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Romance फ़िर से

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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दोस्तों - इस अपडेट सूची को स्टिकी पोस्ट बना रहा हूँ!
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि केवल पहनी पढ़ कर निकल लें। यह केवल आपकी सुविधा के लिए है। चर्चा बंद नहीं होनी चाहिए :)


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parkas

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अजय ने अपनी कलाई की घड़ी को देखा, “इमरजेंसी सर्विस न जाने कब आएगी!”

“आ जाएगी बच्चे!” प्रजापति ने मुस्कुरा कर अपनी टूटी फूटी दर्द-भरी आवाज़ में कहा, “... मैं बहुत बोल नहीं पाऊँगा... तकलीफ़ होती है। तुम ही सब कहो! अपने बारे में बताओ कुछ...”

“क्या है बताने को अंकल जी? कुछ भी नहीं!”

“अरे! ऐसे न कहो बेटे! अपने रक्षक के बारे में जानने का कुछ तो हक़ है न मुझे?”

“हा हा हा... रक्षक! क्या अंकल जी!” अजय ने हँसते हँसते कहा, “ठीक है, कहता हूँ!”

“हम दिल्ली में रहते थे... हम, मतलब मेरे मम्मी पापा... मैं... और मेरे काका ताई!” अजय ने बताना शुरू किया, “पापा का बिज़नेस था, जो उन्होंने मम्मी के साथ शुरू किया था। मम्मी तब चल बसीं जब मैं पंद्रह साल का था। ... एक्चुअली, एक रोड एक्सीडेंट में माँ और काका चल बसे।”

प्रजापति ने सहानुभूति में सर हिलाया।

“फिर पापा ने ख़ुद को काम में झोंक दिया। ... लेकिन उनकी किस्मत ऐसी ख़राब निकली कि कई सालों तक बिज़नेस में उनको नुक़सान उठाना पड़ा। बहुत टेंशन में थे वो... एक दिन उसी के चलते उनको हार्ट अटैक हुआ और वो चल बसे!”

“आई ऍम सो सॉरी बेटे... इतनी कम उम्र में माँ बाप को खोना...” प्रजापति ने सर हिलाते हुए कहा, “और तुम?”

“जी कुछ भी ख़ास नहीं! बस, ऍमसीए करने के बाद छोटी मोटी नौकरियाँ करता रहा हूँ... अभी भी स्ट्रगल चल रहा है! घर में बस ताई जी हैं... तो वो ही मेरा परिवार हैं!”

“उनके बच्चे हैं?”

“एक बेटा है उनका... अमेरिका में! लेकिन वो अपने में ही खुश हैं!”

“शादी?”

“हाँ... उनकी शादी हो गई है!”

बूढ़ा बहुत मुश्किल से मुस्कुराया, “नहीं... तुम्हारी...”

अजय ने फ़ीकी हँसी हँसते हुए कहा, “हाँ... हुई थी शादी... लेकिन उसकी याद न ही करूँ तो बेहतर!”

“क्या हुआ?”

“होना क्या है अंकल जी... वही जो आज कल हर रोज़ हज़ारों आदमियों के साथ हो रहा है! ... उसने ताई जी और मुझ पर दहेज़ और डोमेस्टिक वायलेंस का झूठा केस लगा दिया!”

कहते हुए उसके मन में कड़वी यादें ताज़ा हो गईं!

रागिनी... उसकी पत्नी -- नहीं, भूतपूर्व पत्नी... एक्स वाइफ... के साथ बिताया गया एक एक पल जैसे नश्तर पर चलने के समान था। विदा हो कर आते ही उसने गिरगिट की तरह रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। परिवार को तोड़ने की हर कला में निपुण थी वो! ऊपर से देश का कानून - दफ़ा 498A की बलि-वेदी पर अनगिनत भारतीय पुरुषों की बलि चढ़ चुकी है... एक उसकी भी सही!

“ऐसे में कोई कुछ सुनता थोड़े ही है! ... उसके चलते हम दोनों को तीन साल जेल में रहना पड़ा। न कोई सुनवाई न कुछ! ... डिवोर्स के सेटलमेंट में पापा का घर उसने हड़प लिया। ... बाद में दहेज़ का केस झूठा साबित हुआ... वायलेंस का भी... लेकिन तब तक हमारा सब कुछ बर्बाद हो गया था। वो सब होने से पहले वो पापा का घर भी बेच कर, सब कुछ सफ़ाचट कर के चम्पत हो गई... पुलिस को उसको ढूंढने में कोई इंटरेस्ट नहीं था। ... बस... इस तरह पीछे रह गए बस माँ और मैं!”

यह सब याद कर के अजय का मन खट्टा हो गया, “... जेल जाने के कारण जो छोटे मोटे काम मिलते थे, वो भी बंद हो गए। अब बस जैसे तैसे दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता है, बस!”

प्रजापति ने निराशा में अपना सर झुका लिया, “क्या हो गया है समाज को... संसार को! हर तरफ़ बस नीचता ही नीचता!”

“हा हा! समाज और संसार को हम बदल तो नहीं सकते न अंकल जी!”

“तो क्या बदलना चाहते हो?” प्रजापति ने पूरी सहानुभूति से पूछा, “अगर उस लड़की... मतलब तुम्हारी बीवी से फिर से मुलाक़ात हो जाए, तो बदला लोगे उससे?”

“आपको क्या लगता है? इतना कुछ हो जाने के बाद मैं उसकी शक्ल भी देखना चाहूँगा?”

“फ़िर?”

“नहीं अंकल जी... मैं वैसी ज़हरीली सी लड़की फ़िर कभी भी अपनी ज़िन्दगी में देखना नहीं चाहूँगा... न ही कभी देखना और न ही कभी मिलना! कम से कम ये तो होना ही चाहिए!”

प्रजापति ने मुस्कुराते हुए कहा, “वो भी ठीक बात है! फिर क्या चाहते हो?”

“अंकल जी,” अजय ने कुछ देर सोचते हुए कहा, “एक मौका चाहता हूँ बस... एक मौका कि जो कुछ जानता हूँ, काश उसका एक बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल कर सकता... काश कि अपने पापा, अपनी मम्मी के लिए कुछ कर सकता! ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी दे सकता...”

“अपनी ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी तो अभी भी दे सकते हो!”

इस बात पर अजय चुप रहा, और ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“... तो सच में... क्या चाहते हो?”

“अपने पापा को थोड़ी ख़ुशी देना चाहता हूँ, अंकल जी... मैं यह अक्सर ही सोचता हूँ कि काश एक मौका मिल जाए कि उनको थोड़ी खुशियाँ दे सकूँ... उन्होंने बहुत कुछ किया मेरे लिए, लेकिन मैं ही कुछ न कर सका...”

बहुत कुछ कहना चाहता था अजय, लेकिन शब्द मौन हो गए। इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन उसने जब ठहर कर सोचा, तो बस इतना ही तो चाहता था वो!

“बीता हुआ समय वापस नहीं आता न बेटे,” प्रजापति ने जैसे समझाते हुए कहा।

“जी अंकल जी... बीता हुआ समय वापस नहीं आता!”

अजय ने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए कहा।

उसी समय एम्बुलेंस की आवाज़ आती हुई सुनाई देने लगी। अजय ने अपनी घड़ी में देखा,

“अंकल जी, एम्बुलेंस आने ही वाली है! आप घबराइएगा नहीं। सब ठीक हो जाएगा!”

प्रजापति मुस्कुराए, “तुम बहुत अच्छे हो, अजय बेटे! ... अपनी अच्छाई बनाए रखना!” कह कर उन्होंने अपना झुर्रियों से भरा हाथ अजय के सर पर फिराया, “... और अपना ध्यान रखना बेटे... अपने पथ से डिगना मत! जो सोचा हुआ है, वो करना... और मतिभ्रम न होने देना...!” प्रजापति की आवाज़ धीमी पड़ रही थी - लेकिन उनकी आँखों की चमक बरक़रार!

