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Fantasy वो कौन था

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Nevil singh

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दोजू वहा से उठता है और दरवाजे के पास जाकर खटखटाता है जिससे की सबका ध्यान उसकी तरफ आ जाता है

“माणिकलाल, कल भोर के पहले प्रहर तक झोपड़े पर आ जाना, वचन दिया है” दोजू माणिकलाल को आदेशपूर्ण आवाज में बोलता है “सुरभि की चेतना संध्या तक लौट आएगी” कहते हुए दोजू अपने झोपड़े की ओर चल पड़ता है !

उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत हो रहा था की जैसे किसी बड़े युद्ध की पूर्ण तैयारी पूर्ण कर ली हो और कल युद्ध के लिए रवाना होना हो !



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लेकिन अभी भी कोई था दूर देश में जिनकी रणनीति अभी भी पूर्ण नहीं हुयी थी, वो अभी भी अपने सन्देश का इन्तेजार कर रहा था !

दोहपर होने ही वाली थी, वो तीनो अभी भी अपने प्रशिक्षण गृह की छत पर खड़े थे !

राजा वीरवर, अपने पुत्र को घुड़सवारी का प्रशिक्षण लेते हुए छत से देख रहे थे, उनके साथ में खड़ा था सेनापति धारेश ! उसकी नजर तो युवराज की तरफ थी लेकिन वो उसके बारे में बुरी-भली बाते सोच रहा था जिसके आने ने उसकी रणनीति के बारे में राजा अब विचार ही नहीं कर रहा था !

तभी आसमान में एक कर्कश ध्वनी सुनायी देती है – एक गिद्ध

वो एक गिद्ध था, उन तीनो की नजर उस पर पड़ी ! वो २-३ बार प्रशिक्षण गृह के ऊपर चक्कर लगाकर उस व्यक्ति के हाथ में रखे दंड पर बैठ जाता है, गिद्ध के पैर पर बंधे हुए पत्र को अलग करता है ! वो अपने हाथ से दंड छोड़ता है, गिद्ध अभी भी दंड पर बैठा हुआ था !

राजा और सेनापति, दोनों की नजरे उस व्यक्ति की तरफ थी, वो पत्र पढ़ता है,

“महाराज, आगे का कार्य पूरा हुआ ! हम सेनापति की रणनीति के अनुसार, दो दिन बाद रवाना होंगे”

एक पल के लिए जैसे सेनापति को अपने कानो पर यकीन ही नहीं हुआ की वो व्यक्ति उसकी रणनीति की स्वीकृति दे रहा हो !

सेनापति धारेश उत्साह से “ठीक है महाराज, में अभी से तैयारी में लग जाता हु” कहते हुए सेनापति सीढियों से नीचे चला जाता है !

“आगे के कार्य से तुम्हारा क्या तात्पर्य है, अमान

“यह आपको जल्द ही पता चल जायेगा महाराज” अमान बोलता है “लेकिन ध्यान रखना इस बार, की शेर के बच्चे को पकड़ने के लिए सबसे पहले शेर को हराना पड़ेगा”

इसी के साथ दोनों एक साथ हस पड़ते है, गिद्ध उसी कर्कश ध्वनि के साथ वापस उस जाता है !

.

.

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.

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सप्तोश हाट आया हुआ था बाबा बसोठा की बताई हुयी सामग्री लेने के लिए ! वैसे भी सुबह के वृतांत के बाद उसे काफी विलम्ब हो चूका था, संध्या होने से पहले उसे सारी सामग्री अपने गुरु को देनी थी !

सारी सामग्री मिल चुकी थी एक-दो को छोड़कर ! बहुतो से पूछने पर भी वो मिल नहीं रही थी, सभी एक ही बात कर रहे थे – शायद दोजू के पास मिल जाये !

सप्तोश दोजू के पास जाना नहीं चाहता था किसी भी वस्तु की खरीद के लिए ! उसका पहला अनुभव कुछ खास नहीं रहा था, उसके जीवन के ९ साल बिक गए थे ! लेकिन अब जाना भी जरुरी था, उसे सामग्री जो लानी थी वो भी संध्या से पहले !

सप्तोश अब चल पड़ा था वापस दोजू के झोपड़े की ओर !

दोजू अपने झोपड़े में कुछ काम कर रहा था, सप्तोश को दरवाजे पर देखते ही वो थोडा मुस्कुराता देता है !

अब तो जैसे सप्तोश, दोजू की इस प्रकार की मुस्कान देखता है, वो थोडा डर जाता है, इस मुस्कराहट को वो अब तो बिलकुल नजरंदाज नहीं कर सकता है ! सप्तोश को समझ नहीं आ रहा था की वो कहा से शुरू करे, वो इस तरह के मोल-भाव में कभी नहीं पड़ा था !

“अब क्या लेने आये हो तुम” दोजू बोल पड़ता है

इस बार सुविधा हुई सप्तोश हो, वो एक-दो वस्तुओ के नाम बोल देता है !

नाम सुनते ही “तेरे गुरु को चाहिए ये सब”

“हा”

“समझा दे तेरे गुरु को, उस बुड्ढ़े का पीछा छोड़ दे वर्ना सब कुछ खो देगा वो” दोजू इस बार थोडा गुस्से में बोलता है !

