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ry very nice start. Ghar me aur pados bahut mast maal hai. Story interesting hone wali hai.1980 का दशक, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में, जहां पास बहती नदी की लहरें खेतों को सींचती थीं, और हवा में मिट्टी की सौंधी खुशबू बसी रहती थी। यह गांव, सज्जनपुर, अपने किसानों के लिए जाना जाता था। यहां के लोग मेहनतकश थे, जिनके दिन खेतों में और रातें आंगन में तारों तले बीतती थीं। गरीबी थी, मगर सम्मान और संस्कारों की धनी थी यह बस्ती। गांव की गलियां मिट्टी की थीं, घर कच्चे, और दिल पक्के। यहीं बसा था फूल सिंह और अजीत का परिवार, जो अपने खेतों की फसल और आपसी प्यार से जीवन की गाड़ी खींच रहा था।
गांव के बीचों-बीच एक बड़ा-सा कच्चा मकान था, जिसमें फूल सिंह और अजीत का संयुक्त परिवार रहता था। घर का आंगन विशाल था, जहां सुबह-शाम सुमन और कुसुम की चूड़ियों की खनक गूंजती, और बच्चे क्रिकेट खेलते। आंगन के एक कोने में तुलसी का पौधा था, जिसकी पूजा हर सुबह होती। घर के बाहर खेतों की हरियाली फैली थी।
परिचय
कम्मू (कमल): एक किशोर, जो जवानी की दहलीज पर कदम रख रहा था। बदन पतला, मगर कमजोर नहीं—खेतों और क्रिकेट के मैदान की मेहनत ने उसे चुस्त-दुरुस्त बनाया था। चेहरे पर हल्के-हल्के रूंए उग आए थे, जो उसकी नई-नवेली जवानी का सबूत थे। उसकी आंखों में शरारत और सपने दोनों झलकते थे, और क्रिकेट के प्रति उसका जुनून उसे गांव का चहेता बनाता था।
सुमन: कम्मू की मां, 35 साल की एक देसी गांव की औरत, जिसका गदराया हुआ बदन और गेहूंआ रंग गांव की मिट्टी से मेल खाता था। उसके चेहरे पर एक अनोखी चमक थी, और उसकी मुस्कान इतनी सुंदर कि हर किसी का दिल जीत ले। सुमन का भरा हुआ बदन, खासकर उसकी बड़ी-बड़ी चूचियां, जो हर ब्लाउज को तान देती थीं, और उसका मांसल पेट, जिसमें गहरी, कामुक नाभि छिपी रहती थी, उसकी देह को और आकर्षक बनाते थे। कमर में पड़ी सिलवटें उसकी शोभा बढ़ाती थीं, और नीचे तरबूज जैसे चूतड़, जो हर कदम पर थिरकते, साथ में मोटी, केले के तने-सी जांघें—सुमन की देह गांव की हर नजर का ध्यान खींचती थी। फिर भी, उसकी सादगी और ममता ही उसकी असली पहचान थी।
अजीत: कम्मू के पिता, 36 वर्ष का गठीला किसान, जिसका बदन खेतों की मेहनत का गवाह था। बाहर से देखने में वह एक आम गांव का किसान था, मगर अंदर से रंगीन मिजाज। सुमन जैसी खूबसूरत पत्नी के साथ वह अपनी जवानी का भरपूर लुत्फ उठाता था। उनकी अंतरंग जिंदगी में जोश और जुनून की कमी नहीं थी, और अजीत अपनी पत्नी के साथ खुलकर प्रेम का आनंद लेता था।
अनामिका: कम्मू की बड़ी बहन, 19 वर्ष की, जो बदन के मामले में अपनी मां सुमन की कार्बन कॉपी थी। गोरा रंग, जवानी की गर्मी से कसा हुआ बदन, और छाती पर संतरों के आकार की चूचियां, जो उसके कसे हुए सूट में साफ उभरती थीं। उसके गोल-मटोल चूतड़ों की थिरकन और कामुक कमर का मटकना गांव की गलियों में नजरें खींचता था।
