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Incest वो तो है अलबेला (incest + adultery)

क्या संध्या की गलती माफी लायक है??


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Xabhi

"Injoy Everything In Limits"
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अपडेट २

ताराचंद जौहरी था, उसे खरे सोने की पहचान अच्छी तरह थी। इसलिए, वो उस सोने की चैन को देख कर उसकी आँखें चौंधिया गयी।

"अरे बेटा, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बैठ जा, आजा...आजा बैठ।"

वो लड़का मुस्कुराते हुए, नीचे फर्श पर बीछे सफदे रंग के साफ गद्दे पर बैठ जाता है।

ताराचंद --"तुम्हारा नाम क्या है बेटा?"

"मेरा नाम? अभी तक कुछ सोचा नही है। चलो तुम ही कोई अच्छा सा नाम बता दो?"

उस लड़के की करारी बाते सुनकर ताराचंद अचंभीत होते हुए बोला...

ताराचंद --"अरे बेटा...क्यूँ मज़ाक करते हो? तूम्हारे माँ-बाप ने, तुम्हारा नाम कुछ ना कुछ तो रखा ही होगा?"

ताराचंद की बात सुनकर वो लड़का एक बार फीर मुस्कुराते हुए बोला...

"हां याद आया, मेरा नाम अभीनव है। पर तुम मुझे प्यार से अभि बुला सकते हो। अच्छा अब मेरे नाम करण के बारे में छोड़ो, और ये बताओ की इस चैन का कीतना मीलेगा?"

कहते हुए वो लड़का जीसने अपना नाम सेठ को अभीनव बताया था, चैन को सेठ की तरफ बढ़ा दीया। सेठ ने आगे हांथ बढ़ाते हुए सोने की चैन को अपने हांथ में लीया तो उसे काफी वज़न दार लगा।

सेठ ने तराजू नीकालते हुए सोने का वज़न कीया और फीर तराजू को नीचे रखते हुए चश्मे की आड़ से देखते हुए बोला।

सेठ --"वाह...बेटा! ये चैन तो वाकई वज़नदार है। कहीं से चूरा कर तो नही लाये?"

सेठ की बात पर अभि के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान फैल गयी।

अभि --"कमाल करता है तू भी? सेठ होकर पुलिस वालों की भाषा बोल रहा है। ला मेरा चैन वापस कर।"

सेठ --"अरे...अरे बेटा! मज़ाक था। सच बोलूं तो...तीन २ लाख तक दे सकता हूँ। पर तुम इतने सारे पैसों का करोगे क्या...?"

अभि --"ऐ गोबर चंद, अपने काम से काम कर तू। लेकिन...बात तो तेरी ठीक है, की इतने सारे पैसों का करुगां क्या? एक बात बता सेठ? यहां रहने के लीए कोई कमरे का इंतज़ाम है क्या?"

अभि की बात सुनकर वो सेठ अपना चश्मा उतारते हुए उस अभि को असंमजस भरी नीगाहों से देखते हुए बोला...

सेठ --"जान पड़ता है की, तुम्हारे सांथ जरुर कुछ बुरा हुआ है। पर मैं आगे कुछ पूछूंगा नही। मन करे तो कभी बताना जरुर। रही बात रहने की जगह की, तो तुम मेरे घर में रह सकते हो। बड़ा घर है मेरा, पर रहने वाले सीर्फ दो, मैं और मेरी जोरु।"

सेठ की बात सुनकर, अभि कुछ सोंचते हुए बोला...

अभि --"वो तो ठीक है गोबर चंद। पर भाड़ा १ हज़ार से ज्यादा ना दे सकूं।"

अभि की बात बार सेठ हसं पड़ा, और हसंते हुए बोला...

