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Erotica सोलवां सावन

komaalrani

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komaalrani

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बावनवीं फुहार -

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रस बरसे, अमराई में

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मैं और सुनील एक दूसरे को छेड़ते रहे। सुनील का मन बहुत था एक राउंड के लिए लेकिन किसी तरह माना, क्योंकी चन्दा भी मेरे साथ नहीं थी और अमराई से निकल के मुझे घर अकेले जाना था।

हम दोनों निकले तो घनी अमराई के पत्तों से छन के चांदनी छलक रही थी। बारिश तो बंद हो गई थी लेकिन पत्तों से टप-टप बूंदें गिर रही थीं और हम दोनों को थोड़ा-थोड़ा भिगो भी रही थीं। रिमझिम-रिमझिम सावन की बूंदें अभी बरस गई थीं।


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बाहर सावन बरस रहा था, और भीग मैं अंदर रही थी, जहाँ मेरा सोलहवां सावन बरस रहा था। चुन्नू और सुनील ने मुझे गीला कर दिया था। दोनों जाँघों के बीच कीचड़ भरा हुआ था। मेरे जोबन को जवानी के तूफान ने झकझोर के रख दिया था। मैं मुश्कुरा पड़ी, कुछ सोच के।


जिस दिन मैं भाभी के गाँव आई थी उसी दिन माँ (भाभी की माँ) ने बड़े दुलार से मुझे कहा था-

“अरे सोलहवां सावन तो रोज बरसना चाहिए, बिना नागा। हरदम कीचड़ ही कीचड़ रहना चाहिए, चाहे दिन हो रात…”

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कुछ किया धरा नहीं था मैंने तब तक, एकदम कोरी थी, ऐसे सफेद कागज की तरह जिसपर अभी तक किसी ने कलम भी नहीं छुआई हो, लेकिन उनकी बात का मतलब तो मैं समझ ही गई और एकदम शर्मा गई। बस ‘धत्त’ बोल पाई।

लेकिन उनकी बात एकदम सही निकली।

जांघें अभी भी दुःख रही थीं, सुनील और चुन्नू ने मिल के इतने जोर-जोर के धक्के लगाए थे, बस किसी तरह सुनील का सहारा लेकर मैं उठी अपने कपड़े बस ऐसे ही तन पर टांग लिए। जोर से पिछवाड़े चिलख उठी, इस सुनील का खूंटा साला है ही इतना मोटा। मैंने खा जाने वाली निगाहों से सुनील की ओर देखा। और वो दुष्ट सब समझकर मुश्कुरा पड़ा।


बाहर निकलकर जब मैंने एक बार गहरी सांस ली, एक अजब मस्ती मेरे नथुनों में भर गई।

अभी-अभी बरसे पानी के बाद मिट्टी से निकलने वाली सोंधी महक, अमराई की मस्त मादक गमक, हवा में घुली बारिश की खुशबू। और ऊपर से, दो जवान मर्दों के पशीने की, उनके वीर्य की मेरी देह से आती रस भिनी गंध।


सुनील कमरा बंद करके मेरे पीछे आ के खड़ा हो गया, एकदम सट के, सटा के। उसका एकदम खड़ा था, खूब मोटा कड़ा। मेरे तन मन की हालत उससे छुपती क्या, जोर से मेरे दोनों जोबन दबोचते बोला-

“क्यों मन कर रहा है न, हो जाय एक राउंड और, यहीं नीले गगन के तले…”

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मुँह ने ना किया और देह ने हाँ, ‘धत्त’ बोली मैं लेकिन अपने बड़े-बड़े गदराए नितम्ब उसके खड़े खूंटे पे कस-कस के रगड़ दिया और उसके हाथों के बंधन छुड़ाते हुए भाग खड़ी हुई।

उस अमराई का कोना-कोना मेरा जाना पहचाना था, कितनी बार सहेलियों, भौजाइयों के साथ झूला झूलने आई थी और कभी गाँव के लौंडों के साथ ‘कबड्डी’ खेलने।

एक पारभासी सा रेशमी अँधेरा छाया था। अमराई बहुत गझिन थी और बहुत बड़ी भी। दिन में भी 10-20 हाथ के आगे नहीं दिखता था, और दो चार एकड़ में फैली होगी कम से कम। लेकिन मैं सुनील को चिढ़ाते ललचाते आगे निकल गई।