“थैंक यू अंकल जी,” अजय मुस्कुराते हुए बोला, “लेकिन आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आप मुझे बाय बाय कर रहे हैं! ऐसे नहीं छोड़ूँगा आपको... हॉस्पिटल चल रहा हूँ आपके साथ, और आपको देखने रोज़ आता रहूँगा...”

इतना कह कर अजय अपनी जगह से उठ कर सड़क के किनारे खड़ा हो गया, और हाथ हिलाने लगा, जिससे कि आती हुई एम्बुलेंस उसको देख सके।

कोई मिनट भर में ही एम्बुलेंस उसके सामने आ खड़ी हुई। एक नर्स और एक पैरामेडिक तेजी से एम्बुलेंस से उतरे, और उनकी तरफ़ बढ़े। अजय को राहत हुई... समय व्यय हुआ, लेकिन कम से कम प्रजापति जी को समुचित चिकित्सा तो मिल ही सकती है। अजय ने इशारा कर के नर्स और पैरामेडिक को मरीज़ की तरफ़ जाने को कहा।

पैरामेडिक ने स्टेथोस्कोप लगा कर प्रजापति जी की हृदयगति नापी और बड़ी विचित्र दृष्टि से अजय की तरफ़ देखा।

“क्या हुआ?” अजय ने आशंकित होते हुए पैरामेडिक से पूछा।

“ही इस नो मोर...”

“क्या?!” अजय इस खुलासे पर चौंक गया, “... लेकिन आप लोगों के आने के एक मिनट पहले तक ही तो मैं इनसे बात कर रहा था! ऐसे कैसे...?” वो भाग कर प्रजापति जी के पास पहुँचा।

उसने देखा कि प्रजापति जी वाक़ई बड़े सुकून से अपनी चिर-निद्रा को प्राप्त हो गए थे।

“मतलब इतना सब किया वो सब बेकार गया!” वो बड़बड़ाया।

“जी?” पैरामेडिक ने पूछा।

“जी, मैंने इनको सीपीआर दिया था...” अजय की आँखों में आँसू आ गए, “हमने कुछ देर तक बातें भी करीं! ... मुझे तो लगा था कि...”

“आई ऍम सॉरी,” पैरामेडिक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, “लेकिन इतनी एडवांस्ड एज में कुछ भी हो सकता है... इन्होने आपको कुछ बताया? कोई रिलेटिव या कोई और... जिनको हम इत्तला दे सकते हैं?”

“बता रहे थे कि इनके बच्चे विदेश में रहते हैं... कहाँ, वो मुझको बताया नहीं।”

“इनके पर्सनल इफेक्ट्स में कोई इन्फॉर्मेशन मिल सकती है,” कह कर उसने प्रजापति जी की कार की तलाशी लेनी शुरू कर दी।

कुछ देर बाद उसने निराश हो कर कहा, “... फ़ोन भी नहीं है!”

फिर उनका बटुआ निकाल कर बोला, “विश्वकर्मा प्रजापति... पुणे में रहते हैं... थे...”

कुछ देर तक वो प्रशासनिक काम करता रहा, फिर अजय से बोला, “आप अपना कांटेक्ट दे दीजिए... वैसे तो आपको कांटेक्ट करने की कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर पुलिस को कोई ज़रुरत हुई, तो आपको कांटेक्ट करेंगे!”

“ठीक है...” अजय ने कहा, और अपना नाम पता और फ़ोन नंबर लिखवाने लगा।

इस पूरे काम में बहुत समय लग गया था, और मीटिंग के लिए पहुँचने में बहुत देर लगने वाली थी। अब मुंबई जाने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए अजय वापस पुणे की तरफ़ हो लिया।


**
Bahut hi shaandar update diya hai avsji bhai....
Nice and lovely update....
 

avsji

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dhparikh

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अपडेट 1


“अंकल जी,” अजय अंदर ही अंदर पूरी तरह से हिला हुआ था, लेकिन फिर भी ऊपर से स्वयं को संयत दिखाने का पूरा प्रयास कर रहा था कि उस बूढ़े आदमी को डर न महसूस हो, “आप चिंता मत करिए... मैंने इमरजेंसी पर कॉल कर दिया है... एम्बुलेंस बस आती ही होगी!”

बूढ़ा आदमी बहुत मुश्किल से साँसे ले पा रहा था। उसका पूरा शरीर पसीने से भीगा हुआ था और उसके चेहरे पर पीड़ा वाले भाव थे। अजय ने उसको अपनी बोतल से पानी पिलाने की कोशिश करी भी थी, लेकिन वो बस दो तीन छोटी घूँट भर कर रह गया।

दोपहर की कड़ी, चिलचिलाती धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी, इसलिए वो अपनी आँखें भी ठीक से नहीं खोल पा रहा था। अजय ने यह देखा। घोर आश्चर्य की बात थी कि इन पंद्रह मिनटों में कई सारी गाड़ियाँ उनके सामने से चली गई थीं, लेकिन अभी तक एक ने भी अपना वाहन रोक कर माज़रा जानने की ज़हमत नहीं उठाई थी। दुनिया ऐसी ही तो है!

यह देख कर अजय समझ गया कि जो करना है, उसको खुद से ही करना है। उसका खुद का दाहिना कन्धा अपने जोड़ से थोड़ा हट गया था, लेकिन फिर भी उसने अपनी सारी ताक़त इकट्ठा करी और बूढ़े को अपनी बाँहों में उठा लिया। पीड़ा की एक तीव्र लहर उसके दाहिने कन्धे से उठ कर मानों पूरे शरीर में फ़ैल गई। लेकिन उसने कोशिश कर के अपनी ‘आह’ को दबा लिया।

‘बस पाँच छः स्टेप्स (कदम), और फिर कोई प्रॉब्लम नहीं!’ उसने सोचा और बूढ़े को अपनी बाँहों में लिए अपना पहला कदम बढ़ाया।

अजय एक ‘क्लासिक अंडरअचीवर’ था। उसको अपने जीवन में अपनी प्रतिभा और क्षमता के हिसाब से बहुत ही कम सफ़लता मिली थी - इतनी कि उसको समाज एक ‘असफ़ल’ व्यक्ति या फिर एक ‘फेलियर’ कहता था। कम से कम उसके दोस्त तो यही कहते थे!

एक समय था जब उसके कॉलेज में उसके दोस्त और उसके शिक्षक सभी सोचते थे कि अगर आईआईटी न सही, वो एक दिन किसी न किसी अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज - जैसे रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज - में तो जाएगा ही जाएगा! उसके आस पड़ोस की आंटियाँ सोचती थीं कि उनके बच्चे अजय के जैसे हों। लेकिन ऊपरवाले ने उसकी तक़दीर न जाने किस क़लम से लिखी हुई थी। एक के बाद एक विपत्तियों और असफ़लताओं ने उसको तोड़ कर रख दिया था। ठीक कॉलेज से इंजीनियरिंग करना तो छोड़िए, इंजीनियरिंग कर पाना भी दूर का सपना बन गया। लिहाज़ा, मन मार कर उसको बीएससी और फ़िर ऍमसीए की डिग्री से ही समझौता करना पड़ा। आज तक उसकी एक भी ढंग की नौकरी नहीं लगी - एक आईटी कंपनी में नौकरी लगी थी, लेकिन वो दुर्भाग्यवश छूट गई। फिर, कभी किसी स्कूल में टीचर, तो कभी इंश्योरेंस एजेंट, तो कभी एमवे जैसी स्कीमें! कुछ बड़ा करने की चाह, कुछ हासिल कर पाने ही चाह दिन-ब-दिन बौनी होती जा रही थी।

वो बूढ़े को अपनी बाँहों में उठाये पाँच छः कदम चल तो लिया, लेकिन अभी भी छाँव दूर थी। ऐसी चटक धूप में छाँव भी चट्टानों और पेड़ों के ठीक नीचे ही मिलती है। उसको लग रहा था कि अब उसका हाथ टूट कर गिर जाएगा। लेकिन वैसा होने पर उस बूढ़े को अभूतपूर्ण हानि होनी तय थी। जैसे तैसे तीन चार ‘और’ कदम की दूरी तय करनी ही थी। अजय ने गहरी साँस भरी, और आगे चल पड़ा।

