Awara102030
Mumbai
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Next part kb aayega bro?First story thi bhai...jitna ho sakta tha aur jitna soch sakta tha kiya. Baaki jo rah gaya wo iske next part me milega....
Next part kb aayega bro?First story thi bhai...jitna ho sakta tha aur jitna soch sakta tha kiya. Baaki jo rah gaya wo iske next part me milega....
Kuch kah nahi sakta bhai, pahle se hi do stories running hain. Likhne ka bhi time nahi milta is liye abhi to 2nd part aane ka door door tak chance nahi haiNext part kb aayega bro?
Position | Benifits |
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Winner | 3000 Rupees + Award + 5000 Likes + 30 days sticky Thread (Stories) |
1st Runner-Up | 1500 Rupees + Award + 3000 Likes + 15 day Sticky thread (Stories) |
2nd Runner-UP | 1000 Rupees + 2000 Likes + 7 Days Sticky Thread (Stories) |
3rd Runner-UP | 750 Rupees + 1000 Likes |
Best Supporting Reader | 750 Rupees Award + 1000 Likes |
Members reporting CnP Stories with Valid Proof | 200 Likes for each report |
Nice starting♡ एक नया संसार ♡
अपडेट.......{01}
मेरा नाम विराज है, विराज सिंह बघेल। मुम्बई में रहता हूॅ और यहीं एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी करता हूॅ। कम्पनी में मेरे काम से मेरे आला अधिकारी ही नहीं बल्कि मेरे साथ काम करने वाले भी खुश रहते हैं। सबके सामने हॅसते मुस्कुराते रहने की आदत बड़ी मुश्किल से डाली है मैंने। कोई आज तक ताड़ नहीं पाया कि मेरे हॅसते मुस्कुराते हुए चेहरे के पीछे मैंने ग़मों के कैसे कैसे अज़ाब पाल रखे हैं।
अरे मैं कोई शायर नहीं हूं बस कभी कभी दिल पगला सा जाता है तभी शेरो शायरी निकल जाती है बेतुकी और बेमतलब सी। मेरे खानदान में कभी कोई ग़ालिब पैदा नहीं हुआ। मगर मैं..????न न न न
अच्छा ये ग़ज़ल मैंने ख़ुद लिखी है ज़रा ग़ौर फ़रमाइए.....
ज़िन्दगी भी क्या क्या गुल खिलाती है।
कितने ग़म लिए हाॅथ में मुझे बुलाती है।।
कोई हसरत कोई चाहत कोई आरज़ू नहीं,
मेरी नींद हर शब क्यों ख़्वाब सजाती है।।
ख़ुदा जाने किससे जुदा हो गया हूॅ यारो,
किसकी याद है जो मुझे आॅसू दे जाती है।।
मैंने तो हर सू फक़त अपने क़ातिल देखे,
किसकी मोहब्बत मुझे पास बुलाती है।।
हर रोज़ ये बात पूॅछता हूं मौसमे ख़िज़ा से,
किसकी ख़ुशबू सांसों को मॅहका जाती है।।
हा हा हा हा बताया न मैं कोई शायर नहीं हूं यारो, जाने कैसे ये हो जाता है.?? मैं खुद हैरान हूॅ।
छः महीने हो गए हैं मुझे घर से आए हुए। पिछली बार जब गया था तो हर चीज़ को अपने हिसाब से ब्यवस्थित करके ही आया था। कभी कभी मन में ख़याल आता है कि काश मैं कोई सुपर हीरो होता तो कितना अच्छा होता। हर नामुमकिन चीज़ को पल भर में मुमकिन बना देता मगर ये तो मन के सिर्फ खयाल हैं जिनका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई नाता नहीं। पिछले दो सालों में इतना कुछ हो गया है कि सोचता हूं तो डर लगता है। मैं वो सब याद नहीं करना चाहता मगर यादों पर मेरा कोई ज़ोर नहीं।
माॅ ने फोन किया था, कह रही थी जल्दी आ जाऊॅ उसके पास। बहुत रो रही थी वह, वैसा ही हाल मेरी छोटी बहेन का भी था। दोनो ही मेरे लिए मेरी जान थी। एक दिल थी तो एक मेरी धड़कन। बात ज़रा गम्भीर थी इस लिए मजबूरन मुझे छुट्टी लेकर आना ही पड़ रहा है। इस वक्त मैं ट्रेन में हूॅ। बड़ी मुश्किल से तत्काल का रिज़र्वेशन टिकट मिला था। सफ़र काफी लम्बा है पर ये सफर कट ही जाएगा किसी तरह।
