भाग:–70
नजारा अकल्पनीय था। आर्यमणि जितना तेज हो सकता था उतना तेज हमला करता और वह लड़का उस से भी तेज बचते हुये जवाबी हमला करता। तेजी के साथ लगातार पड़ते मुक्कों की आवाज चारो ओर गूंज रही थी। एक तो दम से मारा गया मुक्का उसमे भी बिजली की रफ्तार। आर्यमणि के जिस अंग पर मुक्का लगता वह हिस्सा 4 इंच तक धंस जाता। कुछ ही पल में आर्यमणि का पूरा बदन सूज चुका था। हांफते और बदहाली में वह पीछे हटा और खड़ा होकर अपने दर्द से उबरने की कोशिश करने लगा। शरीर में इतनी क्षति हुई थी कि अब वह हाथों से हील नही हो पा रहा था। आंख की रौशनी बिलकुल धुंधली हो गयी थी और दिमाग अब गहरी निद्रा में जाने के लिये तड़प रहा था। फिर भी आर्यमणि खुद को संभाले अपने नए दुश्मन को समझने की कोशिश कर रहा था, जो अपनी जगह से एक कदम भी इधर–उधर नही हुआ था।
खुद से उम्र में कहीं छोटे एक तिल्लिश्मी बालक को आर्यमणि ने एक बार और ध्यान से देखने की कोशिश की। लेकिन नजर इतनी साफ नही थी कि अब उस बालक का चेहरा अच्छे से देख पाये। फिर निकली आर्यमणि के मुंह से दिल दहला देने वाली आवाज। यूं तो इस आवाज का दायरा सीमित था, लेकिन सीमित दायरे में गूंजी ये आवाज किसी भयंकर तूफान से कम नही था।बवंडर सी आंधी जिस प्रकार आती है, आर्यमणि की दहाड़ ठीक वैसी ही बवंडर तूफान उठा रहा थे।
आर्यमणि अपना शेप पूर्ण रूप से बदल चुका था। हीरे की भांति चमकीला बदन, विशाल और कठोर। ऐसा लग रहा था चमरी के जगह सीसा रख दिया हो, जिसके नीचे पूरे बदन पर फैले रक्त नलिकाओं को देखा जा सकता था, जिसमे बिलकुल गहरे काला रंग का खून बह रहा था। आर्यमणि अपने विकराल रूम में आ चुका था। उसका बदन पूरी तरह से हील हो चुका था तथा अपनी दहाड़ से उठे बवंडर के बीच एक बार फिर आर्यमणि उस लड़के के सामने खड़ा था।
एक बार फिर मारने की कोशिश अपने चरम पर थी। आर्यमणि पूरी रफ्तार से हमला किया और नतीजा फिर से वही हुआ, काफी तेज रिफ्लेक्स और जवाबी मुक्का उतने ही रफ्तार से लगा। फिर से खेल शुरू हो चुका था, लेकिन इस बार उस लड़के का मुक्का जब भी पड़ता पहले के मुकाबले कमजोर होता। अब तक आर्यमणि उस लड़के को छू भी नहीं पाया था, लेकिन फिर भी इस बार वह लड़का धीमा पड़ता जा रहा था।
आर्यमणि ने हथेली से जितने भी दर्द लिये। जितने भी टॉक्सिक उसने आज तक समेटा था, सब के सब उसके रक्त कोशिकाओं में बह रहा था। जब भी वह लड़का आर्यमणि के बदन पर मुक्का चलाता, ऐसा लगता उसका मुक्का 4 इंच तेजाब में घुस गया हो। ऐसा तेजाब जिसका असर बाद में भी बना रहता। और यही वजह थी कि वह लड़का धीरे–धीरे कमजोर पड़ने लगा था। एक वक्त ऐसा भी आया जब मुक्का तो पड़ रहा था लेकिन अब मानो आर्यमणि के शरीर को मात्र स्पर्श जैसा महसूस हो रहा हो। हां उस लड़के के रिफ्लेक्स अब भी काफी तेज थे। आर्यमणि उसे छू नही पा रहा था लेकिन जवाबी मुक्का भी अब बेअसर सा दिख रहा था।
