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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

  • Total voters
    192

Ajju Landwalia

Well-Known Member
3,341
13,013
159
Finally ek lambe time ke baad story complete ho gayi... :declare:


Is story ke lambe safar me jane kaise kaise mukaam aaye. Jane kaise kaise utaar chadhaav aaye. Kabhi mav vyathit hua to kabhi khushi mili but shayad niyati chaahti thi ki ye kahani poorn ho. Halaaki maine is kahani ke liye jo socha tha wo nahi ho saka. Kuch to personal life ke issues ki vajah se aur kuch un expectations ki vajah se jo nahi huyi. Yahi vajah thi ki maine is kahani ke bahut se matter remove kar diye aur kahani ko jald se jald end karne ka man bana liya. Well, shayad aisa hi hona tha, kya kar sakte hain :dazed:

Aap sabhi dost bhaiyo ka bahut bahut abhaar, shukriya aur naman karta hu ki aap logo ne aakhir is kahani ko pura karne me mera itna sath diya, mujhe motivate kiya, mujhe appreciate kiya aur sabse zyada itna pyar diya... :bow:

Jaise upar wale ka diya hua ye jeewan bhi ek din apne antim aayaam par pahuch kar nishpraan ho kar samaapt ho jata hai waise hi ek din is sansaar ki har cheez ka yahi anjaam hota hai. Mera aap sabhi dost bhaiyo se yahi kahna hai ki is kahani ko sansaar ke isi shashwat satya ki tarah samjhe aur ise read kar ke anand le... :declare:

Dosto, kahani samaapt ho chuki hai. Ise read kare aur is kahani ke sambandh me apne vichaar byakt kare. Bahut se aise reader bhai hain jo silently is kahani se jude rahe lekin kabhi koi vichaar nahi byakt kiya. Unse bhi yahi kahna hai ki agar aap logo ko lagta hai ki meri mehnat ka kuch to fal aapke comments ya reviews ke roop me milna chahiye to saamne aaye aur apna farz nibhaye...

Dhanyawad 🙏🙏

Kitna sunder end kiya he aapne is amar prem kahani ka The_InnoCent Shubham Bhai,

Halanki suhagraat wala scene ko aap thoda vistarpurvak likh sakte the................lekin koi baat nahi ye part bhi atyant khubsurat tha...........

Na jane kitne utaar chadhav dekhe he is kahani ne..............aapki personal life bhi disturb rahi in dino...........lekin is sabke bavjood ye prem gatha purn huyi...........

Khushi to bahut hi jayada ho rahi he.............lekin sath hi sath is baat ka bhi bahut dukh he ki ab aap forum par nahi aayenge..............

Ek request he aapse............chahe to thoda lamba break le lo aap...........lekin likhna band na karna...............vinti he aapse.........

Once again.............thank you so much Bhai.............for this amazing love story...............
 

Game888

Hum hai rahi pyar ke
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अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

✮✮✮✮

रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

✮✮✮✮

रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

✮✮✮✮

ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
Outstanding story 🌹😍
One of the best story I have ever read .
Thank you so much for this wonderful story bhai
 

S M H R

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अध्याय - 166
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"ओह! रूपा बस करो।" कुमुद ने भावना में बह कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं थी, बोली____"किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम? तुम्हारे हृदय में क्यों ऐसी अनोखी भावनाएं जन्म ले लेती हैं? मेरी प्यारी ननद, मेरी प्यारी रूपा। भगवान तुम्हें हमेशा ऐसा ही बनाए रखे। हमेशा तुम्हें खुश रखे। हमेशा तुम्हें तुम्हारे प्रियतम के प्रेम का उपहार दे।"

कुमुद सच में रूपा की बातों से भाव विभोर सी हो गई थी। उसका बस चलता तो वो रूपा को अपने सीने के अंदर समा लेती। उधर रूपा के सुर्ख होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और आंख से आंसू का एक कतरा छलक गया।



अब आगे....


शाम को कुसुम ने आ कर मुझे जगाया। वो बड़ा खुश दिख रही थी और बड़ा जल्दी में भी थी। मुझे फटाफट हाथ मुंह धो कर आने को कहा और कमरे से चली गई। मैंने इधर उधर दृष्टि घुमाई तो मुझे शाम हो जाने का आभास हुआ। एकाएक मेरी नज़र मेरे हाथों पर पड़ी तो मैं हल्के से चौंका। मेरे हाथों में मेंहदी लगी हुई थी। एकदम से बिजली सी कौंधी मस्तिष्क में। मैंने रजाई हटा कर अपने पैरों को देखा। पांवों में रंग लगा हुआ था। पलक झपकते ही मस्तिष्क में ये बात आ गई कि मेरा विवाह हो गया है और रागिनी भाभी अब मेरी पत्नी बन चुकी हैं। इस बात का एहसास होते ही दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। आंखों के सामने वो सोलह श्रृंगार किए दुल्हन के रूप में चमक उठीं। उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो, कितनी सादगी है उनमें। कितना नूर है उनमें। ऐसे न जाने कितने ही ख़याल पलक झपकते ही मेरे ज़हन में उभरते चले गए।

थोड़ी देर मैं यही सब सोचता रहा उसके बाद कपड़े पहन कर कमरे से बाहर आ गया। बाहर लंबे चौड़े बरामदे में औरतें बैठी हुईं थी। मेनका चाची, निर्मला काकी, कुसुम, कजरी ये सब किसी न किसी काम से इधर उधर आती जाती नज़र आईं।

मैं सीधा गुसलखाने में गया। हाथ मुंह धोया और फिर वापस आया। मैंने देखा औरतों के बीच में मेरी भाभी....नहीं नहीं मेरी पत्नी घूंघट किए बैठी हुई थी। सब दुल्हन देखने आईं थी। हालाकि वो उन्हें पहले से ही जानती थीं और उन्हें देख चुकीं थी लेकिन आज की बात ही अलग थी। अब वो दुबारा सुहागन हो गईं थी। पहले वो बड़े भैया की पत्नी थीं किंतु अब वो मेरी पत्नी बन कर आईं थी। मेरी नज़र जैसे उन पर ही चिपक गई थी। कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी तो वो भाग कर मेरे पास आई।

"ओहो! तो आप भाभी को देख रहे हैं?" फिर वो अपने अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोल पड़ी____"अब अगर अच्छे से देख लिया हो तो बताइए अपनी गुड़िया के हाथ की बनी चाय पीनी है कि नहीं आपको?"

मैं कुसुम की बात से एकदम चौंक पड़ा। वो नटखट मुझे छेड़ रही थी। मैंने मुस्कुराते हुए प्यार से उसके सिर पर चपत लगाई____"बहुत बोलने लगी है तू। जा जल्दी से चाय ले के आ।"

"मैं बहुत बोलने लगी हूं।" वो शरारत से मुस्कुराते हुए बोली____"और मेरे सबसे अच्छे वाले भैया भाभी को दूर से देखने में लगे हैं...ही ही ही।"

कहने के साथ ही वो हंसते हुए भाग गई। मैं मुस्कुराते हुए वापस कमरे में आ गया। अंदर औरतें ही दिखीं थी बाकी मर्द लोग शायद बाहर थे। ख़ैर कुसुम चाय ले कर आई तो मैं उससे चाय ले कर पीने लगा और सोचने लगा कि आज का दिन बड़ा जल्दी गुज़र गया। सो जाने से पता ही न चला कि कब शाम हो गई। ज़ाहिर है अब बहुत जल्द रात भी हो जाएगी और फिर वो घड़ी भी आ जाएगी जब मुझे अपनी पत्नी के साथ एक ही कमरे में एक ही बिस्तर पर सोना होगा।

मैं सोचने लगा कि कैसे मैं उस वक्त एक पति के रूप में उनके सामने मौजूद रह पाऊंगा? इतना तो मैं भी जानता था कि विवाह के बाद रात में पति पत्नी की सुहागरात होती है। सुहागरात में दो जिस्मों के साथ साथ दो आत्माओं का भी मिलन हो जाता है लेकिन मेरे लिए सोचने का विषय ये था कि जो औरत कल तक मेरी भाभी थीं और जिन्हें मैं बहुत मान सम्मान देता था उन्हें अपनी पत्नी समझ कर कैसे उनके साथ सुहागरात जैसा अनोखा, अद्भुत और दुस्साहस से भरा कार्य कर पाऊंगा? सवाल तो ये भी था कि क्या वो भी ऐसा कर पाएंगी? आख़िर सुहागरात का ख़याल उनके मन में भी तो होगा। स्थिति बड़ी ही गंभीर और मुश्किल सी नज़र आने लगी थी मुझे। मैंने बड़ी मुश्किल से ये सब अपने दिमाग़ से झटका और चाय पीने के बाद बैठक की तरफ चल पड़ा।

बाहर बैठक में सभी पिता जी के पास बैठे हुए थे। मुझे समझ ना आया कि मैं उनके बीच बैठूं या नहीं? एकाएक मुझे एहसास हुआ कि इस समय मेरा उनके बीच बैठना उचित नहीं होगा। अतः मैं पलट गया और वापस कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया।

रात खाना पीना हुआ। सब अपने अपने कमरों में जाने लगे। मैं चुपचाप उठ कर वापस उसी कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया। मेरी हिम्मत न हुई थी ऊपर अपने कमरे में जाने की। शर्म तो लग ही रही थी लेकिन उससे ज़्यादा झिझक और घबराहट हो रही थी। एक वक्त था जब ठाकुर वैभव सिंह किसी औरत जात के सामने जाने में ना तो झिझकता था और ना ही कोई शर्म करता था। दुस्साहस इतना था कि पलक झपकते ही औरत अथवा लड़की को अपनी आगोश में ले लेता था लेकिन आज ऐसा कुछ भी करने का साहस नहीं कर पा रहा था मैं। मेरे अंदर हलचल सी मची हुई थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं और कैसे ये मुश्किल वक्त मेरे जीवन से गुज़र जाए?

क़रीब एक घंटे बाद किसी के आने का आभास हुआ मुझे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ चलीं। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और रोहिणी मामी के साथ मेनका चाची कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! तुम यहां क्यों पड़े हो बेटा?" मेनका चाची ने बड़े प्रेम से कहा____"ऊपर अपने कमरे में जाओ। वहां बेचारी बहू अकेले तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रहीं होंगी।"

"म...म...मैं यहीं सो जाऊंगा चाची।" मैं बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"आप वहां कुसुम को भेज दीजिए।"

"अरे! ये क्या बात हुई भला?" चाची ने हैरानी से मुझे देखा____"आज पहले ही दिन तुम अपनी पत्नी को अकेला छोड़ दोगे? भूल गए क्या पंडित जी ने कौन कौन से सात वचन तुम्हें बताए थे?"

"ह...हां पर चाची।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं____"आज की ही बस तो बात है। आप कुसुम को बोल दीजिए ना कि वो वहां चली जाए। मैं कल ऊपर चला जाऊंगा।"

"ऐसा नहीं होता बेटा।" मेनका चाची मेरे पास आ कर बोलीं____"हर चीज़ का अपना एक तरीका होता है। तुम अब बच्चे तो हो नहीं जो ये सब समझते नहीं हो। चलो उठो और जाओ बहू के पास।"

"दीदी सही कह रहीं हैं वैभव।" रोहिणी मामी ने कहा____"तुम उन्हें ब्याह कर लाए हो इस लिए अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि अपनी पत्नी का हर तरह से ख़याल रखो। अपने लिए ना सही उनके बारे में सोचो कि अगर तुम उनके पास नहीं जाओगे तो उन्हें कैसा लगेगा? एक बात और, मत भूलो कि कुछ दिनों में तुम एक और लड़की को ब्याह कर तथा अपनी पत्नी बना कर यहां ले आओगे। क्या तब भी तुम ऐसा ही कहोगे? सच तो ये है कि तुम्हें अपनी दोनों बीवियों का अच्छे से ख़याल रखना होगा। ख़ैर चलो उठो अब।"

आख़िर मुझे उठना ही पड़ा। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी का सामना करने से डरता था लेकिन बात ये थी कि मैं ये सोच के झिझक रहा था कि वो क्या सोचेंगी मुझे अपने सामने देख कर? क्या वो मेरे सामने खुद को सहज और सामान्य रख पाएंगी? मैं नहीं चाहता था कि उन्हें मेरी वजह से कोई तकलीफ़ हो या उन्हें किसी तरह की असहजता का सामना करना पड़े।

बहरहाल, मेनका चाची तो चली गईं किंतु मामी मेरे साथ ही चलते हुए ऊपर कमरे तक आईं। इस बीच वो और भी कई बातें मुझे समझा चुकीं थी। दरवाज़े तक आ कर उन्होंने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और फिर मुस्कुराते हुए पलट कर चली गईं। उनके जाने के बाद मैं दरवाज़े को घूरने लगा। दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर के पसलियों पर चोट कर रहीं थी। मैं सोचने लगा कि अब जब यहां तक आ ही गया हूं तो मुझे इसके आगे भी जाना ही पड़ेगा। अब जो होगा देखा जाएगा। ऐसा तो है नहीं कि अंदर जाने पर भाभी मुझे एकदम से बाहर ही चले जाने को कह देंगी।

मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को अंदर की तरफ धकेला। दोनों पल्ले हल्की सी आवाज़ के साथ खुलते चले गए। अंदर बिजली का बल्ब तो जल ही रहा था किंतु उसके साथ साथ दो दो लालटेनें भी जल रहीं थी जिससे कमरे में पर्याप्त रोशनी थी। मैं बड़े एहतियात से अंदर दाख़िल हुआ। ठंड में भी अपने माथे पर पसीने का आभास हो रहा था मुझे। मैंने देखा कमरा काफी अलग नज़र आ रहा था। पूरे कमरे को फूलों से सजाया गया था। फूलों की महक से कमरा भरा पड़ा था। पलंग के चारो तरफ भी फूलों की झालरें पर्दे की शक्ल में झूल रहीं थी। मैं ये सब देख ये सोच कर हैरान हुआ कि मेरे कमरे का ऐसा कायाकल्प किसने किया होगा? मुझे याद आया कि बड़े भैया का जब विवाह हुआ था तब मैंने खुद बड़े उत्साह के साथ भैया के कमरे को इसी तरह फूलों से सजाया था। उस समय की तस्वीर मेरी आंखों के सामने चमक उठी।

बहरहाल मैं धड़कते दिल के साथ आहिस्ता से आगे बढ़ा। मेरी नज़र पलंग के चारो तरफ फूलों की झालरों के पार बैठी भाभी पर पड़ी। उन्हें देख मेरा दिल बड़े जोर से धड़क उठा। समूचे जिस्म में एक लहर दौड़ गई। मैंने खुद को सम्हाला और पलट कर दरवाज़े को आहिस्ता से बंद कर दिया। उसके बाद मैं वापस पलटा और पलंग की तरफ ऐसे चल पड़ा जैसे मेरे पांवों में मेंहदी लगी हो। धड़कनें तो पहले से ही धाड़ धाड़ कर के बज रहीं किंतु अब घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। अपनी हालत को सम्हालना जैसे मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल हो गया था। ऐसा लगा जैसे मेरी टांगें भी कांपने लगीं थी।

कमरे में एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था किंतु मुझे अपने दिल की धड़कनें साफ बजती हुई सुनाई दे रहीं थी। आख़िर कुछ ही पलों में मैं पलंग के चारो तरफ झूलती फूलों की झालरों के एकदम पास पहुंच कर रुका। मैंने साफ देखा, पलंग पर रागिनी भाभी घूंघट किए बैठी थीं। उनके दोनों घुटने ऊपर की तरफ आपस में जुड़े हुए थे और पांव पलंग पर ऐसे जुड़े हुए थे जैसे विवाह के समय पांव पूजे गए थे। उनके दोनों हाथ घुटनों को ऐसी शक्ल में समेटे हुए थे जैसे उन्होंने उन्हें थाम रखा हो। मैं अपनी सांसें रोके ख़ामोशी से उन्हें ही देखे जा रहा था। कोई और जगह होती तो शायद उन्हें पुकारने में अथवा उनसे बात करने में मुझे किसी हिम्मत की ज़रूरत ही न पड़ती किंतु इस वक्त इस जगह पर और ऐसी परिस्थिति में उन्हें आवाज़ देना अथवा उनसे कुछ कहना मेरे लिए जैसे बहुत ही मुश्किल हो गया था।

तभी सहसा उनमें हलचल हुई। कदाचित उन्हें मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया था। अपने हाथों को घुटनों से हटा कर उन्होंने बहुत ही आहिस्ता से अपना सिर उठाया। घूंघट किए हुए ही उन्होंने मेरी तरफ देखा। मेरी धड़कनें एकाएक थम गईं सी महसूस हुईं।

"व...वो आपको क...कोई असुविधा तो नहीं हुई मेरे यहां आने से?" मैंने धड़कते दिल से किंतु बड़ी मुश्किल से उनसे पूछा____"अ...अगर कोई समस्या हो तो बता दीजिए। मैं चला जाऊंगा यहां से।"

कहने के साथ ही मैं पलंग से दो क़दम पीछे हट गया। उधर वो मेरी बात सुन कर बिना कोई जवाब दिए आहिस्ता से पलंग से नीचे उतर आईं। ये देख मेरे अंदर हलचल सी शुरू हो गई और साथ ही मैं ये सोच के घबरा भी उठा कि मुझसे कहीं कोई ग़लती तो नहीं हो गई?

