Ajju Landwalia
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अध्याय - 47
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अब तक....
विभोर अभी कुछ बोलने ही वाला था कि तभी बाहर से किसी के द्वारा दरवाज़ा बजाए जाने से तीनों के तीनों ही उछल पड़े। पलक झपकते ही तीनों के चेहरों पर हवाइयां उड़ती हुई नज़र आने लगीं। दरवाज़े की तरफ टकटकी लगाए वो अपलक देखने लगे थे। डर और घबराहट के मारे कुछ ही पलों में तीनों का बुरा हाल हो गया। सबकी आंखों में एक ही सवाल मानों ताण्डव सा करने लगा था कि कौन हो सकता है बाहर?
अब आगे....
बाहर से कोई बार बार दरवाज़ा बजाए जा रहा था किंतु विभोर अजीत और गौरव में से किसी में भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि जा कर दरवाज़ा खोलें। सबके चेहरों पर बारह बजे हुए थे। डर और घबराहट के मारे चेहरा पसीने पसीने हुआ पड़ा था। गुज़रते वक्त के साथ उन तीनों की हालत और भी ज़्यादा ख़राब हुई जा रही थी।
"क...क..कौन हो सकता है गौरव?" विभोर के हलक से बड़ी मुश्किल से मरी हुई आवाज़ निकली____"क.. कहीं वो तो नहीं आ गया?"
"य..ये क्या कह रहे हो विभोर भाई?" गौरव को अपनी गांड़ फटती हुई महसूस हुई, बोला____"भ..भला वो यहां कैसे आ सकता है? उसे क्या पता हम यहां होंगे? नहीं नहीं, ये कोई और ही होगा।"
"ले..लेकिन कौन?" अजीत हिम्मत कर के पूछ ही बैठा____"इस वक्त कौन हो सकता है? और तो और बोल भी नहीं रहा, बस दरवाज़ा ही बजाए जा रहा है।"
"अ..अब क्या करें?" गौरव जब कोई जवाब न दे सका तो विभोर दबी हुई आवाज़ में बोला____"क्या हमें दरवाज़ा खोल कर देखना चाहिए कि बाहर कौन है?"
"इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है विभोर भाई।" गौरव मानों बेबस भाव से बोला____"दरवाज़ा तो हमें खोलना ही पड़ेगा। संभव है बाहर कोई ऐसा व्यक्ति हो जो हमारा ही आदमी हो।"
गौरव की बात सुन कर विभोर और अजीत के चेहरों पर तनिक राहत के भाव उभरते नज़र आए लेकिन डर और घबराहट में कोई कमी न हुई। इस बीच दरवाज़ा फिर से बजाया गया। उन तीनों के लिए सबसे ज़्यादा परेशानी वाली बात ये थी कि बाहर जो कोई भी था वो बोल कुछ नहीं रहा था बल्कि सिर्फ़ दरवाज़ा ही बजाए जा रहा था। इधर ये तीनों एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे और ये उम्मीद भी कर रहे थे कि दरवाज़ा खोलने कौन जाने वाला है? आख़िर हिम्मत जुटा कर गौरव ही दरवाज़े की तरफ बढ़ा। धीमें क़दमों से चलते हुए वो दरवाज़े के क़रीब पहुंचा। अपनी घबराहट को बड़ी मुश्किल से काबू करने का प्रयास करते हुए उसने कांपते हाथ से दरवाज़े की शांकल को पकड़ा और फिर उसे बहुत ही आहिस्ता से खींच कर कुंडे से अलग किया। दिल की धड़कनें उसकी कनपटियों पर मानों हथौड़ा बरसा रहीं थी। सूखे हलक को उसने थूक निगल कर तर किया और शांकल को अपनी तरफ खींच कर दरवाज़े के पल्ले को धड़कते दिल के साथ खोला।
अभी दरवाज़े का पल्ला थोड़ा ही खुला था कि तभी वो पल्ला भड़ाक से उसके चेहरे पर बड़ी तेज़ी से टकराया जिससे दो बातें एक साथ हुईं। पहली तो गौरव के हलक से दर्दनाक चीख निकली और दूसरी उसका जिस्म हवा में लहराते हुए पीछे कमरे में जा कर धड़ाम से गिरा। कमरे के अंदर मौजूद विभोर और अजीत अचानक हुए इस कृत्य से बुरी तरह उछल पड़े। दहशत के चलते उनके हलक से चीख भी निकल गई थी।
गौरव को कमरे की ज़मीन पर यूं धड़ाम से गिर गया देख उन दोनों की जान हलक में आ कर फंस गई थी। बात सिर्फ़ इतनी ही होती तो शायद उन्हें अपने ज़िंदा होने का आभास भी हो जाता लेकिन दरवाज़े से जिस शख़्स को अंदर आते देखा उसे देख उन दोनों की आत्मा उनका शरीर छोड़ देने के लिए मानो बगावत कर उठी।
"कैसे हो मेरे खानदान के नमूनों?" मैंने उन दोनों की तरफ देखते हुए सर्द लहजे में कहा____"स्वागत नहीं करोगे हमारा?"
