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Fantasy विष कन्या - (Completed)

ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और भुजंगा के जाने के बाद सारिका लावण्या का उपहास करती है और कहती है की मृत्युंजय का व्यक्तित्व मनमोहक हे।लावण्या इस बात से जब सहमत नही होती तो वो उसे कक्ष के द्वार पर वो कैसे मृत्युंजय को देख ठहर गई थी वो स्मरण कराते हुए उसका उपहास करती हे। मध्याह्न के समय एक अनुचर महाराज का संदेश लेकर आता हे और मृत्युंजय से कहता हे की महाराजने सीघ्र उसे उनके कक्ष में उपस्थित होने को कहा है अब आगे.......


एक दरवान कक्ष में प्रवेश करता है और मृत्युंजय के आने का समाचार महाराज को सुनाता है। महाराज उसे अंदर आने की अनुमति देते हैं। कुछ ही क्षण में मृत्युंजय महाराज के सामने उपस्थित होता है। मृत्युंजय ने कक्ष में प्रवेश करते ही देखा की महाराज के सिवा वहां अन्य कोई एक व्यक्ति भी उपस्थित हैं। उसने महाराज के समक्ष जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया। आपने मुझे अति सीघ्र यहां उपस्थित होने की आज्ञा दी सब कुशल मंगल तो है ना महाराज। मृत्युंजय ने विनम्रता पूर्वक प्रश्न किया।


महाराज ने मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने को कहा।आज पहली बार मृत्युंजय को महाराज के मुख मंडल पर प्रसन्नता दिखाई दी। ईश्वर की कृपा से सब ठीक हैं। तो फिर आपने मुझे यूं तत्काल उपस्थित हो ने की आज्ञा दी उसका तात्पर्य महाराज। बात ऐसी है मृत्युंजय की हम आपका परिचय हमारे राज्य के प्रधान सेनापति एवम हमारे परम मित्र वज्रबाहु से कराना चाहते हैं। महाराज ने वज्रबाहु की ओर देखते हुए कहा।


मृत्युंजय ने वज्रबाहु की ओर देखा और हाथ जोड़कर विनम्रता से प्रणाम किया। सेनापति ने भी प्रणाम का उत्तर दिया। महाराज ने वज्रबाहु को मृत्युंजय का विस्तार से परिचय करवाया। दोनो का एक दूसरे से परिचय हुआ। कुछ समय पश्चात मृत्युंजय ने महाराज से जाने केलिए आज्ञा मांगी। महाराज मध्याह्न भोजन का समय है, तो मुझे आज्ञा दीजिए।


महाराज ने मृत्युंजय को रोकते हुए कहा, ठहरिए मृत्युंजय ये लीजिए ये हमारी राजमुद्रिका है। महाराज ने मृत्युंजय के हाथ में मुद्रिका दी। ये मुद्रिका हमारी राजमुद्रा है ये आपके पास होगी तो आपको कहीं, किसी जगह आने जाने पर कोई पाबंदी या अवरोध नही होगा और आपसे कोई किसी भी प्रकारका प्रश्न भी नही करेगा जैसा की आपने अपनी शर्त में कहा था। किंतु आपको इस राजमुद्रा का जतन अपने प्राणों के भांति करना पड़ेगा।


अगर ये राजमुद्रा भूल से भी गलत हाथों में चली गई तो कुछ भी अगठित हो सकता हे। इस से हमारा राज्य, हमारे प्राण और हमारी प्रजा संकट में पड़ सकते है। आप ज्ञानी है समझदार है इस लिए आपसे बस इतनी ही विनती हे। महाराज ने राजमुद्रा का मूल्य और गंभीरता समजाते हुए कहा।


जी महाराज में इस विषय की गंभीरता को समझ सकता हूं। आप निश्चिंत रहिए में आपको कभी निराश नहीं करूंगा। मृत्युंजय की आंखो में सत्य की चमक और स्वर में अपने दायित्व की प्रति सभानता का अनोखा टंकार था। अब में आज्ञा लेता हूं कहकर मृत्युंजय कक्ष से चला गया।


भुजंगा मृत्युंजय की राह देख रहा हे। उसके मस्तिष्क में बहुत से प्रश्न आ जा रहे है। अपने आप से ही जैसे बात कर रहा है। पूरे कक्ष में भ्रमण कर रहा है। कभी बैचेन होकर जरुखे में जाता है तो कभी आकर सैया पर बैठ जाता है।बहुत देर हो गई अभी भी मृत्युंजय नही आया, आखिर क्या बात होगी।


मृत्युंजय कक्ष में प्रवेश करता है। उसके मुख पर शांति है। उसको आते देख भुजंगा अपने आपको रोक नही पाता और दौड़ कर सामने जाता है। बड़ा उत्सुक है वो। क्या हुआ महाराज को क्या काम था, क्या कहा उन्हों ने तुमसे, अनेको प्रश्नों की बौछार करदी उसने।


मृत्युंजय जाकर सैया पर शांति से बैठ गया। भुजंगा बड़ी आतुरता से उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। क्या हुआ मित्र उत्तर दो। मेरी शंका सही थी ना लावण्या ने ही महाराज को हमारे विरुद्ध कुछ कहा थाना? नही मित्र ऐसा कुछ नही था। तो क्या था? महाराज मेरा परिचय प्रधान सेनापति बज्रबाहु से करवाना चाहते थे बस। भुजंगा ने लंबी सांस ली, बस इतना ही कार्य था। हा इतना ही।


मैने पहले ही कहा था की अपने मस्तिष्क पे इतना जोर मत डालो। सही है भुजगा स्वागत बोला "खोदा पहाड़ निकला चूहा"। मृत्युंजय ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रक्खा, चले अब अपना कार्य करें हमारे पास समय बहुत कम है। भुजंगा ने सिर हिलाया और कहा सत्य कह रहे हो।


पूर्णिमा की रात है। चंद्रमा की रोशनी जरुखे से अंदर आरही ही, रात्रि भोजन करने के बाद मृत्युंजय अपने कक्ष में कुछ सोचते हुए चहलकदमी कर रहा है, तभी उसकी नजर जरुखे के ठीक सामने नीचे वाटिका के मध्य से बाहर की ओर जाती एक छोटी सी पगदंडी पर पड़ी।


लावण्या दुशाला ओढ़े इधर उधर देखते हुए वहां से महल के बाहर जा रही थी। वो बार बार अपने आस पास नजर करते हुए गति से चल रही थी ऐसा लग रहा था जैसे वो कोई उसे देख न ले इस तरह छुपते छुपाते जाना चाहती है।


इस समय लावण्या कहां जा रही हैं और वो भी इतनी तेज गति से, चुपके से?। मृत्युंजय के मस्तिष्क में संशय हुआ। उसने देखा तो भुजंगा सैया पर लेटा हुआ था। मृत्युंजय ने एक दुशाला अपने बदन पर लपेटा और पदत्राण धारण करते हुए भुजंगा से कहा, मित्र तुम विश्राम करो में कुछ क्षणों में आता हूं। किंतु इस समय तुम जा कहां रहे हो। कहीं नहीं आज भोजन थोड़ा गरिष्ठ था और पूर्णिमा भी है तो उसकी शीतल चांदनी में थोड़ा विहार करके आता हु। कहते कहते मृत्युंजय भी तेज गति के साथ कक्ष से बाहर की ओर चला गया
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ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, महाराज इंद्रवर्मा मृत्युंजय को मध्याह्न के समय अति सीघ्र उपस्थित होने की आज्ञा देते है। मृत्युंजय जब वहां पहुंचता है तो महाराज उसका परिचय प्रधान सेनापति वज्रबाहु से कराते है और उसको राज मुद्रिका देते हैं जो राजमुद्रा हैं। रात्रि भोज के पश्चात मृत्युंजय अपने कक्ष में चहलकदमी करते करते जरुखे से देखता है की लावण्या दुसाला ओढ़े हुए तेज गति से चुपके चुपके वाटिका में बनी पगदंडी से महल की बाहर जा रही है। अब आगे..........


मृत्युंजय के मस्तिष्क में कई शंसय हो रहे है। वो जब तक अपने कक्ष से निकलकर वाटिका में आया तब तक लावण्या ओझल हो गई थी। मृत्युंजय भी उस पगदंडी पर आगे की ओर बढ़ा। वो पगदंडी महल के पीछे से महल की बाहर जा रही थी। अब मृत्युंजय भी महल से निकल कर बाहर आ चुका था किंतु लावण्या कहीं नजर नहीं आ रही थी। ये लावण्या इस रात्रि के समय ऐसे वृक्ष से घनघोर रास्ते से जा कहां रही थी। और वो ऐसे अदृश्य केसे हो गई। मृत्युंजय अपने आप से ही बाते करते करते आगे बढ़ रहा है।


उसको शांत गति से बहने वाला एक झरना दिखाई दिया और तभी उसके कान में सुंदर और बहुत ही मीठी आवाज सुनाई दी। मृत्युंजय को बहुत ही आश्चर्य हुआ, ऐसे एकांत स्थल पर इतनी रात गए कोन गा रहा है। आवाज इतनी सुरीली थी की मृत्युंजय के कदम सहज ही उस दिशा की ओर चल पड़े जहां से ये आवाज आ रही थी।


