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Fantasy विष कन्या - (Completed)

ashish_1982_in

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आगे हमने देखा के मध्य रात्रि लावण्या की नींद टूट जाती है और वो कक्ष से बाहर टहल ने केलिए निकलती है। अचानक उसकी नजर महल के बाहर एक कोने में बात करते सेनापति और मृत्युंजय पर पड़ती है। जब वो मृत्युंजय को पूछती हे तो वो असत्य कहता हे की उसे निंद्रा नही आ रही थी तो टहल ने केलिए गया था। सेनापति वज्रबाहु गुरुकुल में राजगुरु वज्रबाहु से मिलने जाते है। अब आगे......


राजगुरु प्रतीक्षा कर रहे हे किंतु एक एक क्षण उनके लिए मानो दिनों जैसे बीत रहा है । शिष्य सेनापति वज्रबाहु को कुटीर के भीतर लेकर आता है। वज्रबाहु राजगुरु को प्रणाम करते हे। आयुष्यमान भव। सेनापति वज्रबाहु आप यहां ऐसे अचानक? राजमहल और राज्य में सब कुशल मंगल तो है ना? ओर राजकुमारी वृषाली उनका स्वास्थ्य तो.....?


सेनापति वज्रबाहु राजगुरु को विचलित होते देख उनको वार्ता के मध्य में ही रोक लेते है, शांत राजगुरु राजमहल और राज्य में सब कुशल है। राजकुमारी वृषाली भी ठीक है आप चिंता ना कीजिए। राजगुरु को आश्चर्य हुआ।


जब सब कुशल मंगल हे तो आपका यूं अचानक गुरुकुल में आने का तात्पर्य सेनापति वज्रबाहु? सेनापति नही राजगुरु सिर्फ वज्रबाहु , आपसे मिलने आज सेनापति नही किंतु मात्र वज्रबाहु आया है। आज में यहां आपके समक्ष सेनापति बन के नही किंतु एक संदेश वाहक बन के उपस्थित हुआ हुं।


वज्रबाहु यूं पहेलियां बुझाना बंध करो और विस्तार से कहो जो कहेना है। जी गुरुजी। वज्रबाहु ने कटिबंध में से एक पत्र निकाला और राजगुरु को दिया। राजगुरु ने तुरंत उस पत्र को खोला और पढ़ने लगे। पत्र पढ़ते ही उनके मुख की रेखाएं बदल गई, वो चिंता में पड़ गए। पत्र में लिखाथा,


"राजमहल में बहुत बड़ा षडयंत्र हो रहा हे कृपया महाराज और राज्य दोनों की रक्षा हेतु तुरंत महल पधारिए। मृत्युंजय"


राजगुरु के भाल पर प्रसवेद की बूंदे फुटी, वो अपने आसन पर विराज गए। षडयंत्र ? राजमहल में, कैसा षडयंत्र वज्रबाहु? वज्रबाहु राजगुरु के समीप गए और उनको आस्वस्थ करते हुए बोले, इस विषय में तो मृत्युंजय ही बता सकता है। उसने मुझे भी नही बताया, बस इतना कहा की में आपको ये संदेशदू। जब आप वहां होंगे तभी विस्तार से बात करेगा।


मुझे उसकी बातो पर पूर्ण विश्वास तो नही हे किंतु में महाराज और राज्य की सुरक्षा पर किसी भी प्रकारका संकट नही आने दे सकता इस हेतु में यहां उसका संदेश लेकर आया हु। मृत्युंजय कभी असत्य नहीं कहेगा, कोई बात जरूर होगी। में उसे भली भांति जानता हूं सेनापति। मुझे सीघ्र ही राजमहल पहुंचना चाहिए।


एक और बात भी कही हे मृत्युंजय ने, क्या वज्रबाहु? मृत्युंजय ने कहा हे की हम दोनो साथ रामाहल ना जाए, अलग अलग जाएं जिस से षडयंत्र कारी सचेत न हो जाए। और आपसे इस विषय में महाराज से भी वार्तालाप करने से मना किया है। उसने कहा हे की ये बात हम तीनो के मध्य में ही रहें चाइए।


मृत्युंजय ने इतनी सावचेति बरतने को कहा हे इसका तात्पर्य यही हे की बात जरूर गंभीर है सेनापति। हमे तुरंत यहां से राजमहल केलिए प्रस्थान करना चाहिए। सेनापति वज्रबाहु आप प्रस्थान कीजिए में भी बहुत जल्द राजमहल पहुंचता हूं। जो आज्ञा राजगुरु, सेनापति ने प्रणाम किया और प्रस्थान किया।
मध्याह्न का समय हे लावण्या दर्पण के समक्ष बैठी हे और सारिका उसके बाल सहेज रही हे। लावण्या किसी विचार में खो गई हे। वो यहां होकर भी नही हे जब ये सारिका ने देखा तो उसने लावण्या का कंधा हिलाया और उसके विचारों की डोर को तोड़ दिया।


लावण्या किस विषय में इतना विचार कर रही हो? बात क्या हे, में देख रही हूं की दो तीन दिन से तुम कुछ खोई खोई सी रहती हो। अगर कुछ हुआ है तो बताओ ना। मृत्युंजय भी आजकल बहुत कम बोलता है, क्या तुम दोनो के मध्य कोई मनमोटाव हुआ हैं या किसी विषय को लेकर कहा सुनी हुई हे।


लावण्या कहने ही जा रही थी के रुक गई। क्या बताऊं तुम्हे सारिका? ये की मृत्युंजय मुझसे असत्य बोल रहा हे, या फिर ये की आजकल वो मुझे देखकर नजर चुराकर चला जाता हे। नही ये हम दोनो मित्र के मध्य की बात हे। में इस विषय में सारिका से कुछ नही कहूंगी। जरूर कोई कारण रहा होगा अन्यथा मृत्युंजय असत्य बोलनेवालो में से नही है।


लावण्या, फिर से विचारों में डूब गई ? क्या हे बताओ तो सही। कुछ नही सखी, ऐसी कोई बात नही हे।लावण्या ने अपने मुख के हावभाव को छुपाने की कोशिश करते हुए कहा। मृत्युंजय अपने कार्य में कदाचित व्यस्त होगा इसलिए काम बात करता होगा। तुम सत्य कहे रही हो सखी?


क्या में अंदर प्रवेश कर सकता हूं? कक्ष के मुख्य द्वार से आवाज आई। लावण्या और सारिका दोनों उस ओर देखने लगी। आप यहां? द्वार पर राजकुमार निकुंभ थे जिसे देखकर दोनो सहेलियां आश्चर्य चकित हो गई। जी मेने कुछ दिनों से आपको और मृत्युंजय को वाटिका में नही देखा तो चिंता हुई की आप स्वस्थ तो हैं ना, इस लिए चला आया क्षमा कीजिएगा अगर आपको कोई....


अरे नही ऐसा कुछ नही हे, आई ए पधारिए। वो बात ये हे की मैं और मृत्युंजय दोनो अपने अपने कार्य में व्यस्त हैं इस लिए समय ही नहीं मिलता। किंतु में हमेशा आपकी वहां प्रतीक्षा करता हूं। जी... मेरे कहनेका तात्पर्य ये है की आप और मृत्युंजय दोनो की। निकुंभ ने बात को संभाल लिया। हम सब रोज संध्या के समय वाटिका में मिलते थे ना किंतु आप लोग नही आए दो तीन दिनों से तो विचार आया की आपसे यहां आकर भेंट करलू।


राजगुरु राजमहल पहुंचते ही महाराज से भेंट करने गए जैसे वो हर बार करते है। राजमहल की राज्य की कुशलता के विषय में जानकारी ली। उनके वर्तन में कुछ भी बदलाव दिखाई न दे इसके लिए वो संपूर्ण सजाग थे। उनके मस्तिष्क में एक ही प्रश्न घूम रहा था, आखिर मृत्युंजय के हाथ ऐसा क्या लगा है जिस से प्रमाणित हो की महल में षडयंत्र चल रहा है। उन्हे बस रात्रि की प्रतीक्षा थी। आज दिन बहुत लंबा लग रहा है।
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ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, सेनापति राजगुरु को मृत्युंजय का संदेश देते है और राजगुरु राजमहल पधारते है। दर्पण के सामने बैठी लावण्या कहीं खोई हुई है, जब सारिका कारण पूछती हे तो वो बात को टाल देती है तभी वहां राजकुमार निकुंभ आते है। राजगुरु रात्रि होने की प्रतीक्षा कर रहे हे। अब आगे.....


राजगुरु रात्रि की प्रतीक्षा कर रहे है। संध्या ढल गई थी अब सब अपने अपने भोजन कार्य में व्यस्त हो गए थे किंतु आज राजगुरु के गले से निवाला नही उतर रहा हे। उन्हों ने भोजन को प्रणाम किया और भोजन किए बिना ही उठ गए। वो कक्ष में व्याकुल होकर चहलकदमी कर रहे हे। धीरे धीरे रात्रि का प्रथम प्रहर पूर्ण हुआ और दूसरा शुरू हुआ। राजगुरु ने अपनी दुशाला शरीर पर लपेटी और कक्ष से बाहर निकले।


आज पहली बार राजगुरु राजमहल में एक चोर के भांति दबे पांव चलते चलते मृत्युंजय के कक्ष तक पहुंचे। कक्ष में प्रवेश करते ही उन्हों ने भीतर से द्वार बंद कर दिया। राजगुरु को देखते ही मृत्युंजय उनके सामने उनका अभिवादन करने केलिए आया और प्रणाम किया।


राजगुरु आसन पर विराजे। सेनापति वज्रबाहु वहां पहले से ही उपस्थित थे। मृत्युंजय बताओ की ऐसी क्या बात हे जिसने तुम्हे यह सोचने पर विवश कर दिया की यहां, राजमहल में कोई षडयंत्र हो राहा है? राजगुरु अपनी व्याकुलता और जिज्ञासा अब अधिक समय तक संभाल नहीं पाए।


मृत्युंजय ने राजगुरु के हाथ में एक लिपटा हुआ पत्र दिया। राजगुरु ने उसको तुरंत खोला, वो बिलकुल कोरा था उसमे कुछ भी नही लिखाथा। ये क्या मृत्युंजय तुम मेरे साथ उपहास कर रहे हो? इसमें तो कुछ भी नही लिखा हे। राजगुरु थोड़ा छिन्न होगए।


शांत राजगुरु, मृत्युंजय कक्ष में थोडी दुरी पर दीपक जल रहे थे वहां से एक दीपक लेकर आया और राजगुरु के सामने रक्खा। राजगुरु मृत्युंजय का इशारा समझ गए, उन्हों ने पत्र को दीपक के समीप रक्खा तो उसमे अक्षर साफ साफ दिखाई दिए, उसमे लिखाथा,


