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AdulteryC. M. S. [Choot Maar Service] ( Completed )
देखा हमने पहले ही कहा था कि विक्रम सिंह की डायरी ने वागले के जीवन मे उथल पुथल मचा रखी है। माना कि उस डायरी की वजह से ही वागले ने सेक्स के असली चरमसुख को प्राप्त किया है, लेकिन उसके लिए भी उसे अपनी पत्नी से शुरू शुरू में बहुत कड़वा व्यवहार करना पड़ा था। एक तरह से ये कहा जाए तो गलत न होगा कि विक्रम सिंह की डायरी पढ़ने के बाद वागले ने अपनी पत्नी के साथ जबरन और उसकी मर्जी के खिलाफ अपनी मनमानी की। ये अलग बात है कि अब सावित्री को भी इन सब मे गहरी रुचि हो गई है उसे भी ये सब अच्छा लगने लगा है।
लेकिन ये तो वही बात हो गई कि रसरी आवत जात से सिल पे पड़त निशान।।।। लेकिन आज तो वागले साहब ने हद ही कर दिया। अपनी चरित्रवान पत्नी के चरित्र पर ही शक कर लिया। यहां तक सोच लिया कि सावित्री चूत मार संस्था की मदद लेती है अपनी वासना शांत करने के लिए।
अब तो हम भी कह रहे हैं कि ये कहानी जितनी जल्दी हो सके समाप्त कर दीजिए नहीं तो पता लगा वागले साहब जिस जेल के रक्षक हैं उसी जेल में कुछ समय बाद बन्द मिलें अपनी पत्नी के कत्ल के इल्ज़ाम में।।
आखिर जो नहीं होना चाहिए था वो हो रहा है। आखिर कैसे एक माँ ऐसा बोल सकती है कि उसके बेटे को मार दो, जबकि उसी माँ ने अपने उसी बेटे को नौ महीने अपनी कोख में रखा है जिसे वो मारने की बात कर रही है। एक बाप ऐसा कैसे बोल सकता है कि उसके बेटे का जीवित रहना उसके लिए खतरे से खाली नहीं है। आखिर उसी बाप ने तो उस बेटे को अपने कंधे पर बैठकर दुनिया दिखाई थी। अपनी उंगली पकड़कर चलना सिखाया था और आज उसी को जान से मारने की बात कर रहा है। आखिर ऐसा कौन सा नियम कानून है जो अपनी ही संतान की जान ले ले। ऐसे नियम कानून को भूलकर सबसे पहले तो इन्हें अपने बेटे की जान बचानी चाहिए, लेकिन ये सब अपनी जान बचाने के पीछे पड़े हुए हैं।। इनकी बातों से लगता है कि चूत मार संस्था का मुखिया कोई और है।।
बाहर खिड़की के पास खड़े विक्रम की इस समय क्या स्थिति हुई है इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता। उसे तो अपने कानों सुने पर भी भरोसा नहीं हो रहा होगा। उसे लग रहा होगा कि कोई तो आकर ये कह दे कि उसने जो भी सुना वो झूठ है। उनका वहम है। विक्रम कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि जिस माँ बाप को वो दुनिया का सबसे अच्छा मां बाप समझता था वो दुनिया के सबसे बुरे मां बाप हैं।
बहरहाल विक्रम सिंह तो वहां से भाग निकला और जहां तक लगता है उसे कोई पकड़ नहीं पाएगा। वो अपने आपको बचा लेगा, लेकिन सभी का शक उसके ऊपर जरूर जाएगा। शायद अवधेश अपने बेटे के बारे में जानने के लिए उसकी कंपनी में भी फोन कर सकता है। अब इतना कुछ सुनने और जानने के बाद विक्रम का अगला कदम क्या होगा।।
अब तक... मेरे इंकार कर देने पर तीनों मेरी तरफ देखने लगे थे। एक दो बार और उन लोगों ने मुझे चलने पर ज़ोर दिया लेकिन मैंने जाने से साफ़ मना कर दिया। उन तीनों के जाने के बाद मैं भी अपने घर चला गया था। मेरे तीनों दोस्तों को उन बातों में कोई मिस्ट्री नज़र नहीं आई थी लेकिन मेरा मन अब भी यही कह रहा था कि कुछ तो बात ज़रूर है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं किस तरीके से इस बारे में सच का पता लगाऊं? अब आगे.... दोपहर हो गई थी। मैं अपने घर में ही अपने कमरे में बेड पर लेटा हुआ था। मैं अब भी यही सोच रहा था कि पापा अगर अपने ऑफिस में नहीं थे तो आख़िर वो कहां गए होंगे? मेरे मन में ये विचार भी आया था कि मैं उनके दोस्तों के ऑफिसों में जा कर एक बार चेक