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Fantasy वो कौन था

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Nevil singh

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इसके आगे सप्तोश भी कुछ नहीं कह सकता था क्योकि उसने भी अपनी तरफ से, अपनी शक्तियों की सहायता से पूरी कोशिश कर ली थी लेकिन उस पागल का कोई पता नहीं चला था मानो उसका अस्तित्व ही नहीं हो

“चेत्री का इसके बारे में क्या कहना है” राजा ने माहोल को थोडा शांत करने के लिए कहा !

सप्तोश कुछ कहने ही वाला था की एक सैनिक दौड़ता हुआ आता है और कहता है की

“महाराज की जय हो, अभी-अभी राजवैद्यीजी ने बाबा सप्तोश को जल्द ही साधुबाबा के तम्बू में बुलाया है”

साधुबाबा की बात सुनकर सप्तोश शांत हो गया और जल्दी से उनके तम्बू की और चल पड़ा, पीछे-पीछे राजा भी चल पड़ा !



आज की रात पुरे गाव में ख़ामोशी छाई हुई थी, यहाँ तक की कुत्ते भी, जो रात भर भौकते रहते थे वे भी शांत थे जैसे वे भी कुछ होने की प्रतीक्षा कर रहे हो ! सुबह जो मंदिर में घटना हुई थी उससे पूरा गाव डरा हुआ था, राजा के सैनिक पुरे गाव में उस पागल बुड्ढ़े को तलाश कर रहे थे उस वजह से लोग आज अपनी दैनिक जरूरतों को भी पूरा नहीं कर सके थे ! पूरा गाव सोया हुआ था लेकिन कुछ लोग ऐसे थे जिनके आखो से नींद कोसो दूर थी, और उनमे से एक था-माणिकलाल !

माणिकलाल अपने खाट पर लेटे-लेटे करवटे बदल रहा था ! खुली छत के नीचे अपने आँगन में चाँद को देखकर सुबह से भी घटनाओ के बारे में सोच रहा था ! आज चाँद पूर्ण था, पूर्णिमा का दिन था फिर भी चन्द्रमा की शीतलता उसको चुभ रही थी !

‘पिछले ३ साल माणिकलाल के बहुत बुरे बीते थे, वह ऐसे धनवान से इतना दरिद्र हो गया था जैसे किसी की नजर लग गई हो ! नहीं, उसे ना तो शराब या जुए की लत लगी थी और ना ही उसका किसी असामाजिक तत्वों से सम्बन्ध था !’

‘माणिकलाल कपड़ो का एक बहुत बड़ा व्यापारी था, वो खुद ही कपडे बनाता था और कई दूर के गावो और अपने और दुसरे देश की राजधानियों में उसे बेच आता था, लगभग १०० से भी ज्यादा मजदुर उसके नीचे काम किया करते थे, उसका बुना हुआ कपडा बहुत मशहूर था लेकिन एक दिन अचानक उसकी बेटी सुरभि खेलते-खेलते बेहोश हो गई फिर उसके बाद तो जैसे माणिकलाल की दुनिया ही बदल सी गयी ! उसने बहुत से वैद्य को भी दिखलाया, अपना सारा धन पानी की तरह बहा दिया फिर भी सुरभि को कुछ राहत नहीं मिल पा रही थी’

‘सुरभि, जो महज अभी १९ वर्ष की ही थी, बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी, राजवैद्यी का कहना था की उसकी त्वचा धीरे-धीरे छुट रही है और हड्डिया भी भंगुर हो रही है ! सुरभि के इलाज के लिए उसके बाप ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी, सुरभि की बीमारी का असर उसकी कारोबारी पर भी पड़ रहा था ! धीरे-धीरे उसका कारोबार ख़त्म सा हो गया था और उसका घर-हवेली सब बिक गए थे, इसलिए उसने गाव से दूर जंगल की तरफ एक छोटी सी झोपडी बना ली थी ! उसकी इस जर्जर हालात के कारण उसके सारे मित्रो अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था लेकिन रमन ही एक एसा व्यक्ति था जो उसकी सहायता करता था और उसके साथ मित्रवत व्यवहार करता था’


‘अब पुरे ३ साल के बाद माणिकलाल के मन में एक आशा की किरण जगी थी साधूबाबा को देख कर, लेकिन उसको अब ऐसा लग रहा था की शायद परमात्मा भी मेरी बच्ची को ठीक नहीं देखना चाहते है, तभी मुझे सुरभि का ख्याल आते ही साधुबाबा का ये हाल हो गया, माणिकलाल साधुबाबा की इस हालत का थोडा बहुत जिम्मेदार खुद को भी मान रहा था-वाकई बहुत साफ़ हृदय का था माणिक !’

उधर दूसरी तरफ साधुबाबा के तम्बू में

“क्या हुआ राजवैद्यीजी, आपने हमें...”सप्तोश के इतना कहते ही चेत्री ने अपने होठ पर अंगुली रखते हुए सबको चुप करते हुए कहा !

वैसे तो सप्तोश बहुत अहंकारी और निर्दयी था लेकिन वह स्त्रियों की हमेशा सम्मान करता था, ऐसा इसीलिए नहीं की किसी ने उसको ऐसा कहा हुआ था, वह स्वाभाव से ही था !

“शांति से सुनो आप लोग” चेत्री ने अपना कान साधुबाबा के मुख के पास ले जाकर सप्तोश और राजा को इशारे से कहा !

सब लोग शांति से साधुबाबा के मुख के पास कान ले जाकर सुनने लगे

साधुबाबा कुछ अजीब सी भाषा में कुछ बडबडा रहे थे जैसा कोई बीमार और कमजोर व्यक्ति कराह रहा हो ! यह सुनते ही सप्तोश तो जैसे थोड़ी रहत सी मिली !

“बाबा ये कब से बोल रहे है” सप्तोश ने उत्तेजित होते हुए पूछा

“अभी कुछ ही पल पहले” चेत्री ने जवाब दिया “लेकिन ये बोल क्या रहे है और ऐसी भाषा मेरे पहले कभी नहीं सुनी” चेत्री ने जिज्ञासवश पूछा !

“ये एक प्राचीन भाषा है जो गुरु-शिष्य परंपरा से ही इसका आदान-प्रदान होता है इसके आगे बताना वैध नहीं है” सप्तोश ने अनुभवी अंदाज में कहा

“लेकिन ये कह क्या रहे है ?” इस बार राजा ने बिच में दखल देते हुए पूछा

सप्तोश फिर से माहोल हो गंभीर बनाते हुए कहता है की “एक पोधा है ‘जीजुशी’ जिसके धुएं की गंध से बाबा हो होश आ सकता है लेकिन उसका मिलना बहुत ही मुश्किल है”

“जीजुशी मेरे पुष्प शाला में उपलब्ध है” राजवैद्यी ने कहा

लेकिन जैसे सप्तोश उसके इस उत्तर से खुश नहीं था वो फिर कहता है “रात्रि के अंतिम प्रहर, उषा के ख़त्म होने से पहले इसकी आवशकता होगी”

गाव से राजधानी का सफ़र लगभग २ दिन का था, और बिना विश्राम के भी सफ़र करे तो भी डेढ़ दिन तो लगेगा ही, लेकिन इतना जल्दी, वो भी उषा के ख़त्म होने से पहले वहा जाकर आना असंभव ही था ! यही बात सबको परेशान कर रही थी !

इस बार सप्तोश को अपने ऊपर बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योकि.....
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Nevil singh

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गाव से राजधानी का सफ़र लगभग २ दिन का था, और बिना विश्राम के भी सफ़र करे तो भी डेढ़ दिन तो लगेगा ही, लेकिन इतना जल्दी, वो भी उषा के ख़त्म होने से पहले वहा जाकर आना असंभव ही था ! यही बात सबको परेशान कर रही थी !

इस बार सप्तोश को अपने उपर बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योकि उसके शक्तियों की गतिसीमा निश्चित थी, १ दिन का सफ़र वो १ प्रहर तक कर सकता था, वो अपनी इस सीमा को बढ़ा सकता था लेकिन मद, प्रमाद एवं आडम्बर के चलते उसने कभी ध्यान नहीं दिया था, इसी प्रमाद के कारण आज वो हताश हो चूका था, उपाय सामने होते हुए भी वो कुछ नहीं कर सकता था

उषा के समाप्त होने में अभी डेढ़ प्रहर ही बाकि था, सभी लोग गंभीर मुद्रा में साधुबाबा के तम्बू में उस जीजुशी का हल खोज रहे थे, माहोल बहुत शांत और समय बहुत तेजी से बीत रहा था

यकायक राजा बोल उठा

“क्या वो पोधा इस गाव के जंगलो में नहीं मिल सकता है”

“नहीं महाराज, जीजुशी केवल बहुत ही ठन्डे इलाको में ही पनपता है, इसका यहाँ मिलना असंभव है, जबतक की ‘अरे हा’ “ कहते हुए चेत्री उचल सी पड़ी !

“क्या हुआ राजवैद्यीजी ?” चौकते हुए सप्तोश बोल उठा

“मेने जीजुशी की ४ खुराक अर्थात जीजुशी की पत्तियों का चूर्ण की पुडिया, इस गाव के वैद्य को दे रखी है जो एक लड़की के उपचार के लिए पिछले महीने ही ले गया है” चेत्री ने अपनी दूरद्रष्टता का परिचय देते हुए कहा !

“हम अभी अपने सैनिक को भेजते है” राजा तत्काल बोल उठता है !

“रुकिए महाराज, उसे में ही लेकर आती हु, वो थोडा अड़ियल स्वाभाव का है” चेत्री अपना कपडे का छोटा झोला उठाकर चल पड़ती है !

“में भी साथ आता हु” कहते हुए सप्तोश भी पीछे-पीछे चल पड़ता है !