“कौन है वो बुड्ढा” थोडा उत्साह पूर्वक बोलता है सप्तोश जैसे की उस पागल के रहस्य का उद्धाटन होने वाला है !

“जानना चाहता है उसके बारे में ?” दोजू गहरे अंदाज में बोलता है !

सप्तोश हा में सर हिला देता है

“तो मेरे साथ चलना होगा”

“कहा”

यात्रा पर, बारह दिनों की यात्रा पर”

शिष्यत्व छोड़ना होना तेरे गुरु का, वापस मुक्त होना पड़ेगा पंछी की तरह”

जैसे ही दोजू ने शिष्यत्व छोड़ने की बात कही, एक झटका सा लगा सप्तोश को, बाबा बसोठा का शिष्यत्व छोड़ना मतलब, अभी तक जितना भी प्राप्त किया वो सब त्याग करना, जहा से शुरू किया वापस वही पर आ जाना !

“इतना मत सोच, तुमने अभी तक कुछ भी नहीं प्राप्त नहीं करा है – विश्वास कर मेरा” दोजू अब उसको समझाने के ढंग से बोलता है “यकीं दिलाता हु तुमको की जितना भी प्राप्त किया है तूने, उससे कई गुना ज्यादा रहस्य तेरा इन्तेजार कर रहे है”

इसी वाक्य के साथ दोजू उसे वो वस्तुए दे देता है और कहता है “ये ले अपने गुरु को दे देना और आज की पूरी रात पड़ी है तेरे पास, अच्छी तरह से सोच ले, इरादा बन जाये तो भोर होते ही आ जाना इसी झोपड़े पर, इन्तेजार करूँगा तुम्हारा”

सप्तोश वापस चल पड़ता है मंदिर की ओर, अपने गुरु की ओर वो वस्तुए लेकर और साथ में एक प्रस्ताव या यु कहो की नयी शुरुआत !





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Nevil singh

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अध्याय ३

खंड १

"शून्य"
रात्रि का समय

दूर कही नदी किनारे लकडियो के जलने की रोशनी दिख रही थी,

कोई वहा बैठे कुछ कर रहा था

वो अपने झोले में से कुछ वस्तुए निकाल कर वहा आग में डाल रहा था,

आग भड़क रही थी जैसे की इंधन डाला जा रहा हो,

मंत्रो की ध्वनिया धीरे-धीरे घोर होती जा रही थी,

मंत्र क्लिष्ट होते जा रहे थे,

तभी आग अचानक से भड़क उठी, एक पल के लिए चारो तरफ प्रकाश फ़ैल गया,

उसी प्रकाश में उस व्यक्ति का चेहरा दिख पड़ता है,

ये बसोठा था |

बाबा बसोठा,

कापालिक बसोठा |

वो उस पागल के बारे में जानने को उत्सुक और उस से सब कुछ उगलवाने के हेतु ही ये सारा कृत्य कर रहा था,

सप्तोश के मना करने पर भी वो नहीं माना था,

उसे अपनी शक्तियों पर गुरुर था,

फिर भी इस बार सप्तोश को अपने गुरु के लिए एक अंजाना भय सता रहा था,

शायद इसीलिए की दोजू ने मना किया था या इस बार ये सारा मामला उसके परे था | लेकिन फिर भी अपने गुरु के प्रति भय के कारण वो आज की रात्रि उसको अकेले नहीं छोड़ने वाला था, वो दूर बैठे अपने गुरु पर नजर रख रहा था !

पल भर के लिए भड़की आग्नि वापस शांत हो गयी,

अब सप्तोश को वापस हल्की-हल्की जल रही आग के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था,

ऐसा नहीं था की रात्रि अन्धकार वाली थी,

अभी पूर्णिमा के गए मात्र २ ही दिन बीते थे लेकिन,

आज आसमान में बादल छाए हुए थे, चंद्रदेव कभी-कभी दर्शन दे वापस बदलो में लुप्त हो जाते थे |

मंत्र धीरे-धीरे शांत होते जा रहे थे, और अग्नि धीरे-धीरे अपना अस्तित्व बढ़ा रही थी, मंत्रो की ध्वनि शांत हो गयी थी, जैसे बाबा बसोठा की प्राम्भिक तैयारी पूर्ण हो चुकी थी |

अब बाबा बसोठा को सबसे पहले उस पागल के स्तिथि के बारे में जानकारी चाहिए थी,

और उसके लिए उसे अपनी द्रष्टि प्रसारित करनी थी

जैसे ही उसने अपने द्रष्टि प्रसारित की उसको एक धक्का-सा लगा,

उसको अपने पहले ही चरण के जैसे हार का सामना करना पड़ा |

वैसे उसकी शक्तिया अलख के उठने पर कई गुना बढ़ जाती है लेकिन आज कुछ विशेष फर्क नहीं लग रहा था |

