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Thriller 100 - Encounter !!!! Journey Of An Innocent Girl (Completed)

nain11ster

Prime
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पांचवा किस्सा:- पहला भाग







आह !! आज़ादी की उड़ान. मैंने बहुत कुछ सुन रखा था इस बारे में. पढ़ा भी था, और जो सहर के लोग कभी कभार टकराते उनसे भी सुना था, गांव में लड़कियों को खुद से बहुत कुछ करने की इजाजत नहीं होती, वो अलग बात थी कि आज तक मुझे कभी ऐसा मेहसूस नहीं हुआ था…


मै अपनी मनोदशा क्या बयान करूं. सुनने में अच्छा लग रहा था. मुझे भी अच्छा लग रहा था कि मुझे कुछ छूट मिल गई है. अभी ठीक से सोची भी नहीं थी कि अकेले बाहर जाने का सही मतलब क्या होता है. एक्सपर्ट एडवाइस यानी कि प्राची दीदी को बताई भी नहीं थी ये बात, और ना ही उनसे पूछा था कि अकेले घूमने का क्या मतलब होता है, इतने में मां कमरे में आयी और कहने लगी तैयार हो जा, बाजार से आज सारा सामान तुम्हे ही लाना है.


बाकी सब तो ठीक है लेकिन ये भी ना हुआ किसी को, की चलो ठीक है मार्केटिंग कैसे करते है 2-4 बार साथ ले जाकर दिखा दे, फिर उसके बाद कहे ठीक है अब आगे से मेनका ये खुद कर लेगी..


मै बेचारी बच्ची, आज ही तो अकेले उड़ने की इजाजत मिली थी, और ऐसा लगा जैसे कह रहे हो चल बेटा उड़ जा आकाश में. हां ऐसा ना सोचूं तो क्या सोच लूं, सबके साथ मंदिर गई थी तो मंदिर भी तो बोल सकते थे जाने, की जा बेटा पूजा कर आ. कॉलेज कई बार गई थी तो कह देती कॉलेज तक अकेली जा और चली आना, लेकिन नहीं जा बाजार से सामान ले आना. आज तक किसी के साथ जो काम नहीं करने गई, उसे अकेले बोल रहे थे करने. ऐसा थोड़ा ना होते है कि पहली बार पंख खोले हो और कह दिए चल बेटा अब वहां से उड़ान भरकर आ, जो जगह आज तक हमने तुझे कभी दिखाया नहीं.


ये इत्ती बड़ी 2 मीटर की सामान की लिस्ट थामा दी गई, जबकि उसमे अनाज तो खरीदना ही नहीं था. भईया अपनी गाड़ी से निकल गए थे, पापा की कार में उतना सामान आता नहीं इसलिए मै भी अपनी रेंग रोवर लेकर निकल गई. ओह हां निकालने से पहले हल्का मेकअप, काजल, बिंदी और हाथ में चूड़ियां डालकर निकली थी…


कुछ ही देर में मै वहां किराने की दुकान में पहुंची. चलो एक बात कि राहत थी, यहां बैठकर सामान लेने की वायास्था थी. मैंने भी दुकानदार को अपनी लिस्ट थमाई और सामान निकालने के लिए बोल दी… दुकानदार लिस्ट देखकर एक बार मेरी शक्ल देखा और पूछने लगा… "तुम्हारा नाम क्या है, और किसके यहां से अाई हो"..


मैने भी अपना परिचय दे दिया. हां ठीक है दुकानदार और मेरे बीच थोड़ा फासला था और मै इतना प्यार से ऊंचे सुर में बोली थी कि, 3 बार दुकानदार के पूछने और 3 बार मेरे बताने के बाद भी, उसने चेहरा ऐसा बनाया जैसे उसने कुछ सुना नहीं और हारकर फिर पूछना उचित नहीं समझा, अपना काम करने लगा.


लता की बात कुछ-कुछ सही थी, पता नहीं क्यों मै बात-बात पर चौंक रही थी और थोड़ा डर भी लग रहा था. मै दिल के डर को दूर करने कॉल नकुल को लगा दी. शुक्र है आज फोन बिज़ी नहीं आ रहा था…. "शॉपिंग चल रही है दीदी"… फोन उठाते ही उसने कहा… मैंने भी प्रतिउत्तर में नकीयाते हुई लहराता सा "नकुल" कहने लगी.. मानो कहना चाह रही हूं, अकेले वाली बात सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन बाजार में अकेले सामान खरीदना बहुत रिस्कि काम है.


नकुल:- क्या हुआ परेशान क्यों हो रही हो..


मै:- अकेले बाजार में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा. मुझे डर लग रहा है..


नकुल:- मैंने कहा था ना कंपनी वाली बात..


मै:- अब वहां के खानदान में किसी के घर लड़की नहीं हुई तो मेरी गलती है क्या?


नकुल:- आराम से, आराम से, क्यों इतना चिढ़ रही हो..


मै:- तूने फसाया है, अब मै नहीं जानती तू क्या करेगा, लेकिन अभी अभी अभी तू मेरे पास आएगा बस..


नकुल:- दीदी सब सही तो है, एयरडोप कान में लगाओ और मुझसे बात करती रहो..


मै:- ताकि कल सब बातें करने लगे, अनूप मिश्रा की बेटी ठीक से जवान नहीं हुई और फोन पर चिपकी रहती है…


नकुल:- अच्छा ठीक है अपने बाएं देखो सड़क के उस पार..


मैंने उस पार देखा, नकुल फोन स्पीकर पर डाले हुए था और वहां मेरे घर के सारे लोग मेरी बात सुनकर हंस रहे थे. मै फोन काटकर उन्हें एक बार देखी और लज्जा गई. पापा हंसते हुए मेरे पास पहुंचे, मै अपनी नाकामयाबी पापा में सिमटकर छिपाने लगी.


उनके जब गले लगी तो बता नहीं सकती, कितना राहत कि श्वांस ले रही थी. इस एहसास को मैं बयान नहीं कर सकती थी. भाभी और भैया भी वहां थे. मां मेरे पास पहुंची उन्हें देखकर मै पापा को छोड़कर उनसे सिमट गई. मां हंसती हुई मेरे सर पर हाथ फेरती कहने लगी… "नकुल ने सही ही कहा था. यहां इसकी पूरी खाली दुकान में डर रही है, पता नहीं त्योहार के समय जब दुकान भरी रहती है, तब तेरा क्या होता. सच ही कहा था, हमने मिलकर तुझे पुरा गावर बनाकर रखा था."


उस दुकानदार ने जैसे ही पापा को देखा अपनी जगह छोड़कर वो पापा के पास खड़ा हो गया… "ये आपकी बेटी है अनूप भईया"


पापा:- तुम ऐसे क्यों पूछ रहे गंगा..


दुकानदार:- नहीं भईया इससे मैंने 3 बार पूछा, लेकिन ठीक से बता नहीं पाई…


पापा:- आज थोड़ी घबराई सी थी, इसलिए शायद ठीक से जवाब नहीं दे पाई..


कुछ देर मां पापा दुकानदार से बतियाने लगे और मै खड़ी होकर उनकी बात सुनती रही. नकुल और मनीष भईया दोनो अपनी सवारी को लेकर सहर के ओर निकल गए. पापा ने फिर उन्हें सारा समान निकालकर पैक करने कह दिया और हमे लेकर पास के चाय समोसे की दुकान में चले अाए.


हम सब एक टेबल पर बैठे हुए थे और पापा ने सबके लिए 2 समोसा और मिठाई लगाने कह दिया. इतने में वो दुकानदार गंगा आकर मां और पिताजी को अपने साथ 2 मिनट आने के लिए कहने लगा..


पापा मुझे जबतक नाश्ता करने के लिए बोलकर उनके साथ निकल गए.. मुझे आस पास के लोगों से ज्यादा मतलब नहीं था इसलिए मै भी मोबाइल निकालकर कुछ-कुछ करने लगी. तभी एक लड़का मेरी टेबल पर समोसा और मिठाई लगा गया, जिसके नीचे एक टिश्यू पेपर पर लिखा था… "अब तक जवाब नहीं दी, मुझसे दोस्ती करोगी."


वो पेपर देखकर ही मेरी हिचकी निकलने लगी. मै आस-पास पापा को ढूंढने लगी… और जब पापा कहीं नहीं दिखे तो दबी सी आखों से पास खड़े लड़के को देखने लगी, जो ये संदेश लेकर आया था… मै हिचकी लेती उसे घुर रही थी और वो हंसता हुआ दुकान के काउंटर पर इशारा करने लगा..


मैंने काउंटर पर देखा, सांवला रूप, सलोना चेहरा, छरहरा बदन, बड़ी बड़ी सी आखें, और मेरी ओर देखकर इतने प्यार से मुस्कुरा रहा था, मानो खींच रहा हो अपनी ओर. मै यहां पूरी तरह डरी थी, लेकिन उसे देखकर एक पल के लिए मेरी नजर ठहर गई और फिर मैंने अपने नजरो को उसपर से हटा लिया… "दीदी पानी पी लो, आपकी हिचकी बंद हो जाएगी"…


मेरी हिचकी तो पहले से ही काउंटर वाले लड़के को देखकर बंद हो गई थी, फिर मै पास खड़े लड़के को घुरकर देखने लगी… "ये क्या है".. मैंने गले को 2 बार और खरासा लेकिन फिर भी आवाज़ ठीक से नहीं निकली. एक ओर मां पापा का टेंशन और ऊपर से ये मेरी घबराई सी आवाज. मैंने थोड़ा ध्यान लगाया और आंखो मै गुस्सा लाते… "ये सब क्या है, यहां होटल में आने वाले के साथ ऐसे ही करते हो क्या? रुको मैं ये पेपर अभी अपने पापा को दिखाती हूं, फिर तुम सबकी अक्ल ठिकाने आएगी.. पापा, पापा"..



मै जोर से चीखने लगी, और इतने में पापा वहां आ गए. पापा तो बाद में पहुंचे पहले तो लोगो का वहां भिड़ लगने लगा.. कुछ लड़के बेचारी लड़की को सहारा देने तुरंत पहुंच रहे थे, तो कुछ बुजुर्ग पूछने में लगे हुए थे कि "क्या हुआ बेटी"..


इतने में मां और पिताजी भी भागते हुए पहुंच गए.. "क्या हुआ मेनका?".. आते ही उन्होंने पूछा. मेरे साथ तो सांप छूछंदर वाली कहानी हो गई. दोस्तो वाली बात बता देती तो यहां इतना बवाल होता की उसकी बस कल्पना ही की जा सकती थी, नहीं बताती तो उस लड़के मन बढ़ जाता, चिल्लाई पापा को बुलाई लेकिन कुछ कहा नहीं..


कुछ सूझ नहीं रहा था, तभी खुद को शांत करती, मां और पापा को अपने साथ आने के लिए कही. दोनो को किनारे ले जाती हुई कहने लगी… "पापा वो काउंटर पर जो लड़का बैठा है ना, वो मेरी सहेली को लेटर भेजकर पूछता है.. क्या मुझसे दोस्ती करोगे"…


गांव की लड़की को छेड़ा, बात सुनकर ही पापा आग बबूला हो गए. मुझे क्या पता था हंगामा सहेली के नाम से भी हो जाता है. सूक्र है मां साथ थी. वो मेरे सर पर एक हाथ मारती हुई कहने लगी… "तुझमें अक्ल है की नहीं. अच्छा तू जा वहां नाश्ता कर, हम काम खत्म करके आते है फिर उसे देख लेंगे"…


मै चुपचाप आकर अपने टेबल पर बैठ गई. मैं दोनो लड़के के चेहरे के भाव लेने के लिए अपना चस्मा आंखो पर चढ़ा ली और थोड़ी सी मुंडी घुमा कर उन्हें देखने लगी. मैंने इतने ढीट लड़के आज तक नहीं देखे थे. दोनो को पता था कि मैंने पापा से उनकी शिकायत की है. एक तो कॉलेज का लड़का था, जिसने मुझे पत्री भेजी थी. दूसरा उसका संदेश वाहक जिसके सामने मैंने पापा को बुलाया, धमका तक दिया की पापा से शिकायत करूंगी. इतना करने के बावजूद भी ढीट की परिभाषा था वो मेरे कॉलेज का लड़का. वो मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रहा था, और संदेशवाहक लड़के को पकड़े हुए कुछ बातें कर रहा था..


हालांकि वो संदेशवाहक थोड़ा डारा हुआ लग रहा था, लेकिन दूसरे लड़के के चेहरे पर तो डर नाम का कोई भाव ही नहीं था, उल्टा उसे शायद पता चल गया कि मैं उसके ओर देख रही हूं… सामने मेन्यू का बड़ा सा ब्लैक बोर्ड लगा था, उसपर छापे हर आयटम की लिस्ट को मिटा दिया… और मेरे ओर देखते हुए ही अपने साथ वाले लड़के से कुछ कहा.


उसकी बात सुनकर तो जैसे उस लड़के की आखें फटी रह गई हो, चेहरे की हवाइयां उड़ गई हो. तभी वो मेरे कॉलेज का लड़का, बिना मुझ पर से नजर हटाए अपने दोस्त को एक थप्पड़ मारा. वो लड़का भी खीसियाकर चौक उठाया और बरे बरे अक्षरों में लिख दिया… "आज मेरे दोस्त के आने की खुशी में एक समोसा के साथ एक समोसा मुफ्त. सब लोग खाइए और दिल से दुआ देते जाइए"..


मेरी हिचकी आना लाजमी था. मै एक घूंट पानी भी पी रही थी और तिरछी नजरो से वो लिखा हुआ भी पढ़ रही थी. तभी मां और पापा वहां पहुंच गए, उन्होंने इशारों में उस लड़के को बुलाया.


सच कहूं तो इस वक़्त मेरी हालत ठीक वैसी ही थी जैसी बिना पानी के छटपटाती हुई मछली. मेरे पाऊं में तो जैसे वाइब्रेटर फिट हो गए थे, दोनो हाथ से घुटने को दबा रही थी लेकिन पाऊं था कि रुकने का नाम ही ना ले. इतने में वो लड़का भी हमारे पास पहुंच गया, और हिम्मत तो जैसे कूट-कूट कर उसके अंदर भर गया हो. आकर ठीक मेरे पास खड़ा हो गया.. डर के मारे मेरे माथे से पसीना आने लगा. बार-बार यही ख्याल आ रहा था, जो खुल्लम खुल्ला बोर्ड पर इतने बड़े अक्षरों में लिखवा सकता था वो क्या पता मुंह खोलने पर क्या बोल दे… हेय भगवान, हेय भगवान, बस इतना ही चल रहा था मेरे अंदर…


पापा थोड़े कड़क लहजे में पूछने लगे… "मै ये क्या सुन रहा हूं रवि"..


रवि बड़े ही शालीनता से… "क्या हो गया अंकल"


पापा:- मेनका यही है ना जो तुम्हारी सहेली को छेड़ रहा था..


मै उंगलियों में उंगलियां फसाकर, अपनी हथेली मसलती हुई बस हां में अपना सर हिला दी… जैसे ही मैंने अपनी सहमति दी, वो लड़का रवि कहने लगा… "अंकल मेनका से पूछिए, मैंने इसकी कौन सी सहेली को छेड़ा है. एक इसकी दोस्त है नीतू और दूसरी लता, बेफिक्र होकर कहो फोन लगाने और पूछने. किसी ने हां कह दिया तो आपका जूता मेरा सर"..
 

nain11ster

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पांचवा किस्सा:- दूसरा भाग





मुझे लगा मामला कहीं फंस ना जाए इसलिए मै हड़बड़ा कर कहने लगी… "तुमने नहीं लिखकर भेजा था… क्या मुझसे दोस्ती करोगी"..


मां पिताजी के सामने उससे सीधा बोलने के लिए भी मैंने कितनी हिम्मत जुटाई थी. उसे तो देखो, मेरे मां पापा के सामने ही मुझे देखकर हसने लगा और मेरे ओर देखते हुए अपने सर पर हाथ रखकर ऐसे हंस रहा था, मानो अपनी आखों से ही मुझे बेवकूफ कहने की कोशिश कर रहा हो…


पापा:- क्या हुआ, मेनका की बात पर ऐसे पागलों कि तरह हंस क्यों रहे हो?


रवि:- अंकल आप तो जानते है, मै यहां केवल अपने पापा के मदद के लिए गांव में हूं. सुनिए अंकल मेरी दीदी जब अपने बर्थडे पर दोस्तो को इन्वाइट करतीं है, तो उसमें लड़का या लड़की में बेहदभाव नहीं होता… दोस्त मतलब दोस्त होते है.. लेकिन जानते है आपको क्यों बता रहा हूं ये बात, क्योंकि आप पढ़े लिखे और सुलझे लोग है, आप दोस्त मतलब दोस्त ही समझेंगे. लेकिन यहां किसी गांव वाले को बोल दूं ना मेरी दीदी की दोस्ती लड़को से है, तो आपको पता है… अब आप ही बताइए जिस जगह के लोग अपने दिमाग में 100 गंदगी लिए रहते है, ऐसे माहौल में मै किसी लड़की से ऐसा पूछ सकता हूं क्या?

हां एक किसी लड़की को मैंने सिर्फ इतना कहा था कि हम साथ पढ़ते है, इसलिए हम केवल दोस्त है. और मेरे लिए दोस्त मतलब दोस्त होता है, फिर मै लड़का और लड़की में फर्क नहीं समझता. सुबह से शाम तक तुम्हारा काम करूंगा तो शाम को घर में नाश्ता भी करवाना होगा.. मै तुम्हारे काम से कहीं बाहर जाऊंगा तो तुम्हे बाइक में पेट्रोल भरवाना होगा.. 2 बजे रात में भी कहोगी तो दोस्त होने के नाते मै तुम्हारे दरवाजा पर खड़ा रहूंगा… लेकिन कभी भी मुझसे गांव के लड़के वाली दोस्ती समझी ना, जो कहते दोस्त है और मिलते है किसी कोने में, तो मै गला घोंटा दूंगा तुम्हारा…

मै तुम्हारे साथ चलूंगा तो तुम्हारे पापा के सामने भी तुम्हारे साथ चलता रहूंगा, क्योंकि मेरे मन में खोंट नही. बस हम लड़का और लड़की है, इस बात का ख्याल रखूंगा और हम लहज़े से चलेंगे या साथ में घूमेंगे, ताकि लोगों को भी गलतफहमी ना हो.. क्योंकि हम जहां रहते है वहां के कल्चर का भी सम्मान करना पड़ता है..

हां इतनी बात मैंने एक लड़की को कही थी. अब उसने मेनका के क्या कान भरे वो मै नहीं जानता, आप फोन लगाकर उस लड़की से भी पूछ सकते है. मेनका ने जो बताया, उस घटना की सच्चाई मैंने सच-सच बताया है… अब आप चाहें तो इसके लिए थप्पड़ मार लीजिए. मुझे भी गांव के दूसरे लड़के की तरह समझ सकते है, चाहे तो पापा से शिकायत भी कर सकते है, वो आपकी समझदारी और फैसले पर निर्भर करता है. क्योंकि पूरे गांव को पता है कि आप कितने समझदार है और अपनी सलाह से ना जाने कितने भटके लोगों को सही रास्ते पर ले आए है…


मुझे तो हलवाई लगा ये. मां और पापा को तो पुरा चासनी में ही डूबा दिया. मुझे तो पापा के चेहरे से साफ दिख भी रहा था कि वो खुद में कितना प्राउड टाइप फील कर रहे है और ये ढीट, बेशर्म, बार-बार मेरे ओर देखकर मुस्कुरा भी रहा था…


पापा:- नहीं फिर भी किसी लड़की को दोस्ती के लिए कहना..


रवि:- अंकल मैंने उस लड़की को समझाया था कि दोस्त क्या होता है, दोस्ती के लिए तो उसने पूछा था.


मां:- आपी भी ना बच्चो कि बात में कितना रुचि लेने लगे हो… हमारी मेनका का दोस्त नहीं है क्या..


पाप:- कौन है वो..


मां:- नकुल है और कौन है.. दोनो बचपन से ऐसे साथ रहे है कि कभी इस ओर ख्याल नहीं गया… रवि ने उस लड़की को सही समझाया है… कोई बात नहीं है रवि, तुम जाओ.