फूल सिंह: कम्मू के दाऊ (ताऊजी), अजीत के बड़े भाई, 40 वर्ष के, और घर में सबसे बड़े। एकदम देसी किसान, जो अपने बाप-दादा से सीखे तौर-तरीकों पर चलता था। मान-सम्मान की उसे बहुत फिक्र थी।
कुसुम: कम्मू की ताई, फूल सिंह की पत्नी, 38 वर्ष की, और सुमन की जेठानी। बदन के मामले में वह सुमन से भी दो कदम आगे थी। उसका भरा हुआ बदन, कमर में पड़ी सिलवटें, और गेहूंआ रंग उसकी कामुकता को और बढ़ाता था। उसकी छाती पर बड़ी-बड़ी चूचियां और मांसल पेट थे, और चूतड़ तो ऐसे कि सुमन के तरबूजों को भी मात दे दें—जैसे दो बड़े पतीले। जब वह साड़ी पहनकर गांव में निकलती, तो उसकी थिरकन किसी का भी ध्यान खींच लेती। कुसुम का अंदाज बेबाक और मजाकिया था,
अंजू: फूल सिंह और कुसुम की बेटी, 20 वर्ष की, गोरे रंग की, और बदन में जवानी का पूरा जोश। उसका बदन अनामिका की तरह भरा हुआ नहीं, बल्कि जहां भरा होना चाहिए, वहीं भरा था। पतली कमर, पूरे आकार की चूचियां और चूतड़, जो उसकी पतली कमर के कारण और उभरकर नजर आते। सूट में जब वह गांव में निकलती, तो लोगों की नजरें उसके ऊपर से नीचे तक फिसलती रहतीं।
धीरज: फूल सिंह और कुसुम का बड़ा बेटा, 21 वर्ष का, जिसकी जवानी फूट रही थी। काला रंग, अपने पिता और चाचा के साथ खेतों में मेहनत करता था। उसका ब्याह होने वाला था।
जतन: फूल सिंह और कुसुम का छोटा बेटा, 19 वर्ष का, थोड़ा मंदबुद्धि। जल्दी चिढ़ जाता और हर समय रोने जैसी शकल बनाए रखता। अपनी गलतियों के कारण अक्सर पिटाई खाता, मगर परिवार का हिस्सा होने के नाते उसे सब प्यार भी करते थे।
फूल सिंह और अजीत के परिवार के साथ-साथ उनके पड़ोस में दो और परिवार थे—तेजपाल और दिलीप का। ये परिवार भी गांव की मिट्टी और संस्कारों से जुड़े थे, मगर हर घर की अपनी कहानी थी, अपनी रंगत थी।
तेजपाल का घर फूल सिंह के मकान से कुछ गज दूर था। उनका कच्चा मकान पुराना था, मगर आंगन में नीम का पेड़ और तुलसी का चबूतरा इसे जीवंत बनाता था। तेजपाल, 58 साल के, गांव के सबसे बुजुर्गों में से एक थे। उनका बदन अभी भी चुस्त था, और चेहरे पर सख्ती के साथ-साथ अनुभव की गहराई झलकती थी। मान-सम्मान उनके लिए सब कुछ था।
उनके बेटे रत्नाकर, 40 साल के, अपने पिता की छाया में रहते थे। रत्नाकर का कसा हुआ बदन और गेहूंआ रंग उन्हें एक आम किसान का रूप देता था, मगर उनकी लंबाई थोड़ी कम थी। वह मेहनती थे, मगर दारू का शौक उन्हें कभी-कभी रंगीन मिजाज में ले आता। नशे में वह गीत गुनगुनाते और गांव की गलियों में झुमरी की तारीफों के पुल बांधते।
झुमरी, उनकी 38 साल की पत्नी, एक मादक औरत थी। उसका गोल-मटोल चेहरा, गेहूंआ रंग, और भरा हुआ बदन हर नजर को खींचता था। उसकी साड़ी में तनी हुई मोटी चूचियां, कमर की सिलवटें, गहरी नाभि, और बाहर को निकले चूतड़—झुमरी की देह गांव की गपशप का हिस्सा थी। फिर भी, वह अपने परिवार के लिए समर्पित थी, और उसकी हंसी आंगन को गुलजार रखती थी।
