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Incest वो तो है अलबेला (incest + adultery)

क्या संध्या की गलती माफी लायक है??


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Akdu Insan

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Yeh randi sandhya ab itna drama kyu kar rahi hai
Pati mra ro devar ke aage tange failadi iss raand ne bete se jyada devar ka sapola pyara hai hai raabd ko to drama kyu

Khair main reason hi yahi hoga kahani ke hero ke bhagne ka apni raand maa ko uske devar ke niche leta dekh liya hoga
 

Raj_sharma

परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति ||❣️
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तेज हवाऐं चल रही थी। शायद तूफ़ान था क्यूंकि ऐसा लग रहा था मानो अभी इन हवाओं के झोके बड़े-बड़े पेंड़ों को उख़ाड़ फेकेगा। बरसात भी इतनी तेजी से हो रही थी की मानो पूरा संसार ना डूबा दे। बादल की गरज ऐसी थी की उसे सुनकर लोग अपने-अपने घरों में दुबक कर बैठे थे।

जहां एक तरफ इस तूफानी और डरावनी रात में लोग अपने घरों में बैठे थे। वहीं दूसरी तरफ एक बच्चा, इस तूफान से लड़ते हुए आगे भागते हुए चले जा रहा था।

बदन पर एक सफेद रंग का शर्ट और एक पैंट पहने हुए ये लड़का इस गति से आगे बढ़ रहा था, मानो उसे इस तूफान से कोई डर ही नही। तेज़ चल रही हवाऐं उसे रोकने की बेइंतहा कोशिश करती। वो लड़का बार-बार ज़मीन पर गीरता लेकिन फीर खड़े हो कर तूफान से लड़ते हुए आगे की तरफ बढ़ चलता।

ऐसे ही तूफान से लड़ कर वो एक बड़े बरगद के पेंड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया। वो पूरी तरह से भीग चूका था। तेज तूफान की वज़ह से वो ठीक से खड़ा भी नही हो पा रहा था। शायद बहुत थक गया था। वो एक दफ़ा पीछे मुड़ कर गाँव की तरफ देखा। उसकी आंखे नम हो गयी, शायद आंशू भी छलके होंगे मगर बारीश की बूंदे उसके आशूं के बूंदो में मील रहे थे। वो लड़का कुछ देर तक काली अंधेरी रात में गाँव की तरफ देखता रहा, उसे दूर एक कमरे में हल्का उज़ाल दीख रहा था। उसे ही देखते हुए वो बोला...

"जा रहा हूं माँ!!"

और ये बोलकर वो लड़का अपने हांथ से आंशू पोछते हुए वापस पलटते हुए गाँव के आखिरी छोर के सड़क पर अपने कदम बढ़ा दीये....


तूफान शांत होने लगी थी। बरसात भी अब रीमझीम सी हो गयी थी, पर वो लड़का अभी भी उसी गति से उस कच्ची सड़क पर आगे बढ़ा जा रहा था। तभी उस लड़के की कान में तेज आवाज़ पड़ी....

पलट कर देखा तो उसकी आँखें चौंधिंया गयी। क्यूंकि एक तेज प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ी थी। उसने अपना हांथ उठाते हुए अपने चेहरे के सामने कीया और उस प्रकाश को अपनी आँखों पर पड़ने से रोका। वो आवाज़ सुनकर ये समझ गया था की ये ट्रेन की हॉर्न की आवाज़ है। कुछ देर बाद जब ट्रेन का इंजन उसे क्रॉस करते हुए आगे नीकला, तो उस लड़के ने अपना हांथ अपनी आँखों के सामने से हटाया। उसके सामने ट्रेन के डीब्बे थे, शायद ट्रेन सीग्नल ना होने की वजह से रुक गयी थी।

उसने देखा ट्रेन के डीब्बे के अंदर लाइट जल रही थीं॥ वो कुछ सोंचते हुए उस ट्रेन को देखते रहा। तभी ट्रेन ने हॉर्न मारा। शायद अब ट्रेन सिग्नल दे रही थी की, ट्रेन चलने वाली है। ट्रेन जैसे ही अपने पहीये को चलायी, वो लड़का भी अपना पैर चलाया, और भागते हुए ट्रेन पर चढ़ जाता है। और चलती ट्रेन के गेट पर खड़ा होकर एक बार फीर से वो उसी गाँव की तरफ देखने लगता है। और एक बार फीर उसकी आँखों के सामने वही कमरा दीखता है जीसमे से हल्का उज़ाला था। और देखते ही देखते ट्रेन ने रफ्तार बढ़ाई और हल्के उज़ाले वाला कमरा भी उसकी आँखों से ओझल हो गया.....