राजा मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रहा था की कल सुबह तक सब कुछ ठीक हो जाये ताकि वो अपनी राजधानी चलकर शासन व्यस्था को संभाल सके ! युवराज अश्वनी अभी तक शासन सँभालने के योग्य नहीं हुआ था, राज्य का विस्तार बड़ा होने के साथ-साथ जिम्मेदारी और खतरा भी बहुत बढ़ जाता है ! घुसपैठी, कब और कहा से हमला कर दे कोई पता नहीं चल सकता और मंत्रियो के हाथ भी सत्ता सौपना भी सही नहीं है कब कोई तख्तापलट कर दे कुछ अंदाजा नहीं लगा सकते है ! धन के लालच में विश्वासपात्र भी कम होते जा रहे थे, और राजा का अधिक समय तक राजधानी से बाहर रहना वैसा ही लग रहा था जैसे बिना पानी से कोई कंठ तड़प रहा हो !



आज चाँद की रोशनी में सारे रास्ते दिख रहे थे, चाँद अपने पूर्ण यौवन पर था लेकिन इस यौवन की आग में आज कोई जल रहा था और इस जलन को सिर्फ जीजुशी का धुँआ ही मिटा सकती थी जिसको लेने के लिए राजवैद्यी चेत्री और सप्तोश निकल चुके थे उस गाव के बुड्ढ़े वैद्य के पास, जिसका नाम था-दोजू !

गाव के पच्शिम में ही दोजू का झोपड़ा था, नदी किनारे ! मंदिर से ज्यादा दूर नहीं था !

“अड़ियल से क्या मतलब है आपका, और नाम क्या है उसका ?” सप्तोश ने चलते-चलते राजवैद्यी से पूछा !

“दोजू, जैसा की नाम से भी अजीब है, उसके मोलभाव करने का तरीका थोडा अलग है, धन से उसका कोई मतलब नहीं है, वो वस्तु के बदले वस्तु की मांग करता है”

“तो आप उनसे मोलभाव कैसे करती है”

“मै धन के बदले उससे जानकारिया लेती हु, जो उसके अलावा और कही नहीं मिलती है, पता नहीं वो कहा से लाता है सब कुछ”

आज चेत्री पहली बार दोजू से कुछ मांगने जा रही है, पता नहीं वो बदले में क्या मांगेगा ! इसी उधेड़बुन में वो आखिरकार दोजू के झोपड़े तक पहुच ही जाती है !

दोजू का झोपड़ा कुछ ज्यादा बड़ा नहीं था और ना ही कुछ ज्यादा छोटा ! नदी के किनारे ज्यादा लोग भी नही रहते थे, जिनका गुजारा मछलियों से होता था वो ही वहा रहते थे, दोजू के झोपड़े को मिलाकर वहा मुश्किल से ५-७ कच्चे घर थे ! उस समय दोजू अपने झोपड़े के पीछे नदी के किनारे कुछ पका रहा था शायद कोई बूटी वगेरह होगी !

तभी उसके दरवाजे पर जोर से दस्तक हुयी ! उसने पहले तो उसे अनसुना पर दिया फिर थोडा सा मुस्कुराते हुए वो अपनी जगह से धीरे से उठा और अपने झोपड़े के पिछले दरवाजे से अन्दर चला जाता है

सप्तोश एक बार फिर थोडा और जोर से दरवाजा खटखटाता है, दरवाजे के उस तरफ से कोई आवाज आती है और धीरे से दरवाजा खुल जाता है !

“कोन हो भाई, इस बुड्ढ़े को कोई शांति से आराम भी नहीं करने देते हो” कहते हुए दोजू दरवाजा खोल देता है और वापस अन्दर की और चल देता है

“माफ़ करना दोजू, लेकिन हालात ही कुछ ऐसे बने की इस वक्त आपको परेशनी हुयी” कहते हुए चेत्री अन्दर चली है और उसके पीछे सप्तोश !

जैसे ही सप्तोश अन्दर जाता है उसका मन किसी आशंका से भयभीत हो उठता है, वो अपने को थोडा भारी महसूस करता है जैसे किसी ने उसको जंजीरों से जकड लिया हो

“माफ़ी और परेशानी, ये शब्द किसी वैद्य के मुह पर अच्छे नहीं लगते राजवैद्यी” दोजू अपने हाथ से लकड़ी के गठ्ठा पर बैठने का इशारा करते हुए कहा !

इतना सुनते ही चेत्री को थोड़ी ग्लानी सी हुयी ! उसे एसा लगा की मोलभाव के प्रथम चरण में वो पराजित हो गयी हो !

दोजू के झोपड़े में कुछ ज्यादा सामान नहीं था लेकिन जितना भी था वो सब व्यस्थित और ऐसा की वो कही नहीं मिले ! सप्तोश ये सब देख कुछ सोच रहा था की अचानक दोजू ने उसकी तरफ इशारा करते हुए प्रश्न पूछा !

“तेरे यहाँ आने का प्रयोजन बता ऐ मांत्रिक”

इतना सुनते ही सप्तोश भय से व्याकुल हो उठा ! उसने एसा कभी महसूस नहीं किया था,

‘इसको कैसे पता की में कौन हु ?’

‘आखिर कौन हैं ये ?’

‘कही यही वो तो पागल बुड्ढा तो नहीं जो वेश बदल कर सुबह मंदिर में आया था ?’

‘कही इसी ने तो अपना कुछ स्वार्थ सिद्ध करने के चक्कर में ये सब तो नहीं किया ?’

“तेरे मन की सारी शंकाए व्यर्थ है ऐ मांत्रिक, जिस बुड्ढ़े की तुम सुबह से खोज कर रहे हो वो तो अभी शमशान में कही विचर रहा होगा” दोजू सब कुछ जानने के अंदाज में कहा

‘शमशान’ ये शब्द सुनते ही सप्तोश के कान खड़े हो गए ‘हा, शायद ये सही कह रहे है मेरी मांत्रिक शक्तिया शमशान में प्रवेश नहीं कर सकती, तभी वो बुड्ढा अब तक बचा रहा है’

“हमें जीजुशी चाहिए दोजू” समय की कमी को देखते हुए चेत्री तुरंत मुद्दे पर आ जाती है “क्या तुम्हारे पास वो अभी भी है”

दोजू ‘हा’ में सर जुकाता है

“जल्दी से अपना दाम बताओ, हमें जल्दी से निकलना है” चेत्री बिलकुल भी समय व्यर्थ नहीं गवाना नहीं चाहती थी !

“लेकिन जीजुशी की जरुरत तुम्हे नही इस मांत्रिक को है, मोल इसे ही चुकाना होगा” दोजू ने कहा जैसे कोई खजाना हाथ में लग गया हो !

“क्या चाहिए तुम्हे ?” सप्तोश मुश्किल से पहली बार इस झोपड़े में आकर कुछ बोला था !

इस पर दोजू ने सप्तोश के आखो में आखे डालकर मुस्कुराते हुए धीरे ने कहा


“कौड़म”
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Nevil singh

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‘शमशान’ ये शब्द सुनते ही सप्तोश के कान खड़े हो गए ‘हा, शायद ये सही कह रहे है मेरी मांत्रिक शक्तिया शमशान में प्रवेश नहीं कर सकती, तभी वो बुड्ढा अब तक बचा रहा है’

“हमें जीजुशी चाहिए दोजू” समय की कमी को देखते हुए चेत्री तुरंत मुद्दे पर आ जाती है “क्या तुम्हारे पास वो अभी भी है”

दोजू ‘हा’ में सर जुकाता है

“जल्दी से अपना दाम बताओ, हमें जल्दी से निकलना है” चेत्री बिलकुल भी समय व्यर्थ नहीं गवाना नहीं चाहती थी !

“लेकिन जीजुशी की जरुरत तुम्हे नही इस मांत्रिक को है, मोल इसे ही चुकाना होगा” दोजू ने कहा जैसे कोई खजाना हाथ में लग गया हो !

“क्या चाहिए तुम्हे ?” सप्तोश मुश्किल से पहली बार इस झोपड़े में आकर कुछ बोला था !

इस पर दोजू ने सप्तोश के आखो में आखे डालकर मुस्कुराते हुए धीरे ने कहा


“कौड़म”

ये सुनते ही जैसे सप्तोश की जान हलक में आ गई !

‘पुरे ८ साल लगे थे इसे हासिल करने में’

‘कितनी मेहनत से प्राप्त किया था’

‘पूरी जान लगा दी थी’

‘और आज इसे कुछ पत्तो के बदले में मेरी ८ साल की कमाई दे दू’

“इतना मत सोचो मांत्रिक, तेरे गुरु की जान की कीमत ये तो कुछ भी नहीं है, तेरी जगह अगर तेरा गुरु होता तो उससे तो में कुमुदिनी ही मांग लेता” दोजू ने बड़े ही आत्मविश्वास और चतुराई के साथ कहा !

‘क्या !!!’

‘बाबा के पास कुमुदिनी भी है’

‘लेकिन कैसे’

‘इतने वर्षो से में बाबा के साथ रहा हु मुझे तक पता नहीं चला’

‘आखिर है कौन ये आदमी’

“ये दुनिया तेरी सोच से परे है बालक, आखिर तू है तो एक मानव का बच्चा” दोजू ने ये शब्द गोपनीयता ढंग से कहा और हल्का का मुस्कुरा दिया !

पहली बार दोजू ने सप्तोश को ‘बालक’ कह के संबोधित किया था ! सप्तोश अपने आप को बहुत ही हीन और छोटा महसूस कर रहा था, इतना छोटा तो वह अपने गुरु के सामने भी कभी महसूस नहीं किया था !

चेत्री को दोजू की बाते कुछ भी समझ नहीं आ रही थी लेकिन एक वैद्य होने के नाते उसे समय की कद्र भी उसे पता था की दोजू की रहस्यमयी बाते कभी पूरी नहीं होगी और वो अपनी कीमत लेकर ही मानेगा पर उषा का प्रहर शुरू ही हुआ था

“दोजू को जो भी चाहिए उसे दे दो बाबा सप्तोश, हमारे पास समय बहुत कम है”

सप्तोश भी समय की चाल समाज रहा था लेकिन वह कौड़म को इतनी आसानी के साथ नहीं गवाना चाहता था, वो उसको बचने की कम-से-मन एक आखिरी कोशिश तो करना ही चाहता था !

