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अभि ताराचंद सेठ के घर में खड़ा,एक तक ताराचंद को देखते हुए बोला...
अभि --"सेठ तेरा घर कुछ छोटा नही लग रहा है??
अभि की बात सुनकर ताराचंद खुद से ही मन ही मन बोला। वाह!! बात तो ऐसे कर रहा है, जैसे बहुत बड़ी हवेली में रह कर आया हो |'
सोचते हुए सेठ ने अभि से बोला...
सेठ --"हां घर तो छोटा है, मगर इस घर में रहने वाले भी तो दो ही लोग है|"
सेठ की बात सुनते हुए अभि पास में रखे चेयर पर बैठते हुए बोला...
अभि --"हम्म्म..... सही है सेठ, की तेरे कोई बच्चे नहीं है, चल अच्छा वो सब छोड़ तू गोबर I ये बता ययहां पास में स्कूल किधर है??"
सेठ --"स्कूल....!! है ना यही थोड़ी ही दूर पर है l लगता है पढ़ने लिखने का विचार बना रहे हो बेटे??"
सेठ की बात सुनकर, अभि कुछ देर तक सोचते हुए बोला...
अभि --"एक ज्ञान ही तो है जो इंसान का कभी साथ नही छोड़ता, उसे अंधकार से बचाता हैं और उजाले की तरफ ले कर जाता है l आज मेरे साथ कोई नही है, बिलकुल अकेला हूं l और इस अकेलेपन के सफर में कहां जाना है? क्या करना है? कुछ नही पता है, मेरे स्कूल के गुरु जी कहा करते थे, की जब भी कभी जिंदगी में ऐसा समय आए की तुम ये समझ ना पाओ की तुम्हे क्या करना है? कहा जाना है? जिंदगी का मक़सद क्या है? तो एक बात हमेशा याद रखना उस परिस्थिति में अपने कदम ज्ञान की दिशा की तरफ बढ़ा देना, तुम्हे तुम्हारे हर सवालों का ज़वाब मील जायेगा l गुरु जी की कही बात कभी मन से नही ली, पर आज मेरी परिस्थिति कुछ ऐसी ही है सेठ l कुछ समझ में नहीं आ रहा है की क्या करूं? इसी लिए मैं अपने गुरु जी के कहे हुए मार्ग पर चलूंगा, शायद मुझे मेरी मंजिल मील जाए l""
.... सेठ अभि की बात बहुत ही ध्यान पूर्वक सुन रहा था l शायद वो कुछ सोच भी रहा था, पर क्या...? वो पता नही l
उस दीन अभि सेठ की पत्नी से मिला तो सेठ ने अपनी पत्नी को बोला की, अब से ये लड़का इसी घर में रहेगा l सेठ की पत्नी भी मान गई, और रात का खाना सब मिलकर खाएं l फिर उसके बाद अभि अपने कमरे में चला गया l रात के 11 बज रहे थे, अभि की आंखों में नींद नही थी, वो खिड़की के पास एक चेयर पर बैठा खिड़की से बाहर की तरफ देखते हुए कुछ सोंच रहा था l रह रह कर उसके चेहरे पर कभी मुस्कान के लकीरें उमड़ पड़ती तो फिर अचानक ही वो लकीरें अदृश्य भी हो जाती l ना जाने अभी क्या सोच रहा था, पर उस गहरी सोंच के कुंए में डूबा, उसकी आंखों से छलक पड़े एक आंसू के कतरे ने उसके दिल में छुपे वो दर्द को बयां कर गई, जो शायद अभि अपनी जुबां से बयां ना कर पाता।
उसके सर से छीन हुआ छत, वो तो उसने हंसील कर लिया था, मगर मां का छिने हुए आंचल में, अब फिर शायद ही उसे पनाह मिल सके!!
यूं ही खिड़की से बाहर देखते और अपने गम में खाया अभि कब चेयर पर बैठे बैठ ही सो गया उसे ख़ुद ही ख़बर ना हुईं.....
____________________
इधर हवेली मे जब संध्या की आंख खुलती है तो, वो अपने आप को, खुद के बिस्तर पर पाती हैं। आंखों के सामने मालती, ललिता, निधी और गांव की तीन से चार औरतें खड़ी थी।
"नही..... ऐसा नहीं हो सकता, वो मुझे अकेला छोड़ कर नही जा सकता। कहां है वो?? अभय... अभय...अभय...??"
पगलो की तरह चिल्लाते हुए संध्या अपने कमरे से बाहर निकल कर जल बिन मछ्ली के जैसे तड़पने लगती है। संध्या के पीछे पीछे मालती5, ललिता और निधी रोते हुए भागती है....
