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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192

Sanju@

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 07
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अब तक,,,,,

पिता जी से मैंने जिस तरीके से बातें की थी वैसी बातें संसार का कोई भी बेटा अपने पिता से नहीं कर सकता था। इंसान के दिल को तो ज़रा सी बातें भी चोट पहुंचा देती हैं जबकि मैंने तो पिता जी से ऐसी बातें की थी जो यकीनन उनके दिल को ही नहीं बल्कि उनकी आत्मा तक को घायल कर गईं होंगी। सारी ज़िन्दगी मैंने गलतियां की थी और यही सोचता था कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो सब अच्छा ही है किन्तु जब एक ग़लती मेरे पिता जी से हुई तो मैंने क्या किया?? उनकी एक ग़लती के लिए मैंने घर के हर सदस्य से नाता तोड़ लिया और उनके प्रति अपने दिल में गुस्सा और नफ़रत भर कर यही सोचता रहा कि एक दिन मैं उन सबकी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दूंगा। भला ये कैसा न्याय था? मैं खुद जो कुछ करूं वो सब सही माना जाए और कोई दूसरा अगर कुछ करे तो वो दुनिया का सबसे ग़लत मान लिया जाए?

जाने कितनी ही देर तक मैं इस तरह के विचारों के चक्रव्यूह में फंसा रहा उसके बाद गहरी सांस ले कर उठा और मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया। मुझे याद आया कि जगन ने उस वक़्त अपने भाई का अं‌तिम संस्कार करने की बात कही थी। मुरारी काका जैसे इंसान के अंतिम संस्कार पर मुझे भी जाना चाहिए था। आख़िर बड़े़ उपकार थे उनके मुझ पर।


अब आगे,,,,,


मैं मुरारी काका के घर से थोड़ी दूर ही था कि मुझे बाएं तरफ काफी सारे लोग दिखाई दिए। मैं समझ गया कि वो सब लोग मुरारी काका की अर्थी ले कर उस जगह पर उनका अंतिम संस्कार करने आये हैं। ये देख कर मैं भी उसी तरफ मुड़ कर चल दिया। थोड़ी ही देर में मैं उन लोगों के पास पहुंच गया। मुरारी काका के गांव के कुछ लोग मुरारी काका के खेतों से कुछ दूरी पर ही लकड़ी की चिता तैयार कर चुके थे और अब उस चिता पर मुरारी काका के शव को रखने जा रहे थे। सरोज काकी और अनुराधा एक कोने में खड़ी ये सब देख कर अपने आंसू बहा रहीं थी।

मुझे देख कर वहां मौजूद लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की अलबत्ता जगन ने ज़रूर मुझे घूर कर देखा था। ख़ैर अंतिम संस्कार की सारी विधियां निपट जाने के बाद मुरारी काका की चिता को मुरारी काका के बेटे के द्वारा आग लगवा दिया गया। देखते ही देखते आग ने अपना उग्र रूप दिखाना शुरू कर दिया और मुरारी काका की चिता के चारो तरफ फैलने लगी।

मुरारी काका के गांव के कुछ और लोग भी आते दिखाई दिए जिनके हाथो में तुलसी की सूखी लकड़ियां थी। यहाँ जो लोग मौजूद थे उनके हाथों में भी तुलसी की सूखी लकड़ियां थी। असल में तुलसी की ये सूखी लकड़ियां मरने वाले की जलती चिता पर अर्पण कर के लोग दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। हर आदमी अपनी स्वेच्छा और क्षमता अनुसार तुलसी की छोटी बड़ी लकड़ियां घर से ले कर आता है और फिर तुलसी की सात लकड़ियां जोड़ कर जलती चिता पर दूर से फेंक कर अर्पण कर देता है। मेरे पास तुलसी की लकड़ी नहीं थी इस लिए मैंने कुछ ही दूरी पर दिख रहे आम के पेड़ से सूखी लकड़ी तोड़ी और उससे सात लड़की तोड़ कर बनाया। यहाँ ये मान्यता है कि अगर किसी के पास तुलसी की लकड़ी नहीं है तो वो आम की सात लकड़ियां बना कर भी जलती चिता पर अर्पण कर सकता है। जब सब गांव वालों ने जलती चिता को सत लकड़ियां दे दी तो मैंने भी आगे बढ़ कर आम की उन सात लकड़ियों को एक साथ जलती चिता पर उछाल दिया और फिर मुरारी काका के जलते शव को प्रणाम किया। मन ही मन मैंने भगवान से उनकी आत्मा की शान्ति के लिए दुआ भी की।

काफी देर तक मैं और बाकी लोग वहां पर रहे और फिर वहां से अपने अपने घरों की तरफ चल दिए। जगन और उसके कुछ ख़ास चाहने वाले वहीं रह गए थे। जगन के कहने पर सरोज काकी भी अपने दोनों बच्चों को ले कर चल दी थी।

मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि कल तक जिस मुरारी काका से मैं मिलता रहा था और हमारे बीच अच्छा खासा सम्बन्ध बन गया था आज वही इंसान इस दुनिया में नहीं है। मेरे ज़हन में हज़ारो सवाल थे जिनका जवाब मुझे खोजना था। आख़िर किसने मुरारी काका की इस तरह से हत्या की होगी और क्यों की होगी? मुरारी काका बहुत ही सीधे सादे और साधारण इंसान थे। उनकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी। वो देशी शराब ज़रूर पीते थे मगर गांव में किसी से भी उनका मन मुटाव नहीं था।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि ऐसे इंसान की हत्या कोई क्यों करेगा? क्या किसी ने महज अपने शौक के लिए मुरारी की हत्या की थी या उनकी हत्या करने के पीछे कोई ऐसी वजह थी जिसके बारे में फिलहाल मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था? मुरारी काका के जाने के बाद उनकी बीवी और उनके दोनों बच्चे जैसे अनाथ हो गए थे। अनुराधा तो जवान थी और मुरारी काका उसका ब्याह करना चाहते थे किन्तु उसका भाई अभी छोटा था। मुरारी काका को अनुराधा के बाद दो बच्चे और हुए थे जो छोटी उम्र में ही ईश्वर को प्यारे हो गए थे।

मुरारी काका के इस तरह चले जाने से सरोज काकी के लिए अपना घर चलाना यकीनन मुश्किल हो जाना था। हालांकि मुरारी काका का छोटा भाई जगन ज़रूर था किन्तु वो अपने परिवार के साथ साथ सरोज काकी के परिवार की देख भाल नहीं कर सकता था। जगन को दो बेटियां और एक बेटा था। उसकी दोनों बेटियां बड़ी थी जो कुछ सालों बाद ब्याह के योग्य हो जाएंगी। लड़की ज़ात पलक झपकते ही ब्याह के योग्य हो जाती है और पिता अगर सक्षम न हो तो उसके लिए अपनी बेटियों का ब्याह करना एक चुनौती के साथ साथ चिंता का सबब बन भी जाता है।

सारे रास्ते मैं यही सब सोचता रहा और फिर झोपड़े में पहुंच कर मैंने अपने कपड़े उतारे और उन्हें पानी से धोया। नहा धो कर और दूसरे कपड़े पहन कर मैं झोपड़े के अंदर आ कर बैठ गया। मुरारी काका की हत्या के बाद से मैं एक सूनापन सा महसूस करने लगा था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरे कि ये कैसा समय था कि एक तरफ मुरारी काका की इस तरह अकस्मात हत्या हो जाती है और दूसरी तरफ मेरे परिवार के लोग मुझे वापस घर ले जाने के लिए मेरे पास आते हैं। माँ ने तो साफ कह दिया था कि आज अगर मैं शाम को घर नहीं गया तो मैं उनका मरा हुआ मुँह देखूंगा।

मैं गहरी सोच में डूब गया था और ये सोचने लगा था कि ये दोनों बातें क्या महज एक इत्तेफ़ाक़ हैं या इसके पीछे कोई ख़ास वजह थी? मेरे परिवार वाले इस समय ही मेरे पास क्यों आये जब मेरे ताल्लुकात मुरारी काका से इस क़दर हो गए थे? पहले भाभी फिर पिता जी और फिर माँ और बड़ा भाई। ऐसे समय पर ही क्यों आये जब मुरारी काका की हत्या हुई? चार महीने हो गए मुझे यहाँ आये हुए किन्तु आज से पहले मेरे घर का कोई सदस्य मुझे देखने नहीं आया था तो फिर ऐसे समय पर ही क्यों आये ये लोग?

एक तरफ मुरारी काका का छोटा भाई जगन मुझे अपने भाई का हत्यारा बोल रहा था और दूसरी तरफ पिछली रात एक अंजान और रहस्यमयी शख्स मुझे धक्का दे कर गायब हो जाता है तो वहीं दूसरे दिन पिता जी मुझसे मिलने आ जाते हैं। पिता जी के जाने के बाद आज माँ बड़े भाई के साथ आ गईं थी। ये सब बातें इतनी सीधी और स्वाभाविक नहीं हो सकतीं थी। कहीं न कहीं इन सब बातों के पीछे कोई न कोई ख़ास बात ज़रूर थी जिसका मुझे इल्म नहीं हो रहा था।

मेरे ज़हन में कई सारे सवाल थे जिनका जवाब मुझे चाहिए था। एक सीधे सादे इंसान की हत्या कोई क्यों करेगा? पिछली रात मुझे धक्का देने वाला वो रहस्यमयी शख्स कौन था? क्या मुरारी काका की हत्या से उसका कोई सम्बन्ध था? चार महीने बाद ऐसे वक़्त पर ही मेरे घर के लोग मुझसे मिलने क्यों आये थे? क्या ठाकुर प्रताप सिंह ने मुरारी की हत्या करवाई होगी किन्तु उनकी बातें और फिर माँ की बातें मेरे ज़हन में आते ही मुझे मेरा ये विचार ग़लत लगने लगता था।

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जगन ने मुझ पर मुरारी काका की हत्या का आरोप लगाया था और जिस वजह से लगाया था वो हालांकि बचकाना तो था किन्तु सोचने वाली बात थी कि वो ये कैसे सोच सकता था कि मैं महज इतनी सी बात पर उसके भाई की हत्या कर दूँगा? दूसरी बात जगन को किसने बताया कि कल रात मैं मुरारी के घर गया था? क्या सरोज काकी ने बताया होगा उसे? पर सरोज काकी ने उससे ये तो नहीं कहा होगा कि मैंने ही उसके मरद की हत्या की है। मतलब ये जगन के अपने ख़याल थे कि मैंने ही उसके भाई की हत्या की है।