ट्रेन में खिडकी के पास वाली सीट पर बैठा मैं खिड़की के बाहर का नज़ारा कर रहा था। काम की थकान थी और मैं सीट पर लेट कर आराम भी करना चाहता था, इस लिए ऊपर वाले बर्थ के भाई साहब से हाॅथ जोड़ कर कहा कि आप मेरी जगह आ जाइए। भला आदमी था वह तुरंत ही ऊपर के बर्थ से उतर कर मेरी जगह खिड़की के पास बड़े आराम से बैठ गया। मैं भी जल्दी से उसकी जगह ये सोच कर बैठ गया कि वो भाई साहब मेरी जगह नीचे बैठने से कहीं इंकार न कर दे।
पूरी सीट पर लेटने का मज़ा ही कुछ अलग होता है। बड़ा सुकून सा लगा और मैंने अपनी आंखें बंद कर ली। आॅख बंद करते ही बंद आॅखों के सामने वही सब दिखना शुरू हो गया जो न देखना मेरे लिए दुनियां का सबसे कठिन कार्य था। इन कुछ सालों में और कुछ दिखना मानो मेरे लिए कोई ख़्वाब सा हो गया था। इन बंद आॅखों के सामने जैसे कोई फीचर फिल्म शुरू से चालू हो जाती है।
चलिए इन सब बातों को छोंड़िए अब मैं आप सबको अपनी बंद आॅखों में चल रही फिल्म का आॅखों देखा हाल बताता हूॅ।
जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूॅ कि मेरा नाम विराज है, विराज सिंह बघेल। अच्छे परिवार से था इस लिए किसी चीज़ का अभाव नहीं था। कद कठी किसी भी एंगल से छः फीट से कम नहीं है। मेरा जिस्म गोरा है तथा नियमित कसरत करने के प्रभाव से एक दम आकर्षक व बलिस्ठ है। मैंने जूड़ो कराटे एवं मासल आर्ट्स में ब्लैक बैल्ट भी हासिल किया है। ये मेरा शौक था इसी लिए ये सब मैंने सीखा भी था मगर मेरे घर में इसके बारे में कोई नहीं जानता और न ही कभी मैंने उन्हें बताया।
मेरा परिवार काफी बड़ा है, जिसमें दादा दादी, माता पिता बहेन, चाचा चाची, बुआ फूफा, नाना नानी, मामा मामी तथा इन सबके लड़के लड़कियाॅ आदि।
कहने को तो मैं इतने बड़े परिवार का हिस्सा हूं मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। ख़ैर कहानी को आगे बढ़ाने से पहले आप सबको मैं अपने पूरे खानदान वालों का परिचय दे दूॅ।
मेरे दादा दादी का परिवार.....
गजेन्द्र सिंह बघेल (दादा67) एवं इन्द्राणी सिंह बघेल (दादी60)
1, अजय सिंह बघेल (दादा दादी के बड़े बेटे)(50)
2, विजय सिंह बघेल (दादा दादी के दूसरे बेटे)(45)
3, अभय सिंह बघेल (दादा दादी के तीसरे बेटे)(40)
4, सौम्या सिंह बघेल (दादा दादी की बड़ी बेटी)(35)
5, नैना सिंह बघेल (दादा दादी की सबसे छोटी बेटी)(28)
कहानी जारी रहेगी,,,,,,
Nice updateहलाॅकि दो मंजिला विसाल हवेली को बनवाने में भारी खर्चा लगा। घर में जितना रुपया पैसा था सब खतम हो गया बाॅकि का काम करवाने के लिए और पैसों की ज़रूरत पड़ गई। दादा जी ने बड़े पापा से बात की लेकिन बड़े पापा ने कहा कि उनके पास रुपया नहीं है उनका कारोबार में बहुत नुकसान हो गया है। दादा जी को किसी के द्वारा पता चल गया था कि बड़े पापा का कारोबार अच्छा खासा चल रहा है और उनके पास रुपयों का कोई अभाव नहीं है।
बड़े पापा के इस प्रकार झूॅठ बोलने और पैसा न देने से दादा जी बहुत दुखी हुए। मेरे पिता जी ने उन्हें सम्हाला और कहा कि ब्यर्थ ही बड़े भइया से रुपया माॅगने गए थे। हम कोई दूसरा उपाय ढूंढ़ लेंगे।
छोटे चाचा स्कूल में सरकारी शिक्षक थे। उनकी इतनी सैलरी नहीं थी कि वो कुछ मदद कर सकते। मेरे पिता जी को किसी ने बताया कि बैंक से लोंन में रुपया ले लो बाद में ब्याज के साथ लौटा देना।
उस आदमी की इस बात से मेरे पिता जी खुश हो गए। उन्होंने इस बारे में दादा जी से बात की। दादा जी कहने लगे कि कर्ज़ चाहे जैसा भी हो वह बहुत ख़राब होता है और फिर इतनी बड़ी रकम ब्याज के साथ चुकाना कोई गुड्डा गुड्डी का खेल नहीं है। दादा जी ने कहा कि घर का बाकी का बचा हुआ कार्य बाद में कर लेंगे जब फसल से मुनाफ़ा होगा। मगर मेरे पिता जी ने कहा कि हवेली का काम अधूरा नहीं रहने दूंगा, वो हवेली को पूरी तरह तैयार करके ही मानेंगे। इसके लिए अगर कर्ज़ा होता है तो होता रहे वो ज़मीनों में दोगुनी मेहनत करेंगे और बैंक का कर्ज़ चुका देंगे।
