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Erotica सोलवां सावन

krishna.ahd

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लौंडे भरौटी के



(आप लोग क्या सोचते हैं कि सिर्फ हम लड़कियां ही माल हो सकती हैं? कतई नहीं। लड़कों को देखकर हम लड़कियां भी आपस में बोलती यही हैं, मस्त माल)



लौंडा भरोटी का था इसमें कोई शक सुबहा की गुंजाइश थी ही नहीं। कद काठी में अब तक गाँव के जिन लड़कों से मिली थी 21 ही रहा होगा, लेकिन सबसे बढ़कर ताकत गजब की लग रही थी उसमें। गुलबिया ने गन्ने के खेत में अभी जो कुछ बताया था, अब साफ लग रहा था की उसमें कुछ बढ़ा-चढ़ा कर एकदम नहीं था।



कामिनी भाभी ने कल रात जो गुर सिखाये थे उसका हल्का सा इश्तेमाल मैंने कर दिया। नजरों के तीर और जोबन का जादू, बस हल्के से तिरछी नजर से उसे देखा और जोबन के उभार की (टाप वैसे भी इतना टाइट था की साइड से पूरा उभार, उसका कड़ापन सब कुछ झलकता था) हल्की सी झलक दिखला दी।



बस वही तो गजब हो गया। वैसे भी मेरे जोबन का जादू गाँव के चाहे लौंडे हाँ या मर्द सबके सर पे चढ़ के बोलता था, लेकिन सिर्फ झलक दिखाने का ये असर… उसका खूंटा सीधे 90° डिग्री का हो गया। क्या लम्बा, क्या मोटा, देखकर मेरी चुनमुनिया चुनचुनाने लगी।



मैं सोच रही थी की गुलबिया ने नहीं देखा लेकिन तब तक एक लड़का, और वो पहले वाले से भी ज्यादा (अगर बसंती की बोली में तो कहूं तो जबरदस्त चोदू) लग रहा था। और उसने अपनी मर्जी साफ-साफ जाहिर कर दी, कपड़े के ऊपर से ही जोर-जोर से वो अपने खूंटे को मसल रहा था। मुझे तो लग रहा था की कहीं ये दोनों, यहीं निहुरा के…



गनीमत थी की गुलबिया ने मुड़ के देख लिया और उसको देखकर एक ने पूछ लिया- “ए भौजी, इतना मस्त सहरी माल ले के, तनी हम लोगन की भी…”



कुछ इशारे से, कुछ बोल के गुलबिया ने बोलके समझा दिया की मिलेगी लेकिन आज नहीं।



और मेरे दिल की धड़कनें कुछ नारमल हुईं, चलो आज का खतरा टला। लेकिन तब तक एक और… मैंने भी जब ये समझ लिया की आज मेरी बच गई। कामिनी भाभी ने जो अगवाड़ा पिछवाड़ा सील किया है और गुलबिया को चेताया है, तो अभी तो कुछ…



और मैंने खुल के अपने तीर चलाने शुरू किये, कभी झुक के जो लौंडे आगे थे उन्होंने सिर्फ उभारों की गहराई नहीं, बल्की कड़ी-कड़ी अपने कबूतरों की चोंचें भी दिखा देती। और पीछे वालों को पिछवाड़े की झलक मिल रही थी। कुछ देर में पांच छ लड़के, और सबके खूंटे खड़े, सब खुल के उसे मसल रहे थे, मुठिया रहे थे।



“अरे जहाँ गुड़ होगा चींटे आएंगे ही…” कह के गुलबिया ने जोर से मेरे गुलाबी गालों पे चिकोटी काटी।



एक बार उन लड़कों की ओर देखा, मुश्कुराई, और बोली- “सामने घर है मेरा, बस अभी गई अभी आई। तोहरे भैया के लिए खरमिटाव लाने जा रही हूँ…”



वो घर जिसपर खपड़ैल वाली छत थी और सामने एक कच्चा कुंआ था, अब हम लोगों की पगड़ंडी के ठीक बगल में आ गया था, मुश्किल से 200 कदम रहा होगा, और गुलबिया उसी घर की ओर मुड़ गई।