जैसे ही उसने अपनी द्रष्टि प्रसारित की,

उसकी देख सीमित हो गयी,

वो गाव के कुछ हिस्सों को ही देख पा रहा था,

बाकि सभी हिस्से अन्धकार में थे,

जिसमे वो गाव का शिव मंदिर और शमशान दोनों आ रहे थे |

उसने वापस अपने देख लगाई,

विफल,

उसने सामने जल रही अलख में से राख उठाई,

मंत्र से फुका,

अपनी आखो पर लगाई,

वापस कोशिश की – फिर भी विफलता |

वो अपने पहले ही चरण में आगे नहीं बढ़ पा रहा था,

जब तक बाबा बसोठा उस पागल की स्तिथि का बोध नहीं कर पाता, तब तक वो कुछ नहीं कर सकता था |

आखिरकार उसे अपने गुरु की शक्तियों का सहारा लेना ही पड़ा,

उसने अलख में इंधन डाला, कुछ मंत्रो के साथ अपने झोले में से एक कपाल निकला,

अपने गुरु का कपाल को,

नमन किया अपने गुरु के कपाल को,

और रख दिया सामने राख के आसन पर,

अब उसने फिर से मंत्र बोलने शुरू किये,

कुछ समय पश्चात् अलख भड़क उठी,

और उसमें से निकलता है एक छोटा-सा बौना जीव,

जो लगभग एक सामान्य मनुष्य के हथेली जितना ही बड़ा था |

ये मंग्रक था,

एक बौनी-पुरुष शक्ति,

मोटा-भद्दा और बिना आखो के,

अपने साधक के कान में उसके उसके प्रतिध्वंदी की वस्तु-स्तिथि का पल-पल का बोध करवाता है

वो धीरे-धीरे आगे बढ़ता है,

और अपने छोटे-छोटे नुकीले हाथो और पंजो की सहायता से बाबा बसोठा के ऊपर चढ़ कर उसके कंधो पर बैठ जाता है, और अपने हाथो की मानसिक तरंगो की सहायता से बाबा बसोठा के मस्तिस्क से उस पागल के हुलिए का बोध करता है, एक क्षण की भी देरी किये बिना मंग्रक, बसोठा के कानो में बोल पड़ता है – ब्रह्म श्मशान और उस पागल की वस्तु स्तिथि का बोध करा देता है |

उधर,

श्मशान में वो पागल हल्का सा मुस्कुरा देता है जैसे की उसने मंग्रक की बाते सुन ली हो,

अब वो एक पेड़ से अपनी पीठ टिकाकर उस बाबा बसोठा की दिशा में मुख करके बैठ जाता है, और मुस्कुराते हुए उस दिशा में देखता है जैसे की कोई नाटक में गया है देखने के लिए |

किसी ने सच ही कहा है, जो जितना ऊचे मुकाम पर होता है, वो उतना ही, सहनशील और शांत हो जाता है, गहरे पानी में लहरे नहीं बनती, छिथले पानी में बनती है |

बाबा बसोठा को अब रक्षा चक्र खीचने का ध्यान में आया,

पहले तो वह निश्छल था,

लेकिन अपने देख काम नहीं करने की वजह से अब वह सतर्क हो चूका था, वो अपने स्थान से उठा और अपने चारो और अष्ट-चक्रिका का आव्हान किया,

ये अष्ट-चक्रिका अपने साधक के चारो और एक चक्र की भांति रक्षा करती है, अष्ट-चक्रिका का भेदन करना अत्यंत क्लिष्ट कार्य है

अब बाबा बसोठा तैयार हुआ वार करने को,

बाबा बसोठा की रणनीति एक दम स्पष्ट थी, वह अपने प्रतिद्वंदी पर अचानक वार करता है और फिर उसे घायल कर उससे अपना काम निकलवाता है, यदि वो उसके काम का है तो ठीक वर्ना उसे मृत्यु के घाट उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ता है,

उसने आव्हान किया एक पिचाचिनी का,

उसको नमन किया,

भोग दिया,

और

फिर अपना लक्ष्य बताया,

सुनते ही चल पड़ी पिचाचिनी अपने लक्ष्य की ओर

प्रकाश की गति से

लेकिन,

ये क्या !!!

२ पल बीते

५ पल बीते

१४ पल बीते

चारो तरफ सन्नाटा,

ना तो पिचाचिनी वापस आयी, और ना ही मंग्रक ने उसको वस्तु स्तिथि का बोध करवाया,

उस पिचाचिनी का क्या हुआ,

ये उस मंग्रक के शक्ति के परे की बात थी,

मंग्रक ने बस एक ही शब्द कहा

“शुन्य”

मतलब की अब बाबा बसोठा उस पिचाचिनी से रिक्त हो चूका था,

अब वो वापस उसके कुछ काम नहीं आ सकती थी,

छीन ली थी किसी ने उस पिचाचिनी को,

अब बाबा बसोठा पड़ा मुश्किल में,

पहला ही शक्ति वार किया और उससे भी रिक्त हो गया,

दूसरा वार करने के लिए अपनी मनः-स्तिथि को तैयार किया और इस समय उसने डंकिनी का आव्हान किया

चीर-फाड़ करने को आतुर,

सर्व-काल बलि

अपने शत्रु को भेदने में तत्पर,

“शून्य” – अचानक मंग्रक बोल पड़ता है,

सुन्न!!

बाबा बसोठा सुन्न !!