" अब यहां कुछ नही हो सकता, यहां अब कुछ भी करना मेरे बस में नहीं है। अब आप ही कुछ मार्ग निकालिए"


मृत्युंजय इसमें ऐसा क्या है जो तुम दृढ़ता से कहे सकते हो की ये पत्र षडयंत्र के विषय में है? ओर तुम्हे ये पत्र कहां से मिला?।


राजगुरु मुझे ये पत्र एक बाज पक्षी के पास मिला। बाज पक्षी के पास? राजगुरु और सेनापति दोनो को आश्चर्य हुआ। जी राजगुरु । में जब से यहां आया हुं तबसे में जरुखे में खड़ा होकर रात्रि में आकाश को निहारता हूं, यह मेरी आदत है। मुझे कुछ कुछ दिन के अंतर पर यहां से बाज पक्षी साप को अपने मुंह में लिए हुए जाते दिखाई देता।


पहले मेने ध्यान नहीं दिया किंतु कुछ दिन पहले मेने देखा की उस बाज़ पक्षी के पंजों में एक गठरी थी जिसे वो लेकर जा रहा था। बाज पक्षी के पंजों में गठरी? हां राजगुरु आप जानते ही हे की एक बड़ा बाज़ पक्षी एक बड़ी भेड़ को भी अपने पंजों में दबोच कर लेके उड़ जाता है। हा मृत्युंजय। मेने उस बाज़ के पंजों में जो गठरी थी उस पर निशाना साधा, तीर जाकर सीधा उस पर लगा और बाज़ के पंजों से गठरी छूट गई और जमीन पर गिर गई।


मेने वहां जाकर उस गठरी को ले लिया और जब कक्ष में आकर उस गठरी को खोला तो उसमे जो कुछ भी था उसे देखकर मेरी आंखे फटी रहे गई। ऐसा क्या था मृत्युंजय उस गठरी में? सेनापति ने प्रश्न किया। मृत्युंजय अपने कक्ष में पड़े एक बड़े से पिटारे के पास गया और उसे खोलकर उसमे से वो गठरी लेकर आया और मध्य में रखदी।


राजगुरु और सेनापति दोनो इस गठरी में क्या हे ये जान ने केलिए उत्सुक थे। मृत्युंजय इसमें क्या है? आप खुद ही देख लीजिए राजगुरु। मृत्युंजय ने गठरी छोड़ी तो अंदर एक बांस की टोकरी थी। मृत्युंजय ने जब उस टोकरी खोली तो राजगुरु और सेनापति दोनो चोंक गए वो दोनो अपने आसन से उठ गए। ये क्या मृत्युंजय ये तो.... सेनापति आगे बोल नही पाए।
राजगुरु पर जैसे किसीने अचानक ही किसी तीक्ष्ण हथियार से घात किया हो ऐसी उनकी हालत हो गई। वो मुख से कुछ बोलभी नही पा रहे थे। ये तो सर्प हे और वो भी विषैला। राजगुरु के मुख से यही शब्द निकले। जी राजगुरु, और ये मृत भी हे। किंतु ऐसे गुप्त संदेश के साथ ऐसे मरा हुआ सर्प भेजने का अर्थ क्या हो सकता है राजगुरु?


में बताता हूं सेनापति जी इसका मतलब ये हे की कोई ऐसा महल में है जो सर्प का विष उपयोग कर रहा हे या उपयोग हेतु एकत्रित कर रहा है। ये घटना बहुत बड़े संकट का अंदेशा दे रही हे। सत्य कहा मृत्युंजय हमे इस विषय में तुरंत महाराज से बात करनी चाहिए। नही राजगुरु हमें अभी महाराज से बात नही करनी चाहिए फिर वो अपने किसी भी मंत्री पर विश्वास नहीं कर सकेंगे और ये हमारे राज्य केलिए ठीक नही होगा।


ये बात हम तीनो के मध्य ही रहनी चाहिए ताकि षडयंत्रकारी चौकन्ने न होजाए। किंतु अब हमे बहुत ज्यादा चौकन्ने रहने की आवश्यकता हे। तीनो बात कर रहे है तभी एक अनुचारिका वहां दौड़कर आती है।


आप तुरंत ही राजकुमारी के कक्ष में चलिए मृत्युंजय जी। क्या हुआ भुजंगा वहां है ना। हा किंतु उन्हों ने ही आपको सीघ्र ही वहां आने को कहा हे आप चलिए।


हे ईश्वर अब क्या हुआ राजकुमारी को। राजगुरु और सेनापति चिंतित हो गए। वो ठीक तो हे ना। प्रश्नों के उत्तर देने का समय नहीं हे कृपया आप तुरंत मेरे साथ राजकुमारी के कक्ष में चलिए। अनुचारिका ने कहा ओर वो कक्ष से बाहर चली गई। मृत्युंजय,सेनापति, और राजगुरु भी राजकुमारी के कक्ष की ओर चलने लगे।
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ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, राजगुरु और सेनापति मृत्युंजय से मिलने उसके कक्ष में जाते है। दोनो राजमहल में होनेवाले षडयंत्र के विषय में जानने केलिए उत्सुक है। मृत्युंजय उन्हे एक पत्र ओर एक टोकरी दिखाकर सब बात विस्तार से बताता है। तभी कक्ष में एक सेविका आकर मृत्युंजय को राजकुमारी के कक्ष में सीघ्र ही चलने केलिए कहती हे। अब आगे......


मृत्युंजय तेज गति से राजकुमारी वृषाली के कक्ष की ओर जाता हे। पीछे पीछे सेनापति और राजगुरु भी जाते है। जैसे ही वो कक्ष में पहुंचे तो उनको अपनी आंखो पर विश्वास नहीं हुआ।


मृत्युंजय को कक्ष में देखकर भुजंगा तेजी से उसके समीप आता है। उसके मुख पर हर्ष समा नही रहा है। देखो मित्र ये चमत्कार हो गया। मृत्युंजय अचंबित हो गया था। वो इतना हर्षित हो गया था की वो कुछ बोल नहीं पा रहाथा। तभी लावण्या भी वहां पहुंची उसको भी अपनी आंखो पर विश्वास नहीं हो रहा था।


महाराज तक भी सूचना पहुंच गई वो ओर राजकुमार निकुंभ भी राजकुमारी वृषाली के कक्ष में सीघ्र ही पहुंच गए। सब लोग बस राजकुमारी की ओर निहार रहे थे। राजकुमारी मूर्छा से बाहर आ गई थी। भुजंगा और सारिका ने सहारा देकर उसे सैया पर बैठा दिया था।


महाराज अपने आपको रोक नही पाए उन्होंने जाकर राजकुमारी को गले लगा दिया। मेरी बच्ची तुम ठीक हो गई, ईश्वर का बहुत बहुत धन्यवाद, में आज बहुत खुश हूं। महाराज की आंखो से अश्रु बह रहे थे राजकुमारी की भी आंखे अश्रुओ से भर गई थी। कक्ष में उपस्थित सब लोग इस दृश्य को देखकर भावुक हो गए। सबकी आंखे हर्षित हो कर छलक रही थी।


तुम ठीक होंगई मेरी बच्ची, जी पिताजी। आज लंबे समय के बाद महाराज के कणों को पिताजी शब्द सुनाई दिया वो खुदको रोक नही पाए और राजकुमारी को गले लगाकर रो ने लगे। पिता पुत्री का यह मिलन देख सबकी आंखों में आंसू आगए।


राजगुरु महराज के समीप गए और उनके कंधों पर अपना हाथ धीरे से थपथपाकर बोले, आंसुओं का समय बीत गया अब तो हर्षित होने का समय आया है महाराज अपने आपको संभालिए।


राजगुरु ये हर्ष के ही आंसू है। राजकुमारी की दृष्टि थोड़ी दूर खड़े राजकुमार निकुंभ पर पड़ी। भ्राता श्री आप भी राजमहल पधारे है? वो खुश होकर उसके गले लगने केलिए उठने लगी किंतु वो उठ नही पाई। उसने बहुत प्रयास किया किंतु वो अपने पैरो को हिला भी नही पाई। सब ये देखकर बहुत दुखी हो गए। पिताजी में उठ क्यों नही पा रही हूं, मेरे पैर हिल भी नहीं रहे है ऐसा लगता हे जैसे ये पत्थर के हो गए हैं।


ये सुनते ही महाराज पर जैसे आसमान टूट पड़ा हर्ष के आंसू व्यथा में बदल गए। कक्ष में उपस्थित सब व्यथित हो गए। राजकुमारी व्याकुल होकर अपने पांव को हिला ने की कोशिश कर रही हे, पर उसके पैर चेतना हीन हे। वो फुट फुट कर रोने लगी, चिल्लाने लगी। पिताजी में उठ क्यों नही पा रही हुं। कक्ष में उपस्थित सब लोग ये देखकर दुखी हो गए।


महाराज अपनी पुत्री को इस दशा में देख नही पाए। उन्हों ने राजकुमारी को गले लगा लिया। वो खुद भी सब भूलकर पुत्री की व्यथा में व्यथित होकर रोने लगे। बड़ा भावुक दृश्य था ये। किसीकी हिम्मत नही हो रही हे की उनको शांत्वना दे सके।


मृत्युंजय खुदको अब रोक नही पाया। वो महाराज के समीप गया और उनके विशाल कंधो पर हाथ रखकर उन्हें आश्वस्त करने लगा, महाराज शांत हो जाइए, ये समय ऐसे विलाप करनेका नही हे। आपको तो राजकुमारी की हिम्मत बढ़ानी चाहिए। आप नकारात्मक सोच को त्याग दीजिए और यह सोचे की, इतने महीनो से राजकुमारी मूर्छा में थी आज वो हम सब के बीच है


जैसे वो मूर्छा से बाहर आ गई है धीरे धीरे उनके पैरों की चेतना भी लॉट आएगी। इतना लंबा समय लगा उनको मूर्छा से बाहर आने में तो कुछ समय में वो चलने फिरने भी लगेगी। ये समय तो खुशी मनाने का है राजकुमारी सही सुरक्षित हे और हम सब के मध्य है। राजकुमारी वृषाली आप भी एक राजकन्या है आप को ऐसे विचलित होना शोभा नही देता। शोर्य आपकी नस नस में रुधिर बनकर दौड़ता है। आप धैर्य का परिचय दीजिए। आप बहुत जल्द संपूर्ण ठीक हो जाएगी।
मृत्युंजय की बात सुनकर महाराज और राजकुमारी दोनो अपनी व्यथा से बाहर आगए। महाराज ने अपनी आंखो के अश्रु पोचें ओर राजकुमारी कि आंखो के भी। राजकुमारी ने अपने आपको स्वस्थ किया, पिताश्री में ठीक हूं और बहुत जल्द अपने पैरो पर खड़ी हो जाऊंगी, में यूं हार नही मानूंगी।


