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हर इक का दर्द उसी आशुफ़्ता-सर में तन्हा था।
वो एक शख़्स जो सारे नगर में तन्हा था।।
वो आदमी भी जिसे जान-ए-अंजुमन कहिए,
चला जब उठ के तो सारे सफ़र में तन्हा था।।
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया,
वो अपने फ़न में मैं अपने हुनर में तन्हा था।।
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन,
वो इक दिया जो कभी बाम-ओ-दर में तन्हा था।।
सुना है लुट गया कल रात रास्ते में कहीं,
जो एक रह-गुज़री रहगुज़र में तन्हा था।।
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर,
वो आदमी तो सुना अपने घर में तन्हा था।।
हर इक में कोई कमी थी हर इक में था कोई ऐब,
धुला हुआ वही बस आब-ए-ज़र में तन्हा था।।
न पा सका कभी ता-उम्र लुत्फ़-ए-तन्हाई,
उमर जो सारे जहाँ की नज़र में तन्हा था।।
_______'उमर' अंसारी
वो एक शख़्स जो सारे नगर में तन्हा था।।
वो आदमी भी जिसे जान-ए-अंजुमन कहिए,
चला जब उठ के तो सारे सफ़र में तन्हा था।।
जो तीर आया गले मिल के दिल से लौट गया,
वो अपने फ़न में मैं अपने हुनर में तन्हा था।।
उस इक दिए से हुए किस क़दर दिए रौशन,
वो इक दिया जो कभी बाम-ओ-दर में तन्हा था।।
सुना है लुट गया कल रात रास्ते में कहीं,
जो एक रह-गुज़री रहगुज़र में तन्हा था।।
उठा ये शोर वहीं से सदाओं का क्यूँ-कर,
वो आदमी तो सुना अपने घर में तन्हा था।।
हर इक में कोई कमी थी हर इक में था कोई ऐब,
धुला हुआ वही बस आब-ए-ज़र में तन्हा था।।
न पा सका कभी ता-उम्र लुत्फ़-ए-तन्हाई,
उमर जो सारे जहाँ की नज़र में तन्हा था।।
_______'उमर' अंसारी