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Fantasy विष कन्या - (Completed)

ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, तेजप्रताप स्वीकार करता हे की, उसने महाराज इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा हे। सबके पूछने पर वो कारण बताता है की, उसकी बहन दीपशिखा की वजह से। दीपशिखा और वसुंधरा एक प्रतियोगिता में जाति हैं, वहां महाराज इंद्रवर्मा भी उपस्थित थे। दीपशिखा इंद्रवर्मा से प्रेम करने लगती है किंतु इंद्रवर्मा उसकी सहेली वसुंधरा से विवाह करते है। अब आगे.......


ऐसे ही दिन बीतते गए और दिन, महीने और साल हो गए। कई साल बीत गए किंतु हमारी बहन उसी संन्यासिन अवस्था में जी रही थी। फिर एक दिन अचानक सूचना मिली की, वसुंधरा अपनी पुत्री को जन्म देके इस दुनिया से चल बसी। उसका स्वर्गवास हो गया है। सब ने दीपशिखा से यूं जीवन व्यापन का कारण पूछा था किंतु उसने किसी को नहीं बताया था। यहां तक वसुंधरा को भी नही। केवल मुझे ही ज्ञात था।


वसुंधरा के मृत्यु के विषय में जब दीपशिखा को ज्ञात हुआ तो उसे बहुत पीड़ा हुई थी। एक बार पुनः हमारे पिताजी ने दोनो राज्यों के संबंध को ध्यान में रखते दीपशिखा को बहुत मनाकर यहां विवाह का प्रस्ताव भेजा किंतु पुनः इस इंद्रवर्मा ने ये कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया की उसने ये प्रण लिया है की वो आजीवन एक ही विवाह करेंगा


एक बार पुनः हमारी बहन का ह्रदय छलनी हो गया। अब वो अपने जीवन के प्रति उदासीन हो गई थी। कुछ ही समय में वो अस्वस्थ रहने लगी और असमय ही वो इस धरा को छोड़कर हम सबको छोड़कर चलीं गई। हमारी बहन दीपशिखा के मृत्यु का कारण ये इंद्रवर्मा है।


कक्ष में उपस्थित सबका ह्रदय पीड़ा से भर गया। महाराज इंद्रवर्मा को समझ नही आ रहा की वो क्या कहे, क्या करे,? उनका मन गल्याणी से भर गया। लावण्या और वृषाली एक दूसरे के सामने देखकर आंखो ही आंखो में जैसे कह रही थी की, कुछ दिवस पूर्व वो दोनो अपनी मां और दीपशिखा की मित्रता के विषय में गर्व से बात कर रही थी उसका एक पहलु ये भी हो सकता है। दोनो के मन की पीड़ा उनकी आंखो में सष्ट नजर आ रही थी।


हमे तो इस विषय में कुछ ज्ञात ही नही था अनुज। कैसे होगा ज्ञात आपको भैया, दीपशिखा ने इस विषय में कभी किसी से एक शब्द नही कहा। पहले लज्जा के कारण और विवाह प्रस्ताव ठुकराने के बाद इस वजह से की कहीं उसकी वजह से दोनो राज्योमे शत्रुता ना हो जाए। किंतु उसने मुझे अपने ह्रदय की व्यथा बताई थी। उसने तो विशाल ह्रदय करके इस इंद्रवर्मा ओर वसुंधरा को क्षमा कर दिया किंतु में इन दोनो को कभी क्षमा नहीं कर पाया।


मेरे मनमे इन दोनो के प्रति बहुत क्रोध था किंतु जब हमारी बहन का स्वर्गवास हो गया तो ये क्रोध प्रेतिशोध की प्रचंड ज्वाला में बदल गया। तेजप्रताप महाराज के सामने देखकर बोलने लगा। उसकी बड़ी बड़ी आंखों में लहू उतर आया, वो क्रोध से ताम्र वर्ण हो गया।


वर्षो तक मेरे मन में एक ही विचार पलता रहा। इस इंद्रवर्मा से प्रतिशोध लेनेका। तेजप्राताप ने महाराज के सामने क्रोध से उंगली निर्देश करते हुए कहा। में इंद्रवर्मा को पीड़ा में घुट घुटकर मृत्यु को प्राप्त करते देखना चाहता था ठीक उसी तरह जैसे हमारी बहन मृत्यु की गोद में सो गई थी।


में अपनी पुत्री लावण्या से बहुत प्रेम करता हुं, दुनिया में सबसे अधिक। मुझे अगर मेरे प्राणों से भी कोई अधिक प्रिय है तो वो हे मेरी पुत्री लावण्या।


एक दिन लावण्या अपनी सखियों के साथ वन विहार करने हेतु गई। संध्या हो गई किंतु लावण्या वन से वापस नहीं लौटी तो मेरा कलेजा मुंह को आगया। पुत्री की चिंता ने मुझे घेर लिया और में जैसे ऊर्जाहीन हो गया था। जब रात्रि को लावण्या राजमहल वापस लौटी तो मेरी जान में जान आई।


बस उस रात्रि को मैने ये निश्चय कर लिया की इंद्रवर्मा के जीवन में एक ही व्यक्ति है उसकी पुत्री जोंकि उसे प्राणों से अधिक प्यारी होगी अगर में कुछ ऐसा करु की उसकी पुत्री को पीड़ा हो तो ये देखकर इंद्रवर्मा का जीवन भी पीड़ा से भर जाएगा और वोभी ऊर्जाहीन, चेतनाहीन हो जायेगा।


जब उसे यह प्रतीत होगा की इतने बड़े राज्य का महाराज होकर भी वो अपनी पुत्री केलिए कुछ नही कर सकता तो वो असहाय होकर घुट घुटकर मरेगा और मेने इंद्रवर्मा के विरुद्ध षडयंत्र रचा।


ये तुमने क्या किया अनुज, तुमने कैसा षडयंत्र रचा बताओ तेजप्रताप। भानुप्रताप क्रोधित होकर पूछ रहे हैं। तेजप्रताप चुप हैं। सब लोगो से ये चुप्पी सेहन नही हो रही। उपस्थित सब ये जान ने के लिए आतुर है की आखिर तेजपाल ने क्या षडयंत्र रचा? और कैसे।
मैने इस राजमहल मैं एक विषकन्या को भेजा और इंद्रवर्मा की इस पुत्री को जहर दे दिया। तेजपाल ने वृषाली के सामने निर्देश करते हुए कहा। ये बात सुनकर सबके कान फट गए। हमारी पुत्री को विष दिया तुमने, कायर, निर्लज तुम्हे इस कायरतापूर्ण कार्य करते हुए तनिक भी लज्जा नहीं आई? महाराज के क्रोध की कोई सीमा नहीं रही।


आगे बताओ तेजपाल, पूरी बात बताओ। राजगुरुने क्रोधित होकर कहा। मैने तुम्हारे ही राज्य के एक सैनिक को अपने साथ मिला लिया और पूरा षडयंत्र रचा।


एक बार जब तुम्हारी पुत्री और उसकी सखी वाटिका में विहार कर रही थी तो उस सैनिक ने हमारे बताए अनुसार बांस की एक छोटी सी नली में विशेली छोटीसी सुई रखदी और फूंक मार कर वृषाली के गले में वो सुई भोंकदी। तुम्हारी पुत्री को कुछ समझ में आए उससे पहले ही वो मूर्छित हो गई। फिर वो कभी मूर्छा से बाहर ही न आए इस लिए उसे हर रोज थोड़ा थोड़ा विष देने का कार्य मेरी विष कन्या ने किया।


सब कुछ निर्धारित योजना से हो रहा था तुम्हारी पुत्री की पीड़ा में और व्यथा में तुम भी उसी तरह तिल तिल कर मर रहे थे जैसे में अपनी बहन की पीड़ा की अग्नि में जला था।


हमे लगा की वाटिका में वृषाली के साथ उसकी सखी चारूलता भी उपस्थित थी तो हो सकता है वो कभी हमारे लिए संकट बन सकती हे।


एक दिन वो जब राजमहल से अपने गृह की ओर जा रही थी तो हमने उसका अपहरण करवा लिया और उसे भी सदा केलिए मृत्यु की नींद सुला दिया। बिचारी वो तो बेमतलब की मौत मर गई। तेजपाल ने अट्टहास्य करते हुए कहा।
super update bhai
 

ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, तेजप्रताप बताता हे की केसे उसने इस राज्य के सैनिक को अपने साथ षडयंत्र में सम्मिलित करके राजकुमारी को विषैली सुई से मूर्छित कर दिया और फिर चारूलता का अपहरण करके उसकी भी हत्या करदी। अब आगे.....


तेजपाल ने जैसे ही कहा की केसे उसने अपहरण करके चारूलता की हत्या करदी। ये बात सुनते ही सेनापति वज्रबाहु अपना आपा खो बैठे। वो क्रोधित होकर अपनी तलवार लिए तेजपाल के समीप तेजगति से गए। षड्यंत्रकारी तेजपाल विधाता ने तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों लिखी हैं। आज ईश्वर भी तुम्हारी रक्षा मुझसे नही कर सकते। वज्रबाहु ने अपनी तलवार तेजपाल की गर्दन पर चलाने केलिए जेसेही उठाई, मृत्युंजय ने बिचमे आकर रोक लिया।


मृत्युंजय तुम मध्य में मत आओ, आज मैं इस अधर्मी, पापी, कायर तेजपाल का वध कर दूंगा। इसने मेरी दोनो पुत्रियों को हानि पहुंचाई है, मेरी निर्दोष पुत्री का जीवन छीन लिया? ऐसे दुष्ट को इस धरा पर जीवित रहनेका कोई अधिकार नही हे। मुझे छोड़ दो मृत्युंजय।


सेनापति वज्रबाहु शक्तिशाली योद्धा है और उपरसे क्रोधित उन्हे संभाल पाना बहुत कठिन हे। मृत्युंजय के हाथ में तलवार से चोट लग गई उसमे से लहू बहने लगा। उसने तलवार को छोड़ सेनापति वज्रबाहु को अपने दोनों हाथोसे मजबूती से अपनी बहुपाश में जकड़ लिया।