रत्नाकर और झुमरी की बेटी बिंदिया, 22 साल की, अपनी मां की जवानी का छोटा रूप थी। उसकी कसी हुई चूचियां, बलखाती कमर, और गोल-मटोल चूतड़ गांव के लड़कों की धड़कनें बढ़ाते थे। उसका ब्याह तय होने वाला था, और तेजपाल इस बात को लेकर बहुत सजग थे।
मन्नू, 20 साल का, रत्नाकर का बेटा, गांव का शरारती लड़का था। वह कम्मू और सोनू का जिगरी यार था, और क्रिकेट के मैदान में तीनों की तिकड़ी मशहूर थी। मन्नू का गेहूंआ रंग और साधारण बदन उसे आम दिखाता था, मगर उसकी दोस्ती और हंसी उसे खास बनाती थी।
दिलीप का घर तेजपाल के मकान से थोड़ा हटकर था। उनका घर छोटा और जर्जर था, क्योंकि दिलीप की कमाई ज्यादातर दारू और जुए में उड़ जाती थी। दिलीप, 40 साल का, गांव का सबसे बदनाम शख्स था। उसकी हवस भरी नजरें हर औरत पर पड़ती थीं—चाहे वह सुमन हो, कुसुम हो, झुमरी हो, या उसकी अपनी पत्नी रजनी। उसका बदन मेहनत से गठा था, मगर उसकी आदतों ने उसे गांव में नीचा दिखा दिया था।
रजनी, 39 साल की, दिलीप की हरकतों से तंग थी। उसका गदराया बदन गांव में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय था। उसकी चूचियां इतनी बड़ी थीं कि सुमन, कुसुम, और झुमरी भी उसके सामने फीकी पड़ जाएं। उसका भरा हुआ पेट, गहरी नाभि, कमर की सिलवटें, और गोल-मटोल चूतड़—रजनी की देह में एक ऐसी कामुकता थी, जो अनायास ही नजरें खींच लेती थी। मगर उसकी आंखों में उदासी थी, क्योंकि दिलीप की हरकतें उसे हर पल तोड़ती थीं। वह अपने बच्चों के लिए जीती थी।
नेहा, 21 साल की, रजनी की बड़ी बेटी, अपनी मां की तरह खूबसूरत थी। उसका गोरा रंग, सुंदर चेहरा, और मौसमी के आकार की चूचियां उसे गांव की सबसे आकर्षक लड़कियों में शुमार करती थीं। उसका छरहरा बदन और गोल-मटोल चूतड़ जब सूट में थिरकते, तो गांव के लड़के ठिठक जाते।
विक्रम, 20 साल का, रजनी का बड़ा बेटा, शहर की फैक्ट्री में काम करता था। उसकी कमाई ही घर को चलाती थी। वह जिम्मेदार और समझदार था, और अपनी मां की परेशानियों को देखकर अक्सर चुपके से आंसू बहाता।
मनीषा, 19 साल की, रजनी की छोटी बेटी, मासूम और प्यारी थी। उसका पतला बदन, नींबू जैसी छोटी चूचियां, और छोटे-छोटे चूतड़ उसे उम्र से छोटा दिखाते थे, मगर उसकी मुस्कान दिल जीत लेती थी।
सोनू, 18 साल का, सबसे छोटा बेटा, गोरा और पतला था। मां-बाप के झगड़ों ने उसे उम्र से ज्यादा समझदार बना दिया था। वह कम्मू और मन्नू का दोस्त था, और क्रिकेट में उनकी तिकड़ी को कोई नहीं हरा सकता था।
बहुत बहुत धन्यवाद मित्रMast story thanks guruji
बहुत बहुत आभार, साथ बने रहेंVe
ry very nice start. Ghar me aur pados bahut mast maal hai. Story interesting hone wali hai.
