Update #19
राजकुमार हर्ष की बातें और अपनी बेटी में उनकी रूचि की बात सुन कर गौरीशंकर जी का चैन, उनकी नींद... सब गायब हो गई थी। लड़की का बाप होना ऐसे ही बड़ा भारी काम है, और उस पर ऐसी लड़की का बाप होना, जो बिन माँ की हो! दो दो भूमिकाओं का निर्वहन अकेले करना! आसान नहीं होता! हर्ष की बातों को याद कर के उनके मन में उथल पुथल मचा हुआ था। न चाहते हुए भी इच्छाओं का ज्वार प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। वो एक व्यावहारिक व्यक्ति थे : अपनी सामर्थ्य से अधिक वो उछलना नहीं चाहते थे, अपनी चादर के अंदर ही अपने पाँव रखना चाहते थे। लेकिन जब इस तरह के सम्बन्ध सामने आते हैं, तो ऐसी व्यवहारिकता की बातें, कहीं दूर, किसी कोने में जा कर छुप जाती हैं। उनको अपनी दशा दशराज जैसी होती हुई महसूस हो रही थी - अपनी एकलौती संतान के लिए राजयोग की सम्भावना सोच कर ही वो रोमांचित हुए जा रहे थे।
(दशराज सत्यवती के पिता थे, और हस्तिनापुर के मछुवारों की बस्ती के मुखिया थे। सत्यवती या मत्स्यगंधा एक मछुवारी और नौकाटन करने का काम करती थी, और उस पर हस्तिनापुर के राजा शान्तनु का दिल आ गया था! बाद में वो हस्तिनापुर की पटरानी बनी।)
जब से हर्ष ने उनसे सुहासिनी का हाथ माँगा था, उसी क्षण से उनकी चाल में एक अलग ही तरह का उछाल आ गया था। वो अचानक ही युवा महसूस करने लगे थे - मूँछों में उनके अनायास ही एक ताव आ गया था। उनको लगता था कि कहीं न कहीं कोई दैवीय कृपा बन पड़ी है उन पर और उनकी संतान पर! क्या पता, सुहासिनी के जीवन में भी सत्यवती की भाँति ही ‘राजयोग’ लिखा हो! लेकिन यह सब फिलहाल स्वप्न की बातें थीं। राजकुमार और सुहासिनी सा सम्बन्ध तभी संभव था, जब महाराज की अनुमति मिल जाए! और उनके अंदर इतनी मजाल नहीं थी कि वो सीधे सीधे महाराजाधिराज से सुहासिनी के सम्बन्ध की बात कर सकते।
अगर महाराज से नहीं, तो किस से बात करी जाए? वो पिछले कुछ समय से इसी विषय में सोचते रहते। महारानी जी प्रजावत्सल अवश्य थीं, और गौरीशंकर जी पर उनकी कृपा भी बहुत थी, और बहुत संभव है कि कोमल हृदय वाली भी हों... लेकिन उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी बात थी कि उनके सम्मुख आज तक आँखें उठा कर बात करने का साहस ही नहीं हुआ था गौरीशंकर जी का! महाराजाधिराज से भी वो यदा-कदा ठिठोली कर भी लेते थे, किन्तु महारानी के सम्मुख वो शील का पूरा पालन करते थे... हाथ जोड़े और शीश नवाए... यही परम्परा थी, और उनका साहस नहीं था कि इस परम्परा को तोड़ दें। और वैसे भी यह ज्ञात तथ्य है कि माताएँ अपने पुत्रों को ले कर होती भी बड़ी रक्षणशील हैं! ऐसे में महारानी जी अवश्य ही किसी राजकुमारी से ही राजकुमार का विवाह कराना चाहेंगी।
फिर किस से बात करें इस विषय पर?
युवरानी जी से?
युवरानी प्रियम्बदा अपने युवराज जी से आयु में बड़ी हैं, और युवराज जी उनका आदर भी करते हैं। यह बात सर्वज्ञात है। आदर के साथ साथ दोनों में प्रेम भी बहुत है। महाराज ने स्वयं युवरानी को अपने पुत्र के लिए पसंद किया था - उन्होंने उनमें कुछ ऐसी बातें देखी थीं जो अन्य लोग नहीं देख पाए! बहुत संभव है कि युवरानी प्रियम्बदा जी गौरीशंकर जी की समस्या का निदान दे सकें। और जहाँ तक उन्होंने देखा है, युवरानी जी राजकुमार को अपने पुत्र समान ही मानती हैं। यदि बड़ी माता (महारानी जी) से बात करने का साहस नहीं है, तो कोई बात नहीं - छोटी माता (युवरानी जी) से तो बात करी ही जा सकती है। और कुछ नहीं तो उनसे इस विषय में बात अवश्य की जा सकती है। यदि युवरानी जी के हाथों उनका तिरस्कार भी हुआ, तो कम से कम अपने समाज में उनका सर नहीं झुकेगा!
