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Adultery C. M. S. [Choot Maar Service] ( Completed )

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,800
117,444
354
विक्रम ने इन एक सालों के दौरान बहुत सारी महिलाओं के साथ सेक्स किया लेकिन धीरे-धीरे उसका मन उचटता सा जा रहा है ऐसे कामों से । उसे तलाश है एक ऐसी लड़की की जिसके साथ वो अपनी जिंदगी शकून से बिता सकें ।
सही ही है उसके लिए । ऐसी जिंदगानी टेंशन और बिमारी के करीब लाती है । लेकिन क्या वो संस्था छोड़ सकता है ? क्योंकि बिना संस्था छोड़े शकून तो मिलनी नहीं है । और अगर संस्था छोड़ा तो संस्था वाले उसे आसानी से जीने नहीं देंगे ।
Sahi kaha, aisi sanstha se judna kisi daldal me fans jane jaisa hota hai. Khair dekhiye kya hota hai,,,:?:
मां बाप के मैरिज सेरेमनी में उसके माता-पिता के दोस्तों का अपनी-अपनी पत्नी के साथ पुरी रात रूकने का फैसला संदेहास्पद लग रहा है । कहीं वो लोग स्वैपिंग क्लब के मेम्बर तो नहीं ?
लगता है कुछ बड़ा ही होने वाला है इस रात !
Ab ye to next update me hi pata chalega bhaiya ji,,,:D
बहुत ही बेहतरीन अपडेट शुभम भाई ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग ।
Shukriya bhaiya ji is khubsurat sameeksha ke liye,,,,:hug:
Time ki bahut zyada kami hai is liye update late aa rahe hain. Meri koshish rahegi ki jald hi ye kahani samaapt ho jaye,,,,:yo:
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,800
117,444
354
अध्याय - 21
_______________


अब तक....

ऐसा पहली बार ही हुआ था कि मेरे दोस्तों के पेरेंट्स एक साथ मेरे मम्मी पापा के कमरे में इतनी रात को मौजूद थे। इसके पहले वो जब भी मेरे घर आते थे तो वो ड्राइंग रूम में ही बैठते थे। हालांकि आंटी लोग मां के कमरे में गपशप के लिए एक साथ ही उनके कमरे में चली जाती थीं। नशे के शुरूर में मुझे ज़्यादा कुछ समझ भी नहीं आ रहा था लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं आवाज़ें सुन कर ऊपर जाने की बजाय वापस नीचे उतर आया और मम्मी पापा के कमरे की तरफ बढ़ चला।

अब आगे...


कुछ ही पलों में मैं मम्मी पापा के कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच चुका था। मैं शराब के हल्के नशे में ज़रूर था किन्तु होशो हवाश में था। दरवाज़े के पास आ कर मैं अंदर की आवाज़ें सुनने की कोशिश करने लगा। कुछ देर तक अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई। ऐसा लग रहा था जैसे अंदर मौजूद हर शख़्स बेजुबान हो गया हो लेकिन अगले ही पल मेरा ये ख़याल ग़लत साबित हो गया। अंदर से पापा की आवाज़ आई। उनके लहजे से ऐसा लगा जैसे वो सभी से कह रहे हों कि इस बारे में कल हम सब ऑफिस में बात करेंगे।

मैं समझने की कोशिश करने लगा था कि आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए पापा उन सब को ऑफिस में ही बात करने को कह रहे थे? अभी मैं ये समझने की कोशिश ही कर रहा था कि तभी संजय अंकल की आवाज़ आई।

"तुम बेवजह ही इतना सोच रहे हो यार।" संजय अंकल ने कहा____"क्या तुम्हें अपनी आँखों से नहीं दिख रहा और क्या तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं हो रहा कि हमारे बच्चे अब पहले जैसे नहीं रहे? बल्कि वो सब के सब बदल गए हैं। मैं अच्छी तरह जांच परख कर चुका हूं उन सबकी। मेरे आदमियों ने उन सबके बारे में यही रिपोर्ट दी है कि वो अब पहले की तरह शर्मीले नहीं रहे, बल्कि अब वो हर किसी का बेझिझक हो कर सामना कर सकते हैं।"

"संजय सही कह रहा है अवधेश।" ये शेखर के पापा जीवन अंकल की आवाज़ थी____"और फिर तुम ये क्यों भूल रहे हो कि उनकी मेच्योरिटी का सबूत भी है हमारे पास।"

"मुझे लगता है उन्हें थोड़ा और टाइम देना चाहिए।" मेरी मम्मी की आवाज़____"ये सब इतना आसान नहीं है। कहने और करने में बहुत फ़र्क होता है।"
"अभी और कितना टाइम दे हम उन्हें?" संजय अंकल ने कहा____"टाइम देते देते तो इतना टाइम निकल गया है तो अभी और कितना टाइम देंगे उन्हें?"

"बस, बहुत हुआ।" पापा की आवाज़____"मैंने कहा न कि इस बारे में कल ऑफिस में बात करेंगे। ये वक़्त इन सब बातों का नहीं है। माधुरी इन लोगों को इनके कमरे दिखा दो।"

पापा की इस बात के बाद किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं भी समझ गया कि अब वो सब कमरे से बाहर निकलने वाले हैं इस लिए मैं दबे पाँव सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और ऊपर अपने कमरे में आ गया।

बेड पर लेटा मैं उन सबकी बातों के बारे में ही सोच रहा था। उनकी बातों से इतना तो मैं जान गया था कि वो सब मेरे और मेरे दोस्तों के बदले हुए स्वभाव के बारे में बात कर रहे थे लेकिन ये नहीं समझ पा रहा था कि हमारे बदले हुए स्वभाव के चलते वो आख़िर करना क्या चाह रहे थे? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए वो सब पापा से इस बारे में बात करते हुए ज़ोर दे रहे थे? जाने कब तक मैं इसी बारे में सोचता रहा और पता नहीं कब मेरी आँख लग गई।

सुबह मेरी आँख खुली तो मैं सबसे पहले फ्रेश हुआ और फिर नास्ते के लिए बाहर आ गया। बाहर आया तो देखा डाइनिंग टेबल पर मम्मी पापा के साथ मेरे दोस्तों के पेरेंट्स भी बैठे हुए थे। उनमें ज़फर के पेरेंट्स नहीं थे। ख़ैर मैंने सबको नमस्ते किया और संजय अंकल के बुलाने पर मैं उनके बगल वाली कुर्सी पर ही बैठ गया। उनके दूसरे बगल में उनकी वाइफ यानी रंजन की मम्मी बैठी थी। रंजन की मम्मी का नाम रेणुका था।

नास्ते के वक़्त सामान्य बात चीत ही चल रही थी। अंकल लोगों ने मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बेहतर बताया। नास्ते के बाद पापा के साथ ही सब लोग चले गए। मुझे दो तीन दिन यहीं रुकना था इस लिए मैं मम्मी से बोल कर बाहर निकल गया।

मेरे ज़हन में कल रात की बातें ही चल रहीं थी और मेरे मन में ये जानने की बेहद उत्सुकता जाग उठी थी कि आख़िर वो सब किस बारे में बातें कर रहे थे? मैं सोचने लगा था कि आख़िर अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए किस तरह से सच का पता लगाया जाए? मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्यों न पापा और अंकल लोगों की जासूसी की जाए।

☆☆☆

"साहब जी घर नहीं जाना क्या आपको?" शिवकांत वागले के कानों में ये आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान विक्रम सिंह की डायरी से टूटा और उसने नज़र उठा कर केबिन के दरवाज़े के पास खड़े श्याम की तरफ देखा।