संयोग भी देखिए - आज 'एमवे' की मीटिंग थी मुंबई में। उसी के सिलसिले में वो अपने पुणे वाले घर से निकला था मुंबई को। जब उसने मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे पकड़ा, तब उसको लगा था कि आज तो आराम से पहुँच जाएगा वो! सामान्य दिनों के मुकाबले आज ट्रैफिक का नामोनिशान ही नहीं था जैसे। लेकिन फिर उसने अपने सामने वाली गाड़ी को देखा - बहुत अजीब तरीक़े से चला रहा था उसका ड्राइवर। कभी इस लेन में, तो कभी उस लेन में। लोगों में ड्राइविंग करने की तमीज़ नहीं है, लेकिन ऐसा गड़बड़ तो कम ही लोग चलाते हैं। कहीं ड्राइवर को कोई समस्या तो नहीं है - यह सोच कर न जाने क्यों अजय उस गाड़ी से कुछ दूरी बना कर उसके पीछे ही चलने लगा।

कुछ ही क्षणों में उसकी शंका सच साबित हुई।

अचानक से ही सामने वाली गाड़ी सड़क के बीचों-बीच चीख़ती हुई सी रुक गई - कुछ ऐसे कि लेन के समान्तर नहीं, बल्कि लेन के लंबवत। यह स्थिति ठीक नहीं थी। फिलहाल ट्रैफिक बहुत हल्का था - बस इक्का दुक्का गाड़ियाँ ही निकली थीं उसके सामने से, लेकिन यह स्थिति कभी भी बदल सकती थी। उसने जल्दी से अपनी गाड़ी सड़क के किनारे पार्क करी और भाग कर अपने सामने वाली गाड़ी की तरफ़ गया। यह बहुत ही डरावनी स्थिति थी - सौ किलोमीटर प्रति घण्टे वाली सड़क पर पैदल चलना - मतलब जानलेवा दुर्घटना को न्यौता देना। लेकिन क्या करता वो!

जब उसने उस गाड़ी में झाँक कर देखा तो पाया कि एक बूढ़ा आदमी पसीने पसीने हो कर, अपना सीना पकड़े, पीड़ा वाले भाव लिए अपनी सीट पर लुढ़का हुआ था। उसकी साँस उखड़ गई थी और दिल की धड़कन क्षीण हो गई थी। उसको देख कर लग रहा था कि उसको अभी अभी हृदयघात हुआ था। अजय ने जल्दी से बूढ़े को ड्राइवर की सीट से हटा कर पैसेंजर सीट पर बैठाया, और ख़ुद उसकी कर को ड्राइव कर के अपनी कार के ही पीछे पार्क कर दिया। एक मुसीबत कम हुई थी... अब बारी थी बूढ़े को बचाने की। हाँलाकि अजय को थोड़ा ही ज्ञान था, लेकिन उसने बूढ़े को कार्डिओपल्मोनरी रिसुसिटेशन चिकित्सा, जिसको अंग्रेज़ी में सीपीआर कहा जाता है, दिया।

जैसा फ़िल्मों में दिखाते हैं, वैसा नहीं होता सीपीआर! उसमें इतना बल लगता है कि कभी कभी चिकित्सा प्राप्त करने वाले की पसलियाँ चटक जाती हैं। वो बूढ़ा आदमी कमज़ोर था - इसलिए उसकी भी कई पसलियाँ चटक गईं। नुक़सान तो हुआ था, लेकिन फिलहाल उसकी जान बच गई लग रही थी। इस पूरी चिकित्सा में अजय के दाहिना कन्धा अपने स्थान से थोड़ा निकल गया!

छाँव तक जाते जाते अजय की खुद की साँसें उखड़ गईं थीं। उसको ऐसा लग रहा था कि कहीं उसको भी हृदयघात न हो जाए! उसने सावधानीपूर्वक बूढ़े को ज़मीन पर लिटाया। बूढ़ा दर्द के मारे दोहरा हो गया। अजय की हालत भी ठीक नहीं थी। लेकिन,

“अंकल जी,” उसने बूढ़े से पूछा, “अब आपको कैसा लग रहा है?”

“ब... बेटा...” बूढ़े ने बड़ी मुश्किल से टूटी फूटी आवाज़ में कहा, “तुम...ने ब...चा... लिया म...मुझे...”

“नहीं अंकल जी,” अजय ने सामान्य शिष्टाचार दिखाते हुए कहा, “ऐसा कुछ नहीं है! ... और आप भी... थोड़ा आराम कर लीजिए।”

बूढ़ा अल्पहास में हँसा और तुरंत ही अपनी इस हरक़त पर उसको पछतावा हो आया। हँसी के कारण उसको अपने पूरे शरीर में तीव्र पीड़ा महसूस हुई। लेकिन फिर भी वो बोला,

“अब इस बूढ़े की ज़िन्दगी में आराम ही आराम है बेटे,” उसने मुश्किल से कहा, “बयासी साल का हो गया हूँ... अपना कहने को कोई है नहीं यहाँ! ... जो अपने थे, वो विदेश में हैं।”

“आपके पास उनका नंबर तो होगा ही न!” अजय ने उत्साह से कहा, “मैं कॉल कर देता हूँ? आपका मोबाइल कार में ही होगा न?”

वो मुस्कुराया, “नहीं बेटे... तुम मेरे पास बैठो। उनको मेरी ज़रुरत नहीं है अब! ... तुमने बीस मिनट में मेरे लिए इतना कुछ कर दिया, जो उन्होंने मेरे लिए बीस साल में नहीं किया!”

अजय फ़ीकी हँसी में हँसा। यही तो नियम है संसार का। काम बन जाए, तो क्या बाप? क्या माँ?

लेकिन उसको अपने माँ बाप की कमी महसूस होती थी। उनको गए लगभग पंद्रह साल होने को आए थे अब! दोनों के इंश्योरेंस थे और अजय को उनकी मृत्यु पर इंश्योरेंस के रुपए भी मिले। लेकिन अधिकतर रक़म उसके पापा के देनदारों को अदा करने में चली गई। अपने जीते जी, वो अपने माँ बाप का नाम ख़राब नहीं कर सकता था।

“... और मेरी बदक़िस्मती देखिए न अंकल जी,” उसने निराशापूर्वक कहा, “मैं अपने माँ बाप के लिए कुछ कर नहीं सकता!”

“क्या हुआ उनको बेटे?”

“अब वो इस दुनिया में नहीं हैं अंकल जी,”

“दुःख हुआ जान कर!”

“कोई बात नहीं अंकल जी,” उसने गहरी साँस भरी, “... आपका नाम क्या है?”

“प्रजापति...” बूढ़े ने बताया, “मैं प्रजापति हूँ,” फिर उसने पूछा, “और तुम बेटे?”

“जी मेरा नाम अजय है...” अजय ने कहा, और पानी की बोतल बूढ़े के होंठों से लगाते हुए बोला, “लीजिए, थोड़ा पानी पी लीजिए...”

“अजय बेटे, तुम बहुत अच्छे हो!” बूढ़े ने इस बार अच्छी तरह से पानी पिया, “माफ़ करना, बहुत प्यास लगी थी... तुम्हारे लिए कुछ बचा ही नहीं!”

अजय ने मुस्कुरा कर कहा, “अंकल जी, आप सोचिए नहीं! वैसे भी आपकी ज़रुरत मुझसे अधिक थी।”


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Nice update....
 

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अजय ने अपनी कलाई की घड़ी को देखा, “इमरजेंसी सर्विस न जाने कब आएगी!”

“आ जाएगी बच्चे!” प्रजापति ने मुस्कुरा कर अपनी टूटी फूटी दर्द-भरी आवाज़ में कहा, “... मैं बहुत बोल नहीं पाऊँगा... तकलीफ़ होती है। तुम ही सब कहो! अपने बारे में बताओ कुछ...”

“क्या है बताने को अंकल जी? कुछ भी नहीं!”

