Jitender kumar
J.K
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जबरदस्त अपडेट है । मुरारी काका की तेहरवीं अच्छी तरह से हो गई । अब वैभव अपना पूरा ध्यान अन्य समस्याओं पर लगा सकेगा
Shukriya bhai is khubsurat sameeksha ke liye,,,,अति सुन्दर अपडेट गुरुजी। मुरारी की तेरहवीं निपट गई और जगन से अच्छा व्यवहार भी स्थापित हो गया। साहूकारों का वैभव को घर पर बुलाना बेशक कुछ लेकर आयेगा, क्या, ये तो आगे ही पता चलेगा लेकिन सबसे अधिक इंतजार तो कुसुम के मुंह खोलने का है आखिर पता तो चले उसके बदले हुए रूप का राज।
ग्रेट वर्क ब्रो कीप गोइंग✌
Shukriya bhai,,,,Awesome update...
Shukriya bhai,,,,,Accha update tha bhai.
Update ka ending bahut satik samay me huva hai.
Next update me dekhte hai tambu me bambu jaisa haal toh nai ho jayega vaibhav ka.
Great update with awesome writing skillsQUOTE="TheBlackBlood, post: 3107837, member: 544"]
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 31
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अब तक,,,,,
हवेली में आ कर मैं अपने कमरे में गया और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आया तो माँ से मुलाक़ात हो गई। माँ ने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे तो मैंने उन्हें बताया कि मुरारी काका की आज तेरहवीं है इस लिए उनके यहाँ जा रहा हूं। मेरी बात सुन कर माँ ने कहा ठीक है लेकिन समय से वापस आ जाना। माँ से इजाज़त ले कर मैं हवेली से बाहर आया और मोटर साइकिल में बैठ कर मुरारी काका के गांव की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
मुरारी के घर पहुंचते पहुंचते मुझे ग्यारह बज गए थे। रूपा से मिलने और उससे बात चीत में ही काफी समय निकल गया था। हालांकि मुरारी के घर में हर चीज़ की ब्यवस्था मैंने करवा दी थी, बाकी का काम तो घर वालों का ही था। ख़ैर मैं पहुंचा तो देखा वहां पर काफी सारे लोग जमा हो रखे थे। पूजा का कार्यक्रम समाप्त ही होने वाला था। मैं जगन से मिला और उससे हर चीज़ के बारे में पूछा और ये भी कहा कि अगर किसी चीज़ की कमी हो रही हो तो वो मुझे खुल कर बताए। मैं दिल से चाहता था कि मुरारी काका की तेरहवीं का कार्यक्रम अच्छे से ही हो।
मुरारी काका के गांव वाले वहां मौजूद थे जिनसे मुरारी काका के अच्छे सम्बन्ध थे। मुझे जो काम नज़र आ जाता मैं उसी को करने लगता था। हालांकि जगन ने मुझे इसके लिए कई बार मना भी किया मगर मैं तब भी लगा ही रहा। वहां मौजूद सब लोग मुझे देख रहे थे और यकीनन सोच रहे होंगे कि दादा ठाकुर का बेटा एक मामूली से आदमी के घर पर आज एक मामूली इंसान की तरह काम कर रहा है। ऐसा नहीं था कि वो लोग मेरे चरित्र के बारे में जानते नहीं थे बल्कि सब जानते थे लेकिन उनके लिए ये हैरानी की बात थी कि मैं अपने स्वभाव के विपरीत ऐसे काम कर रहा था जिसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं कोई पराया इंसान हूं बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे ये मेरा ही घर था और मैं इस घर का एक ज़िम्मेदार सदस्य जो हर काम के लिए तैयार था।
मुरारी काका के घर के बाहर और अंदर दोनों तरफ औरतें और मर्द भरे पड़े थे। मैं कभी किसी काम के लिए अंदर जाता तो कभी बाहर आता। सरोज काकी मेरे इस कार्य से बेहद खुश थी। वहीं अनुराधा की नज़र जब भी मुझसे टकराती तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देती थी। ख़ैर पूजा होने के बाद खाने पीने का कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमे सबसे पहले तेरह ब्राम्हणों को भोज के लिए बैठाया गया। वहीं बाहर गांव वालों को ज़मीन पर ही बोरियां और चादर बिछा कर बैठा दिया गया। भोजन के बाद सभी ब्राम्हणों को नियमानुसार दान और दक्षिणा मुरारी काका के बेटे अनूप के हाथों दिलवाया गया।