करूं लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि मुझे इस तरह चेक नहीं करना चाहिए क्योंकि संभव है कि पता चल जाने पर इससे पापा या तो मुझसे नाराज़ हो जाएं या फिर बात बिगड़ जाए। ये सोच कर मैंने फ़ैसला किया कि अगले दिन सुबह पापा के ऑफिस जाने के बाद मैं भी उनके पीछे जाऊंगा। मैं किसी साए की तरह उनका पीछा करुंगा और इस बात का ख़ास ध्यान रखूंगा कि उन्हें मेरे द्वारा अपना पीछा किए जाने की ज़रा भी भनक न लग सके। दोपहर को सविता आंटी ने मुझे लंच करने के लिए कहा तो मैंने लंच किया और फिर बेड पर आ कर सो गया। शाम को मैं उठा तो फ्रेश हो कर घूमने निकल गया। मम्मी पापा के आने तक मैं बाहर ही अपना टाइम पास करता रहा। रात में मैंने मम्मी पापा के साथ ही डिनर किया और फिर अपने कमरे में जा कर सो गया। मुझे बड़ी शिद्दत से सुबह होने का इंतज़ार था। इस बीच मैं संस्था द्वारा दिए गए मोबाइल को भी चेक कर लेता था। शुक्र था कि उसमें कोई मैसेज नहीं आया था। असल में मेरा भी किसी को सेक्स की सर्विस देने जाने का मन नहीं था। अगली सुबह मैं जल्दी उठ कर फ्रेश हुआ और नास्ते के लिए डाइनिंग टेबल पर आ गया। नास्ते के दौरान मम्मी पापा से सामान्य बात चीत ही हुई। नास्ते के बाद पापा अपने कमरे में अपना ब्रीफ़केस लेने चले गए। इधर मैं भी अपने कमरे में अपनी मोटर साइकिल की चाभी लेने चला गया। पापा कमरे से निकल कर बाहर चले गए। उनके निकलते ही मैं भी कमरे से निकल कर बाहर आया तो मम्मी ने मुझसे पूछा कि इतनी सुबह मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने उन्हें बताया कि दोस्तों से मिलने जा रहा हूं। मेरा जवाब सुन कर मम्मी ने बस मुस्कुरा कर हाँ में सिर हिला दिया। घर से बाहर आ कर मैंने मोटर साइकिल निकाली और उसमें बैठ कर फ़ौरन ही उड़न छू हो गया। मैं नहीं चाहता था कि पापा की कार मेरी आँखों से ओझल हो जाए इस लिए मैं तेज़ी से उनके पीछे मोटर साइकिल को दौड़ा दिया था। मैंने देखा पापा की कार कुछ वाहनों के आगे जा रही थी। मैं भी उनसे सामान्य दूरी बना कर उनके पीछे पीछे चलने लगा। मेरा दिल ये सोच कर तेज़ी से धड़क रहा था कि अगर पापा को मेरे द्वारा अपना पीछा किए जाने की भनक लग गई तो यकीनन गड़बड़ हो सकती थी। क़रीब दस मिनट बाद मैंने देखा कि पापा की कार शहर से बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ मुड़ गई है। मेरे मन में सवाल उभरा कि वो शहर से बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ क्यों जा रहे थे? अगर वो घर से ऑफिस के लिए ही निकले थे तो ये ऑफिस की तरफ जाने वाला रास्ता नहीं था। शहर से बाहर की तरफ जाने वाला रास्ता ऐसा था जिसमें ज़्यादा वाहन नहीं चलते थे। ऐसे में अगर मैं पापा का पीछा करता तो वो कार के बैक या साइड मिरर से देख सकते थे कि कोई मोटर साइकिल वाला उनके पीछे आ रहा है। वो मोटर साइकिल को पहचान जाते और फिर उन्हें ये समझने में ज़रा भी देरी नहीं होती कि मैं उनके पीछे आ रहा हूं। हालांकि ये मेरा अपना ख़याल था क्योंकि मैं इस वक़्त एक चोर जैसी हैसियत रखता था। जबकि मेरे जैसी मोटर साइकिल तो कई सारी थीं शहर में तो इस हिसाब से ये ज़रूरी नहीं कि उनके पीछे आने वाला उनका अपना ही बेटा हो सकता है। बात तर्क संगत तो थी लेकिन मैंने सोचा कि पापा के मन में इस तरह का शक ही क्यों डालना। ये सोच कर मैंने उनसे काफी ज़्यादा फासला बना लिया और उनका पीछा करना जारी रखा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पापा शहर से बाहर आख़िर जा कहां रहे हैं? तभी एकदम से मेरे ज़हन में बिजली सी कौंधी। शहर से जाने वाला ये वही रास्ता था जिस रास्ते से मैं चूत मार सर्विस