अभी मैं घबराहट के चलते ये सोच ही रहा था कि तभी मैं बुरी तरह चौंका। वो पलंग से उतरने के बाद मेरे क़रीब आईं और फिर एकदम से नीचे बैठ कर मेरे पांव छूने लगीं। उफ्फ! ये क्या करने लगीं थी वो? मैं झट से पीछे हट गया।

"ये...ये क्या कर रहीं हैं आप?" फिर मैं बौखलाया सा बोल पड़ा____"कृपया ऐसा मत कीजिए।"

"ऐ..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" उन्होंने बैठे बैठे ही सिर उठा कर धीमें से कहा____"आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। पत्नी होने के नाते अपने पति के पांव छूना मेरा धर्म है। क्या आप मुझे मेरा धर्म नहीं निभाने देंगे?"

उनकी ये बातें सुन कर मैं हक्का बक्का सा देखता रह गया उन्हें। मैंने तो इस बारे में सोचा ही नहीं था कि वो मेरे पांव भी छुएंगी। हालाकि ये मैं जानता था कि एक पत्नी अपने पति के पांव छूती है लेकिन उनसे अपना पांव छुआने की ना तो मैंने कल्पना की थी और ना ही ये मैं चाहता था। मेरे दिल में उनके लिए पहले से ही बहुत ज़्यादा आदर सम्मान और श्रद्धा की भावना थी।

"क...क्या ऐसा करना ज़रूरी है?" मुझे कुछ न सुझा तो पूछ बैठा____"देखिए, मैं मानता हूं कि हमारा रिश्ता पति पत्नी का हो गया है लेकिन अगर आप मेरे पांव छुएंगी तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा।"

"पर मेरा धर्म तो यही है कि मैं अपने पति के पांव छू कर आशीर्वाद लूं।" उन्होंने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि आप मुझसे अपना पांव क्यों नहीं छुआना चाहते हैं लेकिन इस सच्चाई को तो अब आपको भी मानना ही पड़ेगा कि मैं अब आपकी भाभी नहीं बल्कि पत्नी हूं।"

"म...मैं इस सच्चाई को पूरी तरह मान चुका हूं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"और यकीन मानिए मैं अपने आपको बहुत ज़्यादा सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप मुझे पत्नी के रूप में मिल गईं हैं, और सिर्फ इस लिए ही नहीं बल्कि इस लिए भी कि अब पूरे हक के साथ मैं आपको खुशियां देने का प्रयास कर सकता हूं।"

"अगर सच में आप मुझे खुशियां देना चाहते हैं तो इस वक्त मुझे मेरा धर्म निभाने से मत रोकिए।" उन्होंने कहा____"मुझे अपना पत्नी धर्म निभाने दीजिए। इसी से मुझे खुशी और संतोष प्राप्त होगा।"

उनकी बात सुन कर जैसे मैं निरुत्तर हो गया। मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि मैं उनकी इच्छा के बग़ैर कोई कार्य करूं। आख़िर मेरा भी तो धर्म था कि उनकी इच्छा का सम्मान करूं और उनकी भावनाओं को समझूं। जब उन्होंने देखा कि मैं अब कुछ नहीं बोल रहा हूं तो वो समझ गईं कि मैंने उन्हें पांव छूने की अनुमति दे दी है। अगले ही पल वो आगे बढ़ीं और मेरे पांव छू कर अपने हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। मुझे समझ ना आया कि अब क्या प्रतिक्रिया दूं। बस, मन ही मन ऊपर वाले से यही दुआ की कि वो उन्हें हमेशा खुश रखे।

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सच ही कहा था अमर मामा ने कि जो चीज़ पहले बहुत ज़्यादा मुश्किल प्रतीत हुआ करती है वो ऐन वक्त पर कभी कभी बहुत ही सहज हो जाती है और फिर सारी मुश्किल मानों छू मंतर सी हो जाती है। इस वक्त ऐसा ही अनुभव कर रहा था मैं। इसके पहले मैं यही सोच सोच के घबरा रहा था कि कैसे रागिनी भाभी का सामना करूंगा, कैसे उनसे बात कर पाऊंगा किंतु जिस तरह से आगाज़ हुआ था उसे देख अनायास ही एहसास हुआ कि ये इतना भी मुश्किल नहीं था। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो मुश्किल वक्त तो अभी आया ही नहीं था। ये तो ऐसा था जैसे उस मुश्किल वक्त पर पहुंचने के लिए ऊपर वाले ने मुझे बड़ी आसानी से दरवाज़े के अंदर पहुंचा दिया था ताकि मैं पीछे न हट सकूं और आगे बढ़ना ही मेरी मज़बूरी बन जाए।

मैं बहुत हिम्मत जुटा कर पलंग पर बैठ गया था। वो अभी भी चेहरे पर लंबा सा घूंघट किए हुए थीं और मेरे सामने ही बैठी थीं। मैं जानता था कि इसके आगे अब मुझे घूंघट उठा कर उनका चांद सा चेहरा देखना होगा मगर ऐसा करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कोई और स्त्री होती तो शायद मैं अब तक काफी आगे बढ़ गया होता लेकिन यहां तो वो बैठी थीं जिनके बारे में मैंने कभी ग़लत सोचा ही नहीं था। उनकी तरफ आकर्षित ज़रूर हुआ करता था लेकिन वो भी अब मानों गुज़रे ज़माने की बातें हो गईं थी।

"क...क्या मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं भाभी?" मैंने बड़ी हिम्मत जुटा कर उनसे पूछा।

"ह...हम्म्म्म।" उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ल...लेकिन आप मुझे भाभी क्यों कह रहे हैं? अब तो मैं आपकी पत्नी हूं ना?"

"ओह! हां माफ़ कर दीजिए मुझे।" मैं हड़बड़ा सा गया____"आपने सच कहा, अब आप मेरी भाभी नहीं हैं बल्कि पत्नी हैं। तो...फिर आपको क्या कहूं मैं?"

"अ...आप ही ने तो कहा था कि जिस दिन हमारा विवाह हो जाएगा।" उन्होंने कहा____"उ..उस दिन से आप मुझे भाभी कहना बंद कर देंगे।"

"तो फिर आप ही बताइए।" मैंने धड़कते दिल से पूछा____"मैं आपको क्या कहूं?"

"म..मेरा नाम लीजिए।" उन्होंने लरजते स्वर में कहा____"भाभी की जगह रागिनी कहिए।"

"क..क्या सच में???" मैंने हैरत से उन्हें देखा____"आपको बुरा तो नहीं लगेगा ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"जैसे पिता जी मां जी को उनका नाम ले कर पुकारते हैं वैसे ही आप भी मेरा नाम ले कर पुकारिए।"

मेरे अंदर अजीब सी गुडमुड़ होने लगी थी। धड़कनें तो अब तक सामान्य ही न हुईं थी। मन में कई तरह के ख़यालों का मानों बवंडर सा चल रहा था।

"क..क्या हुआ?" जब मैं कुछ न बोला तो वो लरजते स्वर में पूछ बैठीं____"क्या आपको मेरा नाम ले कर मुझे पुकारना अच्छा नहीं लग रहा?"

"न...नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैंने हड़बड़ा कर कहा____"वो बात ये है कि आपका नाम लेने में झिझक रहा हूं मैं। हमेशा आपको भाभी ही कहा है इस लिए अचानक से आपका नाम लेने में संकोच हो रहा है मुझे।"

"हां समझती हूं।" उन्होंने सिर हिलाया____"मैं भी तो पहले आपका नाम ही लेती थी लेकिन अब नहीं ले सकती।"

"ऐसा क्यों?" मैंने हैरानी और उत्सुकता से पूछा____"अब आप मेरा नाम क्यों नहीं ले सकतीं?"

"पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेतीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"पहले आप मेरे देवर थे इस लिए आपका नाम लेती थी लेकिन अब आप मेरे पति हैं तो आपका नाम नहीं ले सकती।"

"तो फिर अब आप क्या कह कर पुकारेंगी मुझे?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मां जी तो पिता जी को ठाकुर साहब कहती हैं।" रागिनी भाभी ने कहा____"और कभी कभी सुनिए जी भी कहती हैं तो मैं भी आपको यही कहा करूंगी।"

"अच्छा।" मैं अनायास ही मुस्कुरा उठा____"ये तो बड़ा ही रोचक होगा फिर तो। वैसे क्या आप इस वक्त मुझे ऐसे ही पुकार सकती हैं?"

"प...पहले आप मेरा नाम ले कर मुझे पुकारिए।" भाभी ने कहा____"फिर मैं भी आपको वैसे ही पुकारूंगी।"

भाभी के साथ ऐसी बातें करने से अब मुझे बड़ा ही सहज महसूस होने लगा था और साथ ही बड़ा सुखद एहसास भी होने लगा था। मेरे अंदर का डर घबराहट और संकोच धीरे धीरे कम होता जा रहा था।

"आपके लिए मुझे वैसा पुकारना शायद मुश्किल नहीं लगेगा।" मैंने कहा____"लेकिन मेरे लिए आपका नाम ले कर आपको पुकारना मुश्किल लग रहा है। बहुत अजीब भी लग रहा है। ऐसा भी लग रहा है जैसे अगर मैं आपका नाम लूंगा तो मेरे द्वारा आपका मान सम्मान कम हो जाएगा।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" भाभी की आवाज़ एकाएक कांप सी गई____"मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत मान सम्मान देते हैं। यकीन मानिए आप अगर मेरा नाम लेंगे तो उससे मुझे अच्छा ही लगेगा।"

"क्या आप सच कह रहीं हैं?" मैंने बेयकीनी से उन्हें देखा____"क्या सच में आपको मेरा नाम लेने से अच्छा लगेगा?"

"ह...हां।" उन्होंने कहा____"मैं आपकी पत्नी हूं तो आप बिना संकोच के मेरा नाम ले सकते हैं।"

"ठीक है भा....मेरा मतलब है र...रागिनी।" मैंने अटकते हुए कहा____"लीजिए मैंने आपका नाम ले लिया। अब आप भी मुझे वैसे ही पुकारिए जैसे आपने कहा था।"

"ठीक है ठ...ठाकुर स..साहब।" रागिनी ने कहा____"अब ठीक है ना?"

कहने के साथ ही उन्होंने घुटनों में अपना चेहरा छुपा लिया। शायद उन्हें शर्म आ गई थी। मैं उनके इस अंदाज़ पर मुस्कुरा उठा। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि हमने एक दूसरे से इतनी सारी बातें बिना कहीं रुके कर ली हैं और आगे भी अभी करने वाले थे।

"वाह! आपके मुख से अपने लिए ठाकुर साहब सुन कर मुझे अंदर से एक अलग ही तरह की सुखद अनुभूति होने लगी है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या मेरे द्वारा आपका नाम लिए जाने से आपको भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने चेहरा ऊपर किया____"आपके मुख से अपना नाम सुन कर मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ है।"

"वैसे आपका नाम आपकी ही तरह बहुत सुंदर है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"क्या अब मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं र..रागिनी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीरे से कहा।

एकाएक ही मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो ग‌ईं। उनकी सहमति मिलते ही मैं हिम्मत करके थोड़ा सा उनकी तरफ खिसका और फिर अपने दोनों हाथ बढ़ा कर बहुत ही आहिस्ता से उनके घूंघट के छोर को इस तरह पकड़ा जैसे वो कपड़ा उनकी ही तरह बेहद नाज़ुक हो। इतनी सारी बातों के बाद मैं जो अब तक थोड़ा सहज महसूस करने लगा था उनका घूंघट पकड़ते ही एकाएक फिर से मेरे अंदर हलचल मच गई थी। अंदर थोड़ा घबराहट भी उभर आई थी मगर मैं रुका नहीं बल्कि धाड़ धाड़ बजते दिल के साथ मैं घूंघट को धीरे धीरे ऊपर की तरफ उठाने लगा। जब मेरा ये हाल था तो मैं समझ सकता था कि रागिनी का भी यही हाल होगा।

कुछ ही पलों में जब घूंघट पूरा उठ गया तो एकदम से उनके चेहरे पर मेरी नज़र पड़ी। उफ्फ! मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा इस वक्त वो सुंदर दिख रहीं थी। ऐसा लगा जैसे घने बादलों से अचानक ही चमकता हुआ चांद मेरी आंखों के सामने रोशन हो गया हो। मैं पलकें झपकना भूल गया। दोनों हाथों से घूंघट को ऊपर उठाए मैं अपलक उनके उस चेहरे को देखता रह गया जो चांद को भी मात दे रहा था। उधर रागिनी की सीप सी पलकें झुकी हुईं थी। उनके होंठ जो पहले से ही गुलाब की पंखुड़ियों जैसे थे उन पर हल्की सी लाली लगी हुई थी। नाक में सोने की नथ जो उनकी सुंदरता को मानों हज़ारों गुना बढ़ा रही थी। मैं एक ही पल में जैसे उनकी सुंदरता में डूब गया। पहले भी उनकी सुंदरता से सम्मोहित हो जाया करता था किंतु आज तो जैसे मैं डूब ही गया था। अपने वजूद का आभास ही नहीं हो रहा था मुझे।

एकाएक ही जैसे मुझे होश आया। मैंने उनके घूंघट को उनके सिर पर रख दिया और फिर बहुत ही आहिस्ता से किंतु कांपते हाथ की तीन उंगलियों के सहारे उनकी ठुड्ढी को थोड़ा सा ऊपर उठाया जिससे उनका चेहरा थोड़ा ऊपर उठ गया। उनकी पलकें अभी भी झुकी हुईं थी। मैंने पहली बार ध्यान दिया कि उनका सुंदर और गोरा चेहरा एकाएक लाज और शर्म से सुर्ख सा पड़ गया था। गुलाब की पंखुड़ियां बहुत ही मध्यम लय में कांप रहीं थी।

"अ...आप बहुत ख़ूबसूरत हैं र..रागिनी।" मैंने धाड़ धाड़ बजती अपनी धड़कनों को काबू करते हुए धीमें स्वर में कहा____"आपकी सुंदरता के सामने आसमान में चमकता हुआ चांद मानों कुछ भी नहीं है। मेरे जीवन में आ के मुझे रोशन करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। मन तो करता है कि पहरों आपको यूं ही देखता रहूं लेकिन डर लग रहा है कि कहीं मेरी ही नज़र ना लग जाए आपको। कृपया एक बार अपनी पलकें उठा कर देखिए ना मुझे।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी का चेहरा और भी शर्म से सुर्ख हो गया। गुलाब की पंखुड़ियों का कंपन थोड़ा तेज़ हो गया। मैंने महसूस किया कि उनकी सांसें पहले से तेज़ चलने लगीं थी। तभी उनकी सीप सी पलकें बहुत ही आहिस्ता से उठीं और मैंने उनकी वो आंखें देखीं जो समंदर क्या बल्कि ब्रह्मण्ड जैसी अथाह गहरी थीं। इसके पहले मैं उनकी खूबसूरती के सम्मोहन में डूब गया था और अब आंखों की अथाह गहराई में मानों गोते लगाने लगा। एक मदहोश कर देने वाला नशा महसूस किया मैंने। अचानक रागिनी ने शर्मा कर अपनी पलकें फिर से झुका ली और मैं पलक झपकते ही उस अनंत गहराई से बाहर आ गया।

मैंने देखा रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। उनके होठ कांप रहे थे। शायद अब तक उन्होंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल रखा था। घूंघट किए होने पर वो थोड़ा सहज थीं किंतु चेहरे से घूंघट हटते ही उनके अंदर की शर्म बड़ी तेज़ी से बाहर आ गई थी।

"काश! शायरों की तरह मेरे पास कल्पना शक्ति होती।" मैंने उन्हें देखते हुए अधीरता से कहा____"और उनकी तरह मेरे पास खूबसूरत शब्दों के भंडार होते तो मैं आपकी खूबसूरती में कोई ग़ज़ल कहता। बस इतना ही कह सकता हूं कि आप बहुत...बहुत खूबसूरत हैं। आपका तो नहीं पता लेकिन यकीन मानिए आपको इस रूप में पा कर मैं बहुत खुश हूं। अच्छा, मैंने सुना है कि पत्नी को मुंह दिखाई में कोई उपहार दिया जाता है तो बताएं। आपको मुझसे कैसा उपहार चाहिए? आप जो कहेंगी अथवा जो भी मांगेंगी मैं दूंगा आपको।"

"म...मुझे आपसे उपहार के रूप में कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"सिर्फ इतना ही चाहती हूं कि आप हमेशा अच्छे कर्म कीजिए और एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाइए।"

"वो तो आपके कहने पर पहले से ही कर रहा हूं मैं।" मैंने कहा____"और यकीन मानिए आगे भी कभी आपको निराश नहीं करूंगा।"

"बस तो फिर इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अपनी सीप सी पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा____"एक और बात, मेरी छोटी बहन रूपा को हमेशा ढेर सारा प्यार देना। जैसे वो आपसे प्रेम करती है वैसे ही प्रेम आप भी उससे करना। मेरे हिस्से का प्यार और खुशियां भी उसको देना। उसके चेहरे पर कभी उदासी न आए इसका ख़याल रखना। बस इतनी ही चाहत है मेरी।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"मैं आपको वचन देता हूं कि जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा किंतु आपका क्या? क्या आपको अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?"