कुछ वक्त बिताने के बाद आर्यमणि के हाथ अब मौका आ चुका था। पूर्ण रूप से तैयार आर्यमणि ने पूरे दहाड़ के साथ एक तेज हमला किया। आर्यमणि के हमले से बचने के लिये वह लड़का मुक्के के दिशा से अपने शरीर को किनारे किया और जैसे ही अपना मुक्का चलाया, ठीक उसी वक्त आर्यमणि ने अपना दूसरा मुक्का उस लड़के के मुक्के पर ही दे मारा। लागातार टॉक्सिक से टकराने के कारण उस लड़के का मुक्का पहले ही धीमा पड़ गया था, और उसके पास इस बार आर्यमणि के मुक्के से बचने का कोई काट नही था।
एक सम्पूर्ण जोरदार मुक्का ही तो पड़ा था और वह कहावत सच होती नजर आने लगी... "100 चोट सोनार की, एक चोट लोहार की"…. ठीक उसी प्रकार आर्यमणि के एक जोरदार मुक्के ने उस लड़के को हक्का बक्का कर दिया। वो तो शुक्र था कि उस लड़के ने ना तो सामने से मुक्का में मुक्का भिड़ाया था और न ही आर्यमणि का जब मुक्का उसके कलाई के आस–पास वाले हिस्से में लगा, तो उस हिस्से के ठीक पीछे कोई दीवार या कोई ऐसी चीज रखी हो जो रोकने का काम करे। यदि आर्यमणि के मुक्के और किसी दीवार के बीच उस बालक का वो कलाई का हिस्सा आ गया होता, तब फिर सबूत न रहता की उस हाथ में पहले कभी कलाई या उसके नीचे का पंजा भी था।
आर्यमणि का मुक्का पड़ा और उस लड़के का हाथ इतनी तेजी से हवा में लहराया की उसके कंधे तक उखड़ गये। हवा में लहराने से उसकी सारे नशे खींच चुकी थी। दवाब के कारण उसके ऊपरी हाथ में कितने फ्रैक्चर आये होंगे ये तो उस लड़के का दर्द ही बता रहा होगा लेकिन जिस हिस्से में आर्यमणि का मुक्का लगा वह पूरा हिस्सा झूल रहा था। दर्द और पीड़ा से वह लड़का अंदर ही अंदर पागल हो चुका था। एक हाथ ने पूरा काम करना बंद कर दिया था, लेकिन जज्बा तो उसका भी कम नही था। बिना दर्द का इजहार किये वह लड़का अब भी अपने जगह पर ही खड़ा था। न तो वह अपनी जगह से हिला और न ही लड़ाई रोकने के इरादे से था।
आर्यमणि हमला करना बंद करके 2 कदम पीछे हुआ... "जितना वक्त लेना है, लेकर खुद को ठीक करो।"..
वह लड़का अपने कमर से एक खंजर निकालते.... "तुम्हारी तरह खुद को मैं ठीक नही कर सकता लेकिन तैयार हूं।"… इतना कहकर उस लड़के ने आर्यमणि को आने का इशारा किया। फिर से वही तेज–तेज हमले का सिलसिला शुरू हो गया। अब वह लड़का खंजर थाम ले या बंदूक। उसके दोनो हाथ के मुक्के ने आर्यमणि के बदन का इतना टॉक्सिक छू लिया था कि अब वह काम करने से तो रहा। मात्र एक पंच का तो मामला था, आर्यमणि जाते ही एक मुक्का घूमाकर दे दिया। उस लड़के का दूसरा हाथ भी पूरा बेकार हो चुका था।
एक बार फिर आर्यमणि अपना कदम पीछे लिया। 2 कदम नहीं बल्कि पूरी दूरी बनाकर अब उसकी हालत का जायजा ले रहा था और उस लड़के को भी पूरा वक्त दिया, जैसे की उसने पहले आर्यमणि को दिया था। वह लड़का दर्द में भी मुस्कुराया। दोनो हाथ में तो जान बचा नही था, लेकिन फिर भी आंखों के इशारे से लड़ने के लिये बुला रहा था। आर्यमणि अपना कदम आगे बढ़ाते…. "जैसे तुम्हार मर्जी"…कहने के साथ ही अपनी नब्ज को काटकर तेज फूंक लगा दिया।