जैसी संस्था में जाता था, या ये कहें कि जहां मैं पिछले एक साल से गुप्त नौकरी कर रहा था। नौकरी भी ऐसी जो औरतों और मर्दों को सेक्स की सर्विस प्रोवाइड करती है। साला ऐसी सर्विस के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। ख़ैर इस ख़याल के साथ ही मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा था। मेरे मन में ढेर सारे सवाल उभरने लगे थे। पापा की कार एक मोड़ पर मुड़ गई। मेरे और उनके बीच काफी लम्बा फासला था। मुझे उस मोड़ तक पहुंचने में क़रीब दस सेकंड का टाइम लगा। रास्ते के दोनों तरफ दो चार छोटे छोटे टीलेनुमा पहाड़ थे जिनके बीच से रास्ता बना हुआ था। पापा की कार क्योंकि मोड़ पर मुड़ चुकी थी इस लिए वो उन छोटे छोटे टीलेनुमा पहाड़ की वजह से मुझे दिखाई देना बंद हो गए थे। इधर दस सेकंड बाद जैसे ही मैं उस मोड़ पर मुड़ा तो एकदम से एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ मेरे मोटर साइकिल के सामने आ गया। मैं चाह कर भी कुछ न कर सका और मोटर साइकिल उस पत्थर से टकरा गई जिससे मैं उस मोटर साइकिल से उछल कर सड़क पर जा गिरा। आँखों के सामने एकदम से अँधेरा छाने लगा और कुछ ही पलों में मैं अपने होश खोता चला गया। मुझे जब होश आया तो मैंने अपने आपको हॉस्पिटल में पाया। खुद को हॉस्पिटल के बेड पर पड़े देख मैं एकदम से हड़बड़ा गया था। मुझे समझ में न आया कि मैं हॉस्पिटल में कैसे पहुंच गया था? मैंने पिछला सब कुछ याद करने की कोशिश की तो मुझे वो सब याद आता चला गया जो जो मेरे साथ हुआ था। यानि मेरी याददास्त सही सलामत थी। मैंने खुद को देखा तो पता चला मेरे जिस्म पर कई जगह पट्टियां लगी हुईं थी और सिर में भी। मुझे अच्छी तरह याद था कि मेरा उस मोड़ पर एक्सीडेंट हुआ था और उसी के चलते मैं बेहोश हो गया था लेकिन अब मेरे ज़हन में कई सारे सवाल थे कि उसके बाद मैं यहाँ कैसे पहुंचा या फिर कौन ले कर आया था मुझे? एक चीज़ जो मुझे सबसे ज़्यादा खटक रही थी वो चीज़ थी पत्थर। मैं जैसे ही उस मोड़ पर मुड़ा था तो वो पत्थर लुढ़कता हुआ मेरी मोटर साइकिल के सामने आ गया था। कल्पना से परे जब कोई चीज़ किसी के साथ होती है तो उसके साथ मेरे जैसा ही हाल होता है। मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि वो पत्थर उस वक़्त ऐसे ही नहीं मेरे सामने आ गया था बल्कि उसे मेरे सामने जान बूझ कर किसी के द्वारा लाया गया था। अब सवाल ये है कि ऐसा किसने किया होगा? क्या खुद मेरे पापा ने किया होगा, लेकिन वो ऐसा क्यों करेंगे? भला कोई भी पिता अपने बेटे को मौत के मुँह में धकेल देने वाला काम क्यों करेगा? ज़ाहिर है ये किसी ऐसे ब्यक्ति का काम है जो नहीं चाहता था कि मैं उस रास्ते पर आगे जाऊं लेकिन सवाल तो अब भी वही है कि आख़िर क्यों? सोचते सोचते मेरा सिर दुखने लगा तो मैं आँखें बंद कर के गहरी गहरी साँसें लेने लगा। तभी दरवाज़ा खुला और डॉक्टर के लिबास में एक आदमी अंदर आया। मुझे होश में आया देख वो मेरे क़रीब आया और फिर मुझे देख कर मुस्कराया। "तो होश आ गया आपको?" उस डॉक्टर ने उसी मुस्कान के साथ कहा____"बहुत अच्छा, ख़ैर अब कैसा महसूस कर रहे हैं आप?" "मैं यहाँ कैसे पहुंचा डॉक्टर?" मैंने खुद को शांत रखते हुए पूछा था। "दो दिन पहले एक आदमी आपको यहाँ ले कर आया था।" डॉक्टर ने सामान्य लहजे से कहा____"उसने बताया कि आप शहर के बाहर जाने वाले रास्ते पर एक जगह बेहोशी की हालत में पड़े हुए थे। उस आदमी ने एक अच्छे इंसान का परिचय देते हुए आपको यहाँ तक पहुंचाया। उसके बाद आपके पॉकेट से हमें आपकी आइडेंटिटी मिली जिसके द्वारा हमने पहले पुलिस को इन्फॉर्म किया और पुलिस ने आपकी आइडेंटिटी के