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Adultery सज्जनपुर की कहानी

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raj453

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सातवाँ अध्याय

रात का अंधेरा सज्जनपुर को अपने आगोश में ले चुका था, और हवेली में खाने के बाद का माहौल अब एक अलग ही रंग में रंग गया था। नदी की ठंडी हवा बाहर की सादगी को छू रही थी, मगर हवेली की दीवारों के भीतर कामुकता और हवस का तूफान उमड़ रहा था।
सरोज अपने कमरे में सोने की तैयारी कर रही थी। उसने अपनी साड़ी उतारी और एक ओर रख दी। उसका भरा हुआ, कामुक बदन अब सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज़ में था, जो उसकी मोटी चूचियों और गहरी नाभि को उभार रहा था। तभी उसे अपनी कमर पर दो हाथ महसूस हुए, जो उसके पेट को मसलने लगे।“अजी, छोड़ो न, क्या कर रहे हो?” सरोज ने शरारती लहजे में कहा।“अपनी पत्नी से प्यार, और क्या?” नीलेश ने हँसते हुए जवाब दिया, उसकी आँखों में चमक थी।

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“अच्छा, बड़ा प्यार आ रहा है? क्यों, अपने नए खिलौने से मन भर गया क्या? सुबह तक आवाज़ें आ रही थीं, बिमला ने भी देखा था,” सरोज ने तंज कसते हुए कहा।
नीलेश ने सरोज के ब्लाउज़ की डोरी खोलते हुए कहा, “वो खिलौना है, और तुम हमारी रानी हो। वैसे, बड़ा स्वाद है उसमें। अपनी सेवा का अवसर दो उसे और कुछ कामुकता के पाठ पढ़ाओ।”“अच्छा, फिर तुम्हें मेरी जगह वो पसंद आ गई तो?” सरोज ने बनावटी नाराज़गी दिखाते हुए पूछा।

“ऐसा कभी हो सकता है?” नीलेश ने सरोज की मोटी, नंगी चूचियों को मसलते हुए कहा।“आह, आराम से जी,” सरोज की साँसें गर्म हो गईं।“अब आराम का नहीं, काम का समय है,” नीलेश ने हँसते हुए सरोज के पेटीकोट का नाड़ा खोल दिया।

कुछ देर बाद सरोज नीलेश के मोटे लंड पर कूद रही थी। उसकी चूचियाँ हवा में झूल रही थीं, और उसकी आहें कमरे में गूँज रही थीं।

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नीलेश: आह मेरी रानी तेरी चूत जैसी गर्मी किसी औरत में नहीं, आह ऐसे ही।
सरोज: तुम्हारा लंड भी तो ऐसा है कि जिसे पाकर ही मेरी चूत की प्यास बुझती है, आह चोदो अपनी रानी की प्यासी चूत को,
नीलेश: आह साली तुझ जैसी गरम औरत को पत्नी बना कर तो मेरे भाग ही खुल गए,
सरोज: ओह जी तुम्हारे मोटे लंड वाले पति को पाकर तो मेरी चूत की भी किस्मत जाग गई है, आह चोदो इसे ऐसे ही।
पूरा कमरा दोनों की थापो की आवाज से गूंज रहा था और दोनों ही जल्दी इसी तरह एक दूसरे को उकसाते हुए चुदाई कर रहे थे,


हवेली के पिछले कमरे में भी कुछ ऐसा ही माहौल था। नीलेश और सरोज के दोनों बेटे, कर्मा और अनुज, बिमला के भरे बदन को भोग रहे थे। बिमला बिस्तर पर पीठ के बल पूरी नंगी लेटी थी। उसकी टाँगों के बीच कर्मा था, जिसका लंड उसकी अनुभवी चूत में अंदर-बाहर हो रहा था। बिस्तर के नीचे अनुज खड़ा था, और उसका लंड बिमला के मुँह में था, जिसे वो चूस रही थी।

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कर्मा: आह चाची क्या गरम चूत है तुम्हारी ओह मेरी रांड चाची।
कर्मा ने बिमला की चूत में धक्के लगाते हुए कहा,
अनुज: चूसती भी उतना ही बढ़िया है चाची, भैया।
अनुज उसके मुंह में लंड को और घुसाते हुए बोला।
दोनों बिमला के कामुक बदन को एक साथ भोग रहे थे, बिमला भी दो जवान लड़कों का साथ पाकर आनंद से उनके बीच लेट कर अपना बदन मसलवा रही थी। उसके मुंह से घुटी हुई आहें निकल रहीं थीं।

हवेली की रात ऐसे ही कामुक थापों और आहों के बीच बीत गई।अगली सुबह रजनी और सोनू फिर से हवेली की ओर निकले। दोनों के मन में एक तूफान था, मगर मुँह पर ताला। सोनू बार-बार अपनी माँ को देख रहा था। कल सुबह का दृश्य—रजनी का नंगा बदन नीलेश के नंगे बदन से चिपका हुआ—उसकी आँखों के सामने बार-बार कौंध रहा था। हवेली पहुँचते ही सोनू को हमेशा की तरह बगीचे में माली के साथ काम में लगना पड़ा, मगर उसका मन अपनी माँ के साथ अंदर जाने का था। उसके मन में सवालों का भँवर चल रहा था—आज न जाने माँ के साथ क्या होगा?

रजनी सीधे रसोई में काम में जुट गई। जल्दी ही उसका बदन पसीने से भीगकर चमकने लगा, जिससे वह और कामुक लगने लगी।

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तभी कर्मा रसोई में आया। रजनी को इस हाल में देखकर उसके मन में हलचल होने लगी। वह धीरे से रजनी के पीछे जाकर खड़ा हो गया और साड़ी के ऊपर से उसके पेट पर हाथ रखते हुए बोला, “क्या बना रही हो, चाची?

रजनी चौंक गई, मगर संभलते हुए बोली, “नाश्ता बना रही हूँ, लल्ला। तुझे भूख लगी होगी न?” उसने कर्मा के चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा।

कर्मा को रजनी का ये बदला हुआ अंदाज़ देखकर हैरानी हुई। रजनी में अब एक नया आत्मविश्वास था। कल की घटना के बाद वह बदल चुकी थी। उसका गदराया बदन, जो उसे अब तक कमज़ोर बनाता था, अब उसे अपनी ताकत लग रहा था। कर्मा ने उसे खुलता देख मन ही मन खुश हुआ और पीछे से उससे चिपक गया। उसने रजनी के पल्लू को थोड़ा ऊपर खिसकाया और उसके नंगे पेट को सहलाने लगा।

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अरे लल्ला, नाश्ता बना लेने दो, देर हो जाएगी,” रजनी ने प्यार भरे लहजे में कहा। उसे अपने चूतड़ों के बीच कर्मा के कड़क लंड की चुभन महसूस हुई, और एक सिहरन उसके बदन में दौड़ गई। कर्मा उसके बेटे विक्रम से भी छोटा था, मगर एक जवान लड़के को अपने बदन के लिए इतना आकर्षित देखकर रजनी को मन ही मन गुदगुदी हो रही थी।

चाची, नाश्ता तो बनता रहेगा, अपनी सुंदर चाची से प्यार तो कर लेने दो,” कर्मा ने शरारती अंदाज़ में कहा।“अरे नहीं, लल्ला, ये बुढ़िया चाची कहाँ से सुंदर लग रही है तुझे?” रजनी ने मजाक में जवाब दिया।

अरे चाची, तुम और बुढ़िया? तुम तो अभी जवानों से भी जवान हो,” कर्मा ने रजनी के पेट को मसलते हुए कहा।
कर्मा की हरकतों और उसके लंड की चुभन का असर रजनी पर पड़ रहा था। उसका बदन गरम हो रहा था, और उसकी टाँगों के बीच हल्की नमी महसूस हो रही थी।

तभी सरोज तैयार होकर रसोई में आई और कर्मा को रजनी से चिपके देख बोली, “अरे रजनी, आ गई तू? और ये क्यों लाड़ लगा रहा है तुझसे?

रजनी थोड़ा झेंप गई और बोली, “अरे जीजी, देखो न लल्ला को, नाश्ता नहीं बनाने दे रहे।

अरे कर्मा, क्यों परेशान कर रहा है चाची को? जा, उन्हें काम करने दे,” सरोज ने डाँटते हुए कहा।

अरे माँ, मैं तो बस चाची को बता रहा था कि वो कितनी सुंदर हैं,” कर्मा ने रजनी से हटते हुए कहा और रसोई से बाहर निकल गया।

जाते हुए सरोज की नज़र अपने बेटे के पैंट में बने तंबू पर पड़ी, और उसके चेहरे पर एक मुस्कान आ गई।“क्या बात है, रजनी? सब खुश हैं तुझसे?” सरोज ने शरारती लहजे में पूछा।

मतलब, जीजी?” रजनी ने हिचकते हुए कहा।“मतलब, सब की अच्छे से सेवा कर रही है तू। सब तेरे काम से खुश हैं—बच्चे, बड़े, सब,” सरोज ने आँख मारते हुए कहा।

जीजी, सेवा करने ही तो आई हूँ मैं यहाँ। क्या तुम खुश नहीं हो मुझसे?” रजनी ने मासूमियत से पूछा।

मेरी सेवा तूने करी ही कहाँ है अभी?” सरोज ने मजाकिया लहजे में कहा।
चलो जीजी, अभी कर दूँगी। बताओ, क्या करना है?” रजनी ने उत्साह से कहा।
बताऊँगी। चल, अभी खाना बना ले, फिर करवाती हूँ तुमसे सेवा,” सरोज ने एक कामुक मुस्कान के साथ कहा, जिसे रजनी समझ नहीं पाई।

बाहर सोनू का दिल जोरों से धड़क रहा था। उसके मन में कई खयाल चल रहे थे। वह जानना चाहता था कि उसकी माँ के साथ हवेली में कुछ गलत तो नहीं हो रहा। बार-बार उसकी माँ का नंगा बदन नीलेश के साथ चिपका हुआ उसके सामने कौंध रहा था। वह हवेली के दरवाजे को झाँक रहा था, शायद माँ की एक झलक मिल जाए।
तभी कर्मा हवेली से बाहर निकला और उसकी आँखें सोनू पर पड़ीं। सोनू ने चेहरा घुमा लिया, मगर कर्मा उसकी ओर चलकर आया और बोला, “चल सोनू, थोड़ा घूमकर आते हैं।
नहीं कर्मा भैया, अभी मुझे फुलवाड़ी में काम है,” सोनू ने हिचकते हुए कहा।कर्मा ने पास खड़े माली पर नज़र डाली। माली खुद ही बोल पड़ा, “अरे नहीं, सोनू बेटा, तुम जाओ छोटे मालिक के साथ। यहाँ इतना कोई काम नहीं है।

कर्मा मुस्कुराने लगा, और सोनू को मजबूरी में उसके साथ जाना पड़ा। कर्मा ने उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठाया। सोनू पकड़कर बैठ गया। उसके लिए मोटरसाइकिल एक सपने से कम नहीं थी। उनके घर में साइकिल भी नहीं थी, और वह मोटरसाइकिल पर बैठ रहा था। एक अलग अहसास उसके मन में जाग रहा था, जो उसकी उम्र के हिसाब से स्वाभाविक था। इस उम्र में ऐसी गाड़ियाँ मन को अपनी ओर खींचती हैं।

कर्मा सोनू को मोटरसाइकिल पर बैठाकर निकल पड़ा। सोनू को मोटरसाइकिल पर बैठकर बड़ा मज़ा आ रहा था। कितनी तेज चल रही थी! साइकिल में तो पैडल मारना पड़ता है, मगर इसमें ऐसी कोई चिंता नहीं। बस बैठो और फुर्र से चल पड़ती है। गाँव से जब मोटरसाइकिल निकली, तो सोनू को लग रहा था कि सबकी नजरें उन पर ही थीं। वह सोच रहा था, “देखो, कैसे सब जल रहे हैं मुझे मोटरसाइकिल पर बैठे देख!” मोटरसाइकिल के साथ-साथ सोनू के खयाल भी भाग रहे थे।

कर्मा उसे गाँव से थोड़ी दूर बाज़ार में ले गया, जहाँ एक दुकान के आगे उसने मोटरसाइकिल रोकी। दुकानवाले ने कर्मा को देखते ही पहचान लिया और बोला, “आओ आओ, छोटे मालिक, अंदर चलकर बैठो।”दुकानवाला दोनों को अंदर ले गया और एक मेज़ के साथ दो कुर्सियों पर बैठा दिया। उसने पहले से साफ मेज़ को और साफ करते हुए कहा, “कहिए मालिक, क्या सेवा करूँ? क्या लगाऊँ?