यही तो सिखाया था उसके गुरु ने, “चाहे समय कैसा भी हो, स्तिथि कैसी भी हो, हालत कितना भी मझबूर कर दे झुकाने को लेकिन जो आसानी से हार मान लेना है उसी समय उसकी आत्मा भी मर जाती है, फिर जीवन के हर कदम पर उसको चैन नहीं मिलता है” इसी के साथ वह एक कोशिश करता है

‘अपने इष्टदेव को याद कर, मन-ही-मन एक मंत्र का स्मरण करता है’

“तेरी सारी कोशिशे यहाँ व्यर्थ है बालक, तू अभी भी उस मुकाम तक नहीं पंहुचा है, तेरा कंसौल यहाँ कुछ काम नहीं करेगा” दोजू थोडा उत्तेजित स्वर में बोलता है


कंसौल एक अनिष्ट मंत्र है जिससे शत्रु के गुर्दे में अचानक दर्द उत्पन्न होता है और वो खून की उल्टिया करने लगता है, २ सप्ताह तक वो शय्या से नहीं उठ पाता है

सप्तोश अपनी पहली शुरुआत ही अपने सबसे शक्तिशाली मंत्र से करता है लेकिन उसका मन्त्र जागने से पहले ही उसकी काट हो जाती है, इससे वह हक्का-बक्का रह जाता है

“लेकिन आपको उसकी क्यों जरुरत है”

पहली बार सप्तोश उसको सम्मान के साथ बोलता है

“इलाज के मोल में इलाज, मुझे भी एक लड़की के इलाज के लिए इसकी जरुरत है, जिसके लिए में जीजुशी ली थी” दोजू चेत्री की तरफ देखकर बोलता है

“लेकिन उस लड़की का कोई इलाज संभव नहीं है दोजू, तुम उसे जीवन भर शय्या पर ही देख पाओगे !

“ये प्रकति बहुत ही अजीब और रहस्यों से भी भरी है राजवैद्यीजी” उसी रहस्यपूर्ण ढंग से दोजू बोलता है

समय की कमी को देखता हुआ सप्तोश आखिर कौड़म देने को तैयार हो जाता है

वह अपने थैले से एक मिश्र धातु का एक छोटा सा गोल डिब्बा निकलता है और उसे धीरे से देखते हुए दोजू के आगे बढाता है

दोजू मुस्कुराता हुआ वो डिब्बा ले लेता है और उसके बदले में उसे जीजुशी दे देता है !

अब ज्यादा देर ना करते हुए वह जीजुशी को चेत्री के हाथो में थमा देता है और जल्दी दे उस झोपड़े से बाहर निकलता है

बाहर निकलते ही वह अपने आप को एक स्वतंत्र कैदी के रूप में महसूस करता है ! चेत्री के मन अभी अनेको सवाल थे लेकिन समय की गंभीरता को समझते हुए वो मंदिर की दिशा में चल पड़ती है

दोजू वही अपने झोपड़े में बैठा हुआ मुस्कुराते हुए उन दोनों को जाते हुए देखता है

थोड़ी देर बाद वह अपनी जगह से उठता है और वापस अपने झोपड़े के पीछे चला जाता है, वहा आधे जले अंगारों के पास बैठकर सुबह की हलकी ठंडी में थोड़ी तपीश महसूस करता है ! वह लकड़ी से अंगारों को थोडा साफ़ करके उसे अपनी छोटी सी मिटटी की चिलम में भरता है और पास में ही मछुआरो द्वारा आ रहे सुबह के लोकगीतों की आवाज का आनंद लेते हुए धीरे-धीरे चिलम का कश खिचता है !

सुबह की लालिमा का उदय होता है




पहला अध्याय समाप्त
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Nevil singh

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द्वितीय अध्याय



सुबह का समय, उषा काल की समाप्ति !

बहुद ही अद्भुत नजारा होता है ! सूर्य की लालिमा चारो तरफ बिखरी रहती है, वातावरण में नमी का अहसास मन को छुकर जा रही थी मानो ऐसा लग रहा हो जैसे एक माँ अपने प्यारे लाडले को ममता भरे स्पर्श से जगा रही हो ! उसी तरह माँ प्रकति भी अपनी संतान को हल्की-हल्की ठंडी वायु के स्पर्श से सबको अपने कर्म की और प्रेरित कर रही थी !

सूर्य भी मानो प्रकति के प्रेमवश अपनी किरणों से आखो को शीतलता प्रदान कर रहे थे, जंगलो से आ रही मोर की मीठी धुन कर्मचक्र के आगाज का शंखनाद कर रहे थे !

कद्पी की प्राकतिक सम्पदा थी ही बहुत निराली,

हा, कद्पी नाम ही था उस गाव का,

स्थानीय भाषा में सब उसको इसी नाम से पुकारते थे

वैसे सही नाम था उसका ‘कदर्पी’

अपने नाम के अनुरूप ही यह गाव अपने अन्दर बहुत सारे रहस्यों और ज्ञान का भंडार भरे हुए था,

लेकिन मनुष्य,

इस प्रकति में चंद समय का मेहमान,

अपने आपको ही इसका ईश्वर समझने लगता है,

बड़ा ही स्वार्थी,

कपट,

और बहुत से आडम्बरो के मध्य छुपा होता है ये,

जिनमे से एक था बाबा बसोठा,

अपने जीवन में बहुत से चल-कपट किये,

बहुत से राजा-महाराजो को अपने शब्दों के मायाजाल में फसाकर अपना स्वार्थ सिद्ध किया था, वैसे था भी वो बहुत शक्तिशाली, कितने ही प्रेत और महाप्रेतो को पकड़ कर उनसे चाकरी करवाई थी, बहुत से युद्धों को अपने सिर्फ एक गर्जना से ही रुकवा दिया था, जीवन में बहुत से द्वंद्ध जीते थे कभी भी पराजीत नहीं हुआ था, इन सबके ही कारण वह बहुत अहंकारी भी था !

उसका अहंकारी होना जायज भी था,

एक साधारण से मनुष्य के पास यदि थोडा बहुत ही धन आ जाये तो भी अपने-आपको राजा समझने लगता है,

यहाँ तो बात मृत्यु को जीत लेने की थी,

लेकिन अहंकारी होना कोई गलत नहीं है पर साथ में विवेक का ना होना,

यही सबसे बड़ी भूल है,

बिना विवेक के मनुष्य निर्दयी और अत्याचारी हो जाता है,

सही गलत को पहचानना भूल जाता है,

और इसी भूल के कारण,

उसके कर्मचक्र ने उसे इस गाव में बुलाया था !



बाबा मंदिर के प्रांगण में नंदी की प्रतिमा के समकक्ष ध्यान लगाये बैठे थे,

कल जो घटना हुयी उसका चिंतन कर रहा था, ऐसा उसके जीवन में पहली बार हुआ था,

अब उसका लक्ष्य बदल चूका था जिस हेतु उसके राजा को यहाँ बुलाया था

होश आते ही बाबा ने राजा जो वापस भेज दिया था, लेकिन अपने सारे शिष्यों को भी राजा के साथ भेज दिया ताकि आगे के कार्य में उसको कोई व्यवधान न पैदा हो, कुछ गिने-चुने शिष्यों को छोड़कर !

चेत्री, जब से कल की घटनाये उसके सामने से घटी है उसको लगा की इस दुनिया में और भी बहुत कुछ है जानने के लिए समझने के लिए ! इसीलिए वह सप्तोश के साथ ही रुक जाती है !

मंदिर में बड़े-बड़े घंटो और नगाडो के साथ सुबह की पूजा हो रही थी लेकिन वो आवाजे जैसे बाबा को सुनाई भी नहीं पड़ रही थी, उसको तो बस एक ही वाक्य उसके सर में गूंज रहा था जो उस पागल ने कहा था


“स्वर्णलेखा, नहीं आई ना ? हा हां हा .......”

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मंदिर में बड़े-बड़े घंटो और नगाडो के साथ सुबह की पूजा हो रही थी लेकिन वो आवाजे जैसे बाबा को सुनाई भी नहीं पड़ रही थी, उसको तो बस एक ही वाक्य उसके सर में गूंज रहा था जो उस पागल ने कहा था

“स्वर्णलेखा, नहीं आई ना ? हा हां हा .......”

‘हा’

‘स्वर्णलेखा ही कहा था उसने’

‘मेरे कानो ने साफ-साफ सुना था’

‘स्वर्णलेखा’

‘लेकिन’

‘उसको कैसे पता’

‘वो भी एक गाव में रहने वाले को’

‘एक पागल को’

‘नहीं-नहीं’

‘वो तो पागल था’

‘पागल तो कुछ भी बोल लेता है’

‘फिर भी स्वर्णलेखा ही क्यों बोला ?’

बाबा बसोठा के मन में अंतर्द्वंद्ध चल रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था की वो किस बात पर यकीन करे, उसके गुरु की बात पर या उस पागल ने जो कहा था उस पर !

‘गुरु ने तो कहा था की स्वर्णलेखा का जिक्र ना तो कोई पुस्तकों में है और ना ही कोई अन्य ग्रंथो में, और ना की किसी व्यक्ति के पास, ये तो सिर्फ गुरु के पिता को ही पता थी जिन्होंने २५० वर्षो की तपस्या से उस वेताल से प्राप्त की थी जो अपनी जाति का आखिरी ही बचा था, लेकिन पुत्रमोह के कारण उस अज्ञानी ने वो ज्ञान मेरे गुरु को दे दिया और उनसे मेने छीन लिया था’

‘आखिर स्वर्णलेखा की जानकारी उस पागल के पास आई कैसे ?’