माध्यम से आपके घर वालों को।" डॉक्टर की लम्बी चौड़ी बातें सुन कर मैं सोचने लगा कि मुझे बेहोशी की हालत में हॉस्पिटल पहुंचाने वाला वो आदमी कौन रहा होगा? "क्या मैं उस आदमी से मिल सकता हूं डॉक्टर?" मैंने डॉक्टर की तरफ देखते हुए कहा____"जिसने मुझे उस हालत में यहाँ पहुंचाया था?" "जी बिलकुल मिल सकते हैं।" डॉक्टर ने मेरी उम्मीद के विपरीत कहा____"वो आदमी एक बार आपको देखने ज़रूर आता है यहां। अभी भी वो बाहर आपके पेरेंट्स के पास बैठा हुआ है। एक मिनट मैं आपके पेरेंट्स को बता देता हूं कि आपको होश आ गया है।" कह कर डॉक्टर कमरे से चला गया। थोड़ी देर बाद कमरे में डॉक्टर के साथ साथ मेरे पेरेंट्स मेरे पास आए। उनके पीछे एक आदमी भी था जो कि मेरे लिए निहायत ही अजनबी था। मम्मी पापा ने जैसे ही मुझे देखा तो वो भाग कर मेरे पास आए। मम्मी ने तो एकदम से झुक कर मुझे खुद से छुपका ही लिया था। उनकी आँखों से आंसू छलक पड़े थे। पापा की भी आँखें नम थीं। "ऊपर वाले का लाख लाख शुक्र है कि तुझे होश आ गया मेरे बेटे।" मम्मी ने मेरे चेहरे को सहलाते हुए कहा____"तेरे एक्सीडेंट का सुन कर तो हम दोनों की जान ही निकल गई थी। अगर तुझे कुछ हो जाता तो हम कैसे तेरे बिना जी पाते?" "कैसे हो दोस्त?" पापा के पीछे खड़े एक आदमी ने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर पूछा____"अब बेहतर लग रहा है न?" "क्या आप ही मुझे यहाँ ले कर आए थे?" मैंने उस आदमी से पूछा तो पापा ने कहा____"हां बेटे, इन्होंने ही तुम्हें हॉस्पिटल पहुंचाया था। इन्होंने मुझे बताया कि ये उस रास्ते से गुज़र रहे थे तो रास्ते में तुम इन्हें सड़क पर बेहोश पड़े हुए नज़र आए थे। लेकिन बेटे तुम वहां पर कैसे थे? मेरा मतलब है कि तुम उस रास्ते पर किस लिए गए थे?" पापा के इस सवाल का जवाब भला मैं उन्हें कैसे दे सकता था इस लिए बहाना बनाते हुए कहा___"मैं तो बस लॉन्ग ड्राइव पर निकला था पापा। सोचा था किसी ऐसी जगह पर जाऊंगा जहां पर शान्ति और सुकून हो। मुझे क्या पता था कि वहां पर ये सब हो जाएगा।" "चलो कोई बात नहीं बेटे।" पापा ने कहा____"मैं बस यही कहूंगा कि कहीं भी जाओ लेकिन थोड़ा सम्हल कर और देख कर मोटर साइकिल चलाया करो। तुम हमारी इकलौती औलाद हो बेटा, अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो हम कहीं के न रहते।" "माफ़ कर दीजिए पापा।" मैंने खेद भरे भाव से कहा____"आईन्दा ध्यान रखूंगा।" कहने के साथ ही मैंने उस आदमी की तरफ देखा और कहा____"आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने मेरी जान बचाई।" "मैंने तो बस इंसानियत का एक मामूली सा फ़र्ज़ निभाया है दोस्त।" उस आदमी ने कहा____"मुझे यकीन है कि अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो तुम भी यही करते।" "आपने मुझे दोस्त कहा?" मैं अंदर से ये सोच कर थोड़ा सोच में पड़ गया था कि उसने दूसरी बार मुझे दोस्त कहा था इस लिए अब मैं जानना चाहता था कि मुझसे उम्र में बड़ा होने के बावजूद वो मुझे दोस्त क्यों कह रहा था? "हम दोनों मिले इस लिए कोई न कोई रिश्ता तो बन ही गया न।" उस आदमी ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने हमारे बीच के रिश्ते को दोस्ती का नाम देना ज़्यादा बेहतर समझा। क्योंकि ये रिश्ता बहुत ख़ास होता है।" "आपका नाम क्या है?" मैं अभी भी अंदर ही अंदर जाने क्या सोचे जा रहा था। "सन्दीप।" उसने सादगी से कहा___"सन्दीप गुप्ता।" सन्दीप गुप्ता जाने क्यों मुझे कोई ख़ास ब्यक्ति लग रहा था लेकिन इस बारे में फिलहाल भला मैं क्या कर सकता था? ख़ैर संदीप ने मुझे अपना कार्ड दिया और फिर चला गया। उसके बाद मेरे पेरेंट्स मुझे भी