राजगुरु तेजगति से वहां आए। सेनापति वज्रबाहु ये हमारी आज्ञा है की तुम अपनी तलवार हमे देदो। राजगुरु एक वीर योद्धा जब अपनी तलवार उठा लेता है तो फिर म्यान में नही रखता मुझे क्षमा कीजिए किंतु में आज इस अधर्मी का वध कर दूंगा।


सेनापति ये युद्धभूमि नही हे जो उठी हुई तलवार म्यान में वापस नही जा सकती। विवेक बुद्धि से कार्य करो, शांत हो जाओ और तलवार म्यान में रखदो। अभी अगर तुमने इसकी मृत्यु के घाट उतार दिया तो हमे पूरे षडयंत्र के विषय में पता नही चलेगा। इसलिए हम तुम्हे ये आदेश करते है की, क्रोध त्यागकर अपने आसन पर बैठ जाओ।


सेनापति वज्रबाहु ने उठाया हुआ हाथ नीचे किया, मृत्युंजय ने उन्हें अपने बाहु से मुक्त किया। जैसे ही मृत्युंजय ने उन्हें छोड़ा वो असहाय होकर धरती पर गीर गए। उनकी आंखे अश्रुओ से छलक गई। वो विलाप करने लगे। मार दिया, मेरी पुत्री को मार दिया? उसने तो कभी किसका अहित नहीं किया फिर क्यूं उसके साथ ऐसा व्यवहार, हे विधाता ये कैसा अन्याय है तेरा एक पिता से उसके जिगर का टुकड़ा छीन लिया? वज्रबाहु ऊपर की ओर देखते हुए बोले।


सेनापति वज्रबाहु को पुत्री विरह में यूं दुखी देख सबकी आंखे छलक गई। राजकुमारी वृषाली अपने आसन से उठ दौड़कर आकर वज्रबाहु के गले लग गई और विलाप करने लगी। दोनो को विलाप करता हुआ देखकर उपस्थित किसी व्यक्ति में साहस नहीं था की उन्हे सांत्वना दे। मृत्युंजय वहीं पास में खड़ा था और अपने आप को विवश प्रतीत कर रहाथा।


सेनापति वज्रबाहु आप एक वीर पुरुष हे आपको यु विलाप करना सोभा नही देता। आप नित्य ही महाराज को विवेक, ओर धीरज से कार्य करने का परामर्श देते है ओर आज आप स्वयंम ही ऐसे विलाप कर रहे हैं? मृत्युंजय ने अपने शब्दों से सेनापति वज्रबाहु में साहस का संचार किया। वो उठे और अपनी व्यथा को अंदर ही छिपा कर अपने आसन पर विराज गए।


तेजप्रयाप अब तुम्हारी भलाई इसी में हे की अब तुम अपनी उस विष कन्या और षडयंत्र के विषयमे बतादो अन्यथा अब हम तुम्हे जीवित नहीं छोड़ेंगे। अब हमे तुम्हारा शीश धड़ से अलग करने से कोई नहीं रोक पायेगा। महाराज ने आदेश किया।


तेजप्रताप चुप खड़ा है और वो अपनी मूछ में मुस्कुरा रहा है। महाराज इंद्रवर्मा के बार बार पूछने पर उसने अट्ट हास्य करते हुए अपने दोनो हाथ ऊपर उठाए और बोला,


में तुम्हारे सामने ही हुं, लो करदो मेरा शीश धड़ से अलग, रुके हो क्यूं इंद्रवर्मा करदो मेरा वध। फिर जोर जोर से अट्टहास करने लगा। महाराज इंद्रवर्मा ओर सेनापति वज्रबाहु दोनो का हाथ अपनी तलवार की मूठ पर भीस रहा था किंतु वो दोनो जब तक पूरे षडयंत्र के विषय में जान न ले उसको मार नही सकते थे। दोनो अपने आप को विवश पा रहे थे।
कुछ समय ऐसा ही चलता रहा। अब मृत्युंजय से यह सेहन नही हुआ वो उठा और बोला में बताता हूं की वो विष कन्या कोन है। सब को बहुत आश्चर्य हुआ, सब मृत्युंजय की ओर जिज्ञासा से देख रहे थे। सबके मन में कई प्रश्न उठने लगे।


मृत्युंजय तुम बताओगे कैसे? राजगुरु सौमित्र अपने आपको यह प्रश्न पूछने से रोक नही पाए। मृत्युंजय ने राजगुरु की ओर देखा और बिना कुछ कहे अपने आसन को छोड़ चलने लगा। सबकी दृष्टि मृत्युंजय की ओर टिकी हुई थी। वो उसी कक्ष के मुख्य द्वार के पास एक कोने में गया जहां अंधेरा था। वो पर्दो को हटाते हुए किसका हाथ पकड़कर सबके सामने चला आ रहा था अंधेरा बहुत था दूर से किसी को कुछ स्पष्ट दिख नही रहा था।


मृत्युंजय जैसे जैसे सबके समीप आता गया धुंधली सी आकृति अब स्पष्ट दिखने लगी। सबके होश उड़ गए, सब को समझ नही आ रहा था की ये हो क्या रहा हे।


मृत्युंजय जिसका हाथ पकड़कर सबके सामने लेके आ रहा था उसे सबके मध्य खड़ा करके बोला ये रही वो विष कन्या। सबको अपनी आंख और कान पर विश्वास नहीं हुआ। तुम क्या कह रहे हो मृत्युंजय? मैने आप सबसे जो कहा वो सत प्रतिशत सत्य है महाराज, क्यों तेजप्रताप सिंघ में सत्य कह रहा हुं ना? तेजप्रताप का मुंह उतर गया वो अपना मुंह धरती की ओर झुकाकर नजरे चुराने लगा।


अब सबको सत्य तुम बताओगी या में बताऊं सारिका? ये सुनकर लावण्या के ह्रदय पर फिर से एक तेज घात हुआ। राजकुमारी वृषाली को भी ये सुनकर आघात लगा।


सारिका चुप चाप सर झुकाए खड़ी हे। उसकी आंख।से आंसू जमीन पर गिर रहे हैं।

अब उठेगा षडयंत्र से पर्दा। कैसे रचा गया पूरा षडयंत्र और मृत्युंजय को इसके विषय में केसे पता चला जान ने केलिए पढ़ते रहिए आगे की कहानी।
really fantastic update bhai maza aa gya ab dekhte hai ki aage kya hota hai
 

ashish_1982_in

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आगे हमने देखा की, महाराज तेजप्रताप से विष कन्या के विषय में पूछते हे पर तेजप्रताप अट्टहास करता है और कहेता है की मेरा शीश धड़ से अलग करदो किंतु में तुम्हे नही बताऊंगा। महाराज और सेनापति चाहकर भी कुछ कर नही पाते। ये सब देखकर मृत्युंजय इस राज से पर्दा उठाता है और सबको पता चलता हे की, सारिका विष कन्या हे अब आगे......


सारिका शीश झुकाए खड़ी हे। उसे ऐसा प्रतीत होता है की, अगर ये धरा फट जाए तो में अंदर समा जाऊं।


मृत्युंजय आगे बोलना प्रारंभ करता हे। सारिका ही वो विष कन्या है जो तेजप्रताप सिंग के द्वारा विजयगढ़ के राज महल में भेजी गई थी।


किंतु तुम्हे इस विषय में केसे ज्ञात हुआ मृत्युंजय? महाराज ने पूछा


जब में इस राजमहल में आया, ओर जिस क्षण मेने राजकुमारी की नाडी का अवलोकन किया था उसी क्षण मुझे ज्ञात हो गया था की राजकुमारी को कोई रोग नही है। किंतु फिर वो मूर्छित क्यों हैं ये मेरे लिए जानना बहुत आवश्यक था। मैने धीरे धीरे उनका उपचार करना प्रारंभ किया। किंतु जब एक दिन में राजकुमारी के समीप गया तो उनकी सांस से मुझे एक विचित्र प्रकार की गंध आई।


में जंगल में पला बड़ा हुं इस लिए प्रकृति के तत्वों को अच्छे से जानता हुं। मैने एक दिन राजकुमारी के मुख से किसी को पता न चले ऐसे लार लेली और उसका परिक्षण किया तो मुझे समझ आ गया की, राजकुमारी को एक विशेष प्रकार का विष दिया जा रहा है। मुझे इस विष के विषय में ज्ञात था।


विशेष प्रकार का विष? ये कैसा विष है मृत्युंजय? राजगुरु ने प्रश्न किया। हिमालय में एक विशेष प्रजाति का सर्प पाया जाता है जिसका विष बाकी जहरीले सर्पों से भिन्न हे। मृत्युंजय की बात सब जिज्ञासा से सुन रहे थे।


ये सर्प अगर किसी को काटले या उसका विष किसीको दिया जाए तो इसका असर थोड़ा भिन्न होता है। इस सर्प का विष सीधे मनुष्य या प्राणी के मस्तिष्क पर असर करता है। धीरे धीरे मनुष्य का मस्तिष्क मृत हो जाता हे। यानी की मानसिक तौर पर मनुष्य की मृत्यु हो जाती हे और वो हमेशा ऐसे ही मूर्छा में ही रहता है।


इस सर्प के विष की एक और विशेषता ये हैं की, ये किसी भी प्राणी या मनुष्य के शरीर में जाए तो उसका शरीर नीला नही पड़ता। यही कारण है की, इस सर्प के विष का प्रयोजन ऐसे षड्यंत्रों में किया जाता हे। यहां भी इस विष का प्रयोग किया गया जिस से राजकुमारी को विष दिया जा रहा हे इस बात का पता ही न चला।


इस सर्प की पहचान करने में भुजंगा पारंगत हे। भूजंगा सब सर्पों के विषय में और उनके जहर के विषय में ज्ञान रखता हे। जब मेने राजकुमारी की लार का परीक्षण किया तो उसे देखकर भुजंगा ने तुरंत उस विष को उसके लक्षणों से पहचान लिया। किंतु वो सर्प मात्र हिमालय में ही पाया जाता है तो उसका विष यहां कैसे आया।


हमने इस विषय में खोज शुरू की ओर जब उस बाज़ की चोंच से वो टोकरी गिरी मिली, याद है न राजगुरु और सेनापति जी उसमे उस सर्प को देखकर इस बात की पूर्णतः पुष्टि हो गई की, राजकुमारी को विष देने हेतु ही राजमहल में से ही कोई इस सर्प का प्रयोग करता हे।