और वो लौंडे अब मेरे एकदम पास आ गए। साथ में एकदम खुल के, एक बोला- “अरे गाण्ड तो खूब मारने लायक है…”



“अरे चूची तो देख साली की, निहुरा के दोनों चूची पकड़ के हचक-हचक के मारेंगे इसकी…” दूसरे ने कमेंट मारा।



एक के बाद एक कमेंट, सबके औजार तने। कुछ देर के बाद- “बोल चुदवायेगी?” जो उन सबका लीडर लग रहा था उसने खुल के पूछ लिया।



लेकिन जवाब गुलबिया ने दिया जो बस लौटी ही थी- “अरे चुदवायेगी भी, गाण्ड भी मरवायेगी और लौड़ा भी चूसेगी तुम सबका, बस एक दो दिन में। ये केहू को मना नहीं करती, काहें हमारी प्यारी ननद रानी…”



जवाब मैंने गुलबिया को नहीं उन भरोटी के लौंडों को दिया, ज्जा ज्जा के इशारे से, थोड़ा पलकों को उठा गिरा के, जुबना की झलक दिखा के, और तेजी से गुलबिया के साथ गन्ने के खेत के बगल की पगड़ंडी पर मुड़ पड़ी।



वो सब पीछे रह गए, और कुछ देर चलने के बाद मुझे कुछ याद आया- “यही तो वो पगड़ंडी है, जिसके पास चन्दा ने मुझे छोड़ा था और मुड़ के भरोटी की ओर गई थी…” पगड़ंडी खत्म होते ही बस मुड़ते ही घर दिखाई दे रहा था।



गुलबिया को भी जल्दी थी, मुझे भी। गुलबिया को अपने मर्द को खरमिटाव देने की जल्दी थी और मुझे घर पहुँचने की। दुपहरी ढल रही थी।



बाहर से ही उसने सांकल खटकाई और बसंती निकली, उसने जल्दी जल्दी बंसती को कुछ समझाया। मैंने सुनने को कोशिश नहीं की क्योंकी मुझे मालूम था की गुलबिया क्या बोल रही होगी। वही जो कामिनी भाभी ने बार-बार चेताया था, कल सुबह तक अगवाड़े पिछवाड़े नो एंट्री।



बसंती ने दरवाजा अंदर से बंद किया और आंगन में ही मुझे जोर से अंकवार में भर के भींच लिया, जैसे मैं न जाने कब की बिछुड़ी हूँ।
(आप लोग क्या सोचते हैं कि सिर्फ हम लड़कियां ही माल हो सकती हैं? कतई नहीं। लड़कों को देखकर हम लड़कियां भी आपस में बोलती यही हैं, मस्त माल)

bilkul
 
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krishna.ahd

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बूंदन बूंदन - पहली बारिश का मज़ा




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जब बसंती और चम्पा भाभी मिल जाएं तो हर ननद जानती थी कि सरेंडर के अलावा कोई चारा भी नहीं होता था। सरेंडर करो और जम के मजे लो।

मैंने भी वही किया।

बंसती अपने मुँह से हलवा खिलाती, हँसती खिलखिलाती, मुझे छेड़ती, बोली-

“अरे ननद रानी, आज कूचा कुचाया खाय ला, बेहने (कल) पचा पचाया खाए क मिली…”

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मेरे मन में कामिनी भाभी की बात याद आ गई जो गुलबिया को वो चढ़ा रही थीं और गुलबिया भी हँस के कह रही थी-

“अरे अभी तो आई सात आठ दिन रहेंगी न, रोज बिना नागा खिलाऊँगी, और सीधे से न मनेहें तो जबरदस्ती…”

पूरा नहीं तो कुछ-कुछ मैं भी समझ रही थी उसकी बातें, इधर चम्पा भाभी आँख के इशारे से बसंती को बरज रही थी की वो ऐसी बातें न करें की कहीं मैं बिचक न जाऊँ।


पर बसंती इस समय पूरे मूड में थी। वो कहाँ मानने वाली, एक हाथ से उसने जोर से मेरे निपल को उमेठा, पूरी ताकत से और फिर अपने मुँह से सीधे मेरे मुँह में। मेरा मुँह हलवे से भरा था और वो बोली-