अंदर की फूंक बहुत ज्यादा तेज तो नही लेकिन तेज तूफान उठ चुका था। खून की बूंदें छींटों की तरह बिखर रही थी। तूफान के साथ उड़ते छींटे किसी घातक अम्लीय वर्षा से कम न था। लेकिन उस लड़के का रिफ्लेक्स.… आती हुई छींटों को भी वह किसी हथियार के रूप में देख रहा था। किंतु वह लड़का भी क्या करे? यह एक दिशा से चलने वाला कोई मुक्का नही था, जो अपने रिफ्लेक्स से वह लड़का खुद को मुक्के की दिशा से किनारे कर लेता। चाहु दिशा से आर्यमणि का रक्त बारिश चल रहा था। कुछ छींटों से तो बच गया, लेकिन शरीर के जिस हिस्से पर खून की बूंद गिरी, वह बूंद कपड़े समेत शरीर तक में छेद कर देता। ऐसा लग रहा था आर्यमणि ने उस लड़के के पूरे बदन में ही छेद–छेद करने का इरादा बना लिया था।
बड़े आराम से आर्यमणि अपना एक–एक कदम आगे बढ़ाते हुये, अपने फूंक को सामने की निश्चित दिशा देते बढ़ रहा था। आर्यमणि उस लड़के के नजदीक पहुंचकर फूंकना बंद किया और अपनी कलाई को पकड़ कर हील किया। आर्यमणि पहली बार उस लड़के के भावना को मेहसूस कर रहा था। असहनीय पीड़ा जो उसकी जान ले रही थी। अब कहां इतना दम बचा की खुद को बचा सके। हां किंतु आर्यमणि उसे अपने तेज हथौड़े वाला मुक्के का स्वाद चखाता, उस से पहले ही वह लड़का बेहोश होकर धम्म से गिर गया।
आर्यमणि इस से पहले की आगे कुछ सोचता उसके पास 2 लोग और पहुंच चुके थे.… "आर्य इसे जल्दी से उठा, और कॉटेज लेकर चल"….. यह आवाज सुनकर आर्यमणि के चेहरे पर जैसे मुस्कान आ गयी हो। मुड़कर देखा तो न केवल वहां निशांत था, बल्कि संन्यासी शिवम भी थे। आर्यमणि के चेहरे की भावना बता रही थी की वह कितना खुश था। लेकिन इस से पहले की वह अपनी भावना जाहिर करता, निशांत दोबारा कह दिया... "गधे, भरत मिलाप बाद में करेंगे, पहले उस लड़के की जान बचाओ और कॉटेज चलो"…
आर्यमणि, उस लड़के को अपने गोद में उठाकर, उसके जख्म को हील करते कॉटेज के ओर कदम बढ़ा दिया... "ये मेरा कोई टेस्ट था क्या?"..
निशांत:– हां कह सकते हो लेकिन टेस्ट उस लड़के का भी था।
आर्यमणि:– क्या ये तुम लोगों में से एक है?
संन्यासी शिवम:– हां हम में से एक है और इसे रक्षक बनना था इसलिए अपना टेस्ट देने आया था।
आर्यमणि:– ये रक्षक क्या होता है?
संन्यासी शिवम:– साथ चलो, हमारे आचार्य जी आ चुके है वो सब बता देंगे...
सभी कॉटेज पहुंचे। कॉटेज में भरा पूरा माहोल था। मीटर जितनी सफेद दाढ़ी में एक वृद्ध व्यक्ति के साथ कुछ संन्यासी और योगी थे। एक प्यारी सी किशोरी भी थी, जो उस लड़के को मूर्छित देखते ही बेहोश हो गयी। शायद उसे किसी प्रकार का पैनिक अटैक आया था। संन्यासी शिवम के कहने पर आर्यमणि ने उस लड़की का भी उपचार कर दिया। दोनो किशोर गहरी निद्रा में थे। आर्यमणि दोनो को ऊपर लिटाकर नीचे सबके बीच आया।
आर्यमणि, अपने दोनो हाथ जोड़ते... "यहां चल क्या रहा है? वो लड़का कौन है जिसे मरना पसंद था लेकिन अपनी जमीन उसने छोड़ा नहीं। क्या आप लोग भी प्रहरी तो नही बनते जा रहे, जो इंसानों को ही हथियार बना रहे हो।
निशांत:– कोई भी बात समझ ले न पहले मेरे भाई..
आर्यमणि:– समझना क्या है यार... कभी किसी जानवर का दर्द लो और उसे सुकून में देखो। तुम्हारी अंतरात्मा तक खुश हो जायेगी। वो एहसास जब तुम बेजुबानों के आंखों में अपने प्रति आभार मेहसूस करते देखते हो। मुख से कुछ बोल नही सकते लेकिन अपने रोम–रोम से वह धन्यवाद कहते है। जान लेना आसान है, पर जान बचाने वाले से बढ़कर कोई नही...
