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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.3%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 23.0%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 31 16.2%

  • Total voters
    191

Sanju@

Well-Known Member
4,693
18,803
158
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 05
----------☆☆☆---------


अब तक,,,,,

सुबह मेरी आँख कुछ लोगों के द्वारा शोर शराबा करने की वजह से खुली। पहले तो मुझे कुछ समझ न आया मगर जब कुछ लोगों की बातें मेरे कानों में पहुंची तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ही हिल गई। चार महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मेरे आस पास इतने सारे लोगों का शोर मुझे सुनाई दे रहा था। मैं फ़ौरन ही उठा और लकड़ी के बने उस दरवाज़े को खोल कर झोपड़े से बाहर आ गया।

बाहर आ कर देखा तो क़रीब बीस आदमी हाथों में लट्ठ लिए खड़े थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। उन आदमियों में से कुछ आदमी मेरे गांव के भी थे और कुछ मुरारी के गांव के। मैं जैसे ही बाहर आया तो उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो तेज़ी से मेरी तरफ बढ़े। कुछ लोगों की आंखों में भयानक गुस्सा मैंने साफ़ देखा।


अब आगे,,,,,

"ये सब क्या है?" मैंने अपनी तरफ बढ़े चले आ रहे आदमियों को देखते हुए ऊंची आवाज़ में किन्तु अंजान बनते हुए कहा____"आज तुम लोग यहाँ पर क्यों जमा हो रखे हो?"
"देखो तो।" मेरी तरफ बढ़ रहे आदमियों में से एक ने दूसरे से कहा____"देखो तो कैसे भोला बन रहा है ये। इतना बड़ा काण्ड करने के बाद भी कहता है कि हम लोग यहाँ क्यों जमा हो रखे हैं?"

"अब इसे हम बताएंगे कि इसने जो किया है उसका अंजाम क्या होता है।" दूसरे आदमी ने अपने लट्ठ को हवा में उठाते हुए कहा____"बड़े ठाकुर का बेटा है तो क्या ये किसी की जान ले लेगा?"

"मारो इसे।" तीसरा आदमी ज़ोर से चीखा____"और इतना मारो कि इसके जिस्म से इसके प्राण निकल जाएं।"
"देखो तुम लोग अपनी हद पार कर रहे हो।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"तुम लोग जो समझ कर यहाँ मेरी जान लेने आये हो वैसा कुछ नहीं किया है मैंने।"

"तुम्हीं ने मेरे भाई मुरारी की बेरहमी से हत्या की है।" एक आदमी मेरे एकदम पास आते हुए ज़ोर से चीखा_____"तुम्हारे अलावा कल रात कोई नहीं गया था वहां। तुमने ही मेरे भाई की हत्या की है और अब हम तुम्हें भी ज़िंदा नहीं छोडेंगे।"

"मैं भला मुरारी काका की हत्या क्यों करुगा?" मैं अंदर से तो बेहद हैरान था कि मुरारी काका की हत्या हो गई है किन्तु अब इस बात से भी हैरान था कि उसकी हत्या का आरोप ये लोग मुझ पर लगा रहे थे इस लिए बोला____"आख़िर मेरी उनसे दुश्मनी ही क्या थी? तुम सब जानते हो कि चार महीने पहले मेरे बाप ने मुझे घर और गांव से निष्कासित कर दिया था। उसके बाद से मैं यहाँ सबसे अलग हो कर अकेले रह रहा हूं। ऐसे बुरे वक़्त में जब किसी ने भी मेरी कोई मदद नहीं की थी तब मुरारी काका ने ही मेरी मदद की थी। वो न होते तो मैं कब का भूखों मर जाता। जो इंसान मेरे लिए फ़रिश्ते जैसा है उसकी हत्या मैं क्यों करुंगा?"

"क्योंकि तुम उसकी बेटी को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहते थे।" उस आदमी ने चीखते हुए कहा जो मुरारी का भाई जगन था____"मैं जानता हूं कि बड़े ठाकुर का ये सपूत गांव की किसी भी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाने से नहीं चूकता। बड़े ठाकुर ने तुम्हे गांव से निकाल दिया था इस लिए तुम अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत का शिकार बनाने के लिए तड़पने लगे और जब मेरा भाई ऐसे वक़्त में तुम्हारी मदद करने आया तो तुमने उसी की बेटी को अपना शिकार बनाने का सोच लिया। मैं अपनी भतीजी को अच्छी तरह जानता हूं। वो ऐसी वैसी लड़की नहीं है और ये बात तुम भी समझ गए थे इसी लिए जब तुम्हारी दाल किसी भी तरह से नहीं गली तो तुमने मेरे भाई की ये सोच कर हत्या कर दी कि अब कोई तुम्हारे रास्ते में नहीं आएगा मगर तुम भूल गए कि तुम्हारे रास्ते की दीवार बन कर मुरारी का भाई भी खड़ा हो सकता है।"

"तुम पता नहीं ये क्या बकवास पेले जा रहे हो जगन काका।" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"मैं ये मानता हूं कि चार महीने पहले तक मैं ऐसा इंसान था जो अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाता था मगर जब से यहाँ आया हूं तब से मैं वैसा नहीं रहा। भगवान जानता है कि मैंने मुरारी की बेटी को कभी ग़लत नज़र से नहीं देखा। मैं इतना भी गिरा हुआ नहीं हूं कि जो मुझे अपने घर में दो वक़्त की रोटी दें उन्हीं के घर को बर्बाद कर दूं।"

मुरारी के छोटे भाई का नाम जगन सिंह था और वो भी अपने भाई मुरारी की तरह ही खेती बाड़ी करता था। मुरारी की हत्या के बाद वो अपने गांव के कुछ आदमियों को ले कर सुबह सुबह ही मेरे झोपड़े पर आ गया था। मुरारी की हत्या की ख़बर जंगल के आग की तरह फैलती हुई मेरे गांव तक भी पहुंच गई थी। पिता जी को जब इस ख़बर के बारे में पता चला होगा तो उन्होंने अपने कुछ आदमियों को यहाँ भेज दिया होगा। हालांकि ऐसा मेरा सिर्फ अनुमान ही था।

इधर मैं जगन को समझा रहा था कि मैंने मुरारी की हत्या नहीं की है मगर वो मानने को तैयार ही नहीं था किन्तु बाकी लोग मेरी बातें सुन कर सोच में ज़रूर पड़ गए थे और यही वजह थी कि उन लोगों का गुस्सा ठंडा हो गया था। जाते जाते जगन मुझे धमकी दे कर गया था कि अब अगर मैंने मुरारी के घर में क़दम भी रखा तो वो मुझे जान से मार देगा।

जगन के साथ उसके आदमी चले गए थे और उनके जाने के बाद मेरे गांव के लोग भी बिना मुझसे कुछ बोले चले गए। मैं ये सोच कर बेहद परेशान हो गया था कि जब मैंने मुरारी की हत्या की ही नहीं है तो उसकी हत्या का आरोप मेरे सिर पर क्यों लगा रहा था जगन?

जगन से मेरी एक दो बार मुलाकात हुई थी और वो मुझे अपने बड़े भाई मुरारी की तरह ही भला आदमी लगता था। हालांकि वो गांव में अपने बीवी बच्चों के साथ रहता था किन्तु मुरारी के यहाँ उसका आना जाना था और आना जाना हो भी क्यों न? दोनों भाईयों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी बल्कि काफी अच्छा ताल मेल था दोनों के बीच।

मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रात में सोने के बाद जब सुबह मेरी आँख खुलेगी तो मुझे इतना बड़ा झटका लगेगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुरारी की हत्या किसने की होगी और क्यों की होगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुरारी मेरी मदद करता था तो मेरे बाप ने उसे मरवा दिया हो। तभी मुझे याद आया कि कल रात जब मैं खा पी कर मुरारी के घर से चला था तो रास्ते में किसी ने मुझे ज़ोर का धक्का मारा था। मैंने उस ब्यक्ति को खोजा भी था मगर ना तो वो खुद मिला था मुझे और ना ही उसका कोई निशान मिला था मुझे। इतना तो मैं भी समझ रहा था कि मुरारी की हत्या रात में ही किसी वक़्त की गई थी मगर सवाल था कि किसने की थी उसकी हत्या? क्या उसी ब्यक्ति ने जिसने रास्ते में मुझे धक्का दिया था? आख़िर कौन था वो रहस्यमयी ब्यक्ति? क्या वो मेरे बाप का कोई आदमी था?

मुरारी की हत्या के बारे में सुन कर मैं उसके घर जाना चाहता था मगर जगन ने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैं उसके घर गया तो वो मुझे जान से मार देगा। मेरी आँखों के सामने सहसा मुरारी का चेहरा उभर आया। शुरू से ले कर अब तक का उसके साथ गुज़रा हुआ हर लम्हा याद आने लगा मुझे। एक वही था जिसने ऐसे वक़्त में मेरी इतनी मदद की थी और इतना ही नहीं अपने घर ले जा कर मुझे खाना भी खिलाता था। क्या ऐसे इंसान की मौत की वजह सिर्फ और सिर्फ मैं था? क्या उसकी हत्या किसी ने मेरी मदद करने की वजह से की थी? मुरारी के बारे में सोचते सोचते मेरी आँखें भर आईं। मैंने मन ही मन ईश्वर से पूछा कि ऐसा क्यों किया उस नेक इंसान के साथ?

झोपड़े के बाहर माटी के चबूतरे में बैठा मैं मुरारी के ही बारे में सोच रहा था। मुरारी की हत्या से मैं बुरी तरह हिल गया था और ये सोचने पर मजबूर भी हो गया था कि उसकी हत्या किस वजह से और किसने की होगी? आख़िर किसी की मुरारी से ऐसी क्या दुश्मनी हो सकती थी जिसके तहत उसकी इस तरह से हत्या कर दी गई थी?

मुझे एहसास हुआ कि मुरारी की इस अकस्मात हत्या से मैं बुरी तरह घिर गया हूं। मुरारी का भाई जगन और उसके गांव वाले सब मुझे ही मुरारी का हत्यारा कह रहे थे जबकि ये तो मैं ही जानता था कि मैं मुरारी की हत्या करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। मुझे एहसास हुआ कि एकाएक ही मैं कई सारी मुश्किलों में पड़ गया था।

मेरे ज़हन में ये भी ख़याल उभर रहे थे कि मुमकिन है कि मुरारी की हत्या मेरे बाप ने करवाई हो। मुरारी का मेरी इस तरह से मदद करना उसे शुरू से ही पसंद न रहा हो और जब उसके सब्र का बांध टूट गया तो उसने अपने आदमियों के द्वारा इस तरह से उसकी हत्या करवा दी हो कि उसकी हत्या का सारा इल्ज़ाम मेरे ही सिर पर आ जाए। इन ख़यालों से मैं फिर ये भी सोचता कि क्या मेरा बाप सच में ऐसा कर सकता है? क्या वो इस तरह से मुझे ऐसी मुश्किल में डालने का सोच सकता है? मैं ये तो मानता था कि मेरा बाप अपनी बदनामी को नहीं सह सकता किन्तु मेरा दिल इस बात को मानने से कतरा रहा था कि कोई बाप अपने बेटे को इतने संगीन अपराध में फंसा देगा। अब सोचने वाली बात थी कि अगर मेरे बाप ने मुरारी की हत्या नहीं करवाई थी तो किसने की उसकी हत्या और क्यों की?

मुरारी की इस प्रकार हुई हत्या से क्या उसकी बीवी और उसके बच्चे भी यही समझ रहे होंगे कि मैंने ही मुरारी की हत्या की है? मेरा दिल कह रहा था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच सकते थे क्योकि इतना तो वो भी सोचेंगे कि मैं भला मुरारी की हत्या क्यों करुंगा? दूसरी बात अगर वो ऐसा सोचते तो यकीनन वो मेरे पास आते और मेरा गिरेहबान पकड़ कर मुझसे पूछते कि मैंने ऐसा क्यों किया है? मतलब साफ़ था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच रहे थे या फिर ऐसा हो सकता था कि मुरारी के भाई जगन ने उन्हें मेरे पास आने ही न दिया हो। मुझे मेरा ये विचार ज़्यादा सही लगा और अब मुझे लग रहा था कि मुझे मुरारी के घर जा कर सरोज से मिलना चाहिए। आख़िर इतना तो मुझे भी पता होना चाहिए कि सरोज और उसकी बेटी अनुराधा मेरे बारे में क्या सोचती हैं?