ठहरो मृत्युंजय तुमने अभी कहा की राजगुरु और सेनापति को ज्ञात था क्या ये सत्य हे राजगुरु और वज्रबाहु? महाराज का प्रश्न सुनते ही राजगुरु और सेनापति वज्रबाहु एक दूजे के मुख की ओर देखने लगे।
हां महाराज मृत्युंजय ने ईस विषय में हमे तब बताया था जब उसे वो मरे हुए सर्प की टोकरी मिलिंथी। आप दोनो को ज्ञात था की राजमहल में कोई षडयंत्र चल रहा है और आप दोनो ने हमसे इस विषय में कुछ भी नही कहा राजगुरु? आप दोनो ने मुझसे ये बात छिपाई। महाराज को बड़ा धक्का लगा।


क्षमा करें महाराज, किंतु राजगुरु और सेनापती वज्रबाहु को मैने मना किया था आपको इस विषय में किसी भी सूचना देने से। मृत्युंजय ने महाराज को सत्य से अवगत कराया। किंतु क्यों मृत्युंजय हमारे राजमहल में हमारे विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा था और हमे इसकी भनक तक नहीं थी। महाराज ने खिन्न होकर कहा।


वो इस प्रयोजन से की, आपको इस बात का पता चलता तो आप अपने आपको रोक नही पाते। पिडावश ओर क्रोधित होकर आप कोई ऐसा कार्य करते जिससे षड्यंत्रकारी चौकन्ने हो जाते ओर फिर उन्हें पकड़ना मुश्किल या असंभव हो जाता। आशा करता हुं आप मुझे इस कार्य केलिए अवश्य ही क्षमा करेंगे।


अच्छा मृत्युंजय अब आगेकी बात बताओ। महाराज ने कहा।


जब मेरे मन में ये संशय उठा की ऐसा कोन हे जो राजमहल में रहकर, महाराज और राजकुमारी के अहित की कामना रखता है तो मेने राजगुरु सौमित्र और प्रधान सेनापति वज्रबाहु की सहायताली ओर खोज शुरू की।


राजमहल में रहने वाले हर व्यक्ति को में संशय से देखने लगा और सबके विषय में जानकारी एकत्रित करने लगा। एक एक कर के मेने राजमहल के सब व्यक्तियों के विषय में जानकारी एकत्रित की अब बारी लावण्या की थी।


जबसे मेने लावण्या को देखाथा तब से मेरे मन में उसके लिए संशय रहता था। उसकी बाते, उसका कार्य, उसका स्वभाव कुछ भी आपस में मिलता नही था।


उसे जब मेने प्रथम बार देखा तबसे मुझे लगता था की लावण्या जो हे वो दरअसल सत्य नही हे। इसलिए मैने उसके विषय में जानने का प्रयास किया।


मृत्युंजय की बात सुनकर लावण्या को दुख हुवा। तो क्या मृत्युंजय ने कभी मुझसे मित्रता की ही नही वो मात्र एक आडंबर था? वो अपने आप को संभाले तो कैसे एक एक करके सब के भेद खुल रहेथे। वो अपने आप को बड़ा नासमझ और मूर्ख समझने लगी। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था की सब लोगो ने और सब संबंध ने उसको केवल छला है।


मृत्युंजय की दृष्टि बात करते करते लावण्या के ऊपर पड़ी वो उसकी दशा देखकर उसके मनोभाव को समझ गया। लावण्या इस क्षण किसी भी निर्णय पर मत पहुंचो अभी तो शुरुआत है, अभी बहुत से सत्य जान ने बाकी हैं। लावण्या मृत्युंजय की बात सुन रही थी लेकिन उसने एक भी बार मृत्युंजय के मुख की ओर दृष्टि नही की। मृत्युंजय उसकी व्यथा और पीड़ा दोनो को भली भांति समझ रहा था।


लावण्या के विषय मे जानने हेतु में उसके राज्य कनकपुर पहुंचा? तुम कब कनकपुर गए थे मृत्युंजय? महाराज ने पूछा। जब में आप सबसे कहकर गया था की में पड़ोसी राज्य में जा रहा हुं राजकुमारी केलिए औषधि लाने हेतु तब। लावण्या और वृषाली दोनो को ये सुनकर आश्चर्य हुआ।


कनकपुर जाने के बाद मुझे ये ज्ञात हुआ की, लावण्या वो है ही नही जो यहां हमारे मध्य हैं। लावण्या के भी कुछ रहस्य थे जिसके विषय में जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था।


इसका तात्पर्य ये हैं की, मृत्युंजय को मेरे विषय में बहुत पहलेसे ही सब ज्ञात था? लावण्या विचार में पड़ गई।


लावण्या का भी रहस्य है? ओर किस किस के विषय में सत्य बताओगे मृत्युंजय? क्या इस कक्ष में ऐसा कोई हे जिसका कोई रहस्य नही हैं? राजकुमारी वृषाली पीड़ा भरे शब्दों में बोली।


मृत्युंजय वृषाली की ओर मुड़ा, उसके मुख पर एक हास्य खेल ने लगा। ऐसा लगता था की जेसे वो हास्य बहुत भेदी है। मैने कुछ क्षणों पहले जो लावण्या से कहा वो तुमसे भी कहता हुं वृषाली व्यथित न हो और संयम रखो अभी किसी निर्णय पर मत पहुंच जाओ अभी बहुत कुछ बताना, बहुत कुछ जानना और बहुत कुछ कहना शेष है।


सब मृत्युंजय के मुख की ओर देख रहे थे ऐसी परिस्थितियों में भी वो शांत था। उसका मन या ह्रदय तनिक मात्र भी विचलित प्रतीत नही हो रहाथा। उसमे सत्य ही उसके नाम के समान गुण हैं।
very nice update bhai
 

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में कनकपुर में जाकर वहां के राजवैध सुबोधन से जाकर मिला। वहां मेने उनसे अपनी पहचान नहीं छुपाई। मैने उनको बताया कि में महान वैदाचार्य वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हुं और इस राज्य में कुछ कार्य हेतु आया हुं। मैने उनसे उनके आश्रम में ठहरने केलिए अनुमति मांगी और उन्हों ने प्रसन्न होकर मुझे वहां रहने।दिया।


मैने राजवैध सुबोधन से ये बात छुपाई की, में अभी विजयगढ़ के राजमहल से आया हुं अन्यथा मुझे जो जानकारी चाहिए थी वो नही मिलती।


में वहां आश्रम में रुका और वहां रहते शिष्यों से मित्रता करके जानकारी लेने लगा और तब मुझे पता चला की लावण्या कनकपुर के राजवैध की पुत्री नही किंतु कनकपुर की राजकुमारी हैं। मुझे जब ये सत्य ज्ञात हुआ तो मुझे ये विचार आया की, अगर लावण्या राजवैध की पुत्री नही हे तो वहां अपनी असत्य पहचान बनाके क्यूं रह रही हे?


में अपना कार्य पूर्ण करके वापस विजयगढ़ लोट आया किंतु ये सत्य मेने यहां आकर राजगुरु सौमित्र और सेनापति वज्रबाहु से नही कहा। में स्वयंम इस बात की सत्यता तक पहुंचना चाहता था।


एक दिन मुझे अवसर मिल गया तो में लावण्या के कक्ष में गया छानबीन करने हेतु के कहीं कुछ मिल जाए। किंतु मुझे लावण्या के पास से ऐसा शंकाशपद कुछ भी नही मिला किंतु सारिका के सामान में से मुझे ये विष की शीशी और ये पत्र मिला।


जहर की शिशी ओर पत्र? राजगुरु ने बड़े आश्चर्य से पूछा। हां राजगुरु। जब बाज के पंजों से वो सर्प की टोकरी हमारे हाथ लग गई तो तेजप्रताप ने सारिका तक विष पहुंचानेका एक अन्य मार्ग ढूंढ लिया।


कोनसा मार्ग मृत्युंजय? सेनापति वज्रबाहु ने पूछ लिया। तेजप्रताप ने उसी सैनिक का फिर से उपयोग किया और सर्प की बजाय विष की शीशी भिजवाई ताकि किसी को ये ज्ञात न हो की उस सर्प के विष का उपयोग यहां कोन करता हे और क्यूं करता है।


ओर इस पत्र में क्या लिखा है मृत्युंजय? महाराज ये जान ने केलिए बहुत उत्सुक थे।


इस पत्र में सारिका से ये कहा गया है की, वो इस विष का उपयोग करके राजकुमारी वृषाली के प्राण लेले और लावण्या को लेकर उस सैनिक की मदद लेकर वहां से सुरक्षित हमारे राज्य पहुंच जाए, ओर हमारे राज्य की सीमा में पहुंचते ही उस सैनिक के प्राण भी लेले ताकि कभी किसी को इस षडयंत्र के विषय में ज्ञात ना हो।


में सत्य कह रहा हुं ना तेजप्रताप सिंग? मृत्युंजय ने प्रश्न किया। तेजप्रताप ने क्रोधित होकर मृत्युंजय के सामने बड़ी बड़ी आंखों से घुरा और फिर बोला सही कहा तुमने सब योजना के अनुसार हो जाता किंतु इस सारिका ने पूरी बाजी बिगाड़ दी। उसने सारिका की ओर उंगली निर्देश करते हुए कहा।


सारिका ने बाजी बिगड़ दी? हां महाराज, मृत्युंजय ने उत्तर देना प्रारंभ किया। सारिका ने राजकुमारी वृषाली को न तो वो विष दिया और न ही उस सैनिक के प्राण लिए।क्यों सत्य है ना सारिका? मृत्युंजय ने सारिका की ओर देखा। सारिका ने अश्रुभरी आंख से मृत्युंजय की ओर देखा वो कुछ नही बोल रही थी।


जब सारिका यहां हमारे प्राण हरने हेतु ही आई थी और भेजी गईथी तो उसने मुझे वो विष क्यों नही दिया? अब इस प्रश्न का उत्तर तो स्वयंम सारिका ही दे सकती हे राजकुमारी वृषाली। बताओ सारिका तुम्हारी सखी वृषाली ये जान ने केलिए आतुर हैं की आखिर तुमने इसके प्राण क्यों नही लिए। मुत्युंजय ने सारिका की ओर देखते हुए कहा।