"हर रोज़ आप समय से घर चले जाते थे।" वागले को अपनी तरफ देखता देख श्याम ने झिझकते हुए कहा____"जबकि आज अभी भी आप यहीं पर है। मैंने सोचा आप किसी ज़रूरी काम में ब्यस्त होंगे इस लिए आपको दखल देखा उचित नहीं समझा था मैंने।"

श्याम की बात सुन कर वागले हल्के से चौंका और उसने अपने बाएं हाथ में बंधी घड़ी पर टाइम देखा तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। उसे पहली बार महसूस हुआ कि वो सच में आज अपने समय से ज़्यादा यहाँ पर रुक गया था। ज़ाहिर इसकी वजह विक्रम सिंह की डायरी ही थी। ख़ैर उसने एक गहरी सांस ली और डायरी को बंद कर के उसे ब्रीफ़केस में रखा।

"अच्छा हुआ कि तुमने हमें याद दिला दिया श्याम।" वागले ने एक नज़र सिपाही श्याम की तरफ डालते हुए कहा____"हम सच में एक ज़रूरी काम में ही ब्यस्त थे जिसकी वजह से हमें वक़्त का पता ही नहीं चला। ख़ैर चलो, सुबह मिलते हैं।"

वागले अपना ब्रीफ़केस ले कर कुर्सी से उठा और केबिन से बाहर की तरफ बढ़ चला। श्याम ने उसे सैल्यूट किया जिसका जवाब उसने अपने सिर को हल्का सा ख़म कर के दिया और जेल की लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए बाहर निकल गया। मन ही मन वो ये सोचता जा रहा था कि वो वाकई में विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने में इतना खो गया था कि उसे समय का ज़रा भी एहसास नहीं हुआ।

वागले घर पंहुचा तो सावित्री ने ही दरवाज़ा खोला। अपनी खूबसूरत बीवी को देख कर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई थी। सावित्री भी उसे देख कर मुस्कुराई थी। अंदर आने के बाद ड्राइंग रूम में उसे अपने दोनों बच्चे नज़र आए जिन्हें देख कर वो मुस्कुराया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

रात में डिनर करने के बाद वागले अपने बेड पर लेटा हुआ था। उसके ज़हन में बार बार यही सवाल उठ रहे थे कि विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्त लोग आख़िर किस बारे में ऐसी बातें कर रहे थे? उन सबके बच्चों का अगर स्वभाव बदल गया था तो इसमें ऐसी कौन सी बात हो गई थी जिसके लिए वो आपस में ऐसी बातें कर रहे थे? वागले को याद आया कि डायरी में विक्रम सिंह के ज़हन में भी यही सवाल उभरे थे और इन सभी सवालों के जवाब तलाशने के लिए उसने अपने पिता की जासूसी करने का सोच लिया था। विक्रम सिंह की तरह अब वागले के मन में भी ये जानने की तीव्र उत्सुकता बढ़ गई थी कि आख़िर विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुई थी? आख़िर अपने बच्चों के प्रति उन सबके मन में कौन सी बातें थी?

वागले काफी देर तक इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा। सावित्री के आने के बाद उसने उन सारी बातों को अपने ज़हन से निकाला और सावित्री को अपनी बाहों में भर कर उसके होठों को चूमने लगा था। जल्द ही दोनों के बीच प्यार का खेल शुरू हो गया। आज सावित्री ने खुल कर वागले का साथ दिया था और उसने वागले को वास्तव में खुश कर दिया था। वागले तो पहले से ही अपनी बीवी का दिवाना था इस लिए उसने उसे खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके बाद दोनों ही गहरी नींद में सो गए थे।

सुबह वागले अपने समय पर जेल में अपने केबिन में पहुंचा। सारे कामों से फुर्सत होने के बाद उसने विक्रम सिंह की डायरी निकाली और उस जगह से आगे पढ़ना शुरू किया जहां तक वो पढ़ चुका था।

☆☆☆

मैं अच्छी तरह जानता था कि अपने पिता की जासूसी करना अच्छी बात नहीं थी लेकिन क्योंकि मेरे मन में अब ये जानने की उत्सुकता हद से ज़्यादा बढ़ गई थी कि आख़िर उनके और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुईं थी और आज वो ऑफिस में क्या बातें करने वाले थे?

मुख्य सड़क पर आ कर आ कर मैंने एक ऑटो वाले को रुकने का इशारा किया। ऑटो जैसे ही रुका तो मैंने उसे अपने पापा की कंपनी का पता बता कर चलने को कहा तो वो फ़ौरन ही चल पड़ा। मेरा दिल ये सोच सोच कर तेज़ी से धड़कने लगा था कि मैं अपने ही पिता की जासूसी करने का काम कर रहा हूं। दुर्भाग्य से अगर मेरे पापा को इसका पता चल जाए तो जाने क्या हो?

क़रीब बीस मिनट बाद मैंने ऑटो वाले से ऑटो रोकने के लिए कहा। ऑटो वाले को मैंने उसका किराया दिया तो वो चला गया। मैंने पापा की कंपनी के पहले ही ऑटो रुकवा दिया था। मैंने आस पास नज़र घुमाई तो बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स ही नज़र आईं, जिनमें न जाने कितने ही प्रकार के ऑफिस खुले हुए थे। दाहिनी तरफ की बिल्डिंग के शीर्ष पर अनुपमा लिखा हुआ था। उसी बिल्डिंग में मेरे पापा का ऑफिस था। मैंने एक गहरी सांस ली और उस बिल्डिंग की तरफ चल पड़ा। एकदम से मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर पापा मुझे वहां पर देखेंगे तो मुझसे क्या कहेंगे? मैंने इस बारे में कुछ देर सोचा और कुछ ही पलों में मैंने बहाना तैयार कर लिया।

ऑफिस में ज़्यादातर लोग मुझे पहचानते थे क्योंकि इसके पहले मैं पापा के साथ आता था और काम के बारे में सारी चीज़ें सीखता था। ख़ैर मैं बिल्डिंग में दाखिल हो गया। मेरा दिल एक बार फिर से तेज़ तेज़ धड़कने लगा था। पापा ने बताया था कि बिल्डिंग के तीन फ्लोर उन्होंने खरीद रखा है जिसमें उनका हर डिपार्टमेंट काम करता है। असल में यहाँ पर उनकी कंपनी का हेड ऑफिस था। यहीं से सारे कारोबारी मामले देखे जाते थे।

लिफ्ट से मैं ऊपर आया और जैसे ही मैं अंदर पहुंचा तो रिसेप्शन पर बैठी एक खूबसूरत लड़की पर मेरी नज़र पड़ी। वो मुझे देखते ही पहले तो चौंकी फिर मुस्कुराई, जवाब में मैं भी हल्के से मुस्कराया। मैं क्योंकि ज़रूरी काम के सिलसिले में यहाँ आया था इस लिए रिसेप्शनिस्ट से हेलो हाय न करते हुए सीधा पापा के ऑफिस की तरफ बढ़ चला।