‘क्या मुझे उस पागल के पीछे जाना चाहिए’

‘नहीं-नहीं’

‘क्या पता ये कोई चाल हो’

‘किसकी हिम्मत जो मुझे छल सके’

‘लेकिन फिर भी’

इस प्रकार की उधेड़बुन उसके मन में एक चक्र की भांति गोल-गोल घूम कर वापस उसी स्थान पर ले आता है जहा से उसने सोचना शुरू किया था “स्वर्णलेखा”

बाबा बसोठा को अपने जीवन में कभी भी भय नहीं लगा था, अपने गुरु की हत्या करते समय भी उसको तनिक भी भय नहीं लगा था, लेकिन कल की घटना से वो अचानक भय से व्याकुल हो गया जिससे उसके मस्तिस्क की नाडिया पहली बार ऐसा अनुभव करने पर कार्य करना रुक सी गयी थी, इस वजह से वो बेहोश हो गया था ! पहली बार उसने अपने जीवन में डर का अनुभव किया था क्योकि बात उसके ७९ वर्ष की तपस्या और सारी सिद्धियों के व्यर्थ जाने की थी और साथ में १००० वर्षो तक गुलामी की थी ! उसके लिए समय इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना गुलामी थी ! क्योकि उसने समय को तो जीत ही लिया था लेकिन “स्वर्णलेखा” की गुलामी स्वयं उस वेताल के लिए दुष्कर थी !

इन सभी विचारो से वह इतना उलझ सा गया की उसे पता भी नहीं चला था ! अपरान्ह, हो चूका था लेकिन इतनी गर्मी में भी धुप की तपीश और गर्म हवा का मानो उसे कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था वो अभी भी वही बैठा हुआ था !

‘अचानक उसने आखे खोली’

‘जैसे उसको कुछ सुझा’

‘जैसे इस अंतर्द्वंद से विजय सी पा ली हो’

वो तुरंत उठा और अपने तम्बू में चला गया और साथ ही सबको ये चेताया की कोई भी अगले ३ प्रहर तक उस से संपर्क नहीं करेगा !

.

.

.

कही दूर देश के पर्वतो पर कोई बहुत ही जल्दी-जल्दी नीचे उतर रहा था ! उतर क्या रहा था, दौड़ रहा था, गिर रहा था, उठकर वापस भाग रहा था, सियार की सी फुर्ती थी उसमे ! बड़ी-बड़ी भूरी आखे, कंधो तक बाल, बड़ा-सा कद, पिचका हुआ शरीर, रीड झुकी हुयी, बड़ी सी ललाट, चेहरे पर भय, बस भागे ही जा रहा था और बस एक ही वाक्य रटे जा रहा था –


“वो आ गया है”

“वो आ गया है”

.

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आज तीसरा दिन था, अंतिम दिन था माणिकलाल के लिए, उस अजनबी का कपडा बुनकर तैयार करने में, जो तीसरे दिन बाद आने वाला था, कल का दिन उस बाबा के चक्कर में सबका व्यर्थ चला गया था, आज सुबह से माणिकलाल उस अजनबी का कपडा बुनने में व्यस्त था

“सुनो जी, अब खाना भी खा लो, सुबह से बुन रहे हो, बचा-कुछ शाम को तैयार कर लेना” बकरी को चारा देने के बाद निर्मला, आँगन में आकर माणिकलाल को आवाज देती है !

निर्मला, माणिकलाल की भार्या, बहुत ही सुलझी हुयी और विदुषी महिला थी, वो माणिकलाल जितनी भोली नहीं थी दीन-दुनिया की अच्छी समझ थी उसे ! मुसीबत के समय, उसी की सोच से माणिकलाल अपने आप को सुरक्षित समजता था !

काफी अच्छी और सुगठित देह वाली थी निर्मला की !

‘यौवन से पूर्ण’

‘लालिमा लिए हुए चेहरा ‘

‘चौड़ी-सुन्दर आखे’

‘विशाल वक्ष-स्थल’

‘मांसल देह’

‘गौर-वर्ण ‘

वाकई में पत्नी को लेकर बहुत ही भाग्यशाली था माणिकलाल !

निर्मला की आवाज सुनकर माणिकलाल, विचारो से बाहर आकर, हाथ-पैर धोकर नीचे चटाई पर बैठता है जो निर्मला ने अभी-अभी बिछाई थीं !

“में सोच रहा था की जल्दी से इस कपडे का काम ख़त्म करने सुरभि को वैद्यजी के यहाँ ले चलू” माणिकलाल बैठता हुआ बोलता है

“अब उसकी कोई जरुरत नहीं है” निर्मला भी पास में बैठती हुयी बोलती है !

ये सुनकर माणिकलाल चौक जाता है “क्या हुआ, वैद्यजी को देने के लिए घर में कुछ नहीं है क्या ??” अपनी हालत पर तरस खाकर बोलता है

“नहीं-नहीं, वो मछुआरा दक्खन बोल रहा था की वैद्यजी ने कहा है की कल वो यही आने वाले है” खाना परोसते हुए निर्मला बोली !

“कल वैद्यजी आ रहे है !!” माणिकलाल के मन में कुछ शंका सी होने लगी

दोजू, ज्यादातर झोपड़े से बाहर नहीं निकलता है, जब तक की कोई महत्वपूर्ण कार्य ना हो ! कल दोजू का माणिकलाल के यहाँ आना, माणिकलाल को अजीब सा लग रहा था और कुछ ख़ुशी भी थी, लेकिन इन सब बातो को नजरअंदाज करके माणिकलाल खाना खाकर वापस काम पर लग जाता है !

लेकिन माणिकलाल से थोडा दूर दक्षिण में कोई था जो अभी चल रही समस्या को नजरअंदाज नहीं कर सकता था ! पुरे तम्बू में अँधेरा कर रखा था ! अभी-अभी संध्याकाळ शुरू ही हुआ था लेकिन सूर्य की किरण तम्बू में आने को बेताब, उसे जबरदस्ती रोका गया था ! अँधेरे में चारो तरफ सब कुछ-ना-कुछ व्यवस्थित ढंग से बिखेरा गया था, राख से धरती पर कुछ आकृतिया बनायीं गयी थी !

बाबा बसोठा एक तरफ मानव चर्म के आसन पर बैठ कुछ मंत्र का उच्चारण कर रहा था, धीरे-धीरे मंत्र घोर होते जा रहे थे, एक तरफ सूर्य सबको अंतिम दर्शन देकर चन्द्र को आशीर्वाद दे रहा था तो दूसरी तरफ तम्बू में रहस्यमयी रोशनी की उदय हो रहा था, और वो रोशनी प्रकट हो रही थी एक मानव कपाल से, उसके गुरु के कपाल से !

‘हा, वो बाबा बसोठा एक कपालिक था’

‘लेकिन सब उसे अबतक मांत्रिक ही समझ रहे थे’

‘कपालिक’

‘वो भी उच्चकोटि का’

‘एक सिद्ध’

‘एक दम्भी’

‘उसने सप्तोश को एक हेतु के रूप में चुना था, जो राजा के द्वारा पूर्ण होता था’

‘लेकिन अब वो उस पागल बुड्ढ़े का पता लगाने में व्यस्त था, और उसका पता बस लग ही गया’

बाबा बसोठ मंत्रो में व्यस्त था, उस कपाल से धीरे-धीरे सफ़ेद रंग की रोशनी स्प्फुरित होती है, और वो रोशनी पुरे तम्बू में फ़ैल जाती है, बाबा कपाल को उठा कर उसके कान में प्रश्न पूछता है और उसे जवाब मिलता है – “ब्रह्म शमशान”

बाबा बसोठ चौक जाता है

ब्रह्म-शमशान

‘वो भी इस गाव में’

‘और क्या-क्या छिपा पड़ा है इस गाव में’

‘वो बुड्ढा उस श्मशान में वास करता है’

‘तब तो मुझे आवश्यक जानकारिया जुटानी होगी’

‘आवश्यक सामग्री चाहिए होगी’

‘पूर्ण रात्रि तैयारी करनी होगी’

‘तब जाकर उसका सामना करना होगा’

थोड़े समय पहले उस बुड्ढ़े को पागल समझने वाला बाबा बसोठा, अब उससे सचेत हो गया था, उस उसके सामने जाने पर भी उसे रात्रि भर तैयारी करनी पड़ रही थी

कल पूर्णिमा थी, आज कृष्ण-पक्ष की पहली तिथि है, बाबा बसोठ पूर्ण रात्रि की तैयारी कल दूसरी तिथि में ही कर सकता था

रात्रि का पहला प्रहर, प्रदोष शुरू हो चूका था ! बाबा बसोठ तम्बू से बाहर निकल कर सप्तोश तो उस आवश्यक सामग्री के बारे में बताता है जो कल संध्या तक उसे उपलब्ध कराना था !

सप्तोश बार-बार आज सुबह से बाबा का निरक्षण कर रहा था उसे बाबा कुछ बदले-बदले से लग रहे थे, ऐसा उसने पहले कभी नहीं देखा था

‘वो तेज’

‘वो अभिमान से युक्त बोली’

‘एक तरह का अदम्य साहस’

सब कुछ जैसे कही खो सा गया था ! सप्तोश इसी बात से परेशान था, वो कुछ निश्चय कर चूका था, बस उसे इन्तेजार था सब के सो जाने का !

सब के अर्थात बाबा बसोठ, चेत्री और डामरी के !

‘डामरी भी यही रुकी हुयी है’

‘बाबा ने उसको और सप्तोश को छोड़कर सबको जाने के लिए कह दिया था’

‘डामरी से कुछ विशेष प्रयोजन था उसका’

वैसे भोजन आदि की व्यवस्था सब डामरी ही करती थी, वो एक गाव की अनाथ बच्ची थी जो अपने मामा के साथ रहती थी, लेकिन उसका मामा बहुत लोभी था, लालची था !

उसे मनुष्य और वस्तुओ में भेद करना नहीं आता था,

बेच दिया उसने डामरी को उस बाबा बसोठ को,

बेच दिया उसने अपनी बहिन की आखिरी निशानी को,

अपनी बहिन की आत्मा को !