ये लड़का तो मेरे नकुल का भी बाप था. साला कैसे बात को घुमा दिया. कोई अपनी बातो में इतना कॉन्फिडेंट कैसे हो सकता है.. अपने झूट पर कितना विश्वास का तड़का लगा गया. प्रतिक्रिया में अंदर से इतना ही निकला… "उफ्फ, इस लड़के ने तो आज पक्का मेरा 1 किलो खून सूखा दिया होगा."


मुझे विश्वास हो गया कि मैंने पापा से ये भी कहा होता ना की इसने मुझसे ही 3 बार दोस्ती करने के लिए पूछा था, तो भी नतीजा में कोई बदलाव नहीं होना था. मैंने भी सभी बातो को दरकिनार करते हुए अपने समोसे और मिठाई पर कन्सन्ट्रेट करने लगी… कुछ देर बाद हम लोग वापस किराना दुकान में थे. चिपकू कहीं का, मेरे पीछे किराना दुकान तक आ गया… हमारा सारा सामान पैक था, उसे रवि और उसका दोस्त गाड़ी में रखने लगा..


तभी मां ने पापा के कान में कुछ कहा और पापा ने उस किराना दुकानदार को इशारे में कुछ समझाया… वो अपने मोबाइल से कॉल लगाया और दुकान के पीछे से एक लेडी निकलकर आयी. वो लेडी मां को अपने साथ ले जाने लगी तब पापा ने मुझे भी कहा तू भी चली जा मां के साथ.


मुझे की करना था, पापा के कहने पर मै भी चल दी. दुकान के पीछे ही उनका बड़ा सा मकान था. नीचे तकरीबन 6000 स्क्वेयर फीट का गोदाम बना हुआ था और पीछे जाते के साथ ही बाएं ओर से ऊपर जाने की सीढ़ियां बनी थी, जिसके ऊपर के फ्लोर पर रहने के लिए पुरा मकान बना हुआ था..


मै पहली बार ऊपर आ रही थी. इसका घर तो बिल्कुल किसी सहर के घर जैसा था. नीचे पुरा मार्बल के फ्लोर, चारो ओर पुरा व्यवस्थित कमरे की बनावट, साफ सफाई इतनी की मन प्रसन्न हो जाए. मेरी माते श्री आते ही सीधा बाथरूम में घुस गई और मै वहीं खुली सी जगह में बाहर एक कुर्सी पर बैठ गई..


मै जैसे ही वहां बैठी, वो रवि ठीक मेरे सामने आकर बैठ गया…. "हेल्लो मेनका"..


मै, इधर-उधर नजर दौरती…. "तुम आज क्या मुझे पागल बनाने की कसम खाकर आए हो, देखो मै बहुत इरिटेट हो रही हूं"…


रवि:- मम्मी मेरी दोस्त आयी है और आप ने उसे चाय के लिए भी नहीं पूछी..


रवि जब ये बात कह रहा था, तभी मां बाहर निकल कर आयी. जैसे ही रवि ने मां को देखा, तुरंत उनके पास पहुंचते…."आंटी, अंकल ने कहा है मेनका के फोन से तुरंत भाभी को कॉल लगा लीजिए, कुछ जरूरी बात करनी है शायद"..


मां रवि की बात सुनकर मेरी ओर देखी और मै उठकर कॉल लगती हुई कहने लगी "चलो मां"..


रवि:- ऐसे कैसे चलो मां, गांव जाकर आंटी कहेंगी तुम्हारे दोस्त के घर गई और चाय के लिए भी नहीं पूछा… क्यों आंटी..


मां:- अरे ना रे रवि हम फिर कभी चाय पी लेंगे, घर पर कोई नहीं है. वैसे भी अब मेनका ही आएगी मार्केटिंग करने, तो तू आराम से इसे चाय पिलाते रहना, अभी हमे जाने दे…


रवि:- ठीक है आंटी जैसा आपकी मर्जी, बस गांव में मेनका से झगड़ा मत कीजिएगा की कैसे तुम्हारे साथ के पढ़ने वाले दोस्त है…


क्या है ये सब. छोटे-छोटे तूफान दो ना जिंदगी में भगवान. 15 साल की उम्र तक तो गांव की दुनिया अलग थी, तो उसे वैसे ही रहने दो ना. या फिर एक-एक करके बताना था ना कि मेनका तुम्ही ऐसा सोच रही, लेकिन ये भ्रम केवल तुम्हारा अपना पाला है, ना तो तुम्हारे घर के लोगों ने बताया और ना ही पड़ोस के लोगों ने कुछ कहा, बस खुद से ही बहुत चीजों कि गलत समीक्षा करे बैठी हो.


आज का दिन ही मेरे लिए मिथ ब्रेक दिन कहा जाए तो गलत नहीं होगा. कुछ कुछ चीजें समझ में आ रही थी और कुछ भ्रम भी टूट रहे थे. मां रवि की बात पर हंसती हुई चल दी वहां से. मै जाते हुए पीछे मुड़कर उसे ही देख रही थी. बहुत ही ज्यादा सौतन था. उसे देखते हुए अपने चेहरे पर किसी तरह की भावना नहीं आने दी, लेकिन जैसे ही मै आगे मुड़ी, पता नहीं क्यों उसके बारे में सोचकर ही मुस्कुराने लगी… ढीट, जिद्दी और सौतन..


मै पुरा सामान लेकर गांव चली आयी, लेकिन मेरे ख्यालों में रवि ही था. जब वो पास था, तब तो मुझे पुरा डारा दिया था. परेशान करने कि हदें पार कर दी, लेकिन अब जब उसकी हरकतें याद आ रही थी, मेरे चेहरे पर मुस्कान छा रही थी. बहुत ज्यादा ही मुस्कान… पता नहीं क्यों लेकीन पहली बार मै किसी लड़के के बारे में इतना सोच रही थी…


ज्यादा सोचना भटकाव है, इसलिए मैंने भी अपने ध्यान को पूर्ण रूप से किताबों में उलझा सा लिया. रात के 8 बजे के करीब भईया और भाभी दोनो ही लौट रहे थे. दोनो के चेहरे बता रहे थे कि कितना थके हुए थे, साथ में कुछ आभास सा हुआ की दोनो किसी बात को लेकर काफी परेशान से थे..


मां पिताजी के साथ उन लोगो की बातचीत चल रही थी. मै जब उनके करीब पहुंची तब पापा रमन, प्रवीण और माखन चाचा का नाम ले रहे थे.. बात क्या थी मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे पहुंचने के साथ ही सब मेरे विषय में बात करने लगे…


मेरे पहले दिन के अनुभव के बारे में सबको ज्ञात था और उसी पर बात करते हुए हंस भी रहे थे और खाना भी खा रहे थे. मै बेचारी सबके लिए खाना परोस रही थी तो वहां से जा भी नहीं सकती थी…


बात चलते-चलते फिर रवि पर आ गई. रवि की बात जैसे ही शुरू हुई, मां का ध्यान आज दिन की मेरी बातों पर चला गया… सब लोग जब चले गए तब मां मेरे पास आराम से बैठ गई और मुझे खिलाने लगी.


खाने के बाद जैसे ही मै बर्तन साफ करने के लिए खड़ी हुई, मां मेरा हाथ पकड़कर अपने पास बिठाति… "कोई लड़का तेरी दोस्त को लेटर देगा तो ये बात तुम पापा को बताओगी"…


"मां, मै फिर क्या करूंगी"… मैंने मासूमियत से पूछा..


मां मेरा सर अपने गोद में रखकर मेरे गालों पर हाथ फेरती… "ये सब छोटी-छोटी बातें है मेनका. हां लेकिन इन छोटी बातो को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए. पहले छोटे स्तर से सुलझाने को कोशिश करो. उस लड़के को साफ सब्दो में खुद से जाकर बोल दो. इन लड़को को कुछ सोचने की हिम्मत तब आती है, जब हम ख़ामोश रह जाते है.

अपनी खामोशी को तोड़ना सीखो. फिर तुम खुद समझ जाओगी कौन सी बात पापा को बतानी है, कौन सी बात मम्मी को, कौन सी बात नकुल को और कौन सी बात भाभी को. जब तुम खुद से सब कुछ समझोगी, तो छोटी बड़ी परेशानियों का हल निकालना आसान हो जाएगा, वरना हर वक़्त तुम्हारी नजर किसी ना किसी सहारे को ढूंढ़ती रहेगी. समझ गई…


मै:- हां समझ गई मां.. वैसे मां आप सब आज इतना परेशान क्यों है?


मां:- ये इस घर और गांव की समस्या है बेटी, हमे ही इसे सारी उम्र देखना है. तुम बस अपने पढ़ाई में ध्यान दो.


मै:- क्या ये मेरा घर नहीं है ? हुंह ! मुझे अच्छा नहीं लगा ये…


मां:- कुछ अंदरुनी बातें है बेटा जो तुम्हारे ना जानना ही अच्छा है. गांव और गांव की गन्दी राजनीति से जितना दूर रखो खुद को उतना अच्छा होगा. बाकी एक ही बात याद रखना, किसी को छेड़ो नहीं, और कोई यदि छेड़े तो उसे फिर कभी छोड़ना मत. क्योंकि एक बार की चुप्पी उम्र भर का दर्द होता है..


मां किस ओर इशारे कर रही थी वो तो मुझे पता नहीं था, लेकिन कुछ तो पीठ पीछे लोग इनके साथ बुरा कर रहे थे, जो सबके चेहरे उतरे हुए और चिंता में थे. मै शायद बहुत ही छोटी थी इन बड़ों के मामले को सुलझाने में, लेकिन दिल में एक कसक तो उठती ही है कि घर में कौन सी समस्या चल रही है जिस वजह से सबके चेहरे उतरे हुए है.. कहीं रमन, प्रवीण और माखन चाचा को लेकर तो कोई बात नहीं.


मेरे छोटे से दिमाग में कुछ बातो के ओर ध्यान भटका तो रहे थे, परन्तु उन बातों का कोई आधार नहीं था इसलिए मैंने अपने मन की शंका को अंदर ही दबाकर अपने काम को ही करने का फैसला किया…
 

aman rathore

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पांचवा किस्सा:- पहला भाग







आह !! आज़ादी की उड़ान. मैंने बहुत कुछ सुन रखा था इस बारे में. पढ़ा भी था, और जो सहर के लोग कभी कभार टकराते उनसे भी सुना था, गांव में लड़कियों को खुद से बहुत कुछ करने की इजाजत नहीं होती, वो अलग बात थी कि आज तक मुझे कभी ऐसा मेहसूस नहीं हुआ था…


मै अपनी मनोदशा क्या बयान करूं. सुनने में अच्छा लग रहा था. मुझे भी अच्छा लग रहा था कि मुझे कुछ छूट मिल गई है. अभी ठीक से सोची भी नहीं थी कि अकेले बाहर जाने का सही मतलब क्या होता है. एक्सपर्ट एडवाइस यानी कि प्राची दीदी को बताई भी नहीं थी ये बात, और ना ही उनसे पूछा था कि अकेले घूमने का क्या मतलब होता है, इतने में मां कमरे में आयी और कहने लगी तैयार हो जा, बाजार से आज सारा सामान तुम्हे ही लाना है.


बाकी सब तो ठीक है लेकिन ये भी ना हुआ किसी को, की चलो ठीक है मार्केटिंग कैसे करते है 2-4 बार साथ ले जाकर दिखा दे, फिर उसके बाद कहे ठीक है अब आगे से मेनका ये खुद कर लेगी..


मै बेचारी बच्ची, आज ही तो अकेले उड़ने की इजाजत मिली थी, और ऐसा लगा जैसे कह रहे हो चल बेटा उड़ जा आकाश में. हां ऐसा ना सोचूं तो क्या सोच लूं, सबके साथ मंदिर गई थी तो मंदिर भी तो बोल सकते थे जाने, की जा बेटा पूजा कर आ. कॉलेज कई बार गई थी तो कह देती कॉलेज तक अकेली जा और चली आना, लेकिन नहीं जा बाजार से सामान ले आना. आज तक किसी के साथ जो काम नहीं करने गई, उसे अकेले बोल रहे थे करने. ऐसा थोड़ा ना होते है कि पहली बार पंख खोले हो और कह दिए चल बेटा अब वहां से उड़ान भरकर आ, जो जगह आज तक हमने तुझे कभी दिखाया नहीं.


ये इत्ती बड़ी 2 मीटर की सामान की लिस्ट थामा दी गई, जबकि उसमे अनाज तो खरीदना ही नहीं था. भईया अपनी गाड़ी से निकल गए थे, पापा की कार में उतना सामान आता नहीं इसलिए मै भी अपनी रेंग रोवर लेकर निकल गई. ओह हां निकालने से पहले हल्का मेकअप, काजल, बिंदी और हाथ में चूड़ियां डालकर निकली थी…


कुछ ही देर में मै वहां किराने की दुकान में पहुंची. चलो एक बात कि राहत थी, यहां बैठकर सामान लेने की वायास्था थी. मैंने भी दुकानदार को अपनी लिस्ट थमाई और सामान निकालने के लिए बोल दी… दुकानदार लिस्ट देखकर एक बार मेरी शक्ल देखा और पूछने लगा… "तुम्हारा नाम क्या है, और किसके यहां से अाई हो"..


मैने भी अपना परिचय दे दिया. हां ठीक है दुकानदार और मेरे बीच थोड़ा फासला था और मै इतना प्यार से ऊंचे सुर में बोली थी कि, 3 बार दुकानदार के पूछने और 3 बार मेरे बताने के बाद भी, उसने चेहरा ऐसा बनाया जैसे उसने कुछ सुना नहीं और हारकर फिर पूछना उचित नहीं समझा, अपना काम करने लगा.


लता की बात कुछ-कुछ सही थी, पता नहीं क्यों मै बात-बात पर चौंक रही थी और थोड़ा डर भी लग रहा था. मै दिल के डर को दूर करने कॉल नकुल को लगा दी. शुक्र है आज फोन बिज़ी नहीं आ रहा था…. "शॉपिंग चल रही है दीदी"… फोन उठाते ही उसने कहा… मैंने भी प्रतिउत्तर में नकीयाते हुई लहराता सा "नकुल" कहने लगी.. मानो कहना चाह रही हूं, अकेले वाली बात सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन बाजार में अकेले सामान खरीदना बहुत रिस्कि काम है.


नकुल:- क्या हुआ परेशान क्यों हो रही हो..


मै:- अकेले बाजार में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा. मुझे डर लग रहा है..


नकुल:- मैंने कहा था ना कंपनी वाली बात..


मै:- अब वहां के खानदान में किसी के घर लड़की नहीं हुई तो मेरी गलती है क्या?


नकुल:- आराम से, आराम से, क्यों इतना चिढ़ रही हो..


मै:- तूने फसाया है, अब मै नहीं जानती तू क्या करेगा, लेकिन अभी अभी अभी तू मेरे पास आएगा बस..


नकुल:- दीदी सब सही तो है, एयरडोप कान में लगाओ और मुझसे बात करती रहो..


मै:- ताकि कल सब बातें करने लगे, अनूप मिश्रा की बेटी ठीक से जवान नहीं हुई और फोन पर चिपकी रहती है…


नकुल:- अच्छा ठीक है अपने बाएं देखो सड़क के उस पार..


मैंने उस पार देखा, नकुल फोन स्पीकर पर डाले हुए था और वहां मेरे घर के सारे लोग मेरी बात सुनकर हंस रहे थे. मै फोन काटकर उन्हें एक बार देखी और लज्जा गई. पापा हंसते हुए मेरे पास पहुंचे, मै अपनी नाकामयाबी पापा में सिमटकर छिपाने लगी.


उनके जब गले लगी तो बता नहीं सकती, कितना राहत कि श्वांस ले रही थी. इस एहसास को मैं बयान नहीं कर सकती थी. भाभी और भैया भी वहां थे. मां मेरे पास पहुंची उन्हें देखकर मै पापा को छोड़कर उनसे सिमट गई. मां हंसती हुई मेरे सर पर हाथ फेरती कहने लगी… "नकुल ने सही ही कहा था. यहां इसकी पूरी खाली दुकान में डर रही है, पता नहीं त्योहार के समय जब दुकान भरी रहती है, तब तेरा क्या होता. सच ही कहा था, हमने मिलकर तुझे पुरा गावर बनाकर रखा था."


उस दुकानदार ने जैसे ही पापा को देखा अपनी जगह छोड़कर वो पापा के पास खड़ा हो गया… "ये आपकी बेटी है अनूप भईया"


पापा:- तुम ऐसे क्यों पूछ रहे गंगा..


दुकानदार:- नहीं भईया इससे मैंने 3 बार पूछा, लेकिन ठीक से बता नहीं पाई…


पापा:- आज थोड़ी घबराई सी थी, इसलिए शायद ठीक से जवाब नहीं दे पाई..


कुछ देर मां पापा दुकानदार से बतियाने लगे और मै खड़ी होकर उनकी बात सुनती रही. नकुल और मनीष भईया दोनो अपनी सवारी को लेकर सहर के ओर निकल गए. पापा ने फिर उन्हें सारा समान निकालकर पैक करने कह दिया और हमे लेकर पास के चाय समोसे की दुकान में चले अाए.


हम सब एक टेबल पर बैठे हुए थे और पापा ने सबके लिए 2 समोसा और मिठाई लगाने कह दिया. इतने में वो दुकानदार गंगा आकर मां और पिताजी को अपने साथ 2 मिनट आने के लिए कहने लगा..


पापा मुझे जबतक नाश्ता करने के लिए बोलकर उनके साथ निकल गए.. मुझे आस पास के लोगों से ज्यादा मतलब नहीं था इसलिए मै भी मोबाइल निकालकर कुछ-कुछ करने लगी. तभी एक लड़का मेरी टेबल पर समोसा और मिठाई लगा गया, जिसके नीचे एक टिश्यू पेपर पर लिखा था… "अब तक जवाब नहीं दी, मुझसे दोस्ती करोगी."


वो पेपर देखकर ही मेरी हिचकी निकलने लगी. मै आस-पास पापा को ढूंढने लगी… और जब पापा कहीं नहीं दिखे तो दबी सी आखों से पास खड़े लड़के को देखने लगी, जो ये संदेश लेकर आया था… मै हिचकी लेती उसे घुर रही थी और वो हंसता हुआ दुकान के काउंटर पर इशारा करने लगा..


मैंने काउंटर पर देखा, सांवला रूप, सलोना चेहरा, छरहरा बदन, बड़ी बड़ी सी आखें, और मेरी ओर देखकर इतने प्यार से मुस्कुरा रहा था, मानो खींच रहा हो अपनी ओर. मै यहां पूरी तरह डरी थी, लेकिन उसे देखकर एक पल के लिए मेरी नजर ठहर गई और फिर मैंने अपने नजरो को उसपर से हटा लिया… "दीदी पानी पी लो, आपकी हिचकी बंद हो जाएगी"…


मेरी हिचकी तो पहले से ही काउंटर वाले लड़के को देखकर बंद हो गई थी, फिर मै पास खड़े लड़के को घुरकर देखने लगी… "ये क्या है".. मैंने गले को 2 बार और खरासा लेकिन फिर भी आवाज़ ठीक से नहीं निकली. एक ओर मां पापा का टेंशन और ऊपर से ये मेरी घबराई सी आवाज. मैंने थोड़ा ध्यान लगाया और आंखो मै गुस्सा लाते… "ये सब क्या है, यहां होटल में आने वाले के साथ ऐसे ही करते हो क्या? रुको मैं ये पेपर अभी अपने पापा को दिखाती हूं, फिर तुम सबकी अक्ल ठिकाने आएगी.. पापा, पापा"..



मै जोर से चीखने लगी, और इतने में पापा वहां आ गए. पापा तो बाद में पहुंचे पहले तो लोगो का वहां भिड़ लगने लगा.. कुछ लड़के बेचारी लड़की को सहारा देने तुरंत पहुंच रहे थे, तो कुछ बुजुर्ग पूछने में लगे हुए थे कि "क्या हुआ बेटी"..


इतने में मां और पिताजी भी भागते हुए पहुंच गए.. "क्या हुआ मेनका?".. आते ही उन्होंने पूछा. मेरे साथ तो सांप छूछंदर वाली कहानी हो गई. दोस्तो वाली बात बता देती तो यहां इतना बवाल होता की उसकी बस कल्पना ही की जा सकती थी, नहीं बताती तो उस लड़के मन बढ़ जाता, चिल्लाई पापा को बुलाई लेकिन कुछ कहा नहीं..