पापा के ऑफिस में पहुंचा तो देखा ऑफिस बाहर से लॉक था। मुझे ये जान कर हैरानी हुई कि पापा अपने ऑफिस में हैं ही नहीं। मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि अगर वो घर से ऑफिस के लिए निकले थे तो मुझे यहाँ क्यों नहीं मिले? इस एक सवाल के साथ और भी न जाने कितने सवाल मेरे ज़हन में उभरते चले गए थे जिनका जवाब मेरे पास नहीं था। मैंने सोचा कि हो सकता है कि वो अपने किसी दोस्त के ऑफिस में जाने की बात किए हों। रंजन शेखर और तरुण इन तीनों के पेरेंट्स का अपना अलग अलग कारोबार था तो हो सकता है कि वो इनमें से ही किसी के यहाँ गए हों। मुझे अपना ये ख़याल जंचा लेकिन मेरे पास अब पापा तक पहुंचने का न तो कोई जरिया था और ना ही कोई बहाना। मैं निराश हो कर वापस बाहर निकलने का सोचा तो मेरे ज़हन में एक ख़याल आया कि क्या मुझे रिसेप्शनिस्ट से पापा के बारे में पूछना चाहिए? इस ख़याल के जवाब में मुझे खुद से ही जवाब मिल गया कि पापा भला अपने किसी निजी काम के बारे में एक रिसेप्शनिस्ट को क्यों बताएँगे? कहने का मतलब ये कि मैं पूरी तरह निराश हो कर वहां से निकल गया।

मैं निराश हो कर बाहर आ गया था। पापा के यहाँ न मिलने से मेरे मन में और भी ज़्यादा उत्सुकता भर गई थी। अब मैं हर हालत में जानना चाहता था कि आख़िर मामला क्या है? यही सब सोचते हुए मैंने फिर एक ऑटो किया और इस बार अपने दोस्त रंजन के घर की तरफ चल पड़ा। मेरा ख़याल था कि इस बारे में मुझे रंजन और बाकी दोस्तों से भी बात करनी चाहिए थी। आख़िर ये मामला सिर्फ मेरे बारे में ही बस नहीं था बल्कि मेरे साथ साथ मेरे सभी दोस्तों के बारे में भी था। ख़ैर जल्द ही मैं रंजन के घर पहुंच गया।

"क्या हुआ बे, तू किसी बात से परेशान है क्या?" रंजन के कमरे में जब मैं पहुंचा तो उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा था। मैंने उसे अपने मन की सारी बातें बताई तो वो कुछ देर चुप रहा और फिर बोला कि चलो इस बारे में अपने बाकी दोस्तों से भी बात करते हैं। रंजन के साथ मैं कुछ ही समय में अपने बाकी दोस्तों के साथ अपने पुराने अड्डे पर पहुंच गया। मैंने उन सबसे वो सब बताया जो कल रात मेरे पेरेंट्स के कमरे में उन लोगों के पेरेंट्स ने बात चीत की थी।

"तो इसमें इतना ज़्यादा सोचने की क्या बात है भाई?" तरुण ने कहा____"सबके पेरेंट्स अपने बच्चों के बारे में यही चाहते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य बेहतरीन हो। हो सकता है कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात करते रहे हों।"

"तरुण सही कह रहा है विक्रम।" शेखर ने कहा____"मुझे भी ऐसा ही लगता है। तू बेकार में ही इतना ज़्यादा सोच रहा है।"
"चल मान लिया कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात कर रहे थे।" मैंने अपने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"तो इसके लिए उन्हें अपने बीच मिस्ट्री क्रिएट करने की क्या ज़रूरत थी? अगर बात सिर्फ हमारे ब्राइट फ्यूचर की ही होती तो वो इस बारे में हमसे भी तो बातें कर सकते थे। हम सब तो वैसे भी उनके कारोबार में लग ही गए हैं तो अब इसमें और क्या चाहिए उन्हें? तुम लोग मानो या न मानो लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि उनके मन में कुछ तो ऐसा ज़रूर है जिसे फिलहाल हम समझ नहीं पा रहे हैं।"

"पता नहीं तुझे ऐसा क्यों लगता है।" रंजन ने कहा____"जबकि मुझे भी इसमें ऐसा वैसा कुछ भी नहीं लग रहा। अच्छा अब छोड़ इस बात को, क्यों न हम लोग आज उसी क्लब में चलें और वहां पर नए नए माल के साथ मज़ा करें। उस क्लब की लड़कियों ने ही तो हमारी ज़िन्दगी में खुशियों के चिराग जलाए थे तो क्यों न आज फिर वहीं चला जाए। क्या कहते हो तुम लोग?"

"मैं तो चलने को तैयार हूं भाई।" तरुण ने मुस्कुराते हुए कहा____"काफी टाइम हो गया उस क्लब में गए हुए।"
"मैं भी चलूंगा भाई।" शेखर ने कहा____"आज तो मैं दो दो लड़कियों को एक साथ पेलूंगा।"

"अब तू क्यों ख़ामोश हो गया बे?" रंजन ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"क्या अभी भी उन्हीं बातों के बारे में सोच रहा है?"
"तुम लोग जाओ।" मैंने कहा____"मुझे कुछ काम है इस लिए मैं तुम लोगों के साथ नहीं जा पाऊंगा।"

मेरे इंकार कर देने पर तीनों मेरी तरफ देखने लगे थे। एक दो बार और उन लोगों ने मुझे चलने पर ज़ोर दिया लेकिन मैंने जाने से साफ़ मना कर दिया। उन तीनों के जाने के बाद मैं भी अपने घर चला गया था। मेरे तीनों दोस्तों को उन बातों में कोई मिस्ट्री नज़र नहीं आई थी लेकिन मेरा मन अब भी यही कह रहा था कि कुछ तो बात ज़रूर है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं किस तरीके से इस बारे में सच का पता लगाऊं?

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TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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354
Update - 21
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Ab Tak....

Aisa pahli baar hi hua tha ki mere dosto ke parents ek sath mere mammy papa ke kamre me itni raat ko maujood the. Iske pahle wo jab bhi mere ghar aate the to wo dring room me hi baithte the. Halaaki aunty log mammy ke kamre me gapshap ke liye ek sath hi unke kamre me chali jaati thi. Nashe ke shuroor me mujhe zyada kuch samajh bhi nahi aa raha tha lekin itna zarur hua ki main awaaze sun kar upar jane ki bajaay waapas neeche utar aaya aur mammy papa ke kamre ki taraf badh chala.

Ab Aage....

Kuch hi palo me main mammy papa ke kamre ke darwaze ke paas pahuch chuka tha. Main sharab ke halke nashe me zarur tha lekin hosho hawash me tha. Darwaze ke paas aa kar main andar ki awaaze sunne ki koshish karne laga. Kuch der tak andar se koyi awaaz nahi aayi. Aisa lag raha tha jaise andar maujood har shakhs bejubaan ho gaya ho lekin agle hi pal mera ye khayaal galat saabit ho gaya. Andar se papa ki awaaz aayi. Unke lahje se aisa laga jaise wo sabhi se kah rahe ho ki is bare me kal ham sab office me baat karenge.

Main samajhne ki koshish karne laga tha ki aakhir aisi kaun si baat thi jiske liye papa un sab ko office me hi baat karne ko kah rahe the? Abhi main ye samajhne ki koshish hi kar raha tha ki tabhi sanjay uncle ki awaaz aayi.

"Tum bewajah hi itna soch rahe ho yaar." Sanjay uncle ne kaha____"Kya tumhe apni aankho se nahi dikh raha aur kya tumhe zara bhi andaza nahi ho raha ki hamare bachche ab pahle jaise nahi rahe, balki wo sab ke sab badal gaye hain? Main achhi tarah jaanch parakh kar chuka hu un sabki. Mere aadmiyo ne un sabke bare me yahi report di hai ki wo ab pahle ki tarah sharmile nahi rahe, balki ab wo har kisi ka bejhijhak ho kar saamna kar sakte hain."

"Sanjay sahi kah raha hai awdhesh." Ye shekhar ke papa jeewan uncle ki awaaz thi____"Aur fir tum ye kyo bhool rahe ho ki unki maturity ka saboot bhi hai hamare paas."