हवेली के बाहर अभी भी गांव वालों की भीड़ लगी थी, मगर जैसे ही संध्या की चीखने और चिल्लाने की आवाजें उन सब के कानों में गूंजती है, सब उठ कर खड़े हो जाते है।
संध्या जैसे ही जोर जोर से रोते - बिलखते हवेली से बाहर निकलती है, तब तक पीछे से मालती उसे पकड़ लेती है।
संध्या --"छोड़ मुझे....!! मैं कहती हूं छोड़ दे मालती, देख वो जा रहा है, मुझे उसे एक बार रोकने दे। नही तो वो चला जायेगा।
संध्या की मानसिक स्थिति हिल चुकी थी, और इसका अंदाजा उसके रवैए से ही लग रहा था, वो मालती से खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी की तभी....
"वो जा चुका हैं... अब नही आयेगा, इस हवेली से ही नही, बल्कि इस संसार से भी दूर चला गया है।"
मालती भी जोर - जोर से चिल्लाते हुऐ बोली। और धड़ाम से ज़मीन पर घुटनों के बल बैठती हुईं रोने लगती है।।
मालती के शब्द संध्या के हलक से निकल रही चिंखो को घुटन में कैद कर देती है। संध्या के हलक से शब्द तो क्या थूंक भी अंदर नही गटक पा रही थी। संध्या किसी मूर्ति की तरह स्तब्ध बेजान एक निर्जीव वस्तु की तरह खड़ी, नीचे ज़मीन पर बैठी रो रही मालती को एक टक देखते रही। और उसके मुंह से इतने ही शब्द निकल पाएं...
"नही... इस तरह वो मुझे छोड़ कर नही जा सकता..."
और कहते हुए किसी आधुनिक यंत्र की तरह हवेली के अंदर की तरफ कदम बढ़ा दी।
गांव के सभी लोग संध्या की हालत पर तरस खाने के अलावा और कुछ नही कर पा रहेंथे।।
"तुझको का लगता है हरिया? का सच मे ऊ लाश छोटे ठाकुर की थी??"
हवेली से लौट रहे गांव के दो लोग रास्ते पर चलते हुए एक दूसरे से बात कर रहे थे। उस आदमी की बात सुनकर हरिया बोला...
ह्वरिया --" वैसे उस लड़के का चेहरा पूरी तरह से ख़राब हो गया था, कुछ कह पाना मुुश्किल है। लेकिन हवेली से छोटे ठाकुर का इस तरह से गायब हो जाना, इसी बात का संकेत हो सकता है कि जरूर ये लाश छोटे ठाकुर की है।"
हरिया की बात सुनकर साथ में चल रहा वो शख्स बोल पड़ा...
"मेरी लुगाई बता रही थी की, ठाकुराई छोटे मालिक से ज्यादा अपने भतीजे अमन को चाहती थी।"
हरिया --"ठीक कह रहा है तू मंगरू, मैं भी एक बार किसी काम से हवेली गया था तो देखा कि ठकुराइन छोटे मालिक को डंडे से पीट रही थीं, और वो ठाकुर रमन का बच्चा अमनवा वहीं खड़े हंस रहा था। सच बताऊं तो इस तरह से ठकुराइन पिटाई कर रहीं थी की मेरा दिल भर आया, मैं तो हैरान था की आखिर एक मां अपने बेटे को ऐसे कैसे जानवरों की तरह पीट सकती है??"
मंगरू --" चलो अच्छा ही हुआ, अब तो सारी संपत्ति का एक अकेला मालिक वो अमनवा ही बन गया। वैसे था बहुत ही प्यारा लड़का, ठाकुर हो कर भी गांव के सब लोगों को इज्जत देता था।"
आपस मे बात करते-करते वो दोनो अपने घर की तरफ चल पड़े।
_______&________
सुबह सुबह अभी ताराचंद की दुकान पर पहुंच गया, और उसके सामने उस सफेद गद्दे पर बठते हुऐ बोला...
अभि --"कैसे हो गोबरचंद??"
ताराचंद शायद हिसाब किताब मे व्यस्त था, इस लिए जैसे ही उसने अभि की आवाज़ सुनी, नजरें उठा कर अभी की तरफ़ देखते हुऐ बोला..
सेठ --"तुम क्यूं मुझे गोबर बुलाता हैं? काका बोल लिया कर, मुझे भी अच्छा लगेगा।"
सेठ की बात सुनकर अभी गुस्से में झल्लाते हुऐ बोला।
अभि --"देख गोबर, अपना काम कर, मेरे साथ रिश्ता -विस्ता जोड़ने की कोशिश भी मत करना। मुझे रिश्तों से नफ़रत है... समझा??