हॉस्पिटल से घर ले आए। मेरे जिस्म में तो ज़्यादा गहरी चोट नहीं लगी थी लेकिन सिर पर गहरी चोट लगी थी। मुझे बाद में पता चला कि मेरे सिर में डॉक्टर को टाँके लगाने पड़े थे। पापा ने दूसरे शहर वाली ब्रांच में फ़ोन कर के वहां के मैनेजर को सब समझा दिया था इस लिए अब मुझे वहां जाने की ज़रूरत नहीं थी। मम्मी पापा ने कहा कि जब तक मैं पूरी तरह ठीक नहीं हो जाता तब तक मैं घर से बाहर कहीं नहीं जाऊंगा। मैं क्योंकि अपनी हालत को बखूबी समझता था इस लिए मैंने भी मम्मी पापा की बात को मान लेना ही बेहतर समझा। मेरे सभी दोस्त हर रोज़ मुझे देखने आते थे और कुछ देर मेरे पास रुकते और चले जाते। बस इसी तरह दिन गुज़र रहे थे। मैं धीरे धीरे बेहतर होता जा रहा था किन्तु मेरे ज़हन में कई सारी बातें और कई सारे सवाल थे जिनका जवाब मुझे हर हालत में चाहिए था। मम्मी पापा के ऑफिस जाने के बाद बंगले के अंदर सविता आंटी और बाहर एक दो नौकर थे जो बंगले की देख रेख और लॉन में लगे हर तरह के पेड़ पौधों की देख रेख करते थे। जहां एक तरफ मैं अभी भी ये सोच रहा था कि पापा उस दिन शहर से बाहर वाले उस तरफ के रास्ते पर क्यों जा रहे जिस तरफ संस्था का मुख्यालय था तो वहीं मैं इस बात से भी परेशान था कि संस्था वाला मोबाइल उस घटना के बाद से ही गायब था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वो मोबाइल अगर मुझसे कहीं पर गिरा था तो आख़िर कहां? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो किसी के हाथ लग गया हो? हालांकि वो मोबाइल ऐसा था कि उसमें से कोई किसी को कॉल नहीं कर सकता था और ना ही उसमें किसी की कॉल आ सकती थी। सबसे अच्छी बात ये भी थी कि उसमें जब भी संस्था के द्वारा मैसेज आता था तो वो मैसेज मेरे पढ़ लेने के बाद अपने आप ही डिलीट हो जाता था। मैंने कई बार उस डिलीट हो गए मैसेज को खोजने की कोशिश की थी लेकिन नाकमयाब ही रहा था। ख़ैर यहाँ सवाल ये था कि वो मोबाइल आख़िर गया तो गया कहां? अचानक ही मेरे ज़हन में संदीप गुप्ता का चेहरा उभर आया। सन्दीप गुप्ता ही वो शख़्स था जो बेहोशी की हालत में मुझे उस जगह से हॉस्पिटल ले कर आया था। मतलब साफ़ था कि वो मोबाइल उसी के हाथ लगा होगा, लेकिन सवाल ये है कि उसने मुझसे उस मोबाइल का ज़िक्र क्यों नहीं किया? ये ऐसी बात थी कि उस मोबाइल के बारे में मैं किसी को बता भी नहीं सकता था। मेरे पास बस एक ही चारा था कि मैं संदीप से संपर्क स्थापित कर के उससे उस मोबाइल के बारे में पूछूं। संदीप उस दिन मुझे अपना कार्ड दे कर गया था जो कि अभी भी मेरे पास ही था। मैंने फैसला किया कि मुझे उस मोबाइल के बारे में जानने के लिए संदीप से बात करनी ही होगी। मुझे ये भी डर था कि कहीं संस्था के द्वारा उस मोबाइल पर कोई मैसेज न भेजा गया हो। उस सूरत में मेरे लिए बड़ी गंभीर समस्या हो सकती थी। बहुत सोच विचार कर के मैंने सविता आंटी को आवाज़ लगा कर उन्हें अपने कमरे में बुलाया। असल में मेरे पास खुद का कोई मोबाइल नहीं था। अभी तक हर काम लैंड लाइन फ़ोन से ही चलता आया था। इस लिए जब सविता आंटी आईं तो मैंने उनसे कहा कि वो ड्राइंग रूम से लैंड लाइन फ़ोन को उठा कर मेरे पास ले आएं। मेरे कहने पर उन्होंने ऐसा ही किया। साविता आंटी के जाने के बाद मैंने संदीप के दिए हुए कार्ड से उसका नंबर डायल किया। रिसीवर मैंने कान से लगा लिया था और मुझे दूसरी तरफ रिंग जाती हुई साफ़ सुनाई दे रही थी। कुछ ही रिंग के बाद कॉल रिसीव किया गया। "हैलो।" उधर से संदीप की जानी पहचानी आवाज़ मेरे कान में गूँजी। "हैलो संदीप जी।" मैंने खुद को संयत करते हुए कहा____"मैं विक्रम बोल रहा हूं। वही विक्रम जिसे कुछ दिन पहले आप