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Shukriya bhai,,,Jabardast update bhai
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Shukriya bhai,,,Jabardast update bhai
Sahi kaha, aisi sanstha se judna kisi daldal me fans jane jaisa hota hai. Khair dekhiye kya hota hai,,,विक्रम ने इन एक सालों के दौरान बहुत सारी महिलाओं के साथ सेक्स किया लेकिन धीरे-धीरे उसका मन उचटता सा जा रहा है ऐसे कामों से । उसे तलाश है एक ऐसी लड़की की जिसके साथ वो अपनी जिंदगी शकून से बिता सकें ।
सही ही है उसके लिए । ऐसी जिंदगानी टेंशन और बिमारी के करीब लाती है । लेकिन क्या वो संस्था छोड़ सकता है ? क्योंकि बिना संस्था छोड़े शकून तो मिलनी नहीं है । और अगर संस्था छोड़ा तो संस्था वाले उसे आसानी से जीने नहीं देंगे ।
Ab ye to next update me hi pata chalega bhaiya ji,,,मां बाप के मैरिज सेरेमनी में उसके माता-पिता के दोस्तों का अपनी-अपनी पत्नी के साथ पुरी रात रूकने का फैसला संदेहास्पद लग रहा है । कहीं वो लोग स्वैपिंग क्लब के मेम्बर तो नहीं ?
लगता है कुछ बड़ा ही होने वाला है इस रात !
Shukriya bhaiya ji is khubsurat sameeksha ke liye,,,,बहुत ही बेहतरीन अपडेट शुभम भाई ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग ।
Bahut badhiya update bhaiअध्याय - 21
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अब तक....
ऐसा पहली बार ही हुआ था कि मेरे दोस्तों के पेरेंट्स एक साथ मेरे मम्मी पापा के कमरे में इतनी रात को मौजूद थे। इसके पहले वो जब भी मेरे घर आते थे तो वो ड्राइंग रूम में ही बैठते थे। हालांकि आंटी लोग मां के कमरे में गपशप के लिए एक साथ ही उनके कमरे में चली जाती थीं। नशे के शुरूर में मुझे ज़्यादा कुछ समझ भी नहीं आ रहा था लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं आवाज़ें सुन कर ऊपर जाने की बजाय वापस नीचे उतर आया और मम्मी पापा के कमरे की तरफ बढ़ चला।
अब आगे...
कुछ ही पलों में मैं मम्मी पापा के कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच चुका था। मैं शराब के हल्के नशे में ज़रूर था किन्तु होशो हवाश में था। दरवाज़े के पास आ कर मैं अंदर की आवाज़ें सुनने की कोशिश करने लगा। कुछ देर तक अंदर से कोई आवाज़ नहीं आई। ऐसा लग रहा था जैसे अंदर मौजूद हर शख़्स बेजुबान हो गया हो लेकिन अगले ही पल मेरा ये ख़याल ग़लत साबित हो गया। अंदर से पापा की आवाज़ आई। उनके लहजे से ऐसा लगा जैसे वो सभी से कह रहे हों कि इस बारे में कल हम सब ऑफिस में बात करेंगे।
मैं समझने की कोशिश करने लगा था कि आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए पापा उन सब को ऑफिस में ही बात करने को कह रहे थे? अभी मैं ये समझने की कोशिश ही कर रहा था कि तभी संजय अंकल की आवाज़ आई।
"तुम बेवजह ही इतना सोच रहे हो यार।" संजय अंकल ने कहा____"क्या तुम्हें अपनी आँखों से नहीं दिख रहा और क्या तुम्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं हो रहा कि हमारे बच्चे अब पहले जैसे नहीं रहे? बल्कि वो सब के सब बदल गए हैं। मैं अच्छी तरह जांच परख कर चुका हूं उन सबकी। मेरे आदमियों ने उन सबके बारे में यही रिपोर्ट दी है कि वो अब पहले की तरह शर्मीले नहीं रहे, बल्कि अब वो हर किसी का बेझिझक हो कर सामना कर सकते हैं।"
"संजय सही कह रहा है अवधेश।" ये शेखर के पापा जीवन अंकल की आवाज़ थी____"और फिर तुम ये क्यों भूल रहे हो कि उनकी मेच्योरिटी का सबूत भी है हमारे पास।"
"मुझे लगता है उन्हें थोड़ा और टाइम देना चाहिए।" मेरी मम्मी की आवाज़____"ये सब इतना आसान नहीं है। कहने और करने में बहुत फ़र्क होता है।"
"अभी और कितना टाइम दे हम उन्हें?" संजय अंकल ने कहा____"टाइम देते देते तो इतना टाइम निकल गया है तो अभी और कितना टाइम देंगे उन्हें?"