"व..व..वैभव..भ..भैया।" विभोर के हलक से अटकता हुआ स्वर निकला। मुझे किसी जिन्न की तरह प्रगट हो गया देख उसकी घिग्घी सी बंध गई थी। चेहरा कागज़ की तरह एकदम सफेद पड़ गया था।
"न न, वैभव भैया नहीं, हरामज़ादा।" मैंने उसकी आंखों में आंखें डाल कर उसी सर्द लहजे में कहा____"तुमने यही नाम रखा है न मेरा?"
मेरी बात सुन कर विभोर से कुछ कहते न बन पड़ा। मुझसे आंख तक मिलाने की हिम्मत न हुई उसमें। फ़ौरन ही बगले झांकने लगा था वो। अपनी धड़कनें उसे रुकती हुई सी महसूस हुईं। हलक किसी रेगिस्तान की तरह सूख गया था, जिसे तर करने के लिए मुंह में थूक का एक क़तरा भी ना बचा था। यही हाल अजीत का भी था। उधर ज़मीन पर गिरा पड़ा गौरव खुद को उठा कर कमरे के एक कोने में खड़ा कर लिया था। गांड के बल ज़मीन पर गिरा था वो इस लिए अभी भी गांड में दर्द हो रहा था उसके जिसका असर उसके बिगड़े हुए चेहरे से साफ़ नज़र आ रहा था। वैभव सिंह नाम की दहशत ने सिर्फ़ उसे ही नहीं बल्कि तीनों को ही जैसे नपुंसक बना दिया था। तीनों के जिस्म जूड़ी के मरीज़ की तरह थर थर कांपे जा रहे थे। उनकी ये हालत देख मैं मन ही मन हंसा तो ज़रूर लेकिन उनकी करनी का ख़्याल आते ही मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया।
"सांप सूंघ गया क्या तुझे?" मैं गुस्से में विभोर का कालर पकड़ कर गुर्राया____"बोल यही नाम रखा है न तूने मेरा?"
"म..मु...मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" विभोर मिमियाते हुए बड़ी मुश्किल से बोला।
"ठीक है, माफ़ कर दूंगा तुझे।" मैं उसी तरह उसका कालर पकड़े गुर्राया____"लेकिन ये तो बता कि ऐसा कौन सा अच्छा काम किया है तूने जिसके लिए तुझे माफ़ कर दूं? तुम दोनों ने साहूकार के इस लड़के के साथ मिल कर मुझे नामर्द बनाने का कार्य किया। इसके लिए तो मैं तुझे माफ़ भी कर सकता हूं लेकिन तूने अपनी ही बहन को घटिया काम करने पर मजबूर किया। क्या तुझे ज़रा सा भी एहसास है कि तेरे मजबूर करने पर जब उस मासूम ने ऐसे घटिया काम किए तब उस पर क्या क्या गुज़रती रही होगी? तूने अपनी ही बहन की आत्मा को छलनी किया, क्या तुझे लगता है कि इसके लिए तुझे माफ़ी मिलनी चाहिए?"
विभोर सिर झुकाए खड़ा रह गया। उसमें जैसे बोलने की अब हिम्मत ही न बची थी। मेरा मन तो कर रहा था कि उन दोनों भाईयों को वहीं ज़मीन पर जिंदा गाड़ दूं लेकिन बड़ी मुश्किल से मैं अपने गुस्से को काबू किए हुए था।
"अब बोलता क्यों नहीं हरामखोर?" उसे कुछ न बोलता देख गुस्से से मैंने एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया जिससे वो लहरा कर एक तरफ ज़मीन में जा गिरा। गुस्से से तमतमाया हुआ मैं उसके क़रीब पहुंचा। इससे पहले कि मैं झुक कर उसको उठाता मेरे सिर पर ज़ोर से प्रहार हुआ। मेरे हलक से दर्द भरी चीख निकल गई। दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ कर लहरा गया मैं।
सिर पर हुए तीव्र प्रहार से मैं दर्द से चीखा भी था और लहरा भी गया था किंतु जल्दी ही सम्हल कर पलटा। मेरी नज़र अजीत पर पड़ी। उसके हाथ में एक मोटा सा डंडा था और चेहरे पर गुस्सा तो था लेकिन उस गुस्से में भी डर और घबराहट के भाव गर्दिश करते नज़र आ रहे थे। उसके पीछे दीवार से लगा गौरव आंखें फाड़े कभी अजीत को देखता तो कभी मुझे। शायद उसे अजीत से ऐसे कार्य की उम्मीद नहीं थी और उसे ही क्या मुझे खुद भी उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी, लेकिन जल्दी ही समझ गया कि ऐसा करने की हिम्मत उसमें क्यों आई होगी। असल में उसे लगा होगा कि मैं अकेला ही यहां आया हूं और वो तीन लोग हैं जिससे वो मुझ पर भारी पड़ सकते हैं। मैं समझ सकता था कि मेरे प्रति इतने समय से पल रही उनकी नफ़रत ने आज शायद अपने सब्र का बांध तोड़ दिया था।