हाँ, यही ठीक रहेगा।
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“काका,” प्रियम्बदा ने ख़ास बैठक में प्रवेश करते हुए, सामने खड़े हुए गौरीशंकर जी को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया, “प्रणाम!”
गौरीशंकर जी प्रियम्बदा के इस आदरपूर्ण सम्बोधन से अचकचा गए। शताब्दियों से राजपरिवार के सदस्य सामान्य-जन को प्रणाम नहीं करते, इनके पैर नहीं छूते। हाँ, देश स्वतंत्र हुआ था, लेकिन फिर भी, राजपरिवार के सदस्यों को ऐसी कोई आवश्यकता नहीं आन पड़ी थी।
उन्होंने आज हिम्मत कर के पहली बार राजपरिवार की किसी नारी को इतनी निकटता से आँख उठा कर देखा। सौम्य राजसी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थीं युवरानी जी! वो राजस्थान के राजपरिवार की युवरानी अवश्य थीं, लेकिन उनको अपनी तरफ़ की कलाकारी बहुत पसंद आती थी। आज भी प्रियम्बदा ने राजसी नीले रंग की खंडुआ रेशम की साड़ी पहनी हुई थी - साड़ी का बॉर्डर लाल रंग का था, और उस पर बीच बीच में हलके बैंगनी रंग के बड़े बड़े बूटे बने हुए थे। साड़ी का रंग चटक अवश्य था, लेकिन बहुत ही राजसी था! और एक सौभाग्यवती स्त्री के ऊपर बड़ा सुशोभित हो रहा था।
उन्होंने देखा कि वो युवरानी को देख रहे थे। अपनी हिमाकत पर वो सकपका गए। वो बेहद खेदजनक, किन्तु सम्मानपूर्ण स्वर में बोले,
“खम्मा घणी, युवरानी साहिबा! हुकुम... आप... आप...”
“अरे काका,” प्रियम्बदा मुस्कुराती हुई बोली - उसके दोनों हाथ अभी भी प्रणाम की मुद्रा में ही जुड़े हुए थे, “बड़ों का आदर करना तो हम छोटों का कर्तव्य है! ... और वैसे भी, नाते में हम आपकी बहू हैं... यदि हम आपको प्रणाम नहीं करेंगीं, तब तो बड़ी धृष्टता हो जाएगी! ... और नुकसान भी!”
गौरीशंकर जी को समझ ही नहीं आया कि वो क्या उत्तर दें। उनके मुँह से अनायास ही निकल गया, “नुकसान युवरानी जी?”
“और आप हमको बेटी कह कर पुकारिए... क्योंकि हम आपकी बेटी समान ही तो हैं!” प्रियम्बदा ने उनको बैठने का संकेत करते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “... नुकसान ही तो हो गया हमारा... हमको अभी तक आशीर्वाद ही नहीं मिला!”
“अरे... ओह! क्षमा युवरानी जी...”
“बेटी!” प्रियम्बदा ने उनकी बात का संशोधन करते हुए कहा, “अभी अभी तो आपसे निवेदन किया था हमने... और आप हमसे क्षमा नहीं माँग सकते! हम अपने बड़ों को आदर के अतिरिक्त और क्या दे सकते हैं? आप बड़े हैं... आप आशीर्वाद दीजिए!”
“युवरानी जी... बेटी जी... अब हम आपको कैसे समझाएँ!” इतना सम्मान शायद ही कभी मिला हो एक सामान्यजन को! उनसे कुछ कहते ही न बन पड़ा।
“पहले बैठिए न! ... बैठ के समझा लीजिए काका...”
बहुत हिचकिचाते हुए गौरीशंकर जी प्रियम्बदा के सामने पड़ी आराम कुर्सी पर बैठे। उनके बैठने के बाद ही प्रियम्बदा दूसरी कुर्सी पर बैठी।
“कहिए... क्या सेवा करें हम आपकी?”
“युव... बेटी जी...” गौरीशंकर जी ने अपने हाथ जोड़ दिए, और बहुत हिचकिचाते हुए बोले, “एक धृष्टता करने आया हूँ आपके पास!”
“काका! ... हमने कहा न आपसे... आप हमसे बड़े हैं। आप आदेश दें! ... लेकिन वो सब बातें बाद में करेंगे...” प्रियम्बदा वाकपटुता से अनवरत बोलती जा रही थी, “पहले यह बताइए कि सुहासिनी कैसी है?”
युवरानी के मुँह से अपनी बेटी का नाम सुनते ही गौरीशंकर जी चौंक गए। उनको दो पल यकीन ही नहीं हुआ कि युवरानी जी को उनकी बेटी का नाम भी मालूम होगा। एक अज्ञात आशंका में उनका हृदय डूबने लगा। उन्होंने तत्क्षण ही हथियार डाल दिए - अब जो होगा, सो होगा!