अब ये क्या हुआ उसे कुछ भी समझ में नहीं आया

डंकिनी के प्रकट होने ने पहले ही वह उस से रिक्त हो गया,

ये भी छीन ली उससे किसी ने,

जैसे शुन्य ने निगल लिया हो उसको,

ये उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ है,

और ना ही किसी से उसने ऐसा सुना,

ये उसके लिए एक चेतावनी थी,

की अभी वो हट जाये पीछे,

जिद्द ना करे,

लेकिन उसे भी दंभ था,



घमंड था उसे अपनी शक्तियों पर,

वो तो अच्छा है की यह मानस देह नश्वर है,


नहीं तो,

नहीं तो ये मानव,

उस परम शक्तिशाली

को भी चुनौती दे देता,


अपने दंभ में,

खैर,

लेकिन इस बार उसका घमंड कुछ काम नहीं आने वाला था,

वापस उसने कुछ मंत्र बुदबुदाये,

“शुन्य”

इसी तरह वह जम्भाल, दंद्धौल आदि सभी शक्तियो और पता नहीं कितने ही महाप्रेत और महाभट्ट से रिक्त हो चूका था,

रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चूका था,

स्तिथि पूरी तरह से बाबा बसोठा के विपरीत थी,

वो लगभग अपनी सारी शक्तियों से रिक्त हो चूका था,

अब वो अपना मानसिक संतुलन खो चूका था, ऐसा पहली बार एसा उसके साथ हुआ और सबसे बुरी बात तो ये थी की अब उसके पास कुछ नहीं बचा था,

वह अब अपना आखिरी दाव खेलने वाला था, उसका आखिरी दाव था उसके गुरु,

उसने अपने गुरु की रूह को अब तक कैद किये हुए रखा था, उनकी शक्तियों को इस्तेमाल कर रहा था, लेकिन अब मामला उल्टा हो गया था, इसके अलावा उसके पास अब कोई चारा ही नहीं बचा था, हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रहा था,

प्रकति के विरुद्ध कार्य,

उसने अपने गुरु के कपाल जो हाथ में उठाया, और दोनों हाथो से पकड़ कर मंत्र बोल रहा था, कुछ ही समय शेष था बाण के छुटने में,

तभी दूसरी तरफ श्मशान में, वो पागल उठा अपनी जगह से और अपने शरीर को मोड़कर आलस झाडा,

मंदिर की तरफ देखकर उसने.....




















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Nevil singh

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अध्याय ३
खंड २

"कर्म-फल"
वह अब अपना आखिरी दाव खेलने वाला था, उसका आखिरी दाव था उसके गुरु,

उसने अपने गुरु की रूह को अब तक कैद किये हुए रखा था, उनकी शक्तियों को इस्तेमाल कर रहा था, लेकिन अब मामला उल्टा हो गया था, इसके अलावा उसके पास अब कोई चारा ही नहीं बचा था, हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रहा था,

प्रकति के विरुद्ध कार्य,

उसने अपने गुरु के कपाल जो हाथ में उठाया, और दोनों हाथो से पकड़ कर मंत्र बोल रहा था, कुछ ही समय शेष था बाण के छुटने में,

तभी दूसरी तरफ श्मशान में, वो पागल उठा अपनी जगह से और अपने शरीर को मोड़कर आलस झाडा,


मंदिर की तरफ देखकर उसने कहा “बहुत नाटक हो गया उसका, जा उसको बंद कर दे”

उसका इतना कहना ही था की वहा उस बाबा बसोठा की अलख बुझ गयी,

मंग्रक वही हवा में लोप हो गया,

अब बाबा बसोठा को भय सताने लगा,

बीच धार में ही अलख का बुझ जाना, उसकी शक्तियों के लोप होने का संकेत था

तभी अचानक से उसके सामने वही यक्ष प्रकट हुआ,

पहले की तरह वो शांत और मुस्कुरा नहीं रहा था,

बल्कि लेकिन इस बार वो गुस्से में लग रहा था,

यक्ष के प्रकट होते ही अष्ट-चक्रिका रक्षा सूत्र खण्ड-खण्ड हो गया,

जैसे की यक्ष के शक्तियों का ताप वो सहन नहीं कर सकी,

दूर पर कोई था जो इन सब क्रियाकलाप को देख रहा था,

सप्तोश !

अब वो पूरी तरह जड़-मूर्त हो चूका था,

उसने अपने गुरु की इस तरह की हार पहली बार देखी थी,

उसे समझ नहीं आ रहा था की अब क्या किया जाए,

और जैसे ही उसने यक्ष के प्रकट होने को देखा,

वो शून्य हो गया !

उसने यक्षो के बारे में सुना बहुत था, बहुत कहानिया भी पढ़ रखी थी,

लेकिन,

लेकिन, देखा पहली बार था,

क्या रूप था उसका !!