“अरे! ऐसे न कहो बेटे! अपने रक्षक के बारे में जानने का कुछ तो हक़ है न मुझे?”

“हा हा हा... रक्षक! क्या अंकल जी!” अजय ने हँसते हँसते कहा, “ठीक है, कहता हूँ!”

“हम दिल्ली में रहते थे... हम, मतलब मेरे मम्मी पापा... मैं... और मेरे काका ताई!” अजय ने बताना शुरू किया, “पापा का बिज़नेस था, जो उन्होंने मम्मी के साथ शुरू किया था। मम्मी तब चल बसीं जब मैं पंद्रह साल का था। ... एक्चुअली, एक रोड एक्सीडेंट में माँ और काका चल बसे।”

प्रजापति ने सहानुभूति में सर हिलाया।

“फिर पापा ने ख़ुद को काम में झोंक दिया। ... लेकिन उनकी किस्मत ऐसी ख़राब निकली कि कई सालों तक बिज़नेस में उनको नुक़सान उठाना पड़ा। बहुत टेंशन में थे वो... एक दिन उसी के चलते उनको हार्ट अटैक हुआ और वो चल बसे!”

“आई ऍम सो सॉरी बेटे... इतनी कम उम्र में माँ बाप को खोना...” प्रजापति ने सर हिलाते हुए कहा, “और तुम?”

“जी कुछ भी ख़ास नहीं! बस, ऍमसीए करने के बाद छोटी मोटी नौकरियाँ करता रहा हूँ... अभी भी स्ट्रगल चल रहा है! घर में बस ताई जी हैं... तो वो ही मेरा परिवार हैं!”

“उनके बच्चे हैं?”

“एक बेटा है उनका... अमेरिका में! लेकिन वो अपने में ही खुश हैं!”

“शादी?”

“हाँ... उनकी शादी हो गई है!”

बूढ़ा बहुत मुश्किल से मुस्कुराया, “नहीं... तुम्हारी...”

अजय ने फ़ीकी हँसी हँसते हुए कहा, “हाँ... हुई थी शादी... लेकिन उसकी याद न ही करूँ तो बेहतर!”

“क्या हुआ?”

“होना क्या है अंकल जी... वही जो आज कल हर रोज़ हज़ारों आदमियों के साथ हो रहा है! ... उसने ताई जी और मुझ पर दहेज़ और डोमेस्टिक वायलेंस का झूठा केस लगा दिया!”

कहते हुए उसके मन में कड़वी यादें ताज़ा हो गईं!

रागिनी... उसकी पत्नी -- नहीं, भूतपूर्व पत्नी... एक्स वाइफ... के साथ बिताया गया एक एक पल जैसे नश्तर पर चलने के समान था। विदा हो कर आते ही उसने गिरगिट की तरह रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। परिवार को तोड़ने की हर कला में निपुण थी वो! ऊपर से देश का कानून - दफ़ा 498A की बलि-वेदी पर अनगिनत भारतीय पुरुषों की बलि चढ़ चुकी है... एक उसकी भी सही!

“ऐसे में कोई कुछ सुनता थोड़े ही है! ... उसके चलते हम दोनों को तीन साल जेल में रहना पड़ा। न कोई सुनवाई न कुछ! ... डिवोर्स के सेटलमेंट में पापा का घर उसने हड़प लिया। ... बाद में दहेज़ का केस झूठा साबित हुआ... वायलेंस का भी... लेकिन तब तक हमारा सब कुछ बर्बाद हो गया था। वो सब होने से पहले वो पापा का घर भी बेच कर, सब कुछ सफ़ाचट कर के चम्पत हो गई... पुलिस को उसको ढूंढने में कोई इंटरेस्ट नहीं था। ... बस... इस तरह पीछे रह गए बस माँ और मैं!”

यह सब याद कर के अजय का मन खट्टा हो गया, “... जेल जाने के कारण जो छोटे मोटे काम मिलते थे, वो भी बंद हो गए। अब बस जैसे तैसे दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता है, बस!”

प्रजापति ने निराशा में अपना सर झुका लिया, “क्या हो गया है समाज को... संसार को! हर तरफ़ बस नीचता ही नीचता!”

“हा हा! समाज और संसार को हम बदल तो नहीं सकते न अंकल जी!”

“तो क्या बदलना चाहते हो?” प्रजापति ने पूरी सहानुभूति से पूछा, “अगर उस लड़की... मतलब तुम्हारी बीवी से फिर से मुलाक़ात हो जाए, तो बदला लोगे उससे?”

“आपको क्या लगता है? इतना कुछ हो जाने के बाद मैं उसकी शक्ल भी देखना चाहूँगा?”

“फ़िर?”

“नहीं अंकल जी... मैं वैसी ज़हरीली सी लड़की फ़िर कभी भी अपनी ज़िन्दगी में देखना नहीं चाहूँगा... न ही कभी देखना और न ही कभी मिलना! कम से कम ये तो होना ही चाहिए!”

प्रजापति ने मुस्कुराते हुए कहा, “वो भी ठीक बात है! फिर क्या चाहते हो?”

“अंकल जी,” अजय ने कुछ देर सोचते हुए कहा, “एक मौका चाहता हूँ बस... एक मौका कि जो कुछ जानता हूँ, काश उसका एक बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल कर सकता... काश कि अपने पापा, अपनी मम्मी के लिए कुछ कर सकता! ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी दे सकता...”

“अपनी ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी तो अभी भी दे सकते हो!”

इस बात पर अजय चुप रहा, और ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“... तो सच में... क्या चाहते हो?”

“अपने पापा को थोड़ी ख़ुशी देना चाहता हूँ, अंकल जी... मैं यह अक्सर ही सोचता हूँ कि काश एक मौका मिल जाए कि उनको थोड़ी खुशियाँ दे सकूँ... उन्होंने बहुत कुछ किया मेरे लिए, लेकिन मैं ही कुछ न कर सका...”

बहुत कुछ कहना चाहता था अजय, लेकिन शब्द मौन हो गए। इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन उसने जब ठहर कर सोचा, तो बस इतना ही तो चाहता था वो!

“बीता हुआ समय वापस नहीं आता न बेटे,” प्रजापति ने जैसे समझाते हुए कहा।

“जी अंकल जी... बीता हुआ समय वापस नहीं आता!”

अजय ने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए कहा।

उसी समय एम्बुलेंस की आवाज़ आती हुई सुनाई देने लगी। अजय ने अपनी घड़ी में देखा,

“अंकल जी, एम्बुलेंस आने ही वाली है! आप घबराइएगा नहीं। सब ठीक हो जाएगा!”

प्रजापति मुस्कुराए, “तुम बहुत अच्छे हो, अजय बेटे! ... अपनी अच्छाई बनाए रखना!” कह कर उन्होंने अपना झुर्रियों से भरा हाथ अजय के सर पर फिराया, “... और अपना ध्यान रखना बेटे... अपने पथ से डिगना मत! जो सोचा हुआ है, वो करना... और मतिभ्रम न होने देना...!” प्रजापति की आवाज़ धीमी पड़ रही थी - लेकिन उनकी आँखों की चमक बरक़रार!

“थैंक यू अंकल जी,” अजय मुस्कुराते हुए बोला, “लेकिन आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आप मुझे बाय बाय कर रहे हैं! ऐसे नहीं छोड़ूँगा आपको... हॉस्पिटल चल रहा हूँ आपके साथ, और आपको देखने रोज़ आता रहूँगा...”

इतना कह कर अजय अपनी जगह से उठ कर सड़क के किनारे खड़ा हो गया, और हाथ हिलाने लगा, जिससे कि आती हुई एम्बुलेंस उसको देख सके।

कोई मिनट भर में ही एम्बुलेंस उसके सामने आ खड़ी हुई। एक नर्स और एक पैरामेडिक तेजी से एम्बुलेंस से उतरे, और उनकी तरफ़ बढ़े। अजय को राहत हुई... समय व्यय हुआ, लेकिन कम से कम प्रजापति जी को समुचित चिकित्सा तो मिल ही सकती है। अजय ने इशारा कर के नर्स और पैरामेडिक को मरीज़ की तरफ़ जाने को कहा।

पैरामेडिक ने स्टेथोस्कोप लगा कर प्रजापति जी की हृदयगति नापी और बड़ी विचित्र दृष्टि से अजय की तरफ़ देखा।

“क्या हुआ?” अजय ने आशंकित होते हुए पैरामेडिक से पूछा।

“ही इस नो मोर...”