कर्मा ने कहा, “दो ठंडी कोका कोला और दो दोना समोसे लगा।” दुकानदार बोला, “जी, बहुत अच्छा, अभी लाया।
सोनू के मुँह में पानी आ रहा था। बहुत दिन हो गए थे उसे समोसा चखे, और कोका कोला का तो उसने बस नाम सुना था। उसका मन इस ओर भी जा रहा था कि कर्मा उस पर इतनी मेहरबानी क्यों कर रहा है।
इससे पहले कि वह और सोचता, एक भरे बदन की औरत अपनी चूचियाँ हिलाती हुई आई और समोसे मेज़ पर उनके सामने रख दिए। उसने अपने पल्लू से पसीना पोंछा, तो उसका पेट और गहरी नाभि दिखाई दी, जिसे देखकर सोनू की नज़र पल भर को ठहर गई।

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बाबू, चटनी दूँ का?” औरत ने पूछा। सोनू हड़बड़ाते हुए बोला, “नहीं, नहीं।” वह औरत चली गई और तुरंत दो बोतल कोका कोला लेकर आई, जो दूर से ही ठंडी लग रही थीं, मुँह से ठंडा धुआँ निकल रहा था। देखते ही सोनू के मुँह में पानी आ गया। औरत ने बोतलें रख दीं, और कर्मा ने एक बोतल उठाकर मुँह से लगा ली। सोनू इन सब में खोया हुआ था।
उसे देखकर औरत मुस्कुराते हुए बोली, “अरे बाबू, तुम भी खाओ न, कहाँ खोए हुए हो?”
कर्मा ने भी कहा, “हाँ सोनू, खा न, क्या सोच रहा है?” सोनू ने सिर हिलाकर खाना शुरू किया। उसे कर्मा के साथ होने पर जो आवभगत और सम्मान मिल रहा था, वो अच्छा लग रहा था। नहीं तो दुकानवाला उसे दुकान के आसपास भी नहीं भटकने देता। समोसे को चखने पर सोनू को मज़ा आ गया। फिर उसने ठंडी बोतल उठाकर मुँह से लगाई, तो जैसे-जैसे उसका गीला रस गले में उतरा, उसे शीतल करता चला गया।

औरत रखकर मुड़कर गई, तो कर्मा की नज़र उसके थिरकते चूतड़ों पर जमी थी। “आह, क्या मस्त चूतड़ हैं यार,” कर्मा ने धीरे से कहा, जो सोनू को सुनाई दिया। सुनकर सोनू ने भी उस औरत के थिरकते चूतड़ों को निहारा और उसे भी अपने अंदर एक गर्मी का एहसास हुआ,

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कर्मा: साली के चूतड़ हैं या मटके, कैसे ऊपर नीचे हो रहे हैं।
सोनू के चेहरे पर भी ये सुनकर मुस्कान आ गई। सोनू ने कर्मा को देखा, और दोनों हँसने लगे। दोनों के बीच एक नए तरह का रिश्ता पनप रहा था।


इधर, हवेली में खाना बन चुका था, और रजनी सरोज के कमरे में खड़ी थी। सरोज ने पूछा, “सारा काम हो गया न?”

रजनी ने जवाब दिया, “हाँ जीजी, अब बताओ तुम्हारी क्या सेवा करनी है।
सरोज बोली, “कल से ही बदन टूट रहा है, थोड़ी मालिश कर दे।” रजनी ने उत्साह से कहा, “हाँ जीजी, बिल्कुल, तुम लेट जाओ, अभी कर देती हूँ।

सरोज ने कहा, “हाँ, अभी ले, पीछे आरे से तेल की शीशी उठा ले।”जब तक रजनी शीशी उठाकर लाती, सरोज लेट चुकी थी। रजनी ने सबसे पहले सरोज के हाथों की मालिश शुरू की।

सरोज बोली, “अच्छा लग रहा है, तेरे हाथ अच्छा चलते हैं।
रजनी ने हँसते हुए कहा, “अरे बस जीजी, ये तो कोई भी कर लेगा।

रजनी ने दोनों हाथों की मालिश की, फिर थोड़ा तेल लिया और सरोज की साड़ी को उसके पेट से हटाकर पेट को मसलने लगी,

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जिससे सरोज की हल्की आह निकल गई। क्या जीजी, इतने से झटके में आह निकल गई तुम्हारी तो,” रजनी ने मज़ाक करते हुए कहा।

सरोज ने पलटवार किया, “हाँ, मेरी तो निकल जाती है, तू तो तगड़े-तगड़े झटके यूं ही झेल जाती है।

सरोज की बात से रजनी झेंप गई और शर्मा गई। “धत्त जीजी, तुम भी न,” रजनी ने कहा।

देखो तो, कैसे शर्मा रही है, नई दुल्हन की तरह,” सरोज ने हँसते हुए कहा।
रजनी बोली, “अरे जीजी, अब मेरा शर्माना छोड़ो और अपना ब्लाउज़ हटाओ, नहीं तो तेल से खराब हो जाएगा।

सरोज ने कहा, “हाँ, अभी ले,” और उठकर बैठ गई। उसने साड़ी का पल्लू कमर से नीचे इकट्ठा कर दिया और ब्लाउज़ उतार दिया। अब सरोज का बदन सिर्फ ब्रा और साड़ी में था। रजनी उसकी मालिश करने लगी।

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जीजी, तुम्हारा बदन बहुत चिकना है, एकदम मलाई जैसा,” रजनी ने तारीफ की।

अरे, मलाई है तो तू चखकर देख ले,” सरोज ने शरारती लहजे में कहा।

रजनी हँसी, “अरे जीजी, तुम भी न, बड़ी वो हो। चलो, अब घूमो, कमर की भी कर दूँ।” सरोज बोली, “अरे, इसमें वो की क्या बात है,” और घूम गई। रजनी उसकी कमर और पीठ की मालिश करने लगी।

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आराम मिल रहा है, जीजी?” रजनी ने पूछा। “हाँ रजनी, बहुत अच्छा लग रहा है। तेरे हाथों में सच में आराम मिल रहा है,” सरोज ने जवाब दिया।
रजनी कुछ देर चुप रही, फिर बोली, “जीजी, अब कमर भी हो गई, टाँगें भी करनी हैं क्या?

सरोज ने कहा, “हाँ, कर देगी तो अच्छा लगेगा।
रजनी बोली, “फिर साड़ी? ये खराब होगी।

सरोज ने तुरंत कहा, “अरे, क्यों होगी? ले, अभी उतार देती हूँ।” सरोज उठी और अपनी साड़ी के साथ पेटीकोट भी उतार दिया। उसका गोरा, भरा, और चिकना बदन सिर्फ कच्छी और बनियान में था। रजनी की आँखें उस पर टिक गईं।

सरोज वापस लेट गई और बोली, “वैसे, साड़ी तो तेरी भी खराब हो सकती है, तू भी उतार दे।” रजनी थोड़ा चौंकी, “अरे नहीं जीजी, ऐसे ही ठीक है।
सरोज ने हँसते हुए कहा, “अरे, शर्मा क्या रही है? मुझे देख, तेरे सामने अधनंगी पड़ी हूँ, तू बेकार में शर्मा रही है।” रजनी सरोज को मना नहीं कर पाई और अपनी साड़ी उतार दी।
अब वह पेटीकोट और ब्लाउज़ में थी। वह सरोज के पैरों की मालिश करने लगी। पैरों से ऊपर बढ़ते हुए जब वह जाँघों तक पहुँची, सरोज की आह निकल गई। रजनी को सरोज के नंगे बदन को छूना अच्छा लग रहा था, और सरोज को भी रजनी का स्पर्श भा रहा था। सरोज की गर्म साँसें रजनी को उत्तेजित कर रही थीं।

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रजनी, एक काम करेगी?” सरोज ने गर्म आवाज़ में कहा। रजनी बोली, “हाँ जीजी, कहो न, क्या करना है?

सरोज ने कहा, “बिमला को आवाज़ लगा दे, अब आगे वो करेगी।”
रजनी ने हैरानी से कहा, “क्यों जीजी, मैं कर तो रही हूँ।

सरोज ने जवाब दिया, “जैसा मुझे चाहिए, वैसे तू नहीं कर पाएगी अभी। तुझे सीखना पड़ेगा।

रजनी को कुछ समझ नहीं आया, मगर सरोज की बात मानते हुए वह बोली, “ठीक है जीजी, बुलाती हूँ।” रजनी दरवाजे तक गई और बिमला को आवाज़ दी।
कुछ ही देर में बिमला आई और अंदर आकर दरवाजा बंद कर दिया। उसने रजनी को मुस्कुराकर देखा। सरोज बोली, “आ गई बिमला, चल अब अपनी खास वाली सेवा कर दे। और रजनी, अगर सीखना चाहे तो उसे भी सिखा दे।

बिमला ने कहा, “हाँ मालकिन, बिल्कुल,” और अपनी साड़ी उतारने लगी।


जारी रहेगी।
Bahut hi mst update diya h bhai aisehi likhte rho
 
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Bahut hi awesome 👍 Likhte ho Bhai

Gaon ka vivran aur sab kuch bahut hi awesome hai

Well-done 👍
 

sunoanuj

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Bahut hee badhiya kahani hai…
 

Napster

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1980 का दशक, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में, जहां पास बहती नदी की लहरें खेतों को सींचती थीं, और हवा में मिट्टी की सौंधी खुशबू बसी रहती थी। यह गांव, सज्जनपुर, अपने किसानों के लिए जाना जाता था। यहां के लोग मेहनतकश थे, जिनके दिन खेतों में और रातें आंगन में तारों तले बीतती थीं। गरीबी थी, मगर सम्मान और संस्कारों की धनी थी यह बस्ती। गांव की गलियां मिट्टी की थीं, घर कच्चे, और दिल पक्के। यहीं बसा था फूल सिंह और अजीत का परिवार, जो अपने खेतों की फसल और आपसी प्यार से जीवन की गाड़ी खींच रहा था।
गांव के बीचों-बीच एक बड़ा-सा कच्चा मकान था, जिसमें फूल सिंह और अजीत का संयुक्त परिवार रहता था। घर का आंगन विशाल था, जहां सुबह-शाम सुमन और कुसुम की चूड़ियों की खनक गूंजती, और बच्चे क्रिकेट खेलते। आंगन के एक कोने में तुलसी का पौधा था, जिसकी पूजा हर सुबह होती। घर के बाहर खेतों की हरियाली फैली थी।

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परिचय
कम्मू (कमल): एक किशोर, जो जवानी की दहलीज पर कदम रख रहा था। बदन पतला, मगर कमजोर नहीं—खेतों और क्रिकेट के मैदान की मेहनत ने उसे चुस्त-दुरुस्त बनाया था। चेहरे पर हल्के-हल्के रूंए उग आए थे, जो उसकी नई-नवेली जवानी का सबूत थे। उसकी आंखों में शरारत और सपने दोनों झलकते थे, और क्रिकेट के प्रति उसका जुनून उसे गांव का चहेता बनाता था।

सुमन: कम्मू की मां, 35 साल की एक देसी गांव की औरत, जिसका गदराया हुआ बदन और गेहूंआ रंग गांव की मिट्टी से मेल खाता था। उसके चेहरे पर एक अनोखी चमक थी, और उसकी मुस्कान इतनी सुंदर कि हर किसी का दिल जीत ले। सुमन का भरा हुआ बदन, खासकर उसकी बड़ी-बड़ी चूचियां, जो हर ब्लाउज को तान देती थीं, और उसका मांसल पेट, जिसमें गहरी, कामुक नाभि छिपी रहती थी, उसकी देह को और आकर्षक बनाते थे। कमर में पड़ी सिलवटें उसकी शोभा बढ़ाती थीं, और नीचे तरबूज जैसे चूतड़, जो हर कदम पर थिरकते, साथ में मोटी, केले के तने-सी जांघें—सुमन की देह गांव की हर नजर का ध्यान खींचती थी। फिर भी, उसकी सादगी और ममता ही उसकी असली पहचान थी।

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अजीत: कम्मू के पिता, 36 वर्ष का गठीला किसान, जिसका बदन खेतों की मेहनत का गवाह था। बाहर से देखने में वह एक आम गांव का किसान था, मगर अंदर से रंगीन मिजाज। सुमन जैसी खूबसूरत पत्नी के साथ वह अपनी जवानी का भरपूर लुत्फ उठाता था। उनकी अंतरंग जिंदगी में जोश और जुनून की कमी नहीं थी, और अजीत अपनी पत्नी के साथ खुलकर प्रेम का आनंद लेता था।

अनामिका: कम्मू की बड़ी बहन, 19 वर्ष की, जो बदन के मामले में अपनी मां सुमन की कार्बन कॉपी थी। गोरा रंग, जवानी की गर्मी से कसा हुआ बदन, और छाती पर संतरों के आकार की चूचियां, जो उसके कसे हुए सूट में साफ उभरती थीं। उसके गोल-मटोल चूतड़ों की थिरकन और कामुक कमर का मटकना गांव की गलियों में नजरें खींचता था।

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फूल सिंह: कम्मू के दाऊ (ताऊजी), अजीत के बड़े भाई, 40 वर्ष के, और घर में सबसे बड़े। एकदम देसी किसान, जो अपने बाप-दादा से सीखे तौर-तरीकों पर चलता था। मान-सम्मान की उसे बहुत फिक्र थी।