जगन की धमकी के बावजूद मैंने फैसला कर लिया कि मैं मुरारी के घर जाउंगा। मैं सरोज से चीख चीख कर कहूंगा कि मैंने उसके पति की हत्या नहीं की है बल्कि कोई और ही है जिसने उसके पति की हत्या कर के उसका सारा इल्ज़ाम मुझ पर थोप दिया है।

अपने अंजाम की परवाह किये बिना मैं अपने झोपड़े से मुरारी के घर की तरफ चल दिया। मैं जानता था कि इस वक़्त उसके घर में उसके गांव वाले भी मौजूद होंगे और खुद जगन भी होगा जो मुझे वहां पर देखते ही मुझे जान से मारने की कोशिश करेगा। मुझे अपने अंजाम की अब कोई परवाह नहीं थी बल्कि मैं तो अब ये फैसला कर चूका था कि खुद पर लगे इस हत्या के इल्ज़ाम को अपने सर से हटाऊंगा और ये भी पता करुंगा कि मुरारी की हत्या कर के किसने मुझे फंसाया है?

झोपड़े से निकल कर मैं अभी कुछ दूर ही बढ़ा था कि मुझे अपने दाहिने तरफ से एक बग्घी आती हुई दिखी। मैं दूर से ही उस बग्घी में बैठे अपने बाप को पहचान गया था। अपने बाप को बग्घी में बैठ कर अपनी तरफ आते देख मेरे अंदर की नफ़रत उबाल मारने लगी और मेरी मुट्ठिया कस ग‌ईं। चार महीने बाद ये दूसरा अवसर था जब मेरे घर का कोई सदस्य मेरी तरफ आ रहा था। पहले भाभी आईं थी और अब खुद मेरा बाप आ रहा था। अपने बाप को देख कर मेरे मन में एक ही सवाल उभरा कि जिसने खुद मुझे घर गांव से निष्कासित किया था और जिसने पूरे गांव वालों को भी ये हुकुम दिया था कि कोई मुझसे किसी भी तरह का राब्ता न रखे वरना उसे भी मेरी तरह घर गांव से निकाल दिया जायेगा तो ऐसा फैसला सुनाने वाला खुद क्यों अपने कानून को तोड़ कर मेरे पास आ रहा था?

मेरे बाप की बग्घी अभी थोड़ी दूर ही थी और मैं कुछ पलों के लिए अपनी जगह पर रुक गया था किन्तु फिर मैं उस तरफ से अपनी नज़र हटा कर फिर से आगे बढ़ चला। अभी मैं कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि मेरे कानो में मुंशी चंद्रकांत की आवाज़ पड़ी। वो मुझे रुकने को कह रहा था मगर मैंने उसकी आवाज़ को अनसुना कर दिया। जब मैं न रुका तो वो तेज़ तेज़ आवाज़ें लगाते हुए मुझे रुकने को बोलने लगा। मेरे धमनियों में मेरे बाप का ही खून दौड़ रहा था जो मुंशी जैसे ऐरे गैरे की आवाज़ को नज़रअंदाज़ कर के आगे बढ़ा ही जा रहा था। असल में मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद मुझे आवाज़ लगा कर रुकने को कहे। पता नहीं क्यों पर मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद झुके और मुझे रुकने को कहे।

कहते हैं ना कि इंसान अपनी औलाद के आगे हार जाता है और मुझ जैसी औलाद हो तो हारने में ज़रा भी विलम्ब नहीं होता। अब ये मेरी बेशर्मी थी या खूबी इससे मुझे कोई मतलब नहीं था। जब मैं मुंशी की आवाज़ों पर नहीं रुका तो आख़िर मजबूरन मेरे बाप को खुद आवाज़ लगानी पड़ी और मैं यही तो चाहता था। अपने बाप की आवाज़ सुन कर मैं रुक गया और गर्दन घुमा कर उस तरफ देखा। बग्घी अब मेरे पास ही आ गई थी। आज चार महीने बाद मैं अपने बाप की सूरत देख रहा था। जिन आँखों में देखने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी उन आँखों से मैं बराबर अपनी आँखें मिलाये खड़ा था।

"छोटे ठाकुर।" बग्घी में मेरे आप के नीचे बैठे मुंशी ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा____"मैं कितनी देर से आपको आवाज़ें लगा रहा था और आप थे कि सुन ही नहीं रहे थे।"

"मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता।" मैंने शख़्त भाव से जब ये कहा तो मुंशी एकदम से हड़बड़ा गया।
"इतना कुछ होने के बाद भी तुम्हारी अकड़ नहीं गई?" ठाकुर प्रताप सिंह ने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"ख़ैर, कहा जा रहे थे?"

"आपसे मतलब?" मैंने अकड़ दिखाते हुए दो टूक भाव से कहा____"मेरी मर्ज़ी है। मैं जहां चाहूं अपनी मर्ज़ी से जा सकता हूं मगर चिंता मत करिये इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से चार महीने पहले मुझे निकाल दिया गया था।"

"ईश्वर जानता है कि हमने तुम्हें हर वो चीज़ दी थी जिसकी तुमने ख़्वाइश की थी।" ठाकुर प्रताप सिंह ने शांत लहजे में कहा____"हम आज तक समझ नहीं पाए कि हमने ऐसा क्या कर दिया था जिसके लिए तुमने हमारी इज्ज़त को उछालने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी? तुमने कभी ठंडे दिमाग़ से सोचा ही नहीं कि तुम जो करते थे वो कितना ग़लत था?"

"क्या यही सुनाने आये हैं यहाँ?" मैंने लापरवाही से कहा___"और अगर यही सुनाने आये हैं तो जान लीजिये कि मुझे आपका ये भाषण सुनने की ज़रा सी भी ख़्वाइश नहीं है।"

"क्या तुमने कभी ये सोचा है?" ठाकुर प्रताप सिंह ने पहले की भाँति ही शांत लहजे में कहा____"कि तुम्हारे इस रवैये से तुम्हारे माता पिता के दिल पर क्या गुज़रती है? हमने हमेशा तुम में अपनी छवि देखी थी और हमेशा यही सोचा था कि हमारे बाद हमारी बागडोर तुम ही सम्हाल सकोगे। तुम्हारे बड़े भाई में हमने कभी ऐसी खूबी नहीं देखी। हालांकि उससे हमें कभी कोई शिकायत नहीं रही है। उसने कभी भी तुम्हारी तरह हमें शर्मिंदा नहीं किया और ना ही गांव समाज में हमारी इज्ज़त पर दाग़ लगाया है मगर इसके बावजूद उसमे वो बात नहीं दिखी हमें जिससे की हम ये सोच सकें कि हमारे बाद वो हमारी बागडोर सम्हाल सकता है। तुमसे हमने बहुत सारी उम्मीदें लगा रही थी मगर तुमने हमेशा हमारी उम्मीदों पर पानी ही फेरा है।"

"इन बड़ी बड़ी बातों से आप इस बात पर पर्दा नहीं डाल सकते कि आपने क्या किया है।" मैंने कठोर भाव से कहा____"आपने अपनी ही औलाद को यहाँ मरने के लिए छोड़ दिया और ये ख़्वाहिश रखी कि आपके ऐसा करने से मैं खुश हो जाऊंगा मगर आपको ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है कि आपके ऐसा करने से मेरे अंदर आपके प्रति कितनी नफ़रत भर चुकी है। ठाकुर प्रताप सिंह आप सिर पटक मर जाइये मगर मेरे दिल में आपके लिए अब कोई जगह नहीं हो सकती। आज चार महीने हो गए और मुझे जन्म देने वालों ने एक पल के लिए भी यहाँ आ कर ये देखने की कोशिश नहीं की कि मैं यहाँ ज़िंदा बचा हूं या भूखों मर गया हूं? जाइये ठाकुर साहब जाइये... मैं अब आपका बेटा नहीं रहा। मैं आप सबके लिए मर चुका हूं।"

पता नहीं क्या हो गया था इस वक़्त मुझे? मैं ऐसे अल्फ़ाज़ में और ऐसे लहजे में अपने बाप से बातें कर रहा था जिसके बारे में शायद कोई बाप सोच भी नहीं सकता था। मेरी बातें सुन कर मेरा बाप मुझे इस तरह देखता रह गया था जैसे मैं कोई अजूबा था। उनके नीचे बैठे मुंशी की तो आश्चर्य से आँखें ही फटी पड़ी थी।

"छोटे ठाकुर।" फिर मुंशी ने हकलाते हुए पड़ा____"ये आपने अच्छा नहीं किया। आपको अपने ही पिता जी से इस तरह बातें नहीं करनी चाहिए थी।"
"मैंने कहा था न मुंशी।" मैंने मुंशी चंद्रकांत की तरफ क़हर भरी नज़रों से देखते हुए कहा____"कि मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता। इस लिए अपनी जुबान बंद रख तू और ले जा यहाँ से अपने ठाकुर साहब को।"

"आज तुमने हमारा बहुत दिल दुखाया है लड़के।" ठाकुर प्रताप सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हम ये मानते हैं कि हमने तुम्हें ऐसी सज़ा दे कर अच्छा नहीं किया था किन्तु उस समय तुमने काम ही ऐसा किया था कि हम अपना आप खो बैठे थे और फिर गुस्से में हमने वैसा फैसला सुना दिया था। बाद में हमें भी एहसास हुआ था कि हमने वैसा फैसला सुना कर बिल्कुल भी ठीक नहीं किया था किन्तु फैसला सुनाने के बाद फिर कुछ नहीं हो सकता था। अगर हम ऐसा करने के बाद फिर से पंचायत बुला कर अपना फैसला बदलते तो लोग क्या कहते हमें? यही कहते न कि ठाकुर ने अपने बेटे के लिए अपना फैसला बदल दिया? लोग कहते कि अगर यही फैसला हमने किसी और के लिए सुनाया होता तो क्या हम अपना फैसला बदल देते? हम तुम्हारे अपराधी हैं और हमें पूरी तरह से एहसास है कि हमने तुम्हें घर गांव से निष्कासित करके ग़लत किया था लेकिन यकीन मानो तुम्हें अपने से दूर कर के हम भी कभी खुश नहीं रहे। तुम्हारे सामने भी सिर्फ इसी लिए नहीं आये कि गांव के लोग तरह तरह की बातें करने लगेंगे? वो यही कहेंगे कि हमने खुद ही अपने फैसले का पालन नहीं किया और पुत्र मोह में तुम्हारे पास पहुंच गए? गलतियां हर इंसान से होती है बेटे। इस धरती पर कोई भगवान नहीं है जिससे कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती। ख़ैर छोड़ो ये सब बातें, और हां तुम्हें पूरा हक़ है हमसे नफ़रत करने का। हम तो यहाँ सिर्फ इस लिए आये हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि तुम किसी और मुसीबत में पड़ जाओ। हमें भी मुरारी की हत्या के बारे में पता चल गया है और हमें यकीन है कि तुमने उसकी हत्या नहीं की है।"

"चार महीनों से मैं जिन मुसीबतों को झेल रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"उससे इतना तो सक्षम हो ही गया हूं कि अब हर तरह की मुसीबतों का सामना खुद ही कर सकूं। इस लिए मेरे लिए फ़िक्र करने की आपको कोई ज़रूरत नहीं है।"

"एक बात और भी है जो हम तुम्हें खुद बताने आये हैं।" ठाकुर प्रताप सिंह ने मेरी बातों को जैसे नज़र‌अंदाज़ करते हुए कहा____"और वो ये कि सभी गांव वालों का कहना है कि हम तुम्हें अपने इस फैसले से आज़ाद करके वापस बुला लें। इस लिए कल सभी गांव वालों के सामने पंचायत बैठेगी और उस पंचायत में सबकी रज़ामंदी से ये फैसला होगा कि तुम पर से सारी पाबंदियां हटा कर तुम्हें वापस बुला लिया जाए।"

"अगर आप ये सोचते हैं कि आपकी इस बात से मैं खुश हो जाऊंगा।" मैंने सपाट लहजे में कहा_____"तो ग़लत सोचते हैं आप। मैं पहले ही बता चूका हूं कि अब इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से आपने मेरा हुक्का पानी बंद कर के निकाल दिया था। अब यही मेरा घर है और यही मेरी कर्म भूमि है। जब तक साँसें चलेंगी यहीं रहूंगा और फिर इसी धरती की गोद में हमेशा के लिए सो जाऊंगा।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" कहने के साथ ही ठाकुर प्रताप सिंह ने मुंशी से कहा_____"चलिए मुंशी जी अब हम यहाँ एक पल के लिए भी नहीं रुकना चाहते।"
"पर ठाकुर साहब??" मुंशी ने कुछ कहना ही चाहा था कि मेरे बाप ने हाथ उठा कर उसे चुप करा दिया।

उसके बाद मेरे बाप की बग्घी वापस मुड़ी और जिधर से आई थी उधर ही चली गई। अपने बाप की हसरतों को अपने पैरों तले कुचल कर मुझे एक अजीब सी शान्ति मिली थी। मैं खुद भी जानता था कि मेरे बाप से मेरी आज की ये मुलाक़ात उस तरीके से तो बिलकुल भी ठीक नहीं थी जिस तरीके से मैं उनसे पेश आया था किन्तु ग़लत ही सही मगर इससे मुझे आत्मिक सुकून ज़रूर मिला था।

ठाकुर प्रताप सिंह के जाते ही मैं भी मुरारी के घर की तरफ बढ़ चला। सारे रास्ते मैं अपने बाप से हुई बातों के बारे में सोचता रहा और मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब मुरारी के घर के सामने पहुंच गया। मेरा ध्यान तो तब टूटा जब अचानक से ही किसी ने आ कर मेरा गिरेहबान पकड़ कर ज़ोर से चिल्लाया। मैंने हड़बड़ा कर सामने देखा तो पाया कि मेरा गिरेहबान पकड़ कर चिल्लाने वाला कोई और नहीं बल्कि मुरारी का भाई जगन था।

"तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?" जगन मेरा गिरेहबान पकड़े गुस्से में चीखा____"मैंने तुझसे कहा था न कि अगर तूने मेरे भाई के घर में क़दम भी रखा तो तुझे जान से मार दूंगा?"