"बस, बहुत हुआ।" पापा की आवाज़____"मैंने कहा न कि इस बारे में कल ऑफिस में बात करेंगे। ये वक़्त इन सब बातों का नहीं है। माधुरी इन लोगों को इनके कमरे दिखा दो।"
पापा की इस बात के बाद किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं भी समझ गया कि अब वो सब कमरे से बाहर निकलने वाले हैं इस लिए मैं दबे पाँव सीढ़ियों की तरफ बढ़ा और ऊपर अपने कमरे में आ गया।
बेड पर लेटा मैं उन सबकी बातों के बारे में ही सोच रहा था। उनकी बातों से इतना तो मैं जान गया था कि वो सब मेरे और मेरे दोस्तों के बदले हुए स्वभाव के बारे में बात कर रहे थे लेकिन ये नहीं समझ पा रहा था कि हमारे बदले हुए स्वभाव के चलते वो आख़िर करना क्या चाह रहे थे? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसके लिए वो सब पापा से इस बारे में बात करते हुए ज़ोर दे रहे थे? जाने कब तक मैं इसी बारे में सोचता रहा और पता नहीं कब मेरी आँख लग गई।
सुबह मेरी आँख खुली तो मैं सबसे पहले फ्रेश हुआ और फिर नास्ते के लिए बाहर आ गया। बाहर आया तो देखा डाइनिंग टेबल पर मम्मी पापा के साथ मेरे दोस्तों के पेरेंट्स भी बैठे हुए थे। उनमें ज़फर के पेरेंट्स नहीं थे। ख़ैर मैंने सबको नमस्ते किया और संजय अंकल के बुलाने पर मैं उनके बगल वाली कुर्सी पर ही बैठ गया। उनके दूसरे बगल में उनकी वाइफ यानी रंजन की मम्मी बैठी थी। रंजन की मम्मी का नाम रेणुका था।
नास्ते के वक़्त सामान्य बात चीत ही चल रही थी। अंकल लोगों ने मुझसे मेरे काम के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बेहतर बताया। नास्ते के बाद पापा के साथ ही सब लोग चले गए। मुझे दो तीन दिन यहीं रुकना था इस लिए मैं मम्मी से बोल कर बाहर निकल गया।
मेरे ज़हन में कल रात की बातें ही चल रहीं थी और मेरे मन में ये जानने की बेहद उत्सुकता जाग उठी थी कि आख़िर वो सब किस बारे में बातें कर रहे थे? मैं सोचने लगा था कि आख़िर अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए किस तरह से सच का पता लगाया जाए? मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्यों न पापा और अंकल लोगों की जासूसी की जाए।
☆☆☆
"साहब जी घर नहीं जाना क्या आपको?" शिवकांत वागले के कानों में ये आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान विक्रम सिंह की डायरी से टूटा और उसने नज़र उठा कर केबिन के दरवाज़े के पास खड़े श्याम की तरफ देखा।
"हर रोज़ आप समय से घर चले जाते थे।" वागले को अपनी तरफ देखता देख श्याम ने झिझकते हुए कहा____"जबकि आज अभी भी आप यहीं पर है। मैंने सोचा आप किसी ज़रूरी काम में ब्यस्त होंगे इस लिए आपको दखल देखा उचित नहीं समझा था मैंने।"
श्याम की बात सुन कर वागले हल्के से चौंका और उसने अपने बाएं हाथ में बंधी घड़ी पर टाइम देखा तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। उसे पहली बार महसूस हुआ कि वो सच में आज अपने समय से ज़्यादा यहाँ पर रुक गया था। ज़ाहिर इसकी वजह विक्रम सिंह की डायरी ही थी। ख़ैर उसने एक गहरी सांस ली और डायरी को बंद कर के उसे ब्रीफ़केस में रखा।
"अच्छा हुआ कि तुमने हमें याद दिला दिया श्याम।" वागले ने एक नज़र सिपाही श्याम की तरफ डालते हुए कहा____"हम सच में एक ज़रूरी काम में ही ब्यस्त थे जिसकी वजह से हमें वक़्त का पता ही नहीं चला। ख़ैर चलो, सुबह मिलते हैं।"