कुसुम: कम्मू की ताई, फूल सिंह की पत्नी, 38 वर्ष की, और सुमन की जेठानी। बदन के मामले में वह सुमन से भी दो कदम आगे थी। उसका भरा हुआ बदन, कमर में पड़ी सिलवटें, और गेहूंआ रंग उसकी कामुकता को और बढ़ाता था। उसकी छाती पर बड़ी-बड़ी चूचियां और मांसल पेट थे, और चूतड़ तो ऐसे कि सुमन के तरबूजों को भी मात दे दें—जैसे दो बड़े पतीले। जब वह साड़ी पहनकर गांव में निकलती, तो उसकी थिरकन किसी का भी ध्यान खींच लेती। कुसुम का अंदाज बेबाक और मजाकिया था,

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अंजू: फूल सिंह और कुसुम की बेटी, 20 वर्ष की, गोरे रंग की, और बदन में जवानी का पूरा जोश। उसका बदन अनामिका की तरह भरा हुआ नहीं, बल्कि जहां भरा होना चाहिए, वहीं भरा था। पतली कमर, पूरे आकार की चूचियां और चूतड़, जो उसकी पतली कमर के कारण और उभरकर नजर आते। सूट में जब वह गांव में निकलती, तो लोगों की नजरें उसके ऊपर से नीचे तक फिसलती रहतीं।

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धीरज: फूल सिंह और कुसुम का बड़ा बेटा, 21 वर्ष का, जिसकी जवानी फूट रही थी। काला रंग, अपने पिता और चाचा के साथ खेतों में मेहनत करता था। उसका ब्याह होने वाला था।

जतन: फूल सिंह और कुसुम का छोटा बेटा, 19 वर्ष का, थोड़ा मंदबुद्धि। जल्दी चिढ़ जाता और हर समय रोने जैसी शकल बनाए रखता। अपनी गलतियों के कारण अक्सर पिटाई खाता, मगर परिवार का हिस्सा होने के नाते उसे सब प्यार भी करते थे।


फूल सिंह और अजीत के परिवार के साथ-साथ उनके पड़ोस में दो और परिवार थे—तेजपाल और दिलीप का। ये परिवार भी गांव की मिट्टी और संस्कारों से जुड़े थे, मगर हर घर की अपनी कहानी थी, अपनी रंगत थी।
तेजपाल का घर फूल सिंह के मकान से कुछ गज दूर था। उनका कच्चा मकान पुराना था, मगर आंगन में नीम का पेड़ और तुलसी का चबूतरा इसे जीवंत बनाता था। तेजपाल, 58 साल के, गांव के सबसे बुजुर्गों में से एक थे। उनका बदन अभी भी चुस्त था, और चेहरे पर सख्ती के साथ-साथ अनुभव की गहराई झलकती थी। मान-सम्मान उनके लिए सब कुछ था।

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उनके बेटे रत्नाकर, 40 साल के, अपने पिता की छाया में रहते थे। रत्नाकर का कसा हुआ बदन और गेहूंआ रंग उन्हें एक आम किसान का रूप देता था, मगर उनकी लंबाई थोड़ी कम थी। वह मेहनती थे, मगर दारू का शौक उन्हें कभी-कभी रंगीन मिजाज में ले आता। नशे में वह गीत गुनगुनाते और गांव की गलियों में झुमरी की तारीफों के पुल बांधते।

झुमरी, उनकी 38 साल की पत्नी, एक मादक औरत थी। उसका गोल-मटोल चेहरा, गेहूंआ रंग, और भरा हुआ बदन हर नजर को खींचता था। उसकी साड़ी में तनी हुई मोटी चूचियां, कमर की सिलवटें, गहरी नाभि, और बाहर को निकले चूतड़—झुमरी की देह गांव की गपशप का हिस्सा थी। फिर भी, वह अपने परिवार के लिए समर्पित थी, और उसकी हंसी आंगन को गुलजार रखती थी। 45139bbfa2b8e9811c1127ed9ada7bf1-high

रत्नाकर और झुमरी की बेटी बिंदिया, 22 साल की, अपनी मां की जवानी का छोटा रूप थी। उसकी कसी हुई चूचियां, बलखाती कमर, और गोल-मटोल चूतड़ गांव के लड़कों की धड़कनें बढ़ाते थे। उसका ब्याह तय होने वाला था, और तेजपाल इस बात को लेकर बहुत सजग थे।

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मन्नू, 20 साल का, रत्नाकर का बेटा, गांव का शरारती लड़का था। वह कम्मू और सोनू का जिगरी यार था, और क्रिकेट के मैदान में तीनों की तिकड़ी मशहूर थी। मन्नू का गेहूंआ रंग और साधारण बदन उसे आम दिखाता था, मगर उसकी दोस्ती और हंसी उसे खास बनाती थी।

दिलीप का घर तेजपाल के मकान से थोड़ा हटकर था। उनका घर छोटा और जर्जर था, क्योंकि दिलीप की कमाई ज्यादातर दारू और जुए में उड़ जाती थी। दिलीप, 40 साल का, गांव का सबसे बदनाम शख्स था। उसकी हवस भरी नजरें हर औरत पर पड़ती थीं—चाहे वह सुमन हो, कुसुम हो, झुमरी हो, या उसकी अपनी पत्नी रजनी। उसका बदन मेहनत से गठा था, मगर उसकी आदतों ने उसे गांव में नीचा दिखा दिया था।

रजनी, 39 साल की, दिलीप की हरकतों से तंग थी। उसका गदराया बदन गांव में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय था। उसकी चूचियां इतनी बड़ी थीं कि सुमन, कुसुम, और झुमरी भी उसके सामने फीकी पड़ जाएं। उसका भरा हुआ पेट, गहरी नाभि, कमर की सिलवटें, और गोल-मटोल चूतड़—रजनी की देह में एक ऐसी कामुकता थी, जो अनायास ही नजरें खींच लेती थी। मगर उसकी आंखों में उदासी थी, क्योंकि दिलीप की हरकतें उसे हर पल तोड़ती थीं। वह अपने बच्चों के लिए जीती थी।
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नेहा, 21 साल की, रजनी की बड़ी बेटी, अपनी मां की तरह खूबसूरत थी। उसका गोरा रंग, सुंदर चेहरा, और मौसमी के आकार की चूचियां उसे गांव की सबसे आकर्षक लड़कियों में शुमार करती थीं। उसका छरहरा बदन और गोल-मटोल चूतड़ जब सूट में थिरकते, तो गांव के लड़के ठिठक जाते।

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विक्रम, 20 साल का, रजनी का बड़ा बेटा, शहर की फैक्ट्री में काम करता था। उसकी कमाई ही घर को चलाती थी। वह जिम्मेदार और समझदार था, और अपनी मां की परेशानियों को देखकर अक्सर चुपके से आंसू बहाता।

मनीषा, 19 साल की, रजनी की छोटी बेटी, मासूम और प्यारी थी। उसका पतला बदन, नींबू जैसी छोटी चूचियां, और छोटे-छोटे चूतड़ उसे उम्र से छोटा दिखाते थे, मगर उसकी मुस्कान दिल जीत लेती थी।


सोनू, 18 साल का, सबसे छोटा बेटा, गोरा और पतला था। मां-बाप के झगड़ों ने उसे उम्र से ज्यादा समझदार बना दिया था। वह कम्मू और मन्नू का दोस्त था, और क्रिकेट में उनकी तिकड़ी को कोई नहीं हरा सकता था।
कहानी का प्रारंभ बहुत ही शानदार और लाजवाब हैं भाई मजा आ गया
 
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अध्याय 2
तपती दोपहर, जब सूरज अपने पूरे जोश में था और लू की गर्म हवा सरलपुर को सन्नाटे में जकड़ चुकी थी, गांव की क्रिकेट टीम बगल के गांव से हारकर लौटी। धूल भरे मैदान से उठती निराशा और गर्मी की झल्लाहट हवा में तैर रही थी।
कम्मू, माथे से पसीने की बूंदें पोंछते हुए, गुस्से में बड़बड़ा रहा था, “अरे भाई, ठीक से पकड़ लेता तो जीत जाते! ले मरवाली अब, खेलना नहीं आता तो मैदान क्यों आया?”
मन्नू, जिस पर कैच छोड़ने का इल्जाम था, तपाक से जवाब देता है, “तू भाई ज्यादा कपिल देव मत बन! आंखों पर चौंध पड़ गई थी, इसलिए छूट गया। ऐसे बोल रहा है जैसे तूने कभी गलती नहीं की!”


अरे, अब हार गए ना, तुम दोनों लड़ना बंद करो!” सोनू, हमेशा की तरह मेल-मिलाप का रास्ता निकालते हुए बोला, “गर्मी से बुरा हाल है, चलो, घर चलते हैं।
तीनों जिगरी दोस्त—कम्मू, मन्नू, और सोनू—बाकी लड़कों से अलग हो गए और नहर किनारे पहुंचे। ठंडे पानी में हाथ-पैर धोकर उन्होंने गर्मी और हार की खीझ को धो डाला। नहर का पानी उनके पैरों को छूता, और हल्की हवा उनके चेहरों पर राहत लाती।
ये तीनों एक ही उम्र के थे, उनके घर एक-दूसरे के बगल में, और बचपन से ही एक-दूसरे के साए जैसे थे। साथ खेलना, साथ लड़ना, साथ जीतना, और साथ हारना—उनकी नोंक-झोंक और गाली-गलौज भी उनकी दोस्ती की मिठास थी, जो उनकी बातों में अपनापन घोल देती थी। नहर से राहत पाकर तीनों अपने घरों की ओर चल पड़े, गर्मी की दोपहर में गांव सन्नाटे में डूबा था। लोग घरों में दुबके थे या पेड़ों की छांव में खाट बिछाकर समय काट रहे थे। सुबह और शाम का वक्त ही काम-काज के लिए रहता, जब गर्मी थोड़ी कम होती। गांव में अधिकतर घरों में गाय या भैंस थीं, जो दूध-दही की जरूरत पूरी करती थीं। ये पशु न सिर्फ परिवार का पेट पालते, बल्कि गांव की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा थे।कम्मू, जिसका असली नाम कमल था—हालांकि यह नाम सिर्फ कागजों तक सीमित था, क्योंकि पूरा सज्जनपुर उसे कम्मू ही बुलाता—अपने घर पहुंचा। हाथ हिलाता, थोड़ा झुंझलाया-सा वह छप्पर के नीचे कदम रखते ही अपनी मां सुमन के गुस्से का शिकार हो गया।

“आ गया! अब क्यों आया? और देर रुक लेता वहीं! पड़ा रहता उसी गेंद-बल्ले के साथ, खा लेता वही! घर की याद कैसे आई, हां?” सुमन की आवाज में गुस्सा था, मगर उसका प्यार भी छलक रहा था। कम्मू को इतना तो पता था कि इस वक्त मां को जवाब देना सेहत के लिए ठीक नहीं। वह चुपचाप छप्पर के नीचे बिछी खाट पर बैठ गया, मुंह लटकाए।
सुमन ने कुछ देर और अपने बेटे पर प्यार भरी खीज की बौछार की। फिर, अपनी साड़ी का पल्लू उठाकर, पसीने से भीगी अपनी गदराई कमर में ठूंसा और बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई। “न जाने क्या मिलता है उस गेंद-बल्ले में कमबख्त को, जो खाना-पीना सब भूल जाता है! ऊंट हो रहा है, पर अकल दो पैसे की नहीं!”थोड़ी देर बाद सुमन वापस आई, हाथ में एक थाली, जिसमें रोटी, सब्जी, और थोड़ा-सा दही था। थाली कम्मू के सामने रखते हुए उसने चार चटपटी बातें और सुना दीं, ताकि खाने में मसाला कम न पड़े। सुबह से क्रिकेट के मैदान में दौड़-भाग और हार की खीझ के बाद कम्मू को भूख जोरों से लगी थी। वह मां की डांट को मन से ज्यादा पेट से सुन रहा था। थाली देखते ही वह खाने में जुट गया। सुमन वहीं खाट पर बैठ गई, हाथ में पंखा लिए, अपने और कम्मू के लिए हवा करने लगी। गर्मी की दोपहर में पंखे की हल्की हवा थोड़ा सुकून दे रही थी, और सुमन की बड़बड़ाहट अब धीमी पड़ चुकी थी।