ईश्वर करे ये सीघ्र हो मेरी बेटी। ऐसा ही होगा महाराज। राजगुरु समीप गए और बोले। चरण स्पर्श गुरुजी, राजकुमारी ने अपने दोनो हाथ जोड़कर राजगुरु को प्रणाम किया। आयुष्य मान भव:, दीर्घायु भव: मेरी पुत्री। राजगुरु ने आशीर्वाद दिए।


धीरे धीरे कक्ष का वातावरण सामान्य हो गया। राजगुरु आजका दिन बहुत शुभ हे आज मेरी पुत्री मूर्छा से बाहर आई है, में चाहता हूं की ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाय, गरीबों को दान दिया जाय, और राजमहल में पूजा की जाए जिससे मेरी पुत्री सीघ्र ही संपूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाए अगर आपकी आज्ञा हो तो? बहुत अच्छा विचार है महाराज। राजगुरु ने तुरंत ही अपना अभिप्राय दे दिया।


महाराज रात्रि बहुत हो चुकी हे अब आ सब भी अपने कक्ष में जाकर विश्राम कीजिए और राजकुमारी को भी करने दें उनको विश्राम की अति आवश्यकता हे। अब तो वार्तालाप होता ही रहेगा। मृत्युंजय सत्य कह रहा है महाराज अब हमे राजकुमारी को विश्राम करने देना चाहिए। किंतु राजगुरु...... चिंता मत कीजिए हम यहां उपस्थित है राजकुमारी की सेवा में।


मेरा मन नहीं मान रहा हे किंतु आप सब कहे रहे है तो... में ठीक हुं पिताश्री मेरी चिंता न करें । महाराज ने राजकुमारी के शिर पर हाथ रक्खा और भारी ह्रदय से अपनी कक्ष की ओर चल पड़े। राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु भी पीछे पीछे चले गए।


भुजंगा मेरा झोला दो, मृत्युंजय ने उसमे से कुछ चीजे निकाली और कुछ औषधि बनाने लगा। लावण्या भी उसकी सहायता करने लगी। सारिका लो ये तेल इसकी मालिश राजकुमारी के पैरो में और तलवों में करदो। सारिका ऐसा करने लगी।


लावण्या आज रात्रि को तुम और सारिका यहीं रुक जाओ। अगर कोई आवश्यकता पड़ जाए तो तुम दोनो होंगी तो ठिक रहेगा। में और भुजंगा पुरुष है इसलिए यहां रुक नही सकते तो.... बस बस में समझ रही हुं। चिंता मत करो हम यहीं रुकते हैं। धन्यवाद लावण्या। अच्छा अब मित्रता में धन्यवाद भी आ गया? तुम ये भूल गए हो की में भी इस महल में राजकुमारी वृषाली के उपचार हेतु ही हुं।


राजकुमारी वृषाली सब सुन रही हे किंतु उसके मस्तिष्क में इस समय कुछ भी सोचने समझ ने की क्षमता नहीं है। उसकी आंखे निंद्रा से घिर गई। औषधि अपना असर कर रही हे। कुछ ही देर में वो निंद्राधीन हो गई। मृत्युंजय भी अब कक्ष से जा चुका था।लावण्या और सारिका भी नीचे बिछौना बिछाकर सो गई।
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आगे हमने देखा की, राजकुमारी वृषाली मूर्छा से बाहर आ गई हैं। सब लोग यह देखकर खुश हे। तभी ये पता चलता हे की वो चल नही सकती, उनके पैर चेतना हीन हे तो महाराज और राजकुमारी व्यथित हो जाते हैं। मृत्युंजय अपने शब्दों से उनकी हिम्मत बढ़ाता है। सब अपने अपने कक्ष में विश्राम केलिए जाते हे। सारिका और लावण्या दोनों राजकुमारी के कक्ष में ही सो जाती हे अब आगे.....


महाराज अपनी रेशमी सैया में सोने का प्रयास कर रहें हे किंतु बेटी के स्वास्थ की चिंता के कारण निंद्रा नही आ रही। रेशमी शयन सैया आज उन्हे कांटो की भांति चुभ रही हे। हे ईश्वर मेरी बच्ची की ओर परीक्षा मत लीजिए उसे जल्द ही पूर्ण स्वस्थ कर दीजिए।


राजगुरु अपनी सैया में करवट बदल रहे हे उन्हे भी निंद्रा नही आ रही है। वो उठ गए और अपने कक्ष में पड़े एक पात्र में से जल भरकर पिया और जाकर आसन पर बैठ गए। वो अपने हाथ की उंगली में पहनी अंगूठी को देख रहे थे। वर्षो पूर्व मेरे मित्र वेदर्थी के साथ एक षडयंत्र किया गया जिसके कारण उसने अपनी सारी उमर जंगलों में गुमनामी में बितादी ओर में उसकी कोई सहायता नही कर पाया था।


आज यहां इस राजमहल में भी षडयंत्र हो रहा हे। समय फिर से अपना इतिहास दोहरा रहा हे। किंतु इस बार में विवश होकर बैठ नही सकता मुझे महाराज, राजमहल और इस राज्य की रक्षा करनी ही होगी। पहले में अकेला था इसलिए अपने मित्र केलिए कुछ नही कर पाया किंतु आज मेरे साथ मृत्युंजय और सेनापति वज्रबाहु दोनो है। हम मिलकर अवश्य ही इस राज्य की सुरक्षा करेंगे।


क्या हुआ सखी नींद नहीं आ रही हे क्या इस बिछोने पर? आदत जो नही हे धरती पर सोने की। नही सारिका ऐसी कोई बात नही हे तुम सो जाओ। लावण्या के मस्तिष्क में यही विचार घूम रहा हे, आखिर ऐसी क्या बात हे जो मृत्युंजय मुझसे छुपाने का प्रयास कर रहा है। उसकी वाणी, वर्तन सब बदल गया है। कुछतो बात है कहीं उसे मेरे बारे में सत्य तो ज्ञात नही होगया। इस विचार से ही लावण्या गभरा गई । नही....नही.... ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जायेगा।


मृत्युंजय अपने कक्ष के जरूखे में खड़ा आकाश की ओर निहार रहा हे। महल में षडयंत्र हो रहा हे ये तो पता चल गया किंतु इस षडयंत्र के पीछे कोन है और इस षडयंत्र का हेतु क्या हे, जब तक ये ज्ञात नही हो जाता मुझे निंद्रा नहीं आएगी। मुझे राजकुमारी की सुरक्षा का भी ख्याल रखना है।


रात्रि तो एक ही है किंतु सब की अपनी अपनी व्यथा, ओर चिंता की वजह भिन्न है।


धीरे धीरे रात्रि बीत गई और फिर एक बार सूर्यदेव अपने सप्त अश्वों के रथ पर बैठकर धरती पर जीवन का संचार करने हेतु कार्यरत हो रहे हे। मंगल बेला उनके स्वागत केलिए तत्पर है। फिर से मृत्युंजय, लावण्या, सारिका और भुजंगा अपने अपने कार्य में जुट गए।


मृत्युंजय राजकुमारी के कक्ष में आया तो लावण्या और सारिका अपने अपने कार्य में व्यस्त थी। सुभ प्रभात मृत्युंजय। लावण्या ने तुरंत ही मृत्युंजय को कहा।शुभ प्रभात। सब ठीक था रात्रि को? जी सब ठीक हे राजकुमारी अभी निंद्रा में ही हे औषधि के कारण। सही है उन्हे विश्राम की आवश्यकता भी है।
मृत्युंजय और लावण्या आपस में बात कर रहे थे तभी भुजंगा भी पुष्पों से भरी बड़ी टोकरी लेकर कक्ष में आया। आज कुछ ज्यादा ही पुष्प लेकर आए हो मित्र, लगता हे वाटिका में एक भी पुष्प शेष नहीं रहा हे। मृत्युंजय ने हस्ते हस्ते व्यंग किया।


सब अपने कार्य में व्यस्त हे तभी महाराज और उनके साथ राजगुरु एवम कुमार निकुंभ कक्ष में पधारे सबने प्रणाम किया। अभी हमारी बेटी निंद्रा में ही हे? कदाचित हम ही इतने सीघ्र आ गए हे। बहुत दिनों पश्चात पुत्री मूर्छा से बाहर आई है तो खुदको उनसे मिलने केलिए रोक नही पाए। महाराज का स्वर सुनकर राजकुमारी वृषाली की निंद्रा भंग हो गई और वो उठ गई।


पिताजी आप इतनी सुबह सुबह मेरे कक्ष में। जी पुत्री में खुद को रोक ही नही पाया। ईश्वर ही जानते है की मेने रात्रि केसे गुजारी है। मेरा मन तुम्हे देखने केलिए और तुमसे वार्तालाप करने केलिए अधीर बन गया हे। महाराज राजकुमारी की सैया में उनके समीप बैठ गए और बेटी के सिर पर हाथ रक्खा। राजकुमारी भावुक हो गई उनकी आंखे अश्रु से भर गई।


कक्ष में राजवैद्य सुमंत और ब्रजबाहू ने प्रवेश किया। सबने राजवैद्य को प्रणाम किया। अब कैसी है राजकुमारी आप? में स्वस्थ हूं राजवैधजी। ईश्वर का धन्यवाद की आप मूर्छा से बाहर आगई। राजवैद्य ने राजकुमारी के हाथ की नाडी का अवलोकन किया। सब की दृष्टि राजवैद्य पर टिकी हुई हे। चिंता का कोई विषय नही हे राजकुमारी अब स्वस्थ हे। बहुत जल्द उनके पैरो की चेतना भी लॉट आएगी।


ये बात सुनते ही महाराज की जान में जान आई। कक्ष में उपस्थित सब हर्षित हो गए। में आपका कैसे धन्यवाद करु राजवैद्यजी आप के प्रयास से ही आज मेरी पुत्री स्वस्थ हे। महाराज हाथ जोड़कर बोले। इसमें धन्यवाद कैसा महाराज येतो मेरा कर्तव्य हे। दुश्मन भी अगर सामने घायल या रोगी अवस्था में आए तो एक वैध का कर्तव्य हे की वो इसे स्वस्थ होने में उसकी सहायता करे, येतों फिर भी हमारी राजकुमारी हे।


राजकुमारी स्वस्थ हे इसका यश केवल मुझे ही नहीं किंतु मृत्युंजय, लावण्या, सारिका और भुजंगा इन सबको भी मिलना चाहिए। उन्हों ने तो दिन रात राजकुमारी की सेवा की हे वो मुझसे भी ज्यादा यश के पात्र है। सत्य कहा राजवैध्यजी ने महाराज। राजगुरु ने राजवैद्य की बात को अपना समर्थन दिया।


में आप सबका आभारी हुं। आप सबने मेरी पुत्री के स्वास्थ केलिए अथाग प्रयत्न किए हे। महाराज ने हाथ जोड़कर सबका धन्यवाद किया। ऐसा कहेकर हमे लज्जित न कीजिए महाराज, मृत्युंजय आगे आया और।बोला। जी महाराज ये हमारा कर्तव्य और सौभाग्य था जो हमे आपकी और राजकुमारी की सेवा करनेका अवसर प्राप्त हुआ, लावण्या ने कहा।
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आगे हमने देखा की, सब अपनी सैया में सोने का प्रयत्न कर रहे हैं, किंतु सबके मस्तिष्क में अपने अपने प्रश्न चल रहे हैं। प्रातः होते ही सब अपने कार्य में जुट ते है तभी महाराज, राजगुरु,निकुंभ, राजवैद्य और सेनापति वज्रबाहु वहां आते है। महाराज सबका धन्यवाद करते है। अब आगे......