निशांत:– मुझ पर हमला होते देख तुमने तो कई लोगों की कुरुरता से जान ले ली थी। जिसकी तू बात कर रहा है उसके आंखों के सामने उसकी मां को जिंदा आग की भट्टी में झोंक दिया। लोग यहां तक नही रुके। जिसके साथ पढ़ा था, हंसा, खेला, और पूरे साल जिनके साथ ही रहता था, उतने बड़े परिवार को एक साथ आग की भट्टी में झोंक दिया। उसे कैसा होना चाहिए? तूने उस लड़के की उम्र देखी न, अब तू ही तय कर ले की उसकी मानसिकता कैसी होनी चाहिए?
आर्यमणि कुछ देर खामोश रहने के बाद.… "तो क्या वो मेरे हाथ से मारा जाता तो उसका बदला पूरा हो जाता? या फिर मुझे कहते बदला लेने?
आचार्य जी:– "उसका नाम अपस्यु है। अपने गुरुकुल काल के दूसरे वर्ष में उसने अपनी सातवी इंद्री जागृत कर ली थी। पांचवे वर्ष में सारी इंद्रियों पर नियंत्रण पा चुका था। हर शास्त्र का ज्ञान। जितनी हम सिद्धियां जानते है उन पूर्ण सिद्धियों का ज्ञान। ये सब उसने गुरुकुल के पांचवे साल तक अर्जित कर लिया था। उसके और हमारे गुरु, गुरु निशी उसे एक रक्षक बनाना चाहते थे। उसका अस्त्र और शस्त्र का प्रशिक्षण शुरू ही होने वाला था कि उसकी जिंदगी ही पूरी बदल गयी।"
"जिस वक्त गुरु निशी की मृत्यु हुई, अपस्यु ही उनका प्रथम शिष्य थे। प्रथम शिष्य यानी गुरु के समतुल्य। अब इसे अपस्यु की किस्मत कहो या नियति, वह अचानक सात्त्विक आश्रम का गुरु बन गया। बीते कुछ महीनों में जिस प्रकार से तुमने योग और तप का आचरण दिखाया, अपस्यु को लग गया कि तुम आश्रम के सबसे बेहतर गुरु बनोगे। एक विशुद्ध ब्राह्मण जो अलौकिक मुहरत में, ग्रहों के सबसे उत्तम मिलन पर एक अलौकिक रूप में जन्म लिये।"
"मैने ही उनसे कहा था कि आर्यमणि एक रक्षक के रूप में ज्यादा विशेष है और उसका अलौकिक जन्म भी उसी ओर इशारा कर रहे। अपस्यु नही माना और कहने लगा "यदि वो बिना छल के केवल अपने शारीरिक क्षमता से तुम्हे हरा देगा, तब हमे उसकी बात माननी होगी।" अपस्यु, तुम्हारे सामने नही टिक पाया और रक्षक न बनने के मलाल ने उसे अपनी जगह से हिलने नही दिया।
आर्यमणि:– छल मतलब कैसा छल करके जीत जाते...
निशांत:– ठीक वैसे ही जैसे पारीयान के तिलिस्म में हमने अनजाने में उस शेर को छला था, भ्रम से। कई तरह के मंत्र से। और वो तो आश्रम के गुरुजी हुये, उसके पास तो वो पत्थर भी है जो तुम्हे बांध दे। यहां के पत्थरों के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रभावशाली।
आर्यमणि:– और वो लड़की कौन थी.. जो इस बालक गुरुजी को देखकर बेहोश हो गयी।
निशांत:– उसकी परछाई.. उसकी प्रीयसी... अवनी.. वह गुरुजी को बेहोशी की हालत में घायल देख ले, फिर उसकी स्थिति मरने जैसी हो जाती है...
"इतनी छोटी उम्र में ऐसा घनिष्ठ रिश्ता... अतुलनीय है..."… आर्यमणि इतना कहकर निशांत को खींचकर एक थप्पड़ लगा दिया...
निशांत:– अब ये क्यों?
आर्यमणि:– घर के अंदर आते ही ताक झांक करने और उन 40 पत्थरों को देखने के लिये, जिसे मैंने अब तक न दिखाया था...
निशांत:– मैने कब देखा उसे...
आर्यमणि:– अच्छा इसलिए थोड़ी देर पहले मुझे कह रहा था की बालक गुरुजी के पास ऐसे पत्थर है जो मेरे पास रखे पत्थरों के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रभावशाली..
