आगे हमने देखा की, मृत्युंजय और लावण्या जब प्रातः राजकुमारी के कक्ष में पहुंचते हे तब वहां महाराज पहले से ही उपस्थित होते हे। वो दोनो का परिचय राजकुमार निकुंभ से करवाते है। मृत्युंजय जब अपने कक्ष में जाता हे तो लावण्या भी पीछे जाति हे और उसकी चिंता के विषय में पूछती हे। अब आगे......
लावण्या की बात सुनकर मृत्युंजय को अपने कान पर विश्वास नहीं हो रहा। ये लावण्या आज ऐसी बाते क्यूं कर रही हे? उसके रंग बदले से हे। कहां खो गए मृत्युंजय? कही नही यहीं हूं तुम्हारे समक्ष। लावण्या को ये सुनकर खुशी हुई।
मुझे बहुत खुशी हुई के तुमने मेरे मित्रता के प्रस्ताव का स्वीकार किया धन्यवाद। अच्छा अच्छा स्वीकार किया तुम्हारा धन्यवाद बस और दोनो जोर से हस पड़े। अच्छा तो अब में चलती हु कहकर जैसे लावण्या कक्ष के द्वार की ओर मुड़ी तो वहां भुजंगा ओर सारिका
खड़े थे। वो लावण्या और मृत्युंजय की बात सुनकर हंस रहे थे। लावण्या को ऐसा लगा जैसे उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। वो तेज गति से कक्ष से बाहर निकली और अपने कक्ष में चली गई।
मेरे कान ने जो सुना मुझे उस पर विश्वास नहीं हो रहा मृत्युंजय। उस नकचड़ी लावण्या ने तुम्हारी मित्रता स्वीकार करली? भुजंगा बहुत खुश हे। मित्र, किसी भी स्त्री के बारे में अनुचित शब्दों का प्रयोग हमे शोभा नही देता। हा भाई अब तो वो आपकी मित्र हे आप क्यों भला उनके विषय में कुछ अनुचित सुनेंगे। अच्छा और तुम क्या हो भुजंगा? मृत्युंजय ने हस्ते हस्ते पूछा।
में भी मित्र हु पर बिचारा अब मेरे स्थान पर लावण्या जो आ गई हे। तुम्हारा स्थान कोई नही ले सकता मित्र में तुम्हारी मित्रता का जीवनभर ऋणी रहूंगा। अरे में तो केवल उपहास कर रहा था मृत्युंजय, तूम तो गंभीर हो गए। क्षमा करना मेने हंसी हंसी में कुछ ज्यादा ही कह दिया। भुजंगा दुखी हो गया। अरे ऐसी कोई बात नहीं हे मित्र में तुम्हे अच्छे से जानता हूं तुम्हे दुखी होने की आवश्यकता नहीं हे समझे।
अच्छा सुनो मित्र में राजगुरु से मिलकर आता हूं । मृत्युंजय कक्ष के द्वार की ओर मुड़ता हे। रुको मृत्युंजय राजगुरु तो प्रातः ही गुरुकुल प्रस्थान कर गए? गुरुकुल प्रस्थान कर गए? किंतु कल ही तो आए थे वो। जब में प्रातः काल वाटिका से पुष्प एकत्रित कर रहा था तब उन्हों ने तुम्हारे लिए एक संदेश भी दिया था की, उन्हे किसी कारणवश अचानक से ही गुरुकुल जाना पड़ रहा है किंतु वो आकर तुमसे वार्तालाप करेंगे। ओर ये भी कहा हे की वो बहुत जल्द वापस आयेंगे। ठीक है...
लावण्या अपने कक्ष के जरूखे में खड़ी हे, वो स्वच्छ आकाश की ओर निहार रही हे और मुस्कुरा रही हे तभी सारिका उसके समीप जाति हे। क्या बात हे आज तो सखी बहुत प्रसन्न नजर आ रही हे।लावण्या ने सारिका के सामने नजर की ओर कोई उत्तर दिए बगैर ही जाकर सैया पर बैठ गई। सारिका उसके पीछे वहां गई और पास मै बैठ गई। नए मित्र मिल गए तो क्या पुरानी सखी का कोई मोल नहीं रहा?