वागले अपना ब्रीफ़केस ले कर कुर्सी से उठा और केबिन से बाहर की तरफ बढ़ चला। श्याम ने उसे सैल्यूट किया जिसका जवाब उसने अपने सिर को हल्का सा ख़म कर के दिया और जेल की लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए बाहर निकल गया। मन ही मन वो ये सोचता जा रहा था कि वो वाकई में विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने में इतना खो गया था कि उसे समय का ज़रा भी एहसास नहीं हुआ।
वागले घर पंहुचा तो सावित्री ने ही दरवाज़ा खोला। अपनी खूबसूरत बीवी को देख कर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई थी। सावित्री भी उसे देख कर मुस्कुराई थी। अंदर आने के बाद ड्राइंग रूम में उसे अपने दोनों बच्चे नज़र आए जिन्हें देख कर वो मुस्कुराया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
रात में डिनर करने के बाद वागले अपने बेड पर लेटा हुआ था। उसके ज़हन में बार बार यही सवाल उठ रहे थे कि विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्त लोग आख़िर किस बारे में ऐसी बातें कर रहे थे? उन सबके बच्चों का अगर स्वभाव बदल गया था तो इसमें ऐसी कौन सी बात हो गई थी जिसके लिए वो आपस में ऐसी बातें कर रहे थे? वागले को याद आया कि डायरी में विक्रम सिंह के ज़हन में भी यही सवाल उभरे थे और इन सभी सवालों के जवाब तलाशने के लिए उसने अपने पिता की जासूसी करने का सोच लिया था। विक्रम सिंह की तरह अब वागले के मन में भी ये जानने की तीव्र उत्सुकता बढ़ गई थी कि आख़िर विक्रम सिंह के पेरेंट्स और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुई थी? आख़िर अपने बच्चों के प्रति उन सबके मन में कौन सी बातें थी?
वागले काफी देर तक इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा। सावित्री के आने के बाद उसने उन सारी बातों को अपने ज़हन से निकाला और सावित्री को अपनी बाहों में भर कर उसके होठों को चूमने लगा था। जल्द ही दोनों के बीच प्यार का खेल शुरू हो गया। आज सावित्री ने खुल कर वागले का साथ दिया था और उसने वागले को वास्तव में खुश कर दिया था। वागले तो पहले से ही अपनी बीवी का दिवाना था इस लिए उसने उसे खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके बाद दोनों ही गहरी नींद में सो गए थे।
सुबह वागले अपने समय पर जेल में अपने केबिन में पहुंचा। सारे कामों से फुर्सत होने के बाद उसने विक्रम सिंह की डायरी निकाली और उस जगह से आगे पढ़ना शुरू किया जहां तक वो पढ़ चुका था।
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मैं अच्छी तरह जानता था कि अपने पिता की जासूसी करना अच्छी बात नहीं थी लेकिन क्योंकि मेरे मन में अब ये जानने की उत्सुकता हद से ज़्यादा बढ़ गई थी कि आख़िर उनके और उनके दोस्तों के बीच किस सिलसिले में बातें हुईं थी और आज वो ऑफिस में क्या बातें करने वाले थे?
मुख्य सड़क पर आ कर आ कर मैंने एक ऑटो वाले को रुकने का इशारा किया। ऑटो जैसे ही रुका तो मैंने उसे अपने पापा की कंपनी का पता बता कर चलने को कहा तो वो फ़ौरन ही चल पड़ा। मेरा दिल ये सोच सोच कर तेज़ी से धड़कने लगा था कि मैं अपने ही पिता की जासूसी करने का काम कर रहा हूं। दुर्भाग्य से अगर मेरे पापा को इसका पता चल जाए तो जाने क्या हो?