“क्या?!” अजय इस खुलासे पर चौंक गया, “... लेकिन आप लोगों के आने के एक मिनट पहले तक ही तो मैं इनसे बात कर रहा था! ऐसे कैसे...?” वो भाग कर प्रजापति जी के पास पहुँचा।

उसने देखा कि प्रजापति जी वाक़ई बड़े सुकून से अपनी चिर-निद्रा को प्राप्त हो गए थे।

“मतलब इतना सब किया वो सब बेकार गया!” वो बड़बड़ाया।

“जी?” पैरामेडिक ने पूछा।

“जी, मैंने इनको सीपीआर दिया था...” अजय की आँखों में आँसू आ गए, “हमने कुछ देर तक बातें भी करीं! ... मुझे तो लगा था कि...”

“आई ऍम सॉरी,” पैरामेडिक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, “लेकिन इतनी एडवांस्ड एज में कुछ भी हो सकता है... इन्होने आपको कुछ बताया? कोई रिलेटिव या कोई और... जिनको हम इत्तला दे सकते हैं?”

“बता रहे थे कि इनके बच्चे विदेश में रहते हैं... कहाँ, वो मुझको बताया नहीं।”

“इनके पर्सनल इफेक्ट्स में कोई इन्फॉर्मेशन मिल सकती है,” कह कर उसने प्रजापति जी की कार की तलाशी लेनी शुरू कर दी।

कुछ देर बाद उसने निराश हो कर कहा, “... फ़ोन भी नहीं है!”

फिर उनका बटुआ निकाल कर बोला, “विश्वकर्मा प्रजापति... पुणे में रहते हैं... थे...”

कुछ देर तक वो प्रशासनिक काम करता रहा, फिर अजय से बोला, “आप अपना कांटेक्ट दे दीजिए... वैसे तो आपको कांटेक्ट करने की कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर पुलिस को कोई ज़रुरत हुई, तो आपको कांटेक्ट करेंगे!”

“ठीक है...” अजय ने कहा, और अपना नाम पता और फ़ोन नंबर लिखवाने लगा।

इस पूरे काम में बहुत समय लग गया था, और मीटिंग के लिए पहुँचने में बहुत देर लगने वाली थी। अब मुंबई जाने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए अजय वापस पुणे की तरफ़ हो लिया।


**
Nice update....
 
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इस बार कहानी का शिर्षक देखन मे छोटन पर घाव करे गंभीर है । इन दो अपडेट को पढ़कर लगता है कि इस कहानी के नायक की समस्या " फिर से " वही समस्या है जो कुछ दिनों से टेलीविजन न्यूज , सोशल साइट्स और लोगों के लिए केन्द्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है ।
पर साथ मे उसके एजुकेशनल और प्रोफेशनल लाइफ के फेल्योर की बात भी कही गई है जो यह हंड्रेड प्रतिशत जमीनी हकीकत है ।
बंगलौर की हालिया घटना ने निस्संदेह एक नया विमर्श खड़ा कर दिया है कि मर्द जात भी औरत के सताए हो सकते हैं । पर यह कोई नई बात नही है । मुझे याद है कई साल पहले भी एक नवविवाहिता युवती ने दहेज का आरोप अपने हसबैंड पर ऐसे ही लगाया था । हसबैंड सत्रह अठारह साल जेल मे रहा । उस लड़की की महिमामंडित भारत तो भारत , अमेरिका के सबसे फेमस टेलीविजन शो तक मे हुई । लड़की रातोंरात हीरोइन बन गई थी , लेकिन सत्रह अठारह साल बाद पता चला हसबैंड बेगुनाह है और सारा किया धरा , सारा दोष पत्नी का था ।
ऐसी घटनाएं अवश्य होती हैं और इसमे किसी को संदेह भी नही है पर आंकड़ो की बात करें तो लगभग एक प्रतिशत ही ऐसी चीजें सत्य होती हैं । दहेज प्रथा हिन्दुस्तान की रियलिटी है और उससे भी रियलिटी है दहेज पर बली होते हुए मासूम कन्याओं की । कठोर दहेज उत्पीड़न कानून का सहारा लेकर कुछ लड़कियाँ गलत फायदा उठा ले जाती है यह बिल्कुल सत्य है मगर ऐसी घटनाएं आप अपवाद के रूप मे देख सकते हैं ।

एजुकेशनल लाइफ की बात करें तो अजय ने भले ही इन्जीनियरिंग डिग्री प्राप्त न करी हो पर एक हेल्दी डिग्री तो अवश्य प्राप्त करी है , और कोई जरूरी भी नही है कि हर इन्जीनियर का फाइनेंशियल कंडीशन खुब बढ़िया भी हो !
एमवे एक नेटवर्किंग बिजनेस कंपनी है । नेटवर्क विस्तार करने का , विक्रता तक अधिक पहुंच बनाने का , कस्टमर को कंपनी टू कंज्यूमर का फाइनेंशियल प्रॉफिट लब्बोलुआब दिखाने का ढेर सारे सेल नेटवर्किंग कंपनी हैं जिनमे अधिकांशतः फेल्योर ही हैं । ऐसे कंपनी वही कस्टमर चुनते हैं जो आर्थिक हालात से अधिक खास्ता होते हैं या जो शोर्ट कट फायदे उठाना चाहते हैं ।
पर ऐसे नेटवर्किंग कंपनी मे सक्सेस मेंबर की संख्या बहुत ही कम है ।

अजय ने जिस तरह से बुजुर्ग प्रजापति साहब की मदद करी , वह एक नेक इंसान ही करता है । ऐसे लोग अपने दुश्मन का भी अहित नही सोचते ।

अजय का जीवन अत्यंत ही संघर्षमय दिख रहा है , लेकिन जिंदगी की फिलॉसफी बैंक के उस लाॅकर की तरह है जिसकी एक चाबी बैंक के मैनेजर के पास होती है और एक चाबी कस्टमर के पास । जब तक दोनो चाबी लाॅकर मे नही लगती तब तक लाॅकर खुल ही नही सकता । दोनो चाबी लगे वगैर आप लाॅकर खोल नही सकते ।
यही पैमाना सक्सेस का है ।
एक चाबी कर्म है जो कस्टमर के पास है और दूसरी चाबी भाग्य है जो बैंक के मैनेजर के पास है । आप सिर्फ अपने चाबी के बलबूते सफल नही हो सकते , सफल होने के लिए दूसरी चाबी जो सिर्फ परमेश्वर के पास है , की जरूरत होती है । आप को उस दूसरी चाबी का इन्तजार करना होता है जो शायद कुछ दिनों का हो सकता है , कुछ माह का हो सकता है , कुछ वर्ष का हो सकता है या फिर कई कई वर्ष का भी हो सकता है । लेकिन उसके लिए जरूरी है पोजिटिव माइंड सेट की , लंबे समय तक इंतजार करने के क्षमता की ।