कुछ सूझ नहीं रहा था, तभी खुद को शांत करती, मां और पापा को अपने साथ आने के लिए कही. दोनो को किनारे ले जाती हुई कहने लगी… "पापा वो काउंटर पर जो लड़का बैठा है ना, वो मेरी सहेली को लेटर भेजकर पूछता है.. क्या मुझसे दोस्ती करोगे"…


गांव की लड़की को छेड़ा, बात सुनकर ही पापा आग बबूला हो गए. मुझे क्या पता था हंगामा सहेली के नाम से भी हो जाता है. सूक्र है मां साथ थी. वो मेरे सर पर एक हाथ मारती हुई कहने लगी… "तुझमें अक्ल है की नहीं. अच्छा तू जा वहां नाश्ता कर, हम काम खत्म करके आते है फिर उसे देख लेंगे"…


मै चुपचाप आकर अपने टेबल पर बैठ गई. मैं दोनो लड़के के चेहरे के भाव लेने के लिए अपना चस्मा आंखो पर चढ़ा ली और थोड़ी सी मुंडी घुमा कर उन्हें देखने लगी. मैंने इतने ढीट लड़के आज तक नहीं देखे थे. दोनो को पता था कि मैंने पापा से उनकी शिकायत की है. एक तो कॉलेज का लड़का था, जिसने मुझे पत्री भेजी थी. दूसरा उसका संदेश वाहक जिसके सामने मैंने पापा को बुलाया, धमका तक दिया की पापा से शिकायत करूंगी. इतना करने के बावजूद भी ढीट की परिभाषा था वो मेरे कॉलेज का लड़का. वो मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रहा था, और संदेशवाहक लड़के को पकड़े हुए कुछ बातें कर रहा था..


हालांकि वो संदेशवाहक थोड़ा डारा हुआ लग रहा था, लेकिन दूसरे लड़के के चेहरे पर तो डर नाम का कोई भाव ही नहीं था, उल्टा उसे शायद पता चल गया कि मैं उसके ओर देख रही हूं… सामने मेन्यू का बड़ा सा ब्लैक बोर्ड लगा था, उसपर छापे हर आयटम की लिस्ट को मिटा दिया… और मेरे ओर देखते हुए ही अपने साथ वाले लड़के से कुछ कहा.


उसकी बात सुनकर तो जैसे उस लड़के की आखें फटी रह गई हो, चेहरे की हवाइयां उड़ गई हो. तभी वो मेरे कॉलेज का लड़का, बिना मुझ पर से नजर हटाए अपने दोस्त को एक थप्पड़ मारा. वो लड़का भी खीसियाकर चौक उठाया और बरे बरे अक्षरों में लिख दिया… "आज मेरे दोस्त के आने की खुशी में एक समोसा के साथ एक समोसा मुफ्त. सब लोग खाइए और दिल से दुआ देते जाइए"..


मेरी हिचकी आना लाजमी था. मै एक घूंट पानी भी पी रही थी और तिरछी नजरो से वो लिखा हुआ भी पढ़ रही थी. तभी मां और पापा वहां पहुंच गए, उन्होंने इशारों में उस लड़के को बुलाया.


सच कहूं तो इस वक़्त मेरी हालत ठीक वैसी ही थी जैसी बिना पानी के छटपटाती हुई मछली. मेरे पाऊं में तो जैसे वाइब्रेटर फिट हो गए थे, दोनो हाथ से घुटने को दबा रही थी लेकिन पाऊं था कि रुकने का नाम ही ना ले. इतने में वो लड़का भी हमारे पास पहुंच गया, और हिम्मत तो जैसे कूट-कूट कर उसके अंदर भर गया हो. आकर ठीक मेरे पास खड़ा हो गया.. डर के मारे मेरे माथे से पसीना आने लगा. बार-बार यही ख्याल आ रहा था, जो खुल्लम खुल्ला बोर्ड पर इतने बड़े अक्षरों में लिखवा सकता था वो क्या पता मुंह खोलने पर क्या बोल दे… हेय भगवान, हेय भगवान, बस इतना ही चल रहा था मेरे अंदर…


पापा थोड़े कड़क लहजे में पूछने लगे… "मै ये क्या सुन रहा हूं रवि"..


रवि बड़े ही शालीनता से… "क्या हो गया अंकल"


पापा:- मेनका यही है ना जो तुम्हारी सहेली को छेड़ रहा था..


मै उंगलियों में उंगलियां फसाकर, अपनी हथेली मसलती हुई बस हां में अपना सर हिला दी… जैसे ही मैंने अपनी सहमति दी, वो लड़का रवि कहने लगा… "अंकल मेनका से पूछिए, मैंने इसकी कौन सी सहेली को छेड़ा है. एक इसकी दोस्त है नीतू और दूसरी लता, बेफिक्र होकर कहो फोन लगाने और पूछने. किसी ने हां कह दिया तो आपका जूता मेरा सर"..
:superb: :good: :perfect: awesome update hai nain bhai,
Behad hi shandaar lajawab aur amazing update hai bhai,
ye ravi to had se jyada daringbaaz nikla,
ab bechari menka apne hi baaton mein fans gayi hai,
Ab dekhte hain ki aage kya hota hai
 

aman rathore

Enigma ke pankhe
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पांचवा किस्सा:- दूसरा भाग





मुझे लगा मामला कहीं फंस ना जाए इसलिए मै हड़बड़ा कर कहने लगी… "तुमने नहीं लिखकर भेजा था… क्या मुझसे दोस्ती करोगी"..


मां पिताजी के सामने उससे सीधा बोलने के लिए भी मैंने कितनी हिम्मत जुटाई थी. उसे तो देखो, मेरे मां पापा के सामने ही मुझे देखकर हसने लगा और मेरे ओर देखते हुए अपने सर पर हाथ रखकर ऐसे हंस रहा था, मानो अपनी आखों से ही मुझे बेवकूफ कहने की कोशिश कर रहा हो…


पापा:- क्या हुआ, मेनका की बात पर ऐसे पागलों कि तरह हंस क्यों रहे हो?


रवि:- अंकल आप तो जानते है, मै यहां केवल अपने पापा के मदद के लिए गांव में हूं. सुनिए अंकल मेरी दीदी जब अपने बर्थडे पर दोस्तो को इन्वाइट करतीं है, तो उसमें लड़का या लड़की में बेहदभाव नहीं होता… दोस्त मतलब दोस्त होते है.. लेकिन जानते है आपको क्यों बता रहा हूं ये बात, क्योंकि आप पढ़े लिखे और सुलझे लोग है, आप दोस्त मतलब दोस्त ही समझेंगे. लेकिन यहां किसी गांव वाले को बोल दूं ना मेरी दीदी की दोस्ती लड़को से है, तो आपको पता है… अब आप ही बताइए जिस जगह के लोग अपने दिमाग में 100 गंदगी लिए रहते है, ऐसे माहौल में मै किसी लड़की से ऐसा पूछ सकता हूं क्या?

हां एक किसी लड़की को मैंने सिर्फ इतना कहा था कि हम साथ पढ़ते है, इसलिए हम केवल दोस्त है. और मेरे लिए दोस्त मतलब दोस्त होता है, फिर मै लड़का और लड़की में फर्क नहीं समझता. सुबह से शाम तक तुम्हारा काम करूंगा तो शाम को घर में नाश्ता भी करवाना होगा.. मै तुम्हारे काम से कहीं बाहर जाऊंगा तो तुम्हे बाइक में पेट्रोल भरवाना होगा.. 2 बजे रात में भी कहोगी तो दोस्त होने के नाते मै तुम्हारे दरवाजा पर खड़ा रहूंगा… लेकिन कभी भी मुझसे गांव के लड़के वाली दोस्ती समझी ना, जो कहते दोस्त है और मिलते है किसी कोने में, तो मै गला घोंटा दूंगा तुम्हारा…

मै तुम्हारे साथ चलूंगा तो तुम्हारे पापा के सामने भी तुम्हारे साथ चलता रहूंगा, क्योंकि मेरे मन में खोंट नही. बस हम लड़का और लड़की है, इस बात का ख्याल रखूंगा और हम लहज़े से चलेंगे या साथ में घूमेंगे, ताकि लोगों को भी गलतफहमी ना हो.. क्योंकि हम जहां रहते है वहां के कल्चर का भी सम्मान करना पड़ता है..

हां इतनी बात मैंने एक लड़की को कही थी. अब उसने मेनका के क्या कान भरे वो मै नहीं जानता, आप फोन लगाकर उस लड़की से भी पूछ सकते है. मेनका ने जो बताया, उस घटना की सच्चाई मैंने सच-सच बताया है… अब आप चाहें तो इसके लिए थप्पड़ मार लीजिए. मुझे भी गांव के दूसरे लड़के की तरह समझ सकते है, चाहे तो पापा से शिकायत भी कर सकते है, वो आपकी समझदारी और फैसले पर निर्भर करता है. क्योंकि पूरे गांव को पता है कि आप कितने समझदार है और अपनी सलाह से ना जाने कितने भटके लोगों को सही रास्ते पर ले आए है…


मुझे तो हलवाई लगा ये. मां और पापा को तो पुरा चासनी में ही डूबा दिया. मुझे तो पापा के चेहरे से साफ दिख भी रहा था कि वो खुद में कितना प्राउड टाइप फील कर रहे है और ये ढीट, बेशर्म, बार-बार मेरे ओर देखकर मुस्कुरा भी रहा था…


पापा:- नहीं फिर भी किसी लड़की को दोस्ती के लिए कहना..


रवि:- अंकल मैंने उस लड़की को समझाया था कि दोस्त क्या होता है, दोस्ती के लिए तो उसने पूछा था.


मां:- आपी भी ना बच्चो कि बात में कितना रुचि लेने लगे हो… हमारी मेनका का दोस्त नहीं है क्या..


पाप:- कौन है वो..


मां:- नकुल है और कौन है.. दोनो बचपन से ऐसे साथ रहे है कि कभी इस ओर ख्याल नहीं गया… रवि ने उस लड़की को सही समझाया है… कोई बात नहीं है रवि, तुम जाओ.


ये लड़का तो मेरे नकुल का भी बाप था. साला कैसे बात को घुमा दिया. कोई अपनी बातो में इतना कॉन्फिडेंट कैसे हो सकता है.. अपने झूट पर कितना विश्वास का तड़का लगा गया. प्रतिक्रिया में अंदर से इतना ही निकला… "उफ्फ, इस लड़के ने तो आज पक्का मेरा 1 किलो खून सूखा दिया होगा."


मुझे विश्वास हो गया कि मैंने पापा से ये भी कहा होता ना की इसने मुझसे ही 3 बार दोस्ती करने के लिए पूछा था, तो भी नतीजा में कोई बदलाव नहीं होना था. मैंने भी सभी बातो को दरकिनार करते हुए अपने समोसे और मिठाई पर कन्सन्ट्रेट करने लगी… कुछ देर बाद हम लोग वापस किराना दुकान में थे. चिपकू कहीं का, मेरे पीछे किराना दुकान तक आ गया… हमारा सारा सामान पैक था, उसे रवि और उसका दोस्त गाड़ी में रखने लगा..


तभी मां ने पापा के कान में कुछ कहा और पापा ने उस किराना दुकानदार को इशारे में कुछ समझाया… वो अपने मोबाइल से कॉल लगाया और दुकान के पीछे से एक लेडी निकलकर आयी. वो लेडी मां को अपने साथ ले जाने लगी तब पापा ने मुझे भी कहा तू भी चली जा मां के साथ.


मुझे की करना था, पापा के कहने पर मै भी चल दी. दुकान के पीछे ही उनका बड़ा सा मकान था. नीचे तकरीबन 6000 स्क्वेयर फीट का गोदाम बना हुआ था और पीछे जाते के साथ ही बाएं ओर से ऊपर जाने की सीढ़ियां बनी थी, जिसके ऊपर के फ्लोर पर रहने के लिए पुरा मकान बना हुआ था..


मै पहली बार ऊपर आ रही थी. इसका घर तो बिल्कुल किसी सहर के घर जैसा था. नीचे पुरा मार्बल के फ्लोर, चारो ओर पुरा व्यवस्थित कमरे की बनावट, साफ सफाई इतनी की मन प्रसन्न हो जाए. मेरी माते श्री आते ही सीधा बाथरूम में घुस गई और मै वहीं खुली सी जगह में बाहर एक कुर्सी पर बैठ गई..


मै जैसे ही वहां बैठी, वो रवि ठीक मेरे सामने आकर बैठ गया…. "हेल्लो मेनका"..


मै, इधर-उधर नजर दौरती…. "तुम आज क्या मुझे पागल बनाने की कसम खाकर आए हो, देखो मै बहुत इरिटेट हो रही हूं"…


रवि:- मम्मी मेरी दोस्त आयी है और आप ने उसे चाय के लिए भी नहीं पूछी..


रवि जब ये बात कह रहा था, तभी मां बाहर निकल कर आयी. जैसे ही रवि ने मां को देखा, तुरंत उनके पास पहुंचते…."आंटी, अंकल ने कहा है मेनका के फोन से तुरंत भाभी को कॉल लगा लीजिए, कुछ जरूरी बात करनी है शायद"..


मां रवि की बात सुनकर मेरी ओर देखी और मै उठकर कॉल लगती हुई कहने लगी "चलो मां"..


रवि:- ऐसे कैसे चलो मां, गांव जाकर आंटी कहेंगी तुम्हारे दोस्त के घर गई और चाय के लिए भी नहीं पूछा… क्यों आंटी..


मां:- अरे ना रे रवि हम फिर कभी चाय पी लेंगे, घर पर कोई नहीं है. वैसे भी अब मेनका ही आएगी मार्केटिंग करने, तो तू आराम से इसे चाय पिलाते रहना, अभी हमे जाने दे…


रवि:- ठीक है आंटी जैसा आपकी मर्जी, बस गांव में मेनका से झगड़ा मत कीजिएगा की कैसे तुम्हारे साथ के पढ़ने वाले दोस्त है…


क्या है ये सब. छोटे-छोटे तूफान दो ना जिंदगी में भगवान. 15 साल की उम्र तक तो गांव की दुनिया अलग थी, तो उसे वैसे ही रहने दो ना. या फिर एक-एक करके बताना था ना कि मेनका तुम्ही ऐसा सोच रही, लेकिन ये भ्रम केवल तुम्हारा अपना पाला है, ना तो तुम्हारे घर के लोगों ने बताया और ना ही पड़ोस के लोगों ने कुछ कहा, बस खुद से ही बहुत चीजों कि गलत समीक्षा करे बैठी हो.


आज का दिन ही मेरे लिए मिथ ब्रेक दिन कहा जाए तो गलत नहीं होगा. कुछ कुछ चीजें समझ में आ रही थी और कुछ भ्रम भी टूट रहे थे. मां रवि की बात पर हंसती हुई चल दी वहां से. मै जाते हुए पीछे मुड़कर उसे ही देख रही थी. बहुत ही ज्यादा सौतन था. उसे देखते हुए अपने चेहरे पर किसी तरह की भावना नहीं आने दी, लेकिन जैसे ही मै आगे मुड़ी, पता नहीं क्यों उसके बारे में सोचकर ही मुस्कुराने लगी… ढीट, जिद्दी और सौतन..


मै पुरा सामान लेकर गांव चली आयी, लेकिन मेरे ख्यालों में रवि ही था. जब वो पास था, तब तो मुझे पुरा डारा दिया था. परेशान करने कि हदें पार कर दी, लेकिन अब जब उसकी हरकतें याद आ रही थी, मेरे चेहरे पर मुस्कान छा रही थी. बहुत ज्यादा ही मुस्कान… पता नहीं क्यों लेकीन पहली बार मै किसी लड़के के बारे में इतना सोच रही थी…


ज्यादा सोचना भटकाव है, इसलिए मैंने भी अपने ध्यान को पूर्ण रूप से किताबों में उलझा सा लिया. रात के 8 बजे के करीब भईया और भाभी दोनो ही लौट रहे थे. दोनो के चेहरे बता रहे थे कि कितना थके हुए थे, साथ में कुछ आभास सा हुआ की दोनो किसी बात को लेकर काफी परेशान से थे..


मां पिताजी के साथ उन लोगो की बातचीत चल रही थी. मै जब उनके करीब पहुंची तब पापा रमन, प्रवीण और माखन चाचा का नाम ले रहे थे.. बात क्या थी मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे पहुंचने के साथ ही सब मेरे विषय में बात करने लगे…


मेरे पहले दिन के अनुभव के बारे में सबको ज्ञात था और उसी पर बात करते हुए हंस भी रहे थे और खाना भी खा रहे थे. मै बेचारी सबके लिए खाना परोस रही थी तो वहां से जा भी नहीं सकती थी…


बात चलते-चलते फिर रवि पर आ गई. रवि की बात जैसे ही शुरू हुई, मां का ध्यान आज दिन की मेरी बातों पर चला गया… सब लोग जब चले गए तब मां मेरे पास आराम से बैठ गई और मुझे खिलाने लगी.


खाने के बाद जैसे ही मै बर्तन साफ करने के लिए खड़ी हुई, मां मेरा हाथ पकड़कर अपने पास बिठाति… "कोई लड़का तेरी दोस्त को लेटर देगा तो ये बात तुम पापा को बताओगी"…


"मां, मै फिर क्या करूंगी"… मैंने मासूमियत से पूछा..


मां मेरा सर अपने गोद में रखकर मेरे गालों पर हाथ फेरती… "ये सब छोटी-छोटी बातें है मेनका. हां लेकिन इन छोटी बातो को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए. पहले छोटे स्तर से सुलझाने को कोशिश करो. उस लड़के को साफ सब्दो में खुद से जाकर बोल दो. इन लड़को को कुछ सोचने की हिम्मत तब आती है, जब हम ख़ामोश रह जाते है.

अपनी खामोशी को तोड़ना सीखो. फिर तुम खुद समझ जाओगी कौन सी बात पापा को बतानी है, कौन सी बात मम्मी को, कौन सी बात नकुल को और कौन सी बात भाभी को. जब तुम खुद से सब कुछ समझोगी, तो छोटी बड़ी परेशानियों का हल निकालना आसान हो जाएगा, वरना हर वक़्त तुम्हारी नजर किसी ना किसी सहारे को ढूंढ़ती रहेगी. समझ गई…


मै:- हां समझ गई मां.. वैसे मां आप सब आज इतना परेशान क्यों है?


मां:- ये इस घर और गांव की समस्या है बेटी, हमे ही इसे सारी उम्र देखना है. तुम बस अपने पढ़ाई में ध्यान दो.


मै:- क्या ये मेरा घर नहीं है ? हुंह ! मुझे अच्छा नहीं लगा ये…


मां:- कुछ अंदरुनी बातें है बेटा जो तुम्हारे ना जानना ही अच्छा है. गांव और गांव की गन्दी राजनीति से जितना दूर रखो खुद को उतना अच्छा होगा. बाकी एक ही बात याद रखना, किसी को छेड़ो नहीं, और कोई यदि छेड़े तो उसे फिर कभी छोड़ना मत. क्योंकि एक बार की चुप्पी उम्र भर का दर्द होता है..


मां किस ओर इशारे कर रही थी वो तो मुझे पता नहीं था, लेकिन कुछ तो पीठ पीछे लोग इनके साथ बुरा कर रहे थे, जो सबके चेहरे उतरे हुए और चिंता में थे. मै शायद बहुत ही छोटी थी इन बड़ों के मामले को सुलझाने में, लेकिन दिल में एक कसक तो उठती ही है कि घर में कौन सी समस्या चल रही है जिस वजह से सबके चेहरे उतरे हुए है.. कहीं रमन, प्रवीण और माखन चाचा को लेकर तो कोई बात नहीं.


मेरे छोटे से दिमाग में कुछ बातो के ओर ध्यान भटका तो रहे थे, परन्तु उन बातों का कोई आधार नहीं था इसलिए मैंने अपने मन की शंका को अंदर ही दबाकर अपने काम को ही करने का फैसला किया…
:superb: :good: :perfect: awesome update hai nain bhai,
Behad hi shandaar, lajawab aur amazing update hai bhai,
ravi ne menka ke dimaag par gahra chhap chhod diya hai,
vahin ghar mein ab koi nai hi problem shuru ho gayi hai,
Ab dekhte hain ki aage kya hota hai
 

aman rathore

Enigma ke pankhe
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20,197
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पांचवा किस्सा:- दूसरा भाग





मुझे लगा मामला कहीं फंस ना जाए इसलिए मै हड़बड़ा कर कहने लगी… "तुमने नहीं लिखकर भेजा था… क्या मुझसे दोस्ती करोगी"..