क़रीब बीस मिनट बाद मैंने ऑटो वाले से ऑटो रोकने के लिए कहा। ऑटो वाले को मैंने उसका किराया दिया तो वो चला गया। मैंने पापा की कंपनी के पहले ही ऑटो रुकवा दिया था। मैंने आस पास नज़र घुमाई तो बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स ही नज़र आईं, जिनमें न जाने कितने ही प्रकार के ऑफिस खुले हुए थे। दाहिनी तरफ की बिल्डिंग के शीर्ष पर अनुपमा लिखा हुआ था। उसी बिल्डिंग में मेरे पापा का ऑफिस था। मैंने एक गहरी सांस ली और उस बिल्डिंग की तरफ चल पड़ा। एकदम से मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर पापा मुझे वहां पर देखेंगे तो मुझसे क्या कहेंगे? मैंने इस बारे में कुछ देर सोचा और कुछ ही पलों में मैंने बहाना तैयार कर लिया।
ऑफिस में ज़्यादातर लोग मुझे पहचानते थे क्योंकि इसके पहले मैं पापा के साथ आता था और काम के बारे में सारी चीज़ें सीखता था। ख़ैर मैं बिल्डिंग में दाखिल हो गया। मेरा दिल एक बार फिर से तेज़ तेज़ धड़कने लगा था। पापा ने बताया था कि बिल्डिंग के तीन फ्लोर उन्होंने खरीद रखा है जिसमें उनका हर डिपार्टमेंट काम करता है। असल में यहाँ पर उनकी कंपनी का हेड ऑफिस था। यहीं से सारे कारोबारी मामले देखे जाते थे।
लिफ्ट से मैं ऊपर आया और जैसे ही मैं अंदर पहुंचा तो रिसेप्शन पर बैठी एक खूबसूरत लड़की पर मेरी नज़र पड़ी। वो मुझे देखते ही पहले तो चौंकी फिर मुस्कुराई, जवाब में मैं भी हल्के से मुस्कराया। मैं क्योंकि ज़रूरी काम के सिलसिले में यहाँ आया था इस लिए रिसेप्शनिस्ट से हेलो हाय न करते हुए सीधा पापा के ऑफिस की तरफ बढ़ चला।
पापा के ऑफिस में पहुंचा तो देखा ऑफिस बाहर से लॉक था। मुझे ये जान कर हैरानी हुई कि पापा अपने ऑफिस में हैं ही नहीं। मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि अगर वो घर से ऑफिस के लिए निकले थे तो मुझे यहाँ क्यों नहीं मिले? इस एक सवाल के साथ और भी न जाने कितने सवाल मेरे ज़हन में उभरते चले गए थे जिनका जवाब मेरे पास नहीं था। मैंने सोचा कि हो सकता है कि वो अपने किसी दोस्त के ऑफिस में जाने की बात किए हों। रंजन शेखर और तरुण इन तीनों के पेरेंट्स का अपना अलग अलग कारोबार था तो हो सकता है कि वो इनमें से ही किसी के यहाँ गए हों। मुझे अपना ये ख़याल जंचा लेकिन मेरे पास अब पापा तक पहुंचने का न तो कोई जरिया था और ना ही कोई बहाना। मैं निराश हो कर वापस बाहर निकलने का सोचा तो मेरे ज़हन में एक ख़याल आया कि क्या मुझे रिसेप्शनिस्ट से पापा के बारे में पूछना चाहिए? इस ख़याल के जवाब में मुझे खुद से ही जवाब मिल गया कि पापा भला अपने किसी निजी काम के बारे में एक रिसेप्शनिस्ट को क्यों बताएँगे? कहने का मतलब ये कि मैं पूरी तरह निराश हो कर वहां से निकल गया।
मैं निराश हो कर बाहर आ गया था। पापा के यहाँ न मिलने से मेरे मन में और भी ज़्यादा उत्सुकता भर गई थी। अब मैं हर हालत में जानना चाहता था कि आख़िर मामला क्या है? यही सब सोचते हुए मैंने फिर एक ऑटो किया और इस बार अपने दोस्त रंजन के घर की तरफ चल पड़ा। मेरा ख़याल था कि इस बारे में मुझे रंजन और बाकी दोस्तों से भी बात करनी चाहिए थी। आख़िर ये मामला सिर्फ मेरे बारे में ही बस नहीं था बल्कि मेरे साथ साथ मेरे सभी दोस्तों के बारे में भी था। ख़ैर जल्द ही मैं रंजन के घर पहुंच गया।
"क्या हुआ बे, तू किसी बात से परेशान है क्या?" रंजन के कमरे में जब मैं पहुंचा तो उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा था। मैंने उसे अपने मन की सारी बातें बताई तो वो कुछ देर चुप रहा और फिर बोला कि चलो इस बारे में अपने बाकी दोस्तों से भी बात करते हैं। रंजन के साथ मैं कुछ ही समय में अपने बाकी दोस्तों के साथ अपने पुराने अड्डे पर पहुंच गया। मैंने उन सबसे वो सब बताया जो कल रात मेरे पेरेंट्स के कमरे में उन लोगों के पेरेंट्स ने बात चीत की थी।
"तो इसमें इतना ज़्यादा सोचने की क्या बात है भाई?" तरुण ने कहा____"सबके पेरेंट्स अपने बच्चों के बारे में यही चाहते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य बेहतरीन हो। हो सकता है कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात करते रहे हों।"
"तरुण सही कह रहा है विक्रम।" शेखर ने कहा____"मुझे भी ऐसा ही लगता है। तू बेकार में ही इतना ज़्यादा सोच रहा है।"
"चल मान लिया कि वो हमारे ब्राइट फ्यूचर के बारे में ही बात कर रहे थे।" मैंने अपने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"तो इसके लिए उन्हें अपने बीच मिस्ट्री क्रिएट करने की क्या ज़रूरत थी? अगर बात सिर्फ हमारे ब्राइट फ्यूचर की ही होती तो वो इस बारे में हमसे भी तो बातें कर सकते थे। हम सब तो वैसे भी उनके कारोबार में लग ही गए हैं तो अब इसमें और क्या चाहिए उन्हें? तुम लोग मानो या न मानो लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि उनके मन में कुछ तो ऐसा ज़रूर है जिसे फिलहाल हम समझ नहीं पा रहे हैं।"
"पता नहीं तुझे ऐसा क्यों लगता है।" रंजन ने कहा____"जबकि मुझे भी इसमें ऐसा वैसा कुछ भी नहीं लग रहा। अच्छा अब छोड़ इस बात को, क्यों न हम लोग आज उसी क्लब में चलें और वहां पर नए नए माल के साथ मज़ा करें। उस क्लब की लड़कियों ने ही तो हमारी ज़िन्दगी में खुशियों के चिराग जलाए थे तो क्यों न आज फिर वहीं चला जाए। क्या कहते हो तुम लोग?"