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आसमान में बदलियां चाँद के साथ चोर सिपाही खेल रही थीं। सावन में भी लगता है आसमान में फागुन लगा था, बदलियां मिल के किसी नए कुंवारे लड़के की तरह चाँद को घेर लेतीं और उसके मुँह में कालिख पोत देती और पूरा आसमान अँधेरे से भर उठता। चाँद किसी तरह उन गोरी गुलाबी बदलियों से अपने को छुड़ाता तो फिर एक बार जुन्हाई छिटक जाती।



लेकिन वो चांदनी भी, आम के बड़े घने पेड़ रास्ता रोक के खड़े हो जाते और कुछ किरणें ही उनकी पकड़ से बचकर जमीन तक पहुँच पाती।

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आसमान में बदरिया चाँद को छेड़ रही थीं, और मैं यहाँ सुनील को।


लेकिन सुनील भी न जैसे ही जरा सा अँधेरा हुआ, मेरी चाल थोड़ी धीमी हुई तो बस मुझे पता भी नहीं चला और पीछे से आके मुझे दबोच लिया। खूंटा सीधे गाण्ड की दरार के बीच। दोनों हथेलियां मेरे गदराते कच्चे टिकोरों पे,

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और मेरे मुँह से निकल गया- “है दुष्ट, क्या करते हो?”

जोर-जोर से मेरे नए आये उभारों को मसलता वो बोला- “जो ऐसे मस्त मौसम में तेरे जैसे मस्त माल के साथ करना चाहिए…”

“उं उं, छोड़ न हट, देर हो रही है…” मैं झूठ मूठ बोली, पर देर सचमुच हो रही थी।


गाँव में रात आठ बजे ही लोग लालटेन बुझाने लगते हैं और इसका फायदा भी होता है, रात भर मूसल ओखली में चलता है। पिछली बार जब अजय मेरे कुठरिया में रात में आया था तो साढ़े आठ बजे घुस आया था।

शाम कब की ढल चुकी थी और रात हो ही गई थी। गनीमत थी की मेरी भाभी खुद कामिनी भाभी के यहां गई थीं वरना वो इतनी परेशान होती की,…

सुनील ने छोड़ा नहीं लेकिन कुछ किया भी नहीं। हाँ अब उसका हाथ पकड़ के मैं जल्दी-जल्दी तेज डगर भरते अँधेरे में भी अमराई में काफी दूर निकल आई थी, करीब बाहरी हिस्से में, कुछ देर पे गाँव के घरों की रोशनियां दिखनी शुरू हो गई थी।
 

komaalrani

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बँसवाड़ी में




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सुनील ने छोड़ा नहीं लेकिन कुछ किया भी नहीं। हाँ अब उसका हाथ पकड़ के मैं जल्दी-जल्दी तेज डगर भरते अँधेरे में भी अमराई में काफी दूर निकल आई थी, करीब बाहरी हिस्से में, कुछ देर पे गाँव के घरों की रोशनियां दिखनी शुरू हो गई थी।

लेकिन तभी हवा तेज हुई, सर्र-सर्र घू-घू करते, और पानी की बौछारें भी तलवार की तरह हमारी देह पर पड़ रही थीं। बिजली चमक ही रही थी और लगा कहीं पास में ही बिजली गिरने की आवाज आई। बिजली की कड़कती रोशनी में मैंने एक छप्पर देखा, जिसके नीचे मुश्किल से एक आदमी खड़ा हो सकता है, यहां पर पेड़ भी बहुत गझिन था,


बगल में ही बँसवाड़ी थी, जिससे सटकर ही हम लोगों के घर जाने की एक पगडंडी थी।


मैं वहीं धंस ली, अच्छी तरह मैं भीग गई थी और बौछार तो अभी भी अंदर आ रही थी पर सर पर सीधे पानी गिरना बंद हो गया था।


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सहारे के लिए मैं आम के पेड़ की मोटी टहनी का सहारा लेकर झुकी हुई थी, जिससे सर पर पानी की धार से बचत हो जाए। गर्र कडाक धर्र, जोर की आवाज हुई और पास के एक पुराने पेड़ की एक मोटी डाल भहराकर गिर पड़ी।

“हे अंदर आ जा ना…”

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मैंने सुनील को बुलाया।

पर वो चमकती बिजली की रोशनी में मेरी भीगी देह देखकर, और मैं झुक के इस तरह खड़ी थी की मेरे गीले भीगे नितम्ब खूब उभरकर बाहर निकले थे- “आ न एकदम चिपक के खड़े हो जा मुझसे तो कुछ तो तू भी बारिश से बच जाएगा…”