क्या जगन खुद अपने भाई की हत्या नहीं कर सकता? मेरे ज़हन में अचानक से ये ख़याल उभरा तो मैं इस बारे में गहराई से सोचने लगा किन्तु मुझे कहीं से भी ये नहीं लगा कि जगन अपने भाई की हत्या कर सकता है। क्योंकि दोनों भाईयों के बीच कोई बैर जैसी भावना नहीं थी। अगर ऐसी कोई बात होती तो मुरारी काका मुझसे इस बारे में ज़रूर बताते। मैंने इन चार महीनों में कभी भी दोनों भाईयों के बीच ऐसी कोई बात होती नहीं देखी थी जिससे कि मैं शक भी कर सकता कि जगन अपने भाई की हत्या कर सकता है।

मुरारी काका की हत्या मेरे लिए एक न सुलझने वाली गुत्थी की तरह हो गई थी और इस बारे में सोचते सोचते मेरा सिर फटने लगा था। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि मुझे अपने झोपड़े के बाहर किसी की हलचल सुनाई दी। मैंने ठीक से ध्यान लगा कर सुना तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई चल कर मेरे झोपड़े की तरफ ही आ रहा हो। मैं एकदम से सतर्क हो गया। सतर्क इस लिए हो गया क्योंकि पिछली रात एक रहस्यमयी शख़्स ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया था इस लिए हो सकता था कि इस वक़्त वो मुझे यहाँ अकेले देख कर मेरे पास किसी ग़लत इरादे से आया हो। मैं फ़ौरन ही उठा और झोपड़े के अंदर ही एक कोने में रखे लट्ठ को हाथ में ले कर झोपड़े से बाहर आ गया।

झोपड़े से बाहर आ कर मैंने इधर उधर नज़र घुमाई तो देखा मेरी ही उम्र के दो लड़के मेरे पास आते दिखे। चार क़दम की दूरी पर ही थे वो और मैंने उन दोनों को अच्छी तरह पहचान लिया। वो मेरे ही गांव के थे और मेरे दोस्त थे। एक का नाम चेतन था और दूसरे का सुनील। उन दोनों को इस वक़्त यहाँ देख कर मेरी झांठें सुलग गईं।

"कैसा है वैभव?" दोनों मेरे पास आ गए तो उनमे से चेतन ने मुझसे कहा।
"महतारीचोद तमीज़ से बात कर समझा।" गुस्से में मैंने झपट कर चेतन का गिरहबान पकड़ कर गुर्राया था_____"अपनी औकात मत भूल तू। तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरा नाम लेने की?"

चेतन को मुझसे ऐसी उम्मीद सपने में भी नहीं थी। उसने तो ये सोचा था कि उन दोनों के आने से मैं खुश हो जाऊंगा और उन दोनों को अपने गले लगा लूंगा मगर उन दोनों को क्या पता था कि ठाकुर वैभव सिंह को अब दोस्तों से कितनी नफ़रत हो गई थी।

"ये तू क्या कर रहा है वैभव?" सुनील ने हैरत से आंखें फाड़ कर मुझसे ये कहा तो मैंने खींच कर एक लात उसके गुप्तांग पर जमा दिया जिससे उसकी चीख निकल गई और वो मारे दर्द के अपना गुप्तांग पकड़े दोहरा होता चला गया।

"भोसड़ीवाले।" फिर मैंने गुस्से में फुँकारते हुए उससे कहा____"दुबारा मेरा नाम लिया तो तेरी बहन को खड़े खड़े चोद दूंगा।" कहने के साथ ही मैं चेतन की तरफ पलटा____"अगर तुम दोनों अपनी सलामती चाहते हो तो अपना कान पूँछ दबा कर यहाँ से दफा हो जाओ।"

"हम तो तुझसे मिलने आये थे वैभव आआह्ह्ह्।" चेतन ने ये कहा ही था कि मैंने घुटने का वार उसके पेट में ज़ोर से किया तो उसकी चीख निकल गई।

"मादरचोद।" फिर मैंने उसके चेहरे पर घू़ंसा मारते हुए कहा____"बोला न कि मेरा नाम लेने की हिम्मत मत करना। तुम सालों को मैंने पालतू कुत्तों की तरह पाला था और तुम दोनों ने क्या किया? इन चार महीनों में कभी देखने तक नहीं आये मुझे। अगर मुझे पहले से पता होता कि मेरे पाले हुए कुत्ते इतने ज़्यादा बेवफ़ा निकलेंगे तो पहले ही तुम दोनों का खून कर देता।"

"हमे माफ़ कर दो वैभव।" सुनील ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"हम आना तो चाहते थे लेकिन बड़े ठाकुर साहब के डर से नहीं आये कि कहीं वो हमें भी तुम्हारी तरह गांव से निष्कासित न कर दें।"

"इसका मतलब तो यही हुआ न कि तुम दोनों ने सिर्फ अपने बारे में ही सोचा।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"क्या यही थी तुम दोनों की दोस्ती? थू है तुम दोनों पर। अभी के अभी यहाँ से दफा हो जाओ वरना तुम दोनों की इतनी बार गांड मारुंगा कि हगना मुश्किल हो जाएगा।"

"माफ़ कर दे यार।" चेतन बोला____"अब आ तो गए हैं ना हम दोनों।"
"तेरी माँ को चोदूं मादरचोद।" मैंने चेतन को एक और घूंसा जड़ते हुए कहा____"यहां आ कर क्या मुझ पर एहसान किया है तूने? कान खोल कर सुन लो तुम दोनों। आज के बाद तुम दोनों कभी मुझे अपनी शकल न दिखाना वरना घर में घुस कर तुम दोनों की माँ बहन को चोदूंगा। अब दफा हो जाओ यहाँ से।"

दोनों ने पहली बार मुझे इतने गुस्से में देखा था और उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि मैं दोनों पर इतना ज़्यादा क्रोधित हो जाऊंगा। दोनों बुरी तरह सहम गए थे और जब मैंने ये कहा तो दुबारा उन दोनों में बोलने की हिम्मत न हुई।

चेतन और सुनील जा चुके थे। पता नहीं क्यों उन दोनों को देख कर इतना गुस्सा आ गया था मुझे? शायद इस लिए कि इन चार महीनों में मुझे पता चल गया था कि कौन मेरा चाहने वाला था और कौन नहीं। सच कहूं तो अब दोस्ती जैसे शब्द से नफ़रत ही हो गई थी मुझे।

दोनों के जाने के बाद मैं कुछ देर तक दोस्तों के बारे में ही सोचता रहा। दोपहर से ज़्यादा का समय हो गया था और अब मुझे भूख लग रही थी। आज से पहले मैं या तो मुरारी के घर में खाना खा लेता था या फिर जंगल में जा कर उसी नदी से मछलियाँ पकड़ कर और फिर उन्हें भून कर अपनी भूख मिटा लेता था। मुरारी काका की हत्या हो जाने से मैं मुरारी काका के घर खाना खाने के लिए नहीं जा सकता था। हालांकि मैं अगर जाता तो सरोज काकी अनुराधा से बनवा कर ज़रूर मुझे खाना देती मगर ऐसे वक़्त में मुझे खुद उसके यहाँ खाना खाने के लिए जाना ठीक नहीं लग रहा था। इस लिए मैं उठा और जंगल की तरफ बढ़ गया।

रास्ते में मैं सोच रहा था कि अब ऐसे वक़्त में मुझे क्या करना चाहिए? यहाँ पर मैं दो वजहों से रुका हुआ था। एक तो बंज़र ज़मीन पर फसल उगा कर मैं अपने बाप को दिखाना चाहता था और दूसरे मुरारी काका की वजह से क्योंकि उनसे मेरे अच्छे ताल्लुक बन गए थे। हालांकि एक वजह और भी थी और वो ये कि सरोज काकी से मुझे शारीरिक सुख मिलता था और कहीं न कहीं ये बात भी सच ही थी कि मैं उसकी बेटी अनुराधा को भी हासिल करना चाहता था।

मैं अक्सर सोचता था कि मैं अनुराधा के साथ शख्ती से पेश क्यों नहीं आ पाता? चार महीने पहले तक तो ऐसा था कि मैं जिस लड़की या औरत को चाह लेता था उसे किसी न किसी तरह हासिल कर ही लेता था और फिर उसे भोगता था मगर अनुराधा के मामले में मेरी कठोरता जाने कहां गायब हो जाती थी और उसके लिए एक कोमल भावना आ जाती थी। यही वजह थी कि चार महीने गुज़र जाने के बाद भी मेरे और अनुराधा के बीच की दूरी वैसी की वैसी ही बनी हुई थी जैसे चार महीने पहले बनी हुई थी।

आज शाम को मुझे घर भी जाना था क्योकि मैं माँ को बोल चुका था कि मैं शाम को आऊंगा मगर सच कहूं तो घर जाने की अब ज़रा भी हसरत नहीं थी मुझे। मुरारी काका और उसके घर से एक लगाव सा हो गया था मुझे। उसके घर में अनुराधा के हाथ का बना खाना मैं अक्सर ही खाता रहता था। चूल्हे में उसके हाथ की बनी सोंधी सोंधी रोटियां और आलू भांटा का भरता एक अलग ही स्वाद की अनुभूति कराता था। अनुराधा का चोर नज़रों से मुझे देखना और फिर जब हमारी नज़रें आपस में मिल जातीं तो उसका हड़बड़ा कर अपनी नज़रें हटा लेना। जब वो हलके से मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हलके से गड्ढे पड़ जाते थे। मैं जानता था कि घर लौटने के बाद फिर मैं मुरारी काका के घर इस तरह नहीं जा पाऊंगा और अनुराधा जैसी बेदाग़ चीज़ मेरे हाथ से निकल जाएगी।