मां पिताजी के सामने उससे सीधा बोलने के लिए भी मैंने कितनी हिम्मत जुटाई थी. उसे तो देखो, मेरे मां पापा के सामने ही मुझे देखकर हसने लगा और मेरे ओर देखते हुए अपने सर पर हाथ रखकर ऐसे हंस रहा था, मानो अपनी आखों से ही मुझे बेवकूफ कहने की कोशिश कर रहा हो…


पापा:- क्या हुआ, मेनका की बात पर ऐसे पागलों कि तरह हंस क्यों रहे हो?


रवि:- अंकल आप तो जानते है, मै यहां केवल अपने पापा के मदद के लिए गांव में हूं. सुनिए अंकल मेरी दीदी जब अपने बर्थडे पर दोस्तो को इन्वाइट करतीं है, तो उसमें लड़का या लड़की में बेहदभाव नहीं होता… दोस्त मतलब दोस्त होते है.. लेकिन जानते है आपको क्यों बता रहा हूं ये बात, क्योंकि आप पढ़े लिखे और सुलझे लोग है, आप दोस्त मतलब दोस्त ही समझेंगे. लेकिन यहां किसी गांव वाले को बोल दूं ना मेरी दीदी की दोस्ती लड़को से है, तो आपको पता है… अब आप ही बताइए जिस जगह के लोग अपने दिमाग में 100 गंदगी लिए रहते है, ऐसे माहौल में मै किसी लड़की से ऐसा पूछ सकता हूं क्या?

हां एक किसी लड़की को मैंने सिर्फ इतना कहा था कि हम साथ पढ़ते है, इसलिए हम केवल दोस्त है. और मेरे लिए दोस्त मतलब दोस्त होता है, फिर मै लड़का और लड़की में फर्क नहीं समझता. सुबह से शाम तक तुम्हारा काम करूंगा तो शाम को घर में नाश्ता भी करवाना होगा.. मै तुम्हारे काम से कहीं बाहर जाऊंगा तो तुम्हे बाइक में पेट्रोल भरवाना होगा.. 2 बजे रात में भी कहोगी तो दोस्त होने के नाते मै तुम्हारे दरवाजा पर खड़ा रहूंगा… लेकिन कभी भी मुझसे गांव के लड़के वाली दोस्ती समझी ना, जो कहते दोस्त है और मिलते है किसी कोने में, तो मै गला घोंटा दूंगा तुम्हारा…

मै तुम्हारे साथ चलूंगा तो तुम्हारे पापा के सामने भी तुम्हारे साथ चलता रहूंगा, क्योंकि मेरे मन में खोंट नही. बस हम लड़का और लड़की है, इस बात का ख्याल रखूंगा और हम लहज़े से चलेंगे या साथ में घूमेंगे, ताकि लोगों को भी गलतफहमी ना हो.. क्योंकि हम जहां रहते है वहां के कल्चर का भी सम्मान करना पड़ता है..

हां इतनी बात मैंने एक लड़की को कही थी. अब उसने मेनका के क्या कान भरे वो मै नहीं जानता, आप फोन लगाकर उस लड़की से भी पूछ सकते है. मेनका ने जो बताया, उस घटना की सच्चाई मैंने सच-सच बताया है… अब आप चाहें तो इसके लिए थप्पड़ मार लीजिए. मुझे भी गांव के दूसरे लड़के की तरह समझ सकते है, चाहे तो पापा से शिकायत भी कर सकते है, वो आपकी समझदारी और फैसले पर निर्भर करता है. क्योंकि पूरे गांव को पता है कि आप कितने समझदार है और अपनी सलाह से ना जाने कितने भटके लोगों को सही रास्ते पर ले आए है…


मुझे तो हलवाई लगा ये. मां और पापा को तो पुरा चासनी में ही डूबा दिया. मुझे तो पापा के चेहरे से साफ दिख भी रहा था कि वो खुद में कितना प्राउड टाइप फील कर रहे है और ये ढीट, बेशर्म, बार-बार मेरे ओर देखकर मुस्कुरा भी रहा था…


पापा:- नहीं फिर भी किसी लड़की को दोस्ती के लिए कहना..


रवि:- अंकल मैंने उस लड़की को समझाया था कि दोस्त क्या होता है, दोस्ती के लिए तो उसने पूछा था.


मां:- आपी भी ना बच्चो कि बात में कितना रुचि लेने लगे हो… हमारी मेनका का दोस्त नहीं है क्या..


पाप:- कौन है वो..


मां:- नकुल है और कौन है.. दोनो बचपन से ऐसे साथ रहे है कि कभी इस ओर ख्याल नहीं गया… रवि ने उस लड़की को सही समझाया है… कोई बात नहीं है रवि, तुम जाओ.


ये लड़का तो मेरे नकुल का भी बाप था. साला कैसे बात को घुमा दिया. कोई अपनी बातो में इतना कॉन्फिडेंट कैसे हो सकता है.. अपने झूट पर कितना विश्वास का तड़का लगा गया. प्रतिक्रिया में अंदर से इतना ही निकला… "उफ्फ, इस लड़के ने तो आज पक्का मेरा 1 किलो खून सूखा दिया होगा."


मुझे विश्वास हो गया कि मैंने पापा से ये भी कहा होता ना की इसने मुझसे ही 3 बार दोस्ती करने के लिए पूछा था, तो भी नतीजा में कोई बदलाव नहीं होना था. मैंने भी सभी बातो को दरकिनार करते हुए अपने समोसे और मिठाई पर कन्सन्ट्रेट करने लगी… कुछ देर बाद हम लोग वापस किराना दुकान में थे. चिपकू कहीं का, मेरे पीछे किराना दुकान तक आ गया… हमारा सारा सामान पैक था, उसे रवि और उसका दोस्त गाड़ी में रखने लगा..


तभी मां ने पापा के कान में कुछ कहा और पापा ने उस किराना दुकानदार को इशारे में कुछ समझाया… वो अपने मोबाइल से कॉल लगाया और दुकान के पीछे से एक लेडी निकलकर आयी. वो लेडी मां को अपने साथ ले जाने लगी तब पापा ने मुझे भी कहा तू भी चली जा मां के साथ.


मुझे की करना था, पापा के कहने पर मै भी चल दी. दुकान के पीछे ही उनका बड़ा सा मकान था. नीचे तकरीबन 6000 स्क्वेयर फीट का गोदाम बना हुआ था और पीछे जाते के साथ ही बाएं ओर से ऊपर जाने की सीढ़ियां बनी थी, जिसके ऊपर के फ्लोर पर रहने के लिए पुरा मकान बना हुआ था..


मै पहली बार ऊपर आ रही थी. इसका घर तो बिल्कुल किसी सहर के घर जैसा था. नीचे पुरा मार्बल के फ्लोर, चारो ओर पुरा व्यवस्थित कमरे की बनावट, साफ सफाई इतनी की मन प्रसन्न हो जाए. मेरी माते श्री आते ही सीधा बाथरूम में घुस गई और मै वहीं खुली सी जगह में बाहर एक कुर्सी पर बैठ गई..


मै जैसे ही वहां बैठी, वो रवि ठीक मेरे सामने आकर बैठ गया…. "हेल्लो मेनका"..


मै, इधर-उधर नजर दौरती…. "तुम आज क्या मुझे पागल बनाने की कसम खाकर आए हो, देखो मै बहुत इरिटेट हो रही हूं"…


रवि:- मम्मी मेरी दोस्त आयी है और आप ने उसे चाय के लिए भी नहीं पूछी..


रवि जब ये बात कह रहा था, तभी मां बाहर निकल कर आयी. जैसे ही रवि ने मां को देखा, तुरंत उनके पास पहुंचते…."आंटी, अंकल ने कहा है मेनका के फोन से तुरंत भाभी को कॉल लगा लीजिए, कुछ जरूरी बात करनी है शायद"..


मां रवि की बात सुनकर मेरी ओर देखी और मै उठकर कॉल लगती हुई कहने लगी "चलो मां"..


रवि:- ऐसे कैसे चलो मां, गांव जाकर आंटी कहेंगी तुम्हारे दोस्त के घर गई और चाय के लिए भी नहीं पूछा… क्यों आंटी..


मां:- अरे ना रे रवि हम फिर कभी चाय पी लेंगे, घर पर कोई नहीं है. वैसे भी अब मेनका ही आएगी मार्केटिंग करने, तो तू आराम से इसे चाय पिलाते रहना, अभी हमे जाने दे…


रवि:- ठीक है आंटी जैसा आपकी मर्जी, बस गांव में मेनका से झगड़ा मत कीजिएगा की कैसे तुम्हारे साथ के पढ़ने वाले दोस्त है…


क्या है ये सब. छोटे-छोटे तूफान दो ना जिंदगी में भगवान. 15 साल की उम्र तक तो गांव की दुनिया अलग थी, तो उसे वैसे ही रहने दो ना. या फिर एक-एक करके बताना था ना कि मेनका तुम्ही ऐसा सोच रही, लेकिन ये भ्रम केवल तुम्हारा अपना पाला है, ना तो तुम्हारे घर के लोगों ने बताया और ना ही पड़ोस के लोगों ने कुछ कहा, बस खुद से ही बहुत चीजों कि गलत समीक्षा करे बैठी हो.


आज का दिन ही मेरे लिए मिथ ब्रेक दिन कहा जाए तो गलत नहीं होगा. कुछ कुछ चीजें समझ में आ रही थी और कुछ भ्रम भी टूट रहे थे. मां रवि की बात पर हंसती हुई चल दी वहां से. मै जाते हुए पीछे मुड़कर उसे ही देख रही थी. बहुत ही ज्यादा सौतन था. उसे देखते हुए अपने चेहरे पर किसी तरह की भावना नहीं आने दी, लेकिन जैसे ही मै आगे मुड़ी, पता नहीं क्यों उसके बारे में सोचकर ही मुस्कुराने लगी… ढीट, जिद्दी और सौतन..


मै पुरा सामान लेकर गांव चली आयी, लेकिन मेरे ख्यालों में रवि ही था. जब वो पास था, तब तो मुझे पुरा डारा दिया था. परेशान करने कि हदें पार कर दी, लेकिन अब जब उसकी हरकतें याद आ रही थी, मेरे चेहरे पर मुस्कान छा रही थी. बहुत ज्यादा ही मुस्कान… पता नहीं क्यों लेकीन पहली बार मै किसी लड़के के बारे में इतना सोच रही थी…


ज्यादा सोचना भटकाव है, इसलिए मैंने भी अपने ध्यान को पूर्ण रूप से किताबों में उलझा सा लिया. रात के 8 बजे के करीब भईया और भाभी दोनो ही लौट रहे थे. दोनो के चेहरे बता रहे थे कि कितना थके हुए थे, साथ में कुछ आभास सा हुआ की दोनो किसी बात को लेकर काफी परेशान से थे..


मां पिताजी के साथ उन लोगो की बातचीत चल रही थी. मै जब उनके करीब पहुंची तब पापा रमन, प्रवीण और माखन चाचा का नाम ले रहे थे.. बात क्या थी मुझे पता नहीं, लेकिन मेरे पहुंचने के साथ ही सब मेरे विषय में बात करने लगे…


मेरे पहले दिन के अनुभव के बारे में सबको ज्ञात था और उसी पर बात करते हुए हंस भी रहे थे और खाना भी खा रहे थे. मै बेचारी सबके लिए खाना परोस रही थी तो वहां से जा भी नहीं सकती थी…


बात चलते-चलते फिर रवि पर आ गई. रवि की बात जैसे ही शुरू हुई, मां का ध्यान आज दिन की मेरी बातों पर चला गया… सब लोग जब चले गए तब मां मेरे पास आराम से बैठ गई और मुझे खिलाने लगी.


खाने के बाद जैसे ही मै बर्तन साफ करने के लिए खड़ी हुई, मां मेरा हाथ पकड़कर अपने पास बिठाति… "कोई लड़का तेरी दोस्त को लेटर देगा तो ये बात तुम पापा को बताओगी"…


"मां, मै फिर क्या करूंगी"… मैंने मासूमियत से पूछा..


मां मेरा सर अपने गोद में रखकर मेरे गालों पर हाथ फेरती… "ये सब छोटी-छोटी बातें है मेनका. हां लेकिन इन छोटी बातो को भी नजरंदाज नहीं करना चाहिए. पहले छोटे स्तर से सुलझाने को कोशिश करो. उस लड़के को साफ सब्दो में खुद से जाकर बोल दो. इन लड़को को कुछ सोचने की हिम्मत तब आती है, जब हम ख़ामोश रह जाते है.

अपनी खामोशी को तोड़ना सीखो. फिर तुम खुद समझ जाओगी कौन सी बात पापा को बतानी है, कौन सी बात मम्मी को, कौन सी बात नकुल को और कौन सी बात भाभी को. जब तुम खुद से सब कुछ समझोगी, तो छोटी बड़ी परेशानियों का हल निकालना आसान हो जाएगा, वरना हर वक़्त तुम्हारी नजर किसी ना किसी सहारे को ढूंढ़ती रहेगी. समझ गई…


मै:- हां समझ गई मां.. वैसे मां आप सब आज इतना परेशान क्यों है?


मां:- ये इस घर और गांव की समस्या है बेटी, हमे ही इसे सारी उम्र देखना है. तुम बस अपने पढ़ाई में ध्यान दो.


मै:- क्या ये मेरा घर नहीं है ? हुंह ! मुझे अच्छा नहीं लगा ये…


मां:- कुछ अंदरुनी बातें है बेटा जो तुम्हारे ना जानना ही अच्छा है. गांव और गांव की गन्दी राजनीति से जितना दूर रखो खुद को उतना अच्छा होगा. बाकी एक ही बात याद रखना, किसी को छेड़ो नहीं, और कोई यदि छेड़े तो उसे फिर कभी छोड़ना मत. क्योंकि एक बार की चुप्पी उम्र भर का दर्द होता है..


मां किस ओर इशारे कर रही थी वो तो मुझे पता नहीं था, लेकिन कुछ तो पीठ पीछे लोग इनके साथ बुरा कर रहे थे, जो सबके चेहरे उतरे हुए और चिंता में थे. मै शायद बहुत ही छोटी थी इन बड़ों के मामले को सुलझाने में, लेकिन दिल में एक कसक तो उठती ही है कि घर में कौन सी समस्या चल रही है जिस वजह से सबके चेहरे उतरे हुए है.. कहीं रमन, प्रवीण और माखन चाचा को लेकर तो कोई बात नहीं.


मेरे छोटे से दिमाग में कुछ बातो के ओर ध्यान भटका तो रहे थे, परन्तु उन बातों का कोई आधार नहीं था इसलिए मैंने अपने मन की शंका को अंदर ही दबाकर अपने काम को ही करने का फैसला किया…
:superb: :good: :perfect: awesome update hai nain bhai,
Behad hi shandaar, lajawab aur amazing update hai bhai,
ravi ne menka ke dimaag par gahra chhap chhod diya hai,
vahin ghar mein ab koi nai hi problem shuru ho gayi hai,
Ab dekhte hain ki aage kya hota hai
 

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1. प्रारंभिक जीवन





जिसकी हाथ कि सफाई पकड़ी गई वो चोर और जो बच गया वो कलाकार। शायद हर जगह की बस यही कहानी चल रही है। जिंदगी की शुरवात दौड़ की कहानी शुरू करने से पहले मै अपना परिचय दे दूं। जब मै पैदा हुई तब मेरे मामा ने मेरा नाम मेनका रख दिया।


हां आप सही सोच रहे है, इतिहास में मेनका का अहम स्थान है, जिसने अपने रूप और कौमार्य से विश्वमित्रा की तप को भंग किया था और दोनो के मिलन से जो बच्चा पैदा हुआ उसने तत्काल आर्यावर्त साम्राज्य का गठन किया था। लेकिन मेरा नाम इन तथ्यों को ध्यान में रखकर नहीं रखा गया था, बल्कि मेरे सबसे बड़े वाले भईया का नाम महेश और उससे छोटे वाले भईया का नाम मनीष था, इसलिए मेरा नाम "म" अक्षर से रख दिया गया। महेश, मनीष और मेनका।


मै भी एक मेनका ही थी। रूपवान, गुणवान, 2 भाइयों की इकलौती बहन और अपने घर की सबसे नटखट सदस्य। मेरे पैदा होने के 10 साल बाद मेरे सबसे बड़े भाई महेश की शादी हो गई।


मेरी बड़ी भाभी सोभा जबसे ब्याह कर आयी, घर में गृह क्लेश शुरू हो गया। देखने में तो काफी खूबसूरत थी, शायद इसी बात का घमंड था और चेहरे पर कभी हंसी नहीं रही। दूर से ही देखकर कोई भी उसे चंठ समझ ले।


खैर धीरे-धीरे हम सब भी उसकी आदतों में रम गए। जब तक घर में उसकी किट-किट ना शुरू हो, तबतक ऐसा लगता था कि आज दिन शुरू ही नहीं हुआ। जब वो मायके जाती थी, तो ऐसा लगता था घर में केवल चिड़िया ही चहक रहे है और किसी इंसान की आवाज ही नहीं आ रही।


उसके 2 सालो बाद मेरे मनीष भईया की भी शादी हो गई। रूपा भाभी जब शुरू-शुरू घर में आयी थी, तब वो काफी अच्छी थी। संस्कारी और आज्ञाकारी बहू की परिभाषा। लेकिन कहते है ना खरबूज को देखकर खरबूज अपना रंग बदल लेता है, वहीं किस्सा मेरे घर में भी हो गया।


फिर तो देवरानी और जेठानी का रिश्ता ने ऐसा रंग जमाया की पूरे गांव वाले आए दिन तमाशा देखा करते थे। भिड़ कान लगाए दोनो के द्वंद को सुनती और मेरे पिताजी अनूप मिश्रा के बहुओं की चर्चा पूरे गांव का हॉट टॉपिक बनकर रह जाता।


जब दोनो भाइयों में झगड़े बढ़ने लगे तब पिताजी ने खेत और पैसे देकर बड़े भईया को घर के लिए नहर के पास वाली जमीन दे दिया, और हम सब छोटे भईया के साथ यहीं अपने पहले के मकान में रहने लगे। लेकिन वो कहते है ना विवाद जब किसी स्त्री का लगाया हो तो कभी थमता ही नहीं।


मेरी भाभी सोभा अक्सर मेरे बड़े भैया महेश को उकसाया करती थे और वो आकर यहां कभी-कभी पिताजी और छोटे भईया से जमीन के लिए झगड़ा किया करते थे। मेरे पिताजी एक सुलझे हुए व्यक्ति थे। ना जाने कितने लोगो ने उनकी सलाह से अपनी जिंदगी सवार ली, लेकिन पिताजी खुद के ही चिरागों को समझा नहीं पाए।


जब बंटवारा हो रहा था तब उन्होंने जमीन के 4 हिस्से कर दिया था। सबसे बड़ा भू भाग मिला था मेरे छोटे भैया को। तकरीबन 40 एकड़ जमीन और 8 आम के बगीचे। वो इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने घर की जिम्मेदारी उठाई थी। वहीं मेरे बड़े भैया को 30 एकड़ जमीन और 8 बगीचे उन्हें भी मिले थे।


5 एकड़ की जमीन पिताजी ने खुद अपने पास रखा था और हाईवे से लगा हुआ 10 एकड़ की जमीन मेरे शादी के लिए अलग कर लिया था। शादी के वक़्त जो भाई खर्च उठाएगा, उसे वो जमीन मिलेगी। वरना वो जमीन बेचकर मेरी शादी की जानी थी। बस इसी बात को लेकर महीने, 2 महीने में विवाद हो जाया करता था।


खैर ये सब कहानी घर-घर की चलती ही रहती है, लेकिन इन सब में मेरी कहानी भी आगे बढ़ रही थी। पारिवारिक क्लेश को मुझसे लगभग दूर ही रखा जाता था और घर में एक बेटी हो ऐसी सभी की वर्षों कि ख्वाहिश थी, इसलिए मुझे लाड़-प्यार भी सबसे उतना ही मिलता रहा।