अरे बातों बातों में राजकुमारी हम इन सबसे आपका परिचय करवाना ही भूल गए। कोई बात नही अब करवा दीजिए परिचय पिताजी। हम भी इन सबके विषय में जान ने केलिए उत्सुक हे। हमारे राजवैदजी को तो आप जानती ही हे, ये हे मृत्युंजय। इनके पिताजी बहुत बड़े वैध अभ्यासी और शोध करता थे। ये भी उनकी ही भांति महान वैध हैं। ये यहां आपके उपचार हेतु ही पधारे है।


प्रणाम मृत्युंजयजी। राजकुमारी ने मृत्युंजय की ओर पहली बार देखा। राजकुमारी की आंखे कुछ पलों केलिए मृत्युंजय के मुख पर स्थिर हो गई। उसके मुख का तेज, उसकी प्रतिभा देखकर राजकुमारी दंग रहे गई। ये मनुष्य है की, स्वर्ग से आया कोई यक्ष या गंधर्व? इतना सुंदर इतना तेजस्वी व्यक्तित्व पहले कभी नहीं देखा। देवता भी इसको देखकर लज्जित हो जाए। राजकुमारी विचारों में खो गई।


ये हैं, लावण्याजी ये कनकपुर के राजवैधजी की पुत्री हे और यहां हमारे राजवैद्य सुमंतजी से वैध शास्त्र का अभ्यास करने हेतु पधारी हे। इन्हो ने रात दिन आपकी सेवा की हे। धन्यवाद लावण्या तुम्हारा। अरे धन्यवाद करके मुझे लज्जित न करे राजकुमारी ये हमारा कर्तव्य था।


ये दोनो कोन है पिताजी? ये भुजंगा है मृत्युंजय का परम मित्र और सहियोगी ओर ये सारिका है लावण्या की सखी और सहयोगी। इन सबका बहुत बड़ा योगदान हे तुम्हे स्वस्थ करने में पुत्री। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बात करते करते वृषाली की दृष्टि सेनापति वज्रबाहु पर पड़ी। काकाश्री आप भी यहां है किंतु मेरी सखी चारूलता कहीं दिख नही रही। वो कहां हैं? किसी ने उसे ये संदेश नही दिया की में मूर्छा से बाहर आ गई हूं? वो मुझसे अब तक मिलने क्यूं नही आई।


राजकुमारी की आंखे सबके मध्य अपनी सखी चारूलता को खोज रही हैं। वो अपनी सखी से मिलने केलिए व्याकुल हो गई हे।


राजकुमारी की बात सुनते ही सबके होश उड़ गए। सब चिंतित होंगए की, राजकुमारी को क्या उत्तर दे। कक्ष में सन्नाटा हो गया राजकुमारीजी चारूलता अपने नेनिहाल गई है। आप मूर्छित थी तो वो बहुत अकेली पड़ गई थी और दुखी भी इसलिए मैने उसे कुछ दिन उसके मामा के पास भेज दिया। सेनापति वज्रबाहु ने बात को संभाल लिया।


में आप केलिए कबसे राजकुमारी हो गई काकाश्री आप तो हमेशा मुझे पुत्री कहकर बुलाते थे तो अब पराया क्यूं कर दिया। राजकुमारी थोड़ी दुखी हो गई। अरे आप मेरी पुत्री ही हो, अपने काका को क्षमा करदो पुत्री। वज्रबाहु राजकुमारी के समीप गए और उनके सर पर हाथ रखकर बोले। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे वो बहुत प्रयत्न कर रहे थे किंतु अश्रु रुके नहीं। क्या हुआ ककाश्री आप क्यूं रोने लगे? राजकुमारी को भीतर भीतर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ये अश्रु पीड़ा के है।


कुछ नही पुत्री बहुत समय पश्चात तुम्हे स्वस्थ देखा तो खुशी के अश्रु बहने लगे। अच्छा अब आप सीघ्र ही मेरी सखी चारूलता को वापस बुला लीजिए अन्यथा हम आपसे रूष्ट हो जायेंगे। जैसा तुम कहो मेरी पुत्री।


अरे भाई अगर सबसे मेल मिलाप हो गया हो तो कोई हमसे भी मिल ले हम भी बहुत देर से प्रतीक्षा में खड़े हे की, कब हमारी बहन हमसे भी मिले। भैया आपको यहां देखकर हमे बहुत प्रसन्नता हो रही हे, और हमे आपको यूं स्वस्थ देखकर मेरी लाडली बहेना। राजकुमार निकुंभ वृषाली के पास गए और उनके गालों को थपथपाते हुए बोले।


ये राजमहल और हमारा जीवन दोनों आपके इस सुंदर भैया के संबोधन के बिना कितने सुने थे ये हम ही जानते है। पता हे मेरी बच्ची जब तुम मूर्छा में थी तब कुमार निकुंभ ने युवराज बन ने से मना कर दिया, कह रहे थे की जब तक हमारी छोटी बहन हमारे भाल में तिलक नही करेंगी हम युवराज केसे बनेंगे। महाराज ने वृषाली को इस बात से अवगत कराया। वृषाली भावुक हो गई और अपने भाई के गले लग गई।


बहुत समय बीत गया है महाराज, आपके दरबार का समय हो गया है अब हमे प्रस्थान करना चाहिए। अवश्य राजगुरु। हम अपने कार्य पूर्ण करके शीघ्र ही तुमसे मिलने यहां उपस्थित होते हे मेरी बच्ची। जी पिताजी। महाराज कक्ष से बाहर की ओर चले गए साथ राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु भी गए।


समय अपनी गति अनुसार चलने लगा। धीरे धीरे राजकुमारी स्वस्थ होने लगी। लाइए राजकुमारी हम आपके पैरो में इस तेल का मालिश कर देते हे। नही लावण्या मुझे तुमसे अपना कोई कार्य नहीं करवाना। राजकुमारी थोड़ा रूष्ट होकर बोली। किंतु क्या हुआ है? मुझसे कोई भूल हो गई ही तो में क्षमा मांगती हु । भूल नही तुमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है अपराध। कैसा अपराध राजकुमारी? लावण्या चिंतित हो गई। सारिका भी गभारा गई।


तुम्हारा अपराध ये हे की तुम मुझे सखी कहती हो किंतु मानती नही हों। ऐसा नहीं हे राजकुमारी आप मेरी परम मित्र हे। अच्छा तो ये राजकुमारी....राजकुमारी क्यूं कहती रहती हो? वृषाली कहकर संबोधित करो हमे। में आपको नाम लेकर केसे बुलाऊ आप राजकुमारी हे।


मतलब में सही हूं तुम सिर्फ कहने को ही हमे सखी मानती हो, तुम्हारी परम सखी तो सिर्फ सारिका हे। ऐसा नहीं हे राजकुमारी। तो सारिका को तुम नाम से बुलाती हो तो हमे क्यूं नही? किंतु आप.... किंतु ..परंतु कुछ नही आज से इसी क्षण से तुम मुझे वृषाली कहकर बुलाओगी समझी। अन्यथा हम तुमसे रूष्ट हो जायेंगे।


अरे नही सखी ऐसा मत करना, लावण्या बोली और दोनो सहेलियां गले लगकर हंस ने लगी। सारिका दूर खड़ी दोनो को देखकर खुश हो रही है। अब तुम्हे संदेश भेजकर बुलाना होगा क्या सारिका, तुम भी मुझे वृषाली ही बुलाओगी समझी आओ तुम भी। सारिका भी दोनो के साथ गले लगी। में तो तुम्हे सखी कहकर बुलाऊंगी जैसे लावण्या को बुलाती हूं। ठीक हे सारिका देवी।


तीनो सहेलियां हसने लगी। कुमार निकुंभ, मृत्युंजय और भुजंगा कक्ष के द्वार पर खड़े इन सहेलियों को निहार रहे थे। आपका ह्रदय बहुत बड़ा हे राजकुमारी वृषाली। मृत्युंजय स्वागत ही बोल पड़ा।


अगर आप सहेलियों की आज्ञा हो तो हम बिचारे तीन युवान कबसे कक्ष के द्वार पर खड़े हे हमभी भीतर प्रवेश करे। मृत्युंजय ने कहा। अवश्य पधारे मित्र, वृषाली ने उत्तर दिया। मित्र? हा आप भी हमारे मित्र ही है। धन्यवाद राजकुमारी जी। अब आपको मुझे अलग से फिर से ये सब कहना होगा मृत्युंजय की आप भी हमे वृषाली कहकर संबोधित कीजिए .... नही नही में समझ गया वृषाली। कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न होकर हंसने लगे।


महाराज ने कक्ष में प्रवेश किया और यह दृश्य देखकर प्रसन्न हो गए। प्रणाम पिताजी देखिए मेरे कितने सारे मित्र है बस कमी हे तो चारूलता की अगर वो भी यहां होती तो कितना अच्छा होता।


महाराज मुझे आज्ञा दीजिए मुझे थोड़ा कार्य है इस लिए मुझे जाना होगा। मृत्युंजय ने जाने की अनुमति मांगी। ठीक मृत्युंजय तुम जाओ। मृत्युंजय तेजगति से कक्ष के बाहर निकल गया और अपने कक्ष में पहुंचा। वहां राजगुरु पहले से उसकी प्रतीक्षा रहे थे। क्षमा करना राजगुरु मेंने आने में विलंब कर दिया। किंतु कुमार निकुंभ मेरे साथ थे इस लिए में उन्हे राजकुमारी के कक्ष में व्यस्त करके आया हुं। कोई बात नही मृत्युंजय ऐसा हो जाता हे।


सब वार्तालाप में व्यस्त थे लावण्या ने सारिका को इशारा किया और दबे पांव राजकुमारी के कक्ष से बाहर निकल गई और मृत्युंजय के कक्ष की ओर चलने लगी।कितना समय हुआ मृत्युंजय से अकेले ना ही भेंट होती हे ना ही बात। आज सब यहां व्यस्त है तब तक हम दोनो मित्र थोड़ी बात कर लेंगे। ये सब सोचते सोचते लावण्या ने मृत्युंजय के कक्ष में प्रवेश किया।