जगन ने जिस तरह से मेरा गिरेहबान पकड़ कर गुस्से में मुझसे ये कहा था उससे मेरी झांठें तक सुलग गईं थी। एक तो मैंने कुछ किया नहीं था ऊपर से ये कुछ ज़्यादा ही उछल रहा था। मैंने एक झटके में अपना गिरेहबान उससे छुड़ाया और उसके दुबले पतले जिस्म को दोनों हाथों से ऊपर उठा कर पूरी ताकत से ज़मीन पर पटक दिया। कच्ची किन्तु ठोस ज़मीन पर गिरते ही जगन की चीख निकल गई और वो दर्द से कराहने लगा।

"अपनी औका़त में रह समझा?" फिर मैंने गुस्से में उसका गिरेहबान पकड़ कर उठाते हुए कहा___"वरना जो मैंने किया ही नहीं है वो अब तेरे साथ कर दूंगा और तू मेरी झाँठ का बाल तक नहीं उखाड़ पाएगा । जब मैंने कह दिया कि मैंने मुरारी काका को नहीं मारा तो मान लेना चाहिए था ना कि नहीं मारा मैंने उन्हें। साले तुझसे ज़्यादा मुझे मुरारी काका की इस तरह से हुई हत्या का दुःख है और तू होता कौन है मुझ पर इल्ज़ाम लगाने वाला?"

मेरे गुस्से को देख कर जगन ढीला पड़ गया था। वैसे भी वो दस आदमियों के बल पर ही उस वक़्त इतना ताव में उछल रहा था वरना उसकी कोई औका़त नहीं थी कि ठाकुर प्रताप सिंह के खानदान के किसी भी सदस्य से वो ऊंची आवाज़ में बात कर सके। जगन को जब मैंने वहां मौजूद लोगों के सामने ही इस तरह उठा कर ज़मीन पर दे मारा था तो किसी ने चूं तक नहीं किया था। वो सब जानते थे कि आज मैं भले ही ऐसे हालात में था किन्तु मैं आज भी वही था जो पहले हुआ करता था।

मैंने जब देखा कि वहां मौजूद हर आदमी एकदम से चुप हो गया है तो मैंने जगन को धक्का दे कर अपने से दूर किया और मुरारी काका के घर के अंदर दाखिल हो गया। अंदर आया तो देखा सरोज काकी और अनुराधा एक कोने में बुत बनी बैठी हुई थीं। दोनों की आँखें रोने से लाल सुर्ख पड़ गईं थी। अनुराधा का छोटा भाई भी सरोज के पास ही दुबका बैठा हुआ था।

मुरारी काका की लाश को ज़मीन में ही अर्थी पर लिटा कर सफ़ेद कपडे़ से ढंक दिया गया था। उस लाश के चलते पूरे घर में मरघट जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। सरोज काकी और अनुराधा के आँसू रो रो कर सूख चुके थे। हालांकि किसी किसी वक़्त वो दोनों फिर से हिचकियां ले कर रोने लगतीं थी। मैं ख़ामोशी से आगे बढ़ा और मुरारी काका की लाश के पास बैठ गया।

मैंने लाश से सफेद कपड़ा हटा कर देखा तो एक पल के मेरी रूह तक काँप ग‌ई। मुरारी काका की गर्दन आधे से ज़्यादा कटी हुई थी और वहां से अभी भी खून रिस रिस कर नीचे अर्थी पर गिर रहा था। हत्यारे ने मुरारी काका की गर्दन पर किसी तेज़ धार वाले हथियार से एक ही वार किया था जिससे उनकी गर्दन आधे से ज़्यादा कट गई थी। गर्दन का ये हाल देख कर कोई भी कह सकता था कि मुरारी काका को उस वक़्त तड़पने का मौका भी ना मिला होगा और गले पर वार होते ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई होगी।

मुरारी काका की इस निर्मम हत्या को देख कर मैं ये सोचने लगा था कि जिस किसी ने भी उनकी इस तरह से हत्या की थी वो बहुत ही बेरहम रहा होगा और ज़रा भी नहीं चाहता रहा होगा कि उसके वार से मुरारी काका बच जाएं। मैं सोचने लगा कि मुरारी काका जैसे साधारण इंसान का भला ऐसा कौन दुश्मन हो सकता है जिसने उनकी इतनी बेरहमी से हत्या कर दी थी?

मैने मुरारी काका के चेहरे पर वापस कपड़ा डाला और उठ कर खड़ा हो गया। कुछ देर सोचने के बाद मैं पलटा और सरोज काकी की तरफ देखा। वो मुझे देख कर और भी ज़्यादा सिसकियां ले ले कर रोने लगी थी। यही हाल अनुराधा और उसके भाई का भी था।

"ये सब कैसे हुआ काकी?" मैंने गंभीर भाव से सरोज काकी से कहा____"कल रात तो मैंने खुद ही मुरारी काका को चारपाई पर लेटाया था और फिर खा पी कर यहाँ से जब गया था तब तक तो वो बिलकुल ठीक ही थे। फिर ये सब कब और कैसे हुआ?"

"हमें तो खुद ही नहीं पता चला कि उनके साथ ये सब कब हुआ था बेटा?" सरोज काकी ने सिसकते हुए कहा____"रात में तुम्हारे जाने के बाद मैंने एक बार उन्हें खाना खाने के लिए उठाने की कोशिश की थी मगर वो नशे में थे और गहरी नींद में सो गए थे इस लिए मेरे उठाने पर भी नहीं उठे। उसके बाद हम सबने खाना खाया और फिर सोने चले गए थे कमरे में। सुबह आँख खुली तो देखा वो अपनी चारपाई पर नहीं थे। मैंने सोचा शायद सुबह सुबह दिशा मैदान के लिए निकल गए होंगे। कुछ देर में मैं और अनुराधा भी दिशा मैदान के लिए घर से निकले। घर के पीछे की तरफ आये तो देखा वो घर के पीछे महुआ के पेड़ के पास खून से लथपथ पड़े थे। हम दोनों की तो डर के मारे चीखें ही निकल गई थी। बस उसके बाद तो बस रोना ही रह गया बेटा। सब कुछ लुट गया हमारा।"

कहने के साथ ही काकी हिचकियां ले कर रोने लगी थी। उसके साथ अनुराधा भी रोने लगी थी। इधर मैं ये सोच रहा था कि रात के उस वक़्त नशे की हालत में मुरारी काका घर के पीछे कैसे आएंगे होंगे? क्या वो खुद चल कर आये थे या फिर नशे ही हालत में उन्हें कोई और उठा कर घर के पीछे ले गया था? लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई और ले गया था तो काकी या अनुराधा को इसका पता कैसे नहीं चला? सबसे बड़ी बात ये कि क्या उस वक़्त घर का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था? मुरारी काका की हालत ऐसी नहीं थी कि वो खुद चल कर घर के पीछे तक जा सकें।


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बहुत ही बेहतरीन अपडेट है
वैभव अपने बाप से बहुत ज्यादा गुस्सा है जब ही वो अपने बाप से कड़वी और दिल को टेश पहुंचाने वाली बात कहता है मुरारी को किसने मार दिया । उस की किसी से क्या दुश्मनी थी ? मुरारी के भाई जगन का उस पर शक करना कोई गलत नहीं है क्योंकि मुरारी को वोही घर छोड़ कर आया था
पर ये भी सच है कि वैभव ने उसका खून नहीं किया है
अब बाद में देखेंगे कि आगे चलकर क्या होने वाला है तभी शायद कुछ कह सकें ।

ठाकुर साहब और वैभव का कन्वर्सेशन ..... मुरारी का मर्डर..... वैभव का उनके घर जाना....जगन के साथ उसकी बातों और तकरार ।
 

Sanju@

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 05
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अब तक,,,,,

सुबह मेरी आँख कुछ लोगों के द्वारा शोर शराबा करने की वजह से खुली। पहले तो मुझे कुछ समझ न आया मगर जब कुछ लोगों की बातें मेरे कानों में पहुंची तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ही हिल गई। चार महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मेरे आस पास इतने सारे लोगों का शोर मुझे सुनाई दे रहा था। मैं फ़ौरन ही उठा और लकड़ी के बने उस दरवाज़े को खोल कर झोपड़े से बाहर आ गया।

बाहर आ कर देखा तो क़रीब बीस आदमी हाथों में लट्ठ लिए खड़े थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। उन आदमियों में से कुछ आदमी मेरे गांव के भी थे और कुछ मुरारी के गांव के। मैं जैसे ही बाहर आया तो उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो तेज़ी से मेरी तरफ बढ़े। कुछ लोगों की आंखों में भयानक गुस्सा मैंने साफ़ देखा।


अब आगे,,,,,

"ये सब क्या है?" मैंने अपनी तरफ बढ़े चले आ रहे आदमियों को देखते हुए ऊंची आवाज़ में किन्तु अंजान बनते हुए कहा____"आज तुम लोग यहाँ पर क्यों जमा हो रखे हो?"
"देखो तो।" मेरी तरफ बढ़ रहे आदमियों में से एक ने दूसरे से कहा____"देखो तो कैसे भोला बन रहा है ये। इतना बड़ा काण्ड करने के बाद भी कहता है कि हम लोग यहाँ क्यों जमा हो रखे हैं?"

"अब इसे हम बताएंगे कि इसने जो किया है उसका अंजाम क्या होता है।" दूसरे आदमी ने अपने लट्ठ को हवा में उठाते हुए कहा____"बड़े ठाकुर का बेटा है तो क्या ये किसी की जान ले लेगा?"

"मारो इसे।" तीसरा आदमी ज़ोर से चीखा____"और इतना मारो कि इसके जिस्म से इसके प्राण निकल जाएं।"
"देखो तुम लोग अपनी हद पार कर रहे हो।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"तुम लोग जो समझ कर यहाँ मेरी जान लेने आये हो वैसा कुछ नहीं किया है मैंने।"

"तुम्हीं ने मेरे भाई मुरारी की बेरहमी से हत्या की है।" एक आदमी मेरे एकदम पास आते हुए ज़ोर से चीखा_____"तुम्हारे अलावा कल रात कोई नहीं गया था वहां। तुमने ही मेरे भाई की हत्या की है और अब हम तुम्हें भी ज़िंदा नहीं छोडेंगे।"

"मैं भला मुरारी काका की हत्या क्यों करुगा?" मैं अंदर से तो बेहद हैरान था कि मुरारी काका की हत्या हो गई है किन्तु अब इस बात से भी हैरान था कि उसकी हत्या का आरोप ये लोग मुझ पर लगा रहे थे इस लिए बोला____"आख़िर मेरी उनसे दुश्मनी ही क्या थी? तुम सब जानते हो कि चार महीने पहले मेरे बाप ने मुझे घर और गांव से निष्कासित कर दिया था। उसके बाद से मैं यहाँ सबसे अलग हो कर अकेले रह रहा हूं। ऐसे बुरे वक़्त में जब किसी ने भी मेरी कोई मदद नहीं की थी तब मुरारी काका ने ही मेरी मदद की थी। वो न होते तो मैं कब का भूखों मर जाता। जो इंसान मेरे लिए फ़रिश्ते जैसा है उसकी हत्या मैं क्यों करुंगा?"