मुझे याद आया कि कल रात मुरारी काका मुझसे अपनी बेटी का हाथ थामने की बात कह रहे थे। कल रात वो देशी शराब के नशे में थे और शराब के नशे में अक्सर इंसान सच ही बोलता है तो क्या मुरारी काका सच में यही चाहते थे कि मैं उनकी बेटी का हाथ हमेशा के लिए थाम लूं? क्या मुझे सच में मुरारी काका की इस इच्छा को मान लेना चाहिए? अनुराधा में कोई कमी नहीं थी। उसकी मासूमियत और उसकी सादगी उसका सबसे बड़ा गहना थी। उसके मासूम चेहरे को देख कर कभी कभी मेरे ज़हन में ये ख़याल भी आ जाता था कि उसके लिए कितना ग़लत सोचता हूं मैं। दुनिया में क्या लड़कियों और औरतों की कमी है जो मैं उस मासूम को दाग़दार करने की हसरत पाले बैठा हूं? ये ख़याल भी एक वजह थी कि मैं अनुराधा के क़रीब ग़लत इरादे से जा नहीं जा पाता था।

मुरारी काका एक ग़रीब इंसान थे और मैं एक बड़े और उच्च कुल का नालायक चिराग़। अब तो मुझे घर वापस लौटना ही था क्योकि माँ ने धमकी दी थी कि अगर शाम तक मैं घर नहीं गया तो मुझे उनका मरा हुआ मुँह देखना पड़ेगा। इस लिए जब मैं घर चला जाऊंगा तो मैं एक बार फिर से बड़े बाप का बेटा बन जाऊंगा और मुमकिन है कि मेरे माता पिता अनुराधा के साथ मेरा ये रिश्ता पसंद न करें। ऐसे में मैं कैसे मुरारी काका की इच्छा को पूरा कर पाऊंगा। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो अभी यही था कि क्या मैं खुद ये चाहता हूं कि अनुराधा का हाथ मैं हमेशा के लिए थाम लूं? मुझे एहसास हुआ कि ये सब इतना आसान नहीं था क्योंकि इसमें मेरे पिता जी के मान सम्मान का सवाल था और उनसे ज़्यादा मेरा सवाल था कि मैं खुद क्या चाहता हूं?

जंगल के अंदर उस नदी में पहुंच कर मैंने कुछ मछलियाँ पकड़ी और उन्हें वहीं भून कर खाया। अब कुछ राहत महसूस हो रही थी मुझे। मैं जंगल से निकल कर वापस झोपड़े पर आ गया। मेरी फसल जल कर ख़ाक हो गई थी और अब मेरे यहाँ रुकने की कोई वजह भी नहीं रह गई थी। शाम को घर लौटना मेरी मज़बूरी बन गई थी वरना मैं तो घर जाना ही नहीं चाहता था। असल में मैं ये चाहता था कि इस समय मैं जिन परिस्थितियों में था उससे बाहर निकल आऊं और ऐसा तभी हो सकता था जब मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लूं और जगन के साथ साथ उसके गांव वालों को भी दिखा दूं कि मैं मुरारी काका का हत्यारा नहीं था।

इस वक़्त मुरारी काका के घर जाना उचित नहीं था क्योंकि उनके घर में इस वक़्त मातम सा छाया होगा। हालांकि मेरे वहां जाने से सरोज काकी या अनुराधा को कोई समस्या नहीं होनी थी किन्तु मैं नहीं चाहता था कि अगर जगन वहां पर हो और उसने मुझसे कुछ उल्टा सीधा बोला तो मेरे द्वारा कोई बवाल मच जाए। इस लिए मैंने सोचा कि एक दो दिन बाद जाऊंगा क्योंकि तब तक घर का माहौल कुछ ठीक हो जाएगा। दूसरी बात मुझे सरोज काकी से ये भी बताना होगा कि अब से मैं झोपड़े में नहीं रहूंगा बल्कि अपने घर पर ही रहूंगा।

झोपड़े में पड़ा मैं सोच रहा था कि जगन के रिपोर्ट लिखवाने पर भी थाने से दरोगा नहीं आया था जबकि हत्या जैसे मामले में दरोगा को फ़ौरन ही आना चाहिए था और मुरारी की हत्या के मामले को अपने हाथ में ले कर उसकी छानबीन शुरू कर देनी चाहिए थी मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। मुरारी काका की लाश को दोपहर तक घर में ही रखा गया था उसके बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया था। मतलब साफ़ था कि हत्यारे ने दरोगा को घूंस दे कर हत्या के इस मामले को दबा दिया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन ब्यक्ति हो सकता है जिसकी पहुंच पुलिस के दरोगा तक है और वो हत्या जैसे गंभीर मामले को भी दबा देने की कूवत रखता है?

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर मुझे मुरारी के हत्यारे का पता लगाना है तो मुझे खुद पुलिस के दरोगा की तरह इस मामले की छानबीन करनी होगी। आख़िर मुझे भी तो इस हत्या से अपने ऊपर लगे इल्ज़ाम को हटाना था। इस ख़याल के साथ ही मैं एक झटके में उठा और झोपड़े से बाहर निकल आया। बाहर आ कर मैंने झोपड़े के पास ही रखे अपने लट्ठ को उठाया और मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैंने सोच लिया था कि हत्या के इस मामले की मैं खुद बारीकी से जांच करुंगा।

मुरारी काका के घर के सामने पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बातें कर रहे थे। उन लोगों के साथ मुरारी काका का छोटा भाई जगन भी था। मुझे देख कर सब के सब चुप हो गए और चबूतरे से उतर कर ज़मीन पर खड़े हो ग‌ए। जगन की नज़र मुझ पर पड़ी तो उसने घूर कर देखा मुझे।


---------☆☆☆---------
Amazing update
देखते है इन सभी सवालों के जवाब कब और कैसे मिलते हैं वैभव को मुरारी काका की हत्या क्यू की बेचारी अनुराधा का क्या होगा वह घर जायेगा या नही
 

Sanju@

Well-Known Member
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 08
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अब तक,,,,

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर मुझे मुरारी के हत्यारे का पता लगाना है तो मुझे खुद पुलिस के दरोगा की तरह इस मामले की छानबीन करनी होगी। आख़िर मुझे भी तो इस हत्या से अपने ऊपर लगे इल्ज़ाम को हटाना था। इस ख़याल के साथ ही मैं एक झटके में उठा और झोपड़े से बाहर निकल आया। बाहर आ कर मैंने झोपड़े के पास ही रखे अपने लट्ठ को उठाया और मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैंने सोच लिया था कि हत्या के इस मामले की मैं खुद बारीकी से जांच करुंगा।

मुरारी काका के घर के सामने पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बातें कर रहे थे। उन लोगों के साथ मुरारी काका का छोटा भाई जगन भी था। मुझे देख कर सब के सब चुप हो गए और चबूतरे से उतर कर ज़मीन पर खड़े हो ग‌ए। जगन की नज़र मुझ पर पड़ी तो उसने घूर कर देखा मुझे।


अब आगे,,,,,


जगन को अपनी तरफ इस तरह घूरते देख कर मेरे ज़हन में ये बात आई कि मुझे इस तरह सबकी मौजूदगी में मुरारी काका के घर के अंदर नहीं जाना चाहिए क्योंकि ऐसे में वहां मौजूद सभी लोगों के मन में ग़लत सोच पैदा हो सकती थी। जगन तो वैसे भी सबके सामने मुझसे कह ही चुका था कि मैं उसकी भतीजी अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता था और इसी लिए अपने रास्ते के कांटे मुरारी काका की हत्या कर दी है।

"मुझे माफ़ कर दो जगन काका क्योंकि मैंने तुम पर हाथ उठाया था उस समय।" फिर मैंने जगन के सामने जा कर उससे कहा____"हालाँकि जिस तरह का आरोप तुमने मुझ पर लगाया था और जिस तरीके से मेरे चरित्र को उछाला था उस तरह में मेरी जगह कोई भी होता तो वो तुम पर ऐसे ही हाथ उठा देता।"

मेरी बातें सुन कर जगन कुछ न बोला। वहां पर मौजूद लोगों में से भी कोई कुछ न बोला। वो इस तरह अपनी अपनी जगह पर खड़े हुए थे जैसे उन्हें डर हो कि अगर वो मेरे सामने इस तरह खड़े न रहेंगे तो मैं उन सबका खून कर दूंगा।

"मैं मानता हूं जगन काका कि मेरा चरित्र अब से पहले अच्छा नहीं था।" जगन के साथ साथ सभी को ख़ामोश देख मैंने फिर से कहा____"और मैं ये भी मानता हूं कि मैंने अब से पहले गांव की न जाने कितनी ही बहू बेटियों की इज्जत के साथ खेला है मगर अब ऐसा नहीं रहा मैं। मैं जानता हूं कि अगर मैं ये बात अपना सर पटक पटक के भी कहूंगा तो तुम लोग मेरी बात का यकीन नहीं करोगे मगर तुम्हारे यकीन न करने से ना तो सच्चाई बदल जाएगी और ना ही मुझ पर कोई फ़र्क पड़ेगा।"

इतना कहने के बाद मैं सांस लेने के लिए रुका। मेरे चुप होते ही वातावरण में ख़ामोशी छा गई। सभी के चेहरों पर ऐसे भाव उभर आये थे जैसे अब वो मेरे आगे बोलने का शिद्दत से इंतज़ार करने लगे हों।

"ग़लतियां हर इंसान से होती हैं।" सबकी तरफ एक एक नज़र डालते हुए मैंने कहा____"इस धरती पर कोई भगवान नहीं है जिससे कभी कोई ग़लती ही न हो। मुझसे बहुत सी गलतियां हुईं जिसके लिए आज मुझे कुछ ही सही मगर पछतावा ज़रूर है। मेरे पिता ने मुझे उन्हीं गलतियों की वजह से गांव से निष्कासित किया और आज मैं पिछले चार महीने से यहाँ हूं। इन चार महीनों में अगर मैंने किसी की बहू बेटी की इज्ज़त ख़राब की हो तो बेझिझक तुम लोग मेरा सर काट डालो।"

अपनी बात कहने के बाद मैंने सबकी तरफ देखा। वहां मौजूद सभी लोग एक दूसरे की तरफ ऐसे देखने लगे थे जैसे आँखों से ही एक दूसरे से पूछ रहे हों कि तुम में से क्या किसी की बहू बेटी के साथ इस ठाकुर के लड़के ने कुछ किया है? आँखों से पूछे गए सवाल का जवाब भी आँखों से ही मिल गया उन्हें।