कुछ कदम चलते ही वोन रूक गई उसने देखा तो राजगुरु वहां उपस्थित है और मृत्युंजय से वार्तालाप कर रहे हे। वो वहीं खड़ी रही।


मृत्युंजय एक बार पुनः विचार करलो। तुम जो करने जा रहे हो उसमे जीवन का संकट हैं। जी राजगुरु मेंने मन बना लिया है अब मुझे ये करना ही हैं। ठीक हे में तुम्हे रोकूंगा नही। ईश्वर से प्रार्थना करूंगा किं तुम अपने कार्य में सफल होकर सीघ्र ही सुरक्षित लॉट आओ। धन्यवाद राजगुरु, किंतु महल में मेरी अनुपस्थिति में सब कुछ आपको और सेनापति वज्रबाहु को संभालना होगा। इसकी चिंता तुम मत करो बस जाओ और अपना कार्य पूर्ण करके वापस आजाओ।


ये लोग किस विषय में बात कर रहे हैं, मृत्युंजय कहां जा रहा है? कुछ तो भेद हे जो मृत्युंजय, राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु सबसे छिपा रहे हे। लावण्या विचार करने लगी और कक्ष से बाहर निकल गई।
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ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, राजकुमारी वृषाली अब धीरे धीरे धीरे स्वस्थ होने लगी है। लावण्या, सारिका, मृत्युंजय, भुजंगा ओर कुमार निकुंभ सब समान उम्र के हे और अब सब के बीच मित्रता हो गई है। मृत्युंजय अपने कक्ष में जाता हे, पीछे लावण्या भी जाति हे। वो राजगुरु और मृत्युंजय के बीच हो रही बात को सुन लेती है अब आगे......


लावण्या अपने कक्ष में जा रही है। उसके मस्तिष्क में कई प्रश्न जन्म ले रहे हैं। ये मृत्युंजय और राजगुरु किस विषय में वार्तालाप कर रहे थे? और मृत्युंजय कहां जाने की बात कर रहा था कुछ तो बात है। विचार करते करते वो अपने कक्ष में पहुंच गई।


लावण्या का मन आशंकाओं से घिर गया। में मृत्युंजय को अपना सच्चा मित्र मानती हुं किंतु वो मुझसे बाते छुपाता है। वो दर्पण के सामने खड़े होकर सोच रही है। तभी वो सामने देखती हैं तो दर्पण में अपने आपको देखकर सोचती हे, तुमने भी तो मृत्युंजय से बहुत सारी बाते छुपाई है, तुम्हे कोई हक नही हे की तुम उस पर रूष्ट हो। मृत्युंजय जो भी करता हे सबके भले केलिए करता हे।


लावण्या सोच में डूबी हुई हे तभी उसके कक्ष के द्वार से एक स्वर सुनाई दिया, क्या में अंदर आ सकता हुं? बहुत ही जाना पहचाना और कर्ण प्रिय स्वर था। लावण्या ने बिना मुड़े ही उत्तर दे दिया एक मित्र दूसरे मित्र के कक्ष में अनुमति लेकर नही जाता मृत्युंजय। सत्य कहा लावण्या तुमने किंतु एक पुरुष को एक स्त्री के कक्ष में हमेशा अनुमति लेकर ही प्रवेश करना चाइए यही शिष्टाचार है सखी। मृत्युंजय ने कक्ष में प्रवेश करते हुए कहा।


लावण्या मृत्युंजय की ओर मुड़ी, आज आप हमारे कक्ष में? लगता है आप मार्ग भूल गए हे सखा। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होने का अभिनय करते हुए कहा। मित्र का कार्य ही यही हे की मार्ग भूले हुए मित्र का मार्ग दर्शन करें। तुमसे चर्चा में कोई जीत नही सकता मृत्युंजय, हो सकता है किंतु लावण्या भी कभी पराजित नही हो सकती।


मुझे तुमसे बात करनी है लावण्या। अच्छा हमारे भाग्य ही खुल गए जो वैद्य और वेदशास्त्र के ज्ञाता मृत्युंजय साक्षात चलकर हमारे कक्ष में हमसे वार्तालाप करने केलिए पधारे हे। लावण्या ने कटु वचन में ताना मारा। में जानता हुं की तुम मुझसे रूष्ट हो, किंतु मैं कुछ कार्यों में बहुत व्यस्त होंगाया हु इस कारण तुमसे मिलने का या बात करने का अवसर नही मिलता है।


ठीक है...ठीक है... अब ज्यादा शहद मत लपेटो जो बात करने आए हो वो कहो। लावण्या में कुछ दिनों केलिए महल से बाहर जा रहा हुं, जब तक में वापस न आजाऊ तब तक यहां सब तुम्हे संभालना है। में चाहता हुं के राजकुमारी वृषाली के कक्ष में या उनके आसपास तुम, सारिका और भुजंगा तुम तीनो के सिवा कोई भी नजाए। कोई सेविका भी नही।


किंतु मृत्युंजय तुम कहां जा रहे हो ऐसे अचानक ही, ओर ये सब मेरी समझ से परेह हे कृपया विस्तार से बताओ। विस्तार से बतानेवाली कोई बात ही नही है, में पास के राज्य में कुछ औषधि लाने हेतु जा रहा हुं शीघ्र ही लोट आऊंगा बस तब तक तुम सब संभाल लेना।


किंतु.... कोई प्रश्न मत करो लावण्या तुम्हे अपने मित्र के ऊपर भरोसा है ना? अपने आपसे भी ज्यादा। धन्यवाद लावण्या अब में चलता हुं। मृत्युंजय जाने केलिए कक्ष के द्वार की ओर मुड़ा तभी पीछे से लावण्या ने आवाज दी, मृत्युंजय निश्चिंत होकर जाना में यहां सब संभाल लूंगी। ईश्वर तुम्हे तुम्हारे कार्य में सफल करे। धन्यवाद लावण्या, मृत्युंजय ने हंसकर कहा और चला गया।


प्रातः लावण्या और सारिका राजकुमारी के कक्ष में नित्य दिन के जैसे अपने कार्य में व्यस्त थी। राजकुमारी की आंख खुली तो हमेेशा की तरह सामने लावण्या थी। शुभ प्रभात वृषाली, ये लो अपनी औषधि पी लो और अपने दिन की शुरुआत करो।


शुभ प्रभात लावण्या, तुम मुझे कृपया एक बात बताओ की, कब तक मुझे ये औषधि पीनी पड़ेगी। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ नही हो जाती मेरी सखी तब तक ये औषधि और मैं दोनो तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगे समझी।


बातो बातो में सुबह हो गई, भुजंगा पुष्प लेकर कक्ष में आया और अपना कार्य करने लगा। राजकुमारी वृषाली ने जरुखे में देखा तो सूर्य देव पूर्ण रूप से आकाश में उदित हो गए थे। वो बार बार कक्ष के मुख्य द्वार की ओर देखने लगी। जैसे वो किसकी प्रतीक्षा कर रहीं हे। बहुत समय बीत गया। अब वो अपने आप को रोक नही पाई।


भुजंगा आज तुम आगए किंतु मृत्युंजय को आने में इतना विलंब क्यूं हो रहा है, उसका स्वास्थ्य तो ठीक है ना?। मृत्युंजय तो महल में नही हे, वो कुछ औषधियां लाने हेतु पड़ोसी राज्य में गया हुआ हे। ऐसे केसे बिना बताए चला गया वृषाली मन में सोच ने लगी। वो कल रात्रि में ही प्रयाण कर गया वृषाली, पीछे से लावण्या ने कहा।

तुम्हे ज्ञात हे की वो कहीं गया है लावण्या? जी उसने मुझे बताया था और तुम्हारे स्वास्थ्य की ओर तुम्हारी दोनो की जिम्मेदारी वो मुझे सौंप के गया हे। कह रहा था की जब तक वो वापास नही आता में तुम्हे एक क्षण केलिए भी अकेला ना छोड़ूं।


किंतु उसने मुझसे तो कुछ भी नही कहां। वृषाली को इस बात से थोड़ी ठेस पहुंची। उसे अचानक ही जाना पड़ा रात्रि को इस लिए अन्य कोई बात नही हे। भुजंगा ने बात को संभाल ने का प्रयत्न किया। ठीक है, किंतु वो वापस कब आएगा? बहुत जल्द आ जायेगा। अच्छा अब में जाता हुं कोई कार्य हो तो मुझे बुला लेना शुभ दिन। भुजंगा कक्ष से चला गया।


मध्याह्न हो गई किंतु आज एक ही कक्ष में तीन युवतियां होते हुए भी तीनो चुप है, कोई कुछ बोल नहीं रहा हे। राजकुमारी कभी लेट जाती ही तो कभी लावण्या और सारिका को कहती हे मुझे उठकर बैठ ने में सहायता करो। एक अज्ञात बेचैनी ने सबको जैसे घेर लिया है, किंतु ये किस लिए? कदाचित राजकुमारी वृषाली और लावण्या दोनो अपने मन से ये प्रश्न कर रही है।


आज मौसम कुछ ठीक नहीं है ना सखियां? सारिका ने वार्तालाप करने केलिए एक विषय रक्खा। सत्य कहती हो तुम सारिका देखोना केसे बिना मौसम के ही बदल आए है ऐसा लगता हे कदाचित वर्षा होगी है ना वृषाली। लावण्या ने कहते कहते वृषाली की ओर देखा। वृषाली ने कुछ सुना ही नहीं वो तो अपने किसी विचारों में खोई हुई थी।


लावण्या ने वृषाली के गाल को धीरे से थपथपाया, सखी कहां खो गई हो। कही नही बस ऐसे ही सोच रहीथी की आज दिन कितना लंबा हो गया है। मृत्युंजय नही है और पिताजी भी आज कदाचित राज्य के कोई कार्य में व्यस्त होंगे इस लिए यहां आ नहीं पाए। वृषाली ने थोड़ा उदास होकर कहा। सत्य कहती हो वृषाली मृत्युंजय के बिना बहुत सुना लग रहा है सब।


सारिका दोनो की बात सुन रही है। दोनो की स्थिति देख सारिका थोड़ी चिंतित हो जाती हे। कहीं राजकुमारी वृषाली भी मृत्युंजय को प्रेम तो नही करने लगी हे ना? लावण्या मन ही मन में मृत्युंजय को प्रेम करती है भले ही वो अपने मुख से कुछ कहे न कहे। अगर राजकुमारी वृषाली भी.... नही....नही... हे ईश्वर ऐसा अनर्थ मत करना। दोनो की विचलित और उदास आंखे बहुत कुछ कहती है। ईश्वर करे मेरा ये विचार गलत हो।
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय राजकुमारी कि जिम्मेदारी लावण्या को सौंपता है और उनके सिवा किसी को भी राजकुमारी के कक्ष में प्रवेश ने न दे ये भी कहता है। मृत्युंजय की अनुपस्थिति में लावण्या और राजकुमारी दोनो उदास है,।सारिका को लगने लगता हे कहीं दोनो को एक साथ मृत्युंजय से प्रेम तो नही हो गया?। अब आगे.....