कम्मू का घर सरलपुर के बाकी कच्चे घरों जैसा ही था—सादा, मगर अपनत्व से भरा। दो कमरे आमने-सामने, दोनों के आगे छप्पर, और बीच में एक छोटा-सा खुला आंगन। आंगन के एक कोने में एक नल लगा था, जिसके बगल में एक पत्थर की पटिया बिछी थी—यही था स्नानघर। नहाने से लेकर बर्तन धोने तक सब कुछ यहीं होता। दूसरी ओर घर का मुख्य द्वार था, जिसके पुराने लकड़ी के किवाड़ों पर समय की छाप साफ दिखती थी। रसोई के नाम पर छप्पर के एक किनारे मिट्टी का चूल्हा था, जहां लकड़ियों और उपलों से खाना बनता। चूल्हे के आगे एक छोटी-सी मिट्टी की दीवार बनाकर उसे रसोई का रूप दे दिया गया था। इन्हीं दो कमरों और छप्परों के बीच पूरा परिवार रहता था—एक कमरा अजीत के परिवार का, दूसरा फूल सिंह का। आंगन की मिट्टी और छप्पर की छांव में ही कम्मू का बचपन बीता था, और यहीं उसकी जिंदगी की छोटी-बड़ी कहानियां बुन रही थीं।

गर्मी की दोपहर सरलपुर में सन्नाटे की चादर ओढ़े थी। कम्मू अपने घर के छप्पर तले खाट पर बैठा खाना खा रहा था, और सुमन पास में बैठी पंखा हिलाकर अपने और बेटे के लिए हवा कर रही थी। तभी आंगन की ओर से किसी की पुकार सुनाई दी। सुमन ने पंखा खाट पर रखा और आंगन में जाकर देखा। बगल के घर से झुमरी, दोनों घरों के बीच की दीवार पर झुकी हुई, उसे पुकार रही थी।“हां जीजी, क्या हुआ?” सुमन ने दीवार के पास पहुंचते हुए पूछा।
“अरे बन्नो, थोड़ा दही हो तो दे दे, दही जमाने के लिए। मैंने बर्तन धो दिया, बस बहुत थोड़ा-सा दे दे,” झुमरी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा।
“हां जीजी, अभी लाई,” सुमन ने तुरंत जवाब दिया। वह जल्दी से अंदर गई और एक छोटी कटोरी में थोड़ा-सा दही लेकर लौट आई। कटोरी झुमरी को थमाते हुए उसने पूछा, “और, सब काम निपट गया?”झुमरी ने कटोरी हाथ में लेते हुए कहा, “हां, बस अब दही जमाना बाकी था। सुबह से गाय का दूध निकालने, बर्तन धोने, और खाना बनाने में लगी थी। तू बता, तेरे घर का क्या हाल है?”
सुमन ने हल्का-सा ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, “क्या बताऊं जीजी, ये कम्मू तो सुबह से गेंद-बल्ले के पीछे भागा हुआ था। बगल के गांव से हारकर आए हैं, और अब जाकर घर की याद आई। खेतों में पानी लगाने की बात कहो, तो मुंह फुलाए बैठा है। ऊपर से गर्मी ने हाल बेहाल कर रखा है।”
झुमरी हंस पड़ी, “अरे, हमारे मन्नू की भी यही हालत है। सुबह से खेत में पानी लगाने की बात कह रहे थे, पर ये भी गायब हो गया। ससुर जी रिश्तेदारी में गए हैं, तो सारा काम अकेले ही करना पड़ा। अब जाकर मन्नू लौटा है, और मुंह बनाए बैठा है, जैसे सारी दुनिया की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर हो!”
सुमन ने भी हल्की हंसी के साथ जवाब दिया, “हां जीजी, ये लड़के ऐसे ही हैं। जवानी सिर चढ़कर बोल रही है, पर अकल अभी घुटनों में ही है। अब मैं क्या करूं, बस डांट-डपट कर ही काम चला रही हूं।”
“सही कहती है,” झुमरी ने सहमति जताई। “वैसे, शाम को नहर किनारे चलेंगी? थोड़ा पानी भर लें, और गर्मी भी शांत हो जाएगी।”
“हां, ठीक है जीजी, मैं अनामिका को लेकर आ जाऊंगी,” सुमन ने कहा। दोनों औरतें कुछ देर तक ऐसे ही बातें करती रहीं—घर के काम, गाय-भैंस की देखभाल, और गर्मी की मुश्किलों की चर्चा। फिर झुमरी ने कटोरी थामते हुए कहा, “चल, अब मैं दही जमा लूं, नहीं तो ये काम भी अटक जाएगा।”
“ठीक है जीजी,” सुमन ने मुस्कुराकर कहा और वापस अपने छप्पर की ओर बढ़ गई।

झुमरी कटोरी लेकर अपने घर की ओर बढ़ी। उसका घर सुमन के घर से मिलता-जुलता था। एक कमरा, जिसके आगे छप्पर पड़ा था, और फिर एक छोटा-सा आंगन। आंगन के दूसरी ओर एक और छप्पर था, जहां भैंस बंधी रहती थी। सुमन के घर की तरह ही यहां भी छप्पर के एक किनारे मिट्टी का चूल्हा था, जिसे छोटी-सी मिट्टी की दीवार से घेरकर रसोई बना दिया गया था। आंगन में एक नल और उसके बगल में पत्थर की पटिया थी, जहां नहाने से लेकर बर्तन धोने तक सारा काम होता था।

झुमरी छप्पर में पहुंची और दही जमाने के लिए बर्तन में दूध और दही डालने लगी। पास ही मन्नू बैठा था, मुंह बनाए, जैसे कोई बहुत बड़ा नुकसान हो गया हो।“अब मुंह बनाए क्यों बैठा है?” झुमरी ने मन्नू की ओर देखते हुए कहा। “चल, उठ, रोटी खा ले जाकर। बिंदिया, ओह बिंदिया, इसे रोटी परस दे जरा!”
झुमरी की आवाज सुनकर बिंदिया, जो मन्नू की बड़ी बहन थी, कमरे से बाहर निकली। उसने एक बार मन्नू की ओर नजर मारी, जिसमें हल्का-सा ताना था, और फिर रसोई की ओर बढ़कर मन्नू के लिए खाना निकालने लगी। झुमरी ने बात आगे बढ़ाई, “अब मुंह बनाने से क्या होगा? तुझे पता है न, तेरे पिता जी कब से खेत में पानी लगवाने के लिए तेरी राह देख रहे थे? और तू सुबह का निकला तो ऐसा निकला कि घर की सुध-बुध ही खो बैठा। पता है, अकेले उन्होंने पूरा खेत पानी लगाया, और फिर घर भी आ गए!”
बिंदिया ने थाली मन्नू के सामने रखते हुए तंज कसा, “और क्या, इसे तो बस गेंद-बल्ले से मतलब है। ये नहीं कि पिता जी का सहारा बने।”
झुमरी ने सहमति में सिर हिलाया, “सही बात है। ऊपर से अगर उन्होंने गलती पर एक-आध डांट भी दी, तो मुंह बनाने की क्या जरूरत है?”
मन्नू दोनों की बातें सुनते हुए चुपचाप थाली से एक निवाला तोड़ा और मुंह में डाल लिया। उसकी खीझ साफ झलक रही थी, मगर वह जानता था कि इस वक्त कुछ बोलना ठीक नहीं।

इधर सुमन झुमरी को दही देने के बाद और कम्मू को खाना खिलाने के बाद थोड़ी कमर सीधे करने के बहाने से कमरे में जाकर लेटी ही थी कि अचानक से बाहर से शोर आने लगा, तुरंत घर में जो भी था बाहर की ओर भागा, आंगन में आए तो आवाज़ बगल में से ही आ रही थी, कम्मू के एक ओर जहां मन्नू का घर था तो दूसरी ओर सोनू का,
कुछ ही पलों में पूरा घर दीवार पर से झांक कर सोनू के घर में देख रहा था, सोनू के पापा और उसकी मम्मी लड़ रहे थे,
कुसुम: ले आज ये फिर पी कर आए होंगे और कर दिया क्लेश शुरू,
सुमन: हां जीजी अब इनका बढ़ता ही जा रहा है,
अनामिका: अरे देखो, मम्मी और ताई, वो डंडे से मारने जा रहे हैं,
कुसुम: ए कम्मू, भाग कर अपने दाऊ या पापा को बुला नहीं तो ये आज कुछ गलत कर देंगे।
सुमन: बेचारी रजनी जीजी, कितना कुछ सहना पड़ता है उन्हें।
कुसुम: अब हम भी क्या करें पियक्कड़ शराबी के मुंह लग कर अपनी इज्ज़त और डूबा बैठो।
मंजू: अरे मम्मी वो तो अच्छा है अभी दोनों लड़कियां और बड़ा लड़का नहीं है नहीं तो बेचारे परेशान होते।
कुसुम: पर ये सोनू भी नहीं दिख रहा,

सोनू घर में घुसकर जैसे ही देखता है अपने पापा को अपनी मम्मी पर हाथ उठाते हुए वो बीच में आकर हाथ पकड़ लेता है जिससे उसके पापा दिलीप को और गुस्सा आ जाता है, रजनी लगातार रोए जा रही थी,
दिलीप: तू, तेरी इतनी हिम्मत हो गई अपने बाप का हाथ पकड़ता है, आज तेरी खैर नहीं,
ये कहकर दिलीप उसके गाल पर तमाचा मार देता है, और डंडा उठा कर उसे मारने को बढ़ता है तो रजनी अपने बेटे को बचाने के लिए आगे आ जाती है
रजनी: नहीं उसे मत मारो,छोड़ो उसे माफ करदो,
दिलीप: हट साली रांड,
ये कहकर दिलीप उसे धक्का देता है साथ ही दिलीप के पैरों के नीचे रजनी की साड़ी का पल्लू फंस जाता है, और वो पीछे की ओर गिरती है साथ ही उसकी साड़ी भी खुल जाती है उसका बदन अब पेटीकोट और ब्लाउज में सबके सामने होता है।


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दिलीप फिर से सोनू को मारने के लिए आगे बढ़ता है और जैसे ही डंडा उठाता है फूल सिंह उसे पकड़ लेते हैं साथ में अजीत भी दोनों जबरदस्ती उसे पकड़ कर घर से बाहर खींच लेजाते हैं, दिलीप चिल्लाता हुआ जाता है, छोड़ो मुझे आज इस पिल्ले को मार ही डालूंगा, मेरा हाथ पकड़ता है।

दिलीप के बाहर जाते ही कुसुम, सुमन और झुमरी वगैरा रजनी के पास आ जाती हैं, रजनी सोनू को सीने से लगा कर रो रही थी, सोनू को भी अपनी ना मां के सीने से लग कर अच्छा लग रहा था, कम्मू और मन्नू वहीं खड़े थे और अपने दोस्त की मां को इस तरह देख कर, रजनी चाची के गदराए बदन को पेटिकोट और ब्लाउज में देख उन्हें थोड़ा अलग सा लग रहा था, जवान ही रहे थे तो ये स्वाभाविक ही था।
कुसुम और बाकी औरतों ने फिर रजनी को संभाला और उसे अंदर ले गई वहीं कम्मू और मन्नू सोनू को लेकर छत पर चढ़ गए।

इधर गांव के बाहर, नीलेश(गांव का जमींदार)अपने खेतों के बीच बने एक छोटे से मकान में एक मजदूर औरत के साथ था। वह औरत, कमला, अपनी बेटी की शादी के लिए कर्ज़ा मांगने आई थी। नीलेश ने कर्ज़े के बदले उससे शारीरिक संबंध की मांग की। कमला मजबूर थी—उसकी बेटी की शादी दांव पर थी। नीलेश ने उसे मकान में ले जाकर जमीन पर लिटाया। उसकी साड़ी खोल दी, ब्लाउज और पेटीकोट भी उतार दिए। कमला ने विरोध करने की कोशिश की, लेकिन नीलेश के आगे उसकी एक न चली। नीलेश ने उसकी मजबूरी का फायदा उठाया और अपनी हवस पूरी की।


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कमला की आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन वह चुपचाप सब सहती रही। बाद में नीलेश ने उसे कर्ज़ा देने का वादा किया और कमला अपने कपड़े समेटकर वहां से चली गई।

गांव के एक कोने में खड़ी थी सोमपाल की विशाल हवेली, जो पूरे सज्जनपुर पर अपनी हुकूमत चलाती थी। इस हवेली का रौब ऐसा था कि कोई भी इसके सामने आंख उठाकर बात नहीं करता था।


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जमींदार का परिवार
सोमपाल, 56 वर्ष के, हवेली के मुखिया थे। उनका बदन अभी भी चुस्त-दुरुस्त था, और चेहरे पर रौबदार तेज झलकता था। लंबा कद, चौड़ा सीना, और घनी मूंछें—सोमपाल की मौजूदगी ही गांव को खामोश कर देती थी। उनके पास जमीन की कोई कमी नहीं थी; गांव के आधे से ज्यादा खेत उनके नाम थे। मगर सोमपाल का रंगीन मिजाज गांव में चर्चा का विषय था। उनकी नजरें हर खूबसूरत औरत पर ठहरती थीं उनकी हवस भरी मुस्कान और बातों का अंदाज औरतों को असहज कर देता था, मगर कोई उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं करता था।

सोमपाल का बेटा नीलेश, 40 वर्ष का, अपने पिता की कार्बन कॉपी था। लंबा, गठीला बदन, और रंगीन मिजाज। वह खेतों की देखभाल करता, मगर उसका ज्यादा समय गांव की गलियों में घोड़े पर सवार होकर, औरतों पर नजरें गड़ाकर, या ताश के अड्डों पर बीतता था।