--------------

कमरे में हल्की रौशनी थी, एक लैम्प जल रहा था। बीस्तर पर दो ज़ीस्म एक दुसरे में समाने की कोशिश में जुटे थे। मादरजात नग्न अवस्था में दोनो उस बीस्तर पर गुत्थम-गुत्थी हुए काम क्रीडा में लीन थे। कमरे में फैली उज़ाले की हल्की रौशनी में भी उस औरत का बदन चांद की तरह चमक रहा था। उसके उपर लेटा वो सख्श उस औरत के ठोस उरोज़ो को अपने हांथों में पकड़ कर बारी बारी से चुसते हुए अपनी कमर के झटके दे रहा था।

उस औरत की सीसकारी पूरे कमरे में गूंज रही थी। वो औरत अब अपनी गोरी टांगे उठाते हुए उस सख्श के कमर के इर्द-गीर्द रखते हुए शिकंजे में कस लेती है। और एक जोर की चींख के साथ वो उस सख्श को काफी तेजी से अपनी आगोश में जकड़ लेती है और वो सख्श भी चींघाड़ते हुए अपनी कमर उठा कर जोर-जोर के तीन से चार झटके मारता है। और हांफते हुए उस औरत के उपर ही नीढ़ाल हो कर गीर जाता है।

"हो गया तेरा, अब जा अपने कमरे में। मैं नही चाहती की कीसी को कुछ पता चले।"

उस औरत की बात सुनकर वो सख्श मुस्कुराते हुए उसके गुलाबी होठों को चूमते हुए, उसके उपर से उठ जाता है और अपने कपड़े पहन कर जैसे ही जाने को होता है। वो बला की खुबसूरत औरत एक बार फीर बोली--

"जरा छुप-छुपा कर जाना, और हां अभय के कमरे की तरफ से मत जाना।"

उस औरत की बात सुनकर, वो सख्श एक बार फीर मुस्कुराते हुए बोला--

"वो अभी बच्चा है भाभी, देख भी लीया तो क्या करेगा? और वैसे भी वो तुमसे इतना डरता है, की कीसी से कुछ बोलने की हीम्मत भी नही करेगा।"

उस सख्श की आवाज़ सुनकर, वो औरत बेड पर उठ कर बैठ जाती है और अपनी अंगीयां (ब्रा) को पहनते हुए बोली...

"ना जाने क्यूँ...कुछ अज़ीब सी बेचैनी हो रही है। मैने अभय के सांथ बहुत गलत कीया।"

"ये सब छोड़ो भाभी, अब तूम सो जाओ।"

कहते हुए वो सख्श उस कमरे से बाहर नीकल जाता है। वो औरत अभी भी बीस्तर पर ब्रा पहने बैठी थी। और कुछ सोंच रही थी, तभी उसके कानो में ट्रेन की हॉर्न सुनायी पड़ती है। वो औरत भागते हुए कमरे की उस खीड़की पर पहुंच कर बाहर झाकती है। उसे दूर गाँव की आखिर छोर पर ट्रेन के डीब्बे में जल रही लाईटें दीखी, जैसे ही ट्रेन धीरे-धीरे चली। मानो उस औरत की धड़कने भी धिरे-धिरे बढ़ने लगी....
पहली नज़र में ओर पहले अपडेट में ही ये कहानि दिल मे उत्तर रहि है, गाओ की पृष्ठमभुमि लगती है पहली नजर मैं।
जों की ओर भी भाती हैं मुझे।।
नई कहानी की बोहोत बहोत शुभकामनाएं
 

Raj_sharma

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अपडेट २

ताराचंद जौहरी था, उसे खरे सोने की पहचान अच्छी तरह थी। इसलिए, वो उस सोने की चैन को देख कर उसकी आँखें चौंधिया गयी।

"अरे बेटा, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बैठ जा, आजा...आजा बैठ।"

वो लड़का मुस्कुराते हुए, नीचे फर्श पर बीछे सफदे रंग के साफ गद्दे पर बैठ जाता है।

ताराचंद --"तुम्हारा नाम क्या है बेटा?"