"क्योंकि तुम उसकी बेटी को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहते थे।" उस आदमी ने चीखते हुए कहा जो मुरारी का भाई जगन था____"मैं जानता हूं कि बड़े ठाकुर का ये सपूत गांव की किसी भी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाने से नहीं चूकता। बड़े ठाकुर ने तुम्हे गांव से निकाल दिया था इस लिए तुम अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत का शिकार बनाने के लिए तड़पने लगे और जब मेरा भाई ऐसे वक़्त में तुम्हारी मदद करने आया तो तुमने उसी की बेटी को अपना शिकार बनाने का सोच लिया। मैं अपनी भतीजी को अच्छी तरह जानता हूं। वो ऐसी वैसी लड़की नहीं है और ये बात तुम भी समझ गए थे इसी लिए जब तुम्हारी दाल किसी भी तरह से नहीं गली तो तुमने मेरे भाई की ये सोच कर हत्या कर दी कि अब कोई तुम्हारे रास्ते में नहीं आएगा मगर तुम भूल गए कि तुम्हारे रास्ते की दीवार बन कर मुरारी का भाई भी खड़ा हो सकता है।"

"तुम पता नहीं ये क्या बकवास पेले जा रहे हो जगन काका।" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"मैं ये मानता हूं कि चार महीने पहले तक मैं ऐसा इंसान था जो अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाता था मगर जब से यहाँ आया हूं तब से मैं वैसा नहीं रहा। भगवान जानता है कि मैंने मुरारी की बेटी को कभी ग़लत नज़र से नहीं देखा। मैं इतना भी गिरा हुआ नहीं हूं कि जो मुझे अपने घर में दो वक़्त की रोटी दें उन्हीं के घर को बर्बाद कर दूं।"

मुरारी के छोटे भाई का नाम जगन सिंह था और वो भी अपने भाई मुरारी की तरह ही खेती बाड़ी करता था। मुरारी की हत्या के बाद वो अपने गांव के कुछ आदमियों को ले कर सुबह सुबह ही मेरे झोपड़े पर आ गया था। मुरारी की हत्या की ख़बर जंगल के आग की तरह फैलती हुई मेरे गांव तक भी पहुंच गई थी। पिता जी को जब इस ख़बर के बारे में पता चला होगा तो उन्होंने अपने कुछ आदमियों को यहाँ भेज दिया होगा। हालांकि ऐसा मेरा सिर्फ अनुमान ही था।

इधर मैं जगन को समझा रहा था कि मैंने मुरारी की हत्या नहीं की है मगर वो मानने को तैयार ही नहीं था किन्तु बाकी लोग मेरी बातें सुन कर सोच में ज़रूर पड़ गए थे और यही वजह थी कि उन लोगों का गुस्सा ठंडा हो गया था। जाते जाते जगन मुझे धमकी दे कर गया था कि अब अगर मैंने मुरारी के घर में क़दम भी रखा तो वो मुझे जान से मार देगा।

जगन के साथ उसके आदमी चले गए थे और उनके जाने के बाद मेरे गांव के लोग भी बिना मुझसे कुछ बोले चले गए। मैं ये सोच कर बेहद परेशान हो गया था कि जब मैंने मुरारी की हत्या की ही नहीं है तो उसकी हत्या का आरोप मेरे सिर पर क्यों लगा रहा था जगन?

जगन से मेरी एक दो बार मुलाकात हुई थी और वो मुझे अपने बड़े भाई मुरारी की तरह ही भला आदमी लगता था। हालांकि वो गांव में अपने बीवी बच्चों के साथ रहता था किन्तु मुरारी के यहाँ उसका आना जाना था और आना जाना हो भी क्यों न? दोनों भाईयों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी बल्कि काफी अच्छा ताल मेल था दोनों के बीच।

मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रात में सोने के बाद जब सुबह मेरी आँख खुलेगी तो मुझे इतना बड़ा झटका लगेगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुरारी की हत्या किसने की होगी और क्यों की होगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुरारी मेरी मदद करता था तो मेरे बाप ने उसे मरवा दिया हो। तभी मुझे याद आया कि कल रात जब मैं खा पी कर मुरारी के घर से चला था तो रास्ते में किसी ने मुझे ज़ोर का धक्का मारा था। मैंने उस ब्यक्ति को खोजा भी था मगर ना तो वो खुद मिला था मुझे और ना ही उसका कोई निशान मिला था मुझे। इतना तो मैं भी समझ रहा था कि मुरारी की हत्या रात में ही किसी वक़्त की गई थी मगर सवाल था कि किसने की थी उसकी हत्या? क्या उसी ब्यक्ति ने जिसने रास्ते में मुझे धक्का दिया था? आख़िर कौन था वो रहस्यमयी ब्यक्ति? क्या वो मेरे बाप का कोई आदमी था?

मुरारी की हत्या के बारे में सुन कर मैं उसके घर जाना चाहता था मगर जगन ने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैं उसके घर गया तो वो मुझे जान से मार देगा। मेरी आँखों के सामने सहसा मुरारी का चेहरा उभर आया। शुरू से ले कर अब तक का उसके साथ गुज़रा हुआ हर लम्हा याद आने लगा मुझे। एक वही था जिसने ऐसे वक़्त में मेरी इतनी मदद की थी और इतना ही नहीं अपने घर ले जा कर मुझे खाना भी खिलाता था। क्या ऐसे इंसान की मौत की वजह सिर्फ और सिर्फ मैं था? क्या उसकी हत्या किसी ने मेरी मदद करने की वजह से की थी? मुरारी के बारे में सोचते सोचते मेरी आँखें भर आईं। मैंने मन ही मन ईश्वर से पूछा कि ऐसा क्यों किया उस नेक इंसान के साथ?

झोपड़े के बाहर माटी के चबूतरे में बैठा मैं मुरारी के ही बारे में सोच रहा था। मुरारी की हत्या से मैं बुरी तरह हिल गया था और ये सोचने पर मजबूर भी हो गया था कि उसकी हत्या किस वजह से और किसने की होगी? आख़िर किसी की मुरारी से ऐसी क्या दुश्मनी हो सकती थी जिसके तहत उसकी इस तरह से हत्या कर दी गई थी?

मुझे एहसास हुआ कि मुरारी की इस अकस्मात हत्या से मैं बुरी तरह घिर गया हूं। मुरारी का भाई जगन और उसके गांव वाले सब मुझे ही मुरारी का हत्यारा कह रहे थे जबकि ये तो मैं ही जानता था कि मैं मुरारी की हत्या करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। मुझे एहसास हुआ कि एकाएक ही मैं कई सारी मुश्किलों में पड़ गया था।

मेरे ज़हन में ये भी ख़याल उभर रहे थे कि मुमकिन है कि मुरारी की हत्या मेरे बाप ने करवाई हो। मुरारी का मेरी इस तरह से मदद करना उसे शुरू से ही पसंद न रहा हो और जब उसके सब्र का बांध टूट गया तो उसने अपने आदमियों के द्वारा इस तरह से उसकी हत्या करवा दी हो कि उसकी हत्या का सारा इल्ज़ाम मेरे ही सिर पर आ जाए। इन ख़यालों से मैं फिर ये भी सोचता कि क्या मेरा बाप सच में ऐसा कर सकता है? क्या वो इस तरह से मुझे ऐसी मुश्किल में डालने का सोच सकता है? मैं ये तो मानता था कि मेरा बाप अपनी बदनामी को नहीं सह सकता किन्तु मेरा दिल इस बात को मानने से कतरा रहा था कि कोई बाप अपने बेटे को इतने संगीन अपराध में फंसा देगा। अब सोचने वाली बात थी कि अगर मेरे बाप ने मुरारी की हत्या नहीं करवाई थी तो किसने की उसकी हत्या और क्यों की?

मुरारी की इस प्रकार हुई हत्या से क्या उसकी बीवी और उसके बच्चे भी यही समझ रहे होंगे कि मैंने ही मुरारी की हत्या की है? मेरा दिल कह रहा था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच सकते थे क्योकि इतना तो वो भी सोचेंगे कि मैं भला मुरारी की हत्या क्यों करुंगा? दूसरी बात अगर वो ऐसा सोचते तो यकीनन वो मेरे पास आते और मेरा गिरेहबान पकड़ कर मुझसे पूछते कि मैंने ऐसा क्यों किया है? मतलब साफ़ था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच रहे थे या फिर ऐसा हो सकता था कि मुरारी के भाई जगन ने उन्हें मेरे पास आने ही न दिया हो। मुझे मेरा ये विचार ज़्यादा सही लगा और अब मुझे लग रहा था कि मुझे मुरारी के घर जा कर सरोज से मिलना चाहिए। आख़िर इतना तो मुझे भी पता होना चाहिए कि सरोज और उसकी बेटी अनुराधा मेरे बारे में क्या सोचती हैं?

जगन की धमकी के बावजूद मैंने फैसला कर लिया कि मैं मुरारी के घर जाउंगा। मैं सरोज से चीख चीख कर कहूंगा कि मैंने उसके पति की हत्या नहीं की है बल्कि कोई और ही है जिसने उसके पति की हत्या कर के उसका सारा इल्ज़ाम मुझ पर थोप दिया है।

अपने अंजाम की परवाह किये बिना मैं अपने झोपड़े से मुरारी के घर की तरफ चल दिया। मैं जानता था कि इस वक़्त उसके घर में उसके गांव वाले भी मौजूद होंगे और खुद जगन भी होगा जो मुझे वहां पर देखते ही मुझे जान से मारने की कोशिश करेगा। मुझे अपने अंजाम की अब कोई परवाह नहीं थी बल्कि मैं तो अब ये फैसला कर चूका था कि खुद पर लगे इस हत्या के इल्ज़ाम को अपने सर से हटाऊंगा और ये भी पता करुंगा कि मुरारी की हत्या कर के किसने मुझे फंसाया है?

झोपड़े से निकल कर मैं अभी कुछ दूर ही बढ़ा था कि मुझे अपने दाहिने तरफ से एक बग्घी आती हुई दिखी। मैं दूर से ही उस बग्घी में बैठे अपने बाप को पहचान गया था। अपने बाप को बग्घी में बैठ कर अपनी तरफ आते देख मेरे अंदर की नफ़रत उबाल मारने लगी और मेरी मुट्ठिया कस ग‌ईं। चार महीने बाद ये दूसरा अवसर था जब मेरे घर का कोई सदस्य मेरी तरफ आ रहा था। पहले भाभी आईं थी और अब खुद मेरा बाप आ रहा था। अपने बाप को देख कर मेरे मन में एक ही सवाल उभरा कि जिसने खुद मुझे घर गांव से निष्कासित किया था और जिसने पूरे गांव वालों को भी ये हुकुम दिया था कि कोई मुझसे किसी भी तरह का राब्ता न रखे वरना उसे भी मेरी तरह घर गांव से निकाल दिया जायेगा तो ऐसा फैसला सुनाने वाला खुद क्यों अपने कानून को तोड़ कर मेरे पास आ रहा था?

मेरे बाप की बग्घी अभी थोड़ी दूर ही थी और मैं कुछ पलों के लिए अपनी जगह पर रुक गया था किन्तु फिर मैं उस तरफ से अपनी नज़र हटा कर फिर से आगे बढ़ चला। अभी मैं कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि मेरे कानो में मुंशी चंद्रकांत की आवाज़ पड़ी। वो मुझे रुकने को कह रहा था मगर मैंने उसकी आवाज़ को अनसुना कर दिया। जब मैं न रुका तो वो तेज़ तेज़ आवाज़ें लगाते हुए मुझे रुकने को बोलने लगा। मेरे धमनियों में मेरे बाप का ही खून दौड़ रहा था जो मुंशी जैसे ऐरे गैरे की आवाज़ को नज़रअंदाज़ कर के आगे बढ़ा ही जा रहा था। असल में मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद मुझे आवाज़ लगा कर रुकने को कहे। पता नहीं क्यों पर मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद झुके और मुझे रुकने को कहे।

कहते हैं ना कि इंसान अपनी औलाद के आगे हार जाता है और मुझ जैसी औलाद हो तो हारने में ज़रा भी विलम्ब नहीं होता। अब ये मेरी बेशर्मी थी या खूबी इससे मुझे कोई मतलब नहीं था। जब मैं मुंशी की आवाज़ों पर नहीं रुका तो आख़िर मजबूरन मेरे बाप को खुद आवाज़ लगानी पड़ी और मैं यही तो चाहता था। अपने बाप की आवाज़ सुन कर मैं रुक गया और गर्दन घुमा कर उस तरफ देखा। बग्घी अब मेरे पास ही आ गई थी। आज चार महीने बाद मैं अपने बाप की सूरत देख रहा था। जिन आँखों में देखने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी उन आँखों से मैं बराबर अपनी आँखें मिलाये खड़ा था।

"छोटे ठाकुर।" बग्घी में मेरे आप के नीचे बैठे मुंशी ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा____"मैं कितनी देर से आपको आवाज़ें लगा रहा था और आप थे कि सुन ही नहीं रहे थे।"

"मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता।" मैंने शख़्त भाव से जब ये कहा तो मुंशी एकदम से हड़बड़ा गया।
"इतना कुछ होने के बाद भी तुम्हारी अकड़ नहीं गई?" ठाकुर प्रताप सिंह ने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"ख़ैर, कहा जा रहे थे?"