नीलेश की पत्नी सरोज, 38 वर्ष की, एक मादक औरत थी। उसका गोरा रंग, भरा हुआ बदन, और कामुक अंदाज हवेली की शोभा बढ़ाता था। उसकी मोटी चूचियां, गहरी नाभि, और थिरकते चूतड़ साड़ी में तने हुए साफ दिखते थे। सरोज का बिंदास अंदाज और हंसी हवेली के नौकरों से लेकर गांव के मर्दों तक की नजरें खींचती थी। वह अपने पति की हरकतों को जानती थी, मगर खुद भी जवानी के मजे लेने में पीछे नहीं थी।


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नीलेश और सरोज के दो बेटे थे—कर्मा, 19 वर्ष का, और अनुज, 18 वर्ष का। दोनों अपने दादा और पिता के रंग में रंगे थे। कर्मा का काला रंग, गठीला बदन, और शरारती आंखें उसे गांव के लड़कों में अलग बनाती थीं। वह क्रिकेट के मैदान में कम्मू, मन्नू, और सोनू के साथ खेलता, मगर उसकी नजरें अनामिका, अंजू, बिंदिया, और नेहा पर टिकी रहती थीं। अनुज, गोरा और थोड़ा पतला, मगर जवानी की गर्मी से भरा था। उसकी चिकनी बातें और हंसी लड़कियों को लुभाती थी, और वह अपनी उम्र से ज्यादा समझदार दिखता था। दोनों भाई हवेली के रौब का फायदा उठाते, और गांव की गलियों में उनकी दबंगई चलती थी।


ये था गांव के जमींदार का परिचय जो लगभग पूरे गांव को ही अपने काबू में रखता था।
बहुत ही मस्त लाजवाब और शानदार अपडेट है भाई मजा आ गया
 

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अध्याय तीन

गर्मी की एक तपती दोपहर थी। सज्जनपुर गांव में सूरज आसमान से आग बरसा रहा था, और हवा में धूल और गर्मी का मिश्रण ऐसा था कि सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। रजनी अपने छोटे से मिट्टी के घर में खाना बनाने की तैयारी कर रही थी। उसने अलमारी के ऊपर रखी पुरानी टिन की डिबिया को खोला, जिसमें वह अपने परिवार की थोड़ी-बहुत बचत रखती थी। लेकिन जैसे ही उसने डिबिया खोली, उसका दिल धक् से रह गया। डिबिया खाली थी—एक भी पैसा नहीं बचा था।

रजनी को तुरंत समझ आ गया कि यह दिलीप की करतूत है। उसका पति, जो पहले भी कई बार घर से पैसे चुरा चुका था, इस बार हद पार कर गया था। उसने सारी जमा-पूंजी ले ली थी—वही पैसे जो रजनी ने बच्चों की स्कूल फीस और रोज़मर्रा के खर्चों के लिए बड़े जतन से बचाए थे। दिलीप को जुआ और दारू की ऐसी लत थी कि वह अपने परिवार की भूख और जरूरतों को भूल चुका था। रजनी को पता था कि वह अभी किसी गंदी शराबखाने में बैठा होगा, या फिर जुए के अड्डे पर सारे पैसे हार रहा होगा।उसके हाथ कांपने लगे। वह डिबिया को वैसे ही खुला छोड़कर मिट्टी के फर्श पर बैठ गई। उसकी आंखों में आंसू छलक आए, और गला रुंध गया। "यह आदमी हमें भूखा मार डालेगा," वह बड़बड़ाई। उसने अपने बच्चों के बारे में सोचा—सोनू और उसकी दो बड़ी बहनें, जो अभी स्कूल से नहीं लौटी थीं। उनके लिए आज रोटी का इंतज़ाम कैसे होगा? घर में चावल का एक दाना तक नहीं बचा था, और बाजार से उधार लेने की उसकी हिम्मत भी जवाब दे चुकी थी।

रजनी ने खुद को संभाला और बाहर आंगन में कदम रखा। उसने सोनू को पुकारा, जो अपने दोस्तों के साथ गली में खेल रहा था। "सोनू! इधर आ, बेटा!"सोनू दौड़ता हुआ आया। उसका मासूम चेहरा पसीने से चमक रहा था। "क्या हुआ, अम्मा?" उसने मां की परेशान शक्ल देखकर पूछा।
रजनी ने अपने बेटे को देखा और एक पल के लिए हिचकिचाई। उसे नहीं चाहती थी कि इतनी छोटी उम्र में सोनू इन मुसीबतों को समझे, लेकिन अब छिपाने का वक्त नहीं था। "सोनू, तुम्हारे पापा ने घर के सारे पैसे चुरा लिए। अब हमारे पास खाने को कुछ नहीं है। हमें हवेली जाना होगा, नीलेश साहब से कर्जा मांगने।"सोनू की आंखें फैल गईं। वह जानता था कि हवेली का नाम सिर्फ मजबूरी में लिया जाता है। नीलेश गांव का जमींदार था, जिसके पास पैसा तो बहुत था, लेकिन उसकी शर्तें हमेशा भारी पड़ती थीं। फिर भी, उसने अपनी मां का हाथ थाम लिया और बोला, "ठीक है, अम्मा। मैं आपके साथ चलूंगा।

दोपहर की चिलचिलाती धूप में मां-बेटे हवेली की ओर चल पड़े। रास्ते में धूल उड़ रही थी, और पसीने से उनकी सस्ती सूती कपड़े भीग गए थे। रजनी की फटी साड़ी उसकी मजबूरी को बयां कर रही थी, और सोनू का चेहरा चिंता से भरा हुआ था। हवेली गांव के बाहर थी, और जब वे वहां पहुंचे, तो ऊंचे लोहे के फाटक और पत्थर की दीवारें देखकर रजनी का दिल और सिकुड़ गया। यह जगह उसके छोटे से घर से बिल्कुल उलट थी—शानदार, ठंडी, और ऐसी, जहां गरीबों का आना आसान नहीं था।नौकर ने उन्हें अंदर बुलाया और एक छोटे से कमरे में इंतज़ार करने को कहा। वहां बैठे-बैठे रजनी का मन बार-बार अपने फैसले पर शक कर रहा था। लेकिन फिर उसने सोनू की ओर देखा, जो चुपचाप उसका हाथ थामे बैठा था, और उसे याद आया कि उसके पास और कोई रास्ता नहीं है।
कुछ देर बाद उन्हें मुख्य हॉल में ले जाया गया। नीलेश एक बड़ी, नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा था। उसकी साफ-सुथरी धोती-कुर्ता और माथे पर तिलक उसे एक सम्मानित आदमी का रूप दे रहा था, लेकिन उसकी आंखों में कुछ ऐसा था जो रजनी को बेचैन कर रहा था।
रजनी ने हाथ जोड़े और कांपती आवाज़ में कहा, "नमस्ते, साहब। मैं रजनी हूँ, दिलीप की बीवी। आपके पास मदद मांगने आई हूँ।"नीलेश ने उसे सिर से पांव तक देखा और शांत स्वर में बोला, "बोलो, रजनी। क्या परेशानी है?"रजनी की आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने हिम्मत जुटाकर कहा, "साहब, मेरे मरद ने घर के सारे पैसे चुरा लिए और जुए-दारू में उड़ा दिए। मेरे पास बच्चों को खिलाने के लिए एक दाना तक नहीं बचा। मैं आपसे थोड़े पैसे उधार मांगने आई हूँ, जब तक मैं कोई काम-धंधा नहीं ढूंढ लेती।

नीलेश ने उसकी बात ध्यान से सुनी। उसने अपना सिर हिलाया और नरम स्वर में कहा, "यह तो बहुत बुरा हुआ, रजनी। दिलीप ने तुम्हें बड़ी मुश्किल में डाल दिया। लेकिन हमारे गांव में तो एक-दूसरे की मदद करनी ही चाहिए। मैं तुम्हारी मदद करूंगा।"रजनी के चेहरे पर एक पल के लिए राहत की किरण दिखी। उसने हाथ जोड़कर कहा, "बहुत-बहुत धन्यवाद, साहब। मैं हर पैसा चुका दूंगी, जितनी जल्दी हो सके।"नीलेश ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, इसमें धन्यवाद की क्या बात है? लेकिन एक बात समझ लो, रजनी। कर्जा तो कर्जा होता है। इस पर ब्याज लगेगा। यह तो नीयत की बात है, कि मैं कुछ दूं तो कुछ वापस भी आए।"रजनी का दिल फिर से डूब गया। ब्याज का नाम सुनते ही उसे आने वाले दिनों की चिंता सताने लगी। लेकिन उसकी मजबूरी ऐसी थी कि वह इनकार नहीं कर सकती थी। उसने सिर झुकाकर कहा, "जी, साहब। जो भी शर्त होगी, मैं मान लूंगी। बस अभी मेरे बच्चों की भूख मिट जाए।"नीलेश ने संतुष्ट होकर सिर हिलाया। उसने अपने नौकर को इशारा किया, और एक छोटी सी थैली में कुछ नोट लाए गए। उसने थैली रजनी की ओर बढ़ाई और कहा, "लो, यह रखो। समझदारी से खर्च करना, और चुकाने की बात बाद में तय करेंगे।"रजनी ने कांपते हाथों से थैली ली। उसकी आंखों में आभार था, लेकिन मन में एक अजीब सी घबराहट भी। उसने फिर से हाथ जोड़े और कहा, "साहब, आपका यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी।

रजनी और सोनू जब जाने लगे, तो नीलेश की नजरें उन पर टिकी रहीं। रजनी की पुरानी साड़ी उसके पसीने से तर शरीर से चिपक गई थी, और जैसे ही वह मुड़ी, उसके कदमों के साथ उसके नितंबों की हल्की सी थिरकन दिखी। नीलेश की आंखों में एक चमक आई, और उसके होंठों पर एक शरारती मुस्कान खेल गई। यह मुस्कान ऐसी थी, जैसे वह कोई गुप्त योजना बना रहा हो। उसने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप उन्हें जाते हुए देखता रहा।
रजनी और सोनू धूल भरे रास्ते से घर की ओर लौट पड़े। थैली में पैसे थे, लेकिन रजनी के मन में शांति नहीं थी। उसे पता था कि यह कर्जा उसकी मुश्किलों को हल करने की बजाय शायद और बढ़ा देगा। लेकिन अभी के लिए, उसके पास अपने बच्चों को भूखा न देखने का एक रास्ता था, और फिलहाल वही काफी था।

गांव में शाम की ठंडी हवा बहने लगी थी। गंगा किनारे के खेतों में किसानों की थकान अब घरों की ओर लौट रही थी। उसी वक्त तेजपाल अपने रिश्तेदारी के दौरे से वापस लौटे। उनके चेहरे पर एक संतुष्ट मुस्कान थी, और हाथ में एक पुराना लकड़ी का बक्सा था जिसमें कुछ मिठाइयां और रिश्तेदारी से लाए उपहार थे। उनके उनके कदमों की रफ्तार से ज्ञात हो रहा था वो थोड़े थके हुए थे।

घर पहुंचते ही तेजपाल ने अपने परिवार को आंगन में बुलाया। झुमरी ने जल्दी से चूल्हे पर चाय बनाई, और सारा परिवार खटिया पर बैठ गया। तेजपाल ने अपनी पुरानी पगड़ी ठीक की और गर्व से बोले, "बच्चों, आज मैं एक अच्छी खबर लेकर आया हूँ। रिश्तेदारी में गया था, और वहाँ मेरी नजर पड़ी एक अच्छे घर के लड़के पर—बिंदिया के लिए।"रत्नाकर ने उत्सुकता से पूछा, "पिताजी, ये तो बड़ी अच्छी बात है, अब उमर हो गई है बिंदिया की, लड़का कैसा है? उसका परिवार ठीक-ठाक है ना?"