"आप दोनों मेरे अपने ही तो हैं।" रागिनी ने कहा____"इसके अलावा और क्या चाहिए मुझे?"

"ठीक है।" मैंने गहरी सांस ली____"अच्छा अब हमें सो जाना चाहिए। आप भी बहुत ज़्यादा थकी होंगी इस लिए आराम से सो जाइए। वैसे आपको मेरे साथ इस पलंग पर सोने में असुविधा तो नहीं होगी ना? अगर असुविधा जैसी बात हो तो बता दीजिए, मैं नीचे सो जाऊंगा।"

"ए..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रागिनी ने कहा____"आप मेरे पति हैं। आपके साथ सोने में भला कैसी असुविधा होगी मुझे?"

रागिनी की इस बात से मैं उन्हें ध्यान से देखने लगा। वो पूरी तरह सजी धजी बैठी थीं। मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर कई तरह के भावों का आना जाना लगा हुआ था। शायद बहुत कुछ उनके मन में चल रहा था।



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Nice
Ragini or Vaibhav k bich jaisi suhagraat hum chahte thy waise apne nhi di wajah Jo bhi apki story hai apne kuch soch k he aisa kiya hoga
 

S M H R

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अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

✮✮✮✮

रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

✮✮✮✮

रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

✮✮✮✮

ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
1 adhbhut kahani ka sukhad anth ho Gaya apke sath is kahani mein jud k hame bhi bahut maza aaya

Umeed hai aage bhi naya jarur likhega app

🙏🙏🙏🙏
 

ruhi92

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अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

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रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

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रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

✮✮✮✮

ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
The_InnoCent.....pahale to apaaka bahut bahut dhanyavad Jo aapane itani acchi kahani likhi aur ham sabako isse padhane ka mauka diya....it's one of my favourite story in this platform...last but not least thanks aapane mere Dil ki hasrat Puri kar di...kab se wait kar rahi thi vaibhav aur ragini ki shadi...shadi ke un dono me hone wali bate aur dono romance....apane bta Diya ki sex scene na hote huye story ko kase erotic way me pesh kiya jta hai...I was experiencing like Mai raghini hun aur vaibhav ke sath bat kr rahi hun....ek alag he Nasha tha....Thanks a lot and all the best for new stories...aise he story dete jao 🤭
 

Sanju@

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अध्याय - 166
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"ओह! रूपा बस करो।" कुमुद ने भावना में बह कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं थी, बोली____"किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम? तुम्हारे हृदय में क्यों ऐसी अनोखी भावनाएं जन्म ले लेती हैं? मेरी प्यारी ननद, मेरी प्यारी रूपा। भगवान तुम्हें हमेशा ऐसा ही बनाए रखे। हमेशा तुम्हें खुश रखे। हमेशा तुम्हें तुम्हारे प्रियतम के प्रेम का उपहार दे।"

कुमुद सच में रूपा की बातों से भाव विभोर सी हो गई थी। उसका बस चलता तो वो रूपा को अपने सीने के अंदर समा लेती। उधर रूपा के सुर्ख होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और आंख से आंसू का एक कतरा छलक गया।



अब आगे....


शाम को कुसुम ने आ कर मुझे जगाया। वो बड़ा खुश दिख रही थी और बड़ा जल्दी में भी थी। मुझे फटाफट हाथ मुंह धो कर आने को कहा और कमरे से चली गई। मैंने इधर उधर दृष्टि घुमाई तो मुझे शाम हो जाने का आभास हुआ। एकाएक मेरी नज़र मेरे हाथों पर पड़ी तो मैं हल्के से चौंका। मेरे हाथों में मेंहदी लगी हुई थी। एकदम से बिजली सी कौंधी मस्तिष्क में। मैंने रजाई हटा कर अपने पैरों को देखा। पांवों में रंग लगा हुआ था। पलक झपकते ही मस्तिष्क में ये बात आ गई कि मेरा विवाह हो गया है और रागिनी भाभी अब मेरी पत्नी बन चुकी हैं। इस बात का एहसास होते ही दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। आंखों के सामने वो सोलह श्रृंगार किए दुल्हन के रूप में चमक उठीं। उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो, कितनी सादगी है उनमें। कितना नूर है उनमें। ऐसे न जाने कितने ही ख़याल पलक झपकते ही मेरे ज़हन में उभरते चले गए।

थोड़ी देर मैं यही सब सोचता रहा उसके बाद कपड़े पहन कर कमरे से बाहर आ गया। बाहर लंबे चौड़े बरामदे में औरतें बैठी हुईं थी। मेनका चाची, निर्मला काकी, कुसुम, कजरी ये सब किसी न किसी काम से इधर उधर आती जाती नज़र आईं।

मैं सीधा गुसलखाने में गया। हाथ मुंह धोया और फिर वापस आया। मैंने देखा औरतों के बीच में मेरी भाभी....नहीं नहीं मेरी पत्नी घूंघट किए बैठी हुई थी। सब दुल्हन देखने आईं थी। हालाकि वो उन्हें पहले से ही जानती थीं और उन्हें देख चुकीं थी लेकिन आज की बात ही अलग थी। अब वो दुबारा सुहागन हो गईं थी। पहले वो बड़े भैया की पत्नी थीं किंतु अब वो मेरी पत्नी बन कर आईं थी। मेरी नज़र जैसे उन पर ही चिपक गई थी। कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी तो वो भाग कर मेरे पास आई।

"ओहो! तो आप भाभी को देख रहे हैं?" फिर वो अपने अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोल पड़ी____"अब अगर अच्छे से देख लिया हो तो बताइए अपनी गुड़िया के हाथ की बनी चाय पीनी है कि नहीं आपको?"

मैं कुसुम की बात से एकदम चौंक पड़ा। वो नटखट मुझे छेड़ रही थी। मैंने मुस्कुराते हुए प्यार से उसके सिर पर चपत लगाई____"बहुत बोलने लगी है तू। जा जल्दी से चाय ले के आ।"

"मैं बहुत बोलने लगी हूं।" वो शरारत से मुस्कुराते हुए बोली____"और मेरे सबसे अच्छे वाले भैया भाभी को दूर से देखने में लगे हैं...ही ही ही।"

कहने के साथ ही वो हंसते हुए भाग गई। मैं मुस्कुराते हुए वापस कमरे में आ गया। अंदर औरतें ही दिखीं थी बाकी मर्द लोग शायद बाहर थे। ख़ैर कुसुम चाय ले कर आई तो मैं उससे चाय ले कर पीने लगा और सोचने लगा कि आज का दिन बड़ा जल्दी गुज़र गया। सो जाने से पता ही न चला कि कब शाम हो गई। ज़ाहिर है अब बहुत जल्द रात भी हो जाएगी और फिर वो घड़ी भी आ जाएगी जब मुझे अपनी पत्नी के साथ एक ही कमरे में एक ही बिस्तर पर सोना होगा।

मैं सोचने लगा कि कैसे मैं उस वक्त एक पति के रूप में उनके सामने मौजूद रह पाऊंगा? इतना तो मैं भी जानता था कि विवाह के बाद रात में पति पत्नी की सुहागरात होती है। सुहागरात में दो जिस्मों के साथ साथ दो आत्माओं का भी मिलन हो जाता है लेकिन मेरे लिए सोचने का विषय ये था कि जो औरत कल तक मेरी भाभी थीं और जिन्हें मैं बहुत मान सम्मान देता था उन्हें अपनी पत्नी समझ कर कैसे उनके साथ सुहागरात जैसा अनोखा, अद्भुत और दुस्साहस से भरा कार्य कर पाऊंगा? सवाल तो ये भी था कि क्या वो भी ऐसा कर पाएंगी? आख़िर सुहागरात का ख़याल उनके मन में भी तो होगा। स्थिति बड़ी ही गंभीर और मुश्किल सी नज़र आने लगी थी मुझे। मैंने बड़ी मुश्किल से ये सब अपने दिमाग़ से झटका और चाय पीने के बाद बैठक की तरफ चल पड़ा।

बाहर बैठक में सभी पिता जी के पास बैठे हुए थे। मुझे समझ ना आया कि मैं उनके बीच बैठूं या नहीं? एकाएक मुझे एहसास हुआ कि इस समय मेरा उनके बीच बैठना उचित नहीं होगा। अतः मैं पलट गया और वापस कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया।

रात खाना पीना हुआ। सब अपने अपने कमरों में जाने लगे। मैं चुपचाप उठ कर वापस उसी कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया। मेरी हिम्मत न हुई थी ऊपर अपने कमरे में जाने की। शर्म तो लग ही रही थी लेकिन उससे ज़्यादा झिझक और घबराहट हो रही थी। एक वक्त था जब ठाकुर वैभव सिंह किसी औरत जात के सामने जाने में ना तो झिझकता था और ना ही कोई शर्म करता था। दुस्साहस इतना था कि पलक झपकते ही औरत अथवा लड़की को अपनी आगोश में ले लेता था लेकिन आज ऐसा कुछ भी करने का साहस नहीं कर पा रहा था मैं। मेरे अंदर हलचल सी मची हुई थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं और कैसे ये मुश्किल वक्त मेरे जीवन से गुज़र जाए?

क़रीब एक घंटे बाद किसी के आने का आभास हुआ मुझे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ चलीं। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और रोहिणी मामी के साथ मेनका चाची कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! तुम यहां क्यों पड़े हो बेटा?" मेनका चाची ने बड़े प्रेम से कहा____"ऊपर अपने कमरे में जाओ। वहां बेचारी बहू अकेले तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रहीं होंगी।"

"म...म...मैं यहीं सो जाऊंगा चाची।" मैं बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"आप वहां कुसुम को भेज दीजिए।"

"अरे! ये क्या बात हुई भला?" चाची ने हैरानी से मुझे देखा____"आज पहले ही दिन तुम अपनी पत्नी को अकेला छोड़ दोगे? भूल गए क्या पंडित जी ने कौन कौन से सात वचन तुम्हें बताए थे?"

"ह...हां पर चाची।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं____"आज की ही बस तो बात है। आप कुसुम को बोल दीजिए ना कि वो वहां चली जाए। मैं कल ऊपर चला जाऊंगा।"

"ऐसा नहीं होता बेटा।" मेनका चाची मेरे पास आ कर बोलीं____"हर चीज़ का अपना एक तरीका होता है। तुम अब बच्चे तो हो नहीं जो ये सब समझते नहीं हो। चलो उठो और जाओ बहू के पास।"

"दीदी सही कह रहीं हैं वैभव।" रोहिणी मामी ने कहा____"तुम उन्हें ब्याह कर लाए हो इस लिए अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि अपनी पत्नी का हर तरह से ख़याल रखो। अपने लिए ना सही उनके बारे में सोचो कि अगर तुम उनके पास नहीं जाओगे तो उन्हें कैसा लगेगा? एक बात और, मत भूलो कि कुछ दिनों में तुम एक और लड़की को ब्याह कर तथा अपनी पत्नी बना कर यहां ले आओगे। क्या तब भी तुम ऐसा ही कहोगे? सच तो ये है कि तुम्हें अपनी दोनों बीवियों का अच्छे से ख़याल रखना होगा। ख़ैर चलो उठो अब।"

आख़िर मुझे उठना ही पड़ा। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी का सामना करने से डरता था लेकिन बात ये थी कि मैं ये सोच के झिझक रहा था कि वो क्या सोचेंगी मुझे अपने सामने देख कर? क्या वो मेरे सामने खुद को सहज और सामान्य रख पाएंगी? मैं नहीं चाहता था कि उन्हें मेरी वजह से कोई तकलीफ़ हो या उन्हें किसी तरह की असहजता का सामना करना पड़े।

बहरहाल, मेनका चाची तो चली गईं किंतु मामी मेरे साथ ही चलते हुए ऊपर कमरे तक आईं। इस बीच वो और भी कई बातें मुझे समझा चुकीं थी। दरवाज़े तक आ कर उन्होंने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और फिर मुस्कुराते हुए पलट कर चली गईं। उनके जाने के बाद मैं दरवाज़े को घूरने लगा। दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर के पसलियों पर चोट कर रहीं थी। मैं सोचने लगा कि अब जब यहां तक आ ही गया हूं तो मुझे इसके आगे भी जाना ही पड़ेगा। अब जो होगा देखा जाएगा। ऐसा तो है नहीं कि अंदर जाने पर भाभी मुझे एकदम से बाहर ही चले जाने को कह देंगी।

मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को अंदर की तरफ धकेला। दोनों पल्ले हल्की सी आवाज़ के साथ खुलते चले गए। अंदर बिजली का बल्ब तो जल ही रहा था किंतु उसके साथ साथ दो दो लालटेनें भी जल रहीं थी जिससे कमरे में पर्याप्त रोशनी थी। मैं बड़े एहतियात से अंदर दाख़िल हुआ। ठंड में भी अपने माथे पर पसीने का आभास हो रहा था मुझे। मैंने देखा कमरा काफी अलग नज़र आ रहा था। पूरे कमरे को फूलों से सजाया गया था। फूलों की महक से कमरा भरा पड़ा था। पलंग के चारो तरफ भी फूलों की झालरें पर्दे की शक्ल में झूल रहीं थी। मैं ये सब देख ये सोच कर हैरान हुआ कि मेरे कमरे का ऐसा कायाकल्प किसने किया होगा? मुझे याद आया कि बड़े भैया का जब विवाह हुआ था तब मैंने खुद बड़े उत्साह के साथ भैया के कमरे को इसी तरह फूलों से सजाया था। उस समय की तस्वीर मेरी आंखों के सामने चमक उठी।

बहरहाल मैं धड़कते दिल के साथ आहिस्ता से आगे बढ़ा। मेरी नज़र पलंग के चारो तरफ फूलों की झालरों के पार बैठी भाभी पर पड़ी। उन्हें देख मेरा दिल बड़े जोर से धड़क उठा। समूचे जिस्म में एक लहर दौड़ गई। मैंने खुद को सम्हाला और पलट कर दरवाज़े को आहिस्ता से बंद कर दिया। उसके बाद मैं वापस पलटा और पलंग की तरफ ऐसे चल पड़ा जैसे मेरे पांवों में मेंहदी लगी हो। धड़कनें तो पहले से ही धाड़ धाड़ कर के बज रहीं किंतु अब घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। अपनी हालत को सम्हालना जैसे मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल हो गया था। ऐसा लगा जैसे मेरी टांगें भी कांपने लगीं थी।

कमरे में एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था किंतु मुझे अपने दिल की धड़कनें साफ बजती हुई सुनाई दे रहीं थी। आख़िर कुछ ही पलों में मैं पलंग के चारो तरफ झूलती फूलों की झालरों के एकदम पास पहुंच कर रुका। मैंने साफ देखा, पलंग पर रागिनी भाभी घूंघट किए बैठी थीं। उनके दोनों घुटने ऊपर की तरफ आपस में जुड़े हुए थे और पांव पलंग पर ऐसे जुड़े हुए थे जैसे विवाह के समय पांव पूजे गए थे। उनके दोनों हाथ घुटनों को ऐसी शक्ल में समेटे हुए थे जैसे उन्होंने उन्हें थाम रखा हो। मैं अपनी सांसें रोके ख़ामोशी से उन्हें ही देखे जा रहा था। कोई और जगह होती तो शायद उन्हें पुकारने में अथवा उनसे बात करने में मुझे किसी हिम्मत की ज़रूरत ही न पड़ती किंतु इस वक्त इस जगह पर और ऐसी परिस्थिति में उन्हें आवाज़ देना अथवा उनसे कुछ कहना मेरे लिए जैसे बहुत ही मुश्किल हो गया था।

तभी सहसा उनमें हलचल हुई। कदाचित उन्हें मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया था। अपने हाथों को घुटनों से हटा कर उन्होंने बहुत ही आहिस्ता से अपना सिर उठाया। घूंघट किए हुए ही उन्होंने मेरी तरफ देखा। मेरी धड़कनें एकाएक थम गईं सी महसूस हुईं।

"व...वो आपको क...कोई असुविधा तो नहीं हुई मेरे यहां आने से?" मैंने धड़कते दिल से किंतु बड़ी मुश्किल से उनसे पूछा____"अ...अगर कोई समस्या हो तो बता दीजिए। मैं चला जाऊंगा यहां से।"

कहने के साथ ही मैं पलंग से दो क़दम पीछे हट गया। उधर वो मेरी बात सुन कर बिना कोई जवाब दिए आहिस्ता से पलंग से नीचे उतर आईं। ये देख मेरे अंदर हलचल सी शुरू हो गई और साथ ही मैं ये सोच के घबरा भी उठा कि मुझसे कहीं कोई ग़लती तो नहीं हो गई?

अभी मैं घबराहट के चलते ये सोच ही रहा था कि तभी मैं बुरी तरह चौंका। वो पलंग से उतरने के बाद मेरे क़रीब आईं और फिर एकदम से नीचे बैठ कर मेरे पांव छूने लगीं। उफ्फ! ये क्या करने लगीं थी वो? मैं झट से पीछे हट गया।

"ये...ये क्या कर रहीं हैं आप?" फिर मैं बौखलाया सा बोल पड़ा____"कृपया ऐसा मत कीजिए।"

"ऐ..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" उन्होंने बैठे बैठे ही सिर उठा कर धीमें से कहा____"आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। पत्नी होने के नाते अपने पति के पांव छूना मेरा धर्म है। क्या आप मुझे मेरा धर्म नहीं निभाने देंगे?"