संध्या बीत गई हे और रात्रि हो गई है। राजगुरु अपने भोजन और अपने नित्य कार्य से निवृत्त होकर अपने कक्ष में बैठे हैं। बाहर तेज हवा चल रही है। लगता है सीघ्र ही वर्षा होगी। ये मौसम ने कैसी करवट ली है बीन मौसम के ही वर्षा हो रही हे। एक चक्रवात राजगुरु के मस्तिष्क में भी उठ रहा है।


ऐसा कोन हे जो राजमहल के भीतर रहकर षडयंत्र रच रहा हे? ओर क्यूं? जब तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठता ना तो मुझे भोजन में रुचि होगी और नही किसी और कार्य में मन लगेगा। हे ईशर मृत्युंजय की रक्षा करना और उसको अपने कार्य में सफल करना।


प्रणाम राजगुरु। राजगुरु के कार्णो में आवाज पड़ी और वो विचारों से बाहर आए तो देखा की सामने महाराज खड़े है। वो चौंक गए, महाराज आप इस समय? जी राजगुरु आज पूरा दिन राज्य के कार्य में व्यस्त रहा तो आपसे भेंट नही हुई तो विचार आया की आपके कक्ष में आकर मिल लूं।


ठीक हे। यशश्वी भव:, बिराजिये महाराज। आप किस विचार में मग्न थे राजगुरु? कहीं में अनुचित समय पर तो नही आया ना? नही नही ऐसा कुछ नही हे बस ये मौसम ने करवट बदली हे उसी के विषय में सोच रहा था। आप कहिए कोई खास कार्य था आपको मुझसे महाराज? कार्य तो नही हे राजगुरु, कुमारी वृषाली के कक्ष में उनसे मिलने गया था तो विचार आया की आपसे भी भेंट करता चलूं। उचित है महाराज।


राजगुरु ये मृत्युंजय कहीं दिखे नही आज दिनभर, राजमहल से बाहर गए है क्या? राजगुरु ये प्रश्न सुंनकर थोड़ा चौंक गए। वो निकट के राज्य में राजकुमारी के उपचार हेतु कोई औषधि लाने केलिए गया है। मुझसे अनुमति लेकर गया है। अच्छा हमसे कहते हम मंगवा देते उसमे जाने की क्या आवश्यकता। ये उनका विषय है अब हम इसमें क्या कर सकते है। उचित कहा राजगुरु आपने चलिए अब में आज्ञा लेता हुं आपसे प्रणाम। शुभ रात्रि महाराज।


लावण्या और सारिका राजकुमारी के कक्ष में सोने केलिए धरती पर बिछौना बिछा रही हे। लावण्या तुम और सारिका यहीं हमारे साथ हमारी सैया में क्यों नही सो जाते ये इतनी बड़ी सैया हे और तुम दोनो बिछौने में सोती हो ये बात हमे अच्छी नहीं लगती। वृषाली नें कहा। धन्यवाद सखी किंतु ये सैया आपकी है हम यहीं ठीक हे, हमे तो यहीं सोने में आनंद आता है। लावण्या ने उत्तर।दिया।


अच्छा फिर ठीक है आनंद आता हे तो हम भी तुम्हारे साथ वहीं सो जायेंगे। ये क्या बात हुई वृषाली तुम भला नीचे क्यों सोने लगी? क्यों की मेरी सखियां अकेले अकेले आनंद जो ले रही हे, में क्यों वंचित रह जाऊं? वृषाली तुम्हे और मृत्युंजय को बातों में कोई पराजित नही कर सकता। तुम दोनों कुछ भी करके अपनी बात मनवाते ही हो। वो तो है हम दोनो मित्र जो ठहरे। वृषाली बोली और दोनो सखियां मुस्कुराने लगी।
लावण्या वृषाली की सैया में उसके साथ जा कर लेट गई। देखा सखी मेने कहा थाना की वर्षा होगी, देखो कितना शीतल वायु है। हा लावण्या, तुम्हे प्रकृति से बहुत प्रेम है है ना? हा वृषाली मुझे पैड, पोधे, बाग, उपवन, वाटिका, नदी, सरोवर, झरना सब बहुत अच्छे लगते हे। लावण्या की आंखो में कहते कहते चमक आ गई।


लावण्या तुम्हे पता है, हमारी मां की परम सखी भी कनकपुर सेथी। कनकपुर से? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ। कोन थी, कहां रहतीथी? कनकपुर के महाराज की बहन देवशीखा। वो हमारी मां की सखी थी। महाराज की बहन? वो कैसे वृषाली? मेरी मां और देवशिखा मौसी गुरुकुल में साथ अध्ययन करती थी। पिताजी कहते हैं की दोनो एक समान थी रूप, गुण और शास्त्र विद्या एवम शस्त्र विद्या में भी। वृषाली ने प्रसन्न होकर कहा।


फिर तो विजयगढ़ की मित्रता कनकपुर से बहुत पुरानी हे। हा लावण्या, हमारी मां की सखी भी कनकपुर सेथी और हमारी सखी भी। कैसा संजोग हे देखौना।


लावण्या तुमने और सारिका ने हमारे लिए जो किया हैं और कर रहीं है, में इसका धन्यवाद कैसे करू मुझे समझ नहीं आता। ये क्या एक ओर सखी कहती हो और दूसरी ओर धन्यवाद भी करती हो वाह सखी एक ही पल में पराया कर दिया। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होकर कहा। क्षमा करदो सखी मेरे कहनेका तात्पर्य वो नहीथा। जो भी था अब आगेसे ऐसा मत कहना समझी।


अगर आप दोनो का वार्तालाप पूर्ण हो गया हो तो अब सो जाओ रात्रि बहुत हो चुकी हे और हमे प्रातः होने से पूर्व जागना है सारिका ने नीचे बिछौने में सोते सोते कहा। जैसी आपकी आज्ञा सारिकादेवी लावण्या और वृषाली ने उपहास किया और बातों को विराम दिया।
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आगे हमने देखा की, रात्रि का समय है, बाहर बिन मौसम वर्षा हो रही है। महाराज राजगुरु के कक्ष में जाकर मृत्युंजय के विषय में पूछते है। वृषाली लावण्या को बताती है की उसकी मां की सखी कनकपुर के महाराज की बहन थी। अब आगे.....


छे दिन बीत गए किंतु अभी मृत्युंजय वापस महल नही आया। किस पड़ोसी राज्य में वो गया होगा? ईश्वर करें वो कुशल हो और जल्दी वापस आ जाए। वृषाली कक्ष में अकेली है, वो सोच में डूबी हुई हे तभी लावण्या और सारिका कक्ष में आती हे।


देखो वृषाली में तुम्हारे लिए कुछ लेकर आई हुं। लावण्या ने अपनी बंध मुठ्ठी वृषाली के सामने रखखी। क्या लाई हो लावण्या? लावण्या ने मुठ्ठी खोली और वृषाली खुश होगई। अरे चौसर की कुकी? कहांसे लेकर आई? मेरे पास हे चौसर क्या तुम्हे खेलना पसंद है वृषाली? हा बहुत, में और चारूलता बहुत खेला करती थी पर वो यहां नहीं हे तो मन नहीं करता। वृषाली के चहरे पर उदासी छा गई।


लावण्या ने सारिका की ओर देखा और इशारा किया, सखी छंद मुकरी खेलते है बहुत दिन हो गए। हां सारिका सत्य कहा, वो तो खेलोगी ना वृषाली। ठीक हे मुझे काव्य और छंद बहुत पसंद है। तो चलो फिर प्रारंभ करते है,। सारिका तुमसे प्रारंभ करते हैं।


*छंद कह मुकरी*
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सारिका ....शीत ऋतु में जब वो आये
दिखे न कुछ भी धुंध बनाये
बना फिरे जैसे बोहरा

वृषाली.... क्या सखी साजन
सारिका... नहि सखि कोहरा


लावण्या ...सौम्य रूप में हवन कराये
उग्र होत सब जगत जलाये
बनती साक्षी जुड़ते भाग

सारिका..... क्या सखि साजन
लावण्या..... नहि सखि आग


वृषाली.....शिवशंकर का वार पुराना
मस्तक ऊपर शशी सुहाना
मिली न उसको कोई भौम

लावण्या... क्या सखि साजन
वृषाली.... नहि सखि सोम


सारिका.....रवि किरणों से छन छन आती
शीत काल में अधिक लुभाती
प्रखर पुंज है इसका रूप

लावण्या, वृषाली... क्या सखि धूप
सारिका...... नही सखि साजन

वृषाली....गोकुल की गलियों में रमता
रास रचाता कभी न थमता
ज्यूं देखूं ज्यूं बढती तृष्णा
क्या सखि साजन
नहि सखि कृष्णा


लावण्या....बागों में वो गुन गुन गाता
कली कली पर जब मँडराता
एक जगह पर कहीं न ठहरा
क्या सखि साजन
नहि सखि भँवरा


सारिका...इक पखवाड़े बढता जाता
दूजे को फिर घटता जाता
इक दिन दिखता बहुत मंदा
क्या सखि साजन
नहि सखि चंदा


वृषाली....उमड़ घूमड़ कर बरसा पानी
धरती औढी चूनर धानी
खग मृग पशु सबका मन हर्षा
क्या सखि साजन
नहि सखि वर्षा


लावण्या....नील गगन में रहते सारे
टिम टिम करते रहते प्यारे
मां रजनी के राज दुलारे
क्या सखि साजन
नहि सखि तारे


सारिका......रंगो से खेले रंगोली
प्रेम प्यार की बोले बोली
करते सब जन हँसी ठिठोली
क्या सखि साजन
नहि सखि होली।


लावण्या और वृषाली चौंक गई ये किसने उत्तर दिया, उन्होंने पीछे मुडके देखा तो पीछे मृत्युंजय खड़ा था। लावण्या और वृषाली के हर्ष की कोई सीमा ना रही। मृत्युंजय तुम आ गए लावण्या दौड़कर मृत्युंजय के समीप गई। वृषाली को अपनी दशा पर क्रोध आया वो उदास हो गई।


कहां थे इतने दिन? पता हे हमने तुम्हे बहुत स्मरण किया है ना वृषाली,? लावण्या वहीं मृत्युंजय से वार्तालाप करने लगी। मुझे अंदर प्रवेश तो कर लेने दो लावण्या। मृत्युंजय वृषाली के समीप गया पीछे लावण्या भी गई। कैसी हो वृषाली? कुशल हुं, किंतु तुम कहां चले गए थे सूचना दिए बिना हम तुमसे रूष्ट हैं।