सारिका आज कल तुम बहुत बोलने लगी हो। लावण्या ने थोड़ा नाराज होने का अभिनय किया। ये लो अब तो हमारे बोलने पर भी प्रतिबंध। सारिका व्यथित होने का अभिनय कर रही हे। वैसे लावण्या ये चमत्कार हुआ केसे जिस मृत्युंजय के नाम से भी तुम क्रोधित हो जाती थी उस मृत्युंजय को तुमने मित्र बना लिया? क्यों तुम्हे अच्छा नहीं लगा सारिका?
मृत्युंजय तो मुझे पहले दिन से ही अच्छा लगता हे सखी, सारिका ने फिर उपहास किया। लावण्या तुम्हे नही लगता की तुम ज्यादा ही अभिनय करने लगी हो ? में हमारी मित्रता के विषय में पूछ रही हूं। अच्छा ये बात हे, मुझे क्यों नही अच्छा लगेगा। ओर हा ये तुम और भुजंगा जब देखो तब आपस में क्या बाते करते रहते हो? कुछ नही बस ऐसे ही, मेने सोचा की अब तुम और मृत्युंजय मित्र बन गए हो तो में और भुजंगा भी क्यूं न मित्र बन जाए। सारिका हसने लगी, जो भी हे में आज बहुत प्रसन्न हु।
संध्या हो चुकी हे, मृत्युंजय वाटिका में बैठकर कुदरत की बनाई हुई प्रकृति को निहारकर प्रसन्न हो रहा हे। उसका कवि ह्रदय प्रकृति की सुंदरता किए बिना केसे रह सकता है।
नव वधू सी लग रही, आज प्रकृति परा।
हरित चूनर औढकर, हरी भरी हुई धरा।।
बूंद बूंद अमृत जल, गगन से बरस रहा।
स्वाति बूंद पीकर चातक मन हर्षित हुआ।।
सुघंन्दित समीर नीर, संग संग डोलती।
भ्रमर कि मधुर तान, पुष्प कान बोलती।।
पावस सरस बरस, हरष मन अपार है।
नवल धवल हिमशिखर, सझके तैयार हैं।।
लता पात मिलकर वात संग झूमती।
प्रेम विवश गले लग पेड़ों के लूमती।।
अति सुन्दर हे तुम्हारा काव्य सर्जन मृत्युंजय। मृत्युंजय ने पीछे मुड़कर देखातो निकुंभ उसकी प्रशंशा कर रहा हे। धन्यवाद राजकुमार आपका। मृत्युंजय मेरा तुमसे एक अनुरोध है। जी राजकुमार आदेश कीजिए। तुम मुझे निकुंभ कहेकर ही संबोधित किया करो। ये क्या राजकुमार... राजकुमार कहते हो। आप राजकुमार हे तो आपको अम्मान से राजकुमार ही कहूंगाना।
नही मृत्युंजय तुम मुझे मेरे नाम से ही संबोधित किया करो, और वैसे भी हम दोनो समान आयु के हैं। मुझे लगता हे की हम अच्छे मित्र भी बन सकते हे। मित्र? कहां में एक वनवासी और कहा आप सुमेरगढ़ जैसे विशाल राज्य के युवराज, में कैसे आपका मित्र बन सकता हूं। मित्रता राज पाट या गरीब, तनंगीरी से नही होती जहां ह्रदय और मन दोनों जुड़ जाए वही होती हे।
मृत्युंजय सजल आंखो से निकुंभ को निहार ने लगा। राजकुमार होते हुए भी कितनी सहजता और विनम्रता हे निकुंभ में। अब बताओ के मेरी मित्रता को स्वीकार किया की अभी और भी बड़ी बड़ी ज्ञान की बाते सुनाऊ। निकुंभ कहते कहते हंस पड़ा। अरे नही नही रहने दो निकुंभ ज्यादा ज्ञान भी इंसान को अहेनकारी बना देता हे। दोनो प्रसन्न होकर एक दूसरे के गले लगे।
समय धीरे धीरे मुट्ठी में से रेत के जैसे फिसलते हुए शांत गति से बीत रहा था। लावण्या और मृत्युंजय घनिष्ट मित्र बन गए है। लावण्या ह्रदय खोलकर मृत्युंजय से बाते करने लगी हैं। दूसरी ओर निकुंभ और मृत्युंजय भी बहुत अच्छे मित्र बन गए है। भुजंगा और सारिका का को देखकर अज्ञानी भी समझ जाए की ये दोनो एक दूसरे के प्रेम के बंधन में बंध चुके है। राजकुमारी के शरीर में भी अब चेतना आ रही हे।