहा... मेरा प्रताप गलत है...
लेनिन - नहीं नहीं... आह... मैं... मैं गलत निकला... आंटी जी... प्लीज मेरा कान छोड़ दीजिए... दर्द हो रहा है...
प्रतिभा - (लेनिन का कान छोड़ देती है और बेड पर पालथी मार कर बैठ जाती है) ले छोड़ दिया... तो फोन कब लाकर दे रहा है...
लेनिन - बस दो ढाई घंटे के अंदर...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अब आ मेरे पास...
लेनिन - नहीं नहीं आंटी... मैं...
प्रतिभा - अब तु सीधी तरीके से मेरे पास आता है... या...

डरते डरते बेमन से लेनिन फिर से अपना सिर झुकाता है l इसबार प्रतिभा लेनिन का सिर अपनी हाथों में लेती है और लेनिन के माथे को चूम लेती है l लेनिन हैरानी से प्रतिभा की ओर देखता है l

प्रतिभा - अब क्या हुआ...
लेनिन - (हैरान हो कर) आप पहली बार मुझे प्यार किया है...
प्रतिभा - हाँ तो... पहली बार कोई काम ढंग से किया...
लेनिन - (आँखे छलकने को होता है पर मुस्करा देता है) मैं जा रहा हूँ... मोबाइल लाने...

कह कर बाहर चला जाता है l प्रतिभा अपनी हाथ से सलाइन की सुई को निकाल देती है l तापस हैरानी और फिक्र से प्रतिभा के पास आता है l पर तब तक प्रतिभा बेड से उठ खड़ी हो चुकी थी l

तापस - जान... तुम कमजोर हो अभी...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा... मेरा दवा लाने लेनिन गया है...
तापस - कहीं तुम... जानबूझकर अपनी सेहत खराब तो नहीं कि..
प्रतिभा - ऐसा कुछ नहीं है... मैं प्रताप के जुदाई में आधी हो गई थी... पर उसकी आवाज़ सुनने की चाहने... मेरे अंदर... फिर से ऊर्जा भर दी है...
तापस - (पास के एक कुर्सी पर बैठ जाता है) ह्म्म... एक उम्र में आते आते... जरूरतें बदल जाती हैं... पति से ज्यादा औलाद चाहिए होता है...
प्रतिभा - हो गया... ताना मारने की कोई जरूरत नहीं है... मैं जानती हूँ... तुम बाप बेटे... कॉन्टैक्ट में हो... उसकी हर खबर तुम्हारे पास है... मेरा दिल कह रहा है... कुछ ना कुछ हुआ ज़रूर है... पर तुमने मुझे बताया नहीं है... आज तो मैं जान कर ही रहूँगी.. समझे...
तापस - (दबी आवाज में) मर गए...
प्रतिभा - ऐसे कैसे... यम राज आयेंगे तो... सामने खड़ी हो जाऊँगी...
तापस - तुमने सुन लिया क्या...
प्रतिभा - हाँ... और आप भी सुन लीजिए... आज प्रताप की भी खैर नहीं है... तुम बाप बेटे मिलकर क्या गुल खिलाए हैं... यह जान कर ही रहूँगी... (तापस उठ कर जाने की कोशिश करता है) बैठिए... कहाँ जा रहे हैं...
तापस - (बैठ जाता है) मैं वह... लेनिन कहाँ गया... यह देखने जा रहा था...
प्रतिभा - वह आ जाएगा... ह्म्म्म्म... पहले यह बताइए... क्या कहा आपने.. उम्र के हिसाब से... जरूरतें... कुछ ऐसा ही कहा ना आपने...
तापस - अरे जान... तुम क्यूँ अपना बीपी बढ़ा रही हो... बेकार में... तुम्हारे गुस्से का शिकार बन गया... बेचारा लेनिन...
प्रतिभा - अच्छा... क्या ऐसा कर दिया मैंने...
तापस - अरे जरा सोचो... कितना बढ़िया अरेंजमेंट किया है... एक प्राइवेट हास्पिटल में... तुम्हें एक वीआईपी कमरे में रखा है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और... मुझे मेल नर्स के रुप में... हॉस्पिटल में... रखवा दिया है...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... और...
तापस - और क्या...
प्रतिभा - मैं आज आपके चिकनी चुपड़ी बातों में आने वाली नहीं... समझे... आज एक एक करके सबकी खबर लूँगी... अभी आपको लेनिन बेचारा लग रहा है ना... प्रताप से फोन पर बात हो जाने दीजिए... फिर बेचारों की फ़ेहरिस्त में आप भी नजर आओगे...
तापस - (बड़बड़ाते हुए) जो पहले से ही बेचारा हो... वह क्या नजर आएगा...
प्रतिभा - हो गया...
तापस - क्या... तुमको यह भी सुनाई दिया...