अभि का गुस्सा भरा अंदाज देखकर ताराचंद की हवाईया नीकल पड़ी, हिसाब की क़िताब एक तरफ़ रखते हुए मजाकिया अंदाज में बोला...
सेठ --" अरे... तुम तो गुस्सा हो गए, मैं तो सिर्फ मज़ककर रहा था बेटा। अच्छा ये बता खाना -पीना खाया की नही, और हां... आज तो तुम स्कूल में दाखिला लेने जाने वाले थे ना??"
अभि --"इसी लिए तो आया था तेरे पास गोबर चंद, मुझे कुछ रुपए चाहिए। अपने लिए कपड़े और कताबें खरीदनी है।"
सेठ तिजोर खोलते हुऐ उसमे से कुछ रूपए निकलते हुऐ अभी की तरफ़ बढ़ा देता है। अभी पैसा लेते हुए बोला...
अभी --"हिसाब अच्छे से करना, मेरे डेढ़ लाख रुपए में से ये 2 हज़रलिया है मैंने, लिख लेना।"
और ये कहते हुए अभी दुकान से बाहर नीकल जाता है.... ताराचंद की नज़रे अभी भी अभि को जाते हुए देख रही थी......
अभी ने उस दिन 6वी कक्षा में दाखिला लिया, और अपने लिए कपड़े, कताबे इत्यादि ख़रीद कर घर लौटा तो, ताराचंद की पत्नी हॉल में ही बैठी मिली। ताराचंद की पत्नी का नाम रेखा था, सांवले रंग की भरे बदन वाली एक कामुक औरत थी। अभी को देख कर वो सोफे पर से उठते हुए बोली...
रेखा --"अरे... अभिनव बेटा तू आ गया, हो गया स्कूल में दाखिला??"
अभि, रेखा की बात सुनकर बोला...
अभी --"हां हो गया, कल से स्कूल जाऊंगा।"
रेखा --"अरे वाह! ये तो बहुत अच्छी बात है। तू हाथ -मुंह धो ले मैं तेरे लिए खाना ले कर आती हूं...."
ये कहते हुए रेखा कीचन की तरफ़ चली जाती है....
अभि ताराचंद सेठ के घर में खड़ा,एक तक ताराचंद को देखते हुए बोला...
अभि --"सेठ तेरा घर कुछ छोटा नही लग रहा है??
अभि की बात सुनकर ताराचंद खुद से ही मन ही मन बोला। वाह!! बात तो ऐसे कर रहा है, जैसे बहुत बड़ी हवेली में रह कर आया हो |'
सोचते हुए सेठ ने अभि से बोला...
सेठ --"हां घर तो छोटा है, मगर इस घर में रहने वाले भी तो दो ही लोग है|"
सेठ की बात सुनते हुए अभि पास में रखे चेयर पर बैठते हुए बोला...
अभि --"हम्म्म..... सही है सेठ, की तेरे कोई बच्चे नहीं है, चल अच्छा वो सब छोड़ तू गोबर I ये बता ययहां पास में स्कूल किधर है??"
सेठ --"स्कूल....!! है ना यही थोड़ी ही दूर पर है l लगता है पढ़ने लिखने का विचार बना रहे हो बेटे??"
सेठ की बात सुनकर, अभि कुछ देर तक सोचते हुए बोला...