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वो आ भी गया, चिपक भी गया और बच भी गया पर मैं नहीं बच पाई।

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कब मेरे उठे गीले नितम्बों पर से कपड़े सरके मुझे नहीं मालूम, लेकिन जब उसने खूंटा धँसाना शुरू किया तो मुझे मालुम पड़ा। और तब तक उसकी उंगलियों ने मेरे निपल्स की ये हालत कर दी थी की मैं मना करने वाली हालत में थी ही नहीं, और मैंने मन को ये कह के मनाया की अगर मैं मना भी करती तो कौन वो साला मानता।

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कड़कते बादल के बीच मेरी चीख दब के रह गई। तेज बरसते पानी की आवाज, पेड़ों से गिरती पानी की धार और जमीन पर बहती पानी की आवाज के साथ मेरी चीखें और सिसकियां मिल घुल गई थीं।



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कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गाण्ड के अंदर था, और अब मैं भी पीछे धक्के मार-मार के गाण्ड मरवाते, मजा लेते उसका साथ दे रही थी।
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बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक-हचक कर वो मेरी गाण्ड मार रहा था, और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गाण्ड को पिलाई थी, उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी, बस सटासट गपागप लण्ड अंदर-बाहर हो रहा था। निहुरे हुए दर्द भी हो रहा था और मजे भी आ रहे थे, बार-बार बस कामिनी भाभी की बात याद आ रही थी।



“ननद रानी, आई बात समझ लो, गाण्ड मरवाई का असल मजा तो दर्द में ही है, जेह दिन तुमको उस दर्द में मजा आने लगेगा, तुम एक बार अपनी बुर की खुजली भूल जाओगी लेकिन गाण्ड मरवाना कभी नहीं चोदोगी…” और मेरी अब वही हालत थी।


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सुनील कुछ देर पहले ही तो झडा था मेरी गाण्ड में और उस बार अगर उसने 20-25 मिनट लिए होंगे तो अबकी आधे घंटे से ऊपर हो लेगा।

पहली बार मैं बरसते पानी में, खुली अमराई में सोलहवें सावन का मजा ले रही थी।

सुनील भी न, जिस तेजी से वो मेरी गाण्ड मार रहा था उतनी ही तेजी से उसकी दो उंगलियां मेरी चूत का मंथन कर रही थीं, अंगूठा क्लिट रगड़ रहा था। थोड़ी देर में मैं झड़ने के कगार पर पहुँच गई पर न उसकी उंगलियां रुकीं न मूसल के तरह का लण्ड।



मैं झड़ती रही, वो चोदता रहा गाण्ड मारता रहा। दो बार मैं ऐसे ही झड़ी और जब तीसरी बार मैं झड़ी तो मेरे साथ वो भी देर तक। उसके लण्ड की मलाई मेरी गाण्ड को भरकर, टपक कर मेरी जाँघों को भिगोती बाहर गिर रही थी।


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और जब मैंने आँखें खोली और नोटिस किया की बारिश तो कब की बंद हो चुकी है, और बादलों ने भी अपनी बाहों के बंधन से चांदनी को आजाद कर दिया है, जुन्हाई चारों ओर पसरी पड़ी थी, बँसवाड़ी, घर की ओर जाने वाली पगड़ंडी सब कुछ साफ नजर आ रहे थे और अमराई के बाहर गाँव के घरों की रोशनी भी।

सुनील को देखकर मैं एक बार जोर से शर्माई अपने कपड़े ठीक किये और उससे बोली-

मैं अब चली जाऊँगी।


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उसका घर दूसरी ओर पड़ता था, लेकिन तब भी पगड़ंडी पर वह कुछ देर मेरी साथ चला और जब मैं अमराई के बाहर निकल आई तभी उसने, वो पगड़ंडी पकड़ी जो उसके घर की ओर जाती थी।


मैं कुछ ही दूर चली थी की किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे थी, वहां से घर भी दिख रहा था, और मैं जोर से चौंक गई।







ये सुनील तो नहीं हो सकता था, कौन था ये?





