"तुमने मुझ पर इल्ज़ाम लगाया था जगन काका कि मैं तुम्हारी भतीजी अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता हूं।" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सच में ऐसा होता तो क्या अब तक तुम्हारी भतीजी मेरा शिकार न हो गई होती? जब अब तक किसी ने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ लिया था तो तुम्हारी भतीजी का जब मैं शिकार कर लेता तो तुम में से कोई मेरा क्या बिगाड़ लेता? इस पर भी अगर तुम्हें यकीन नहीं है तो जा कर अपनी भतीजी से पूछ लो काका। चार महीने से मैं इस घर में आता जाता हूं और इन चार महीनों में अगर मैंने कभी भी तुम्हारी भतीजी को ग़लत नज़र से देखा हो तो वो तुम्हें ज़रूर बताएगी और फिर तुम मेरा सर काटने के लिए आज़ाद हो।"

मेरी इन बातों को सुन कर जगन ने एक गहरी सांस ली। उसके चेहरे पर बेचैनी जैसे भाव उभरे। उसने नज़र उठा कर वहां मौजूद सभी लोगों को देखा और फिर मेरी तरफ ख़ामोशी से देखने लगा।

"मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे जगन काका।" मैंने जगन काका के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"मेरे बुरे वक़्त में सिर्फ उन्होंने ही मेरा साथ दिया था। उनके घर का नमक खाया है मैंने। मेरे दिल में उनके लिए मरते दम तक जगह रहेगी। जिस इंसान ने मेरे लिए इतना कुछ किया उस इंसान की अगर मैं हत्या करुंगा तो मुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। हवश ने मुझे इतना भी अँधा नहीं कर दिया है कि मैं अपने ही फ़रिश्ते की बेरहमी से हत्या कर दूं।"

"मुझे छोटे ठाकुर पर विश्वास है जगन।" वहां मौजूद लोगों में से एक आदमी ने जगन से कहा____"इन्होंने सच में मुरारी की हत्या नहीं की है और ना ही तुम्हारी भतीजी पर इनकी नीयत ग़लत है। अगर ऐसा होता तो तुम्हारी भतीजी खुद सबको बताती कि इन्होंने उसके साथ ग़लत किया है।"

"मैं किशोर की बातों से सहमत हूं जगन।" एक दूसरे आदमी ने कहा____"छोटे ठाकुर ने कुछ नहीं किया है। तुमने बेवजह ही इन पर इतने गंभीर आरोप लगाये थे।"

एक के बाद एक आदमी जगन से यही सब कहने लगा था जिसे सुन कर जगन ने फिर से एक गहरी सांस ली। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसे भी ये बात समझ आ गई थी कि मैं वैसा नहीं हूं जैसा वो समझ रहा था।

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" फिर जगन ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुम पर ये इल्ज़ाम लगाये थे। मुझे माफ़ कर दो।"

"माफी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है जगन काका।" मैंने जगन काका के जुड़े हुए हाथों को पकड़ते हुए कहा____"क्योंकि तुमने वही किया है जो ऐसे वक़्त में और ऐसी परिस्थिति में करना चाहिए था। ख़ैर छोड़ो ये सब। मैं यहाँ ये बताने आया था कि अब से मेरा वनवास ख़त्म हो गया है और अब से मैं अपने घर में ही रहूंगा किन्तु मैं ये वादा करता हूं कि जिस किसी ने भी मुरारी काका की हत्या की है उसका पता मैं लगा के रहूंगा और फिर उसे सज़ा भी दूंगा।"

"छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"मैं तो यही कहूंगा कि तुम अब इस झमेले में न पड़ो। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी जान को कोई ख़तरा हो जाए। वैसे भी मेरा भाई तो अब चला ही गया है।"

"नहीं जगन काका।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मुझे अपनी जान की कोई परवाह नहीं है। मेरे लिए अब ये जानना बेहद ज़रूरी हो गया है कि मुरारी काका की हत्या किसने और किस वजह से की है और बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि मुझे लगता है कि जिस किसी ने भी मुरारी काका की हत्या की है उसी ने मेरी फसल भी जलाई है।"

"फसल जलाई है???" जगन तो चौंका ही था किन्तु मेरी ये बात सुन कर वहां मौजूद बाकी लोग भी बुरी तरह चौंका थे, जबकि जगन ने हैरानी से कहा____"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर? तुम्हारी फसल जला दिया किसी ने??"

"हां काका।" मैंने गंभीरता से कहा____"आज सुबह जब मैं यहाँ से वापस अपने खेत की तरफ गया तो मैंने देखा कि गेहू की पुल्लियों का जो गड्ड बना के रखा था मैंने उसमे भीषण आग लगी हुई थी। अपनी मेहनत को जल कर राख होते देखता रह गया था मैं। भला मैं कैसे उस आग को बुझा सकता था? ख़ैर इतना कुछ होने के बाद अब ये सोचने का विषय हो गया है कि मेरी गेहू की फसल को आग किसने लगाईं और अगर किसी ने ये सब मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने की वजह से किया है तो उसने फसल को ही क्यों जलाया? वो अपनी दुश्मनी मुझसे भी तो निकाल सकता था?"

"बड़ी हैरत की बात है छोटे ठाकुर।" जगन ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला ऐसा कौन कर सकता है?"
"यही तो पता करना है काका।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"एक तरफ मुरारी काका की हत्या का मामला और दूसरी तरफ मेरी फसल को जला देने का मामला। ये दोनों ही मामले ऐसे हैं जिनके बारे में फिलहाल कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा किसी ने क्यों किया है?"

जगन काका से थोड़ी देर और कुछ बातें करने के बाद मैं घर के अंदर की तरफ दाखिल हो गया। मैंने महसूस कर लिया था कि जगन काका के ज़हन में जो मेरे प्रति नाराज़गी थी वो काफी हद तक दूर हो चुकी थी। हालांकि मेरे ज़हन में ये ख़याल अब भी उभरता था कि मुरारी काका की हत्या क्या जगन ने की होगी? माना कि दोनों भाइयों के बीच कोई मन मुटाव या बैर जैसी भावना नहीं थी किन्तु कोई अपने अंदर कैसी भावना छुपाये बैठा है इसका पता किसी को कैसे चल सकता है? कहने का मतलब ये कि हो सकता है कि जगन के मन में अपने बड़े भाई की ज़मीन हड़पने का इरादा पहले से ही रहा हो जिसके लिए उसने अवसर देख कर अपने भाई की हत्या कर दी और हत्या के इस मामले में मुझे बड़ी सफाई से फंसा दिया हो।

अगर सोचा जाए तो ये ख़याल अपनी जगह तर्क संगत ही था। ज़र जोरु और ज़मीन होती ही ऐसी है जिसके लिए इंसान कुछ भी कर सकता है। जगन के लिए ये सुनहरा अवसर था अपने भाई की हत्या करने का और अपने भाई की हत्या में मुझे फंसा देने का। उसे अच्छी तरह पता था कि मैं कैसा आदमी हूं और आज कल कैसे हालात में हूं। उसे ये भी पता था कि मुरारी काका से मेरा गहरा ताल्लुक बन गया था और मेरा उनके घर आना जाना भी था। मेरे चरित्र का फायदा उठा कर ही उसने अपने भाई की हत्या की होगी और उस हत्या का इल्ज़ाम मेरे सर मढ़ दिया होगा।

मेरे मन में ये ख़याल अक्सर उभर आते थे लेकिन मेरे पास कोई प्रमाण नहीं था कि मैं अपने इस ख़याल को सही साबित कर सकूं। ख़ैर ये तो अब आने वाला वक़्त ही बताएगा कि मुरारी काका की हत्या से किसे फायदा होने वाला है। मैं यही सब सोचते हुए घर के अंदर आया तो देखा सरोज काकी अंदर वाले भाग के बरामदे के पास बैठी थी। उसके साथ गांव की कुछ औरतें भी बैठी हुईं थी। अनुराधा मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। ख़ैर मैं जब अंदर पहुंचा तो सरोज काकी के साथ साथ उन औरतों ने भी मेरी तरफ देखा।

"काकी अब से मैं अपने घर में ही रहूंगा।" मैंने कुछ देर उन सबको देखने के बाद सरोज काकी से कहा____"कल पिता जी आये थे और आज माँ और बड़ा भाई आया था। माँ ने अपनी क़सम दे कर मुझे घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया है इस लिए आज शाम को मैं चला जाऊंगा लेकिन मैं यहाँ आता रहूंगा। मुरारी काका के बड़े उपकार हैं मुझ पर इस लिए मैं ये पता लगा के रहूंगा कि उनकी हत्या किसने और किस वजह से की है?"

"मैं तो अब भी यही कहती हूं बेटा कि तुम इस झमेले में मत पड़ो।" सरोज काकी ने गंभीर भाव से कहा____"मेरा मरद तो चला ही गया है। क्या हत्यारे का पता लगा लेने से वो मुझे वापस मिल जायेगा?"

