Update #25
धनेश पक्षी को शायद अपना साथी मिल गया था - क्योंकि अब दो दो आवाज़ें आने लगीं थीं। अचानक से ही पक्षियों की आवाज़ें तीखी हो गईं - लेकिन अभी भी उनका शोर सुन कर खराब नहीं लग रहा था। हर्ष कौतूहलवश, उचक कर निकुञ्ज के चारों तरफ देखने लगा कि शायद धनेश पक्षी दिख जाए। लेकिन कुछ नहीं दिखा। देखने में वो वृक्ष और झाड़ियाँ विरल थीं, लेकिन फिर भी आवश्यकतानुसार घनी भी!
“क्या हुआ?” सुहासिनी ने पूछा।
“कुछ नहीं... इतना शोरगुल है, फिर भी कोई पक्षी नहीं दिख रहा है!”
“इसको शोर न कहिए राजकुमार जी...”
“हा हा... जैसी राजकुमारी जी की इच्छा!”
सुहासिनी कुछ देर न जाने क्या सोच कर चुप रही, फिर आगे बोली,
“आपको पता है न राजकुमार जी? ... धनेश पक्षी उम्र भर के लिए साथ निभाते हैं!”
“अच्छा? ऐसा है क्या?”
“जी... बहुत ही कम पक्षी हैं, जो अपना पूरा जीवन केवल एक साथी के संग बिताते हैं। ... आपके पसंदीदा सारस पक्षी भी इन्ही धनेश पक्षियों जैसे ही हैं!”
“आपको हमारी पसंद का पता है!” हर्ष ने आश्चर्य से कहा।
“आपकी साथी होने का दम्भ हममें यूँ ही थोड़े ही आया है!” सुहासिनी ने बड़े घमंड से कहा।
उसकी बात सुन कर हर्ष हो बड़ा भला महसूस हुआ। हाँ, जीवनसाथी हो तो ऐसी!
“हम भी तो आप ही के साथ अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं, राजकुमारी जी!”
हर्ष ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। यह एक इतना कोमल संकेत था, कि सुहासिनी अंदर ही अंदर पूरी तरह पिघल गई। पहले अपने लिए ‘राजकुमारी’ वाला सम्बोधन सुहासिनी को थोड़ा अचकचा लगता था, लेकिन अब नहीं। राजकुमार हर्ष की पत्नी के रूप में वो राजकुमारी के रूप में ही जानी जायेगी, और इस बात का संज्ञान उसको बड़ा भला लग रहा था।
“हम आपको बहुत प्रेम करेंगे...” सुहासिनी ने वचन दिया।
“हमको पता है!” हर्ष ने कहा, और सुहासिनी का एक गाल चूम लिया।
उस दिन के बाद से आज पहली बार हर्ष ने सुहासिनी को चूमा था। इसलिए दोनों के बीच चुम्बन का आदान प्रदान अभी भी अप्रत्याशित था। उसके दिल में हलचल अवश्य मच गई, लेकिन इस बार सुहासिनी घबराई नहीं। लेकिन फिर भी, लज्जा की एक कोमल, रक्तिम लालिमा उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।
“सुहास...” हर्ष बोला।
“जी?”
उत्तर में हर्ष ने कुछ कहा नहीं - लेकिन उसके सुहासिनी की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देखा कि उसको लगा कि हर्ष उससे किसी बात की अनुमति माँग रहा है। स्त्री-सुलभ संज्ञान था, या कुछ और - उसने शर्माते हुए बड़े हौले से ‘हाँ’ में सर हिलाया। बस - एक बार! इतना संकेत बहुत था हर्ष के लिए। उसने हाथ बढ़ा कर सुहासिनी की कुर्ती के बटनों को खोलना शुरू कर दिया।
सुहासिनी का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा। उस दिन तो राजकुमार ने जो कुछ किया था, अपनी स्वयं की मनमर्ज़ी से किया था। लेकिन आज वो दोष उस पर नहीं लगने वाला था। आज सुहासिनी ने उसको अनुमति दे दी थी। बहुत संभव है कि सुहासिनी के मन के किसी कोने में यह इच्छा... या यूँ कह लें, कि उम्मीद दबी हुई थी, कि उस दिन की ही तरह फिर से कुछ हो!
लेकिन जब वैसा कुछ होने लगता है, तो मन में होता है कि वो कहीं छुप जाए! बेचैनी और आस के बीच की रस्साकशी बड़ी अजीब होती है। लेकिन, वो यह होने से रोकने देना नहीं चाहती थी।
कुछ ही क्षणों में सुहासिनी कमर के ऊपर से पुनः नग्न थी। उसके छोटे छोटे नारंगी के फलों के आकर के गोल-मटोल नवकिशोर स्तन पुनः हर्ष के सामने थे।
“कितने सुन्दर हैं ये...” हर्ष उनको सहलाते हुए बोल रहा था, “... कैसे न पसंद आएँ ये हमको...”
हर्ष जैसे खुद से ही बातें कर रहा था।
ऐसी बातें किस लड़की के दिल में हलचल न पैदा कर दें? सुहासिनी भी अपवाद नहीं थी। उसको शर्म आ रही थी, लेकिन उसके मन में एक गज़ब का आंदोलन भी हो रहा था! उसको लग रहा था जैसे घण्टों बीते जा रहे हों - उसका राजकुमार उसके स्तनों को बड़ी लालसा, बड़ी रुचिकर दृष्टि से देख रहा था, सहला रहा था, महसूस कर रहा था। शायद ही उसके स्तनों का कोई भी विवरण हर्ष की नज़र से बच सका हो। इतनी क़रीबी जान पहचान हो गई!