अभि --"एक ज्ञान ही तो है जो इंसान का कभी साथ नही छोड़ता, उसे अंधकार से बचाता हैं और उजाले की तरफ ले कर जाता है l आज मेरे साथ कोई नही है, बिलकुल अकेला हूं l और इस अकेलेपन के सफर में कहां जाना है? क्या करना है? कुछ नही पता है, मेरे स्कूल के गुरु जी कहा करते थे, की जब भी कभी जिंदगी में ऐसा समय आए की तुम ये समझ ना पाओ की तुम्हे क्या करना है? कहा जाना है? जिंदगी का मक़सद क्या है? तो एक बात हमेशा याद रखना उस परिस्थिति में अपने कदम ज्ञान की दिशा की तरफ बढ़ा देना, तुम्हे तुम्हारे हर सवालों का ज़वाब मील जायेगा l गुरु जी की कही बात कभी मन से नही ली, पर आज मेरी परिस्थिति कुछ ऐसी ही है सेठ l कुछ समझ में नहीं आ रहा है की क्या करूं? इसी लिए मैं अपने गुरु जी के कहे हुए मार्ग पर चलूंगा, शायद मुझे मेरी मंजिल मील जाए l""
.... सेठ अभि की बात बहुत ही ध्यान पूर्वक सुन रहा था l शायद वो कुछ सोच भी रहा था, पर क्या...? वो पता नही l
उस दीन अभि सेठ की पत्नी से मिला तो सेठ ने अपनी पत्नी को बोला की, अब से ये लड़का इसी घर में रहेगा l सेठ की पत्नी भी मान गई, और रात का खाना सब मिलकर खाएं l फिर उसके बाद अभि अपने कमरे में चला गया l रात के 11 बज रहे थे, अभि की आंखों में नींद नही थी, वो खिड़की के पास एक चेयर पर बैठा खिड़की से बाहर की तरफ देखते हुए कुछ सोंच रहा था l रह रह कर उसके चेहरे पर कभी मुस्कान के लकीरें उमड़ पड़ती तो फिर अचानक ही वो लकीरें अदृश्य भी हो जाती l ना जाने अभी क्या सोच रहा था, पर उस गहरी सोंच के कुंए में डूबा, उसकी आंखों से छलक पड़े एक आंसू के कतरे ने उसके दिल में छुपे वो दर्द को बयां कर गई, जो शायद अभि अपनी जुबां से बयां ना कर पाता।
उसके सर से छीन हुआ छत, वो तो उसने हंसील कर लिया था, मगर मां का छिने हुए आंचल में, अब फिर शायद ही उसे पनाह मिल सके!!
यूं ही खिड़की से बाहर देखते और अपने गम में खाया अभि कब चेयर पर बैठे बैठ ही सो गया उसे ख़ुद ही ख़बर ना हुईं.....
____________________
इधर हवेली मे जब संध्या की आंख खुलती है तो, वो अपने आप को, खुद के बिस्तर पर पाती हैं। आंखों के सामने मालती, ललिता, निधी और गांव की तीन से चार औरतें खड़ी थी।
"नही..... ऐसा नहीं हो सकता, वो मुझे अकेला छोड़ कर नही जा सकता। कहां है वो?? अभय... अभय...अभय...??"
पगलो की तरह चिल्लाते हुए संध्या अपने कमरे से बाहर निकल कर जल बिन मछ्ली के जैसे तड़पने लगती है। संध्या के पीछे पीछे मालती5, ललिता और निधी रोते हुए भागती है....
हवेली के बाहर अभी भी गांव वालों की भीड़ लगी थी, मगर जैसे ही संध्या की चीखने और चिल्लाने की आवाजें उन सब के कानों में गूंजती है, सब उठ कर खड़े हो जाते है।
संध्या जैसे ही जोर जोर से रोते - बिलखते हवेली से बाहर निकलती है, तब तक पीछे से मालती उसे पकड़ लेती है।
संध्या --"छोड़ मुझे....!! मैं कहती हूं छोड़ दे मालती, देख वो जा रहा है, मुझे उसे एक बार रोकने दे। नही तो वो चला जायेगा।
संध्या की मानसिक स्थिति हिल चुकी थी, और इसका अंदाजा उसके रवैए से ही लग रहा था, वो मालती से खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी की तभी....
"वो जा चुका हैं... अब नही आयेगा, इस हवेली से ही नही, बल्कि इस संसार से भी दूर चला गया है।"
मालती भी जोर - जोर से चिल्लाते हुऐ बोली। और धड़ाम से ज़मीन पर घुटनों के बल बैठती हुईं रोने लगती है।।
मालती के शब्द संध्या के हलक से निकल रही चिंखो को घुटन में कैद कर देती है। संध्या के हलक से शब्द तो क्या थूंक भी अंदर नही गटक पा रही थी। संध्या किसी मूर्ति की तरह स्तब्ध बेजान एक निर्जीव वस्तु की तरह खड़ी, नीचे ज़मीन पर बैठी रो रही मालती को एक टक देखते रही। और उसके मुंह से इतने ही शब्द निकल पाएं...
"नही... इस तरह वो मुझे छोड़ कर नही जा सकता..."
और कहते हुए किसी आधुनिक यंत्र की तरह हवेली के अंदर की तरफ कदम बढ़ा दी।
गांव के सभी लोग संध्या की हालत पर तरस खाने के अलावा और कुछ नही कर पा रहेंथे।।
"तुझको का लगता है हरिया? का सच मे ऊ लाश छोटे ठाकुर की थी??"
हवेली से लौट रहे गांव के दो लोग रास्ते पर चलते हुए एक दूसरे से बात कर रहे थे। उस आदमी की बात सुनकर हरिया बोला...