कुछ कदम चलने के बाद ही मृत्युंजय उस स्थान पर पहुंच गया जहां से वो मनहोहक आवाज आ रही थी। और ये क्या वो देखते ही चौंक गया। उसने देखा की, लावण्या जल में जल विहार कर रही थी। उसके काले घने लम्बे बाल पानी में ऐसे बिखर रहे थे जैसे अनेकों सर्पिनियां प्रवाहित जल में तैर रही हो। उसका सुंदर बदन मानो जैसे आज दो चांद एक साथ खिले हैं, एक आकाश में और दूसरा इस जलाशय के भीतर। ऐसा लग रहा था की कोई जलपरी स्वयंम ही जल क्रीड़ा कर रही हे। उपरसे उसका ये सुमधुर स्वर और गीत, मृत्युंजय अपने आप को भूल गया और किसी रोमांचित सृष्टि में खो सा गया।


नव नार सजीली सी मैं प्रिय
छवि छैल छबीली सी मैं प्रिय

मधु गागर सी मैं भरी रस की
मदमस्त हुवै जो भरे चुस्की

शोभा कहूं किम आनन की
कछु चूक भई चतुरानन की

मुख मंजन अंजन नैन करूं
सुख चैन सदा मन नांय डरूं

अति काम कमान भवैं मेरी
डसती बन ब्यालनी सी घेरी

चमकै निश में खद्योतन ज्यूं
पट कंचुकि मांही कपोत रखूं

मुझे देखे कोई जो नजर भर के
गति मुर्छित होय गिरे धर पै



लावण्या का ये स्व की प्रशस्ति करता हुआ गीत अचानक बंध हो गया। मृत्युंजय ने आंखे खोली और देखा तो वो लावण्या के सामने खड़ा था और लावण्या उसे बड़ी बड़ी आंखों से क्रोधित होकर देख रही थी।


आपको तनिक भी लज्जा नहीं आती एक स्त्री को ऐसे स्नान करते हुए छुप छुप के निहार रहे हों? क्षमा कीजिएगा लावण्याजी बात ऐसी हैं की, इसमें हमारा कोई दोष नही है ये सब किया धरा आपके सुंदर कंठ, स्वर और इस सुमधुर गीत का है जिसको सुनते ही हम सुध खो बैठे और हमारे कदम स्वयम ही इस ओर चल पड़े। मृत्युंजय ने प्रशंशा भरे शब्दों में लावण्या से कहा।


अपनी प्रशंशा सुनके लावण्या को बहुत अच्छा लगा फिर भी वो मृत्युंजय के सामने रोस वाली मुखमुद्रा बना के क्रोध का अभिनय करती है।वैसे हमे नही ज्ञात था की आप इतना सुमधुर गाती हे और आपको छंदशास्त्र और काव्य शास्त्र का भी ज्ञान है। वो कहते हैं ना "कनक में सुवास" ऐसी बात है। एक तो आप इतनी सुंदर और उपरसे आपका ये काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का ज्ञान और उस से भी कहीं ज्यादा सुंदर आपका स्वर। ईश्वर ने सब कुछ आपको ही दे दिया है । मेंरे चक्षु और मेरा जीवन तो धन्य हो गया। मृत्युंजय लावण्या की प्रशंशा करता ही जा रहा है।


आपको काव्यशास्ञ और छंदशास्त्र में अधिक रुचि लगती है, क्या ज्ञान भी रखतें हो या यूंही सबकी वाहवाही करते हों? लावण्या ने मृत्युंजय का उपहास करते हुए कहा।


अरे मुझ जैसे वनवासी का छंद और काव्यशास्त्र् से क्या मेल। हम तो वन में पक्षियों के मधुर स्वर को सुन सुनके पले बड़े है।


सही कहा वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी "बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद" कहकर लावण्या जोर जोर से हंसने लगी। फिर रूखे स्वर में बोली अब आपका प्रलाप समाप्त हुआ हो तो यहां से जाइए।


हम जाहि रहे है लावण्याजी किंतु आप भी बड़ी कठोर है, बिचारे इस चांद को माह में एक ही बार पूर्णतः खिलकर अपनी चांदनी बिखेर नेका अवसर मिलता हे वो भी आपने उससे छीन लिया। चांदकी सारी चांदनी आपने अपने वदन में समेटली। मृत्युंजय हंसते हंसते कहने लगा और आज्ञा लावण्याजी कहकर वहां से चला गया।


लावण्या विचार करने लगी की मृत्युंजय उसकी प्रशंशा कर रहा था या व्यंग कर रहा था। फिर उसने स्वयंम से मान लिया की नहीं वो प्रशंसा ही कर रहा था। वो फिर से प्रसन्न होकर जलक्रीड़ा करने लगी और गीत गुनगुनाने लगी।


महाराज राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचे। सारिका और दो अन्य सेविकाए राजकुमारी को औषधि पिलाकर मृत्युंजय की सूचना अनुसार तेल मालिश कर रही थी। महाराज को कक्ष में देखकर वें अपना कार्य पूर्ण करके कक्ष से बाहर चली गई।


महाराज राजकुमारी की शयन सैया के समीप गए। जरुखे से आ रही चांदनी के प्रकाश में राजकुमारी का मुख सुंदर और निर्मल दिख रहा था। महाराज को उस दिनका स्मरण हुआ जब राजकुमारी का जन्म हुआ था और उन्होंने पहली बार उन्हे देखा था और अपनी गोद में लिया था। उस दिन भी वो ऐसी ही सुंदर और प्यारी लगती थी।


महाराज राजकुमारी के सिराने बैठ गए और राजकुमारी के सिर पर हाथ फेरने लगे। उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे। उनमें से कुछ अश्रु की बूंदे राजकुमारी के गालों पर पड़ती और नीचे की तरफ सरककर शैयामे लुप्त हो जाती।


कपकपाते स्वर में महाराज इतना ही बोल पाए। आप जल्दी से स्वस्थ हो जाइए कुमारी वृषाली, आपके पिताजी आपके बिना बहुत अकेले पड़ गए हैं। कान तरस गए हैं आपके मीठे स्वर में पिताजी सुनने केलिए।


महाराज की आंखो से अश्रु बहते रहे, वो जरुखे से बाहर पूर्ण खिले चंद्रमा को देखते देखते पुत्री के विषाद में वहीं राजकुमारी के सिराने बैठे बैठे निंद्राधीन हो गए।
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय अपने कक्ष के जरूखे से लावण्या को छुपते छुपाते वाटिका में बने मार्गसे महल से बाहर की ओर जाते हुए देखता है। मृत्युंजय शंसयवस लावण्या को अनुसरते हुए एक झरने पर पहुंचता हे। लावण्या वहां जलक्रीड़ा कर रही है और मधुर स्वर में गीत गा रही है। मृत्युंजय उसकी प्रशंशा करता है। इस तरफ महाराज राजकुमारी के कक्ष में जाते है और भावुक होकर वहींं राजकुमारी के सिराने ही निंद्राधीन हो जाते है। अब आगे........


उदित होते सूर्य की लालिमा नभ में चारो ओर बिखरी हुई है जो नव प्रभात की सुंदरता में अभिवृद्धि कर रही हैं। पंछी कलरव करते हुए अपने नित्यक्रम से अपने घोंसले को त्याग स्वच्छ आकाश में उड़ रहे हैं। सर्व दिशाएं जैसे ईश्वर की आराधना कर रही है।


सूर्यदेव की सुनहरी किरने शांति से दबे पांव जरुखे से राजकुमारी के कक्ष मे प्रवेश कर रही है तभी कक्ष के मुख्य द्वार से मृत्युंजय कक्ष में प्रवेश करता है। कक्ष में प्रवेश करते ही मृत्युंजय की दृष्टि राजकुमारी के सिराने बैठे बैठे ही निंद्रधीन हो गए महाराज पर पड़ती है। वो समझ जाता है की पुत्री के पास आकर एक पिता महाराज नही किंतु एक सामान्य व्यक्ति की तरह व्यथित होकर निंद्राधीन हो गए होंगे।


ये दृश्य देखकर वो थोड़ी देर वहीं रुककर सोचने लगता है की, बड़े से बड़ा राजा हो या रंक अपनी संतान को कष्ट में देखकर कैसे असहाय और दुखी हो जाता हे। ईश्वर कभी किसी पिता को ऐसी परिस्थिति में ना डाले।


पीछे से भुजंगा तेजिसे हाथ में फूलों से भरी एक बड़ी सी टोकरी के साथ प्रवेश करता है। मृत्युंजय आजतो वाटिका में बहुत ही सुंदर पुष्प खिले हैं। आज तो वाटिका की शोभा देखने लायक है ऐसा कहते कहते उसने टोकरी एक मेज पर रखदी। मृत्युंजय तेज गतीसे मुड़ा और भुजंगा के पास जाकर उसके मुंह पर हाथ रखकर उसे धीरे से बोलने केलिए इशारा करने लगा।


आवाज से महाराज की निंद्रा टूट गई और उन्होंने सामने खड़े मृत्युंजय और भुजंगा को देखा। अरे मैं रात्रि में यहीं सो गया राजकुमारी के पास। शुभ प्रभात महाराज मृत्युंजय ने अपने दोनो हाथ जोड़कर महाराज का अभिवादन किया। भुजंगा ने भी ऐसा ही किया। महाराज ने भी अभिवादन का उत्तर दिया और कक्ष से चले गए।


मित्र चलो अपने अपने कार्य में जुट जाते है कहकर मृत्युंजय कक्ष के एक कोने में गया और वहां से धूप पात्र लेकर उसमे धुपकी सामग्री रखने लगा। भुजंगा भी पुष्पोसे कक्ष को सुशोभित करने में व्यस्त हो गया किंतु उसकी आंखे कक्ष के मुख्य द्वार पर जैसे थम गई थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो बड़ी ही आतुरता से किसकी प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्युंजय ये सब देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहा था।