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बँसवाड़ी में




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सुनील ने छोड़ा नहीं लेकिन कुछ किया भी नहीं। हाँ अब उसका हाथ पकड़ के मैं जल्दी-जल्दी तेज डगर भरते अँधेरे में भी अमराई में काफी दूर निकल आई थी, करीब बाहरी हिस्से में, कुछ देर पे गाँव के घरों की रोशनियां दिखनी शुरू हो गई थी।

लेकिन तभी हवा तेज हुई, सर्र-सर्र घू-घू करते, और पानी की बौछारें भी तलवार की तरह हमारी देह पर पड़ रही थीं। बिजली चमक ही रही थी और लगा कहीं पास में ही बिजली गिरने की आवाज आई। बिजली की कड़कती रोशनी में मैंने एक छप्पर देखा, जिसके नीचे मुश्किल से एक आदमी खड़ा हो सकता है, यहां पर पेड़ भी बहुत गझिन था,


बगल में ही बँसवाड़ी थी, जिससे सटकर ही हम लोगों के घर जाने की एक पगडंडी थी।


मैं वहीं धंस ली, अच्छी तरह मैं भीग गई थी और बौछार तो अभी भी अंदर आ रही थी पर सर पर सीधे पानी गिरना बंद हो गया था।


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सहारे के लिए मैं आम के पेड़ की मोटी टहनी का सहारा लेकर झुकी हुई थी, जिससे सर पर पानी की धार से बचत हो जाए। गर्र कडाक धर्र, जोर की आवाज हुई और पास के एक पुराने पेड़ की एक मोटी डाल भहराकर गिर पड़ी।

“हे अंदर आ जा ना…”

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मैंने सुनील को बुलाया।

पर वो चमकती बिजली की रोशनी में मेरी भीगी देह देखकर, और मैं झुक के इस तरह खड़ी थी की मेरे गीले भीगे नितम्ब खूब उभरकर बाहर निकले थे- “आ न एकदम चिपक के खड़े हो जा मुझसे तो कुछ तो तू भी बारिश से बच जाएगा…”


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वो आ भी गया, चिपक भी गया और बच भी गया पर मैं नहीं बच पाई।

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कब मेरे उठे गीले नितम्बों पर से कपड़े सरके मुझे नहीं मालूम, लेकिन जब उसने खूंटा धँसाना शुरू किया तो मुझे मालुम पड़ा। और तब तक उसकी उंगलियों ने मेरे निपल्स की ये हालत कर दी थी की मैं मना करने वाली हालत में थी ही नहीं, और मैंने मन को ये कह के मनाया की अगर मैं मना भी करती तो कौन वो साला मानता।

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कड़कते बादल के बीच मेरी चीख दब के रह गई। तेज बरसते पानी की आवाज, पेड़ों से गिरती पानी की धार और जमीन पर बहती पानी की आवाज के साथ मेरी चीखें और सिसकियां मिल घुल गई थीं।



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कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गाण्ड के अंदर था, और अब मैं भी पीछे धक्के मार-मार के गाण्ड मरवाते, मजा लेते उसका साथ दे रही थी।
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बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक-हचक कर वो मेरी गाण्ड मार रहा था, और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गाण्ड को पिलाई थी, उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी, बस सटासट गपागप लण्ड अंदर-बाहर हो रहा था। निहुरे हुए दर्द भी हो रहा था और मजे भी आ रहे थे, बार-बार बस कामिनी भाभी की बात याद आ रही थी।



“ननद रानी, आई बात समझ लो, गाण्ड मरवाई का असल मजा तो दर्द में ही है, जेह दिन तुमको उस दर्द में मजा आने लगेगा, तुम एक बार अपनी बुर की खुजली भूल जाओगी लेकिन गाण्ड मरवाना कभी नहीं चोदोगी…” और मेरी अब वही हालत थी।


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सुनील कुछ देर पहले ही तो झडा था मेरी गाण्ड में और उस बार अगर उसने 20-25 मिनट लिए होंगे तो अबकी आधे घंटे से ऊपर हो लेगा।

पहली बार मैं बरसते पानी में, खुली अमराई में सोलहवें सावन का मजा ले रही थी।

सुनील भी न, जिस तेजी से वो मेरी गाण्ड मार रहा था उतनी ही तेजी से उसकी दो उंगलियां मेरी चूत का मंथन कर रही थीं, अंगूठा क्लिट रगड़ रहा था। थोड़ी देर में मैं झड़ने के कगार पर पहुँच गई पर न उसकी उंगलियां रुकीं न मूसल के तरह का लण्ड।



मैं झड़ती रही, वो चोदता रहा गाण्ड मारता रहा। दो बार मैं ऐसे ही झड़ी और जब तीसरी बार मैं झड़ी तो मेरे साथ वो भी देर तक। उसके लण्ड की मलाई मेरी गाण्ड को भरकर, टपक कर मेरी जाँघों को भिगोती बाहर गिर रही थी।