‘चार साल हो गए डामरी को’

‘बाबा की साध्वी हुए’

’२४ वर्ष की थी डामरी’

‘चेहरे से भोलापन और आखो से चंचलता साफ झलकती थी उसके’

‘श्याम-वर्ण’

‘मांसल देह’

‘कसे हुए अंडाकार वृक्ष-स्थल’

‘कसा हुआ बदन था उसका’

‘भारी कसे नितम्ब’

‘उसके बाह्य अंग अपना यौवन चीख-चीख के मादकता जता रहे थे’

‘गज-गामिनी सी मस्त चाल थी उसकी’

सुरक्षित था उसका यौवन अभी-तक ! बाबा बसोठा की साध्वी होने के कारण कोई भी उस पर आख उठा कर नहीं देख सकता था ! बाबा ने भी उसको हाथ नहीं लगाया था अभी तक ! सुरक्षित थी वो अभी-तक, बाबा के एक गुप्त कार्य के लिए !

.

.

.

.

रात हो चुकी थी, लेकिन वो शख्स अभी-भी भागे जा रहा था, थकान उसके चेहरे पर किंचित मात्र भी नहीं थी, सहसा वो रुका जैसे उसे कुछ याद आया हो !


‘वो रुका’

‘कुछ क्षण विचार किया’

‘और पुनः दौड़ने लगा लेकिन’

‘इस बार उसने दिशा बदल दी’

‘अब वो उन्ही पहाड़ो के पूर्वी और रुख कर लेता है’

‘अब जैसे थोडा भय शांत हुआ लेकिन उसके होठो पर एक ही वाक्य’


“वो आ गया है”

.

.

.

.

मध्य रात्रि, लेकिन वातावरण चन्द्र की रोशनी से प्रकाशमान था ! सारे जीव अपने-अपने आशियाने में बैठे आराम कर रहे थे ! रात्रि के जीव विचरण कर रहे थे ! अभी-अभी एक व्यक्ति, सर और चेहरे पर गमछा बांधे, धीरे-धीरे चलता हुआ मंदिर की दिवार को फांद कर बाहर निकल जाता है और रुख करता है गाव के पश्चिम की और ! गाव के शमशान की और !

अभी चंद ही पल बीते होंगे की, बाबा को कुछ सुनाई सा देता है ! बाबा अपने तम्बू के उठ बैठते है और ध्यान से सुनते है !

‘हा ये नगाडो की ही आवाज है’

‘लेकिन इस वक्त’

बाबा अपने तम्बू से बाहर निकलता है, उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता है ! एक हल्की सी गीली चन्दन की खुशबु उसके नथुनों में भर जाती है, खुशबु इतनी स्पष्ट थी की वो उसे नकार नहीं सकता था ! उसे कुछ आलौकिकता का अहसास होता है !

बाबा आखे बंद करता है और कुछ मंत्र बुदबुदाता है और फिर आखे खोलता है

“अद्भुत” उसके मुह से ये शब्द निकल पड़ता है

उसके सामने जो द्रश्य था उसकी कल्पना करना भी सामान्य मनुष्य के लिए असंभव सा था, कोई इस समय इसे देख ले तो चारो खाने चित हो जाये !

लेकिन बाबा को अनुभव था

‘पूरा मंदिर, अलोकिक दीपो से देदीप्यमान रखा था’

‘बड़े-बड़े चांदी के नगाडो से पूरा मंदिर जैसे जागृत हो रहा हो’

तभी बाबा देखता है

‘एक आदमी शिव की भव्य प्रतिमा के सामने खड़ा था’

‘लम्बा-चौड़ा’

‘हष्ट-पुष्ट’

‘सामान्य व्यक्ति से दुगुनी उचाई का’

‘स्वर्णआभूषणों से युक्त’

‘हाथो में’

‘पैरे में’

‘गले में’

‘छाती पर आभूषण धारण किये’

‘गौर-वर्ण था उसका’

‘सौम्य’

‘सुनहरे-श्याम केश’

‘अतुलित बलशाली’

‘अलोकिक देहधारी’

‘जैसे प्रथ्वी पर उसके जैसा सानी कोई नहीं’

यक्ष-पुरुष” सहसा बाबा के मुह से शब्द फुट पड़ा !

जैसे यक्ष ने उसकी आवाज सुन ली हो ! यकायक यक्ष ने बाबा की तरफ देखा ! दोनों की नजरे आपस में मिली ! एक पल के लिए जैसे यक्ष मुस्कुराया

और

फिर

जैसे कोई सपना टुटा ! बाबा धडाम से शय्या से नीचे गिरा और नींद से जाग गया !

‘ये कोई सपना था या हकीकत’

‘यक्षो के लिए ऐसी माया रचना कोई बड़ी बात नहीं’

‘फिर भी’

जैसे बाबा को अभी-अभी जो हुआ उस पर यकीन नहीं हुआ ! वो उठा और बाहर चला गया, देखा, ‘जांचा’ , ‘परखा’ लेकिन सब सामान्य था पूरा सुनसान मंदिर का प्रांगण !

दूसरी तरफ, जो अपने गंतव्य की और बढ़ रहा था और वह था सप्तोश !

सप्तोश, उस पागल को पकड़ कर उसे सब कुछ पूछना चाहता था की आखिर कौन है वो, क्या किया था उसने कल और अपनी पूरी जिज्ञासा शांत करना चाहता था, और उसके लिए वो निकल पड़ा था गाव के शमशान की तरफ उस पागल को खोजने, जिसका जिक्र दोजू ने कहा था !

चन्द्र की रोशनी में सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा था, शमशान में बहुत-सी झाडिया और वृक्ष थे ! ज्यादातर कंटीली झाडिया, बबूल और देवदार के वृक्ष थे, नदी के किनारे होने के कारण कुछ ज्यादा ही फल-फुल रहे थे !

आज शमशान कुछ ज्यादा ही शांत था, रात्रि के जीव भी ख़ामोशी से बैठे थे ! अचानक जैसे सप्तोश को अपने पीछे लकड़ी की आवाज सुनाई दी, वो पीछे देखता है की एक बुड्ढा, हाथ में लाठी और मशाल लिए खड़ा था !

ये इस शमशान का डोम था-भीकू ! शरीर से बुड्ढा हो चूका था, पहनावे में सिर्फ एक नीचे धोती पहन रखी थी और कुछ नहीं ! हाथ में एक लकड़ी जो जानवरों को भागने और उसके सहारे के लिए काम आती थी, और दुसरे हाथ में मशाल थी वो आदतन उसने जलाये रखी थी !

“कौन हो तुम, और इस वक्त यहाँ क्या कर रहे हो” भीकू अपनी आवाज को मुश्किल से उची करके बोलता है !

“तुम कोन हो” सप्तोश उल्टा सवाल पूछ बैठता है !

“में, में इस श्मशान का डोम हु, इस वक्त क्या काम है” दुबारा वही सवाल पूछता है !

“में वो पागल बुड्ढ़े को ढूढ़ रहा हु सुना है वो इसी श्मशान में रहता है”

“हा, रहता तो यही है, लेकिन इस श्मशान में यदि कोई कार्य है तो उसके लिए मुझे वसूली देनी पड़ेगी” भीकू वही नीचे जमीन पर बैठते हुए बोलता है !

सप्तोश, भीकू की बात को नजरअंदाज करके वापस उस बुड्ढ़े को ढूंडने आगे चला जाता है !

पहली बार रात में श्मशान का अनुभव, दिन की अपेक्षा कुछ अलग लग रहा था, रात में श्मशान कुछ ज्यादा ही शांत रहता है, छोटे-छोटे जन्तुओ की आवाज कुछ ज्यादा ही गहरा जाती है, हर समय ऐसा लग रहा था जैसे की कोई आस-पास ही है लेकिन कोई होता नहीं था, जैसे की कोई नजर रहा हो, जैसे की हवा भी कुछ कहना चाह रही हो लेकिन मुर्दों की ख़ामोशी में सब कुछ मौन रह जाता है !

‘झाड़ियो में कुछ हलचल-सी होती है,’

सप्तोश उस तरफ देखता है,

‘कोई उकडू बैठा हुआ था’

‘वही था’

‘हा’

‘ये वही बुड्ढा था’

‘लेकिन’

‘लेकिन, ये क्या’

स्प्तोश उसे देखकर इतना नहीं चौकता है जितना की उसके हाथ में कुछ देखकर ! उसके हाथ में.....





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पहली बार रात में श्मशान का अनुभव, दिन की अपेक्षा कुछ अलग लग रहा था, रात में श्मशान कुछ ज्यादा ही शांत रहता है, छोटे-छोटे जन्तुओ की आवाज कुछ ज्यादा ही गहरा जाती है, हर समय ऐसा लग रहा था जैसे की कोई आस-पास ही है लेकिन कोई होता नहीं था, जैसे की कोई नजर रहा हो, जैसे की हवा भी कुछ कहना चाह रही हो लेकिन मुर्दों की ख़ामोशी में सब कुछ मौन रह जाता है !

‘झाड़ियो में कुछ हलचल-सी होती है,’

सप्तोश उस तरफ देखता है,

‘कोई उकडू बैठा हुआ था’

‘वही था’

‘हा’

‘ये वही बुड्ढा था’

‘लेकिन’

‘लेकिन, ये क्या’

स्प्तोश उसे देखकर इतना नहीं चौकता है जितना की उसके हाथ में कुछ देखकर ! उसके हाथ में एक मानव के हाथ का टुकड़ा था जो अभी-अभी खोदे गए छोटे से गड्ढे से पता चल रहा था की उस बुड्ढ़े ने उस हाथ को वही से निकला है !

वो पागल बुड्ढा बिना किसी और ध्यान दिए अपनी मस्ती में उस मानव हाथ को नोच रहा था, खा रहा था !