"ये तुम कैसी बातें करती हो काकी?" मैंने बाकी औरतों की तरफ देखने के बाद काकी से कहा____"माना कि मुरारी काका अब कभी वापस नहीं मिलेंगे मगर ये जानना तो हम सबका हक़ है कि उनकी हत्या किसने की है? स्वर्ग में बैठे मुरारी काका भी यही चाहते होंगे कि उनके हत्यारे का पता लगाया जाए और उसे सज़ा दी जाए। अगर ऐसा न हुआ तो उनकी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। मैं खुद भी तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक कि काका के हत्यारे का पता नहीं लगा लेता। क्योंकि मुरारी काका की हत्या से मैं खुद को भी कहीं न कहीं अपराधी मानता हूं। क्या पता किसी ने मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने के लिए ही मुरारी काका की इस तरह से जान ले ली हो। इस लिए मैं इस सबका पता लगा के ही रहूंगा।"

सरोज काकी मेरी तरफ उदास नज़रों से देखती रही। उसके पास बैठी बाकी औरतें भी ख़ामोशी से मेरी बातें सुन रही थी। तभी मेरी नज़र अनुराधा पर पड़ी। वो अभी अभी एक कमरे से निकल कर बाहर आई थी। उसने एक नज़र मेरी तरफ देखा और फिर चुप चाप घर के पीछे की तरफ जाने के लिए जो दरवाज़ा था उस तरफ बढ़ ग‌ई।

"तुम्हेँ पता है काकी।" मैंने काकी से कहा____"आज सुबह जब मैं यहाँ से अपने खेत की तरफ गया तो देखा कि खेत में मेरी गेहू की फसल में आग लगी हुई थी। सारी की सारी फसल जल कर राख हो गई।"

"ये तुम क्या कह रहे हो बेटा?" सरोज के साथ साथ बाकी औरतें भी मेरी बात सुन कर हैरानी से मेरी तरफ देखने लगीं थी।
"हां काकी।" मैंने कहा____"इतनी मेहनत से मैंने जिस फसल को उगाया था उसे किसी ने आग लगा दी और मैं कुछ नहीं कर सका। तुम खुद सोचो काकी कि ऐसा किसी ने क्यों किया होगा? मुरारी काका की हत्या होना और मेरी फसल को आग लगा देना ये दोनों मामले साथ साथ हुए हैं। मतलब साफ़ है कि दोनों मामलों का आपस में सम्बद्ध है और इन दोनों मामलों को जन्म देने वाला कोई एक ही इंसान है। ख़ैर अपनी फसल के जल जाने का मुझे इतना दुःख नहीं है मगर मुरारी काका की हत्या जिस किसी ने भी की है उसे मैं पाताल से भी खोज निकालूँगा और फिर उसे ऐसी सज़ा दूंगा कि उसके फ़रिश्ते भी थर्रा जाएंगे।"

मैं ये सब कहने के बाद पलटा और घर से बाहर निकल कर अपने झोपड़े की तरफ चल दिया। आसमान में चमकता हुआ सूरज पश्चिम दिशा की तरफ पहुंच चुका था और कुछ ही देर में शाम हो जानी थी। ये देख कर मुझे याद आया कि आज शाम को मुझे अपने घर जाना है। घर जाने की बात याद आते ही मेरे मन में एक अजीब सा एहसास होने लगा और साथ ही ज़हन में ये ख़याल भी उभर आये कि घर में पिता जी से जब मेरा सामना होगा तब वो क्या कहेंगे मुझे? मैंने उस दिन गुस्से में भाभी को दुत्कार दिया था तो क्या वो मुझसे गुस्सा होंगी? ऐसे कई सारे ख़याल मेरे मन में उभर रहे थे और मेरे अंदर अजीब सा एहसास जगा रहे थे।

फागुन का महीना चल रहा था और कल होली का त्यौहार है। मैं सोचने लगा कि इस साल की ये होली मुरारी काका के घर वालों के भाग्य में नहीं थी। मुझे याद आया कि हर साल मैं अपने दोस्तों के साथ होली के इस त्यौहार को अपने तरीके से मनाता था। भांग के नशे में गांव की कुछ लड़कियों को मैं उठवा लेता था और गांव से दूर खेतों में बने अपने मकान में ले जा कर उनके मज़े लेता था। ऐसा नहीं था कि मैं हर किसी पर जुल्म करता था बल्कि बहुत सी ऐसी भी होतीं थी जो अपनी ख़ुशी से मेरे साथ सम्भोग करतीं थी क्योंकि मैं उन्हें संतुष्ट भी करता था और पैसे से उनकी मदद भी करता था। इस बार का ये त्यौहार मेरे लिए एक नए रूप में था और मैं खुद भी एक नए रूप में था।

मैंने एक थैले में अपने कपड़े समेट कर डाले और घर जाने के लिए तैयार हो गया। मेरा मन ज़रा भी नहीं कर रहा था कि मैं यहाँ से घर जाऊं। इस जगह से एक लगाव हो गया था और इस जगह पर कई सारी यादें बन गईं थी। इस जगह पर मुरारी काका जैसे इंसान ने बुरे वक़्त में मेरा साथ दिया था। इस जगह पर सरोज काकी ने मुझे जिस्मानी सुख दिया था और इसी जगह पर मैंने अपने बुरे वक़्त में जीवन का असली रंग देखा था। अनुराधा जैसी एक आम सी लड़की ने बिना कुछ किये ही मेरी मानसिकता को बदल दिया था। मुझे एक बार फिर से याद आ गया कि मुरारी काका ने पिछले दिन मुझसे अपनी बेटी अनुराधा का हाथ थाम लेने की बात कही थी। मेरे मन में तरह तरह के विचार चलने लगे। क्या मैं सरोज काकी और उसके बच्चों को ऐसे ही छोड़ कर चला जाऊंगा? क्या मैं मुरारी काका के उपकारों को भूल कर ऐसे ही यहाँ से चला जाऊंगा? नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊंगा बल्कि मुरारी काका के उपकारों का बदला ज़रूर चुकाऊंगा।

जाने कितनी ही देर तक मैं ये सब सोचता रहा। सूर्य अपने वजूद पर लालिमा चढ़ाये पश्चिम दिशा में उतर चुका था। आस पास कोई नहीं था बस हवा चलने की आवाज़ें ही सुनाई दे रहीं थी। मेरे मन में बहुत सी बातें इस जगह के लिए पनप चुकी थी और मैंने एक फैसला कर लिया था।

अपना सामान एक थैले में भर कर मैं झोपड़े से बाहर निकला और एक बार खेत के उस हिस्से की तरफ देखा जहां पर मेरी फसल का जली हुई राख के रूप में ढेर पड़ा था। कुछ देर उस राख के ढेर को देखने के बाद मैं खेत की तरफ बढ़ गया। खेत के पास आ कर मैंने उस खेत की ज़मीन पर अपना हाथ रखा और फिर उस हाथ को अपने माथे पर लगा कर मैंने उस ज़मीन को प्रणाम किया।

खेत की उस ज़मीन को प्रणाम करने के बाद मैं उठा और पलट कर चल दिया। अभी मैं झोपड़े के करीब ही पंहुचा था कि मेरी नज़र सामने से आती हुई एक बग्घी पर पड़ी। उस बग्घी में पिता जी का एक आदमी बैठा हुआ था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि शायद ये बग्घी माँ ने मुझे लाने के लिए भेजी होगी।

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" बग्घी मेरे पास आई तो बग्घी चला रहे उस आदमी ने मुझसे बड़े अदब से कहा____"ठाकुर साहब ने आपको लाने के लिए मुझे भेजा है।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी काका।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"ईश्वर ने मुझे दो पैर दिए हैं जो कि अभी सही सलामत हैं। इस लिए मैं पैदल ही घर आ जाता।"

"ऐसा कैसे हो सकता है छोटे ठाकुर?" उस आदमी ने कहा_____"ख़ैर छोड़िये, लाइए ये थैला मुझे दीजिए।"

बग्घी से उतर कर वो आदमी मेरे पास आया और थैला लेने के लिए मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उसे ख़ामोशी से थैला दे दिया जिसे ले कर वो एक तरफ हट गया। मैं जब बग्घी में बैठ गया तो वो आदमी भी आगे बैठ गया और फिर उसने घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल दिए।


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बेहतरीन अपडेट
इन चार महीनों ने वैभव को बदल ही दिया । उसे अब सही और ग़लत में फर्क करना आ गया । उसका दिल भी संवेदनशील हो ही गया । मेहनत करने के बाद भी जब फल न मिलता हो , उसका तजुर्बा भी मिल गया ।
मुरारी की हत्या और उसके फसल को जलाना... दोनों एक आदमी द्वारा की लगती है ।
आज तो वैभव अपने घर जा रहा है देखते हैं घर वाले क्या करते हैं वहा के हालात केसे है क्या कोई हवेली वाला है इन सब के पीछे
 

Sanju@

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 09
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अब तक,,,,,

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" बग्घी मेरे पास आई तो बग्घी चला रहे उस आदमी ने मुझसे बड़े अदब से कहा____"ठाकुर साहब ने आपको लाने के लिए मुझे भेजा है।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी काका।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"ईश्वर ने मुझे दो पैर दिए हैं जो कि अभी सही सलामत हैं। इस लिए मैं पैदल ही घर आ जाता।"

"ऐसा कैसे हो सकता है छोटे ठाकुर?" उस आदमी ने कहा_____"ख़ैर छोड़िये, लाइए ये थैला मुझे दीजिए।"

बग्घी से उतर कर वो आदमी मेरे पास आया और थैला लेने के लिए मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उसे ख़ामोशी से थैला दे दिया जिसे ले कर वो एक तरफ हट गया। मैं जब बग्घी में बैठ गया तो वो आदमी भी आगे बैठ गया और फिर उसने घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल दिए।


अब आगे,,,,,


सारे रास्ते मेरे ज़हन में कई तरह के ख़याल आते जाते रहे। कभी मैं ये सोचता कि मुरारी काका के हत्यारे का पता कैसे लगाऊंगा और मुरारी काका के बाद सरोज काकी और अनुराधा का क्या होगा तो कभी ये सोचने लगता कि जब मैं घर पहुंच जाऊंगा तब सब लोग मुझे देख कर क्या कहेंगे? ख़ास कर पिता जी जब मुझे देखेंगे तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

आस पास के गांवों में मेरा गांव सबसे बड़ा गांव था। ज़्यादातर मेरे ही गांव में मेरे पिता जी के द्वारा आस पास के गांवों की हर समस्या का फैसला होता था। गांव में कुछ शाहूकार लोग भी थे जो पिता जी की चोरी से ग़रीबों पर नाजायज़ रूप से जुल्म करते थे। ग़रीब लोग उनके डर से उनकी शिकायत पिता जी से नहीं कर पाते थे। यूं तो शाहूकार हमेशा हमसे दब के ही रहे थे किन्तु न‌ई पीढ़ी वाली औलाद अब सिर उठाने लगी थी।

गांव के एक छोर पर हमारी हवेली बनी हुई थी। दादा पुरखों के ज़माने की हवेली थी वो किन्तु अच्छी तरह ख़याल रखे जाने की वजह से आज भी न‌ई नवेली दुल्हन की तरह चमकती थी। हवेली के सामने एक विशाल मैदान था और छोर पर क़रीब पन्द्रह फ़ीट ऊंचा हाथी दरवाज़ा था। जगह जगह हरे भरे पेड़ पौधे और फूल लगे हुए थे जिससे हवेली की सुंदरता और भी बढ़ी हुई दिखती थी। हवेली के अंदर विशाल प्रांगण के एक तरफ कई सारी जीपें खड़ी थी और दूसरी तरफ कुछ बग्घियां खड़ी हुईं थी। जहां पर रास्ता सही नहीं होता था वहां पर बग्घी से जाया जाता था।