"मेरा नाम? अभी तक कुछ सोचा नही है। चलो तुम ही कोई अच्छा सा नाम बता दो?"

उस लड़के की करारी बाते सुनकर ताराचंद अचंभीत होते हुए बोला...

ताराचंद --"अरे बेटा...क्यूँ मज़ाक करते हो? तूम्हारे माँ-बाप ने, तुम्हारा नाम कुछ ना कुछ तो रखा ही होगा?"

ताराचंद की बात सुनकर वो लड़का एक बार फीर मुस्कुराते हुए बोला...

"हां याद आया, मेरा नाम अभीनव है। पर तुम मुझे प्यार से अभि बुला सकते हो। अच्छा अब मेरे नाम करण के बारे में छोड़ो, और ये बताओ की इस चैन का कीतना मीलेगा?"

कहते हुए वो लड़का जीसने अपना नाम सेठ को अभीनव बताया था, चैन को सेठ की तरफ बढ़ा दीया। सेठ ने आगे हांथ बढ़ाते हुए सोने की चैन को अपने हांथ में लीया तो उसे काफी वज़न दार लगा।

सेठ ने तराजू नीकालते हुए सोने का वज़न कीया और फीर तराजू को नीचे रखते हुए चश्मे की आड़ से देखते हुए बोला।

सेठ --"वाह...बेटा! ये चैन तो वाकई वज़नदार है। कहीं से चूरा कर तो नही लाये?"

सेठ की बात पर अभि के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान फैल गयी।

अभि --"कमाल करता है तू भी? सेठ होकर पुलिस वालों की भाषा बोल रहा है। ला मेरा चैन वापस कर।"

सेठ --"अरे...अरे बेटा! मज़ाक था। सच बोलूं तो...तीन २ लाख तक दे सकता हूँ। पर तुम इतने सारे पैसों का करोगे क्या...?"

अभि --"ऐ गोबर चंद, अपने काम से काम कर तू। लेकिन...बात तो तेरी ठीक है, की इतने सारे पैसों का करुगां क्या? एक बात बता सेठ? यहां रहने के लीए कोई कमरे का इंतज़ाम है क्या?"

अभि की बात सुनकर वो सेठ अपना चश्मा उतारते हुए उस अभि को असंमजस भरी नीगाहों से देखते हुए बोला...

सेठ --"जान पड़ता है की, तुम्हारे सांथ जरुर कुछ बुरा हुआ है। पर मैं आगे कुछ पूछूंगा नही। मन करे तो कभी बताना जरुर। रही बात रहने की जगह की, तो तुम मेरे घर में रह सकते हो। बड़ा घर है मेरा, पर रहने वाले सीर्फ दो, मैं और मेरी जोरु।"

सेठ की बात सुनकर, अभि कुछ सोंचते हुए बोला...

अभि --"वो तो ठीक है गोबर चंद। पर भाड़ा १ हज़ार से ज्यादा ना दे सकूं।"

अभि की बात बार सेठ हसं पड़ा, और हसंते हुए बोला...