बिल्कुल मित्र, आप भी लगातार साथ देनाNice story brother
Bs lagatar rhna update dene me![]()
Nice start to the story.अध्याय 2तपती दोपहर, जब सूरज अपने पूरे जोश में था और लू की गर्म हवा सरलपुर को सन्नाटे में जकड़ चुकी थी, गांव की क्रिकेट टीम बगल के गांव से हारकर लौटी। धूल भरे मैदान से उठती निराशा और गर्मी की झल्लाहट हवा में तैर रही थी।
कम्मू, माथे से पसीने की बूंदें पोंछते हुए, गुस्से में बड़बड़ा रहा था, “अरे भाई, ठीक से पकड़ लेता तो जीत जाते! ले मरवाली अब, खेलना नहीं आता तो मैदान क्यों आया?”
मन्नू, जिस पर कैच छोड़ने का इल्जाम था, तपाक से जवाब देता है, “तू भाई ज्यादा कपिल देव मत बन! आंखों पर चौंध पड़ गई थी, इसलिए छूट गया। ऐसे बोल रहा है जैसे तूने कभी गलती नहीं की!”
अरे, अब हार गए ना, तुम दोनों लड़ना बंद करो!” सोनू, हमेशा की तरह मेल-मिलाप का रास्ता निकालते हुए बोला, “गर्मी से बुरा हाल है, चलो, घर चलते हैं।
तीनों जिगरी दोस्त—कम्मू, मन्नू, और सोनू—बाकी लड़कों से अलग हो गए और नहर किनारे पहुंचे। ठंडे पानी में हाथ-पैर धोकर उन्होंने गर्मी और हार की खीझ को धो डाला। नहर का पानी उनके पैरों को छूता, और हल्की हवा उनके चेहरों पर राहत लाती।
ये तीनों एक ही उम्र के थे, उनके घर एक-दूसरे के बगल में, और बचपन से ही एक-दूसरे के साए जैसे थे। साथ खेलना, साथ लड़ना, साथ जीतना, और साथ हारना—उनकी नोंक-झोंक और गाली-गलौज भी उनकी दोस्ती की मिठास थी, जो उनकी बातों में अपनापन घोल देती थी। नहर से राहत पाकर तीनों अपने घरों की ओर चल पड़े, गर्मी की दोपहर में गांव सन्नाटे में डूबा था। लोग घरों में दुबके थे या पेड़ों की छांव में खाट बिछाकर समय काट रहे थे। सुबह और शाम का वक्त ही काम-काज के लिए रहता, जब गर्मी थोड़ी कम होती। गांव में अधिकतर घरों में गाय या भैंस थीं, जो दूध-दही की जरूरत पूरी करती थीं। ये पशु न सिर्फ परिवार का पेट पालते, बल्कि गांव की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा थे।कम्मू, जिसका असली नाम कमल था—हालांकि यह नाम सिर्फ कागजों तक सीमित था, क्योंकि पूरा सज्जनपुर उसे कम्मू ही बुलाता—अपने घर पहुंचा। हाथ हिलाता, थोड़ा झुंझलाया-सा वह छप्पर के नीचे कदम रखते ही अपनी मां सुमन के गुस्से का शिकार हो गया।
“आ गया! अब क्यों आया? और देर रुक लेता वहीं! पड़ा रहता उसी गेंद-बल्ले के साथ, खा लेता वही! घर की याद कैसे आई, हां?” सुमन की आवाज में गुस्सा था, मगर उसका प्यार भी छलक रहा था। कम्मू को इतना तो पता था कि इस वक्त मां को जवाब देना सेहत के लिए ठीक नहीं। वह चुपचाप छप्पर के नीचे बिछी खाट पर बैठ गया, मुंह लटकाए।
सुमन ने कुछ देर और अपने बेटे पर प्यार भरी खीज की बौछार की। फिर, अपनी साड़ी का पल्लू उठाकर, पसीने से भीगी अपनी गदराई कमर में ठूंसा और बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई। “न जाने क्या मिलता है उस गेंद-बल्ले में कमबख्त को, जो खाना-पीना सब भूल जाता है! ऊंट हो रहा है, पर अकल दो पैसे की नहीं!”