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नागेंद्र को रुप बाउल से कुछ तरल चम्मच से खिला रही थी l कमरे में दोनों के सिवा कोई है नहीं l नागेंद्र गुस्से में था, आनाकानी के बावजूद रुप के हाथों से खाना खा रहा था l नागेंद्र का खाना पूरा हो जाता है l रुप उसके मुहँ को गिले टावल से साफ करने लगती है l उसी वक़्त रूप कि फोन वाइब्रेट होने लगती है और मोबाइल की स्क्रीन चमकने लगती है l नागेंद्र हैरान हो कर रुप को देखता है l रुप मोबाइल निकाल कर देखती है, स्क्रीन पर बेवक़ूफ़ डिस्प्ले हो रहा था l नाम देख कर रुप की होंठों पर मुस्कान बिखर जाती है l मुस्कराते हुए नागेंद्र से कहती है

रुप - आपके दामाद जी का फोन है... (कॉल उठा कर, दबी आवाज में) हैलो...
विश्व - आप कहाँ हैं...
रुप - दादाजी को खाना खिला चुकी हूँ... उन्हें सुला कर... आपसे बात करती हूँ...
विश्व - नहीं... आप जल्दी अपने कमरे में आइये... मैं आपका इंतजार कर रहा हूँ...
रुप - क्या.. आप महल में हैं...
विश्व - हाँ...
रुप - (थोड़ी घबराहट के साथ) कैसे.. क्यूँ... राजा साहब के होते हुए...
विश्व - ससुरा नहीं है... रंग महल गया हुआ है... इसीलिए तो... आया हूँ...
रुप - अच्छा... आ रही हूँ...

रुप फोन काट कर नागेंद्र की तरफ देखती है l नागेंद्र हैरत से आँखे चौड़ी कर देख रहा था l रुप भी उसे देख कर शर्माने की नाटक करते हुए चिढ़ाते हुए l

रुप - यह फोन उन्होंने ही दिया था... वह सेबती है ना... उसके हाथों... ताकि मुझे कभी अकेलापन महसूस ना हो... अब वह मेरे कमरे में आ गए हैं... वह क्या है ना... महल में पहरेदारी अब सात दिन से ना कि बराबर हो गया है... और ऊपर से राजा साहब रंग महल गए हैं... अब मैं उन्हें समझा बुझा कर.. भेज कर... वापस आपके पास आती हूँ... आप तब तक... लेट कर आराम कीजिए... ह्म्म्म्म...

नागेंद्र को जितना गुस्सा आ रहा था उतना ही लाचार और बेबस था l शरीर के कुछ ही हिस्से में जान थी पर मुहँ के साथ साथ हाथ पैर भी उसके लकवा ग्रस्त था l अपनी गुस्सा जताने के लिए लंबी लंबी साँसे ले रहा था l रुप मुस्कराते हुए नागेंद्र को देख कर उसे उसी हालत में छोड़ कर कमरे से बाहर निकलती है l बाहर दो नौकर थे उन्हें कमरे के बाहर ठहरने के लिए कह कर अंतर्महल की ओर चली जाती है l