"Mujhe lagta hai unhe thoda aur time dena chahiye." Meri mammy ki awaaz____"Ye sab itna asaan nahi hai. Kahne aur karne me bahut fark hota hai."
"Abhi aur kitna time de ham unhe?" Sanjay uncle ne kaha____"Time dete dete to itna time nikal gaya hai to abhi aur kitna time denge unhe?"

"Bas, bahut hua." Papa ki awaaz____"Maine kaha na ki is bare me kal office me baat karenge. Ye waqt in sab baato ka nahi hai. Madhuri in logo ko inke kamre dikha do."

Papa ki is baat ke baad kisi ne kuch nahi kaha. Main bhi samajh gaya ki ab wo sab kamre se baahar nikalne wale hain is liye main dabe paav seedhiyo ki taraf badha aur upar apne kamre me aa gaya.

Bed par leta main un sabki baato ke bare me hi soch raha tha. Unki baato se itna to main jaan gaya tha ki wo sab mere aur mere dosto ke badle huye swabhaav ke bare me baat kar rahe the lekin ye nahi samajh pa raha tha ki hamare badle huye swabhaav ke chalte wo aakhir karna kya chaah rahe the? Aakhir aisi kaun si baat thi jiske liye wo sab papa se is bare me baat karte huye zor de rahe the? Jane kab tak main isi bare me sochta raha aur pata nahi kab meri aankh lag gayi.

Subah meri aankh khuli to main sabse pahle fresh hua aur fir naaste ke liye baahar aa gaya. Baahar aaya to dekha dining table par mammy papa ke sath mere dosto ke parents bhi baithe huye the. Unme zafar ke parents nahi the. Khair maine sabko namaste kiya aur sanjay uncle ke bulane par main unke bagal wali kursi par hi baith gaya. Unke dusre bagal me unki wife yaani ranjan ki mammy baithi thi. Ranjan ki mammy ka naam Renuka tha.

Naatse ke waqt samaanya baat cheet hi chal rahi thi. Uncle logo ne mujhse mere kaam ke bare me puchha to maine unhe behtar bataya. Naaste ke baad papa ke sath hi sab log chale gaye. Mujhe do teen din yahi rukna tha is liye main mammy se bol kar baahar nikal gaya.

Mere zahen me kal raat ki baate hi chal rahi thi aur mere man me ye jaanne ki behad utsukta jaag uthi thi ki aakhir wo sab kis bare me baate kar rahe the? Main sochne laga tha ki aakhir apni utsukta ko shaant karne ke liye kis tarah se sach ka pata lagaya jaye? Mere zahen me khayaal aaya ki kyo na papa aur uncle logo ki jasusi ki jaaye.

☆☆☆

"Sahab ji ghar nahi jana kya aapko?" Shivkant wagle ke kaano me ye awaaz padi to uska dhyaan vikram singh ki diary se toota aur usne nazar utha kar cabin ke darwaze ke paas khade shyam ki taraf dekha.

"Har roz aap samay se ghar chale jate the." Wagle ko apni taraf dekhta dekh shyam ne jhijhakte huye kaha____"Jabki aaj abhi bhi aap yahi par hain. Maine socha aap kisi zaruri kaam me byast honge is liye aapko dakhal dena uchit nahi samjha tha maine."

Shyam ki baat sun kar wagle halke se chaunka aur usne apne baaye haath me bandhi ghadi par time dekha to uske chehre par hairaani ke bhaav ubhre. Use pahli baar mahsoos hua ki wo sach me aaj apne samay se zyada yaha par ruk gaya tha. Zaahir hai iski vajah vikram singh ki diary hi thi. Khair usne ek gahri saans li aur diary ko band kar ke use briefcase me rakha.

"Achha hua ki tumne hame yaad dila diya shyam." Wagle ne ek nazar shipahi shyam ki taraf daalte huye kaha____"Ham sach me ek zaruri kaam me hi byast the jiski vajah se hame waqt ka pata hi nahi chala. Khair chalo, subah milte hain."

Wagle apna briefcase le kar kursi se utha aur cabin se baahar ki taraf badh chala. Shyam ne use salute kiya jiska jawaab usne apne sir ko halka sa kham kar ke diya aur jail ki lambi chaudi raahdari se chalte huye baahar nikal gaya. Man hi man wo ye sochta ja raha tha ki wo waakayi me vikram singh ki kahani padhne me itna kho gaya tha ki use samay ka zara bhi ehsaas nahi hua.

Wagle ghar pahucha to savitri ne hi darwaza khola. Apni khubsurat biwi ko dekh kar uske hotho par muskaan ubhar aayi thi. Savitri bhi use dekh kar muskuraayi thi. Andar aane ke baad dring room me use apne dono bachche nazar aaye jinhe dekh kar wo muskuraya aur apne kamre ki taraf badh gaya.

Raat me dinner karne ke baad wagle apne bed par leta hua tha. Uske zahen me baar baar yahi sawaal uth rahe the ki vikram singh ke parents aur unke dost log aakhir kis bare me aisi baate kar rahe the? Un sabke bachcho ka agar swabhaav badal gaya tha to isme aisi kaun si baat ho gayi thi jiske liye wo aapas me aisi baate kar rahe the? Wagle ko yaad aaya ki diary me vikram singh ke zahen me bhi yahi sawaal ubhre the aur in sabhi sawaalo ke jawaab talaashne ke liye usne apne pita ki jasusi karne ka soch liya tha. Vikram Singh ki tarah ab wagle ke man me bhi ye jaanne ki teevra utsukta badh gayi thi ki aakhir vikram singh ke parents aur unke dosto ke beech kis silsile me baate huyi thi? Aakhir un sabke man me kaun si baate thi?

Wagle kaafi der tak inhi sab baato ke bare me sochta raha. Savitri ke aane ke baad usne un saari baato ko apne zahen se nikaala aur savitri ko apni baaho me bhar kar uske hotho ko choomne laga tha. Jald hi dono ke beech pyaar ka khel shuru ho gaya. Aaj savitri ne khul kar wagle ka sath diya tha aur usne wagle ko waastav me khush kar diya tha. Wagle to pahle se hi apni biwi ka diwaana tha is liye usne use khush karne me koi kasar nahi chhodi. Uske baad dono hi gahri neend me so gaye the.

Subah wagle apne samay par jail me apne cabin me pahucha. Saare kaamo se fursat hone ke baad usne vikram singh ki diary nikaali aur us jagah se aage padhna shuru kiya jaha tak wo padh chuka tha.

☆☆☆

Main achhi tarah jaanta tha ki apne pita ki jasusi karna achhi baat nahi thi lekin kyoki mere man me ab ye jaanne ki utsukta had se zyada badh gayi thi ki aakhir unke aur unke dosto ke beech kis silsile me baate huyi thi aur aaj wo office me kya baate karne wale the?

Mukhya sadak par aa kar maine ek auto wale ko rukne ka ishara kiya. Auto jaise hi ruka to maine use apne papa ki company ka pata bata kar chalne ko kaha to wo fauran hi chal pada. Mera dil ye soch soch kar tezi se dhadakne laga tha ki main apne hi pita ki jasusi karne ka kaam kar raha hu. Durbhaagya se agar mere papa ko iska pata chal jaaye to jane kya ho?

Kareeb bees minute baad maine auto wale se auto rokne ke liye kaha. Auto wale ko maine uska kiraya diya to wo chala gaya. Maine papa ki company ke pahle hi auto rukwa diya tha. Maine aas paas nazar ghumaayi to badi badi buildings hi nazar aayi, jinme na jane kitne hi prakaar ke office khule huye the. Daahini taraf ki building ke sheersh par Anupama likha hua tha. Usi building me mere papa ka office tha. Maine ek gahri saans li aur us building ki taraf chal pada. Ekdam se mere zahen me khayaal ubhra ki agar papa mujhe waha par dekhenge to mujhse kya kahenge? Maine is bare me kuch der socha aur kuch hi palo me maine bahana taiyar kar liya.