“अरे रानी थोड़ा बहुत जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी, बुरा मत मानना, और बुरा मान भी जाओगी तो कौन हम छोड़ने वाले हैं…”

अब चम्पा भाभी भी बसंती के रंग में रंग गई थीं, मुझे देखकर नजरों से सहलाती, ललचाती बोलीं-

“अरे अइसन कम उमर क लौंडियन क साथ तो, जबरदस्ती में ही… थोड़ा बहुत हाथ गोड़ पटकिहें, चिखिहें चिल्लइहें, तबै तो असली मजा आता है…”


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और देखते-देखते हम तीनों मिल के हलवा चट कर गए।

वास्तव में बहुत स्वादिष्ट था और मुझे भूख भी लगी थी। मैं सच में अपने होंठ चाट रही थी। कड़ाही में कुछ हलवा अभी बचा था, तलछट में लगा। चम्पा भाभी ने बसंती को इशारा किया और मुझे हल्के से धक्का देकर चटाई पे गिरा दिया,मेरी कोमल कलाइयां चम्पा भाभी की मजबूत गिरफत में।



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बंसती ने करो के हलवा निकाला, चम्पा भाभी ने दबा के मेरा मुँह खोलवा दिया, और सीधे बंसती ने सारा का सारा मेरे मुँह के अंदर… हलवा इतना गरम था की, लग रहा था मुँह जल गया।

मैं चिल्लाई- पानी, पानी।

बसंती तो सिर्फ कड़ाही में रसोई से हलवा लाई थी, न ग्लास न पानी।
चम्पा भाभी ने बसंती की देखकर मजे से मुश्कुराया।

“पानी, जल गया, पानी…”

मुश्किल से मैं बोल पा रही थी, दोनों को बारी-बारी से देखते मैंने गुहार लगाई।

“अरे बसंती, पियासे को पानी पिलाने से बहुत पुन्न मिलता है, बेचारी चिल्ला रही है, पिला दे न…” मुश्कुरा के चम्पा भाभी ने बसंती से बोला।

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“और क्या ननद की पियास भौजाई नहीं बुझाएगी तो कौन बुझाएगा? और ये खुदे मांग रही है…”

और बसंती मेरे ऊपर, उसकी दोनों टांगों ने मेरे कंधों बाहों को कस के दबा लिया था, मेरे सर को चम्पा भाभी ने दोनों हाथों से पकड़ लिया था, मैं एक सूत नहीं हिल सकती थी। बसंती ने अपनी साड़ी सरका के कमर तक कर ली, मेरे मुँह से बस कुछ ही दूर।

मेरे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।

“बोलो, ननद रानी, पिला दूँ पानी बहुत पियास लगी है न?” मेरी आँखों में आँखें डाल के पूछा।

मुँह जल रहा था मुश्किल से मेरे मुँह से निकला- पानी।


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सांझ ढल रही थी। सुनहली धूप नीम के पेड़ की फुनगियों से टंगी छन-छन कर नीचे उतर रही थी।

“पिला दूँ, एक बूँद भी लेकिन इधर-उधर हुआ न तो बहुत पीटूंगी…” वो बोली।

पूरी ताकत से उसने मेरे गालों को दबा रखा था और मेरा मुँह खुला हुआ था चिड़िया की तरह। पिघलती सुनहली धूप मेरे ऊपर गिर रही थी जैसे पिघलते सोने की एक-एक बूँद हो, मेरे खुले मुँह में एक सुनहली बूँद बंसती की छलक कर, फिर दूसरी, फिर तीसरी, सीधे…

मैंने दीये की तरह की अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बंद कर लीं। जाँघों के बीच बंसती ने मेरे सर को दबोच रखा था, पहले पिघलता सोना बूँद बूँद फिर, छरर छरर, सुनहली शराब।



“ऐ छिनरो आँख खोल, देख खोल के…”