"आपसे मतलब?" मैंने अकड़ दिखाते हुए दो टूक भाव से कहा____"मेरी मर्ज़ी है। मैं जहां चाहूं अपनी मर्ज़ी से जा सकता हूं मगर चिंता मत करिये इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से चार महीने पहले मुझे निकाल दिया गया था।"

"ईश्वर जानता है कि हमने तुम्हें हर वो चीज़ दी थी जिसकी तुमने ख़्वाइश की थी।" ठाकुर प्रताप सिंह ने शांत लहजे में कहा____"हम आज तक समझ नहीं पाए कि हमने ऐसा क्या कर दिया था जिसके लिए तुमने हमारी इज्ज़त को उछालने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी? तुमने कभी ठंडे दिमाग़ से सोचा ही नहीं कि तुम जो करते थे वो कितना ग़लत था?"

"क्या यही सुनाने आये हैं यहाँ?" मैंने लापरवाही से कहा___"और अगर यही सुनाने आये हैं तो जान लीजिये कि मुझे आपका ये भाषण सुनने की ज़रा सी भी ख़्वाइश नहीं है।"

"क्या तुमने कभी ये सोचा है?" ठाकुर प्रताप सिंह ने पहले की भाँति ही शांत लहजे में कहा____"कि तुम्हारे इस रवैये से तुम्हारे माता पिता के दिल पर क्या गुज़रती है? हमने हमेशा तुम में अपनी छवि देखी थी और हमेशा यही सोचा था कि हमारे बाद हमारी बागडोर तुम ही सम्हाल सकोगे। तुम्हारे बड़े भाई में हमने कभी ऐसी खूबी नहीं देखी। हालांकि उससे हमें कभी कोई शिकायत नहीं रही है। उसने कभी भी तुम्हारी तरह हमें शर्मिंदा नहीं किया और ना ही गांव समाज में हमारी इज्ज़त पर दाग़ लगाया है मगर इसके बावजूद उसमे वो बात नहीं दिखी हमें जिससे की हम ये सोच सकें कि हमारे बाद वो हमारी बागडोर सम्हाल सकता है। तुमसे हमने बहुत सारी उम्मीदें लगा रही थी मगर तुमने हमेशा हमारी उम्मीदों पर पानी ही फेरा है।"

"इन बड़ी बड़ी बातों से आप इस बात पर पर्दा नहीं डाल सकते कि आपने क्या किया है।" मैंने कठोर भाव से कहा____"आपने अपनी ही औलाद को यहाँ मरने के लिए छोड़ दिया और ये ख़्वाहिश रखी कि आपके ऐसा करने से मैं खुश हो जाऊंगा मगर आपको ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है कि आपके ऐसा करने से मेरे अंदर आपके प्रति कितनी नफ़रत भर चुकी है। ठाकुर प्रताप सिंह आप सिर पटक मर जाइये मगर मेरे दिल में आपके लिए अब कोई जगह नहीं हो सकती। आज चार महीने हो गए और मुझे जन्म देने वालों ने एक पल के लिए भी यहाँ आ कर ये देखने की कोशिश नहीं की कि मैं यहाँ ज़िंदा बचा हूं या भूखों मर गया हूं? जाइये ठाकुर साहब जाइये... मैं अब आपका बेटा नहीं रहा। मैं आप सबके लिए मर चुका हूं।"

पता नहीं क्या हो गया था इस वक़्त मुझे? मैं ऐसे अल्फ़ाज़ में और ऐसे लहजे में अपने बाप से बातें कर रहा था जिसके बारे में शायद कोई बाप सोच भी नहीं सकता था। मेरी बातें सुन कर मेरा बाप मुझे इस तरह देखता रह गया था जैसे मैं कोई अजूबा था। उनके नीचे बैठे मुंशी की तो आश्चर्य से आँखें ही फटी पड़ी थी।

"छोटे ठाकुर।" फिर मुंशी ने हकलाते हुए पड़ा____"ये आपने अच्छा नहीं किया। आपको अपने ही पिता जी से इस तरह बातें नहीं करनी चाहिए थी।"
"मैंने कहा था न मुंशी।" मैंने मुंशी चंद्रकांत की तरफ क़हर भरी नज़रों से देखते हुए कहा____"कि मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता। इस लिए अपनी जुबान बंद रख तू और ले जा यहाँ से अपने ठाकुर साहब को।"

"आज तुमने हमारा बहुत दिल दुखाया है लड़के।" ठाकुर प्रताप सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हम ये मानते हैं कि हमने तुम्हें ऐसी सज़ा दे कर अच्छा नहीं किया था किन्तु उस समय तुमने काम ही ऐसा किया था कि हम अपना आप खो बैठे थे और फिर गुस्से में हमने वैसा फैसला सुना दिया था। बाद में हमें भी एहसास हुआ था कि हमने वैसा फैसला सुना कर बिल्कुल भी ठीक नहीं किया था किन्तु फैसला सुनाने के बाद फिर कुछ नहीं हो सकता था। अगर हम ऐसा करने के बाद फिर से पंचायत बुला कर अपना फैसला बदलते तो लोग क्या कहते हमें? यही कहते न कि ठाकुर ने अपने बेटे के लिए अपना फैसला बदल दिया? लोग कहते कि अगर यही फैसला हमने किसी और के लिए सुनाया होता तो क्या हम अपना फैसला बदल देते? हम तुम्हारे अपराधी हैं और हमें पूरी तरह से एहसास है कि हमने तुम्हें घर गांव से निष्कासित करके ग़लत किया था लेकिन यकीन मानो तुम्हें अपने से दूर कर के हम भी कभी खुश नहीं रहे। तुम्हारे सामने भी सिर्फ इसी लिए नहीं आये कि गांव के लोग तरह तरह की बातें करने लगेंगे? वो यही कहेंगे कि हमने खुद ही अपने फैसले का पालन नहीं किया और पुत्र मोह में तुम्हारे पास पहुंच गए? गलतियां हर इंसान से होती है बेटे। इस धरती पर कोई भगवान नहीं है जिससे कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती। ख़ैर छोड़ो ये सब बातें, और हां तुम्हें पूरा हक़ है हमसे नफ़रत करने का। हम तो यहाँ सिर्फ इस लिए आये हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि तुम किसी और मुसीबत में पड़ जाओ। हमें भी मुरारी की हत्या के बारे में पता चल गया है और हमें यकीन है कि तुमने उसकी हत्या नहीं की है।"

"चार महीनों से मैं जिन मुसीबतों को झेल रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"उससे इतना तो सक्षम हो ही गया हूं कि अब हर तरह की मुसीबतों का सामना खुद ही कर सकूं। इस लिए मेरे लिए फ़िक्र करने की आपको कोई ज़रूरत नहीं है।"

"एक बात और भी है जो हम तुम्हें खुद बताने आये हैं।" ठाकुर प्रताप सिंह ने मेरी बातों को जैसे नज़र‌अंदाज़ करते हुए कहा____"और वो ये कि सभी गांव वालों का कहना है कि हम तुम्हें अपने इस फैसले से आज़ाद करके वापस बुला लें। इस लिए कल सभी गांव वालों के सामने पंचायत बैठेगी और उस पंचायत में सबकी रज़ामंदी से ये फैसला होगा कि तुम पर से सारी पाबंदियां हटा कर तुम्हें वापस बुला लिया जाए।"

"अगर आप ये सोचते हैं कि आपकी इस बात से मैं खुश हो जाऊंगा।" मैंने सपाट लहजे में कहा_____"तो ग़लत सोचते हैं आप। मैं पहले ही बता चूका हूं कि अब इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से आपने मेरा हुक्का पानी बंद कर के निकाल दिया था। अब यही मेरा घर है और यही मेरी कर्म भूमि है। जब तक साँसें चलेंगी यहीं रहूंगा और फिर इसी धरती की गोद में हमेशा के लिए सो जाऊंगा।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" कहने के साथ ही ठाकुर प्रताप सिंह ने मुंशी से कहा_____"चलिए मुंशी जी अब हम यहाँ एक पल के लिए भी नहीं रुकना चाहते।"
"पर ठाकुर साहब??" मुंशी ने कुछ कहना ही चाहा था कि मेरे बाप ने हाथ उठा कर उसे चुप करा दिया।

उसके बाद मेरे बाप की बग्घी वापस मुड़ी और जिधर से आई थी उधर ही चली गई। अपने बाप की हसरतों को अपने पैरों तले कुचल कर मुझे एक अजीब सी शान्ति मिली थी। मैं खुद भी जानता था कि मेरे बाप से मेरी आज की ये मुलाक़ात उस तरीके से तो बिलकुल भी ठीक नहीं थी जिस तरीके से मैं उनसे पेश आया था किन्तु ग़लत ही सही मगर इससे मुझे आत्मिक सुकून ज़रूर मिला था।

ठाकुर प्रताप सिंह के जाते ही मैं भी मुरारी के घर की तरफ बढ़ चला। सारे रास्ते मैं अपने बाप से हुई बातों के बारे में सोचता रहा और मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब मुरारी के घर के सामने पहुंच गया। मेरा ध्यान तो तब टूटा जब अचानक से ही किसी ने आ कर मेरा गिरेहबान पकड़ कर ज़ोर से चिल्लाया। मैंने हड़बड़ा कर सामने देखा तो पाया कि मेरा गिरेहबान पकड़ कर चिल्लाने वाला कोई और नहीं बल्कि मुरारी का भाई जगन था।

"तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?" जगन मेरा गिरेहबान पकड़े गुस्से में चीखा____"मैंने तुझसे कहा था न कि अगर तूने मेरे भाई के घर में क़दम भी रखा तो तुझे जान से मार दूंगा?"

जगन ने जिस तरह से मेरा गिरेहबान पकड़ कर गुस्से में मुझसे ये कहा था उससे मेरी झांठें तक सुलग गईं थी। एक तो मैंने कुछ किया नहीं था ऊपर से ये कुछ ज़्यादा ही उछल रहा था। मैंने एक झटके में अपना गिरेहबान उससे छुड़ाया और उसके दुबले पतले जिस्म को दोनों हाथों से ऊपर उठा कर पूरी ताकत से ज़मीन पर पटक दिया। कच्ची किन्तु ठोस ज़मीन पर गिरते ही जगन की चीख निकल गई और वो दर्द से कराहने लगा।

"अपनी औका़त में रह समझा?" फिर मैंने गुस्से में उसका गिरेहबान पकड़ कर उठाते हुए कहा___"वरना जो मैंने किया ही नहीं है वो अब तेरे साथ कर दूंगा और तू मेरी झाँठ का बाल तक नहीं उखाड़ पाएगा । जब मैंने कह दिया कि मैंने मुरारी काका को नहीं मारा तो मान लेना चाहिए था ना कि नहीं मारा मैंने उन्हें। साले तुझसे ज़्यादा मुझे मुरारी काका की इस तरह से हुई हत्या का दुःख है और तू होता कौन है मुझ पर इल्ज़ाम लगाने वाला?"