सेठ --"अरे छोरे...मैनें तो भाड़े की बात छेंड़ी ही नही। तुम अभी बेसहारे हो, तो बस इसांनीयत के नाते मैं तुम्हारी मदद कर रहा था। मुझे भाड़ा नही चाहिए।"

अभि --"इसे मदद नही एहसान कहते है सेठ, और एहसान के तले दबा हुआ इंसान एक कर्ज़ के तले दबे हुए इसांन से ज्यादा कर्ज़दार होता है। कर्ज़ा तो उतार सकते है एहसान नही। तो मुझे एहसान की ज़िदंगी नही ऐशो-आराम की ज़िंदगी चाहिए। हज़ार रुपये नक्की है तो बोल सेठ? वरना कहीं और चलूं।"


सेठ के कान खड़े हो गये, शायद सोंच में पड़ गया था, की इतनी कम उम्र में ये लड़का ऐसी बाते कैसे बोल सकता है?

सेठ --"क्या बात है छोरे? क्या खुद्दारी है तेरे अंदर! एक दीन ज़रुर ज़माने में सीतारा बन कर चमकेगा।"

सेठ की बात पर अभि ने एक बार फीर अपने चेहरे पर मुस्कान की छवि लीए बोला...

अभि --"मुझे अंधेरे में चमकने वाला वो सीतारा नही बनना, जो सीर्फ आँखों को सूकून दे, सेठ। बल्कि मुझे तो दीन में चमकने वाला वो सूरज बनना है, जो चमके तो धरती पर उज़ाला कर दे, अगर भड़के तो मीट्टी को भी राख का ढेर कर दे।"

सेठ तो बस अपनी आँखे हैरतगेंज, आश्चर्यता से फैलाए अभि के शब्द भेदी बाड़ों की बोली को बस सुनता ही रह गया...

-------------**

गाँव के बीचो-बीच खड़ी ठाकुर परम सिंह की आलीशान हवेली में अफरा-तफरा मची थी। पुलिस की ज़िप आकर खड़ी थी। हवेली के बैठके(हॉल) में । संध्या सिंह जोर से चींखती चील्लाती हुई बोली...

संध्या --"मुझे मेरा बेटा चाहिए....! चाहे पूरी दुनीया भर में ही क्यूँ ना ढ़ूढ़ना पड़ जाये तुम लोग को? जीतना पैसा चाहिए ले जाओ....!! पर मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्च्च्च्चे...."।

कहते हुए संध्या जोर-जोर से रोने लगी। सुबह से दोपहर हो गयी थी, पर संध्या की चींखे रुकने का नाम ही नही ले रही थी। गाँव के लोग भी ये खबर सुनकर चौंके हुए थे। और चारो दिशाओं मे अभय के खोज़ खबर में लगे थे। ललिता और मालति को, संध्या को संभाल पाना मुश्किल हो रहा था। संध्या को रह-रह कर सदमे आ रहे थें। कभी वो इस कदर शांत हो जाती मानो जिंदा लाश हो, पर फीर अचानक इस तरह चींखते और चील्लाते हुए सामन को तोड़ने फोड़ने लगती मानो जैसे पागल सी हो गयी हो।

रह-रह कर सदमे आना, संध्या का पछतावा था? या अपने बेटे से बीछड़ने का गम? या फीर कुछ और? कुछ भी कह पाना इस समय कठीन था। अभय ने आखिर घर क्यूँ छोड़ा? अपनी माँ का आंचल क्यूँ छोड़ा? इस बात का जवाब सिर्फ अभय के पास था। जो इस आलीशान हवेली को लात मार के चला गया था, कीसी अनजान डगर पर, बीना कीसी मक्सद के और बीना कीसी मंज़ील के।

अक्सर हमारे घरो में, कहा जाता है की, घर में बड़ो का साया होना काफी ज़रुरी है। क्यूंकी उन्ही के नक्शे कदम से बच्चो को उनको उनकी ज़िंदगी का मक्सद और मंज़िल ढुंढने की राह मीलती है। मगर आज अभय अपनी मज़िल की तलाश में एक ऐसी राह पर नीकल पड़ा था, जो शायद उसके लिए अनजाना था, पर शुक्र है, की वो अकेला नही था कम से कम उसके सांथ उसकी परछांयी तो थी।