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और जब मैंने आँखें खोली और नोटिस किया की बारिश तो कब की बंद हो चुकी है, और बादलों ने भी अपनी बाहों के बंधन से चांदनी को आजाद कर दिया है, जुन्हाई चारों ओर पसरी पड़ी थी, बँसवाड़ी, घर की ओर जाने वाली पगड़ंडी सब कुछ साफ नजर आ रहे थे और अमराई के बाहर गाँव के घरों की रोशनी भी।

सुनील को देखकर मैं एक बार जोर से शर्माई अपने कपड़े ठीक किये और उससे बोली-

मैं अब चली जाऊँगी।


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उसका घर दूसरी ओर पड़ता था, लेकिन तब भी पगड़ंडी पर वह कुछ देर मेरी साथ चला और जब मैं अमराई के बाहर निकल आई तभी उसने, वो पगड़ंडी पकड़ी जो उसके घर की ओर जाती थी।


मैं कुछ ही दूर चली थी की किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे थी, वहां से घर भी दिख रहा था, और मैं जोर से चौंक गई।







ये सुनील तो नहीं हो सकता था, कौन था ये?





















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चुन्नू
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पांच मिनट के अंदर ही मेरे सोना का लण्ड सीधे मेरी बच्चेदानी पे धक्के मार रहा था और मैं दुगुने जोश से उसका जवाब दे रही थी। मुझे अंदाज लग गया था की ये लम्बी रेस का घोड़ा है। फिर अभी कुछ देर पहले ही एक राउंड कबड्डी खेल चुका है इसलिए 30-40 मिनट से पहले मैदान नहीं छोड़ने वाला है।

दस पन्दरह मिनट के बाद आसन बदल गया था, मैं उसकी गोद में थी, लण्ड एकदम जड़ तक मेरी किशोर चूत में घुसा, कभी वो मेरे गाल चूमता तो कभी उभारों को चूसता। कुछ देर में मैं खुद ही उसके मोटे खम्भे पर चढ़ उतर रही थी, सरक रही थी, चुद रही थी।


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लेकिन नए खिलाड़ी के साथ असली मजा मिशनरी पोजीशन में ही है- मर्द ऊपर, लड़की नीचे। और कुछ देर में हम दोनों उस हालत में ही थे, वो हचक-हचक के चोद रहा था।

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बाहर बूँदों की रिमझिम थोड़ी हल्की हो गई थी लेकिन चुन्नू के धक्कों में कमी नहीं आई, और मुझे भी सुनील को छेड़ने का मौका मिल गया। उसके पगलाए बौराए लण्ड को कभी मैं अपनी चूचियों के बीच ले के रगड़ती तो कभी मुँह में ले चुभलाती तो कभी चूसती।

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और सुनील भी मेरी चूचियों की, क्लिट की ऐसी की तैसी कर रहा था।

नतीजा ये हुआ की आठ दस मिनट में मैं झड़ने लगी और मेरी झड़ती बुर ने जो चुन्नू के लण्ड को भींचा, निचोड़ा तो वो भी मेरे साथ-साथ, देर तक…


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जब चुन्नू मेरे ऊपर से उठा तो पानी बरसना बंद हो चुका था, बादल थोड़े छंट गए थे, चाँद भी निकल आया था। उसको दूर जाना था था, इसलिए वो निकल गया।
Wow, awesome dear lovely Komal sis👌👌👌
 
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पिछवाड़े पर हमला








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कहीं दूर तेजी से बिजली कड़की, बादल जोर से गरजने लगे।

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बारिश तेज हो गई और बौछार अंदर तक आने लगी। हवा भी एकदम तूफानी हो गई। ढिबरी की लौ लग रहा था अब गई, तब गई, और गरजते बादलों, कड़कती बिजली की आवाज के बीच मेरी चीख दब कर रह गई।

सुनील ने मेरा मुँह भींचने की भी कोशिश नहीं की। बस दोनों हाथों से उसने कस के मेरे गोरे नितम्बों को दबोच के अपना मोटा लौड़ा ठेल दिया।