थोड़ी देर बाद सुमन वापस आई, हाथ में एक थाली, जिसमें रोटी, सब्जी, और थोड़ा-सा दही था। थाली कम्मू के सामने रखते हुए उसने चार चटपटी बातें और सुना दीं, ताकि खाने में मसाला कम न पड़े। सुबह से क्रिकेट के मैदान में दौड़-भाग और हार की खीझ के बाद कम्मू को भूख जोरों से लगी थी। वह मां की डांट को मन से ज्यादा पेट से सुन रहा था। थाली देखते ही वह खाने में जुट गया। सुमन वहीं खाट पर बैठ गई, हाथ में पंखा लिए, अपने और कम्मू के लिए हवा करने लगी। गर्मी की दोपहर में पंखे की हल्की हवा थोड़ा सुकून दे रही थी, और सुमन की बड़बड़ाहट अब धीमी पड़ चुकी थी।
कम्मू का घर सरलपुर के बाकी कच्चे घरों जैसा ही था—सादा, मगर अपनत्व से भरा। दो कमरे आमने-सामने, दोनों के आगे छप्पर, और बीच में एक छोटा-सा खुला आंगन। आंगन के एक कोने में एक नल लगा था, जिसके बगल में एक पत्थर की पटिया बिछी थी—यही था स्नानघर। नहाने से लेकर बर्तन धोने तक सब कुछ यहीं होता। दूसरी ओर घर का मुख्य द्वार था, जिसके पुराने लकड़ी के किवाड़ों पर समय की छाप साफ दिखती थी। रसोई के नाम पर छप्पर के एक किनारे मिट्टी का चूल्हा था, जहां लकड़ियों और उपलों से खाना बनता। चूल्हे के आगे एक छोटी-सी मिट्टी की दीवार बनाकर उसे रसोई का रूप दे दिया गया था। इन्हीं दो कमरों और छप्परों के बीच पूरा परिवार रहता था—एक कमरा अजीत के परिवार का, दूसरा फूल सिंह का। आंगन की मिट्टी और छप्पर की छांव में ही कम्मू का बचपन बीता था, और यहीं उसकी जिंदगी की छोटी-बड़ी कहानियां बुन रही थीं।
गर्मी की दोपहर सरलपुर में सन्नाटे की चादर ओढ़े थी। कम्मू अपने घर के छप्पर तले खाट पर बैठा खाना खा रहा था, और सुमन पास में बैठी पंखा हिलाकर अपने और बेटे के लिए हवा कर रही थी। तभी आंगन की ओर से किसी की पुकार सुनाई दी। सुमन ने पंखा खाट पर रखा और आंगन में जाकर देखा। बगल के घर से झुमरी, दोनों घरों के बीच की दीवार पर झुकी हुई, उसे पुकार रही थी।“हां जीजी, क्या हुआ?” सुमन ने दीवार के पास पहुंचते हुए पूछा।
“अरे बन्नो, थोड़ा दही हो तो दे दे, दही जमाने के लिए। मैंने बर्तन धो दिया, बस बहुत थोड़ा-सा दे दे,” झुमरी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा।
“हां जीजी, अभी लाई,” सुमन ने तुरंत जवाब दिया। वह जल्दी से अंदर गई और एक छोटी कटोरी में थोड़ा-सा दही लेकर लौट आई। कटोरी झुमरी को थमाते हुए उसने पूछा, “और, सब काम निपट गया?”झुमरी ने कटोरी हाथ में लेते हुए कहा, “हां, बस अब दही जमाना बाकी था। सुबह से गाय का दूध निकालने, बर्तन धोने, और खाना बनाने में लगी थी। तू बता, तेरे घर का क्या हाल है?”
सुमन ने हल्का-सा ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, “क्या बताऊं जीजी, ये कम्मू तो सुबह से गेंद-बल्ले के पीछे भागा हुआ था। बगल के गांव से हारकर आए हैं, और अब जाकर घर की याद आई। खेतों में पानी लगाने की बात कहो, तो मुंह फुलाए बैठा है। ऊपर से गर्मी ने हाल बेहाल कर रखा है।”
झुमरी हंस पड़ी, “अरे, हमारे मन्नू की भी यही हालत है। सुबह से खेत में पानी लगाने की बात कह रहे थे, पर ये भी गायब हो गया। ससुर जी रिश्तेदारी में गए हैं, तो सारा काम अकेले ही करना पड़ा। अब जाकर मन्नू लौटा है, और मुंह बनाए बैठा है, जैसे सारी दुनिया की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर हो!”