खुबसूरत अपडेट अमर भाई ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
 
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kamdev99008

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इस बार कहानी का शिर्षक देखन मे छोटन पर घाव करे गंभीर है । इन दो अपडेट को पढ़कर लगता है कि इस कहानी के नायक की समस्या " फिर से " वही समस्या है जो कुछ दिनों से टेलीविजन न्यूज , सोशल साइट्स और लोगों के लिए केन्द्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है ।
पर साथ मे उसके एजुकेशनल और प्रोफेशनल लाइफ के फेल्योर की बात भी कही गई है जो यह हंड्रेड प्रतिशत जमीनी हकीकत है ।
बंगलौर की हालिया घटना ने निस्संदेह एक नया विमर्श खड़ा कर दिया है कि मर्द जात भी औरत के सताए हो सकते हैं । पर यह कोई नई बात नही है । मुझे याद है कई साल पहले भी एक नवविवाहिता युवती ने दहेज का आरोप अपने हसबैंड पर ऐसे ही लगाया था । हसबैंड सत्रह अठारह साल जेल मे रहा । उस लड़की की महिमामंडित भारत तो भारत , अमेरिका के सबसे फेमस टेलीविजन शो तक मे हुई । लड़की रातोंरात हीरोइन बन गई थी , लेकिन सत्रह अठारह साल बाद पता चला हसबैंड बेगुनाह है और सारा किया धरा , सारा दोष पत्नी का था ।
ऐसी घटनाएं अवश्य होती हैं और इसमे किसी को संदेह भी नही है पर आंकड़ो की बात करें तो लगभग एक प्रतिशत ही ऐसी चीजें सत्य होती हैं । दहेज प्रथा हिन्दुस्तान की रियलिटी है और उससे भी रियलिटी है दहेज पर बली होते हुए मासूम कन्याओं की । कठोर दहेज उत्पीड़न कानून का सहारा लेकर कुछ लड़कियाँ गलत फायदा उठा ले जाती है यह बिल्कुल सत्य है मगर ऐसी घटनाएं आप अपवाद के रूप मे देख सकते हैं ।

एजुकेशनल लाइफ की बात करें तो अजय ने भले ही इन्जीनियरिंग डिग्री प्राप्त न करी हो पर एक हेल्दी डिग्री तो अवश्य प्राप्त करी है , और कोई जरूरी भी नही है कि हर इन्जीनियर का फाइनेंशियल कंडीशन खुब बढ़िया भी हो !
एमवे एक नेटवर्किंग बिजनेस कंपनी है । नेटवर्क विस्तार करने का , विक्रता तक अधिक पहुंच बनाने का , कस्टमर को कंपनी टू कंज्यूमर का फाइनेंशियल प्रॉफिट लब्बोलुआब दिखाने का ढेर सारे सेल नेटवर्किंग कंपनी हैं जिनमे अधिकांशतः फेल्योर ही हैं । ऐसे कंपनी वही कस्टमर चुनते हैं जो आर्थिक हालात से अधिक खास्ता होते हैं या जो शोर्ट कट फायदे उठाना चाहते हैं ।
पर ऐसे नेटवर्किंग कंपनी मे सक्सेस मेंबर की संख्या बहुत ही कम है ।

अजय ने जिस तरह से बुजुर्ग प्रजापति साहब की मदद करी , वह एक नेक इंसान ही करता है । ऐसे लोग अपने दुश्मन का भी अहित नही सोचते ।

अजय का जीवन अत्यंत ही संघर्षमय दिख रहा है , लेकिन जिंदगी की फिलॉसफी बैंक के उस लाॅकर की तरह है जिसकी एक चाबी बैंक के मैनेजर के पास होती है और एक चाबी कस्टमर के पास । जब तक दोनो चाबी लाॅकर मे नही लगती तब तक लाॅकर खुल ही नही सकता । दोनो चाबी लगे वगैर आप लाॅकर खोल नही सकते ।
यही पैमाना सक्सेस का है ।
एक चाबी कर्म है जो कस्टमर के पास है और दूसरी चाबी भाग्य है जो बैंक के मैनेजर के पास है । आप सिर्फ अपने चाबी के बलबूते सफल नही हो सकते , सफल होने के लिए दूसरी चाबी जो सिर्फ परमेश्वर के पास है , की जरूरत होती है । आप को उस दूसरी चाबी का इन्तजार करना होता है जो शायद कुछ दिनों का हो सकता है , कुछ माह का हो सकता है , कुछ वर्ष का हो सकता है या फिर कई कई वर्ष का भी हो सकता है । लेकिन उसके लिए जरूरी है पोजिटिव माइंड सेट की , लंबे समय तक इंतजार करने के क्षमता की ।

खुबसूरत अपडेट अमर भाई ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
भ्रमित ना हो, कोई अबला प्रताड़ित नहीं होती।

मुझे सिर्फ 1% भी ऐसे विवाह दिखा दीजिए जिनमें कन्या के माता-पिता ने अपने से गरीब, बेघर, बेरोजगार लड़के से अपनी बेटी की शादी की हो।
दहेज रहित शादी तो तब हो जब बेटी का बाप लड़के की हैसियत, नौकरी, आमदनी की बजाय गुण व योग्यता देखें और धूमधाम की बजाय बेटी दामाद को घर-कारोबार में सहयोग के लिए पैसा दे।

पिछले 45-46 बर्षौं की अपनी याददाश्त में मैंने बेटे वालों की बनाई दहेज की लिस्ट से पहले हमेशा ही बेटी वालों की बनाई हैसियत लिस्ट देखी है।

मैंने दोनों पक्षों के संबंध का अनुभव अपनी और अपने भाई बहन की शादी की जिम्मेदारी निभा के लिया है।
मांगने से कोई सम्पन्न नहीं हुआ।
आज की हैसियत भविष्य की गारंटी नहीं।
इसलिए संबंध हैसियत नहीं चरित्र, संस्कार और परिवार को देख समझकर बनाओ
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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मुझे याद है कई साल पहले भी एक नवविवाहिता युवती ने दहेज का आरोप अपने हसबैंड पर ऐसे ही लगाया था । हसबैंड सत्रह अठारह साल जेल मे रहा । उस लड़की की महिमामंडित भारत तो भारत , अमेरिका के सबसे फेमस टेलीविजन शो तक मे हुई । लड़की रातोंरात हीरोइन बन गई थी , लेकिन सत्रह अठारह साल बाद पता चला हसबैंड बेगुनाह है और सारा किया धरा , सारा दोष पत्नी का था ।

साल 2002

जगह गाजियाबाद

नाम निशा शर्मा

कारनामा, दहेज मांगने के कारण बारात वापस लौटादेना।

असलियत: एक बॉयफ्रेंड था, जिसके कारण बारात को वापस लौटाया था, झूठे इल्जाम में। लेकिन उस बॉयफ्रेंड से भी शादी नहीं की उसने, बल्कि 2007 या 08 में किसी बहुत ही अमीर खानदान में शादी हुई इसकी। लड़के के घर वाले 3 साल जेल में रहे। और 10 साल बाद यानि 2012 में बरी हुए इस केस से। लड़की जीवन में आने से पहले ही बर्बाद कर गई।


आज के समय की दुखद सच्चाई है कि ज्यादातर ऐसे केस फर्जी ही होते हैं।
 
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park

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अजय ने अपनी कलाई की घड़ी को देखा, “इमरजेंसी सर्विस न जाने कब आएगी!”

“आ जाएगी बच्चे!” प्रजापति ने मुस्कुरा कर अपनी टूटी फूटी दर्द-भरी आवाज़ में कहा, “... मैं बहुत बोल नहीं पाऊँगा... तकलीफ़ होती है। तुम ही सब कहो! अपने बारे में बताओ कुछ...”

“क्या है बताने को अंकल जी? कुछ भी नहीं!”

“अरे! ऐसे न कहो बेटे! अपने रक्षक के बारे में जानने का कुछ तो हक़ है न मुझे?”

“हा हा हा... रक्षक! क्या अंकल जी!” अजय ने हँसते हँसते कहा, “ठीक है, कहता हूँ!”

“हम दिल्ली में रहते थे... हम, मतलब मेरे मम्मी पापा... मैं... और मेरे काका ताई!” अजय ने बताना शुरू किया, “पापा का बिज़नेस था, जो उन्होंने मम्मी के साथ शुरू किया था। मम्मी तब चल बसीं जब मैं पंद्रह साल का था। ... एक्चुअली, एक रोड एक्सीडेंट में माँ और काका चल बसे।”

प्रजापति ने सहानुभूति में सर हिलाया।

“फिर पापा ने ख़ुद को काम में झोंक दिया। ... लेकिन उनकी किस्मत ऐसी ख़राब निकली कि कई सालों तक बिज़नेस में उनको नुक़सान उठाना पड़ा। बहुत टेंशन में थे वो... एक दिन उसी के चलते उनको हार्ट अटैक हुआ और वो चल बसे!”