लेकिन उफ्फ ये बंदिशे, भाभी के भाइयों से हंसकर बात करने पर भाव्हें तन जाती थी। अकेले अपने सड़क के मोड़ के आगे गई तो सवाल खड़े हो जाया करते थे। एक स्कूल था तो वहां भी मेरे साथ गांव के कई चचरे भाई हुआ करते थे, जिनके रहते किसी कि हिम्मत नहीं होती मुझसे बात करने की।


कुल मिलाकर जो भी हंसना खेलना और बोलना है, वो अपने परिवार के बीच ही। धीरे-धीरे उम्र भी बढ़ने लगी और दुनियादारी की कुछ-कुछ बातो का अल्प ज्ञान भी शुरू होने लगा। वैसे तो मै ज्यादातर अपने कमरे के बाहर तक नहीं निकलती थी, लेकिन कभी- जब मेरी रातों की नींद खुलती और मै पानी पीने के लिए अंधेरे में किचेन के ओर जाती, तो कभी-कभी मुझे चूड़ियों के जोड़-जोड़ से खन-खन कि आवाज़ आया करती थी।


मै डर के मारे वापस अपने बिस्तर में घुस जाती और सुबह जब मै ये बात अपनी भाभी को बताती की हमारे घर में चुड़ैल है और उसके चूड़ियों के खनकने की आवाज मैंने अपने कानो से सुनी, तो वो जोड़-जोड़ से हसने लगती थी।


खैर जिंदगी मासूमियत में कट रही, थी जिसमे बहुत से बातो का तो मुझे ज्ञान भी नहीं था। दसवीं की परीक्षा हो गई थी और आगे कि पढ़ाई के लिए हमे हमे गांव से 8-10 किलोमीटर दूर, एक छोटे से बाजार के पास जाना था। मै बहुत खुश थी क्योंकि मेरे सारे बॉडीगार्ड भाई, सहर पढ़ने निकल गए थे। केवल नकुल बचा था जो मेरे फिफ्थ जेनरेशन कजिन का बेटा था और गांव के रिश्ते में मेरा भतीजा लगाता, पर हम दोनों एक ही उम्र के थे। चूंकि हम दोनों बिल्कुल पड़ोसी थे इसलिए काफी क्लोज थे।


गांव में अक्सर ऐसा उम्र का गैप हो जाते है,, जो 3-4 पीढ़ी नीचे आने के बाद चाचा-भतीजे के उम्र एक समान होती है। अब मुझे ही देख लीजिए, मै अपने बड़े भाई से 12 साल की छोटी हूं और दूसरे भाई से 8 साल की।


मेरे बड़े भाई के बच्चे जब तक जवान होंगे तबतक मेरा बच्चा मेरे गोद में होगा। और मेरे भाई के पोते पोती और मेरे बच्चे की उम्र में बहुत ज्यादा होगा तो 5 साल का अंतर। सहर की बात अलग होती है, जहां 2 जेनरेशन बाद तो किसी को पता भी नहीं होता कि कौन किसके रिश्ते में क्या लगता है और चौथा जेनरेशन आने तक तो शायद आपस मै शादियां भी हो जाएं। लेकिन गांव की बात अलग होती है। पीढ़ी दर पीढ़ी सब एक ही जगह रह जाते है।


खैर हमे कॉलेज के लिए घर से 6-7 किलोमीटर दूर जाना था। मै और नकुल दोनो तैयार थे कॉलेज जाने के लिए, वो घर में आते ही चिल्लाने लगा.. "मेनका दीदी, जल्दी करो।".. हालांकि बाहर वो मुझे दीदी नहीं कहता था लेकिन यदि सबके सामने मुझे दीदी ना कहे तो उसे जूते परते।


आज मै नकुल के साथ अपने नए कॉलेज में जा रही थी, एक नई जिंदगी की शुरवात करने। गांव के पास का कॉलेज था तो लगभग हर कोई हमारे परिवार के लोगों को जनता था। ऐसा हो भी क्यों ना, आखिर कॉलेज के पास की सारी जमीन हमारी ही फरिक (फरिक यही पीढ़ियों में अलग हुए किसी ना किसी परिवार की) की थी, जिसे किसी ने आज तक बेचा नहीं था।


कॉलेज का पहला दिन और मै पहली बार गंदी नजरो का सामना कर रही थी। आज तक कभी ऐसे माहौल में नहीं रही और ना ही कभी घर के बाहर अकेली गई, इसलिए नजरो का ऐसा घिनौनापन कभी मुझे नजर ही नहीं आया। मेरी नजरो से बस 1, 2 नजरे टकराई और मै नकुल का हाथ जोड़ से पकड़ कर नीचे जमीन में देखकर चलने लगी।


नकुल को भी आस-पास के माहौल का इल्म था, इसलिए वो भी चुप चाप मेरे साथ चल रहा था। हम दोनों क्लास का पता करने के लिए ऑफिस आ गए। वहां का किरानी, चपरासी और ऑफिस में कई क्रमचारी हमे पहचानते थे। त्योहार में हमारे घर कई बार तो कुछ लोग आ भी चुके थे। उसी में से एक चपरासी थे मुन्ना काका, जो पिछला टोला में रहते थे।


मुन्ना काका हमे देखकर खुश होते हुए कहने लगे… "बाबू साहब का फोन आ गया था। मेनका बिटिया तुम्हारा क्लास उधर बाएं ओर से है, तुम रुको यही मेरे साथ चलना। नकुल बिटवा तुम्हारा विज्ञान कि सखा उधर दाएं ओर है। तुम उधर चले तो जाओगे ना।"


नकुल "हां" में सर हिलाते हुए कहने लगा… "मुन्ना काका इसके क्लास के लड़को को अच्छे से समझा देना, वरना हम जब समझाने पर आएंगे तब क्लास में केवल लड़कियां ही बचेगी।"


मुन्ना:- हा हम समझा देंगे आप चिंता मत करो, इसलिए तो मेनका बिटिया को अपने साथ लिए जा रहे है।


इन सब बातो में मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी, मै तो बस केवल जमीन को ताक रही थी। एक बड़े से लंबे धमकी के बाद मुन्ना मेरे क्लास से चला गया और मै एक बेंच पर बैठ गई। मेरे पड़ोस वाली लड़की मुझे घूरती हुई पूछने लगी… "ऐ तेरे पापा जमींदार है क्या, जो ये इतना बोलकर गया।"


मै बस हां में अपना सर हिला दी। वो मेरे ओर हंस कर देखती हुई कहने लगी, "तेरे जवानी पर तो ताला लग गया है।"… कुछ अजीब सी बातें थी, जिसे सुनकर मै उसे सवालिया नजरो से देखने लगी।


वो मुझे देखकर हंसती हुई कहने लगी… "मेरा नाम नीतू है, और तुम्हारा नाम।"..


"मेनका".. धीमे से मैंने बोल दिया.. वो फिर से पूछने लगी। इस बार थोड़ी ऊंची आवाज में मैंने अपना नाम बता दिया। चलती क्लास के बीच धीमे-धीमे पता नही वो कैसी-कैसी बातें कर रही थी। नीतू की बातें सुनने में मुझे काफी अजीब लग रही थी और पहली क्लास के बाद ही मैंने तय किया कि इसके पास नहीं बैठना।


मैं सोच तो ली लेकिन डर ये भी था कि कहीं इसके जैसे सब हो गए तो। मै बस इसी उधेड़बुन में थी कि दूसरी क्लास शुरू हो गई और धीमे-धीमे उसकी बातें भी। मै बिना कोई प्रतिक्रिया दिए बस "हां हूं" कर रही थी और सोच रही थी… "इससे कहीं बेहतर तो मेरे स्कूल का माहौल था। सब भाई बहन के बीच कम से कम खुलकर हंस बोल सकती थी। यहां तो लग रहा था कि अनजानों के बीच मेरे मुंह पर ताला ही लग गया है।"
:reading:
 

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घटनाओं का जाल… गांव और कॉलेज

पहली घटना…. भाग 1




अच्छा या बुरा कॉलेज में अब दिन कटने लगे थे। मेरी किस्मत में शायद नीतू का ही साथ लिखा था, मै जितना पीछा छुड़ाने की कोशिश की, वो उतने ही मेरे गले से बांधती चली गई। हार कर मैंने भी मान लिया कि मेरी किस्मत में यही एक सहेली है।


बेवाक अंदाज और अपने अदाओं से हर वक़्त लड़को को टीज किया करती थी। जीन्स टॉप का कल्चर नहीं था, इसलिए लगभग सभी लड़कियां सलवार कुर्ता पहन ही आया करती थी। लेकिन नीतू के कपड़े पहनने का अंदाज ही अपना था। एक तो उसकी छातियां उम्र से ज्यादा बड़ी थी, लगभग 32 की होगी, जिसपर हर लड़के की नजर लगभग टिकी रहती थी। चेहरा भी उसका कम आकर्षक नहीं था और यही वजह था की वो क्लास के अंदर सबसे मशहूर लड़की थी।


उसके साथ होने का खामियाजा अक्सर मुझे ही भुगतना पड़ता था।। जब भी किसी मनचलों के पास से गुजर जाओ, उनके अभद्र टिप्पणियां ही सुनने को मिलता था। उसपर तो कमेंट करते ही थे, साथ में जो मुझे नहीं जानते थे, कभी-कभी मुझे भी लपेट लिया करते थे।


नीतू भी किसी से कम नहीं थी। लड़को को टीज करने के लिए वो बड़े गले का कुर्ता पहनकर आती थी जिसमे उसका सीने कि गहराई का माप कर कोई लिया करता था। लगभग महीना दिन बीतने के बाद, अब यहां की बातें लगभग सामान्य हो चुकी थी। पहले बहुत सी चीजें नहीं समझ में आती थी, लेकिन अब बहुत सी बातें साफ हो गई थी।


खैर कॉलेज के रूटीन में थोड़ी बहुत फेर बदल होने के कारन मेरा तो भला हो चुका था। पहले जहां मेरे और नकुल के अलग-अलग वक़्त पर खाली पीरियड्स होते थे, वहीं अब एक साथ होने लगे थे। मै बहुत खुश थी। खाली पीरियड्स होते ही मै नकुल के पास जाने लगी, तभी पीछे से नीतू भी आ गई… "क्यूं मेनका आज भतीजा फ्री है, तो दोस्त को भुल गई।"..


मै, बुझे मन से मुस्कुराती हुई… "नहीं नीतू ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे लगा तुम्हारा परिचय मै किसी अनजान लड़के से कैसे करवाऊं, इसलिए मै अकेली ही चली आयी।"..


नीतू झटक कर मेरे साथ आती… "तू चिंता मत कर एक बार परिचय हो जाए उसके बाद अनजान नहीं रहेंगे।"..


मै, उसकी बात पर मुस्कुराकर फीकी प्रतिक्रिया देने लगी और दोनो साथ चल रहे थे… "हाय रे मोहन इसके आम तो आज कहर ढा रहे है, दिल कर रहा है दोनो हाथ से दबा दबा कर चूस लूं।"… "मुझे तो वो टिकोला ही मस्त लगती है, अपनी मेहनत से पुरा आम बनाकर चुसुंगा।"..


दोनो कमिने की फिर से वहीं फुहर कमेंट। मै गुस्से में झटक कर तेजी से चलने लगी और नीतू के मुंह से फिर से वही धीमी "हिहिहिहि" की आवाज। उसका मुंह छिपाकर दबी से आवाज़ में हंसना, एक बार फिर मुझे गुस्सा दिला गई। मै कुछ नीतू को रखकर सुनाती, उससे पहले ही सामने से 10 कदम पर नकुल कुछ लड़को के साथ खड़ा था।


मैंने अपने चेहरे के भाव ठीक किए और उसके पास पहुंच गई। नकुल के सभी दोस्त मुझे जानते थे इसलिए मेरे वहां पहुंचते ही सबने "क्लास में मिलते है।".. ऐसा कहकर चले गए।… "किसी खास विषय पर डिस्कशन कर रहे थे क्या नकुल।".. मैंने आते ही पूछा।


"नहीं, बस ऐसे ही खड़े होकर बात कर रहे थे।"… नकुल ने मुझे जवाब देते हुए कहा लेकिन उसकी नजरें तो कहीं और थी। मुझे समझते देर नहीं लगी कि ये भी एक लड़का ही है। मुझे एक छोटी सी शरारत सूझी। नकुल को घूरती हुई मै पूछने लगी… "मै यहां खड़ी हूं, तू कहां देख रहा है। भाभी (नकुल की मां) से तुम्हारी शिकायत करनी होगी मुझे।"


ऐसा लगा जैसे मैंने किसी भवरे को फूल पर मंडराने से रोक दिया हो। उसका ध्यान टूटा और वो हड़बड़ा कर… "मां से क्या शिकायत करोगी।"..



नीतू:- यही की कैसे मेनका ने एक लड़की को नजरंदाज करके पीछे पुतले की तरह खड़ा कर दिया।


"ओह सॉरी, मै तो भुल ही गई। नकुल ये है मेरी दोस्त मेनका। मेनका ये है नकुल।"… नीतू की बात से याद आया कि इसका परिचय करवाना तो भुल ही गई। वैसे नीतू इसी के वजह से ही तो पता चला कि नकुल भी एक लड़का है। मै अंदर ही अंदर हंसी और जबतक अपनी बातो में खोई थी, यहां इन दोनों की मुस्कुराकर बातें भी शुरू हो गई।


मै समझ चुकी थी कि कच्ची उम्र के आकर्षण का खेल शुरू हो चुका था। वैसे भी नीतू भले ही कितने लड़को को टीज क्यों ना कर ले, ये बात वो भी अच्छे से जानती थी कि किसी अनजान लड़के से बात करके उसे भाव देने का मतलब होगा पूरे कॉलेज के चर्चा का विषय होना। इसलिए आज जब टीज करने के साथ साथ सेफली बात करने का मौका मिल रहा था तो नीतू उसका लाभ अपने दोनों हाथ से उठा रही थी।


उस वक़्त तो ऐसा लगा जैसे मै ही इन दोनों से अनजान हूं। तभी मैंने नीतू की वो अदा भी देखी जिससे नकुल पुरा सिहर सा गया। नकुल की नजर उसके खुली हुई कुर्ती के बटन पर थी, ये हम दोनों को पता था। तभी नीतू ने अनजान बनते हुए एक छोटी से अंगड़ाई लेकर आना पुरा सिना खोल दी, और दबी आखों से नकुल को देखने लगी।


नकुल इस प्रकार से घुर रहा था मानो आखों से ही नीतू के कपड़े फाड़कर उसके गोल सुडौल बिल्कुल नए विकसित हुए चूची को नंगा देखना चाह रहा हो। लेकिन उसे शायद ध्यान आया हो की मै भी यहीं खड़ी हूं, इसलिए अपनी हरकतों पर वो विराम लगाते हुए सीधा खड़ा हो गया।


थोड़ी देर तक हम… नही, वो दोनो बातें करते रहे और मै तमाशा देखती रही। अगली सुबह तो और भी ज्यादा झटका लगा मुझे। हमारा घर से करीब 4 किलोमीटर पीछे जाने के लिए हमारी बोलेरो चल रही थी… "नकुल गाड़ी पीछे क्यों ले रहा है। हमे कॉलेज जाना है।"..


नकुल:- मेनका तुमने बताया नहीं कभी की तुम्हारी सहेली नीतू 2 किलोमीटर पैदल चलकर गांव के चौपाल पर आती है, और वहां से तांगे में रोज कॉलेज जाती है।


मै समझ गई की नीतू ने कौन सा जाल कल फेका था। क्यों वो पहली मुलाकात में ही उसे अपने यौवन के खुले दर्शन करवा गई थी। मुझे उसके अक्ल पर हसी और इस भोंदू के दिमाग पर गुस्सा सा आ गया। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कुछ ही देर में हमारी बोलेरो उसके घर के आगे खड़ी थी और गांव के लोग बोलेरो के दाएं बाएं ऐसे घेर खड़े थे कि, ये कौन आ गया।


एक मन तो हुआ कि इस भोंदू को ही नीचे जाने देती हूं, लोग जब घेर कर पूछेंगे की क्या काम है, तब पता चलेगा। मै यही सब सोच रही थी तभी नकुल कहने लगा… "मेनका जाओ ना अपनी दोस्त को ले आओ।"..


मै:- चल नीचे उतर, वरना लोग समझेंगे की तू ड्राइवर है।


हम दोनों साथ ही गाड़ी से नीचे उतरे, तभी एक बुढ़िया हमसे हमारा परिचय पूछ ली। उन्हें लगा सहर से कोई आया है। फिर जब हमने अपने परिवार का परिचय दिया तो लोग हमे घूरने लगे और आव भगत में लग गए। हम दोनों ने वहां मौजूद सबको मना करते हुए नीतू के घर में चले गए।


नीतू गांव के माध्यम वर्गीय परिवार से थी। पिताजी फौज में थे। घर में उसके दादा, दादी, मां, 2 छोटे भाई और वो घर की सबसे बड़ी लड़की। 6 कमरे का उनका पक्का के मकान और बड़ा सा आंगन था। आंगन में बैठकर उसकी मां और दादी खाना पका रही थी और नीतू अपने कमरे में तैयार हो रही थी।


उन लोगो ने भी हमारा परिचय पूछा। उन्हें हमने आने का कारन बता दिया। उसकी मां और दादी दोनो खुश हो गए। तांगे की सवारी में रोज कॉलेज जाना भी उनके लिए एक चिंता का विषय बना हुआ था, इसलिए हमारे साथ जाने से वो काफी ज्यादा खुश नजर आ रहे थे।


थोड़ी ही देर में नीतू को लेकर हमारी गाड़ी कॉलेज के ओर चल परी थी। मै नकुल के साथ आगे ही बैठी हुई थी और नीतू आराम से पीछे की सीट पर। गाड़ी जैसे ही थोड़ी दूर आगे बढ़ी, नकुल मिरर को थोड़ा सा एडजस्ट कर लिया। वो इतनी सफाई से यह काम किया की मै समझ नहीं पाई। मेरे ओर से उस मिरर से केवल साइड विंडो नजर आ रहा था, लेकिन मै साफ देख सकती थी कि नकुल का ध्यान बार-बार मिरर पर ही जा रहा था।


मैंने सोचा इसका ध्यान तो मिरर पर है, मै ही पीछे मुड़कर देख लेती हूं, चल क्या रहा है। मै जैसे ही मुड़ी, पूरी आवक रह गई। उसका दुपट्टा नीचे सीट पर रखा हुआ था। नीतू के कुर्ते के ऊपर 4 बटन लगे थे, जिसमे से 3 बटन खुले हुए थे। टाइट ब्रा से उभरती हुई उसकी चूची दिख रही थी और दोनो चूची के बीच की पूरी गहराई भी।


मै समझ नहीं पा रही थी कि वो तो लड़का है, ऐसे ही देखता रहेगा। लेकिन इस लड़की को क्या हुआ जो खुला निमंत्रण दे रही है। मै ये सब सोच ही रही थी कि तभी नीतू ने अपने क्लीवेज के बीच से एक चिंटा निकालकर नीचे फेकी और जल्दी से दो बटन लगाकर साइड से दुपट्टा ओढ़ लिया।


मै भी ना, खुद पर ही गुस्सा आ रहा था। इन्हीं सब उधेड़बुन में हम कॉलेज पहुंच गये। जैसे ही कॉलेज में मै पहुंची, नीतू मेरा हाथ खींचती हुई क्लास के किनारे ले गई… "वो मेरे कुर्ते में पता नहीं चिंटा कहां से आ गया, इसलिए मुझे मजबूरी में वो सब करना पड़ा। मुझे लगा नकुल का ध्यान सामने होगा लेकिन…."


"तुझे अक्ल नहीं की ऐसे मोमेंट पर किसी लड़के का ध्यान कहां होगा। वैसे मुझे आज इतनी सफाई क्यों दे रही है।"… मैं थोड़ा उखड़ी हुई आवाज में कहने लगी।


नीतू मेरी बात सुनकर गुमसुम हो गई और हम दोनों जाकर साथ बैठ गए। मेरी बात का शायद बुरा लगा होगा उसे। वो अगले तीन चार दिन तक ख़ामोश और लगभग गुमसुम ही रही। पांचवे दिन मैंने है अपनी चुप्पी तोड़ दी, और उसे घूरती हुई पूछने लगी… "क्या हुआ आज कल तेरे वायवाहर में ऐसा बदलाव क्यों।"..