एक के बाद एक पंगत खाने के लिए बैठती रही। मैं जगन के साथ बराबर सबको खाना परोसने में लगा हुआ था। हालांकि गांव के कुछ लड़के लोग भी खाना परोस रहे थे। जगन काका ने मुझे भी खाना खा लेने के लिए कहा लेकिन मैंने ये कह कर मना कर दिया कि सबके भोजन करने के बाद ही मैं उसके साथ बैठ कर खाऊंगा। ख़ैर दोपहर तीन बजते बजते सभी गांव वाले खा चुके और धीरे धीरे सब अपने अपने घर चले गए। सभी गांव वालों के मुख से एक ही बात निकल रही थी कि मुरारी की तेरहवीं का कार्यक्रम बहुत ही बढ़िया था और बहुत ही बढ़िया भोजन बनवाया गया था। हालांकि सब ये जान चुके थे कि ये सब मेरी वजह से ही संभव हुआ है।
सबके खाने के बाद मैं और जगन खाने के लिए बैठे। घर के अंदर जगन के बीवी बच्चे और गांव की दो चार औरतें अभी मौजूद थीं जो बची कुची औरतों को खाना खिला कर अब आराम से सरोज काकी के पास बैठी हुईं थी। मैं और जगन खाने के लिए बैठे तो अनुराधा और जगन की बेटी ने खाना परोसना शुरू कर दिया। खाने के बाद जगन ने मुझे पान सुपारी खिलाई। मैंने अपने जीवन में आज तक इतना काम नहीं किया था इस लिए मेरे जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा अब दुःख रहा था किन्तु मैं अपनी तक़लीफ को दबाए बैठा हुआ था। जगन मुझसे बड़ा खुश था। वो जानता था कि सारे गांव ने आज जो वाह वाही उसकी और उसके घर वालों की है उसकी वजह मैं ही था। वो ये भी जानता था कि अगर मैंने मदद न की होती तो इतना बड़ा कार्यक्रम करना उसके लिए मुश्किल ही था। उस दिन शहर जाते वक़्त जगन ने मुझसे कहा था कि उसके भाई की तेरहवीं के लिए अगर मैंने उसकी मदद न की होती तो वो ये सब अकेले नहीं कर पाता क्योंकि उसके पास इस सबके लिए पैसा ही नहीं था। कुछ महीने पहले उसकी बड़ी बेटी बीमार हो गई थी जिसके इलाज़ के लिए उसने गांव के सुनार से कर्ज़ में रूपया लिया था। मैंने जगन को कहा था कि मेरे रहते हुए उसे मुरारी काका की तेरहवीं के लिए फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है।
"आज तो बहुत थक गए होंगे न बेटा?" सरोज काकी मेरे पास आते हुए बोली____"क्या ज़रूरत थी इतनी मेहनत करने की? यहाँ लोग तो थे ही काम करवाने के लिए।"
"अगर ये सब नहीं करता काकी तो मुझे अंदर से सुकून नहीं मिलता।" मैंने कहा____"सच कहूं तो मैंने अपने जीवन में पहली बार ऐसा कोई काम किया है जिसके लिए मुझे अंदर से ख़ुशी महसूस हो रही है। थकान का क्या है काकी, वो तो दूर हो जाएगी लेकिन मुरारी काका के लिए ये सब करना फिर दुबारा क्या नसीब में होगा? आज जो कुछ भी मैंने किया है उसे मुरारी काका ने ऊपर से ज़रूर देखा होगा और उनकी आत्मा को ये सोच कर शान्ति मिली होगी कि उनके जाने के बाद उनके परिवार को किसी बात के लिए परेशान नहीं होना पड़ा।"
"तुम सच में बदल गए हो बेटा।" जगन ने खुशदिली से कहा____"गांव के कई लोगों ने आज मुझसे तुम्हारे बारे में बातें की थी और कहा था कि उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा कि दादा ठाकुर का सबसे बिगड़ा हुआ बेटा किसी के लिए इतना कुछ कर सकता है। इसका तो यही मतलब हुआ कि इस लड़के का कायाकल्प हो चुका है।"
"मेरे पास बैठी वो औरतें भी यही कह रही थीं मुझसे।" सरोज काकी ने कहा____"वो छोटे ठाकुर को इस तरह काम करते देख हैरान थीं। मुझसे पूछ रहीं थी कि तुम यहाँ इस तरह कैसे तो मैंने उन सबको बताया कि तुम ये सब अपने काका के प्रेम की वजह से कर रहे हो।"
"मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता काकी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"लोग क्या सोचते हैं ये उनका अपना नज़रिया है। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि अपनी पिछली ज़िन्दगी का सब कुछ भुला कर मुझे एक ऐसी ज़िन्दगी की शुरुआत करनी है जिसमे मैं किसी के भी साथ बुरा न करूं।"
"ये तो बहुत ही अच्छी बात है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इन्सान जब सबके साथ अच्छा करता है तब खुद उसके साथ भी अच्छा ही होता है।"
"अच्छा अब मैं चलता हूं काका।" मैंने खटिया से उठते हुए जगन से कहा____"किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो मुझे बता देना।"
"ज़रूर वैभव बेटा।" जगन ने भी खटिया से उठते हुए कहा____"मेरे लिए भी कोई काम या कोई सेवा हो तो बेझिझक बता देना। मैं तुम्हारे किसी काम आऊं ये मेरे लिए ख़ुशी की बात होगी।"