Office me zyadatar log mujhe pahchante the kyoki iske pahle main papa ke sath aata tha aur kaam ke bare me saari cheeze seekhta tha. Khair main building me daakhil ho gaya. Mera dil ek baar fir se tez tez dhadakne laga tha. Papa ne bataya tha ki building ke teen floor unhone khareed rakha hai jisme unka har department kaam karta hai. Asal me yaha par unki company ka head office tha. Yahi se saare karobaari maamle dekhe jate the.

Lift se main upar aaya aur jaise hi main andar pahucha to reception par baithi ek khubsurat ladki par meri nazar padi. Wo mujhe dekhte hi pahle to chaunki fir muskuraayi, jawaab me main bhi halke se muskuraya. Main kyoki zaruri kaam ke silsile me yaha aaya tha is liye receptionist se hello haye na karte huye seedha papa ke office ki taraf badh chala.

Papa ke office me pahucha to dekha office baahar se lock tha. Mujhe ye jaan kar hairaani huyi ki papa apne office me hain hi nahi. Mere zahen me sawaal ubhra ki agar wo ghar se office ke liye nikle the to mujhe yaha kyo nahi mile? Is ek sawaal ke sath aur bhi na jane kitne sawaal mere zahen me ubharte chale gaye the jinka jawaab mere paas nahi tha. Maine socha ki ho sakta hai ki wo apne kisi dost ke office me jane ki baat kiye honge. Ranjan shekhar aur Tarun in teeno ke parents ka apna alag alag karobaar tha to ho sakta hai wo inme se hi kisi ke yaha gaye ho. Mujhe apna ye khayaal jancha lekin mere paas ab papa tak pahuchne ka na to koi jariya tha aur na hi koi bahana. Main niraash ho kar waapas baahar nikalne ka socha to mere zahen me ek khayaal aaya ki kya mujhe receptionist se papa ke bare me puchhna chahiye? Is khayaal ke jawaab me mujhe khud se hi jawaab mil gaya ki papa bhala apne kisi niji kaam ke bare me ek receptionist ko kyo batayenge? Kahne ka matlab ye ki main puri tarah nirash ho kar waha se nikal gaya.

Main niraash ho kar baahar aa gaya tha. Papa ke yaha na milne se mere man me aur bhi zyada utsukta bhar gayi thi. Ab main har haalat me jaanna chahta tha ki aakhir maamla kya hai? Yahi sab sochte huye maine fir ek auto kiya aur is baar apne dost ranjan ke ghar ki taraf chal pada. Mera khayaal tha ki is bare me mujhe ranjan aur baaki dosto se bhi baat karni chahiye thi. Aakhir ye maamla sirf mere bare me hi bas nahi tha balki mere sath sath mere sabhi dosto ke bare me bhi tha. Khair jald hi main ranjan ke ghar pahuch gaya.

"Kya hua be, tu kisi baat se pareshaan hai kya?" Ranjan ke kamre me jab main pahucha to usne meri taraf dekhte huye puchha tha. Maine use apne man ki saari baate bataayi to wo kuch der chup raha aur fir bola ki chalo is bare me apne baaki dosto se bhi baat karte hain. Ranjan ke sath main kuch hi samay me apne baaki dosto ke sath apne purane adde par pahuch gaya. Maine un sabse wo sab bataya jo kal raat mere parents ke kamre me un logo ke parents ne baat cheet ki thi.

"To isme itna zyada sochne ki kya baat hai bhai?" Tarun ne kaha____"Sabke parents apne bachcho ke bare me yahi chahte hain ki unke bachcho ka bhavishya behtareen ho. Ho sakta hai ki wo hamare bright future ke bare me hi baat karte rahe ho."

"Tarun sahi kah raha vikram." Shekhar ne kaha____"Mujhe bhi aisa hi lagta hai. Tu bekaar me hi itna zyada soch raha hai."
"Chal maan liya ki wo hamare bright future ke bare me hi baat kar rahe the." Maine apne ek ek shabd par zor dete huye kaha____"To iske liye unhe apne beech mystery create karne ki kya zarurat thi? Agar baat sirf hamare bright future ki hi hoti to wo is bare me hamse bhi to baate kar sakte the. Ham sab to waise bhi unke karobaar me lag hi gaye hain to ab isme aur kya chahiye unhe? Tum log maano ya na maano lekin mujhe pakka yakeen hai ki unke man me kuch to aisa zarur hai jise filhaal ham samajh nahi pa rahe hain."

"Pata nahi tujhe aisa kyo lagta hai." Ranjan ne kaha____"Jabki mujhe bhi isme aisa waisa kuch bhi nahi lag raha. Achha ab chhod is baat ko, kyo na ham log aaj usi club me chale aur waha par naye naye maal ke sath maza kare. Us club ki ladkiyo ne hi to hamari zindagi me khushiyo ke chiraag jalaye the to kyo na aaj fir wahi chala jaaye. Kya kahte ho tum log?"

"Main to chalne ko taiyar hu bhai." Tarun ne muskurate huye kaha____"Kaafi time ho gaya us club me gaye huye."
"Main bhi chaluga bhai." Shekhar ne kaha____"Aaj to main do do ladkiyo ko ek sath peluga."

"Ab tu kyo khamosh ho gaya be?" Ranjan ne meri taraf dekhte huye kaha____"Kya abhi bhi unhi baato ke bare me soch raha hai?"
"Tum log jaao." Maine kaha____"Mujhe kuch kaam hai is liye main tum logo ke sath nahi ja paauga."

Mere inkaar kar dene par teeno meri taraf dekhne lage the. Ek do baar aur un logo ne mujhe chalne par zor diya lekin maine jane se saaf mana kar diya. Un teeno ke jane ke baad main bhi apne ghar chala gaya tha. Mere teeno dosto ko un baato me koi mystery nazar nahi aayi thi lekin mera man ab bhi yahi kah raha tha ki kuch to baat zarur hai. Mujhe samajh nahi aa raha tha ki aakhir main kis tareeke se is bare me sach ka pata lagaau?

☆☆☆
 

Mahi Maurya

Dil Se Dil Tak
Supreme
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304
बीसवां भाग

बहुत ही जबरदस्त और बेहतरीन।।

जिसको जिस चीज़ की तमन्ना हो और काफी मसक्कत के बाद वो चीज़ उसे मिलने लगे तो उसके चेहरे का निखार और खुशी देखते ही बनती है। विक्रम के माँ को लगता है कि उसके बेटे को कोई लड़की मिल गई है जिसके कारण वो इतना खुश रहने लगा है, लेकिन अब उन्हें कौन बताए कि उनके बेटे को एक लड़की नहीं बल्कि कई औरतें मिली हैं जिन्हें उनका बेटा खुशी देता है।। संस्था ने आत्मरक्षा के लिए विक्रम को जुडो और कराटे का प्रशिक्षण भी दिया।।

हर चीज़ की एक अति होती है। अगर कोई चीज़ हद से ज्यादा हो जाए तो वो तकलीफ और परेशानी का सबब बन जाए है। विक्रम भले ही चूत मार संस्था से अपनी कामेक्षा की पूर्ति के लिए जुड़ा था, लेकिन एक वर्ष होते होते वो इस काम से ऊब गया। अब उसे एक ऐसी लड़की की तलाश है जो सिर्फ उसके लिए बनी हो। विक्रम का सोचना भी सही है। आखिर कब तक वो दूसरों की औरतों को संतुष्ट कर अपनी खुशी तलाश करेगा। आखिर कोई तो ऐसा होना चाहिए जो विक्रम की हो।।

विक्रम को नई संस्था का कार्यभार दिया उसके पापा ने, जिसे उसने मन लगाकर किया और साथ मे अपने पिछले कार्य को भी जारी रखा, लेकिन पार्टी वाले दिन उसे कुछ ऐसा दिखा जो उसकी समझ से परे था। क्या विक्रम के मम्मी पापा अपने दोस्तों और उनकी पत्नियों के साथ स्वापिंग का खेल खेलते हैं। कुछ तो है जिसके कारण उसके पापा के दोस्त अपनी पत्नियों के साथ उनके कमरे में रुके हैं।।
 

Nevil singh

Well-Known Member
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अध्याय - 21
_______________


अब तक....