"रु..रुक क्यों गया अजीत?" अपने भाई के हाथों मुझे मार खाया देख विभोर फ़ौरन ही उठ कर खड़ा हो गया था। पलक झपकते ही उसके चेहरे पर भी नफ़रत के भाव उभर आए थे। मेरी तरफ उसी नफ़रत से देखते हुए उसने अजीत से कहा____"मार इस हरामजादे को। ये अकेला हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। इससे डरने की ज़रूरत नहीं है छोटे। आज तसल्ली से इसको सबक सिखाएंगे हम दोनों। इसकी वजह से हवेली में कभी हमारी कोई अहमियत नहीं रही। सब इसके ही गुणगान गाते थे जैसे ये कोई इंसान नहीं बल्कि भगवान हो।"
"बहुत खूब।" विभोर की ज़हर में घुली बातें सुन कर मैं मुस्कुराते हुए बोल पड़ा____"आज पहली बार गीदड़ ने शेर बनने की कोशिश की है। ख़ैर अच्छा प्रयास है, अब इससे पहले कि तेरा और तेरे भाई का जोश ठंडा पड़ जाए दोनों अपनी मर्दानगी दिखाओ मुझे।"
"लगता है तुझे हमारी मर्दानगी देखने की बड़ी जल्दी है।" अजीत डंडे को पकड़े मेरी तरफ दो क़दम आगे बढ़ कर बोला____"फ़िक्र मत कर, आज हम तेरी वो हालत करेंगे कि तुझे अपने जन्म लेने पर अफ़सोस होगा।"
"पीछे से वार करने वाले हिंजड़े होते हैं बेटा।" मैंने उसकी खिल्ली उड़ाने वाले भाव से कहा____"सच्चा मर्द है तो अब आगे से वार कर के दिखा। मैं भी तो देखूं कि बिल में रहने वाले चूहों में कितना कसबल है?"
मेरी बात सुन कर दोनों भाई बुरी तरह तिलमिला उठे और यही तो मैं चाहता था। गुस्से में तिलमिलाए हुए अजीत ने तेज़ी से डंडे को घुमा कर मुझ पर प्रहार किया लेकिन मैंने आराम से झुक कर उसके वार से खुद को बचा लिया। इससे पहले कि वो संभल पाता मेरी टांग घूम गई जोकि सीधा उसके डंडे पर पड़ी, परिणामस्वरुप डंडा उसके हाथ से छूट कर दूर फिसल गया। उसके बाद जल्दी ही मैंने उसकी पीठ पर दुहत्थड़ जमा दिया जिससे वो ज़मीन चाटता नज़र आया। अभी मैं सम्हला ही था कि पीछे से विभोर ने मुझे दबोच लिया।
"अजीत जल्दी से उठ और डंडे को उठा कर इसका सिर फोड़ दे।" मुझे मजबूती से पकड़े विभोर ज़ोर से चिल्लाते हुए अजीत से बोला था____"आज या तो ये नहीं या फिर हम नहीं।"
विभोर की बात पर अजीत ने फ़ौरन ही अमल किया। वो तेज़ी से उठा और दूर पड़े डंडे को उठा लिया। इधर मैं विभोर से छूटने की कोशिश कर रहा था। विभोर पूरी ताक़त से मुझे पकड़े हुए था। शायद करो या मरो वाली बात उसके ज़हन में समा गई थी। उसे पता था कि अगर उन दोनों भाईयों ने मुझे मौका दिया तो ये उनके लिए ठीक नहीं होगा। इधर मैं भी जानता था कि इस वक्त वो दोनों होश में नहीं हैं। मेरे प्रति उनके अंदर जो नफ़रत भरी हुई थी वो उन्हें होश में आने ही नहीं दे सकती थी।
अजीत डंडे को मजबूती से पकड़े मेरी तरफ बढ़ा। मैंने जब देखा कि वो मेरे क़रीब ही आ गया है तो मैने जल्दी से अपनी कुहनी का वार पीछे विभोर के चेहरे पर किया जिससे उसने दर्द से बिलबिलाते हुए जल्दी ही मुझे छोड़ दिया। अभी मैं उससे छूट कर सम्हला ही था कि उधर अजीत का डंडा घूम गया जो तेज़ी से मेरी तरफ आया। मैं बिजली की सी तेज़ी से एक तरफ को हट गया जिससे डंडे का वार कच्ची ज़मीन पर ज़ोर से पड़ा।
