राजगुरु क्या कहना चाहते हैं ये जान ने की सबको बहुत जिज्ञासा थी।
महाराज आप जानते हो की अब मेरी आयु हो गई हैं। मुझ पर राजगुरु और गुरुकुल के प्रधान आचार्यपद दोनो पद का भार है, किंतु अब में गुरुकुल के अचार्यपद से निवृत्त होना चाहता हुं। अब मैं राज, काज छोड़कर आध्यात्म की ओर प्रयाण करना चाहता हुं अतः मेरी आपसे ये विनती हे की मुझे गुरुकुल के आचार्यपद से निवृत्त करें।
राजगुरु की बात सुनकर महाराज, सेनापति वज्रबाहु, वृषाली, मृत्युंजय सबको थोड़ा धक्का लगा। ये क्या कह रहे हे आप राजगुर आप निवृत्त होना चाहते हैं? आपको ज्ञात है ना की आपके बिना ये राजमहल और गुरुकुल दोनो अपूर्ण है कृपया आप निवृत्त होने की बात मत कीजिए। महाराज ने राजगुरु से हाथ जोड़कर विनती की।
में राजगुरु के पद से निवृत्त नही हो सकता किंतु मुझे गुरुकुल के पद से निवृत्त कर दीजिए ये मेरे लिए और हम सबके लिए अच्छा होगा।
किंतु आपके बिना गुरुकुल चलाएगा कोन? आपसे अच्छा और आपसे बढ़कर आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा इसलिए आप शिष्यों केलिए ही आचार्यपद का त्याग मत कीजिए।
ऐसा किसने कहा की मुझसे अच्छा आचार्य गुरुकुल को और नही मिलेगा? परिवर्तन श्रृष्टि का नियम है, यहां कोई भी हमेशा केलिए सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि नही रहता। "बहु रत्ना वसुंधरा" पृथ्वी पर हजारों एक से बढ़कर एक रत्न हैं। राजगुरु ने कहा।
किंतु हम गुरुकुल केलिए आप जैसा महान ज्ञानी आचार्य कहां से लायेंगे राजगुरु। महाराज मेरी दृष्टि में एक व्यक्ति हैं जो मुझसे भी बढ़कर है। ऐसा कोन है राजगुरु कृपया बताए। मृत्युंजय.... मृत्युंजय गुरुकुल के आचार्यपद केलिए सर्वथा उचित है।
राजगुरु के मुख से मृत्युंजय का नाम सुनकर सबको अच्छा लगा। इस पद हेतु में मृत्युंजय का चयन करता हुं महाराज। राजगुरु में आपकी बात से सहमत हुं, सेनापति वज्रबाहु ने कहा।
महाराज अभी बिना कुछ कहे चुप है। आपकी क्या राय हैं महाराज? राजगुरु ने प्रश्न किया। आपका चयन कभी अनुचित हो ही नही सकता राजगुरु किंतु मृत्युंजय को ये पद स्वीकार्य होगा?
तुम क्या सोचते हो मृत्युंजय इस विषय में? राजगुरु ने मृत्युंजय के समीप जाकर उससे पूछा। में आपके जितना योग्य तो अभी नहीं हुं राजगुरु। देखो मृत्युंजय तुमने राज्य का महाराज पद लेने से मना किया क्योंकि वो तुम्हे भेंट में मिल रहा था, किंतु गुरुकुल का आचार्यपद तुम्हे तुम्हारी योग्यता से मिल रहा है।
गुरुकुल को तुम्हारे जैसे ज्ञानी और सुलझे हुए आचार्य की आवश्यकता है इसलिए मैं तुमसे ये अनुरोध करता हुं की इस पद का स्वीकार कर लो।
अगर आपको ये उचित लगता हे तो ठीक है मुझे ये पद स्वीकार्य हैं। मृत्युंजय की स्वीकृति से सब प्रसन्न हो गए।
समय अपनी गति से बीतने लगा। शुभ मुहूर्त में राजकुमारी वृषाली का विवाह मृत्युंजय से, लावण्या का विवाह कुमार निकुंभ से और भुजंगा का विवाह सारिका से हो गया। तीनो कन्याओं का विवाह एक ही मंडप में हुआ और तीनो का कन्यादान महाराज ने अपने हाथसे किया।
सब प्रसन्न होकर जीवन निर्वाह करने लगे। राजगुरु ने आचार्यपद मृत्युंजय को सौंप दिया। भुजंगा भी गुरुकुल में अपनी योग्यता के आधार पर शिक्षक बन गया। महाराज ने भी अपना राज्य कुमार निकुंभ को सौंप दिया और उसका मार्गदर्शन कर रहे थे। सारिका अब विष मुक्त होकर सामान्य हो गई।
और इस तरह प्रतिशोध और षडयंत्र से शुरू हुई एक कहानी का सुखद अंत हुआ।
समाप्त
आप सब वाचकों ने मेरी कहानी "विष कन्या" को प्रेम से पढ़ा और बहुत पसंद किया हैं, आप के रिव्यू ने मुझे अच्छा लिखने का उत्साह प्रदान किया इसलिए मैं आप सबकl बहुत आभारी हुं। आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद। बस ऐसे ही साथ जुड़े रहिए और उत्साह प्रदान करते रहिए यही विनती हैं।
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