सारिका चुप खड़ी हे अभी उसके आंखो के अश्रु बह रहे है। राजकुमारी वृषाली से उसकी ये चुप्पी सेहन नही हो रही हे। वो उठकर सारिका के समीप गई और बोली, बताओ सखी आखिर तुमने मेरे प्राण क्यों नही लिए? क्या मुझ पर दया आ गई थी तुम्हे ? बोलो सखी बोलो। वृषाली क्रोधित होकर सारिका को पकड़कर हिला रही थी और पूछ रही थी।


दया नही तुमसे स्नेह बंध गयाथा। अचानक सारिका ने ऊपर देखा और चिल्लाते हुए कहा। तुमसे मृत्युंजय से, और.... और.... भुजंगा से। सारिका थोड़ा हिच किचाते हुए बोली। तुम सबसे मेरी मित्रता हो गई थी, में तुम सबको अपना मित्र समझकर स्नेह करने लगी थी इसलिए तुम्हारे प्राण नही लेपाई।
मित्रता की बात तुम नाही करो तो अच्छा है सारिका। तुम्हारे मुख से मित्र शब्द अच्छा नहीं लगता। हम वर्षो से इतनी अच्छी सहेलियां थी। आज तक में सोचती थी की तुम मेरी सबसे अच्छी सहेली हो किंतु तुम तो मेरे साथ विश्वासघात कर रही थी। क्यों किया तुमने ये सब क्यों?


लावण्या ये प्रश्न अपने इस पिता से पूछो। आप सबको में विश्वासघाती लगती हुं, दुष्ट लगती हुं किंतु मुझे ऐसा बनाया किसने? मैने स्वयंम तो इस नर्क जैसी जिंदगी का चयन नही किया। में जब दूध भी पीना नही सीखी थी तबसे तुम्हारे पिता ने मुझे विष पीला के विषैली विष कन्या बना दिया। सारिका तेजप्रताप के सामने हाथ उठाकर क्रोधित होकर बोल रही थी।


तुम्हारे पिता ने मुझे तुम्हारी सखी बना दिया ताकि में तुम्हारी रक्षा कर शकु। तुम्हारे पिता ने मुझे तुम्हारे संग स्वार्थ से रक्खा किंतु मैने हमेशा तुम्हे अपनी प्रिय सखी ही समझा और तुम्हारी रक्षक बनकर तुम्हारे साथ रही।


तुम्हारे सिवा मेरा इस दुनिया में और था ही कोन। किंतु जब हम यहां आए तो यहां आकर इन सबसे मुझे स्नेह हो गया। मानो मुझे नया जन्म मिल गया। दोषी में हुं इस बात से सहेमत हुं, किंतु मुझसे बड़े दोषी तो तुम्हारे पिता है सखी।


लावण्या निःशब्द होंगाई वो तेजप्रताप की ओर मुड़ी और क्रोध से उसकी ओर देखते हुए बोली, वाह पिताजी वाह दुनिया में बहुत से महान पिता हुए होंगे किंतु आपसे महान पिता इस पूरी दुनिया में दीपक लेकर ढूंढने निकलो तो भी नही मिलेंगे।


में आपको एक सुरवीर योद्धा और सबसे महान पिता समझती थी। में तो आपको ही अपना आदर्श मानकर आपके जैसी बनाना चाहती थी किंतु आपतो एक कायर और षड्यंत्रकारी निकले। आप अपनी क्रोध और प्रतिशोध की अग्नि में इतने अंध हो गए की आपने अपने षडयंत्र में अपनी पुत्री का भी उपयोग कर लिया?


यहां आते समय आपने हमसे कहा था की, हमारी सुरक्षा हेतु ये आवश्यक हे की दूसरे राज्य में किसी को ये ज्ञात ना हो की हम कनकपुर की राजकुमारी हैं इस लिए हम वहां राजवैध सुबोधन की पुत्री बनकर जाए पर हमे सत्य ज्ञात नही था की आप हमे छलकर हमारा उपयोग आपके षडयंत्र कों सफल बनाने में कर रहे हो।


लावण्या का मन पीड़ा से भर गया और वो रोते रोते जमीन पर गिर गई। उसकी पीड़ा देख वृषाली से रहा नही गया वो उसके समीप गई और उसे गले से लगा लिया, उसे शांत करने का प्रयास करने लगी।


में तुम्हारी अपराधी हुं वृषाली मुझे मृत्यु दण्ड दो। नही तुम अपराधी नहीं नही हो अपने आप को दोष मत दो। लावण्या बहुत विलाप कर रही थी।


जिस पुत्री को तेजप्रताप अपने प्राणों से अधिक स्नेह करताथा उस पुत्री की आंखो और शब्दों में अपने प्रति घृणा और नफरत को देख तेजप्रताप अब टूट ने लगा, उसे अपने आप से लज्जा आने लगी, वो अपनी पुत्री को यूं रोते बिलखते देख रहाथा किंतु उसमे इतना साहस नहीं था की वो ऊसके समीप जाकर उसे सांत्वना दे सके। या उसका सामना भी कर सके।
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अपने पिता तेजप्रताप के विषय में सत्य जानकर लावण्या का ह्रदय टूट जाता है। वो रोने लगती है, विलाप करने लगती है। अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्री को इस दशा में देखकर तेजप्रताप अपने आप को लज्जित पाता है। उसे बहुत क्रोध आता है वो दौड़कर महाराज इंद्रवर्मा के पास जाता हे और उनके कमर में लटकती म्यान से तलवार खींच लेता है और महाराज इंद्रवर्मा पर वार करने की कोशिश करता हे।


ये सब पलक झपकते ही होता हे। कोई कुछ समझे उससे पहले सब हो जाता है। तभी कुमार निकुंभ मध्य में आकर महाराज इंद्रवर्मा के प्राणों की रक्षा करते हे।


तेजप्रताप बहुत क्रोधित हे वो चिल्ला रहा हे मुझे छोड़ दो में इस इंद्रवर्मा से उसके प्राण ले लूंगा, उसे जीने का कोई अधिकार नही है।


ये सब देखकर सब भयभीत हो जाते हैं की, अगर एक क्षण का भी विलंब होता और कुमार निकुंभ मध्य में आकर तेजप्रताप के वार को विफल नही करते तो कितना बड़ा अनर्थ हो जाता।


महाराज ने ऊंचे स्वर में सैनिकों को आवाज दी सैनिक दौड़ते हुए कक्ष में आए। इस अपराधी और षड्यंत्रकारी तेजप्रताप को यहां से लेकर जाओ और काराग्रह में डाल दो अन्यथा हम यहीं इस समय उसका वध कर बैठेंगे


सैनिकों ने तेजप्रताप को पकड़ लिया और बेडियो में जकड़ लिया। तेजप्रताप क्रोधित होकर खींचा तानी कर रहा है और सैनिक उसको वश में करने का प्रयास कर रहे हैं। ये दृश्य देखकर लावण्या को बहुत पीड़ा हो रही हे। उसके लिए उसका पिता आदर्श व्यक्ति था, उसने कभी स्वप्न में भी नही सोचाथा की उस पिता को वो कभी इस दशा में भी देखेंगी।


सैनिक तेजप्रताप को बेड़ियों में बांधकर घसीटते हुए कक्ष से काराग्रह की और ले जा रहे हैं इस दृश्य को देख कनकपुर के महाराज भानुप्रताप लज्जित और दुखी हैं। वो तेजप्रताप के समीप गए, तेजप्रताप उनसे आंखे नही मिला पा रहा है।


ये क्या किया तुमने तेजप्रताप? अपनी प्रतिशोध की अग्नि में इतना अंध हो गए की इस अग्नि में हमारे कुल की मान, मर्यादा, सम्मान सब जला दिया? तुमने हमारे कुल को कलंकित कर दिया? क्या आवश्यकता थी ये सब करने की?


दो राज्य परस्पर शत्रु ना बन जाए इस लिए हमारी बहन ने जिस बात को अपने ह्रदय के किसी कोने में छुपाकर रख्खी तुमने उसी बात केलिए ये नीच और घिनौना षडयंत्र रचा? तुमने हमारी बहन के त्याग और बलिदान को लज्जित कर दिया। हमारी बहन की आत्मा जहां कहीं भी होगी तुम्हे पीड़ा से देख रही होंगी।


बाल्यावस्था से हमे हमारे माता पिता और गुरुजनों से ये सिख मिली हे की, जैसे आग कभी आग नही बुझा सकती ऐसे ही प्रतिशोध की अग्नि को कभी क्रोधाग्नि शांत नही कर सकती। तुमने प्रतिशोध और क्रोध में हमारे संस्कारों को लज्जित कर दिया तुमने ऐसा क्यूं किया तेजप्रताप?