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गनीमत थी की मैंने अबकी घर से निकलने के पहले ही अच्छी तरह से कड़ुवा तेल अपने पिछवाड़े चुपड़ लिया था, फिर भी, दरेरता रगड़ता फाड़ता जिस तरह से सुनील का मोटा सुपाड़ा मेरी गाण्ड में घुसा, बस मेरी जान नहीं निकली। और मैं जानती थी सुनील के लण्ड का गुस्सा अभी कम नहीं हुआ, इतने देर से मैं उसे तड़पा रही थी। और फिर दूसरा धक्का, तीसरा धक्का, चौथा, और अबकी मेरी गाण्ड का छल्ला भी पार हो गया। मैं चीख रही थी, चिल्ला रही, चूतड़ पटक रही थी पर मैं अब तक सीख गई थी की एक बार सुपाड़ा अंदर घुस जाए बस, बिना गाण्ड मारे सुनील छोड़ने वाला नहीं।

कुछ ही देर में हचक-हचक के मेरी कसी किशोर गाण्ड मारी जा रही। साथ ही सुनील का एक हाथ मेरे उभारों पर पहुँच गया था, जिहे कभी वो दबाता, कभी रगड़ता, मसलता और उस बेरहम का दूसरा हाथ भी बीच-बीच में मेरी बुरिया को, और कभी क्लिट को,



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मेरी हालत खराब थी। दर्द से और उससे ज्यादा मजे से। अब मैं गपागप-गपागप लण्ड घोंट रही थी, मजे से। मजे ले लेकर गाण्ड मरवा रही थी। हर धक्के के जवाब में खुद धक्का मारती तो कभी गाण्ड सिकोड़ के लण्ड अंदर भींच लेती। दो तिहाई से ज्यादा लण्ड अंदर था, मैं कुतिया बनी, निहुरी, चुपचाप गाण्ड मरवा रही थी, कभी चीखती तो कभी सिसकती।



चुन्नु सरक कर हम दोनों के पास बैठ गया था, उसकी आँखें मेरी गाण्ड में सटासट घुसते सुनील के गाण्ड फाड़ू लण्ड पर लगी थीं। बस टुकुर देख रहा था, मुँह खोले। औजार उसका एक बार फिर से टनटनाने लगा था।



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सुनील ने चिढ़ाया- “क्यों बे, गाण्ड मारने का मन कर रहा है क्या? मस्त गाण्ड है साली की। मैंने ही सील खोली थी अभी बस दो तीन दिन पहले…”

मैंने ‘कच्चा केला’ एक झटके में पकड़ लिया, और पूरी ताकत लगाकर चमड़ा खींच दिया तो लाल भभूका सुपाड़ा निकल आया।



सुनील की धुन में धुन मिलाते मैंने छेड़ा-

“अरे ये साल्ला क्या गाण्ड मारेगा। इतना चिकना है, पहले अपनी गाण्ड तो बचा ले। सारे कालेज के लौंडेबाज बल्की पूरे शहर के इसकी सील तोड़ने के पीछे पड़े हैं…”


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बिचारा शर्म से लाल हो गया। बात लेकिन सोलहो आना सही थी और इसलिए इतनी जोर से वो झेंपा भी।

लेकिन मैं उसे और रगड़ रही थी-

“अरे शर्मा काहें रहे हो, ठीक से देख लो लण्ड कैसे लीला जाता है। कितना मजा आता है लण्ड गाण्ड में घोंटने में। सीख ले सीख ले, मेरे भैय्या के साले, गाण्ड मरवाने में बहुत काम आएगा। गाण्ड तो तेरी मारी ही जायेगी…”


सुनील ने चुन्नू को इशारा किया और बोला-

“अरे जो लौंडिया बहुत बोलती है उसको चुप कराने का बस एक ही तरीका है, ठेल दे उसके मुँह में…”

मुँह में तो मेरे भी पानी आ रहा था चुन्नू के तन्नाए कच्चे केले के लिये, और बस वो मेरे मुँह में, और मैं फिर एक साथ दो लड़कों के साथ मजा ले रही थी। जिसने दो लड़कों के साथ मजा लिया है वही इसे समझ सकता है, एक मोटा लण्ड गाण्ड फाड़ रहा था और दूसरा मैं कस-कस के चूस रही थी।



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सुनील ने धक्कों की रफ़्तार दूनी कर दी, अब उसे मेरे चीखने का भी डर जो नहीं था। हर बार वो सुपाड़े तक लण्ड निकाल के पूरी ताकत से गाण्ड में ऐसे ठेलता की लण्ड का बेस सीधे गाण्ड से टकराता। 5-6 मिनट ऐसे धुआंधार चोदने के बाद आधा लण्ड निकाल के अपने हाथ से पकड़ वो गाण्ड लण्ड में गोल-गोल घुमाने लगा।