दादा जी मना करते रह गए लेकिन पिता जी न माने। सारी काग़ज़ी कार्यवाही पूरी होते ही पिता जी को बैंक से लोंन के रूप में रुपया मिल गया। हवेली का बचा हुआ कार्य फिर से शुरू हो गया। मेरे पिता जी पर जैसे कोई जुनून सा सवार था। वो जी तोड़ मेहनत करने लगे थे। जाने कहां कहां से उन्हें जानकारी हासिल हो जाती कि फला फसल से आजकल बड़ा मुनाफ़ा हो रहा है। बस फिर क्या था वो भी वही फसल खेतों में उगाते।
इधर दो महीने के अन्दर हवेली पूरी तरह से तैयार हो गई थी। देखने वालों की आंखें खुली की खुली रह गईं। हवेली को जो भी देखता दिल खोल कर तारीफ़ करता। दादा जी का सिर शान से उठ गया था तथा उनका सीना अपने इस किसान बेटे की मेहनत से निकले इस फल को देख कर खुशी से फूल कर गुब्बारा हुआ जा रहा था।
हवेली के तैयार होने के बाद दादा जी की अनुमति से पिता जी ने एक बड़े से भण्डारे का आयोजन किया जिसमें सम्पूर्ण गाॅव वासियों को भोज का न्यौता दिया गया। शहर से बड़े पापा और बड़ी माॅ भी आईं थीं।
बड़े पापा ने जब हवेली को देखा तो देखते रह गए। उन्होंने स्वप्न में भी उम्मीद न की थी कि उनका घर कभी इस प्रकार की हवेली में परिवर्तित हो जाएगा। किन्तु प्रत्यक्ष में वे हवेली को देख देख कर कहीं न कहीं कोई कमी या फिर ग़लती निकाल ही रहे थे। बड़ी माॅ का हाल भी वैसा ही था।
हवेली को इस प्रकार से बनाया गया था कि भविष्य में किसी भी भाई के बीच किसी प्रकार का कोई विवाद न खड़ा हो सके। हवेली का क्षेत्रफल काफी बड़ा था। भविष्य में अगर कभी तीनो भाईयों का बॅटवारा हो तो सबको एक जैसे ही आकार और डिजाइन का हिस्सा समान रूप से मिले। हवेली काफी चौड़ी तथा दो मंजिला थी। तीनो भाईयों के हिस्से में बराबर और समान रूप से आनी थी। हवेली के सामने बहुत बड़ा लाॅन था। कहने का मतलब ये कि हवेली ऐसी थी जैसे तीन अलग अलग दो मंजिला इमारतों को एक साथ जोड़ दिया गया हो।
Nice updateबड़े पापा और बड़ी माॅ ज्यादातर शहर में ही रहते। वो लोग तभी आते थे गाॅव जब कोई खास कार्यक्रम होता। उनके कारोबार और उनके पैसों से किसी को कोई मतलब नहीं था। मेरे माता पिता के प्रति उनके मन में हमेशा एक द्वेश तथा नफरत जैसी बात कायम रही। हलाॅकि वो इसका कभी दिखावा नहीं करते थे लेकिन सच्चाई कभी किसी पर्दे की गुलाम बन कर नहीं रहती। वो अपना चेहरा किसी न किसी रूप से लोगों को दिखा ही देती है। दादा जी सब जानते और समझते थे लेकिन बोलते नहीं थे कभी।
मेरे माता पिता के मन में बड़े पापा और बड़ी माॅ के प्रति कभी कोई बुरी भावना या ग़लत विचार नहीं रहा बल्कि वो हमेशा उनका आदर तथा सम्मान ही करते थे। मेरे पिता जी उसी तरह ज़मीनों में खेती करके फसल उगाते थे, अब फर्क ये था कि वो ये सब मजदूरों से करवाते थे। ज़मीनों में बड़े बड़े आमों के बाग़ हो गए थे, साग सब्जियों की भी पैदावार होने लगी थी। खेतों के बीच एक बड़ा सा घर भी बनवा लिया गया था। कहने का मतलब ये कि हर सुविधा हर साधन हो गया था। पहले जहाॅ दो दो बैलों के साथ हल द्वारा खेतों की जुताई होती थी अब वहाॅ ट्रैक्टर द्वारा जुताई होने लगी थी। हमारे पास दो दो ट्रैक्टर हो गए थे। दादा जी के लिए पिता जी ने एक कार भी खरीद दी थी तथा छोटे चाचा जी के लिए एक बुलेट मोटर साइकिल जिससे वे स्कूल जाते थे। दादा दादी बड़े गर्व व शान से रहते थे। मेरे पिता जी से वो बहुत खुश थे।
मगर कौन जानता था कि इस हॅसते खेलते परिवार की खुशियों पर एक दिन एक ऐसा तूफ़ान कहर बन कर बरपेगा कि सब कुछ एक पल में आईने की तरह टूट कर बिखर जाएगा????