उस पागल का इतना वीभत्स रूप देख कर सप्तोश को जैसे की साप सूंघ लिया हो, खून जैसे जम सा गया हो ! एक पल के लिए जैसे वह भूल ही गया था की वह यहाँ इस रात को श्मशान में क्यों आया था !

उस बुड्ढ़े ने सप्तोश की तरफ देखा, दोनों की आख ने आख मिली, पागल उकडू बैठे-बैठे ही थोडा पीछे हटता है, उस मानव हाथ को अपने पीछे छिपा देता है जैसे की कोई बच्चा अपने खाने की वस्तु किसी के मांगने पर छुपा देता है ! फिर धीरे-धीरे वो पागल उस हाथ को सामने सप्तोश की तरफ करके बोलता है

“भूख लगी है, खओंगे”

इतना सुनते है सप्तोश का डर भंग होता है, अपने वस्तु-स्तिथि का बोध होते ही वह सहज होने की कोशिश करता है

“तुम हो कौन” सप्तोश सहज होते-होते बोलता है लेकिन उसकी नजर अभी-भी उस नोचे गए हाथ की तरफ थी !

“क्या”

“भूख नहीं लगी है”

“खाना नहीं चाहिए”

“तो क्यों आये हो”

“भागो यहाँ से”

“भागो”

वो पागल क्रोध से और उत्तेजित होते हुए सप्तोश पर चिल्लाता है और वहा से उछलते-कूदते हुए भाग जाता है !

जैसे ही वो पागल वहा से भागता है सप्तोश की तन्द्रा टूटती है और वो भी उस पागल का पीछा करने लग जाता है ! सप्तोश ने इस तरह का आदमी या पागल कभी नहीं देखा था जो उसे एक मास का टुकड़ा खाने का देगा और वो भी एक मानव-मास का !

बहुत देर हो गई लेकिन वो पागल बुड्ढा अभी तक नहीं मिला सप्तोश को ! वो सप्तोश के सामने से कब और किस तरफ भाग गया उसे पता ही नहीं चला ! रात्रि का अंतिम चरण चल रहा था ! आखिर सप्तोश ने हार मान ही ली ! वो वापस जाने के लिए चल पड़ा !

वापस उसी रास्ते चल पड़ता है जहा से उसने श्मशान में प्रवेश किया है ! भीखू डोम अभी-भी वही बैठे-बैठे बीडी पी रहा था, लेकिन सप्तोश उस पर ध्यान नहीं देते हुए उसके पास से बाहर निकल जाता है !

सप्तोश का दिमाग थोड़े समय के लिए सुन्न-सा पड़ गया था, लेकिन अब उसने अपनी हालात पर काबू पा लिया था और वापस सोच-विचार की क्षमता आ गई थी !

सप्तोश प्रौढ़ था, वह उम्र की अपनी उस दहलीज पर था जहा से लोग बूढ़े होने शुरू होने लगते है, लेकिन सप्तोश ने कुछ नया सीखने और जानने में अपनी उम्र को कभी बीच में नहीं लाया था, ३२ वर्ष की उम्र में उसने शिष्यत्व ग्रहण किया था, बीबी-बच्चे सब थे उसके पास !

‘लेकिन’

‘एक बार उसने कुछ देख लिया’

‘कुछ अलग’

‘अलौकिक’

‘जो एक बार कोई अलौकिक घटना को देख लेता है’

‘वो व्यक्ति अपने में नहीं रहता है’

‘अपने ही अस्तित्व से सवाल करने लगता है’

‘वापस उसी अलौकिक घटना को देखना चाहता है’

‘उसी अलौकिकता को महसूस करना चाहता है’

बस इसी प्रबल जिज्ञासा के कारण सब छोड़ दिया उसने !

‘अपना परिवार’

बीवी-बच्चे

बूढ़े माँ-बाप

सब कुछ !

बाबा बसोठा का शिष्यत्व के बाद उसने काफी कुछ घटनाये देखी ! उसकी जिज्ञासा शांत होने लगी लेकिन मिट नहीं गयी, वो कुछ महसूस करना चाहता था लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था की वो अभी तक क्या है जो उसे चाहिए, क्या है जो उसे उसके अधूरेपन का अहसास करवाती है !

लेकिन,

लेकिन कल से जो सब कुछ घटनाये हो रही थी उससे उसकी जिज्ञासा की लों धीरे-धीरे एक दावानल का रूप ले रही थी, उसने फिर ने जाना की इस प्रकति में और भी है, बहुत-कुछ है, जो उसे जानना है, समझना है, महसूस करना है, उसके मन में, छाती पर एक भारीपन आ चूका था जिसे हल्का करने के लिए वह चलते-चलते मुड जाता है एक रास्ते पर !

विचारो की उधेड़बुन में वो चलता जाता है लेकिन ये रास्ता मंदिर की तरफ नहीं जा रहा था,वो जा रहा था गाव के पच्शिम में ! जहा पर......
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विचारो की उधेड़बुन में वो चलता जाता है लेकिन ये रास्ता मंदिर की तरफ नहीं जा रहा था,वो जा रहा था गाव के पच्शिम में ! जहा पर एक बार जा चूका था – दोजू के झोपड़े की और !



सुबह अब हो ही चुकी थी ! सूर्यदेव के सारथि अरुण अपनी लालिमा चारो ओर फैलाते हुए पुरे जगत को अपने अस्तित्व का बोध करा रहे थे ! गाव के सुबह की बात ही निराली होती है

‘इसमें एक तरह की खुशबु होती है’

‘एक तरह का एहसास होता है’

‘उर्जा का संचार होता है, जो दिन-भर की कड़ी मेहनत की प्रेरणा का स्त्रोत होती है’

लोगो का आवागमन शुरू हो चूका था, औरते पानी के लिए नदी के तरफ आ जा रही थी, मछुआरे अपने-अपने जालो को सही कर रहे थे, सप्तोश उसी की तरफ जा रहा था, नदी किनारे, दोजू की तरफ !

इस बार सप्तोश झोपड़े के दरवाजे की तरफ ना जा कर झोपड़े के पीछे की तरफ चला जाता है नदी किनारे ! वहा दोजू पीठ के बल लेटा हुआ था, नहीं सोया हुआ था या उसको अचेत कहना सही रहेगा ! एक कुत्ता उसके पैरो के पास पड़ा वो भी सुस्ता रहा था और एक उसके कपड़ो को चाट रहा था !

पास में अभी बुझे हुए अंगारों अधजली लकडियो और कुछ खाली बोतलों से पता चल रहा था की वो देर रात तक मदिरा का लुफ्त उठा रहा था ! सप्तोश उसके पास जाकर पहले कुत्तो को वहा से भगा देता है फिर वहा उसके पास बैठ जाता है !

थोड़ी देर बैठने के बाद कुछ विचार करके वह उठता है फिर वह उसके झोपड़े की तरफ जाता है, बाल्टी लेने, जो उसके झोपड़े के पीछे ही एक कील से लटकी हुयी थी, लेकिन जैसे-जैसे वह झोपड़े के पास जाता है उसे पिछली रात्रि का वैसे ही डर का अहसास होता है, बाल्टी नदी पर भरकर पूरी-की –पूरी दोजू पर उड़ेल देता है...

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.

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“आप मेरी बात समझ क्यों नहीं रहे हो” एक व्यक्ति बोल पड़ता है

“तेरी बाते कुछ मतलब की ही नहीं है” दूसरा व्यक्ति बोलता है

“मेरी तो आप दोनों की ही बाते समझ में नहीं आती है, बार-बार रणनीति बनाते हो और बार-बार उसे फिर से तैयार करते हो”

वापस पहला व्यक्ति बोलता है

“हमारी रणनीति तैयार हो ही चुकी थी महाराज लेकिन अंतिम वक्त पर वो आ गया” तभी तीसरा व्यक्ति एक की तरफ इशारा करके बोलता है जो छत पर खड़े-खड़े उगते हुए सूर्य को देख रहा था !

दूसरा व्यक्ति कुछ उलजन में एक बार उस तीसरे को देखता है और एक बार उस आदमी को जो थोडा गंभीर मुद्रा में सूरज को देख रहा था !

“आप लोग रणनीति-रणनीति खेलते रहो पिताजी में जा रहा हु” पहला व्यक्ति वापस बोलते हुए अपनी जगह से उठता है और सीढियों से नीचे चला जाता है

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सुबह की पूजा-अर्चना कर चेत्री, भगवान शिव की प्रतिमा को निहार रही थी, वैसे तो वो कई बार इस महान प्रतिमा को देख चुकी थी जब वह राजा के साथ महीने में एक बार यहाँ आती थी लेकिन आज, आज कुछ विशेष लग रही थी !

यहाँ विशेष शब्द का प्रयोजन, उस प्रतिमा को लेकर नहीं था..
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सुबह की पूजा-अर्चना कर चेत्री, भगवान शिव की प्रतिमा को निहार रही थी, वैसे तो वो कई बार इस महान प्रतिमा को देख चुकी थी जब वह राजा के साथ महीने में एक बार यहाँ आती थी लेकिन आज, आज कुछ विशेष लग रही थी !

यहाँ विशेष शब्द का प्रयोजन, उस प्रतिमा को लेकर नहीं था


विशेष था समय !

बहुत बार हम किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान को कई महीनो या कोई तो कई वर्षो तक ऐसे ही आखो के सामने से चली जाती है लेकिन उसके रूप, स्वरुप या खूबियों को नहीं देख पाते है !

चित्र को देखकर हम उसका अंदाजा लगा सकते है लेकिन कोई कहे की आखे बंद कर उसको देखो तो उसके आकर के अलावा कुछ नहीं देख सकते ! उसका सौन्दर्य, उसका स्पर्श, उसकी खुशबु कुछ याद नहीं रहता !

कई बार हमें यह आश्चर्य होता है की जीवन भर उसके साथ रहने के बावजूद भी हम उसके चंद बातो या लम्हों के अलावा कुछ भी याद ही नहीं रहता !

यहाँ पर बात याद रखने की नहीं है बात है जीने की !

उन पलो में जीने की !