देखा आज भी राजकुमारी के कक्ष में पहुंच ने में हमे विलंब हो गया। मैने कितनी बार तुमसे कहा हे सारिका की मंगलाचरण में उठकर मुझे भी जगाया करो किंतु मेरी एक नही सुनती हो तुम। पता नही आजकल तुम्हारा ध्यान कहां रहता है? कुछ भी कहो बस ही ही करके दांत दिखाती रहती हो मर्कट के जैसे। लावण्याा बोलते बोलते तेजी से राजकुमारी के कक्ष की ओर जा रही है और पीछे सारिका भी उसको अनुसरती चल रही है।


जब वो राजकुमारी के कक्ष के निकट पहुंचि तो उसके कर्ण में सूर्यदेव की स्तुति के शब्द सुनाई पड़े। बड़ी मधुर आवाज थी। सुंदर शब्द और छंदोबद्ध लय में ये कोन गा रहा है? लावण्या ये ज्ञात करने केलिए आतुर हो गई। उसके कदम सेहज ही उस मधुर स्वर की दिशा में मूड गए। चलते चलते वो राजकुमारी के कक्ष के मुख्य द्वार तक पहुंची और रुक गई।


आज फिर मृत्युंजय हाथ में धूप का पात्र लेकर कक्ष में गुगल और सुगंधित द्रव्यो से कक्ष में चारो ओर सुवास और पवित्रता का संचार कर रहा हे। वो अपने मधुर स्वर में सूर्यदेव की स्तुति कर रहा है ये देखकर लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ। मृत्युंजय इन सब बातो से अनविघ्न अपने कार्य में लीन है।



भोर भई दिश पूरब में प्रकटी रवि रश्मिन की अरुणाई।
मंदिर शंखरु नाद करै घटीयाल घुरै धवनी नभ छाई ।।
जीव चराचर जाग उठे खग मुग्ध हुये चिड़िया चहचाई।
संत अनंत सदा शिव शंकर जोगिय जंगम ध्यान लगाई।।

(छंद मत्त गयंद)


ये स्तुति मृत्युंजय कर रहा है? वो इतना सुमधुर गा सकता है, वो भी छंद में? लावण्या मन ही मन अपने आपसे मृत्युंजय की प्रशस्ति करने लगी। उसे रात्रि की घटना याद आ गई। वो अपने द्वारा कहे गए उस शब्दो को स्मरण कर स्वयं लज्जित हो गई की, " बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद"। ये मृत्युंजय बड़ा छलावा है, स्वयंम छंद का ज्ञान रखता है और अभिनय ऐसा कर रहा था जैसे काव्यशास्त्र के बारे में कुछ नही जानता। असत्य बोलने में तो जैसे उसे महारथ हासिल है।


लावण्या को अकेले अकेले प्रलाप करता देख पीछे से सारिका ने अपनी कोणी से धक्का देते हुए लावण्या का उपहास किया, क्यूं सखी आज फिर किस स्वप्न प्रदेश की यात्रा में निकल पड़ीं? आज फिर मृत्युंजय को देख अपनी सुध गवां बैठी ना? अपना मुख बंध रख्खो सारिका, में तो मात्र सूर्यदेव की स्तुति का मान रखकर यहां खड़ी हूं। दुश्मन भी अगर ईश्वर की उपासना कर रहा हो तो उसका ध्यान भंग नहीं करना चाहिए मृत्युंजय तो फिर भी हमारा..... लावण्या कहते कहते रुक गई।


मृत्युंजय क्या हमारा... हमारा.... हा.. हा.... बोलो सखी बोलो रुक क्यों गई? लावण्या को बड़ा संकोच हुआ अपने शब्दों पर, ये मैने क्या बोल दिया अब ये सारिका बात का बतंगड़ बना देगी। वो खुद बड़बड़ाने लगी। सारिका को लावण्या को छेड़ ने का अवसर मिला था और वो इस अवसर को हाथ से कैसे जाने देती। वो लावण्या को छेड़े जा रही हैं तभी भुजंगा भी कक्ष के द्वार पर आगया।


भुजंगा को अपने सामने देख लावण्या सारिका की ओर देखकर उसे आंखे दिखाकर चुप होने का इशारा करने लगी। पधारिए देवियां आप द्वार पर क्यूं रुकी हुई हैं? भुजंगा ने स्वागत करने का अभिनय करते हुए लावण्या के सामने देखा। आपके मित्र की स्तुति पूर्ण हो इस प्रतीक्षा में खड़े है ताकि उनकी स्तुति में कोई अवरोध न हो।


मृत्युंजय की स्तुति पूर्ण हुई । वो हाथ में धूप का पात्र लेकर कक्ष के मुख्य द्वार पर आया तो उसने लावण्या, सारिका और भुजंगा को आपस में कुछ बात करते हुए देखा। वो जिज्ञाशवस उनके समीप गया और लावण्या का अभिवादन करते हुए बोला, शुभ प्रभात लावण्याजी आशा है आप कुशल होंगी। मुझे क्या होगा भला में कुशल ही हूं आपको मेरे विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं हे। लावण्या कहते कहते कक्ष में प्रवेश कर गई।
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय सुबह सुबह राजकुमारी वृषाली के कक्ष में पहुंचता है और महाराज निंद्रा से जागते है। मृत्युंजय शुभ प्रभात कहकर उनका अभिवादन करता है, महाराज भी उत्तर देकर चले जाते है। मृत्युंजय सूर्यदेव की छदोबध्ध स्तुतिगान कर रहा हे तभी लावण्या और सारिका भी वहां आती है। मृत्युंजय की स्तुति पूर्ण होने पर लावण्या कक्ष में प्रवेश करती हे। अब आगे.........


कक्ष में प्रवेश करते ही लावण्या अपने कार्य में जुट जाती हैं। वो सिलबट्टे पर औषधि पिसने लगती है। सारिका भी उसकी सहायता में लगी हुई है। इस तरफ भुजंगा कक्ष को पुष्प से शुसोभित कर रहा है। मृत्युंजय ने अपना कार्य पूर्ण किया और वो लावण्या के समीप आया और उसे यूं औषधि पिसते हुए देखकर मन ही मन मुस्कुराने लगा।


लावण्या तिरछी नजर से ये सब देख रही थी। कुछ क्षण वो चुप रही फिर उससे रहा नही गया तो उसने मुं बनाकर पूछ ही लिया आपका यूं मुझे औषधि पिसते हुए देखकर मुस्कुराने का तात्पर क्या है? अब आपको इसमें भी कोई व्यंग सूझ रहा है क्या?


नही लावण्याजी मुझे कोई व्यंग नही सुझा है मुझे तो इस सिलबट्टे और इस पिसती हुई औषधि को देखकर इर्षा हो रही है। ईर्षा? कैसी ईर्षा? लावण्या को बड़ा आश्चर्य हुआ मृत्युंजय की बात सुनकर।


मृत्युंजय ने एक लंबी सांस भरी और फिर सांस छोड़ते हुए बोला, सोच रहा हूं की इस पत्थर ने जरूर किसीना किसी रूप में कोई अच्छे कर्म किए होंगे तभीतो आज इन सुंदर और नर्म हाथों में है। क्या सौभाग्य मिला है इस पत्थर को, एक अतिसुंदर कन्या अपने सुंदर नर्म हाथों में लेकर बड़े ही प्यार से उससे औषधि पिस रही है, ईश्वर आपकी लीला भी न्यारी हे।


आपको व्यर्थ प्रलाप करने की बीमारी पहले से है या यहां आकर लगी हैं? लावण्या ने व्यंग करते हुए मृत्युंजय से प्रश्न किया। लीजिए अब तो लोग सत्य बात को भी प्रलाप समझ लेते है अब सत्य वचनी मनुष्य करे भी तो क्या? लावण्या मृत्युंजय की बाते सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रही हैं।


प्रलाप ही तो है। क्षणभर केलिए सोच लीजिए अगर ये सिलबट्टा आपके नर्म, सुंदर हाथों के बजाय किसी कठोर पुरुष के हाथों में होता तो इसकी क्या दशा होती। जगह जगह से क्षति पहुंच गई होती ओर बिचारे का अस्तित्व ही खंडित हो गया होता। किंतु ये देखें आपके सुंदर और कोमल हाथों में ये कितना सुरक्षित है।


मृत्युंजय बड़ी ही विनम्रता से लावण्या की प्रशंशा कर रहा है। लावण्या को भी कहीं ना कहीं ये सब बाते अच्छी लग रही हे ये बात उसके मुख की प्रसन्नता से स्पष्ट ज्ञात हो रही है।


कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है की विधाता ने आपके साथ बड़ा अन्याय किया है। मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या के हाथ सिलबट्टे पर रुक गए। कैसा अन्याय? उसने जिज्ञासा से पूछा। अब देखियेना विधाता ने आपको शरीर सुंदर, और कोमल राजकुमारियों के भांति दिया किंतु जन्म एक वैद्य के घर दिया। ये कोमल, नर्म हाथ में ये सिलबट्टा शोभा नही देता। आपको तो किसी बड़े राज्य की राजकुमारी होना चाहिए था।


मृत्युंजय की ये बात सुनकर लावण्या थोड़ी छिन्न हो गई। क्यों राजकुमारीयां भी तो शस्त्र उठाती हे ये तो फिर भी एक छोटेसे पत्थर से बना सिलबट्टा है। हाथ कोमल हो या कठोर महत्व इस बात का होता है की उसमे बल कितना है समझे?। ये बात कहते कहते लावण्या की आंखो में एक भिन्न प्रकार की चमक आ गई। मृत्युंजय के पास अब इस बात का उत्तर देने केलिए कुछ भी शेष नहीं था । उसका मौन उसकी स्वीकृति दर्शाता था।