तेजपाल ने सिर हिलाया और बोले, "हाँ, बेटा। वह लड़का गाँव के पास के ही एक सेठ के यहाँ काम करता है—नाम है अनिल, उम्र कोई बाईस-तेईस साल होगी। गोरा-चिट्टा, मेहनती, और लड़के का बाप एक छोटा-सा दुकान चलाता है। माँ-बाप दोनों जिंदा हैं, और घर में एक छोटी बहन भी है। लड़के का स्वभाव सीधा-सादा है।

झुमरी ने मुस्कुराते हुए कहा, "वाह, ससुर जी! यह तो अच्छी बात है। बिंदिया भी अब बड़ी हो गई है, उसकी शादी का वक्त आ गया है।" बिंदिया, जो पास ही खड़ी थी, शर्म से लाल हो गई और अपनी साड़ी का पल्लू मुंह पर खींच लिया। मन्नू ने मज़ाक में कहा, "अरे दीदी, अब तो तुम ज़्यादा दिन मुझे डांट नहीं पाओगी!" परिवार में हल्की हंसी गूंजी, और तेजपाल ने मन्नू को डांटते हुए कहा, "चुप कर, शरारती! क्यों चिढ़ा रहा है हमारी गुड़िया रानी को।

इधर, रजनी के घर का माहौल उलटा था। उसकी दोनों बेटियाँ—नेहा और मनीषा—स्कूल से लौट चुकी थीं, और बड़ा बेटा विक्रम भी फैक्ट्री से घर आ चुका था। सबकी आंखों में चिंता थी, क्योंकि दिलीप की हरकतों ने घर को तबाह कर दिया था। रजनी ने थैली से नीलेश से लिए पैसे निकाले और बच्चों को दिखाए। "यह पैसे नीलेश साहब ने दिए हैं, लेकिन इन पर ब्याज लगेगा। हमें इसे चुकाना होगा, वरना और मुसीबत में पड़ जाएंगे।"विक्रम ने गुस्से से मुट्ठी बांध ली और बोला, "अम्मा, पापा की वजह से यह सब हो रहा है। मैं फैक्ट्री में ओवरटाइम करूंगा, और नेहा दीदी भी कहीं सिलाई का काम ढूंढ लें। सोनू, तू स्कूल के बाद खेतों में मदद कर लेना।" नेहा ने सहमति में सिर हिलाया, "हाँ, मैं माँ की मदद के लिए कुछ करूंगी। लेकिन पापा को कुछ करना चाहिए, वह तो बस बर्बाद कर रहे हैं।" मनीषा, जो छोटी थी, चुपचाप रो रही थी। सोनू ने अपनी बहनों का हाथ थामते हुए कहा, "हम सब मिलकर यह कर्जा चुकाएंगे। पापा को सुधारने की कोशिश भी करेंगे।

रजनी की आंखों में आंसू थे, लेकिन बच्चों की हिम्मत देखकर उसे थोड़ा सुकून मिला। उसने कहा, "बच्चों, तुम सब मेरी ताकत हो। मैं भी कोई छोटा-मोटा काम ढूंढूंगी। बस, इस मुसीबत से निकलना है।" परिवार ने एक-दूसरे का हौसला बढ़ाया और योजना बनाई कि वे मिलकर नीलेश के कर्जे को चुकाने के लिए मेहनत करेंगे।

घर-घर में अलग-अलग कहानियाँ जीवंत थीं—कहीं उत्साह था, कहीं टकराव, और कहीं नई मुसीबतें सिर उठा रही थीं।

फूल सिंह के घर में इन दिनों एक अलग ही रौनक थी। उनके बड़े लड़के धीरज का विवाह का समय पास आ रहा था, और पूरे परिवार में उत्साह का माहौल था। फूल सिंह और अजीत आंगन में खटिया पर बैठे थे, हाथ में चाय के कप लिए, और आगे की योजना बना रहे थे। खेतों से लौटते हुए धूप में पसीने से तर उनके चेहरे पर संतोष था। फूल सिंह ने अपनी पगड़ी ठीक करते हुए कहा, "अजीत, ये फसल कट जाए तो जो पैसा आएगा, उससे धीरज का ब्याह की सारी तैयारियाँ हो जाएँगी। दुल्हन के लिए साड़ी, मेहमानों के लिए खाना, और कुछ पैसे बचाकर घर की मरम्मत भी कर लेंगे।"अजीत ने सिर हिलाया और बोला, "हाँ भैया, सारी उम्मीद फसल से ही है। वैसे भी इस बार फसल अच्छी लग रही है—धान के पौधे हरे-भरे हैं, और बारिश भी समय पर हुई। बस, कटाई सही से हो जाए, तो हमारा काम बन जाएगा।

फूल सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ, भगवान की कृपा रही तो सब ठीक होगा। कुसुम और सुमन को भी कह दो कि मेहंदी और चूड़ियाँ की तैयारी शुरू कर दें।" अजीत हँसते हुए बोला, "भैया, औरतें तो पहले से ही उत्साहित हैं। कुसुम तो कह रही थी कि धीरज की दुल्हन को सौंदर्य का ऐसा तोहफा देना है कि पूरा गांव तारीफ करे!

घर में कुसुम और सुमन पहले से ही मेहंदी के डिज़ाइन और दुल्हन के लिए सजावट की बातें कर रही थीं। कुसुम ने जोश में कहा, "सुमन, इस बार धीरज की शादी में ऐसा जश्न मनाएँगे कि गांव की सारी औरतें जलेंगी!" सुमन हँसते हुए बोली, "हाँ जीजी, लेकिन पहले फसल कटे, और सब कुछ अच्छे से हो जाए।
कुसुम: अरे सब अच्छे से होगा।


गांव के मैदान में क्रिकेट का मैच चल रहा था, जो हमेशा की तरह कम्मू, मन्नू, और सोनू की दोस्ती का केंद्र था। लेकिन इस बार माहौल गरमा गया। कर्मा, नीलेश का बेटा, मैदान में अपनी दबंगई दिखाने आया था। बल्लेबाज़ी के दौरान कम्मू ने उसकी विकेट उड़ा दी, और कर्मा को यह नागवार गुजरा। कर्मा ने गुस्से में चिल्लाया, "अरे भेंचो, इतनी तेज गेंद कहाँ से सीखी? अगली बार मिल छक्का मारकर तेरी गांड फाड़ दूंगा!

कम्मू ने हँसते हुए ताना मारा, "अरे कर्मा, तू तो बस भौंकता है, खेलना नहीं आता।
कर्मा: साले अपनी औकात में रह कर बात कर नहीं तो तुम सब की बहन यहीं चोद दूंगा।

यह सुनकर मन्नू भड़क गया और बोला, "कर्मा, तू अपनी हवेली की हेकड़ी यहाँ मत दिखा, ये तेरे बाप की हवेली नहीं है।

कर्मा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने मन्नू की ओर कदम बढ़ाया और कहा, "साला, तेरी इतनी हिम्मत? आज तेरी खबर लेता हूँ!" दोनों एक-दूसरे की ओर लपके, और झड़प शुरू हो गई। कम्मू भी बीच में कूद पड़ा, और तीनों एक-दूसरे को धक्का-मुक्की करने लगे।

सोनू और बाकी लड़कों ने दौड़कर बीच-बचाव किया। सोनू ने चिल्लाकर कहा, "अरे भाई, रुक जाओ! यहाँ लड़ाई से क्या होगा? खेल खेल की लड़ाई में, अब एक-दूसरे को मारोगे क्या?" बाकी लड़कों ने भी उन्हें अलग किया, लेकिन माहौल में तनाव बना रहा। कर्मा ने गुस्से से कहा, "ये गाँव के कुत्ते अपनी औकात भूल गए हैं। याद दिलानी पड़ेगी
कम्मू ने जवाब दिया, "जा, अपनी हवेली में जाकर सो जा, चुप चाप।
सोनू ने कम्मू को खींचते हुए कहा, "चुप कर, भाई। अब घर चल, वरना और बवाल होगा।


रजनी का परिवार धीरे-धीरे मेहनत से नीलेश के कर्जे को चुकाने की कोशिश कर रहा था। विक्रम फैक्ट्री में ओवरटाइम करता, नेहा सिलाई का काम ढूंढ रही थी, और सोनू स्कूल के बाद खेतों में मदद करता था। रजनी भी पड़ोसियों से छोटा-मोटा काम लेती थी। लेकिन एक दिन अचानक मुसीबत ने फिर दस्तक दी। विक्रम फैक्ट्री से उदास चेहरे के साथ घर लौटा। उसने रजनी को बताया, "अम्मा, फैक्ट्री में चोरी का इल्ज़ाम लगा दिया गया है। मालिक कह रहा है कि मैंने मशीन के पार्ट चुराए, जो सच नहीं है!
रजनी का चेहरा पीला पड़ गया। "यह कैसे हो सकता है, बेटा? तू तो ईमानदारी से काम करता है!" विक्रम ने आंसुओं को रोकते हुए कहा, "मालिक कह रहा है, या तो पच्चीस हज़ार रुपये दो, वरना पुलिस में डलवा देगा। मैंने तो कुछ नहीं किया, अम्मा!" नेहा और मनीषा भी रोने लगीं। सोनू ने गुस्से में मुट्ठी बांध ली और बोला, "ये गंदी साजिश है। कोई और ने चोरी की होगी, और मुझ पर ठीकरा फोड़ दिया!"रजनी का दिमाग चकरा गया। नीलेश का कर्जा अभी पूरा नहीं चुकाया गया था, और अब यह नई मुसीबत। उसके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था। उसने सोनू को बुलाया और कहा, "बेटा, हमें फिर से हवेली जाना होगा। नीलेश साहब से मदद मांगनी पड़ेगी।" सोनू ने हिचकते हुए कहा, "अम्मा, वो तो पहले ही हम पर कर्जा लाद चुका है। फिर भी, चलो, कोशिश करते हैं।

रजनी और सोनू फिर से हवेली के फाटक पर खड़े थे। नौकर ने उन्हें अंदर बुलाया, और नीलेश ने अपने उसी रौबदार अंदाज में उनका स्वागत किया। रजनी ने सारी बात बताई—विक्रम पर इल्ज़ाम, मालिक की धमकी, और उनकी बेबसी। नीलेश ने गहरी सांस ली और बोला, "अरे रजनी, यह तो बहुत बुरा हुआ। तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारी मदद करूँगा। पच्चीस हज़ार देकर इस मामले को सुलझा दूँगा।"रजनी ने राहत की सांस ली, लेकिन नीलेश ने बात को आगे बढ़ाया। "लेकिन रजनी, यह पैसा तुम वापस कैसे लोगे? तुम्हारे पास तो पहले से ही मेरा कर्जा है।" रजनी ने सिर झुकाकर कहा, "साहब, मैं मेहनत करके चुकाऊँगी। बस, मेरे बेटे को बचा लीजिए।" नीलेश ने एक शरारती मुस्कान के साथ कहा, "ठीक है, लेकिन मेरे पास एक उपाय है। तुम और तुम्हारा छोटा बेटा सोनू मेरी हवेली में काम करने लगो। मैं तुम्हें मज़दूरी दूँगा, और धीरे-धीरे तुम्हारा कर्जा भी उतर जाएगा।"रजनी का मन कांप गया। हवेली में काम करने का मतलब था नीलेश की नजरों के सामने रहना, जिसकी नीयत उसने पहले ही भांप ली थी। लेकिन विक्रम की रिहाई के लिए उसके पास और कोई चारा नहीं था। उसने सिर हिलाया और कहा, "जी साहब, जैसा आप कहें।" नीलेश ने नौकर को पैसे की थैली लाने का इशारा किया और रजनी को थैली थमा दी।
जब रजनी और सोनू हवेली से बाहर निकले, नीलेश की नजरें फिर से रजनी के बदन पर टिक गईं। उसकी साड़ी पसीने से चिपकी थी, और उसके नितंबों की थिरकन उसे और आकर्षक बना रही थी। नीलेश के चेहरे पर वह शरारती मुस्कान फिर खिल गई, जैसे वह अपनी जीत का जश्न मना रहा हो। रजनी ने यह महसूस किया, लेकिन उसकी मजबूरी ने उसे चुप रहने को मजबूर कर दिया।
बहुत ही शानदार जानदार और जबरदस्त अपडेट हैं भाई मजा आ गया
 
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अध्याय चार

सूरज की पहली किरणें नदी के किनारे पड़ रही थीं, और सज्जनपुर गांव में सुबह की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। रजनी ने नीलेश को दिए पैसे विक्रम तक पहुँचाए, और फैक्ट्री मालिक को देकर उसने अपने बेटे की जान बचा ली।
अगले दिन से ही रजनी और सोनू हवेली की ओर चल पड़े। रजनी का मन भारी था, लेकिन मजबूरी ने उसे यह रास्ता चुनने पर मजबूर किया था।
हवेली पहुँचते ही सोनू को माली के साथ बगीचे में लगा दिया गया। वह घास काटने और पौधों को पानी देने में जुट गया, जबकि रजनी को हवेली के अंदर काम सौंपा गया। सरोज, नीलेश की पत्नी, उससे मिलनसार थी। सुबह का नाश्ता तैयार करने में उसने रजनी की मदद की और मुस्कुराते हुए कहा, "रजनी, अच्छे से काम करो, सब ठीक हो जाएगा।" रजनी को सरोज का व्यवहार अच्छा लगा, लेकिन उसकी नजरें हमेशा हवेली के मर्दों—नीलेश, सोमपाल, कर्मा, और अनुज—की ओर चली जाती थीं, जो उसके बदन को ललचाई निगाहों से देखते थे। यह एहसास उसे अंदर तक बेचैन करता था।

दो-चार दिन ऐसे ही बीत गए। एक सुबह रजनी और सोनू फिर हवेली पहुँचे। सोनू बगीचे में माली के साथ काम में जुट गया, और रजनी हवेली के आंगन में पहुँची। वहाँ सोमपाल चाय की प्याली लिए बैठे थे, उनकी पगड़ी और कुर्ता उनकी शान को दर्शा रहे थे। रजनी को देखते ही सोमपाल ने आवाज़ लगाई, "अरे सुन, तू दिलीप की औरत है न?"रजनी ने अपने पल्लू को सिर पर डालते हुए शर्माते हुए कहा, "जी बाबूजी।"