(दोस्तों, यहाँ पर मैं अपने ठाकुर खानदान का एक छोटा सा परिचय देना चाहूंगा ताकि कहानी को आगे चल कर पढ़ने और समझने में थोड़ी आसानी रहे।)

☆ ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह (दादा ठाकुर/इनका स्वर्गवास हो चुका है)
☆ इन्द्राणी सिंह (दादी माँ/इनका भी स्वर्गवास हो चुका है।)

ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह के पहले जो थे उनका इस कहानी में कोई विवरण नहीं दिया जायेगा क्योंकि उनका कहानी में कोई रोले नहीं है। इस लिए वर्तमान के किरदारों को जोड़ने के लिए दादा ठाकुर से परिचय शुरू करते हैं।

ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह को यूं तो चार बेटे थे किन्तु सबसे बड़े और तीसरे नंबर वाले उनके बेटे बहुत पहले ईश्वर को प्यारे हो चुके थे। उनकी मौत कैसे हुई थी ये बात ना तो मुझे पता है और ना ही मैंने कभी पता करने की कोशिश की थी। ख़ैर दो तो ईश्वर को प्यारे हो गए किन्तु जो दो बचे हैं उनका परिचय इस प्रकार है।

☆ ठाकुर प्रताप सिंह (मेरे पिता जी/दादा ठाकुर)
☆ सुगंधा सिंह (मेरी माँ/बड़ी ठकुराइन)

मेरे माता पिता की दो ही संतानें हैं।
(१) ठाकुर अभिनव सिंह (मेरे बड़े भाई)
रागिनी सिंह (मेरी भाभी और बड़े भाई की पत्नी)
(२) ठाकुर वैभव सिंह (मैं)

☆ ठाकुर जगताप सिंह (मेरे चाचा जी/मझले ठाकुर)
☆ मेनका सिंह (मेरी चाची/छोटी ठकुराइन)

मेरे चाचा और चाची के तीन बच्चे हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) ठाकुर विभोर सिंह (चाचा चाची का बड़ा बेटा)
(२) कुसुम सिंह (चाचा चाची की बेटी)
(३) ठाकुर अजीत सिंह (चाचा चाची का छोटा बेटा)

मेरे चाचा जी ज़मीन ज़ायदाद और खेती बाड़ी का सारा काम काज सम्हालते हैं। उनकी निगरानी में ही सारा काम काज होता है।

☆ चंद्रकांत सिंह (मेरे पिता जी का मुंशी)
☆ प्रभा सिंह (मुंशी की पत्नी)

मुंशी चंद्रकान्त और प्रभा को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) रघुवीर सिंह (मुंशी का बेटा)
रजनी सिंह (रघुवीर की बीवी और मुंशी की बहू)
(२) कोमल सिंह (मुंशी की बेटी)

दोस्तों, तो ये था मेरे ठाकुर खानदान का संक्षिप्त परिचय। मुंशी चंद्रकान्त का परिचय भी दे दिया है क्योंकि कहानी में उसका और उसके परिवार का भी रोल है।

"छोटे ठाकुर।" मैं सोचो में गुम ही था कि तभी ये आवाज़ सुन कर मैंने बग्घी चला रहे उस आदमी की तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा____"हम हवेली पहुंच गए हैं।"

उस आदमी की ये बात सुन कर मैंने नज़र उठा कर सामने देखा। मैं सच में हवेली के विशाल मैदान से होते हुए हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास आ गया था। चार महीने बाद हवेली में आया था। बग्घी में बैठे बैठे मैं कुछ पलों तक हवेली को देखता रहा उसके बाद बग्घी से नीचे उतरा। हवेली में आस पास मौजूद दरबान लोगों ने मुझे देखते ही अदब से सिर झुका कर मुझे सलाम किया।

मैं अभी बग्घी से नीचे उतरा ही था कि तभी हवेली के मुख्य दरवाज़े से निकल कर मेरी माँ और भाभी मेरी तरफ आईं। उनके साथ में मेरी चाची मेनका और उनकी बेटी कुसुम भी थी। सभी के चेहरे खिले हुए थे और होठों पर गहरी मुस्कान थी। माँ के हाथों में आरती की थाली थी जिसमे एक दिया जल रहा था। मेरे पास आ कर माँ ने मेरी आरती उतारी और थाली से कुछ फूल उठा कर मेरे ऊपर डाल दिया।

"आपको पता है ना कि मुझे ये सब पसंद नहीं है।" मैंने माँ से सपाट लहजे में कहा_____"फिर ये सब क्यों माँ?"
"तू एक माँ के ह्रदय को नहीं समझ सकता बेटे।" मैंने झुक कर माँ के चरणों को छुआ तो माँ ने मेरे सर पर अपना हाथ रखते हुए कहा____"ख़ैर, हमेशा खुश रह और ईश्वर तुझे सद्बुद्धि दे।"

मां से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने मेनका चाची का आशीर्वाद लिया और फिर रागिनी भाभी के पैरों को छू कर उनका आशीर्वाद भी लिया। कुसुम दौड़ कर आई और मेरे सीने से लग गई।

"कैसी है मेरी बहना?" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अब आप आ गए हैं तो अच्छी ही हो गई हूं।"
"चल अंदर चल।" माँ ने कहा तो हम सब हवेली के अंदर की तरफ चल पड़े।

हवेली के अंदर आ कर मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर पिता जी और चाचा जी कहीं नज़र न आये मुझे और ना ही मेरा बड़ा भाई नज़र आया। चाचा जी के दोनों बेटे भी नहीं दिखे मुझे।

"बाकी सब लोग कहां हैं माँ?" मैंने माँ से पूछा____"कोई दिख नहीं रहा मुझे।"
"तेरे पिता जी तो शाम को ही किसी ज़रूरी काम से कहीं चले गए थे।" माँ ने कहा____"तेरे चाचा जी दो दिन पहले शहर गए थे किसी काम से मगर अभी तक नहीं आए और तेरा भाई दोपहर को विभोर और अजीत के साथ पास के गांव में अपने किसी दोस्त के निमंत्रण पर गया है।"

"भइया मैंने आपका कमरा साफ़ करके अच्छे से सजा दिया है।" पास में ही खड़ी कुसुम ने कहा____"बड़ी माँ ने मुझे बता दिया था कि आज शाम को आप आ जाएंगे इस लिए मैंने आपके कमरे की साफ़ सफाई अच्छे से कर दी थी।"

"जब से मेरे द्वारा इसे ये पता चला है कि तू आज शाम को आ जाएगा।" माँ ने कहा____"तब से ये पूरी हवेली में ख़ुशी के मारे इधर से उधर नाचती फिर रही है।"
"हां तो नाचने वाली बात ही तो है न बड़ी मां।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"चार महीने बाद मेरे भैया आने वाले थे। ताऊ जी के डर से मैं अपने भैया से मिलने भी नहीं जा सकी कभी।" कहने के साथ ही कुसुम मेरी तरफ पलटी और फिर मासूमियत से बोली____"भइया आप मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं ना?"

"तू खुद ही सोच।" मैंने कहा____"कि मुझे नाराज़ होना चाहिए कि नहीं?"
"बिल्कुल नाराज़ होना चाहिए आपको।" कुसुम ने दो पल सोचने के बाद झट से कहा____"इसका मतलब आप नाराज हैं मुझसे?"

"तुझसे ही नहीं बल्कि सबसे नाराज़ हूं मैं।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और ये नाराज़गी इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं है। ख़ैर बाद में बात करुंगा।"

कहने के साथ ही मैं किसी की कुछ सुने बिना ही अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। चाची और भाभी रसोई में चली गईं थी। इधर मेरी बातें सुनने के बाद जहां माँ कुछ सोचने लगीं थी वहीं कुसुम के चेहरे पर मायूसी छा गई थी।

हवेली दो मंजिला थी और काफी बड़ी थी। हवेली के ज़्यादातर कमरे बंद ही रहते थे। हवेली के निचले भाग में एक तरफ पिता जी का कमरा था जो कि काफी आलीशान था। दूसरी तरफ निचले ही भाग में चाचा जी का कमरा था। हवेली के अंदर ही एक मंदिर था। हवेली के ऊपरी भाग पर सबसे किनारे पर और सबसे अलग मेरा कमरा था। मेरे कमरे के आस पास वाले सभी कमरे बंद ही रहते थे। दूसरे छोर में एक तरफ बड़े भैया और भाभी का कमरा था। उसके दूसरी तरफ के दो अलग अलग कमरे चाचा जी के दोनों बेटों के थे और उन दोनों के सामने वाला एक कमरा कुसुम का था।

मैं शुरू से ही सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था। हवेली के सभी लोग जहां पिता जी की मौजूदगी में एकदम चुप चाप रहते थे वहीं मैं अपने ही हिसाब से रहता था। मैं जब चाहे तब अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आ जा सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं किसी का आदर सम्मान नहीं करता था बल्कि वो तो मैं बराबर करता था किन्तु जब मुझ पर किसी तरह की पाबंदी लगाने वाली बात आती थी तब मेरा बर्ताव उग्र हो जाता था और उस सूरत में मैं किसी की एक नहीं सुनता था। फिर भले ही चाहे कोई मेरी जान ही क्यों ना लेले। कहने का मतलब ये कि मैं अच्छा तभी बना रह सकता था जब कोई मुझे किसी बात के लिए रोके टोके न और जैसे ही किसी ने रोक टोंक लगाईं वैसे ही मेरा पारा चढ़ जाता था। मुझे अपने ऊपर किसी की बंदिश ज़रा भी पसंद नहीं थी। मेरे इसी स्वभाव के चलते मेरे पिता जी मुझसे अक्सर नाराज़ ही रहते थे।

कमरे में आ कर मैंने थैले को एक कोने में उछाल दिया और पलंग पर बिछे मोटे मोटे गद्दों पर धम्म से लेट गया। आज चार महीने बाद गद्देदार बिस्तर नसीब हुआ था। कुसुम ने सच में बहुत अच्छे से सजाया था मेरे कमरे को। हम चार भाइयों में वो सबसे ज़्यादा मेरी ही लाडली थी और जितना ज़ोर उसका मुझ पर चलता था उतना किसी दूसरे पर नहीं चलता था। उसके अपने सगे भाई उसे किसी न किसी बात पर डांटते ही रहते थे। हालांकि एक भाई अजीत उससे छोटा था मगर ठाकुर का खून एक औरत ज़ात से दब के रहना हर्गिज़ गवारा नहीं करता था।