कहते हैं बड़ो की डाट-फटकार बच्चो की भलाई के लिए होता है। शायद हो भी सकता है, पर मेरे दोस्त जो प्यार कर सकता है। वो डाट-फटकार नही। प्यार से रिश्ते बनते है। डाट-फटकार से रिश्ते बीछड़ते है, जैसे आज एक बेटा अपनी माँ से और माँ एक बेटे से बीछड़े थे। रीश्तो में प्यार कलम में भरी वो स्याही है, जब तक रहेगी कीताब के पन्नो पर लीखेगी। स्याही खत्म तो पन्ने कोरे रह जायेगें। उसी तरह रीश्तो में प्यार खत्म, तो कीताब के पन्नो की तरह ज़िंदगी के पन्ने भी कोरे ही रह जाते हैं।


खैर, हवेली की दीवारों में अभी भी संध्या की चींखे गूंज रही थी की तभी, एक आदमी भागते हुए हवेली के अंदर आया और जोर से चील्लाया...

"ठ...ठाकुर साहब!!"

आवाज़ काभी भारी-भरकम थी, इसलिए हवेली में मौजूद सभी लोगों का ध्यान उस तरफ केंद्रीत कर ली थी। सबसे पहली नज़र उस इंसान पर ठाकुर रमन की पड़ी। रमन ने देखा वो आदमी काफी तेजी से हांफ रहा था, चेहरे पर घबराहट के लक्षणं और पसीने में तार-तार था।

रमन --"क्या हुआ रे दीनू? क्यूँ गला फाड़ रहा है?"

दीनू नाम का वो सख्श अपने गमझे से माथे के पसीनो को पोछते हुए घबराहट भरी लहज़े में बोला...

दीनू --"मालीक...वो, वो गाँव के बाहर वाले जंगल में। ए...एक ब...बच्चे की ल...लाश मीली है।"

रमन --"ल...लाश क...कैसी लाश?"

उस आदमी की आवाज़ ने, संध्या के अंदर शरीर के अंदरुनी हिस्सो में खून का प्रवाह ही रोक दीया था मानो। संध्या अपनी आँखे फाड़े उस आदमी को ही देख रही थी...

दीनू --"वो...वो मालिक, आप खुद ही देख लें। ब...बाहर ही है।"

दीनू का इतना कहना था की, रमन, ललिता, मालती सब लोग भागते हुए हवेली के बाहर की तरफ बढ़े। अगर कोई वही खड़ा था तो वो थी संध्या। अपनी हथेली को महलते हुए, ना जाने चेहरे पर कीस प्रकार के भाव अर्जीत कीये थी, शारिरीक रवैया भी अजीबो-गरीब थी उसकी। कीसी पागल की भाती शारीरीक प्रक्रीया कर रही थी। शायद वो उस बात से डर रही थी, जो इस समय उसके दीमाग में चल रहा था।

शायद संध्या को उस बात की मंजूरी भी मील गयी, जब उसने बाहर रोने-धोने की आवाज़ सुनी। संध्या बर्दाश्त ना कर सकी और अचेत अवस्था में फर्श पर धड़ाम से नीचे गीर पड़ती है....

-------------**
बोहोत ही उम्दा लिखाई
शानदार लाजवाब बेहतरीन पोस्ट,
केवल एक कमी वो है अपडेट की गति।
👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻
 

Raj_sharma

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शुरुआत बढ़िया है उम्मीद है कि रोचकता बनी रहेगी
मनीष भाई आपसे प्रेरीत हो कर लिखा है भाई साहब ने।।
वैसे मै कोई तुलना नहीं करूंगा
क्यु की आपकी जैसे पक्का होने में टाइम लगेगा।।
 

sunoanuj

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Bhaut he jabardast update tha .. ab next update ka intezar kathin hoga …
 

A.A.G.

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अपडेट २

ताराचंद जौहरी था, उसे खरे सोने की पहचान अच्छी तरह थी। इसलिए, वो उस सोने की चैन को देख कर उसकी आँखें चौंधिया गयी।

"अरे बेटा, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बैठ जा, आजा...आजा बैठ।"

वो लड़का मुस्कुराते हुए, नीचे फर्श पर बीछे सफदे रंग के साफ गद्दे पर बैठ जाता है।

ताराचंद --"तुम्हारा नाम क्या है बेटा?"