सुमन ने भी हल्की हंसी के साथ जवाब दिया, “हां जीजी, ये लड़के ऐसे ही हैं। जवानी सिर चढ़कर बोल रही है, पर अकल अभी घुटनों में ही है। अब मैं क्या करूं, बस डांट-डपट कर ही काम चला रही हूं।”
“सही कहती है,” झुमरी ने सहमति जताई। “वैसे, शाम को नहर किनारे चलेंगी? थोड़ा पानी भर लें, और गर्मी भी शांत हो जाएगी।”
“हां, ठीक है जीजी, मैं अनामिका को लेकर आ जाऊंगी,” सुमन ने कहा। दोनों औरतें कुछ देर तक ऐसे ही बातें करती रहीं—घर के काम, गाय-भैंस की देखभाल, और गर्मी की मुश्किलों की चर्चा। फिर झुमरी ने कटोरी थामते हुए कहा, “चल, अब मैं दही जमा लूं, नहीं तो ये काम भी अटक जाएगा।”
“ठीक है जीजी,” सुमन ने मुस्कुराकर कहा और वापस अपने छप्पर की ओर बढ़ गई।
झुमरी कटोरी लेकर अपने घर की ओर बढ़ी। उसका घर सुमन के घर से मिलता-जुलता था। एक कमरा, जिसके आगे छप्पर पड़ा था, और फिर एक छोटा-सा आंगन। आंगन के दूसरी ओर एक और छप्पर था, जहां भैंस बंधी रहती थी। सुमन के घर की तरह ही यहां भी छप्पर के एक किनारे मिट्टी का चूल्हा था, जिसे छोटी-सी मिट्टी की दीवार से घेरकर रसोई बना दिया गया था। आंगन में एक नल और उसके बगल में पत्थर की पटिया थी, जहां नहाने से लेकर बर्तन धोने तक सारा काम होता था।
झुमरी छप्पर में पहुंची और दही जमाने के लिए बर्तन में दूध और दही डालने लगी। पास ही मन्नू बैठा था, मुंह बनाए, जैसे कोई बहुत बड़ा नुकसान हो गया हो।“अब मुंह बनाए क्यों बैठा है?” झुमरी ने मन्नू की ओर देखते हुए कहा। “चल, उठ, रोटी खा ले जाकर। बिंदिया, ओह बिंदिया, इसे रोटी परस दे जरा!”
झुमरी की आवाज सुनकर बिंदिया, जो मन्नू की बड़ी बहन थी, कमरे से बाहर निकली। उसने एक बार मन्नू की ओर नजर मारी, जिसमें हल्का-सा ताना था, और फिर रसोई की ओर बढ़कर मन्नू के लिए खाना निकालने लगी। झुमरी ने बात आगे बढ़ाई, “अब मुंह बनाने से क्या होगा? तुझे पता है न, तेरे पिता जी कब से खेत में पानी लगवाने के लिए तेरी राह देख रहे थे? और तू सुबह का निकला तो ऐसा निकला कि घर की सुध-बुध ही खो बैठा। पता है, अकेले उन्होंने पूरा खेत पानी लगाया, और फिर घर भी आ गए!”
बिंदिया ने थाली मन्नू के सामने रखते हुए तंज कसा, “और क्या, इसे तो बस गेंद-बल्ले से मतलब है। ये नहीं कि पिता जी का सहारा बने।”
झुमरी ने सहमति में सिर हिलाया, “सही बात है। ऊपर से अगर उन्होंने गलती पर एक-आध डांट भी दी, तो मुंह बनाने की क्या जरूरत है?”