कमरे में पहुँच कर देखती है बेड पर विश्व हेड रेस्ट पर अपना सिर टिका कर बैठा हुआ था l रुप थोड़ी एटिट्यूड के साथ विश्व से कहती है

रुप - क्या हुआ... आप इस वक़्त... यहाँ... इरादा क्या है..
विश्व - यह आप मुझे... आप आप क्यों कह रही हैं...
रुप - वह इसलिए... की अब आप... हमारे पति परमेश्वर जो हैं...
विश्व - मैंने पहले ही आपसे कहा था... आप मेरे लिए... हमेशा राजकुमारी रहेंगीं... और मैं आपका गुलाम... अनाम...
रुप - हाँ तब तक... जब तक... राजकुमारी... रुप नंदनी सिंह क्षेत्रपाल थीं... अब वह एक... मामूली एडवोकेट को पत्नी... मिसेज़... रुप नंदिनी महापात्र है... और हाँ... वह एक सच्ची भारतीय गृहिणी है...
विश्व - ओ अच्छा... पर मुझे आपसे... आप सुनना बड़ा अजीब लग रहा है...
रुप - तो आदत डाल लीजिए... चाहे आगे चल कर... आप हमें आप कहें या ना कहें... हम तो आपको आप ही कहेंगे... वैसे आपने बताया नहीं... आप यहाँ आए किस लिए...
विश्व - (सीधा हो कर बेड पर पालथी मार कर बैठ जाता है) बतायेंगे बतायेंगे... जरा पास तो आइये... आप ही का बेड है... हमारे पास बैठिए तो सही...
रुप - अच्छा... मुझे अभी मालूम पड़ा... वह भी आपसे कि यह बेड मेरा है...

विश्व मुस्करा देता है और रुप की ओर देखने लगता है l रुप मुहँ पर शरारती पाउट बना कर विश्व से कहती है l

रुप - अगर वह बात सोच रहे हो... तो भूल जाओ... हाथ भी लगाने नहीं दूंगी...
विश्व - क्यूँ भई... हक बनता है हमारा... आखिर पति परमेश्वर जो हैं आपके... वैसे भी... शिकायत रहती है आपको मुझसे... की मैं... डरपोक हूँ... फट्टु हूँ...
रुप - तो... प्यार में हमेशा... मर्जी तो हमारी ही रहेगी... वैसे भी... आप ही ने कहा था... छत वाली आखिरी मुलाकात पे... अगली बार जब आयेंगे... मुझे ले जायेंगे...
विश्व - आप अभी कहिये... ले चलते हैं...
रुप - नहीं... अगर ले जाने आए हैं... तो अभी नहीं... जब तक केस निपट नहीं जाती... तब तक तो नहीं... हाँ अगर इस बीच दादाजी को कुछ हो गया तो...
विश्व - उन्हें कुछ नहीं होगा... वह जिंदा इसलिए हैं... ताकि मुझे राजा साहब के कदमों पर घुटनों के बल गिरा देख सकें... बड़ी सख्त जान है उनकी...
रुप - वैसे इस वक़्त... आप क्यूँ आए हैं... वह भी शाम को... राजा साहब अगर आ गए तो...
विश्व - तो आपके कमरे में तो सीधा नहीं आयेंगे ना... वैसे भी... माँ... मुझसे बात करना चाहती थीं...
रुप - (भाग कर आती है और विश्व के सामने बैठ जाती है) ऊइ माँ... हमने इतना बड़ा कांड कर दिया... और उन्हें खबर तक नहीं की...
विश्व - आप जानती हैं... क्यूँ... वह रूठीं हुईं हैं... हम दोनों मिलकर मनाएंगे और माफी भी मांग लेंगे...

