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Fantasy Aryamani:- A Pure Alfa Between Two World's

nain11ster

Prime
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Tri2010

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भाग:–160


वह दासी आर्यमणि के ओर पोटली बढ़ा दी और नभीमन किसी प्राचीन भाषा में एक मंत्र बोलकर, आर्यमणि को 5 बार उस मंत्र को पहले दोहराने कहा और बाद में वो पोटली लेने.… आर्यमणि भी 5 बार उस मंत्र को दोहराकर पोटली जैसे ही अपने हाथ में लिया, चारो ओर से उसे फन फैलाए सापों ने घेर लिया।

आर्यमणि:– हे शेषनाग वंशज नभीमन, हमे इस तरह से घेरने का मतलब।

नभीमन:– क्षमा करना, मैं एक और छल तो नही करना चाहता था, किंतु मैं विवश हूं। पाताल लोक की अनंत जिंदगी का तुम सब आनंद लो। मै न जाने कितने वर्षों से यहां के बाहर झांका तक नही परंतु श्राप का तुम्हारे ऊपर स्थानांतरण से अब मैं यहां की कैद से मुक्त हूं।

आर्यमणि:– तो क्या आप अपनी मुक्ति के लिये हम चारो के साथ अन्याय कर देंगे?

नभीमन:– एक बार मुझे ब्रह्मांड घूमकर वापस आने दो फिर मैं तुम्हे श्राप मुक्त कर दूंगा। मै वचन देता हूं।

आर्यमणि:– तुम्हारे भूत काल से लेकर वर्तमान तक, इन सब की जम्मेदारी मैं उठता हूं, यही अर्थ था ना उस 5 बार बोले मंत्र का...

रक्षक पत्थर लेने से पहले जो मंत्र आर्यमणि ने कहा था, उसी को रूपांतरित करके सुना दिया। जैसे ही आर्यमणि ने अपने शब्द कहे, नभीमन की आंखें फैल गई। वह मूर्छित होकर गिड़ गया। जैसे ही नभीमन मूर्छित होकर गिड़ा, अल्फा पैक के ऊपर चारो ओर से तरह–तरह के वार शुरू हो गये। कोई शर्प अग्नि छोड़ रहा था तो कोई विषैला जहर। हमला करने के अनगिनत तरीके वो शार्प जीव दिखा रहे थे, लेकिन कोई भी वार अल्फा पैक को छू नही पा रही थी।

सभी शर्प जीव आश्चर्य में थे। इतने भीषण हमले से तो एक पूरी क्षेत्र की आबादी ऐसे गायब होती जैसे पहले कभी अस्तित्व ही नही था, लेकिन ये चारो अपनी जगह खड़े थे। ये कमाल आर्यमणि का नही बल्कि नाभिमन का था। उसने अपनी जिम्मेदारी और साथ में रक्षक पत्थर दोनो आर्यमणि को सौंप चुका था। अब न तो नाभिमन पाताल लोक का राजा रह गया था और न ही उसका चोरी वाला रक्षक पत्थर उसके पास रहा। खुद की झोली खाली करके नाभिमन ने आर्यमणि को वह शक्तियां दे चुका था जिस वजह से पाताल लोक के हमले उसपर बेअसर था।

आर्यमणि अट्टहास से परिपूर्ण हंसी हंसते.… “तुम सब मूर्ख हो क्या? अब से मैं तुम्हारा राजा हूं। अभी–अभी तो नभीमन अपनी सारी जिम्मेदारी मुझ पर सौंप कर पता न बेहोश हुआ या मर गया।

नभीमन का भाई और पाताल लोक का सेनापति अभिमन.... “तू छलिया साधक हमारा राजा कभी नहीं बन सकता। तुझे हम अपनी सिद्धियों की शक्तियों से नही हरा सकते तो क्या, लेकिन भूल मत तू हमारे क्षेत्र में है और हम तुझे बाहुबल से परास्त कर देंगे।”

अभीमन अपनी बात कहकर जैसे ही हुंकार भरा, चारो सांपों के नीचे ढक गये। तभी उस माहोल में तेज गरज होने लगी। यह गरज इतनी ऊंची थी कि पूरा पाताल लोक दहल गया। और जब प्योर अल्फा के पैक ने टॉक्सिक रेंगते पंजों से हमला शुरू किया, तब उन जहरीले सपों को भी जहर दे रहे थे। वुल्फ पैक के पंजे, 5 फन वाले नाग के शरीर पर जहां भी लगता उस जगह पर पंजों के निशान छप जाते और वह सांप बेहोश होकर नीचे।

हर गुजरते पल के साथ अभीमन को अपने बाहुबल प्रयोग करने का अफसोस सा होने लगा। हजारों की झुंड में सांप कूदकर आते और उतनी ही तेजी के साथ पंजों का शिकार हो जाते। तभी पाताल लोक की भूमि पर रूही ने अपना पूरा पंजा ही थप से मार दिया। अनंत जड़ों के रेशे एक साथ निकले जो सांपों को इस कदर जकड़े की उनके प्राण हलख से बाहर आने को बेताब हो गये.…

नभीमन वहां किसी तरस उठ खड़ा हुआ और आर्यमणि के सामने हाथ जोड़ते... "सब रोक दीजिए। ये लोग बस अपने राजा को मूर्छित देख आवेश में आ गये थे।”

माहोल बिलकुल शांत हो गया था। जो शांप जहां थे, अपनी जगह पर रेशे में लिपटे थे। आर्यमणि, नभीमन के लिये जड़ों का आसन बनाया और दोनो सामने बैठ गये।.... “हे साधक आपको मेरे विषय में सब पहले से ज्ञात था।”...

आर्यमणि:– मैं सात्विक आश्रम के दोषियों के बारे में पढ़ रहा था और वहां सबसे पहला नाम तुम्हारा ही था।

नभीमन:– “हां, तुमने सही पढ़ा था। हजारों वर्ष पूर्व की ये कहानी है। मै अपने जवानी के दिनो मे था और नई–नई ताजपोशी हुई थी। पूरे ब्रह्मांड पर विजय पाने की इच्छा से निकला था। मुझे शक्ति का केंद्र स्थापित करना था। इसलिए हमने सबसे पहले उस ग्रह पर अपना साम्राज्य फैलाना ज्यादा उत्तम समझा जहां से हम अपनी शक्ति, तादात और नई सिद्धियों को बढ़ा सकते थे।”

“शक्ति स्वरूप एक ग्रह मिला नाम था जोरेन। ज़ोरेन ग्रह पर सभी ग्रहों के मिलन का प्रभाव सबसे अत्यधिक था। उस ग्रह पर ग्रहों के मिलन का प्रभाव इतना ज्यादा था कि वहां पैदा लेने वाला हर जीव अपनी इच्छा अनुसार अपने कोशिकाओं को पुनर्वयवस्थित कर किसी का भी आकार ले सकते थे। मेरा ये अर्ध–शर्प, अर्ध–इंसानी रूप वहीं की देन थी। ज़ोरेन ग्रह, पर जब हम पहुंचे तब वहां कोई सभ्यता ही नही थी। कुछ भटकते जीव थे जो किसी भी आकार के बन जाते थे।”

“वहां मुझे कोई युद्ध ही नही करना पड़ा। आराम से मैने वहां अपना समुदाय बसाया, नाम था निलभूत। बड़ा से क्षेत्र में भूमिगत शहर बसाया और शासन को चलाने के लिये एक महल। आखरी जहर, को वहां के गर्भ गृह में पहुंचाया, ताकि वह सबसे मजबूत शक्ति खंड हो, और वहीं से मैं पूरी शासन व्यवस्था देख सकूं। आखरी जहर के बारे में शायद तुम पहली बार सुन रहे होगे क्योंकि ये इतनी गोपनीय थी कि आज तक किसी महान महर्षि तक को इसका ज्ञान न हुआ। आखरी जहर का एक कतरा काफी है, मिलों फैले 10 लाख लोगों को मारने के लिये।”

“महल में शक्ति खंड का निर्माण के साथ ही मैंने अपने तीनो नागदंश को भी स्थापित किया। हमारे यहां जब राजा की ताजपोशी होते है तब उसे कुल 4 नागदंश मिलते है। बिना 4 नागदंश के कोई राजा नही बन सकता, यही नियम है। प्रत्येक नागदंश में बराबर शक्तियां होती है। एक नागदश राजा का, दूसरा नागदंश राजा के मुख्य सलाहकार का। एक नगदंश सेनापति का और एक नगदंश रानी का। चूंकि उस वक्त मेरी कोई रानी नहीं थी। न ही किसी को मैने मुख्य सलाहकार और सेनापति नियुक्त किया था। इसलिए तीनो नागदंश वहां स्थापित करने के बाद गर्भ गृह के ऊपर देवी का मंदिर और अंधेरा कमरा बनवाया ताकि मै पूरा केंद्र स्थापित कर सकूं। मै पूर्ण केंद्र की स्थापना कर चुका था और यहां से मुझे अपनी विजयी यात्रा की शुरवात करनी थी।”

“चूंकि मै पाताल लोक से काफी दूर निकल आया था और मणि की शक्ति कमजोर पड़ने के कारण युद्ध के लिये नही जा सकता था, इसलिए वापस पाताल लोक आना पड़ा। पाताल लोक की मणि ही इकलौती ऐसी चीज थी जिसे विस्थापित नही किया जा सकता था। किंतु हमारे खोजियों ने इसका भी कारगर उपाय ढूंढ निकाला था, रक्षक पत्थर। लाल रंग का यह रक्षक पत्थर अनोखा था। इस रक्षक पत्थर में मणि की शक्ति को कैद करके ब्रह्मांड के किसी भी कोने में ले जाया जा सकता था।”

“फिर क्या था, बल और अलौकिक सिद्धियों के दम पर मैने सात्त्विक गांव के गर्भ गृह से, रक्षक पत्थर को निकाल लाया। मुझे नही पता था कि वहां रक्षक पत्थर में जीवन के अनुकूल जीने योग्य जलवायु को संरक्षित करके रखा गया था, जो उस गांव में जीने का अनुकूल माहौल देता था। मै महर्षि गुरु वशिष्ठ के नाक के नीचे से पत्थर उठा तो लाया, किंतु पीछे ये देखना भूल गया की एक ही पल में उस गांव का वातावरण असीम ठंड वाला हो चुका था।”

“जबतक कुछ किया जाता वहां ठंड से 30 बच्चों की मृत्यु हो चुकी थी। महर्षि वशिष्ठ अत्यंत क्रोधित थे। वह पाताल लोक तक आये। न तो मुझे कुछ कहे न ही मृत्यु दण्ड दिया। बस पूरे नाग लोग को “कर्तव्य निर्वहन क्षेत्र विशेष” श्राप देकर चले गये। न तो वापस लौटे न ही किसी प्रकार का कोई समय अवधि दिया। बस तब से हम सब पाताल लोक में कैद होकर रह गये।”

“पाताल लोक के बड़े से भू–भाग पर अनंत अलौकिक जीव बसते थे। वह अलौकिक जीव को पालने हेतु बहुत से ऋषि अपने अनुयायियों को वहां भेजा करते थे। मैने पूरा भू–भाग पाताल लोक में विलीन करके केवल उतना ही क्षेत्र ऊपर रहने दिया जिसमे जलीय जीव प्रजनन कर सके, लेकिन फिर भी कोई ऋषि पाताल लोक के दरवाजे पर नही पहुंचा।”

“मेरी विडंबना तो देखो। 4 दंश जब तक मैं अपने उत्तराधिकारी को न दे दूं, तब तक कोई दूसरा राजा नही बन सकता। और मैं तो 3 दंश दूर ग्रह पर छोड़ आया जहां से मैं क्या कोई भी नाग वापस नहीं ला सकता। मैने गलती की और मेरी गलती की सजा पूरा नाग लोक उठा रहा है। मुझ जैसे पापी राजा से इनको छुटकारा नही मिल रहा।”

“मैने वैसे छल से तुम्हे फसाया जरूर था पर मैं यहां से सीधा ज़ोरेन की सीमा में जाता और अपना नाग दंश वापस लेकर चला आता। फिर मैं नए उत्तराधिकारी के हाथ ने ये पूरा पाताल लोक सौंपकर कुछ वर्ष तक अलौकिक जीव की सेवा करने के उपरांत इच्छा मृत्यु ले लेता।

आर्यमणि:– मैं तुम्हारा श्राप तो मिटा नहीं सकता, क्योंकि महर्षि वशिष्ठ ने 8 जिंदगी को साक्षी रखकर वह श्राप दिया था, जिनमे से अब एक भी जीवित नहीं है। इसलिए कोई भी नाग अब नाग लोक नही छोड़ सकता। लेकिन हां 3 दिन के सिद्धि योजन से मैं उस नियम में फेर बदल जरूर कर सकता हूं जो अगले राजा बनने में बाधक है।

नभीमन:– क्या ऐसा कोई उपाय है?

आर्यमणि:– हां ऐसा एक उपाय है भी और जो सबसे जरूर चीज चाहिए होती है नाग मणि, वह भी हमारे पास है।

नभीमन:– तो क्या कृपाण की नागमणि सात्त्विक आश्रम के पास है?

आर्यमणि:– ये कृपाण कौन है...

नाभिम:– इक्छाधारी नाग का प्रथम साधक। वह इंसान जिसने साधना से ईश्वर को प्रसन्न किया और बदले में उसे इच्छाधारी नाग का वर मिला था। वैसे तो हर इच्छाधारी नाग के पास अपना मणि होती है, किंतु वह काल्पनिक मणि होता है जो इक्छाधारी नाग के विघटन के साथ ही समाप्त हो जाता है। यदि सात्त्विक आश्रम के पास मणि है तो वह कृपाण की ही मणि होगी।

आर्यमणि:– ऐसा क्यों? किसी दूसरे इक्छाधारी नाग की मणि क्यों नही हो सकती?

नाभिमन का भाई अभिमन.... “भैया इसे कुछ मत बताना, जब तक की ये हमे न बता दे की आपका श्राप इसपर स्थानांतरित क्यों नही हुआ?

आर्यमणि:– क्यों वो श्राप मुझ पर स्थानांतरित करने पर लगे हो। तुम में से कोई भी ये श्राप लेलो....

नाभीमन:– पूरा नाग लोक की प्रजाति ही शापित है, तो किसका श्राप किस पर स्थानांतरित कर दूं। और अभिमन तुम अब भी नही समझे। ये सात्विक आश्रम के गुरु है। सात्विक आश्रम की कोई संपत्ति जब वापस से उनके गुरु के हाथ में गयी, तो वो चोरी कैसे हुई। इसलिए श्राप इन पर स्थानांतरित नही हुआ।

अभिमन:– माफ करना गुरुदेव। हम सब अपनी व्यथा में एक बार फिर भूल कर गये। हमे समझना चाहिए था इस दरवाजे तक कोई मामूली इंसान थोड़े ना आ सकता है। बस नर–भेड़िया ने हमे दुविधा में डाल दिया था। हमे लगा एक भेड़िया कहां से सिद्ध प्राप्त करेगा। और यदि सिद्ध प्राप्त भी हो तो कहां सात्विक आश्रम से जुड़ा होगा।

आर्यमणि:– अब मेरे भी सवाल का जवाब दे दो। किसी दूसरे इक्छाधारी नाग की मणि क्यों नही हो सकती...

नभीमन:– क्योंकि मणि के बिना इक्छाधारी नाग इक्छाधरी नही रह जायेगा। 2 दिन उन्हे नागमणि नही मिला, तब वो या तो नाग बन जाते हैं या इंसान। दोनो ही सूरत में वो इक्छाधारी नही रहते और मणि विलुप्त।

आर्यमणि:– और वो कृपाण की मणि।

नभीमन:– वह मणि पाताल लोक के मणि जैसा ही है। बस वह बहुत छोटे प्रारूप में है और यहां उस मणि का पूर्ण विकसित रूप है। गुरुदेव उस मणि का राज न खुलने पाए वरना पृथ्वी पर कई मुर्दे उस मणि को लेने के लिये जमीन से बाहर आ जायेंगे। और वह मणि ऐसा है की मुर्दों को भी मौत दे दे।

आर्यमणि:– ये बात मैं ध्यान रखूंगा। वैसे हमने बहुत सी जानकारी साझा कर ली। अब उस काम को भी कर ले, जिस से पाताल लोक अपना नया राजा देखेगा।

नभीमन:– हां वो काम आप कीजिए जबतक एक जिज्ञासा जो मेरे दरवाजे पर खड़ी है, क्या मैं आपके साथियों के साथ उसे भी पाताल लोक की सैर करवा दूं।

आर्यमणि, दूर नजर दिया। पता चला पाताल लोक का दरवाजा हर जगह से दिखता है। आर्यमणि इसके जवाब में रूही के ओर देखा। रूही मुस्कुराकर हां में जवाब दी और चाहकीली को अंदर बुलाया गया। राजा नाभिमन ने भी जब पहली बार अमेया को गोद में लिया, उन्होंने लगभग एक घंटे तक अपनी आंखें ही नही खोली, और जब आंखें खोली तब चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी।

नभीमन:– इस शांति वाहक देवीतुल्य का नाम क्या है।

रूही:– अमेया...

नभिमन:– मेरे हजारों वर्षों की अशांति को इसने थोड़े से समय में ही दूर कर दिया। मृत्यु के उपरांत जो सुकून प्राप्त होती है, ठीक वैसा ही सुकून था। अभिमन एक बार तुम भी देवीतुल्य अमेय को हृदय से लगाकर देखो...

अपने भाई के कहने पर अभिमन ने भी अमेया को सीने से लगाया। वह भी आश्चर्य में था। उसने वो सुकून को पाया जो उसे जीवन में पहले कभी नहीं मिली थी और न ही कभी ऐसे सुकून की कल्पना उसने किया था। फिर तो सभी शेषनाग एक श्रेणी में बंध गये और जैसे ही नभीमन ने अपनी प्रजा में एक साथ सकून को बांटा, पूरी प्रजा ही गदगद हो चुकी थी।

बड़े धूम से और बड़ा सा काफिला अल्फा पैक को पाताल लोक घूमाने निकला। पौराणिक अलौकिक जीव जैसे बारासिंघा, गरुड़, नील गाय, एकश्रिंगी श्वेत अश्व, कामधेनु गाय, ऐरावत हाथी, अनोखे पंछियों को देखने का मिला। वहीं पाताल लोक के एक हिस्से से गुजरते हुये सबको भयानक काल जीव भी दिख रहे थे। सोच से परे उनका आकार और देखने में उतने ही डरावने। लगभग 40 ऐसी भीषणकारी प्रजाति पाताल लोक में निवास करती थी, जिसे उग्र देख प्राण वैसे ही छूट जाये।

3 दिनो तक आर्यमणि अपने योजन में लगा रहा और इन 3 दिनो में अल्फा पैक ने पाताल लोक का पूरा लुफ्त उठाया। लौटते वक्त तो अलबेली ने पूछ भी लिया की क्या हमने पाताल लोक पूरा घूम लिया? इसपर नभीमन ने हंसते हुये बताया... “पाताल लोक अनंत है, इसकी कोई सीमा नहीं। यह अलौकिक रूप से ब्रह्मांड के कई हिस्सों से जुड़ा है, लेकिन यह पूरा भू–भाग सदैव धरातल के नीचे होता है और इसके कुल 6 दरवाजे है, जो 6 अलग–अलग हिस्सों में है। हर 6 दरवाजे पर हजारों किलोमीटर का ऊपरी भू–भाग होता है, जहां पाताल लोक के जीव अक्सर विचरते है। यहां आम या खास किसी के भी आने की अनुमति नही, केवल सिद्ध प्राप्त ही इन क्षेत्रों में आ सकते है।”

जानकारी पाकर अलबेली के साथ–साथ पूरा अल्फा पैक चकित हो गया। खैर 3 दिन बाद आर्यमणि पूर्ण योजन कर चुका था और बाकी सब भी लौट आये। जाने से पहले अभिमन ने अमेया को गुप्त वर दिया और कहने लगे... “अमेया मेरी स्वघोषित पुत्री है, जिसे जल और पाताल लोक में कोई छू नही सकता।”... इसी घोषणा के साथ अल्फा पैक के सभी सदस्यों को नाभीमन और उसकी असंख्य नाग ने अपनी स्वेक्षा अपना लोग माना, और भेंट स्वरूप अपनी छवि सबने साझा किया। छोटी से भेंट थी जिसके चलते अब अल्फा पैक पाताल लोक कभी भी आ सकते थे। इस भेंट को स्वीकार कर अल्फा पैक आगे बढ़ा।

आर्यमणि के पाताल लोक छोड़ने से पहले नभिमन ने वादा किया की वह अपने पूरे समुदाय के साथ योजन पर बैठेगा, और चाहे जितने दिन लग जाये, टापू का पूरा भू भाग ऊपर कर देगा। वहां बसने वाले जीव फिर से अपनी जमीन पर होंगे न की पाताल में।

आर्यमणि धन्यवाद कहते हुये निकला। सभी ज्यों ही पाताल लोक के दरवाजे के बाहर आये, चहकिली शर्मिंदगी से अपना सर नीचे झुकाती... "मुझे सच में नही पता था कि महाराज आप लोगों को फसाने के लिये बुला रहे थे।"

रूही प्यार से चहकिली के बदन पर स्पर्श करती... "तुम क्यों उदास हुई, देखो अमेया भी बिलकुल शांत हो गयी"..

अलबेली:– तुम बहुत अच्छी हो चहकिली और अच्छे लोगो का फायदा अक्सर धूर्त लोग उठा लेते है। तुम अफसोस करना छोड़ दो...

थोड़ी बहुत बात चीत और ढेर सारा दिलासा देने के बाद, तब कही जाकर चहकिली चहकना शुरू की। महासागर की अनंत गहराई का सफर जारी रखते, ये लोग विजयदर्थ की राज्य सीमा में पहुंच गये। वुल्फ पैक प्रवेश द्वार पर खड़ा था और सामने का नजारा देख उनका मुंह खुला रह गया। दिमाग में एक ही बात आ रही थी, "क्या कोई विकसित देश यहां के 10% जितना भी विकसित है...
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143
भाग:–161


थोड़ी बहुत बातचीत और ढेर सारा दिलासा देने के बाद, तब कही जाकर चहकिली चहकना शुरू की। महासागर की अनंत गहराई का सफर जारी रखते, ये लोग विजयदर्थ की राज्य सीमा में पहुंच गये। वुल्फ पैक प्रवेश द्वार पर खड़ा था और सामने का नजारा देख उनका मुंह खुला रह गया। दिमाग में एक ही बात आ रही थी, "क्या कोई विकसित देश यहां के 10% जितना भी विकसित है...

दो पहाड़ों के बीच से ही भव्य प्रवेश द्वार बना दिया गया था। श्वेत रंग के दो पहाड़ पर पूरी हरी भरी वनस्पति के साथ कई रंग बिरंगे पुष्प लगे थे, जिनके ऊपर लाइटिंग का इतना सुंदर काम किया गया था कि मन प्रफुल्लित हो जाए।

प्रवेश द्वार के दोनो ओर कई सुरक्षाकर्मी अपने हाथ में चमकीले धातु के हथियार के साथ तैनात थे। आर्यमणि और उसका पैक प्रवेश द्वार का नजारा देख रहा था, इसी बीच दोनो विशाल पर्वत पर अल्फा पैक पैक की तस्वीर फ्लैश होने लगी। दोनो किनारे खड़े सुरक्षाकर्मी अपना सिर झुकाकर उसका स्वागत करने लगे। सामने से महाती अपने कुछ सखियों के साथ खुद प्रवेश द्वार पर पहुंची.…. "दुनिया के सबसे बड़ी हीलर फैमिली का हमारे राष्ट्र में स्वागत है। आप सब अपने कदम आगे बढ़ाए"…

जैसे ही महाती अपनी बात समाप्त कर आर्यमणि को साथ चलने का न्योता दी, उनके ऊपर पुष्प की बारिश होने लगी। ऐसा भव्य स्वागत था की चारो (आर्यमणि, रूही, इवान और अलबेली) का मन प्रफुल्लित हो उठा। कुछ दूर आगे चले होंगे की उनके लिये शानदार सवारी भी आ गयी। यह कोई हाईटेक एयरक्राफ्ट लग रहा था, जो कार से थोड़ा बड़ा था। पानी को काटकर तेजी से आगे बढ़ने के लिए शायद यह आकर दिया गया था। अलबेली और इवान दोनो एक साथ सवार होते.… "आप लोग मेहमान नवाजी का मजा लीजिए। हम दोनो यहां अकेले घूमेंगे"…

इतना कहकर अलबेली और इवान निकल गये। रूही और आर्यमणि भी एक साथ सवार हो गये। वहीं महाती के जिद करने पर अमेया को उसके साथ जाने दिया। आर्यमणि और रूही महासागर के इस देश को बड़े ध्यान से देख रहे थे। आधुनिकता और टेक्नोलॉजी के मामले में ये लोग पृथ्वी से 500 साल आगे होंगे। शहरों की व्यवस्था और इनकी तेज रफ्तार जिंदगी कमाल की थी। यहां तो इन लोगों ने पानी पर ही सड़क बना दिया था। ऐसा लग रहा था पानी में सीसे का सड़क तैर रहा हो।

सड़क किनारे लगे बाजार, भीड़ भाड़ वाला इलाका और इनकी ऊंची–ऊंची इमारतें और इन इमारतों की लाइटिंग.. ऐसा लग रहा था पानी के अंदर किसी स्वप्न नगरी में पहुंच गये थे। चारो ओर भ्रमण करते रात हो गयी थी। महाती ने बीच में ही अपना कारवां रोककर एक आलीशान घर में सबके रुकने का प्रबंध करवाया। इवान और अलबेली भी शहर के दूसरे हिस्से में थे, जिनकी जानकारी महाती को थी। उनके भी रुकने का उतना ही शानदार व्यवस्था किया गया था।

अगली सुबह तो शहर की पूरी भिड़ जैसे अल्फा पैक के दरवाजे पर खड़ी थी। भले ही आर्यमणि, रूही और अलबेली, इवान शहर के अलग–अलग हिस्सों में थे, किंतु दोनो ही जगहों पर लोगों का उतना ही हुजूम लगा था। कई सड़कें जाम थी और लोग अल्फा पैक से हील करने का आग्रह कर रहे थे। शायद एक प्रयोग को सफल होते हुये अल्फा पैक देखना चाहते थे, इसलिए ये भिड़ इकट्ठा हुई थी।

आर्यमणि, इवान और अलबेली से मन के भीतर के संवादों से संपर्क करते.... “क्या तुम्हारे पास भी लोगों का हुजूम है?”..