तेजप्रताप अपने जेष्ठ के प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता था। वो लज्जित होकर कक्ष के बाहर चल पड़ा। महाराज इंद्रवर्मा हम आपके अपराधी हैं, आप हमे जो दंड दे हमे स्वीकार है, आप हमे भी कारागृह में डाल दीजिए, मृत्यु दंड दे दीजिए किंतु हमारे कारण हमारी प्रजा को दंडित मत कीजिएगा ये हमारी आपसे करबद्ध विनती है। भानुप्रताप हाथ जोड़े महाराज इंद्रवर्मा से विनती करने लगे।


महाराज अपनी जगह से तेज गति से भानुप्रताप के समीप आए, ये आप क्या कर रहे हे भानुप्रताप, जो अपराध आपने किया ही नहीं उसके लिए भला आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं, और रही बात दंड की तो विजयगढ़ का सुनहरा इतिहास हे की उसने कभी निर्दोष व्यक्ति को दंडित नही किया।


जो हुआ उसमे आपकी एवम आपके राज्य की प्रजा की कोई गलती नही है इस लिए निश्चिंत रहिए आपको और आपकी प्रजाको ना अकारण दंडित किया जाएगा और न ही आपका राज्य आपसे छीना जाएगा।


महाराज ने उचित कहा भानुप्रताप विजयगढ़ हमेशा से न्याय प्रिय रहा है, राजगुरु ने कहा। किंतु मैं तो अपराधी हुं ना मेरे लिए क्या दंड हैं महाराज? लावण्या ने लज्जा से शीश झुकाए महाराज से कहा। हम तो न चाहते हुए भी अनजाने में ही सही किंतु अपने पिता के षडयंत्र में सम्मिलित तो गए थे कृपया हमे भी मृत्युदंड दे दीजिए।
नही पुत्री तुम तो निश्छल हो, तुमने तो पूरे मन से लगन से राजकुमारी वृषाली की दिन रात ना देखते हुए सेवा और।सहायता की है, तुम तो हमारे लिए हमारी पुत्री के समान हो। महाराज इंद्रवर्मा ने लावण्या की ओर देखते हुए कहा। महाराज इंद्रवर्मा के विशाल ह्रदय को देख सब प्रसन्न हो गए।


लावण्या तुम हमारी सखी थी और हमेशा रहोगी। हमारे मन में जो स्नेह तुम्हारे लिए ये सब ज्ञात होने से पूर्व था वही स्नेह अभी हे और रहेगा। वृषाली ने ऐसा कहते हुए लावण्या को गले लगा लिया।
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राजकुमारी वृषाली लावण्या को आश्वस्त कर रही हे की, जो कुछ भी हुआ उसमे उसका कोई दोष नही हे।

सारिका ये सब देखकर बहुत लज्जित हैं। वो अपने आपको अपराधी देख कोश रही हैं। वो मन ही मन यह विचार कर रही है की, है विधाता तुमने मेरे भाग्य में ये सब क्यूं लिख दिया? मेरे माता पिता की मृत्यु हो गई और में अनाथ हो गई, उस दुष्ट तेजप्रताप ने इस बात का लाभ उठाया और मुझे विष देकर पाला। में उसी क्षण क्यूं मर नही गई जब उस राक्षस ने मुझे प्रथम बार विष दिया।


तभी उसके कानों में महाराज के बोल सुनाई दिए, सैनिकों इस विष कन्या सारिका को भी ले जाओ और काराग्रह में डाल दो महाराज ने ये आज्ञा की।


ठहरिए पिताजी ये उचित नहीं होगा। जो हुआ उसमे सारिका का अपराध केवल इतना ही था की वो एक सेविका थी उसने ऐसा किया जैसा उसे उसके स्वामी ने करने को कहा। उसने तो अपने खुद केलिए ऐसे नर्क जैसे जीवन का चयन नही किया है ना पिताजी।


अगर सारिका चाहती तो मुझे विष देकर मारकर यहां से पलायन हो जाती, फिर कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता था किंतु उसने ऐसा नहीं किया। सारिका ने मुझे केवल सखी मुख से ही नहीं कहा है किंतु अपने ह्रदय से माना है।


उसने मेरी सेवा और सहायता हर क्षण की है तो वो अपराधी कैसे हुई पिताजी? मेरा आपसे अनुरोध है की आप मेरी सखी को दंड न दे वो पहले ही बहुत भुगत चुकी हे। वृषाली अपने पिता के सामने हाथ जोड़े विनती कर रही हैं।


किंतु राजकुमारी आप ये ना भूले की वो एक विष कन्या हैं। वो अन्य मनुष्य केलिए असुरक्षित हे। राजगुरु ने कहा।


मृत्युंजय तुम तो बहुत बड़े वैध हो और वेदशास्त्री भी क्या तुम्हारे शास्त्रों में ऐसा कोई उपचार हैं जो मेरी सखी सारिका को विष से मुक्त करदे? अवश्य हे राजकुमारी। तो क्या तुम हम पर एक और उपकार करोगे? हमारी सखी को विष से मुक्ति देकर हमारे जैसी बना दोगे? राजकुमारी ने कहा।


अवश्य वृषाली अगर सारिका चाहती है तो ये अवश्य हो सकता हैं। समय लगेगा, कठिन भी है किंतु सारिका की इच्छा होगी तो हो जायेगा। विष मुक्ति उपचारसे ये संभव हे।


मृत्युंजय की बात सुनते ही वृषाली और लावण्या दोनो के मुख पर प्रसन्नता छा गई। दोनो जाकर सारिका से लिपट गई। सारिका मौन थी उसे समझ ही नही आ रहा था की दुखी हो या प्रसन्न हो।


वैसे लावण्या तुम्हे ये ज्ञात हे की इस कक्ष में हमारे अतिरिक्त कोई और भी उपस्थित हे जो मृत्युंजय की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हे। अच्छा सखी, ओर वो कोन हैं? लावण्या और वृषाली भुजंगा की और देखते हुए सारिका का उपहास करने लगी। भुजंगा के मुख पर प्रसन्नता की रेखाए उभर आई।


अपनी पुत्री को प्रसन्न देख महाराज इंद्रवर्मा भी बहुत प्रसन्न थे। उन्हों ने सारिका को क्षमा कर दिया। सब प्रसन्न थे एक सेनापति वज्रबाहु को छोड़कर। उनकी आंख से अश्रु छलक रहेथे।


मृत्युंजय तुम हमे उस सैनिक के विषय में बताओ जिसने राजद्रोह किया और तेजप्रताप के षडयंत्र में उसकी सहायता की।


वो सैनिक भी अपराधी नही हे महाराज। तुम कहना क्या चाहते हो मृत्युंजय, उसने हमारे विरुद्ध षडयंत्र करने में हमारे शत्रु का सहयोग किया और तुम कहते हो की वो निर्दोष हैं?


उसने अपनी इच्छा से ये कार्य नहीं किया था महाराज। सेनापति वज्रबाहु ने कहा। इसका क्या तात्पर्य वज्रबाहु? महाराज अधर्मी तेजप्रताप ने उसकी पत्नी और दो बालकों को अपने वश में करकर उससे यह कार्य कराया था। लावण्या ने उसे मारा नही था किंतु तेजप्रताप से असत्य लिख दिया था की उसने उस सैनिक को मृत्यु देदि हे तब उसने उसकी पत्नी और बालकों को मुक्त कर दिया।वो सैनिक अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर यहां से दूसरे राज्य में चला गया किंतु अपने महाराज और अपने राज्य के विरुद्ध षडयंत्र में साथ देने की वजह से उसकी आत्मा उसे कचोटती थी और उसने आत्महत्या करली।


आत्महत्या करली? इस अधर्मी तेजप्रताप ने कितने अनुचित कार्य किए हे। महाराज बोल पड़े। लावण्या की आंखे भी लज्जित हो गई।


हमे गर्व हे हमारे ऐसे सिपाहियो पर। वज्रबाहु उसकी पत्नी और बच्चों के भरण पोषण का दाईत्व हम लेते हैं। महाराज की बात सुनकर उपस्थित सब लोग उनके विशाल ह्रदय को देख प्रसन्न हो गए।


कक्ष में उपस्थित सब प्रसन्न हे किंतु एक सेनापति वज्रबाहु ही है जो दुखी हैं। मृत्युंजय ने सेनापति वज्रबाहु के मुख की ओर देखा तो उसने उनकी पीड़ा को समझ लिया वो उनके समीप गया। मृत्युंजय को अपने समीप देख सेनापति वज्रबाहु ने अपने पीड़ा के भाव को छुपा नेका प्रयत्न किया और मुख पर हास्य लाने का प्रयास किया।


धन्यवाद मृत्युंजय आज तुम्हारी चतुराई और सतर्कता के कारण ही राजमहल में हो रहे इस षडयंत्र का पता चला और कोई बड़ी अनहोनी घटना नहीं घटी। में किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करु समझ नही आ रहा मुझे। तो मत कीजिए ना धन्यवाद, ये तो मेरा कर्तव्य था जो मैने निभाया है।


सेनापति वज्रबाहु चुप थे। मृत्युंजय ने उन्हें आश्वस्त करनेका प्रयत्न शुरू किया। सेनापति वज्रबाहु आप अपना दिल छोटा मत कीजिए विधाता जो करता हे अच्छे केलिए करता है और धीरे धीरे सब पुनः ठीक हो जायेगा।


सत्य कहा तुमने मृत्युंजय किंतु इन सब में मेरी पुत्री का असमय स्वर्गारोहण केसे अच्छा हो सकता है? और सब ठीक कैसे होगा, मेरी पुत्री तो अब वापस नही आएंगी ना? ब्रजबाहु की आंखे छलक गई।


में आपकी पीड़ा समझ सकता हुं किंतु फिर भी पुनः आपसे कहता हुं की विधाता पर विश्वास रखिए। इतना कहकर मृत्युंजय थोड़ी दूर खड़े भुजंगा के पास जाकर खड़ा हो गया।


वो कहते हे ना अंत भला तो सब भला। अब सब भेद खुल गए, सारे रहस्य बाहर आ गए। अब न कोई षडयंत्र है ना कोई छल बस अब महल में सब मंगल ही मंगल हे, है ना पिताजी। वृषाली ने प्रसन्नता से कहा।


सब रहस्य से पर्दा नहीं उठा हे वृषाली अभी कुछ रहस्य और कुछ भेद शेष हैं। मृत्युंजय ने वृषाली की बात का उत्तर दिया। सब को आश्चर्य हुआ अब कोन से रहस्य से पर्दा उठना रह गया है, ओर तुम किस भेद के विषय में बात कर रहे हो मृत्युंजय। वृषाली मृत्युंजय के समीप गई।


अभी मेरे विषय में भी कुछ रहस्य खुल ने शेष हैं वृषाली। मृत्युंजय की बात सुनकर सबके ह्रदय को जेसे धक्का लगा। राजगुरु सौमित्र की तो सांस रुक गई। मृत्युंजय ऐसे पहेलिया ना बुझाओ विस्तार से कहो मेरा ह्रदय बैठा जा रहा है। राजगुरु सौमित्र तेजगति से मृत्युंजय के समीप गए और बोले।
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जैसे ही मृत्युंजय ने ये बात सबके सामने रखी के उसके विषय में भी कुछ भेद हैं सबकी सांस मानो भारी सी हों गई। इतने सारे रहस्य जानने के पश्चात अब कोई और भेद या रहस्य? अब कोई और कड़वे सत्य का सामना करने का किसी में जैसे सामर्थ्य ही नही रहा था। सब चिंतित हो गए की मृत्युंजय अब किस रहस्य से पर्दा उठाएगा।