"मैं तो चलने को तैयार हूं भाई।" तरुण ने मुस्कुराते हुए कहा____"काफी टाइम हो गया उस क्लब में गए हुए।"
"मैं भी चलूंगा भाई।" शेखर ने कहा____"आज तो मैं दो दो लड़कियों को एक साथ पेलूंगा।"
"अब तू क्यों ख़ामोश हो गया बे?" रंजन ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"क्या अभी भी उन्हीं बातों के बारे में सोच रहा है?"
"तुम लोग जाओ।" मैंने कहा____"मुझे कुछ काम है इस लिए मैं तुम लोगों के साथ नहीं जा पाऊंगा।"
मेरे इंकार कर देने पर तीनों मेरी तरफ देखने लगे थे। एक दो बार और उन लोगों ने मुझे चलने पर ज़ोर दिया लेकिन मैंने जाने से साफ़ मना कर दिया। उन तीनों के जाने के बाद मैं भी अपने घर चला गया था। मेरे तीनों दोस्तों को उन बातों में कोई मिस्ट्री नज़र नहीं आई थी लेकिन मेरा मन अब भी यही कह रहा था कि कुछ तो बात ज़रूर है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं किस तरीके से इस बारे में सच का पता लगाऊं?
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Shukriya mahi madam is khubsurat sameeksha ke liye,,,,बीसवां भाग
बहुत ही जबरदस्त और बेहतरीन।।
जिसको जिस चीज़ की तमन्ना हो और काफी मसक्कत के बाद वो चीज़ उसे मिलने लगे तो उसके चेहरे का निखार और खुशी देखते ही बनती है। विक्रम के माँ को लगता है कि उसके बेटे को कोई लड़की मिल गई है जिसके कारण वो इतना खुश रहने लगा है, लेकिन अब उन्हें कौन बताए कि उनके बेटे को एक लड़की नहीं बल्कि कई औरतें मिली हैं जिन्हें उनका बेटा खुशी देता है।। संस्था ने आत्मरक्षा के लिए विक्रम को जुडो और कराटे का प्रशिक्षण भी दिया।।
हर चीज़ की एक अति होती है। अगर कोई चीज़ हद से ज्यादा हो जाए तो वो तकलीफ और परेशानी का सबब बन जाए है। विक्रम भले ही चूत मार संस्था से अपनी कामेक्षा की पूर्ति के लिए जुड़ा था, लेकिन एक वर्ष होते होते वो इस काम से ऊब गया। अब उसे एक ऐसी लड़की की तलाश है जो सिर्फ उसके लिए बनी हो। विक्रम का सोचना भी सही है। आखिर कब तक वो दूसरों की औरतों को संतुष्ट कर अपनी खुशी तलाश करेगा। आखिर कोई तो ऐसा होना चाहिए जो विक्रम की हो।।
विक्रम को नई संस्था का कार्यभार दिया उसके पापा ने, जिसे उसने मन लगाकर किया और साथ मे अपने पिछले कार्य को भी जारी रखा, लेकिन पार्टी वाले दिन उसे कुछ ऐसा दिखा जो उसकी समझ से परे था। क्या विक्रम के मम्मी पापा अपने दोस्तों और उनकी पत्नियों के साथ स्वापिंग का खेल खेलते हैं। कुछ तो है जिसके कारण उसके पापा के दोस्त अपनी पत्नियों के साथ उनके कमरे में रुके हैं।।