और उससे भी ज्यादा उसका तेज,

सप्तोश के इतना दूर दे देखने पर भी उसे उसके तेज का अहसास हो रहा था,

बेचारा,

सप्तोश का छोटा-सा मस्तिष्क इतना सब कुछ सहन न कर सका और वही
अचेत हो गिर पड़ा

लेकिन उस तरफ बसोठा को अचेत होने तक का आदेश नहीं था,

उसके सामने जैसे साक्षात् यमराज खड़े हो,

अब मृत्यु के अलावा उसके सामने कोई विकल्प नहीं था,

या तो मृत्यु का वरण कर ले या उस क्रोधित यक्ष से लडे,

लडे,

वो भी यक्ष से,

एक उप-उप-देवयोनी से,

यक्ष जब तक आप पर प्रसन्न रहे तो तब जैसे पूरी प्रथिवी पर आपके जैसा सानी कोई नहीं,

और यदि क्रोधित हो जाये तो आपकी दसो पुस्तो तक कोई पीछे पानी देने वाला तक नहीं बचे,

ऐसा प्रबल था वो यक्ष,

जैसे ही यक्ष ने अट्ठाहस लगाया,

वहा से सब कुछ उड़ चला,

सिवाए उस बाबा बसोठा और उसके गुरु के कपाल के,

यक्ष थोडा आगे बढ़ा,

उसने उसके उसके गुरु के कपाल को आदर सहित हाथ में उठाया,

कुछ क्षण देखता रहा और गायब,

लुप्त हो गया वो कपाल उस यक्ष के हाथ से,

मुक्त हो गयी उस गुरु की आत्मा,

चल पड़ी अपने अगले पड़ाव की ओर,

बाबा बसोठा,

भय के मारे अपलक ये सब देख रहा था,

“सुन साधक”

इतना सुनते ही वापस वो भय के मारे काप उठा

“तेरे
कर्म-फल अभी समाप्त नहीं हुए है”

“तेरी मृत्यु अभी तक बहुत दूर है”

“में तो बस उस सच्चे साधक को मुक्त कराने को आया था”

वो नहीं चाहते की कोई भी प्राणी किसी भी सच्चे साधक की शक्तियों का गलत फायदा उठाये”

“मेने कल तुम्हे यही इशारे से समझाया था की अभी भी वक्त है, छोड़ दो ये सब, बाकि का समय इतना कष्टपूर्ण नहीं बीतेगा”

“लेकिन तुमने अपनी नियति खुद ही चुनी है”

इतना कहते ही वह धम्म की आवाज के साथ लोप हो जाता है,

बसोठा के आखो के सामने अँधेरा छा जाता है और वो वही गिर पड़ता है |

.

.

..

...

रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चूका था,

यहाँ से कही दूर,

किसी दुसरे देश में,

अमान, राजमहल के मखमली बिस्तरों पर सो रहा था,

तभी अचानक,

जोर से खिड़की खुलने की आवाज आयी,

आख खुली अमान की,

उठा,

देखा सामने,

उसके सामने खड़ा था......
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Nevil singh

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अध्याय ३
खंड ३
श्राप या वरदान

रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चूका था,

यहाँ से कही दूर,

किसी दुसरे देश में,


अमान, राजमहल के मखमली बिस्तरों पर सो रहा था,

तभी अचानक,

जोर से खिड़की खुलने की आवाज आयी,

आख खुली अमान की,

उठा,

देखा सामने,

उसके सामने खड़ा था एक गिद्ध जैसा दिखने वाला व्यक्ति,

मध्यम कद,

लम्बी-सी नाक,

जैसे किसी गिद्ध की चोच हो,

बहुत छोटे-छोटे कान और

और पुरे शरीर बाल ही बाल

जैसे उसको कपडे पहहने की आवश्यकता ही नहीं हो,

हल्की सी दुर्गन्ध लिए वो बोल पड़ता है “ मालिक . . .”

“वो .. वो ...” डरते हुए

“बोलते रहो नामिक, में सुन रहा हु”

“और थोडा जल्दी” इस बार थोडा क्रोध में बोल पड़ता है

“मालिक, वो बसोठा...”

बसोठा का नाम सुनते ही अमान थोडा सतर्क हो गया

“क्या, बसोठा का सन्देश है” उत्तेजित होकर

“क्या कहा उसने”

“मालिक, वो बसोठा, रि..रि...रिक्त हो गया”

“क्या” चौकते हुए

“वो रिक्त हो गया”

“पर कैसे”

“इतनी तो हमारे पास
जानकारी नहीं है, मेरे मालिक”

“अब वो हमारे कुछ काम का नहीं है”

“ख़त्म कर दो, उसे”

“माफ़ करना मालिक, लेकिन..”

“अब क्या हुआ” अमान बिस्तर पर बैठते हुए, इस बार वो क्रोधित नहीं था

“लेकिन उसका अब तक पता नहीं लगा है की वो अभी कहा है”

“तो यहाँ क्या कर रहे हो अभी, जाओ और ढूंड कर ख़त्म कर दो उसे”

“जी मालिक”

वापस एक बार खिडकियों के टकराने की आवाज आती है, अब कमरे में अमान के अलावा कोई नहीं था, अमान बिस्तर पर बैठे कुछ देर तक सोचता है फिर कमरे से बहार निकाल जाता है

.

.

.

.