20 मिनट तक धकापेल मेरी गाण्ड मराई चलती रही और चुन्नू का लण्ड मैं मुँह में लेकर कभी हल्के-हल्के तो कभी जोर से चूसती।


लेकिन सुनील ने फिर पोज बदल दिया और चुन्नू का औजार अब मेरे मुँह से बाहर निकल गया। लण्ड जब पूरे अंदर तक गाण्ड में घुसा था और मैं कुतिया की तरह झुकी थी, उसने मुझे अपने ऊपर खींच लिया और अब वो बैठा था। कुछ देर तक तो वो नीचे से धक्के मारता रहा लेकिन मुझे पता भी नहीं चला कब उसने धक्के मारना बंद कर दिया।


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मैं खुद सुनील के लण्ड पर सरक-सरक कर, ऊपर-नीचे होकर गाण्ड मरवा रही थी।



सुनील सिर्फ मेरी दोनों चूचियों का मजा ले रहा था। ऊपर से चुन्नू से बोला- “देख इसे कहते हैं असली गाण्ड मरवाने वाली, कैसे खुद लण्ड पे उछल-उछलकर लील रही है…”

थोड़ी देर में एक बार मैं फिर कुतिया बनी हुई थी, और सुनील जोर-जोर से गाण्ड मारने लगा, झड़ने के करीब वो भी था और मैं भी। दोनों साथ ही झड़े, और अबकी मैं पुआल पे ऐसी गिरी की बहुत देर तक उसी हालत में पड़ी रही।


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बाहर बारिश तेज हो गई थी। रात भी घिर आई थी, झींगुर, मेंढक की आवाजें बूँदों की आवाजों के साथ आ रही थी।

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काफी देर तक हम तीनों ऐसे ही पड़े रहे, तब सुनील ने बाहर निकाला।
Nice update, lagta hai Chunnu ka bhi number laggega.👌👌👌
 
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बँसवाड़ी में




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सुनील ने छोड़ा नहीं लेकिन कुछ किया भी नहीं। हाँ अब उसका हाथ पकड़ के मैं जल्दी-जल्दी तेज डगर भरते अँधेरे में भी अमराई में काफी दूर निकल आई थी, करीब बाहरी हिस्से में, कुछ देर पे गाँव के घरों की रोशनियां दिखनी शुरू हो गई थी।

लेकिन तभी हवा तेज हुई, सर्र-सर्र घू-घू करते, और पानी की बौछारें भी तलवार की तरह हमारी देह पर पड़ रही थीं। बिजली चमक ही रही थी और लगा कहीं पास में ही बिजली गिरने की आवाज आई। बिजली की कड़कती रोशनी में मैंने एक छप्पर देखा, जिसके नीचे मुश्किल से एक आदमी खड़ा हो सकता है, यहां पर पेड़ भी बहुत गझिन था,


बगल में ही बँसवाड़ी थी, जिससे सटकर ही हम लोगों के घर जाने की एक पगडंडी थी।


मैं वहीं धंस ली, अच्छी तरह मैं भीग गई थी और बौछार तो अभी भी अंदर आ रही थी पर सर पर सीधे पानी गिरना बंद हो गया था।


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सहारे के लिए मैं आम के पेड़ की मोटी टहनी का सहारा लेकर झुकी हुई थी, जिससे सर पर पानी की धार से बचत हो जाए। गर्र कडाक धर्र, जोर की आवाज हुई और पास के एक पुराने पेड़ की एक मोटी डाल भहराकर गिर पड़ी।

“हे अंदर आ जा ना…”

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मैंने सुनील को बुलाया।

पर वो चमकती बिजली की रोशनी में मेरी भीगी देह देखकर, और मैं झुक के इस तरह खड़ी थी की मेरे गीले भीगे नितम्ब खूब उभरकर बाहर निकले थे- “आ न एकदम चिपक के खड़े हो जा मुझसे तो कुछ तो तू भी बारिश से बच जाएगा…”


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वो आ भी गया, चिपक भी गया और बच भी गया पर मैं नहीं बच पाई।

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कब मेरे उठे गीले नितम्बों पर से कपड़े सरके मुझे नहीं मालूम, लेकिन जब उसने खूंटा धँसाना शुरू किया तो मुझे मालुम पड़ा। और तब तक उसकी उंगलियों ने मेरे निपल्स की ये हालत कर दी थी की मैं मना करने वाली हालत में थी ही नहीं, और मैंने मन को ये कह के मनाया की अगर मैं मना भी करती तो कौन वो साला मानता।