बेहोशी की हालत में हॉस्पिटल ले कर गए थे।" "ओह! हॉ।" उधर से मधुर स्वर उभरा____"मैं पहचान गया हूं। कैसे हो दोस्त?" "मैं ठीक हूं।" उसके दोस्त कहने पर पता नहीं क्यों मुझे थोड़ा अजीब सा लगा था, किन्तु फिर मैंने कहा____"असल में मुझे आपसे कुछ पूछना था। अगर आपके पास समय हो तो क्या मैं...?" "बिल्कुल दोस्त।" उसने मेरी बात पूरी होने से पहले ही कहा____"अपने दोस्त से बात करने का मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। तुम बेझिझक हो कर पूछो, क्या पूछना चाहते हो मुझसे? हालांकि मुझे कुछ कुछ अंदाज़ा तो है लेकिन फिर भी पूछो।" "वो असल में।" मैं ये सोच कर मन ही मन चौंक उठा था कि उसे इस बात का अंदाज़ा है कि मैं उससे क्या पूछना चाहता हूं। मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि क्या सच में वो मोबाइल के बारे में ही अंदाज़ा लगाया होगा? ख़ैर मैंने आगे कहा____"उस दिन के हादसे में मेरा एक मोबाइल गुम हो गया है। अब क्योंकि मैं तो बेहोश ही था इस लिए मुझे भला ये कैसे पता हो सकता है कि वो मोबाइल कहां गया होगा लेकिन मुझे बेहोशी की हालत में आप ही हॉस्पिटल ले कर गए थे तो मैं ये सोच रहा हूं कि हो सकता है कि वो मोबाइल आपको ही मिला हो।" "सही कहा दोस्त।" संदीप की आवाज़ मेरे कान में गूँजी____"उस जगह पर मुझे एक मोबाइल भी मिला था लेकिन उस वक़्त हालात ऐसे थे कि मुझे उसे वापस करने का ख़याल ही नहीं आया था। मैंने सोचा जब तुम ठीक हो जाओगे तो तुम्हें वापस कर दूंगा।" "तो उस दिन जब आप हॉस्पिटल आए थे तो आपने मुझे वो मोबाइल दिया क्यों नहीं था?" मैंने शशंक भाव से पूछा था। "माफ़ करना दोस्त।" उधर से संदीप ने खेद भरे भाव से कहा____"मैं किसी काम में उलझा था और तुम्हारा मोबाइल मेरे घर पर रखा हुआ था। उस दिन मैं बाहर ही था इस लिए वहीं से तुमसे मिलने हॉस्पिटल चला आया था। उसके बाद फिर से काम में उलझ गया। दुबारा तुमसे मुलाक़ात करने का समय ही नहीं मिला। अभी भी मैं शहर से बाहर हूं लेकिन फ़िक्र मत करो दोस्त, मैं एक दो दिन में वापस आ कर तुम्हारा मोबाइल तुम्हें वापस कर दूंगा।" "ठीक है।" मैं अब इसके सिवा भला क्या कहता____"मैं इंतज़ार करुंगा आपका।" सन्दीप से बात करने के बाद मुझे इस बात से तो थोड़ा राहत मिली थी कि चलो मोबाइल सुरक्षित है और संदीप के पास है लेकिन मैं अब इस बात से थोड़ा चिंता में भी पड़ गया था कि अगर उस मोबाइल में संस्था के द्वारा कोई मैसेज भेजा गया होगा तो क्या संदीप ने उसे पढ़ा होगा? क्या उस मोबाइल के द्वारा वो मेरे बारे में ये जान गया होगा कि मैं किस तरह का काम करता हूं? ये सवाल ऐसे थे जो प्रतिपल मेरे दिलो दिमाग़ में हलचल पैदा किए जा रहे थे और मैं अंदर ही अंदर बेचैनी सी महसूस करता जा रहा था। मेरे ज़हन में संस्था के नियम कानून गूंजने लगे थे और साथ ही वो कसम भी कि मैं ऐसे हर उस इंसान को ख़त्म कर दूंगा जो मेरा राज़ जान जाएगा। अचनाक से ही मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरी ज़िन्दगी में चारो तरफ से एक ऐसा मायाजाल छाने लगा था जिसकी वजह से मैं बेबस और लाचार सा बनता जा रहा था। पता नहीं क्यों किसी अनहोनी की आशंका मेरे ज़हन में प्रतिपल घर करती जा रही थी। एक अंजाना सा भय मेरे रोम रोम को कँपकँपाने लगा था।
अब तक... अचनाक से ही मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरी ज़िन्दगी में चारो तरफ से एक ऐसा मायाजाल छाने लगा था जिसकी वजह से मैं बेबस और लाचार सा बनता जा रहा था। पता नहीं क्यों किसी अनहोनी की आशंका मेरे ज़हन में प्रतिपल घर करती जा रही थी। एक अंजाना सा भय मेरे रोम रोम को कँपकँपाने लगा था। अब आगे....
