अपडेट 1
“अंकल जी,” अजय अंदर ही अंदर पूरी तरह से हिला हुआ था, लेकिन फिर भी ऊपर से स्वयं को संयत दिखाने का पूरा प्रयास कर रहा था कि उस बूढ़े आदमी को डर न महसूस हो, “आप चिंता मत करिए... मैंने इमरजेंसी पर कॉल कर दिया है... एम्बुलेंस बस आती ही होगी!”
बूढ़ा आदमी बहुत मुश्किल से साँसे ले पा रहा था। उसका पूरा शरीर पसीने से भीगा हुआ था और उसके चेहरे पर पीड़ा वाले भाव थे। अजय ने उसको अपनी बोतल से पानी पिलाने की कोशिश करी भी थी, लेकिन वो बस दो तीन छोटी घूँट भर कर रह गया।
दोपहर की कड़ी, चिलचिलाती धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी, इसलिए वो अपनी आँखें भी ठीक से नहीं खोल पा रहा था। अजय ने यह देखा। घोर आश्चर्य की बात थी कि इन पंद्रह मिनटों में कई सारी गाड़ियाँ उनके सामने से चली गई थीं, लेकिन अभी तक एक ने भी अपना वाहन रोक कर माज़रा जानने की ज़हमत नहीं उठाई थी। दुनिया ऐसी ही तो है!
यह देख कर अजय समझ गया कि जो करना है, उसको खुद से ही करना है। उसका खुद का दाहिना कन्धा अपने जोड़ से थोड़ा हट गया था, लेकिन फिर भी उसने अपनी सारी ताक़त इकट्ठा करी और बूढ़े को अपनी बाँहों में उठा लिया। पीड़ा की एक तीव्र लहर उसके दाहिने कन्धे से उठ कर मानों पूरे शरीर में फ़ैल गई। लेकिन उसने कोशिश कर के अपनी ‘आह’ को दबा लिया।
‘बस पाँच छः स्टेप्स (कदम), और फिर कोई प्रॉब्लम नहीं!’ उसने सोचा और बूढ़े को अपनी बाँहों में लिए अपना पहला कदम बढ़ाया।
अजय एक ‘क्लासिक अंडरअचीवर’ था। उसको अपने जीवन में अपनी प्रतिभा और क्षमता के हिसाब से बहुत ही कम सफ़लता मिली थी - इतनी कि उसको समाज एक ‘असफ़ल’ व्यक्ति या फिर एक ‘फेलियर’ कहता था। कम से कम उसके दोस्त तो यही कहते थे!
एक समय था जब उसके कॉलेज में उसके दोस्त और उसके शिक्षक सभी सोचते थे कि अगर आईआईटी न सही, वो एक दिन किसी न किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज - जैसे रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज - में तो जाएगा ही जाएगा! उसके आस पड़ोस की आंटियाँ सोचती थीं कि उनके बच्चे अजय के जैसे हों। लेकिन ऊपरवाले ने उसकी तक़दीर न जाने किस क़लम से लिखी हुई थी। एक के बाद एक विपत्तियों और असफ़लताओं ने उसको तोड़ कर रख दिया था। ठीक कॉलेज से इंजीनियरिंग करना तो छोड़िए, इंजीनियरिंग कर पाना भी दूर का सपना बन गया। लिहाज़ा, मन मार कर उसको बीएससी और फ़िर ऍमसीए की डिग्री से ही समझौता करना पड़ा। आज तक उसकी एक भी ढंग की नौकरी नहीं लगी - एक आईटी कंपनी में नौकरी लगी थी, लेकिन वो दुर्भाग्यवश छूट गई। फिर, कभी किसी स्कूल में टीचर, तो कभी इंश्योरेंस एजेंट, तो कभी एमवे जैसी स्कीमें! कुछ बड़ा करने की चाह, कुछ हासिल कर पाने ही चाह दिन-ब-दिन बौनी होती जा रही थी।