भोर लगभग हो ही चुकी थी, सूर्य की पहली किरण धरा से मिलने को बेताब थी, बादल भी इस बेताबी को बढाकर सूर्यदेव से वैर नहीं लेना चाहते थे, वो भी धीरे-धीरे छट रहे थे

नदी किनारे,

सप्तोश,

धीरे-धीरे उसको होश आ रहा था, लेकिन सर उसका बहुत भरी था, रात्रि की बात का स्मरण आते ही वो झट से उठ बैठता है,

सामने देखता है,

कोई आदमी उसके गुरु को खीच कर एक पेड़ के पास ले जा रहा था, इतना देखते ही वो उस तरफ दौड़ पड़ता है

ये दोजू था, जो बसोठा को खीच का एक पेड़ के सहारे लिटा देता है, दोजू भी थकते हुये वही बैठ जाता है ‘बसोठा के भारी शरीर को खीचना इतना आसन भी नहीं था, मेहनत लगा दी थी पूरी दोजू की’

सप्तोश को उसकी तरफ आते ही दोजू उठ जाता है,

“उठ गए तुम” उठते हुए दोजू बोलता है

“हा”

“लेकिन”

“गुरूजी को क्या हुआ है”

“कुछ नहीं, बस अपने कर्मो की सजा काट रहा है, जो इतने वर्षो से अटकी पड़ी थी” कहते हुए दोजू अपने थैले में से एक चमड़े की थैली निकलता है और सप्तोश को पीने को देता है
“ले, पी ले इसे, सारा सरदर्द और शरीर का ताप उतर जायेगा”

सप्तोश, दोजू के हाथ से वो पेय लेकर पीने लगता है

“मै नहीं चाहता की कोई बीमार और थका हारा व्यक्ति मेरे साथ यात्रा पर चले” दोजू ऐसे ही मजाक में बोल पड़ता है

“में कही नहीं चलने वाला, मुझे अब इनकी देखभाल करनी है” सप्तोश, अपने गुरु की और देखते हुए बोलता है

“तुम अब इसकी चिंता करना छोड़ दो, अब तेरा गुरु उस मंदिर के रक्षक या यु कहो की उस मंदिर के
प्रधान पुजारी की गुलामी में है”

सुनते ही सप्तोश चौक पड़ता है “क्या मतलब है आपका”

“यही की अब बसोठा लकवा ग्रस्त है, और इसको मौत तब तक नहीं आ सकती जब तक इसके कर्म ख़त्म नहीं हो जाते, और दुनिया की कोई भी ओषधी इसको ठीक नहीं कर सकती” बसोठा की तरफ देखते हुए दोजू बोलता है

“इतनी कठोर सजा देने का क्या तात्पर्य है”

“सजा !! , मै तो इसको वरदान कहूँगा”

वरदान !!!”

“हा”

“ये वरदान, कैसे हो सकता है ?” सप्तोश दोजू की बातो को अभी तक समझने में सक्षम नहीं था

“क्योकि, यदि इसने अपने कर्मो के फल के बिना देह त्याग दिया तो, ना जाने कितने ही और जन्म लेने पड़ेंगे इस अनवरत जीवनधारा से छुटने में, इस तरह का वरदान हर किसी को नहीं मिलता, वाकई में कितना सहृदय है वो रक्षक” इतना कहते ही दोजू मंदिर की दिशा में आदर सहित झुक जाता है

अब सप्तोश के पास दोजू के साथ चलने के अलावा और कोई चारा नहीं था,

अब उसने अपने मन को तैयार कर लिया था दोजू के साथ चलने में,

और गटक लिया वो पेय पदार्थ जो दोजू ने दिया था,

पल भर के बाद

शांति,

सबकुछ गायब


सरदर्द,

बदनदर्द,

तपिश

सबकुछ,

जितनी रहस्यपूर्ण दोजू की बाते थी,

उतनी ही चमत्कारी उसकी औषधीय भी थी

दे देख दोजू मुस्कुरा पड़ता है,

और दोनों चल पड़ते है उसके झोपड़े की ओर,

...

उधर दोजू के झोपड़े पर, दोजू की प्रतीक्षा कर रहे थे, माणिकलाल और रमन !

हा,

ये रमन था,

निर्मला, माणिकलाल को दोजू के साथ अकेले नहीं जाने देना चाहती थी, आखिरकार अपनी पत्नी से हारकर माणिकलाल ने रमन को अपने साथ चलने का प्रस्ताव रखा, जो रमन ने सहर्ष मान लिया, ये थी सच्ची दोस्ती !

दोजू के अपनी तरफ आते हुए माणिकलाल और रमन दोनों खड़े हो जाते है,

“हम चलने को तैयार है” दोजू के आते ही माणिकलाल बोल पड़ता है,

“तुम भी चल रहो साथ में” दोजू ने रमन की तरफ इशारा करते हुए कहा “ अच्छा है, तीन से भले चार

“तुम सब रुको, में कुछ जरुरी सामान लेकर आता हु” कहते हुए दोजू झोपड़े में घुस जाता है

थोड़ी देर बाद दोजू झोपड़े से बाहर आकर रमन से बोलता है “तुम्हे तलवार चलाना तो आता है ना?”