इतना कह कर विश्व अपना मोबाइल निकालता है और एक नंबर पर विडियो कॉल करता है l थोड़ी देर बाद स्क्रीन पर प्रतिभा दिखती है पर ज़वाब में वह कुछ नहीं कहती l

विश्व - कैसी हो माँ...
प्रतिभा -(रूखी आवाज में) मरी तो नहीं हूँ...
विश्व - माँ प्लीज... ऐसी बातेँ मत करो... तुम जानती हो... मैं क्यूँ तुम्हें लेनिन के साथ भेज दिया था...
प्रतिभा - हाँ पता है... पर... सत्रह दिन हो गए हैं... मुझे कुछ भी पता नहीं चल रहा है... तेरा यह दोस्त लेनिन... ऐसी ऐसी जगहों पर घुमा रहा है... जहां मोबाइल की टावर भी नहीं है... इसलिए वैदेही से भी बात नहीं हो पा रही है...
विश्व - माँ... देखते देखते जब सत्रह दिन बीत गए... तो और बीस पच्चीस दिन भी बीत ही जायेंगे... बस इतनी सी बात के लिए... तुम अपनी जान पर ले आई...
प्रतिभा - कुछ नहीं होगा मुझे... मर नहीं सकती मैं... (नर्म और प्यार से) मुझे तो... पोते पोतीयों के साथ खेलना है... कितना कुछ करना है... (एक पॉज) तु कैसा है...
विश्व - अच्छा हूँ... तुम्हारा आशीर्वाद है... बस कुछ ऐसा हो रहा है... जो मेरे बस से बाहर था...
प्रतिभा - क्यूँ... तेरा केस तो मजबूत है ना...
विश्व - पर उसके लिए केस की सुनवाई शुरु भी तो होनी चाहिए... राजा साहब ने... अपनी चाल चल दी... वैसे मुझे कोई शिकायत नहीं है... क्यूँकी ऐसा तुमने चाहा था...
प्रतिभा - क्या मतलब मैंने चाहा था... मैंने चाहा था... तु केस जीत जाए बस...
विश्व - और तुमने यह भी कहा था... जब मैं कटक लौटुं... तो तुम्हरी बहु के साथ ही लौटुं...
प्रतिभा - तो इससे... इस केस का क्या संबंध...
विश्व - यह आप अपनी बहु से पूछिये...

कह कर विश्व रुप की ओर मोबाइल का रुख कर देता है l रुप घबरा कर प्रतिभा को झिझकते हुए नमस्ते करती है l

प्रतिभा - अरे नंदिनी... तुम... मतलब... प्रताप अभी तुम्हारे साथ... महल में है क्या...
रुप - (मुस्कराने को कोशिश करते हुए) जी... जी.. माँ जी...
प्रतिभा - एक मिनट... प्रताप महल में तुम्हारे साथ... और यह कह रहा है... राजा साहब अपनी चाल चल दी... क्या माजरा है...
रुप - माँ जी... आप ठंडे दिमाग से... मेरी पूरी बात सुनिए..

रुप कहना शुरु करती है, कैसे केके से मुलाकात के बाद उसे मालूम हुआ कि उसकी शादी भैरव सिंह ने केके से तय कर दी थी l कैसे भैरव सिंह ने किस किस को शादी का न्योता दिया था l कैसे और किस तरह से उसके दोस्तों को राजगड़ लाया गया था l रुप कैसे विक्रम तक खबर पहुँचाई और उसकी शादी हो गई l जिसको आधार बना कर भैरव सिंह ने केस की सुनवाई को सात दिन के लिए टाल पाने में कामयाब हो पाया l सारी बातेँ सुनने के बाद