“आई ऍम सो सॉरी बेटे... इतनी कम उम्र में माँ बाप को खोना...” प्रजापति ने सर हिलाते हुए कहा, “और तुम?”

“जी कुछ भी ख़ास नहीं! बस, ऍमसीए करने के बाद छोटी मोटी नौकरियाँ करता रहा हूँ... अभी भी स्ट्रगल चल रहा है! घर में बस ताई जी हैं... तो वो ही मेरा परिवार हैं!”

“उनके बच्चे हैं?”

“एक बेटा है उनका... अमेरिका में! लेकिन वो अपने में ही खुश हैं!”

“शादी?”

“हाँ... उनकी शादी हो गई है!”

बूढ़ा बहुत मुश्किल से मुस्कुराया, “नहीं... तुम्हारी...”

अजय ने फ़ीकी हँसी हँसते हुए कहा, “हाँ... हुई थी शादी... लेकिन उसकी याद न ही करूँ तो बेहतर!”

“क्या हुआ?”

“होना क्या है अंकल जी... वही जो आज कल हर रोज़ हज़ारों आदमियों के साथ हो रहा है! ... उसने ताई जी और मुझ पर दहेज़ और डोमेस्टिक वायलेंस का झूठा केस लगा दिया!”

कहते हुए उसके मन में कड़वी यादें ताज़ा हो गईं!

रागिनी... उसकी पत्नी -- नहीं, भूतपूर्व पत्नी... एक्स वाइफ... के साथ बिताया गया एक एक पल जैसे नश्तर पर चलने के समान था। विदा हो कर आते ही उसने गिरगिट की तरह रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। परिवार को तोड़ने की हर कला में निपुण थी वो! ऊपर से देश का कानून - दफ़ा 498A की बलि-वेदी पर अनगिनत भारतीय पुरुषों की बलि चढ़ चुकी है... एक उसकी भी सही!

“ऐसे में कोई कुछ सुनता थोड़े ही है! ... उसके चलते हम दोनों को तीन साल जेल में रहना पड़ा। न कोई सुनवाई न कुछ! ... डिवोर्स के सेटलमेंट में पापा का घर उसने हड़प लिया। ... बाद में दहेज़ का केस झूठा साबित हुआ... वायलेंस का भी... लेकिन तब तक हमारा सब कुछ बर्बाद हो गया था। वो सब होने से पहले वो पापा का घर भी बेच कर, सब कुछ सफ़ाचट कर के चम्पत हो गई... पुलिस को उसको ढूंढने में कोई इंटरेस्ट नहीं था। ... बस... इस तरह पीछे रह गए बस माँ और मैं!”

यह सब याद कर के अजय का मन खट्टा हो गया, “... जेल जाने के कारण जो छोटे मोटे काम मिलते थे, वो भी बंद हो गए। अब बस जैसे तैसे दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता है, बस!”

प्रजापति ने निराशा में अपना सर झुका लिया, “क्या हो गया है समाज को... संसार को! हर तरफ़ बस नीचता ही नीचता!”

“हा हा! समाज और संसार को हम बदल तो नहीं सकते न अंकल जी!”

“तो क्या बदलना चाहते हो?” प्रजापति ने पूरी सहानुभूति से पूछा, “अगर उस लड़की... मतलब तुम्हारी बीवी से फिर से मुलाक़ात हो जाए, तो बदला लोगे उससे?”

“आपको क्या लगता है? इतना कुछ हो जाने के बाद मैं उसकी शक्ल भी देखना चाहूँगा?”

“फ़िर?”

“नहीं अंकल जी... मैं वैसी ज़हरीली सी लड़की फ़िर कभी भी अपनी ज़िन्दगी में देखना नहीं चाहूँगा... न ही कभी देखना और न ही कभी मिलना! कम से कम ये तो होना ही चाहिए!”

प्रजापति ने मुस्कुराते हुए कहा, “वो भी ठीक बात है! फिर क्या चाहते हो?”

“अंकल जी,” अजय ने कुछ देर सोचते हुए कहा, “एक मौका चाहता हूँ बस... एक मौका कि जो कुछ जानता हूँ, काश उसका एक बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल कर सकता... काश कि अपने पापा, अपनी मम्मी के लिए कुछ कर सकता! ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी दे सकता...”

“अपनी ताई माँ को एक बेहतर ज़िन्दगी तो अभी भी दे सकते हो!”

इस बात पर अजय चुप रहा, और ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“... तो सच में... क्या चाहते हो?”

“अपने पापा को थोड़ी ख़ुशी देना चाहता हूँ, अंकल जी... मैं यह अक्सर ही सोचता हूँ कि काश एक मौका मिल जाए कि उनको थोड़ी खुशियाँ दे सकूँ... उन्होंने बहुत कुछ किया मेरे लिए, लेकिन मैं ही कुछ न कर सका...”

बहुत कुछ कहना चाहता था अजय, लेकिन शब्द मौन हो गए। इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन उसने जब ठहर कर सोचा, तो बस इतना ही तो चाहता था वो!

“बीता हुआ समय वापस नहीं आता न बेटे,” प्रजापति ने जैसे समझाते हुए कहा।

“जी अंकल जी... बीता हुआ समय वापस नहीं आता!”

अजय ने एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए कहा।

उसी समय एम्बुलेंस की आवाज़ आती हुई सुनाई देने लगी। अजय ने अपनी घड़ी में देखा,

“अंकल जी, एम्बुलेंस आने ही वाली है! आप घबराइएगा नहीं। सब ठीक हो जाएगा!”

प्रजापति मुस्कुराए, “तुम बहुत अच्छे हो, अजय बेटे! ... अपनी अच्छाई बनाए रखना!” कह कर उन्होंने अपना झुर्रियों से भरा हाथ अजय के सर पर फिराया, “... और अपना ध्यान रखना बेटे... अपने पथ से डिगना मत! जो सोचा हुआ है, वो करना... और मतिभ्रम न होने देना...!” प्रजापति की आवाज़ धीमी पड़ रही थी - लेकिन उनकी आँखों की चमक बरक़रार!

“थैंक यू अंकल जी,” अजय मुस्कुराते हुए बोला, “लेकिन आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आप मुझे बाय बाय कर रहे हैं! ऐसे नहीं छोड़ूँगा आपको... हॉस्पिटल चल रहा हूँ आपके साथ, और आपको देखने रोज़ आता रहूँगा...”

इतना कह कर अजय अपनी जगह से उठ कर सड़क के किनारे खड़ा हो गया, और हाथ हिलाने लगा, जिससे कि आती हुई एम्बुलेंस उसको देख सके।

कोई मिनट भर में ही एम्बुलेंस उसके सामने आ खड़ी हुई। एक नर्स और एक पैरामेडिक तेजी से एम्बुलेंस से उतरे, और उनकी तरफ़ बढ़े। अजय को राहत हुई... समय व्यय हुआ, लेकिन कम से कम प्रजापति जी को समुचित चिकित्सा तो मिल ही सकती है। अजय ने इशारा कर के नर्स और पैरामेडिक को मरीज़ की तरफ़ जाने को कहा।

पैरामेडिक ने स्टेथोस्कोप लगा कर प्रजापति जी की हृदयगति नापी और बड़ी विचित्र दृष्टि से अजय की तरफ़ देखा।

“क्या हुआ?” अजय ने आशंकित होते हुए पैरामेडिक से पूछा।

“ही इस नो मोर...”

“क्या?!” अजय इस खुलासे पर चौंक गया, “... लेकिन आप लोगों के आने के एक मिनट पहले तक ही तो मैं इनसे बात कर रहा था! ऐसे कैसे...?” वो भाग कर प्रजापति जी के पास पहुँचा।

उसने देखा कि प्रजापति जी वाक़ई बड़े सुकून से अपनी चिर-निद्रा को प्राप्त हो गए थे।

“मतलब इतना सब किया वो सब बेकार गया!” वो बड़बड़ाया।

“जी?” पैरामेडिक ने पूछा।

“जी, मैंने इनको सीपीआर दिया था...” अजय की आँखों में आँसू आ गए, “हमने कुछ देर तक बातें भी करीं! ... मुझे तो लगा था कि...”