वो बूढ़े को अपनी बाँहों में उठाये पाँच छः कदम चल तो लिया, लेकिन अभी भी छाँव दूर थी। ऐसी चटक धूप में छाँव भी चट्टानों और पेड़ों के ठीक नीचे ही मिलती है। उसको लग रहा था कि अब उसका हाथ टूट कर गिर जाएगा। लेकिन वैसा होने पर उस बूढ़े को अभूतपूर्ण हानि होनी तय थी। जैसे तैसे तीन चार ‘और’ कदम की दूरी तय करनी ही थी। अजय ने गहरी साँस भरी, और आगे चल पड़ा।
संयोग भी देखिए - आज 'एमवे' की मीटिंग थी मुंबई में। उसी के सिलसिले में वो अपने पुणे वाले घर से निकला था मुंबई को। जब उसने मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे पकड़ा, तब उसको लगा था कि आज तो आराम से पहुँच जाएगा वो! सामान्य दिनों के मुकाबले आज ट्रैफिक का नामोनिशान ही नहीं था जैसे। लेकिन फिर उसने अपने सामने वाली गाड़ी को देखा - बहुत अजीब तरीक़े से चला रहा था उसका ड्राइवर। कभी इस लेन में, तो कभी उस लेन में। लोगों में ड्राइविंग करने की तमीज़ नहीं है, लेकिन ऐसा गड़बड़ तो कम ही लोग चलाते हैं। कहीं ड्राइवर को कोई समस्या तो नहीं है - यह सोच कर न जाने क्यों अजय उस गाड़ी से कुछ दूरी बना कर उसके पीछे ही चलने लगा।
कुछ ही क्षणों में उसकी शंका सच साबित हुई।
अचानक से ही सामने वाली गाड़ी सड़क के बीचों-बीच चीख़ती हुई सी रुक गई - कुछ ऐसे कि लेन के समान्तर नहीं, बल्कि लेन के लंबवत। यह स्थिति ठीक नहीं थी। फिलहाल ट्रैफिक बहुत हल्का था - बस इक्का दुक्का गाड़ियाँ ही निकली थीं उसके सामने से, लेकिन यह स्थिति कभी भी बदल सकती थी। उसने जल्दी से अपनी गाड़ी सड़क के किनारे पार्क करी और भाग कर अपने सामने वाली गाड़ी की तरफ़ गया। यह बहुत ही डरावनी स्थिति थी - सौ किलोमीटर प्रति घण्टे वाली सड़क पर पैदल चलना - मतलब जानलेवा दुर्घटना को न्यौता देना। लेकिन क्या करता वो!
जब उसने उस गाड़ी में झाँक कर देखा तो पाया कि एक बूढ़ा आदमी पसीने पसीने हो कर, अपना सीना पकड़े, पीड़ा वाले भाव लिए अपनी सीट पर लुढ़का हुआ था। उसकी साँस उखड़ गई थी और दिल की धड़कन क्षीण हो गई थी। उसको देख कर लग रहा था कि उसको अभी अभी हृदयघात हुआ था। अजय ने जल्दी से बूढ़े को ड्राइवर की सीट से हटा कर पैसेंजर सीट पर बैठाया, और ख़ुद उसकी कर को ड्राइव कर के अपनी कार के ही पीछे पार्क कर दिया। एक मुसीबत कम हुई थी... अब बारी थी बूढ़े को बचाने की। हाँलाकि अजय को थोड़ा ही ज्ञान था, लेकिन उसने बूढ़े को कार्डिओपल्मोनरी रिसुसिटेशन चिकित्सा, जिसको अंग्रेज़ी में सीपीआर कहा जाता है, दिया।
जैसा फ़िल्मों में दिखाते हैं, वैसा नहीं होता सीपीआर! उसमें इतना बल लगता है कि कभी कभी चिकित्सा प्राप्त करने वाले की पसलियाँ चटक जाती हैं। वो बूढ़ा आदमी कमज़ोर था - इसलिए उसकी भी कई पसलियाँ चटक गईं। नुक़सान तो हुआ था, लेकिन फिलहाल उसकी जान बच गई लग रही थी। इस पूरी चिकित्सा में अजय के दाहिना कन्धा अपने स्थान से थोड़ा निकल गया!