प्रतिभा - इतना कुछ हो गया... और तुम दोनों अभी बता रहे हो...
रुप - आपसे कॉन्टैक्ट करना मुश्किल था... और हमारे पास वक़्त ही नहीं था...
विश्व - हाँ... और यह सब आपके वज़ह से हुआ...
प्रतिभा - मेरी वज़ह से कैसे...
विश्व - आप ही ने कहा था.. मैं कटक आपके बहु के साथ लौटुं... आपके मुहँ से जैसे ही निकला... भगवान ने तथास्तु कर दिया... इसलिए इतना कुछ हो गया...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) ठीक है... मैं समझ गई... (तापस की ओर देख कर) क्या तेरे डैड को खबर थी...
तापस - अरे भाग्यवान कैसा सवाल कर रही हो...
प्रतिभा - आप चुप रहिए... (विश्व से) देख सच सच बताना...
विश्व - (झिझकते हुए) हाँ... हाँ..
प्रतिभा - देख प्रताप... तूने मुझे खबर क्यूँ नहीं की... मैं समझ गई... तुझे लगा होगा... तेरी माँ कमजोर दिल की है... पर तुने यह कैसे सोच लिया... तेरी माँ का दिल ही नहीं है...
विश्व - (शर्मिंदा होते हुए) स.. सॉरी माँ...
प्रतिभा - खैर जो भी हुआ... मुझे खुशी है... पर तुम दोनों... दुसरी बार शादी के लिए तैयार रहना... यहाँ तुम दोनों की... फिर से... धूम धाम से शादी होगी... (तापस से) क्यूँ जी...
तापस - हाँ हाँ क्यूँ नहीं...
विश्व - जैसा तुम ठीक समझो माँ...
प्रतिभा - अच्छा अब तु हट... मुझे अब बहु से बात करने दे... (विश्व मोबाइल को रुप की हाथ में दे देता है) हाँ तो बहु रानी... तुम्हारे कमरे में... यह ऐसे ही चला आता है...
रुप - (शर्मा कर अपना सिर हिलाती है)
प्रतिभा - कहीं तुम दोनों ने... सुहाग रात तो नहीं मना लिया...
रुप - (चौंक जाती है) नहीं... नहीं माँ जी... नहीं...
प्रतिभा - ह्म्म्म्म... अच्छी बात है... वैसे क्यूँ नहीं मनाया...
रुप - आपकी आशीर्वाद नहीं था... इसलिए...
प्रतिभा - इसलिए... या मौका नहीं मिल पाया... इसलिए...
तापस - यह क्या भाग्यवान... बहु से कैसी बातेँ कर रही हो...
प्रतिभा - आप तो चुप ही रहिए... (रुप से) ऐ... मैंने कुछ पूछा तुम से...
रुप - बात मौके की नहीं है माँ जी... सुहाग रात ससुराल में होती है... मैं अभी तक मैके में हूँ...
प्रतिभा - (मुस्कराते हुए) अच्छा विचार है... चलो... कोई तो काम हमारे हिस्से छोड़ा तुम दोनों ने...
विश्व - माँ... अब तो कोई शिकायत नहीं है ना तुम्हें...
प्रतिभा - है... अभी भी है... पर तुम दोनों को एक साथ देख कर सब भूल गई... (तभी फोन पर सीलु का नाम डिस्प्ले होने लगता है)
विश्व - अच्छा माँ... अपना खयाल रखना... सीलु कॉल कर रहा है... लगता है... ससुरा वापस आ रहा है... मुझे जाना होगा...
प्रतिभा - ठीक है बेटा... पर ध्यान रहे... जैसे अपने डैड को हर बात शेयर कर रहा है... मुझसे भी करते रहना...
विश्व - जी.. माँ..
प्रतिभा - लव यू... कुडोस...
दोनों - लव यू मॉम...

फोन कट जाता है l सीलु बार बार कॉल लगा रहा था l विश्व कॉल उठाता है l उसके बाद रुप को देखता है और कॉल काट कर दरवाज़े के पास जाता है और मुड़ कर रुप से कहता है