"बिल्कुल काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे जब भी आपकी ज़रूरत होगी तो मैं आपको बता दूंगा। ख़ैर अब चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" जगन ने कहा____"और हां आते रहना यहां। अब तुम्हारे आने से मुझे कोई समस्या नहीं होगी बल्कि ख़ुशी ही होगी।"
जगन की ये बात सुन कर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर सरोज काकी के साथ साथ जगन काका की बीवी और भतीजी अनुराधा की तरफ बारी बारी से देखने के बाद मैं घर से बाहर निकल गया। मेरे पीछे जगन भी मुझे बाहर तक छोड़ने के लिए आया। घर के बाएं तरफ मेरी मोटर साइकिल खड़ी थी जिस पर मैं बैठा और उसे चालू कर के अपने गांव की तरफ निकल गया।
मुरारी काका के कार्यक्रम से अब मैं फुर्सत हो गया था और अब मुझे अपनी उन समस्याओं की तरफ ध्यान देना था जिनकी वजह से आज कल मैं कुछ ज़्यादा ही सोचने लगा था और उन सबको सोचते हुए परेशान भी हो चला था। मुझे जल्द से जल्द इन सभी चीज़ों का रहस्य जानना था।
हवेली पहुंचते पहुंचते दिन ढलने को आ गया था। आज बुरी तरह थक गया था मैं। हवेली के अंदर आया तो बैठक में पिता जी से सामना हो गया। उन्होंने मुझसे यूं ही पूछा कि आज कल कहां गायब रहता हूं मैं तो मैंने उन्हें मुरारी काका की तेरहवीं के कार्यक्रम के बारे में सब बता दिया जिसे सुन कर पिता जी कुछ देर तक मेरी तरफ देखते रहे उसके बाद बोले____"चलो कोई तो अच्छा काम किया तुमने। वैसे हमें पता तो था कि आज कल तुम मुरारी के घर वालों की मदद कर रहे हो किन्तु इस तरह से मदद कर रहे हो इसकी हमें उम्मीद नहीं थी। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई कि तुमने मुरारी के घर वालों की इस तरह से मदद की। मुरारी की हत्या की वजह चाहे जो भी हो लेकिन कहीं न कहीं उसकी हत्या में तुम्हारा भी नाम शामिल हुआ है। ऐसे में अगर तुम उसके परिवार की मदद नहीं करते तो उसके गांव वाले तुम्हारे बारे में कुछ भी उल्टा सीधा सोचने लगते।"
"जी मैं समझता हूं पिता जी।" मैंने अदब से कहा____"हालाँकि किसी के कुछ सोचने की वजह से मैंने मुरारी काका के घर वालों की मदद नहीं की है बल्कि मैंने इस लिए मदद की है क्योंकि मेरे बुरे वक़्त में एक मुरारी काका ही थे जिन्होंने मेरी मदद की थी। मेरे लिए वो फरिश्ता जैसे थे और उनकी हत्या के बाद अगर मैं उनके एहसानों को भुला कर उनके परिवार वालों से मुँह फेर लेता तो कदाचित मुझसे बड़ा एहसान फ़रामोश कोई न होता।"
"बहुत खूब।" पिता जी ने प्रभावित नज़रों से देखते हुए मुझसे कहा____"हमे सच में ख़ुशी हो रही है कि तुम किसी के बारे में इतनी गहराई से सोचने लगे हो। आगे भी हम तुमसे ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। ख़ैर हमने तुम्हें इस लिए रोका था कि तुम्हें बता सकें कि कल तुम्हें मणि शंकर के घर जाना है। असल में मणि शंकर और उसकी पत्नी हमसे मिलने आए थे। बातों के दौरान ही उन्होंने हमसे तुम्हारे बारे में भी चर्चा की और फिर ये भी कहा कि वो तुम्हें अपने घर पर बुला कर तुम्हारा सम्मान करना चाहते हैं। इस लिए हम चाहते हैं कि कल तुम उनके घर जाओ।"
"बड़ी अजीब बात है ना पिता जी।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"गांव का शाहूकार दादा ठाकुर के एक ऐसे लड़के को अपने घर बुला कर उसका सम्मान करना चाहता है जिस लड़के ने अपनी ज़िन्दगी में सम्मान पाने लायक कभी कोई काम ही नहीं किया है।"
"कहना क्या चाहते हो तुम?" पिता जी ने मेरी तरफ घूरते हुए कहा।
"यही कि अगर मणि शंकर हवेली के किसी सदस्य को अपने घर बुला कर सम्मान ही देना चाहता है तो मुझे ही क्यों?" मैंने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"इस हवेली के सबसे बड़े सदस्य आप हैं तो आपका सम्मान क्यों नहीं? आपके बाद जगताप चाचा जी हैं, उनका सम्मान क्यों नहीं? चाचा जी के बाद बड़े भैया हैं तो उनका सम्मान क्यों नहीं? मणि शंकर के ज़हन में मुझे ही सम्मान देने की बात कैसे आई? आख़िर मैंने ऐसा कौन सा बड़ा नेक काम किया है जिसके लिए वो मुझे ब्यक्तिगत तौर पर अपने घर बुला कर मुझे सम्मान देना चाहता है? क्या आपको नहीं लगता कि इसके पीछे कोई ख़ास वजह हो सकती है?"