फीकी सी मुस्कान अपने चेहरे पर लाती… "तू भी ना कुछ भी सोच लेती है। अच्छी हूं मै।"..


मैं:- उस दिन के उखड़े बर्ताव के लिए मुझे माफ़ कर दे। तू तो जानती है कि तू मेरे साथ रहती है, अब ऐसे में कोई अफवाह तेरे लिए उठे तो उसमें सीधा-सीधा मै भी लपेटे में आ जाऊंगी। फिर घर का माहौल ऐसा है कि तू भी पुरा दिन अपने घर में रहेगी और मै भी। जो भी बाहर निकलने का मौका मिलता है वो भी बंद।


नीतू:- मै बेवकूफ नहीं हूं मेनका, बस तू भोली है। कभी गांव कि गंदगी तूने देखी नहीं ना इसलिए ऐसा सोचती है। मै भुगत चुकी हूं इसलिए खुद को बचाए रखने का तरीका मैंने सीख लिया है।


मै:- तेरे कहने का क्या मतलब है नीतू।


नीतू:- कुछ बातें समझाने से समझ में नहीं आती, जब हालात से सामना होगा तो समझ जाओगी। वैसे एक बात मै बताऊं नकुल ने मुझे प्रेम पत्र दिया है।


मै, अपनी आखें बड़ी करती… "अभी तो उसके चेहरे पर रोएं ही आए है, ठीक से मूंछ भी नहीं उगी। दिखने में बच्चा लगता है, और तुम्हे प्रेम पत्र दे दिया। रुक इसकी खबर मै लेती हूं।


नीतू:- गांव की कोई भी लड़की या औरत, तुम्हे अपने प्रेम संबंधों के बारे में नहीं बताएगी, मैंने भरोसा किया है तुम पर मेनका।


उसकी बात सुनकर मेरा गुस्सा हवा हो गया। मै सोच में पर गई। कुछ देर मौन रहने के बाद… "अब क्या करेगी।"..


नीतू:- 4 लड़के की आवारागर्दी सहने से अच्छा है एक के साथ चली जाऊं, कम से कम उन 4 से तो बची रहूंगी।


मै:- क्या मतलब..


नीतू अपनी शरारती मुस्कान अपने होटों पर लाती… "कल तू खुद समझ जाएगी मेरी बातों का मतलब।"..


नीतू की बातें पहेली सी थी लेकिन अगले दिन मुझे सब कुछ साफ़ समझ में आ गया, कि वो क्या कहना चाह रही थी, और 4 दिन से किस दुविधा में थी। अगले दिन कॉलेज का माहौल काफी गरम था। नकुल और उसके साथ हमारे 20 लठैत, साथ में नकुल के 8-10 दोस्त, सब मोहन और राकेश, वहीं 2 लड़के जो हम पर अभद्र टिप्पणी किया करते थे और जिसकी बात पर नीतू, अपना मुंह छिपाकर खी खी कर दिया करती थी। उन्हें और उसके साथ उसके 2 और साथी उमाशंकर और प्रभात को भी दौरा-दौरा कर मार रहे थे।


थोड़े बहुत धुलाई के बाद चारो को मैदान के बीच में लाया गया। नकुल का गुस्सा अब भी कम नहीं हुआ था सायद, वो लगातार थप्पड़ मारे जा रहा था और उसे थप्पड़ मारते देख उसके दोस्त भी बाकियों पर हाथ साफ कर रहे थे। चारो को मैदान के बीच में लाकर बांध दिया गया।


प्रिंसिपल और अन्य लोग गांव के झगड़े में कभी अपना नाक नहीं घुसेड़ते थे। उन्हें पता था कि रहना यहीं है और इनसे बैर नही पाला जा सकता। अलबत्ता सभी कॉलेज स्टाफ मौजूद थे लेकिन सब चुप्पी साधे। लठैत ने हम दोनों के ओर इशारा करते हुए कहने लगा…
Awesome Super Update .
NITU BADA GAME KHEL GAYI MENKA KE SHAHARE AB DEKHTE HAI BHOLI MENKA IN GHATNAO KE JAAAL ME KAISE PHASHTI CHALI JATI HAI .
 

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पहली घटना… भाग 2






"बाबू साहब की बिटिया और उसकी सहेली को किसी ने चू शब्द भी बोला तो उस चूतिए को उसकी अम्मा के चूत में घुसा के ऐसा पेलेंगे, फिर कभी जवानी बाहर नहीं आएगी। सिकायात नकुल बिटवा ने कि थी इसलिए केवल वार्निग देकर छोड़ रहे है। सीकायत यदि बाबू साहेब की बिटिया मेनका ने कि होती, तो गायब कर देते। पढ़ने आए हो तो पढ़ाई करो, बाकी छिनरपन करोगे तो कूट देंगे मदरचोद, कान खोलकर सुन लेना।"..


त्रिभुवन काका पूरे गुस्से में उन लड़कों को वार्निग देकर वहां से निकल गए। नीतू की बात का मतलब मुझे आज समझ में आया था। उसकी बात जैसे ही समझ में आयी, मै हंसे बिना नहीं रह पाई। अंदर ही अंदर जैसे कुछ उमंग सा मच रहा हो और दिल से यही निकल रहा था… "मान गई तुझे नीतू। क्या दिमाग लगाया है।"..


कॉलेज से लौटकर जब मै घर पहुंची। मां, अपने दोनो पोते को लेकर मामा के घर जाने की तैयारी कर रही थी। शायद वहां भी कोई जमीनी मसला था इसलिए मां और पिताजी को जाना पर गया। मनीष भईया पहले से ही सहर गए हुए थे। सहर में हमारी कोठी का काम चल रहा था उसी को देखने। पापा ने वंशी चाचा और मुरली भईया को रात में बाहर बरामदे पर ही सोने और घर की देखभाल करने के लिए कह गए थे।


दोनो हमारे पुराने मुलाजिम थे जो खेत का पूरा काम देखते थे, हां लेकिन दोनो में से किसी को बिना बुलाए अंदर आने की इजाजत नहीं थी। इन लोगो के बैठने और मेरे पापा के गप्पे लड़ाने के लिए बाहर एक बड़ा सा बरामदा बाना हुआ था, जिसमे हमेशा 20-30 कुर्सियां। एक साफ सुथरा बिस्तर, और रात में लोगों के सोने के लिए एक्स्ट्रा चादर, गद्दे, तकिए और मच्छरदानी रखे हुए रहते थे।


इन सब बातो में एक बात अच्छी हो गई, पापा ने जाने से पहले मुझे भी एक मोबाइल देते हुए चले गए। मेरे कई दिनों की ख्वाइश थी कि मेरे पास भी एक मोबाइल हो, लेकिन दिल तब छोटा हो गया जब उन्होंने बटन वाला मोबाइल पकड़ा दिया, जबकि मुझे भी भाभी जैसा स्मार्ट फोन चाहिए था।


खैर, जो मिले उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। मैं भी मन मार कर रह गई। अगले 4-5 दिनों तक मेरे कॉलेज की छुट्टी थी। आज बहुत दिनों बाद मै सुबह-सुबह मुस्कुराती हुई जागी। मन में बस यही ख्याल आ रहा था कि दिल जीत लिया नीतू। हालांकि इन सबसे ज्यादा मन में ये चल रहा था कि नीतू ने नकुल के प्रेम पत्र का क्या जवाब दिया होगा।


बिस्तर पर बैठकर यही सब मै सोच रही थी कि तभी… "आह्हःहहहहह.. भाआआआआ.. भीईईईईईईई" … मेरे चेहरे पर दर्द की सिकन पड़ चुकी थी और मै लगभग छटपटा सी गई। मै जब अपनी ख्यालों में खोई हुई थी, तब भाभी दबे पाऊं मेरे कमरे में कब आ गई पता ही नहीं चला। और आते ही उन्होंने मेरे छाती पर हाथ डालकर, छाती से थोड़ा सा उभरे मेरे स्तन के ऊपर, दोनो निप्पल को पकड़ कर पूरी ताकत से मरोर दी।


मेरी तो जान ही निकाल दी। मै गुस्से से उन्हें घूरने लगी, मेरी आखें हल्की पनिया गई थी और जी कर रहा था मै उनका मुंह नोच लू। अभी यदि हाथ में कोई चाकू होता तो खाचक-खाचक उनके पेट में घुसा देती। लेकिन कर भी क्या सकती हूं, वो बिल्कुल भारी-पूरी बदन कि 30 साल की औरत और मै कहां दुबली पतली सी 11th में पढ़ने वाली एक छोटी सी लड़की। भाभी के छाती के पीछे तो मै आधी ढक जाऊं।


कभी-कभी ना मै भाभी को देखती हूं, तो मन में बड़ी जिज्ञासा सी होती है कि काश मै भी थोड़ी और हेल्दी होती, तो इन्हे एक बार पटकने की कोशिश जरूर करती। मेरे सामने भाभी बैठे हुए हंस रही थी और मै रोनी सी सूरत लिए बस उन्हें घुरे जा रही थी।..


"क्या हुआ मेमनी (भाभी मेरे दुबले पतले शरीर को देखकर अक्सर मुझे मेमनी पुकारा करती थी, बकरी का छोटा बच्चा जो पैदा लेते ही फुदकते रहता है वहीं)"


भाभी की बात सुनकर मै गुस्से से चिढ़ती हुई कहने लग गई… "क्या मिलता है ऐसे ये सब करके, आपको रुलाने में मज़ा आता है ना।"..


भाभी:- पागल, तेरे यौवन को निखार रही हूं। चूची थोड़ी बड़ी दिखेगी तब ना तू और भी सुंदर दिखेगी। भगवान ने तुझे इतना प्यार चेहरा दिया, गोरा रंग है, पतली कमर है। बदन की पूरी बनावट पर बस तेरी ये समतल छाती तुझे मात दे देती है।


भाभी की बातें बहुत ही अजीब थी। हालांकि वो पहली बार ऐसी बातें नहीं कर रही थी, लेकिन वो जब भी मुझसे ऐसी बातें करती, मुझे बहुत ही बेकार लगता सुनने में। फिर कौन कीचड़ में ढेला फेके और खुद अपने ऊपर कीचड़ उछाले, इसलिए मै ही चुपचाप उठा गई और उसकी बातो पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिए अपने बाथरूम में घुस गई।


कुछ देर बाद जब नहाने के लिए मै बैठी, तब अपने कपड़े उतारकर, अपने छोटे छोटे स्तन को देखने लगी। भाभी ने इतना कसकर मरोरा था मेरे निप्पल को, की अब भी उनमें दर्द उठ रहा था। मै धीरे-धीरे अपने हाथ से उसे प्यार से सहलाने लगी। मेरे अपने हल्के हाथों से स्तन में उठ रहे दर्द को सहलाने लगी। दर्द से हल्की टीस भी उठ रही थी, जो हौले हथों से हाथ फेरने पर बड़ा सुख दे रही थी।


मै इतना आनंदित हो उठी की धीरे-धीरे मेरी श्वांस बिखरने लगी। तभी बाथरूम के दरवाजे पर भाभी खड़ी होकर चिल्लाने लगी… "ओ मेमनी, निकल बाहर और कितना नहाएगी।"..


मै खुद को किसी तरह सामान्य करती… "क्या है भाभी, अब नहाने भी नहीं दोगी क्या?"..


भाभी:- अरे तेरा नहाना नहीं हुआ तो दरवाजा खोल मै तुझे रगड़ रगड़ के नहला देती हूं।


मै:- पागल हो गई है आप। मां रहती है फिर तो आवाज़ नहीं निकलती और अभी मां नहीं है तो बेशर्मों की तरह कुछ भी बोल रही।


भाभी:- शादी के बाद तू भी मेरी जैसी ही हो जाएगी। जल्दी बाहर निकल हम मंदिर जा रहे है।


मै:- मंदिर ? लेकिन ऐसा तो कोई प्लान नहीं था।


भाभी:- अब क्या मंदिर जाने के लिए भी प्लान करना होता है।


मै:- ठीक है आप जाओ, मै थोड़ी देर से तैयार होकर आती हूं।


स्नान ध्यान करके मैंने अपने गीले बालों में बाहर आ गई और सीधा अपने देवता घर में घुस गई… "ये सब क्या है भाभी, आप नहाकर आज पूजा भी नहीं की है क्या? कल वाले फूल भगवान के सामने ऐसे ही है, और ये आज का फूल कहां है।"..


भाभी झटपट अपने कमरे से दौड़ती हुई अाई। थोड़ा सा अफ़सोस करती मुझसे उन्होने माफी मांगा, और फुल लाकर मुझे दे दी। पूजा समाप्त करके मै तैयार होने चल दी। तकरीबन 15 मिनट बाद जब मै तैयार होकर आयी, भाभी आंगन में ही मेरा इंतजार कर रही थी।


पूजा करने के कारन तब शायद मैंने ध्यान नहीं दिया था लेकिन अभी जब उन पर नजर गई, मै तो उन्हें देखती ही रह गई। बिल्कुल लाल जोड़े में किसी नई नवेली दुल्हन की तरह श्रृंगार की हुई थी भाभी। चेहरे का पानी और भड़े पूरे शरीर पर ये लाल जोड़ा काफी जच रहा था उन पर… "क्या बात है भाभी, आज तो बिल्कुल आपने रिकॉर्ड तोड रखा है। कहीं कोई भाई तो नहीं आने वाला, जिसे लुभाने के लिए इतना सज सवर कर निकल रही।".... ताने देते मैंने भाभी से कहा और हसने लगी


"अच्छा जी, इसका मतलब तू जब भी सुबह तैयार होती है, अपने भाई को दिखने के लिए तैयार होती है क्या?"… भाभी मुझे प्रति उत्तर में कहने लगी।


"पर मै तो कभी तैयार ही नहीं होती भाभी… हीहीहीही"… हंसते हुए मैंने उनके दोनो गाल कसके खींच लिए और आज सुबह का बदला भी ले लिया। भाभी "आव" करती हुई थोड़ा चीखी और फिर हसने लगी। घर के बाहर हमारी गाड़ी पहले से तैयार थी। मै और भाभी पीछे बैठ गई और वो दोनो आगे बैठे गाड़ी को मंदिर के ओर ले लिया।


घर से तकरीबन 9 किलोमीटर अंदर गांव के एक भाव्या सा मंदिर बना हुआ है, जिसकी सोभा सुंदर और सजावट काफी दूर-दूर तक मशहूर है। इस मंदिर को और भी सबसे ज्यादा खास बनता है यहां के पुजारी का बेटा। सांवला सुंदर बदन, कमल के समान उसके नयन, रूप ऐसा की मन मोह ले। मंदिर में जब भी उसे देखा गेरूवा रंग की धोती पहने, कांधे पर लाल गमछा, बदन पर जेनाव धारण किए, ललाट पर तिलक।


इतने आकर्षक रूप पर उसकी मधुर आवाज। सुबह की आराधना और शाम की आरती वहीं किया करते थे, जिसे एक बार सुन लो तो मन बिल्कुल शांत और चेहरा खिल जया करता था। मै जब 12 साल की थी तब यहां आयी हुई थी, मुझसे वो 1-2 साल ही बड़े होंगे। तब शायद घर में रहने की वजह से मुझमे इतनी समझदारी नहीं थी और उस वक़्त मेरे छोटे भईया की नई-नई शादी हुई थी।


पहले तो मै उनके रूप पर मोह गई फिर जब सुबह की आराधना और शाम की आरती सुनी तो पूरे परिवार के बीच, मै अपने पापा से कहने लगी… "पिताजी मुझे इनसे शादी करवा दो, ये मुझे बहुत पसंद है।" .. मेरी बात सुनकर सब हसने लगे। बहुत पुरानी बात ही गई, लेकिन जब भी मै उनके समक्ष होती हूं, लगता है अभी चंद मिनट पहले ही तो मैंने अपनी बात कही थी।


मै जब भी उनको देखती तो बस उन्हीं में खो जाती और जब भी उनकी नजर मुझ पर पड़ती तो मै हड़बड़ी में अपना नजर फेर लेती। हरी शंकर मिश्र सुनने में बड़ा प्यारा लगता था ये नाम। गाड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी, तभी भाभी मेरे कंधे को हिलाती हुई कहने लगी… "क्या हुआ, ससुराल जाने की खुशी है क्या?"..

मुस्कुरा तो मै पहले से रही थी, भाभी की बात सुनकर मै शर्मा गई और बिना कोई जवाब दिए सीसे के बाहर देखती हुई पूछने लगी… "भाभी ये अपने खेत है ना।"..


भाभी, उन खेतों को देखती… "मुरली भईया ये खेत अपने है ना।"..


मुरली:- हां भाभी जी..


मै:- मुरली भईया फिर यहां फसल क्यों नहीं लगाई है?


मुरली, थोड़ा चिढ़ते हुए… "अभी बच्ची हो, बरों जैसी बातें मत करो।"


भाभी:- जुबान संभाल कर मुरली, तुम्हे भईया कहते है इसका ये मतलब नहीं कि तुम बच्ची के साथ ऐसे चिढ़कर बात करो और उसे डांटो। कोई गलत सवाल नहीं की थी।


वंशी:- माफ कर दो इसे छोटी बहू, आज कल इसकी बहुरिया (पत्नी) नहीं है तो थोड़ा खिस्याया रहता है।


भाभी वंशी चाचा की बात पर थोड़ा सा हंस दी। फिर थोड़ा शांत लहजे में कहने लगी… "मुरली भईया आइंदा ध्यान रहे, मेनका ने आज तक कोई ऐसा काम नहीं किया है जिससे की किसी को उसपर चिल्लाना भी परा हो। दोबारा यदि मैंने चिढ़ते हुए तो क्या, इसके सवाल को मना करके या बात टालते हुए भी सुन लिया तो आप अपने घर रहिए, हम अपने घर खुश है। हिसाब किताब समेट कर बात खत्म करेंगे।


मुरली:- भाभी माफ कर दीजिए, मेनका तुम भी माफ कर दो। मै थोड़ा पारिवारिक उलझन में था इसलिए चिढ़ गया।


भाभी:- जी आप की सारी बातें जायज है लेकिन इसमें हमारी मेनका का कोई दोष तो नहीं। खैर आप बताइए उस खेत में फसल क्यों नहीं लगाई इस बार।


मुरली:- भाभी जी वहां पान और केले की खेती के लिए जमीन को प्रति छोड़ा गया है।


थोड़े से गहमा गहमी और बातों के दौरान हम मंदिर प्रांगण में दाखिल हो चुके थे। मैंने समय देखा और भागकर मंदिर में गई। सुबह की आराधना का वक़्त हो रहा था, और मै, फूल और बेलपत्र चढ़ने से लेकर धूप जलने तक की सारे शुरवाति चीजों को छोड़ना नहीं चाहती थी। मै भागकर गई और सबसे आगे जाकर खड़ी हो गई।


आह ! मंदिर से ताजा आते फूलों की खुशबू और वहां जलने वाले धूप दीप, मन को अति प्रसन्न कर रहे। यहां के इस मनमोहक माहौल में तभी हरी शंकर जी की मधुर वाणी सुनाई देने लगी। अच्छा हुआ आज दिखे नहीं, वरना मुझे फिर से आज कुछ कुछ होने लगता।


कंठ से जैसे स्वयं स्वरावती जी वाश रही हो। उनकी आराधना सुनकर वहां मौजूद हर कोई भाव विभोर हो उठा। मंदिर लगभग भरा हुआ था और वहां ऐसा एक भी नहीं था, जो आखें मूंदे हरी शंकर जी के मधुर रस वाणी में खोया हुआ ना हो। आराधना समाप्त हो चुकी थी और भक्त अपने प्रसाद लेकर जा रहे थे।


आराधना होने के बाद मैंने भी फुल अर्पण किया और प्रसाद लेकर जैसे ही जाने को हुई, पुजारी जी ने टोक दिय… "मेनका सुनो जरा बेटा।"..