वर्तमान में जीने की !

आज चेत्री को अपने कार्यो को लेकर कोई जल्दी नहीं थी, आज कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं था, किसी से मिलना भी नहीं था ! आज वो अपने जिम्मेदारियों से आजाद थी, अपने को स्वतंत्र महसूस कर रही थी

एक बच्चे की भांति !

जैसे एक बच्चा वर्तमान में जीता है उसे कल की कोई चिंता नहीं रहती है, आने वाले पल की कोई चिंता नहीं रहती वह जीता है अपने आप में !

आज उसे सब कुछ विशेष लग रहा था आज वर्तमान में जी रही थी वो ! उसने कभी मंदिर को इस तरह कभी नहीं देखा था ! शिव की विशाल प्रतिमा उन्मुक्त गगन की छु रही थी !

पत्थर से बनी नंदी की मूर्ति कुछ विशेष लग रही थी ! गौर से देखने पर पता चला की नंदी के सिंग पत्थर के ना होकर किसी अलग धातु के थे लेकिन रंग की वजह से कोई नहीं कह सकता था !

मंदिर की दीवारों पर नटराज की मुर्तिया बनी हुई थी जो अलग-अलग आकृतियों में नृत्य कर रहे थे ! पूरी दीवारों को देखने पर पता चलता है की ये पूरा नटराज के एक नृत्य की शिल्पकृति थी जो बहुत ही अचंभित थी !

चेत्री ये सब देख ही रही थी की एक तरफ उसे बाबा बसोंठा दिखाई देते है वो ध्यान लगाये बैठे हुए थे लेकिन थोड़े पास में जाकर चेत्री ने उन्हें देखा तो एसा लग रहा था की जैसे वो अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर रहे हो !

चेत्री उनका ध्यान भंग ना कराते हुए वो मंदिर से बाहर जा ही रही थी की डामरी वो दरवाजे की तरफ अन्दर आते हुए देखती है !

“प्रणाम, राजवैद्यीजी” डामरी ने दूर से ही हल्के उचे स्वर में, अपने नटखट अंदाज में, अभिवादन किया !

चेत्री ने आखो से जैसे उस अभिवादन का उत्तर दिया और उसे पास आने का इशारा किया !

“सुबह-सुबह कहा से आ रही हो डामरी”

“आपको तो पता ही है राजवैद्यीजी, मुझे कितना काम रहता है सुबह से लेकर रात तक, गुरूजी के उठने से लेकर सोने तक पूरी व्यस्था मुझे ही देखनी पड़ती है और हा, खाने का इन्तेजाम भी तो मुझे ही करना पड़ता है” डामरी एक ही सास में पूरा बोल देती है

चेत्री उसकी चंचलता और चपलता पर हल्की सी मुस्कुराती हुयी “वो तो ठीक है लेकिन तुम आ कहा से रही हो”

“गुरूजी ने मुझे आज दिन भर का अवकाश दे रखा है, कहा है की आज के दिन उन्हें किसी भी बात के लिए परेशांन ना करे”

“तुमने वापस मेरी बात का उत्तर नहीं दिया” वापस चेत्री बोल पड़ती है

माफी के अंदाज में दातो तले जीभ दबाते हुए डामरी बोलती है “क्या है ना राजवैद्यीजी, बहुत दिनों बाद अवकाश मिला था तो सोचा की सुबह-सुबह थोडा गाव में घूम आऊ”

“मेरे साथ नहीं चलोगी घुमने”

“अकेले-अकेले में मजा नहीं आता है, हम किसी से बात भी नहीं कर सकते, इसीलिए में वापस आ गयी थी, और गाव में भी सभी अपना-अपना काम कर रहे थे, सोचा क्यों किसी को परेशान करू” डामरी एक ज्ञान देने वाली शिक्षिका के अंदाज में बोलती है “चलो अब हम दो हो गए है तो अब मजा आयेया, चलो चलते है”



दोनों मंदिर के विशाल दरवाजे से बाहर चले जाते है
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माफी के अंदाज में दातो तले जीभ दबाते हुए डामरी बोलती है “क्या है ना राजवैद्यीजी, बहुत दिनों बाद अवकाश मिला था तो सोचा की सुबह-सुबह थोडा गाव में घूम आऊ”

“मेरे साथ नहीं चलोगी घुमने”

“अकेले-अकेले में मजा नहीं आता है, हम किसी से बात भी नहीं कर सकते, इसीलिए में वापस आ गयी थी, और गाव में भी सभी अपना-अपना काम कर रहे थे, सोचा क्यों किसी को परेशान करू” डामरी एक ज्ञान देने वाली शिक्षिका के अंदाज में बोलती है “चलो अब हम दो हो गए है तो अब मजा आयेया, चलो चलते है”



दोनों मंदिर के विशाल दरवाजे से बाहर चले जाते है



उधर शमशान में वो पागल बुड्ढा रोज की तरह ही इधर-उधर घूम रहा था, कभी-कभार वह बहुत समय तक किसी भी जगह पर आलस्य से सोता रहता है, जब भी भूख लगे तब वह गाव में खाने के लिए जाता था, मिल गया तो ठीक वर्ना कोई मछली या जानवर को मारकर कच्चा ही खा जाता था, जब भी नींद आये तो वह सो जाता और जब नींद ना आये तो कई दिनों या महीनो तक ऐसे ही जागा करता था !

वह अपनी मस्ती में इतना मस्त था की कई बार गाव के लोग इसको देखकर इर्ष्या करने लगते थे,

कई लोग व्यंग में ये भी बोलते थे की इसी को सच्चिदानंद मिला हुआ है,

देखो हमें,

रोज सुबह जल्दी उठो,

काम पर जाओ,

मेहनत करो

तभी कल के खाने के लिए कुछ मिलता है,

बीबी-बच्चो और परिवार का बोझ उठाओ और इसको देखो, इसको तो परिवार तो क्या अपनी ही कोई चिंता नहीं है !

इस तरह की बाते गाव के हर गली में सुनने में मिल ही जाती है,

‘इस तरह के लोग जो अपने जिम्मेदारियो को बोझ समझने लगते है’

‘अपनी छोड़कर परायी वस्तुओ के पीछे भागते है’

‘चाहे खुद चांदी के बर्तनों में खाना खा ले परन्तु दूसरो को मिट्टी के बर्तनों में देखना उसको अच्छा नहीं लगता है’

ऐसी मानसिकता वाले लोग आपको हर जगह मिल जाते है !

रात का जगा हुआ वो पागल अभी भी शमशान में घूम ही रहा था, वो एक अच्छे पेड़ को देखता है, पैर पर पैर चढ़ाकर, पीठ को पेड़ से टिकाकर आराम से बैठ जाता है, उन दूर के उत्तरी पहाडियों को देखता है

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दूर उत्तरी पहाडियों पर वो शख्स अभी भी भागे जा रहा था लेकिन उसकी गति अभी कुछ धीमी हो गयी थी, वो पर्वत की छोटी पर लगभग पहुच ही चूका था, अचानक उसके नथुनों में फूलो की खुशबु भर जाती है, वो रुक जाता है और वो थोड़ी चैन की सास लेता है, उसके चेहरे पर परेशानी थोड़ी सी कम हुयी जैसे वो अपने गंतव्य पर पहुच चूका था

“इतना परेशान क्यों हो कालगिरी” तभी उसके पीछे से एक स्त्री आवाज आती है, बहुत ही सोम्य थी वो आवाज !

कालगिरी पीछे मुड़कर देखता है, उसे देखते ही वो थोडा सहज होता है, जैसे उसकी सारी थकान उस आवाज से ही शांत हो गयी !

“वो.. वो...” कालगिरी इतना ही बोल पाता है

“यही की वो आ गया है” उसी सोम्य आवाज में वो कहती है

“आप जानती है”

“हा”

“फिर भी, फिर भी आप कुछ नहीं कर रही है, आप इतनी शांत कैसे रह सकती है” कालगिरी थोडा उत्तेजित स्वर में बोलता है, जैसे उसको अपनी गलती का अहसास होता है, वो थोडा डर कर पीछे हट जाता है !

वो कालगिरी की तरफ देखती है लेकिन ऐसा लगता था की आज वो पहले से कुछ ज्यादा ही शांत थी, वो आज कालगिरी के उत्तेजित स्वर से नाराज नहीं थी

वो उसी शांत स्वभाव से अपने से दूर दक्षिण में देखती है जिस तरफ कद्पी पड़ता था, पलभर के लिए ऐसा लगा जैसे उसने कुछ देखा, जैसे नजर से नजर मिली ही, उसे कालगिरी के प्रश्न का उत्तर मिला, वो बोल पड़ती है “हम प्रतीक्षा करेंगे”

“प्रतीक्षा...पुरे बारह दिनों तक...” कालगिरी असमंजस में बोलता है “लेकिन प्रतीक्षा क्यों”

वचन पूरा करना पड़ेगा” इसी के साथ वो हवा में लुप्त हो जाती है

कालगिरी वही देखता रह जाता है

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दोजू बहुत तेजी से अपने झोले को पकडे हुए माणिकलाल के घर की और चलता है और उसके पीछे सप्तोश !

सप्तोश को दोजू से कुछ पूछना था लेकिन दोजू को आज बहुत देर हो चुकी थी उसको सुबह जल्दी माणिकलाल के घर पहुचना था यदि सप्तोश उसको नहीं उठाता तो शायद दोहपर हो जाती !

लेकिन आज सप्तोश दोजू को छोड़ने वाला नहीं था, वो उससे आज उस पागल बुड्ढ़े का राज जानना चाहता था इसीलिए वो उसके पीछे-पीछे चल रहा था या यु कहो की धीरे-धीरे भाग रहा था ! दोजू बुड्ढा हो चूका था फिर भी उसकी तेजी देखने लायक थी !

चेत्री और डामरी दोनों नदी की तरफ टहलने आई थी लेकिन दोनों ने जब सप्तोश को दोजू के पीछे-पीछे चलते हुए देखा तो वे दोनों भी उनका पीछा करने लग जाती है !