उनकी ये बातें सुन कर मैं हक्का बक्का सा देखता रह गया उन्हें। मैंने तो इस बारे में सोचा ही नहीं था कि वो मेरे पांव भी छुएंगी। हालाकि ये मैं जानता था कि एक पत्नी अपने पति के पांव छूती है लेकिन उनसे अपना पांव छुआने की ना तो मैंने कल्पना की थी और ना ही ये मैं चाहता था। मेरे दिल में उनके लिए पहले से ही बहुत ज़्यादा आदर सम्मान और श्रद्धा की भावना थी।

"क...क्या ऐसा करना ज़रूरी है?" मुझे कुछ न सुझा तो पूछ बैठा____"देखिए, मैं मानता हूं कि हमारा रिश्ता पति पत्नी का हो गया है लेकिन अगर आप मेरे पांव छुएंगी तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा।"

"पर मेरा धर्म तो यही है कि मैं अपने पति के पांव छू कर आशीर्वाद लूं।" उन्होंने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि आप मुझसे अपना पांव क्यों नहीं छुआना चाहते हैं लेकिन इस सच्चाई को तो अब आपको भी मानना ही पड़ेगा कि मैं अब आपकी भाभी नहीं बल्कि पत्नी हूं।"

"म...मैं इस सच्चाई को पूरी तरह मान चुका हूं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"और यकीन मानिए मैं अपने आपको बहुत ज़्यादा सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप मुझे पत्नी के रूप में मिल गईं हैं, और सिर्फ इस लिए ही नहीं बल्कि इस लिए भी कि अब पूरे हक के साथ मैं आपको खुशियां देने का प्रयास कर सकता हूं।"

"अगर सच में आप मुझे खुशियां देना चाहते हैं तो इस वक्त मुझे मेरा धर्म निभाने से मत रोकिए।" उन्होंने कहा____"मुझे अपना पत्नी धर्म निभाने दीजिए। इसी से मुझे खुशी और संतोष प्राप्त होगा।"

उनकी बात सुन कर जैसे मैं निरुत्तर हो गया। मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि मैं उनकी इच्छा के बग़ैर कोई कार्य करूं। आख़िर मेरा भी तो धर्म था कि उनकी इच्छा का सम्मान करूं और उनकी भावनाओं को समझूं। जब उन्होंने देखा कि मैं अब कुछ नहीं बोल रहा हूं तो वो समझ गईं कि मैंने उन्हें पांव छूने की अनुमति दे दी है। अगले ही पल वो आगे बढ़ीं और मेरे पांव छू कर अपने हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। मुझे समझ ना आया कि अब क्या प्रतिक्रिया दूं। बस, मन ही मन ऊपर वाले से यही दुआ की कि वो उन्हें हमेशा खुश रखे।

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सच ही कहा था अमर मामा ने कि जो चीज़ पहले बहुत ज़्यादा मुश्किल प्रतीत हुआ करती है वो ऐन वक्त पर कभी कभी बहुत ही सहज हो जाती है और फिर सारी मुश्किल मानों छू मंतर सी हो जाती है। इस वक्त ऐसा ही अनुभव कर रहा था मैं। इसके पहले मैं यही सोच सोच के घबरा रहा था कि कैसे रागिनी भाभी का सामना करूंगा, कैसे उनसे बात कर पाऊंगा किंतु जिस तरह से आगाज़ हुआ था उसे देख अनायास ही एहसास हुआ कि ये इतना भी मुश्किल नहीं था। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो मुश्किल वक्त तो अभी आया ही नहीं था। ये तो ऐसा था जैसे उस मुश्किल वक्त पर पहुंचने के लिए ऊपर वाले ने मुझे बड़ी आसानी से दरवाज़े के अंदर पहुंचा दिया था ताकि मैं पीछे न हट सकूं और आगे बढ़ना ही मेरी मज़बूरी बन जाए।

मैं बहुत हिम्मत जुटा कर पलंग पर बैठ गया था। वो अभी भी चेहरे पर लंबा सा घूंघट किए हुए थीं और मेरे सामने ही बैठी थीं। मैं जानता था कि इसके आगे अब मुझे घूंघट उठा कर उनका चांद सा चेहरा देखना होगा मगर ऐसा करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कोई और स्त्री होती तो शायद मैं अब तक काफी आगे बढ़ गया होता लेकिन यहां तो वो बैठी थीं जिनके बारे में मैंने कभी ग़लत सोचा ही नहीं था। उनकी तरफ आकर्षित ज़रूर हुआ करता था लेकिन वो भी अब मानों गुज़रे ज़माने की बातें हो गईं थी।

"क...क्या मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं भाभी?" मैंने बड़ी हिम्मत जुटा कर उनसे पूछा।

"ह...हम्म्म्म।" उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ल...लेकिन आप मुझे भाभी क्यों कह रहे हैं? अब तो मैं आपकी पत्नी हूं ना?"

"ओह! हां माफ़ कर दीजिए मुझे।" मैं हड़बड़ा सा गया____"आपने सच कहा, अब आप मेरी भाभी नहीं हैं बल्कि पत्नी हैं। तो...फिर आपको क्या कहूं मैं?"

"अ...आप ही ने तो कहा था कि जिस दिन हमारा विवाह हो जाएगा।" उन्होंने कहा____"उ..उस दिन से आप मुझे भाभी कहना बंद कर देंगे।"

"तो फिर आप ही बताइए।" मैंने धड़कते दिल से पूछा____"मैं आपको क्या कहूं?"

"म..मेरा नाम लीजिए।" उन्होंने लरजते स्वर में कहा____"भाभी की जगह रागिनी कहिए।"

"क..क्या सच में???" मैंने हैरत से उन्हें देखा____"आपको बुरा तो नहीं लगेगा ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"जैसे पिता जी मां जी को उनका नाम ले कर पुकारते हैं वैसे ही आप भी मेरा नाम ले कर पुकारिए।"

मेरे अंदर अजीब सी गुडमुड़ होने लगी थी। धड़कनें तो अब तक सामान्य ही न हुईं थी। मन में कई तरह के ख़यालों का मानों बवंडर सा चल रहा था।

"क..क्या हुआ?" जब मैं कुछ न बोला तो वो लरजते स्वर में पूछ बैठीं____"क्या आपको मेरा नाम ले कर मुझे पुकारना अच्छा नहीं लग रहा?"

"न...नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैंने हड़बड़ा कर कहा____"वो बात ये है कि आपका नाम लेने में झिझक रहा हूं मैं। हमेशा आपको भाभी ही कहा है इस लिए अचानक से आपका नाम लेने में संकोच हो रहा है मुझे।"

"हां समझती हूं।" उन्होंने सिर हिलाया____"मैं भी तो पहले आपका नाम ही लेती थी लेकिन अब नहीं ले सकती।"

"ऐसा क्यों?" मैंने हैरानी और उत्सुकता से पूछा____"अब आप मेरा नाम क्यों नहीं ले सकतीं?"

"पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेतीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"पहले आप मेरे देवर थे इस लिए आपका नाम लेती थी लेकिन अब आप मेरे पति हैं तो आपका नाम नहीं ले सकती।"

"तो फिर अब आप क्या कह कर पुकारेंगी मुझे?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मां जी तो पिता जी को ठाकुर साहब कहती हैं।" रागिनी भाभी ने कहा____"और कभी कभी सुनिए जी भी कहती हैं तो मैं भी आपको यही कहा करूंगी।"

"अच्छा।" मैं अनायास ही मुस्कुरा उठा____"ये तो बड़ा ही रोचक होगा फिर तो। वैसे क्या आप इस वक्त मुझे ऐसे ही पुकार सकती हैं?"

"प...पहले आप मेरा नाम ले कर मुझे पुकारिए।" भाभी ने कहा____"फिर मैं भी आपको वैसे ही पुकारूंगी।"

भाभी के साथ ऐसी बातें करने से अब मुझे बड़ा ही सहज महसूस होने लगा था और साथ ही बड़ा सुखद एहसास भी होने लगा था। मेरे अंदर का डर घबराहट और संकोच धीरे धीरे कम होता जा रहा था।

"आपके लिए मुझे वैसा पुकारना शायद मुश्किल नहीं लगेगा।" मैंने कहा____"लेकिन मेरे लिए आपका नाम ले कर आपको पुकारना मुश्किल लग रहा है। बहुत अजीब भी लग रहा है। ऐसा भी लग रहा है जैसे अगर मैं आपका नाम लूंगा तो मेरे द्वारा आपका मान सम्मान कम हो जाएगा।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" भाभी की आवाज़ एकाएक कांप सी गई____"मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत मान सम्मान देते हैं। यकीन मानिए आप अगर मेरा नाम लेंगे तो उससे मुझे अच्छा ही लगेगा।"

"क्या आप सच कह रहीं हैं?" मैंने बेयकीनी से उन्हें देखा____"क्या सच में आपको मेरा नाम लेने से अच्छा लगेगा?"

"ह...हां।" उन्होंने कहा____"मैं आपकी पत्नी हूं तो आप बिना संकोच के मेरा नाम ले सकते हैं।"

"ठीक है भा....मेरा मतलब है र...रागिनी।" मैंने अटकते हुए कहा____"लीजिए मैंने आपका नाम ले लिया। अब आप भी मुझे वैसे ही पुकारिए जैसे आपने कहा था।"

"ठीक है ठ...ठाकुर स..साहब।" रागिनी ने कहा____"अब ठीक है ना?"

कहने के साथ ही उन्होंने घुटनों में अपना चेहरा छुपा लिया। शायद उन्हें शर्म आ गई थी। मैं उनके इस अंदाज़ पर मुस्कुरा उठा। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि हमने एक दूसरे से इतनी सारी बातें बिना कहीं रुके कर ली हैं और आगे भी अभी करने वाले थे।

"वाह! आपके मुख से अपने लिए ठाकुर साहब सुन कर मुझे अंदर से एक अलग ही तरह की सुखद अनुभूति होने लगी है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या मेरे द्वारा आपका नाम लिए जाने से आपको भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने चेहरा ऊपर किया____"आपके मुख से अपना नाम सुन कर मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ है।"

"वैसे आपका नाम आपकी ही तरह बहुत सुंदर है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"क्या अब मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं र..रागिनी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीरे से कहा।

एकाएक ही मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो ग‌ईं। उनकी सहमति मिलते ही मैं हिम्मत करके थोड़ा सा उनकी तरफ खिसका और फिर अपने दोनों हाथ बढ़ा कर बहुत ही आहिस्ता से उनके घूंघट के छोर को इस तरह पकड़ा जैसे वो कपड़ा उनकी ही तरह बेहद नाज़ुक हो। इतनी सारी बातों के बाद मैं जो अब तक थोड़ा सहज महसूस करने लगा था उनका घूंघट पकड़ते ही एकाएक फिर से मेरे अंदर हलचल मच गई थी। अंदर थोड़ा घबराहट भी उभर आई थी मगर मैं रुका नहीं बल्कि धाड़ धाड़ बजते दिल के साथ मैं घूंघट को धीरे धीरे ऊपर की तरफ उठाने लगा। जब मेरा ये हाल था तो मैं समझ सकता था कि रागिनी का भी यही हाल होगा।

कुछ ही पलों में जब घूंघट पूरा उठ गया तो एकदम से उनके चेहरे पर मेरी नज़र पड़ी। उफ्फ! मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा इस वक्त वो सुंदर दिख रहीं थी। ऐसा लगा जैसे घने बादलों से अचानक ही चमकता हुआ चांद मेरी आंखों के सामने रोशन हो गया हो। मैं पलकें झपकना भूल गया। दोनों हाथों से घूंघट को ऊपर उठाए मैं अपलक उनके उस चेहरे को देखता रह गया जो चांद को भी मात दे रहा था। उधर रागिनी की सीप सी पलकें झुकी हुईं थी। उनके होंठ जो पहले से ही गुलाब की पंखुड़ियों जैसे थे उन पर हल्की सी लाली लगी हुई थी। नाक में सोने की नथ जो उनकी सुंदरता को मानों हज़ारों गुना बढ़ा रही थी। मैं एक ही पल में जैसे उनकी सुंदरता में डूब गया। पहले भी उनकी सुंदरता से सम्मोहित हो जाया करता था किंतु आज तो जैसे मैं डूब ही गया था। अपने वजूद का आभास ही नहीं हो रहा था मुझे।

एकाएक ही जैसे मुझे होश आया। मैंने उनके घूंघट को उनके सिर पर रख दिया और फिर बहुत ही आहिस्ता से किंतु कांपते हाथ की तीन उंगलियों के सहारे उनकी ठुड्ढी को थोड़ा सा ऊपर उठाया जिससे उनका चेहरा थोड़ा ऊपर उठ गया। उनकी पलकें अभी भी झुकी हुईं थी। मैंने पहली बार ध्यान दिया कि उनका सुंदर और गोरा चेहरा एकाएक लाज और शर्म से सुर्ख सा पड़ गया था। गुलाब की पंखुड़ियां बहुत ही मध्यम लय में कांप रहीं थी।

"अ...आप बहुत ख़ूबसूरत हैं र..रागिनी।" मैंने धाड़ धाड़ बजती अपनी धड़कनों को काबू करते हुए धीमें स्वर में कहा____"आपकी सुंदरता के सामने आसमान में चमकता हुआ चांद मानों कुछ भी नहीं है। मेरे जीवन में आ के मुझे रोशन करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। मन तो करता है कि पहरों आपको यूं ही देखता रहूं लेकिन डर लग रहा है कि कहीं मेरी ही नज़र ना लग जाए आपको। कृपया एक बार अपनी पलकें उठा कर देखिए ना मुझे।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी का चेहरा और भी शर्म से सुर्ख हो गया। गुलाब की पंखुड़ियों का कंपन थोड़ा तेज़ हो गया। मैंने महसूस किया कि उनकी सांसें पहले से तेज़ चलने लगीं थी। तभी उनकी सीप सी पलकें बहुत ही आहिस्ता से उठीं और मैंने उनकी वो आंखें देखीं जो समंदर क्या बल्कि ब्रह्मण्ड जैसी अथाह गहरी थीं। इसके पहले मैं उनकी खूबसूरती के सम्मोहन में डूब गया था और अब आंखों की अथाह गहराई में मानों गोते लगाने लगा। एक मदहोश कर देने वाला नशा महसूस किया मैंने। अचानक रागिनी ने शर्मा कर अपनी पलकें फिर से झुका ली और मैं पलक झपकते ही उस अनंत गहराई से बाहर आ गया।

मैंने देखा रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। उनके होठ कांप रहे थे। शायद अब तक उन्होंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल रखा था। घूंघट किए होने पर वो थोड़ा सहज थीं किंतु चेहरे से घूंघट हटते ही उनके अंदर की शर्म बड़ी तेज़ी से बाहर आ गई थी।

"काश! शायरों की तरह मेरे पास कल्पना शक्ति होती।" मैंने उन्हें देखते हुए अधीरता से कहा____"और उनकी तरह मेरे पास खूबसूरत शब्दों के भंडार होते तो मैं आपकी खूबसूरती में कोई ग़ज़ल कहता। बस इतना ही कह सकता हूं कि आप बहुत...बहुत खूबसूरत हैं। आपका तो नहीं पता लेकिन यकीन मानिए आपको इस रूप में पा कर मैं बहुत खुश हूं। अच्छा, मैंने सुना है कि पत्नी को मुंह दिखाई में कोई उपहार दिया जाता है तो बताएं। आपको मुझसे कैसा उपहार चाहिए? आप जो कहेंगी अथवा जो भी मांगेंगी मैं दूंगा आपको।"

"म...मुझे आपसे उपहार के रूप में कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"सिर्फ इतना ही चाहती हूं कि आप हमेशा अच्छे कर्म कीजिए और एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाइए।"

"वो तो आपके कहने पर पहले से ही कर रहा हूं मैं।" मैंने कहा____"और यकीन मानिए आगे भी कभी आपको निराश नहीं करूंगा।"

"बस तो फिर इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अपनी सीप सी पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा____"एक और बात, मेरी छोटी बहन रूपा को हमेशा ढेर सारा प्यार देना। जैसे वो आपसे प्रेम करती है वैसे ही प्रेम आप भी उससे करना। मेरे हिस्से का प्यार और खुशियां भी उसको देना। उसके चेहरे पर कभी उदासी न आए इसका ख़याल रखना। बस इतनी ही चाहत है मेरी।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"मैं आपको वचन देता हूं कि जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा किंतु आपका क्या? क्या आपको अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?"

"आप दोनों मेरे अपने ही तो हैं।" रागिनी ने कहा____"इसके अलावा और क्या चाहिए मुझे?"

"ठीक है।" मैंने गहरी सांस ली____"अच्छा अब हमें सो जाना चाहिए। आप भी बहुत ज़्यादा थकी होंगी इस लिए आराम से सो जाइए। वैसे आपको मेरे साथ इस पलंग पर सोने में असुविधा तो नहीं होगी ना? अगर असुविधा जैसी बात हो तो बता दीजिए, मैं नीचे सो जाऊंगा।"

"ए..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रागिनी ने कहा____"आप मेरे पति हैं। आपके साथ सोने में भला कैसी असुविधा होगी मुझे?"