मेरे गुस्से को देख कर जगन ढीला पड़ गया था। वैसे भी वो दस आदमियों के बल पर ही उस वक़्त इतना ताव में उछल रहा था वरना उसकी कोई औका़त नहीं थी कि ठाकुर प्रताप सिंह के खानदान के किसी भी सदस्य से वो ऊंची आवाज़ में बात कर सके। जगन को जब मैंने वहां मौजूद लोगों के सामने ही इस तरह उठा कर ज़मीन पर दे मारा था तो किसी ने चूं तक नहीं किया था। वो सब जानते थे कि आज मैं भले ही ऐसे हालात में था किन्तु मैं आज भी वही था जो पहले हुआ करता था।

मैंने जब देखा कि वहां मौजूद हर आदमी एकदम से चुप हो गया है तो मैंने जगन को धक्का दे कर अपने से दूर किया और मुरारी काका के घर के अंदर दाखिल हो गया। अंदर आया तो देखा सरोज काकी और अनुराधा एक कोने में बुत बनी बैठी हुई थीं। दोनों की आँखें रोने से लाल सुर्ख पड़ गईं थी। अनुराधा का छोटा भाई भी सरोज के पास ही दुबका बैठा हुआ था।

मुरारी काका की लाश को ज़मीन में ही अर्थी पर लिटा कर सफ़ेद कपडे़ से ढंक दिया गया था। उस लाश के चलते पूरे घर में मरघट जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। सरोज काकी और अनुराधा के आँसू रो रो कर सूख चुके थे। हालांकि किसी किसी वक़्त वो दोनों फिर से हिचकियां ले कर रोने लगतीं थी। मैं ख़ामोशी से आगे बढ़ा और मुरारी काका की लाश के पास बैठ गया।

मैंने लाश से सफेद कपड़ा हटा कर देखा तो एक पल के मेरी रूह तक काँप ग‌ई। मुरारी काका की गर्दन आधे से ज़्यादा कटी हुई थी और वहां से अभी भी खून रिस रिस कर नीचे अर्थी पर गिर रहा था। हत्यारे ने मुरारी काका की गर्दन पर किसी तेज़ धार वाले हथियार से एक ही वार किया था जिससे उनकी गर्दन आधे से ज़्यादा कट गई थी। गर्दन का ये हाल देख कर कोई भी कह सकता था कि मुरारी काका को उस वक़्त तड़पने का मौका भी ना मिला होगा और गले पर वार होते ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई होगी।

मुरारी काका की इस निर्मम हत्या को देख कर मैं ये सोचने लगा था कि जिस किसी ने भी उनकी इस तरह से हत्या की थी वो बहुत ही बेरहम रहा होगा और ज़रा भी नहीं चाहता रहा होगा कि उसके वार से मुरारी काका बच जाएं। मैं सोचने लगा कि मुरारी काका जैसे साधारण इंसान का भला ऐसा कौन दुश्मन हो सकता है जिसने उनकी इतनी बेरहमी से हत्या कर दी थी?

मैने मुरारी काका के चेहरे पर वापस कपड़ा डाला और उठ कर खड़ा हो गया। कुछ देर सोचने के बाद मैं पलटा और सरोज काकी की तरफ देखा। वो मुझे देख कर और भी ज़्यादा सिसकियां ले ले कर रोने लगी थी। यही हाल अनुराधा और उसके भाई का भी था।

"ये सब कैसे हुआ काकी?" मैंने गंभीर भाव से सरोज काकी से कहा____"कल रात तो मैंने खुद ही मुरारी काका को चारपाई पर लेटाया था और फिर खा पी कर यहाँ से जब गया था तब तक तो वो बिलकुल ठीक ही थे। फिर ये सब कब और कैसे हुआ?"

"हमें तो खुद ही नहीं पता चला कि उनके साथ ये सब कब हुआ था बेटा?" सरोज काकी ने सिसकते हुए कहा____"रात में तुम्हारे जाने के बाद मैंने एक बार उन्हें खाना खाने के लिए उठाने की कोशिश की थी मगर वो नशे में थे और गहरी नींद में सो गए थे इस लिए मेरे उठाने पर भी नहीं उठे। उसके बाद हम सबने खाना खाया और फिर सोने चले गए थे कमरे में। सुबह आँख खुली तो देखा वो अपनी चारपाई पर नहीं थे। मैंने सोचा शायद सुबह सुबह दिशा मैदान के लिए निकल गए होंगे। कुछ देर में मैं और अनुराधा भी दिशा मैदान के लिए घर से निकले। घर के पीछे की तरफ आये तो देखा वो घर के पीछे महुआ के पेड़ के पास खून से लथपथ पड़े थे। हम दोनों की तो डर के मारे चीखें ही निकल गई थी। बस उसके बाद तो बस रोना ही रह गया बेटा। सब कुछ लुट गया हमारा।"

कहने के साथ ही काकी हिचकियां ले कर रोने लगी थी। उसके साथ अनुराधा भी रोने लगी थी। इधर मैं ये सोच रहा था कि रात के उस वक़्त नशे की हालत में मुरारी काका घर के पीछे कैसे आएंगे होंगे? क्या वो खुद चल कर आये थे या फिर नशे ही हालत में उन्हें कोई और उठा कर घर के पीछे ले गया था? लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई और ले गया था तो काकी या अनुराधा को इसका पता कैसे नहीं चला? सबसे बड़ी बात ये कि क्या उस वक़्त घर का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था? मुरारी काका की हालत ऐसी नहीं थी कि वो खुद चल कर घर के पीछे तक जा सकें।


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बहुत ही बेहतरीन अपडेट है
वैभव अपने बाप से बहुत ज्यादा गुस्सा है जब ही वो अपने बाप से कड़वी और दिल को टेश पहुंचाने वाली बात कहता है मुरारी को किसने मार दिया । उस की किसी से क्या दुश्मनी थी ? मुरारी के भाई जगन का उस पर शक करना कोई गलत नहीं है क्योंकि मुरारी को वोही घर छोड़ कर आया था
पर ये भी सच है कि वैभव ने उसका खून नहीं किया है
अब बाद में देखेंगे कि आगे चलकर क्या होने वाला है तभी शायद कुछ कह सकें ।

ठाकुर साहब और वैभव का कन्वर्सेशन ..... मुरारी का मर्डर..... वैभव का उनके घर जाना....जगन के साथ उसकी बातों और तकरार ।
 

Sanju@

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 06
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अब तक,,,,,

कहने के साथ ही काकी हिचकियां ले कर रोने लगी थी। उसके साथ अनुराधा भी रोने लगी थी। इधर मैं ये सोच रहा था कि रात के उस वक़्त नशे की हालत में मुरारी काका घर के पीछे कैसे आएंगे होंगे? क्या वो खुद चल कर आये थे या फिर नशे ही हालत में उन्हें कोई और उठा कर घर के पीछे ले गया था? लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई और ले गया था तो काकी या अनुराधा को इसका पता कैसे नहीं चला? सबसे बड़ी बात ये कि क्या उस वक़्त घर का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था? मुरारी काका की हालत ऐसी नहीं थी कि वो खुद चल कर घर के पीछे तक जा सकें।

अब आगे,,,,,

मेरा सिर चकराने लगा था मगर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे याद आया कि कल रात जब मैं यहाँ से अपने झोपड़े के लिए निकला था तो रास्ते में मैं किसी आवाज़ को सुन कर रुक गया था और फिर कुछ देर में मुझे किसी ने ज़ोर का धक्का मारा था। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या उस अंजान ब्यक्ति का मुरारी काका की हत्या से सम्बन्ध हो सकता है? आख़िर कौन था वो और उस वक़्त वो वहां पर क्या करने गया था? इसके पहले तो कभी ऐसा कुछ नहीं घटित हुआ था फिर कल रात ही ऐसा क्यों हुआ था?

मुरारी काका की हत्या उसी अंजान ब्यक्ति ने की थी ऐसा मेरा अनुमान था बांकी कोई और मेरे ज़हन में नहीं आ रहा था किन्तु सबसे बड़ा सवाल यही था कि वो अंजान और रहस्यमय ब्यक्ति था कौन?

"क्या किसी ने पुलिस में इसकी रिपोर्ट की?" फिर मैंने दिमाग़ से सारी बातों को झटकते हुए काकी से पूछा____"अब तक तो पुलिस को यहाँ पर आ जाना चाहिए था और इस मामले को उसे अपने हाथ में ले लेना चाहिए था।"

"जगन कुछ लोगों को ले कर रपट लिखवाने तो गया था।" सरोज काकी ने कहा____"पर एक घंटा हो गया और अभी तक पुलिस का दरोगा नहीं आया । क्या हम इनकी अर्थी को यहाँ पर ऐसे ही रखे रहेंगे?"

"अगर जगन काका ने थाने में रिपोर्ट की होगी तो दरोगा ज़रूर आएगा काकी।" मैंने कहा____"थोडी देर इंतज़ार करो।"
"और कितना इंतज़ार करें बेटा?" सरोज काकी ने दुखी भाव से कहा____"इतनी देर तो हो गई मगर अभी तक कोई पुलिस वाला नहीं आया। मैं सब समझती हूं। हम गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है। जिसने मेरे मरद की हत्या की है उसने दरोगा को रूपिया खिला दिया होगा। तभी तो दरोगा अभी तक नहीं आया। मेरे मरद के हत्यारे का कोई पता नहीं लगाएगा और ना ही उसे कोई सज़ा देगा।"

"ऐसा नहीं होगा काकी।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"अगर पुलिस मुरारी काका के हत्यारे का पता नहीं लगाएगी तो मैं खुद उनके हत्यारे का पता लगाऊंगा।"

"नहीं बेटा।" सरोज काकी ने झट से कहा____"तुम इस झमेले में मत पड़ो। मैं नहीं चाहती कि इस लफड़े की वजह से तुम पर कोई मुसीबत आ जाए। वैसे भी मेरा मरद तो अब मुझे वापस मिलेगा नहीं। धीरे धीरे सब भुला देंगे कि मेरे मरद के साथ क्या हुआ था।"

"मैं किसी लफड़े से नहीं डरता काकी।" मैंने गर्मजोशी से कहा____"मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा के रहूंगा, क्योंकि उनकी हत्या के लिए मुझ पर भी इल्ज़ाम लगाया गया है। इस लिए मैं हर कीमत पर ये पता कर के रहूंगा कि मुरारी काका की इस तरह से हत्या किसने की है और उनकी हत्या में मुझे किसने फंसाया है?"

सरोज काकी और अनुराधा मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। उसके बाद सरोज काकी ने मुझसे इस बात के लिए माफ़ी मांगी कि मुरारी काका की हत्या की वजह से उसके देवर जगन ने मुझे उल्टा सीधा बोला था।

मैं सरोज काकी के घर में करीब एक घंटे तक रहा मगर कोई पुलिस वाला नहीं आया। ये देख कर मैं सोच में पड़ गया था कि कहीं सरोज काकी की बातें सच तो नहीं हैं? क्या सच में हत्यारे ने पुलिस को रूपिया खिला दिया होगा और मुरारी काका की हत्या के इस मामले को दबा दिया होगा? मेरे मन में सवाल उभरा कि ऐसा कौन कर सकता है? हत्या जैसा संगीन अपराध करने के बाद ऐसा कौन है जो पुलिस को इस हत्या की जांच करने से ही रोक दे? अगर सच में ऐसा ही था तो ऐसा काम कोई साधारण आदमी नहीं कर सकता था। ज़रूर कोई ऐसा ब्यक्ति होगा जिसका दबदबा पुलिस और कानून पर है। जहां तक मैं जानता था ऐसा इंसान आस पास के गांव में कोई नहीं था तो फिर कौन हो सकता है?