मेरे ख़्याल से तमाशा बहुत हो गया था और अब इस तमाशे को ख़त्म करने का वक्त आ गया था। मैंने देखा विभोर फिर से मुझे पकड़ने के लिए मेरी तरफ लपका लेकिन मैंने एक लात उसके पेट पर जमा दी जिससे वो पेट पकड़ कर दोहरा हो गया। इधर अजीत एक बार फिर से डंडा लिए मेरी तरफ लपका मगर हवा में ही मैने उसके डंडे को थाम लिया और एक लात उसके पेट पर जमा दिया जिससे वो भी अपना पेट पकड़ कर दर्द से दोहरा हो गया। मैंने उसके हाथ से डंडा छुड़ाया और फिर दे दनादन दोनों भाईयों पर डंडे बरसाने शुरू कर दिए। कमरे में दोनों की चीखें गूंजने लगीं। दीवार से पीठ टिकाए खड़ा गौरव उन दोनों को इस तरह दर्द से चीखते देख थर थर कांपे जा रहा था। मैंने विभोर और अजीत पर तब तक डंडे बरसाए जब तक कि वो दोनों मुझसे रहम की भीख न मांगने लगे। कमरे की ज़मीन पर दोनों लहू लुहान हुए पड़े थे। मुझे उन दोनों पर इतना गुस्सा आया हुआ था कि मैं एक बार फिर से दोनों पर डंडे बरसाने ही चला था कि तभी कमरे के दरवाज़े से आई एक भारी आवाज़ को सुन कर रुक गया।
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दरवाज़े पर पिता जी यानि दादा ठाकुर खड़े थे और उनके पीछे जगताप चाचा के साथ साथ और भी कई सारे लोग थे। पिता जी का चेहरा जहां शांत था वहीं जगताप चाचा के चेहरे पर गुस्सा दिख रहा था। दरवाज़े पर उन सबको खड़ा देख कमरे में मौजूद विभोर अजीत और गौरव तीनों की ही नानी मर गई।
कुछ ही पलों में एक एक कर के सब कमरे में आ गए। गौरव ने जब अपने ताऊ मणि शंकर को देखा तो उसकी हालत और भी ज़्यादा ख़राब हो गई। कमरे में हमारे अलावा पिता जी, जगताप चाचा, बड़े भैया (अभिनव सिंह) और साहूकार मणि शंकर थे। पिता जी के साथ सुरक्षा के लिए जो हमारे आदमी आए थे वो बाहर ही रुक गए थे।
जगताप चाचा विभोर और अजीत की तरफ गुस्से से देखे जा रहे थे। प्रतिपल उनका गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। अचानक वो आगे बढ़े और मेरे हाथ से डंडा छीन लिया। इससे पहले कि वो गुस्से में कुछ करते पिता जी की शख़्त आवाज़ सुन कर अपनी जगह पर रुक गए।
"मुझे मत रोकिए बड़े भैया।" फिर वो गुस्से से कह उठे____"आज इन दोनों ने मुझे आपकी नज़रों से गिरा दिया है। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि ये मेरी अपनी औलादें हैं जिन्होंने इतना घटिया कर्म किया है। इससे अच्छा तो यही है कि मैं ऐसा कुकर्म करने वाली अपनी औलादों की अपने हाथों से ही जान ले लूं।"
"होश में आओ जगताप।" पिता जी ने शख्त लहजे में कहा____"इस मामले को शांति से और ठंडे दिमाग़ से देखना है हमें। हम जानना चाहते हैं कि इन लोगों ने जो कुछ भी किया है वो क्यों किया है और किसके कहने पर किया है?"
"अब सुनने को रह ही क्या गया है भैया?" जगताप चाचा ने सहसा दुखी भाव से कहा____"सब कुछ तो बाहर से सुन ही लिया है हम सबने। मुझे बस इजाज़त दीजिए ताकि ऐसी औलादों को मैं अपने हाथों से मार मार कर ख़त्म कर सकूं।"
"हमने क्या कहा तुम्हें समझ में नहीं आया क्या?" पिता जी ने इस बार जगताप चाचा की तरफ गुस्से से देखते हुए कहा____"अब ख़ामोश रहो और हमें इन लोगों से बात करने दो।"
जगताप चाचा पिता जी की बात सुन कर ख़ामोश रह गए। एक तरफ जहां बड़े भैया सोचो में गुम से हो कर खड़े थे वहीं दूसरी तरफ मणि शंकर भी चेहरे पर अजीब से भाव लिए ख़ामोश खड़ा था। इधर विभोर अजीत और गौरव एक कोने में सिमटे हुए बैठे हुए थे। चेहरों पर मुर्दानगी छाई हुई थी उनके।
"हमने ये तो सुन लिया है कि तुम दोनों ने वैभव के साथ वो सब इस लिए किया क्योंकि तुम दोनों इससे नफ़रत करते थे।" पिता जी ने विभोर और अजीत दोनों को बारी बारी से देखते हुए कहा____"और ये भी सुन लिया है कि इसके लिए तुमने खुद अपनी ही बहन और हमारी बेटी कुसुम को भी मजबूर कर रखा था। अब हम ये जानना चाहते हैं कि इसके अलावा और क्या किया है तुमने और साथ ही ऐसे काम में गौरव के अलावा और कौन कौन तुम्हारे साथ शामिल है?"