रागिनी की इस बात से मैं उन्हें ध्यान से देखने लगा। वो पूरी तरह सजी धजी बैठी थीं। मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर कई तरह के भावों का आना जाना लगा हुआ था। शायद बहुत कुछ उनके मन में चल रहा था।




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अध्याय - 167
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"क्या हुआ?" रागिनी को कुछ सोचते देख मैंने पूछा____"आप ठीक तो हैं? कोई समस्या तो नहीं है ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने कहा____"ऐसी कोई बात नहीं है। मैं ठीक हूं।"

"ठीक है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"तो फिर आप अब आराम कीजिए। कल रात से आपको ठीक से आराम करने को नहीं मिला है अतः आप अब आराम से लेट जाइए।"

"ह...हां पर।" वो झिझकते हुए बोलीं____"मैं ऐसे नहीं सो पाऊंगी। मे...मेरा मतलब है कि इतने सारे ये गहने पहने और ये भारी सी साड़ी पहने सोना मुश्किल है।"

"ओह! हां।" मैंने उनके पूरे बदन को देखते हुए कहा____"तो ठीक है आप इन्हें उतार दीजिए। मेरा मतलब है कि आपको जैसे ठीक लगे वैसे आराम से सो जाइए।"

रागिनी मेरी बात सुन कर असमंजस जैसी हालत में बैठी कभी मुझे एक नज़र देखती तो कभी नज़रें घुमा कर कहीं और देखने लगतीं। मुझे समझ ना आया कि आख़िर अब उन्हें क्या समस्या थी?

"क्या हुआ?" मैं बेचैनी से पूछ बैठा____"देखिए अगर कोई बात है तो आप बेझिझक बता दीजिए मुझे। आप जानती हैं ना कि मैं आपको किसी भी तरह की परेशानी में नहीं देख सकता। आपको खुश रखना पहले भी मेरी प्राथमिकता थी और अब तो और भी हो गई है। आपको पता है आपकी छोटी बहन कामिनी ने मुझसे जूता चुराई के नेग में मुझसे क्या मांगा था?"

"क...क्या मांगा था उसने?" भाभी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।

"यही कि मैं हमेशा उनकी दीदी को खुश रखूं।" मैंने अधीरता से कहा____"उनको कभी दुखी न होने दूं और हमेशा उन्हें प्यार करूं।"

"क...क्या???" रागिनी के चेहरे पर हैरत के भाव उभरे____"उसने ऐसा कहा आपसे?"

"हां।" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"और जवाब में मैंने ऐसा करने का उन्हें वचन भी दिया। मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि कामिनी मुझसे नेग के रूप में ऐसा करने का वचन लेंगी। पर मैं खुश हूं कि उन्होंने चंद रुपयों की जगह आपकी खुशियों को ज़्यादा महत्व दिया। ज़ाहिर है उन्हें आपसे बहुत प्यार है।"

"हां।" रागिनी ने गहरी सांस ली____"वो मुझसे बहुत प्यार करती है। हालाकि उसका स्वभाव शुरू से ही शांत और गंभीर रहा था लेकिन मुझसे हमेशा लगाव था उसे। जब उसे पता चला कि मेरा आपसे विवाह करने की बात चली है तब उसे इस बात से बड़ा झटका लगा था। वो फ़ौरन ही मेरे पास आई थी और कहने लगी कि मैं इस रिश्ते के लिए साफ इंकार कर दूं। मैं जानती थी कि वो आपको पसंद नहीं करती थी इसी लिए इंकार करने को कह रही थी लेकिन मैं उस समय कोई भी फ़ैसला लेने की हालत में नहीं थी। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि ऐसा भी कुछ होगा।"

"मैंने भी कल्पना नहीं की थी।" मैंने कहा____"मुझे तो किसी ने पता ही नहीं चलने दिया था। अगर मैं आपको लेने चंदनपुर न जाता तो शायद पता भी न चलता।"

"एक बात पूछूं आपसे?" रागिनी ने धीमें से कहा।

"आपको किसी बात के लिए इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा____"आप बेझिझक हो कर मुझसे कुछ भी पूछ सकती हैं और मुझे कुछ भी कह सकती हैं।"

"मैं ये पूछना चाहती हूं कि क्या आपने ये रिश्ता मजबूरी में स्वीकार किया था?" रागिनी ने अपलक मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"अगर आपके बस में होता तो क्या आप इस रिश्ते से इंकार कर देते?"

"मैं नहीं जानता कि आप क्या सोच कर ये पूछ रहीं हैं।" मैंने कहा____"फिर भी अगर आप जानना चाहती हैं तो सुनिए, सच ये है कि आपकी खुशी के लिए अगर मुझे कुछ भी करना पड़ता तो मैं बेझिझक करता। इस रिश्ते को मैंने मजबूरी में नहीं बल्कि ये सोच कर स्वीकार किया था कि ऐसे में पूरे हक के साथ मैं अपनी भाभी को खुश रखने का प्रयास कर सकूंगा। सवाल आपका था रागिनी। सवाल आपके जीवन को संवारने का था और सवाल आपकी खुशियों का था। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाह सकता था कि आपके चेहरे पर कभी दुख की परछाईं भी पड़े। पहले मेरे बस में नहीं था लेकिन अब है। हां रागिनी, अब मैं हर वो कोशिश करूंगा जिसके चलते आप अपना हर दुख भूल जाएं और खुश रहने लगें। जब मुझे इस रिश्ते के बारे में पता चला था तो शुरू में बड़ा आश्चर्य हुआ था मुझे लेकिन धीरे धीरे एहसास हुआ कि एक तरह से ये अच्छा ही हुआ। कम से कम ऐसा होने से आपका जीवन फिर से तो संवर जाएगा। आपको जीवन भर विधवा के रूप में कोई कष्ट तो नहीं उठाना पड़ेगा। हां ये सोच कर ज़रूर मन व्यथित हो उठता था कि जाने आप क्या सोचती होंगी मेरे बारे में? आख़िर पता तो आपको भी था कि मेरा चरित्र कितने निम्न दर्जे का था। यही सब सोच कर आपसे मिलने चंदनपुर गया था। मैं आपसे अपने दिल की सच्चाई बताना चाहता था। मैं बताना चाहता था कि भले ही हमारे माता पिता ने हमारे बीच ये रिश्ता बनाने का सोच लिया है लेकिन इसके बाद भी मेरे मन में आपके लिए कोई ग़लत ख़याल नहीं आए हैं। अपने दामन पर हर तरह के दाग़ लग जाना स्वीकार कर सकता था लेकिन आपके ऊपर कोई दाग़ लग जाए ये हर्गिज़ मंजूर नहीं था मुझे।"

"हां मैं जानती हूं।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"आपको ये सब कहने की ज़रूरत नहीं है। सच कहूं तो मुझे भी इसी बात की खुशी है कि इस बारे में मेरी शंका और बेचैनी बेवजह थी। मुझे यकीन था कि आप सिर्फ मेरी खुशियों के चलते ही इस रिश्ते को स्वीकार करेंगे।"

"सच सच बताइए।" मैंने अधीरता से पूछा____"आप इस रिश्ते से खुश तो हैं ना? आपके मन में जो भी हो बता दीजिए मुझे। मैं हर सूरत में आपको खुश रखूंगा। आपके जैसी गुणवान पत्नी मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात है किंतु ये भी सोचता हूं कि क्या मेरे जैसे इंसान का पति के रूप में मिलना आपके लिए अच्छी बात है या नहीं?"

"ऐसा मत कहिए।" रागिनी का स्वर लड़खड़ा गया____"आपको पति के रूप में पाना मेरे लिए भी सौभाग्य की बात है।"

"क्या सच में???" मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा।

"पहले कभी हिम्मत ही नहीं जुटा पाई थी।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"लेकिन आज शायद इस लिए जुटा पा रही हूं क्योंकि अब मैं आपकी पत्नी बन चुकी हूं।"

"आप ये क्या कह रही हैं?" मैं चकरा सा गया____"मुझे कुछ समझ नहीं आया।"

"क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि अनुराधा और रूपा की तरह मैं भी आपसे प्रेम करती होऊंगी?" रागिनी ने ये कह कर मानों धमाका किया____"क्या आप कल्पना कर सकते हैं आपकी ये पत्नी आपको पहले से ही प्रेम करती थी?"

"ये....ये आप क्या कह रहीं हैं???" मेरे मस्तिष्क में सचमुच धमाका हो गया____"अ...आप मुझसे पहले से ही प्रेम करती हैं? ये...ये कैसे हो सकता है?"

"मैं भी अपने आपसे यही सवाल किया करती थी?" रागिनी ने कहा____"जवाब तो नहीं मिलता था लेकिन हां शर्म से पानी पानी ज़रूर हो जाती थी। अपने आपको ये कह कर धिक्कारने लगती थी कि रागिनी तू अपने ही देवर से प्रेम करने का सोच भी कैसे सकती है? ये ग़लत है, ये पाप है।"

मैं भौचक्का सा उन्हें ही देखे जा रहा था। कानों में सांय सांय होने लगा था। दिल की धड़कनें हथौड़े जैसा चोट करने लगीं थी।

"अ...आप तो बड़ी ही आश्चर्यजनक बात कर रहीं हैं।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"यकीन नहीं हो रहा मुझे।"

"जब मुझे ही यकीन नहीं हो रहा था तो आपको भला कैसे इतना जल्दी यकीन हो जाएगा?" रागिनी ने कहा____"अपने देवर के रूप में तो आपको मैं पहले ही पसंद करती थी। हमेशा गर्व होता था कि आपके जैसा लड़का मेरा देवर है। आगे चल कर ये पसंद कब रिश्ते की मर्यादा को लांघ गई मुझे आभास ही नहीं हुआ। फिर जब मैं विधवा हो गई और जिस तरह से आपने मुझे सम्हाला तथा मुझे खुश करने के प्रयास किए उससे मेरे हृदय में फिर से पहले वाले जज़्बात उभरने लगे लेकिन मैं उन्हें दबाती रही। खुद पर ये सोच कर क्रोध भी आता कि ये कैसी नीचतापूर्ण सोच हो गई है मेरी? अगर किसी को भनक भी लग गई तो क्या सोचेंगे सब मेरे बारे में? सच कहूं तो जितना विधवा हो जाने का दुख था उतना ही इस बात का भी था। अकेले में बहुत समझाती थी खुद को मगर आपको देखते ही बावरा मन फिर से आपकी तरफ खिंचने लगता था। ऊपर से जब आप मुझे इतना मान सम्मान देते और मेरा ख़याल रखते तो मैं और भी ज़्यादा आप पर आकर्षित होने लगती। मन करता कि आपके सीने से लिपट जाऊं मगर रिश्ते का ख़याल आते ही खुद को रोक लेती और फिर से खुद को कोसने लगती। ये सोच कर शर्म भी आती कि हवेली का हर सदस्य मुझे कितना चाहता है और मैं अपने ही देवर के प्रेम में पड़ गई हूं। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि ऊपर वाला मेरे जीवन में मुझे ऐसे दिन भी दिखाएगा और मेरे हृदय में मेरे अपने ही देवर के प्रति प्रेम के अंकुर पैदा कर देगा।"

रागिनी एकाएक चुप हो गईं तो कमरे में सन्नाटा छा गया। मैं जो उनकी बातों के चलते किसी और ही दुनिया ने पहुंच गया था फ़ौरन ही उस दुनिया से बाहर आ गया।

"प्रेम का अंकुर फूटना ग़लत नहीं है क्योंकि ये तो एक पवित्र एहसास होता है।" रागिनी ने एक लंबी सांस ले कर कहा____"लेकिन प्रेम अगर उचित व्यक्ति से न हो कर किसी ऐसे व्यक्ति से हो जाए जो रिश्ते में देवर लगता हो तो फिर उस प्रेम के मायने बदल जाते हैं। लोगों की नज़र में वो प्रेम पवित्र नहीं बल्कि एक निम्न दर्ज़े का नाम प्राप्त कर लेता है जिसके चलते उस औरत का चरित्र भी निम्न दर्ज़े का हो जाता है। यही सब सोचती रहती थी मैं और अकेले में दुखी होती रहती थी। हर रोज़ फ़ैसला करती कि अब से आपके प्रति ऐसे जज़्बात अपने दिल में नहीं रखूंगी लेकिन आपको देखते ही जज़्बात मचल उठते। मैं सब कुछ भूल जाती और आपके साथ हंसी खुशी से नोक झोंक करने लगती। आपको छेड़ती, आपकी टांगें खींचती तो मुझे बड़ा आनंद आता। आप जब नज़रें चुराने लगते तो मुझे अपने आप पर गर्व तो होता लेकिन ये देख कर खुश भी होती कि आप कितना मानते हैं मुझे। मैं खुद ही ये सोच लेती कि शायद आप मुझे बहुत चाहते हैं इसी लिए मेरी हर बात मानते हैं और हर तरह से मुझे खुश रखने की कोशिश करते रहते हैं। कोई पुरुष जब किसी औरत के लिए इतना कुछ करने लगता है तो उस औरत के हृदय में उसके प्रति कोमल भावनाएं पैदा हो ही जाती हैं। अकेले में भले ही मैं इस प्रेम की भावना को सोच कर खुद को कोसती और दुखी होती थी लेकिन आपके साथ होने पर जो खुशियां मिलती उनसे जुदा भी नहीं कर पाती थी। यूं समझिए कि जान बूझ कर हर रोज़ यही गुनाह करती थी क्योंकि दिल नहीं मानता था। क्योंकि दिल मजबूर करता था। क्योंकि आपके साथ दो पल की खुशी पाने की ललक होती थी।"

"अगर आप सच में मुझसे प्रेम करने लगीं थी।" मैंने अपने अंदर के तूफ़ान को काबू करते हुए कहा____"तो आपको मुझे बताना चाहिए था।"

"आपके लिए ये बात बताना आसान हो सकता था ठाकुर साहब।" रागिनी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"लेकिन मेरे लिए कतई आसान नहीं हो सकता था। मैं एक बड़े खानदान की बहू थी। एक ऐसी बहू जिसके सास ससुर को इस बात का गुमान था कि उनकी बहू दुनिया की सबसे गुणवान बहू है। एक ऐसी बहू जिसे उसके सास ससुर अपनी हवेली की शान समझते थे। एक ऐसी बहू जिसे हर किसी ने अपनी पलकों पर बिठा रखा था। एक ऐसी बहू जिसका पति ईश्वर के घर में था और वो एक विधवा थी। सोचिए ठाकुर साहब, अगर ऐसी बहू के बारे में किसी को पता चल जाता कि वो अपने ही देवर से प्रेम करती है तो क्या होता? अरे! उनका तो जो होता वो होता ही लेकिन मेरा क्या होता? इतना तो यकीन था मुझे कि ये बात जानने के बाद भी मेरे पूज्यनीय सास ससुर मुझे कुछ न कहते लेकिन क्या मैं उनके सामने खड़े होने की स्थिति में रहती? सच तो ये है कि उस सूरत में मेरे लिए सिर्फ एक ही रास्ता होता...शर्म से डूब मरने का रास्ता। आप कहते हैं कि मुझे आपको बताना चाहिए था तो खुद बताइए कि कैसे बताती आपको? आप भले ही मेरे बारे में ग़लत न सोच बैठते लेकिन मेरे मन में तो यह होता ही न कि आप यही सोचेंगे कि पति के गुज़र जाने के बाद मैं आपसे प्रेम करने का स्वांग सिर्फ इसी लिए कर रही हूं क्योंकि इसके पीछे मेरी अपनी कुत्सित मानसिकता है।"

"मैं आपके बारे में ऐसा ख़वाब में भी नहीं सोच सकता था।" मैंने अधीरता से कहा।

"मानती हूं।" रागिनी ने कहा____"लेकिन मैं अपने मन का क्या करती? उस समय मन में ऐसी ही बातें उभर रहीं थी जिसके चलते मैं ये तक सोच बैठी थी कि कितनी बुरी हूं मैं जो अपने अंदर की भावनाओं को काबू ही नहीं रख पा रही हूं। कितनी निर्लज्ज हूं जो अपने ही देवर से प्रेम करने लगी हूं।"

"ईश्वर के लिए ऐसी बातें कर के खुद की तौहीन मत कीजिए।" मैं बोल पड़ा____"मैं समझ सकता हूं कि इस सबके चलते आपके मन में कैसे कैसे विचार उभरे रहे होंगे। मैं ये भी समझ सकता हूं कि आपने इसके लिए क्या क्या सहा होगा। सच कहूं तो इसमें आपकी कोई ग़लती नहीं है इस लिए आप ये सब कह कर खुद को दुखी मत कीजिए।"