लावण्या ने सिलबट्टे में से पीसी हुई सारी औषधि एक पात्र में निकाली और सारिका को दी। सारिका और भुजंगा मंद मंद मुस्कुराते हुए मृत्युंजय और लावण्या की चर्चा का आनंद ले रहे है।


वैसे मुझे भी एक शंसय आपके प्रति हमेशा रहता है। लावण्या ने एक वस्त्र से अपने हाथ साफ करते हुए मृत्युंजय की ओर देखकर कहा। ओर वो संशय क्या हैं लावण्याजी? मृत्युंजय ने तुरंत ही आश्चर्य से पूछ लिया।


यही की आपने सत्य ही वेदशास्त्र और वैधशास्त्र का ही अभ्यास किया है या भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अभ्यास किया है। लावण्या ने हस्ते हुए व्यंग किया। आपको ऐसा क्यों लगता है? क्यों की जिस तरह आप हर क्षण अभिनय करते रहते है और जो ये संवादलीला करते रहते है उस से तो यही प्रतीत होता हे की आप वेदशास्ञ या वैध्यशास्त्र में नही किंतु नाट्यशास्त्र में पारंगत हैं। ये बात कहते कहते लावण्या जोर जोर से हसने लगी। दूर खड़ी लावण्या भी हंस पड़ी।


हम वनवासी के भाग्य इतने अच्छे कहां की हम नाट्यशास्त्र का अभ्यास कर सके। हमे तो जैसा दिखता है वैसा सहज ही बता देते है अब इसमें भी आपको अभिनय प्रतीत होता है तो हमारे फूटे भाग्य और क्या। मृत्युंजय ने निराश होने वाला मुंह बनाया और कहा। अच्छा ऐसा तो आप कल रात काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में भी कह रहे थे। आप कभी सत्य बोलते हैं या हमेशा अपने विषयमे लोगो को असत्य ही कहते हे। लावण्या ने कठोर शब्दों में कहा।


हमने आपसे।कुछ भी असत्य नहीं कहा। हमे सच में काव्यशास्त्र और छंदशास्त्र के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं हैं। हां येतों हमने सुबह देख ही लिया। लावण्या ने मृत्युंजय की चोरी जैसे पकड़ ली। अरे वो तो आप जैसे परमज्ञानी की संगत का असर है। हम तो आप जैसे ज्ञाता के मुख से सुनते सुनते कुछ कुछ सीख गए अन्यथा हमारे भाग्य में छंदशास्त्र का ज्ञान कहां।मृत्युंजय बात को संभाल ने की चेष्ठा कर रहा है।


अच्छा वेदो में छंदशास्त्र का अभ्यास भी आता है तो अगर आपने वेदशास्त्र का अभ्यास किया है तो निश्चित ही काव्यशास्त्र ओर छंदशास्त्र का अभ्यास भी किया ही होगा तो ये असत्य बोलने की क्या आवश्यकता। मृत्युंजय को प्रतीत हो गया की लावण्या इस चर्चा को आगे तक लेकर जायेगी। उसने भुजंगा को इशारा किया और भुजंगा समझ गया की मित्र आज बहुत बुरा फंस गया हे और उसे अब उसकी सहायता की आवश्यकता है।


भुजंगा मृत्युंजय के समीप आया और बोला, मित्र ये चर्चा तो होती रहेंगी किंतु क्या तुम्हें स्मरण नहीं है की महाराज ने तुम्हे अपने कक्ष में उपस्थित होने की आज्ञा दी है? अगर विलंब हो गया तो वो रूष्ट भी हो सकते हैं इसलिए हमे अब यहां से महाराज के कक्ष की ओर प्रस्थान करना चाहिए। मृत्युंजय ने भी अभिनय प्रारंभ किया।


अरे हां मित्र अच्छा हुआ तुमने स्मरण कराया अन्यथा में तो भूल ही गया था। अच्छा लावण्याजी अभी केलिए मुझे आज्ञा दे हमारी भेंट होती रहेगी कहकर मृत्युंजय तेजीसे द्वारकी ओर चल पड़ा पीछे भुजंगा भी सारिका की ओर देखकर मुस्कुराकर चला गया।


लावण्या वहीं खड़ी उन दोनो को जाते हुए निहारती रही और उसके मुख से सहज ही निकल गया मर्कट कहिंका.....
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आगे हमने देखा की, लावण्या को औषधि पिसते हुए देखकर मृत्युंजय कहता हे की इतने कोमल हाथ में ये पत्थर का सिलबट्टा शोभा नही देता। लावण्या मृत्युंजय को स्तुति का स्मरण कराके कहती हे की आपने कल रात्रि असत्य बोलाथा की आपको छंदशास्त्र की समझ नहीं है। मृत्युंजय का असत्य पकड़ा जाता है तो वो महाराज से मिलनेका बहाना करके वहां से चला जाता है। अब आगे......


मध्याह्न का समय हो गया हे। प्रकृति की गति जैसे थोड़ी मंद हो गई है। सूर्यदेव सीधी गति से आकाश में अपने सप्तअश्व वाले रथ में तपते हुए तंबावर्ण के हो गए है। शीत ऋतु भी अब विदा ले रही है। धीरे धीरे उष्णता तीव्र हो रही हैं।


लावण्या अपने कक्ष के जरूखे से प्रकृति के बदलते इस परिवेश को निहार रही है। उसके मस्तिष्क में जैसे कोई बात है। सारिका कक्ष में प्रवेश करती हे और उसकी नजर जरुखे में खड़ी लावण्या पर जाति है। वे सीघ्र ही उसके समीप पहुंचती है। ये क्या सखी इस तपते मध्याह्न के समय तुम यहां जरुखे में खड़ी हो? अब शीत ऋतु विदा ले चुकी है, इस उष्ण वायु से तुम्हारा कोमल शरीर जुलस जायेगा। कक्ष के भीतर आजाओ।


अचानक सारिका की आवाज सुनकर लावण्या थोड़ा चौंक जाति है। ये क्या सारिका तुमने तो हमे भयभीत कर दिया। अच्छा हमारी सखी को भय लगता हे ये बात तो हमे आज ही पता चली। सारिका ने थोड़ा उपहास किया। सारिका बाल की खाल मत खींचो। लावण्या ने थोड़ा रूष्ट होनेका अभिनय किया और कहते कहते वो सैया पर आकर लेट गई।


क्षमा करदो सखी अब ऐसा नहीं करूंगी। अब तो हस दो। अरे क्षमा मांगने की कोई आवश्यकता नहीं हे मेने तो ऐसे ही कह दिया। लावण्या के मुख पर आज उदासी दिख रही हैं। क्या हुआ सखी किस विषय में सोचकर इतना गंभीर हो गई हो कोई बात ही तो मुझे बताओ कदाचित कोई रास्ता निकल आए। सारिका लावण्या के साथ लेट गई और उसका मुख अपने हाथों से अपनी ओर करते हुए बोली।


विषय ही कुछ गंभीर है सारिका लावण्या ने गंभीर मुद्रा में कहा। क्या बात हे सखी कहो तो सही सारिका समझ गई की जरूर कुछ गंभीर बात हे जो लावण्या को परेशान कर रही है।


लावण्या उठकर सैया में बैठ गई। सारिका भी बैठ गई। तुम्हे ज्ञात हे ना की कल पूर्णिमा की रात्रि थी और में हर माह की जैसे इस माह की पूर्णिमा को भी जलविहार करने महल के पीछे के झरने पर गई थी। हा मुझे ज्ञात हे सखी तो क्या हुआ सारिका की जिज्ञासा और बढ़ गई। में जैसे ही झरने में जल विहार करने लगी अचानक से वहां मृत्युंजय आ गया। मृत्युंजय रात्रि के समय झरने पर क्या कर रहा था? सारिका ने बड़े विस्मय के साथ पूछा।


वही तो सारिका। मुझे भी इस बात का बहुत आश्चर्य हुआ। में महल से वाटिका में बनी पगदंडी से छुपते छुपाते दुषाला ओढकर निकली थी जिससे मुझे कोई देख न सके और पहचान भी न पाए किंतु मृत्युंजय का अचानक ही वहां झरने पर आना मुझे कुछ अटपटा सा लग रहा है सारिका। लावण्या ने संशय के साथ कहा। सत्य कह रही हो सखी। और जानती हो सारिका जब मैने मृत्युंजय से इस विषय में प्रश्न किया तो उसने कहा की वो भोजन करने के बाद यूंही विहार कर रहा था और उसके कानों में मेरे गीत का मधुर स्वर सुनाई पड़ा और वो चलते चलते वहां आ पहुंचा।


हां, ऐसा भी हो सकता है। कदाचित वो सत्य कह रहा हो। तुम्हारा स्वर इतना सुंदर है की जोभी सुने वो मंत्र मुग्ध हो जाए सखी। सारिका ने बड़ी प्रसन्नता के साथ लावण्या की बड़ाई की। नही सारिका पता नही क्यों मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है की जैसे मृत्युंजय मेरा पीछा करते हुए झरने पर पहुंचा था। अच्छा अगर तुम्हे ऐसा लग रहा है तो फिर ये बात गंभीर है। इस मृत्युंजय से थोड़ा संभालकर रहेना सखी कहीं उसको तुम्हारे रहस्य के विषय में ज्ञात हो गया तो हमारे लिए बड़ी समस्या हो जायेगी और हमारे सारे किए कराए पर पानी फिर जाएगा। सारिका ने।चिंतित स्वर में कहा।