अलबेली:– दादा मैं 2 किलोमीटर ऊपर से देख रही हूं, ऐसा लगता है पूरा शहर ही हमारे पास आने के लिये व्याकुल है।

आर्यमणि:– एमुलेट का प्रयोग करो और जड़ों जितना दूर फैलाने का कमांड दे सकती हो दो...

उधर से अलबेली और इवान, इधर से आर्यमणि और रूही। चारो ने जब ध्यान लगाकर जड़ों में ढकना शुरू किया फिर 300 किलोमीटर के क्षेत्रफल में बसे पूरे शहर को ही जड़ों से ढककर, शहर के जर्रे–जर्रे को हील कर चुके थे। इतना टॉक्सिक सबने समेटा की हर किसी का बदन नीला पर चुका था।

लगभग आधा दिन लगा था। आधे दिन के बाद जो बड़े–बड़े बैनर में शहर के विभिन्न इलाकों की तस्वीर आ रही थी, हर कोई अल्फा पैक के लिये अपना सर झुका रहा था। शहर के लोगो ने अल्फा पैक के लिये भव्य मनोरंजन का भी प्रबंध करवाया। कारवां एक शहर से दूसरा और दूसरे शहर से तीसरे शहर पहुंचा और हर शहर की वही कहानी रहती।

अंत में आर्यमणि को महाती से आग्रह करना पड़ा की सफर यहीं समाप्त करते है। महाती को भी लगा की लोग कुछ ज्यादा ही आर्यमणि को परेशान करने लगे है, इसलिए वह आखरी पड़ाव राजधानी तक चलने के लिये कहने लगी। अगली सुबह फिर इनका काफिला बढ़ा। आधा दिन सफर तय करने के बाद ये लोग सीधा राजधानी पहुंचे। राजधानी के बीचों बीच एक भव्य महल बना हुआ था। महल इतना जीवंत बनाया गया था कि मानो नजरों को अपनी ओर आकर्षित कर रही हो। अदभुत और रोमांचक दृश्य.…

महल के द्वार पर अप्सराएं खड़ी होकर इनका स्वागत कर रही थी। पूरे साम्राज्य का सर्वे सर्वा विजयदर्थ, अपने प्रथम पुत्र निमेषदर्थ के साथ खुद स्वागत के लिये आगे खड़ा था। पूरे जोश के साथ स्वागत करते आर्यमणि और रूही को महल में लाया गया। आर्यमणि और रूही महल में बने कमाल की चित्रकारी को बस देखते ही रह गये। इसी बीच अप्सरा से भी ज्यादा सुंदर 5–6 जलपड़ी आर्यमणि से आकर लिपट गयी। उसपर भी उन जल पड़ियों की हालत... सभी ऊपर से नंगी हालत में थे, जिनके स्तन आर्यमणि के बदन से चिपके थे।

विजादर्थ हंसते हुये कहने लगा... "महल के मनोरंजन का आनंद लीजिए आर्यमणि"…

विजयदर्थ अपनी बात पूरी किया ही था कि अगले पल वह हवा में। रूही उसका गला दबोच कर हवा में उठा ली और उन अर्ध नग्न अप्सराओं को घूरती.… "मेरे पति से दूर रह वरना यहां पूरा ही समशान बना दूंगी। और तुम्हे भी बहुत मजा आ रहा था न चिपकने में... टापू पर वापस चलो फिर मैं तुम्हे बताती हूं"..

आर्यमणि:– अब मैंने क्या कर दिया... मैं तो दीवारों पर बनी कलाकारी देख रहा था, इसी बीच अचानक ही ये आकर मुझसे चिपक गयी... मेरी क्या गलती है?

आर्यमणि अपनी बात समाप्त ही किया था की चारो ओर से उन्हे सैनिक घेरने लगे। हथियारबंद लोगों को अपने करीब आते देख दोनो अपने नंगे पाऊं को ही वहां के सतह पर मार दिये। महल के सतह से उनके पाऊं टकराते ही जो जहां था, वहीं जड़ों में जकड़ गया। रूही वापस से आर्यमणि को घूरती.… “नंगी लड़कियां आकर तुमसे चिपक गयी, फिर भी तुम तस्वीर देखते रह गये... कमाल ही कर दिया जानू”.. कहते हुए रूही अपने दूसरे हाथ से घुसा चलाकर आर्यमणि की नाक तोड़ दी।

"अरे तुम मिया–बीवी के झगड़े में मेरे प्राण चले जायेंगे। रूही मेरा गला छोड़ दो दम घुट रहा है"… विजयदर्थ मिन्नतें करते हुये कहने लगा...

रूही:– आखिर क्या सोचकर नंगी लड़कियों को मेरे पति के ऊपर छोड़ा। तुम्हे तो पहले जान से मारूंगी...

रूही पूरे तैश में थी। किसी तरह समझा बुझा कर रूही के चंगुल से विजयदर्थ को छुड़ाया गया। मजाल था उसके बाद एक भी लड़की उस महल में दिखी हो। इस छोटे से अल्प विराम के बाद सभी लोग आराम से बैठे। कुछ माहोल ठंडा हुआ, तब रूही को थोड़ा खराब लगा की एक पूरे साम्राज्य के मुखिया का गला इस प्रकार से पकड़ ली और वो हंसकर बस मिन्नत करता रहा।

रूही:– मुझे माफ कर दीजियेगा... वो मैं आवेश में आकर कुछ ज्यादा ही रिएक्ट कर गयी थी।

विजयदर्थ:– तुम सब मेरे परिवार जैसे हो। मै तो चाहता हूं आर्यमणि यहीं रहे। चाहे तो इस पूरे साम्राज्य की बागडोर संभाल ले।

आर्यमणि:– मुझे माफ कीजिए राजा साहब। आपकी दुनिया बहुत अनोखी और उतनी ही प्यारी है। भले ही रूही ने आपका गला दबोचकर उठा लिया हो, किंतु मुझे यह भी ज्ञात है कि आपके पास कई सिद्धियां है और बाहुबल तो कमाल का। आप अलौकिक अस्त्रों और शास्त्रों के मालिक है और आपका उत्तराधिकारी भी वही सब पायेगा। किंतु मैं इस दुनिया का नही इसलिए यहां मेरा दिल न लगेगा। हां लेकिन वादा रहा यहां आकर सबको मैं हील करता रहूंगा।

विजयदर्थ:– आपका इतना ही कहना काफी है। चलिए भोजन ग्रहण किया जाये...

एक रात की मेहमाननवाजी स्वीकारने के बाद एक बार फिर इन लोगों ने घूमना शुरू किया। राजधानी वाकई में कमाल की जगह थी। एक महादेश के बराबर तो इकलौती इनकी राजधानी थी। पूरे 4 दिन तक राजधानी घूमने के बाद सबसे आखरी में पहुंचे शोधक प्रजाति के गढ़ में।

शोधक प्रजाति के गढ़ में पहुंचना ही अपने आप में रोमांचित करने वाला दृश्य था। ऐसा लग रहा था चलती–फिरती पहाड़ियों के देश में चले आये थे। चहकिली को तो किसी तरह पूरा देख भी लिया था, लेकिन इनके व्यस्क को पूरा देख पाना संभव नही था। उनका आकार तो चहकिली के आकार से भी 10 गुना ज्यादा बड़ा था। नए उपचार पद्धति विकसित करने के बाद तो जैसे इन प्रजाति में जान आ गयी थी। चहकिली ने जैसे ही आर्यमणि और उसके पैक से सबका परिचय करवाया, हर कोई आर्यमणि को देखने के लिये व्याकुल हो गया। आलम ये था कि अल्फा पैक को जैसे इनलोगो ने किसी मजबूत पर्वतों के बीच घेर रखे हो। एक देखकर जाता तो दूसरा उसकी जगह ले लेते...

सबसे आखरी में चहकिली के अभिभावक ही पहुंचे थे। उनको इस बात इल्म नहीं था कि आर्यमणि और उसका पूरा पैक शोधक प्रजाति की बात समझ सकते हैं। वो तो अपनी बच्ची और अपने प्रजाति के जान बचाने वालों को धन्यवाद कह रहे थे। आर्यमणि, उनकी भावनात्मक बात सुनकर... "आपकी सेवा करना हमारे लिए सौभाग्य था। आप इतने भावुक ना हो।…"

सोधक अभिवावक.… "क्या तुम मेरी बात समझ सकते हो"…

आर्यमणि:– हां मैं आपकी बात समझ सकता हूं। मेरा नाम आर्यमणि है। मेरे साथ मेरी पत्नी रूही और 7 दिन की बेटी आमेया है।

शोधक:– मेरा नाम शावल है और अमेया 7 नही बल्कि 28 दिन की हो चुकी है...

रूही:– यहां आकर तो हम अपने दिन गिनती करना भूल गये। मुझे याद भी नहीं की ये कौन सा साल चल रहा..

शावल:– बहुत ही अलौकिक और प्यारी बच्ची है। क्या मैं इसे कुछ देर अपने पंख पर रख सकता हूं?

रूही:– हां बिलकुल... चहकिली इसे अपनी बहन मानती है, तो ये आप सबकी भी बच्ची हुई न...

शावल अपने छोटे से 5 फिट वाले पंख में अमेया को संभाल कर रखते, उसे प्यार से स्पर्श करने लगा। उसकी किलकारी एक बार फिर गूंज गयी जो न सिर्फ आर्यमणि और रूही को सुनाई दी, बल्कि ये किलकारी सुनकर तो एक बार फिर शोधक प्रजाति हरकत में आ गये। अमेया पानी के बिलकुल मध्य में थी और चारो ओर से शोधक जीव उसे घेरे प्यार से स्पर्श करते रहे...

शावल:– आह दिल खुश हो गया आर्यमणि… अब मैं समझ सकता हूं कि क्यों थल वासी को महाती ने जलवाशी होने का पूर्ण गुण दिया।

आर्यमणि:– वैसे यदि आप मेरी कुछ दुविधा दूर कर सके तो बड़ा एहसान होगा। बहुत सी बातें हैं जिनकी मैं समीक्षा नही कर पा रहा। मैं खुद भी किसी जानकार से अपनी शंका का समाधान ढूंढ रहा था...

शावल:– यूं तो मुझे गहरे महासागर के राज नही बताना चाहिए। लेकिन तुम्हारी सेवा भावना देखते हुये मैं हर संभव मदद करूंगा। हां लेकिन याद रहे, जो भी बातें तुम जानो उसे कभी जाहिर मत होने देना...

आर्यमणि:– ऐसा ही होगा... क्या आप मुझे बता सकते हैं कि विजयदर्थ क्यों आप सबका इलाज नहीं ढूंढ पाया, जबकि उसके शोधकर्ता मुझसे कहीं ज्यादा काबिल थे?

शावल:– “कभी–कभी ईर्ष्या में बड़ी ताकत होती है। विजय यूं तो थोड़ा स्वार्थी है, लेकिन उसका स्वार्थ केवल अपने जलीय साम्राज्य का हित है। जबकि उसका बेटा निमेषदर्थ पूर्ण रूप से स्वार्थी है जो केवल शक्ति का भूखा है। वह न सिर्फ शक्ति का भूखा है बल्कि जलीय जीव को हमेशा निचले स्तर का समझता है।”

“पूरे विज्ञान अनुसंधान की बागडोर निमेषदर्थ के हाथ में है और हर काबिल सोधकर्ता से केवल शक्ति बढ़ाने के उपाय खोज करवाता है। अब जब सभी काबिल शोधकर्ता को एक ही काम में लगाओगे तो नतीजा ऐसा ही होता है। ऐसा नही था कि विजय को निमेषदर्थ के बारे में पता नही, लेकिन उस बेचारे के हाथ बंधे है। एक तो पुत्र मोह दूसरा जब भी विजय सोधक प्रजाति की गिरती हालत को देखकर इलाज करने कहे, तो इलाज करने के बदले उन्हें मार ही दिया करता था और साफ शब्दों में कह देता उसका इलाज संभव नहीं। चाहकीली को भी तो मरने के लिये छोड़ दिया था।

आर्यमणि:– फिर राजा विजयदार्थ, अपने बेटे को विज्ञान प्रमुख के ओहदे से हटा क्यों नही देते?

शावल:– कोई चारा नही। निमेषदर्थ क्या गलत कर रहा है वो सबको पता है, पर कोई प्रमाण नहीं। कैसे साबित कर सकते है कि शोधक जीव के विषय में जान बूझकर सोध नही करना चाहते। इसलिए तो कहा ईर्ष्या... जब तुमने मेरी बच्ची चहकीली का इलाज कर दिया, तब विजय को भी मौका मिल गया इस अवसर को भुनाने का। उन्होंने भी महाती को तुम्हारा शागिर्द बनाकर भेज दिया। अब यदि महाती आगे निकल जाती तब तो विजय, निमेषदर्थ को सीधा उसके ओहदे से हटा देते, इसलिए काबिल लोगों की टीम को सीखने भेजा, ताकि निमेषदर्थ यह कह सके की आर्यमणि एक काबिल शोधकर्ता है जिसके मार्गदर्शन में हमारी टीम ने सोधक जीव का इलाज ढूंढ निकाला।

आर्यमणि:– आपने कहा ईर्ष्या, तो क्या निमेषदर्थ और महाती के बीच कुछ चल रहा है क्या?

शावल:– हां गहरी शत्रुता चल रही है। विजय के 10 बेटे और 2 बेटियां एक तरफ और अकेली महाती दूसरी तरफ। महाती विजय की तीसरी पत्नी की इकलौती संतान है जो 13 बच्चों में सबसे योग्य है। सभी भाई–बहन के साथ जब उसकी शिक्षा चल रही थी, उस वक्त वही अव्वल रहा करती थी। यूं तो पिता के लिये सब बच्चे बराबर थे किंतु एक राजा के नजर में महाती सबसे चहेती हुई जा रही थी।

यही से सबकी दुश्मनी शुरू हुई। ऐसा नही था की महाती को यह दुश्मनी समझ में नही आयी किंतु वह अकेली थी और सब उसके खिलाफ। शिक्षा पूर्ण करने के बाद जब शासन में सबकी भागीदारी का आवंटन हुआ तब महाती के जिम्मे कैदियों का प्रदेश मिला। ऐसी जगह की जिम्मेदारी जहां नकारा बच्चों को सजा के तौर पर भेज दिया करते थे। वहीं निमेषदर्थ ने बड़ी चालाकी से शासन के मुख्य प्रबंधन का काम लिया। विज्ञान के अपने कबजे में रखा और बाकी भाई–बहिनों को शासन के प्रमुख ओहदे दिलवाये।
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भाग:–162


शावल:– यही से सबकी दुश्मनी शुरू हुई। ऐसा नही था की महाती को यह दुश्मनी समझ में नही आयी किंतु वह अकेली थी और सब उसके खिलाफ। शिक्षा पूर्ण करने के बाद जब शासन में सबकी भागीदारी का आवंटन हुआ तब महाती के जिम्मे कैदियों का प्रदेश मिला। ऐसी जगह की जिम्मेदारी जहां नकारा बच्चों को सजा के तौर पर भेज दिया करते थे। वहीं निमेषदर्थ ने बड़ी चालाकी से शासन के मुख्य प्रबंधन का काम लिया। विज्ञान के अपने कबजे में रखा और बाकी भाई–बहिनों को शासन के प्रमुख ओहदे दिलवाये।

आर्यमणि:– साले कीड़े... दूसरों की तरक्की से जलने वाले। खुद की क्षमता विकसित नही किये तो दूसरे प्रतिभावान को ही दबा दो।

शावल:– “बिलकुल सही कहे। पर कहते है ना प्रतिभा को कितना भी दबा दो, उसकी झलक दिखती रहती है। पूरे महासागर तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिये हर 5 वर्षों पर योगियों द्वारा शास्त्रों का आवंटन होता है। 100 अलौकिक दंश हर योग्य युवाओं में बांटा जाता था। हर दंश की शक्ति अपार होती है और हथियारखाने में लाखो मजदूर काम करके 5 साल में ये 100 दंश तैयार कर पाते है। दंश जिसे भी मिलता है, उसकी आत्मा दंश से जुड़ जाती है और उसके मरने के साथ ही दंश का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।”

“दंश के अलावा 2 ऐसे अस्त्र है, जो आवंटन के लिये हर 5 वर्षों पर निकाले जाते है, किंतु सदियों में किसी एक को मिलता था वह अस्त्र। दिव्य त्रिशूल और दिव्य धनुष। माना जाता है कि महासागर की उत्पत्ति के साथ ही उन दो अस्त्रों का उदय हुआ था। जिसे भी यह दिव्य शस्त्र मिला, उन्होंने कई यशस्वी कार्य किये थे। इकलौता दिव्य अस्त्र धारक में ही वह शक्ति होती है जो किसी स्थल वासी को जलीय जीवन का वर दे सकता था। जहां दंश अपने मालिक के आत्मा से जुड़ने के बाद समाप्ति के ओर चला जाता है, वहीं ये दिव्य शस्त्र उसके धारक की आत्मा से जुड़ता तो जरूर है, किंतु उसके मरणोपरांत गायब होकर वहीं पहुंच जाता है, जहां से इसे निकला जाता है। योगियों ने लगभग 10 चक्र (330 वर्ष) बाद महाती के योग्यता को मेहसूस कर उसे दिव्य धनुष और त्रिशूल सौंप दिया।”

एक बार जब दिव्य अस्त्र महाती को मिल गया, फिर कौन भाई–बहन उसका क्या बिगाड़ लेता। दिव्य अस्त्र मिलते ही महाती प्रबंधन की मुखिया बनी और धीरे–धीरे सभी अयोग्य अधिकारी को उसके औहदे से बर्खास्त करती चली गयी। हालांकि महाती के लिये कभी ये आसन नही रहा। एक राजा के पुत्र अथवा पुत्री को उसके पद से हटाने के क्रम में 1000 बाधाएं सामने आ जाती। किंतु महाती भी डटी रही। वक्त लगा परंतु लंबे समय तक लड़कर, हर बाधा को पार कर, हर अयोग्य को हटाती चली गयी। अब तुम समझ ही सकते हो महाती और निमेषदर्थ के बीच किस हद की दुश्मनी होगी।”

आर्यमणि:– महाती और निमेष की दुश्मनी समझ में आ गयी। अब तक सोधक प्रजाति का इलाज क्यों नही ढूंढ पाये थे, वो भी समझ में आ गया। अब मेरी एक और दुविधा दूर कर दीजिए।

शावल:– हां क्यों नही। जो मै जानता हूं वो जरूर बताऊंगा ..

आर्यमणि:– कैदियों के प्रदेश से विजयदर्थ किसी को जाने क्यों नही देना चाहता? हर रोज अंतरिक्ष के कितने विमान यहां आते होंगे? आखिर विजयदर्थ का मकसद क्या है...

शावल:– हर रोज तो अंतरिक्षयान यहां नही आता, लेकिन जिस दिन भी यहां अंतरिक्ष से यान आना शुरू होता है, फिर एक साथ 20–30 यान तक आ जाते है। रही बात कैदियों को क्यों नही जाने देता तो उसके पीछे का कारण बहुत ही साधारण है। जो लोग यहां फंसे है, ब्लैक होल में घुसने के कारण उनकी मृत्यु लगभग तय थी। वो तो विजयदर्थ ने अपने दिव्य अस्त्रों से एक रास्ता महासागर में तिलिस्मी रास्ता खोल दिया था, इसलिए वो लोग सुरक्षित जिंदा बचकर यहां पहुंच जाते है।”

“जैसा की मैं पहले भी बताया था स्वार्थ। विजयदर्थ महासागर के हित में पूर्ण रूप से स्वार्थी हो सकता है। ये फसे हुये कैदी महासागर के अनंत कामों को अंजाम देते है। इसलिए विजादर्थ कभी भी कैदियों को बाहर नही जाने देता।

आर्यमणि:– तो क्या विजयदर्थ अपने स्वार्थ के लिये किसी को मार भी सकता है?

शावल:– स्वार्थ के कारण मारना... कोई मरता हुआ इंसान भी ये बात कहे तो मैं न मानू। विजय ऐसा नहीं कर सकता...

आर्यमणि:– ऐसा हो चुका है। जब हमारी पहली मुलाकात थी तब मुझ पर 5 लोगों ने अपने नजरों से हमला किया था।

शावल:– तो फिर तुम्हारी नजदीकियां महाती और विजय से किसी को देखी नही गयी होगी। तुमसे मिलने से पहले ही ये दोनो तुम्हारे कायल हो चुके थे। और तुम कड़ियों को जोड़ना चाहो तो जोड़ लो की कौन तुम्हे सोधक जीव के ऊपर किसी भी प्रकार के सोध करने से रोकना चाहेगा।

आर्यमणि:– ओह अब पूरा माजरा समझ में आ गया। उस कांड के पीछे निमेषदर्थ था और मै समझा विजयदर्थ है।

शावल:– हां अब सही समझे हो। उस धूर्त से जरा बचकर रहना। तुम्हारे ऊपर विजय का हाथ होने से वो भले तुम्हे न कुछ कर पाये, लेकिन सक्षम लोगों को वह टापू तक ला भी सकता है और बिना कोई सबूत छोड़े अपना काम करवाकर उन्हे वापस भी भेज सकता है।

आर्यमणि:– कुल मिलाकर अब ये जगह छोड़ने में ही ज्यादा भलाई है।

शावल:– पृथ्वी के किस हिस्से में जाना है हमसे कह दो, हम तुम्हे वहां छोड़ आते है।

आर्यमणि:– नही मैं यहां से सीधा नही जा सकता। पहले टापू पर जाकर सारा सामान समेटूंगा और अपने क्रूज को लेकर वापस जाऊंगा। एक काम हो सकता है, आप रूही, अलबेली और इवान को आश्रम तक छोड़ सकते हैं।

रूही:– मैं क्यों जाऊं... मैं तो क्रूज पर तुम्हारे साथ आऊंगी... एक काम करते है, अलबेली और इवान को भेज देते है।…

आर्यमणि:– हां, पर वो दोनो है कहां... अभी तक विजयदर्थ की राजधानी ही घूम रहे होंगे?

रूही:– हां तो सब साथ ही क्रूज से चलते है।

आर्यमणि:– आपसे मिलकर अच्छा लगा शावल। मेरे पास कुछ है जो आश्रम तक पहुंचाना जरूरी है। चहकिली वो पता जानती है। क्या वो मेरा सामान वहां तक पहुंचा देगी...

चहकिली:– अरे आप मुझे समान दो चाचू, मैं जानती हूं उसे कहां पहुंचाना है...

आर्यमणि:– चहकिली जरा संभल कर ले जाना... जब तक वो रक्षक पत्थर शुद्ध नही किया जाता, तब तक उसे छूना काफी खतरनाक हो सकता है...

चहकिली:– आप चिंता मत करो। जैसा देंगे ठीक वैसे ही पहुंचा दूंगी.…

आर्यमणि:– बहुत–बहुत धन्यवाद चहकिली। मैं शावल जी के साथ सतह तक चला जाऊंगा तुम इसे लेकर अभी चली जाओ। मैं नही चाहता कोई भी शापित वस्तु ज्यादा देर किसी के पास रहे...