"आपको पता है।" रागिनी ने उसी अधीरता से कहा____"जब आपके साथ मेरा विवाह कर देने की बात चली थी तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ था। ऐसा लगा था जैसे मैं दिन में ही कोई ख़्वाब देखने लगी हूं। फिर जब यकीन हो गया कि यही हकीक़त है तो उस दिन पहली बार सच्ची खुशी का एहसास हुआ था मुझे। अकेले में अपने सामने यही सोच कर चकित होती थी कि ये कैसा विचित्र संयोग बना बैठा है ऊपर वाला। हालाकि आपसे मेरा विवाह होने की मैंने कभी कल्पना नहीं की थी लेकिन हां ये ज़रूर सोचा करती थी कि काश! मेरी भी किस्मत में ऐसे असंभव प्रेम का मिल जाना लिखा होता। कई दिन तो इस हकीक़त को यकीन करने में ही निकल गए। मेरी मां, मेरी भाभियां और मेरी बहन सब इस बारे में मुझसे बातें करती लेकिन मुझे कुछ समझ ही न आता कि क्या कहूं? उनमें से किसी को बता भी नहीं सकती थी कि मेरे अंदर का सच क्या है? बताने का मतलब था उनका भी यही सोच बैठना कि कितनी निर्लज्ज हूं मैं जो पहले से ही अपने देवर को प्रेम करती आ रही हूं। इस लिए कभी किसी को अपने अंदर के सच का आभास तक नहीं होने दिया। दिखावे के लिए उनसे ऐसी ऐसी बातें कहती जिससे उन्हें यही लगे कि मैं इस रिश्ते के लिए बहुत ज़्यादा परेशान हूं। दूसरी तरफ मैं ये भी सोचने लगी थी कि इस रिश्ते के बारे में अब आप क्या सोच रहे होंगे? कहीं आप भी तो सबकी तरह मुझे ग़लत नहीं सोचने लगे होंगे? हालाकि मुझे यकीन था कि आप ऐसा कभी सोच ही नहीं सकते थे लेकिन मन था कि जाने कैसी कैसी शंकाएं करता ही रहता था। मां, भाभी, कामिनी और शालिनी जब मुझे समझाने आतीं तो उनसे भी दिखावे के रूप में अपनी परेशानी ही ज़ाहिर करती और ये परखने की कोशिश करती कि वो सब इस रिश्ते के बारे में अपने क्या विचार प्रस्तुत करती हैं? आख़िर वो सब क्या सोचती हैं इस संबंध के बारे में? अकेले में मैं अपने नाटक और नासमझी के बारे में सोचती तो मुझे ये सोच कर दुख होता कि सबको कैसे उलझाए हुए हूं मैं। कैसे सबके साथ छल कर रही हूं मैं। वो सब मुझे इतना समझाती हैं और मैं नाटक किए जा रही हूं? सच तो ये था कि किसी से सच बताने की हिम्मत ही नहीं होती थी। मुझे ऐसा लगता था कि अगर मैं किसी से अपने अंदर का सच बता दूंगी तो जाने वो मेरे बारे में क्या क्या सोच बैठेंगी? फिर मैं कैसे उनकी शक भरी नज़रों का सामना कर सकूंगी?"

रागिनी इतना सब बोल कर चुप हुईं तो एक बार फिर से कमरे में सन्नाटा छा गया। मेरे ज़हन में अब भी धमाके हो रहे थे। मैं सोचने लगा था कि क्या अभी और भी ऐसा कोई सच मुझे जानने को मिलने वाला है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूं?

"आप ये सब सुन कर परेशान मत होइए।" फिर रागिनी ने कहा____"मैं तो ये सब आपको भी न बताती लेकिन इस लिए बताया क्योंकि अब आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। आपको अपने बारे में और अपने दिल की बातें छुपाना मेरा धर्म है। मैं आपसे कभी नहीं कहूंगी कि आप ये सब जानने के बाद मुझे प्रेम करें। आप पर अनुराधा का हक़ था, उसके बाद रूपा का हक़ है और मैं उस मासूम का हक़ छीनने का सोच भी नहीं सकती कभी।"

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस संबंध में आपसे क्या कहूं?" मैंने गहरी सांस ले कर कहा____"आप पहले से मुझे पसंद करती थीं या मुझसे प्रेम करने लगीं थी ये मेरे लिए ऐसी बात है जिसकी मैं कल्पना तक नहीं कर सकता था। अपने दिल का सच बताऊं तो वो यही है कि मैंने हमेशा आपको आदर सम्मान की भावना से ही देखा है। ये सच है कि कभी कभी मेरे मन में आपको देख कर ये ख़याल उभर आता था कि काश! आपके जैसी खूबसूरत और नेकदिल औरत मेरे भी नसीब में होती। आप पर हमेशा आकर्षित होता था मैं। डरता था कि कहीं इस आकर्षण के चलते किसी दिन मुझसे कोई गुनाह न हो जाए इस लिए हमेशा आपसे दूर दूर ही रहता था। आपकी पवित्रता पर किसी कीमत में दाग़ नहीं लगा सकता था मैं। आप हर तरह से हमारे लिए अनोखी थीं। ख़ैर छोड़िए इन बातों को। मुझे आपका सच जान कर आश्चर्य तो हुआ है लेकिन कहीं न कहीं खुशी भी हो रही है कि आपके दिल में मेरे प्रति प्रेम की भावना है। एक बार फिर से ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने मुझ जैसे इंसान के जीवन में अनुराधा, रूपा और आपके जैसी नेकदिल औरतों को भेजा। अनुराधा के जाने का दुख तो हमेशा रहेगा क्योंकि उसी की वजह से मैं प्रेम के मार्ग पर चला था किंतु आप दोनों का अद्भुत प्रेम पा कर भी मैं अपने आपको खुश किस्मत समझता हूं। अच्छा अब बातें बंद करते हैं। रात ज़्यादा हो गई है। आपको सो जाना चाहिए।"

मेरी बात सुन कर रागिनी ने सिर हिलाया और फिर झिझकते हुए पलंग से नीचे उतरीं। मेरे देखते ही देखते उन्होंने झिझकते हुए अपने गहनें निकाल कर एक तरफ रख दिए। फिर वो मेरी तरफ पलटीं। मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो गईं थी। मैं जानता था कि विवाह के बाद पति पत्नी सुहागरात भी मनाते हैं लेकिन हमारे बीच ऐसा होना कितना संभव था ये हम दोनों ही जानते थे।

"वो आप उधर घूम जाइए ना।" उन्होंने झिझकते हुए कहा तो मैंने फ़ौरन ही लेट कर दूसरी तरफ करवट ले ली। मैं सोचने लगा कि अब वो अपने कपड़े उतारने लगेंगी, उसके बाद वो मेरे पास आ कर मेरे साथ लेट जाएंगी।

कुछ देर बाद पलंग में हलचल हुई। मैं समझ गया कि वो अपने कपड़े उतार कर या फिर दूसरे कपड़े पहन कर पलंग पर सोने के लिए आ गईं हैं। मैंने महसूस किया कि हमारे बीच कुछ फांसला था। मैं सोचने लगा कि क्या मुझे उनसे कुछ कहना चाहिए? मेरा मतलब है कि क्या मुझे उनसे सुहागरात के बारे में कोई बात करनी चाहिए? मेरा दिल धाड़ धाड़ कर के बजने लगा।

"स...सुनिए।" काफी देर की ख़ामोशी के बाद सहसा रागिनी ने धीमें से मुझे पुकारा____"सो गए क्या आप?"

"न...नहीं तो।" मैं फ़ौरन ही बोल पड़ा किंतु फिर अचानक ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे फ़ौरन नहीं बोल पड़ना चाहिए था। क्या सोचेंगी अब वो कि जाने क्या सोचते हुए जग रहा हूं मैं?

"वो...मैंने दिन में सो लिया था न।" फिर मैंने उनकी तरफ पलटते हुए कहा____"इस लिए इतना जल्दी नींद नहीं आएगी मुझे लेकिन आप सो जाइए।"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीमें से कहा____"वैसे रूपा को कब ब्याह कर लाएंगे आप?"

"आज का दिन तो गुज़र ही गया है।" मैंने कहा____"तो इस हिसाब से चौथे दिन जाना होगा।"

"त...तो फिर जब मेरी छोटी बहन आपकी पत्नी बन कर यहां आ जाएगी।" रागिनी ने जैसे उत्सुकता से पूछा____"तो क्या वो भी इसी कमरे में हमारे साथ रहेगी या फिर...?"

"इस बारे में क्या कहूं मैं?" मैं उनकी इस बात से खुद भी सोच में पड़ गया था, फिर सहसा मुझे शरारत सी सूझी तो मुस्कुराते हुए बोला____"वैसे तो शायद मां उसे दूसरे कमरे में रहने की व्यवस्था करवा सकती हैं लेकिन अगर आपकी इच्छा हो तो उसको अपने साथ ही इस कमरे में सुला लेंगे। मुझे तो कोई समस्या नहीं है, क्या आपको है?"

"धत्त।" रागिनी एकदम से सिमट गईं____"ये क्या कह रहे हैं?"

"बस पूछ ही तो रहा हूं आपसे।" मैं मुस्कुराया____"जैसे आप मेरी पत्नी हैं वैसे ही वो भी तो मेरी पत्नी ही होगी और पत्नी तो अपने पति के साथ ही कमरे में रहती हैं।"

"हां ये तो है।" रागिनी ने कहा____"लेकिन वो भी अगर साथ में रहेगी तो कितना अजीब लगेगा मुझे। मुझे तो बहुत ज़्यादा शर्म आएगी।"

"शर्म किस बात की भला?" मैंने पूछा।

"व...वो...मुझे नहीं पता।" रागिनी को जैसे जवाब न सूझा।

"अब ये क्या बात हुई?" मैं मुस्कुरा उठा। मेरा हौंसला धीरे धीरे बढ़ने लगा____"आपको उसके साथ रहने से शर्म तो आएगी लेकिन क्यों आएगी यही नहीं पता आपको? ऐसा कैसे हो सकता है?"

"क्योंकि ये अच्छी बात नहीं होगी इस लिए।" उन्होंने झिझकते हुए कहा____"वो आपकी पत्नी बन कर आएगी तो उसे आपके साथ अकेले में रहने का अवसर मिलना चाहिए। मेरे सामने वो बेचारी आपसे कुछ कह भी नहीं पाएगी। उसका कुछ कहने और करने का मन होगा तो वो कर भी नहीं पाएगी। इस लिए उसका आपके साथ दूसरे कमरे में रहना ही ठीक होगा।"

"वैसे क्या नहीं कर पाएगी वो?" मैंने ध्यान से उनकी तरफ देखते हुए पूछा____"क्या कुछ करना भी होता है?"

"ह...हां...नहीं...मतलब।" वो एकदम से हकलाने लगीं____"क...क्या आपको नहीं पता?"

"कैसे पता होगा भला?" मैं मुस्कुराया____"पहली बार तो विवाह हुआ है मेरा। मुझे क्या पता विवाह के बाद क्या क्या होता है? आपको तो पता होगा ना तो आप ही बताइए।"

मेरी इस बात से रागिनी इस बार कुछ न बोलीं। मैंने महसूस किया कि एकदम से ही उनके चेहरे पर संजीदगी के भाव उभर आए थे। मैं समझ गया कि मेरी इस बात से उन्हें अपने पूर्व विवाह की याद आ गई थी जिसके चलते यकीनन उन्हें बड़े भैया का भी ख़याल आ गया होगा। मुझे खुद पर गुस्सा आया कि मैंने ऐसी बात कही ही क्यों उनसे?

मैं हिम्मत कर के उनके पास खिसक कर आया और फिर हाथ बढ़ा कर उन्हें अपनी तरफ खींच लिया। वो मेरी इस क्रिया से पहले तो चौंकी, थोड़ी घबराई भी लेकिन फिर जैसे खुद को मेरे हवाले कर दिया। हालत तो मेरी भी ख़राब हो गई थी लेकिन मैंने भी सोचा कि अब जो होगा देखा जाएगा। वैसे भी मैं उन्हें इस वक्त किसी बात से दुखी नहीं करना चाहता था।

मैंने रागिनी को थोड़ा और अपने पास खींचा और खुद से छुपका लिया। मैंने महसूस किया कि उनका नाज़ुक बदन हल्के हल्के कांप सा रहा था।

"माफ़ कर दीजिए मुझे।" फिर मैंने उनके मन का विकार दूर करने के इरादे से कहा____"मेरा इरादा आपको ठेस पहुंचाने का या दुखी करने का नहीं था। मैं तो बस आपको छेड़ रहा था, ये सोच कर कि शायद आपको भी इससे हल्का महसूस हो।"

"आ...आप माफ़ी मत मांगिए।" उन्होंने मुझसे छुपके हुए ही कहा____"मैं जानती हूं कि आप मुझे दुखी नहीं कर सकते।"

"चलिए इसी बहाने कम से कम आप मेरे इतना पास तो आ गईं।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"आपको इस तरह खुद से छुपका लिया तो एक अलग ही एहसास हो रहा है मुझे। क्या आपको भी हो रहा है?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीमें से कहा।

"तो बताइए ना कि विवाह के बाद क्या होता है?" मैंने धड़कते दिल से पूछा।

"वो तो आपको पता ही होगा।" उन्होंने मेरे सीने में खुद को सिमटाते हुए कहा____"मुझे कुछ नहीं मालूम।"

"वाह! तो आप झूठ भी बोलती हैं?" मैं मुस्कुरा उठा____"वो भी इतने मधुर अंदाज़ में, जवाब नहीं आपका।"

मेरी बात सुन कर वो और भी ज़्यादा सिमट गईं। मैं समझ सकता था कि उन्हें इस बारे में बात करने से शर्म आ रही थी। मैं ये भी समझ सकता था कि वो चाहती थीं कि मैं ही पहल करूं। अगर ऐसा न होता तो वो इस वक्त मुझसे छुपकी लेटी ना होती।

"ठीक है।" मैंने बड़ी हिम्मत के साथ कहा____"अगर आप बताना नहीं चाहती तो मैं भी आपको परेशान नहीं करूंगा। अच्छा एक बात पूछूं आपसे?"

"हम्म्म्म।"

"मैंने सुना है कि विवाह के बाद पति पत्नी सुहागरात की अनोखी रस्म निभाते हैं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"उस रस्म में वो दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं और फिर दोनों एकाकार हो जाते हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आप चाहती हैं कि हम भी ये रस्म निभाएं और फिर एकाकार हो जाएं?"

"आ...आपको जो ठ..ठीक लगे कीजिए।" रागिनी ने अटकते हुए धीमें से कहा।

"मैं आपकी इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं करूंगा।" मैंने कहा____"आपकी इच्छाओं का और आपकी भावनाओं का सम्मान करना मेरी सबसे पहली प्राथमिकता है। आपको हर दुख से दूर करना और आपको खुश रखना मेरा कर्तव्य है। अतः जब तक आपकी इच्छा नहीं होगी तब तक मैं कुछ नहीं करूंगा।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी ने एकदम से अपने हाथ बढ़ाए और मुझे पकड़ कर खुद से जकड़ लिया। शायद मेरी बातें उनके दिल को छू गईं थी। अचानक ही उनकी सिसकियां फूट पड़ीं।

"अरे! क्या हुआ आपको?" मैं एकदम से घबरा गया____"क्या मुझसे कोई ग़लती हो गई है?"

"न..नहीं।" उन्होंने और भी जोरों से मुझे जकड़ लिया, रुंधे गले से बोलीं_____"बस मुझे प्यार कीजिए। मुझे खुद में समा लीजिए।"

"क...क्या आप सच कह रही हैं?" मैं बेयकीनी से पूछ बैठा____"क्या सच में आप चाहती हैं कि मैं आपको प्रेम करूं और हम दोनों एकाकार हो जाएं?"

"ह...हां म...मैं चाहती हूं।" रागिनी कहने के साथ ही मुझसे अलग हुईं, फिर बोलीं____"मैं आपका प्रेम पाना चाहती हूं। पूरी तरह आपकी हो जाना चाहती हूं।"

मैंने देखा उनकी आंखों में आंसू थे। चेहरे पर दुख के भाव नाच रहे थे। मेरे एकदम पास ही थीं वो। उनकी तेज़ चलती गर्म सांसें मेरे चेहरे पर पड़ रहीं थी। तभी जाने उन्हें क्या हुआ कि वो ऊपर को खिसकीं और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उन्होंने मेरे सूखे होठों को झट से चूम लिया।

मेरे होठों को चूमने के बाद वो फ़ौरन ही नीचे आ कर मेरे सीने में शर्म के मारे छुपक गईं। मैं भौचक्का सा किसी और ही दुनिया में पहुंच गया था। फिर जैसे मुझे होश आया तो मैंने उनकी तरफ देखा।

"ये...ये क्या था रागिनी?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मे...मेरे प्यार का सबूत।" उन्होंने धीमें स्वर में कहा____"इससे आगे अब कुछ मत पूछिएगा मुझसे। बाकी आपकी पत्नी अब आपकी बाहों में है।"

"क्या सच में?" मैं मुस्कुरा उठा।

सारा डर, सारी घबराहट न जाने कहां गायब हो गई थी। ऐसा लगने लगा था जैसे अब कुछ भी मुश्किल नहीं रह गया था। मैंने बड़े प्यार से उनके चेहरे को अपनी हथेलियों में लिया। रागिनी ने शर्म से अपनी पलकें बंद कर ली। उनके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठ थोड़ा सा खुले हुए थे और थोड़ा थोड़ा कांप भी रहे थे। मैं आगे बढ़ा और गुलाब की पंखुड़ियों पर अपने होठ रख दिया। मेरे ऐसा करते ही उनका पूरा बदन कांप उठा। उन्होंने पूरी तरह से खुद को जैसे मेरे हवाले कर दिया था। उनका बदन कांप रहा था लेकिन वो कोई विरोध नहीं कर रहीं थी। खुद से कुछ कर भी नहीं रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो मेरे साथ किसी और ही दुनिया में खोने लगीं थी।

सुहागरात की रस्म बड़े प्रेम के साथ रफ़्ता रफ़्ता आगे बढ़ती रही और हम दोनों कुछ ही समय में दो जिस्म एक जान होते चले गए। रागिनी अब पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।




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अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

✮✮✮✮

रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

✮✮✮✮

रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

✮✮✮✮

ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?