“आई ऍम सॉरी,” पैरामेडिक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा, “लेकिन इतनी एडवांस्ड एज में कुछ भी हो सकता है... इन्होने आपको कुछ बताया? कोई रिलेटिव या कोई और... जिनको हम इत्तला दे सकते हैं?”

“बता रहे थे कि इनके बच्चे विदेश में रहते हैं... कहाँ, वो मुझको बताया नहीं।”

“इनके पर्सनल इफेक्ट्स में कोई इन्फॉर्मेशन मिल सकती है,” कह कर उसने प्रजापति जी की कार की तलाशी लेनी शुरू कर दी।

कुछ देर बाद उसने निराश हो कर कहा, “... फ़ोन भी नहीं है!”

फिर उनका बटुआ निकाल कर बोला, “विश्वकर्मा प्रजापति... पुणे में रहते हैं... थे...”

कुछ देर तक वो प्रशासनिक काम करता रहा, फिर अजय से बोला, “आप अपना कांटेक्ट दे दीजिए... वैसे तो आपको कांटेक्ट करने की कोई ज़रुरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर पुलिस को कोई ज़रुरत हुई, तो आपको कांटेक्ट करेंगे!”

“ठीक है...” अजय ने कहा, और अपना नाम पता और फ़ोन नंबर लिखवाने लगा।

इस पूरे काम में बहुत समय लग गया था, और मीटिंग के लिए पहुँचने में बहुत देर लगने वाली थी। अब मुंबई जाने का कोई मतलब नहीं था। इसलिए अजय वापस पुणे की तरफ़ हो लिया।


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Nice and superb update....
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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इस बार कहानी का शिर्षक देखन मे छोटन पर घाव करे गंभीर है । इन दो अपडेट को पढ़कर लगता है कि इस कहानी के नायक की समस्या " फिर से " वही समस्या है जो कुछ दिनों से टेलीविजन न्यूज , सोशल साइट्स और लोगों के लिए केन्द्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है ।
पर साथ मे उसके एजुकेशनल और प्रोफेशनल लाइफ के फेल्योर की बात भी कही गई है जो यह हंड्रेड प्रतिशत जमीनी हकीकत है ।
बंगलौर की हालिया घटना ने निस्संदेह एक नया विमर्श खड़ा कर दिया है कि मर्द जात भी औरत के सताए हो सकते हैं । पर यह कोई नई बात नही है । मुझे याद है कई साल पहले भी एक नवविवाहिता युवती ने दहेज का आरोप अपने हसबैंड पर ऐसे ही लगाया था । हसबैंड सत्रह अठारह साल जेल मे रहा । उस लड़की की महिमामंडित भारत तो भारत , अमेरिका के सबसे फेमस टेलीविजन शो तक मे हुई । लड़की रातोंरात हीरोइन बन गई थी , लेकिन सत्रह अठारह साल बाद पता चला हसबैंड बेगुनाह है और सारा किया धरा , सारा दोष पत्नी का था ।
ऐसी घटनाएं अवश्य होती हैं और इसमे किसी को संदेह भी नही है पर आंकड़ो की बात करें तो लगभग एक प्रतिशत ही ऐसी चीजें सत्य होती हैं । दहेज प्रथा हिन्दुस्तान की रियलिटी है और उससे भी रियलिटी है दहेज पर बली होते हुए मासूम कन्याओं की । कठोर दहेज उत्पीड़न कानून का सहारा लेकर कुछ लड़कियाँ गलत फायदा उठा ले जाती है यह बिल्कुल सत्य है मगर ऐसी घटनाएं आप अपवाद के रूप मे देख सकते हैं ।

एजुकेशनल लाइफ की बात करें तो अजय ने भले ही इन्जीनियरिंग डिग्री प्राप्त न करी हो पर एक हेल्दी डिग्री तो अवश्य प्राप्त करी है , और कोई जरूरी भी नही है कि हर इन्जीनियर का फाइनेंशियल कंडीशन खुब बढ़िया भी हो !
एमवे एक नेटवर्किंग बिजनेस कंपनी है । नेटवर्क विस्तार करने का , विक्रता तक अधिक पहुंच बनाने का , कस्टमर को कंपनी टू कंज्यूमर का फाइनेंशियल प्रॉफिट लब्बोलुआब दिखाने का ढेर सारे सेल नेटवर्किंग कंपनी हैं जिनमे अधिकांशतः फेल्योर ही हैं । ऐसे कंपनी वही कस्टमर चुनते हैं जो आर्थिक हालात से अधिक खास्ता होते हैं या जो शोर्ट कट फायदे उठाना चाहते हैं ।
पर ऐसे नेटवर्किंग कंपनी मे सक्सेस मेंबर की संख्या बहुत ही कम है ।

अजय ने जिस तरह से बुजुर्ग प्रजापति साहब की मदद करी , वह एक नेक इंसान ही करता है । ऐसे लोग अपने दुश्मन का भी अहित नही सोचते ।

अजय का जीवन अत्यंत ही संघर्षमय दिख रहा है , लेकिन जिंदगी की फिलॉसफी बैंक के उस लाॅकर की तरह है जिसकी एक चाबी बैंक के मैनेजर के पास होती है और एक चाबी कस्टमर के पास । जब तक दोनो चाबी लाॅकर मे नही लगती तब तक लाॅकर खुल ही नही सकता । दोनो चाबी लगे वगैर आप लाॅकर खोल नही सकते ।
यही पैमाना सक्सेस का है ।
एक चाबी कर्म है जो कस्टमर के पास है और दूसरी चाबी भाग्य है जो बैंक के मैनेजर के पास है । आप सिर्फ अपने चाबी के बलबूते सफल नही हो सकते , सफल होने के लिए दूसरी चाबी जो सिर्फ परमेश्वर के पास है , की जरूरत होती है । आप को उस दूसरी चाबी का इन्तजार करना होता है जो शायद कुछ दिनों का हो सकता है , कुछ माह का हो सकता है , कुछ वर्ष का हो सकता है या फिर कई कई वर्ष का भी हो सकता है । लेकिन उसके लिए जरूरी है पोजिटिव माइंड सेट की , लंबे समय तक इंतजार करने के क्षमता की ।

खुबसूरत अपडेट अमर भाई ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।

कैसा अद्भुत सा लिखते हैं आप, संजू भाई! आनंद आ जाता है। ♥️
बार बार मेरे मन में यही बात आती है कि आप कोई कहानी क्यों नहीं लिखते?!

यह सभी प्रकरण, जिनकी आपने चर्चा करी है, वो कहीं न कहीं इस कहानी की पृष्ठभूमि में हैं।
लेकिन अगर आप इन प्रकरणों को देखें, तो पाएँगे कि हर व्यक्ति इनको अपनी तरह से सोचता है।
फ़ेमिनिस्ट लोग अलग तरीके से, पुरुष - प्रधान सोच वाले अलग, और अपने कामदेव भैया ने भी लिखा है कि वो कैसे आत्महत्या का समर्थन नहीं कर सकते (मैं भी नहीं कर पाता)!
मतलब, इन बातों का उत्तर या समाधान इस कहानी से नहीं मिल सकता, और मैं समाधान देने की कोई हिमाकत भी नहीं कर सकता।

हाँ - आपने भाग्य की बात कही है, तो उसी के इर्द - गिर्द रखने की कोशिश करूँगा।
साथ बने रहें - कोई रहस्य नहीं है कहानी में! शायद बहुत से लोग उस थीम पर लिख भी चुके होंगे... लेकिन मेरी कोशिश रहेगी कि उस थीम को कोई नया कलेवर दिया जाए।
"श्राप" के बाद इसको भी एक एक्सपेरिमेंटल कहानी माना जाए भाई :)

बहुत बहुत धन्यवाद !
साथ बने रहिए - अभी तो सफ़र शुरू भी नहीं हुआ :)
 
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