अरे कोई हमे जलपान केलिए भी पूछे। सब प्रश्नों का एक ही उत्तर हे जो बताकर गया था, लो ये औषधि वृषाली को पिलानी हे। सारिका ने मृत्युंजय को जल दिया।


वैसे तुम तीनो छंद और काव्य में पारंगत हो। अच्छा तो तुमने छुपकर हम सहेलियों की बाते सुनी? लावण्या ने रूष्ट होनेका अभिनय करते कहा। नही मेने कहां बाते सुनी मेने तो आपकी चतुर बुद्धि के दर्शन किए बालिका।मृत्युंजय ने हास्य के साथ कहा। अच्छा अब में अपने कक्ष में जाता हुं, बहुत लंबा प्रवास करके आया हुं।


ठीक हे तुम जाओ और विश्राम करो बाते तो होती ही रहेंगी वृषाली ने कहा। अरे ऐसे केसे कितने दिन पश्चात आए हो कुछ समय तो बैठो साथ फिर विश्राम कर लेना लावण्या ने मुंह बनाकर कहा।


लावण्या दो दिन से निरंतर अश्व लेकर प्रवास कर रहा हुं, स्नान भी नही किया ये न हो की मेरे प्रस्वेद की सुवास से तुम मूर्छित हो जाओ। ठीक हे ठीक हे जाओ और निवृत होकर मिलने आना।


मृत्युंजय मुड़ा और कक्ष के द्वार तक पहुंचा तभी वृषाली ने पीछे से आवाज दी, मृत्युंजय.. मृत्युंजय तुरंत पीछे मुड़ा। सुनो तुम स्नान करके निवृत हो जाओ फिर भोजन अवश्य कर लेना। वृषाली की आंखे स्नेह से छलक रही थी। अवश्य सखी,मृत्युंजय ने उत्तर दिया और कक्ष से चला गया।


रात्रि का प्रथम प्रहर प्रारंभ हो गया। मित्र में राजगुरु से भेंट करके आता हुं। भुजंगा से कहकर मृत्युंजय कक्ष से बाहर गया।


क्या में अंदर आजाउ राजगुरु, अरे मृत्युंजय तुम कब आए? आ जाओ भीतर। मध्याह्न में आ गया। राजगुरु और मृत्युंजय समीप बैठे।


तो क्या तुम्हारा कार्य सफल रहा। राजगुरु बहुत उत्सुक थे सब जान ने केलिए। जी राजगुरु किंतु अभी पूर्ण नही हुआ है। मृत्युंजय विस्तार से बताओ। कुछ समय और प्रतीक्षा कीजिए राजगुरु समय आने पर सब बताऊंगा। किंतु.... आपको मुझ पर विश्वास है ना? हां मृत्युंजय, तो बस थोड़ा समय दीजिए।
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय को याद करके वृषाली चिंतित हे, तभी सारिका और लावण्या कक्ष में चौसर लेके आते हे। वृषाली को चौसर देखकर चारूलता की याद आती हे और वो उदास हो जाती हे। लावण्या कहती हे की आज हम छंद मुकरी खेलते हे। सब खेल रही हे तभी पीछे से मृत्युंजय उत्तर देता हे। उसे देखकर वृषाली और लावण्या खुस होते हैं। राजगुरु मृत्युंजय को कार्य के विषय में पूछते है तो वो कहता हे उचित समय आने पर सब बताऊंगा अब आगे........


समय बीत रहा हे। राजकुमारी अब धीरे धीरे अपने पैरों पर खड़ी होने लगीं हैं। जैसे नन्हा बालक धीरे धीरे डगमगाते चलता हे वैसे राजकुमारी भी चल रही हैं। महाराज बहुत प्रसन्न हे, किंतु राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु राजमहल की सुरक्षा के विषय में चिंतित एवम कार्यरत हे की कहीं कोई अनहोनी घटना न घट जाए। मृत्युंजय इस कार्य में अपना पूरा योगदान दे रहा है।


लावण्या अपनी शैय्या में लेटी हुई है। उसका मुख देखकर ये ज्ञात होता है की वो बहुत उदास हैं। सारिका कबसे लावण्या को पास में बैठी निहार रही हे।


आखिर सारिका ने अपने मौन को विराम दिया और बोली, सखी इतनी व्यथित क्यों हो रही हो? लावण्या ने सारिका के सामने देखा, ये तुम पूछ रही हों सारिका अगर ये बात कोई अन्य व्यक्ति मुझसे पूछता तो फिर भी ठीक था। जब तुम सब जानती हो तो भी पूछ रही हो। लावण्या के अंदर जो पीड़ा हे वो उसके शब्दों में स्पष्ट दिखाई देती हे।


तुम्हे याद हैं लावण्या जब राजवैद्यजी ने तुम्हे राजमहल में राजकुमारी के उपचार हेतु आने केलिए कहा था तब तुम कितनी रूष्ट हुई थी। सारिका वो बात अलग थी, हा सखी उसी तरह आज राजव्वैध्यजी ने तुम्हे कार्य संपन्न होने पर वापस लौट ने केलिए कहा है। और वैसे भी हम यहां जिस प्रयोजन से आए हे वो भी तो पूर्ण करना हे। फिर भी सारिका यहां मेरे मित्र हे जिनके साथ मेरा ह्रदय जुड गया हैं।


किंतु मृत्युंजय भी तो अब अपने गांव लॉट जायेगा। उसका भी कार्य अब समाप्त होंगया हे फिर तुम यहां रहो के अपने अध्ययन स्थल पर क्या फर्क पड़ेगा।


लावण्या और सारिका बात कर रही है तभी एक सेविका कक्ष में प्रवेश करती हे, महाराज ने आपको तुरंत अपने कक्ष में उपस्थित होने का आदेश दिया हैं, बिना विलंब आप हमारे साथ चलिए।


महाराज ने आदेश दिया हैं? लावण्या और सारिका दोनों को आश्चर्य हुआ। किंतु इस समय, क्या कोई समस्या आ गई हे? वो हम नही जानते बस आप हमारे साथ चलिए।


सेविका आगे चल रही हे। लावण्या और सारिका शीघ्र ही महाराज के कक्ष में पहुंच गई। किंतु वहां जाकर उसने जो दृश्य देखा ये देखकर उसके होश उड़ गए, उसको अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हो रहा था वो कुछ क्षण केलिए ठहर गई और तेजिसे सामने खड़े एक व्यक्ति की ओर बढ़ी और उसके नजदीक जाते ही फिर ठहर गई।


कक्ष में महाराज, राजगुरु, मृत्युंजय, राजकुमारी वृषाली, सेनापति वज्रबाहु, और अन्य तीन व्यक्ति भी उपस्थित थे। वो तीनो व्यक्ति महाराज के समक्ष ऐसे खड़े थे जैसे उन्होंने कोई अपराध किया है और सजा सुनाने हेतु उन्हे यहां उपस्थित किया गया है।


सबने लावण्या की ओर देखा उन तीन व्यक्तियों ने।भी, सब चुप थे।


लावण्या क्यों रुक गई मिल लो अपने पिता से, अब रहस्य से पर्दा उठ गया हे, मृत्युंजय ने कहां। ये सुनते ही लावण्या के पैरो के नीचे से जमीन खिसक गई। उसके ह्रदय पर जेसे कोई बहुत बड़ा बोझ किसीने रख दिया हो ऐसा उसे लगा। वो अपनी जगह से दो कदम पीछे हो गई। वो मृत्युंजय के सामने देख रही थी किंतु उसकी आंख से आंख नहीं मिला पा रही थी। उसकी आंख से आंसू निकलें और नीचे गिर गए।


सब शांत था, लेकिन ये शांति कोई बड़े चक्रवात का अंदेशा दे रही थी।


महाराज कनकपुर तो आपका आश्रित राज्य है, आप हमारे महाराज है तो हम भला आपके और आपके राज्य के विरुद्ध षडयंत्र क्यूं करेंगे? लावण्या के बड़े पिताजी और कनकपुर के महाराज ने कहा। यही तो हम आपसे जानना चाहते है भानुप्रताप की हमने या हमारे राज्य ने कभी कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जिससे आपके मान, सम्मान, आपके कुटुंब, राज्य या आपके।धन को हानि पहुंचे फिर भी आपने हमारे विरुद्ध ये सब क्यों किया?
षडयंत्र? महाराज और बड़े पिताजी ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हैं। सच छुपाना कोई षडयंत्र तो नही होता। लावण्या मन ही मन स्वयम से कहे रही हे।


भानुप्रताप, वीर युद्धभूमि में युद्ध करते हैं यूं पीठ पीछे षडयंत्र नही। आपसे हमे ऐसी कायरता की अपेक्षा नहीं थी। महाराज आप क्या कह रहे हैं हमारी कुछ समझ में नहीं आ रहा हे।


महाराज इंद्रवर्मा ओर कनकपुर के राजा भानुप्रताप वार्तालाप कर रहे हैं तभी मृत्युंजय आसन से उठा और मध्य में बोला, क्षमा कीजिए महाराज आप दोनो के मध्य बोल रहा हूं किंतु क्यों ना ये सवाल उस व्यक्ति से ही पूछा जाए जिसने ये पूरा षडयंत्र रचा हे।


मृत्युंजय की बात सुनकर सब आश्चर्यचकित हो गए। तुम कहेना क्या चाहते हो मृत्युंजय जरा विस्तार।से कहो, राजगुरु ने कहा। विस्तार से में क्या कह सकता हुं जो भी कहेंना है वो अब कनकपुर के महाराज भानुप्रताप के अनुज तेजप्रताप ही कहेंगे।


तेजप्रताप कहेंगे? मृत्युंजय पहेलियां मत बुझाओ कुछ समझ में आए ऐसा कहो। राजगुरु ने स्पष्ट शब्दों में मृत्युंजय को आज्ञा देते हुए कहा। मृत्युंजय ठीक कहे रहा हे राजगुरु जो कहेंगे वो तेजप्रताप ही कहेंगे। सेनापति वज्रबाहु ने भी यही कहा।


पिताजी क्या कहेंगे? ओर ये किस षडयंत्र के विषय में बात कर रहे हे। लावण्या का ह्रदय तेज गति से धड़कने लगा हे।


अवश्य ही आपसे किसी ने असत्य कहा हे महाराज इंद्रवर्मा हमारा अनुज ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जिससे हमे ग्लानि हो और हमारा शीश झुक जाए। ऐसा हे तो फिर आपही स्वयम अपने भ्राता से पूछ क्यों नही लेते की ऐसी क्या विवशता थी जिसने इन्हे षड्यंत्रकारी बना दिया।


हमारा अनुज षड्यंत्रकारी? भानुप्रताप की आंखे फटी की फटी रहे गई सेनापति वज्रबाहु की ये बात सुनकर। हमारे पिताजी षड्यंत्रकारी नही नही ऐसा कदापि नही हो सकता, लावण्या मध्य ही चीखकर बोल पड़ी।