विश्व - अच्छा... तो हम चलते हैं...
रुप - फिर कब मिलोगे...
विश्व - जब आप कहोगे...
रुप - अच्छा तो अब आप जाइए...
विश्व - क्या... रूखा सूखा...
रुप - (बेड से उतर कर विश्व के पास जाती है) तो जनाब को... क्या चाहिए...
विश्व - भई शादी किए हैं... कम से कम... मुहँ तो मीठा कर ही सकती हैं...
रुप - (इतराते हुए) आज आपके इरादे नेक नहीं लग रहे हैं... कहीं... कोई... हरकत कर दी... तो...
विश्व - इरादा तो केवल मुहँ मीठा करने का है... अब हाथों का क्या... भई हाथ हैं... हरकत तो करेंगे ही...
रुप - (विश्व की गिरेबान पकड़ कर खिंच कर दीवार से सटा देती है) आप शायद भूल रहे हैं... मैं बहुत खतरनाक हूँ...
विश्व - (रुप के हाथों को पकड़ कर पलट जाता है, अब रुप पीठ के बल दीवार से सटी हुई थी और विश्व का चेहरा रुप के चेहरे के पास था) हमें सब याद है... पर आप यह भूल रहीं हैं... मैं बिल्कुल भी खतरनाक नहीं हूँ...

शर्म से रुप के गाल लाल हो जाते हैं, अनिच्छा से अपनी हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है l विश्व हाथ छोड़ देता है पर दोनों हाथ दीवारों से लगा कर बीच में रुप को रोक देता है और l विश्व और रुप एक दुसरे की आँखों में झाँक रहे थे l एक दुसरे की साँसे टकरा रहे थे l दोनों की साँसों में धीरे धीरे तेजी आने लगती है l रुप की आँखों में मदहोशी साफ झलक रही थी l अपने निचले होंठ को दांत से हल्का दबा लेती है l मुस्कराते हुए आँखे बंद कर अपनी होंठ को खोल कर विश्व की तरफ आगे बढ़ा देती है l रुप के होठों पर विश्व की गर्म साँसों को महसूस होती है l रुप की बदन एक सर्द भरी आह के साथ कप कपा जाती है l पर कुछ देर के बाद भी कुछ नहीं होता l हैरानी के मारे अपनी आँखे धीरे से खोलती है l विश्व नहीं था, गायब हो चुका था l रुप अपनी दांत भिंच लेती है, चिढ़ जाती है और बड़बड़ाने लगती है

रुप - बेवक़ूफ़... फट्टु.. स्टुपिड... अगली बार देखना... काट खाऊँगी...


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एक हाथ में एक शराब का बोतल और दूसरे हाथ में दो ग्लास लिए भैरव सिंह नागेंद्र के कमरे में आता है l कमरे के भीतर दो नौकर दरवाजे के पास खड़े थे l भैरव सिंह उन्हें देखता है और नागेंद्र सिंह को देखता है l जो आँखे मूँदे अपनी बिस्तर पर लेटा हुआ था l भैरव सिंह उन नौकरों से पूछता है

भैरव सिंह - बड़े राजा जी का खाना हो गया...
एक नौकर - कुछ देर पहले... राजकुमारी जी ने शाम का खाना खिला दिया था...
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म... ठीक है... तुम दोनों जाओ यहाँ से... मतलब इस कमरे से दूर... हम थोड़ी देर... बड़े राजाजी के साथ बैठेंगे...
दुसरा नौकर - दूर मतलब... कहाँ राजा साहब...

भैरव सिंह का चेहरा सख्त हो जाता है l मुड़ कर उस नौकर की ओर देखता है l नौकर का पसीना छूट जाता है l

भैरव सिंह - जाओ... उतना ही दूर जहां तुम्हें... कॉलिंग बेल सुनाई दे...
दोनों - जी राजा साहब... हम समझ गए...
भैरव सिंह - अब दफा हो जाओ यहाँ से...

दोनों नौकर बाहर निकल जाते हैं l उनके जाते ही भैरव सिंह एक टेबल खिंचते हुए बेड के पास लता है l उस पर शराब की बोतल और दो ग्लास रख देता है l भैरव सिंह नागेंद्र की ओर देखता है, नागेंद्र की आँखे खुल चुकी थी l

भैरव सिंह - आपकी नींद में खलल पड़ी, उसके लिए हमें माफी चाहते हैं...