"मेरा नाम? अभी तक कुछ सोचा नही है। चलो तुम ही कोई अच्छा सा नाम बता दो?"

उस लड़के की करारी बाते सुनकर ताराचंद अचंभीत होते हुए बोला...

ताराचंद --"अरे बेटा...क्यूँ मज़ाक करते हो? तूम्हारे माँ-बाप ने, तुम्हारा नाम कुछ ना कुछ तो रखा ही होगा?"

ताराचंद की बात सुनकर वो लड़का एक बार फीर मुस्कुराते हुए बोला...

"हां याद आया, मेरा नाम अभीनव है। पर तुम मुझे प्यार से अभि बुला सकते हो। अच्छा अब मेरे नाम करण के बारे में छोड़ो, और ये बताओ की इस चैन का कीतना मीलेगा?"

कहते हुए वो लड़का जीसने अपना नाम सेठ को अभीनव बताया था, चैन को सेठ की तरफ बढ़ा दीया। सेठ ने आगे हांथ बढ़ाते हुए सोने की चैन को अपने हांथ में लीया तो उसे काफी वज़न दार लगा।

सेठ ने तराजू नीकालते हुए सोने का वज़न कीया और फीर तराजू को नीचे रखते हुए चश्मे की आड़ से देखते हुए बोला।

सेठ --"वाह...बेटा! ये चैन तो वाकई वज़नदार है। कहीं से चूरा कर तो नही लाये?"

सेठ की बात पर अभि के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान फैल गयी।

अभि --"कमाल करता है तू भी? सेठ होकर पुलिस वालों की भाषा बोल रहा है। ला मेरा चैन वापस कर।"

सेठ --"अरे...अरे बेटा! मज़ाक था। सच बोलूं तो...तीन २ लाख तक दे सकता हूँ। पर तुम इतने सारे पैसों का करोगे क्या...?"

अभि --"ऐ गोबर चंद, अपने काम से काम कर तू। लेकिन...बात तो तेरी ठीक है, की इतने सारे पैसों का करुगां क्या? एक बात बता सेठ? यहां रहने के लीए कोई कमरे का इंतज़ाम है क्या?"

अभि की बात सुनकर वो सेठ अपना चश्मा उतारते हुए उस अभि को असंमजस भरी नीगाहों से देखते हुए बोला...

सेठ --"जान पड़ता है की, तुम्हारे सांथ जरुर कुछ बुरा हुआ है। पर मैं आगे कुछ पूछूंगा नही। मन करे तो कभी बताना जरुर। रही बात रहने की जगह की, तो तुम मेरे घर में रह सकते हो। बड़ा घर है मेरा, पर रहने वाले सीर्फ दो, मैं और मेरी जोरु।"

सेठ की बात सुनकर, अभि कुछ सोंचते हुए बोला...

अभि --"वो तो ठीक है गोबर चंद। पर भाड़ा १ हज़ार से ज्यादा ना दे सकूं।"

अभि की बात बार सेठ हसं पड़ा, और हसंते हुए बोला...

सेठ --"अरे छोरे...मैनें तो भाड़े की बात छेंड़ी ही नही। तुम अभी बेसहारे हो, तो बस इसांनीयत के नाते मैं तुम्हारी मदद कर रहा था। मुझे भाड़ा नही चाहिए।"

अभि --"इसे मदद नही एहसान कहते है सेठ, और एहसान के तले दबा हुआ इंसान एक कर्ज़ के तले दबे हुए इसांन से ज्यादा कर्ज़दार होता है। कर्ज़ा तो उतार सकते है एहसान नही। तो मुझे एहसान की ज़िदंगी नही ऐशो-आराम की ज़िंदगी चाहिए। हज़ार रुपये नक्की है तो बोल सेठ? वरना कहीं और चलूं।"


सेठ के कान खड़े हो गये, शायद सोंच में पड़ गया था, की इतनी कम उम्र में ये लड़का ऐसी बाते कैसे बोल सकता है?