"हमारे या तुम्हारे कुछ लगने से क्या होता है?" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"लगने को तो इसके अलावा भी बहुत कुछ लगता है लेकिन उसका फायदा क्या है? किसी भी बात को साबित करने के लिए प्रमाण की ज़रूरत होती है। जब तक हमारे पास किसी बात का प्रमाण नहीं होगा तब तक हमारे शक करने से या हमारे कुछ लगने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। चलो मान लेते हैं कि मणि शंकर किसी ख़ास वजह से तुम्हें अपने घर बुला कर तुम्हें सम्मान देना चाहता है लेकिन हमें ये कैसे पता चल जाएगा कि इस सबके पीछे उसकी वो ख़ास वजह क्या है? उसके लिए तो हमें वही करना होगा न जो वो चाहता है, तब शायद हमें कुछ पता चलने की संभावना नज़र आए कि वो ऐसा क्यों करना चाहता है?"
"तो इसी लिए आप कह रहे हैं कि कल मैं मणि शंकर के घर जाऊं?" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ताकि वहां जाने से ही समझ आए कि मुझे सम्मान देने के पीछे उसकी क्या वजह है?"
"ठीक समझे।" पिता जी ने कहा____"अगर हमें ये शक है कि साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते किसी ख़ास मकसद के तहत सुधारे हैं तो उनके उस ख़ास मकसद को जानने और समझने के लिए हमें ये बहुत अच्छा मौका मिला है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए तुम्हें उसके घर जाना चाहिए और उसके साथ साथ उसके परिवार के हर सदस्य से घुलना मिलना चाहिए। उनसे अपने सम्बन्धों को ऐसा बनाओ कि उन्हें यही लगे कि हमारे मन में उनके प्रति अब शक जैसी कोई बात ही नहीं है। तुम एक लड़के हो इस लिए उनके लड़कों के साथ अपने बैर भाव मिटा कर बड़े आराम से घुल मिल सकते हो। जब ऐसा हो जाएगा तभी संभव है कि हमें उनके असल मकसद के बारे में कुछ पता चल सके।"
"आप ठीक कह रहे हैं।" मैंने बात को समझते हुए कहा____"जब तक हम सांप के बिल में हाथ नहीं डालेंगे तब तक हमें पता ही नहीं चलेगा कि उसकी गहराई कितनी है।"
"एक बात और।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अपनी अकड़ और अपने गुस्से को कुछ समय के लिए किनारे पर रख दो। क्योंकि हो सकता है कि जब तुम साहूकारों के घर जाओ और उनके लड़कों से मिलो जुलो तो उनके बीच रहते हुए कुछ ऐसी बातें भी हो जाएं जिनकी वजह से तुम्हें गुस्सा आ जाए। उस सूरत में तुम्हारा सारा काम ख़राब हो जाएगा। इस लिए तुम्हें अपने गुस्से पर काबू रखना होगा। उनकी कोई बात बुरी भी लगे तो तुम्हें उसे जज़्ब करना होगा। उनके साथ रहते हुए तुम्हें हर वक़्त इसी बात का ख़याल रखना होगा कि तुम्हारी किसी हरकत की वजह से ना तो ख़ुद अपना काम ख़राब हो और ना ही वो ये सोच बैठें कि तुम अभी भी उन्हें अपने से कमतर समझते हो।"
"जी मैं इन सब बातों का ख़याल रखूंगा पिता जी।" मैंने कहा तो पिता जी ने कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
पिता जी के कहने पर मैं पलटा और अंदर की तरफ चला गया। पिता जी से हुई बातों से मैं काफी हद तक संतुलित व मुतमईन हो गया था और मुझे समझ भी आ गया था कि आने वाले समय में मुझे किस तरह से काम करना होगा।
अंदर आया तो देखा माँ और मेनका चाची कुर्सियों पर बैठी बात कर रहीं थी। मुझे देखते ही माँ ने मेरा हाल चाल पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि आज मैं बहुत थक गया हूं इस लिए मुझे मालिश की शख़्त ज़रूरत है। मेरी बात सुन कर माँ ने कहा____"ठीक है, तू जा पहले नहा ले। उसके बाद तेरी चाची तेरी मालिश कर देगी।"
"चाची को क्यों परेशान कर रही हैं माँ?" मैंने चाची की तरफ नज़र डालते हुए कहा____"भला चाची के कोमल कोमल हाथों में अब इतनी ताक़त कहां होगी कि वो मेरे बदन के दर्द को दूर कर सकें।"
"अच्छा जी।" मेरी बात सुन कर चाची ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा____"तो तुम्हारे कहने का मतलब है कि मुझमे अब इतनी ताक़त ही नहीं रही?"
"और नहीं तो क्या?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"आप तो एकदम फूल की तरफ नाज़ुक हैं और मैं ठहरा हट्टा कट्टा मर्द। भला आपके छूने मात्र से मेरी थकान कैसे दूर हो जाएगी?"