चहकिली हामी भरती आर्यमणि से पत्थर ली और अपने मुंह में दबाकर मानसरोवर झील के उदगम स्थान के ओर बढ़ चली। वहीं रूही और आर्यमणि शावल पर सवार होकर वापस विजयदर्थ के महल पहुंचे। वहां पहुंचकर पता चला की इवान और अलबेली तो पहले ही सतह पर जा चुके है। यह खबर मिलते ही आर्यमणि भी वहां से निकला।

महासागर मंथन में उन्हे तकरीबन 28 दिन लग गये थे। इस बीच पूरे संसार और दुनिया जहां से बेखबर आर्यमणि एक नई और रोमांचित दुनिया का लुफ्त उठा रहा था। सतह पर जब वो लोग पहुंचे तब रात का वक्त था।

काली अंधेरी अमावस्या की वो रात थी। आर्यमणि के सतह पर आते ही तेज बिजली और तूफानी बारिश ने उसका स्वागत किया। रूही अपने आंचल से अमेया को ढकती हुई तेजी से कॉटेज के ओर बढ़ी। शावल से बिदाई लेकर पीछे से आर्यमणि भी चल दिया।

पंछियों के मधुर चहक से आर्यमणि की नींद खुल गई। बाहर हल्का अंधेरा था, पास में रूही और अमेया गहरी नींद में सो रही थी। आर्यमणि दोनो के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बाहर हॉल वाले हिस्से में चला आया। आर्यमणि अनंत कीर्ति की पुस्तक को उठाकर अपने महासागर और पाताल लोक का अनुभव, और वहां मिले जीव के बारे में विस्तार पूर्वक लिखने लगा।

लिखते हुए काफी वक्त हो गया था। बाहर हल्का हल्की रोशनी हो रही थी। रात भर घनघोर बारिश के बाद जमीन जैसे तृप्त हो चुकी थी। चारो ओर हरियाली प्रतीत हो रही थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आर्यमणि जिस टापू पर था दरअसल वो मात्र छोटा सा टापू न होकर एक बड़ा भू भाग था जो नागलोक के अधीन था। यह जगह तरह–तरह के नायब जीवों का घर हुआ करता था।

टापू की तरह दिख रहा यह भू–भाग क्यों पूरा नही दिख रहा था, वह कारण तो समझ में आ चुका था। पर पाताल लोक से निकलते समय नाभिमन ने पूरा भू–भाग वापस बाहर लाने का वादा किया था। आर्यमणि को इक्छा हुई की चलकर वह एक बार इस जगह का भ्रमण कर ले। देख तो आये की नभीमन ने पूरे भू–भाग को ऊपर किया या नहीं। इवान के साथ भ्रमण पर निकलने की सोचकर वह इवान के कॉटेज के दरवाजे पर पहुंचा... बाहर से कुछ देर आवाज लगाने के बाद आर्यमणि कॉटेज में दाखिल हुआ।

सोचा तो था इवान के साथ पूरा क्षेत्र भ्रमण करने की, परंतु अलबेली और इवान दोनो ही अपने कॉटेज में नही थे। वहीं कल रात इतनी तूफानी बारिश हो रही थी कि आर्यमणि और रूही सीधे अपने कॉटेज में चले गये, अलबेली और इवान के बारे में कोई जानकारी ही नहीं लिया। आर्यमणि को थोड़ी चिंता सताने लगी... पैक के मुखिया ने "वूऊऊऊऊ" का तेज वुल्फ साउंड दिया...

जवाबी प्रतिक्रिया ने 3 वुल्फ साउंड वापस सुनाई दिये। एक तो पास में ही खड़ी रूही ने वुल्फ साउंड लगाया और 2 वुल्फ साउंड पहाड़ों के ओर से आ रहे थे। रूही कॉटेज के बाहर आती... "क्या हुआ आर्य.. ऐसे बुलावा क्यों दे रहे। क्या पैक के मुखिया होने का एहसास करवा रहे?"..

आर्यमणि:– अरे नही, अलबेली और इवान कॉटेज में कहीं दिखे नही, इसलिए थोड़ी चिंता होने लगी...

रूही, हंसती हुई.… "तुम्हारा ढीला तूफान रात को ही इंडोर खत्म हो गया था। दोनो अभी गरम खून वाले हैं... उनका तूफान आउटडोर में कहीं चालू होगा... क्यों परेशान कर रहे।"

आर्यमणि, रूही के ओर लपकते.… "क्या बोली रे, ढीला तूफान"….

रूही, अमेया को तेजी से बरामदे के पालने में रखी और कॉटेज गोल–गोल चक्कर लगाने लगी। रूही के खीखीखीखी की आवाज चारो ओर गूंज रही थी.… "क्या हुआ आर्य, ढीले तूफान के साथ–साथ अब तुम भी पूरा ढीला पड़ चुके। कहां पहले एक छलांग में पकड़ लेते... अभी तो बिलकुल बूढ़े घोड़े की तरह हो गये"…

"तेरी तो... मुझे ही उकसा रही हो"…. इतना कहने के साथ ही आर्यमणि ने रूही को घर दबोचा। कॉटेज के पीछे की दीवार पर एक जोड़दार धम्म की आवाज हुई। रूही का सीना दीवार से चिपका था और आर्यमणि ठीक उसे पीछे से दबोचे। दोनो काफी तेज हाँफ रहे थे। दोनो अपने श्वांस सामान्य करने की कोशिश में जुटे थे की तभी एक जोड़दार चूरररररररर की आवाज आयी।

आर्यमणि पीठ पर पंजा डालकर पीछे से पूरे कपड़े को ही फाड़ दिया.… "हिहिही.. काफी जोश में हो जान। रुको तो यहां नही... कमरे में चलते है।"…

"आज तो यहीं आउटडोर तूफान आने वाला है।"… कहते हुए आर्यमणि ने अपनी एक उंगली को जैसे ही ऊपर किया उस उंगली का धारदार क्ला बाहर और अगले ही पल रूही के नीचे पहने कपड़े भी फटकर 2 हिस्सों में.… "ओय मेरे जंगली सैय्यां, यहां नही... कुछ तो शर्म करो"…

आर्यमणि, तेजी में नीचे से नग्न होते, अपना हाथ रूही के गर्दन पर डाल दिया। जैसे किसी मुर्गी की चोंच को जमीन में चिपका दिया जाता है, आर्यमणि ने ठीक वैसे ही पीछे से रूही के गर्दन पर हाथ डाला और आगे से उसका चेहरा कॉटेज की दीवार में चिपक गया... और अगले ही पल रूही का चेहरा कॉटेज की दीवार से चिपके ही इतना तेज घर्षण करते ऊपर हुआ की रूही की तेज चीख निकल गई.…

"आव… माआआआआआ, जंगली पूरा चेहरा छिल गया... उफ्फ आर्य... अपनी बीवी की कोई ऐसे लेता है..."

आर्यमणि लगातार तेज–तेज धक्का मार रहा था। कॉटेज के लकड़ी की पूरी दीवार... खट–पिट खट–पिट कर रही थी। लिंग जब तेजी के साथ योनि की पूरी गहराई में उतरता तब आर्यमणि के जांघ और रूही के नितंब से टकराता... थप–थप, थप–थप… की तेज आवाज करता...

माहोल में लगातार "खट–पिट, खट–पिट" और "थप–थप, थप–थप" की तेज आवाज गूंज रही थी। इसी आवाज के साथ रूही भी खुलकर अपनी आवाज निकालती… "आह्हहहहहहहहहहहहह, आर्य... बहुत दिन हो गए तुम्हे ऐसे जोश में करते.… उफ्फफफफफफफफ.. मेरी जान.. रुकना मत मजा आ रहा"…

दोनो हांफ रहे थे। रूही लगातार सिसकारियां भरती आर्यमणि के अंदर पूरा जोश भर रही थी। इसी बीच दोनो के चिंघारने की आवाज उस पूरे मोहोल में गूंजने लगे... आवाज और भी तेज होती गयी... लिंग राजधानी की रफ्तार में अंदर बाहर होने लगा... और फिर अंत में ज्वालामुखी का लावा दोनो के अंगों से फूटते ही, दोनो ही दीवार से टेक लगाकर हाफने लगे...

रूही, हंसती हुई पलट कर आर्यमणि के ओर देखती... "आज हुआ क्या था"…

आर्यमणि, रूही के होंठ पर प्यार से पप्पी लेते.… "बस 2–3 महीने का गैप था, वही पूरा कर रहा हूं। (रूही के गर्भवती होने के सातवे महीने से कल रात तक का वक्त)

दोनो की नजरें मिल रही थी। एक दूसरे को प्यार से देखकर मुस्कुरा रहे थे। तभी अचानक जैसे दोनो के दिल में तेज पीड़ा उठी हो और अगले ही क्षण दर्द में डूबा वुल्फ साउंड आर्यमणि और रूही के कानो में पड़ रहा था... आर्यमणि, रूही को कंधे से हिलाकर मानो होश में रहने कह रहा हो…. "रूही तुम अमेया को लेकर अंदर जाओ। कुछ भी हो तुम कॉटेज के बाहर मत आना"…

"लेकिन आर्य"…. रूही ने इतना ही कहा, और अगले ही पल आर्यमणि की तेज दहाड़ उन फिजाओं में गूंज गयी। यह आर्यमणि की गुस्से से भरी प्रतिक्रिया थी जिसके जवाब में रूही बस अपना सिर नीचे कर उसकी बात मान ली। आर्यमणि तेज दहाड़ने के साथ ही दर्द और वियोग वाली आवाज के ओर चल दिया।
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भाग:–163


"लेकिन आर्य"…. रूही ने इतना ही कहा, और अगले ही पल आर्यमणि की तेज दहाड़ उन फिजाओं में गूंज गयी। यह आर्यमणि की गुस्से से भरी प्रतिक्रिया थी जिसके जवाब में रूही बस अपना सिर नीचे कर उसकी बात मान ली। आर्यमणि तेज दहाड़ने के साथ ही दर्द और वियोग वाली आवाज के ओर चल दिया।

इसके पूर्व पूरी कहानी तब जाकर फंस गई जब विजयदर्थ ने अपनी पहली संतान निमेषदर्थ को आर्यमणि के बारे में पता लगाने कहा। जैसे–जैसे वह आर्यमणि को जानता गया, आर्यमणि की शक्तियों के ओर आकर्षित होता गया। हालांकि यह इतनी भी बड़ी वजह नही थी कि निमेषदर्थ, आर्यमणि के दुश्मनों से हाथ मिला ले।

लेकिन फिर उसे गर्भ में पल रही आर्यमणि की बेटी अमेया के बारे में पता चला। जैसा की अंदाजा लगाया जा रहा था अमेया अपने माता–पिता के गुण वाली अलौकिक बालिका होगी, जिसे सौभाग्य प्राप्त होगा। अर्थात यह बालिका जिस किसी के पक्ष में होगी, जीत उसके कदमों में। फिर क्या था, महासागर का राजा बनने का सपना एक बार फिर जोड़ पकड़ लिया। जो सिंहासन महाती के हाथों में जाती दिख रही थी, उसे अपने ओर करने की मुहिम ने निमेषदर्थ को यह कदम उठाने के लिये मजबूर कर गया।

निमेषदर्थ और नायजो समुदाय की माया तो पहले ही सभी योजना बना चुके थे। उन्हे बस सही मौके पर सही दाव खेलना था। हां लेकिन निमेषदर्थ की वास्तविक मनसा जो माया को नही पता थी, वो थी अमेया... प्राथमिकता की सूची में आर्यमणि तो दूसरे स्थान पर था, किंतु अमेया प्रथम निशाना थी। हालांकि निमेषदर्थ अपने बाज से अमेया का अपहरण तो करवा चुका होता, लेकिन बीच में आर्यमणि और उसका पूरा पैक था, जिसे मारे बिना यह कार्य संभव नही था और निमेषदर्थ अकेले अल्फा पैक को मार नही सकता था।

अमेया के जन्म दिन पर ही निमेषदर्थ और माया के बीच समझौता हो चुका था। समझौते के बाद निमेषदर्थ अपनी काली नजर कॉटेज के आस–पास गड़ाए था। 7 दिन इंतजार के बाद निमेषदर्थ अमेया की एक झलक पाया। उसी सातवें दिन जलीय मानव प्रजाति ने अमेया को गोद में भी लिया था। उसी भीड़ का हिस्सा निमेषदर्थ भी था। वह जब आमेया को गोद में लिया ऐसा सुकून में था कि जैसे वह शून्य काल में पूरे राहत से लेटा हो।

निमेषदर्थ सबकी नजरों से बचाकर, अमेया के गले मे लटके 2–3 पत्थरों के बीच एक सम्मोहन पत्थर डाल दिया। निमेषदर्थ इसी सम्मोहन के सहारे ही बाज के झुंड से अमेया को शांतिपूर्वक अगवा कर सकता था। पूरा जाल बिछाया जा चुका था, बस सही मौके का इंतजार था। हालांकि महासागर के अंदर यात्रा के दौरान आर्यमणि, निमेषदर्थ को अच्छे से समझ चुका था और नए दुश्मन से भिड़ने के बदले उसने जगह ही छोड़ने का मन बना लिया था। टापू से बस एक दिन में पूरा काम समेटकर निकलने की पूरी तैयारी भी हो चुकी थी परंतु किस्मत....

निमेषदर्थ को पहला मौका तब मिल गया, जब अलबेली और इवान, आर्यमणि से अलग होकर महासागर घूमने निकले। वहीं दोनो (अलबेली और इवान) की मुलाकात निमेषदर्थ से हो गयी। पौराणिक वस्तु और महासागर के योगियों को दिखाने के बहाने, निमेषदर्थ, अलबेली और इवान को योगियों की ऐसी भूमि पर लेकर गया, जहां उसके शरीर की रक्षा कर रहा सुरक्षा मंत्र खुद व खुद निरस्त हो गया। दोबारा अलबेली और इवान के शरीर को बांधने के लिये आर्यमणि था नही, जिसका नतीजा यह हुआ की दोनो निमेषदर्थ के सम्मोहन में थे।

निमेषदर्थ का पहला दाव पूरे निशाने पर लगा। अलबेली और इवान पूर्णतः सम्मोहन में थे। अब बस उनके जरिए पूरे अल्फा पैक को लपेटना था। सुबह जैसे ही आर्यमणि ने वुल्फ कॉलिंग साउंड से अलबेली और इवान को आवाज लगाया, निमेषदर्थ और माया की योजना शुरू हो गयी। पहाड़ियों के ऊपर किसी को रोक के रखने के लिए बड़े–बड़े मौत के घेरे बनाए जा चुके थे।

घेरा केवल माया और विवियन जैसे नायजो ने ही नही बनाया, अपितु मधुमक्खी की रानी चिची ने भी अपना योगदान दिया। पहले ही अल्फा पैक के पास उन किरणों के घेरे से निकलने का कोई तोड़ नही था, ऊपर से चीचि का सहयोगी घेरा। मौत के बड़े–बड़े घेरे तैयार थे। आर्यमणि की आवाज सुनते ही आगे की योजना शुरू हो गयी। पहले से सम्मोहित अलबेली और इवान, निमेषदर्थ के मात्र एक इशारे से खुद ही मौत के घेरे में आ गये। अलबेली और इवान को मौत के एक अदृश्य घेरे के अंदर फसाकर यातनाएं दी जाने लगी। जैसे ही आर्यमणि और रूही के कानो में इनके वियोग की आवाज पहुंची, रूही अमेया के पास गयी और आर्यमणि दौड़ते हुए आवाज की ओर...

रक्षा मंत्र का उच्चारण करते आर्यमणि पूरी रफ्तार के साथ आगे बढ़ा। पहाड़ियों के दक्षिण भाग से आवाज आ रही थी। पहले के मुकाबले अभी ये जगह काफी बदली हुई नजर आ रही थी। शायद नभीमन पूरे भू–भाग को सतह पर ला चुका था। पहाड़ के दक्षिणी हिस्से से आर्यमणि बिलकुल अनजान था, किंतु वो हवा को परख रहा था। हवा में फैली गंध को महसूस कर रहा था।

इसी बीच एक बार मानो आर्यमणि की धड़कन थम गयी हो, उसके प्राण शरीर से निकल गया हो। ऐसा लगा जैसे ब्लड पैक का कोई वुल्फ मृत्यु के करीब पहुंच चुका हो। प्राण निकलने जैसा महसूस कर ही रहा था कि इतने में वियोग में तड़पती अलबेली की चिंखे कानो में सुनाई देने लगी। आर्यमणि भागकर वहां पहुंचा, और आंखों के आगे का नजारा देखकर मानो पागल हो गया हो। इवान का शरीर 2 हिस्सों में चीड़ दिया गया था। रक्त भूमि पर फैला हुआ था। वहीं कुछ दूर खड़ी अलबेली बस रो रही थी, किंतु हिल भी नहीं पा रही थी।

आर्यमणि तेज वुल्फ साउंड निकालते चारो ओर देखने लगा। इतने में उसके कान में रूही की दूर से आती आवाज सुनाई दी.… "मेरी बच्ची.… आर्य... वो बाज... वो बाज.. अपनी बच्ची को ले जा रहा"…

एक ओर इवान की लाश, और पास में बेबस अलबेली। दूर–दूर तक दुश्मन नजर नहीं आ रहा था। दिमाग कुछ काम करता उस से पहले ही रूही की आवाज कान में थी और नजर जब आकाश में गई तब एक बाज अमेया को हवा में उड़ाकर लिये जा रहा था। आर्यमणि होश हवास खोये, उस बाज के पीछे दौड़ लगा दिया। दूर से रूही की चिल्लाती आवाज भी आ रही थी, वह भी बाज के पीछे दौड़ लगा रही थी।

बाज कई फिट हवा में था और अचानक ही उसने अमेया को नीचे छोड़ दिया। ऊंचाई से अपनी बच्ची को नीचे गिड़ते देख रूही चक्कड़ खा कर गिर गयी। वहीं आर्यमणि के नजरों के सामने अमेया गिरी। आर्यमणि से तकरीबन 500 फिट की दूरी रही होगी और अपनी बच्ची को बचाने के लिए आर्यमणि ने एक छलांग में पूरे 500 फिट की दूरी तय करके ठीक अमेया के नीचे अपने दोनो पंजे फैलाए था.…

ऊप्स… अमेया नीचे तो गिड़ी किंतु जमीन पर आने से पहले ही वो किसी दूसरे बाज के चंगुल में फसी थी। वो बाज काफी तेजी से अमेया को ले उड़ा। आर्यमणि भी उसके पीछे जाने को तैयार, लेकिन अफसोस वह मौत के घेरे में फंस चुका था। ये किस तरह का जाल था और इस जाल से कैसे बचे आर्यमणि को कुछ पता नही, ऊपर से दिमाग ने तो जैसे काम करना बंद कर दिया था...

अलबेली, आर्यमणि से कुछ दूरी पर फंसी हुई थी। हां लेकिन वियोग के वक्त जब सम्मोहन टूटा, तब सबसे पहले उसने हाथ में लगे बैंड को रब करने लगी, जिसका ट्रांसमिशन सिग्नल अपस्यु और उसकी पूरी टीम के पास पहुंच रहा था। उनके पास भी जैसे ही यह ट्रांसमिशन सिग्नल पहुंचा, वो लोग भी निकल चुके थे, लेकिन शायद नियति लिखी जा चुकी थी.…

आर्यमणि हील नही पा रहा था और खुद की बेबसी पर वो क्ला अपने गालों में ही घुसाकड़ उसे नोच रहा था। इसी बीच राहत तब हुई जब बाज, अमेया को लेकर वापस आर्यमणि के ओर चला आ रहा था। इधर सामने से बाज आ रहा था तो पीछे से रूही दौड़ती हुई आ रही थी। अलबेली और आर्यमणि दोनो चिल्लाते हुये उसे आगे नहीं आने कह रहे थे, लेकिन एक मां को सुध कहां थी। वो तो खतरे में फंसी अपनी बच्ची को देख रही थी। और अंत में नतीजा वही हुआ जो अलबेली और आर्यमणि का था। रूही भी एक घेरे में कैद हो चुकी थी।

आर्यमणि, रूही, अलबेली तीनो ही 15 फिट की दूरी पर थे और लगभग अलबेली से उतने ही दूरी पर इवान का पार्थिव शरीर 2 हिस्सों में बंटा था। रूही की नजर जब इवान के मासूम चेहरे पर गई, उसकी हलख से चींख निकली। माहौल समझ से पड़े था। दिमाग को जैसे सुन्न कर दिया गया हो। सामने अपने परिवार में से किसी एक की लाश और सर पर नवजात बच्ची खतरे में।

तभी सामने से एक जाना पहचाना चेहरा निमेषदर्थ और उसके साथ एक अनजान लड़की, नयजो समुदाय की माया, चली आ रही थी। उसे देखकर ही आर्यमणि का गुस्सा फूट पड़ा.… "विनायक की कसम आज तेरे गर्दन को अपने पंजों से चिड़कर तुझे मरूंगा"…

आर्यमणि चिंखते हुए कहा और अगले ही पल माया अपने पीठ से वही दिव्य खंजर निकाली जो रीछ स्त्री महाजानिका के पास थी। ऐसा खंजर जो किसी मंत्र के घेरे से बंधे, सुरक्षित इंसान को मंत्र समेत चीड़ सकती थी। माया खंजर निकालकर अलबेली का गला एक ही वार में धर से अलग करती.… "लो तुम्हारे एक आदमी (इवान) को मारने के लिये तुम निमेष का गला चिड़ते, इसलिए मैंने तुम्हारे एक साथी के साथ वही कर दिया"..

आर्यमणि पूरा हक्का–बक्का... जुबान ने जैसे साथ छोड़ दिया हो। पूरे बदन से जैसे जान ही निकल चुकी थी। रूही ने जब ये मंजर देखा, ऐसा लगा जैसे सिर घूम गया हो। वह चीखना और चिल्लाना चाह रही थी लेकिन वियोग ने जैसे उसकी आवाज को हलख में ही कैद कर लिया हो... पूरे दर्द और कर्राहट भरे शब्दों में किसी तरह आवाज निकला.… "अलबेलीईईईईईईई"..

जैसे ही रूही की सिसकी भरी आवाज में अलबेली निकला, उसके अगले ही पल खंजर सिर के बीच से घुसा और रूही को 2 टुकड़े में विभाजित करता बाहर आया... उस खंजर ने रूही के तड़प को अंत दे दिया किंतु आर्यमणि बौखलाहट से पागल हो चुका था। आर्यमणि की दहाड़ भयावाह थी। उसके गुस्से और वियोग की चीख मिलो सुनी जा सकती थी। आर्यमणि चींखते–चिल्लाते अपनी जगह से बाहर निकलने के लिये पागल हुआ जा रहा था लेकिन बाहर आना तो दूर की बात है, हील भी नही पा रहा था.… पूरी कोशिश करके देख लिया और अंत में बेबस होकर.… "मुझे भी मार ही दो, अब तक जिंदा क्यों रखे हो"…

निमेषदर्थ की गोद में अमेया थी, जिसे पुचकारते हुये वह आर्यमणि को देखा.… "बड़ी प्यारी है ये... वैसे तुम्हे भी जिंदा रखने का कोई इरादा नहीं.. लेकिन उस से पहले एक काम कर लूं... माया जरा आर्यमणि का खून मुझे इस डिब्बे में दो। फिर ये शिकार भी तुम्हारा"..

माया:– बड़े शौक से राजकुमार...

माया अपनी बात कहती आगे बढ़ी और खंजर की नोक को सीधा आर्यमणि के हृदय में उतारकर अपने कलाई को थोड़ा नीचे कर दी। रक्त की धार खंजर पर फैलती हुई नीचे कलाईयों तक आने लगी। निमेषदर्थ एक जार लगाकर सारा खून एकत्रित करने लगा... जार जब भर गया... "माया मेरा काम हो गया, इसे मार दो"…

माया:– और ये आर्यमणि की वारिश… बच्ची अलौकिक है, कल को हमसे बदला लेने आयी तो...

निमेषदर्थ:– इस घटना का कोई सबूत होगा तब न ये बदला लेगी। उल्टा आज से मैं इसका बाप हूं और ये मेरे दुश्मनों से बदला लेगी...

माया, खंजर को हवा में ऊपर करती.… "फिर तो आश्रम के इस गुरु को मारकर एक बार फिर आश्रम की कहानी को उसी गर्त में भेज देते है, जहां इसके पूर्व गुरु निशि को हमने भिजवाया था। आगे के 10–15 साल बाद कोई इस जैसा पैदा होगा, और तब एक बार और हम मजेदार खेल खेलेंगे... तुम भी दर्द से मुक्ति पाओ आर्यमणि"… अपनी बात खत्म करती माया ने खंजर को झटके से मारा... और खंजर सीधा आर्यमणि के सर के बीचों बीच।

भयानक तूफान सा उठा था। एक ही पल में पूरी जगह जलनिमग्न हो गयी। जिस पहाड़ पर यह भीषण हत्याकांड चल रही थी, वह पहाड़ बीच से ढह गयी। ऐसा लग रहा था, दो पहाड़ के बीच गहरी खाई सी बन गयी हो। निमेषदर्थ, चिचि और माया तीनो ही महासागर में उठे सुनामी जैसे तूफान में कहां गायब हुये पता ही नही चला। निमेषदर्थ के हाथ से अमेया कहां छूटी उसे पता भी नही चला। तूफान जब शांत हुआ तब उसी के साथ पूरा माहौल भी शांत था और अल्फा पैक के मिटने के सबूत भी पूरी तरह से गायब।
Nice update
 

Tri2010

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भाग:–164


भयानक तूफान सा उठा था। एक ही पल में पूरी जगह जलनिमग्न हो गयी। जिस पहाड़ पर यह भीषण हत्याकांड चल रही थी, वह पहाड़ बीच से ढह गयी। ऐसा लग रहा था, दो पहाड़ के बीच गहरी खाई सी बन गयी हो। निमेषदर्थ, चिचि और माया तीनो ही महासागर में उठे सुनामी जैसे तूफान में कहां गायब हुये पता ही नही चला। निमेषदर्थ के हाथ से अमेया कहां छूटी उसे पता भी नही चला। तूफान जब शांत हुआ तब उसी के साथ पूरा माहौल भी शांत था और अल्फा पैक के मिटने के सबूत भी पूरी तरह से गायब।

घनघोर अंधेरे के बीच तकरीबन 100 योगी और संन्यासी उस बड़े से भू–भाग की छानबीन करने पहुंच चुके थे। पहले की भांति महज 40 या 45 किलोमीटर का यह टापू नही रह गया था, बल्कि पूरा एक महाद्वीप था। यादि किसी के पास उच्च स्तर की सिद्धियां न हो, फिर इस महाद्वीप में पहुंचना नामुमकिन था। क्योंकि पूरा भू–भाग का मार्ग एक तिलिस्मी जाल था, जो महासागर की गहराइयों से होकर जाता था। पहले की तरह अब ये टापू नही रह गया, जो महासागर के इस हिस्से में सफर करते हुये आसानी से दिख जाये...