मैं ये सोच ही रहा था कि एकदम से मेरे दिमाग़ की बत्ती जल उठी और मेरे ज़हन में जो नाम उभर कर आया वो नाम खुद मेरे बाप का था___ठाकुर प्रताप सिंह। आस पास के गांवों में एक मेरा बाप ही ऐसा था जिसका दबदबा पुलिस पर ही नहीं बल्कि शहर के बड़े बड़े लोगों पर भी था। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या ऐसा करने वाला शख़्स मेरा बाप ही हो सकता है? वो बड़ी आसानी से मुरारी की हत्या के मामले को पुलिस के द्वारा दबा सकते थे। अब सवाल ये था कि उन्होंने मुरारी की हत्या क्यों करवाई होगी? अगर उन्हें मुरारी से कोई समस्या थी तो वो मुरारी काका को पहले अपने तरीके से समझा बुझा सकते थे जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। अगर हुआ होता तो मुरारी काका मुझसे इस बात का ज़िक्र ज़रूर करते।

मैं बुरी तरह उलझ कर रह गया था और किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। अभी मैं इन सब बातों को सोच ही रहा था कि तभी बाहर से जगन कुछ लोगों के साथ अंदर आया और मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया।

"देख लिया छोटे ठाकुर?" जगन ने अजीब भाव से कहा____"सुबह मैं अपने भाई की रपट लिखाने के लिए थाने गया था और दरोगा को सब कुछ बताया भी था, किन्तु देख लो सुबह से दोपहर हो गई और दरोगा अभी तक नहीं आया। इसका मतलब तो तुम भी खूब समझते होगे छोटे ठाकुर।"

"कहना क्या चाहते हो तुम?" मैंने कठोर भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा।
"मैं कहना कुछ नहीं चाहता छोटे ठाकुर।" जगन ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"मगर समझ में सबके आ रहा है कि इसका मतलब क्या है। तुम मेरे भाई की तरह मेरी भी हत्या कर दो मगर मैं ये चीख चीख कर कहूंगा कि तुमने ही मेरे भाई की हत्या की है और तुम्हारे पिता ठाकुर प्रताप सिंह ने तुम्हें मेरे भाई की हत्या के जुर्म से बचाने के लिए थाने में दरोगा को रूपिया खिला दिया है। अगर ऐसा न होता तो दरोगा यहाँ बहुत पहले ही आ चुका होता।"

"तुम्हें जो सोचना है सोचते रहो।" मैंने जगन से कहा___"मैं और मेरा भगवान जानता है कि मैंने मुरारी काका की हत्या नहीं की है। इसके बावजूद अगर तुम और तुम्हारे गांव वाले इस हत्या का दोषी मुझे मानते हैं तो मैं वादा करता हूं तुमसे कि मुरारी काका के असल हत्यारे का पता मैं खुद लगाऊंगा।"

कहने के साथ ही मैं दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो पीछे से जगन ने कहा___"मैं अब और अपने भाई की लाश को इस तरह यहाँ नहीं रख सकता। दरोगा को आना होता तो कब का आ जाता। इस लिए मैं अपने भाई का अब अंतिम संस्कार करने जा रहा हूं। बाद में अगर दरोगा आया और उसने कोई लफड़ा किया तो उसके जिम्मेदार भी तुम ही होगे।"

मैं जगन से बिना मतलब की बहस नहीं करना चाहता था इस लिए बिना कुछ बोले ही मैं मुरारी काका के घर से निकल कर अपने खेत की तरफ चला गया। रास्ते में मैं यही सोच रहा था कि अगर सच में थाने के दरोगा को हत्यारे ने रूपिया खिला कर इस मामले को दबा दिया होगा तो क्या मैं खुद इतनी आसानी से मुरारी के हत्यारे का पता लगा पाऊंगा? क्योंकि उस सूरत में संभव था कि मेरे लिए खुद कोई बड़ी मुसीबत हो जाए। हत्यारा किसी भी हाल में नहीं चाहेगा कि मैं उसका पता लगाऊं और उसे सबके सामने लाऊं। इसके लिए वो कुछ भी कर सकता था मेरे साथ। इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं मुरारी के हत्यारे का पता लगाता हूं तो मुझे खुद बहुत ही ज़्यादा सतर्क और सावधान रहना होगा।

मैं यही सब सोचते हुए अपने झोपड़े के करीब पंहुचा ही था कि मेरी नज़र आसमान की तरफ जाते हुए भीषण धुएं पर पड़ी। सामने कुछ पेड़ थे इस लिए ठीक से कुछ दिख नहीं रहा था मगर इतने भयंकर धुएं को देख कर मेरे मन में बुरे बुरे ख़याल आने लगे और फिर एकदम से मेरे मस्तिष्क में बिजली की तरह ख़याल आया कि ये धुआँ कहीं मेरी गेहू की फसल जलने का तो नहीं? ये ख़याल दिमाग़ में आते ही मैं तेज़ी से खेत की तरफ दौड़ पड़ा और जैसे ही मेरी नज़र मेरे खेत के उस भाग पर पड़ी जिस भाग पर मैंने गेहू की पुल्लियों का गड्ड जमा किया था मेरे होश उड़ गए।

चार महीने में अपनी जी जान लगा कर जिस फसल को मैंने उगाया था वो भयानक आग की लपटों में घिरी धू धू कर के जल रही थी और मैं सिर्फ देखने और तड़पने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। अपनी इतनी मेहनत से उगाई गई फसल को मैं पत्थर की मूरत बना बस देखे जा रहा था। एक तरफ मेरी फसल जल रही थी और दूसरी तरफ मेरा दिल मेरा जिस्म जलने लगा था। इस भयानक मंज़र को देख कर जैसे मेरे अंदर से मेरे प्राण ही निकल गए थे। वो फसल मेरा प्राण ही तो थी जिसे मैंने पिछले चार महीनों में अपना खून पसीना बहा कर उगाया था और वही फसल मेरी आँखों के सामने जल कर ख़ाक होती जा रही थी। मेरा जी चाहा कि मैं दहाड़ें मार कर रोना शुरू कर दूं और जिसने भी ये किया था उसे भी इसी आग में डाल कर ख़ाक में मिला दूं।

सूखी हुई गेहू की फसल को जल कर ख़ाक होने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगा। आसमान तक उठता हुआ आग और धुआँ धीरे धीरे शांत पड़ता चला गया मगर अब मेरे अंदर उससे भी ज़्यादा आग जलने लगी थी। मैं किसी भी कीमत पर उस इंसान को खोज लेना चाहता था जिसने मुझसे अपनी दुश्मनी मेरी फसल को जला कर निकाली थी किन्तु सबसे पहला सवाल तो यही था कि किसने किया था ये सब? आख़िर मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था जो किसी ने मेरे साथ ऐसा किया था? अगर किसी की मुझसे कोई दुश्मनी ही थी तो सामने आ कर मुझसे मुकाबला करता। यूं कायरों की तरह फसल जला कर कौन सी मर्दानगी दिखाई थी उसने?

किसी हारे हुए जुवांरी की तरह बेबस और लाचार सा मैं खेत के किनारे पर ही बैठ गया। अपनी मेहनत को इस तरह जल कर ख़ाक में मिलते देख मेरी आँखों से आँसू छलक पड़े। ऊपर बैठे भगवान से मैंने मन ही मन पूछा कि इस फसल ने किसी का क्या बिगाड़ा था प्रभू? अगर किसी का कुछ बिगड़ा था तो मुझसे बोलता। फिर ऐसा क्यों करवाया तुमने?

जाने कितनी ही देर तक मैं बेजान सा वहीं पर बैठा रहा। इन चार महीनों से मैं अपनी उस फसल के सहारे ही तो यहाँ रह रहा था मगर अब ना तो कोई सहारा बचा था और ना ही कोई मकसद। दिलो दिमाग़ तो जैसे कुंद सा पड़ गया था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मुझे इस तरह से बर्बाद करने वाला कौन था और उसने ऐसा क्यों किया था?

अपनी आंखों में दहकते हुए अंगारे और अंदर गुस्से का जवालामुखी भड़काये मैं उठा और पलट कर झोपड़े की तरफ बढ़ चला। अभी कुछ क़दम ही आगे बढ़ा था कि मेरी नज़र दूर से आते हुई एक बग्घी पर पड़ी। बग्घी में बैठे हुए दो इंसानों को मैंने अच्छी तरह पहचान लिया। चार महीने बाद अब ये क्यों हो रहा था? मेरे घर परिवार का कोई सदस्य क्यों मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा था। सच कहूं तो अपने घर परिवार के लोगों से इतनी नफ़रत हो गई थी मुझे कि अब मैं उनमे से किसी की भी शक्ल नहीं देखना चाहता था। इस वक़्त मैं नहीं चाहता था कि मेरे घर का कोई सदस्य मेरे गुस्से का शिकार हो जाये पर कदाचित होनी को कौन टाल सकता था? थोड़ी ही देर में वो बग्घी मेरे झोपड़े के पास आ कर रुकी और बग्घी में बैठे मेरे घर के दोनों सदस्य बग्घी से उतर कर मेरे सामने आ ग‌ए। उन दोनों सदस्यों में एक मेरी माँ थी और दूसरा मेरा बड़ा भाई ठाकुर अभिनव सिंह।

"ये क्या हालत बना रखी है तुमने मेरे बेटे?" माँ ने तड़प कर मुझसे कहा____"चल घर चल। मैं तुझे लेने आई हूं।"
"माफ़ करना मैं ठाकुर खानदान के किसी भी सदस्य को नहीं जानता।" मैंने अपने गुस्से को किसी तरह काबू करते हुए शख़्त भाव से कहा____"और ना ही अब कभी जानना चाहता हूं। इस लिए बेहतर होगा कि आप लोग यहाँ से चले जाएं।"

"ये तू किस लहजे में बात कर रहा है वैभव?" मेरे भाई ने शख़्त भाव से कहा____"अपने से बड़ों का आदर करना आज भी नहीं आया तुझे।"
"और आगे भी मुझसे किसी आदर की उम्मीद मत रखना।" मैंने भाई की आँखों में आँखें डाल कर कहा____"अगर अपने इज्ज़त सम्मान की इतनी ही परवाह है तो यहाँ नहीं आना चाहिए आपको।"

"तुझे मैंने मना किया था ना कि तू इससे कोई बात नहीं करेगा?" माँ ने भाई को डांटते हुए कहा____"तू भी अपने बाप की तरह इज्ज़त और सम्मान का झूठा टोकरा लिए फिरता है। किसी दिन सोचा है कि अपने छोटे भाई को एक बार देख आंऊ कि वो किस हाल में है?" कहने के साथ ही माँ ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तू इसकी बातों पर ध्यान मत दे बेटा। तू मेरे साथ घर चल। तू नहीं जानता कि जब से तू यहाँ आया है तब से मेरी क्या हालत थी? ठाकुरों के गुरूर के आगे किसी का बस नहीं चलता। वो ये नहीं समझ सकते कि उनके द्वारा ऐसा करने से एक माँ पर क्या गुज़रती है? तू अब घर चल बेटा। मैं अब और तुझे यहाँ नहीं रहने दूंगी।"

"सुना है औलाद पर अपने माता पिता का कर्ज़ होता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"जिसे औलाद को चुकाना पड़ता है। बाप ने तो औलाद को कर्ज़ चुकाने का अवसर ही नहीं दिया बल्कि घर गांव से निष्कासित कर के खुद ही अपना कर्ज़ वसूल कर लिया है। अब रह गया माता का कर्ज़ तो तुम मेरी जान मांग लो माता श्री, मैं ख़ुशी से अपनी जान दे दूंगा मगर ये वैभव सिंह उस हवेली की दहलीज़ पर अब कभी अपने क़दम नहीं रखेगा....इस जनम में तो हरगिज़ भी नहीं।"

"ये तू क्या कह रहा है मेरे लाल?" माँ की आँखों से आँसू बह चले____"इतना कठोर कैसे हो सकता है मेरा खून? नहीं नहीं तू ऐसा नहीं कर सकता। तू अभी और इसी वक़्त मेरे साथ घर चलेगा।"

"मैंने तो ये सोच लिया था माता श्री।" मैंने सपाट लहजे से ही कहा____"कि अपने बाप की इज्ज़त और खोखले गुरूर को एक दिन मिट्टी में मिला दूँगा मगर अब ऐसा नहीं करुंगा। जानती हैं क्यों? क्योंकि ऐसा ना कर के अब मैं अपनी माता का क़र्ज़ भी चुकाऊंगा। अब हमारे बीच कुछ नहीं रह गया। इस लिए जाइये माता श्री। आपके खानदान का वंश चलाने के लिए आपका एक बेटा तो है ही।"

मैने ये कहा ही था कि माँ ने आगे बढ़ कर मेरे गाल पर खींच के एक थप्पड़ रसीद कर दिया, फिर रोते हुए बोलीं____"बेशरम, ऐसी बातें सोच भी कैसे सकता है तू?