भैरव सिंह बेड की हैंडल को घुमाता है l बेड का सिरा थोड़ा ऊपर उठ जाता है l ऐसा लगता है जैसे नागेंद्र पैर फैला कर बेड पर पीठ के बल बैठा हुआ है l भैरव सिंह बोतल की ढक्कन खोल कर दोनों ग्लास में शराब उड़ेलता है l फिर एक ग्लास लेकर नागेंद्र के पास बैठता है और

भैरव सिंह - ना जाने कब आखरी बार... मिलकर पिया था... आज आपके साथ... हम पीना चाहते हैं...

हैरानी के साथ नागेंद्र भैरव सिंह को देखता है l भैरव सिंह ग्लास को नागेंद्र के होठों पर लगा देता है और अपना ग्लास उठा कर नागेंद्र से कहता है

भैरव सिंह - चियर्स बड़े राजा जी...

भैरव सिंह अपना ग्लास खाली कर देता है फिर नागेंद्र के मुहँ में थोड़ा डाल देता है l नागेंद्र वह शराब का घूंट गटक लेता है l फिर शराब की ग्लास को नीचे रख कर

भैरव सिंह - जो हुकूमत की डोर विरासत में मिला था... हम उसे कायम रखने में.. नाकाम रहे... इन कुछ दिनों में... हालात ने... हमें क्या कुछ नहीं दिखाया... (उठ का कमरे में चहल कदमी करते हुए) महल के दर के अंदर कभी पुलिस आ नहीं पा रही थी... आती भी तो जुते बाहर खोल कर आते थे... (नागेंद्र को देखते हुए) आज आलम यह है कि... दो टके का पुलिस ऑफिसर... महल में... अपने लोगों के साथ घुस आता है... वह भी जुते पहन कर... (फ़िर से चहल कदमी करते हुए) गाँव वाले... कभी नजरें उठा कर इस महल की तरफ़ देखना तो दूर... अगर आ जाते थे... तो उल्टे पाँव लौट जाते थे... पर... पहली बार ऐसा हुआ... के हमें पीठ दिखा कर... गाँव वाले लौटे... और आज तो हद हो गई... हमारे नाम के साये में... महल के लोगों से डरने वाले... आज.. महल के लोगों पर... लाठी डंडे चाला दिए... (फिर रुक जाता है और नागेंद्र के तरफ देखते हुए) यह सब हमारी ही गलती है... गलती शायद बहुत छोटा शब्द है... अपराध हो गया है हमसे... (पास आता है और नागेंद्र के सामने बैठकर) हमनें जिसे... चींटी समझा... आज वह बाज बन गया है... जिसकी अहमियत दीवारों पर रेंगने वाली छिपकली से ज्यादा नहीं थी... आज वह मगरमच्छ बन गया है... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... विश्वा के बारे में बात कर रहे हैं... (अब फिर से शराब को ग्लास में डालता है और एक घूंट पहले नागेंद्र को पिलाता है फिर खुद अपना ग्लास ख़तम कर देता है, फिर नागेंद्र को देख कर) हमनें... गलतियाँ बहुत की है... अपनी खानदानी गुरुर के चलते... वैदेही को जिंदा रहने दिया... विश्व को जिंदा छोड़ दिया... यही दोनों... अब हमें... हमारा दुर्दिन दिखा रहे हैं... (एक गहरी साँस छोड़ते हुए) वर्ना किसी पुलिस वाले की औकात कहाँ हो सकती थी... के हमें हमारी ही महल में नजर बंद कर सके... किसी अदालत में कहाँ जुर्रत थी... के हमें कठघरे में खड़ा कर सके... पर यह सब हुआ... हमारे साथ हुआ... (अपनी जगह से उठ कर खिड़की के पास जाता है और बाहर की ओर देख कर) हम जानते हैं... आपने अपनी मौत को रोके रखा है... क्यूँकी आपको उस जलील... हराम खोर विश्व का अंत देखना है... हमने भी आपको इस बात का वादा किया है... पर उस वादे ने.. हमसे बहुत बड़ी कीमत ली है... हम