"देख रही हैं न दीदी?" मेनका चाची ने मानो माँ से शिकायत करते हुए कहा____"ये वैभव क्या कह रहा है मुझे? मतलब कि ये अब इतना बड़ा हो गया है कि मैं इसकी मालिश ही नहीं कर सकती?" कहने के साथ ही चाची ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"बेटा ये मत भूलो कि तुम चाहे जितने बड़े हो जाओ लेकिन तुम हमारे लिए आज भी छोटे से बच्चे ही हो।"
"आपकी इस बात से मैं कहां इंकार कर रहा हूं चाची जी?" मैंने कहा____"मैं तो आज भी आपका छोटा सा बेटा ही हूं लेकिन एक सच ये भी तो है ना कि आपका ये बेटा पहले से अब थोड़ा बड़ा हो गया है।"
"हां हां ठीक है।" चाची ने कहा____"रहेगा तो मेरा बेटा ही न। अब चलो बातें बंद करो और गुसलखाने में जा कर नहा लो। मैं सरसो का तेल गरम कर के आती हूं तुम्हारे कमरे में।"
"ठीक है चाची।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा और अपने कमरे में जाने के लिए आँगन से होते हुए दूसरे छोर की तरफ बढ़ गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कमरे में मैंने अपने कपड़े उतारे और एक तौलिया ले कर नीचे गुसलखाने में चला गया।
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नीचे गुसलखाने से नहा धो कर जब मैं आँगन से होते हुए इस तरफ आया तो मुझे कुसुम दिख गई। उसकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी। मैंने साफ़ देखा कि मुझ पर नज़र पड़ते ही उसने अपनी नज़रे झुका ली थी। ज़ाहिर था कि वो किसी बात से मुझसे नज़रें चुरा रही थी। उसके ऐसे वर्ताव से मेरे मन में और भी ज़्यादा शक घर गया और साथ ये जानने की उत्सुकता भी बढ़ गई कि आख़िर ऐसी कौन सी बात हो सकती है जिसके लिए कुसुम इतनी गंभीर हो जाती है और मुझसे वो बात बताने में कतराने लगती है? उसे देखते ही मेरे ज़हन में पहले ख़याल आया कि उसे आवाज़ दूं और अपने कमरे में बुला कर उससे पूछूं लेकिन फिर याद आया कि ये सही वक़्त नहीं है क्योंकि उसकी माँ यानी कि मेनका चाची मेरे कमरे में मेरी मालिश करने आने वाली हैं। इस ख़याल के साथ ही मैंने उसे आवाज़ देने का इरादा मुल्तवी किया और ख़ामोशी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
कमरे में आ कर मैंने पंखा चालू किया और तौलिया लपेटे ही पलंग पर लेट गया। मेनका चाची आज से पहले भी कई बार सरसो के तेल से मेरी मालिश कर चुकीं थी और यकीनन उनके मालिश करने से मेरी थकान भी दूर हो जाती थी। उनके पहले मेरी मालिश करने का काम हवेली की कोई न कोई नौकरानी ही करती थी लेकिन जब से पिता जी ने पुरानी नौकरानियों को हटा कर दूसरी नौकरानियों को हवेली पर काम करने के लिए रखा था तब से उनके लिए ये शख़्त हुकुम भी दिया था कि कोई भी नौकरानी मेरे कमरे न जाए और ना ही मेरा कोई काम करे। शुरू शुरू में तो मैं इस बात से बेहद गुस्सा हुआ था किन्तु दादा ठाकुर के हुकुम के खिलाफ़ भला कौन जाता? ख़ैर इस सबके बाद जब एक दिन मेरा बदन दर्द कर रहा था और मुझे मालिश की शख़्त ज़रूरत हुई तो माँ ने कहा कि वो ख़ुद अपने बेटे की मालिश करेंगी। माँ की ये बात सुन कर मेनका चाची ने उनसे कहा था कि वैभव उनका भी तो बेटा है इस लिए वो ख़ुद मेरी मालिश कर देंगी। असल में चाची के मन में माँ के प्रति बेहद सम्मान की भावना थी इस लिए वो नहीं चाहतीं थी कि मालिश करने जैसा काम हवेली की बड़ी ठकुराइन करें। मेनका चाची की इस बात से माँ ने खुश हो कर यही कहा था कि ठीक है अब से जब भी वैभव को मालिश करवाना होगा तो तुम ही कर दिया करना।