ऐसा पहली बार ही हुआ था कि मेरे दोस्तों के पेरेंट्स एक साथ मेरे मम्मी पापा के कमरे में इतनी रात को मौजूद थे। इसके पहले वो जब भी मेरे घर आते थे तो वो ड्राइंग रूम में ही बैठते थे। हालांकि आंटी लोग मां के कमरे में गपशप के लिए एक साथ ही उनके कमरे में चली जाती थीं। नशे के शुरूर में मुझे ज़्यादा कुछ समझ भी नहीं आ रहा था लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं आवाज़ें सुन कर ऊपर जाने की बजाय वापस नीचे उतर आया और मम्मी पापा के कमरे की तरफ बढ़ चला।

अब आगे...


कुछ ही पलों में मैं मम्मी पापा के कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच चुका था। मैं शराब के हल्के नशे में ज़रूर था किन्तु होशो हवाश में था। दरवाज़े के पास आ कर मैं अंदर की आवाज़ें सुनने की कोशिश करने लगा। कुछ देर तक अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई। ऐसा लग रहा था जैसे अंदर मौजूद हर शख़्स बेजुबान हो गया हो लेकिन अगले ही पल मेरा ये ख़याल ग़लत साबित हो गया। अंदर से पापा की आवाज़ आई। उनके लहजे से ऐसा लगा जैसे वो सभी से कह रहे हों कि इस बारे में कल हम सब ऑफिस में बात करेंगे।

मैं समझने की कोशिश करने लगा था कि आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए पापा उन सब को ऑफिस में ही बात करने को कह रहे थे? अभी मैं ये समझने की कोशिश ही कर रहा था कि तभी संजय अंकल की आवाज़ आई।

"तुम बेवजह ही इतना सोच रहे हो यार।" संजय अंकल ने कहा____"क्या तुम्हें अपनी आँखों से नहीं दिख रहा और क्या तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं हो रहा कि हमारे बच्चे अब पहले जैसे नहीं रहे? बल्कि वो सब के सब बदल गए हैं। मैं अच्छी तरह जांच परख कर चुका हूं उन सबकी। मेरे आदमियों ने उन सबके बारे में यही रिपोर्ट दी है कि वो अब पहले की तरह शर्मीले नहीं रहे, बल्कि अब वो हर किसी का बेझिझक हो कर सामना कर सकते हैं।"

"संजय सही कह रहा है अवधेश।" ये शेखर के पापा जीवन अंकल की आवाज़ थी____"और फिर तुम ये क्यों भूल रहे हो कि उनकी मेच्योरिटी का सबूत भी है हमारे पास।"

"मुझे लगता है उन्हें थोड़ा और टाइम देना चाहिए।" मेरी मम्मी की आवाज़____"ये सब इतना आसान नहीं है। कहने और करने में बहुत फ़र्क होता है।"
"अभी और कितना टाइम दे हम उन्हें?" संजय अंकल ने कहा____"टाइम देते देते तो इतना टाइम निकल गया है तो अभी और कितना टाइम देंगे उन्हें?"

"बस, बहुत हुआ।" पापा की आवाज़____"मैंने कहा न कि इस बारे में कल ऑफिस में बात करेंगे। ये वक़्त इन सब बातों का नहीं है। माधुरी इन लोगों को इनके कमरे दिखा दो।"

पापा की इस बात के बाद किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं भी समझ गया कि अब वो सब कमरे से बाहर निकलने वाले हैं इस लिए मैं दबे पाँव सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और ऊपर अपने कमरे में आ गया।

बेड पर लेटा मैं उन सबकी बातों के बारे में ही सोच रहा था। उनकी बातों से इतना तो मैं जान गया था कि वो सब मेरे और मेरे दोस्तों के बदले हुए स्वभाव के बारे में बात कर रहे थे लेकिन ये नहीं समझ पा रहा था कि हमारे बदले हुए स्वभाव के चलते वो आख़िर करना क्या चाह रहे थे? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए वो सब पापा से इस बारे में बात करते हुए ज़ोर दे रहे थे? जाने कब तक मैं इसी बारे में सोचता रहा और पता नहीं कब मेरी आँख लग गई।

सुबह मेरी आँख खुली तो मैं सबसे पहले फ्रेश हुआ और फिर नास्ते के लिए बाहर आ गया। बाहर आया तो देखा डाइनिंग टेबल पर मम्मी पापा के साथ मेरे दोस्तों के पेरेंट्स भी बैठे हुए थे। उनमें ज़फर के पेरेंट्स नहीं थे। ख़ैर मैंने सबको नमस्ते किया और संजय अंकल के बुलाने पर मैं उनके बगल वाली कुर्सी पर ही बैठ गया। उनके दूसरे बगल में उनकी वाइफ यानी रंजन की मम्मी बैठी थी। रंजन की मम्मी का नाम रेणुका था।

नास्ते के वक़्त सामान्य बात चीत ही चल रही थी। अंकल लोगों ने मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बेहतर बताया। नास्ते के बाद पापा के साथ ही सब लोग चले गए। मुझे दो तीन दिन यहीं रुकना था इस लिए मैं मम्मी से बोल कर बाहर निकल गया।

मेरे ज़हन में कल रात की बातें ही चल रहीं थी और मेरे मन में ये जानने की बेहद उत्सुकता जाग उठी थी कि आख़िर वो सब किस बारे में बातें कर रहे थे? मैं सोचने लगा था कि आख़िर अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए किस तरह से सच का पता लगाया जाए? मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्यों न पापा और अंकल लोगों की जासूसी की जाए।

☆☆☆

"साहब जी घर नहीं जाना क्या आपको?" शिवकांत वागले के कानों में ये आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान विक्रम सिंह की डायरी से टूटा और उसने नज़र उठा कर केबिन के दरवाज़े के पास खड़े श्याम की तरफ देखा।

"हर रोज़ आप समय से घर चले जाते थे।" वागले को अपनी तरफ देखता देख श्याम ने झिझकते हुए कहा____"जबकि आज अभी भी आप यहीं पर है। मैंने सोचा आप किसी ज़रूरी काम में ब्यस्त होंगे इस लिए आपको दखल देखा उचित नहीं समझा था मैंने।"

श्याम की बात सुन कर वागले हल्के से चौंका और उसने अपने बाएं हाथ में बंधी घड़ी पर टाइम देखा तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। उसे पहली बार महसूस हुआ कि वो सच में आज अपने समय से ज़्यादा यहाँ पर रुक गया था। ज़ाहिर इसकी वजह विक्रम सिंह की डायरी ही थी। ख़ैर उसने एक गहरी सांस ली और डायरी को बंद कर के उसे ब्रीफ़केस में रखा।

"अच्छा हुआ कि तुमने हमें याद दिला दिया श्याम।" वागले ने एक नज़र सिपाही श्याम की तरफ डालते हुए कहा____"हम सच में एक ज़रूरी काम में ही ब्यस्त थे जिसकी वजह से हमें वक़्त का पता ही नहीं चला। ख़ैर चलो, सुबह मिलते हैं।"