पिता जी की बातें सुन कर विभोर और अजीत दोनों ही कुछ न बोले। डर और घबराहट से उन दोनों का बुरा हाल था और साथ ही शर्मिंदगी के मारे उनका चेहरा झुका हुआ था। जब काफी देर गुज़र जाने पर भी वो दोनों कुछ न बोले तो पिता जी ने तेज़ आवाज़ में घुड़कते हुए दुबारा वही सब पूछा।
"इसके अलावा और कुछ नहीं किया हमने।" विभोर ने दबी हुई आवाज़ में बोलने का साहस किया____"हमारे इस काम में सिर्फ़ गौरव ही हमारे साथ रहा है। इसका काम सिर्फ दवा लाना ही था। हमें नहीं पता कि ये कहां से वो दवा ले कर आता था जिसे चाय में हर रोज़ थोड़ा थोड़ा मिला कर पिलाने से इंसान की मर्दानगी समाप्त हो जाती है।"
"और बड़े भैया को ऐसी कौन सी घूंटी पिलाते थे तुम लोग?" मैंने उन दोनों की तरफ देखते हुए शख़्त भाव से पूछा____"जिसके प्रभाव से ये हमेशा तुम दोनों के साथ ही चिपके रहते थे?"
"इसका जवाब मैं देता हूं वैभव।" पिता जी के पीछे खड़े बड़े भैया अचानक से बोल पड़े तो मैं और पिता जी पलट कर उनकी तरफ देखने लगे, जबकि उन्होंने आगे कहा____"जब मुझे पता चला था कि मेरा जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है तो मैं इस बात से बेहद दुखी हो गया था। एकदम से ऐसा लगने लगा था जैसे दुनिया में अब मेरे लिए कुछ रह ही नहीं गया है। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक से मेरे साथ ये क्या हो गया था? उधर तू अपनी ही दुनिया में मस्त रहता था। मुझे तुझसे हमेशा ईर्ष्या होती थी लेकिन ये भी सोचता था कि सबके नसीब में जीवन का ऐसा आनंद कहां? अगर तू अपने ऐसे जीवन से खुश है तो मुझे तुझसे ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, बल्कि खुश होना चाहिए। आख़िर तू मेरा छोटा भाई है। ख़ैर, अपने साथ ऊपर वाले के द्वारा की गई इस नाइंसाफी की वजह से मैं बहुत व्यथित था। तेरी भाभी भी इस सबसे बेहद दुखी थी लेकिन अब भला इसमें किसी का क्या ज़ोर चल सकता था? पिता जी ने इस बारे में किसी को कुछ भी बताने से मना कर रखा था लेकिन इन्हें भला इस बात का एहसास कैसे हो सकता था कि मुझ पर क्या गुज़र रही थी? सोचा था अपने दिल का हाल तुझे बताऊंगा और तेरे साथ अपनी ज़िंदगी के बचे हुए दिन गुज़ारुंगा लेकिन तभी एक दिन तुझे भी पिता जी ने बहिष्कृत कर के गांव से निकाल दिया। सबको ये भी कह दिया कि जो कोई भी तुझसे मिलने की या संबंध रखने की कोशिश करेगा उसको भी वही सज़ा दी जाएगी। तेरे यूं अचानक से चले जाने के बाद मैं एकदम से अकेला पड़ गया। हर गुज़रते दिनों के साथ ये सोच सोच कर मेरी हालत बद से बदतर होती जा रही थी कि एक दिन ऐसा आ जाएगा जब मैं सबको छोड़ कर इस दुनिया से चला जाऊंगा। अंदर ही अंदर मुझे ये दुख खाए जा रहा था जिसकी वजह से मैं चिड़चिड़ा हो गया।हर रोज़ तेरी भाभी पर गुस्सा करने लगा, जबकि उस बेचारी का तो कोई कसूर ही नहीं था। ख़ैर एक दिन मैंने विभोर और अजीत को जीप से कहीं जाते हुए देखा तो मैंने इन दोनों को रुकने को कहा और फिर इनके साथ मैं भी जीप में बैठ कर चल दिया। मैं नहीं जानता था कि ये लोग कहां जा रहे थे अथवा मुझे अपने इन छोटे भाइयों के साथ जाना चाहिए था कि नहीं लेकिन खुद को बहलाने के लिए उस वक्त मुझे जो सही लगा मैंने वही किया। इन दोनों के साथ सारा दिन मैं इधर से उधर घूमता