मेरा स्वभाव भले ही ऐसा था कि मैं अपनी मर्ज़ी का मालिक था और किसी की नहीं सुनता था लेकिन मैं अपने से बड़ों की इज्ज़त ज़रूर करता था। मैं गुस्सा तब होता था जब कोई मेरी मर्ज़ी या मेरी इच्छा के विरुद्ध काम करता था। जहां मेरे तीनो भाई दादा ठाकुर और जगताप चाचा जी के सामने आ कर उनसे बात करने में झिझकते थे वहीं मैं बेख़ौफ़ हो कर और उनसे आँख मिला कर बात करता था। जिसके लिए मुझे शुरुआत में बहुत बातें सुनने को मिलती थी और दादा ठाकुर के हुकुम से बदन पर कोड़े भी पड़ते थे लेकिन मैं भी कुत्ते की दुम की तरह ही था जो किसी भी शख़्ती के द्वारा सीधा ही नहीं हो सकता था। बढ़ती उम्र के साथ साथ मैं और भी ज़्यादा निडर होता गया और मेरा गुस्सा भी बढ़ता गया। मेरे गुस्से का शिकार अक्सर हवेली के नौकर चाकर हो जाते थे जिनको मेरे गुस्से का सामना करते हुए मार भी खानी पड़ जाती थी। यही वजह थी कि जब तक मैं हवेली में रहता तब तक हवेली के सभी नौकर एकदम सतर्क रहते थे।
मेरा स्वभाव बाहर से बेहद कठोर था किन्तु अंदर से मैं बेहद नरम दिल था। हालांकि मैं किसी को भी अपनी नरमी दिखाता नहीं था सिवाए माँ और कुसुम के। हवेली में कुसुम को मैं अपनी सगी बहन से भी ज़्यादा मानता था। इसकी वजह ये थी कि एक तो हवेली में सिर्फ वही एक लड़की थी और दूसरे मेरी कोई बहन नहीं थी। कुसुम शुरू से ही नटखट चंचल और मासूम थी। सब जानते थे कि हवेली में सबसे ज़्यादा मैं कुसुम को ही मानता हूं। मेरे सामने कोई भी कुसुम को डांट नहीं सकता था। हर किसी की तरह कुसुम भी जानती थी कि हवेली की नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध हैं लेकिन इसके लिए उसने कभी भी मुझसे कोई शिकायत नहीं की बल्कि जब भी ऐसे मौकों पर मैं फंसने वाला होता था तो अक्सर वो कुछ ऐसा कर देती थी कि मैं सतर्क हो जाता था। बाद में जब कुसुम से मेरा सामना होता तो मैं उससे यही कहता कि आज उसकी वजह से मैं दादा ठाकुर के कोड़ों की मार से बच गया। मेरी इस बात पर वो बस यही कहती कि मैं अपने भैया को किसी के द्वारा सज़ा पाते हुए नहीं देख सकती। हर बार उसका इतना ही कहना होता था। उसने ये कभी नहीं कहा कि आप ऐसे गंदे काम करते ही क्यों हैं?
मैं पलंग पर आँखे बंद किए लेटा हुआ ही था कि तभी मेरे कानों में पायल के छनकने की आवाज़ सुनाई दी। मैं समझ गया कि मेनका चाची मेरी मालिश करने के लिए मेरे कमरे में आ रही हैं। लगभग छह महीने हो गए थे मैंने उनसे मालिश नहीं करवाई थी।
मेनका चाची के पायलों की छम छम करती मधुर आवाज़ मेरे कमरे में आ कर रुक गई। उनके गोरे सफ्फाक़ बदन पर काले रंग की साड़ी थी जिस पर गुलाब के फूलों की नक्कासी की गई थी। साड़ी का कपड़ा ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा पतला ज़रूर था जिसकी वजह से साड़ी में ढंका हुआ उनका पेट झलक रहा था। मेनका चाची का शरीर न तो पतला था और ना ही ज़्यादा मोटा था। यही वजह थी कि तीन बच्चों की माँ हो कर भी वो जवान लगतीं थी। मैं अक्सर उन्हें छेड़ दिया करता था जिस पर वो मुस्कुराते हुए मेरे सिर पर चपत लगा देती थीं। इधर जब से मैं चार महीने की सज़ा काट कर हवेली आया था तब से मेरे बर्ताव में भी थोड़ा बदलाव आ गया था। हालांकि मैं पहले भी ज़्यादा किसी से बात नहीं करता था किन्तु हवेली से निकाले जाने के बाद जब मैं चार महीने उस बंज़र ज़मीन पर रहा और इस बीच हवेली से कोई मुझे देखने नहीं आया था तो हवेली के सदस्यों के प्रति मेरे अंदर गुस्सा भर गया था जिसके चलते मैंने बिलकुल ही बात करना बंद कर दिया था। ये अलग बात है कि पिछले कुछ समय से मेरे बर्ताव में नरमी आ गई थी और मैं थोड़ा गंभीर हो चला था।
"अरे! चाची आप तो सच में मेरी मालिश करने आ गईं।" चाची पर नज़र पड़ते ही मैंने पलंग पर बैठते हुए कहा तो चाची ने मेरे क़रीब आते हुए कहा____"तो तुम्हें क्या लगा था कि मैं मज़ाक कर रही थी?"