निशांत:– पकड़ लिया तूने... वैसे गलती हमारी नही है। ऐसे पत्थर को जबतक सही तरीके से छिपा कर नही रखोगे वह अपने पीछे निशान छोड़ती है।
आर्यमणि:– क्या मतलब निशानी छोड़ती है...क्या इस पत्थर के सहारे इसका मालिक यहां तक पहुंच सकता है...
आचार्य जी:– अब नही पहुंचेगा... सभी निशानी को मिटाकर एक भ्रमित निशान बना दिया है जो दुनिया के किसी भी कोने में पत्थर के होने के संकेत दे सकते है। शुक्र है ये पत्थर पानी के रास्ते लाये वरना कहीं हवा या जमीनी मार्ग से लाते तब तो इसका मालिक कबका न पहुंच गया होता।
आर्यमणि:– कमाल के है आप लोग। निशांत ने अभी कहा कि बालक गुरुजी बिना छल के लड़े, तो उनका शरीर हवा जैसा लचीला क्यों था?
आचार्य जी:– तुम्हारा शरीर भी तो एक प्राकृतिक संरचना ही है ना, फिर तुम कैसे रूप बदलकर अपने शरीर की पूरी संरचना बदल लेते हो। ये शरीर अपने आप में ब्रह्म है। इसपर जितना नियंत्रण होगा, उतना ही विशेष रूप से क्षमताओं को निखार सकते है।
आर्यमणि:– एक बात बताइए की जब आपके पास सब कुछ था। अपस्यु जब अपने शिक्षा के पांचवे वर्ष सारी सिद्धियां प्राप्त कर लिया था। फिर उसकी मां, गुरुजी, ये सब कैसे मर गये। क्या अपस्यु इन सबकी रक्षा नही कर सकता था?
आचार्य जी:– होने को तो बहुत कुछ हो सकता था लेकिन गुरु निशी किसी साजिश का शिकार थे। भारे के कातिल और सामने से मारने वाले में इतना दम न था। किसी ने पीछे से छल किया था जिसके बारे में अब पता चला है... अपस्यु के साथ में परेशानी यह हो गयी की वह बहुत छोटा था और मंत्रों का समुचित प्रयोग उस से नही हो पाया।
आर्यमणि:– सारी बात अपनी जगह है लेकिन बिना मेरी सहमति के आप मुझे रक्षक या गुरु कैसे बना सकते है। बताओ उस लिलिपुटियन (अपस्यु) ने मुझे ऐसा मारा की मेरे शरीर के पुर्जे–पुर्जे हिला डाले। यदि मैंने दिमाग न लगाया होता तब तो वह मुझे पक्का घुटनों पर ला दिया होता। उसके बाद जब मैंने उसके दोनो कलाई तोड़ डाले फिर भी वह अपनी जगह छोड़ा नहीं। बताओ कहीं मैं सीने पर जमाकर एक मुक्का रख दिया होता तो। और हां मैं अपने पैक और ये दुनिया भ्रमण को छोड़कर कुछ न बनने वाला। रक्षक या गुरु कुछ नही। बताओ ये संन्यासी शिवम, इनके साथ और न जाने कितने महर्षि और योगी है, जो आश्रम का भार संभाल सकते हैं लेकिन आप आचार्य जी उस बच्चे को छोड़ नही रहे। उल्टा मैं जो आपके कम्युनिटी से दूर–दूर तक ताल्लुक नहीं रखता, उसे गुरु या रक्षक बनाने पर तुले हो।
आचार्य जी:– बातें बहुत हो गयी। मैं तुम्हे रक्षक और गुरु दोनो के लिये प्रशिक्षित करूंगा। और यही अपस्यु के लिये भी लागू होगा। मुझे समझाने की जरूरत नहीं की क्यों तुम दोनो ही। अपस्यु जानता है कि वही गुरु क्यों है। अब तुम्हारी बारी... अपने क्ला मेरे मस्तिष्क में डालो...
आर्यमणि:– हो ही नही सकता... मैने रूही से वादा किया है कि ज्ञान पाने के लिये कोई शॉर्टकट नही...
आचार्य जी:– तुम्हारे पास जो है वो अलौकिक वरदान है। इस से समाज कल्याण के लिये ज्ञान दे रहा हूं। तुम्हारी मर्जी हो तो भी ठीक, वरना जब तुम्हे ज्ञान होगा तब खुद ही समझ जाओगे की क्यों हमने जबरदस्ती किया?