रमन झट से ‘हा’ बोल पड़ता है, रमन ये सुनकर थोडा उत्साह से भर जाता है, उसके बाप-दादा सब सेना में जो थे,

दोजू ने अपने झोले में से एक तलवार निकाल कर रमन को दे देता है,

जैसे ही रमन तलवार हाथ में लेता है, वो चौक पड़ता है

“ये तो लकड़ी की है” रमन दोजू से बोल पड़ता है

“हा”

“तेरे लिए ये ही काफी है” इतना सुनते ही रमन थोडा चिढ जाता है, और ये देखकर सप्तोश हल्का सा मुस्कुरा देता है

“हमारी यात्रा उत्तर दिशा की तरफ पहाड़ो की ओर चलेगी”

“चलो तो अब चलते है” इतना कहते ही दोजू चलने लगता है

सूर्य अब उदय हो चूका था, और वे चारो लोग लगभग गाव की सीमा पार कर ही चुके थे,

तभी,

वो गाव का पागल बुड्ढा,

उनकी तरफ पत्थर फेकते हुए,

और
गालिया बोलते हुए उनके सामने आ पड़ता है

“मादर**”

“सालो”

“तुम लोग अपने आपको समझते क्या हो”

“हरा* के जनों”

“रं* की औलाद”

.

.


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Nevil singh

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अध्याय ३

खंड ४


शक्ति



तभी,

वो गाव का पागल बुड्ढा,

उनकी तरफ पत्थर फेकते हुए,

और गालिया बोलते हुए उनके सामने आ पड़ता है

“मादर**”

“सालो”

“तुम लोग अपने आपको समझते क्या हो”

“हरा* के जनों”

“रं* की औलाद”

“बिना
शक्ति के जा रहे हो”

“मान लो मेरी बात”

“नहीं तो गां* मर*ते अओंगे मेरे पास”

ऐसे ही वो पागल गलिया देते हुए और पत्थर फेकते हुए उनके सामने आ रहा था

अचानक कुछ सुझा दोजू को,

उलटे कदम भाग लिया वापस गाव की ओर,

और उसके पीछे माणिकलाल, रमन और सप्तोश भी,

दोजू भागते हुए वापस अपने झोपड़े पर आ जाता है, और झोपड़े के बाहर ही बैठ जाता है, हालाँकि दोजू दिखने में बुड्ढा जरुर था लेकिन उसकी फुर्ती देखने लायक थी, सप्तोश माणिकलाल और रमन ‘अब’ पहुचे थे उसके पास !

“आखिर परेशानी क्या है उस बुड्ढे को, पीछे ही पड़ गया” रमन ने हाफते हुए कहा “अब जाकर उसने पीछा छोड़ा ”

कहते हुए रमन और वे दोनों भी वही नीचे मिट्टी में बैठ जाते है,

वैसे तो दोजू उस पागल बुड्ढे के बारे में जानता था,

लेकीन सच तो यही था की वो भी उसके बारे में पूरी तरह से वाकिफ नहीं था, इसीलिए जहा तक हो वो उससे बच कर रहता था !

दोजू सोंच रहा था की आखिर क्या गलती हो गयी, जो उसको हमारे पीछे आना पड़ा,

क्योकि उसे पता है की बिना गलती के वो इतनी दूर तक नहीं आएगा

“वो तो मेरी भी समझ से परे है” सप्तोश बैठे-बैठे ही बोलता है “बड़ा ही तेज भागता है वो, पता नहीं कौनसे
वचन की बात कर रहा था”

वचन !!

अचानक दोजू के मस्तिस्क में ‘वचन’ का नाम सुनते ही कुछ याद आया

‘हा’


‘वचन’

‘सही कहा उसने’

‘और’

‘और हा’

शक्ति’

शक्ति भी कहा था उसने’

‘आखिर मै भूल कैसे गया’

दोजू अपनी नादानी पर हल्का सा मुस्कुराया, दोजू उठा और चल पड़ा मंदिर की ओर

.

.

.

.


उधर राजा धूम्रकेतु अपनी राजधानी पहुच चूका था,

लेकिन राजधानी पहुचते ही उसे एक धक्का लगा,

एक बुरी खबर ने उसका स्वागत किया,

और ये खबर ये थी की उसका प्रधान सेनापति मार्केश गायब था,

मतलब की
अगवा कर लिया गया था

मार्केश उसका प्रधान सेनापति ही नहीं अपितु उसका बचपन का मित्र और सबसे करीबी विश्वासु भी था, उसके अगवा होने की खबर से अब उसको दो बातो का भय सता रहा था,

पहली तो ये की अब वो जिन्दा भी है या नहीं,

और

दूसरी ये की राजा की सारी रणनीति और गुप्त ठिकानो से वो पूरी तरह अवगत था कही वो दुश्मन के हाथो ना लग जाये

दूसरी बात का भय राजा को इतना नहीं था जितना की पहली बात के,

राजा जानता था की मार्केश जान दे देगा लेकिन
गुप्त सूत्र किसी के हाथ नहीं लगने देगा

माहौल की गंभीरता को देखते हुए राजा धूम्रकेतु जल्दी ही राजसभा की बैठक के लिए सबको जल्द-से-जल्द उपस्थित होने का आदेश देता है

.

.


.

.

दोजू मंदिर में जिसके लिए आया था उसको हर जगह देख चूका था, लेकिन वो कही नहीं दिख रही थी

दरअसल, दोजू आया था चेत्री और डामरी के लिए,

आखिरकार दोजू उस पागल बुड्ढे को अब तक नहीं समझ पा रहा था, जितना वो उसको समझता और उससे दूर होता जाता,

‘बिना
शक्ति के जा रहे हो’

‘हा’

यही कहा था उसने,

कितने प्रतीकात्मक ढंग से कहा था उसने,


‘स्त्री शक्ति का स्वरुप है’


ज्ञानियों ने स्त्री को मान दिया,

सम्मान दिया,

क्यों ?