सेठ --"क्या बात है छोरे? क्या खुद्दारी है तेरे अंदर! एक दीन ज़रुर ज़माने में सीतारा बन कर चमकेगा।"

सेठ की बात पर अभि ने एक बार फीर अपने चेहरे पर मुस्कान की छवि लीए बोला...

अभि --"मुझे अंधेरे में चमकने वाला वो सीतारा नही बनना, जो सीर्फ आँखों को सूकून दे, सेठ। बल्कि मुझे तो दीन में चमकने वाला वो सूरज बनना है, जो चमके तो धरती पर उज़ाला कर दे, अगर भड़के तो मीट्टी को भी राख का ढेर कर दे।"

सेठ तो बस अपनी आँखे हैरतगेंज, आश्चर्यता से फैलाए अभि के शब्द भेदी बाड़ों की बोली को बस सुनता ही रह गया...

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गाँव के बीचो-बीच खड़ी ठाकुर परम सिंह की आलीशान हवेली में अफरा-तफरा मची थी। पुलिस की ज़िप आकर खड़ी थी। हवेली के बैठके(हॉल) में । संध्या सिंह जोर से चींखती चील्लाती हुई बोली...

संध्या --"मुझे मेरा बेटा चाहिए....! चाहे पूरी दुनीया भर में ही क्यूँ ना ढ़ूढ़ना पड़ जाये तुम लोग को? जीतना पैसा चाहिए ले जाओ....!! पर मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्च्च्च्चे...."।

कहते हुए संध्या जोर-जोर से रोने लगी। सुबह से दोपहर हो गयी थी, पर संध्या की चींखे रुकने का नाम ही नही ले रही थी। गाँव के लोग भी ये खबर सुनकर चौंके हुए थे। और चारो दिशाओं मे अभय के खोज़ खबर में लगे थे। ललिता और मालति को, संध्या को संभाल पाना मुश्किल हो रहा था। संध्या को रह-रह कर सदमे आ रहे थें। कभी वो इस कदर शांत हो जाती मानो जिंदा लाश हो, पर फीर अचानक इस तरह चींखते और चील्लाते हुए सामन को तोड़ने फोड़ने लगती मानो जैसे पागल सी हो गयी हो।

रह-रह कर सदमे आना, संध्या का पछतावा था? या अपने बेटे से बीछड़ने का गम? या फीर कुछ और? कुछ भी कह पाना इस समय कठीन था। अभय ने आखिर घर क्यूँ छोड़ा? अपनी माँ का आंचल क्यूँ छोड़ा? इस बात का जवाब सिर्फ अभय के पास था। जो इस आलीशान हवेली को लात मार के चला गया था, कीसी अनजान डगर पर, बीना कीसी मक्सद के और बीना कीसी मंज़ील के।

अक्सर हमारे घरो में, कहा जाता है की, घर में बड़ो का साया होना काफी ज़रुरी है। क्यूंकी उन्ही के नक्शे कदम से बच्चो को उनको उनकी ज़िंदगी का मक्सद और मंज़िल ढुंढने की राह मीलती है। मगर आज अभय अपनी मज़िल की तलाश में एक ऐसी राह पर नीकल पड़ा था, जो शायद उसके लिए अनजाना था, पर शुक्र है, की वो अकेला नही था कम से कम उसके सांथ उसकी परछांयी तो थी।

कहते हैं बड़ो की डाट-फटकार बच्चो की भलाई के लिए होता है। शायद हो भी सकता है, पर मेरे दोस्त जो प्यार कर सकता है। वो डाट-फटकार नही। प्यार से रिश्ते बनते है। डाट-फटकार से रिश्ते बीछड़ते है, जैसे आज एक बेटा अपनी माँ से और माँ एक बेटे से बीछड़े थे। रीश्तो में प्यार कलम में भरी वो स्याही है, जब तक रहेगी कीताब के पन्नो पर लीखेगी। स्याही खत्म तो पन्ने कोरे रह जायेगें। उसी तरह रीश्तो में प्यार खत्म, तो कीताब के पन्नो की तरह ज़िंदगी के पन्ने भी कोरे ही रह जाते हैं।


खैर, हवेली की दीवारों में अभी भी संध्या की चींखे गूंज रही थी की तभी, एक आदमी भागते हुए हवेली के अंदर आया और जोर से चील्लाया...