आर्यमणि:– रुको तिलिस्मी लोगो, मैं अपनी मर्जी से क्ला डालता हूं। पहले लिथेरिया वुलापीनी का इंजेक्शन तो लगा लेने दो...
आचार्य जी:– उसकी जरूरत नही है। बहुत कुछ तुम अपने विषय में भी नही जानते, उसका अध्यन भी जरूरी है।... तुम्हारे क्ला अंदर घुसने से मैं वेयरवोल्फ नही बन सकता... डरो मत...
आर्यमणि:– ये तो नई बात पता चल रही है। ठीक है जैसा आप कहो...
आर्यमणि अपनी बात कहते क्ला को उनके गले के पीछे डाल दिया। लगभग एक दिन बाद आर्यमणि की आंखें खुल रही थी। जब उसकी आंखें खुली चेहरे पर मुस्कान और आंखों में आचार्य जी के लिये आभार था।
आर्यमणि:– आचार्य जी मुझे आगे क्या करना होगा...
आचार्य जी:– तुम्हे अपने अंदर के ज्ञान को खुद में स्थापित करना होगा।
आर्यमणि:– मतलब..
गुरु अपस्यु के साथ वाली लड़की अवनी.… "आचार्य जी के कहने का मतलब है सॉफ्टवेयर दिमाग में डाल दिया है उसे इंस्टॉल कीजिए तब जाकर सभी फाइल को एक्सेस कर पायेंगे।"..
आर्यमणि:– तुम दोनो कब जागे... और आज कुछ नये चेहरे भी साथ में है।
आचार्य जी:– हम लोगों के निकलने का समय हो गया है। आर्यमणि तुम जीवन दर्शन के लिये निकले हो, अपने जीवन का अनुभव के साथ अपनी सारी सिद्धियां प्राप्त कर लेना। जीवन का ज्ञान ही मूल ज्ञान है, जिसके बिना सारी सिद्धियां बेकार है। प्रकृति की सेवा जारी रखना। ये तुम्हारे वायक्तिव, और पाने वाले सिद्धियों को और भी ज्यादा निखारेगा। हम लोग जा रहे है, बाकी दोनो गुरुजी आपस में जान पहचान बना लो।
आर्यमणि:– और निशांत...
निशांत:– अभी मेरी तपस्या अधूरी है। आचार्य जी ने एक दिन का विश्राम दिया था। वो आज पूरा हो गया।
संन्यासी शिवम ने वहीं से पोर्टल खोल दिया। सभी लोग उस पोर्टल के जरिये निकल गये, सिवाय अपस्यु और उसके साथ के कुछ लोगों के। आर्यमणि, अपस्यु के साथ जंगलों के ओर निकला... "और छोटे गुरु जी अपने साथ मुझे भी फसा दिये।"..
क्या गजब का अपडेट दिया हैं नैन भाई
दिल गार्डन गार्डन हों गया आज तो
वो बंदा अपस्यू था उसे ऋषियों ने भेजा था आर्य की ताकत आजमाने के लिए लेकिन आर्य ने असली रुप में आकर अपने आप को बचा लिया नहीं तो यह लिलिपुटियां ठिकाने लगा देता आर्य को
ये ऋषि ने ऐसा क्यूं कहा आर्य से की तुम अपने बारें में कुछ भी नहीं जानते इसका क्या मतलब हैं नैन भाई
यह अपस्यू ओर उसके आश्रम के साथ बहुत बुरा हूआ भाई इनके पिछे प्रहरी हीं हैं अब इनके भी बुरे दिन आ गए हैं दों महारथी एक साथ हों गए गुरुजी की वजह से
ये आर्य ने गुरूजी के दिमाग से कितना ज्ञान लिया जों बंदा पुरें दिन सोता रहा था और यह जीवन दर्शन कोन है जो आगे उसके बहुत काम आने वाले हैं
ये पड़ा निशांत को थप्पड़ पड़ना ही चाहिए ससूरा इतने दिनों से हाय हैलो भी नहीं ओर आज आया तो सीधा तांक झांक साला पक्का खोजी का किड़ा घुस गया अभी से ट्रैनिंग भी पुरी नहीं हुई अभी तो उसकी
आर्य कैसे आचार्य के ज्ञान को सीध करेगा क्यूंकि मंत्र का ज्ञान होना हीं काफी नहीं हैं मंत्रों को सिद्ध करना पड़ता हैं इसमें शायद अपस्यू मदद करें
बहुत ही शानदार लाजवाब अपडेट नैन भाई