आपातकालीन संदेश मिलते ही, महज कुछ घंटे में अपस्यु अपनी पूरी टीम के साथ वहां पहुंच चुका था। अपस्यु आते ही सबसे पहले कॉटेज गया और वहां के चारो ओर का मुआयना करने के बाद सर्च टीम के साथ निकल गया। छानबीन करते हुए एक टीम उसी जगह के आस पास पहुंच गयी, जहां आर्यमणि और उसके पूरे पैक के साथ यह निर्मम घटना हुई थी। हालांकि कुछ घंटे पहले और अब में बहुत अंतर था। दक्षिणी हिस्से के जिस पहाड़ी पर कांड हुआ था, वहां अब बड़ा सा झरना था। घटनास्थल के 200 मीटर के दायरे वाले पहाड़ को ही पूरा महासागर में घुसा दिया गया था। देखने से ऐसा लग रहा था जैसे 2 बड़े पर्वत के बीच कोई बड़ा सा झील हो।

खोजी दस्ते में ओजल और निशांत भी थे, जो वहां के हवा को महसूस कर सकते थे। ओजल यूं तो पूरे रास्ते रोती हुई ही आयी थी। ब्लड पैक से जुड़े होने के कारण यहां हुई घटना को वह दूर से महसूस कर चुकी थी। बस मन में एक छोटी सी आस बंधी थी, जो इस घटनास्थल पर पहुंचकर वो भी समाप्त हो गयी। वहां अल्फा पैक का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था। ओजल वहीं बैठकर, बिलख–बिलख कर रोने लगी।

मौके पर अपस्यु भी पहुंचा। हवा को वह भी महसूस कर सकता था। अपनों को खोने का क्या गम होता है, अपस्यु भली भांति समझता था। कोई दिलाशा, कोई भी बात अपनों को खोने के गम से उबार नही सकती थी, इकलौता वक्त ही होता है, जो किसी तरह जीना सिखा देता है। ओजल के लिये बहुत कठिन वक्त था। लगभग 6 दिन तक अल्फा पैक की लाश ढूंढने की प्रक्रिया चलती रही, लेकिन किसी के भी पार्थिव शरीर का कहीं कोई निशान तक नही था।

संन्यासी शिवम् अपने कुछ शिष्यों के साथ वहीं आवाहन पर बैठे थे। सातवे दिन विचलित होकर सबसे पहले विजयदर्थ उनके पास पहुंचा.... “हे संन्यासी तुम कौन हो और क्यों इतने कठिन योजन पर बैठे हो। जानते भी हो, मैंने यदि तुम्हारी बात न सुनी तो तुम और योजन पर बैठे जितने भी संन्यासी है सब मर जायेंगे।”

संन्यासी शिवम्:– हे महासागर नरेश, मुझे विश्वास है कि आप मेरी बार सुनेगे। मेरा मन विचलित है। मेरे गुरु अपने परिवार के साथ यहां पहुंचे थे किंतु उनका कोई पता नहीं। उनके साथ एक नवजात शिशु भी है।

विजयदर्थ:– आर्य और उसका पैक। क्या हुआ है उनके साथ...

संन्यासी शिवम:– आप जवाब दीजिए। आपने भरोसा दिलाया था कि गुरु आर्यमणि और उसके परिवार को कोई छू भी नहीं सकता।

विजयदर्थ:– संन्यासी पहले बताए कि हुआ क्या है? आपको भी पता है कि मैं स्थल के मामले में कुछ नही कर सकता।

संन्यासी शिवम्:– आपने ही आश्वाशन दिया था न... इस भूमि पर कोई बाहरी नही आ सकता।

विजयदर्थ:– मैने आश्वाशन दिया था, लेकिन फिर भी मेरी जानकारी के बगैर आप और आपके सभी लोग यहां पहुंच गये ना। बिना किसी सिद्ध प्राप्त इंसान की मदद से यहां कोई बाहरी नही आ सकता।

संन्यासी शिवम्:– और यदि कोई आपके घर का मिला हो?

विजयदर्थ:– मेरे घर का भी कोई चाह ले तो भी बिना किसी सिद्ध पुरुष की मदद से यहां कोई बाहरी नही आ सकता क्योंकि ये पूरा क्षेत्र नागलोक का है ना की ये महासागर का कोई टापू है। अब आप पहले मुझे बताएंगे की आर्य और उसके परिवार के साथ हुआ क्या है? अमेया कहां है? नाभीमन महाराज कहां हो? महाराज कहां हो?

नभीमन, वहां आते... “ये संन्यासी मुझे कबसे बुला रहा था मैं नही आया। क्या तुम्हे पता नही की मैं किसी इंसान के सामने नहीं आता।

विजयदर्थ:– महाराज आप अभी अपने नियम थोड़े किनारे रखिए। यहां आर्य और उसका पूरा परिवार गायब है। अमेया का कोई पता नहीं चल रहा।

नभीमन:– गुरुवर गायब हैं। ऐसा कैसे हो सकता है?

नभीमन अपनी आंख मूंदकर वहीं भूमि पर बैठ गया। आधे घंटे तक उसका फन चारो ओर घूमता रहा। आधे घंटे बाद नाभिमन अपनी आंखें खोलते.... “अमेया कहीं सुरक्षित है। यहां 3 लाशें गिरी थी चौथा मरने की कगार पर है। एक समुद्री मानव के साथ 7 परिग्रही, 1 रीछ स्त्री महाजानिका का साधक भी था। उसी साधक ने रीछ स्त्री के दिव्य खंजर को एक परिग्रही के हाथ में दिया था। सभी हत्याएं उसी खंजर से हुई थी। अलौकिक माया का प्रयोग भी किया गया था और शून्य काल का अंतर्ध्यान भी हुआ है।

सन्यासी शिवम्:– हे पाताल लोक के शासक साफ शब्दों में गुरु आर्यमणि और उनके परिवार के बारे में बताइये।

नभीमन:– मैं बिते कल में इस से ज्यादा नही देख सकता। ऐसा लग रहा था पूरे भू–भाग पर किसी ने मायाजाल फैलाया था। जरूर ये तांत्रिक अध्यात का काम होगा। वह यहां आया होगा और अपना जाल फैलाकर अंतर्ध्यान हुआ होगा।

विजयदर्थ:– महाराज वो सब तो समझे किंतु आर्य और उसका परिवार...

नभीमन:– मेरा दिल भारी हो रहा है। शायद 4 में से 3 की मृत्यु हो चुकी है और कोई एक जीवन और मृत्यु के बीच में है। इस से ज्यादा अभी मैं कुछ नही कह सकता...

काफी देर तक वहां मंथन होता रहा। अपस्यु अपने लोगों के साथ भी पहुंचा। उसने भी पूरी बात सुनी लेकिन कोई एक ऐसी बात नहीं थी जो दिल को संतुष्ट कर सके। न तो लाश मिल रहे थे न ही अल्फा पैक के कोई भी निशान। सातवे दिन सभी मायूस होकर वापस लौट आये।

टापू पर हुये कुरूर नरसंहार के 2 दिन बाद... मुंबई के एक गुप्त स्थान पर मनमोहक जश्न का माहोल चल रहा था। जिस्म की नुमाइश करती थिरकती हुई कमसिन और जवान लड़कियां। मंहगी जाम को अपने अदाओं से परोसती हुई दिलकश औरतें। और हाथो में जाम लहराते तात्कालिक प्रहरी के आला हुक्मरान। आर्यमणि और उसके पैक के सफाया के बाद, जिस्म और शराब का पूरा मनोरंजन चल रहा था। आज से कुछ वर्ष पूर्व और उसके कुछ वर्ष पूर्व भी, ऐसा ही जश्न का माहोल था, क्योंकि उस वक्त भी इन्होंने आर्यमणि की तरह सात्त्विक आश्रम के गुरुओं का शिकार करवाया था। हां लेकिन जितना नाक में दम आर्यमणि ने किया, उतना किसी से नहीं किया था।

प्रहरी में अपेक्स सुपरनैचुरल का राज था, जिनमे ज्यादातर नायजो समुदाय के लोग थे, जो किसी दूर, दूसरे ग्रह से पृथ्वी पर आये थे। ब्रह्मांड में जितने भी ग्रहों पर नायजो समुदाय के विषय में जानकारी थी, वह कुछ इस प्रकार थी..... “यह समुदाय काफी विकसित है और प्रकृति प्रेमी भी। आंखों से इनकी दिव्य रौशनी निकलती है जो इनके मस्तिष्क के अधीन होती है... अर्थात अगर नायज़ो समुदाय वाले किसी को घायल करने की सोच रहे तो आंखों की रौशनी केवल घायल करेगी... यदि मन में चल रहा हो की केवल डराना है, तब आंखों की रौशनी से केवल भय पैदा होगा।” बस यही इतनी जानकारी हर किसी के पास थी। दूर ग्रह से आये ये नायजो समुदाय वाले और क्या कर सकते थे, यह पूरा किसी को नही पता था, सिवाय अल्फा पैक के, जिन्होंने इन्हे काफी करीब से जाना था।

पुराने पन्नों को यदि पलटा जाए तब इतिहास में एक बहुत ही धूर्त साधक था, शूर्पमारीच। शूर्पमारीच जब अपनी नई सिद्धियों के लिये नायजो समुदाय के पास पहुंचा था, तब एक संधि हुई थी। नायजो समुदाय वालों ने शूर्पमारीच को जड़ी–बूटी के धुएं का ऐसा प्रयोग बताया था, जिसके माध्यम से वह किसी के दिमाग की यादों को जितना चाहे उतना मिटा सकता था। इसके अलावा किसी भी सिद्ध प्राप्त इंसान हो या अलौकिक जन्म लिया अवतार, उन्हे एक जगह बांधकर विवश करने की पूर्ण विधि नायजो समुदाय ने सिखाकर उसे इन कलाओं में निपुण किया था। बदले में नायजो ने अपनी गंभीर समस्या का इलाज मांगा था।

नायजो समुदाय उस दौड़ में विलुप्त की कगार पर खड़ा था। नर और मादा के मिलन से एक भी बच्चा पैदा नहीं हो रहा था। तब शूर्पमारीच ने नायजो समुदाय को ब्रह्मांड के 5 हिस्सों में बसाया था.… विषपर, हुर्रियंट, शिल्फर, गुरियन और पृथ्वी... यह सभी ग्रह विशाल फैले ब्रह्मांड के 5 हिस्से में थे। नायजो को इन सभी ग्रहों पर बसाने के उपरांत, चुपके से अन्य समुदाय के स्त्री और पुरुष को पकड़कर लाते और उनसे नए पीढ़ी पैदा करने की तैयारी करते।

शूर्पमारीच और नायजो का संधि साथ–साथ चल रही थी। शूर्पमारीच को सब सीखने में लगभग 3 वर्ष लगे, और इतने वक्त में कई बच्चों का जन्म हुआ। हां लेकिन सभी नवजात में नायजो के अनुवांशिक गुण नही आये। जिनमे भी नायजो समुदाय के गुण नही आये उनका जीवन आगे नही बढ़ा। बस यही एक भूल जो नायजो समुदाय पृथ्वी पर कर गये, नवजातों की हत्या। यह खबर पहले किसी राजदरबार में पहुंची और जब वो लोग इन तिलस्मी नायजो समुदाय से निपट नही पाए फिर योगियों और साधुओं की मदद मांगी।

उसी दौर से सात्त्विक आश्रम और नायजो के बीच जंग छिड़ी हुई थी। हां लेकिन सही मायनो में नायजो समुदाय की जीत तब हुई, जब धूर्त शूर्पमारीच ने पूरे सात्त्विक आश्रम को ही बर्बाद कर दिया। फिर तो जैसे पृथ्वी पर नायजो समुदाय का एकाधिकार हो चुका था। हालांकि शूर्पमारीच एक ऐसा रहस्य था, जिनसे नायजो समुदाय भी खौफ खाता था। ऐसा नही था कि सात्त्विक आश्रम कमजोर था या उन्हे हरा पाना आसान था। किंतु शूर्पमारीच के पास जितनी सिद्धि प्राप्त थी, उतना ही वो धूर्त भी था। खैर उन दिनों शूर्पमारीच और सात्त्विक आश्रम के द्वंद में सबसे ज्यादा फायदा नायजो वालों ने ही उठाया था।

शूर्पमारीच की अहम जानकारी उस अनंत कीर्ति के पुस्तक में भी थी। सात्विक आश्रम और शूर्पमारीच के प्रथम द्वंद में, शूर्पमारीच को लगभग समाप्त करने के बाद उस वक्त के तात्कालिक गुरु वशिष्ठ ने ही अनंत कीर्ति की पुस्तक का निर्माण किया था। पुस्तक के निर्माण के साथ ही प्रहरी समाज भी बना था, जिसका मुखिया उस पुस्तक में, विकृत जीव का विवरण और उन्हे कैसे रोका या समाप्त किया जाए, उसे वर्णित करते थे। प्रहरी समुदाय पर शुरू से नायजो समुदाय की पैनी नजर थी। जैसे ही सात्त्विक आश्रम बर्बाद हुआ, सबसे पहले प्रहरी समुदाय ही निशाना बना।

बहरहाल अतीत के पन्नो से लेकर तात्कालिक वर्तमान परिस्थिति में एक बात सामान्य थी, नायजो समुदाय पृथ्वी छोड़कर नही जाना चाहते थे। इसका प्रमुख कारण यह भी था कि यहां की नई पीढ़ी पहले से ज्यादा कुशल और उनका दीमाग उतना ही विकसित होता था। वर्तमान समय में जश्न में डूबा दूर ग्रह वाशी यह सुनिश्चित कर बैठा था कि उसने सात्त्विक आश्रम के होने वाले गुरु आर्यमणि की लीला समाप्त कर दी थी। अब वापस उस आश्रम को फलने फूलने में वक्त लगेगा.….

उसी महफिल के एक कोने में पलक भी थी, जो आर्यमणि और अल्फा पैक की खबर सुनकर कभी सदमे में रहती तो कभी उसे सब भ्रम लगता। शायद आर्यमणि नही मर सकता ऐसा उसे अंदर से यकीन था, लेकिन माया और विवियन का विश्वास देख पलक के अंदर का विश्वास डोल रहा था। पलक खुद में क्या महसूस कर रही थी, इस बात को तो वो खुद भी समझ नही पा रही थी। इसी बीच सुकेश भारद्वाज पलक के करीब पहुंचते.… "क्या हुआ तुम आज बुझी–बुझी सी हो? कहां गया पलक का जोश?"

पलक:– काका मुझे एक आखरी बार आर्यमणि से मिलना था। जब वो मर रहा होता तब उस से नजरें मिलानी थी..

सुकेश:– विवियन जैसे मारक के हाथ से आर्यमणि और उसका पैक बच चुका था। उसके शिकार के लिए माया को खुद आना पड़ा था। वहां तुम्हारा न होना ही अच्छा था। वरना आर्यमणि को जरा भी भनक लगती तब वह फिर बचकर भाग जाता...

"क्या बातें हो रही है"…. दूर ग्रह से आया एक परिग्रही जो रिश्ते में माया का भाई और पलक को दिल से पसंद करने वाला, मायस्प, ने पूछ लिया... पलक फिकी मुस्कान देती मायस्प के साथ उस पार्टी से निकल गयी। मायस्प के साथ चलते हुये भी बुझे मन में एक ही ख्याल चल रहा था... "हे ईश्वर, हे विनायक आर्यमणि और उसके पैक को सुरक्षित रखना”...

शायद पलक ये मानने से इंकार कर चुकी थी कि अल्फा पैक के साथ कोई घटना भी हो सकती थी। लेकिन इन सबमें सबसे बुरा हाल तो कहीं और ही था। सबसे पहले खबर भूमि को मिली। भूमि, पिछले कुछ वक्त से क्या कर रही थी, उसे होश ही नहीं, और जब होश आया फिर... दरअसल आर्यमणि के भागते ही भूमि के पति और नायजो समुदाय का एक होनहार मुखिया जयदेव ने भूमि को अपने बस में कर लिया था। संन्यासियों के संपर्क में आने के पूर्व ही जयदेव यह कांड कर चुका था।

भूमि को सम्मोहित कर अपने वश में करने के बाद ही नायजो को भूमि, आर्यमणि और कुलकर्णी परिवार के बीच की सारी बातें पता चली। नायजो का एक प्रमुख चेहरा सुकेश और मीनाक्षी भारद्वाज तब सकते में आ गये, जब उन्हे पता चला उसकी खुद की बेटी भूमि को उनपर शक है। भूमि के जरिए ही नायजो समुदाय को टर्की की शादी का पता चला था।

मुंबई में जश्न समाप्त करने के बाद जयदेव सीधा नागपुर पहुंचा। सबसे पहले तो उसने भूमि का सम्मोहन हटाया। जबतक भूमि सम्मोहित थी, तबतक उसे होश कहां की वो क्या कर रही थी, लेकिन जब सम्मोहन हटा तब सम्मोहित होने के दौरान भूमि ने जो भी की थी, हर वाक्या मानो सीने में नासूर जख्म बनकर उभर रहा था। खुद से घृणा होने लगी थी। भूमि, जयदेव का कॉलर पकड़कर उसे खींचकर लगातार थप्पड़ लगाती रही और जयदेव हर थप्पड़ के बाद जोड़ से हंसकर भूमि की चिढ को और बढ़ा रहा था।

अचानक ही जयदेव ने भूमि के पेट पर एक लात जमा दिया। काफी तेज लात लगी और भूमि कर्राहती हुई नीचे बैठ गयी। जयदेव भूमि का बाल पकड़कर, उसके चेहरे को ऊपर करते.… "तुझे बड़ा शौक था न जानने की... बहुत चूल मची हुई थी कि क्यों सुकेश और मीनाक्षी भारद्वाज को एक छींक तक नही आती? आखिर सरदार खान के बस्ती में ये लोग करने क्या जाते थे? क्यों ये लोग वेयरवुल्फ को बीस्ट वुल्फ बना रहे थे? तुझे ही शौक था न, नागपुर प्रहरी समूह अलग कर के हर बात पता लगाना की... तो नतीजा भुगतने को क्यों तैयार न थी? क्यों तुझे यह इल्म न हुआ की हम तुम्हारी पहुंच से कहीं ऊपर है? हम आसमान जितना ऊपर है और तुम सब एक कीड़े। तु जिस राह पर चल रही थी उसका एक छोटा सा परिणाम भुगतने पर इतना दर्द। हर किसी के दिल में यह एहसास रहे कि हमारे पीछे आने वालों का क्या अंजाम होता है... चल तेरे दर्द पर एक और छोटा सा घाव देता हूं... आर्यमणि और उसके पूरे पैक का सफाया हो गया है... उसे भी हमारे बारे में जानने की कुछ ज्यादा ही चूल मची हुई थी"…

जयदेव अपनी बात कहकर भूमि को 2 थप्पड़ लगाया और उस घर से निकल गया। भूमि पहले से हताश थी, ऊपर से आर्यमणि की खबर। भूमि पूर्ण रूप से टूट चुकी थी। बिलख–बिलख कर बस रोती रही। आर्यमणि की खबर उसके माता–पिता तक भी पहुंची। हर कोई जैसे सदमे में चला गया था। बहुत बुरा दौर से सभी गुजर रहे थे।

किसी अपने के खोने का गम नासूर होता है। सदमे से लोग उबर नहीं पाते। इकलौता वक्त होता है जो जीना सिखा देता है। आर्यमणि की मौसेरी बहन भूमि, पिता केशव कुलकर्णी और माता जया कुलकर्णी पर तो जैसे बिजली गिर गया था। कमजोर तो खैर ये तीनों भी नही थे। यादि मुकाबला खुद के जैसे सामान्य इंसानों से होता, फिर तो तीनो ही काफी थे लेकिन भूमि, जया और केशव को भी पता नही था कि किनसे उलझे थे...

आर्यमणि के गम में ऐसे बौखलाए थे कि तीनो ने मिलकर सुकेश, मीनाक्षी, उज्जवल, अक्षरा, जयदेव समेत 20 लोगों के मारने की पूरी प्लानिंग कर चुके थे। तय यह हुआ था कि सबको एक ही वक्त पर मारेंगे... और वह वक्त था, चित्रा और माधव कि शादी। शादी के पूर्व निशांत भी नागपुर पहुंचा किंतु उसने आर्यमणि के विषय में चित्रा को कुछ नही बताया। वहीं न सिर्फ चित्रा बल्कि उसकी मां निलंजना और पिता राकेश नाईक भी पूछते रहे। हर सवाल के जवाब में निशांत बस इतना ही कहता कि जबसे आर्य की शादी हुई है, कोई खबर नही की कहां घूम रहा है।
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Tri2010

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भाग:–165


लगभग 1 महीने का पूरा वक्त था और सीने में आग भड़क रही थी। शादी की तैयारियों के साथ ही सभी को मारने की तैयारी भी चल रही थी। शादी लोनावाला, महाराष्ट्र, के किसी रिजॉर्ट से हो रही थी। जैसा शुरू से होता चला आया था, सुकेश और उज्जवल भारद्वाज आस–पास ही ठहरे थे, और उन दोनो के आस–पास उनके कुछ सहयोगी। बस एक जयदेव था जिसका कमरा नंबर पता नही चला था। खैर, किसी का कमरा नंबर पता हो की नही हो लेकिन तैयारियां पूरी थी। शादी के एक रात पूर्व भूमि को जयदेव भी दिख गया। दोनो की नजरें एक बार टकराई और दोनो अलग रास्ते पर चल दिये।

रात के 2 बज रहे थे, जब असली खेल शुरू हुआ। कहते है न, आत्मविश्वास और अति आत्मविश्वास में धागे मात्र का फर्क होता है। यहां तो नायजो समुदाय में विश्वास और आत्मविश्वास से कहीं ऊपर सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ होने की भावना थी। इसी भावना के चलते यह विश्वास पनपा की मेरा कौन क्या बिगड़ लेगा। हालांकि सुरक्षा के सभी कड़े इंतजामात थे, लेकिन एक आईएएस केशव कुलकर्णी का दिमाग और पूर्व के 2 घातक शिकारी, भूमि और जया, शिकार पर निकले थे। सुरक्षा के जितने भी इंतजाम थे वो सब फिर क्या कर लेते...

रिजॉर्ट का वो हिस्सा जहां सुकेश और उज्जवल ठहरे थे, रात भर के जश्न के बाद घोड़े बेचकर सो रहे थे। सुकेश और मीनाक्षी, उज्जवल और अक्षरा के अलावा वहां आस–पास के स्वीट्स में कौन–कौन थे, ये भूमि, जया और केशव को नही पता था। बस एक ही बात पता थी, बदला, बदला और बदला... और इंतकाम की आग ऐसी भड़की थी, उसका नजारा रात के 2 बजे सबको पता चल गया।

न कोई विस्फोट हुआ और न ही कोई गोली चली। एसी के डक्ट से चली तो एक गैस, और फिर जो नजारा सामने आया वह केशव, जया और भूमि को सुकून देने वाला नजारा था। हालांकि गैस की गंध से सोए लोग भी जाग चुके थे, लेकिन जागने में थोड़ी देर हो चुकी थी। जबतक जागकर समझते की भागना था, उस से पहले ही एक छोटी सी चिंगारी और चारो ओर आग ही आग। एसी कमरा यानी पूरा बंद कमरा। ऊपर से बाहर निकलने वाला दरवाजा भी बाहर से बंद। चिंगारी उठते ही मानो रिजॉर्ट के उस हिस्से के हर स्वीट के अंदर एटम बॉम्ब जैसा विस्फोट के साथ आग फैला हो। पलक झपकने के पूर्व सब सही और पलक झपकते ही चारो ओर आग ही आग।

अंदर कई हजार डिग्री के तापमान तक कमरे झुलसने के बाद बाहर धुवां दिखने लगा। एक गार्ड ने जैसे ही किसी तरह एक स्वीट का दरवाजा खोला, धू करके आग का बवंडर दरवाजा के रास्ते इतनी दूर तक गया की वो गार्ड भी उसके चपेट में आ गया। किसी तरह उस गार्ड को बचाकर ले गये और यह नजारा देखकर दूसरे गार्ड की फट गयी। फिर किसी की हिम्मत नही हुई, किसी दरवाजे को खोलने की। कहीं दूर से आग और धुवां का मजा लेते तीनो, केशव, जया और भूमि अंदर से काफी खुश हो रहे थे।

भूमि:– अरे अभी तो धुवां ही नजर आ रहा, तंदूर प्रहरी कब नजर आएंगे.…

केशव:– हां मैं भी उसी के इंतजार में हूं। यादि कोई बच जायेगा तो उसके लिए व्यवस्था टाइट तो रखे हो न...