अपडेट हाज़िर है दोस्तो, आप सबका सहयोग तथा आप सबकी प्रतिक्रिया का इन्तज़ार रहेगा।
Nice updateअपडेट........ 《03》
अब तक.....
मेरे माता पिता के मन में बड़े पापा और बड़ी माॅ के प्रति कभी कोई बुरी भावना या ग़लत विचार नहीं रहा बल्कि वो हमेशा उनका आदर तथा सम्मान ही करते थे। मेरे पिता जी उसी तरह ज़मीनों में खेती करके फसल उगाते थे, अब फर्क ये था कि वो ये सब मजदूरों से करवाते थे। ज़मीनों में बड़े बड़े आमों के बाग़ हो गए थे, साग सब्जियों की भी पैदावार होने लगी थी। खेतों के बीच एक बड़ा सा घर भी बनवा लिया गया था। कहने का मतलब ये कि हर सुविधा हर साधन हो गया था। पहले जहाॅ दो दो बैलों के साथ हल द्वारा खेतों की जुताई होती थी अब वहाॅ ट्रैक्टर द्वारा जुताई होने लगी थी। हमारे पास दो दो ट्रैक्टर हो गए थे। दादा जी के लिए पिता जी ने एक कार भी खरीद दी थी तथा छोटे चाचा जी के लिए एक बुलेट मोटर साइकिल जिससे वे स्कूल जाते थे। दादा दादी बड़े गर्व व शान से रहते थे। मेरे पिता जी से वो बहुत खुश थे।
मगर कौन जानता था कि इस हॅसते खेलते परिवार की खुशियों पर एक दिन एक ऐसा तूफ़ान कहर बन कर बरपेगा कि सब कुछ एक पल में आईने की तरह टूट कर बिखर जाएगा????
अब आगे.....
"ओ भाई साहब! क्या आप मेरे इस समान को दरवाज़े तक ले जाने में मेरी मदद कर देंगे ?" सहसा किसी आदमी के इस वाक्य को सुन कर मैं अपने अतीत के गहरे समंदर से बाहर आया। मैंने ऊपर की सीट से खुद को ज़रा सा उठा कर नीचे की तरफ देखा।
एक आदमी ट्रेन के फर्स पर खड़ा मेरी तरफ देख रहा था। उसका दाहिना हाॅथ मेरी सीट के किनारे पर था जबकि बाॅया हाॅथ नीचे फर्स पर रखी एक बोरी पर था। मुझे कुछ बोलता न देख उसने बड़े ही अदब से फिर बोला "भाई साहब प्लेटफारम आने वाला है, ट्रेन बहुत देर नहीं रुकेगी यहाॅ और मेरा सारा सामान यहीं रह जाएगा। पहले ध्यान ही नहीं दिया था वरना सारा सामान पहले ही दरवाजे के पास ले जा कर रख लेता।"
उसकी बात सुन कर मुझे पूरी तरह होश आया। लगभग हड़बड़ा कर मैंने अपने बाएं हाॅथ पर बॅधी घड़ी को देखा। घड़ी में दिख रहे टाइम को देख कर मेरे दिलो दिमाग़ में झनाका सा हुआ। इस समय तो मुझे अपने ही शहर के प्लेटफार्म पर होना चाहिए। मैं जल्दी से नीचे उतरा, तथा अपना बैग भी ऊपर से निकाला।
"क्या ये ट्रेन गुनगुन पहुॅच गई ?" फिर मैंने उस आदमी से तपाक से पूॅछा।
"बस पहुॅचने ही वाली है भाई साहब।" उस आदमी ने कहा "आप कृपा करके जल्दी से मेरा ये सामान दरवाजे तक ले जाने में मेरी मदद कर दीजिए।"
"ठीक है, क्या क्या सामान है आपका?" मैंने पूॅछा।
"चार बोरियाॅ हैं भाई साहब और एक बड़ा सा थैला है।" उसने अपने सभी सामानों पर बारी बारी से हाॅथ रखते हुए बताया।