मन्नू दोनों की बातें सुनते हुए चुपचाप थाली से एक निवाला तोड़ा और मुंह में डाल लिया। उसकी खीझ साफ झलक रही थी, मगर वह जानता था कि इस वक्त कुछ बोलना ठीक नहीं।
इधर सुमन झुमरी को दही देने के बाद और कम्मू को खाना खिलाने के बाद थोड़ी कमर सीधे करने के बहाने से कमरे में जाकर लेटी ही थी कि अचानक से बाहर से शोर आने लगा, तुरंत घर में जो भी था बाहर की ओर भागा, आंगन में आए तो आवाज़ बगल में से ही आ रही थी, कम्मू के एक ओर जहां मन्नू का घर था तो दूसरी ओर सोनू का,
कुछ ही पलों में पूरा घर दीवार पर से झांक कर सोनू के घर में देख रहा था, सोनू के पापा और उसकी मम्मी लड़ रहे थे,
कुसुम: ले आज ये फिर पी कर आए होंगे और कर दिया क्लेश शुरू,
सुमन: हां जीजी अब इनका बढ़ता ही जा रहा है,
अनामिका: अरे देखो, मम्मी और ताई, वो डंडे से मारने जा रहे हैं,
कुसुम: ए कम्मू, भाग कर अपने दाऊ या पापा को बुला नहीं तो ये आज कुछ गलत कर देंगे।
सुमन: बेचारी रजनी जीजी, कितना कुछ सहना पड़ता है उन्हें।
कुसुम: अब हम भी क्या करें पियक्कड़ शराबी के मुंह लग कर अपनी इज्ज़त और डूबा बैठो।
मंजू: अरे मम्मी वो तो अच्छा है अभी दोनों लड़कियां और बड़ा लड़का नहीं है नहीं तो बेचारे परेशान होते।
कुसुम: पर ये सोनू भी नहीं दिख रहा,
सोनू घर में घुसकर जैसे ही देखता है अपने पापा को अपनी मम्मी पर हाथ उठाते हुए वो बीच में आकर हाथ पकड़ लेता है जिससे उसके पापा दिलीप को और गुस्सा आ जाता है, रजनी लगातार रोए जा रही थी,
दिलीप: तू, तेरी इतनी हिम्मत हो गई अपने बाप का हाथ पकड़ता है, आज तेरी खैर नहीं,
ये कहकर दिलीप उसके गाल पर तमाचा मार देता है, और डंडा उठा कर उसे मारने को बढ़ता है तो रजनी अपने बेटे को बचाने के लिए आगे आ जाती है
रजनी: नहीं उसे मत मारो,छोड़ो उसे माफ करदो,
दिलीप: हट साली रांड,
ये कहकर दिलीप उसे धक्का देता है साथ ही दिलीप के पैरों के नीचे रजनी की साड़ी का पल्लू फंस जाता है, और वो पीछे की ओर गिरती है साथ ही उसकी साड़ी भी खुल जाती है उसका बदन अब पेटीकोट और ब्लाउज में सबके सामने होता है।
दिलीप फिर से सोनू को मारने के लिए आगे बढ़ता है और जैसे ही डंडा उठाता है फूल सिंह उसे पकड़ लेते हैं साथ में अजीत भी दोनों जबरदस्ती उसे पकड़ कर घर से बाहर खींच लेजाते हैं, दिलीप चिल्लाता हुआ जाता है, छोड़ो मुझे आज इस पिल्ले को मार ही डालूंगा, मेरा हाथ पकड़ता है।
दिलीप के बाहर जाते ही कुसुम, सुमन और झुमरी वगैरा रजनी के पास आ जाती हैं, रजनी सोनू को सीने से लगा कर रो रही थी, सोनू को भी अपनी ना मां के सीने से लग कर अच्छा लग रहा था, कम्मू और मन्नू वहीं खड़े थे और अपने दोस्त की मां को इस तरह देख कर, रजनी चाची के गदराए बदन को पेटिकोट और ब्लाउज में देख उन्हें थोड़ा अलग सा लग रहा था, जवान ही रहे थे तो ये स्वाभाविक ही था।
कुसुम और बाकी औरतों ने फिर रजनी को संभाला और उसे अंदर ले गई वहीं कम्मू और मन्नू सोनू को लेकर छत पर चढ़ गए।