“हम अकिंचनों के बारे में आपको ज्ञात है युवरानी... बेटी जी... हमारे लिए वही बड़े सम्मान की बात है...” उन्होंने थोड़ा संयत हो कर कहा।
“अरे काका, क्या हो गया! ... ऐसे क्यों कह रहे हैं आप? आप और आपकी बेटी कला के उपासक हैं! हम आपका बहुत सम्मान करते हैं!” प्रियम्बदा ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा, “कैसी है सुहासिनी?”
“बहुत अच्छी है वो... जब उसको पता चलेगा कि आपने उसका स्मरण किया है, तो वो प्रसन्नता से फूली न समाएगी!”
“हा हा!” प्रियम्बदा हँसती हुई बोली, “कभी अपने साथ ले आईए उसको यहाँ... मिलना चाहेंगे हम उससे... या हम ही किसी दिन आपके घर चलते हैं उससे मिलने!”
गौरीशंकर जी ने फिर से हाथ जोड़ दिए, “हुकुम, आपने इतना कह दिया, बहुत बड़ी बात हो गई!”
“काका... फिर वही! बेटी!” प्रियम्बदा ने बेटी शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा।
“क्षमा कीजिएगा... बेटी... आदत नहीं है न!”
प्रियम्बदा मुस्कुराई।
“सुहास... मैं उसको सुहास कह कर बुलाऊँ तो आपको कोई ऐतराज़ तो नहीं होगा?”
“कैसी बातें कर रही हैं बेटी आप! ये तो बड़ा ही प्यारा नाम है...”
प्रियम्बदा मुस्कुराई, “सुहास नृत्य के अतिरिक्त और भी कुछ करती है? ... पढ़ाई लिखाई चल रही है उसकी?”
“जी... अगले साल स्कूल का इम्तिहान लिखेगी!”
“बढ़िया! ... बच्ची को अच्छी शिक्षा अवश्य दीजिएगा! पिताजी महाराज और राजमाता जी भी उच्च शिक्षा के बड़े हिमायती हैं... क्या लड़का क्या लड़की!”
“जी युव... बेटी... वो बात तो सर्वविदित है...”
गौरीशंकर जी अब बहुत नर्वस हो चुके थे। वो चाहते थे कि शीघ्र अतिशीघ्र जो कहने वो यहाँ आए थे, वो कह दें! फिर चाहे जो दंड उनको मिले, सब स्वीकार्य है।
वो कुछ कहने को हुए कि तीन परिचारिकाएँ आईं और तरह तरह के जलपान ला कर एक मेज़ पर सजा दीं।
“युवरानी,” मुख्य परिचारिका ने आदर से कहा, “जलपान की व्यवस्था कर दी गई है।”
“आईए काका,” कह कर प्रियम्बदा कुर्सी से उठने लगी।
वो पूरी तरह से उठ भी पाती कि गौरीशंकर जी सावधान हो कर अपनी कुर्सी से उठ गए।
“युवरानी जी, क्षमा करें! ... एक बात है, जो हम आपसे कह देने की इच्छा ले कर आए हैं!”
“हाँ ठीक है... किन्तु पहले जलपान तो कर लें?”
उनकी हिम्मत नहीं हुई कि परिचारिकाओं के सामने युवरानी जी के कथन का अनादर कर दें। जितना आदर उनको अब तक मिल गया था, वो उनकी हैसियत से कहीं अधिक था। अब वो ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे जो युवरानी जी का जाने अनजाने में अनादर कर दे। वो चुपचाप उठ कर खाने की मेज़ पर लगी कुर्सी पर बैठ गए।
जब तक जलपान परोसा गया, तब तक वो शांत ही रहे। जलपान लगने के बाद प्रियम्बदा ने परिचारिकाओं को जाने का संकेत दिया। वो भी समझ रही थी कि गौरीशंकर जी अब क्लांत हो चले हैं। इसलिए वो ही पूछ पूछ कर उनको खिला रही थी। जलपान कुछ समय चला। लेकिन गौरीशंकर जी को उससे बल बहुत मिला।
“अब कहिए काका,” जलपान के उपरांत प्रियम्बदा ने पूछा।
“बेटी... हम आपके पास एक काम से आए थे।”
“काम? ... कहिए न काका!”
“हमको खेद है बेटी कि हमने आपको आशीर्वाद भी नहीं दिया,” गौरीशंकर जी ने हिम्मत कर के कहा, “किन्तु जिसके स्वयं के हाथ रिक्त हों, वो आपको क्या दे? ... और वैसे भी... वैसे भी... आज हम आपसे माँगने ही आये थे!”
“अरे काका! क्या हो गया? यूँ घुमा फ़िरा कर न कहिए!”
“बेटी,” गौरीशंकर जी ने दुनिया जहान की हिम्मत जुटाते हुए कहा, “हम... हम... हमको... हमको ज्ञात हुआ है... कि राजकुमार हर्षवर्द्धन... मेरी सुहासिनी... को पसंद करते हैं।” लेकिन आगे की बात करने में वो हकलाने लगे, “... तो... तो... तो... हम निवेदन करने आए थे... कि... कि... सुहासिनी को आप अपने चरणों में स्थान दे दीजिए...”
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