हवेली मेरे लिए एक कै़दखाना जैसी लगती थी और मैं किसी क़ैद में रहना बिलकुल भी पसंद नहीं करता था। यूं तो हवेली में काफी सारे नौकर और नौकरानियाँ थी जो किसी न किसी काम के लिए यहाँ मौजूद थे किन्तु अपनी तबियत ज़रा अलग किस्म की थी। हवेली में रहने वाली ज़्यादातर नौकरानियाँ मेरे लंड की सवारी कर चुकीं थी और ये बात किसी से छुपी नहीं थी। बहुत सी नौकरानियों को तो हवेली से निकाल भी दिया गया था मेरे इस ब्यभिचार के चक्कर में। मेरा बड़ा भाई अक्सर इस बात के लिए मुझे बुरा भला कहता रहता था मगर मैं कभी उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता था। चाचा जी के दोनों लड़के मेरे भाई के साथ ही ज़्यादातर रहते थे। शायद उन्हें ये अच्छी तरह से समझाया गया था कि मेरे साथ रहने से वो ग़लत रास्ते पर चले जाएंगे।

हवेली के अंदर मुझसे सबसे ज़्यादा प्यार से बात करने वाला अगर कोई था तो वो थी चाचा चाची की लड़की कुसुम। वैसे तो माँ और चाची भी मुझसे अच्छे से ही बात करतीं थी मगर उनकी बातों में उपदेश देना ज़्यादा शामिल होता था जो कि अपने को बिलकुल पसंद नहीं था। रागिनी भाभी भी मुझसे बात करतीं थी किन्तु वो भी माँ और चाची की तरह उपदेश देने लगतीं थी इस लिए उनसे भी मेरा ज़्यादा मतलब नहीं रहता था। दूसरी बात ये भी थी कि उनकी सुंदरता पर मैं आकर्षित होने लगता था जो कि यकीनन ग़लत बात थी। मैं अक्सर इस बारे में सोचता और फिर यही फैसला करता कि मैं उनसे ज़्यादा बोल चाल नहीं रखूंगा और ना ही उनके सामने जाऊंगा। मैं पक्का औरतबाज़ था लेकिन अपने घर की औरतों पर मैं अपनी नीयत ख़राब नहीं करना चाहता था इसी लिए मैं हवेली में बहुत कम ही रहता था।

हवेली में पिता जी का शख़्त हुकुम था कि हवेली में काम करने वाली कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरे कहने पर कोई काम करेगी। अगर मैं किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करूं तो इस बात की सूचना फ़ौरन ही उन तक पहुंचाना जैसे हर किसी का पहला और आख़िरी कर्त्तव्य था। मेरे कमरे की साफ़ सफाई या तो कुसुम करती थी या फिर मां। कहने का मतलब ये कि हवेली में मेरी छवि बहुत ही ज़्यादा बदनाम किस्म की थी।

अभी मैं इन सब बातों को सोच ही रहा था कि कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई जिससे मेरा ध्यान टूटा और मैंने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर कुसुम खड़ी थी। उसे देख कर मैं बस हलके से मुस्कुराया और उसे अंदर आने का इशारा किया तो वो मुस्कुराते हुए अंदर आ गई।

"वो मैं ये पूछने आई थी कि आपको कुछ चाहिए तो नहीं?" कुसुम ने कहा____"वैसे ये तो बताइये कि इतने महीनों में आपको कभी अपनी इस बहन की याद आई कि नहीं?"

"सच तो ये था बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं किसी को याद ही नहीं करना चाहता था। मेरे लिए हर रिश्ता और हर ब्यक्ति जैसे रह ही नहीं गया था। मुझे हर उस ब्यक्ति से नफ़रत हो गई थी जिससे मेरा ज़रा सा भी कोई रिश्ता था।"

"हां मैं समझ सकती हूं भइया।" कुसुम ने कहा____"ऐसे में तो यही होना था। मैं तो हर रोज़ बड़ी माँ से कहती थी कि मुझे अपने वैभव भैया को देखने जाना है मगर बड़ी माँ ये कह कर हमेशा मुझे रोक देती थीं कि अगर मैं आपको देखने गई तो दादा ठाकुर गुस्सा करेंगे।"

"और सुना।" मैंने विषय बदलते हुए कहा____"मेरे जाने के बाद यहाँ क्या क्या हुआ?"
"होना क्या था?" कुसुम ने झट से कहा____"आपके जाते ही बड़े भैया तो बड़ा खुश हुए थे और उनके साथ साथ विभोर भैया और अजीत भी बड़ा खुश हुआ था। सच कहूं तो आपके जाने के बाद यहाँ का माहौल ही बदल गया था। भैया लोग तो खुश थे मगर बाकी लोग ख़ामोश से हो गए थे। दादा ठाकुर तो किसी से बात ही नहीं करते थे। उनके इस ब्योहार से मेरे पिता जी भी चुप ही रहते थे। किसी किसी दिन दादा ठाकुर से बड़ी माँ आपके बारे में बातें करती थी तो दादा ठाकुर ख़ामोशी से उनकी बातें सुनते और फिर बिना कुछ कहे ही चले जाते थे। ऐसा लगता था जैसे वो गूंगे हो गए हों। मेरा तो पूछिए ही मत क्योंकि आपके जाने के बाद तो जैसे मुझ पर जुल्म करने का बाकी भाइयों को प्रमाण पत्र ही मिल गया था। वो तो भाभी थीं जिनके सहारे मैं बची रहती थी।"

"तुझे मेरे लिए एक काम करना होगा कुसुम।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"करेगी ना?"
"आप बस हुकुम दीजिये भइया।" कुसुम ने मेरे पास आते हुए कहा____"क्या करना होगा मुझे?"

"तुझे मेरे लिये।" मैंने धीमी आवाज़ में कहा____"यहां पर हर किसी की जासूसी करनी होगी। ख़ास कर दो लोगों की। बोल करेगी ना?"
"क्या ऐसा कभी हुआ है भैया कि आपके कहने पर मैंने कोई काम ना किया हो?" कुसुम ने कहा____"आप बताइए किन दो लोगों की जासूसी करनी है मुझे और क्यों करनी है?"

"तुझे दादा ठाकुर और ठाकुर अभिनव सिंह की जासूसी करनी है।" मैंने कहा____"ये काम तुझे इस तरीके से करना है कि उनको तुम्हारे द्वारा जासूसी करने की भनक तक ना लग सके।"

"वो तो ठीक है भइया।" कुसुम ने उलझन भरे भाव से कहा____"मगर आप इन दोनों की जासूसी क्यों करवाना चाहते हैं?"
"वो सब मैं तुझे बाद में बताऊंगा कुसुम।" मैंने कहा_____"हालाँकि मेरा ख़याल है कि जब तू इन सबकी जासूसी करेगी तो तुझे भी अंदाज़ा हो ही जायेगा कि मैंने तुझे इन लोगों की जासूसी करने के लिए क्यों कहा था?"

"चलिए ठीक है मान लिया।" कुसुम ने सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन मुझे ये तो बताइए कि मुझे जासूसी करते हुए पता क्या करना है? आख़िर मुझे भी तो पता होना चाहिए ना कि मैं जिनकी जासूसी करने जा रही हूं उनसे मुझे जानना क्या है?"

"तुझे बस उनकी बातें सुननी है।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और उनकी बातें सुन कर वो सब बातें हूबहू मुझे आ कर सुरानी हैं।"
"लगता है आप मेरी पिटाई करवाना चाहते हैं उन सबसे।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"क्योंकि अगर उन्हें पता चल गया कि मैं उनकी बातें चोरी छुपे सुन रही हूं तो दादा ठाकुर तो शायद कुछ न कहें मगर वो तीनों भाई तो मेरी खाल ही उधेड़ देंगे।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा।" मैंने कहा____"मेरे रहते तुझे कोई हाथ भी नहीं लगा सकता।"
"हां ये तो मुझे पता है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"ठीक है, तो मैं आज से ही जासूसी के काम में लग जाती हूं। कुछ और भी हो तो बता दीजिए।"

"और तो फिलहाल कुछ नहीं है।" मैंने कहा____"अच्छा ये बता भाभी मुझसे नाराज हैं क्या?"
"जिस दिन वो आपसे मिल कर आईं थी।" कुसुम ने कहा____"उस दिन वो बहुत रोईं थी अपने कमरे में। बड़ी माँ ने उनसे जब सब पूछा तो उन्होंने बता दिया कि आपने उन्हें क्या कहा था। उनकी बातें सुन कर बड़ी माँ को भी आप पर गुस्सा आ गया था। उधर भाभी ने तो दो दिनों तक खाना ही नहीं खाया था। हम सब उन्हें कितना मनाए थे मगर वो अपने कमरे से निकलीं ही नहीं थी। मुझे लगता है भैया कि आपको उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था। भला इस सबमें उनकी क्या ग़लती थी? उन्हें तो किसी ने कहा भी नहीं था कि वो आपसे मिलने जाएं। बल्कि वो तो काफी समय से खुद ही कह रहीं थी कि उन्हें आपसे मिलने जाना है। मुझसे भी कई बार कहा था उन्होंने मगर दादा ठाकुर के डर से मैं उनके साथ नहीं जा सकती थी। उस दिन उन्होंने जब देखा कि हवेली में माँ और बड़ी माँ के सिवा कोई नहीं है तो वो चुप चाप पैदल ही हवेली से निकल गईं थी। मुझसे कहा कि वो मंदिर जा रही हैं। हालांकि मैं समझ गई थी कि वो आपके पास ही जा रहीं थी पर मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा।"

"इसका मतलब मुझे भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए?" मैंने गहरी सांस ले कर कहा।
"हां भइया।" कुसुम ने सिर हिलाया____"आपको भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए। आपको पता है एक दिन बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा कर रहे थे।"