सोमपाल ने उसे पास बुलाया, "आ इधर बैठ। सुना है तेरे परिवार के बारे में—दिलीप ने खुद का जीवन तो बिगाड़ा ही, तेरी और बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद कर दी।" उनकी बातों में सहानुभूति थी, जो रजनी के मन को थोड़ा हल्का कर गई। उसकी आँखें नम हो आईं, और वह बोली, "अब क्या बताऊँ बाबूजी, बहुत दुखी हूँ।

सोमपाल ने सिर हिलाया और बोले, "अरे परेशान मत हो। अब तो तू हवेली में आ गई है। यहाँ मन लगाकर काम कर, सबकी सेवा कर—जल्दी ही तेरा कर्जा भी उतर जाएगा।" यह कहते हुए उन्होंने अपनी मोटी उंगली से रजनी की पीठ पर हल्का सा हाथ फेरा, जो उसकी त्वचा पर एक अजीब सनसनी छोड़ गया। रजनी ने सिर झुकाकर कहा, "जी बाबूजी, जैसा आप कहेंगे वैसा ही करूँगी।"सोमपाल ने एक चालाक मुस्कान के साथ कहा, "अच्छा, अभी एक काम कर। थोड़ा सरसों का तेल लेकर आ, और मेरे पैरों में दो दिन से दर्द है—मालिश कर दे। ऐसा कर, तेल लेकर छत पर आ जा, वहाँ आराम से कर देना।

रजनी को यह बात सामान्य लगी, और सोचकर कि सोमपाल इतने बड़े आदमी हैं, शायद उनकी मदद करना उसका फर्ज है, वह तुरंत रसोई की ओर चल दी। उसका मन अब भी हल्का था, क्योंकि उसे लग रहा था कि हवेली के लोग उतने बुरे नहीं हैं जितना वह सोचती थी।रजनी तेल की छोटी कटोरी लेकर छत पर पहुँची। लेकिन जैसे ही उसने सोमपाल को देखा, उसका कदम ठिठक गया। सोमपाल ने अपना कुर्ता उतार दिया था, उनका कसा हुआ बदन ऊपर से नंगा था, और धोती को उन्होंने जांघों तक चढ़ा लिया था। उनकी छाती पर घने बाल थे, और उनकी आँखें रजनी को घूर रही थीं। सोमपाल ने उसे बुलाया, "आ गई, आ जा—ले कर दे मालिश।

रजनी सकुचाई, लेकिन मजबूरी ने उसे आगे बढ़ने को मजबूर किया। उसने कटोरी नीचे रखी और सोमपाल के पैरों के पास घुटनों के बल बैठ गई। उसने थोड़ा तेल अपनी हथेलियों पर लिया और सोमपाल के पैरों पर मलना शुरू किया।


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सोमपाल की मोटी टांगें और उनके पैरों की गर्मी रजनी को असहज कर रही थी, लेकिन वह चुपचाप काम करती रही। सोमपाल ने आँखें बंद कीं और बोले, "अरे, थोड़ा और जोर से कर—दर्द तो अभी भी है।"रजनी ने हल्का दबाव बढ़ाया। तभी सोमपाल ने अपनी एक टांग को थोड़ा सा हिलाया, और उसका पैर रजनी की जांघ से टकरा गया। रजनी चौंकी, लेकिन कुछ न बोली। सोमपाल ने हल्के से हँसते हुए कहा, "अरे, डरती क्यों हो? मालिश करो, मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ।" लेकिन उनकी आवाज़ में एक चालाकी थी। उन्होंने धीरे से अपनी टांग को और पास लाया, और उनकी उंगलियाँ रजनी की कलाई को छू गईं। रजनी का शरीर सख्त हो गया, लेकिन वह सोच रही थी कि यह शायद अनजाने में हो रहा है।

मालिश के दौरान सोमपाल की साँसें भारी होने लगीं। उन्होंने अपनी आँखें खोली और रजनी की ओर देखा, जो सिर झुकाए काम कर रही थी। उन्होंने अपनी एक हाथ को रजनी की पीठ पर फिराया और बोले, "तेरी तो मेहनत देखकर लगता है तू बहुत अच्छी औरत है। दिलीप को ऐसी बीवी मिली, और उसने इसे बर्बाद कर दिया।" उनकी उंगलियाँ धीरे-धीरे रजनी की कमर की ओर सरकने लगीं, लेकिन रजनी ने तुरंत हाथ हटा लिया और बोली, "बाबूजी, बस इतना ही हो गया, अब और दर्द नहीं होगा।

सोमपाल हँसे और बोले, "ठीक है, जा अब—लेकिन कल फिर आना, पैरों का दर्द इतनी जल्दी नहीं जाने वाला है।

रजनी ने सिर झुकाया और कटोरी लेकर नीचे उतर गई, लेकिन उसके मन में एक अजीब सा डर और शक जाग उठा था।

इधर, हवेली के पीछे के कमरे में कर्मा और अनुज बैठे थे। क्रिकेट के मैदान में हुई झड़प का गुस्सा अभी भी उनके मन में था। कर्मा ने जोर से मुट्ठी पटकी और बोला, "साले कम्मू और मन्नू बहुत बोलने लगे हैं! इनकी औकात दिखानी पड़ेगी, वरना ये गाँव के कुत्ते हमारी हवेली का रौब भूल जाएँगे।"अनुज ने एक बाल हवा में उछालते हुए पूछा, "पर भैया, करोगे क्या?

कर्मा की आँखों में शैतानी चमक आई। उसने हँसते हुए कहा, "इनकी बहन नहीं चोदी, तो मेरा नाम भी कर्मा नहीं। अनामिका और बिंदिया दोनों को अपने नीचे लिटा कर ही मजा आएगा मुझे।इनकी इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़ा दूंगा!

अनुज हँस पड़ा और बोला, "भैया, सही कहा। इन गाँव वालों को तो हमारा असली रौब दिखाना ही पड़ेगा।"दोनों भाइयों ने एक-दूसरे को देखा और साजिश की योजना बनानी शुरू कर दी।
लेकिन वह जोश में नहीं, बल्कि होश से काम ले रहा था। उसने सोचा कि सीधे टकराव से बेहतर है कि वह धीरे-धीरे मन्नू की बहन बिंदिया को अपने जाल में फंसा ले। उसे धीरे-धीरे तैयार करूँगा, फिर देखना कैसे मेरे पैरों पड़ती है। कर्मा ये सोच कर मुस्कुराने लगा।

इसी बीच, एक दिन रजनी हवेली पहुँची। जैसे ही वह अंदर कदम रखाआ, सरोज ने उसे अपने पास बुलाया। सरोज का चेहरा आज कुछ खास चमक रहा था। उसने मुस्कुराते हुए कहा, "रजनी, सुनो, आज घर में कुछ मेहमान आने वाले हैं। और तुझे मैं कामवाली नहीं, अपनी सहेली समझती हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरी सहेली मेहमानों के सामने ऐसे दिखे। इसीलिए तू ऐसा कर, ये कपड़े बदलकर दूसरे पहन ले।
रजनी ने हिचकते हुए कहा, "पर जीजी, मैं कैसे? ये तो मेरे लिए ठीक नहीं होगा। मेरे पास तो बस यही पुरानी साड़ी है।"
सरोज ने हँसते हुए जवाब दिया, "अब जीजी भी बोलती है और बात भी नहीं मानती? अरे, ये साड़ी और ब्लाउज़ मेरे हैं, तू इसे पहन ले—तुझ पर बहुत जंचेंगे। देख, मेहमानों के सामने हमारी इज़्ज़त का सवाल है। चुपचाप जाकर बदल ले!"
रजनी ने सोचा, "सरोज जीजी का इतना प्यार, फिर मना क्यों करूँ?" उसने सिर झुकाकर कहा, "ठीक है जीजी, जैसी आपकी मर्ज़ी।" सरोज की ज़िद के आगे उसे मानना पड़ा। वैसे भी सरोज का उसे सहेली कहना उसे अच्छा लग रहा था। समानता का एहसास हर किसी को पसंद होता है, और रजनी के मन में भी एक हल्की सी खुशी जगी।

रजनी कमरे में गई और सरोज की साड़ी पहनी। साड़ी लाल रंग की थी, जिसमें सुनहरे धागों का काम था, लेकिन वह बिल्कुल पारदर्शी थी। जैसे ही वह बाहर आई, उसे अजीब महसूस हुआ। साड़ी उसके गोरे पेट और गहरी नाभि को साफ दिखा रही थी। ब्लाउज़, जो सरोज का था, रजनी के लिए छोटा पड़ रहा था। रजनी की छाती उससे बड़ी थी, और इस वजह से उसकी मोटी चूचियों की झलक साफ नजर आ रही थी।


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वह शर्माते हुए बोली, "जीजी, ये मुझे बहुत अजीब लग रहा है। ब्लाउज़ भी छोटा है, और साड़ी देखो—आर-पार दिखने वाली। लोग क्या कहेंगे?"सरोज हँस पड़ी और मजाकिया लहजे में बोली, "अरे तू बेकार में परेशान होती है। आजकल यही फैशन है—मैंने भी तो ऐसी ही साड़ी पहनी है। और रही ब्लाउज़ की बात, तो तेरी छातियां मुझसे इतनी बड़ी हैं, क्या करूँ! देख, मेहमानों के सामने ये तेरा रूप देखकर सब तारीफ करेंगे।"
रजनी शर्म से लाल हो गई। उसने साड़ी का पल्लू और कसकर सिर पर खींच लिया, लेकिन सरोज की हंसी और सहज व्यवहार ने उसे चुप करा दिया। वह मुस्कुराने लगी, हालांकि उसके मन में एक डर था कि मेहमानों के सामने यह सब कैसे सहन करेगी। सरोज ने उसे गले लगाया और कहा, "अरे, मेरी प्यारी सहेली, डर मत—मैं तेरे साथ हूँ।"



इधर, कम्मू के घर में धीरज की शादी की तैयारियाँ जोरों पर थीं। फसल की आमदनी का इंतज़ार था, लेकिन कुछ सामान के लिए अजीत और कुसुम शहर जाने की योजना बनाई गई। सुबह की बस पकड़ने के लिए दोनों भाभी और देवर तैयार हुए। अजीत ने अपनी पुरानी धोती-कुर्ता पहनी, और कुसुम ने अपनी रंग-बिरंगी साड़ी सजाई। बस में दोनों एक साथ बैठे, और जैसे ही गाड़ी चल पड़ी, उनके बीच की पुरानी मस्ती शुरू हो गई।अजीत ने कुसुम की ओर देखकर चुटकी ली, "भाभी, आज तो तुम इतनी सजी-धजी हो कि लगता है कोई नया प्रेमी ढूंढने जा रही हो!

कुसुम हँसते हुए जवाब दी, "हाँ, देवर जी, तुम्हारे भैया से ऊब गई हूँ—अब शहर में कोई तगड़ा मर्द ढूंढूँगी जो मेरी मोटी जांघों को संभाल सके!
दोनों हंसने लगे। अजीत ने हल्के से कुसुम की कमर को छुआ और बोला, "तो क्या, मैं तो अभी भी जवान हूँ और दूसरे मर्द को ढूंढने की क्या जरूरत है
रात को सुमन को छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँ? तुम्हारी गदराई देह तो मुझे बेकरार कर देती है!"
कुसुम ने उसकी उंगली को हल्का सा दबाया और शरारती लहजे में कहा, "हाँ, पर सावधान रहना—मेरी जांघें इतनी मोटी हैं कि तुम्हारा दम निकल जाएगा, देवर जी! वो ये कहकर हंसने लगी। अपनी भाभी को संभालना इतना आसान नहीं है।

बसकी हलचल के बीच उनकी बातें और हल्की-हल्की छुअनें चलती रहीं। अजीत ने कुसुम की साड़ी के पल्लू को थोड़ा खिसकाया और उसकी गदराई कमर पर हाथ फेरा। कुसुम की सांसें थोड़ी तेज हो गईं, और उसने अजीत की ओर देखकर कहा, "देवर जी, यहाँ तो लोग देख रहे हैं—शहर पहुँचकर देखते हैं कि तुम मेरी कमर को और कैसे सहला सकते हो!" अजीत हँस पड़ा और बोला, "भाभी, तुम्हारी ये सिलवटें तो मेरे सपनों में आती हैं—एक दिन तो सुमन को बिना बताए तुम्हें पकड़ लूँगा!" दोनों की आँखों में एक कामुक चमक थी, जो उनकी मजाक को और गहरा बना रही थी।
शहर पहुँचकर उन्होंने शादी के लिए सामान खरीदा—साड़ियाँ, चूड़ियाँ, और कुछ बर्तन। दुकान में अजीत ने कुसुम को एक पारदर्शी साड़ी दिखाई और कहा, "भाभी, ये पहनो तो सारा गांव पागल हो जाए—तुम्हारी नाभि और कमर तो छुपेंगी नहीं!" कुसुम ने हँसते हुए उसकी छाती पर हल्का थप्पड़ मारा और बोली, "देवर जी, शरम करो—लेकिन सच कहूँ तो ये साड़ी पहनकर तुम्हें रात को बुलाऊँगी!" वापसी में भी उनकी बातें और हल्की शरारतें चलती रहीं, लेकिन दोनों जानते थे कि यह सब मजाक की सीमा में ही रहेगा।