"ठ...ठाकुर साहब!!"

आवाज़ काभी भारी-भरकम थी, इसलिए हवेली में मौजूद सभी लोगों का ध्यान उस तरफ केंद्रीत कर ली थी। सबसे पहली नज़र उस इंसान पर ठाकुर रमन की पड़ी। रमन ने देखा वो आदमी काफी तेजी से हांफ रहा था, चेहरे पर घबराहट के लक्षणं और पसीने में तार-तार था।

रमन --"क्या हुआ रे दीनू? क्यूँ गला फाड़ रहा है?"

दीनू नाम का वो सख्श अपने गमझे से माथे के पसीनो को पोछते हुए घबराहट भरी लहज़े में बोला...

दीनू --"मालीक...वो, वो गाँव के बाहर वाले जंगल में। ए...एक ब...बच्चे की ल...लाश मीली है।"

रमन --"ल...लाश क...कैसी लाश?"

उस आदमी की आवाज़ ने, संध्या के अंदर शरीर के अंदरुनी हिस्सो में खून का प्रवाह ही रोक दीया था मानो। संध्या अपनी आँखे फाड़े उस आदमी को ही देख रही थी...

दीनू --"वो...वो मालिक, आप खुद ही देख लें। ब...बाहर ही है।"

दीनू का इतना कहना था की, रमन, ललिता, मालती सब लोग भागते हुए हवेली के बाहर की तरफ बढ़े। अगर कोई वही खड़ा था तो वो थी संध्या। अपनी हथेली को महलते हुए, ना जाने चेहरे पर कीस प्रकार के भाव अर्जीत कीये थी, शारिरीक रवैया भी अजीबो-गरीब थी उसकी। कीसी पागल की भाती शारीरीक प्रक्रीया कर रही थी। शायद वो उस बात से डर रही थी, जो इस समय उसके दीमाग में चल रहा था।

शायद संध्या को उस बात की मंजूरी भी मील गयी, जब उसने बाहर रोने-धोने की आवाज़ सुनी। संध्या बर्दाश्त ना कर सकी और अचेत अवस्था में फर्श पर धड़ाम से नीचे गीर पड़ती है....

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nice update..!!
abhay ne ab apna naam abhinav rakh liya hai aur apne naye safar ki suruwat kar di hai..itne kam umar me abhay ke jo tewar hai woh yahi dikhate hai ki usne bahot kuchh zela hai aur usko samay ne pehle hi bada bana diya hai..tarachand bhi abhay ka aisa roop dekhkar jan gaya hai ki yeh ladka kuchh toh bada karega..ab tarachand ka koi bachha nahi hai aur abhay waha rehne lagega..jarur tarachand aur uski biwi se abhay ko maa baap ka pyaar milega..jis pyaar ke liye woh itna tadapa hai woh pyaar usko tarachand aur uski biwi jarur denge..!! sandhya apne bete ke gum hojane se ab haveli sar pe uthakar baithi hai..lekin jab hawas ke chakkar me bete ko marti thi tab kaha tha uska pyaar..jis pyaar ki abhay ko jarurat thi woh pyaar toh dusre ke bachhe ko de rahi thi aur ab itna drama kar rahi hai..!! ab lagta hai yeh raman kisi aur ladke ki body lekar aaya hai aur abhay ki bata raha hai..agar sandhya sach me abhay se pyaar karti hogi toh woh uss lash ko dekhkar samajh jayegi ki woh lash abhay ki nahi hai..aur agar woh uss lash ko abhay ka maan leti hai toh yaha clear hojata hai ki sandhya abhay ki maa kehne ke layak hi nahi hai kyunki woh khud ke bachhe ko pehchan nahi payi..!! malti ne abhay ko maa ka pyaar diya hai toh woh jarur samajh jayegi ki yeh lash abhay ki nahi hai kyunki malti ne hi abhay ko maa ka pyaar diya hai..!!
 
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