वागले अपना ब्रीफ़केस ले कर कुर्सी से उठा और केबिन से बाहर की तरफ बढ़ चला। श्याम ने उसे सैल्यूट किया जिसका जवाब उसने अपने सिर को हल्का सा ख़म कर के दिया और जेल की लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए बाहर निकल गया। मन ही मन वो ये सोचता जा रहा था कि वो वाकई में विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने में इतना खो गया था कि उसे समय का ज़रा भी एहसास नहीं हुआ।

वागले घर पंहुचा तो सावित्री ने ही दरवाज़ा खोला। अपनी खूबसूरत बीवी को देख कर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई थी। सावित्री भी उसे देख कर मुस्कुराई थी। अंदर आने के बाद ड्राइंग रूम में उसे अपने दोनों बच्चे नज़र आए जिन्हें देख कर वो मुस्कुराया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

रात में डिनर करने के बाद वागले अपने बेड पर लेटा हुआ था। उसके ज़हन में बार बार यही सवाल उठ रहे थे कि विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्त लोग आख़िर किस बारे में ऐसी बातें कर रहे थे? उन सबके बच्चों का अगर स्वभाव बदल गया था तो इसमें ऐसी कौन सी बात हो गई थी जिसके लिए वो आपस में ऐसी बातें कर रहे थे? वागले को याद आया कि डायरी में विक्रम सिंह के ज़हन में भी यही सवाल उभरे थे और इन सभी सवालों के जवाब तलाशने के लिए उसने अपने पिता की जासूसी करने का सोच लिया था। विक्रम सिंह की तरह अब वागले के मन में भी ये जानने की तीव्र उत्सुकता बढ़ गई थी कि आख़िर विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुई थी? आख़िर अपने बच्चों के प्रति उन सबके मन में कौन सी बातें थी?

वागले काफी देर तक इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा। सावित्री के आने के बाद उसने उन सारी बातों को अपने ज़हन से निकाला और सावित्री को अपनी बाहों में भर कर उसके होठों को चूमने लगा था। जल्द ही दोनों के बीच प्यार का खेल शुरू हो गया। आज सावित्री ने खुल कर वागले का साथ दिया था और उसने वागले को वास्तव में खुश कर दिया था। वागले तो पहले से ही अपनी बीवी का दिवाना था इस लिए उसने उसे खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके बाद दोनों ही गहरी नींद में सो गए थे।

सुबह वागले अपने समय पर जेल में अपने केबिन में पहुंचा। सारे कामों से फुर्सत होने के बाद उसने विक्रम सिंह की डायरी निकाली और उस जगह से आगे पढ़ना शुरू किया जहां तक वो पढ़ चुका था।

☆☆☆

मैं अच्छी तरह जानता था कि अपने पिता की जासूसी करना अच्छी बात नहीं थी लेकिन क्योंकि मेरे मन में अब ये जानने की उत्सुकता हद से ज़्यादा बढ़ गई थी कि आख़िर उनके और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुईं थी और आज वो ऑफिस में क्या बातें करने वाले थे?

मुख्य सड़क पर आ कर आ कर मैंने एक ऑटो वाले को रुकने का इशारा किया। ऑटो जैसे ही रुका तो मैंने उसे अपने पापा की कंपनी का पता बता कर चलने को कहा तो वो फ़ौरन ही चल पड़ा। मेरा दिल ये सोच सोच कर तेज़ी से धड़कने लगा था कि मैं अपने ही पिता की जासूसी करने का काम कर रहा हूं। दुर्भाग्य से अगर मेरे पापा को इसका पता चल जाए तो जाने क्या हो?

क़रीब बीस मिनट बाद मैंने ऑटो वाले से ऑटो रोकने के लिए कहा। ऑटो वाले को मैंने उसका किराया दिया तो वो चला गया। मैंने पापा की कंपनी के पहले ही ऑटो रुकवा दिया था। मैंने आस पास नज़र घुमाई तो बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स ही नज़र आईं, जिनमें न जाने कितने ही प्रकार के ऑफिस खुले हुए थे। दाहिनी तरफ की बिल्डिंग के शीर्ष पर अनुपमा लिखा हुआ था। उसी बिल्डिंग में मेरे पापा का ऑफिस था। मैंने एक गहरी सांस ली और उस बिल्डिंग की तरफ चल पड़ा। एकदम से मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर पापा मुझे वहां पर देखेंगे तो मुझसे क्या कहेंगे? मैंने इस बारे में कुछ देर सोचा और कुछ ही पलों में मैंने बहाना तैयार कर लिया।

ऑफिस में ज़्यादातर लोग मुझे पहचानते थे क्योंकि इसके पहले मैं पापा के साथ आता था और काम के बारे में सारी चीज़ें सीखता था। ख़ैर मैं बिल्डिंग में दाखिल हो गया। मेरा दिल एक बार फिर से तेज़ तेज़ धड़कने लगा था। पापा ने बताया था कि बिल्डिंग के तीन फ्लोर उन्होंने खरीद रखा है जिसमें उनका हर डिपार्टमेंट काम करता है। असल में यहाँ पर उनकी कंपनी का हेड ऑफिस था। यहीं से सारे कारोबारी मामले देखे जाते थे।

लिफ्ट से मैं ऊपर आया और जैसे ही मैं अंदर पहुंचा तो रिसेप्शन पर बैठी एक खूबसूरत लड़की पर मेरी नज़र पड़ी। वो मुझे देखते ही पहले तो चौंकी फिर मुस्कुराई, जवाब में मैं भी हल्के से मुस्कराया। मैं क्योंकि ज़रूरी काम के सिलसिले में यहाँ आया था इस लिए रिसेप्शनिस्ट से हेलो हाय न करते हुए सीधा पापा के ऑफिस की तरफ बढ़ चला।

पापा के ऑफिस में पहुंचा तो देखा ऑफिस बाहर से लॉक था। मुझे ये जान कर हैरानी हुई कि पापा अपने ऑफिस में हैं ही नहीं। मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि अगर वो घर से ऑफिस के लिए निकले थे तो मुझे यहाँ क्यों नहीं मिले? इस एक सवाल के साथ और भी न जाने कितने सवाल मेरे ज़हन में उभरते चले गए थे जिनका जवाब मेरे पास नहीं था। मैंने सोचा कि हो सकता है कि वो अपने किसी दोस्त के ऑफिस में जाने की बात किए हों। रंजन शेखर और तरुण इन तीनों के पेरेंट्स का अपना अलग अलग कारोबार था तो हो सकता है कि वो इनमें से ही किसी के यहाँ गए हों। मुझे अपना ये ख़याल जंचा लेकिन मेरे पास अब पापा तक पहुंचने का न तो कोई जरिया था और ना ही कोई बहाना। मैं निराश हो कर वापस बाहर निकलने का सोचा तो मेरे ज़हन में एक ख़याल आया कि क्या मुझे रिसेप्शनिस्ट से पापा के बारे में पूछना चाहिए? इस ख़याल के जवाब में मुझे खुद से ही जवाब मिल गया कि पापा भला अपने किसी निजी काम के बारे में एक रिसेप्शनिस्ट को क्यों बताएँगे? कहने का मतलब ये कि मैं पूरी तरह निराश हो कर वहां से निकल गया।