सेठ --"अरे छोरे...मैनें तो भाड़े की बात छेंड़ी ही नही। तुम अभी बेसहारे हो, तो बस इसांनीयत के नाते मैं तुम्हारी मदद कर रहा था। मुझे भाड़ा नही चाहिए।"

अभि --"इसे मदद नही एहसान कहते है सेठ, और एहसान के तले दबा हुआ इंसान एक कर्ज़ के तले दबे हुए इसांन से ज्यादा कर्ज़दार होता है। कर्ज़ा तो उतार सकते है एहसान नही। तो मुझे एहसान की ज़िदंगी नही ऐशो-आराम की ज़िंदगी चाहिए। हज़ार रुपये नक्की है तो बोल सेठ? वरना कहीं और चलूं।"


सेठ के कान खड़े हो गये, शायद सोंच में पड़ गया था, की इतनी कम उम्र में ये लड़का ऐसी बाते कैसे बोल सकता है?

सेठ --"क्या बात है छोरे? क्या खुद्दारी है तेरे अंदर! एक दीन ज़रुर ज़माने में सीतारा बन कर चमकेगा।"

सेठ की बात पर अभि ने एक बार फीर अपने चेहरे पर मुस्कान की छवि लीए बोला...

अभि --"मुझे अंधेरे में चमकने वाला वो सीतारा नही बनना, जो सीर्फ आँखों को सूकून दे, सेठ। बल्कि मुझे तो दीन में चमकने वाला वो सूरज बनना है, जो चमके तो धरती पर उज़ाला कर दे, अगर भड़के तो मीट्टी को भी राख का ढेर कर दे।"

सेठ तो बस अपनी आँखे हैरतगेंज, आश्चर्यता से फैलाए अभि के शब्द भेदी बाड़ों की बोली को बस सुनता ही रह गया...

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गाँव के बीचो-बीच खड़ी ठाकुर परम सिंह की आलीशान हवेली में अफरा-तफरा मची थी। पुलिस की ज़िप आकर खड़ी थी। हवेली के बैठके(हॉल) में । संध्या सिंह जोर से चींखती चील्लाती हुई बोली...

संध्या --"मुझे मेरा बेटा चाहिए....! चाहे पूरी दुनीया भर में ही क्यूँ ना ढ़ूढ़ना पड़ जाये तुम लोग को? जीतना पैसा चाहिए ले जाओ....!! पर मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्चे को ढूंढ लाओ...मेरे बच्च्च्च्चे...."।

कहते हुए संध्या जोर-जोर से रोने लगी। सुबह से दोपहर हो गयी थी, पर संध्या की चींखे रुकने का नाम ही नही ले रही थी। गाँव के लोग भी ये खबर सुनकर चौंके हुए थे। और चारो दिशाओं मे अभय के खोज़ खबर में लगे थे। ललिता और मालति को, संध्या को संभाल पाना मुश्किल हो रहा था। संध्या को रह-रह कर सदमे आ रहे थें। कभी वो इस कदर शांत हो जाती मानो जिंदा लाश हो, पर फीर अचानक इस तरह चींखते और चील्लाते हुए सामन को तोड़ने फोड़ने लगती मानो जैसे पागल सी हो गयी हो।

रह-रह कर सदमे आना, संध्या का पछतावा था? या अपने बेटे से बीछड़ने का गम? या फीर कुछ और? कुछ भी कह पाना इस समय कठीन था। अभय ने आखिर घर क्यूँ छोड़ा? अपनी माँ का आंचल क्यूँ छोड़ा? इस बात का जवाब सिर्फ अभय के पास था। जो इस आलीशान हवेली को लात मार के चला गया था, कीसी अनजान डगर पर, बीना कीसी मक्सद के और बीना कीसी मंज़ील के।

अक्सर हमारे घरो में, कहा जाता है की, घर में बड़ो का साया होना काफी ज़रुरी है। क्यूंकी उन्ही के नक्शे कदम से बच्चो को उनको उनकी ज़िंदगी का मक्सद और मंज़िल ढुंढने की राह मीलती है। मगर आज अभय अपनी मज़िल की तलाश में एक ऐसी राह पर नीकल पड़ा था, जो शायद उसके लिए अनजाना था, पर शुक्र है, की वो अकेला नही था कम से कम उसके सांथ उसकी परछांयी तो थी।