में भी इसी बात से चिंतित हूं सारिका। कहीं हम पूरा दरिया तेर कर किनारे पे आकर डूब ना जाए। लावण्या बहुत चिंतित है। पर ये भी तो हो सकता है ना सखी की वो सत्य कह रहा हो? क्यूं की आज प्रातः जब उससे हमारी भेंट हुई तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया। उसका वर्तन व्यवहार पहले जैसा ही था अन्यथा कुछ तो बदलाव नजर आता। कदाचित तुम सही कह रही हो सारिका में ही कुछ ज्यादा सोच रही हूं इस विषय में। जो भी हो हमे इस मृत्युंजय।से।अब संभलकर रहना पड़ेगा।
अच्छा चलो अब ये सब बाते छोड़ दो मध्याह्न भोजन का समय है। स्वादिष्ट भोजन भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है की लावण्याजी कब हमे न्याय देंगी। सारिका ने हस्ते हुए कहां।


दोनो सखियां भोजन कर रही है तभी सारिका बोली कुछ भी कहलों मृत्युंजय जितना मनमोहक हे उतना ही चतुर है और मृदु भाषी है। उसका स्वर कितना सुंदर और कर्ण प्रिय है , है ना सखी?। लावण्या ने तिरछी नजर से सारिका की ओर देखा और बोली, सारिका तुम इस समय मृत्युंजय की प्रशस्ति करना बंध करो और अपनी जिहवा को इस स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेने दो। सारिका मुस्कुराते हुए भोजन करने लगी।
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आगे हमने देखा की, लावण्या मध्याह्न के समय अपने कक्ष के जरूखे में खड़ी है। जब सारिका पूछती हे की वो किस विषय में सोच विचार कर रही हे। तब लावण्या उसे झरने पर जलविहार वाली घटना कहती हैं। लावण्या को आशंका है की मृत्युंजय उस पर नजर रख रहा है। सारिका उसे मृत्युंजय से सचेत रहने को कहती हे जिस से उसका रहस्य मृत्युंजय के सामने उजागर न हो जाए। बाद में दोनो एक दूसरे का परिहास करते हुए मध्याह्न भोजन करती है। अब आगे............


रात्रि का समय हे महाराज के कक्ष में आज कुछ ज्यादा प्रकाश दिख रहा है। बहुत दिनों के पश्चात आज इतना प्रकाश हे अन्यथा थोड़ी सी धुंधली सी न के बरोबर रोशनी होती है। महाराज अपने आसन पर विराजे हुए है। ऐसा प्रतीत हो रहा है की जैसे वो किसी की बहुत आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे है। उनकी दृष्टि कक्ष के मुख्य द्वार पर जैसे थम गई हे।


कक्ष के मुख्य द्वार से राजगुरु सौमित्र भीतर प्रवेश करते हैं। महाराज अपने आसन से उठकर सामने चलकर राजगुरु को प्रणाम करते हुए उनका स्वागत करते हैं। राजगुरु महाराज को यशस्वी भव का आशीर्वाद देते है। महाराज राजगुरु को बड़े ही आदर के साथ आसन ग्रहण करने को कहते हैं।


राजगुरु आपकी अनुपस्थिति में हमे बड़ा अकेलापन लगता है। आप यहां उपस्थित होते हो तो राजगुरु, ओर पिता दोनों की उपस्थिति हमे प्रतीत होती हे। कृपया आप हमें और राजमहल को छोड़कर मत जाया कीजिए। महाराज ने बड़े व्याकुल होकर राजगुरु को अपनी व्यथा सुनाई।


राजगुरु थोडासा मुस्कुराए, महाराज में आपकी व्याकुलता समझ सकता हुं किंतु में हमारे राज्य का राजगुरु होने के साथ साथ हमारे गुरुकुल का प्रधान आचार्य भी हूं अतः मेरा गुरुकुल के प्रति भी कुछ उत्तरदायित्व हैं इसलिए मेरा वहां जाना भी अत्यंत आवश्यक हैं। जी राजगुरु आप सत्य कह रहे हैं।


राजगुरु सौमित्र और महाराज इंद्रवर्मा आपस में बात कर ही रहे थे की वहां मृत्युंजय उपस्थित हुआ। मृत्युंजय को इस वक्त अपने कक्ष में बिना आमंत्रण के ही देखकर महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ।


मृत्युंजय आप इस वक्त हमारे कक्ष में? महाराज ने विषमयता से पूछा। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा और हाथ जोड़कर प्रणाम किया फिर महाराज को प्रणाम किया। राजगुरु ने मृत्युंजय को यशश्वी भव का आशीर्वाद दिया। मृत्युंजय महाराज को कोई भी उत्तर दें उससे पूर्व ही राजगुरु ने कहा, महाराज मृत्युंजय को मेने यहां उपस्थित होने का आदेश दिया था।


जी राजगुरु मुझे जैसे ही अनुचर ने आपका संदेश दिया में एक क्षण का भी विलंब किए बिना यहां आपकी सेवा में उपस्थित हो गया हूं। आज्ञा कीजिए मेरे लायक कोई सेवा? महाराज जिज्ञासा वस राजगुरु के मुख की ओर देख रहे थे।


राजगुरु के मुख पर प्रसन्नता की लहर छा गई। उन्हो ने मृत्युंजय को आसन ग्रहण करने को कहा। मृत्युंजय में कुछ दिनों से महल में नही था, गुरुकुल में था तो मुझे ये जान ने की बड़ी तत्परता है की अब राजकुमारी वृषाली का स्वास्थ्य कैसा है? आपके आशीर्वाद से राजकुमारी के स्वास्थ्य में अब सुधार हो रहा है। मृत्युंजय आगे कुछ बोले इस से पहले ही महाराज मध्य में ही उत्सुकता से बोल पड़े। अच्छा तो अब राजकुमारी कब मूर्छा से बाहर आएंगी।


महाराज और मृत्युंजय दोनो ने महाराज की ओर देखा उनके मुख पर आतुरता स्पष्ट दिखाई दे रही थी। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा दोनो ने आंखो आंखो में जैसे एक विवश पिता की मनोदशा को समझ लिया। महाराज ईश्वर की कृपा से राजकुमारी वृषाली बहुत जल्द मूर्छा से बाहर आ जायेंगी। मृत्युंजय के मुख से ये बात सुनते ही महाराज के मुख पर प्रसन्नता छा गई। ईश्वर करे वो दिन जल्द ही आ जाए। महाराज ने मंगल कामना की।


राजगुरु में आपसे राजकुमारी वृषाली के स्वास्थ्य और उपचार के विषय में कुछ चर्चा करना चाहता हुं। अवश्य करो मृत्युंजय जो कहना हैं कहो, तुम्हे अगर किसी वस्तु की आवश्यकता हे तो वो तुम्हे सीघ्र ही प्राप्य कराई जायेगी। जी धन्यवाद राजगुरु पर मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं हे बस आपसे कुछ परामर्श करना है। अवश्य कहो मृत्युंजय किस विषय में। महाराज मात्र एक प्रेक्षक बनकर मृत्युंजय और राजगुरु का वार्तालाप सुन रहे हे।


नही राजगुरु अभी समय बहुत हो गया है और आप भी गुरुकुल से यहां प्रवास करके आए है अतः हम इस विषय में कल चर्चा करेंगे। मृत्युंजय और राजगुरु बात कर ही रहे हैं तभी एक अनुचारिका दौड़ती हुई महाराज के कक्ष में प्रवेश करती हैं उसके पीछे दरवान भी दौड़ रहा है। ठहरों बिना महाराज की आज्ञा के तुम अंदर प्रवेश नहीं कर सकती।


अनुचरिका ने जैसे तैसे अपने कदमों को रोका। मृत्युंजय, राजगुरु, और महाराज तीनों आश्चर्य से उस अनुचारिका को देख रहे हैं। वो तेज गति से दौड़कर आई है इस लिए उसकी सांस फूल गई है। वो कुछ कहने का प्रयास कर रही है पर कंठ से आवाज नहीं निकल रही। उसने सारा बल लगाया और बोली महाराज वो राजकुमारी...राजकुमारी। वो इससे आगे बोल नही पाई। बस वो हाथ से कक्ष की बाहर दिशा निर्देश करती हुई वापस मुडकर दौड़ी।


महाराज का ह्रदय मानो बैठ सा गया। वो चिंतित हो गए और अपने आसन से उठकर बेसुध होकर अनुचारिका के पीछे भागे। मृत्युंजय और राजगुरु भी तेज गति से पीछे जाने लगे।
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आगे हमने देखा की, राजगुरु सौमित्र कुछ समय पश्चात गुरुकुल से राजमहल पधारे हैं। महाराज उनके साथ वार्तालाप कर रहे ही तभी वहां मृत्युंजय आता है। राजगुरु ने मृत्युंजय को राजकुमारी वृषाली के स्वास्थ्य के विषय में जान ने केलिए बुलाया है। वो सब वार्तालाप कर ही रहें हे तभी एक अनुचारिका दौड़ te हुए आती है और सब उसके पीछे पीछे राजकुमारी के कक्ष की ओर जाते हैं। अब आगे......