"वैसे सच कहूं तो मेरी भी यही इच्छा थी कि मेरी मालिश आप ही करें।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वो क्या है न कि आपके हाथों में जादू है। जिस्म की सारी थकान ऐसे ग़ायब हो जाती है जैसे उसका कहीं नामो निशान ही न रहा हो।"
"चलो अब मस्का मत लगाओ।" चाची ने लकड़ी के स्टूल पर तेल की कटोरी को रखते हुए कहा____"और उल्टा हो कर लेट जाओ।"
"जी ठीक है चाची।" मैंने कहा और पलंग पर नीचे की तरफ पेट कर के लेट गया।
मेनका चाची ने अपनी साड़ी के पल्लू को समेट कर अपनी कमर के एक किनारे पर खोंस लिया। उसके बाद उन्होंने स्टूल से तेल की कटोरी को उठाया और उसमे से कुछ तेल अपनी हथेली पर डाला। हथेली पर लिए हुए तेल को उन्होंने अपनी दूसरी हथेली में भी बराबर मिलाया और फिर झुक कर मेरी पीठ पर उसे मलने लगीं। चाची के कोमल कोमल हाथ मेरी पीठ पर घूमने लगे। गुनगुना तेल उनके हाथों द्वारा मेरी पीठ पर लगा तो मेरी आँखें एक सुखद एहसास के चलते बंद हो गईं।
"आह्ह चाची कितना अच्छा लग रहा है।" मैंने आँखें बंद किए हुए कहा____"सच में आपके हाथों में जादू है, तभी तो उस जादू के असर से मुझे सुकून मिल रहा है और इस सुकून की वजह से मेरी पलकें बंद हो गई हैं।"
"दीदी के सामने तो बड़ा कह रहे थे कि मेरे कोमल हाथों में वो ताकत कहां जिससे तुम्हारी थकान दूर हो सके।" चाची ने थोड़ा ज़ोर डालते हुए अपनी हथेली को मेरी पीठ पर घिसते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"वो तो मैं आपको छेड़ रहा था चाची वरना क्या मैं जानता नहीं हूं कि आप चीज़ क्या हैं।"
"झूठी तारीफ़ करना तो कोई तुमसे सीखे।" चाची ने स्टूल से कटोरी उठा कर उसमे से थोड़ा तेल अपनी हथेली में डालते हुए कहा____"तुम्हें अच्छी तरह जानती हूं मैं। जब ज़रूरत होती है तभी तुम्हें अपनी इस चाची का ख़याल आता है।"
"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैंने आँखें खोल कर उनकी तरफ देखते हुए कहा_____"आप बेवजह ही मेरे बारे में ऐसा कह रही हैं।"
"अच्छा..।" चाची ने तेल को अपनी दोनों हथेलियों में मिलाने के बाद मेरी पीठ पर मलते हुए कहा____"तो मैं ऐसा बेवजह ही कह रही हूं? ज़रा ये तो बताओ कि जब से तुम यहाँ आए हो तब से तुम कितने दिन अपनी इस चाची के पास बैठे हो? अरे बैठने की तो बात दूर तुमने तो दूर से भी मेरा हाल चाल नहीं पूछा...हुह...बात करते हैैं।"
"अच्छा तो अब आप झूठ भी बोलने लगी हैं।" मैंने चाची के चेहरे की तरफ देखने की कोशिश की लेकिन मेरी गर्दन पूरी तरफ से पीछे न घूम सकी, अलबत्ता उनकी तरफ देखने के चक्कर में मेरी नज़र उनके सपाट और बेदाग़ पेट पर ज़रूर जा कर ठहर गई। चाची ने अपनी साड़ी के पल्लू को समेट कर उसे अपनी कमर के किनारे पर खोंस लिया था। चाची के गोरे और बेदाग़ पेट पर मेरी नज़र पड़ी तो कुछ पलों के लिए तो मेरी साँसें जैसे रुक सी गईं। पेट के नीचे उनकी गहरी नाभी साड़ी के पास साफ़ दिख रही थी। मैंने जल्दी से खुद को सम्हाला और आगे कहा____"जब कि सच तो यही है कि जब भी आपसे मेरी मुलाक़ात हुई है तब मैंने आपको प्रणाम भी किया है और आपका हाल चाल भी पूछा है।"
"इस तरह तो चलते हुए लोग गै़रों से भी उनका हाल चाल पूंछ लेते हैं।" चाची ने मेरे कंधे पर अपनी हथेली को फिराते हुए कहा____"तुमने भी मेरा हाल तभी पूछा था न जब आते जाते मैं तुम्हे संयोग से मिली थी। अगर तुम अपनी इस चाची को दिल से मानते तो खुद चल कर मेरे पास आते और मुझसे मेरा हाल चाल पूंछते।"
"हां आपकी ये बात मैं मानता हूं चाची।" मैंने उनके चेहरे की तरफ देखने के लिए फिर से गर्दन घुमानी चाही लेकिन इस बार भी मेरी नज़र उनके चेहरे तक न पहुंच सकी, बल्कि वापसी में फिर से उनके पेट पर ही जा पड़ी। चाची मेरे इतने क़रीब थीं और उनका दूध की तरह गोरा और सपाट पेट मेरे चेहरे के एकदम पास ही था। उनके पेट पर नज़र पड़ते ही मेरे जिस्म में सनसनी सी होने लगती थी। मेरी आँखों के सामने न जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों के नंगे जिस्म जैसे किसी चलचित्र की तरह दिखने लग जाते थे। मैंने गर्दन दूसरी तरफ कर के अपने मन को शांत करने की कोशिश करते हुए आगे कहा_____"लेकिन ये आप भी जानती हैं कि मैंने ऐसा क्यों नहीं किया? पिता जी ने मुझे एक मामूली सी ग़लती के लिए इतनी बड़ी सज़ा दी और सज़ा की उस अवधि के दौरान इस हवेली का कोई भी सदस्य एक बार भी मुझे देखने नहीं आया। उस समय हर गुज़रता हुआ पल मुझे ये एहसास करा रहा था जैसे इस संसार में मेरा अपना कोई नहीं है। इस भरी दुनिया में जैसे मैं एक अनाथ हूं जिसके प्रति किसी के भी दिल में कोई दया भाव नहीं है। आप उस समय की मेरी मानसिकता का एहसास कीजिए चाची कि वैसी सूरत में मेरे दिल में मेरे अपनों के प्रति किस तरह की भावना हो जानी थी?"