रहा। हवेली के कमरे में इतनों दिनों तक पड़े पड़े मैं ऊब गया था इस लिए उस दिन मुझे इनके साथ घूमने से थोड़ा अच्छा महसूस हुआ। उसके बाद मैं हर रोज़ इन दोनों के साथ घूमने जाने लगा। फिर एक दिन गौरव से मुलाक़ात हुई। शुरू शुरू में गौरव मेरी वजह से असहज महसूस करता था लेकिन फिर हमारे बीच सब कुछ सामान्य हो गया। मैं नहीं जानता था कि ये तीनों जब एक साथ होते थे तो क्या करते थे लेकिन एक दिन मैंने इन्हें बगीचे वाले मकान में गांजा पीते हुए देख लिया। इन तीनों की तो हालत ही ख़राब हो गई थी लेकिन मैंने इन लोगों को उसके लिए कुछ नहीं कहा। कहता भी क्यों, सबको अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने का हक़ है। उनके पास बहुत बड़ा जीवन था इस लिए वो हर चीज़ का आनंद उठा रहे थे, लेकिन मेरे पास तो कुछ ही समय का जीवन था। मैंने सोचा अपने इन छोटे भाइयों के साथ मैं भी खुशी के कुछ पल गुज़ार लेता हूं। बस, उसके बाद से यही सिलसिला चलने लगा। मैं भी इन लोगों के साथ गांजा पीने लगा। धीरे धीरे मुझे गांजा पीने की लत लग गई तो मैं खुद ही इन लोगों को साथ ले कर हवेली से निकल लेता और कहीं एकान्त में जा कर हम तीनों गांजा पीते। विभोर ने बताया था कि गांजे का जुगाड़ गौरव करता था। मैंने इससे कभी नहीं पूछा कि ये कहां से ऐसा गांजा ले कर आता था जिसे पीने के बाद मैं अपने सारे दुख दर्द भूल जाता था। गांजा पीने के बाद मैं एक अलग ही तरह की रंगीन दुनिया में खो जाता था। एक ऐसी रंगीन दुनिया में जहां जीवन बहुत ही सुंदर दिखता था और इस बात का एहसास ही नहीं रह जाता था कि एक दिन मुझे हक़ीक़त वाली दुनिया से रुखसत भी हो जाना है।"
बड़े भैया चुप हुए तो कमरे में ब्लेड की धार की मानिंद पैना सन्नाटा छा गया। सबके चेहरों पर गभीरता के भाव गर्दिश करते नज़र आ रहे थे। इधर मैं ये सोचने लगा था कि मेरे न रहने पर मेरे भैया को कितना कुछ सहना पड़ा था। मैं समझ सकता था कि वो उस समय कितनी बुरी स्थित से गुज़रे रहे होंगे।
"हमें माफ़ करना बेटे, हमने कभी तुम्हारी तकलीफ़ों को दूर करने या उन्हें साझा करने का प्रयत्न नहीं किया।" पिता जी ने गंभीर भाव से कहा_____"लेकिन यकीन मानों कुल गुरु की उस भविष्यवाणी को सुन कर हम भी बेहद दुखी थे। किसी के सामने अपने सीने के नासूर बन गए दर्द को दिखा नहीं सकते थे और यही हमारे लिए सबसे बड़े दुःख का कारण बन गया था। हर पल ऊपर वाले से यही पूछते थे कि आख़िर क्यों उसने हमारे बेटे का जीवन इतना कमतर बनाया?"
"आपको माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है पिता जी।" बड़े भैया ने कहा____"मैं समझ सकता हूं कि ये सब आपके लिए भी कितना असहनीय रहा होगा।"
"बड़े भैया, क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकता हूं?" मैंने झिझकते हुए बड़े भैया से कहा तो वो मेरी तरफ देख कर मुस्कुराए और फिर बोले____"बेझिझक हो के पूछ छोटे। तुझे मुझसे इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।"
"क्या इसके अलावा भी आप इन दोनों के साथ कुछ करते थे?" मैंने एक बार फिर से झिझकते हुए कहा____"मेरा मतलब है कि ये लोग हवेली की नौकरानी शीला को कुसुम के कमरे में ले जा कर उसके साथ रंगरलियां मनाते थे तो क्या आप भी इस काम में इनका साथ देते थे?"