अनुचारिका तेज गति से राजकुमारी वृषाली के कक्ष की ओर जा रही हैं। पीछे महाराज भी दौड़ रहे हे। वो बेसुध होकर तेजी से दौड़ते हुए राजकुमारी के कक्ष में दाखिल हुए। अनुचारिका ने हाथ से राजकुमारी की ओर इशारा किया जब महाराज ने राजकुमारी को देखा तो उनके होश उड़ गए। तब तक मृत्युंजय और राजगुरु भी राजकुमारी के कक्ष में पहुंच गए।


सब वहां का दृश्य देखकर आश्चर्य में थे। मृत्युंजय तेज गति से राजकुमारी की शयन सैया के समीप गया। राजकुमारी के हाथ पैर हिल रहे थे। कई माह से एक शव की भांति मूर्छित राजकुमारी के शरीर में आज चेतना का संचार हुआ था। महाराज ये देखकर बहुत भावुक हो गए, उनकी आंखो से अश्रु बहने लगे और वो राजकुमारी के समीप जाकर राजकुमारी वृषाली...बेटा वृषाली बोलने लगे।


मृत्युंजय बिना विलंब किए राजकुमारी के पांव के तलवों को अपने हाथ से रगड़ते हुए ऊष्मा देनेका प्रयास करने लगा। राजगुरु भी राजकुमारी के हाथ की हथेलियों को ऊष्मा देने का प्रयास करने लगे।


राजगुरु हमारी बेटी क्या मूर्छा से बाहर आ गई हैं? वो अपनी आंखे क्यों नही खोल रही? महाराज बडी आतुरता से प्रश्न करने लगे। वो कभी राजकुमारी के पांव के पास कभी सिरके पास तो कभी हाथों के पास घूम रहे थे।


लावण्या और सारिका भी तेजगति से भागते हुए कक्ष में आई। उन्हे भी अनुचर से संदेश मिल गया था। लावण्या तेजी से राजगुरु के समीप गई और बोली राजगुरु में कर देती हूं। राजगुरु पीछे हट गए और लावण्या अपने हाथ से राजकुमारी की हथेलियों को रगड़ ने लगी। अब राजकुमारी के हाथ पांव की हिलचाल रुक गई थी।


मृत्युंजय के मुखपर थोड़ी निराशा दिखी वो पांव को रगड़ना छोड़ खड़ा हुआ। रहने दो लावण्या अब प्रयास मत करों। महाराज मृत्युंजय के समीप गए, क्या हुआ मृत्युंजय हमारी राजकुमारी आंखे क्यों नही खोल रही? वो ठीक तो हैं ना? मृत्युंजय ने महाराज के सामने देखा उनके मुख् पर आशा की एक किरण दिख रही थी।


राजगुरु भी मृत्युंजय के समीप आए, वो कुछ बोले नहीं पर उनकी आंखो में भी यहीं प्रश्न था। मृत्युंजय ने कहा, राजकुमारी की मूर्छा अभी भंग नहीं हुई हैं, पर प्रसन्नता की बात यह हे की लंबे समय से वो चेतनाहीन हो गई थी किंतु अब उनके हाथ पांव में चेतना का संचार हुआ है। इस से प्रतीत होता है की, उनका उपचार सही हो रहा है और अब वो ईश्वर की कृपा से जल्द ही मूर्छा से बाहर आ जायेंगी।


ये सुनकर महाराज को समझ नही आ रहा की वो प्रसन्न हो या दुखी। उनके मुखपर फिर से निराशा छा गई। महाराज ये बहुत प्रसन्नता की घड़ी हे निराश मत होइए राजकुमारी बहुत जल्द ठीक हो जाएंगी। राजगुरु ने महाराज को आश्वस्त करते हुए आशा बंधाई।


मृत्युंजय और लावण्या दोनो एक दूसरे की ओर देख रहे हैं। राजगुरु, महाराज अब आप अपने अपने कक्ष में जाकर विश्राम कीजए राजकुमारी के पास में और लावण्या हे।राजगुरु ने महाराज को पलके जपकाकर मृत्युंजय की बात मान ने को कहा और वो दोनो वहां से चले गए।


मृत्युंजय सिलबट्टे पर कुछ पत्तियां पिसने लगा। सारिका जो दूर खड़िंथी वो तेजी से मृत्युंजय के समीप आई और बोली लाइए में पीस देती हूं। धन्यवाद किंतु में करलूंगा। मृत्युंजय का उत्तर सुनकर लावण्या आगे आई उसने मृत्युंजय का हाथ पकड़ा और रोकते हुए उसकी आंखो में आंखे डालकर बोली में पिसती हूं आप रहने दे।मृत्युंजय ने कोई उत्तर नही दिया और सिलबट्टा छोड़कर वहां से पीछे हट गया।


भुजंगा ने तेज गति से कक्ष में प्रवेश किया उसने जोला मृत्युंजय के सामने रक्खा। मृत्युंजय ने उसमे से एक छोटी सी पुड़िया निकाली और सारिका के सामने इशारा किया, सारिका नजदीक आई, इस घुट्टी को तेल में मिलाकर राजकुमारी के हाथ ओर पैरों पर मालिश करो। सारिका कार्य में जुट गई। मृत्युंजय कक्ष में चहलकदमी करने लगा, उसके मुख पर गंभीर रेखाए तन गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी बात को लेकर बहुत चिंतित हे।


लावण्या सिलबट्टे पर पत्तियां पिसते पिसते तिरछी नजर से चुपके चुपके मृत्युंजय को देख रही थी। वो समज गई की, जरूर मृत्युंजय किसी गहन विषय में सोच रहा है। पर वो विषय क्या होगा। आज न वो बात कर रहा है ना कोई व्यंग कर रहा है। लावण्या ने सारिका की ओर देखा और दोनो सखियों ने जैसे आंखो आंखो में बार करली।
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आगे हमने देखा की, राजकुमारी के शरीर में चेतना का संचार हुआ है। मृत्युंजय कोशिश कर रहा हे की राजकुमारी के शरीर को ऊर्जा मिले और उसकी मूर्छा भंग हो लेकिन ऐसा नहीं होता। मृत्युंजय सारिका को कुछ औषधि देता है और राजकुमारी को मालिश करने को कहता हे। लावण्या औषधि पिसते हुए मृत्युंजय को देख रही हे वो कुछ चिंताधीन नजर आ रहा है। अब आगे......


लावण्या मृत्युंजय को ऐसे चिंतित देखकर मन ही मन विचार करती हे, ये मृत्युंजय इतना चिंतित क्यूं है? कदाचित राजकुमारी की मूर्छा भंग नहीं हुई इस वजह से वो चिंतित हे। उसने अपने मनकों संतुष्ट करनेका प्रयास किया किंतु उसका मन बड़ा विचलित हो रहा था।


औषधि पिस चुकी थी। लावण्या ने सारिका को औषधि ले जाने केलिए इशारे में ही कह दिया। लावण्या धीरे धीरे मृत्युंजय के समीप आई और उसके सामने खड़ी हो गई। मृत्युंजय चलते चलते ठहर गया। क्या बात हे मृत्युंजय आज तुम बड़े विचलित नजर आ रहे हो? कुछ नही वो जरा राजकुमारी के स्वास्थ्य के विषय में.... मृत्युंजय ने बात अधूरी छोड़ दी।


मृत्युंजय कक्ष से बाहर की ओर चला गया। लावण्या भी अपने कक्ष में चली गई। वो शयन सैया पर लेट गई पर उसको बड़ी बैचेनी सी होने लगी। इस मृत्युंजय को क्या हुआ है? आज क्यूं इतना बदला बदला सा है। कुछ बात तो है, आज से पहले उसे इतना विचलित नहीं देखा। उसके मन में बार बार मृत्युंजय के ही विचार चल रहे थे।


तभी पीछे से सारिका की आवाज आई, क्या हुआ सखी किस सोच में हो? कुछ नही, रात्रि बहुत हो गई है सारिका मुझे निंद्रा आ रही है तुम भी सो जाओ। लावण्या विरुद्ध दिशा की ओर मुख करके सो गई।


सूर्य देव फिर से उदित हो रहे हैं। लावण्या तेज गति से चलते हुए राजकुमारी के कक्ष की ओर जा रही है। तभी सामने से मृत्युंजय भी आ रहा है। राजकुमारी के कक्ष के मुख्य द्वार पर दोनो साथ पहुंचे। दोनो एक दूसरे को देखकर रुक गए। शुभ प्रभात, आज लावण्या मृत्युंजय से पहले बोली। मृत्युंजय ने मुस्कुरुराते हुए उत्तर दिया। आज तो हम दोनो साथ पहुंचे हे कहते कहते दोनो कक्ष में प्रवेश करते हे।


कक्ष में पहुंचते ही मृत्युंजय और लावण्या दोनो को आश्चर्य होता है। आज प्रातः इतना जल्दी महाराज राजकुमारी के कक्ष में उपस्थित हैं। उनके साथ अन्य कोई भी है। महाराज ने मुड़कर मृत्युंजय और लावण्या को देखा दोनो ने महाराज का अभिवादन किया। शुभ प्रभात महाराज।


आज आप प्रातः काल ही यहां महाराज? सब कुशल मंगल तो है ना ? मृत्युंजय ने जिज्ञासावस प्रश्न किया। ईश्वर की कृपा से सब ठीक है, वो क्या ही की मेरे अनुज का पुत्र मेरा भतीजा आज प्रातः ही हमारे महल आया है। उसको अपनी छोटी बहन को देखने की इच्छा थी इसलिए हम दोनो यहां आ गए। महाराज ने हाथ से एक युवान की ओर इंगित करते हुए कहा।


ये मेरे अनुज का पुत्र राजकुमार निकुंभ हे, ओर निकुंभ ये लावण्या और मृत्युंजय हे। मृत्युंजय और लावण्या ने राजकुमार की ओर देखा, कद काठी मृत्युंजय से मिलती जुलती हे, बड़ी बड़ी आंखे और उसमे से छलकता आत्मविश्वास बड़ा ही आकर्षक व्यक्तित्व हे।