"हां मैं अच्छी तरह समझती हूं वैभव।" चाची ने खेद प्रकट करते हुए कहा_____"किन्तु यकीन मानो उस समय हम सब बेहद मजबूर थे। तुम अच्छी तरह जानते हो कि दादा ठाकुर के हुकुम के खिलाफ़ कोई नहीं जा सकता। हम सब तुम्हारे लिए दुखी तो थे लेकिन तुम्हारे लिए कुछ कर नहीं सकते थे। ख़ैर छोड़ो इस बात को, अब तो सब ठीक हो गया है न? मैं चाहती हूं कि तुम सब कुछ भुला कर एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत करो।"
मेनका चाची की इस बात पर इस बार मैं कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद चाची ने मुझे सीधा लेटने के लिए कहा तो मैं सीधा लेट गया। मेरी नज़र चाची पर पड़ी। वो कटोरी से अपनी हथेली पर तेल डाल रहीं थी। मेरी नज़र उनके खूबसूरत चेहरे से फिसल कर उनके सीने के उभारों पर ठहर गई। काले रंग का ब्लाउज पहन रखा था उन्होंने। ब्लाउज का गला ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा बड़ा ज़रूर था लेकिन मुझे उनके उभारों के बीच की दरार नहीं दिखी थी। एक तो उन्होंने साड़ी को सीने में पूरी तरफ लपेट रखा था दूसरे वो सीधी खड़ी हुई थीं। मैं साड़ी के ऊपर से ही उनके सीने के बड़े बड़े उभार को देख कर बस कल्पना ही कर सकता था कि वो कैसे होंगे। हालांकि अगले ही पल मैं ये सोच कर अपने आप पर नाराज़ हुआ कि अपनी माँ सामान चाची को मैं किस नज़र से देख रहा हूं।
अपनी दोनों हथेलियों में तेल को अच्छी तरह मिलाने के बाद चाची आगे बढ़ीं और झुक कर मेरे सीने पर दोनों हथेलियों को रखा। मेरे सीने पर घुंघराले बाल उगे हुए थे जो यकीनन चाची को अपनी हथेलियों पर महसूस हुए होंगे। चाची ने एक नज़र मेरी तरफ देखा। मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो उनके गुलाबी होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। मेरे दिलो-दिमाग़ में न चाहते हुए भी एक अजीब तरह की हलचल शुरू हो गई। चाची का खूबसूरत चेहरा अब मेरी आँखों के सामने ही था और न चाहते हुए भी इतने पास होने की वजह से मेरी नज़र उनके चेहरे पर बार बार पड़ रही थी। मेरे मन में न चाहते हुए भी ये ख़्याल उभर आता था कि चाची इस उम्र में भी कितनी सुन्दर और जवान लगती हैं। हालांकि पहले भी कई बार चाची ने मेरी इस तरह से मालिश की थी किन्तु इस तरीके से मैं कभी भी उनके बारे में ग़लत सोचने पर मजबूर नहीं हुआ था। इसकी वजह शायद ये हो सकती है कि तब आए दिन मेरे अंदर की गर्मी कहीं न कहीं किसी न किसी की चूत के ऊपर निकल जाती थी और मेरा मन शांत रहता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं था। मुंशी की बहू रजनी को पेले हुए मुझे काफी समय हो गया था। किसी औरत का जिस्म जब मेरे इतने पास मुझे इस रूप में दिख रहा था तो मेरे जज़्बात मेरे काबू से बाहर होते नज़र आ रहे थे। मैं एकदम से परेशान सा हो गया। मैं नहीं चाहता था कि चाची के बारे में मैं ज़रा सा भी ग़लत सोचूं और साथ ही ये भी नहीं चाहता था कि उनके जिस्म के किसी हिस्से को देख कर मेरे अंदर हवस वाली गर्मी बढ़ने लगे जिसकी वजह से मेरी टांगों के दरमियान मौजूद मेरा लंड अपनी औक़ात से बाहर होने लगे।
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