मैं निराश हो कर बाहर आ गया था। पापा के यहाँ न मिलने से मेरे मन में और भी ज़्यादा उत्सुकता भर गई थी। अब मैं हर हालत में जानना चाहता था कि आख़िर मामला क्या है? यही सब सोचते हुए मैंने फिर एक ऑटो किया और इस बार अपने दोस्त रंजन के घर की तरफ चल पड़ा। मेरा ख़याल था कि इस बारे में मुझे रंजन और बाकी दोस्तों से भी बात करनी चाहिए थी। आख़िर ये मामला सिर्फ मेरे बारे में ही बस नहीं था बल्कि मेरे साथ साथ मेरे सभी दोस्तों के बारे में भी था। ख़ैर जल्द ही मैं रंजन के घर पहुंच गया।

"क्या हुआ बे, तू किसी बात से परेशान है क्या?" रंजन के कमरे में जब मैं पहुंचा तो उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा था। मैंने उसे अपने मन की सारी बातें बताई तो वो कुछ देर चुप रहा और फिर बोला कि चलो इस बारे में अपने बाकी दोस्तों से भी बात करते हैं। रंजन के साथ मैं कुछ ही समय में अपने बाकी दोस्तों के साथ अपने पुराने अड्डे पर पहुंच गया। मैंने उन सबसे वो सब बताया जो कल रात मेरे पेरेंट्स के कमरे में उन लोगों के पेरेंट्स ने बात चीत की थी।

"तो इसमें इतना ज़्यादा सोचने की क्या बात है भाई?" तरुण ने कहा____"सबके पेरेंट्स अपने बच्चों के बारे में यही चाहते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य बेहतरीन हो। हो सकता है कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात करते रहे हों।"

"तरुण सही कह रहा है विक्रम।" शेखर ने कहा____"मुझे भी ऐसा ही लगता है। तू बेकार में ही इतना ज़्यादा सोच रहा है।"
"चल मान लिया कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात कर रहे थे।" मैंने अपने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"तो इसके लिए उन्हें अपने बीच मिस्ट्री क्रिएट करने की क्या ज़रूरत थी? अगर बात सिर्फ हमारे ब्राइट फ्यूचर की ही होती तो वो इस बारे में हमसे भी तो बातें कर सकते थे। हम सब तो वैसे भी उनके कारोबार में लग ही गए हैं तो अब इसमें और क्या चाहिए उन्हें? तुम लोग मानो या न मानो लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि उनके मन में कुछ तो ऐसा ज़रूर है जिसे फिलहाल हम समझ नहीं पा रहे हैं।"

"पता नहीं तुझे ऐसा क्यों लगता है।" रंजन ने कहा____"जबकि मुझे भी इसमें ऐसा वैसा कुछ भी नहीं लग रहा। अच्छा अब छोड़ इस बात को, क्यों न हम लोग आज उसी क्लब में चलें और वहां पर नए नए माल के साथ मज़ा करें। उस क्लब की लड़कियों ने ही तो हमारी ज़िन्दगी में खुशियों के चिराग जलाए थे तो क्यों न आज फिर वहीं चला जाए। क्या कहते हो तुम लोग?"

"मैं तो चलने को तैयार हूं भाई।" तरुण ने मुस्कुराते हुए कहा____"काफी टाइम हो गया उस क्लब में गए हुए।"
"मैं भी चलूंगा भाई।" शेखर ने कहा____"आज तो मैं दो दो लड़कियों को एक साथ पेलूंगा।"

"अब तू क्यों ख़ामोश हो गया बे?" रंजन ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"क्या अभी भी उन्हीं बातों के बारे में सोच रहा है?"
"तुम लोग जाओ।" मैंने कहा____"मुझे कुछ काम है इस लिए मैं तुम लोगों के साथ नहीं जा पाऊंगा।"

मेरे इंकार कर देने पर तीनों मेरी तरफ देखने लगे थे। एक दो बार और उन लोगों ने मुझे चलने पर ज़ोर दिया लेकिन मैंने जाने से साफ़ मना कर दिया। उन तीनों के जाने के बाद मैं भी अपने घर चला गया था। मेरे तीनों दोस्तों को उन बातों में कोई मिस्ट्री नज़र नहीं आई थी लेकिन मेरा मन अब भी यही कह रहा था कि कुछ तो बात ज़रूर है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं किस तरीके से इस बारे में सच का पता लगाऊं?


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Bahut badhiya update bhai
 

Mahi Maurya

Dil Se Dil Tak
Supreme
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59,257
304
इक्कीसवां भाग

बहुत ही लाजवाब और बेहतरीन कहानी महोदय।।

तो कहानी में एक नया मोड़ आ ही गया।। अपने माता पिता और अपने दोस्तों के माता पिता की बात सुनकर विक्रम के मन में शक के बीज को जन्म दे दिया। आखिर कोई भी माँ बाप अपने बच्चों के दब्बूपन और सीधापन खत्म हो जाने या कम हो जाने पर प्रसन्न ही होंगे, लेकिन विक्रम ने जो सुना उसके कारण उसके मन मे जासूसी के कीड़े रेंगने लगे। वो सच का पता लगाने के लिए तड़पने लगा।।

विक्रम की बात का भरोसा उसके दोस्तों ने भी नहीं किया, क्योंकि उन्होंने बात की संजीदगी को समझा ही नहीं। विक्रम ने अपने बाप की जासूसी करनी चाही तो भी वो विफल ही रहा। आखिर ऐसी क्या बात थी जिसको लेकर विक्रम के पापा पाने दोस्तों से बात कर रहे थे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि विक्रम के पापा और उनके दोस्त ही चूत मार संस्था के करता धरता हों। जो उनकी हत्या का कारण बना हो।।
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,800
117,444
354
बीसवां भाग

बहुत ही जबरदस्त और बेहतरीन।।

जिसको जिस चीज़ की तमन्ना हो और काफी मसक्कत के बाद वो चीज़ उसे मिलने लगे तो उसके चेहरे का निखार और खुशी देखते ही बनती है। विक्रम के माँ को लगता है कि उसके बेटे को कोई लड़की मिल गई है जिसके कारण वो इतना खुश रहने लगा है, लेकिन अब उन्हें कौन बताए कि उनके बेटे को एक लड़की नहीं बल्कि कई औरतें मिली हैं जिन्हें उनका बेटा खुशी देता है।। संस्था ने आत्मरक्षा के लिए विक्रम को जुडो और कराटे का प्रशिक्षण भी दिया।।

हर चीज़ की एक अति होती है। अगर कोई चीज़ हद से ज्यादा हो जाए तो वो तकलीफ और परेशानी का सबब बन जाए है। विक्रम भले ही चूत मार संस्था से अपनी कामेक्षा की पूर्ति के लिए जुड़ा था, लेकिन एक वर्ष होते होते वो इस काम से ऊब गया। अब उसे एक ऐसी लड़की की तलाश है जो सिर्फ उसके लिए बनी हो। विक्रम का सोचना भी सही है। आखिर कब तक वो दूसरों की औरतों को संतुष्ट कर अपनी खुशी तलाश करेगा। आखिर कोई तो ऐसा होना चाहिए जो विक्रम की हो।।


विक्रम को नई संस्था का कार्यभार दिया उसके पापा ने, जिसे उसने मन लगाकर किया और साथ मे अपने पिछले कार्य को भी जारी रखा, लेकिन पार्टी वाले दिन उसे कुछ ऐसा दिखा जो उसकी समझ से परे था। क्या विक्रम के मम्मी पापा अपने दोस्तों और उनकी पत्नियों के साथ स्वापिंग का खेल खेलते हैं। कुछ तो है जिसके कारण उसके पापा के दोस्त अपनी पत्नियों के साथ उनके कमरे में रुके हैं।।
Shukriya mahi madam is khubsurat sameeksha ke liye,,,,:hug:
 
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