बड़ी मुश्किल से मेरे दो दिन गुज़रे थे। इन दो दिनों में मेरे ज़हन में न जाने कैसे कैसे ख़याल उभरे थे जिनकी वजह से मेरे मन की हालत बड़ी अजीब सी हो गई थी। ख़ैर संदीप अपने वादे के अनुसार दो दिन बाद मेरे घर आया। जिस वक़्त वो आया था उस वक़्त दिन के दो बज रहे थे। सविता आंटी ने मुझे बताया था कि संदीप नाम का कोई ब्यक्ति मुझसे मिलने आया है। मैंने आंटी से कहा कि वो संदीप को मेरे कमरे में ही भेज दें। संदीप मेरे कमरे में आया तो सबसे पहले उसने मेरा हाल चाल पूछा और फिर अपना हाल चाल भी बताया। उसके बाद उसने मुझे वो मोबाइल दिया और फिर ये कह कर चला गया कि उसे किसी ज़रूरी काम के सिलसिले में जल्दी ही निकलना है। मेरे पास भी उसे रोकने का कोई बहाना नहीं था इस लिए मैंने उसे जाने दिया। संदीप के जाने के बाद मैंने मोबाइल की तरफ देखा। मोबाइल सही सलामत था और चालू हालत में था। वो मोबाइल ऐसा था कि उसमें सामान्य मोबाइल की तरह कोई भी फंक्शन नहीं था। उसमें सिर्फ मैसेजेस आते थे। शुरू शुरू में मैं उसकी ये ख़ासियत देख कर बड़ा हैरान हुआ था। मोबाइल में जब भी संस्था द्वारा कोई मैसेज आता था तो वो मेरे पढ़ लेने के बाद अपने आप ही डिलीट हो जाता था जो कि मेरे लिए बड़ी हैरत की बात होती थी। ख़ैर मैं ये सोच रहा था कि संदीप ने अगर उस मोबाइल को चेक किया होगा तो ज़ाहिर है कि वो भी मोबाइल की ख़ासियत देख कर हैरत में पड़ गया रहा होगा। दूसरी बात जो सबसे ज़्यादा परेशानी वाली थी वो ये थी कि अगर इतने दिनों के बीच उस मोबाइल में संस्था द्वारा कोई मैसेज आया होगा तो संदीप ने ज़रूर पढ़ लिया होगा। हालांकि सिर्फ मैसेज पढ़ लेने भर से वो ये नहीं जान सकता था कि मैं किस तरह का काम करता हूं लेकिन मैसेज में किसी जगह का पता और समय देख कर वो सोच में ज़रूर पड़ गया रहा होगा। मैंने पहले तो सोचा था कि संदीप से इस बारे में पूछूंगा लेकिन फिर मैंने ये सोच कर अपना इरादा बदल दिया था कि अगर ऐसी वैसी कोई बात होगी तो संदीप खुद ही मुझसे इस बारे में बात करेगा। कमरे में जब वो मेरे पास बैठा था तब उसने इस बारे में कोई बात नहीं की थी। इसके दो ही मतलब हो सकते थे कि या तो मोबाइल में संस्था द्वारा कोई मैसेज आया ही नहीं होगा या फिर संदीप को मोबाइल चेक करने का समय ही न मिला होगा। ये भी हो सकता था कि उसने किसी दूसरे का मोबाइल चेक करना ग़लत बात समझता रहा हो। संस्था की तरफ से मिला मोबाइल तो मिल गया था मुझे लेकिन मैं ये सोच रहा था कि मेरे साथ इतना कुछ हो गया था मगर संस्था की तरफ से किसी ने भी मेरा हाल चाल जानने की कोशिश नहीं की थी। सवाल था कि क्या मेरी इस हालत में संस्था का अपना कोई कर्त्तव्य नहीं बनता था? ये माना कि संस्था के हर एजेंट एक दूसरे के लिए अजनबी होते हैं लेकिन संस्था का चीफ़ यानी ट्रिपल एक्स के लिए तो मैं अजनबी नहीं था? कम से कम उन्हें तो किसी माध्यम से मेरा हाल चाल पूछना चाहिए था। हालांकि मेरे मन में ये भी ख़याल उभरते थे कि संभव है कि