भूमि:– मौसा पूरी व्यवस्था टाइट है... किसी को बचने तो दो...

जया:– नही जो बचेंगे वो उनकी किस्मत... अब हम दोबारा हमला नही करेंगे, बल्कि यहां से सुरक्षित निकलने की तैयारी करो। अभी अपने बच्चे का पूरा इंतकाम लेना बाकी है। बदला लेने से पहले मैं मर नही सकती...

केशव:– जैसे तुम्हारी मर्जी... चलो फिर पास से इसका नजारा लेते है.…

तीनो आग वाले हिस्से में पहुंच गये। मौके पर अग्निशमन की गाड़ियां पहुंच चुकी थी। फायर फाइटर्स अपने काम में लग चुके थे। ये तीनों भी अब आग बुझने और जले हुये तंदूर प्रहरियों के बाहर आने का इंतजार करने लगे।

"बहुत खूब, तो अब भी तुम लोगों में हिम्मत बाकी है?"… भूमि के करीब खड़ा जयदेव धीरे से कहा...

भूमि:– कहीं मजलूम तो नही समझ रखे थे न जयदेव..

जयदेव:– न ना.. तुझे तो बस जरिया समझ रखा था, लेकिन निकली फालतू। सारा क्रेडिट तो वो माया ले गयी। तुझपर सम्मोहन करने का कोई फायदा नही निकला।

भूमि:– अभी तेरी बातों पर मुझे कोई प्रतिक्रिया देने की जरूरत नही। बस तू जो बोला था वह याद आ गया... तुम लोग आसमान से भी ऊंची रेंज वाले लोग हो ना। शायद खुद को अपेक्स सुपरनैचुरल कहलवाना ज्यादा पसंद करते हो... एक बात बताओ, जिस समुदाय का बिल्ड अप इतना बड़ा था, उन्हे इस आग में कुछ हुआ तो नही होगा ना.…

जयदेव:– तू गलत खेल गई है...

भूमि:– मां बाप कभी मां बाप थे ही नहीं। पति कभी पति नही था। एक प्यारा भाई था वो बचा नही... अब तो ले लिया पंगा जयदेव... गलत सही जो खेलना था, खेल लीया। अब उखाड़ ले जो उखाड़ना है...

जयदेव:– सुबह के उजाला होने से पहले तू क्या, इस जगह पर आर्यमणि के जितने भी चाहनेवाले उसके करीबी है, सब मरेंगे...

भूमि:– पंगा किसी से लो तो उसके परिणाम के लिए भी तैयार रहो, ऐसा ही कुछ तू कहकर गया था न... खुदको क्या भगवान समझता है, जो तेरे पंगे का कोई जवाब नही देगा... साला खुद पर आयी तो बिलबिला रहा है... सुन बे बदबूदार मल… तेरे गांड़ में दम हो तो सुबह होने से पहले हमारी लाश गिरा कर दिखा देना... अब मुझे तेरे भाई बंधु का तंदूर देखने दे... तु तबतक जाकर हमारे मर्डर की तैयारी कर..

जयदेव, अपनी उंगली दिखाते.… "तुझे तो मैं छोडूंगा नही"..

भूमि:– जो भी है करके दिखा चुतिए, बोल बच्चन मत दे। वैसे एक जिज्ञासा है... क्या आग में तुमलोग भी जलते हो, या फिर जो खुद को इतना ऊंचा बताते है, वो अमर बूटी खाकर आया है, जो आग भी उसका कुछ नही बिगाड़ सकती...

जयदेव घूरती नजरो से देखने लगा। इस से पहले की कुछ कहता, अग्निशमको द्वारा आग में फंसे लोगों को बचाकर बाहर निकाला जा रहा था। सबसे पहले सुकेश भारद्वाज ही बाहर आया... पूरा का पूरा जला हुआ... देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अगर सुकेश को पकड़ ले तो हाथ में उसका पूरा भुना मांस चला आयेगा...

एक–एक करके कुल 22 लोगों को निकाला गया। 22 में से 17 की हालत गंभीर और 5 लोगों को मृत घोषित कर दिया गया। मरने वालों में से 2 बड़े नाम, अक्षरा भारद्वाज और उज्जवल भारद्वाज थे। लगभग सुबह के 5 बज रहे थे। कौतूहल से भरा माहोल शांत होने को आया था। दूर खड़े तमाशा देख रहे लोग अब धीरे–धीरे छटने लगे, केवल 4 लोगों को छोड़कर…. भूमि, जया, केशव एक टीम और दूसरी ओर जयदेव...

मृत और गंभीर रूप से घायलों का ब्योरा जैसे ही आया, भूमि रौबदार आवाज में.… "हम फलाना है, हम चिलाना है... मासी खुद को तुर्रम खां समझने वालों को परख लिया.. आग में उनके भी मांस ठीक वैसे ही जले, जैसे हमारा दिल जल रहा है। चलो स्कोर बुरा तो नहीं। 5 के नरक लोक का टिकट कट गया।"

जया:– भूमि, कोई तो कह रहा था, सूरज निकलने से पहले हमारी लाश गिरा देगा... घंटे भर में तो सूरज निकल भी आएगा...

केशव:– सुनो बे, तुम्हे जो करना था वो कर चुके... अब हमारी बारी है... शिकार करने वाले खुद भी शिकार हो सकते हैं, यह बात हम तो कभी नही भूले, लेकिन लगता है ये पाठ तुम नीच लोगों ने नही पढ़ा... कोई बात नही अभी साक्षात गुरुदेव केशव कुलकर्णी तुम्हे ये पाठ रटवा देंगे... बस देखते जाओ... चलो सब यहां से...

इतना कहकर वहां से तीनो निकल लिये। उन तीनो को मारने का इरादा रखने वाला जयदेव तुरंत ही अपने लोगो को इकट्ठा किया। बाहर निकला तो था तीनो को मारने, लेकिन हल्के अंधेरे और हल्के उजाले वाले भोर की बेला में जयदेव को काल के दर्शन हो गये। सात्त्विक आश्रम के 6 संन्यासियों के साथ ओजल उनके रास्ते में खड़ी थी।

जयदेव, ओजल को सामने देख, अपना कारवां रोकते.… "ब्लड पैक की एक जिंदा बची अल्फा। अच्छे वक्त पर आयी हो। हम अभी आर्यमणि के सभी चाहने वालों को खत्म करने जा रहे थे। तु अकेली जिंदा रहकर क्या कर लेती... खत्म करो इन सबको जल्दी..."

जयदेव के लिये शायद यह वक्त बुरा चल रहा था। जयदेव ने अपनी बातें समाप्त किया और अगले ही पल निशांत का एक जोड़दार तमाचा पड़ गया। इधर निशांत को तमाचा पड़ा और उधर जयदेव के साथ आये गुर्गों को कब ओजल काटकर जमीन पर उसके टुकड़े बिछा दी, जयदेव को पता भी नही चला। और जब तक पता चला तब तक लाशें गिर चुकी थी।

जयदेव लगातार आंखों से रौशनी निकालता रहा लेकिन वायु विघ्न मंत्र को साधने वालों पर फिर कहां ये नायजो के आंखों की लेजर काम आती है। अगले ही पल वहां चारो ओर धुवां। धुएं के अंदर जयदेव को शुद्ध रूप से लात और घुसे पर रहे थे। इतने कड़क लतों और घुसो की बारिश हो रही थी कि उसका हीलिंग प्रोसेस लुल हो गयी।

किसी आम इंसान की तरह जयदेव भी बेहोशी हो गया और बेहोशी के बाद जब आंखें खुली तब चारो ओर अंधेरा ही अंधेरा था। वह जगह इतनी अंधकार थी कि आंखों के लेजर की रौशनी तक से कुछ नही देखा जा सकता था। जयदेव कई दिनों तक बाहर निकलने की कोशिश करता रहा, पर चारो ओर ऐसी दीवारें बनी थी जो न तो बाहुबल से टूटा और न ही नजरों के लेजर से।

अंत में अहंकारी नायजो समुदाय के घमंडी जयदेव खुद में बेबस सा महसूस करने लगा। जब बेबसी का दौड़ शुरू हुआ उसके पहले दिन जयदेव चींखते चिल्लाते यही कहता रहा की यहां से निकलकर सबसे पहले तुम्हारी लाश गिराऊंगा। फिर कुछ दिन बीते। बेबसी ने उनके जीवन में ऐसा पाऊं पसारा की बाद ने गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे... "मुझे जाने दो। क्यों यहां रखे हो। तुम्हे क्या चाहिए कुछ तो बोलो"…

खैर आवाज पहले दिन वाला अहंकारी हो या फिर हिम्मत टूटने के बाद बेबस जैसा, दोनो ही परिस्थिति में जयदेव को बाहर से कहीं कोई जवाब नहीं मिला। मिला तो सिर्फ उसे अंधेरा।... घोर अंधेरा था। उस अंधेरे में खाने के लिये नाक का इस्तमाल करना पड़ता था। किसी तरह सूंघ कर अपने खाने तक पहुंचते थे।

जयदेव गायब हो चुका था। उसकी कोई खबर नहीं मिली। हाई टेबल प्रहरी को चलाने वाले नायजो सब जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे। नायज़ो हाई टेबल पर ऐसा हमला हुआ था मानो उनकी कमर टूट गयी हो। आर्यमणि मर चुका था और उसके मरने के बाद भी जब नायजो का शिकर हो गया, इस बात से भिड़ पागल बनी हुई थी। मीटिंग विवियन ले रहा था और सामने लाखों की भिड़।

विवियन:– 12 मई की सुबह काली थी। इस आगजनी को 3 महीने हो गये। हमारे 5 लोग तत्काल मारे गये। इलाज के दौरान 6 लोगों की मौत हो चुकी है। जो 11 लोग अभी बचे है, वो भी पता नही कब तक ठीक होंगे या कभी ठीक होंगे भी या नही.…

भीड़ से एक आवाज:– ये सुनने हम यहां नही आये। जिन कीड़ों ने ये काम किया था, उन्हे जिंदा जलाया की नही..

पलक, अपनी जगह से खड़ी होती... "उन्हे मारने के लिए जयदेव 6 लोगों के साथ गया था, लेकिन पिछले 3 महीने से न तो आग लगाने वालों का पता लगा और न ही जयदेव का"…

भीड़ से कोई... "तुम सब नकारा हो गये हो। क्या अब कोई हमसे भी ऊपर है?

विवियन:– यहां आपस में झगड़ने से कोई फायदा नही है। ये वक्त आपस में लड़ने का नही...

भिड़ से कोई एक:– पहले तो वो आर्यमणि था, जिसने जब चाहा हमारा शिकार कर लिया। वो गया तो उसकी बहन और उसके मां–बाप। न जाने कहां छिपे है। अंधेरे से बाहर निकलते है और सबको जलाकर अंधेरे में फिर गायब। क्या हम उनके लिये इतना आसान शिकार है?

विवियन:– मैं आप सबकी तकलीफ को समझता हूं। हमारे लोग उन सबकी तलाश में जुटे है, तब तक आप लोग धैर्य बनाकर चलिए और जिसे भी वो लोग दिख जाये मारिए पहले सवाल बाद में कीजिए।

विवियन इतना ही बोला था कि पीछे से उसके कंधे पर हाथ पड़ा। मुड़कर देखा तो माया खड़ी थी।। माया पूरे भीड़ को हाथ दिखाती.… "तुम्हारे लीडर्स के घायल होते ही तुम्हारा संगठन ही कमजोर सा लग रहा। सब शांत रहेंगे... पहली बार हम सामने आकर किसी को मारे थे। उसका कुछ तो परिणाम भुगतोगे या नही... जिन्होंने हम पर हमला किया, उन्होंने अपने पूरे क्षमता के साथ हमला किया। हमे भी पता नही था कि आम से दिखने वाले ये लोग कितना नुकसान कर सकते है। लेकिन देखो, तुम्हारे सभी नेताओं को ही लिटा दिया। इसलिए 2 बात हमेशा याद रहे... पहला की खुलकर कभी सामने मत आओ और यदि सामने आते भी हो तो जबतक सभी मुसीबत खत्म न हो जाये, तब तक आंखें खुली और दिमाग हमेशा खतरे को साफ करने के पीछे लगाओ"…

भीड़ से एक... तो क्या ये इंसान इतने ताकतवर हो गये की अब हमारा शिकार करेंगे?

माया:– ताकत की बात कौन कहता है। ताकत से लड़े होते तो क्या कोई मरता भी। शिकार करने की तकनीक हमने किनसे सीखी है, इंसानों से ही। घात लगाकर पूरे धैर्य पूर्वक शिकार करना। मौत कहां से चली आयी किसी को पता नही। तो हां अपनी शारीरिक क्षमता पर इतना विश्वास न जताओ क्योंकि इंसान क्या कर सकते है उसका प्रत्यक्ष उदाहरण सामने है... जिन लोगों ने हमे चोट दिया वो सब शिकारी थे और उन्हें पता था कि किसने उनके प्रियजनों को मारा था। ये बात तो तुम्हारे लीडर्स भी जानते थे कि जिन लोगों ने हमला किया था, उन्हे पहले से तुम्हारे लीडर्स पर शक था। लेकिन कहते है न विनाश काले विपरित बुद्धि... वो लोग हमारा क्या बिगड़ लेंगे ये सोचने वाले कुछ लोग मर गये और कुछ मरने के कगार पर है।

भीड़:– हां समझ गये की शरीर की क्षमता जितनी जरूरी है, उस से कहीं ज्यादा मानसिक क्षमता मायने रखती है। और वो दूसरी बात क्या है माया...

माया:– यह पहली बार नही था जो हमने आग का सामना किया हो। आर्यमणि हमारे कई लोगों को जिंदा जला चुका है। हां लेकिन उस वक्त इतना ध्यान इसलिए नही गया क्योंकि वह केवल जलाता नही था। तुम सब एक ही काम में लग जाओ...ऐसी युक्ति ढूंढो की दोबारा कोई हमे आग से डरा न सके। वैसे एक खुश खबरी भी है। हमारे नए दोस्त निमेषदर्थ ने आर्यमणि के खून से ऐसी हीलिंग पोशन तैयार कर लिया है कि महज 1 घंटे में तुम्हारे बचे हुए लीडर्स तुम लोगों से बात करेंगे। पृथ्वी पर मेरा काम खत्म होता है, इसलिए मैं विषपर प्लैनेट वापस जा रही। आते जाते रहूंगी... और हां पलक एक मेघावी नायजो है, उम्मीद है उसके लीडरशिप में तुम लोग और ऊंचाइयों को छू सकोगे.… अब मैं चलती हूं...

माया सभा समाप्त करके चली गयी और पलक के लिये एक नई राह खोल गयी। कुछ वर्ष पूर्व ही उसे भी पता चला था की वह अपने भाई राजदीप की तरह ही एक पूर्ण नायजो है। बाकी उसका बड़ा भाई कंवल और बड़ी बहन नम्रता में नायजो वाले कोई गुण नही आये थे। पलक जब लीडरशिप की राह में चली फिर उसने पीछे मुड़कर नही देखा। छोटे उम्र के इस लीडर ने चारो ओर से खूब सराहना बटोरी। देखते ही देखते समुदाय में उसका कद और रूतवा इतना ऊंचा हुआ कि वो अब 5 ग्रहों में बैठे लीडर्स के साथ उठा–बैठा करती थी।

वक्त अपने रफ्तार से चलता रहा। दिन बीत रहे थे। सुकेश और मीनाक्षी भी स्वास्थ्य होकर अपना काम देख रहे थे। उस आगजनी में अक्षरा और उज्जवल अपना दम तोड़ चुके थे। इस बात का मलाल सबको था। उस दिन के बाद हर कोई भूमि, केशव और जया की तलाश करते रहे, लेकिन उन्हें एक निशान तक नही मिले। जयदेव भी बिलकुल गायब ही था... सबको जमीन निगल गई या आसमान खा गया कुछ पता नहीं चल पा रहा था.…

अब तो वक्त भी इतना गुजर चुका था कि धीरे–धीरे सब इस बात को भूलते जा रहे थे। प्रहरी के मुखौटा तले नायजो समुदाय फल फूल रहा था। वेयरवुल्फ को अब भी बीस्ट वुल्फ बनाया जा रहा था। प्रहरी में आने वाले इंसानों के दिमाग में अब भी 2 दुनिया के रखवाले होने का भूत घुसाया जा रहा था और इसी काम के दौरान ही, पृथ्वी मानव सभ्यता का मिलन नायजो समुदाय से होता था। कुछ इंसानी बच्चे पैदा होते। उन्हे या तो मार दिया जाता या फिर जय प्रहरी के नारे लगवाए जाते। कुछ पूर्ण अथवा अल्प नायजो बनते, उन सबको अलग सभा में बिठाकर अपनी परम्परा में ढालते। कुल मिलाकर नायजो का सब कुछ चकाचक चल रहा था।
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भाग:–166


टापू पर हत्याकांड वाले दिन...

रूही, इवान और अलबेली की लाशें गिर चुकी थी। आर्यमणि हताश अपने घुटने पर बैठा हुआ था। निमेषदर्थ को उसके प्रयोग के लिये आर्यमणि का खून देने के बाद, जैसे ही माया खंजर चलाई, ठीक उसी वक्त चाहकीली महासागर के उस हिस्से में पहुंच चुकी थी। चाहकिली थी तो काफी दूर लेकिन हृदय में जैसे वियोग सा उठा था और पल में उसकी आवाज ने जो कहर बरसाया उसका परिणाम यह हुआ की जिस पहाड़ पर अल्फा पैक का शिकार हो रहा था, वह पूरा पहाड़ ही बीच से ढह गया। देखने से ऐसा लग रहा था मानो वहां 2 पहाड़ के मध्य गहरी खाई बन गयी हो।

जिस वक्त चाहकीली ने यह सुनामी उठाई उस वक्त माया खंजर चला चुकी थी। चाहकिली की आवाज पर पानी, सुनामी का रूप ले चुकी थी। पानी कई हजार फीट ऊंचा उठा और इस रफ्तार से पहाड़ी के उस हिस्से से गुजरा की पूरी पहाड़ मानो रेत के तिनके की तरह ढह गयी। माया जो साफ मौसम में अपना खंजर चलाई थी, वह पानी के सुनामी के बीच फंस गयी। हालांकि खंजर सर को छू चुकी थी लेकिन सर को पूरा फाड़ने से पहले ही वह जगह नीचे महासागर में घुस गयी। माया को लगा उसका काम हो गया और खंजर पूरी चली थी। ढहते पहाड़ के साथ आर्यमणि, निमेषदर्थ, और माया तीनो ही पानी में गिरे। पानी में गिड़ने के दौरान ही निमेषदर्थ के हाथ से अमेया छूट कर अलग हो गयी। माया और निमेषदर्थ तो पानी के साथ बह गये लेकिन पानी के ठीक पीछे पूरी रफ्तार से आ रही चाहकीली तेज वेग से बहते पानी को अपनी पूंछ से फाड़ती हुई आर्यमणि और अमेया को उसमे लपेटी और बिना रुके वहां से गुप्त स्थान पहुंची।

चूंकि चाहकील निमेषदर्थ को देख चुकी थी इसलिए आर्यमणि और अमेया को ऐसी जगह छिपाई, जहां से महासागरीय इंसान तो क्या स्वयं देवता भी उन्हें नही ढूंढ पाते। दोनो को छिपाने के बाद चाहकीली सीधा राजधानी पहुंची। यूं तो सोधक कभी भी शहरी इलाकों से गुजरते नही। पहला मौका था जब चाहकीली अल्फा पैक को लेकर राजधानी पहुंची थी। और यह दूसरा मौका था।

चाहकीली प्रशासनिक भवन के चारो ओर गोल–गोल चक्कर काटती ह्रदय कंपन करने वाली तरंगे छोड़ रही थी। प्रशासनिक भवन में काम कर रहे सभी आला अधिकारी भय से अपना काम छोड़ भवन से बाहर निकलने की कोशिश करने लगे, लेकिन चाहकीली का शरीर प्रवेश द्वार को पूरा घेरे खड़ी थी। महा एक हॉल में कुछ अधिकारियों से मुलाकात कर रही थी, जब उसने भी वह डरवाना तरंग सुना।

सबको आराम से बैठने बोलकर वह जैसे ही बाहर आयी, बाहर पूरा अफरा–तफरी का माहौल था। महाती अपने कलाई में लटक रहे छोटे से धनुष के धागे को धीमे से खींचकर नीचे निकास द्वार तक पहुंची। जबतक महाती वहां पहुंचती, चाहकीली पूरी तरह से शांत हो चुकी थी। महाती चाहकीली के पंख के ऊपर खड़ी हो गयी। चाहकीली, महाती को अपने पंख में लॉक करती वहां से निकल गयी। शहर की भिड़–भाड़ से जैसे ही वो बाहर निकली...

महाती:– ए बड़बोली.. ऐसा भी कौन सा इमरजेंसी था जो तू राजधानी पहुंच गयी। वैसे भी आज कल तो तेरे नए–नए दोस्त बन गये, फिर मेरी क्या जरूरत...

चाहकीली:– वो नए दोस्त भी तेरी तरह मुझसे बात कर सकते हैं, लेकिन आज तक उन्हे भी पता नही की तू मुझसे बात कर सकती है।

महाती:– बड़ा एहसान कर दी जो उन्हे ये बात न बताई। मै तो तेरे एहसान तले दब गयी।

चाहकीली:– मेरे एहसानो तले दबी ही है। भूल मत मैं बीच में नही आती तो तू बौनो की बस्ती में मर चुकी होती।

महाती:– अच्छा और वो जो तेरे पेट के अंदर घुसकर जो मैने तुझे दर्द से राहत दिया था उसकी भी चर्चा कर ले। अंदर इतना एसिड और बैक्टीरिया का सामना करना पड़ा था कि मैं मरते–मरते बची थी। और भी बताऊं के मैने अपने धनुष से तेरे लिये क्या–क्या किया था।

चाहकीली:– हां याद है ना मुझे... भीषण दर्द में मुझे नाग लोक की भूमि पर तड़पता छोड़ गयी थी। मार देती तो ज्यादा अच्छा लगता।

महाती:– मार देती तो तेरे नए दोस्त कैसे मिलते। तुझे जिंदा कैसे देखती... वो भी पहले की तरह चहकती हुई।

चाहकीली और भी ज्यादा रफ्तार बढ़ाती.... “जो दर्द मैने झेला था, वह दर्द किसी को न मिले। मै दर्द से तड़प रही थी जब वह हाथ पहली बार मेरे सर से टीका और एक पल के लिये मुझे असीम शांति मिली थी। फिर तो उसने मेरे दर्द और बीमारी का पूरी तरह से उपचार कर नई जिंदगी दिया और आज खुद”...

महाती:– क्या हुआ... आर्यमणि ठीक तो है न...

चाहकीली:– उसके सभी साथी मर चुके है और आर्यमणि चाचू हील भी नही रहे। धड़कने चालू है पर कुछ कह नही सकते।

महाती:– ये क्या हो गया? हमारे क्षेत्र में उन्ही के साथ ऐसा भीषण कांड हो गया। तुम्हे पक्का यकीन है रूही, अलबेली, इवान नही रहे?

चाहकीली:– सब तुम्हारे भाई ने किया है। उसके साथ कुछ बाहरी लोग थे। सबने मिलकर धोखे से उन सबका शिकार कर लिया। किसी तरह मैं आर्यमणि चाचू को वहां से हटा तो दी लेकिन तब तक घातक हमला हो चुका था।

महाती:– हम सबकी बच्ची कहां है?

चाहकीली:– घटना के वक्त अमेया तो तुम्हारे भाई के गोद में ही थी। वह पूरी तरह से सुरक्षित है। उसे भी चाचू के साथ ही रखा है।

महाती:– हम्मम, ये कमीना निमेष बहुत दूर की सोच रहा है। हमे अमेया को जमीन पर रखना होगा और आर्यमणि का इलाज यहीं महासागर में करना होगा।

चाहकीली:– ऐसा क्यों?

महाती:– दोनो साथ रहेंगे तो सबको पता चल जायेगा की आर्यमणि जिंदा है। दोबारा हमला हो सकता है।

चाहकीली:– और कहीं अमेया को तुम्हारा भाई उठा ले गया तो?

महाती:– जो भी अमेया को उठा ले जायेगा वो उसे मरेगा तो नही ही। आर्यमणि जब पूर्ण रूप से स्वास्थ्य हो जायेगा तब अमेया को वापस ले आयेंगे। तुम तो उनके साथ ज्यादा वक्त बियायी हो। कोई उनका भरोसेमंद साथी है, जो अमेया को छिपाकर रख सके...

चाहकीली:– हां बहुत मजबूत साथी है। एक तरह से वह आर्यमणि का मजबूत परिवार है।

महाती:– ठीक है, फिर अमेया को उसके पास जल्दी लेकर चल...