अपने मन की व्यथा वो किस से कहे?
“राजकुमार...?” अंततः वो बोली।
“हम्म?”
“अ... आप को ऐसे शरारतें करना अच्छा लगता है?”
“बहुत!” कह कर हर्ष ने सुहासिनी को चूम लिया, “... आप इतनी सुन्दर भी तो हैं... हम करें भी तो क्या करें? ”
बात तो सही थी! कमसिन, क्षीण से शरीर वाली सुहासिनी एक ख़ालिस राजस्थानी सुंदरी थी! और अपने नग्न स्वरुप में और भी सुन्दर सी लग रही थी! अप्सरा जैसी! मनभावन! कामुक!
‘कामुक!’
यह शब्द हर्ष के मस्तिष्क में अचानक ही कौंध गया, और इस बात के बोध मात्र से उसके शरीर में कम्पन होने लगा। यौवन के सहज आकर्षण से वशीभूत हर्ष ने बढ़ कर सुहासिनी को अपने आलिंगन में भर लिया। और यह भावना हर्ष तक ही सीमित नहीं थी - सुहासिनी भी, हर्ष की ही भाँति काँप रही थी। अपरिचित एहसास! डरावना भी! लेकिन ऐसा नहीं कि जिसको रोकना दोनों के लिए संभव हो!
हर्ष सुहासिनी की तरफ़ थोड़ा झुका - सुहासिनी समझ तो रही थी कि वो उसको चूमना चाहता है, लेकिन किस तरह से चूमना चाहता है - उसको इस बात का अंदाजा नहीं था। हर्ष ने अपने भैया हरिश्चन्द्र और भाभी प्रियम्बदा को उनके अंतरंग क्षणों में एक दो बार चुम्बन करते हुए देखा अवश्य था, लिहाज़ा, वो अब वही क्रिया अपनी प्रेमिका पर आज़माना चाहता था। सुहासिनी को लगा कि वो उसके गालों या माथे पर चूमेगा - लेकिन हुआ कुछ और! हर्ष के होंठ ज्यों की उसके होंठों पर स्पर्श हुए, जैसे विद्युत् की कोई तीव्र तरंग उसके शरीर में दौड़ गई!
खजुराहो के मंदिरों में युवतियों की कई मूर्तियाँ हैं - कुछेक में ऐसा दर्शाया गया है कि बिच्छू उन युवतियों की जाँघों पर काट रहा है। यह बिच्छू दरअसल है ‘काम’! हर्ष के होंठों को अपने होंठों पर स्पर्श होते महसूस होते ही सुहासिनी के शरीर का ताप किसी तीव्र ज्वर के होने के समान ही बढ़ गया। काम का ज्वार, किसी ज्वर समान ही चढ़ता है। नवोदित यौवन की मालकिन सुहासिनी भी अब काम के ताप में तप रही थी। अपरिचित आंदोलनों से उसका शरीर काँप रहा था। ऐसा कैसे होने लगता है कि आपका शरीर स्वयं आपके नियंत्रण में न रहे? न जाने कौन सी प्रणाली है, लेकिन अब सुहासिनी का अपने खुद के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो गया था।
दोनों का चुम्बन कुछ देर तक चला - दोनों के लिए यह बहुत ही अपरिचित एहसास था, लेकिन किसी भी कोण से खराब नहीं था। मन में अजीब सा लगा लेकिन बुरा नहीं। चुम्बन समाप्त होते होते दोनों की साँसें धौंकनी के समान चल रही थीं - जैसे एक लम्बी दूरी की दौड़ पूरी कर के आए हों दोनों।
लेकिन हर्ष आज कुछ अलग ही करने की मनोदशा में था।
जब मन में चोर होता है, तब आप कोई भी काम चोरी छुपे, सबसे बचा कर करते हैं। लेकिन हर्ष के मन में चोर नहीं था - जब से उसने सुहासिनी को देखा था, वो तब से उसको अपनी ही मान रहा था। वो उसको चोरी से प्रेम नहीं करना चाहता था। इसलिए जब उसके हाथ स्वतः ही उसके घाघरे का नाड़ा खोलने में व्यस्त हो गए, तब उसने एक बार भी ऐसा नहीं सोचा कि वो आस पास का जायज़ा ले। उसको इस बात का ध्यान तो था कि उनके निकुंज में एकांत था, उसके कारण उनको यूँ अंतरंग होने में सहूलियत थी। लेकिन वो निकुंज एक तरह से दोनों का घर था - उनका शयन कक्ष था। जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ अकेले में मिल सकते थे।
सुहासिनी जानती थी कि विवाह के बाद यह तो होना ही है, लेकिन अभी? थोड़ा अलग तो था, लेकिन उसको ऐसा नहीं लगा कि यह नहीं होना चाहिए। राजकुमार उसके प्रेमी नहीं रह गए थे - वो उनको अपना पति कब से स्वीकार कर चुकी थी। अपने इष्टदेवता से वो कब से प्रार्थना कर के अपने और अपने राजकुमार के साथ की कामना कर चुकी थी। कम से कम तीन बार दोनों ने एक साथ मंदिर में जा कर पूजन किया, और ईश्वर से एक दूसरे को अपने अपने लिए माँग लिया था। और तो और, अब तो उनके सम्बन्ध को उसके बाबा और युवरानी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त था! इतना सब हो जाने के बाद अब तो बस, कुछ रस्में ही बची हुई थीं!
दो चार पल ही बीतें होंगे, लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे युग बीत गए हों!
लेकिन अब सुहासिनी अपने पूर्ण नग्न स्वरुप में अपने राजकुमार के सम्मुख थी।
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