ह्वरिया --" वैसे उस लड़के का चेहरा पूरी तरह से ख़राब हो गया था, कुछ कह पाना मुुश्किल है। लेकिन हवेली से छोटे ठाकुर का इस तरह से गायब हो जाना, इसी बात का संकेत हो सकता है कि जरूर ये लाश छोटे ठाकुर की है।"
हरिया की बात सुनकर साथ में चल रहा वो शख्स बोल पड़ा...
"मेरी लुगाई बता रही थी की, ठाकुराई छोटे मालिक से ज्यादा अपने भतीजे अमन को चाहती थी।"
हरिया --"ठीक कह रहा है तू मंगरू, मैं भी एक बार किसी काम से हवेली गया था तो देखा कि ठकुराइन छोटे मालिक को डंडे से पीट रही थीं, और वो ठाकुर रमन का बच्चा अमनवा वहीं खड़े हंस रहा था। सच बताऊं तो इस तरह से ठकुराइन पिटाई कर रहीं थी की मेरा दिल भर आया, मैं तो हैरान था की आखिर एक मां अपने बेटे को ऐसे कैसे जानवरों की तरह पीट सकती है??"
मंगरू --" चलो अच्छा ही हुआ, अब तो सारी संपत्ति का एक अकेला मालिक वो अमनवा ही बन गया। वैसे था बहुत ही प्यारा लड़का, ठाकुर हो कर भी गांव के सब लोगों को इज्जत देता था।"
आपस मे बात करते-करते वो दोनो अपने घर की तरफ चल पड़े।
_______&________
सुबह सुबह अभी ताराचंद की दुकान पर पहुंच गया, और उसके सामने उस सफेद गद्दे पर बठते हुऐ बोला...
अभि --"कैसे हो गोबरचंद??"
ताराचंद शायद हिसाब किताब मे व्यस्त था, इस लिए जैसे ही उसने अभि की आवाज़ सुनी, नजरें उठा कर अभी की तरफ़ देखते हुऐ बोला..
सेठ --"तुम क्यूं मुझे गोबर बुलाता हैं? काका बोल लिया कर, मुझे भी अच्छा लगेगा।"
सेठ की बात सुनकर अभी गुस्से में झल्लाते हुऐ बोला।
अभि --"देख गोबर, अपना काम कर, मेरे साथ रिश्ता -विस्ता जोड़ने की कोशिश भी मत करना। मुझे रिश्तों से नफ़रत है... समझा??
अभि का गुस्सा भरा अंदाज देखकर ताराचंद की हवाईया नीकल पड़ी, हिसाब की क़िताब एक तरफ़ रखते हुए मजाकिया अंदाज में बोला...
सेठ --" अरे... तुम तो गुस्सा हो गए, मैं तो सिर्फ मज़ककर रहा था बेटा। अच्छा ये बता खाना -पीना खाया की नही, और हां... आज तो तुम स्कूल में दाखिला लेने जाने वाले थे ना??"
अभि --"इसी लिए तो आया था तेरे पास गोबर चंद, मुझे कुछ रुपए चाहिए। अपने लिए कपड़े और कताबें खरीदनी है।"
सेठ तिजोर खोलते हुऐ उसमे से कुछ रूपए निकलते हुऐ अभी की तरफ़ बढ़ा देता है। अभी पैसा लेते हुए बोला...
अभी --"हिसाब अच्छे से करना, मेरे डेढ़ लाख रुपए में से ये 2 हज़रलिया है मैंने, लिख लेना।"
और ये कहते हुए अभी दुकान से बाहर नीकल जाता है.... ताराचंद की नज़रे अभी भी अभि को जाते हुए देख रही थी......
अभी ने उस दिन 6वी कक्षा में दाखिला लिया, और अपने लिए कपड़े, कताबे इत्यादि ख़रीद कर घर लौटा तो, ताराचंद की पत्नी हॉल में ही बैठी मिली। ताराचंद की पत्नी का नाम रेखा था, सांवले रंग की भरे बदन वाली एक कामुक औरत थी। अभी को देख कर वो सोफे पर से उठते हुए बोली...
रेखा --"अरे... अभिनव बेटा तू आ गया, हो गया स्कूल में दाखिला??"
अभि, रेखा की बात सुनकर बोला...
अभी --"हां हो गया, कल से स्कूल जाऊंगा।"
रेखा --"अरे वाह! ये तो बहुत अच्छी बात है। तू हाथ -मुंह धो ले मैं तेरे लिए खाना ले कर आती हूं...."
ये कहते हुए रेखा कीचन की तरफ़ चली जाती है....