कुमारी लावण्या इस समय दो राज्यों के राजाओं के मध्य बात हो रही हैं आप बीच में न बोलें यहीं उचित होगा। राजगुरु ने थोड़ा रूष्ट होकर आज्ञा दी। क्षमा करे राजगुरु किंतु यहां हमारे पिताजी पर कलंक लगाया जा रहा हे, मेरे पिताजी वीर योद्धा हे वे षड्यंत्रकारी कभी नहीं हो सकते, कभी नही।


लावण्या तुमने सुना नही राजगुरु ने तुम्हे का आज्ञा दी मृत्युंजय ने कठिन शब्दों में लावण्या की ओर देखते हुए कहा। मृत्युंजय तुम भी? तुम तो हमारे मित्र हो फिर भी,? हम अपने पिता पर कोई भी कलंक लगते नाही देख सकते हैं ओर नाही सुन सकते हैं समझे तुम। लावण्या उग्र हो गई।


हां हुं में षड्यंत्रकारी, में ये स्वीकार करता हुं के ये सारा षडयंत्र मेने ही रचा है। तेजप्रताप ने ऊंचे स्वर में कहां और लावण्या चुप हो गई, उसके ह्रदय पर जैसे घात हो गया। भानुप्रताप का शरीर सुन्न हो गया। महाराज इंद्रवर्मा और राजगुरु अपने आसन से उठखड़े हो गए।


आपने रचा षडयंत्र तेजप्रताप हमारे विरुद्ध? किंतु क्यूं, आपसे तो हमारी परस्पर ना कोई स्पर्धा हे ना कोई शत्रुता फिर आपने ऐसा जघन्य अपराध क्यूं किया। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित हो गए, उनका हाथ अपनी कमर पर लटकती म्यान पर गया और उन्हों ने तलवार निकाली। सब चिंतित हो गए , महाराज अपने आप पर संयम रखिए और विवेक से काम लीजिए, राजगुरु ने कहा।


संयम केसे रख्खू राजगुरु अगर ये वीरो की तरह वार करते तो मुझे गर्व होता किंतु उसने तो कायर के।भांति पीठ पीछे वार किया, और चोंट पहुंचाई भी तो किसे? हमारी बेटी राजकुमारी वृषाली को। नही गुरुजी ये दंड के पात्र हैं हम इस समय ही उसका शीश धड़ से अलग कर देंगे।


षडयंत्र हमारे विरुद्ध? वृषाली ये सुनकर चौंक गई।हमारे पिताजी ने वृषाली को चोट पहुंचाई आखिर ये किस विषय में बात हो रही हे। लावण्या भी चौंक गई थी उसके मस्तिष्क ने जैसे कार्य करना ही बंध कर दिया था राजगुरु ने जैसे तैसे महाराज को शांत किया।


भानुप्रताप अपने अनुज तेजप्रताप के समीप गए और जोर से एक चाटे की आवाज कक्ष में गूंज गई। ये किस षडयंत्र की बात हो रही हैं तुमने क्या षडयंत्र किया हैं तेजपाल बोलो, ऐसे पत्थर की मूरत बनकर क्यों खड़े हो बोलो तेजपाल बोलो नही तो आज हमारे हाथों से कुछ अनर्थ हो जायेगा।


भानुप्रताप, तेजपाल के दोनों कंधो को जक्जोड़ कर पूछ रहे हैं। हा मेने ही रचा है षडयंत्र मैने ही। क्या किया है तुमने और क्यों किया है तेजपाल बोलो....


भानुप्रताप द्वारा तेजपाल से पूछे गए प्रश्न का उत्तर जान ने केलिए सब उत्सुक हे।
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आगे हमने देखा की,राजकुमारी अब ठीक होने लगी है। एक दिन लावण्या को महाराज के कक्ष में उपस्थित होने का संदेश मिलता है। जब को वहां जाति हे तो उसके पिता, बड़े पिताजी और मंजले पिता वहां खड़े है। सबको पता चल गया है की लावण्या कनकपुर के राजा के छोटे भाई की पुत्री हे। सब लावण्या के पिताजी से पूछ रहे हैं की, उन्हों ने षडयंत्र क्यूं रचा। लावण्या को कुछ समझ नही आ रहा है। अब आगे........


तेजप्रताप की बात सुनकर कक्ष में उपस्थित सबके पैरो के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। महाराज इंद्रवर्मा क्रोधित होंगए। उन्होंने अपने म्यान से तलवार खिंचली, चालबाज, षड्यंत्रकारी तेजपाल आज हम तुम्हारा शिर छेद कर देंगे। तुमने हमारे और हमारे राज्य के विरुद्ध षडयंत्र रचा । आज हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे।


मृत्युंजय बीच में आ गया और महाराज का हाथ पकड़कर उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगा किंतु महाराज के क्रोध की अग्नि शांत ही नही हो रही हे। सेनापति वज्रबाहु भी बात को संभालने का प्रयत्न करने लगे, किंतु सबके प्रयत्न विफल होते देख राजगुरु आगे आए उन्हों ने महाराज को आज्ञा दी के अपनी तलवार को म्यान में रखें। महाराज ने अपने मन को मारकर अपनी तलवार को म्यान में रक्खा। आप एक राजा हे आपको ऐसा वर्तन शोभा नही देता महाराज। राजगुरु ने समझाकर उन्हे अपने आसन पर बिठाया।


लावण्या ये सब देखकर टूट गई उसे तो समझ ही नही आ रहा की उसके पिता ने आखिर किया क्या है और ये किस षडयंत्र के विषय में बात हो रही हे। नौबत ऐसी आ गई हैं की महाराज उसके पिता का वध करनेका प्रयास कर रहे हैं।


जब तुम्हारा और हमारा आपस में कोई झगड़ा या युद्ध नही हे तो तुमने कायर की भांति हमारे पीठ पीछे वार क्यों किया तेजप्रताप हमे कारण बताओ। महाराज ने क्रोधित स्वर में कहा।


क्यूं की आप मेरी बहन दीपशिखा के हत्यारे हैं। तेजपाल ने भी क्रोधित होंकर खूंखार स्वर में उत्तर दिया। दीपशिखा के हत्यारे और हम? कक्ष में उपस्थित सबके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। जब हमारी बहन की हत्या ही नही हुई तो हत्यारे महाराज इंद्रवर्मा कैसे हो गए तेजपाल? लगता हे तुम्हारे मस्तिष्कका संतुलन डगमगा गया है। हमारी बहन की तो हत्या ही नही हुई। भानुप्रताप ने तेजप्रताप से क्रोधित होकर पूछा।


हुई थी हमारी बहन दीपशिखा की हत्या हुई थी और हत्यारा है ये इंद्रवर्मा। तेजप्रताप तुम होश में तो हो क्या बोल रहे हो तुम्हे कुछ ज्ञात हे? जब तक हमे ज्ञात हे तुम्हारी बहन की मृत्यु तो बीमारी से हुई थी। राजगुरु बोलें।


नही ये अर्धसत्य है राजगुरु सौमित्र। मेरी बहन की असमय मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा हैं। तुम ये क्या बोल रहे हो अनुज । में सत्य कह रहा हुं बड़े भैया।


यूं पहेलियां मत बुझाओ तेजप्रताप जो कहना हैं साफ साफ कहो, राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा। आपको जानना हे तो सुनिए,


हमारी बहन दीपशिखा एक होनहार कन्या थी। अस्त्र, शस्त्र, ज्ञान, वेद सबकी शिक्षा दीक्षा उसने प्राप्त की थी। गुरुकुल में वो इंद्रवर्मा की रानी वसुंधरा के साथ ही अभ्यास करती थी। दोनों बहुत अच्छी सहेलियां थी, दोनों अस्त्र, शस्त्र, वेदपाठ और व्यवहार ज्ञान में समान कुशाग्र थी। जब उनकी शिक्षा दीक्षा पूर्ण हुई तो आचार्य ने उन दोनो को सूरजगढ़ में हो रही सबसे बड़ी प्रतियोगिता में सम्मेलित होने केलिए कहा।


आचार्य को अपनी दोनो शिष्या की प्रतिभा पर बहुत गर्व था। दोनो सूरजगढ़ में होने वाली प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए गई। वहां सभी राज्यों से राजकुमार ओर राजकुमारियां प्रतियोगिता में सम्मिलित होने केलिए आई हुई थी। ये इंद्रवर्मा भी वहां उपस्थित था।


महाराज इंद्रवर्मा कहो, महाराज का नाम सम्मान से लो तेजप्रताप ये मत भूलो की ये तुम्हारे राजा हे और तुम हमारे आश्रित राज्य के राजा के भाई। राजगुरु ने क्रोधित होकर कहा।


नही में अपनी बहन के हत्यारे को कभी सम्मान से नहीं बुला सकता। तेजप्रताप ने उत्तर दिया। राजगुरु रहने दीजिए एक षड्यंत्रकारी से मुझे किसी सम्मान की आवश्यकता नहीं है। आगे बताओ तेजप्रताप महाराज इंद्रवर्मा ने आदेश दीया।


उस प्रतियोगिता में राजकन्याओ में राजकुमारी वसुंधरा प्रथमविजई हुई थी और हमारी बहन द्वितीय। राजकुमारो में इंद्रवर्मा प्रथम विजेता हुए थे। सभी कुछ दिन साथ रहे और तीनो में मित्रता हो गई थी। धीरे धीरे हमारी बहन दीपशिखा इंद्रवर्मा को प्रेम करने लगी थी। जब वो अपनी शिक्षा पूर्ण करके राजमहल वापस लौटी तो हमारे पिता महाराज ने हमारी बहन की शादी का प्रस्ताव विजयगढ़ के महाराज के सामने रक्खा किंतु इस इंद्रवर्मा ने वो प्रस्ताव ठुकरा दिया और उस वसुंधरा से विवाह कर लिया।
हमारी बहन ये बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाई। उसका मन संसार से उठ गया, वो राजमहल छोड़कर मंदिर में जाकर रहने लगी। हमारी बहन जो हमेशा सोलह श्रृंगार में सुंदर और स्वरूपवान दिखती थी वो सफेद वस्त्रों में कुरूपता का जीवन व्यापन करने लगी।


ये बात हमे तो ज्ञात नही हे तेजप्रताप, वो इस वजह से भैया की आप सब हमसे आयु में बहुत बड़े थे और आप सब राज्य के कार्य में व्यस्त रहते थे किंतु में और दीपशिखा दोनो जुड़वा थे और हम दोनो मित्र समान थे वो अपने मन की सभी बातें हमसे किया करती थी और किसी से नहीं। मुझे हमारी बहन से आप सबसे कहीं अधिक प्रेम था।


कक्ष में उपस्थित सभी का मन आगे की बात जान ने केलिए बहुत उत्सुक हो रहा था।
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