दोजू लगभग माणिकलाल के घर पहुच ही चूका था की उसे एक आदमी दिखा, वो माणिकलाल के घर से वापस आ रहा था, एक पल के लिए दोजू चौका, दोनों की नजरे मिली, वो आदमी मुस्कुराया और दोनों आगे बढ़ गए !

माणिकलाल के घर का दरवाजा खुला ही था, दोजू तुरंत अन्दर जाते ही माणिकलाल से पूछता है “वो यहाँ क्यों आया था”

माणिकलाल अचानक से हुए इस सवाल और घर में दोजू के इतना तेज आने से थोडा हडबडा गया “कौन ??”

“जो अभी यहाँ से निकला है”

“वो तो कोई परदेसी ग्राहक था” माणिकलाल ने कहा “आप उन्हें जानते है क्या ??”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं”

दोनों की बाते सुनकर निर्मला बाहर आ जाती है

“अरे वैद्यजी आप” ये कहते हुए निर्मला माणिकलाल को खाट बिछाने का इशारा करती है

माणिकलाल खाट बिछाते हुए सप्तोश को देखता है, वह सप्तोश को ठीक से पहचान नहीं पा रहा था शायद उसने परसों मंदिर में उसको दूर दे देखा था इसीलिए !

दोजू माणिकलाल को सप्तोश को घूरते हुए देखकर बोलता है “ये उस साधू बाबा का चेला है”

माणिकलाल इतना सुनते ही दोनों को बैठने के लिए बोलता है

“सुन माणिकलाल” दोजू कहता है

“जी वैद्यजी”

“तेरी बच्ची अब ठीक हो जाएगी, फिर से वो अब चलने लगेगी, दौड़ने लगेगी”

इतना सुनते ही माणिकलाल और निर्मला दोनों ख़ुशी से कुछ सोच भी नहीं पा रहे थे तभी तुरंत दोजू बोल उठता है “लेकिन

“लेकिन, लेकिन क्या वैद्यजी ?”

“उसकी कीमत चुकानी होगी” दोजू वापस अपने उसी रहस्यपूर्ण अंदाज में बोलता है

ये सुनते ही सप्तोश वापस चौक जाता है, ये वैसा ही अंदाज था जिस अंदाज में दोजू ने उस से कौडम माँगा था,

‘अब इनसे ये क्या मांगने वाला है’ सप्तोश मन में सोचने लगता है

“क्या चाहिए आपको” माणिकलाल को बस कहने भर की ही देरी थी वो इस समय अपना पूरा घर, यहाँ तक की सब कुछ उस दोजू की झोली में डाल देता !

‘सप्तोश दोजू को देखता है की क्या मांगेगा’

दोजू हल्के से मुस्कुराता है......





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Nevil singh

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“क्या चाहिए आपको” माणिकलाल को बस कहने भर की ही देरी थी वो इस समय अपना पूरा घर, यहाँ तक की सब कुछ उस दोजू की झोली में डाल देता !

‘सप्तोश दोजू को देखता है की क्या मांगेगा’

दोजू हल्के से मुस्कुराता है, आखो में चमक लिए बोलता है

बारह दिन

“बारह दिन ?” सप्तोश और माणिकलाल दोनों ही असमंजस में एक साथ बोल पड़ते है

“हा, बारह दिन”

“मतलब” माणिकलाल बोलता है

“बारह दिनों तक तुम्हे मेरे साथ चलना होगा, जो भी तुम अर्जित करोंगे उन बारह दिनों तक, वो सब मेरा होगा, बोलो मंजूर है” दोजू माणिकलाल को देखते हुए बोलता है

“ठीक है, में तैयार हु” माणिकलाल बिना सोचे-समझे ही बोल पड़ता है, उसको तो इस क्षण बस अपनी बच्ची के ठीक होने के इन्तेजार में था, भला एक बाप को और क्या चाहिए !

“लेकिन” बिच में निर्मला बोल पड़ती है

“तुम इसकी चिंता मत करो, ये मेरे साथ सुरक्षित रहेगा, वचन देता हु” दोजू माणिकलाल की ओर इशारा करते हुए निर्मला से कहता है, और अपने झोले में से एक पोटली माणिकलाल की और फेक देता है “और ये लो”

“ये क्या है, वैद्यजी” माणिकलाल वापस असमंजस में बोलता है !

“तुम्हारे यहाँ पर नहीं रहने पर ये धन तुम्हारी पत्नी के काम आएगा”

माणिकलाल उस पोटली को खोलकर देखता है, उसमे ४०-५० सोनो और चांदी के सिक्के थे !

वास्तव में राजवैद्यीजी ने सच ही कहा था दोजू का धन से कोई सरोकार नहीं था, धन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता था !

सप्तोश ये सब देख कर अब सोचने लगता है, इन बारह दिनों में ऐसा क्या चाहिए दोजू को माणिकलाल से जो बिना सोचे-समझे ही इतना धन दे दिया ! सप्तोश के लिए दोजू भी अब रहस्य बन चूका था !

माणिकलाल को समझ नहीं आ रहा था की ये धन वो दोजू से ले या ना ले !

“इतना मत सोच माणिकलाल, इन बारह दिनों में तुम जो मुझको देने वाले हो उसके बदले में ये धन तो कुछ भी नहीं है” दोजू ऐसे बोल पड़ता है जैसे ये सौदा उसके हाथ से न निकल जाये !

“लेकिन हमारी बच्ची, वो तो ठीक हो जाएगी न ?” निर्मला बोलती है

तभी दरवाजे पर दस्तक होती है

“राजवैद्यीजी आप” माणिकलाल बोल पड़ता है

“अनुमति हो तो अन्दर आ सकते है”

चेत्री ये सब बाते बाहर से सुन रही थी ! जैसे ही सुरभि के इलाज की बात आई वो रह न सकी, क्योकि उसे जानना था की जिसका उपचार में 1 साल तक न कर सकी, उसको दोजू एक दिन में कैसे कर सकता है

“अब तुम क्यों आयी हो ?” दोजू थोडा गुस्से से बोल पड़ता है

“देखना चाहती हु में भी की तुम इलाज कैसे करते हो”

“ले आओ बच्ची को” दोजू बोल देता है माणिकलाल को !

माणिकलाल और निर्मला दोनों जाकर अन्दर से सुरभि को, खाट समेत बाहर ले आते है !

चेत्री निरिक्षण करती है,

सुरभि की हालत अब पहले से ज्यादा ख़राब हो चुकी थी, त्वचा की लगभग आखिरी परत बची थी और वो भी सूखती जा रही थी, त्वचा में से मास और शिराए साफ-साफ देख सकते थे, जैसे लगता था अंतिम क्षण है उसका ! फिर चेत्री थोडा पीछे हट जाती है !

“अपनी आखो को सम्भाल कर रखना” मजाक भरे अंदाज में दोजू चेत्री को बोलता है

दोजू अपने झोले में से वही मिश्र धातु का गोल डिब्बा निकालता है जो उसने सप्तोश से लिया था,

“बच्ची को नीचे लिटा दो” दोजू चेत्री को बोलता है

चेत्री सावधानीपूर्वक सुरभि को नीचे लिटा देती है !

“नाम क्या है बच्ची का” दोजू पूछता है

“सुरभि” माणिकलाल झट से बोल देता है

दोजू अब नाटकीय अंदाज में आखे बंद करके उस डिब्बे के ऊपर उंगली धुमाते हुए कुछ मंत्र सा बोलता है उसकी आवाज बहुत धीरे थी किसी को भी सुनाई नहीं दे रही थी बस फुसफुसाने की आवाज आ रही है और अंत में दोजू डिब्बी को नीचे रखते हुए बोलता है “सुरभि

सभी लोगो की आखे उस डिब्बी को घुर रही थी, खास कर चेत्री की, वो काफी उत्सुक थी, क्या है कौडम !

तभी उस डिब्बी का ढक्कन खुलता है,

उसमे से एक काले रंग का चमकीला बिच्छू निकलता है,

वो धीरे-धीरे सुरभि के पास जाता है,

सप्तोश अपने पुरे ९ साल के मेहनत को अपने सामने से जाते हुए देख रहा था,

सब लोग आखे फाड़े उसे देख रहे थे,

बिच्छू सुरभि के पास जाता है,

उसके हाथ की शिरा को ढूंडता है

और,

और

डंक मार लेता है !

उसके पश्चात् वो बिच्छू हवा के साथ धुँआ बन जाता है !

सभी लोगो की आखे अभी तक सुरभि के उस डंक पर ही थी !

तभी अचानक उसके शरीर पर कुछ परिवर्तन होता है,

वो परिवर्तन बहुत ही तीव्र था,

बहुत ही जल्दी से नयी कोशिकाए उत्पन्न होकर अपनी जगह ले रही थी,

और कुछ ही क्षण में सुरभि का शरीर बिलकुल ठीक हो जाता है !



दोजू के अलावा जैसे सभी लोगो ने वहा सपना देख रहे थे, सब जड़ मूर्ति से बने हुए थे अब तक !

दोजू वहा से उठता है और दरवाजे के पास जाकर खटखटाता है जिससे की सबका ध्यान उसकी तरफ आ जाता है

“माणिकलाल, कल भोर के पहले प्रहर तक झोपड़े पर आ जाना, वचन दिया है” दोजू माणिकलाल को आदेशपूर्ण आवाज में बोलता है “सुरभि की चेतना संध्या तक लौट आएगी” कहते हुए दोजू अपने झोपड़े की ओर चल पड़ता है !

उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था की जैसे किसी बड़े युद्ध की पूर्ण तैयारी पूर्ण कर ली हो और कल युद्ध के लिए रवाना होना हो !



लेकिन अभी भी कोई था दूर देश में जिनकी रणनीति अभी भी पूर्ण नहीं हुयी थी, वो अभी भी अपने सन्देश का इन्तेजार कर रहा था..

Adbhut update mitr
 
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