हर जलालत को झेलते रहे... के ठीक है... राजगड़ के लोग... अभी भी हमसे खौफ खा रहे हैं... विश्व चाहे कितना भी बरगला ले... गाँव वाले हमारे खिलाफ जा नहीं सकते... (नागेंद्र के तरफ़ मुड़ कर) पर आज यह भरम भी टुट गया... आज गाँव वाले... हमारे लोगों पर लाठी चला कर... हमें हमारे आने वाले कल का... ऐलान कर दिया... अभी भी अगर हम खामोश रहे... तो यह क्षेत्रपाल की नाकारा पन होगा... नपुंसकता होगी... (नागेंद्र के पास बैठ जाता है) एक बात हमेशा से कही जाती है... इतिहास खुद को दोहराता है... हाँ बड़े राजा जी... अब इतिहास खुद को दोहराएगा... जो इतिहास सौरभ सिंह क्षेत्रपाल ने रचा था... पाईकरॉय परिवार के खिलाफ... अब वही इतिहास... राजगड़ के हर एक परिवार के खिलाफ दोहराया जाएगा... जिससे ऐसा भूगोल का रचना होगा... के आइंदा कोई माईकालाल फिर कभी... महल की तरफ़ आँख उठा कर नहीं देखेगा... फिर कभी कोई ख़ाकी वर्दी वाला इस महल की चौखट पर नहीं आएगा... फिर कभी किसी क्षेत्रपाल को... अदालत में पेश करने की... सपने में भी नहीं सोच पाएगा... हाँ बड़े राजा जी... हाँ... इस बार सभी ने... अपना अपना लक्ष्मण रेखा लांघ लिया... अब हर कोई... अपनी अपनी अमर्यादा के लिए... कीमत चुकाएंगे... आप सोच रहे होंगे... यह सब... कैसे होगा... हा हा... हा हा हा हा हा... हाँ मैंने अपनी चालें चल दी है... एक बहुत बड़ी प्राइवेट आर्मी को मैंने हायर किया है... क्यूँकी ना सिर्फ लोग... बल्कि सिस्टम में रह कर भी... जिन्होंने सिस्टम के जरिए... हमें यह दिन दिखाए हैं... हर एक जान को... हम सजा देंगे... मर्सीनरीज बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं... उनके पहुँचने के बाद... सिर्फ खून खराबा होगा... सिर्फ खून खराबा... कुछ इतिहास दफन हो जाएंगे... कुछ किवदंती जन्म लेंगे.... इसलिए आज आपके पास... आपका आशीर्वाद लेने आए हैं... (नागेंद्र की आँखे बड़ी हो जाती है) हाँ आपको हैरानी हो रही है... यह सिर जो कभी किसी के आगे नहीं झुकता... आज कैसे आपके आगे झुक गया... वह इसलिए... के पूरी दुनिया में.... एक आप ही हैं... जो मेरे साथ हैं... और रिश्ते में... मेरे पिता भी हैं...

भैरव सिंह नागेंद्र के दोनों हाथों को पकड़ कर अपने सिर पर रख लेता है और और कुछ देर बाद नागेंद्र का हाथ छोड़ देता है और जब अपना सिर उठाता है नागेंद्र को उसकी आँखों में एक शैतानी चमक दिखती है l वह चमक इतनी तेज थी के नागेंद्र के चेहरे पर डर साफ नजर आने लगती है l
Nice update...
 
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bas nagendra ki maut kaise hoti hai ,kis wajah se hoti hai ye dekhna majedar hona chahiye ..
bhairav to chal fir sakta hai par nagendra ...
kya nagendra apne bete ki maut dekhega ( shayad jail me jaaye bhairav ) .par mujhe lagta hai bhairav maara jaaye apne Baap ki aankho ke Saamne..

inke kukarm ki list bahut lambi hai to saja bhi aisi honi chahiye ki sabki rooh kaam jaaye ..
 
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