बसंती जोर से बोली और कस के मेरे निपल नोच लिए।

दर्द से मैं बिलबिला उठी और चट से मेरी आँखें खुल गई, बूँद बूँद बसंती की, बुर से, सीधे मेरे मुँह में। और अब बसंती ने मेरा मुँह सील कर दिया, और फिर तो, जैसे कोई शैम्पेन की बोतल मुँह में लगाकर उड़ेल दे, पूरी की पूरी, एक बार में, घल घल

मैंने कुछ देर मुँह में रोकने की कोशिश की पर बंसती के आगे चलती क्या? एक तो उसने एक हाथ से मेरे निपल को पूरी ताकत से उमेठ दिया, और फिर मेरे नथुनों को दूसरे हाथ से भींच दिया। मुँह उसकी बुर ने सील कर रखा था, पहले ही।

“घोंट, रंडी क जनी, हरामजादी, भड़वे की, घोंट पूरा, वरना एक बूँद साँस को तड़पा दूंगी…”

अपने आप मेरा गला खुल गया, और सब धीमे-धीमे अंदर, चार पांच मिनट तक,

बसंती अभी उठी भी नहीं थी की बाहर से सांकल खटकाने की आवाज आई। साड़ी का यही फायदा है, बसंती सिर्फ खड़ी हो गई और साड़ी ने सब कुछ ढँक लिया।

बाहर गुलबिया थी, बसंती की बुलाने आई थी। बिंदु सिंह की बछिया बियाने वाली थी इसलिए उसको और बसंती को बुलाया था। गुलबिया अंदर तो नहीं आई लेकिन जिस तरह से वो मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी, ये साफ था की वो समझ गई थी कि बसंती मेरे साथ क्या कर रही थी?

उसने ये भी बोला- “भाभी और उनकी माँ गाँव में तो आ गई है लेकिन वो लोग दिनेश के यहाँ रुकी है, और उन्होंने कहलवाया है की वो लोग आठ बजे के बाद ही आएंगी, इसलिए खाना बना लें और मैंने खाना खा लूँ, उन लोगों का इन्तजार न करूँ…”



बादल एक बार फिर से घिर रहे थे, एक बार फिर दरवाजे से झाँक के बंसती ने मुझे देखकर मुश्कुराते हुए बोला- “घबड़ाना मत, घंटे भर में आ जाऊँगी…” और गुलबिया के साथ चल दी।

जिस तरह से वो गुलबिया से बतिया रही थी, ये साफ लग रहा थी की उसने सब कुछ,

और मैंने चम्पा भाभी की ओर देखा। मुझे लगा की शायद वो मुझे चिढ़ाए, खिझाएं, लेकिन, बस उन्होंने मेरी ओर देखा और मुश्कुरा दीं। और मैंने शर्माकर आँखें नीचे कर लीं।
जैसे कोई शैम्पेन की बोतल मुँह में लगाकर उड़ेल दे,
YEH EXPERIENCE KABHI NAHI KIYA
KOI TO BATA DE , KAISA HOTA HAI ?
 

krishna.ahd

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there are certain things i wanted to say but never said, because i feared it will not be taken in the right spirit. But you are the first to have noticed it, and i have read a lot of your posts and work and it has spurred me to say it.

You are absolutely right.

We are all armature writers here but it does not give us a license to be amateurish. I feel there must be a thread where we can candidly discuss architecture of the story and especially for those who are just starting more as hand holding rather than a stern criticism. May be even in some existing thread itself.

You are correct about the paragraph and breaks. Earlier it used to be very long paragraph and breaks will be artificial. But i learned from two things, One was books i used to read,... i learned to read them not only for the story or enjoying them but to understand the structure, architecture and flow. In most of the stories, conversations came separately, in individual lines. most of the time, if there are only two persons talking, it is not mentioned who is speaking as its clear from the context. Second source was reading my own stories and realizing how bad i write.

another thing i realized was the concept of time and place and brining them indirectly, rather than writing that its a background of village and evening has ushered. I learned that one must describe it from the eyes of character, like in this post itself. Its the age nature and mood of character will decide how the time and place is described. Like here evening is described from the eyes of a young teen who is not from the village and is enjoying her sojourn,...