गांव अब रात के अंधेरे में डूब चुका था, और हवेली की दीवारों के भीतर एक अलग ही दुनिया जाग उठी थी। सूरज की तपिश अब ठंडी हवा में बदल चुकी थी, लेकिन हवेली के अंदर का माहौल गर्म और उत्तेजित था। रजनी, जो अब हवेली में अपने नए किरदार में ढल रही थी, इस रात के अनजाने मोड़ की ओर बढ़ रही थी।

रजनी, सरोज के कहने पर उसी पारदर्शी साड़ी और छोटे ब्लाउज़ में तैयार हो चुकी थी। साड़ी उसके गोरे पेट और गहरी नाभि को उजागर कर रही थी, जबकि ब्लाउज़ उसकी मोटी चूचियों को दबाकर उनकी दरार को साफ दिखा रहा था। जैसे ही वह हवेली के आंगन में काम में जुटी, सभी की नजरें उस पर टिक गईं।


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नौकर-चाकर, मेहमान, और हवेली के मर्द—सब उसकी ओर पलट-पलट कर देख रहे थे। उनकी आँखें उसके पेट की नाभि और ब्लाउज़ से झांकती छाती की दरार को घूर रही थीं। नीलेश और सोमपाल भी कोने में बैठे मुस्कुरा रहे थे, उनकी नजरों में एक चालाक चमक थी।

कुछ ही देर में मेहमान आने लगे—सोमपाल और नीलेश के दोस्त, जो उनके ही रंगीन मिजाज के थे। शानदार कपड़े पहने ये लोग हवेली के आंगन में दाखिल हुए, और जल्दी ही शराब की बोतलें खुल गईं। रजनी, जो खाना परोसने में लगी थी, यह देखकर हैरान रह गई कि मर्दों के साथ-साथ औरतें भी शराब पी रही थीं। यह माहौल उसके लिए बिल्कुल नया था—गाँव की मर्यादा में ऐसा खुलापन उसने कभी नहीं देखा था।रजनी का नया अवतार सबकी आँखें अपनी ओर खींच रहा था, जो उसे थोड़ा अजीब लग रहा था। लेकिन जीवन में पहली बार इस तरह का पहनावा और लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित होना उसे कहीं न कहीं अच्छा भी लग रहा था। उसका मन कह रहा था कि यह सब गलत है, लेकिन नशे की तरह यह नया अनुभव उसे अपनी ओर खींच रहा था।

शाम ढलने लगी, और सोनू का बगीचे में काम खत्म हुआ। वह हवेली के द्वार पर जाकर अपनी मां का इंतज़ार करने लगा। तभी दूसरी नौकरानी बिमला निकली और उसे तथा बाकी नौकरों को एक ओर ले गई। उसने उन्हें बढ़िया खाना परोसा—पनीर आदि की सब्जियां, कई तरह की मिठाई—जो हवेली के बाकी लोगों के लिए आम था, लेकिन सोनू जैसे गरीब परिवार के लिए सुखद आश्चर्य था।

खाना खाकर सोनू ने बिमला से कहा, "ताई, अम्मा को बुला दो, घर जाने का समय हो रहा है।"बिमला ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और हवेली के अंदर गई। कुछ देर बाद वह वापस आई और बोली, "बेटा, आज हवेली में दावत है न, तो तेरी अम्मा रात में यहाँ रुकेंगी। काम ज्यादा है, सुबह आएगी—उसने ऐसा ही बोला है। तू घर चली जा, चिंता मत कर।" सोनू ने थोड़ा सोचा, फिर बोला, "ठीक है ताई," और घर की ओर चल दिया, मन में एक अजीब सा डर लिए।

अंदर हवेली में माहौल और गरमा गया था। लोग शराब के नशे में सब भूलकर झूम रहे थे। कुछ मर्द और औरतें सुध-बुध खोकर फर्श पर पड़े थे, जबकि बाकी अपनी हंसी-मजाक में मग्न थे। रजनी यह सब देखकर चकित थी। इतना खुलापन, इतना बेबाक माहौल—उसने कभी सोचा भी नहीं था। वह मेहमानों के लिए खाना लगा रही थी, जब अचानक पीछे से किसी ने उसे बाहों में भर लिया। वह चौंकी और मुड़कर देखा तो सरोज थी।
रजनी ने राहत की सांस ली और बोली, "अरे जीजी, तुमने तो मुझे डरा ही दिया!"
सरोज हँसते हुए बोली, "अरे डर क्यों रही है, और तू ये क्या कर रही है?"
रजनी ने कहा, "खाना लगा रही हूँ, जीजी।"
सरोज ने उसे रोकते हुए कहा, "छोड़ इसे, तुझे बोला था ना तू मेरी सहेली है, तू कोई काम नहीं करेगी। काम करने के लिए बहुत लोग हैं, तू मेरे साथ चल।" सरोज ने उसका हाथ पकड़कर एक तरफ ले गई, जहाँ कुछ मेहमान बैठे थे।

रजनी के पहुँचते ही सब उससे मिलने लगे। वह गले लग-लगकर सब से मिल रही थी, जो उसके लिए हैरान करने वाला था। औरतों के साथ तो ठीक था, लेकिन पराए मर्दों से गले लगना उसके लिए मर्यादा के बाहर था। इसी बीच एक मोटा-ताजा मेहमान, जिसकी आँखें शराब से लाल थीं, ने सरोज की कमर में हाथ डाला और बोला, "भाभी, इनसे भी तो मिलवाओ। ये सुंदर अप्सरा कौन है?"
सरोज ने हँसते हुए कहा, "अरे ये मेरी प्यारी सहेली है, रजनी। और रजनी, ये सब इनके और मेरे दोस्त हैं।"
वह आदमी रजनी की ओर देखकर बोला, "सच में रजनी जी, आप बहुत सुंदर हैं।"
सरोज ने मजाक में टोकते हुए कहा, "अरे बस बस, ये शादीशुदा है। इस पर इतने डोरे डालने का कोई फायदा नहीं है।"
आदमी ने मायूसी भरे लहजे में कहा, "अफसोस," और हँस दिया।रजनी को अपने लिए ऐसी तारीफ सुनकर अजीब लगा, लेकिन हर औरत की तरह उसे भी अपनी सुंदरता की सराहना सुनकर अच्छा लगा। सरोज ने उसे अपने साथ घुमाया और अलग-अलग मेहमानों से मिलवाया। रजनी को बड़े लोगों के बीच रहना और उनसे मिलना कहीं न कहीं पसंद आ रहा था। कुछ देर बाद अधिकतर मेहमान चले गए, लेकिन कुछ खास लोग—चार औरतें और उतने ही मर्द—रात को रुकने वाले थे। सरोज ने रजनी को बताया, "ये हमारे खास दोस्त हैं, रात यहाँ रहेंगे।"मर्दों ने नीचे अपनी महफिल जमा ली, जहाँ शराब और ठहाकों का दौर चल रहा था। चारों औरतें, सरोज, और रजनी ऊपर एक कमरे में चली गईं। सरोज ने एक नौकर से बोतल मंगवाई, जो देखने में ही शानदार थी—गहरे हरे रंग की, सोने के ढक्कन वाली। एक औरत ने उसे छह गिलास में डाला। सबने अपने-अपने गिलास उठा लिए, सिवाय रजनी के। सरोज और बाकी औरतों ने उसे देखा और कहा, "रजनी, ले लो ना।"
रजनी ने सकुचाते हुए कहा, "वो नहीं पी सकती, जीजी। मैने कभी नहीं पी, ऊपर से बहुत बदबू आती है।"
सरोज ने हँसते हुए कहा, "अच्छा रजनी, तू सबके सामने मेरी बात टालेगी, अपनी सहेली की?"
एक औरत ने हल्के लहजे में कहा, "अरे रजनी, ले लो ना। मैं भी कभी-कभी ही पीती हूँ।"
रजनी ने फिर कहा, "वो जीजी, ऐसा नहीं—मैने कभी नहीं पी, और बदबू से डर लगता है।"
सरोज ने उसे ग्लास पास किया और बोली, "अरे, ये अलग है। इसमें बिल्कुल बदबू नहीं आएगी, ले सूंघकर देख।" सरोज ने ग्लास को रजनी की नाक से लगा दिया। रजनी ने सूंघा और सचमुच हैरान रह गई—बदबू की जगह एक मीठी खुशबू आ रही थी।
एक औरत ने हँसते हुए कहा, "रजनी, पी जाओ। बहुत अच्छी है ये। मैं भी नहीं पीती वैसे तो, लेकिन इसको मना करना बेवकूफी होगी।"
सबके दबाव में आकर रजनी ने पहला घूंट लिया। स्वाद मीठा और गर्म था, जो उसे अच्छा लगा। फिर क्या था, एक के बाद एक ग्लास खाली होने लगे। कुछ ही देर में औरतों ने मिलकर बोतल खाली कर दी। नशा चढ़ने लगा—रजनी को ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था। उसका बदन हल्का हो गया, और मन में किसी चिंता का नामो-निशान नहीं था।रजनी का अनचाहा साक्षात्कारतभी एक औरत बोली, "यार, मुझे बाथरूम जाना है—किधर है?"
सरोज ने कहा, "रजनी, इन्हें बाथरूम दिखा देगी?"
रजनी ने हाँ में सिर हिलाया और बोली, "हाँ जीजी, चलिए।" बहके कदमों के साथ वह औरत को लेकर पीछे की ओर चली। औरत को बाथरूम में छोड़कर वह बाहर खड़ी हो गई। बाथरूम के पास ही एक कमरा था, जो सोमपाल का था। रजनी को उस कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं—हल्की सिसकियाँ और भारी साँसें।

नशे की हालत में सब कुछ उसे एक खेल सा लगा। वह धीरे-धीरे कमरे के पास गई और दरवाजे को हल्का सा खोलकर अंदर झाँका। सामने का नजारा देखकर उसकी आँखें चौड़ी हो गईं। बिस्तर पर बिमला, हवेली की नौकरानी, बिल्कुल नंगी होकर झुकी हुई थी। उसके मोटे चूतड़ हिल रहे थे, और भारी चूचियाँ झूल रही थीं। पीछे से सोमपाल, पूरी तरह नंगा, उसकी कमर को पकड़े हुए था। उसका मोटा और लंबा लंड बिमला की चूत में अंदर-बाहर हो रहा था, और हर थाप के साथ बिमला की साँसें तेज होती जा रही थीं।


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सोमपाल के चेहरे पर हवस की चमक थी, और वह दनादन धक्के लगा रहा था।रजनी का बदन जम सा गया। उसकी साँसें रुक गईं, और एक अनजानी सिहरन उसके पूरे शरीर में दौड़ गई। उसकी चूत में नमी महसूस हुई—पहली बार वह ऐसा कुछ देख रही थी। तभी उसे अपनी नंगी कमर पर किसी का हाथ महसूस हुआ। वह तुरंत चेहरा दरवाजे की दरार से हटाकर पीछे मुड़ी। उसका पल्लू सीने से सरककर नीचे गिर गया, लेकिन उसका ध्यान अभी उस इंसान पर था जो उसके सामने खड़ा था—कर्मा।
कर्मा ने बनावटी चिंता से कहा, "क्या हुआ चाची, यहाँ क्या कर रही हो?"
वह जानता था कि अंदर क्या हो रहा है, लेकिन रजनी को परेशान करने का मौका छोड़ना नहीं चाहता था।
रजनी ने बात को संभालने की कोशिश की, "कुछ, कुछ नहीं बेटा, वो बस ऐसे ही।"
वह कैसे कह सकती थी कि उसने क्या देखा? कैसे एक पोते को उसके दादा की ये हरकत बता सकती थी?

कर्मा ने हल्का सा हँसते हुए कहा, "अरे लगता है चाची, तुमने पी ली है। चलो, मैं तुम्हें माँ के पास ले चलता हूँ।"
रजनी ने बचने का मौका देखा और बोली, "हाँ-हाँ, चलो।"
लेकिन कर्मा ने फिर से उसे एक तरफ से पकड़ लिया। उसका हाथ रजनी के नंगे पेट पर कस गया, और उसकी उंगलियाँ धीरे-धीरे उसकी नाभि के पास घूमने लगीं। रजनी का मन काँप उठा, लेकिन नशे और मजबूरी ने उसे चुप रहने को मजबूर कर दिया।
बहुत ही शानदार लाजवाब और मदमस्त अपडेट है भाई मजा आ गया
 
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