कुछ ही देर में दोनो एक गुप्त स्थान पर थे। वहां से चाहकीली, महाती और अमेया को लेकर पूरा महासागर पार करती कैलाश मठ तक पहुंची। महाती पानी के नीचे तल में ही रही और अमेया को ऊपर के पंख में डालकर चाहकीली पानी के ऊपर हुई। आचार्य जी मठ में थे, जब उन्हें चाहकीली के आने की खबर मिली। अभी 2 दिन पहले ही चाहकीली से मुलाकात हुई थी। काफी खुश थे जब आचार्य जी ने रक्षा पत्थर को देखा था। किंतु उसी के कुछ देर बाद कुछ अनहोनी का आभाष उन्हे और संन्यासी शिवम दोनो को हुआ था। पीछे से अपस्यु को अल्फा पैक का इमरजेंसी संदेश भी मिला।

चाहकीली की खबर सुनकर आचार्य जी तेजी से बाहर निकले। चाहकीली के साथ अमेया को देखकर आचार्य जी भाव विभोर हो उठे। उन्हे लगा जैसे अल्फा पैक भी चाहकीली के साथ पहुंचा हो। उन्होंने चाहकीली से आर्यमणि के विषय में जानकारी लेने की कोशिश किये लेकिन चाहकीली की भाषा समझना और उसके भाव को परखना आचार्य जी के वश में नहीं था। चाहकीली के साथ किसी का न होना इस बात के ओर साफ इशारा कर गया कि अब कोई नही बचा।

चाहकीली वहां से जाने ही वाली थी कि तभी संन्यासी शिवम् चाहकीली को रोकते हुये “सेल बॉडी सब्सटेंस” के कई जार उसके सामने रखते..... “गुरुदेव अपनी सिद्धि प्राप्त करने के लिये नाग–लोक के भू–भाग पहुंचे थे। मै जानता हूं वो जीवित है, लेकिन कब तक रहेंगे इस एक प्रश्न ने बेचैन कर रखा है। यदि तुम उनके शरीर में किसी तरह ये द्रव्य डाल सकी तो उनकी जान बच जायेगी। इन्हे अपने हाथों से उठा लो तो मैं समझूंगा की तुम मेरी बात समझ गयी।”

आचार्य जी किसी तरफ अपनी भावनाओं पर काबू करते.... “शिवम वो बेजुबान तुम्हारी बात नही समझ रही, लेकिन तुम तो समझने की कोशिश करो। आर्यमणि अब जीवित नही तभी तो केवल उसकी बच्ची को लेकर आयी है।

संन्यासी शिवम्, आचार्य जी की बातों को साफ नकारते.... “ये जीव गुरु आर्यमणि को क्यों नही लायी या गुरु आर्यमणि क्यों नही यहां पहुंचे इसके पीछे कोई कारण हो सकता है, लेकिन आपकी समीक्षा गलत है। मेरा हृदय कहता है गुरु आर्यमणि जीवित है।”

आगे भी इस विषय पर बातें होती रही। यूं तो आचार्य जी कई बार अपनी दिव्य दृष्टि डाल चुके थे, परंतु नाग लोक के भू–भाग के क्षेत्र में वह दृष्टि नही पहुंच सकती थी। दोनो में फिर दिव्य–दृष्टि योजन पर बातें होने लगी। चाहकीली को लगा उसके विषय में कुछ कहा जा रहा था, इसलिए वह भी समझने की कोशिश करने लगी। लेकिन तभी नीचे से महाती चलने का इशारा कर दी।

चाहकीली यूं तो कुछ भी नही समझी किंतु संन्यासी शिवम् की भावना को वह भांप ली। अपने छोटे–छोटे पंख में उस जार को अच्छे से फंसा ली। चाहकिली फिर वहां रुकी नही। दोनो (चाहकीली और महाती) जैसे ही महासागर की गहराइयों में पहुंचे, महाती झुंझलाती हुई कहने लगी..... “तू जब उनकी भाषा समझ नही सकती, फिर क्यों सुन रही थी?”

चाहकीली:– उनकी भाषा न सही भावना तो समझ में आ रही थी ना।

महाती:– ठीक है मैं धनुष का प्रयोग करने वाली हूं... थोड़ी धीमे हो जा।

जैसे ही चाहकीली धीमी हुई महाती अपने कलाई पर लटक रहे छोटे से धनुष को निकालकर जैसे ही अपने हाथ में ली, पूरा धनुष अपने आकार में आ गया। खाली धनुष के डोर को पूरा खींचकर जैसे ही महाती ने छोड़ा, गहरे पानी के अंदर गोलाकार रास्ता बन गया। चाहकीली उन रास्तों से गुजरी और सीधा आर्यमणि के पास थी।

महाती ने आर्यमणि के शरीर का ऊपरी मुआयना किया। पीछे से चाहकीली अपनी जिज्ञासा दिखाती.... “कब तक चाचू जागेंगे?... उन्हे दर्द तो नहीं हो रहा?”... महाती उसे चुप रहने का इशारा करती अपना काम करने लगी। थोड़ी देर जांच करने के बाद..... “दिमाग पूरा बंद है। पहले मैं देखती हूं संन्यासी ने क्या दिया है। यदि उसकी दी हुई दवा से काम बन गया तब तो ठीक वरना आर्यमणि को हॉस्पिटल ले जाना होगा। और हां मामला दिमाग से जुड़ा हुआ है तो शायद ठीक होने में काफी वक्त लग जाये।

आर्यमणि बिलकुल बेजान सा पड़ा हुआ था। उसका सर बीच से फटा था। कुछ इंच खंजर अंदर घुसी थी, जिस कारण उसे होश नही आ रहा था और न ही उसका सर हील हो रहा था। महाती बिना देर किये कुछ संकेत भेजी और वहां पर “किं किं किं” करते मेटल टूथ का बड़ा सा झुंड पहुंच गया। महाती और मेटल टूथ के बीच कुछ सांकेतिक संवाद हुये। कुछ देर तक सांकेतिक संवाद करने के बाद महाती ने आर्यमणि के ओर इशारा न कर दिया। जैसा ही मेटल टूथ की झुंड ने आर्यमणि को देखा "ची, ची" करने लगे। इस बार जब मेटल टूथ के झुंड ने “ची ची” की आवाज निकाली चाहकीली की आंखें बड़ी हो गयी और वो बड़े ध्यान से देखने लगी।

इधर मेटल टूथ की झुंड से हजारों मेटल टूथ टूटकर आर्यमणि के करीब पहुंचे। कुछ देर तक आर्यमणि के शरीर का निरक्षण करने के बाद अपनी आवाज में कुछ बातें करने लगे। उनकी बात जैसे ही समाप्त हुई, आर्यमणि का पूरा शरीर मेटल टूथ से ढक गया। उनका काम होने के बाद जैसा ही वो आर्यमणि के ऊपर से हटे आर्यमणि को पूरा साफ करके उठे थे। हां वो अलग बात थी कि आर्यमणि के शरीर से पूरे बाल और पूरे कपड़े भी उसने साफ कर दिया था।

आर्यमणि का शरीर बिलकुल चमक रहा था। कुछ गिने चुने मेटल टूथ थे, जो आर्यमणि के शरीर से चिपके हुये थे। सभी वाइटल ऑर्गन जैसे लीवर, किडनी, फेफेरे, हृदय, इनके अलावा पाऊं के सभी उंगलियों से लेकर माथे तक निश्चित दूरी बनाकर उनपर मेटल टूथ चिपके हुये थे। ठीक उसी प्रकार शरीर के पिछले हिस्से पर भी ऐसे ही चिपके थे। आर्यमणि के सिर पर जहां खंजर लगी थी, उस पूरे लाइन को मेटल टूथ ने कवर कर लिया था। देखते ही देखते चिपके हुये मेटल टूथ के कंचे जैसे शरीर से पूरा लाल रक्त बहने लगा।

लाल रक्त के साथ कभी हरा द्रव्य तो कभी पीला द्रव्य निकल रहा था। वहीं सर का ऊपरी हिस्सा जो कुछ इंच नीचे तक चिड़ा हुआ था, वहां पर लगे मेटल टूथ के शरीर से लगातार पीला और नीला द्रव्य निकल रहा था। तकरीबन एक घंटे बाद आर्यमणि ने काफी तेज श्वास अपने अंदर खींचा और एक बार अपना आंख खोलकर फिर बेहोश हो गया। सभी मेटल टूथ आर्यमणि के शरीर से अलग हो गये शिवाय सर पर बैठे मेटल टूथ के। जो भी मेटल टूथ सिर से चिपके थे, अपने दातों से ही आर्यमणि के माथे पर टांका लगा दिया हो जैसे।

एक बार फिर मेटल टूथ और महाती के बीच सांकेतिक वार्तालाप शुरू हो चुकी थी। महाती ने फिर से कुछ समझाया और समझाने के बाद “सेल बॉडी सब्टांस” वाले जार के ओर इशारा कर दिया। मेटल टूथ का झुंड कुछ देर तक जार को देखता रहा। उनमें से कुछ ने उस जार को बड़ी सावधानी से ऐसे खोला की उसका द्रव्य पानी में न घुले और कुछ मेटल टूथ ने सेल बॉडी सब्सटेंस का मजा लिया। जिन मेटल टूथ ने मजे लिये सबने अपने साथियों से कुछ कहा। फिर तो मेटल टूथ आ रहे थे, जार से द्रव्य पी रहे थे और वापस लौट जाते। 2 जार को इन लोगों ने खोल दिया और करोड़ों मेटल टूथ सेल बॉडी सब्सटेंस को पीने के बाद मीटिंग करने लगे।

देखते ही देखते मेटल टूथ के झुंड ने आर्यमणि का मुंह खोल दिया। मेटल टूथ सेल बॉडी सब्सटेंस को अपने मुंह ने रखते और आर्यमणि के मुंह में घुसकर उसे गिड़ा देते। ऐसा करते हुये उन्होंने पहले जार को खाली कर दिया। फिर कुछ देर तक रुके और आर्यमणि के श्वास की समीक्षा करने लगे। जैसे ही उन्हें लगा की आर्यमणि की हालत में पहले से सुधार है, महाती के पास पहुंच गये।

महाती ने पूरी समीक्षा ली। खुद से एक बार और आर्यमणि की जांच की। जांच के बाद वो इतनी खुश थी कि चाहकीली की पंख पकड़कर जोड़–जोड़ से भींचने लगी। महाती की खुशी देख चाहकीली भी खुशी से उछलती.... “चाचू कब तक होश में आयेंगे?”...

महाती:– जो जार संन्यासी ने दिया वह चमत्कार से कम नही। मैने मेटल टूथ को समझा दिया है कि क्या करना है। अब मैं यहां से जा रही हूं और तू एक बार भी चर्चा मत करना की इनका इलाज मैने किया था। या मैं यहां आयी भी थी।

चाहकीली:– लेकिन ऐसा क्यों?

महाती अपनी आंखें दिखाती... “कोई सवाल नही जो बोली वो कर।”...

अपनी बात कहकर महाती ने सेल बॉडी सब्सटेंस से भरे एक जार को लेकर चली गयी। मेटल टूथ को जैसा समझाया गया था वह बिलकुल वैसा ही कर रहे थे। आर्यमणि को हर 6 घंटे पर धीरे–धीरे “सेल बॉडी सब्सटेंस” दे रहे थे।

आर्यमणि के सर पर हमला हुआ था। ऐसी जगह जहां से हर चीज कंट्रोल होती है। और एक बार सर के हिस्से में भाड़ी गड़बड़ हुआ, फिर तो सारे शरीर के सभी सिस्टम काम करना बंद कर देता है। एक तरह से मेटल टूथ ने सेल बॉडी सब्सटेंस को आर्यमणि के शरीर में पहुंचाकर उसकी जान ही बचाई थी।

सेल बॉडी सब्सटेंस ने अपना काम किया। क्षति हुई हर स्नायु तंतु सुचारू रूप से काम करना शुरू कर चुका था। आर्यमणि का अपना हीलिंग पूरी तरह से दुरस्त हो चुका था। सर के घाव भर चुके थे। चाहकीली और मेटल टूथ लागातार आर्यमणि की देख रहे कर रहे थे। अचानक ही रात को आर्यमणि की आंखे खुल गयी और जागते ही वो वियोग से रोने लगा। चाहकीली ने बहुत सारी बातें की, लेकिन एक ऐसा शब्द नही था जो आर्यमणि के वियोग को कम कर सके।
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भाग:–167


लगातार २ दिनो तक रोने के बाद आर्यमणि ने अपने आंसू पोछे..... “चाहकीली मुझे कोई देख भी न सके ऐसे जगह ले चलो।”

चाहकीली:– चाचू आप पहले से ही ऐसी जगह पर हो। यह सोधक प्रजाति का क्षेत्र का सबसे गहरा हिस्सा है, जहां हम अपने देवता को पूजते हैं। यहां किसी को भी आने की इजाजत नहीं है।

आर्यमणि:– फिर ये मेटल टूथ कैसे आ गये और तुम्हारे लोगों ने मुझे ऐसे पवित्र जगह लाने से रोका नहीं?

चाहकीली:– भगवान को भला उसके घर आने से कौन रोक सकता है। और ये मेटल टूथ तो केवल मेरे वियोग को मेहसूस कर यहां आ गये। ये सब मेरे दोस्त जो ठहरे...

आर्यमणि:– हम्मम ठीक है। मै अपनी साधना में बैठने वाला हूं। मुझे यहां किसी प्रकार का विघ्न नही चाहिए।

चाहकीली:– ठीक है फिर मैं मेटल टूथ को लेकर निकलती हूं, आप जब तक चाहिए यहां अपनी साधना कीजिए, आपको यहां छोटी सी सरसराहट की आवाज तक नहीं सुनाई देगी।

चाहकीली अपनी बात कहकर वहां से सबको लेकर निकली। आर्यमणि मंत्र उच्चारण करते आसान लगाया और पलथी लगाकर बैठा। जल साधना, सबसे कठोर साधना, उसमे भी इतनी गहराई में। दिन बीता, महीने बीते, बिता साल। दूसरे साल के 2 महीने बीते होंगे जब आर्यमणि ने अपना आंख खोल लिया।

बदन पर पूरा काई जमी थी। दाढ़ी फिट भर लंबी हो चली थी। बड़े–बड़े नाखून निकल आये थे। पर चेहरे पर अलग ही तेज और शांति के भाव थे। आंख खोलते ही उसने चाहकीली का स्मरण किया किंतु उसे कोई जवाब नही मिला। कुछ देर तक आर्यमणि ने गहरा ध्यान लगाया।

पिछले 14 महीने की तस्वीर साफ होने लगी थी। कैसे निमेषदर्थ ने पता लगाया की हत्याकांड वाले दिन चाहकीली ने समुद्री तूफान उठाया था। उस तूफान में उसकी सबसे बड़ी ख्वाइश अमेया कहीं खो गयी थी, जो बाद में निमेषदर्थ के लाख ढूंढने के बाद भी नही मिली। उसी के बाद से निमेषदर्थ चाहकीली को वश में करने पर तुल गया था।

किंतु चाहकीली और निमेषदर्थ के बीच एक ही बाधा थी, महाती। महती अक्सर ही निमेषदर्थ के सम्मोहन को पूर्ण नही होने देती। पर 8 महीने पहले, निमेषदर्थ ने बौने के समुदाय से पूरा मामला फसा दिया। जलपड़ी और बौने 2 ऐसे समुदाय थे, जिनपर पूरे महासागर का उत्तरदायित्व था। पिछले कई पीढ़ियों ने बौने के समुदाय से एक भी राजा नही देखा था, जबकि पूर्व में 3–4 जलपड़ी समुदाय के राजा होते तो एक बौने के राज घराने से राजा बनता था।

बौने समुदाय हो या फिर जलपड़ी समुदाय। राजा के लिये सब उसकी प्रजा ही थी। दोनो ओर से लोग सड़कों पर थे और उत्पात मचाकर प्रशासन के नाक में दम कर रखा था। महाती अपने पिता के साथ जैसे ही व्यस्त हुई, मौका देखकर निमेषदर्थ ने चाहकीली को सम्मोहित कर लिया।

सम्मोहित करने के बाद निमेषदर्थ सबसे पहले कैलाश मार्ग मठ ही गया। मठ में कितने सिद्ध पुरुष मिलते यह तो निमेषदर्थ को भी नही पता था, इसलिए अपनी पूरी तैयारी के साथ पहुंचा था। ऐतिहातन उसने अपने 5 सैनिक आगे भेजे और उस जगह का मुआयना करने कहा। 5 सैनिक मठ के दरवाजे तक पहुंचे किंतु प्रवेश द्वार मंत्रों से अभिमंत्रित थी।

कई दिनों तक निमेषदर्थ वहीं घात लगाये बैठा रहा। मठ से किसी के बाहर आने का इंतजार में उसने महीना बिता दिया, परंतु मठ से कोई बाहर नही निकला। हां लेकिन 1 महीने बाद बाहर से कुछ संन्यासी मठ में जरूर जा रहे थे। निमेषदर्थ, संन्यासियों की टोली देखकर समझ तो गया था कि अमेया उनके साथ नही थी और न ही मठ में उसके होने के कोई भी संकेत मिले थे। निमेषदर्थ अमेया का पता लगाने के इरादे से संन्यासियों का रास्ता रोक लिया। सबसे आग संन्यासी शिवम ही थे। निमेषदर्थ को सवालिया नजरों से देखते.... “तुम कौन हो और हमारा रास्ता क्यों रोक रखे हो?”..

निमेषदर्थ:– मैं महासागर मानव हूं। अपने पिता की पहली संतान और महासागर का होने वाला भावी महाराजा। महासागर की एक बच्ची थल पर आ गयी है और पता चला है कि वह यहीं इसी मठ में है।

संन्यासी शिवम:– यदि महासागर की कोई बच्ची यहां होती तो हमें अवश्य पता होता। फिर भी तुम अपनी संतुष्टि के लिये यहां ढूंढ सकते है।

निमेषदर्थ:– जब आप इतने सुनिश्चित है तो फिर अंदर जाकर ढूंढना ही क्यूं? गंगा जल हाथ पर लेकर मेरे साथ मंत्र दोहरा दीजिए, मैं पूर्णतः सुनिश्चित हो जाऊंगा।

संन्यासी शिवम:– यदि विजयदर्थ ये बात आकर कहते तो मैं एक बार सोचता भी, तुम किस अधिकार से मुझे सीधा आदेश दे रहे हो।

निमेषदर्थ:– संन्यासी तुम्हारी बातों से मुझे समझ में आ गया है कि अमेया तुम्हारे ही पास है। जल्दी से उस बच्ची को लौटा दो, वरना अंजाम अच्छा नही होगा...

संन्यासी शिवम ने एक छोटा सा मंत्र पढ़ा और कुछ ही पल में विजयदर्थ वहां पहुंच चुका था। विजयदर्थ जैसे ही वहां पहुंचा संन्यासी शिवम पर खिसयाई नजरों से देखते.... “संन्यासी एक योजन में तुम्हारे बुलाने से मैं चला क्या आया, तुम तो मुझे परेशान करने लगे।”

सन्यासी शिवम्:– जरा पीछे मुड़कर देखिए फिर पता चलेगा की कौन किसको परेशान कर रहा है।

विजयदर्थ जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, सामने निमेषदर्थ खड़ा था। उसे यहां देख निमेषदर्थ घोर आश्चर्य करते.... “तुम यहां क्यों आये हो?”

निमेषदर्थ:– पिताजी इन्ही लोगों के पास अमेया है।

विजयदर्थ, खींचकर एक तमाचा जड़ते..... तुम सात्विक आश्रम द्वारा संचालित एक मठ के संन्यासी से उनके गुरु आर्यमणि की बच्ची को मांगने आये हो?

निमेषदर्थ:– पिताजी मुझे नही पता था कि...

विजयदर्थ ने पूरी बात सुनना भी उचित नही समझा। वह अपना पंजा झटका और निमेषदर्थ के गले, हाथ और पाऊं मोटे जंजीरों में कैद हो चुके थे। विजयदर्थ अपनी गुस्से से लाल आंखें दिखाते..... “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई थल पर आकर अपनी पहचान जाहिर करने और यहां के जीवन में हस्तछेप करने की। वैसे भी तुम मेरे उत्तराधिकारी कभी नहीं रहे और आज की हरकतों के बात तुम राजकुमार भी नही रहे। अपनी सजा भुगतने के बाद तुम सामान्य नागरिक का जीवक जीयोगे। संन्यासी इसकी गलती की सजा मैं दे रहा हूं। आप से विनती है आप भी इस बात को यहीं समाप्त कर दे।”

संन्यासी शिवम:– आपके न्याय प्रणाली से मैं बेहद प्रसन्न हुआ। ठीक है मैं इस बात को यहीं समाप्त करता हूं।

इस वाकये के बाद निमेषदर्थ अपने हर तरह के अधिकार खो चुका था। हां वो भी एक दंश का मालिक था, इसलिए उस दंश का अधिकार उस से नही छीना जा सकता था। अपनी कैद से खुन्नस खाया विजयदर्थ, रिहा होते ही अपनी बहन हिमा से मिला और अपनी सजा के लिये चाहकीली को जिम्मेदार मानते हुये उसे मारने की योजना बना लिया। जिस दिन चाहकीली को जान से मारने की तैयारी चल रही थी, आर्यमणि अपनी साधना को वहीं पूर्ण विराम लगाते, अपनी आंखें खोल लिया।

सोधक जीव के गुप्त स्थान से आर्यमणि उठकर बाहर आया। कुछ दूर चलने के बाद आर्यमणि सोधक प्रजाति के आबादी वाले क्षेत्र में पहुंच गया। क्षेत्र के सीमा पर चाहकीली के पिता शावल मिल गये। बड़ी चिंता और बड़े–बड़े आंसुओं के साथ आर्यमणि को देखते..... “आर्यमणि वो मेरी बच्ची चाहकीली।”...

आर्यमणि धीमे मुस्कुराया और अपना हाथ शावल के बदन पर रखते..... “चिंता मत करो, चाहकीली को कुछ नही होगा। कल सुबह तक वो तुम लोगों के साथ होगी। मै इतना ही बताने यहां तक आया था।”...

अपनी बात कहकर आर्यमणि सीधा अंतर्ध्यान हो गया और उस सभा में पहुंचा जहां चाहकीली को मृत्यु की सजा दी जा रही थी। आर्यमणि भिड़ के पीछे से गरजते हुये.... “तुम्हे नही लगता की तुम्हारी ये सभा भ्रष्ट हो चुकी है। मां जैसे एक मासूम से जीव के दिमाग को काबू कर उसे मारने जा रहे हो?”

“मेरी सभा में ये कौन बोला?”..... आर्यमणि के सवाल पर उस सभा का मुखिया ने गरजते हुये पूछा। आर्यमणि यह आवाज भली भांति पहचानता था। आर्यमणि जैसे–जैसे अपनी दोनो बांह फैला रहा था, वैसे–वैसे भिड़ दोनो किनारे हो रही थी और बीच से रास्ता बनते जा रहा था। आर्यमणि के नजरों के सामने उसका दोषी निमेषदर्थ खड़ा था। बीच का रास्ता जो खाली था, इस खाली रास्ते पर अचानक ही जड़ों ने कब्जा जमा लिया और देखते ही देखते निमेषदर्थ जड़ों में लिपटा हुआ था।

जड़ों में लिपटने के साथ ही निमेषदर्थ की यादें आर्यमणि के पास आने लगी और उस याद में आर्यमणि ने अपने एक और दोषी को पाया जो इस वक्त इसी सभा में मौजूद थी किंतु हत्याकांड वाले दिन वह दिखी नही थी। निमेषदर्थ की बहन हिमा। जैसे ही आर्यमणि को अपना दूसरा दोषी मिला, आर्यमणि बिना वक्त गवाए उसे भी जड़ों में जकड़ चुका था।

दोनो किनारे पर जो भीड़ खड़ी थी, उसमे एक हजार कुशल सैनिक भी थे। हालांकि वो जड़ों में तो नही जकड़े थे, लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने उनके पाऊं जमा दिये हो जैसे। कोई भी हील तक नही पा रहा था। आर्यमणि एक–एक कदम बढ़ाते हुये निमेषदर्थ के पास पहुंचा। आर्यमणि अपने गुस्से से लाल आंखें निमेषदर्थ को दिखाते .... “आखिर किस लालच में तुमने मेरे परिवार को मार डाला था निमेष।”...

निमेषदर्थ:– देखो आर्यमणि मैं तो बस एक मोहरा था।

आर्यमणि:– तुम्हारी यादों में मैं सब देख चुका हूं। तभी तो तुम्हारी बहन भी जड़ों में जकड़ी हुई है। तुम दोनो अपने आखरी वक्त में किसी को याद करना चाहो तो कर सकते हो।

“ठीक है मुझे वक्त दो। मै सबको याद कर लेता हूं।”.... इतना कह कर निमेषदर्थ अपनी आंख मूंदकर जोड़–जोड़ से कहने लगा.... “हे मेरे अनुयाई, मेरे रक्षक.. मैं तुम्हे याद कर रहा हूं। सबको मैं दिल से याद कर रहा हूं। ऐसा लग रहा है मेरे प्राण अब जाने वाले है। मौत मेरे नजरों के सामने खड़ी है। वह मुझे बेबस कर चुकी है। वह मुझे घूर रही है और किसी भी वक्त मुझे अपने चपेट में ले लेगी।”...