"मैं तो रात में इनके पास गांजा पीने जाता था वैभव।" बड़े भैया ने कहा____"जैसा कि मैंने बताया मुझे गांजा पीने की लत लगी हुई थी इस लिए तेरी भाभी के सो जाने के बाद मैं इनके कमरे में गांजा पीने के लिए जाता था। एक दिन मुझे इन दोनों का ये राज़ भी नज़र आ गया कि ये लोग हवेली की एक नौकरानी के साथ मौज मस्ती भी करते हैं। पहले तो मुझे ये सोच कर हैरानी हुई थी कि ये दोनों भी तेरे नक्शे क़दम पर चल रहे हैं लेकिन फिर ये सोच कर इन्हें कुछ नहीं कहा कि जीवन इनका है इस लिए मुझे इनके किसी भी तरह के काम में हस्ताक्षेप नहीं करना चाहिए। वैसे भी मैं ज़्यादा समय का मेहमान नहीं था इस लिए मैं किसी से बैर भाव या मन मुटाव जैसी बात नहीं रखना चाहता था। ख़ैर, मैंने इन्हें कुछ नहीं कहा और इनके पास से गांजा ले कर एक दूसरे खाली कमरे में चला गया। कई बार तो जब मैं गांजे के नशे में होता था तो ये लोग मेरे सामने ही शीला के साथ रंगरलियां मनाते थे। मुझे अंधेरे में ठीक से कुछ दिखता तो नहीं था किंतु आवाज़ों से पता चलता रहता था कि क्या हो रहा है।"
"क्या इन लोगों ने कभी आपको शीला के साथ वो सब करने के लिए नहीं कहा?" मैंने बड़ी हिम्मत कर के पूछा तो बड़े भैया ने पहले वहां मौजूद सबकी तरफ देखा उसके बाद शांत भाव से कहा____"कई बार इन दोनों ने हंसी मज़ाक में मुझसे कहा था लेकिन मैं कभी इसके लिए राज़ी नहीं हुआ। एक दिन मैंने देखा कि ये लोग कुसुम के कमरे में शीला के साथ लगे हुए थे तो मैं इन दोनों पर बेहद गुस्सा हुआ। ये दोनों डर तो गए थे लेकिन फिर इन्होंने मुझे यकीन दिलाया कि कुसुम को इस बारे में कुछ भी पता नहीं है। मैंने जब डांटते हुए इनसे ये कहा कि कुसुम को पता हो या न हो लेकिन ऐसा गंदा काम उसके कमरे में नहीं करना चाहिए तो इन लोगों ने कहा कि ये ऐसा इस लिए करते हैं ताकि इससे अलग तरह का एहसास हो और एक अलग ही तरह का मज़ा आए।"
अपने से बड़ों के सामने खुल कर ऐसी बातें करने और सुनने में यकीनन मुझे और शायद भैया को भी शर्म और झिझक महसूस हो रही थी किंतु इसके बावजूद मैं ये सब बातें सबके सामने करवा रहा था ताकि असलियत सबको पता चल जाए। हालाकि मणि शंकर की मौजूदगी में ऐसी बातें नहीं होनी चाहिए थीं लेकिन अब जब बातें खुल ही गईं थी तो भला किसी की मौजूदगी से क्या फ़र्क पड़ता था?
"और क्या आपको भी ये पता था कि ये दोनों कुसुम के द्वारा चाय में नामर्द बनाने वाली दवा मिला कर मुझे पिलाते थे?" मैंने एक एक नज़र विभोर और अजीत की तरफ डालते हुए बड़े भैया से कहा____"क्या आपको कभी इन पर उस सबके अलावा और किसी भी चीज़ का शक नहीं हुआ?"
"शक तो तब होता है छोटे जब किसी से ऐसे किसी काम की उम्मीद हो।" बड़े भैया ने कहा____"मैं तो ज़्यादातर गांजे के नशे में ही गुम रहता था। ऐसा भी कह सकते हो कि मैं हर किसी से विरक्त हो गया था। मुझे भला ये कैसे पता हो सकता था कि ये लोग मेरे पीठ पीछे और क्या क्या कारनामें करते थे?"