छाँव तक जाते जाते अजय की खुद की साँसें उखड़ गईं थीं। उसको ऐसा लग रहा था कि कहीं उसको भी हृदयघात न हो जाए! उसने सावधानीपूर्वक बूढ़े को ज़मीन पर लिटाया। बूढ़ा दर्द के मारे दोहरा हो गया। अजय की हालत भी ठीक नहीं थी। लेकिन,
“अंकल जी,” उसने बूढ़े से पूछा, “अब आपको कैसा लग रहा है?”
“ब... बेटा...” बूढ़े ने बड़ी मुश्किल से टूटी फूटी आवाज़ में कहा, “तुम...ने ब...चा... लिया म...मुझे...”
“नहीं अंकल जी,” अजय ने सामान्य शिष्टाचार दिखाते हुए कहा, “ऐसा कुछ नहीं है! ... और आप भी... थोड़ा आराम कर लीजिए।”
बूढ़ा अल्पहास में हँसा और तुरंत ही अपनी इस हरक़त पर उसको पछतावा हो आया। हँसी के कारण उसको अपने पूरे शरीर में तीव्र पीड़ा महसूस हुई। लेकिन फिर भी वो बोला,
“अब इस बूढ़े की ज़िन्दगी में आराम ही आराम है बेटे,” उसने मुश्किल से कहा, “बयासी साल का हो गया हूँ... अपना कहने को कोई है नहीं यहाँ! ... जो अपने थे, वो विदेश में हैं।”
“आपके पास उनका नंबर तो होगा ही न!” अजय ने उत्साह से कहा, “मैं कॉल कर देता हूँ? आपका मोबाइल कार में ही होगा न?”
वो मुस्कुराया, “नहीं बेटे... तुम मेरे पास बैठो। उनको मेरी ज़रुरत नहीं है अब! ... तुमने बीस मिनट में मेरे लिए इतना कुछ कर दिया, जो उन्होंने मेरे लिए बीस साल में नहीं किया!”
अजय फ़ीकी हँसी में हँसा। यही तो नियम है संसार का। काम बन जाए, तो क्या बाप? क्या माँ?
लेकिन उसको अपने माँ बाप की कमी महसूस होती थी। उनको गए लगभग पंद्रह साल होने को आए थे अब! दोनों के इंश्योरेंस थे और अजय को उनकी मृत्यु पर इंश्योरेंस के रुपए भी मिले। लेकिन अधिकतर रक़म उसके पापा के देनदारों को अदा करने में चली गई। अपने जीते जी, वो अपने माँ बाप का नाम ख़राब नहीं कर सकता था।
“... और मेरी बदक़िस्मती देखिए न अंकल जी,” उसने निराशापूर्वक कहा, “मैं अपने माँ बाप के लिए कुछ कर नहीं सकता!”
“क्या हुआ उनको बेटे?”
“अब वो इस दुनिया में नहीं हैं अंकल जी,”
“दुःख हुआ जान कर!”
“कोई बात नहीं अंकल जी,” उसने गहरी साँस भरी, “... आपका नाम क्या है?”
“प्रजापति...” बूढ़े ने बताया, “मैं प्रजापति हूँ,” फिर उसने पूछा, “और तुम बेटे?”
“जी मेरा नाम अजय है...” अजय ने कहा, और पानी की बोतल बूढ़े के होंठों से लगाते हुए बोला, “लीजिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...”
“अजय बेटे, तुम बहुत अच्छे हो!” बूढ़े ने इस बार अच्छी तरह से पानी पिया, “माफ़ करना, बहुत प्यास लगी थी... तुम्हारे लिए कुछ बचा ही नहीं!”
अजय ने मुस्कुरा कर कहा, “अंकल जी, आप सोचिए नहीं! वैसे भी आपकी ज़रुरत मुझसे अधिक थी।”
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