मैंने एक बोरी को एक हाॅथ से उठाया किन्तु भारी लगा मुझे। मैंने उस बोरी को ठीक से उठाते हुए उससे पूछा कि क्या पत्थर भर रखा है इनमें? वह हॅसते हुए बोला नहीं भाई साहब इनमें सब में गेहूॅ और चावल है। पिछली रबी बरसात न होने से हमारी सारी फसल बरबाद हो गई। अब घर में खाने के लिए कुछ तो चाहिए ही न भाई साहब इस लिए ये सब हमें हमारी ससुराल वालों ने दिया है। ससुराल वालों से ये सब लेना अच्छा तो नहीं लगता लेकिन क्या करें मुसीबत में सब करना पड़ जाता है।"
ट्रेन स्टेशन पर पहुॅच ही चुकी थी लगभग, हम दोनों ने मिल कर सीघ्र ही सारा सामान दरवाजे पर रख चुके थे। थोड़ी ही देर में ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुचकर रुक गई। वो आदमी जल्दी से उतरा और मैंने ऊपर से एक एक करके उसका सामान उसे पकड़ाता गया। सारा सामान सही सलामत नीचे उतर जाने के बाद मैं भी नीचे उतर गया। वो आदमी हाॅथ जोड़ कर मुझे धन्यवाद करता रहा। मैं मुस्कुरा कर एक तरफ बढ़ गया।
स्टेशन से बाहर आने के बाद मैंने बस स्टैण्ड जाने के लिए एक आॅटो पकड़ा। लगभग बीस मिनट बाद मैं बस स्टैण्ड पहुॅचा। यहाॅ से बस में बैठ कर निकल लिया अपने गाॅव 'हल्दीपुर'।
हल्दीपुर पहुॅचने में बस से दो घण्टे का समय लगता था। बस में मैं सीट की पिछली पुस्त से सिर टिका कर तथा अपनी दोनो आॅखें बंद करके बैठ गया। आॅख बंद करते ही मुझे मेरी माॅ और बहन का चेहरा नज़र आ गया। उन्हें देख कर आॅखें भर आईं। बंद आॅखों में चेहरे तो और भी नज़र आते थे जो मेरे बेहद अज़ीज़ थे लेकिन मैं उनके लिए अब अज़ीज़ न था।
सहसा तभी बस में कोई गाना चालू हुआ। दरअसल ये बस वालों की आदत होती है जैसे ही बस किसी सफर के लिए निकलती है बस का ड्राइवर गाना बजाना शुरू कर देता है ताकि बस में बैठे यात्रियों का मनोरंजन भी होता रहे।
कहानी जारी रहेगी,,,,,,,
Nice updateमेरी आॅखों में नींद का कहीं दूर दूर तक नामो निशान न था। यही हाल सबका था। मुझे रह रह कर गुड़िया की बात याद आ रही थी कि बड़े पापा और उनके बेटे ने मेरी माॅ और बहन के साथ गंदा सुलूक किया। इन सब बातों से मेरा ख़ून खौल रहा था मगर माॅ की क़सम के चलते मैं कुछ कर नहीं सकता था।
मगर मैं ये भी जानता था कि माॅ की ये क़सम मुझे कुछ करने से अब रोंक नहीं सकती थी क्योंकि इन सब चीच़ों से मेरा सब्र टूटने वाला था। मेरे अंदर की आग को अब बाहर आने से कोई रोंक नहीं सकता था। मैं अब एक ऐसा खेल खेलने का मन बना चुका था जिससे सबकी तक़दीर बदल जानी थी।
दोस्तो अपडेट दे दिया है,,,
आशा करता हूॅ कि आप सबको पसंद आएगा और अगर न पसंद आए तो बेझिझक आप सब अपनी बात कह कर मेरी ग़लतियों तथा कमियों से मुझे अवगत करा दीजिएगा। आप सबकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।
धन्यवाद !!