मै:- जी बाबा…


पुजारी जी अपने पास रखा एक छोटा सा बैग मुझे देते… "इसे संभाल कर ले जाना और सिर्फ अपने पिताजी के हाथ में ही देना।"


मै:- बाबा, मेरे साथ भाभी, वंशी चाचा, और मुरली भईया आए है।


पुजारी:- तुम्हारे घर का एक नौकर तो मुझे दिखा था, मुझे लगा तुम उसी के साथ आयी होगी। लेकिन तुम्हारी भाभी और मुरली आया है, शायद देख नहीं पाया मै।


पुजारी जी की बातें थोड़ी हैरान करने वाली थी। वंशी चाचा यहां था, फिर मेरी भाभी और मुरली कहां गया। कहीं उस मुरली ने तो…. सुबह भाभी ने उसे डांट दिया था, और धमकाया था सो अलग… मेरे चेहरे पर हल्का खिंचाव आने लगा, जिसे पुजारी जी भांपते हुए पूछने लगे…. "क्या हुआ बेटा।"..


मै:- कुछ नहीं बाबा बस आपकी बातो को सोच रही थी। केवल पापा को देना है तो मै भाभी और बाकियों से क्या कहूंगी।


पुजारी जी:- ये लो हो गया काम। इसमें मैंने रामचरित्र मानस, भगवता गीता, विष्णु पुराण, और ऐसे ही 4-5 पुस्तकें डाल दी है, कोई पूछे तो कहना बाबा से मांगे थे किताब और उन्होंने दिए है। हां, लेकिन किताब को पूजा घर या किसी सुद्घ स्थान पर रखना… तुम बच्चे लोग अपने ऊपर तो पुरा ध्यान देते हो, लेकिन ये सब छोटी-छोटी बातें भुल जाते हो।


मै:- मै बिल्कुल नहीं भूलूंगी, आप निश्चित रहिए और ये झोला केवल पापा के हाथ में जाएगी, मै अपनी मां को भी नहीं दे सकती, और कोई बात बाबा।


पुजारी जी हंसते हुए मुझे आशीर्वाद दिए और मै भागकर नीचे मंदिर में प्रांगण में आ गई। मै अपने सैंडिल भी पहन रही थी और चिंता से चारो ओर नजर भी दौड़ा रही थी। मेरी चिंता मेरे चेहरे से साफ पढ़ी जा सकती थी।


मुरली था तो एक नंबर का दबंग, जिसका सिक्का कई टोलों पर चलता था। अगर रास्ते की बात का गुस्से में उसने कहीं भाभी के साथ कुछ उल्टा सीधा कर दिया तो यहां बस इज्जत देखी जाती है। चुपचाप भाभी और मुरली का कत्ल करवा देते और उसे ऐक्सिडेंट का शक्ल दे देते। ताकि दिल की आग भी शांत हो जाए और इज्जत भी बच जाए।


इन्हीं सब उधेड़बुन में मै अपने सैंडल पहनकर एक बार और चारो ओर देख ली, लेकिन भाभी का कहीं कोई पता नहीं था। गाड़ी के पास मुझे दूर से ही वंशी चाचा दिख रहे थे, जो बाहर खड़े थे। दिमाग में हजार धारणाएं बनने लगी थी और घबराहट के कारन मेरे पाऊं थोड़े-थोड़े कांप रहे थे।


मै रोना चाह रही थी, चींख-चींख कर भाभी पुकारना चाह रही थी, लेकिन मै ऐसा कर नहीं सकती थी। किसी तरह हिम्मत करके मै बांस वाले जंगल के ओर चल दी, जहां लगभग कोई नहीं जाता। मन में हजार सवाल और मै चारो ओर देखते धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी….
Behad hi shandar or jabardast update
Lagta hai murli aur bhabhi ke beech kuchh chal raha hai ab menka ko kya dekhne ko milta hai jungle me .
 
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पहली घटना:- भाग 3



सुन पड़े मन से मै आगे बढ़ रही थी। अंदर से अजीब सा डर लग रहा था। मैं तकरीबन 20 कदम आगे गई होऊंगी की मुझे दूर से भाभी आती हुई नजर आने लगी। एक दम से उसका हंसता हुआ चेहरा ख़ामोश पर गया, और वो अपनी जगह कुछ पल के लिए रुक गई।


छनिक मामला था और भाभी फिर से वापस हंसती हुई मेरे ओर कदम बढ़ाने लगी, जैसा पहले आ रही थी। वो जैसे-जैसे मेरे करीब आ रही थी, मै उनके चेहरे पर कुछ तो अलग सा मेहसूस कर रही थी। हालांकि सब कुछ तो बिल्कुल सही ही था, लेकिन घर से निकलते वक़्त के चेहरे की मेकअप और अभी का हाल में जमीन आसमान का अंतर था।


2 कदम और आगे बढाई तो उसके छातियों के पास हल्की नजर गई। झटक के चलने के कारन उनके एक साइड से पल्लू थोड़ा हट गया और उनके ब्लाउज के ऊपर पड़ी सिलवटें अपनी कहानी बयां कर गई। मै इससे पहले की कुछ और समझ पाती, मुझे ऐसा क्यों लगा कि भाभी बिल्कुल मुझे कवर करने की कोशिश कर रही है, और जब मैने किनारे हटकर दूर देखी तो मुझे ऐसा लगा कि 2 लड़के दौड़कर किनारे से निकलने की कोशिश कर रहे है।


दिमाग सुन सा पर गया तभी मेरे कानो में आवाज़ सुनाई दी… "क्या हुआ यहां सुनसान जगह पर किन ख्यालों में खोई हुई है।"..


मै:- कहां चली गई थी आप भाभी, मै आपको कबसे ढूंढ रही हूं.


मेरी बात पर भाभी हंसती हुई…. "हां मै नहीं थी तो वहां मुरली और वंशी तो थे ना, इसमें इतना घबराने जैसा क्या है. यहां किसी परिवार की औरत को लेकर डिलीवरी के लिए जा रहे थे. गांव से निकलते वक़्त बांस के जंगल में ही लेबर पेन शुरू हो गया था और उसके सगे संबंधी बेचारे मदद लिए मंदिर ही पहुंच गए.


भाभी इतना कह ही रही थी कि एक बूढ़ा व्यक्ति और उसके साथ एक बूढ़ी औरत हमारे करीब पहुंच गई। नम आंखों से वो आभार व्यक्त करने लगी और 6 दिन बाद हमारी कोठी पर आकर वहीं अपने नातिन के नामकरण की जिद करने लगी। भाभी उन्हें शालीनता से समझती हुई कहीं की ऐसे मामले में वो कुछ नहीं कर सकती ,उनकी सास जो कहेंगी वहीं होगा।


थोड़े जोड़ जबरदस्ती के बाद भाभी ने मां को फोन लगा दिया, उधर से जो भी बात हुई हो, फिर उनकी खुशी के लिए 6 दिन बाद उन्हें कोठी आने तो नहीं कही, किन्तु उनका निमंत्रण स्वीकार करके उनके घर आकर बच्चे का नामकरण करके जाएंगे ऐसा उन्होंने कह दिया।


इसके बाद हम दोनों ही घर आ गए। भाभी की बात पर यकीन तो था, लेकिन मन मानने को तैयार नहीं था कि जंगल में कुछ ना हुआ हो। क्योंकि मुझे सामने देखकर उनका हंसते हुए कुछ पल ख़ामोश होना, और फिर उनके ब्लाउस पर परी सिलवटें, ना चाहते हुए भी मेरा ध्यान भटकाने को तैयार थे।


एक मन कह रहा था नहीं मेरी भाभी बिल्कुल भी ऐसे नहीं हो सकती, ये गंदे ख्याल मात्र मेरे मन की उपज है. वहीं दूसरी ओर बार बार ध्यान उन्ही सिलवटों पर जाता, जो इशारा कर रहे थे कि भाभी की चूची को किसी ने ब्लाउस के ऊपर से ही रगड़ दिया है, और इसमें खुद भाभी की भी रजामंदी थी वरना इतनी खुलकर हंसती हुई नहीं आती।


इन्हीं सब कस-म-कस में रात हो गई. मेरी जारा भी खाने की इच्छा नहीं थी लेकिन भाभी के जिद पर जब निवाला उन्होंने अपने हाथ से उठाकर मेरे मुंह के सामने रख दिया, तो मजबूरी में खाना परा। एक बात तो थी वो मुझे बेटी की तरह मानती थी। कई ऐसे मौके मैंने देखे थे जब भाभी, मेरी मां और पापा के सामने कभी जुबान नहीं खोली, लेकिन वो मेरी छोटी छोटी ख्वाहिश के लिए उनसे जिद कर बैठती थी।


खैर खाना खाकर मै सोने जा रही थी तभी भाभी पीछे से आयी और मुझे बिस्तर पर बिठाकर… "बात क्या है मेमनी, जबसे मंदिर से लौटी हो तुम्हारा उछालना कूदना बिल्कुल बंद है।"..


मै:- कुछ नहीं भाभी, बस आपको मंदिर में नहीं देखी, और जब बहुत ढूंढने के बाद भी आप नहीं मिली तो मै डर गई थी।


भाभी:- कैसा डर ?..


भाभी थोड़ा संजीदा होती हुई पूछने लगी। उनकी आंख कह रही हो मानो, कहीं कुछ उल्टा सीधा तो नहीं सोच ली…. भाभी का चेहरा देखते हुए मै कहने लगी… "भाभी मुझे लगा वो मुरली कहीं अपने डांट का बदला ना आप से लेने गया हो। कहीं जंगल में आपको ले जाकर मार ना दे। इन लोगो का कोई भरोसा थोड़ा ना है।"..


भाभी मेरी बात सुनकर मेरे पीछे बैठ गई, और मेरे बालों को खोलती हुई कहने लगी…. "कितने रूखे बाल है तेरे मेमनी, आज कल रात में तेल नहीं लेती क्या?"..


मै:- भाभी मैंने अपनी चिंता बताई और आप है कि…


भाभी पीछे से मेरे बालों में तेल लगाती… "इतना सोच रही थी तो सर भारी हो गया होगा ना, तेल लगाते हुए बात करते है। सुन मुरली और वंशी भरोसे के आदमी है तभी पिताजी ने उन्हें रखवाली के लिए बोला है, वरना वो कभी नहीं कहते। गलती मुझसे हुई जो मै तुम्हे बता नहीं पाई, और तू भी ना इतनी चिंता और डर में पुरा दिन घूम रही थी। उनसे इतना ही डर लग रहा है तो पिताजी से फोन करवा दू, बोल दू क्या उन्हें जाने की।"..


मै:- नहीं रहने दो भाभी, फिर बखेड़ा खड़ा हो जाएगा। पापा मुझसे पूछेंगे बात क्या हो गई और मै उन्हें झूट नहीं कह पाऊंगी। पूरी बात जानकर खा-म-खा बखेड़ा खड़ा हो जाएगा.

भाभी:- ठीक है सुबह बात करते है, जा तू सो जा अभी। और इतनी चिंता नहीं करते, मुरली जैसे 3-4 को तो मै अकेले कहां गायब कर दूंगी, उन्हें पता भी नहीं चलेगा।.


भाभी अपनी बात कहकर निकल गई। जाते-/जाते टेबल पर परा गलास का दूध भी पीने के लिए कहती गई। कुछ देर तक मै लेटी रही और भाभी घर के छोटे मोटे काम समेट रही थी। मैंने उठकर देखा तो दूध में कचरा परा हुआ था, दूध बाथरूम में फेंककर, मैंने गलास और खाने की थाली को बाहर रख दिया और दरवाजा बंद कर दी।


रात के 8 बज गए थे लेकिन नींद मुझसे आज कोसों दूर थी। पता नहीं क्यों आज मुझे भाभी के किसी भी बात का यकीन होकर भी यकीन नहीं हो रहा था. कस-म-कस में मै ऐसी उलझी, की लगा सुबह से मै एक ही बात सोचे जा रही हूं कहीं मेरा दिमाग खराब ना हो जाए।


मैंने लाईट ऑफ कर दी और स्टडी लैंप ऑन करके अपनी बुक निकाल ली. पहले 10 मिनट तो मुझे बार-बार भाभी के ख्याल और उनके ब्लाउज की सिलवटें ही याद आती रही, लेकिन धीरे-धीरे किताब में मन लग गया। लगे भी क्यों ना, हम जैसे लड़की लड़कियां, जिन्हे गांव से कोई सरोकार नहीं होता, बस परिवार के कहने से किसी काम का हिस्सा बनते है, उनके लिए किताब ही साथी होता है।


मेरा टाइम पास, मेरा गहरे खयालात भागने का जरिया या फिर जो कह लीजिए, लेकिन ये एक ऐसी साथी थी, जिसपर 10 मिनट ध्यान लगा दो तो फिर सारे ख्याल दिल से निकल जाते थे। और पढ़ने कि ऐसी लत लगी थी कि मेरे लिए तो मैथ कोई थ्रिल की कहानी और हिस्ट्री फैंटेसी ड्रामा हुआ करती थी।


अपने पास तो कभी कोर्स के किताबों की कमी रही नहीं। एक ही विषय के 4-5 लेखाओं की पुस्तक मै साल के शुरवात में ही ले लिया करती थी, कभी किसी ने माना भी नहीं किया था। खैर पढ़ते हुए धीरे-धीरे विषय अच्छा लगने लगा और भाभी का ख्याल दिमाग के नीचे कहीं दबकर रह गया।


पढ़ते-पढ़ते रात के 12.30 बज गए थे। मुझे झपकी सी लग रही थी और खट से मेरा सर टेबल से टकरा गया… चोट जोरदार लगी और मै टेबल को घूरती हुई देखने लगी… "पिताजी को बोलकर इसपर गद्दे चढ़वा दूंगी, इसका लकड़ी मुझे आए दिन परेशान करता है।"..


मै अभी अपने सर के दर्द और टेबल के इलाज के बारे में सोच ही रही थी, कि मुझे लगा कोई मेरे दरवाजे पर आकर खड़ा हुआ है। जैसे ही ये एहसास हुआ मुझे अंदर ही अंदर डर सताने लगा. मुझे लगा सबको पता है कि घर में केवल मै और भाभी है, इसलिए मौका देखकर कहीं चोर तो नहीं घुस आया.


मै सोच ही रही थी सबको चींख कर सबको जगा दू, लेकिन अगले ही पल मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई. दरवाजे से आती धीमे पायल की आवाज और मेरे दरवाजे की हैंडल खिंचते वक़्त चूड़ियों की खनक ने मुझे चोर के विषय में पूरी जानकारी दे गया।


मै भोली और कम उम्र की तो जरूर थी, लेकिन कम अक्ल कभी नहीं रही। मुझे भले ही कितनी भी बंदिशों की शिकायत क्यों ना रही हो, लेकिन मुझे पता था कि मेरे घरवाले मुझे गांव के किस गंदे माहौल से दूर रखने की कोशिश कर रहे है, इसलिए इतनी सिकायात होने के बावजूद भी कोई सिकवा या गीला कभी नहीं किया, और ना ही कोई बैर पाली।


लेकिन अभी जो हो रहा था वो मेरे समझ से परे था। आखिर भाभी क्यों नहीं चाहती कि मै रात में उठकर बाहर निकलूं? आखिर उनकी मनसा क्या थी? मेरे सवाल मेरे मन में थे, जिसका जवाब मुझे बाहर जाने पर मिलता, और मेरी चालाक भाभी ने बाहर से गेट का हैंडल लगा दिया था, पर अपनी होशियारी में वो ये भुल चुकी थी कि पिताजी के कमरे के दरवाजे में शानदार लॉक सिस्टम लगा है, जिसे बाहर से खोलने और बन्द करने के लिए केवल चाबी की जरूरत पड़ती है।


इधर पिताजी के कमरे से लगा मेरा कमरा था और बीच में एक दरवाजा, जिसे मै अपनी मर्जी से खोल और बंद कर सकती थी. पहले ये दरवाजा नहीं था, लेकिन बहुत पहले एक रात मै किसी भयानक सपने के कारन उठकर सुबकने लगी थी. मै इतनी डरी हुई थी कि अपना दरवाजा खोल नहीं पाई. व्याकुल होकर पापा और मेरे बड़े भईया महेश ने मिलकर मेरे कमरे का दरवाजा तोड़ दिया. उसी के अगले दिन पिताजी ने बीच में दरवाजा लगवा दिया. जिसमे हैंडल ना देकर, लॉक लगा हुआ था जिसकी चाभी हम दोनों के पास थी.


भाभी की चालाकी पर मुझे हसी आ रही थी और शंका तो सुबह से ही मन में था. बस अब ये देखना था कि मेरी शरीफ और संस्कारी भाभी किसके साथ गुल खिला रही थी. फिर तुरंत ही मन में ये ख्याल भी आता कि हे भगवान में झूठी साबित हो जाऊं. मै बिना कोई आवाज किए पिताजी के कमरे में आ गई, और ऐतिहात से उनके कमरे का दरवाजा खोलकर मै बाहर आयी.


मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी और मेरा शक यकीन में बदलता जा रहा था. भाभी के कमरे की खिड़की से लगा पर्दे से लाइट बाहर आ रही थी, उसी के साथ चूड़ियों के जोड़-जोड़ से खनकने की आवाज भी आ रही थी, और सब कुछ मेरे नजरो के सामने था।


अंदर कमरे में…


कमरे की पूरी लाइट जली हुई थी और रूपा भाभी सामने के दीवार से बिल्कुल चिपकी हुई थी. रूपा बिल्कुल सुबह वाले रूप में पुरा श्रृंगार कि हुई थी. चेहरे पर अजीब सी कामुक चमक, ऊपर से लाली और पाउडर चेहरे को किसी दुल्हन की तरह सवार रखा था. रूपा भाभी सच में रूपवान रती लग रही थी.


थोड़े नीचे ब्लाउस में उसकी कसी हुई 36 के साइज की चूची, उसके कामुक स्वांस से ऊपर नीचे होती उसके बदन को और भी आकर्षक बना रही थी. नीचे पुरा उसका खुला हुए पेट जो बिल्कुल सपाट और चिकना लग रहा था, जिनकी गहरी नाभि का दृश्य इतना मनमोहक था कि नजरे बस टिकी रह जाए.


बिल्कुल कमर के नीचे पेटीकोट बांधी हूं थी, जिसके कमर के ऊपर का वो किनारा, इतना कामुक कर्व मानो गांव में रहकर भी खुद को पूरा मेंटेन किए हुए है. इतनी सुन्दर और कामुक औरत के नीचे पेटीकोट के अंदर वंशी अपना सर डाले चुत को फैलाकर अपने जीभ घुसाए पुरा चूत का रस चाट रहा था.


रूपा पेटीकोट के ऊपर से उसके सर को पकड़कर अपने चूत के ऊपर पुरा दबाव बनाती, कमर हिलाकर चूत को उसके चेहरे से घिस रही थी. तभी बाथरूम का दवाजा खोलकर मुरली पूरे नंगे ही बाहर आया. लंबा कद काठी, चौड़ा सीना, सीने पर घुंगराले बाल और चेहरे पर तनी मूंछें, 32 साल का पूरा मर्दाना जिस्म था उसका.


आते ही उसने रूपा का गला पकड़कर अपने ओर मोड़ लिया और अपना बड़ा सा मुंह खोलते हुए, अपना जीभ उसके मुंह में घुसा कर चूसने लगा। रूपा का बदन मस्ती में मादक अंगड़ाई लेने लगा और वो वंशी के मुंह पर अपनी पूरी चूत रगड़ने लगी.


55 साल का वो बुड्ढा वंशी पेटीकोट से अपना सर बाहर निकाल लिया. उसका पूरा मुंह गीला और मुंह पर 1,2 बाल भी चिपका हुआ था, जिसे हाथो से साफ करके वो हटाया और पेटीकोट का नाड़ा खोलकर उसे नीचे जमीन में गिरा दिया. पेटीकोट के खुलते ही रूपा की चौड़ी मोटी जांघें और खुली चूत बिल्कुल सामने थी.


वंशी पागल कुत्ते की तरह जांघ के सबसे मोटे हिस्से पर अपने दोनो हाथों रखा और उसके दोनो पाऊं को पूरा फैलाकर थोड़ा ऊपर कर दिया. बुड्ढा जोश-जोश में र पा को थोड़ा हवा में रखकर उसकी पूरी खुली चूत पर, अपने थूक में पुरा गीला जीभ उसके चूत से चिपकाकर धीरे-धीरे चाटने लगा. बीच-बीच में वो अपने दांत से क्लिट के दाने को चूसकर ऐसा ऊपर खींचता की रूपा की पूरी श्वांस बिखर जाती.