मृत्युंजय अब ऐसा मत कहना की तुम मेरे मित्र वेदर्थी के पुत्र नही हो और तुमने हम सबसे ये असत्य कहा था। राजगुरु ने बड़े व्याकुल होकर कहा। मृत्युंजय ने राजगुरु सौमित्र की ओर देखा और मंद मुस्कान के साथ कहा, बस थोड़ी धीरज धरिए राजगुरु।


में आप सबसे करबद्ध ये अनुरोध करता हुं की आप सब अपने आसन पर बिराज जाए और मेरी बात को सुने। विश्वास रखिए मैने जाने अनजाने में भी यहां किसी का अहित नहीं किया बस कुछ क्षण केलिए धीरज धरें ओर में जो कहने जा रहा हुं उसे सुने। मृत्युंजय ने हाथ जोड़कर सबसे विनती की।


कक्ष में उपस्थित सबके मन में जिज्ञासा थी की मृत्युंजय क्या कहेगा और ये भय भी था की ईश्वर करे कोई भी ऐसी बात न हो जिससे अब किसी के भी ह्रदय को ठेस पहुंचे। लावण्या और वृषाली बहुत व्यथित हैं। निकुंभ भी बहुत विचलित हो गया है की ऐसी क्या बात होगी।


सब ने अपना अपना आसन ग्रहण किया। मृत्युंजय सामने खड़ा था। आप सबसे में इतनी विनती करता हुं की मेरी बात पूर्ण न हो जाए तब तक मेरे विषय में अपने लिए कोई भी राय न बना लीजिए। मृत्युंजय ईश्वर केलिए शीघ्र बात प्रारंभ करो निकुंभ ने कहा। मृत्युंजय ने उसके सामने देखकर कुछ नही कहा सिर्फ मुस्कुराया।


तो सुनिए। जैसे की आप सब को मेने अपने विषय में परिचय देते हुए कहा था की में महान वैद्याचार्य वेदर्थी का पुत्र मृत्युंजय हूं इस बात में कुछ भी असत्य नहीं हैं, यह संपूर्ण सत्य हैं। मृत्युंजय के मुख से यह बात सुनकर राजगुरु सौमित्र की सांस की गति थोड़ी धीमी हुई। उन्हों ने राहत की सांस ली।


मैं यहां राजकुमारी के उपचार हेतु आया हुं ये भी सतप्रतिशत सत्य हैं। तो फिर रहस्य का है मृत्युंजय? वृषाली ने मध्य ही विचलित होकर प्रश्न पूछा। शांत वृषाली, थोड़ी धीरज धरो। में पूर्ण बात विस्तार से बताता हुं।


जब मेरे पिता की मृत्यु हुई तो उससे पूर्व उन्होंने मुझे एक पत्र और साथ अंगूठी देकर कहा की ये मेरे परम मित्र, और विजयगढ़ के राजगुरु सौमित्र तक पहुंचा देने ये मेरी अंतिम इच्छा है पुत्र। मैने उनकी इच्छा को शिरोधार्य रक्खा, सोचा शीघ्र ही पिताजी की ये अंतिम इच्छा को पूर्ण करूंगा किंतु कुछ कार्यों में व्यस्त हो गया और यहां राजगुरु सौमित्र तक पहुंच नही पाया। इस बात की पीड़ा मुझे हमेशा रहती।


एक दिन की बात है में और भुजंगा अपने गांव के समीप एक गांव हे वहां एक व्यक्ति के उपचार हेतु गए थे। हमे वापस लोट ने में बहुत देरी हो गई। हम जंगल के मार्ग से चलते चलते घर वापस लोट रहे थे। मंगल बेला हो गई थी।


तभी हमारे कान में किसी का पीड़ा से भरा स्वर सुनाई दिया। आवाज बहुत धीमी थी और ऊपर से अंधकार। हमने उस पीड़ा से भरे स्वर को खोजने का प्रयास किया तो कुछ समय के बाद हमे झाड़ियों के बीच एक कन्या पड़ी हुई दिखाई दी। वो बहुत जख्मी थी, ऐसा लगता था की उसे बहुत प्रताड़ित किया गया है ओर जान से मारने का प्रयास भी।


हमने उस कन्या को अपने साथ ले लिया और हमारे घर ले गए। उस कन्या की जीवित रहने की कोई आशा नहीं थी। मैने और भुजंगा ने उसका उपचार प्रारंभ किया। बहुत दिनों तक वो यूंही मूर्छा में ही रही। उसके शरीर पर बहुत घांव थे धीरे धीरे वो भरने लगे। हमे आशा बंधी की वो मूर्छा से अवश्य बाहर आएगी।


एक दिन वो कन्या मूर्छा से बाहर आ गई। हमे बहुत प्रसन्नता हुई ये देखकर। हमे लगा की अब वो कन्या हमे अपने विषय में बताएगी की वो कोन हे, और उसके साथ क्या घटना हुई थी। किंतु वो कन्या तो सब भूल चुकी थी। उसे अपने स्वयंम के विषय में कुछ भी ज्ञात नही था। दिन बीत रहे थे, में और भुजंगा उसका उपचार कर रहे थे। हमने उसे एक नाम दीया वनदेवी क्यूं की वो हमे वन में मिली थी।एक दिन में और भुजंगा जब घर पहूंचे तो हमने देखा की, वो घर की एक दीवार पर कुछ बीज और पर्नो का रंग निचोड़कर एक पंख की सहायता से चित्र बना रही हैं। हमे ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ की उसने अपना और एक अपनी ही जैसी दूसरी कन्या का चित्र बनाया।


हमने वनदेवी से पूछा की ये किसका चित्र हैं? तुम्हारे साथ ये कन्या कोन है किंतु उसे कुछ भी याद नहीं था। वो हमेशा बैठकर उस चित्र को ही निहारती रहती। वो चित्र इतना सुंदर था की उसके विषय में सैंकड़ों कविताएं लिखी जा सकती थी।


वनदेवी के साथ जो दूसरी कन्या थी मुझे उसका चित्र देखते ही उससे प्रेम हो गया। में उस चित्र में बनी कन्या के रूप से मोहित हो गया। मुझे उस चित्र में बनी कन्या को एक बार अपने नेत्रों से साक्षात देखने की इच्छा हो रही थी। मृत्युंजय के मुख से ये बात सुनकर लावण्या और वृषाली दोनो को बहुत धक्का लगा।


ऐसे ही कुछ और दिन बीत गए और एक दिन अचानक वनदेवी हमारे पास दौड़कर आई। उसको सब याद आ गया था। वो कोन है, कहां से आई हैं और उसकी ये दशा कैसे हुई ये सब उसने हमे विस्तार से बताया। वो सब सुनकर हम आश्चर्य में पड़ गए।


वनदेवी ने ऐसा क्या बताया, और उस बात का हमारे राजमहल और राज्य से कोई संबध है मृत्युंजय? महाराज ने अधीर होकर पूछा।


हां मृत्युंजय कोन थी वो वनदेवी? उसने अपने विषय में तुम से क्या कहा? वृषाली की अधीरता भी बढ़ गई थी।
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वनदेवी के विषय में जान ने केलिए सब उत्सुक थे। वृषाली मृत्युंजय से पूछती है की, कोन थी वो वनदेवी?


मृत्युंजय जरासा मुस्कुरूया ओर बोला, वो वनदेवी और कोई नही वो हैं हमारे प्रधान सेनापति वज्रबाहु की पुत्री और वृषाली तुम्हारी सखी चारूलता।


मृत्युंजय ने जैसे ही चारूलता का नाम अपने मुख से लिया, सेनापति वज्रबाहु अपने आसन से उठ गए। क्या कहा मृत्युंजय तुमने? मेरी बेटी चारूलता जीवित है? वो कहां हैं? किस दशा में है? सेनापति वज्रबाहु इतने प्रसन्न हो गए की उनकी आंख से अश्रु बहने लगे।


वृषाली भी खुद को रोक नही पाई। हां मृत्युंजय बताओ मेरी सखी कहां हैं? मुझे सीघ्र ही उसके पास ले जाओ कहकर मृत्युंजय का हाथ पकड़कर कक्ष के द्वार की ओर ले जाने लगी।


थोड़ी धीरज धरो वृषाली इतनी अधीर मत बनो। मृत्युंजय ने वृषाली के हाथ से अपने हाथ को छुड़ाते हुए कहा।


मृत्युंजय ने आगे की बात कहना शुरू किया। चारूलता जीवित हैं ये सुनकर कक्ष में उपस्थित सब के मुख पर प्रसन्नता छा गई। लावण्या ने भी मन में ईश्वर का धन्यवाद किया, हे ईश्वर तुम्हारा धन्यवाद तुमने मेरे पिता को एक कन्या की हत्या करने के पापकर्म से बचा लिया।


वनदेवी ने हमे बताया की केसे उसका अज्ञात व्यक्तियों द्वारा अपहरण किया गया और उसे जान से मारने का प्रयास। अपहरण कर्ता ने वनदेवी को मृत समझकर वहीं झाड़ियों में छोड़ दिया।


उसने बताया की वो विजयगढ़ के प्रधान सेनापति वज्रबाहु की पुत्री हैं और उसके संग चित्र में जो है वो महाराज इंद्रवर्मा की पुत्री राजकुमारी वृषाली हे जो अभी मूर्छित हैं। वनदेवी की बात सुनकर मुझे और भुजंगा को ये प्रतीत हो गया की जरूर राजमहल में महाराज के विरुद्ध कोई षडयंत्र चल रहा है और बस हम दोनो फिर यहां आए।


मुझे अपने पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करने केलिए राजगुरु सौमित्र से भेंट करने कभी न कभी आना ही था ऊपर से ये दूसरा कारण मिल गया इस राज्य में आने का।


तो क्या मृत्युंजय जिस चित्र वाली कन्या के प्रेम में पड गया था वो मैं थी। राजकुमारी वृषाली के मुख पर इस विचार मात्र से ही लालिमा छा गई। वो मृत्युंजय के मुखंके सामने देख रही थी।


मृत्युंजय ने राजकुमारी वृषाली की आंखों में देखा, दोनों की अखियां मिली और मुख पर प्रसन्नता छा गई। वृषाली ने हस्ते हुए शर्माकर दृष्टि नीचे करली। यही वृषाली के प्रेमका स्वीकृति करण था।


लावण्या के ह्रदय में जैसे तेज पीड़ा उठी, वो टूट गई उसकी आंखो से अश्रु बहने ही वाले थे की उसने चुपके से उसे रोक लिया। सारिका ने लावण्या की ओर देखा, उससे लावण्या की पीड़ा छुपी नहीं थी। उसको ज्ञात था की भले लावण्या मुख से कुछ कहती नही हे किंतु वो मृत्युंजय से प्रेम करती हैं। लावण्या ने सारिका को आंख से ही इशारा कर दिया की अब कभी इस बात के विषय में किसी से कुछ मत कहना।


महाराज इंद्रवर्मा और राजगुरु भी ये जानकर विष्मित थे। कोई कुछ भी कह नहीं रहा था। सब मौन थे।


मृत्युंजय तुमने इस राज्य केलिए जो कुछ भी किया हे इसके लिए हम सब और आने वाली पीढ़ियां भी तुम्हारी ऋणी रहेंगी। ये कहते हुए राजगुरु सौमित्र ने मृत्युंजय का आभार किया।


राजगुरु सत्य कहे रहे हैं मृत्यंजय, हम तुम्हारे जीवन पर्यंत ऋणी रहेंगे। तुमने हमारे राज्य की ओर हमारी दोनो पुत्रियो के जीवन की रक्षा की है में किन शब्दों में तुम्हारा धन्यवाद करु?