शाम ढले चम्पा भाभी ने आँखें ऊपर करके चढ़ते बादलों को देखा और जैसे घबड़ा के बोलीं-....



आगे आगे वो और पीछे-पीछे मैं धड़धड़ाते सीढ़ी से चढ़कर छत पर पहुँच गए। भाभी का घर गाँव के उन गिने चुने 10-12 घरों में था जहां पक्की छत थी। और उनमें भी उनके घर की छत सबसे ऊँची थी। और वहां से करीब-करीब पूरा गाँव, खेत बगीचे और दूर पतली चांदी की हंसुली सी नदी भी नजर आती थी।

वास्तव में काम बहुत फैला था। छत पर बड़ी सुखाने के लिए डाली हुई थी, कपड़े और भी बहुत कुछ। आज बहुत दिन बाद इतना चटक घाम निकला था इसलिए, लेकिन अब मुझे और चम्पा भाभी को सब समेटना था, नीचे ले जाना था। हम दोनों लग गए काम पे। पहले तो हम दोनों ने बड़ी समेटी और फिर भाभी उसे नीचे ले गई। और मैं डारे पर से कपड़े उतारने लगी। बादल तेजी से बढ़े चले आ रहे थे।

I was trying to paint a picture of domesticity, what happens when rain is impending,...

but it takes a discerning eye like you to identify it and applaud it, how lucky i am that you grace my threads,....
इसीलिए तो और भी ज्यादा रोचक हो जाता है , पढ़ने में
थैंक यू कोमल जी ( और नयना जी को भी )
 
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krishna.ahd

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गुड्डी तो जबरदस्त है.. चार-चार को एक साथ संभाल सकती है..
भाभी की माँ और कामिनी भाभी तो विशेषज्ञ हैं..
गुड्डी यहाँ से PHD करके हीं शहर जाएगी..
और शहर में रविंद्र भी तो है...जो अभी तक का सबसे लंबा और बलिष्ठ है(चंदा के अनुसार)..
लेकिन बीच-बीच में चंदा की झलकी (और उस जैसी गाँव की कमसिन किशोरियों की भी, जैसे सुनील की बहन इत्यादि) भी मिलती रहे
तो variety हों जाएगी (गाँव की लड़कियों की आपसी चुहलबाजी) और खलिहानों (जहाँ फसल काट केु शुरु में रखते है.) में भी बहुत मौके और जगह होती है..
नाम कोमल है गुड्डी का , तो आप ही सोच लो
 
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(आप लोग क्या सोचते हैं कि सिर्फ हम लड़कियां ही माल हो सकती हैं? कतई नहीं। लड़कों को देखकर हम लड़कियां भी आपस में बोलती यही हैं, मस्त माल)

bilkul
thanks .....
 
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इसीलिए तो और भी ज्यादा रोचक हो जाता है , पढ़ने में
थैंक यू कोमल जी ( और नयना जी को भी )
Thanks ham dono ki oar se
 

krishna.ahd

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Kahin aur jaane ki sochiyegaa bhi mat,... aapne rishta aisa bana liya hai, andar bahar dono or se sanakal kaga dungi kas ke,.... meri tin story chal rahi hain , tinon par aap ki regular presence aur comments
कही और जाने का मतलब ही नहीं
ऐसे इरोटिक स्टोरी छोड़कर कहा जाए ?
यह नशा उतर ही नही रही
 

komaalrani

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कही और जाने का मतलब ही नहीं
ऐसे इरोटिक स्टोरी छोड़कर कहा जाए ?
यह नशा उतर ही नही रही
वो नशा क्या जो उतर जाये,

बल्कि नशा वो जो सर पे चढ़कर बोले,



गाँव हो , सावन हो , कच्ची अमिया हो, गन्ने के खेत और अमराई हों,

छेड़खानी करती भौजाइयां हो, जवानी की दहलीज पर खड़ी अंगड़ाई लेती,...

और तब भी अगर नशा उतर जाए,


और जिसने गाँव में माटी की महक सूंघी है, कोल्हू का पेरा ताजा गुड़ और राब खाया है , कुंए का पानी पिया है , उसके लिए तो ये नशा दूना होगा।
 
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