"क्यो?" मैंने पूछा।
"वो इस लिए कि भाभी उनसे कह रही थी कि कैसे भाई हैं वो?" कुसुम ने कहा____"जो अपने छोटे भाई के लिए ज़रा भी चिंतित नहीं हैं। जबकि इतने महीने में उन्हें कम से कम एक बार तो आपसे मिलने जाना ही चाहिए था। भाभी की इन बातों से बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा हुए थे और फिर गुस्से में हवेली से चले गए थे।"

कुसुम की बातें सुन कर मैं एकदम से सोचने पर मजबूर हो गया था। इन चार महीनों में मेरे घर का कोई भी सदस्य मुझसे मिलने नहीं आया था किन्तु भाभी अपनी इच्छा से मुझसे मिलने आईं थी जबकि उन्होंने मुझसे ये कहा था कि माँ जी ने उन्हें भेजा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि भाभी मेरे लिए इतना चिंतित क्यों थी? क्या ये सिर्फ एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी या फिर इसके पीछे कोई दूसरी वजह थी? ख़ैर जो भी वजह रही हो मगर ये तो सच ही था ना कि वो मुझसे मिलने आईं थी और मैंने उन्हें बुरा भला कह कर अपने पास से जाने को बोल दिया था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि मुझे भाभी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। कुसुम की बातों से मुझे पता चला कि वो भाई से भी मेरे बारे में बातें करती थी जिस पर मेरा बड़ा भाई उन पर गुस्सा करता था।

कुसुम को मैंने जाने को बोल दिया तो वो कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं काफी देर तक भाभी के बारे में सोचता रहा। कुछ देर बाद मैं उठा और भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला। मेरा ख़याल था कि वो शायद इस वक़्त अपने कमरे में ही होंगी। बड़े भाई के आने से पहले मैं उनसे मिल लेना चाहता था।

मैं भाभी के कमरे में पंहुचा तो देखा भाभी कमरे में नहीं थीं। रात हो गई थी और मुझे याद आया कि इस वक़्त सब खाना पीना बनाने में लगी होंगी। मैं नीचे गया और कुसुम को आवाज़ लगाईं तो वो मेरे पास भाग कर आई। मैंने कुसुम से कहा कि वो भाभी को बता दे कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं इस लिए वो ऊपर आ जाएं। मेरी बात सुन कर कुसुम सिर हिला कर चली गई जबकि मैं वापस भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला।

भाभी के कमरे में रखी एक कुर्सी पर मैं बैठा उनके आने का इंतज़ार कर रहा था। मेरे मन में कई सारी बातें भी चलने लगीं थी और मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। थोड़ी देर में मुझे कमरे के बाहर पायलों की छम छम बजती आवाज़ सुनाई दी। मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं। तभी कमरे के दरवाज़े से भाभी ने कमरे में प्रवेश किया। भाभी का चेहरा रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा की जामवंती जैसा था। भाभी जैसे ही कमरे में दाखिल हुईं तो मैं फ़ौरन ही कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया जबकि वो मुझे देख कर कुछ पल के लिए रुकीं और फिर कमरे में रखे बिस्तर पर बैठ गईं।

"आज सूर्य पश्चिम से कैसे उदय हो गया वैभव?" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर ने अपनी भाभी से मिलने का कष्ट क्यों किया?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी।" मैंने गर्दन झुका कर धीमी आवाज़ में कहा____"मैं उस दिन के अपने बर्ताव के लिए आपसे माफ़ी मांगने आया हूं।"

"बड़ी हैरत की बात है।" भाभी ने जैसे ताना मारते हुए कहा____"किसी के भी सामने न झुकने वाला सिर आज अपनी भाभी के सामने झुक गया और इतना ही नहीं माफ़ी भी मांग रहा है। कसम से देवर जी यकीन नहीं हो रहा।"

"आपको जो कहना है कह लीजिए भाभी।" मैंने गर्दन को झुकाए हुए ही कहा____"किन्तु मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं अपने उस दिन के बर्ताव के लिए बेहद शर्मिंदा हूं।"
"नहीं तुम शर्मिंदा नहीं हो सकते वैभव।" भाभी की आवाज़ मेरे करीब से आई तो मैंने गर्दन सीधी कर के उनकी तरफ देखा। वो बिस्तर से उठ कर मेरे पास आ गईं थी, फिर बोलीं____"इस हवेली में दादा ठाकुर के बाद एक तुम ही तो हो जिसमें ठाकुरों वाली बात है। तुम इस तरह गर्दन झुका कर शर्मिंदा नहीं हो सकते।"

"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैं भाभी की बातें सुन कर बुरी तरह हैरान हो गया था।
"मैं वही कह रही हूं वैभव।" भाभी ने कहा____"जो सच है। माना कि कुछ मामलों में तुम्हारी छवि दाग़दार है किन्तु हक़ीक़त यही है कि तुम दादा ठाकुर के बाद उनकी जगह लेने के क़ाबिल हो।"

"मुझे उनकी जगह लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है भाभी।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"पिता जी के बाद बड़े भैया ही उनकी जगह लेंगे। मैं तो मस्त मौला इंसान हूं और अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं। इस तरह के काम काज करना मेरी फितरत में नहीं है। ख़ैर मैं आपसे अपने उस दिन के बर्ताव के लिए माफ़ी मांगने आया हूं इस लिए आप मुझे माफ़ कर दीजिए।"

"उस दिन तुम्हारी बातों से मेरा दिल ज़रूर दुखा था वैभव।" भाभी ने संजीदगी से कहा____"किन्तु मैं जानती हूं कि जिन हालात में तुम थे उन हालातों में तुम्हारी जगह कोई भी होता तो वैसा ही बर्ताव करता। इस लिए तुम्हें माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मैं तो खुश हू कि जो इंसान मेरे सामने आने से भी कतराता था आज वो मुझसे मिलने आया है। मैंने तो हमेशा यही कोशिश की है कि इस हवेली की बहू के रूप में हर रिश्ते के साथ अपने फ़र्ज़ और कर्त्तव्य निभाऊं किन्तु मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि तुम हमेशा मुझसे किनारा क्यों करते रहते थे? अगर कोई बात थी तो मुझसे बेझिझक कह सकते थे।"

"माफ़ कीजिएगा भाभी।" मैंने कहा____"किन्तु कुछ बातों के लिए सामने वाले से किनारा कर लेने में ही सबकी भलाई होती है। आपसे कभी कोई ग़लती नहीं हुई है इस लिए आप इस बात के लिए खुद को दोष मत दीजिए।"

"भला ये क्या बात हुई वैभव?" भाभी ने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा____"अगर तुम खुद ही मानते हो कि मुझसे कोई ग़लती नहीं हुई है तो फिर तुम मुझसे किनारा कर के क्यों रहते हो? आख़िर ऐसी कौन सी वजह है? क्या मुझे नहीं बताओगे?"

"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"

इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।


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Amzing अपडेट
अपना हीरो घर पहुंच गया और पता चल गया की उसके जाने से कोन दुःखी और कोन खुश हुआ है वैभव कुसुम को अपने पिताजी और भाई पर जासूसी करने के लिए बोलता है वह अपनी भाभी से माफी मांगता है लेकिन ये क्या झोल है की उसकी भाभी बोलती है की दादा ठाकुर के बाद उनकी जगह तुम लेने वाले हो भाभी ने ऐसा क्यों कहा इसी कौनसी बात है जो भाभी को पता है ये क्या राज है देखते हैं अगले अपडेट में???
 

Sanju@

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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
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अब तक,,,,,

"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"


इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।

अब आगे,,,,,


अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?

काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।

मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?

खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।

"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"

"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।

"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"

"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"

कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।

कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।

"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"

"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"

"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"

कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।

"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा ग‌ई।

"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"

"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"

"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"

"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।

"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भ‌इया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"

"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो ग‌ए।"

कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?

"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"

"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"

"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"

कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।

मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।

जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।

दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।

वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?

कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"

कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।

"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"

"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"

"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"

"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भ‌इया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"

"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"

"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"

"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"

कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?


---------☆☆☆---------
Superb update
कुसुम का यू गम्भीरता से बात करना ये दर्शाता है की इन 4 महीनो मे सिर्फ वैभव ही नही था जिसने दुःख झेले है वैभव ने जैसे सोचा है और इसलिए वह सब से नाराज हैं उसको अपने ही दुःख दिखाई देते है बाकी लोगो के नही कुसुम के साथ कुछ तो हुआ है क्युकी वैभव बोलता है की वक्त और हालत सब सिखा देते हैं और तू तो इन हालातो में नही पड़ी है तब कुसुम कहती है ऐसा आप सोचते हैं लगता है बहुत बुरा हुआ है कुसुम के साथ देखते हैं वैभव क्या करता है इन 4 महीनो में जो हुआ है उनका पता लगता है या नही
 

TheBlackBlood

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Wah bhai kya Baat hai.
Welcome Back .
Kafi din se intjaar tha is kaha ke suru hone ka.
Ab lagta hai ki ye kahani or raj rani dono aap poori karoge
Pahle ise to puri hone do, Raj Rani to Dilli ki tarah hi abhi door hai :D
 

TheBlackBlood

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ये तो मेरे मन का हाल है....
अनुराधा ने अपने जीवन में पहली बार खाना बनाया... अरहर की दाल और चावल... और दोनों ही जल गये... लेकिन उस दिन हम दोनों ने वही जले हुये दाल चावल भी जिस तरह स्वाद लेकर खाये... उसका जैसा आनन्द किसी में नहीं
उसे देखने मिलने का मन तो बहुत करता है... लेकिन अब वो अपनी नहीं...

ज़िन्दगी के सफर में मन्जिल तक पहुंचने में ना जाने कितने हमसफ़र मिलते और बिछुड़ते हैं... :sad:
Kya baat kya baat....itni gahri baate vaibhav aur Anuradha ke sambandh me. Apan samajh gaya ki aap kya kah kar apan ke sir se nikal gaye :D
Well shukriya :hug:
 

TheBlackBlood

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अति सुंदर

किर्पया अपनी लेखनी को विराम नही दे।

हम आपके कद्रदान हैं।

अपडेट की देरी से नाराज थे।

जो शायद हमारा हक था।

धन्यवाद
Hamne inkaar bhi nahi kiya dear, well shukriya, sath bane rahe :hug:
 
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