ऐसा कहेकर मुझे लज्जित न करे राजगुरु और महाराज। मैने तो केवल अपने कर्तव्य का पालन किया हैं। तुम सत्य ही धन्य हों मृत्युंजय, कहो हम तुम्हे क्या भेंट करे इस उपकार के बदले?


क्षमा कीजिए महाराज किंतु मैने कोई भी कार्य किसी भी लालसा से नही किया हैं। मृत्युंजय ने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा। हमे गर्व हे तुम पर मृत्युंजय की तुम हमारे मित्र वेदर्थी के पुत्र हो। जैसा यशश्वी मेरा मित्र था ऐसे ही तेजश्वि तुम हो। ईश्वर सदैव तुम्हारी रक्षा करें। राजगुरु की आंखों में गर्व हे मृत्युंजय के प्रति।
राजगुरु अगर आप अनुमती दे और अगर कुमारी वृषाली को ये स्वीकार्य हो तो हम राजकुमारी वृषाली का विवाह मृत्युंजय से करना चाहते हैं। महाराज ने अपने मन की बात सबके मध्य रखी।


मृत्युंजय से उचित वर राजकुमारी वृषाली केलिए अन्य कोई हो ही नही सकता महाराज। राजगुरु ने प्रसन्नता से शीघ्र ही अपनी अनुमति दे दी।


तुम्हारा क्या अभिप्राय है वृषाली? महाराज ने वृषाली की ओर देखते हुए प्रश्न किया। ये प्रश्न सुनते ही वृषाली के मन के आंगन में जैसे हजारों मोर नाचने लगे। उसका ह्रदय हर्ष से भर गया। उसने अपने मन के भाव को बड़ी कुशलता से छिपाया।


पिताजी हमे ये नया जीवन मिला है वो मृत्युंजय के कारण ही मिला है। मेरे जीवन पर प्रथम किसी का अगर अधिकार है तो वो मृत्युंजय का ही है आगे आप ओर राजगुरु जैसा उचित समझे। राजकुमारी वृषाली ने बड़ी चतुराई से अपनी स्वीकृति दे दी।


मृत्युंजय क्या तुम हमारी पुत्री राजकुमारी वृषाली से विवाह करोगे ? महाराज ने मृत्युंजय के सामने हाथ जोड़कर विनती भरे स्वर में ये प्रस्ताव रक्खा।


हाथ जोड़कर मुझे लज्जित न करे महाराज। क्षमा कीजिए महाराज किंतु में राजकुमारी के योग्य वर नही हुं। ये सत्य हैं की मुझे राजकुमारी वृषाली का चित्र देखते ही उससे प्रेम हो गया था किंतु कहां वो महलों में रहने वाली राजकुमारी और कहां में वन में भटकने वाला ब्राह्मण? हमारा कोई मेल नहीं हे।


मृत्युंजय की बात सुनकर सबको आश्चर्य हुआ। भुजंगा तो हैरान रह गया ये सुनकर, अरे मृत्युंजय राजकुमारी वृषाली से इतना प्रेम करता हे फिर क्यों विवाह केलिए ना कह रहा है?


मृत्युंजय राजकुमारी वृषाली हमारी एकलौती संतान हे इस लिए ये पूरा राज्य उसिका और उसके पति का ही होगा। इस लिए मेरे बाद मेरे राज्य के उत्तराधिकारी तुम बनोगे मृत्युंजय।


क्षमा कीजिए महाराज किंतु दान में मिले राज्य से राजा नही बना जा सकता, और ये मेरे सिद्धांतो के विरुद्ध होगा। ऊपर से में ठहरा वनवासी ब्राह्मण मुझे ये राज्य और महल नही भाते। आपके राज्य का सच्चा उत्तराधिकारी तो निकुंभ है। वो आपके अनुज का पुत्र है इस लिए वही इस राज्य का सच्चा वारसदार हैं मृत्युंजय ने विवेक के साथ अपनी बात कह दी।


मृत्युंजय की बात सुनकर सब दुविधा में पड़ गए। लावण्या, सारिका, भुजंगा, निकुंभ सब चिंतित हो गए की, वृषाली और मृत्युंजय दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं किंतु इस परिस्थिति में अब उनका विवाह केसे होगा? क्या उनको हमेशा केलिए अलग होना पड़ेगा। इस विचार मात्र से सबका ह्रदय विचलित हो गया।
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मृत्युंजय की बात सुनकर सब चिंतित हो गए की इस दुविधा का मार्ग कैसे निकले।


तुम राजमहल में नही रहे सकते तो कोई बात नही मृत्युंजय मैं तुम्हारे साथ वन में रहूंगी। जहां तुम वहां मैं। तुम्हारे साथ चलने में मुझे बहुत आनंद मिलेगा। वृषाली ने कहा।


वो इतना आसान नहीं है वृषाली जितना तुम समझती हों। तुमने अभी राजमहल से बाहर की दुनिया देखी नही है। जीवन बहुत कठिनाइयों से भरा हुआ है।


जीवन में अगर प्रिय पात्र ना हो तो भी जीवन कहां सरल और सुखद होता है मृत्युंजय? वृषाली ये सब कहने में और सहेने में बहुत अंतर होता हैं। कोई बात नही वो अंतर साथ मिलकर कम कर लेंगे। वृषाली भावनाओ में बहेकर जिंदगी के निर्णय नही लिए जाने चाहिए। तो हर क्षण, और हर एक कदम पर डरके भी तो जीवन नही जीया जाता मृत्युंजय।


मृत्युंजय और वृषाली के बीच चर्चा छिड़ गई हैं। बाकी सब उन दोनो को केवल सुन रहे हैं। दोनो का वार्तालाप सुनकर महाराज ने मध्य में ही दोनो को रोका।


आप दोनो सत्य कहे रहे हैं। मृत्युंजय में तुमसे बस इतना कहना चाहता हुं की मेरी पुत्री का मन तुम्हारे साथ जुड़ गया हैं, और जब एक स्त्री का मन किसी पुरुष के संग जुड़ जाता हे तो वो उसके साथ किसी भी परिस्थितियों में निभाव कर लेती है। मुझे अपनी पुत्री पर पूर्ण विश्वास है की वो तुम्हारे साथ कदम से कदम मिलाकर चलेगी तुम्हे कभी निराश नहीं होना पड़ेगा।


पुत्री मुझे गर्व है तुम पर। महाराज सत्य कह रहे हे मृत्युंजय मान जाओ। राजगुरु ने कहा। ठीक हे जैसी आप सभी की इच्छा। मृत्युंजय के मुख से स्वीकृति सुनते ही सब प्रसन्न हो गए सब मित्र गले लगे और अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।


वृषाली बहुत बहुत प्रसन्न है। वो मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद कर रही है। लावण्या और सारिका वृषालिंके समीप आई और उसे गले लगाकर बधाई देने लगी। ईश्वर करे तुम हमेशा यूंही प्रसन्न और स्वस्थ रहो, मेरी सखी को किसी की भी नजर न लगे। लावण्या ने वृषाली को गले से लगा लिया।


महाराज इंद्रवर्मा ईश्वर की कृपा से अब सब कुशल मंगल हो गया हे तो अब हमे प्रस्थान करने की अनुमति दे। महाराज भानुप्रताप ने अनुरोध किया। अरे अभी तो हमने आपका अतिथि सत्कार भी नही किया और आप विदाई की बात कर रहें हैं? आप को कुछ दिन हमारा अतिथि बनकर राजमहल में रहना होगा। महाराज ने आग्रह किया। महाराज सत्य कह रहे हैं भानुप्रताप सिंग। राजगुरु ने भी कहा।


इतना सब होने के बाद भी आपने हम पर और हमारे राज्य पर जो उपकार किया हे वही बहुत है महाराज अब रुक ने को मत कहिए। जैसी आपकी इच्छा भानुप्रताप हम आपके ऊपर कोई दबाव नहीं डालेंगे।


एक और विनती है आपसे महाराज इंद्रवर्मा, जी कहिए भानुप्रताप। अगर आप आज्ञा दे तो हम हमारी पुत्री लावण्या को भी अपने साथ वापस ले जाएं। भानुप्रताप ने बिनती करते हुए कहा।


इसमें हमारी अनुमति की क्या आवश्यकता, आपकी पुत्री है, आपकी धरोहर है अवश्य लें जाए। आपका बहुत बहुत धन्यवाद महाराज।


नही मेरी सखी लावण्या और सारिका कहीं नहीं जाएगी वो यही कुछ दिन हमारे साथ रहेंगी। किंतु वृषाली.... किंतु, परंतु कुछ नही लावण्या तुम यहीं हमारे साथ रहोगी ये हमारी तुमसे आज्ञा है। वृषाली ने अभिनय करते हुए कहा। आपकी आज्ञा शिरोधार्य सखी लावण्या ने कहा ओर तीनो हसने लगी। बस अब में तो उस क्षण की प्रतीक्षा में हूं की कब मेरि सखी चारूलता भी राजमहल वापस आयेंगी और में उसे अपने गले लगाऊंगी।