स्वागत है आपका राजकुमार निकुंभ। मृत्युंजय ने विनम्रता से अभिवादन किया लावण्या ने भी मुख हिलाकर अभिवादन किया। धन्यवाद मृत्युंजय आपका और लावण्या जी.... राजकुमार निकुंभ ने जैसे ही लावण्या की ओर देखा वो उसके रूप से मंत्र मुग्ध हो गया। उसकी आंखे लावण्या के मुख मंडल पर स्थिर हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे वो लावण्या के रूप से सम्मोहित हो गया है।


अचानक उसको स्थल का भान हुआ। मृत्युंजय काकाश्री ने हमे अवगत कराया की आपके उपचार और प्रयास से हमारी बहन के स्वास्थ में बहुत सुधार आया है, इस बात केलिए हम आपके आभारी हे। राजकुमार निकुंभ ने कहा। जी नहीं राजकुमार आपने केवल अर्ध सत्य सुना है। राजकुमारी के सस्वास्थ में सुधार केवल हमारे उपचार से ही नहीं किंतु उसमे बहुत बड़ा योगदान इस लावण्या जी का भी हे। मृत्युंजय ने लावण्या की ओर देखते हुआ कहा।


जी लावण्या जी आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद। लावण्या मृत्युंजय की बात सुनकर मन ही मन प्रसन्न हो गई। निकुंभ अब आप भी चलिए और थोड़ा विश्राम कर लीजिए बहुत दूर से यात्रा करके पधारे है। जी काकाश्री। अच्छा अब तो भेंट होती रहेगी कहेकर निकुंभ और महाराज कक्ष से चले गए।


लावण्या और मृत्यंजय अपने अपने कार्य में जुट गए। सारिका लावण्या की मदद करने लगी और भुजंगा भी कक्ष में पुष्प सजाने लगा। आज भी मृत्युंजय चुप था , लावण्या चोर नजर से उसे देख रही थी। मृत्युंजय ने अपना कार्य किया और बस कक्ष से चला गया। लावण्या भी कक्ष से निकलकर मृत्युंजय के पीछे गई।मृत्युंजय तेज गति से चलते हुए अपने कक्ष में पहुंचा पीछे लावण्या भी कक्ष में गई। मृत्युंजय, लावण्या ने पीछे से आवाज दी मृत्युंजय ने मुड़कर देखा तो सामने लावण्या थी। लावण्या जी आप? मेरे कक्ष में, कुछ कार्य था? क्यूं बिना कार्य के हम यहां नहीं आ सकते? पहले कभी तो आप यहां नहीं पधारी इस लिए बुरा मत मानिए।


आइए बिराजिए। लावण्या बैठ गई। दोनो चुप थे वार्तालाप केसे प्रारंभ करे समझ नही आ रहा था। में आपके लिए जल लाऊ। मृत्युंजय ने वार्तालाप शुरू कारनेका प्रयास किया। नही उसकी आवश्यकता नहीं हे। वो क्या हे की हमे ऐसा प्रतीत हो रहा है की तुम कुछ चिंतित हो तो पूछने केलिए.... नही नही में किसी बात केलिए चिंतित नहीं हूं। तो फिर इतना विचलित क्यूं हो। नही तो ऐसी कोई बात नही हे। आपको कोई भ्रम हुआ हे।


क्या तुम सत्य कहे रहे हो? जी भला मैं आपसे क्यों असत्य बोलूंगा लावण्या जी। वो...वो...क्या लावण्या जी। तुम मुझे केवल लावण्या कहे शकते हो मृत्युंजय। मृत्युंजय ने आश्चर्य से लावण्या की ओर देखा। जी धन्यवाद किंतु में हर नारी को सम्मान देता हु। हा वो ठीक है किंतु एक मित्र दूसरे मित्र को नाम लेकर बुलाए उसमे किसीका मांन सम्मान भंग नहीं होता और में भी तो तुम्हे नाम लेकर ही बुलाती हूं। मृत्युंजय आश्चर्य से लावण्या को देख रहा था।
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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या जब प्रातः राजकुमारी के कक्ष में पहुंचते हे तब वहां महाराज पहले से ही उपस्थित होते हे। वो दोनो का परिचय राजकुमार निकुंभ से करवाते है। मृत्युंजय जब अपने कक्ष में जाता हे तो लावण्या भी पीछे जाति हे और उसकी चिंता के विषय में पूछती हे। अब आगे......


लावण्या की बात सुनकर मृत्युंजय को अपने कान पर विश्वास नहीं हो रहा। ये लावण्या आज ऐसी बाते क्यूं कर रही हे? उसके रंग बदले से हे। कहां खो गए मृत्युंजय? कही नही यहीं हूं तुम्हारे समक्ष। लावण्या को ये सुनकर खुशी हुई।


मुझे बहुत खुशी हुई के तुमने मेरे मित्रता के प्रस्ताव का स्वीकार किया धन्यवाद। अच्छा अच्छा स्वीकार किया तुम्हारा धन्यवाद बस और दोनो जोर से हस पड़े। अच्छा तो अब में चलती हु कहकर जैसे लावण्या कक्ष के द्वार की ओर मुड़ी तो वहां भुजंगा ओर सारिका
खड़े थे। वो लावण्या और मृत्युंजय की बात सुनकर हंस रहे थे। लावण्या को ऐसा लगा जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। वो तेज गति से कक्ष से बाहर निकली और अपने कक्ष में चली गई।


मेरे कान ने जो सुना मुझे उस पर विश्वास नहीं हो रहा मृत्युंजय। उस नकचड़ी लावण्या ने तुम्हारी मित्रता स्वीकार करली? भुजंगा बहुत खुश हे। मित्र, किसी भी स्त्री के बारे में अनुचित शब्दों का प्रयोग हमे शोभा नही देता। हा भाई अब तो वो आपकी मित्र हे आप क्यों भला उनके विषय में कुछ अनुचित सुनेंगे। अच्छा और तुम क्या हो भुजंगा? मृत्युंजय ने हस्ते हस्ते पूछा।


में भी मित्र हु पर बिचारा अब मेरे स्थान पर लावण्या जो आ गई हे। तुम्हारा स्थान कोई नही ले सकता मित्र में तुम्हारी मित्रता का जीवनभर ऋणी रहूंगा। अरे में तो केवल उपहास कर रहा था मृत्युंजय, तूम तो गंभीर हो गए। क्षमा करना मेने हंसी हंसी में कुछ ज्यादा ही कह दिया। भुजंगा दुखी हो गया। अरे ऐसी कोई बात नहीं हे मित्र में तुम्हे अच्छे से जानता हूं तुम्हे दुखी होने की आवश्यकता नहीं हे समझे।


अच्छा सुनो मित्र में राजगुरु से मिलकर आता हूं । मृत्युंजय कक्ष के द्वार की ओर मुड़ता हे। रुको मृत्युंजय राजगुरु तो प्रातः ही गुरुकुल प्रस्थान कर गए? गुरुकुल प्रस्थान कर गए? किंतु कल ही तो आए थे वो। जब में प्रातः काल वाटिका से पुष्प एकत्रित कर रहा था तब उन्हों ने तुम्हारे लिए एक संदेश भी दिया था की, उन्हे किसी कारणवश अचानक से ही गुरुकुल जाना पड़ रहा है किंतु वो आकर तुमसे वार्तालाप करेंगे। ओर ये भी कहा हे की वो बहुत जल्द वापस आयेंगे। ठीक है...


लावण्या अपने कक्ष के जरूखे में खड़ी हे, वो स्वच्छ आकाश की ओर निहार रही हे और मुस्कुरा रही हे तभी सारिका उसके समीप जाति हे। क्या बात हे आज तो सखी बहुत प्रसन्न नजर आ रही हे।लावण्या ने सारिका के सामने नजर की ओर कोई उत्तर दिए बगैर ही जाकर सैया पर बैठ गई। सारिका उसके पीछे वहां गई और पास मै बैठ गई। नए मित्र मिल गए तो क्या पुरानी सखी का कोई मोल नहीं रहा?


सारिका आज कल तुम बहुत बोलने लगी हो। लावण्या ने थोड़ा नाराज होने का अभिनय किया। ये लो अब तो हमारे बोलने पर भी प्रतिबंध। सारिका व्यथित होने का अभिनय कर रही हे। वैसे लावण्या ये चमत्कार हुआ केसे जिस मृत्युंजय के नाम से भी तुम क्रोधित हो जाती थी उस मृत्युंजय को तुमने मित्र बना लिया? क्यों तुम्हे अच्छा नहीं लगा सारिका?