ऊपर उसके पूरे होंठ कर रसपान चालू था और मुरली अपने हाथ आगे बढ़ा कर एक-एक करके उसके ब्लाउस के बटन खोलने लगा. थोड़ी ही देर में ब्लाउज़ के दो हिस्से हो गए और उसकी तनी हुई भारी चूची बाहर थी. मुरली मस्ती में पागल होकर उसकी दोनो चूची को अपने मुट्ठी में भरकर दबोच रहा था। तभी रूपा चुम्बन को तोड़ती…. "आह्हहहहहहहहहहहहहहहहहहह, ऊम्ममममममममममममममममम… मुरलीईईईईईईई…" करती उसके कांधे से पर अपने दांत काटने लगी. रूपा उत्तेजना में बिल्कुल पागल हुई जा रही थी और नीचे वंशी उसकी चूत में जीभ घुसेड़कर आग को भड़का रहा था। इसी बीच वंशी दरारों के बीच से अपनी एक उंगली उसकी गान्ड में घुसा दिया, रूपा ..… "उफ्फफफफफफफफफफफफफ" करती उछलकर पूरे मुरली के ऊपर आ गई। मुरली के कान को काटती हुई कहने कहीं…. "आह्हहहहहहहहहहहहहहहहहहह, अब जल्दी से चढ़ जाओ मुरली, प्यासी चूत अब लंड मांग रही है.. उफ्फफफफफफफफफफफफफ जल्दी से रगड़ दो मेरी चूत मुरली."
Behad hi shandar or jabardast update
Bhabhi ka bhed khul gaya menka ke samne usme vanahi aur murli ke sarh kaam kida karte dekh liya ab dekhte hai aage kya hota hai ?
 
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पहली घटना:- आखरी भाग 4






मुरली, रूपा की बात सुनकर पागल हो गया. अपने मुंह को चूची के थोड़ा ऊपर रखकर, अपने मुंह का पुरा लार उसके चूची पर गिरा दिया और अपने दोनो हथेली से चूची को पूरा मालिश करने लगा. नीचे वंशी चूत में अपना जीभ डाले, एक उंगली उसकी उसके गान्ड मे अंदर बाहर कर रहा था, ऊपर मुरली हाथ फिसला-फिसला कर उसके बड़ी बड़ी चूची को मसल रहा था। रूपा के लिए ये दोहरा प्रहार काफी उत्तेजक होता जा रहा था, वो कभी मुरली के मुंह में अपना जीभ डालकर उसके पूरे लार को चूस रही थी, तो कहीं बेख़याली में उसके कंधे पर अपने दांत गड़ा रही थी…


"आह्हहहहहहहहहहहहहहहहहहह… ऊम्ममममममममममममममममम.. मै तो गई ईईईईईईई ईईईईईईई…. आह्हहहहहहहहहहहहहहहहहहह"… रूपा पूरे मुंह खोलकर लंबी सी सिसकारी लेने लगी और उसके चूत ने पुरा पानी छोड़ दिया।…


रूपा हवा में ही दीवार से पुरा टिकी थी और अपने शरीर का पूरा वजन दोनो के ऊपर डालकर आंनद की श्वांस लेने लगी। उसके बेजान से शरीर को देखकर मुरली को शरारत सूझने लगी और उसमे रूपा के खड़े निप्पल को अपने दातों के बीच लेकर खींच दिया… "आउच".. की आवाज में साथ रूपा अपनी आखें खोलकर मुरली को देखने लगी। मानो कह रही हो अब लिटा दो.


रूपा का इशारा समझकर मुरली ने वंशी को चूत से हटाया और उसे वहीं नीचे टाइल्स के ठंडे फ्लोर पर लिटाकर उसके दोनो पाऊं फैला दिए. चूत पहले से ही गीली थी, एक ही झटके में उसका पुरा लंड अंदर जड़ तक घुस गया। मुरली लंड घुसाकर तेज-तेज तेज धक्के मारने लगा। वही वंशी अपना नाकामयाब लंड को अपने बॉल सहित रूपा के चेहरे से घिसने लगा.


रूपा भी अपना बड़ा सा मुंह खोलकर उसके लंड को अपने मुंह में लेकर चूसने लगी और अपने कमर को तेज-तेज ऊपर तक हवा में उछलती, मुरली के लंड के पूरे ठोकर का मज़ा लेने लगी।


जैसे ही रूपा ने उस बुड्ढे बंशी का लंड मुंह में ली, वो पुरा कांपते हुए रूपा के दोनो चूची पर पंजा डालकर उसे पूरे जोश से रगड़ते हुए.. तेजी से .. "ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ ओ".. करने लगा..


रूपा समझ गई इसका जाने वाला है। उसने तुरंत लंद को मुंह से निकला और हाथ में लेकर मुठीयाते हुए.. लम्बी-लम्बी सिसकारी लेने लगी. हाथ के कुछ ही झटको में, उसका आधा खड़ा लिंग ने नीचे पानी छोड़ दिया और बुड्ढा वहीं जमीन पर लेटकर रूपा के चूची के साथ खेलने लगा. रूपा की धीमी-धीमी सिसकारी धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी। मुरली के कमर कि जोरदार ठोकर बड़े ही तेजी से रूपा के कमर से टकरा रहे थे और प्रतिक्रिया में रूपा भी उतने ही तेजी से अपनी कमर हिला रही थी। उसके कामुक चौड़े चुतर पूरे जोश के साथ हवा में लहराते ऊपर आ रहे थे और उतने ही तेजी के साथ नीचे भी जा रहे थे.


दोनो इस चुदाई के खेल में पसीने से तड़ हो चले थे. कमर की रफ्तार इतनी तेज थी कि थप थप थप की पूरी गूंज सुनाई दे रही थी. तभी लगभग दोनो के बदन एक साथ पुरा अकड़ गए और दोनो वहीं जमीन पर निढल लेट गए.


तकरीबन आधे घंटे बाद रूपा अपने चूत को तौलिए से साफ करती हुई जागी, और बाथरूम में जाकर अपने बदन को गीले तौलिए से साफ करी, फिर अपने ब्रा पैंटी पहन कर, ऊपर से एक नायटी डाल ली। बाथरूम से बाहर निकलकर वो रूम में आते ही उसकी नजर खिड़की पर गई, जिसका गलास खुला हुआ था. रूपा उसे देखकर हंसती हुई सोचने लगी.. "आज फिर गलती से ये खिड़की खुली रह गई… अच्छा हुआ दरवाजा बंद कर आयी थी. खिड़की को बंद करके रूपा
दोनो नंगे को एक एक लात देती हुई जगाई… "चलो उठो, साफ करो फर्श और चुपचाप निकलो।"..


वंशी किसी आज्ञाकारी कि तरह बात सुना और रूपा के कहे अनुसार करने लगा, वहीं मुरली अपने लंड को मसलते हुए रूपा को दिखाने लगा….. "निकल लो अब चुपचाप, 3 बजने वाले है, कुछ देर में सब जागने लगेंगे।"..


मुरली:- आह भाभी एक बार और नीचे आ जाओ तो मज़ा आ जायेगा.


रू पा:- मदरचोद जाकर ई लंड अपनी अम्मा को दिखाओ. भाग यहां से साला..


रूपा की बात सुनकर मुरली को गुस्सा आ गया. वो गुस्से में चिल्लाते हुए… "कूतिया ऐसे ही तू सुबह उस हरामजादी की बच्ची के लिए मुझे चार बात सुना दी. मदरचोद की बच्ची, तुम ननद भोजाई को एक साथ…"


मुरली पूरे गुस्से मे जैसे ही चिल्ला कर अपनी बात आगे बढ़ाया, रूपा एक लात उसके नंगे अंडकोष पर जमाकर मारी… लात लगते ही वो लंबा कद काठी का आदमी नीचे जमीन में बाप बाप चिल्ला रहा था और रूपा दराज से पिस्तौल निकालकर उसके माथे पर तानकर…


"मदरचोद मुंह से बच्ची का नाम भी लिया ना तो यही गोली मार दूंगी। रण्डी का बच्चा तू मुझे चोदता है तो मुझ पर हुक्म झड़ेगा। साले तुझ जैसे हरामियों को अपने मज़े के लिए अपने नीचे ले लेती है रूपा, लेकिन औकात नौकरों वाली ही रहेगी। वंशी इस मदरचोद को समझा देना दोबारा कभी दिखे ना, वरना लाश भी इसकी ना मिलेगी। चल भाग मदरचोद।"..


मुरली का दर्द शांत होते ही वो लगभग हाथ जोड़े बैठा हुआ था. वंशी ने उसे उठाया और दोनो चुपचाप बाहर निकल गए. बाहर आते ही वंशी, मुरली से कहने लगा… "मुरली एक तो ये छिनाल 2, 3 महीने में कभी कभार हाथ आती है, उपर से इसकी बातें. इसका कुछ सोचना पड़ेगा मुरली."..


मुरली:- छोड़ो ना वंशी काका, जब ये हूमच-हूमच कर चुदाती है तो साली पुरा मज़ा देती है. इसके लिए तो 100 खून माफ है.


वंशी:- तू तो उसके चूत का पूरा दीवाना हो गया है..


मुरली:- उसकी चूत से ज्यादा उसकी अदाओं का. जब वो विदेशी रंडियों के वीडियो देखकर उसके जैसे चूदने की इक्छा जाहिर करती है, तो उसकी आदा कत्ल कर जाती है। मुझसे ही गलती ही गई, वरना 3-4 दिन और मज़े लेते…


इधर कमरे के बाहर…


मै जैसे ही बाहर आती हुई रौशनी के पार देखी, तो मेरा दिमाग सुन्न पर गया। इस वक़्त मुरली नंगे बाहर आकर भाभी के मुंह में अपना मुंह डाल दिया था और नीचे एक और आदमी पेटीकोट के अंदर बैठा था. मुझे समझते देर नहीं लगी कि नीचे वंशी बैठा हुआ होगा।


मेरे नजरो के सामने विश्वास पात्र भाभी थी, जो 2 गैर मर्दों के साथ थी. वैसे इस बात का अंदेशा तो मुझे सुबह से ही लग रहा था, लेकिन ख्यालों में सोचना और खुली आखों से देखने में बहुत फर्क होता है।


मैंने एक झलक ही देखा और दौड़कर अपने कमरे का दरवाजा खोलकर अंदर आयी और दरवाजा लगाकर बिस्तर पर उल्टी लेटकर रोने लगी. मुझे यकीन करना मुश्किल हो रहा था कि मेरी भाभी ऐसी है. वो मेरे भईया को, मां बाप को ना जाने कबसे धोका देते आ रही थी."..


मेरा दिमाग काम करना बंद कर चुका था और रोते-रोते ना जाने कब मुझे भी नींद आ गई. एक गुमसुम सी सुबह की शुरवात हो रही थी. नहाकर मै पूजा के कमरे में गई और पहली बार भगवान के सामने बिलख-बिलख कर रो रही थी। कुछ अजीब सा अपने परिवार के साथ धोखे जैसा मेहसूस हो रहा था और मै लगातार रोए जा रही थी।


मुझे लगा कोई पीछे खड़ा है और मै झटके से पीछे मुड़ी, सामने भाभी का चेहरा था। मै गुस्से से अपने आशु पूछ ली और वहां से निकल गई. भाभी को तो रात में ही समझ में आ गया था, जब वो मेरे दरवाजे पर हैंडल खोलने आयी थी और उन्हें पहले से खुला मिला।


मै पूरे दिन अपने किताब के साथ ही थी. खाना खाने की भी इक्छा नहीं हुई. मुझे घर में कुछ अकेलापन लग रहा था, इसलिए 4 बजे शाम के करीब अपने बड़े भैया महेश को कॉल लगा दी और उनके साथ वहां नहर वाले घर पर चली गई। हां लेकिन जाने से पहले मै धीमे से सुनाती जरूर गई… "आज रात पूरी आजादी है, मै ना रहूंगी."..


मां और पिताजी को पहले ही मैंने बता दिया था कि आज मै बड़ी भाभी के पास जा रही हूं, भईया को बुला लिया है. मां थोड़ी ख़ामोश रही लेकिन मुझे भईया के पास जाने से कोई नहीं रोकता. मेरी बड़ी भाभी को भी पता था, सबके साथ लगाई भिड़ाई कर लो, मेरे साथ करेगी तो सीधा थप्पड़ ही पड़ना था, और ऐसा पहले भी हो चुका था।


एक छुटकू भतीजा, एक उतनी ही प्यारी भतीजी। दोनो मुझे देखते ही दीदी दीदी करते लिपट गए. थोड़ी सी खुशी हुई, मन के अंदर का विकार भी थोड़ा सा दूर हो गया। शाम के साढ़े 7 बजे होंगे जब पापा का फोन मेरे पास आया और वो पुजारी जी के झोले के बारे में पूछने लगे. मैंने पिताजी की बता दिया कि वो झोला संभलकर लॉकर में डाल दिया है.


पिताजी मुझसे विनती भरे स्वर में कहने लगे कि झोले में एक जमीन के कागज है, उसे बिना किसी के जानकारी में आए देखना और उस जमीन का खाता नंबर बताने के लिए कहने लगे. मै वापस जाना तो नहीं चाहती थी लेकिन पिताजी का काम भी करना था. मैंने महेश भईया को बोला मुझे घर छोड़ दे, लेकिन तभी भाभी ताने देती कहने लगी… "हम कलेजा काटकर भी दे दे तो भी इसका तो एक ही भाई और भौजाई है, हम सब तो सौतेले है."..


नमूने में कहा जाए तो ये भाभी अव्वल नमुनी थी. ताने मारने का कोई एक मौका जो छोड़ दिया होता. उसकी बात सुनकर महेश भईया भी शुरू हो गए. उन्होंने तो सीधा पूछ दिया कि किस काम से जा रही हो, काम बताओ तो चलता हूं, वरना कोई काम नहीं तो यही रुक.


"मुझे बस जाना है, कल आऊंगी वो भी सुबह सुबह, फिर हम सब घूमने चलेंगे, अभी रात में वहां छोटी भाभी अकेले है ना, और पापा डांट रहे थे।".. मैंने भी समझाते हुए कह दिया.


मेरे महेश भईया जारा भी बुरे नहीं है, वो तो मेरी चंडालनी भाभी है, जो इनके भोलेपन का फायदा उठाते रहती है. भैया को भी लगा कि नहीं मै सही कह रही हूं, इसलिए वो मुझे घर लेकर चले आए. घर जब आ ही गए थे तो मैंने भी भईया को जबरदस्ती बिठा दिया और उनके लिए चाय बनाने चल दी..


मैं आंगन का लाइट जलाकर किचेन के ओर जाने लगी, तभी मुझे छोटी भाभी के कमरे की खिड़की पर कुछ अजीब सा लगा. एसी कमरे के विडो गलास पर बुलेट का निशान और खून के कुछ छींटे.. मै तेज तेज चिल्ला कर भईया को बुलाने लगी.. मेरा चिल्लाना सुनकर बरामदे से भईया और उसके पीछे वो दोनो नौकर भी दौड़ते हुए पहुंचें.


मैंने कांपते हाथ के इशारे से बुलेट के निशान को दिखाने लगी. भैया वो निशान देखकर चौंक गए. भैया, मुरली को गेट तोड़ने बोले और खुद फोन करके बड़ी भाभी की बच्चों के साथ यहां बुला किया. दरवाजा वो अकेला तोड़ नहीं पा रहा था, भईया मुरली को गाली देते हुए पीछे किए और बरामदे से कुल्हाड़ी लाकर 8-10 कुल्हाड़ी में दरवाजा को तोड़ दिए.


हम दोनों भाई बहन को जिस बात का डर था वहीं हुआ. अलबत्ता खून देखकर तो मै बेहोश हो चुकी थी. अंदर भाभी बिस्तर पर उल्टी लेटी हुई थी और पीछे से बुलेट का सेकंड होल दिख रहा था। मेरी जब आंख खुली तो मै बड़ी भाभी के गोद में थी, और वो मेरे चेहरे पर पानी कि छींटे मार रही थी. आंख खुलते ही मै चिल्लाते हुए रोने लगी. मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ.


शायद बड़े भईया, भाभी को लेकर मुरली और वंशी के साथ यहां पास के बाजार वाले हॉस्पिटल में लेकर पहुंच चुके थे. मै पागलों कि तरह चिल्ला रही थी, तभी सामने से नकुल आ गया. मेरी बड़ी भाभी से कहने कहा… "चाची, चाचा रूपा चाची को एम्बुलेंस में लेकर सहर निकले है, बोले है सब लॉक करके चलने."..


फिर वहां क्या हुआ, मै कैसे सहर पहुंची मुझे कुछ पता नहीं. मुझे होश तब आया जब मां के हाथ मेरे चेहरे पर परे, और वो अपने हाथ से मेरे आशु पोछ रही थी. उन्हें नजर उठाकर बस एक बार देखी और वापस सुबकती हुई उनसे लिपट गई. पानी पिलाकर मुझे होश में लाया गया. हर किसी को मुझसे बात करनी थी लेकिन मै होश में ही नहीं थी, इसलिए किसी को कुछ भी पूछने कि हिम्मत ही नहीं हो रही थी.


किसी तरह हिम्मत करके पापा मेरे पास बैठे, और मुझसे पूछने लगे.. "तुम्हे भूख लगी है मेनका."


मैंने ना में अपना सर हीला दिया. पापा अपने रुमाल से मेरा चेहरा साफ करते हुए… "बेटा घर पर हुआ क्या था, तू महेश के घर क्यों गई थी, क्या तुम दोनो (मेरे और भाभी के बीच) के बीच कोई कोई बहस हुई थी. झगड़ा वैग्रह."


सवाल ही होश उड़ाने वाले थे और साथ ही साथ मुझे पुरा होश में लाने वाले. सच बता दिया तो बेचारी को यहीं मारकर निकल जाते, और यहां झूठ क्या बोलूं जो ये यकीन कर ले. मेरी चेतना तो जाग चुकी थी लेकिन होश उड़े हुए थे। शायद मां मेरी अंतर द्वंद को समझ चुकी थी इसलिए वो चिढ़ती हुई कहने लगी… "थोड़ा बर्दास्त की गोली लीजिए मिश्र जी. बेटी पहले से परेशान है और आपको सवाल जवाब करना है. दिमाग में इतने सवाल है कि रूपा से मिलने तो आप सब में से कोई नहीं जाएगा."


मै:- भाभी अब कैसी है मां..

मां:- पहले से बेहतर हालत में है, बाकी बात बाद में जानना… नकुल इधर आ..


नकुल:- हां दादी कहो ना..


मां:- जा मेनका को ले जाकर कैंटीन में कुछ खिला पीला कर ले आ.


नकुल मेरा हाथ पकड़ कर "चलो दीदी" कहने लगा. मै भी पूरे एक दिन कि भूखी थी, इसलिए मुझे भी खाने के अलावा कुछ नहीं सूझ रहा था. मै पेट भर खाकर जब लौट रही थी, तब दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था. मेरा दिमाग मुझसे ही सवाल कर रहा था, जब उसे धोखेबाज ही मान ली थी, फिर उसका खून देखकर बेहोश क्यों हो गई? बुलेट के निशान से जब शक हो ही गया था, फिर मर जाने दिया होता. अभी भी तो सच बता देती.


इंसानी भावना की नई परिभाषा को मै सीख रही थी, आपके अपने कितने भी बुरे हो, उन्हें मरता देख आपके दिल में दर्द उठता ही है. वो मारने वाले है इस ख्याल से रूह कांप ही जाती है. वहीं जिंदगी ये भी सीखा रही थी कि जो आपसे प्यार करते है, उनसे रूठना कितना भारी पर सकता है. खैर इन सब बातो में ये कभी नहीं होने वाला था कि मै भाभी का किया भुल जाऊं, बस इंतजार तो था उनके जागने का और जब वो जागती तो उनके आंख ने आंख डालकर ये पूछती की जब इतना ही गलत था ये कुकर्म की खुद की जान लेने का फैसला कर ली, तो फिर ऐसा किया ही क्यों?
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Rupa ko pata chala ki uski nanad ko pata chal gaya hai uske naukro ke sath avaid sambandh ka to usne sucide ki koshish ki ab dekhte hai in ghatnao ka kya prabhaw padta hai Menka pe ?
 
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