निमेषदर्थ चिल्लाकर अपनी भावना कह रहा था। हर शब्द के साथ जैसे वहां का माहोल बदल रहा हो। निमेषदर्थ जहां खड़ा था, उस से तकरीबन 100 मीटर आगे चाहकीली अचेत अवस्था में लेटी थी। निमेषदर्थ के हर शब्द के साथ उसमें जैसे जान आ रहा हो। जैसे ही निमेषदर्थ का बोलना समाप्त हुआ वहां का माहौल ही बदल गया।

चारो ओर सोधक प्रजाति के जीव फैले हुये थे। सोधक जीव की संख्या इतनी थी कि एक के पीछे एक कतार में इस प्रकार खड़े थे कि मानो जीवित पहाड़ों की श्रृंखला सामने खड़ी थी। न सिर्फ सोधक प्रजाति थे बल्कि शार्क और व्हेल जैसी मछलियां की भी भारी तादात में थी, जो सोधक प्रजाति के आगे थी और उन सबने मिलकर निमेषदर्थ को घेर लिया था।

चाहकीली तो सबसे पास में ही थी। खूंखार हुई शार्क और वेल्स के साथ वह भी निमेषदर्थ के चक्कर लगा रही थी। इसी बीच निमेषदर्थ खुद को जड़ों की कैद से आजाद करके पागलों की तरह हंसने लगा..... “क्या सोचे थे हां... मेरी जगह पर मुझे ही मार सकते हो। अभी तक तो इन जानवरों को ये नहीं पता की मेरी मौत कौन है। जरा सोचो मेरे एक इशारे पर तुम्हारा क्या होगा? फिर अभी तो तुम पर यह जानवर भरी पड़ेगा। इन जानवरों का मालिक मैं, फिर तुम पर कितना भारी पर सकता हूं।”...

आर्यमणि, निमेषदर्थ की बातें सुनकर मुश्कुराया। फिर उसकी बहन हिमा के ओर देखते..... “तुम्हे भी कुछ कहना है?”...

हिमा:– मुझे कुछ बोलने के लिये तुम जैसों के इजाजत की ज़रूरत नही। भाई इसे जानवरों का चारा बना दो।

निमेषदर्थ:– बिलकुल बहना, अभी करता हूं।

फिर तो मात्र एक उंगली के इशारे थे और सभी खूंखार जलीय जीवों ने जैसे एक साथ हमला बोल दिया हो। जिसमे चाहकिली सबसे आगे थी। आर्यमणि के शरीर से 50 गुणा बड़ा मुंह फाड़े चाहकिली एक इंच की दूरी पर रही होगी, तभी वहां के माहौल में वह दहाड़ गूंजी जो आज से पहले कभी किसी ने नहीं सुनी गयी थी। ऐसी दहाड़ जो महासागर के ऊपरी सतह पर तो कोई भूचाल नही लेकर आयी लेकिन पानी की गहराई में कहड़ सा मचा दिया था। ऐसी दहाड़ जिसे सुनकर जलीय मानव का कलेजा कांप गया। ऐसी दहाड़ जिसे सुनने वाले हर समुद्री जीव अपना सर झुकाकर अपनी जगह ठहर गये। जीव–जंतुओं को नियंत्रित करने की इतनी खतरनाक वह दहाड़ थी कि पूरे महासागर के जीव–जंतु जिस जगह थे वहीं अपने सर झुका कर रुक गये।

आर्यमणि:– चाहकीली क्या तुम मुझे सुन रही हो...

चाहकीली:– कोई विधि से मेरी जान ले लो चाचू। मै इस नालायक निमेषदर्थ की बातों में आकर आपको ही निगलने वाली थी। मुझे अब जीवित नहीं रहना...

आर्यमणि:– अपना सर ऊपर उठाओ...

चाहकीली अपना सर ऊपर की। उसके आंखों से उसके आंसू बह रहे थे। आर्यमणि अपना हाथ बढ़ाकर उसके एक बूंद गिरते आंसू को अपने हथेली पर लेते.... “बेटा रोने जैसी बात नही है। तुम्हारा दिमाग निमेष के कब्जे में था। अब मेरी बात ध्यान से सुनो।”...

निमेषदर्थ:– ये तुम कर कैसे रहे हो। मेरे जानवरों को होश में कैसे ले आये...

आर्यमणि का फिर एक इशारा हुआ और एक बार फिर निमेषदर्थ जड़ों में जकड़ा हुआ था.... “निमेष तुमसे मैं कुछ देर से बात करता हूं। तब तक हिमा तुम अपने आखरी वक्त में किसी को याद करना चाहो तो कर लो।”.... इतना कहने के बाद अपने हथेली के आंसू को अभिमंत्रित कर.... “चाहकीली अपना सर नीचे करो”...

चाहकिली थोड़ा पीछे हटकर अपना सर पूरा नीचे झुका दी। आर्यमणि थोड़ा ऊपर हुआ और चाहकीली के माथे के ठीक बीच आंसू वाला पूरा पंजा टिकाते हुये..... “आज के बाद तुम्हारे दिमाग को कोई नियंत्रित नही कर सकेगा। इसके अलावा जितने भी सोधक का दिमाग किसी ने काबू किया होगा, तुम्हारे एक आवाज पर वो सब भी मुक्त होंगे। अब तुम यहां से सभी जीवों को लेकर जाओ। मै जरा पुराना हिसाब बराबर कर लूं।”

चाहकीली:– चाचू मुझे भी इस निमेष का विनाश देखना है।

आर्यमणि:– वो जड़ों की कैद से आजाद होने वाला है। मै नही चाहता की यहां के युद्ध में एक भी जीव घायल हो। मेरी बात को समझो। तुम चाहो तो इन्हे दूर ले जाने बाद वापस आओ और एक किलोमीटर दूर से ही इसके विनाश को देखो। ऐसा तो कर सकती हो ना।

चाहकीली, चहकती हुई... “हां बिलकुल चाचू।”... इतना कहने के बाद चाहकीली एक कड़क सिटी बजाई और सभी जीवों को लेकर वहां से निकली। वो जगह जैसे ही खाली हुई, आर्यमणि दोनो भाई बहन को खोलते.... “उम्मीद है तुमने अपने सभी प्रियजनों को याद कर लिया होगा। अब अपनी मृत्यु के लिये तैयार हो जाओ।”

“किसकी मृत्यु”.... इतना कहकर हिमा ने अपना दंश को आर्यमणि के सामने कर दिया। उसके दंश से लगातार छोटे–छोटे उजले कण निकल रहे थे जो आर्यमणि के ओर बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे। देखने में ऐसा लग रहा था जैसे एनीमशन में शुक्राणु चलते है। ये उजले कण भी ठीक उसी प्रकार से आर्यमणि के ओर बढ़ रहा था।

सभी कण लगातार आर्यमणि के ओर बढ़ रहे थे लेकिन जैसे ही वह एक फिट की दूरी पर रहते, अपने आप ही नीचे तल में गिरकर कहीं गायब हो जाते। फिर तो कई खतरनाक हमले एक साथ हुये। पहले हिमा अकेली कर रही थी। बाद ने हिमा और निमेषदर्थ ने एक साथ हमला किया। उसके बाद निमेषदर्थ ने अपने 1000 कुशल सैनिकों को आज़ाद करके सबको साथ हमला करने बोला।

आर्यमणि अपना दोनो हाथ ऊपर उठाते.... “एक मिनट रुको जरा।”...

निमेषदर्थ:– क्यों एक साथ इतने लोग देखकर फट गयी क्या?

आर्यमणि:– फट गयी... फट गयी.. ये मेरी अलबेली की भाषा हुआ करती थी, जिसकी मृत्यु की कहानी तुमने लिखी थी।

कुछ बूंद आंसू आंखों के दोनो किनारे आ गये। आर्यमणि उन्हे साफ करते.... “हां फट गयी समझो। यहां आम लोग है, पहले उन्हे जाने दो। मै कौन सा यहां से भागा जा रहा हूं।”

निमेषदर्थ कुछ देर के लिये रुका। वहां से जब सारे लोग हटे तब एक साथ हजार लोगो की कतार थी। ठीक सामने आर्यमणि खड़ा। निमेषदर्थ का एक इशारा हुआ और हजार हाथ आर्यमणि के सामने हमला करने के लिये तन गये। उसके अगले ही पल हर जलीय सैनिक के हाथ से काला धुआं निकल रहा था। निमेषदर्थ और हिमा के दंश से भी भीषण काला धुवां निकल रहा था। धुएं के बीच आर्यमणि कहीं गुम सा हो गया। कहीं किसी तरह की कोई हलचल नहीं।
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भाग:–168


निमेषदर्थ कुछ देर के लिये रुका। वहां से जब सारे लोग हटे तब एक साथ हजार लोगो की कतार थी। ठीक सामने आर्यमणि खड़ा। निमेषदर्थ का एक इशारा हुआ और हजार हाथ आर्यमणि के सामने हमला करने के लिये तन गये। उसके अगले ही पल हर जलीय सैनिक के हाथ से काला धुआं निकल रहा था। निमेषदर्थ और हिमा के दंश से भी भीषण काला धुवां निकल रहा था। धुएं के बीच आर्यमणि कहीं गुम सा हो गया। कहीं किसी तरह की कोई हलचल नहीं।

लगभग 5 मिनट तक पूर्ण शांति छाई रही। तभी निमेषदर्थ ने इशारा किया और सैनिकों की छोटी टुकड़ी उस काले धुएं के बीच घुसी। बाहर सभी लोग टकटकी लगाये बस धुएं को ही देख रहे थे। सैनिक की वह टुकड़ी भी धुएं में कहीं गायब हो गयी। तकरीबन मिनट भर तक चीर शांति छाई रही, उसके बाद जो ही चीखने की आवाज आयी। माहौल ही पूरा अशांत हो गया।

सैनिकों के लगातार चीखने की आवाज आती रही और रेंगते हुये जब कुछ सैनिक धुवां के बाहर आ रहे थे, तब वहां मौजूद हर किसी का कलेजा कांप गया। असहाय सैनिक खून से लहू–लुहान किसी तरह उस काले धुएं से निकल रहे थे। किंतु जैसे ही धुएं के बाहर आते उनका शरीर फटकर चिथरा हो जाता और मांस के लोथड़े वही आस पास फैल जाते।

पूरी टुकड़ी का वही हश्र हुआ। मौत की चींखें जब शांत हुई तब एक पल नही लगा उस धुएं को छंटने में। जैसे ही धुवां छंटा आर्यमणि अपनी जगह पर खड़ा मंद–मंद मुस्कुरा रहा था। निमेषदर्थ और बाकी सभी की आंखें फटी की फटी रह गयी, क्योंकि जिस काले धुएं ने आर्यमणि का कुछ नही बिगड़ा, उस काले धुएं के मात्र एक हिस्से से तो 10 सोधक प्रजाति के जीव फट जया करते थे।

आर्यमणि ने बस अपना एक हाथ ऊपर किया और जड़ों में सभी सैनिक जकड़े हुये थे। उसके अगले ही पल वो सब कहां गायब हुये ये तो बस आर्यमणि ही जानता था। हां लेकिन अब हिमा और निमेषदर्थ के चेहरे पर भय साफ देखा जा सकता था। आर्यमणि पूरे विश्वास के साथ जैसे ही अपना कदम आगे बढ़ाया तभी एक बार फिर से उसपर हमला हुआ।

पानी में कई सारे तैरते चट्टान आर्यमणि के ओर बड़ी रफ्तार के साथ बढ़े। आर्यमणि ने न तो अपने बढ़ते कदम को रोका और न ही आ रहे विशालकाय चट्टान के रास्ते से हटने की कोशिश करी। बस वो अपने कदम आगे बढ़ता रहा। चट्टाने बहते हुये आर्यमणि के करीब जरूर पहुंची, लेकिन हर चट्टान आर्यमणि के करीब पहुंचते–पहुंचते अपना रास्ता बदल लेता। कुछ दाएं से निकल गये तो कुछ बाएं से और आर्यमणि उन दोनो भाई बहन के करीब पहुंच चुका था।

जैसे ही आर्यमणि निमेषदर्थ और हिमा के करीब पहुंचा, दोनो ने अपना बाहुबल का प्रयोग करने का सोचा। दोनो के हाथ हवा में भी आये किंतु उसके बाद जैसे जम गये हो। न तो उसका हाथ हिला और न ही शरीर। आर्यमणि बिलकुल उनके करीब पहुंचते..... “जैसे तुम अभी बेजान हो ठीक अंदर से मैं भी इतना ही बेजान था।”.... आर्यमणि अपनी बात कहने के साथ ही अपना पंजा झटका और उसके क्ला झट से निकल आये।

अपने क्ला के एक वार से हिमा का दायां हाथ काटकर नीचे गिराते.... “तुम्हे क्या लगता है, क्या तुम मुझे मार सकते हो?”.... इतना कहकर आर्यमणि ने फिर अपना क्ला चलाया और निमेषदर्थ का दायां पाऊं कटकर अलग हो गया। बहन का हाथ गया तो भाई का पाऊं। दोनो जमे हुये थे। अपने अंग को शरीर से अलग होते जरूर देखे परंतु दर्द दोनो में से किसी को नही हुआ।

इस से आगे कुछ होता उस से पहले ही आर्यमणि का अभिमंत्रित जाल टूट चुका था। निमेषदर्थ और हिमा भीषण पीड़ा मेहसूस करते जोर–जोर से चिल्लाते हुये नीचे गिर गये। वहीं आर्यमणि, 6 योगियों के बीच घिरा था और पीछे से विजयदर्थ चला आ रहा था। विजयदर्थ ने इशारा किया और उसके लोग निमेषदर्थ और हिमा को सहारा देकर वहां से ले जाने की तैयारी में लग गये।

विजयदर्थ:– तुमने क्या सोचा यहां आकर मेरे बच्चों को मार सकते हो?

आर्यमणि, विजयदर्थ की बात सुनकर मुस्कुराया और प्रतिउत्तर में सिर्फ इतना ही कहा.... “अपनी विधि से दोषियों को सजा दे रहा हूं। आप बीच में न ही पड़े तो बेहतर होगा।”

विजयदर्थ:– गुरुदेव पहले इसे काबू करे, बाद में सोचते है इसका क्या करना है?

आर्यमणि:– विजयदर्थ ना तो मेरे यहां होने का कारण पूछे और न ही मुझसे इतने दिनो बाद मिलने की कोई खुशी जाहिर किये। अपने बच्चों के मोह में सब भूल गये?

विजयदर्थ:– आर्यमणि तुमसे मिलने की खुशी को मैं बयां नही कर सकता। तुम समझ नही सकते की तुम्हे सुरक्षित देखकर मैं अंदर से कैसा महसूस कर रहा हूं। किंतु इस वक्त तुम अपने आपे में नहीं हो।

आर्यमणि:– तुम्हारे कपूत बच्चे यहां एक सोधक जीव का शिकर कर रहे थे। इन्होंने मेरे परिवार को मुझसे दूर कर दिया और उसके बावजूद भी तुम्हारे नालायक बच्चों को मारने के बदले मैं तुमसे बात कर रहा हूं, ये मेरे धैर्य का परिचय है।

हिमा, दर्द से कर्राहती हुई कहने लगी..... “पिताजी यदि आरोप तय हो गया तो मृत्यु दण्ड भोगने के तैयार हूं, लेकिन बिना किसी सुनवाई के ऐसी बर्बरता।”...

विजयदर्थ:– गुरुदेव कृपा आर्यमणि को काबू में करे। यह अनुचित न्याय है।

विजयदर्थ के साथ आये योगी, आर्यमणि को घेरकर बैठ गये। आर्यमणि, हाथ जोड़कर वहां आये सभी योगियों को नमन करते.... “उम्मीद है योग और आध्यात्म किसी राजा के अधीन नही अपितु सत्य और न्याय के लिये प्रयोग में लाये जाते हो।”...

इतना कहकर आर्यमणि वहीं आसान लगाकर बैठे। उसके चारो ओर 6 योगी बैठ हुये थे। मंत्र उच्चारण शुरू हो गया। मंत्र से मंत्र का काट चलता रहा। लगातार 22 दिनो तक मंत्र से मंत्र टकराते रहे। एक अकेला आर्यमणि कई वर्षो से सिद्ध प्राप्त किये हुये 6 योगियों से टकरा रहा था और अकेले ही उनपर भारी पड़ रहा था। बाईसवें दिन की समाप्ति के साथ ही 6 योगियों ने मिलकर आर्यमणि के दिमाग पर काबू पा लिया।

काबू पाने के बाद सभी योगियों की इच्छा हुई की आखिर इतनी कम उम्र में एक लड़का इतनी सिद्धि कैसे प्राप्त कर कर सकता है, उसकी जांच की जाये। इच्छा हुई तो सभी मंत्र जाप करते आर्यमणि के दिमाग में भी घुस गये। आर्यमणि के दिमाग में जब वो घुसे तब उनके आश्चर्य की कोई सीमा ही नही रही। आर्यमणि की किसी भी याद को वो लोग नही देख पाये, सिवाय एक याद के जिसमे अल्फा पैक को लगभग समाप्त कर दिया गया था।

सभी योगी विचलित होकर आर्यमणि के दिमाग से बाहर निकले। वो लोग आर्यमणि को जगाते उस से पहले बहुत देर हो चुकी थी। राजा विजयदर्थ आर्यमणि के दिमाग पर काबू पा चुका था। 6 योगियों के मुखिया योगी पशुपति नाथ जी विजयदर्थ के समक्ष खड़े होते.... “हम इस लड़के से कई गुणा ज्यादा मंत्रो के प्रयोग को जानते थे। कई मंत्र और साधना के विषय में तो शायद इसे ज्ञान भी नही, फिर भी इसके सुरक्षा मंत्रो की सिद्धि हमसे कई गुणा ऊंची थी। परंतु तुमने क्या किया विजय?”...

विजयदर्थ:– मैने क्या किया गुरुदेव...

योगी पशुपतिनाथ:– तुम्हारे बेटी और बेटे ने मिलकर गुरु आर्यमणि के परिवार की हत्या कर डाली। उनमें से एक (अलबेली) गर्भवती भी थी। जिस हथियार से गुरु आर्यमणि के परिवार को मारा गया वह रीछ स्त्री महाजनीका की दिव्य खंजर थी। इसका अर्थ समझ भी रहे हो। वही स्त्री जो कभी महासागर पर काबू पाने के इरादे से आयी थी। जिसे बांधने में न जाने कितने साधुओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। उसी के खंजर से पूरे हत्याकांड को अंजाम दिया गया। तुम्हारे बच्चे जाकर असुर प्रवृति के लोगों से मिल गये और तुमने बिना जांच किये उल्टा गुरु आर्यमणि पर काबू किया।

विजयदर्थ अपने दोनो हाथ जोड़ते.... “गुरुवर क्या वाकई महाजनिका की खंजर से गुरु आर्यमणि के परिवार को मारा गया था।”..

योगी पशुपतिनाथ:– हां, और इस पूरे घटने का रचायता और कोई नही तुम्हारा पुत्र निमेशदर्थ था। आज हमने अपने योग को किसी राजा के अधीन कर दिया। इसलिए इसी वक्त मैं अपने प्राण त्यागता हूं।

इतना कहकर योगी पशुपतिनाथ जी ने कुछ मंत्रो का प्रयोग खुद पर ही कर लिया और जहां वो खड़े थे वहां मात्र राख बची थी। विजयदर्थ अपने घुटने पर आकर उस राख को छूते.... “ये मैने क्या कर दिया गुरुदेव। मैने कभी ऐसा तो न चाहा था। मुझे लगा आर्यमणि अपने परिवार की मृत्यु में बौखलाया था इसलिए मुझे इसपर काबू चाहिए था। ये मुझसे कौन सा पाप हो गया?”..

उन्ही योगियों में से एक योगी वशुकीनाथ जी.... "क्या वाकई सिर्फ इतनी सी बात थी विजय। तुम झूठ किस से बोल रहे?”

विजयदर्थ:– गुरुवर आर्यमणि कुछ देर पहले तक मेरे लिये मरा ही हुआ था। उसे काबू में करने की और क्या मनसा हो सकती है?

योगी वशुकीनाथ:– खड़े हो जाओ विजय। तुम अब भी पूरा सच नहीं कह रहे। आर्यमणि को यहां जल में रोक के रखने की चाह में जितने धूर्त तुम हो चुके थे, योगी पशुपतिनाथ जी को उसी की सजा मिली है। गुरु आर्यमणि का परिवार रहा नहीं। तुम्हे उन जैसा हीलर हर कीमत पर अपने पास चाहिए था। मौका उन्होंने खुद तुम्हे दिया, जब वो तुम्हारे बच्चे को मारने पहुंच गये। तुमने भी मौके को पूरा भुनाते हमारे जरिए उनके दिमाग पर काबू पा लिया। देख लो तुम्हारी बुरी नियत का क्या परिणाम हुआ?”

विजयदर्थ, योगी वशुकिनाथ जी के पाऊं में दोबारा गिरते..... “गुरुवर मुझे माफ कर दे। मै घोर पश्चाताप में हूं। मेरी लालच बस इतनी सी थी कि जलीय साम्राज्य फलता–फूलता रहे। कोई भी दुश्मन हमारी दुनिया को तबाह न करे।”

योगी वशुकीनाथ:– महासागर की भलाई को लेकर तुम्हारी नियत पर कभी शक नही था विजय। तभी तो हमने गुरु आर्यमणि को बांधा। लेकिन तुम भी कहां विश्वास पात्र रहे। सत्य और न्याय के बीच हमें ला खड़ा किया। हम सब के पापों की जिम्मेदारी योगी पशुपतिनाथ जी ने ली। जानते हो हमारे पाप की सजा तो उन्होंने खुद को दे दी। साथ ही साथ गुरु आर्यमणि के साथ जो गलत किया, उसके भरपाई में उन्होंने अपना सारा ज्ञान उनके मस्तिष्क में निहित कर दिया। अब हम अपनी साधना में जा रहे है। दोबारा अब हमसे किसी भी प्रकार के मदद की उम्मीद मत रखना।

विजयदर्थ, योगी वशुकीनाथ के चरणों को भींचते.... “ऐसा न कहे गुरुवर। आप हमे छोड़ चले जायेंगे तब यहां के जलीय तंत्र पूर्ण रूप से टूट जायेगा। विश्वास मानिए किसी योग्य उत्तराधिकारी के मिलते ही अपने पाप की सजा मैं भी खुद को स्वयं दूंगा। किंतु आप हमसे मुंह न मोरे।”

योगी वशुकीनाथ:– तुम्हारे निर्णय ने मुझे प्रसन्न जरूर किया है किंतु गुरु आर्यमणि का क्या? उनके साथ जो गलत हुआ है, उसकी भरपाई कैसे करोगे? तुमने तो मौका मिलते ही उनके दिमाग को भी अपने वश में कर लिया।

विजयदर्थ:– मैं एक पिता हूं, इसलिए मोह नहीं जायेगा। उपचार के उपरांत जब मेरे दोनो बच्चे ठीक हो जाएंगे तब मैं उन्हे जलीय तंत्र से पूर्ण निष्कासित कर दूंगा। न वो मेरे आंखों के सामने होंगे और न ही मैं आर्यमणि के प्रतिसोध के बीच आऊंगा। यही नही आर्यमणि का विवाह मैं अपने सबसे योग्य पुत्री महाती के साथ करवा दूंगा। और जिस दिन आर्यमणि की तंद्रा टूटेगी, उसी दिन मैं उन्हे यहां का राजा घोषित करके अपनी मृत्यु को स्वयं गले लगा लूंगा।

योगी वशुकीनाथ:– क्या कोई ऐसी शक्ति है जो तुम्हारे राज्य में घुसकर गुरु आर्यमणि को तुम्हारे वश से अलग कर सके? तुम उन्हे अभी क्यों नही छोड़ देते...

विजयदर्थ:– विश्वास मानिए मैं चाहता तो हूं लेकिन उत्साह में मुझसे भूल हो गयी।

योगी वशुकीनाथ:– “हां मैं समझ गया। तुमने त्वरण वशीकरण का प्रयोग कर दिया। अब या तो कोई बाहरी त्वरित शक्ति आर्यमणि के दिमाग में घुसकर उसे तुम्हारे वशीकरण से निकलेगी या फिर जब आर्यमणि का जीवन स्थिर होगा तभी वो तुम्हारे जाल से निकलेगा। तुम इतना कैसे गिर सकते हो, मुझे अब तक समझ में नही आ रहा।”

“मेरा श्राप है तुम्हे, तुम हर वर्ष अपने परिवार के एक व्यक्ति का मरा हुआ मुंह देखोगे। सिवाय अपनी बेटी महाती के जिसके विवाह की योजना तुमने बनाई है और तुम्हारे दोनो पुत्र और पुत्री (निमेष और हिमा) जो गुरु आर्यमणि के दोषी है। अब मेरी नजरो से दूर हो जाओ इस से पहले की आवेश में आकर मैं कुछ और बोल जाऊं।”

विजयदर्थ:– क्षमा कीजिए गुरुदेव... मुझे क्षमा कीजिए...