इधर गांव के बाहर, नीलेश(गांव का जमींदार)अपने खेतों के बीच बने एक छोटे से मकान में एक मजदूर औरत के साथ था। वह औरत, कमला, अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज़ा मांगने आई थी। नीलेश ने कर्ज़े के बदले उससे शारीरिक संबंध की मांग की। कमला मजबूर थी—उसकी बेटी की शादी दांव पर थी। नीलेश ने उसे मकान में ले जाकर जमीन पर लिटाया। उसकी साड़ी खोल दी, ब्लाउज और पेटीकोट भी उतार दिए। कमला ने विरोध करने की कोशिश की, लेकिन नीलेश के आगे उसकी एक न चली। नीलेश ने उसकी मजबूरी का फायदा उठाया और अपनी हवस पूरी की।
कमला की आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन वह चुपचाप सब सहती रही। बाद में नीलेश ने उसे कर्ज़ा देने का वादा किया और कमला अपने कपड़े समेटकर वहां से चली गई।
गांव के एक कोने में खड़ी थी सोमपाल की विशाल हवेली, जो पूरे सज्जनपुर पर अपनी हुकूमत चलाती थी। इस हवेली का रौब ऐसा था कि कोई भी इसके सामने आंख उठाकर बात नहीं करता था।
जमींदार का परिवार
सोमपाल, 56 वर्ष के, हवेली के मुखिया थे। उनका बदन अभी भी चुस्त-दुरुस्त था, और चेहरे पर रौबदार तेज झलकता था। लंबा कद, चौड़ा सीना, और घनी मूंछें—सोमपाल की मौजूदगी ही गांव को खामोश कर देती थी। उनके पास जमीन की कोई कमी नहीं थी; गांव के आधे से ज्यादा खेत उनके नाम थे। मगर सोमपाल का रंगीन मिजाज गांव में चर्चा का विषय था। उनकी नजरें हर खूबसूरत औरत पर ठहरती थीं उनकी हवस भरी मुस्कान और बातों का अंदाज औरतों को असहज कर देता था, मगर कोई उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं करता था।
सोमपाल का बेटा नीलेश, 40 वर्ष का, अपने पिता की कार्बन कॉपी था। लंबा, गठीला बदन, और रंगीन मिजाज। वह खेतों की देखभाल करता, मगर उसका ज्यादा समय गांव की गलियों में घोड़े पर सवार होकर, औरतों पर नजरें गड़ाकर, या ताश के अड्डों पर बीतता था।
नीलेश की पत्नी सरोज, 38 वर्ष की, एक मादक औरत थी। उसका गोरा रंग, भरा हुआ बदन, और कामुक अंदाज हवेली की शोभा बढ़ाता था। उसकी मोटी चूचियां, गहरी नाभि, और थिरकते चूतड़ साड़ी में तने हुए साफ दिखते थे। सरोज का बिंदास अंदाज और हंसी हवेली के नौकरों से लेकर गांव के मर्दों तक की नजरें खींचती थी। वह अपने पति की हरकतों को जानती थी, मगर खुद भी जवानी के मजे लेने में पीछे नहीं थी।
नीलेश और सरोज के दो बेटे थे—कर्मा, 19 वर्ष का, और अनुज, 18 वर्ष का। दोनों अपने दादा और पिता के रंग में रंगे थे। कर्मा का काला रंग, गठीला बदन, और शरारती आंखें उसे गांव के लड़कों में अलग बनाती थीं। वह क्रिकेट के मैदान में कम्मू, मन्नू, और सोनू के साथ खेलता, मगर उसकी नजरें अनामिका, अंजू, बिंदिया, और नेहा पर टिकी रहती थीं। अनुज, गोरा और थोड़ा पतला, मगर जवानी की गर्मी से भरा था। उसकी चिकनी बातें और हंसी लड़कियों को लुभाती थी, और वह अपनी उम्र से ज्यादा समझदार दिखता था। दोनों भाई हवेली के रौब का फायदा उठाते, और गांव की गलियों में उनकी दबंगई चलती थी।
ये था गांव के जमींदार का परिचय जो लगभग पूरे गांव को ही अपने काबू में रखता था।