कहते हैं बड़ो की डाट-फटकार बच्चो की भलाई के लिए होता है। शायद हो भी सकता है, पर मेरे दोस्त जो प्यार कर सकता है। वो डाट-फटकार नही। प्यार से रिश्ते बनते है। डाट-फटकार से रिश्ते बीछड़ते है, जैसे आज एक बेटा अपनी माँ से और माँ एक बेटे से बीछड़े थे। रीश्तो में प्यार कलम में भरी वो स्याही है, जब तक रहेगी कीताब के पन्नो पर लीखेगी। स्याही खत्म तो पन्ने कोरे रह जायेगें। उसी तरह रीश्तो में प्यार खत्म, तो कीताब के पन्नो की तरह ज़िंदगी के पन्ने भी कोरे ही रह जाते हैं।


खैर, हवेली की दीवारों में अभी भी संध्या की चींखे गूंज रही थी की तभी, एक आदमी भागते हुए हवेली के अंदर आया और जोर से चील्लाया...

"ठ...ठाकुर साहब!!"

आवाज़ काभी भारी-भरकम थी, इसलिए हवेली में मौजूद सभी लोगों का ध्यान उस तरफ केंद्रीत कर ली थी। सबसे पहली नज़र उस इंसान पर ठाकुर रमन की पड़ी। रमन ने देखा वो आदमी काफी तेजी से हांफ रहा था, चेहरे पर घबराहट के लक्षणं और पसीने में तार-तार था।

रमन --"क्या हुआ रे दीनू? क्यूँ गला फाड़ रहा है?"

दीनू नाम का वो सख्श अपने गमझे से माथे के पसीनो को पोछते हुए घबराहट भरी लहज़े में बोला...

दीनू --"मालीक...वो, वो गाँव के बाहर वाले जंगल में। ए...एक ब...बच्चे की ल...लाश मीली है।"

रमन --"ल...लाश क...कैसी लाश?"

उस आदमी की आवाज़ ने, संध्या के अंदर शरीर के अंदरुनी हिस्सो में खून का प्रवाह ही रोक दीया था मानो। संध्या अपनी आँखे फाड़े उस आदमी को ही देख रही थी...

दीनू --"वो...वो मालिक, आप खुद ही देख लें। ब...बाहर ही है।"

दीनू का इतना कहना था की, रमन, ललिता, मालती सब लोग भागते हुए हवेली के बाहर की तरफ बढ़े। अगर कोई वही खड़ा था तो वो थी संध्या। अपनी हथेली को महलते हुए, ना जाने चेहरे पर कीस प्रकार के भाव अर्जीत कीये थी, शारिरीक रवैया भी अजीबो-गरीब थी उसकी। कीसी पागल की भाती शारीरीक प्रक्रीया कर रही थी। शायद वो उस बात से डर रही थी, जो इस समय उसके दीमाग में चल रहा था।

शायद संध्या को उस बात की मंजूरी भी मील गयी, जब उसने बाहर रोने-धोने की आवाज़ सुनी। संध्या बर्दाश्त ना कर सकी और अचेत अवस्था में फर्श पर धड़ाम से नीचे गीर पड़ती है....

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Apratim apratim apratim superb update bhai sandar jabarjast lajvab writing skills...

Mere revo bade bhi aayenge dost, bs thoda sa sabra rakhna...
 

Rekha rani

Well-Known Member
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समय पर अपडेट ना आना इस कहानी की रोचकता को खत्म कर देगा
Right sir update samay pr aane chahiye tabhi mja hai story ka nhi to last update bhi yad nhi rhta
 

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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सत्य वचन सरकार

Right sir update samay pr aane chahiye tabhi mja hai story ka nhi to last update bhi yad nhi rhta

Upadate regular na aane se pathakonki ruchi khatam ho jayegi. Romanchak. Pratiksha agle rasprad update ki
कहानी की सफ़लता का मूलभूत कारण होता है कंटेंट, यदि समय पर उसमे प्रगति होती रहती है तो फिर बाकी कोई चिंता नहीं करनी पड़ती, बाकी काम पाठक अपने आप सम्भाल लेते है, उम्मीद है कि लेखक महोदय विचार करेंगे
 
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