माँ ने मुझे थप्पड़ मार दिया था और थप्पड़ मार कर खुद सिसकने लगीं थी। उनके थप्पड़ मार देने से मेरे अंदर जो आग जल रही थी वो और भी ज़्यादा भड़क उठी थी जिसे मैंने बड़ी ही मुश्किल से सम्हाला। मेरा बड़ा भाई मुझे इस तरह देख रहा था जैसे वो मुझे कच्चा चबा जाएगा। हालांकि मुझे उसके इस तरह देखने से घंटा कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था किन्तु माँ के थप्पड़ पर और उनकी बात पर मैं बोला कुछ नहीं। उधर कुछ देर सिसकने के बाद माँ ने मेरी तरफ करुण भाव से देखा।

"एक मैं ही नहीं बल्कि सारा गांव ये समझता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हे इस तरह गांव से निष्कासित कर के ठीक नहीं किया था।" माँ ने कहा____"और ये बात खुद ठाकुर साहब भी कबूल करते हैं कि उन्होंने ऐसा कर के ग़लत किया था मगर अपने फैसले को तुरंत ही बदल देना उनके बस में नहीं था। उस दिन के बाद से उनके चेहरे का तेज़ जैसे बुझ ही गया है। वो अपने फैसले के लिए दुखी हो गए थे और जिस इंसान को मैंने हमेशा गर्व से अपना सर उठाए ही देखा था उस इंसान को अपने उस फैसले के बाद से बेहद थका हुआ और बेबस सा देखा है मैंने। तू ये समझता है कि इतने महीनों में कोई तुझे देखने नहीं आया तो तू ग़लत समझता है बेटे। मुझे उनसे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी और उन्होंने तेरी सुरक्षा का पूरा प्रबंध कर दिया था जिससे कि यहाँ अकेले रहते हुए तुझ पर कोई मुसीबत न आए। जब तू यहाँ रात में अपने इस झोपड़े पर सो जाता था तो तेरी सुरक्षा के लिए तेरे पिता जी गुप्त रूप से अपने आदमियों को यहाँ पहरे पर लगा देते थे।"

मां की बातें सुन कर मैं मन ही मन बुरी तरह चौंका। मेरे अंदर जल रही आग मुझे ठंडी पड़ती महसूस हुई और मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि क्या सच में ऐसा ही था या माँ मुझे घर ले जाने के लिए मुझसे ये सब झूठी बातें कह रहीं थी?

"मां बाप कभी भी अपनी औलाद का बुरा नहीं सोचते बेटा।" मुझे ख़ामोश देख कर माँ ने बड़े प्यार से कहा____"औलाद चाहे जैसी भी हो वो अपने माँ बाप के लिए अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी होती है। माँ बाप अगर औलाद पर किसी तरह की शख़्ती करते हैं तो उसके पीछे अपनी औलाद के लिए भलाई की भावना ही छिपी होती है। मैं तुझसे किसी बात के लिए शिकायत नहीं कर रही बेटा, बल्कि तुझे वो दिखाने का प्रयास कर रही हूं जो तुझे कभी दिखा ही नहीं।" कहने के साथ ही माँ आगे बढ़ी और मेरे चेहरे को अपने हाथों से सहलाते हुए कहा____"मैं चाहती हूं कि मेरा बेटा सब कुछ भुला कर अपनी माँ के साथ घर चले। तू नहीं जानता कि तेरे बिना वो घर वो हवेली कितनी वीरान लगती है। तूने उस दिन अपनी भाभी को गुस्से में दुत्कार दिया था जिससे वो घर आ कर बहुत रोई थी और दो दिनों तक खाना नहीं खाया था उसने। किसी को सज़ा देना बहुत आसान होता है बेटा मगर किसी को प्यार दे कर उसे खुश रखना बहुत ही मुश्किल होता है।"

मां की बातें बिजली बन कर मेरे दिल को चीरती जा रही थी और मेरे दिलो दिमाग़ को जैसे झकझोरती भी जा रहीं थी। मेरे अंदर विचारों की आँधियां सी चलने लगीं थी जिसे रोक पाना मेरे बस में नहीं था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये एकदम से मुझे क्या होने लगा था। मेरे दिल में तो अपने घर परिवार के सदस्यों की शक्ल तक देखने की हसरत बाकी नहीं रही थी और उनके लिए गुस्सा और नफ़रत ही भरा हुआ था किन्तु अब मेरे अंदर से वो गुस्सा और वो नफ़रत बड़ी तेज़ी से गायब होती जा रही थी। मेरे दिलो दिमाग़ में जैसे एक द्वन्द सा चलने लगा था और मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस द्वन्द से खुद को आज़ाद कर लूं मगर मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पा रहा था।

"मैं जानती हूं मेरे बेटे कि जो कुछ हुआ है उससे तेरे दिल में हम सभी के लिए गुस्सा और नफ़रत भर गई है।" मेरी ख़ामोशी को देख माँ ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"यही वजह थी कि तूने उस दिन अपनी भाभी से गुस्से में बात की और उसे दुत्कार दिया था। उसके बाद जब तेरे पिता जी आये तो तूने उनसे भी ऐसी बातें की जो शायद ही आज तक किसी बेटे ने अपने पिता से की हों। तेरा गुस्सा और तेरी नाराज़गी जायज़ थी बेटा लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम गुस्से में बहुत कुछ ऐसा बोल जाते हैं जिसके लिए बाद में हमें बेहद पछतावा होता है। इसी लिए बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि बिना सोचे समझे और बिना सच को जाने कभी भी ऐसी बातें नहीं बोलनी चाहिए क्योंकि जब बाद में हमें असलियत का पता चलता है तो हम खुद की ही नज़रों से गिर जाते हैं। मैं नहीं चाहती कि मेरे बेटे को ऐसा दिन देखना पड़े। ख़ैर छोड़ ये सब बातें और चल मेरे साथ। मैं तुझसे वादा करती हूं कि अब से वही होगा जो तू कहेगा।"

"आप जाइये मां।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा। इस वक़्त मेरा ज़हन एकदम से शांत सा हो गया था। ये अलग बात थी कि कोई चीज़ बड़ी शिद्दत से मेरे दिलो दिमाग़ को हिलाये दे रही थी। इस लिए कुछ सोच कर मैंने कहा_____"मैं शाम को आ जाऊंगा।"

"शाम को नहीं बेटे।" माँ ने ब्याकुल भाव से कहा____"तू अभी मेरे साथ ही घर चलेगा। मैं तुझे लिए बिना यहाँ से नहीं जाऊंगी।"
"ज़िद मत कीजिये मां।" मैंने बेचैन लहजे में कहा____"मैंने कह दिया ना कि शाम को आ जाऊंगा तो आ जाऊंगा। अभी आप जाइये।"

मेरे ऐसा कहने पर माँ मेरी तरफ बड़े ग़ौर से देखने लगीं। जैसे परख रही हों कि मेरी बातों में कोई सच्चाई है या मैं यूं ही उन्हें जाने को कह रहा था? मैं उन्हीं को देख रहा था। ख़ैर कुछ देर मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने के बाद माँ ने कहा____"ठीक है मैं जा रही हूं लेकिन अगर तू शाम को घर नहीं आया तो सोच लेना। अपनी इस माँ का मरा हुआ मुँह देखेगा तू।"

ये कहते हुए माँ की आँखें एक बार फिर से भर आईं थी जिन्हें उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछा और फिर पलट कर बग्घी की तरफ बढ़ ग‌ईं। उनके पीछे पीछे मेरा बड़ा भाई भी चल पड़ा था। उसने दूसरी बार मुझसे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं समझी थी।

मां और भाई के जाने के बाद मैं वहीं अपने झोपड़े के बाहर बने माटी के चबूतरे पर बैठ गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी वक़्त आ जायेगा जब मेरे अंदर का गुस्सा और नफ़रत इस तरह से छू मंतर हो जाएगी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये कोई ईश्वर का चमत्कार था या मेरी माँ की बातों का गहरा असर पड़ा था मुझ में?

मैंने माँ को इस लिए वापस भेज दिया था ताकि मैं अकेले में बैठ कर उनकी बातों के बारे सोच सकूं और फिर उस सब के बारे में भी सोच सकूं जिसके बारे में सोचने की कभी ज़रूरत ही नहीं समझी थी मैंने।

किसी ने सच ही कहा है कि वैसा कभी नहीं होता जैसा हम चाहते हैं बल्कि अक्सर वही होता है जैसा ईश्वर चाहता है और ईश्वर जो चाहता है उसका हम इंसान कभी तसव्वुर भी नहीं कर सकते। ईश्वर के खेल बड़े निराले हैं। सब कुछ उसके हाथ में है। सब कुछ उसके बस में है। वो असंभव को संभव और संभव को असंभव बना देने की क्षमता रखता है। भला मैं ये कल्पना कहां कर सकता था कि जिस परिवार से मैं नफ़रत करता था और जिस घर की दहलीज़ पर इस जनम में न जाने की मैं सोच के बैठ गया था आज उन्हीं लोगों के लिए मेरे अंदर मौजूद गुस्सा और नफ़रत को पलक झपकते ही इस तरह से काफूर हो जाना था।

देर से ही सही किन्तु इंसान इस बात को समझ ही जाता है कि परिवर्तन इस दुनिया का नियम है। एक जैसा वक़्त कभी नहीं रहता। आज अगर बुरा वक़्त है तो कल अच्छा वक़्त भी आ जाएगा। ख़ैर माँ की बातों का गहरा असर हुआ था मुझ पर। सच ही तो कहा था उन्होंने कि इंसान गुस्से में अक्सर ऐसी बातें बोल जाता है जिसके लिए बाद में उसे पछताना पड़ता है। मेरे ज़हन में एक एक कर के वो सब बातें उभरने लगीं जो मैंने सबसे पहले भाभी से कही थीं और फिर पिता जी से।

पिता जी से मैंने जिस तरीके से बातें की थी वैसी बातें संसार का कोई भी बेटा अपने पिता से नहीं कर सकता था। इंसान के दिल को तो ज़रा सी बातें भी चोट पहुंचा देती हैं जबकि मैंने तो पिता जी से ऐसी बातें की थी जो यकीनन उनके दिल को ही नहीं बल्कि उनकी आत्मा तक को घायल कर गईं होंगी। सारी ज़िन्दगी मैंने गलतियां की थी और यही सोचता था कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो सब अच्छा ही है किन्तु जब एक ग़लती मेरे पिता जी से हुई तो मैंने क्या किया?? उनकी एक ग़लती के लिए मैंने घर के हर सदस्य से नाता तोड़ लिया और उनके प्रति अपने दिल में गुस्सा और नफ़रत भर कर यही सोचता रहा कि एक दिन मैं उन सबकी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दूंगा। भला ये कैसा न्याय था? मैं खुद जो कुछ करूं वो सब सही माना जाए और कोई दूसरा अगर कुछ करे तो वो दुनिया का सबसे ग़लत मान लिया जाए?

जाने कितनी ही देर तक मैं इस तरह के विचारों के चक्रव्यूह में फंसा रहा उसके बाद गहरी सांस ले कर उठा और मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया। मुझे याद आया कि जगन ने उस वक़्त अपने भाई का अं‌तिम संस्कार करने की बात कही थी। मुरारी काका जैसे इंसान के अंतिम संस्कार पर मुझे भी जाना चाहिए था। आख़िर बड़े़ उपकार थे उनके मुझ पर।


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बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय अपडेट है
वक्त ने सबकुछ बदल कर रख दिया ये तो सोचा नहीं था की मां की बातो का ऐसा असर पड़ेगा वैभव पर की उसका दिल पिघल जायेगा मां बोलती है की किसी को कुछ बोलने से पहले पूरी सच्चाई जान लेनी चाहिए सोच समझ कर बोलना चाहिए ताकि बाद में पछताना नही पड़े वैभव ने अपनी भाभी और अपने पिताजी से ऐसे कड़वे शब्द बोले है की उनकी आत्मा को छलनी कर जाए जब मां ने सच्चाई बताई तब वह घर जाने के लिए तैयार हो गया है देखते हैं आगे क्या करता है
 

Rajesh Sarhadi

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ये कहानी दूर तक जाएगी, वैसे मैं चाहता हूं तुम्हारी तरफ से भी कोई गाँव की स्टोरी आए
jo likh raha hun vo poori kar lun pehle aur rahi gaanv ki story mere liye thodi muskil hogi kyunki ganvon mein bahut hi kam gaya hun aur vo bhi jab chota tha jab dad saath le jaate the jab unhen koi lecture ya presentation deni hoti thi contraceptives ke baare mein
 

Naik

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
----------☆☆☆----------


अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।


☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।



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Badhiya shaandaar update bhai
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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बहुत ही सुंदर और लाजवाब अपडेट है
तो कहानी एक ऐसे बिगड़े और गुसैल लड़के की है जो किसी की नही सुनता और न ही किसी को सम्मान देता है अपनी ही मर्जी की करता है अपनी मर्जी से जीता है और मना करने पर भी किसी काम को करता है और बड़ों की बाते एक कान से सुनता है और दूसरे से निकल देता है एक नंबर का ठरकी भी है अपनी शादी के दिन। भाग गया जिससे उसके पिता की बदनामी हुई और पंचायत हुई और उसे गांव से बाहर कर दिया और जमीन का एक टुकड़ा दे दिया और कोई उसकी सहायता नही करेगा ऐसा ऐलान किया अब वो जिद्दी लड़का क्या करता है
Shukriya bhai
 
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