किसलिए ?

क्या वो कमझोर है इसीलिए,

या फिर वो अपनी रक्षा करने में असमर्थ है,

नहीं,

‘स्त्री तो शक्ति का स्वरुप है’

‘कौनसी शक्ति ?’

‘सृजन की शक्ति’

‘हा’

‘स्त्री तो सृजनात्म्कता का प्रतिरूप है’

‘सृजन के बिना कुछ भी संभव नहीं”

‘पुरुष नहीं’

‘प्रकति ने पुरुष को बल दिया’

‘किसलिए’

‘स्त्री की रक्षा के लिए’


‘उसके शोषण के लिए नहीं’

“सुनिए वैद्यजी, किसे ढूंड रहे हो ?” कबसे दोजू को इधर-उधर मंदिर में किसी की तलाश करते हुए पुजारी देखता है, आखिरकार वो पूछ ही पड़ता है “या कुछ खो गया है”

“वो राजवैद्यीजी और उनकी सहायिका हो”

“अरे, वो दोनों तो कल सुबह से वापस ही नहीं आयी है”

ये सुनते ही.....
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Nevil singh

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अध्याय ३
खंड ५
आरम्भ
“सुनिए वैद्यजी, किसे ढूंड रहे हो ?” कबसे दोजू को इधर-उधर मंदिर में किसी की तलाश करते हुए पुजारी देखता है, आखिरकार वो पूछ ही पड़ता है “या कुछ खो गया है”

“वो राजवैद्यीजी और उनकी सहायिका हो”

“अरे, वो दोनों तो कल सुबह से वापस ही नहीं आयी है”

इतना सुनते ही दोजू दौड़ पड़ता है माणिकलाल की घर की तरफ

कल सुबह से चेत्री और डामरी मंदिर की तरफ नहीं लौटी, इसका मतलब की वे दोनों अभी भी माणिकलाल के घर पर ही होगी, इसीलिए दोजू बिना समय गवाए माणिकलाल के घर की तरफ चल पड़ता है |

उधर माणिकलाल के घर पर डामरी निर्मला की खाना बनाने में मदद कर रही थी,

और चेत्री,

चेत्री सुरभि में हुए इस अचानक परिवर्तन का निरिक्षण कर रही थी,

चेत्री अचंभित थी सुरभि को अब इस हालत में देख कर,

उसे अभी भी इस सब पर विश्वाश नहीं हो रहा था,

लेकिन विश्वास करना भी जरुरी था

और हुआ भी सब उसके सामने था,

आखिर क्या था वो कौड़म,

जिससे इतना सब कुछ हो गया,

क्या वो वो साधारण सा बिच्छु था,

नहीं

बिच्छु का जहर इसकी काया सहन नहीं कर पाती

आखिर...

अभी बीच में दरवाजे पर दस्तक होती है

ये दोजू था,

दस्तक सुनते ही निर्मला बाहर की तरफ देखती है, “क्या हुआ वैद्यजी, वो अभी तक पहुचे नहीं क्या ?” निर्मला थोडा असमंजस में बोलती है

“वो तो कब का पहुच गया” अन्दर आते ही दोजू बोलता है “अभी मेरे झोपड़े पर ही बैठा है”

“इतना जल्दी कैसे आ गया दोजू” दोजू के अन्दर आते ही चेत्री बोल पड़ती है

“मेरे पास तुम्हारे और डामरी के लिए एक निमंत्रण है”

“निमंत्रण”

“कैसा निमंत्रण”

“हमारे साथ यात्रा पर चलने का”

“तुम्हारे साथ यात्रा पर, लेकिन हमें क्या मिलेगा”

सौदा !!!

अब सौदा करने की बारी चेत्री की थी

“क्या चाहिए तुम्हे ?” दोजू बोल पड़ता है

“ज्ञान चाहिए है” चेत्री बोलती है “जो तुम्हारे पास है वो सब कुछ”

“मंजूर है” बिना कुछ सोचे समझे ही दोजू ने हा कह दिया जैसे की उसके लिए ये यात्रा ही सब कुछ है

“तो ठीक है” चेत्री भी हतप्रभ थी की दोजू इतनी आसानी से मान लेगा

“चलो चलते है” इतना कहते ही दोजू चल पड़ता है, और पीछे-पीछे चेत्री और डामरी बिह चल पड़ते है

इसी के साथ दोजू, माणिकलाल, सप्तोश, रमन, चेत्री और डामरी की यात्रा
आरम्भ होती है, जो ‘कदर्पी’ से उन ‘उत्तरी’ पहाड़ो की तरफ थी जिसका उद्देश्य सिर्फ दोजू को ही पता था,

क्या है वो उद्देश्य जिसके लिए सभी ने कुछ-न-कुछ दाव पर लगाया है

या उस वचन के लिए,

आखिर क्या है उस वचन में,

ये सब बताएगी इन सब की बारह दिनों की यात्रा,


इसी यात्रा का आरम्भ इस अध्याय की समाप्ति पर होता है

Hasheen update mitr
 
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