योगी वशुकीनाथ:– तुम्हारे पाप की कोई क्षमा नही। एक आखरी शब्द तुम्हारे लिये है, तुम और तुम्हारे समुदाय के लोग अब जमीन का मुंह कभी नहीं देख सकते और इलाज के उपरांत निमेषदर्थ और हिमा कभी जल में नही रह सकते। बस तुम्हारे कुल से जिसका विवाह गुरु आर्यमणि के साथ होगा, उसकी शक्तियां पूर्ण निहित होगी।

विजयदर्थ, रोते हुये योगी वशुकीनाथ के पाऊं को जकड़ लिया। न जाने कितनी ही मिन्नते उसने की तब जाकर योगी वशुकीनाथ ने अपने श्राप का तोड़ में केवल इतना ही कहे की... “यदि गुरु आर्यमणि ने तुम्हे क्षमा कर दिया तो ही तुम श्राप से मुक्त होगे, लेकिन शर्त यही होगी विजयदर्थ की तुम खुद को सजा नही दोगे। बल्कि तुम्हारी सजा स्वयं गुरु आर्यमणि तय करेंगे और उसी दिन हम वापस फिर तुम्हारे राज्य में कदम रखेंगे।”

योगी अपनी बात समाप्त कर वहां से अंतर्ध्यान हो गये और विजयदर्थ नीचे तल को तकता रह गया। जैसे ही वह आर्यमणि के साथ अपने महल में पहुंचा, महल से एक अप्रिय घटना की खबर आ गयी। विजयदर्थ के सबसे छोटे पुत्र का देहांत हो गया था। विजयदर्थ के पास सिवाय रोने के और कुछ नही बचा था।

विजयदर्थ तो मानो जैसे गहरे वियोग में चला गया हो। कुछ दिन बीते होंगे जब उसके दो अपंग बच्चे (निमेषदर्थ और हिमा) को महासागर से निकालकर किसी वीरान टापू पर फेंक दिया गया। जल में विचरण करने की सिद्धि निमेषदर्थ और हिमा से छीन चुकी थी। कुछ दिन और बीते होंगे जब महाती अपने पिता से मिलन पहुंची। कारण था बीते कुछ दिनों से शासन के अंदेखेपन की बहुत सी खबरे और हर खबर का अंत विजयदार्थ के नाम से हो जाता। महाती आते ही उनके इस अनदेखेपन का कारण पूछने लगी। तब विजयदर्थ ने उसे पूरी कहानी बता दी।

अपने सौतेले भाई बहन की करतूत तो महाती पहले से जानती थी। अपने पिता की लालच भरी छल सुनकर तो महाती अचरज में ही पर गयी, जबकि आर्यमणि के बारे में तो विजयदर्थ को भी पूरी बात पता थी। महाती अपने पिता को वियोग में छोड़कर, उसी क्षण पूरे शासन का कार्य भार अपने ऊपर ली। मुखौटे के लिये बस अब उसके पिताजी राजा थे, बाकी सारे फैसले महाती खुद करने लगी।

लगभग 2 महीने बीते होंगे जब राजधानी में जश्न का माहोल था। एक बड़े से शोक के बाद इस जश्न ने जैसे विजयदर्थ को प्रायश्चित का मौका दिया था। वह मौका था आर्यमणि और महाती के विवाह का। जबसे विजयदर्थ ने आर्यमणि पर त्वरित सम्मोहन किया था, उसके कुछ दिन बाद से ही आर्यमणि, महाती के साथ रह रहा था। यूं तो चटपटे खबरों में महाती का नाम अक्सर आर्यमणि के साथ जोड़ा जाता। किंतु महाती ने किसी भी बात की परवाह नही की।
Interesting update
 

Tri2010

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भाग:–169


लगभग 2 महीने बीते होंगे जब राजधानी में जश्न का माहोल था। एक बड़े से शोक के बाद इस जश्न ने जैसे विजयदर्थ को प्रायश्चित का मौका दिया था। वह मौका था आर्यमणि और महाती के विवाह का। जबसे विजयदर्थ ने आर्यमणि पर त्वरित सम्मोहन किया था, उसके कुछ दिन बाद से ही आर्यमणि, महाती के साथ रह रहा था। यूं तो चटपटे खबरों में महाती का नाम अक्सर आर्यमणि के साथ जोड़ा जाता। किंतु महाती ने किसी भी बात की परवाह नही की।

परंतु एक दिन योगी वशुकीनाथ, महाती के मन की चेतनाओं में आये और उन्होंने जल्द से जल्द आर्यमणि से विवाह करने का विचार दिया। कुछ वार्तालाप योगी वशुकीनाथ और महाती के बीच हुई। किसी सम्मोहित व्यक्ति से बिना उसकी मर्जी के शादी करना महाती को गलत लग रहा था। लेकिन सही–गलत के इस विचार को योगी जी ने सिरे से नकार दिया। त्वरित सम्मोहन से बाहर लाने की महाती की कोशिश और नित्य दिन आर्यमणि को योग और साधना का ध्यान करवाना ही काफी था, एक सच्चा साथी की पहचान के लिये। फिर आर्यमणि के प्रति महाती का सच्चा लगाव और उसके अंतर्मन का प्यार योगीयों से छिपा भी नही था।

जबसे योगियों ने आर्यमणि के साथ अन्याय किया था, तबसे वह आर्यमणि की कुंडली पर लगातार ध्यान लगाए थे। यूं तो भविष्य कोई देख नहीं सकता परंतु एक अनुमान के हिसाब से जो उन योगियों को दिखा, उस अनुसार कुछ अर्चनो को आर्यमणि की अकेली किस्मत मात नही दे सकती थी। उन अर्चनों के वक्त कुछ ग्रहों को अपनी सही दशा में होना अति आवश्यक था और यह तभी संभव था जब आर्यमणि की किस्मत किसी अनोखे कुंडली वाली स्त्री से जुड़ी हुई हो।

योगियों ने साफ शब्दों में कह दिया, “गुरु आर्यमणि जब कभी भी सम्मोहन से बाहर होंगे, उन्हे तुम्हारी जरूरत होगी। यह भी सत्य है कि तंद्रा टूटने के बाद वह शादी नहीं कर सकते इसलिए तुम्हारा अभी उनसे शादी अनिवार्य है।”

महाती:– गुरुवर किंतु बिना उनकी मर्जी के शादी करने से वो मुझे स्वीकारेंगे क्या?

योगी:– तुम्हारी लगन और प्यार एक पत्नी के रूप में स्वीकारने पर विवश कर देगी। यदि यह प्रेम उन्हे विवश ना कर सकी तो तुम दोनो की संतान गुरु आर्यमणि को तुम्हे स्वीकारने पर विवश अवश्य कर देगी। वजह चाहे जो भी हो वो तुम्हे स्वीकार करेंगे। बस सवाल एक ही है, क्या गुरु आर्यमणि को तुम पति के रूप में स्वीकार कर सकती हो। तुम्हे पहले ही बता दूं उनके साथ जीवन बिताना आसान नहीं होगा और न ही तुम महलों वाला सुख देख पाओगी।

महाती के लिये तो मानो अविष्मरणीय घटना उसके दिमाग में चल रही थी। आर्यमणि संग भावनाएं तो तब ही जुड़ चुके थे, जब उनकी निहस्वर्थ भावना को देखी। चूंकि आर्यमणि पहले से शादी–सुदा थे, इसलिए मन के अंदर किसी भगवान का दर्जा देकर वह पूजा करती थी। परंतु आज योगियों की बातें सुनने के बाद महाती अपनी भावना को काबू न कर पायी।

विवाह के प्रस्ताव पर अपनी हामी भरने के बाद महाती ने मन की चेतनाओं में ही उसने विवाह का शुभ मुहरत भी पूछ लीया। चूंकि योगी राजधानी नही आते इसलिए कुछ लोगों की मौजूदगी में महाती, आर्यमणि के साथ योगियों के स्थान तक गयी और वैदिक मंत्रों के बीच पूर्ण विधि से दोनो का विवाह सम्पन्न हो गया।

विवाह संपन्न होने के साथ ही जश्न का सिलसिला भी शुरू हो गया। कई दिनों बाद विजयदर्थ के चेहरे पर भी मुस्कान आयी थी। फिर तो पूरे शहरी राज्यों में जलसे और रंगारंग कार्यक्रम का दौर शुरू हो गया। महाती, आर्यमणि के साथ शहरी क्षेत्रों का भ्रमण करती नागलोक के दरवाजे पर थी। नभीमन स्वयं पातल लोक के दरवाजे पर स्वागत के लिये पहुंचा और नए जोड़ों को आशीर्वाद दिलवाने शेषनाग के मंदिर तक लेकर आये।

महाती के आग्रह पर नाभिमन ने आर्यमणि से टेलीपैथी भी करने की कोशिश की। दिमाग के अंदर अपनी ध्वनि पहुंचाकर आर्यमणि को वशीकरण से आजाद करने की कोशिश। किंतु आर्यमणि ने तो जैसे अपने दिमाग के चारो ओर फैंस लगा रखा हो। किसी भी विधि से नाभिमन आर्यमणि के दिमाग में घुस ना सका।

वहीं वशीकरण के जाल में फंसा आर्यमणि को ऐसा लग रहा था की वह रूही के साथ अपने खुशियों के पल बिता रहा है और बाकी सारी दुनिया उसके प्यार से जल रही है, इसलिए उसने खुद से पूरी दुनिया को ही ब्लॉक कर रखा था। योगियों के साथ की गयी कोशिश का भी वही नतीजा हुआ था। आर्यमणि किसी को अपने दिमाग में घुसने ही नही दे रहा था। और बिना आर्यमणि के दिमाग में घुसे वशीकरण से मुक्त नही करवाया जा सकता था।

खैर, महाती वहां से निराश निकली। बस खुशी इस बात की थी कि विजयदर्थ के सम्मोहन के बाद भी आर्यमणि महाती से काफी ज्यादा प्यार जता रहा था। जब विवाह नही हुआ था तब कभी–कभी महाती को यह प्यार काफी भारी पड़ जाता था। लेकिन विवाह के बाद महाती अंदर ही अंदर आर्यमणि से उसी भारी प्यार के इंतजार में थी।

बहुत ज्यादा इंतजार भी नही करना पड़ा। शादी के बाद जब देश भ्रमण करके लौटे, तब उसी रात फूलों को सेज सजी थी। मखमल का बिस्तर लगाया गया था। पहली ऐसी रात थी जब महाती और आर्यमणि एक साथ एक कमरे में होते। महाती पूरी दुल्हन के लिबास में पूरा घूंघट डाले सेज पर बैठी उसका इंतजार कर रही थी। धराम की आवाज के साथ दरवाजा खुला और फिर दरवाजा बंद।

ये रात बड़ी सुहानी थी। महाती अपने पिया से मिलने वाली थी। मन मचल रहा था, बदन तड़प रहा था। हृदय में विच्छोभ तरंगे उठ रही थी। शारीरिक संभोग से पहले उसके एहसास का ये थ्रिल अनोखा था। कभी दिल घबरा रहा था तो कभी श्वास चढ़ जाती। धड़कन तब धक से रह गयी जब आर्यमणि ने पहला कदम आगे बढ़ाया। कदमों की थाप ने तो जैसे और भी जीना दुभर कर दिया हो।

फिर वो आर्यमणि के कठोर हाथों का पहला स्पर्श। कोमल कली से बदन पर रोएं खड़े हो गये, वह लचर सी गयी और बिस्तर पर सीधी लेट गयी। फिर तो पहले होटों से होंठ टकराए। मधुर एहसास का एक जाम था, जिसे होटों से लगाते ही महाती मदहोश हो गयी। कसमसाती, तिलमिलाती दुविधा और झिझक के बीच उसने भी अपने पहले चुम्बन का भरपूर आनंद उठाया।

स्वांस उखड़ सी गयी थी। चढ़ती श्वंस के साथ ऊपर उठते वक्षों को आर्यमणि ने कपड़ों के ऊपर से ही दबोच लिया। कोरे बदन पर ये कठोर छुवन एक नया एहसास का दौर शुरू कर रही थी। बेकरारी बड़ी थी और रोमांच हर पल बढ़ता जा रहा था। जैसे–जैसे आर्यमणि आगे बढ़ रहा था, उत्तेजना से महाती के हाथ–पाऊं कांप रहे थे।

जैसे ही एक–एक करके आर्यमणि ने लाज की डोर खोलना शुरू किया, महाती उत्तेजना और लाज के बीच फंसती जा रही थी। चोली के सारे गांठ खोलने के बाद जैसे ही आर्यमणि ने चोली को बदन से अलग किया, महाती अपने हाथ से कैंची बनाती, अपने वक्षों को उनके बीच छिपा लिया। आज तक कभी वह निर्वस्त्र नही हुई थी, इसलिए मारे लाज की वो मरी जा रही थी।

आर्यमणि पूरे सुरूर के साथ आगे बढ़ रहा था। अपने दोनो हाथ से महाती की कलाई को जैसे ही आर्यमणि ने थामा, आने वाला पल की कल्पना कर महाती ने करवट ले लिया। महाती ने जैसे ही करवट लिया आर्यमणि ने बिना वक्त गवाए लहंगे की डोर को खींच दिया। दुविधा में फंसी महाती अपने स्तनों को छिपाती या हाथों से लहंगे को पकड़ती जो धीरे–धीरे नीचे सरक रही थी।

लहंगा इतना नीचे तक सरक चुका था कि महाती के गुप्तांग के दिखने की शुरवात होने ही वाली थी। महाती झट से अपना लहंगा संभाली और अगले ही पल आर्यमणि के हाथ उसके खुले वक्षों को मिज रहे थे। गहरे श्वनास खींचने के साथ ही महाती की सिसकारी निकल गयी। हालत अब तो और पतली हो गयी थी।

महाती जितना विरोध कर रही थी, आर्यमणि को उतना ही मजा आ रहा था। अंत में माहती ने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया। अपनी आंखें मूंदकर वह चित लेट गयी और आर्यमणि ने संगमरमर से तराशे बदन पर अपने होटों से पूरा मोहर लगाते चला गया। महाती तो मारे उत्तेजना के 2 बार चरम सुख प्राप्त कर चुकी थी।

आर्यमणि के हाथ महाती के तराशे बदन पर रेंग रहे थे। ऐसा लग रहा था महाती का बदन और भी चमक रहा था और वह और भी ज्यादा आकर्षित कर रही थी। फिर अचानक ही आर्यमणि के हाथ का स्पर्श कहीं गायब हो गया। महाती कुछ पल प्रतीक्षा की। किंतु जब उत्तेजना को भड़काने वाली स्पर्श उसके बदन से दूर रहा, तब किसी तरह हिम्मत करके महाती अपनी आंखें खोल ली। आंख खोली और तुरंत अपना चेहरा अपने हाथ से ढक ली।

दिल में तूफान उमड़ आया था। धड़कने बेकाबू हो गयी थी। आर्यमणि का हाहाकारी देख महाती के अंदर पूरा हाहाकार मचा हुआ था। हालत केवल महाती की खराब नही थी बल्कि आर्यमणि का जोश भी अपने चरम पर था। इतना आकर्षक और कामुक स्त्री को पूर्णतः निर्वस्त्र देखकर रुकना भी बैमानी ही था।

आर्यमणि कूदकर बिस्तर पर चढ़ा। महाती के दोनो पाऊं खोलकर, उसके दोनो पाऊं के बीच में आया। योनि को छिपाए हथेली को थोड़ा जोड़ लगाकर हटाया और हटाने के साथ ही अपना लिंग, महाती के योनि से टीका दिया। फिर तो बड़े आराम से आर्यमणि इंच दर इंच अपना लिंग धीरे–धीरे महाती के योनि के अंदर घुसाने लगा।

खून की हल्की धार बह गयी। ऐसा लग रहा था कोई खंजर चिड़ते हुये अंदर घुस रहा है। महाती की सारी उत्तेजना दर्द मे तब्दील हो गयी। किंतु अपने होंठ को दातों तले दबाकर महाती अपने पहले मिलन को धीरे–धीरे आगे बढ़ने दे रही थी। कुछ देर तक धीरे–धीरे लिंग अंदर बाहर होता रहा। इसी बीच धीरे–धीरे महाती का दर्द भी गायब होता जा रहा था और उत्तेजना हावी होती रही। फिर तो सारे बैरियर जैसे टूट गये हो। रफ्तार धीरे–धीरे पकड़ता गया। फिर तो अंधाधुन रफ्तार बढ़ती रही। बिना रुके धक्के पर धक्का लगता रहा। महाती की सिसकारियां तेज और लंबी होती जा रही थी।

संभोग के असीम आनंद का अनुभव दोनो ही ले रहे थे और दोनो ही काफी मजे में थे। तभी उत्तेजना को थाम दे ऐसा बहाव दोनो के गुप्तांगों से एक साथ निकला। दोनो ही साथ–साथ बह गये और आस पास ही निढल होकर लेट गये। गहरी नींद के बाद जब महाती की आंखें खुली तब नजर सीधा आर्यमणि के झूलते लिंग पर गयी और वह शर्माकर अपने कपड़े समेटकर भागी।

कुछ देर में खुद को पूरी तरह से नई नवेली दुल्हन की तरह तैयार कर, महाती जैसे ही दरवाजे के बाहर आयी, बाहर कई दासियां इंतजार कर रही थी। दासियां सवालिया नजरों से महाती को देखी और महाती इसके जवाब ने बस शर्माकर मुश्कुरा दी। फिर तो दासियों में भी हर्षोल्लास छा गया। प्रथम मिलन की सूचना चारो ओर थी और पूरी राजधानी खिल रही थी।

कई दिनों तक राजधानी में जश्न चलता रहा। विवाह के बाद महाती खुद में पूर्ण होने का अनुभूति तो कर रही थी, किंतु एक वशीकरण वाले इंसान से बिना उसकी मर्जी के विवाह करना महाती को खटकता ही रहा। किंतु हर बार जब वह मायूस होती, योगियों की एक ही बात दिमाग में घूमती..... “यदि प्रेम सच्चा हो तो आर्यमणि कभी न कभी तुम्हे स्वीकार जरूर करेगा।” खैर महीने बीते, साल गुजर गये। सामान्य सा सुखी दंपत्य जीवन चलता रहा।

इधर विजयदर्थ अपना ज्यादातर वक्त कैद में फसे लोगों के प्रबंधन में गुजारता था। चर्चा यदि करें कैदियों के प्रदेश और वहां फसने वाले कैदियों की तो.... कैदियों के प्रदेश में वही लोग कैदी होते थे जिनकी जान किसी कारणवश महासागर में गिड़कर लगभग जाने वाली होती थी। ज्यादातर लोगों के विमान क्षतिग्रस्त होने के कारण ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती थी।

ऐसा नहीं था कि कैदियों को रिहाई का मौका नही मिलता। उन सबको कुछ आसान सा काम दिया जाता था और काम पूरा करने के लिये पर्याप्त से भी ज्यादा वक्त मिलता था। किंतु आज तक कभी ऐसा हुआ नही की कैद में फसे लोगों ने कोई भी आसान सा काम पूरा करके दिया हो। इसका सबसे बड़ा कारण तो उस जगह को बनावट थी, और कैद में केवल पृथ्वी वाशी ही नही फंसते बल्कि दूसरे ग्रह के लोग भी उतने ही फंसते थे।

दरअसल अंतरिक्ष में बने ब्लैक होल का एक सीधा रास्ता महासागरीय साम्राज्य भी था। ब्लैक होल में फंसने का अर्थ ही था लगभग तय मृत्यु अथवा अंतहीन सफर। अंतरिक्ष में जो भी विमान ब्लैक होल में फंसता उनमें से कुछ विमान सीधा कैदियों के प्रदेश में आकर फंसता। एक ऐसा कैद जिसकी कल्पना भी कोई कर नही सकता।

यदि एक नजर इस विशेष प्रकार की कैद पर डाले तो.... कैदियों के प्रदेश के 2 रास्ते थे। एक सीधा रास्ता अर्थात पृथ्वी पर फैले महासागर का लाखों वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र और दूसरा रास्ता अंतरिक्ष में फैले ब्लैक होल से होकर सीधा महासागर का रास्ता। दोनो ही रास्ते एक दूसरे के ऊपर नीचे थे। इसकी संरचना थोड़ी जटिल थी, जिसे आसान शब्दों में यदि समझा जाये तो पृथ्वी से महासागर के पानी का सतह था और आकाश से भी महासागर के पानी का सतह था।

दोनो ओर से जब नीचे गहराइयों में जाते तब बिलकुल मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। सबसे कमाल यह जीरो प्वाइंट ही था, और समझने में सबसे जटिल। किसी भी सतह से पानी में डूबे हो, फिर वो आकाश के ओर से पानी का सतह हो या फिर पृथ्वी के ओर से पानी का सतह। अनंत गहराई में जाने के बाद पाऊं जमाने वाले तल की उम्मीद तो रहती है। किंतु कैदियों के प्रदेश जाने वाले रास्ते में कोई तल नही था।

आकाश और पृथ्वी के ओर से जो भी कैदियों के प्रदेश जाता था, वहां कोई तल नही था, बल्कि दोनो रास्तों के मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। जीरो प्वाइंट पर पहुंचने के बाद भले ही तल की जगह पानी दिख रहा हो परंतु जीरो प्वाइंट के नीचे नही तैर सकते। इसका सीधा अर्थ था कि यदि कोई आकाश के ओर से आ रहा है तो वह जीरो प्वाइंट पर आने के बाद और नीचे नही जा सकता बल्कि जिस रास्ते नीचे आया है उसी रास्ते ऊपर जायेगा। और यही नियम पृथ्वी के ओर से भी था।

इस जीरो प्वाइंट के आधे किलोमीटर ऊपर या नीचे कुछ नही था, उसके बाद शुरू होती थी 8–10 किलोमीटर की पतले–पतले पर्वत की मीनार। यह मीनार जीरो प्वाइंट के दोनो ओर बिलकुल किसी मिरर इमेज की तरह थे, जो दोनो ओर से एक जैसे बनावट की थी। कैदियों के प्रदेश में ऐसी मीनारें लाखो किलोमीटर में फैले हुये थे। पर्वत के इन्ही मिनारों के बीच ऊपर से लेकर नीचे तक कई छोटे–छोटे गुफा बने थे, जिनमे कैदी रहते थे।

यहां फसने वालों की संख्या अरबों में थी। जिन्हे पूरा क्षेत्र घूमने की पूरी छूट थी। अपनी रिहाई की मांग करने की भी पूरी छूट थी। विजयदर्थ ऐसा नहीं था कि किसी को जबरदस्ती रोक के रखता। बस उसका यही कहना था कि... “हम नही होते तो तुम्हारी मृत्यु लगभग तय थी, इसलिए कोई भी एक छोटा सा काम कर दो और बदले में अपनी रिहाई ले लो।”...

हां और यह भी सत्य था कि काम उन्हे छोटे–छोटे ही मिलते थे। जैसे कुर्सी बनाना, मनोरंजन करना, इत्यादि इत्यादि। परंतु महासागर की वह ऐसी कैद थी जहां महासागर का कोई तल ही नही था। जीरो प्वाइंट के 20 किलोमीटर ऊपर पानी का सतह, और नीचे जीरो प्वाइंट जो पूरा पानी पर खड़ा था। जब कोई संसाधन ही नही तो काम कैसे पूरा होगा। ऊपर से केकड़े जैसा वहां के कैदियों का समुदाय। कहीं से किसी के निकलने की उम्मीद होती तो दूसरे फसे लोग उनका काम बिगाड़ देते।

विजयदर्थ का सारा दिनचर्या कैदियों को सुनने और उन्हे मीनार में जगह देने में चला जाता। कुछ कैदी जो अपनी पूरी उम्र बिताकर मर जाते, उनके बच्चों को महासागरीय शहर में तरह–तरह के काम करने के लिये भेज दिया जाता। महारहरीय साम्राज्य का जितने भी मजदूरों वाले काम थे, वो इन्ही कैदियों से करवाए जाते थे।

देखते–देखते 2 साल से ऊपर हो चुके थे। इस बीच विजयदर्थ ने अपनी एक और पत्नी और अपने एक और बेटे की मृत्यु को भी देखा। हृदय कांप सा गया। मन में लगातार वियोग सा उठता और एक ही सवाल दिमाग में घूमता... “और कितने दिन उसे श्राप को झेलना होगा?” इस दौरान विजयदर्थ के लिये एक ही खुशी की बात थी, महाती ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसके साथ आर्यमणि का लगाव अतुलनीय था।

हर सभा में आर्यमणि सबके साथ बैठता लेकिन वह पूर्णतः मौन ही रहता। जबसे वसीकरण हुआ था, तबसे आर्यमणि ने एक शब्द भी नही बोला था। दिमाग के अंदर एक ही छवि रुकी थी, जो उसे खुश रखती थी। वह यहां रूही के साथ था और उसका पूरा पैक यहीं महासागर की गहराइयों में मजे कर रहा है।

आर्यमणि के मन में एक भ्रम जाल बना हुआ था, जिसमे आर्यमणि उलझा हुआ था। वह पूर्णतः मौन था किंतु मन के भीतर उसकी अपनी ही एक खुशियों की दुनिया थी, और सांसारिक जीवन का सुख वह महाती के साथ भोग रहा था। इन्ही चेतनाओं की दुनिया में एक दिन किसी लड़की ने दस्तक दी। ऐसी दस्तक जिसका इंतजार न जाने कबसे विजयदर्थ और महाती कर रहे थे।
Nice update
 
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