अच्छा तो अब हमे आज्ञा दे महाराज। ठीक हे आप प्रस्थान कीजिए भानुप्रयाप सिंग। ठहरिए महाराज भानुप्रताप, मृत्युंजय ने प्रस्थान कर रहे महाराज भानुप्रताप को रोक लिया। सबको ये देखकर आश्चर्य हुआ। एक क्षण केलिए सबके मन में ये विचार आया कि, अब मृत्युंजय और क्या कहेगा।


जी कहिए, आप हमसे कुछ कहना चाहते हैं मृत्युंजय? हां महाराज भानुप्रताप सिंग।


मृत्युंजय लावण्या के पास गया, लावण्या में तुमसे कुछ कहना चाहता हुं। कहो मृत्युंजय मुझे कुछ कहने केलिए तुम्हे मेरी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।


लावण्या हम सब मित्र बहुत दिनो से एक साथ यहां राजमहल में साथ रह रहे हैं, एक दूजे को अब अच्छे से पहचान भी गए हैं। हां तो क्या मित्र? मृत्युंजय तुम्हे जो भी कहना हैं सीधे सीधे कह सकते हो, भूमिका बांधने की आवश्यकता नहीं है।


मृत्युंजय मुस्कुराया, यही पहचान होती हे अच्छे और सच्चे मित्र की वो जान ही लेता है की सामने वाला मित्र उससे कुछ कहने में हीच कीचा रहा है। हां सखा।


लावण्या राजकुमार निकुंभ तुमसे बहुत प्रेम करते है, जिस दिन उन्हों ने तुम्हे प्रथम बार देखा तबसे। ये बात सिर्फ हम दोनो को ज्ञात है, में तुम दोनो का मित्र हुं इस नाते में तुम्हारे आगे अपने मित्र का प्रस्ताव लेकर आया हुं क्या तुम उनसे विवाह करोगी?


मृत्युंजय की बात सुनकर सबके मन में प्रसन्नता हुई। लावण्या के मस्तिष्क पर जेसे कोई प्रहर हुआ हो ऐसे वो कुछ क्षण केलिए सुन हो गया। उसने कभी इस विषय में स्वप्न में भी नही सोचा था। उसे समझ नही आ रहा था की वो क्या प्रतिक्रिया दें।


कुछ क्षणों केलिए वो चुप रही जैसे उसके मस्तिष्क में कुछ चल रहा हो फिर उसने अचानक चुप्पी तोडी, हां मृत्युंजय मुझे ये विवाह प्रस्ताव स्वीकार हैं। लावण्या के मुख से ये बात सुनते ही वृषाली प्रसन्नता से उछल पड़ी और लावण्या के गले लगकर बोली अब मेरी सखी हमेशा मेरे साथ रहेंगी मेरी भाभी बनकर इस से और प्रसन्नता की बात मेरे लिए कुछ हो ही नही सकती।


सबको ये बात जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। महाराज इंद्रवर्मा ने महाराज भानुप्रताप से लावण्या का हाथ निकुंभ केलिए मांगा। आपने इतना कुछ होने के पश्चात भी लावण्या को अपने कुल की कुलवधु बनाना स्वीकार किया इसलिए में आपका सदैव सेवक बनकर रहूंगा। भानुप्रताप ने कहा। लावण्या बड़े किस्मत वाली हे जो आपके कुल की कुल वधु बन ने जा रही हैं।


निकुंभ को समझ नही आ रहा हैं की वो इस अपार प्रसन्नता के भाव को कैसे सैयाम में रखे। राजमहल में अब एक के बाद एक खुशियां ही खुशियां आ रही देख सब का ह्रदय प्रसन्नता से भर गया था।


एक सारिका के ह्रदय में पीड़ा थी, क्योंकि वो जानती थी की लावण्या मृत्युंजय से प्रेम करती थी। फिर उसने सोचा की लावण्या केलिए मृत्युंजय के अलावा अगर कोई योग्य वर हे तो वो राजकुमार निकुंभ ही हो सकता हैं। उसे इस बात की प्रसन्नता थी की मेरी सखी एक बड़े राज्य की वधु बनेगी और सुरविर योद्धा की पत्नी।


सब प्रसन्न होकर एक दूसरे को बधाईयां दे रहे थे। पूरे कक्ष का वातावरण मंगलमय हो गया था। तभी राजगुरु सौमित्र ने महाराज से कहा, महाराज मुझे भी आपसे कुछ कहना हैं। फिर सबके मन अधीर हो गए अब राजगुरु क्या कहना चाहते है?। राजगुरु के मुख की गंभीरता से ये स्पष्ट था की वो जो भी कहने जा रहे हैं वो बात निश्चित ही अगत्य होगी। सब वो बात जान ने केलिए जिज्ञासु थे।
nice update bhai
 

ashish_1982_in

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राजगुरु क्या कहना चाहते हैं ये जान ने की सबको बहुत जिज्ञासा थी।


महाराज आप जानते हो की अब मेरी आयु हो गई हैं। मुझ पर राजगुरु और गुरुकुल के प्रधान आचार्यपद दोनो पद का भार है, किंतु अब में गुरुकुल के अचार्यपद से निवृत्त होना चाहता हुं। अब मैं राज, काज छोड़कर आध्यात्म की ओर प्रयाण करना चाहता हुं अतः मेरी आपसे ये विनती हे की मुझे गुरुकुल के आचार्यपद से निवृत्त करें।


राजगुरु की बात सुनकर महाराज, सेनापति वज्रबाहु, वृषाली, मृत्युंजय सबको थोड़ा धक्का लगा। ये क्या कह रहे हे आप राजगुर आप निवृत्त होना चाहते हैं? आपको ज्ञात है ना की आपके बिना ये राजमहल और गुरुकुल दोनो अपूर्ण है कृपया आप निवृत्त होने की बात मत कीजिए। महाराज ने राजगुरु से हाथ जोड़कर विनती की।


में राजगुरु के पद से निवृत्त नही हो सकता किंतु मुझे गुरुकुल के पद से निवृत्त कर दीजिए ये मेरे लिए और हम सबके लिए अच्छा होगा।


किंतु आपके बिना गुरुकुल चलाएगा कोन? आपसे अच्छा और आपसे बढ़कर आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा इसलिए आप शिष्यों केलिए ही आचार्यपद का त्याग मत कीजिए।


ऐसा किसने कहा की मुझसे अच्छा आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा? परिवर्तन श्रृष्टि का नियम है, यहां कोई भी हमेशा केलिए सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि नही रहता। "बहु रत्ना वसुंधरा" पृथ्वी पर हजारों एक से बढ़कर एक रत्न हैं। राजगुरु ने कहा।


किंतु हम गुरुकुल केलिए आप जैसा महान ज्ञानी आचार्य कहां से लायेंगे राजगुरु। महाराज मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति हैं जो मुझसे भी बढ़कर है। ऐसा कोन है राजगुरु कृपया बताए। मृत्युंजय.... मृत्युंजय गुरुकुल के आचार्यपद केलिए सर्वथा उचित है।


राजगुरु के मुख से मृत्युंजय का नाम सुनकर सबको अच्छा लगा। इस पद हेतु में मृत्युंजय का चयन करता हुं महाराज। राजगुरु में आपकी बात से सहमत हुं, सेनापति वज्रबाहु ने कहा।


महाराज अभी बिना कुछ कहे चुप है। आपकी क्या राय हैं महाराज? राजगुरु ने प्रश्न किया। आपका चयन कभी अनुचित हो ही नही सकता राजगुरु किंतु मृत्युंजय को ये पद स्वीकार्य होगा?


तुम क्या सोचते हो मृत्युंजय इस विषय में? राजगुरु ने मृत्युंजय के समीप जाकर उससे पूछा। में आपके जितना योग्य तो अभी नहीं हुं राजगुरु। देखो मृत्युंजय तुमने राज्य का महाराज पद लेने से मना किया क्योंकि वो तुम्हे भेंट में मिल रहा था, किंतु गुरुकुल का आचार्यपद तुम्हे तुम्हारी योग्यता से मिल रहा है।


गुरुकुल को तुम्हारे जैसे ज्ञानी और सुलझे हुए आचार्य की आवश्यकता है इसलिए मैं तुमसे ये अनुरोध करता हुं की इस पद का स्वीकार कर लो।


अगर आपको ये उचित लगता हे तो ठीक है मुझे ये पद स्वीकार्य हैं। मृत्युंजय की स्वीकृति से सब प्रसन्न हो गए।


समय अपनी गति से बीतने लगा। शुभ मुहूर्त में राजकुमारी वृषाली का विवाह मृत्युंजय से, लावण्या का विवाह कुमार निकुंभ से और भुजंगा का विवाह सारिका से हो गया। तीनो कन्याओं का विवाह एक ही मंडप में हुआ और तीनो का कन्यादान महाराज ने अपने हाथसे किया।


सब प्रसन्न होकर जीवन निर्वाह करने लगे। राजगुरु ने आचार्यपद मृत्युंजय को सौंप दिया। भुजंगा भी गुरुकुल में अपनी योग्यता के आधार पर शिक्षक बन गया। महाराज ने भी अपना राज्य कुमार निकुंभ को सौंप दिया और उसका मार्गदर्शन कर रहे थे। सारिका अब विष मुक्त होकर सामान्य हो गई।


और इस तरह प्रतिशोध और षडयंत्र से शुरू हुई एक कहानी का सुखद अंत हुआ।


समाप्त🙏



आप सब वाचकों ने मेरी कहानी "विष कन्या" को प्रेम से पढ़ा और बहुत पसंद किया हैं, आप के रिव्यू ने मुझे अच्छा लिखने का उत्साह प्रदान किया इसलिए मैं आप सबकl बहुत आभारी हुं। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बस ऐसे ही साथ जुड़े रहिए और उत्साह प्रदान करते रहिए यही विनती हैं। 🙏🙏
really very nice story brother
 
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