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कड़कते बादल के बीच मेरी चीख दब के रह गई। तेज बरसते पानी की आवाज, पेड़ों से गिरती पानी की धार और जमीन पर बहती पानी की आवाज के साथ मेरी चीखें और सिसकियां मिल घुल गई थीं।



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कुछ ही देर में आधे से ज्यादा सुनील का मोटा खूंटा मेरी गाण्ड के अंदर था, और अब मैं भी पीछे धक्के मार-मार के गाण्ड मरवाते, मजा लेते उसका साथ दे रही थी।
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बरसते पानी के सुर ताल के साथ हचक-हचक कर वो मेरी गाण्ड मार रहा था, और फिर अभी कुछ देर पहले ही जो कटोरी भर मलाई उसने मेरी गाण्ड को पिलाई थी, उसकी एक बूँद भी मैंने बाहर नहीं जाने दी थी, बस सटासट गपागप लण्ड अंदर-बाहर हो रहा था। निहुरे हुए दर्द भी हो रहा था और मजे भी आ रहे थे, बार-बार बस कामिनी भाभी की बात याद आ रही थी।



“ननद रानी, आई बात समझ लो, गाण्ड मरवाई का असल मजा तो दर्द में ही है, जेह दिन तुमको उस दर्द में मजा आने लगेगा, तुम एक बार अपनी बुर की खुजली भूल जाओगी लेकिन गाण्ड मरवाना कभी नहीं चोदोगी…” और मेरी अब वही हालत थी।


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सुनील कुछ देर पहले ही तो झडा था मेरी गाण्ड में और उस बार अगर उसने 20-25 मिनट लिए होंगे तो अबकी आधे घंटे से ऊपर हो लेगा।

पहली बार मैं बरसते पानी में, खुली अमराई में सोलहवें सावन का मजा ले रही थी।

सुनील भी न, जिस तेजी से वो मेरी गाण्ड मार रहा था उतनी ही तेजी से उसकी दो उंगलियां मेरी चूत का मंथन कर रही थीं, अंगूठा क्लिट रगड़ रहा था। थोड़ी देर में मैं झड़ने के कगार पर पहुँच गई पर न उसकी उंगलियां रुकीं न मूसल के तरह का लण्ड।



मैं झड़ती रही, वो चोदता रहा गाण्ड मारता रहा। दो बार मैं ऐसे ही झड़ी और जब तीसरी बार मैं झड़ी तो मेरे साथ वो भी देर तक। उसके लण्ड की मलाई मेरी गाण्ड को भरकर, टपक कर मेरी जाँघों को भिगोती बाहर गिर रही थी।


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और जब मैंने आँखें खोली और नोटिस किया की बारिश तो कब की बंद हो चुकी है, और बादलों ने भी अपनी बाहों के बंधन से चांदनी को आजाद कर दिया है, जुन्हाई चारों ओर पसरी पड़ी थी, बँसवाड़ी, घर की ओर जाने वाली पगड़ंडी सब कुछ साफ नजर आ रहे थे और अमराई के बाहर गाँव के घरों की रोशनी भी।

सुनील को देखकर मैं एक बार जोर से शर्माई अपने कपड़े ठीक किये और उससे बोली-

मैं अब चली जाऊँगी।


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उसका घर दूसरी ओर पड़ता था, लेकिन तब भी पगड़ंडी पर वह कुछ देर मेरी साथ चला और जब मैं अमराई के बाहर निकल आई तभी उसने, वो पगड़ंडी पकड़ी जो उसके घर की ओर जाती थी।


मैं कुछ ही दूर चली थी की किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। मैं एक बड़े से पेड़ के नीचे थी, वहां से घर भी दिख रहा था, और मैं जोर से चौंक गई।







ये सुनील तो नहीं हो सकता था, कौन था ये?





















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Sis ab tumhari gadi bhi rear, me hi chal rahi hai, mujhe kahti thi tum.Very nice mixture of sex nd nature.Adbhut 👌👌👌
 
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jhonmilton

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वाह वाह ... चुन्नू ने गांड के सारे चुन्ने निकाल .... बँसवारी में गांड में बांस हो गया । अब देखते है अंधेरे में कौन चूसता है ।
 

komaalrani

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Thanks so much
 
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