"हे ईश्वर!" जगताप चाचा सहसा आहत भाव से बोल पड़े____"ये कैसी नीच औलादों को मेरी औलादें बना कर भेजा है तूने? मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे ये दोनों सपूत इतने गंदे और घटिया काम भी करते होंगे। आज इनकी वजह से मेरा सिर शर्म से झुक गया है। मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। मुझे अपने देवता समान बड़े भैया की नज़रों से ऐसा गिराया है कि अब शायद ही मैं कभी सिर उठा पाऊं।"
कहने के साथ ही जगताप चाचा का चेहरा एकाएक गुस्से से भभक उठा। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता वो तेज़ी से आगे बढ़े और ज़मीन पर पड़े डंडे को उठा कर विभोर और अजीत को मारना शुरू कर दिया। कमरे में एकदम से दर्द भरी चीखें गूंज उठीं। मैं, बड़े भैया और मणि शंकर तो अपनी जगह पर ही खड़े रहे किंतु पिता जी जगताप चाचा की तरफ तेज़ी से बढ़े।
"रुक जाओ जगताप रुक जाओ।" उनके क़रीब पहुंचते ही पिता जी ने जगताप चाचा के उस हाथ को थाम लिया जिस हाथ में उन्होंने डंडा ले रखा था, फिर कठोर भाव से बोले____"बस बहुत हुआ। अब अगर तुमने इन दोनों पर हाथ उठाया तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा।"
"मुझे मत रोकिए भैया।" जगताप चाचा क्रोध से खीझते हुए बोले____"आज मैं इन लोगों को जान से मार दूंगा। मुझे ऐसे बेटों के मर जाने का ज़रा सा भी दुख नहीं होगा जिन्होंने ऐसे ऐसे नीच कर्म किए हैं। मुझे तो सोच कर ही शर्म आती है कि इन लोगों ने क्या क्या किया है जबकि ऐसा नीच और गंदा काम करने पर इन्हें रत्ती भर भी शर्म नहीं आई। मुझे मत रोकिए भैया, इन्हें जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
"तुमने किसी के बारे में फ़ैसला सुनाने का अधिकार कब से अपने हाथ में ले लिया?" पिता जी ने इस बार गुस्से से कहा____"मत भूलो कि इस गांव का ही नहीं बल्कि आस पास के अठारह गांव के लोगों के बारे में फ़ैसला सुनाने का हक़ सिर्फ़ और सिर्फ़ हमें है।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" जगताप चाचा की आंखों से सहसा आंसू छलक पड़े____"इस वक्त मुझे किसी बात का होश नहीं है। मुझे बस इतना पता है कि मेरे इन कपूतों ने ऐसा कुकर्म किया है जिसके लिए इन्हें इस धरती पर जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है।"
"इन दोनों के साथ क्या करना है इसका फ़ैसला हम करेंगे।" पिता जी ने शख़्त भाव से कहा____"मगर उससे पहले हम मणि शंकर जी के उस भतीजे से भी जानना चाहते हैं कि उसने इन दोनों का ऐसे काम में साथ क्यों दिया? क्या उसे ज़रा भी इस बात का ख़्याल नहीं रहा था कि इस सबका अंजाम क्या हो सकता है?"
पिता जी की बातें सुन कर जगताप चाचा कुछ न बोले बल्कि गुस्से से डंडे को एक तरफ फेंक दिया। विभोर और अजीत जो कि पहले ही मेरे द्वारा की गई कुटाई से लहू लुहान हो गए थे वो जगताप चाचा के डंडों की मार से फिर से दर्द में कराहने लगे थे। उधर उन दोनों के पीछे दीवार से टिका गौरव अपनी सांसें रोके खड़ा था। डर और घबराहट से उसका बुरा हाल था।
"हमने अपनी तरफ से पूरा प्रयास किया है मणि शंकर जी कि हमारे परिवारों के बीच अच्छे संबंध बने रहें।" पिता जी घूम कर मणि शंकर से मुखातिब हुए____"और दोनों ही परिवारों के बच्चे एक दूसरे से अच्छा बर्ताव करते हुए आपस में मैत्री भाव रखें लेकिन मैत्री भाव का मतलब ये नहीं होता कि किसी एक की मित्रता के लिए दूसरे के साथ इतना बड़ा धोखा या इतना बड़ा कुकर्म किया जाए।"
"ठाकुर साहब, इस बारे में मैं अपने भतीजे का बिलकुल भी पक्ष नहीं लूंगा।" मणि शंकर ने गंभीरता से कहा____"मैं ये भी नहीं कहूंगा कि ये लोग अभी बच्चे हैं क्योंकि बच्चों वाला इन्होंने काम ही नहीं किया है। जो लड़के किसी लड़की अथवा किसी औरत के साथ ऐसे संबंध बनाते फिरते हों वो बच्चे तो हो ही नहीं सकते। इस लिए ना तो मैं अपने भतीजे का पक्ष ले कर ये कहूंगा कि आप इसके अपराधों के लिए इसे क्षमा कर दीजिए और ना ही आपके भतीजों का पक्ष लूंगा। ये सब अपराधी हैं और इनके अपराधों के लिए आप इन्हें जो भी दंड देंगे मुझे स्वीकार होगा।"
मणि शंकर की बात पूरी होते ही एक बार फिर से कमरे में ब्लेड की धार की मानिंद पैना सन्नाटा पसर गया। मैं मणि शंकर के चेहरे को ही अपलक निहारे जा रहा था और समझने की कोशिश कर रहा था कि उसकी बातें उसके चेहरे पर मौजूद भावों से समानता रखती हैं अथवा नहीं?
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Wow, Fantastic Udpate, Bhai, kaafi kuch clear ho gaya he, in tino ka waise bhi aaj nahi to kal yah haal hona tha, lekin abhi bhi kuch nystries saaf nahi huyi he.........
Gaurav ke akele me itna cimag nahi lagta mujhe jo wo itna sab kuch plan kar sake...... main person abhi bhi parde ke pichche hi he.......
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