━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
तीनो ही अपडेट बहुत ही शानदार और लाजवाब अपडेट है awesome, fantastic amazing and lovely story
कहानी का अंत बहुत ही सुखद तरीके से किया है साथ ही मेरे हिसाब से तो अपने सुहागरात का जो चित्रण किया है वह भी बहुत ही शानदार था रागिनी वैभव और रूपा के मिलन का चित्रण बहुत ही शानदार और लाजवाब था खैर ओर भाईयो की तरह मुझे ज्यादा लिखना नहीं आता है लेकिन जो भी लिखा है वह दिल से लिखा है सच में आपकी लेखनी शानदार है
आपकी कहानी के बारे में जितना लिखू उतना कम है मेरे पास शब्द नहीं है आपकी तारीफ के बारे में लिखने के लिए । साथ ही आशा करता हूं कि आप एकदम फ्रेश होकर एक नई कहानी की शुरुआत करेंगे आपका नई कहानी के साथ इंतजार रहेगा । अगर आप फोरम पर बने रहेंगे तो मुझे लगेगा कि मेरा भाई मेरे साथ है thanks a lot ऐसी कहानी लिखने के लिए🥰🥰🥰🥰🥰🥰
 
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Kuresa Begam

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अध्याय - 166
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"ओह! रूपा बस करो।" कुमुद ने भावना में बह कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं थी, बोली____"किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम? तुम्हारे हृदय में क्यों ऐसी अनोखी भावनाएं जन्म ले लेती हैं? मेरी प्यारी ननद, मेरी प्यारी रूपा। भगवान तुम्हें हमेशा ऐसा ही बनाए रखे। हमेशा तुम्हें खुश रखे। हमेशा तुम्हें तुम्हारे प्रियतम के प्रेम का उपहार दे।"

कुमुद सच में रूपा की बातों से भाव विभोर सी हो गई थी। उसका बस चलता तो वो रूपा को अपने सीने के अंदर समा लेती। उधर रूपा के सुर्ख होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और आंख से आंसू का एक कतरा छलक गया।



अब आगे....


शाम को कुसुम ने आ कर मुझे जगाया। वो बड़ा खुश दिख रही थी और बड़ा जल्दी में भी थी। मुझे फटाफट हाथ मुंह धो कर आने को कहा और कमरे से चली गई। मैंने इधर उधर दृष्टि घुमाई तो मुझे शाम हो जाने का आभास हुआ। एकाएक मेरी नज़र मेरे हाथों पर पड़ी तो मैं हल्के से चौंका। मेरे हाथों में मेंहदी लगी हुई थी। एकदम से बिजली सी कौंधी मस्तिष्क में। मैंने रजाई हटा कर अपने पैरों को देखा। पांवों में रंग लगा हुआ था। पलक झपकते ही मस्तिष्क में ये बात आ गई कि मेरा विवाह हो गया है और रागिनी भाभी अब मेरी पत्नी बन चुकी हैं। इस बात का एहसास होते ही दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। आंखों के सामने वो सोलह श्रृंगार किए दुल्हन के रूप में चमक उठीं। उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो, कितनी सादगी है उनमें। कितना नूर है उनमें। ऐसे न जाने कितने ही ख़याल पलक झपकते ही मेरे ज़हन में उभरते चले गए।

थोड़ी देर मैं यही सब सोचता रहा उसके बाद कपड़े पहन कर कमरे से बाहर आ गया। बाहर लंबे चौड़े बरामदे में औरतें बैठी हुईं थी। मेनका चाची, निर्मला काकी, कुसुम, कजरी ये सब किसी न किसी काम से इधर उधर आती जाती नज़र आईं।

मैं सीधा गुसलखाने में गया। हाथ मुंह धोया और फिर वापस आया। मैंने देखा औरतों के बीच में मेरी भाभी....नहीं नहीं मेरी पत्नी घूंघट किए बैठी हुई थी। सब दुल्हन देखने आईं थी। हालाकि वो उन्हें पहले से ही जानती थीं और उन्हें देख चुकीं थी लेकिन आज की बात ही अलग थी। अब वो दुबारा सुहागन हो गईं थी। पहले वो बड़े भैया की पत्नी थीं किंतु अब वो मेरी पत्नी बन कर आईं थी। मेरी नज़र जैसे उन पर ही चिपक गई थी। कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी तो वो भाग कर मेरे पास आई।

"ओहो! तो आप भाभी को देख रहे हैं?" फिर वो अपने अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोल पड़ी____"अब अगर अच्छे से देख लिया हो तो बताइए अपनी गुड़िया के हाथ की बनी चाय पीनी है कि नहीं आपको?"

मैं कुसुम की बात से एकदम चौंक पड़ा। वो नटखट मुझे छेड़ रही थी। मैंने मुस्कुराते हुए प्यार से उसके सिर पर चपत लगाई____"बहुत बोलने लगी है तू। जा जल्दी से चाय ले के आ।"

"मैं बहुत बोलने लगी हूं।" वो शरारत से मुस्कुराते हुए बोली____"और मेरे सबसे अच्छे वाले भैया भाभी को दूर से देखने में लगे हैं...ही ही ही।"

कहने के साथ ही वो हंसते हुए भाग गई। मैं मुस्कुराते हुए वापस कमरे में आ गया। अंदर औरतें ही दिखीं थी बाकी मर्द लोग शायद बाहर थे। ख़ैर कुसुम चाय ले कर आई तो मैं उससे चाय ले कर पीने लगा और सोचने लगा कि आज का दिन बड़ा जल्दी गुज़र गया। सो जाने से पता ही न चला कि कब शाम हो गई। ज़ाहिर है अब बहुत जल्द रात भी हो जाएगी और फिर वो घड़ी भी आ जाएगी जब मुझे अपनी पत्नी के साथ एक ही कमरे में एक ही बिस्तर पर सोना होगा।

मैं सोचने लगा कि कैसे मैं उस वक्त एक पति के रूप में उनके सामने मौजूद रह पाऊंगा? इतना तो मैं भी जानता था कि विवाह के बाद रात में पति पत्नी की सुहागरात होती है। सुहागरात में दो जिस्मों के साथ साथ दो आत्माओं का भी मिलन हो जाता है लेकिन मेरे लिए सोचने का विषय ये था कि जो औरत कल तक मेरी भाभी थीं और जिन्हें मैं बहुत मान सम्मान देता था उन्हें अपनी पत्नी समझ कर कैसे उनके साथ सुहागरात जैसा अनोखा, अद्भुत और दुस्साहस से भरा कार्य कर पाऊंगा? सवाल तो ये भी था कि क्या वो भी ऐसा कर पाएंगी? आख़िर सुहागरात का ख़याल उनके मन में भी तो होगा। स्थिति बड़ी ही गंभीर और मुश्किल सी नज़र आने लगी थी मुझे। मैंने बड़ी मुश्किल से ये सब अपने दिमाग़ से झटका और चाय पीने के बाद बैठक की तरफ चल पड़ा।

बाहर बैठक में सभी पिता जी के पास बैठे हुए थे। मुझे समझ ना आया कि मैं उनके बीच बैठूं या नहीं? एकाएक मुझे एहसास हुआ कि इस समय मेरा उनके बीच बैठना उचित नहीं होगा। अतः मैं पलट गया और वापस कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया।

रात खाना पीना हुआ। सब अपने अपने कमरों में जाने लगे। मैं चुपचाप उठ कर वापस उसी कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया। मेरी हिम्मत न हुई थी ऊपर अपने कमरे में जाने की। शर्म तो लग ही रही थी लेकिन उससे ज़्यादा झिझक और घबराहट हो रही थी। एक वक्त था जब ठाकुर वैभव सिंह किसी औरत जात के सामने जाने में ना तो झिझकता था और ना ही कोई शर्म करता था। दुस्साहस इतना था कि पलक झपकते ही औरत अथवा लड़की को अपनी आगोश में ले लेता था लेकिन आज ऐसा कुछ भी करने का साहस नहीं कर पा रहा था मैं। मेरे अंदर हलचल सी मची हुई थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं और कैसे ये मुश्किल वक्त मेरे जीवन से गुज़र जाए?

क़रीब एक घंटे बाद किसी के आने का आभास हुआ मुझे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ चलीं। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और रोहिणी मामी के साथ मेनका चाची कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! तुम यहां क्यों पड़े हो बेटा?" मेनका चाची ने बड़े प्रेम से कहा____"ऊपर अपने कमरे में जाओ। वहां बेचारी बहू अकेले तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रहीं होंगी।"

"म...म...मैं यहीं सो जाऊंगा चाची।" मैं बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"आप वहां कुसुम को भेज दीजिए।"

"अरे! ये क्या बात हुई भला?" चाची ने हैरानी से मुझे देखा____"आज पहले ही दिन तुम अपनी पत्नी को अकेला छोड़ दोगे? भूल गए क्या पंडित जी ने कौन कौन से सात वचन तुम्हें बताए थे?"

"ह...हां पर चाची।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं____"आज की ही बस तो बात है। आप कुसुम को बोल दीजिए ना कि वो वहां चली जाए। मैं कल ऊपर चला जाऊंगा।"

"ऐसा नहीं होता बेटा।" मेनका चाची मेरे पास आ कर बोलीं____"हर चीज़ का अपना एक तरीका होता है। तुम अब बच्चे तो हो नहीं जो ये सब समझते नहीं हो। चलो उठो और जाओ बहू के पास।"

"दीदी सही कह रहीं हैं वैभव।" रोहिणी मामी ने कहा____"तुम उन्हें ब्याह कर लाए हो इस लिए अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि अपनी पत्नी का हर तरह से ख़याल रखो। अपने लिए ना सही उनके बारे में सोचो कि अगर तुम उनके पास नहीं जाओगे तो उन्हें कैसा लगेगा? एक बात और, मत भूलो कि कुछ दिनों में तुम एक और लड़की को ब्याह कर तथा अपनी पत्नी बना कर यहां ले आओगे। क्या तब भी तुम ऐसा ही कहोगे? सच तो ये है कि तुम्हें अपनी दोनों बीवियों का अच्छे से ख़याल रखना होगा। ख़ैर चलो उठो अब।"

आख़िर मुझे उठना ही पड़ा। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी का सामना करने से डरता था लेकिन बात ये थी कि मैं ये सोच के झिझक रहा था कि वो क्या सोचेंगी मुझे अपने सामने देख कर? क्या वो मेरे सामने खुद को सहज और सामान्य रख पाएंगी? मैं नहीं चाहता था कि उन्हें मेरी वजह से कोई तकलीफ़ हो या उन्हें किसी तरह की असहजता का सामना करना पड़े।

बहरहाल, मेनका चाची तो चली गईं किंतु मामी मेरे साथ ही चलते हुए ऊपर कमरे तक आईं। इस बीच वो और भी कई बातें मुझे समझा चुकीं थी। दरवाज़े तक आ कर उन्होंने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और फिर मुस्कुराते हुए पलट कर चली गईं। उनके जाने के बाद मैं दरवाज़े को घूरने लगा। दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर के पसलियों पर चोट कर रहीं थी। मैं सोचने लगा कि अब जब यहां तक आ ही गया हूं तो मुझे इसके आगे भी जाना ही पड़ेगा। अब जो होगा देखा जाएगा। ऐसा तो है नहीं कि अंदर जाने पर भाभी मुझे एकदम से बाहर ही चले जाने को कह देंगी।

मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को अंदर की तरफ धकेला। दोनों पल्ले हल्की सी आवाज़ के साथ खुलते चले गए। अंदर बिजली का बल्ब तो जल ही रहा था किंतु उसके साथ साथ दो दो लालटेनें भी जल रहीं थी जिससे कमरे में पर्याप्त रोशनी थी। मैं बड़े एहतियात से अंदर दाख़िल हुआ। ठंड में भी अपने माथे पर पसीने का आभास हो रहा था मुझे। मैंने देखा कमरा काफी अलग नज़र आ रहा था। पूरे कमरे को फूलों से सजाया गया था। फूलों की महक से कमरा भरा पड़ा था। पलंग के चारो तरफ भी फूलों की झालरें पर्दे की शक्ल में झूल रहीं थी। मैं ये सब देख ये सोच कर हैरान हुआ कि मेरे कमरे का ऐसा कायाकल्प किसने किया होगा? मुझे याद आया कि बड़े भैया का जब विवाह हुआ था तब मैंने खुद बड़े उत्साह के साथ भैया के कमरे को इसी तरह फूलों से सजाया था। उस समय की तस्वीर मेरी आंखों के सामने चमक उठी।

बहरहाल मैं धड़कते दिल के साथ आहिस्ता से आगे बढ़ा। मेरी नज़र पलंग के चारो तरफ फूलों की झालरों के पार बैठी भाभी पर पड़ी। उन्हें देख मेरा दिल बड़े जोर से धड़क उठा। समूचे जिस्म में एक लहर दौड़ गई। मैंने खुद को सम्हाला और पलट कर दरवाज़े को आहिस्ता से बंद कर दिया। उसके बाद मैं वापस पलटा और पलंग की तरफ ऐसे चल पड़ा जैसे मेरे पांवों में मेंहदी लगी हो। धड़कनें तो पहले से ही धाड़ धाड़ कर के बज रहीं किंतु अब घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। अपनी हालत को सम्हालना जैसे मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल हो गया था। ऐसा लगा जैसे मेरी टांगें भी कांपने लगीं थी।

कमरे में एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था किंतु मुझे अपने दिल की धड़कनें साफ बजती हुई सुनाई दे रहीं थी। आख़िर कुछ ही पलों में मैं पलंग के चारो तरफ झूलती फूलों की झालरों के एकदम पास पहुंच कर रुका। मैंने साफ देखा, पलंग पर रागिनी भाभी घूंघट किए बैठी थीं। उनके दोनों घुटने ऊपर की तरफ आपस में जुड़े हुए थे और पांव पलंग पर ऐसे जुड़े हुए थे जैसे विवाह के समय पांव पूजे गए थे। उनके दोनों हाथ घुटनों को ऐसी शक्ल में समेटे हुए थे जैसे उन्होंने उन्हें थाम रखा हो। मैं अपनी सांसें रोके ख़ामोशी से उन्हें ही देखे जा रहा था। कोई और जगह होती तो शायद उन्हें पुकारने में अथवा उनसे बात करने में मुझे किसी हिम्मत की ज़रूरत ही न पड़ती किंतु इस वक्त इस जगह पर और ऐसी परिस्थिति में उन्हें आवाज़ देना अथवा उनसे कुछ कहना मेरे लिए जैसे बहुत ही मुश्किल हो गया था।

तभी सहसा उनमें हलचल हुई। कदाचित उन्हें मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया था। अपने हाथों को घुटनों से हटा कर उन्होंने बहुत ही आहिस्ता से अपना सिर उठाया। घूंघट किए हुए ही उन्होंने मेरी तरफ देखा। मेरी धड़कनें एकाएक थम गईं सी महसूस हुईं।

"व...वो आपको क...कोई असुविधा तो नहीं हुई मेरे यहां आने से?" मैंने धड़कते दिल से किंतु बड़ी मुश्किल से उनसे पूछा____"अ...अगर कोई समस्या हो तो बता दीजिए। मैं चला जाऊंगा यहां से।"

कहने के साथ ही मैं पलंग से दो क़दम पीछे हट गया। उधर वो मेरी बात सुन कर बिना कोई जवाब दिए आहिस्ता से पलंग से नीचे उतर आईं। ये देख मेरे अंदर हलचल सी शुरू हो गई और साथ ही मैं ये सोच के घबरा भी उठा कि मुझसे कहीं कोई ग़लती तो नहीं हो गई?

अभी मैं घबराहट के चलते ये सोच ही रहा था कि तभी मैं बुरी तरह चौंका। वो पलंग से उतरने के बाद मेरे क़रीब आईं और फिर एकदम से नीचे बैठ कर मेरे पांव छूने लगीं। उफ्फ! ये क्या करने लगीं थी वो? मैं झट से पीछे हट गया।

"ये...ये क्या कर रहीं हैं आप?" फिर मैं बौखलाया सा बोल पड़ा____"कृपया ऐसा मत कीजिए।"

"ऐ..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" उन्होंने बैठे बैठे ही सिर उठा कर धीमें से कहा____"आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। पत्नी होने के नाते अपने पति के पांव छूना मेरा धर्म है। क्या आप मुझे मेरा धर्म नहीं निभाने देंगे?"