मृत्युंजय तो मुझे पहले दिन से ही अच्छा लगता हे सखी, सारिका ने फिर उपहास किया। लावण्या तुम्हे नही लगता की तुम ज्यादा ही अभिनय करने लगी हो ? में हमारी मित्रता के विषय में पूछ रही हूं। अच्छा ये बात हे, मुझे क्यों नही अच्छा लगेगा। ओर हा ये तुम और भुजंगा जब देखो तब आपस में क्या बाते करते रहते हो? कुछ नही बस ऐसे ही, मेने सोचा की अब तुम और मृत्युंजय मित्र बन गए हो तो में और भुजंगा भी क्यूं न मित्र बन जाए। सारिका हसने लगी, जो भी हे में आज बहुत प्रसन्न हु।
संध्या हो चुकी हे, मृत्युंजय वाटिका में बैठकर कुदरत की बनाई हुई प्रकृति को निहारकर प्रसन्न हो रहा हे। उसका कवि ह्रदय प्रकृति की सुंदरता किए बिना केसे रह सकता है।


नव वधू सी लग रही, आज प्रकृति परा।
हरित चूनर औढकर, हरी भरी हुई धरा।।

बूंद बूंद अमृत जल, गगन से बरस रहा।
स्वाति बूंद पीकर चातक मन हर्षित हुआ।।

सुघंन्दित समीर नीर, संग संग डोलती।
भ्रमर कि मधुर तान, पुष्प कान बोलती।।

पावस सरस बरस, हरष मन अपार है।
नवल धवल हिमशिखर, सझके तैयार हैं।।

लता पात मिलकर वात संग झूमती।
प्रेम विवश गले लग पेड़ों के लूमती।।


अति सुन्दर हे तुम्हारा काव्य सर्जन मृत्युंजय। मृत्युंजय ने पीछे मुड़कर देखातो निकुंभ उसकी प्रशंशा कर रहा हे। धन्यवाद राजकुमार आपका। मृत्युंजय मेरा तुमसे एक अनुरोध है। जी राजकुमार आदेश कीजिए। तुम मुझे निकुंभ कहेकर ही संबोधित किया करो। ये क्या राजकुमार... राजकुमार कहते हो। आप राजकुमार हे तो आपको अम्मान से राजकुमार ही कहूंगाना।


नही मृत्युंजय तुम मुझे मेरे नाम से ही संबोधित किया करो, और वैसे भी हम दोनो समान आयु के हैं। मुझे लगता हे की हम अच्छे मित्र भी बन सकते हे। मित्र? कहां में एक वनवासी और कहा आप सुमेरगढ़ जैसे विशाल राज्य के युवराज, में कैसे आपका मित्र बन सकता हूं। मित्रता राज पाट या गरीब, तनंगीरी से नही होती जहां ह्रदय और मन दोनों जुड़ जाए वही होती हे।


मृत्युंजय सजल आंखो से निकुंभ को निहार ने लगा। राजकुमार होते हुए भी कितनी सहजता और विनम्रता हे निकुंभ में। अब बताओ के मेरी मित्रता को स्वीकार किया की अभी और भी बड़ी बड़ी ज्ञान की बाते सुनाऊ। निकुंभ कहते कहते हंस पड़ा। अरे नही नही रहने दो निकुंभ ज्यादा ज्ञान भी इंसान को अहेनकारी बना देता हे। दोनो प्रसन्न होकर एक दूसरे के गले लगे।


समय धीरे धीरे मुट्ठी में से रेत के जैसे फिसलते हुए शांत गति से बीत रहा था। लावण्या और मृत्युंजय घनिष्ट मित्र बन गए है। लावण्या ह्रदय खोलकर मृत्युंजय से बाते करने लगी हैं। दूसरी ओर निकुंभ और मृत्युंजय भी बहुत अच्छे मित्र बन गए है। भुजंगा और सारिका का को देखकर अज्ञानी भी समझ जाए की ये दोनो एक दूसरे के प्रेम के बंधन में बंध चुके है। राजकुमारी के शरीर में भी अब चेतना आ रही हे।
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ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या अच्छे मित्र बन जाते है। निकुंभ भी मृत्युंजय के आगे मित्रता का प्रस्ताव रखता है और उन दोनो के बीच में भी मित्रता होती हे। वक्त अपनी गति से चल रहा है। राजकुमारी के शरीर में भी अब चेतना का संचार होने लगा हे। अब आगे........


रात्रि का तीसरा प्रहर शुरू हो चुका हे, हर तरफ शांति ही शांति हे। अचानक ही लावण्या की नींद टूट जाती है,उसकी आंख खुल जाती है। कक्ष में एक नन्हा सा दीपक जल रहा है। लावण्या ने सैया की दूसरी ओर नजर की तो सारिका गहेरी नींद में हे। वो वापस सोने का प्रयास करती हे किंतु नींद आ नही रही। वो खड़ी होकर कक्ष में चहलकदमी करने लगी।


लावण्या ने विचार किया की कक्ष से थोड़ी देर बाहर विहार कर लेती हूं। वो कक्ष से बाहर आकर कुछ कदम ही चली थी की उसकी नजर एक जरुखे से महल की बाहर पड़ी। वहां थोड़ा अंधेरा था पर महल के घुम्मत पर जलती मशाल की धुंधली रोशनी वहां थी।


वहां एक कोने में मृत्युंजय और प्रधान सेनापति वज्रबाहु कुछ वार्तालाप कर रहे थे। उनके हावभाव देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी गहन विषय पर चर्चा कर रहे हे। लावण्या वहीं रुक गई और जरूखेसे उन दोनों को देखती रही। कुछ देर बाद दोनो ने एक दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां से चले गए।


ये दोनो कहां चले गए? ओर इतनी रात को ये दोनो यूं महल के बाहर मिलकर किस विषय में चर्चा कर रहे होंगे? लावण्या के मस्तिष्क में अनेक सवाल उठने लगे। वो सोच ही रही थी के उसको सामने से मृत्युंजय आता हुआ दिखा। मृत्युंजय ने जैसे ही लावण्या को सामने खड़ा पाया उसके चहेरे का रंग ही उड़ गया।उसकी चलने की तेज गति धीमी हो गई।


मृत्युंजय लावण्या के समीप पहुंच गया।अरे लावण्या तुम इतनी रात को यहां क्या कर रही हो? तुमारा स्वास्थ्य तो ठीक है ना? कोई चिंता का विषय तो नही है ना। मृत्युंजय की जिह्वा लड़खड़ा रही हे, जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। लावण्या शंकाभरी नजरो से मृत्युंजय को देख रही हे।


मेरा स्वास्थ्य ठीक है। बस आंख खुल गई तो सोचा थोड़ा टहल लेती हूं। लेकिन मेरा भी प्रश्न यही हे की तुम रात्रि के इस प्रहर में महल के बाहर कहां गए थे? मेरी भी तुम्हारी तरहा आंख खुल गई तो सोचा की बाहर थोड़ा विहार कर लेता हूं। अब निंद्रा आ रही है तो अब सो जाऊंगा तुम भी अब अपने कक्ष में जाकर सो जाओ। अगर किसी ने हमे इस समय यहां एक साथ देख लिया तो पता नही क्या क्या सोचेंगे।


मृत्युंजय अपनी बात को पूर्ण करके चला गया। लावण्या वहीं खड़े रहेकर मृत्युंजय को जाते हुए देख रही थी। वो भी अपने कक्ष की ओर जाने लगी किंतु उसके मस्तिष्क में रहे रहेकर एक ही विचार घूम रहा था मृत्युंजय तो सेनापति के साथ बात कर रहा था तो उसने मुझसे असत्य क्यों कहा? वो अपनी सैया में जाकर लेट गई और सोनेका प्रयत्न करने लगी किंतु उसे निंद्रा नही आई।


पूरी रात वो करवट बदलती रही। आखिर ऐसी क्या बात हे जो मृत्युंजय को मुझसे छुपाने केलिए असत्य बोलना पड रहा हे। यही विचार उसके मन मस्तिष्क को घेरे रहा।


प्रातः हो गई थी सूर्य देव अपनी गति चक्र को लेकर श्रुष्टि की यात्रा पर निकल गए थे। पूरी रात यात्रा करने के पश्चात सेनापति वज्रबाहु गुरुकुल पहुंचे। गुरुकुल नदी के किनारे बना हुआ है। बहुत ही शांत, सुंदर और पवित्र वातावरण हे यहां।


नदी का जल शांत गति से प्रवाहित हो रहा हे, उसमे कुछ शिष्य स्नान कर रहे हे और सूर्य देव की आराधना कर रहे तो कुछ शिष्य मिट्टी के पात्र में पानी भरकर गुरुकुल के रसोईघर में ले जा रहे हे। सेनापति वज्रबाहु अपने अश्व पर से नीचे उतरे और अश्व को आश्रम के बाहर एक पेड़ से बांध दिया, और आश्रम में प्रवेश किया।


सेनापति वज्रबाहु महाराज के साथ पहले भी यहां कई बार आचुके हे। आश्रम में प्रवेश करते ही उन्हें सामने जो भी मिलता वो सिर झुकाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करता और आगे बढ़ जाता। आश्रम में कुछ कुछ दूरी पर पेड़ के नीचे आचार्यों द्वारा शिष्यों को नित्य पाठ और शिक्षा दी जा रही हे। कुछ शिष्य गायों को चारा पानी डालकर दुग्ध दोहन कर रहे हे।


सेनापति वज्रबाहु राजगुरु सौमित्र की कुटीर के समीप गए और बाहर जो शिष्य थे उन्हें राजगुरु को सेनापति के आनेका संदेश देने केलिए कहा। एक शिष्य कुटीर के अंदर गया। राजगुरु वेद पाठ में व्यस्त थे उन्हें प्रणाम करके शिष्य ने सेनापति के गुरुकुल आने का समाचार दिया।


शिष्य की बात सुनकर राजगुरु को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हों ने शिष्य से पूछा, क्या महाराज भी साथ पधारे हैं? नही गुरुदेव केवल सेनापति वज्रबाहु ही पधारे है। ऐसी क्या बात हो गई जो सेनापति को मुझे यहां मिलने आना पड़ा होगा, महाराज भी साथ नहीं है। वहां राजमहल में सब कुशल तो होगा, कहीं राजकुमारी को कुछ.... नही नही ईश्वर करे सब कुशल मंगल हो। राजगुरु का मन शंकाओं से विचलित हो गया।


पुस्तक को प्रणाम किया और एक तरफ रख दिया। राजगुरु धरती पर बिछाए आसन परसे उठ गए। जाओ सीघ्र ही सेनापति वज्रबाहु को आदर सहित हमारी कुटीर में ले आओ शिष्य। जो आज्ञा गुरुजी कहकर शिष्य कुटीर से बाहर चला गया। राजगुरु सेनापति से भेंट करने केलिए और उनके अचानक ही आने का तात्पर्य जानने केलिए आतुर हो गए थे।
Very nice update bhai
 
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