उनकी ये बातें सुन कर मैं हक्का बक्का सा देखता रह गया उन्हें। मैंने तो इस बारे में सोचा ही नहीं था कि वो मेरे पांव भी छुएंगी। हालाकि ये मैं जानता था कि एक पत्नी अपने पति के पांव छूती है लेकिन उनसे अपना पांव छुआने की ना तो मैंने कल्पना की थी और ना ही ये मैं चाहता था। मेरे दिल में उनके लिए पहले से ही बहुत ज़्यादा आदर सम्मान और श्रद्धा की भावना थी।

"क...क्या ऐसा करना ज़रूरी है?" मुझे कुछ न सुझा तो पूछ बैठा____"देखिए, मैं मानता हूं कि हमारा रिश्ता पति पत्नी का हो गया है लेकिन अगर आप मेरे पांव छुएंगी तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा।"

"पर मेरा धर्म तो यही है कि मैं अपने पति के पांव छू कर आशीर्वाद लूं।" उन्होंने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि आप मुझसे अपना पांव क्यों नहीं छुआना चाहते हैं लेकिन इस सच्चाई को तो अब आपको भी मानना ही पड़ेगा कि मैं अब आपकी भाभी नहीं बल्कि पत्नी हूं।"

"म...मैं इस सच्चाई को पूरी तरह मान चुका हूं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"और यकीन मानिए मैं अपने आपको बहुत ज़्यादा सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप मुझे पत्नी के रूप में मिल गईं हैं, और सिर्फ इस लिए ही नहीं बल्कि इस लिए भी कि अब पूरे हक के साथ मैं आपको खुशियां देने का प्रयास कर सकता हूं।"

"अगर सच में आप मुझे खुशियां देना चाहते हैं तो इस वक्त मुझे मेरा धर्म निभाने से मत रोकिए।" उन्होंने कहा____"मुझे अपना पत्नी धर्म निभाने दीजिए। इसी से मुझे खुशी और संतोष प्राप्त होगा।"

उनकी बात सुन कर जैसे मैं निरुत्तर हो गया। मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि मैं उनकी इच्छा के बग़ैर कोई कार्य करूं। आख़िर मेरा भी तो धर्म था कि उनकी इच्छा का सम्मान करूं और उनकी भावनाओं को समझूं। जब उन्होंने देखा कि मैं अब कुछ नहीं बोल रहा हूं तो वो समझ गईं कि मैंने उन्हें पांव छूने की अनुमति दे दी है। अगले ही पल वो आगे बढ़ीं और मेरे पांव छू कर अपने हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। मुझे समझ ना आया कि अब क्या प्रतिक्रिया दूं। बस, मन ही मन ऊपर वाले से यही दुआ की कि वो उन्हें हमेशा खुश रखे।

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सच ही कहा था अमर मामा ने कि जो चीज़ पहले बहुत ज़्यादा मुश्किल प्रतीत हुआ करती है वो ऐन वक्त पर कभी कभी बहुत ही सहज हो जाती है और फिर सारी मुश्किल मानों छू मंतर सी हो जाती है। इस वक्त ऐसा ही अनुभव कर रहा था मैं। इसके पहले मैं यही सोच सोच के घबरा रहा था कि कैसे रागिनी भाभी का सामना करूंगा, कैसे उनसे बात कर पाऊंगा किंतु जिस तरह से आगाज़ हुआ था उसे देख अनायास ही एहसास हुआ कि ये इतना भी मुश्किल नहीं था। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो मुश्किल वक्त तो अभी आया ही नहीं था। ये तो ऐसा था जैसे उस मुश्किल वक्त पर पहुंचने के लिए ऊपर वाले ने मुझे बड़ी आसानी से दरवाज़े के अंदर पहुंचा दिया था ताकि मैं पीछे न हट सकूं और आगे बढ़ना ही मेरी मज़बूरी बन जाए।

मैं बहुत हिम्मत जुटा कर पलंग पर बैठ गया था। वो अभी भी चेहरे पर लंबा सा घूंघट किए हुए थीं और मेरे सामने ही बैठी थीं। मैं जानता था कि इसके आगे अब मुझे घूंघट उठा कर उनका चांद सा चेहरा देखना होगा मगर ऐसा करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कोई और स्त्री होती तो शायद मैं अब तक काफी आगे बढ़ गया होता लेकिन यहां तो वो बैठी थीं जिनके बारे में मैंने कभी ग़लत सोचा ही नहीं था। उनकी तरफ आकर्षित ज़रूर हुआ करता था लेकिन वो भी अब मानों गुज़रे ज़माने की बातें हो गईं थी।

"क...क्या मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं भाभी?" मैंने बड़ी हिम्मत जुटा कर उनसे पूछा।

"ह...हम्म्म्म।" उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ल...लेकिन आप मुझे भाभी क्यों कह रहे हैं? अब तो मैं आपकी पत्नी हूं ना?"

"ओह! हां माफ़ कर दीजिए मुझे।" मैं हड़बड़ा सा गया____"आपने सच कहा, अब आप मेरी भाभी नहीं हैं बल्कि पत्नी हैं। तो...फिर आपको क्या कहूं मैं?"

"अ...आप ही ने तो कहा था कि जिस दिन हमारा विवाह हो जाएगा।" उन्होंने कहा____"उ..उस दिन से आप मुझे भाभी कहना बंद कर देंगे।"

"तो फिर आप ही बताइए।" मैंने धड़कते दिल से पूछा____"मैं आपको क्या कहूं?"

"म..मेरा नाम लीजिए।" उन्होंने लरजते स्वर में कहा____"भाभी की जगह रागिनी कहिए।"

"क..क्या सच में???" मैंने हैरत से उन्हें देखा____"आपको बुरा तो नहीं लगेगा ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"जैसे पिता जी मां जी को उनका नाम ले कर पुकारते हैं वैसे ही आप भी मेरा नाम ले कर पुकारिए।"

मेरे अंदर अजीब सी गुडमुड़ होने लगी थी। धड़कनें तो अब तक सामान्य ही न हुईं थी। मन में कई तरह के ख़यालों का मानों बवंडर सा चल रहा था।

"क..क्या हुआ?" जब मैं कुछ न बोला तो वो लरजते स्वर में पूछ बैठीं____"क्या आपको मेरा नाम ले कर मुझे पुकारना अच्छा नहीं लग रहा?"

"न...नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैंने हड़बड़ा कर कहा____"वो बात ये है कि आपका नाम लेने में झिझक रहा हूं मैं। हमेशा आपको भाभी ही कहा है इस लिए अचानक से आपका नाम लेने में संकोच हो रहा है मुझे।"

"हां समझती हूं।" उन्होंने सिर हिलाया____"मैं भी तो पहले आपका नाम ही लेती थी लेकिन अब नहीं ले सकती।"

"ऐसा क्यों?" मैंने हैरानी और उत्सुकता से पूछा____"अब आप मेरा नाम क्यों नहीं ले सकतीं?"

"पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेतीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"पहले आप मेरे देवर थे इस लिए आपका नाम लेती थी लेकिन अब आप मेरे पति हैं तो आपका नाम नहीं ले सकती।"

"तो फिर अब आप क्या कह कर पुकारेंगी मुझे?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मां जी तो पिता जी को ठाकुर साहब कहती हैं।" रागिनी भाभी ने कहा____"और कभी कभी सुनिए जी भी कहती हैं तो मैं भी आपको यही कहा करूंगी।"

"अच्छा।" मैं अनायास ही मुस्कुरा उठा____"ये तो बड़ा ही रोचक होगा फिर तो। वैसे क्या आप इस वक्त मुझे ऐसे ही पुकार सकती हैं?"

"प...पहले आप मेरा नाम ले कर मुझे पुकारिए।" भाभी ने कहा____"फिर मैं भी आपको वैसे ही पुकारूंगी।"

भाभी के साथ ऐसी बातें करने से अब मुझे बड़ा ही सहज महसूस होने लगा था और साथ ही बड़ा सुखद एहसास भी होने लगा था। मेरे अंदर का डर घबराहट और संकोच धीरे धीरे कम होता जा रहा था।

"आपके लिए मुझे वैसा पुकारना शायद मुश्किल नहीं लगेगा।" मैंने कहा____"लेकिन मेरे लिए आपका नाम ले कर आपको पुकारना मुश्किल लग रहा है। बहुत अजीब भी लग रहा है। ऐसा भी लग रहा है जैसे अगर मैं आपका नाम लूंगा तो मेरे द्वारा आपका मान सम्मान कम हो जाएगा।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" भाभी की आवाज़ एकाएक कांप सी गई____"मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत मान सम्मान देते हैं। यकीन मानिए आप अगर मेरा नाम लेंगे तो उससे मुझे अच्छा ही लगेगा।"

"क्या आप सच कह रहीं हैं?" मैंने बेयकीनी से उन्हें देखा____"क्या सच में आपको मेरा नाम लेने से अच्छा लगेगा?"

"ह...हां।" उन्होंने कहा____"मैं आपकी पत्नी हूं तो आप बिना संकोच के मेरा नाम ले सकते हैं।"

"ठीक है भा....मेरा मतलब है र...रागिनी।" मैंने अटकते हुए कहा____"लीजिए मैंने आपका नाम ले लिया। अब आप भी मुझे वैसे ही पुकारिए जैसे आपने कहा था।"

"ठीक है ठ...ठाकुर स..साहब।" रागिनी ने कहा____"अब ठीक है ना?"

कहने के साथ ही उन्होंने घुटनों में अपना चेहरा छुपा लिया। शायद उन्हें शर्म आ गई थी। मैं उनके इस अंदाज़ पर मुस्कुरा उठा। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि हमने एक दूसरे से इतनी सारी बातें बिना कहीं रुके कर ली हैं और आगे भी अभी करने वाले थे।

"वाह! आपके मुख से अपने लिए ठाकुर साहब सुन कर मुझे अंदर से एक अलग ही तरह की सुखद अनुभूति होने लगी है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या मेरे द्वारा आपका नाम लिए जाने से आपको भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने चेहरा ऊपर किया____"आपके मुख से अपना नाम सुन कर मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ है।"

"वैसे आपका नाम आपकी ही तरह बहुत सुंदर है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"क्या अब मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं र..रागिनी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीरे से कहा।

एकाएक ही मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो ग‌ईं। उनकी सहमति मिलते ही मैं हिम्मत करके थोड़ा सा उनकी तरफ खिसका और फिर अपने दोनों हाथ बढ़ा कर बहुत ही आहिस्ता से उनके घूंघट के छोर को इस तरह पकड़ा जैसे वो कपड़ा उनकी ही तरह बेहद नाज़ुक हो। इतनी सारी बातों के बाद मैं जो अब तक थोड़ा सहज महसूस करने लगा था उनका घूंघट पकड़ते ही एकाएक फिर से मेरे अंदर हलचल मच गई थी। अंदर थोड़ा घबराहट भी उभर आई थी मगर मैं रुका नहीं बल्कि धाड़ धाड़ बजते दिल के साथ मैं घूंघट को धीरे धीरे ऊपर की तरफ उठाने लगा। जब मेरा ये हाल था तो मैं समझ सकता था कि रागिनी का भी यही हाल होगा।

कुछ ही पलों में जब घूंघट पूरा उठ गया तो एकदम से उनके चेहरे पर मेरी नज़र पड़ी। उफ्फ! मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा इस वक्त वो सुंदर दिख रहीं थी। ऐसा लगा जैसे घने बादलों से अचानक ही चमकता हुआ चांद मेरी आंखों के सामने रोशन हो गया हो। मैं पलकें झपकना भूल गया। दोनों हाथों से घूंघट को ऊपर उठाए मैं अपलक उनके उस चेहरे को देखता रह गया जो चांद को भी मात दे रहा था। उधर रागिनी की सीप सी पलकें झुकी हुईं थी। उनके होंठ जो पहले से ही गुलाब की पंखुड़ियों जैसे थे उन पर हल्की सी लाली लगी हुई थी। नाक में सोने की नथ जो उनकी सुंदरता को मानों हज़ारों गुना बढ़ा रही थी। मैं एक ही पल में जैसे उनकी सुंदरता में डूब गया। पहले भी उनकी सुंदरता से सम्मोहित हो जाया करता था किंतु आज तो जैसे मैं डूब ही गया था। अपने वजूद का आभास ही नहीं हो रहा था मुझे।

एकाएक ही जैसे मुझे होश आया। मैंने उनके घूंघट को उनके सिर पर रख दिया और फिर बहुत ही आहिस्ता से किंतु कांपते हाथ की तीन उंगलियों के सहारे उनकी ठुड्ढी को थोड़ा सा ऊपर उठाया जिससे उनका चेहरा थोड़ा ऊपर उठ गया। उनकी पलकें अभी भी झुकी हुईं थी। मैंने पहली बार ध्यान दिया कि उनका सुंदर और गोरा चेहरा एकाएक लाज और शर्म से सुर्ख सा पड़ गया था। गुलाब की पंखुड़ियां बहुत ही मध्यम लय में कांप रहीं थी।

"अ...आप बहुत ख़ूबसूरत हैं र..रागिनी।" मैंने धाड़ धाड़ बजती अपनी धड़कनों को काबू करते हुए धीमें स्वर में कहा____"आपकी सुंदरता के सामने आसमान में चमकता हुआ चांद मानों कुछ भी नहीं है। मेरे जीवन में आ के मुझे रोशन करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। मन तो करता है कि पहरों आपको यूं ही देखता रहूं लेकिन डर लग रहा है कि कहीं मेरी ही नज़र ना लग जाए आपको। कृपया एक बार अपनी पलकें उठा कर देखिए ना मुझे।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी का चेहरा और भी शर्म से सुर्ख हो गया। गुलाब की पंखुड़ियों का कंपन थोड़ा तेज़ हो गया। मैंने महसूस किया कि उनकी सांसें पहले से तेज़ चलने लगीं थी। तभी उनकी सीप सी पलकें बहुत ही आहिस्ता से उठीं और मैंने उनकी वो आंखें देखीं जो समंदर क्या बल्कि ब्रह्मण्ड जैसी अथाह गहरी थीं। इसके पहले मैं उनकी खूबसूरती के सम्मोहन में डूब गया था और अब आंखों की अथाह गहराई में मानों गोते लगाने लगा। एक मदहोश कर देने वाला नशा महसूस किया मैंने। अचानक रागिनी ने शर्मा कर अपनी पलकें फिर से झुका ली और मैं पलक झपकते ही उस अनंत गहराई से बाहर आ गया।

मैंने देखा रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। उनके होठ कांप रहे थे। शायद अब तक उन्होंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल रखा था। घूंघट किए होने पर वो थोड़ा सहज थीं किंतु चेहरे से घूंघट हटते ही उनके अंदर की शर्म बड़ी तेज़ी से बाहर आ गई थी।

"काश! शायरों की तरह मेरे पास कल्पना शक्ति होती।" मैंने उन्हें देखते हुए अधीरता से कहा____"और उनकी तरह मेरे पास खूबसूरत शब्दों के भंडार होते तो मैं आपकी खूबसूरती में कोई ग़ज़ल कहता। बस इतना ही कह सकता हूं कि आप बहुत...बहुत खूबसूरत हैं। आपका तो नहीं पता लेकिन यकीन मानिए आपको इस रूप में पा कर मैं बहुत खुश हूं। अच्छा, मैंने सुना है कि पत्नी को मुंह दिखाई में कोई उपहार दिया जाता है तो बताएं। आपको मुझसे कैसा उपहार चाहिए? आप जो कहेंगी अथवा जो भी मांगेंगी मैं दूंगा आपको।"

"म...मुझे आपसे उपहार के रूप में कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"सिर्फ इतना ही चाहती हूं कि आप हमेशा अच्छे कर्म कीजिए और एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाइए।"

"वो तो आपके कहने पर पहले से ही कर रहा हूं मैं।" मैंने कहा____"और यकीन मानिए आगे भी कभी आपको निराश नहीं करूंगा।"

"बस तो फिर इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अपनी सीप सी पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा____"एक और बात, मेरी छोटी बहन रूपा को हमेशा ढेर सारा प्यार देना। जैसे वो आपसे प्रेम करती है वैसे ही प्रेम आप भी उससे करना। मेरे हिस्से का प्यार और खुशियां भी उसको देना। उसके चेहरे पर कभी उदासी न आए इसका ख़याल रखना। बस इतनी ही चाहत है मेरी।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"मैं आपको वचन देता हूं कि जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा किंतु आपका क्या? क्या आपको अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?"

"आप दोनों मेरे अपने ही तो हैं।" रागिनी ने कहा____"इसके अलावा और क्या चाहिए मुझे?"

"ठीक है।" मैंने गहरी सांस ली____"अच्छा अब हमें सो जाना चाहिए। आप भी बहुत ज़्यादा थकी होंगी इस लिए आराम से सो जाइए। वैसे आपको मेरे साथ इस पलंग पर सोने में असुविधा तो नहीं होगी ना? अगर असुविधा जैसी बात हो तो बता दीजिए, मैं नीचे सो जाऊंगा।"

"ए..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रागिनी ने कहा____"आप मेरे पति हैं। आपके साथ सोने में भला कैसी असुविधा होगी मुझे?"

रागिनी की इस बात से मैं उन्हें ध्यान से देखने लगा। वो पूरी तरह सजी धजी बैठी थीं। मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर कई तरह के भावों का आना जाना लगा हुआ था। शायद बहुत कुछ उनके मन में चल रहा था।




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Nice update🙏🙏
 
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