ट्रिपल एक्स को मेरी हालत के बारे में सब कुछ पता हो। उनके अनुसार संस्था के हर एजेंट्स पर उनकी नज़र रहती है। कुछ दिन और इसी तरह गुज़र गए। मेरी हालत अब पहले से काफी बेहतर थी। जिस्म पर तो मामूली खरोचें ही आईं थी लेकिन सिर की चोट गहरी थी। सिर में टाँके लगे थे जो कि अब पहले से थोड़ा रिकवर हो गए थे। मैं अपने से अपना हर काम कर लेता था। मम्मी पापा तो अभी भी मुझे आराम करने के लिए ही कह रहे थे लेकिन मुझसे अब और ज़्यादा बेड पर लेटा नहीं जा रहा था। मेरा ज़हन ऐसे ऐसे सवालों से घिरा हुआ था कि मैं आराम नहीं कर सकता था। अपने अंदर की बेचैनी को मैं हर कीमत पर दूर करना चाहता था। मेरे ज़हन में अब भी वही सब बातें थी कि आख़िर मेरे पेरेंट्स और उनके दोस्तों के बीच किस तरह की बातें हुई थीं? बात अगर सिर्फ इतनी ही होती तो मैं ये सोच कर खुद को तसल्ली दे लेता कि हो सकता है कि मैं इस बारे में बेवजह ही इतना सोच रहा हूं लेकिन उस एक्सीडेंट ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था। मुझे अच्छी तरह इस बात का एहसास था कि वो एक्सीडेंट स्वाभाविक नहीं था बल्कि किसी के द्वारा उस एक्सीडेंट को अंजाम दिया गया था। उस एक्सीडेंट को करवाने का बस यही मकसद था कि मैं उस रास्ते पर आगे न जाऊं। यानि कोई ये नहीं चाहता था कि मैं अपने पापा के पीछे उस रास्ते पर जाऊं। मेरे मन में बार बार ये सवाल उभर रहे थे कि आख़िर ऐसा कोई क्यों चाहता था? दूसरी बात, पापा उसी रास्ते में आगे की तरफ जा रहे थे जिस रास्ते पर चूत मार सर्विस का मुख्यालय था। ना चाहते हुए भी मेरे मन में ये सवाल उभर पड़ते थे कि क्या पापा चूत मार सर्विस जैसी संस्था के मुख्यालय जा रहे थे? क्या उनका सम्बन्ध उस संस्था से हो सकता है? दिल तो एक पर्सेंट भी नहीं मान रहा था लेकिन दिमाग़ बार बार इन सवालों को ले कर खड़ा हो जाता था। एक बार फिर से मेरे सामने ये समस्या खड़ी हो गई थी कि मैं इस बारे में किस तरह पता करूं? अपने दोस्तों से मुझे किसी भी तरह की मदद की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने तो पहले ही इस बारे में मुझे कह दिया था कि मैं बेवजह ही इस बारे में ऐसा सोच रहा हूं। कहने का मतलब ये कि इस सम्बन्ध में सारी बातों का पता मुझे खुद ही लगाना था। मैं अपने कमरे में बेड पर पड़ा इस बारे में सोच ही रहा था कि तभी अचानक से मेरे ज़हन में एक विचार बिजली की तरह कौंधा। दिलो दिमाग़ में रोमांच की लहर दौड़ती चली गई। मैंने कुछ देर सोचा और फिर फ़ैसला कर लिया। मन ही मन सोचा कि हो सकता है कि कोई ख़ास बात पता चल जाए। जैसा कि मैंने पहले ही बता दिया था कि बंगलो में घर की देख रेख के लिए तीन नौकर थे और खाना बनाने से ले कर कपड़े वगैरह धोने का काम सविता आंटी करतीं थी। एक तरह से ये कहा जाए तो ग़लत न होगा कि मम्मी पापा के न रहने पर बंगलो की मालकिन वही होती थीं। उनका हर हुकुम मानना उन तीनों नौकरों के लिए अनिवार्य था। सविता आंटी काफी सालों से हमारे परिवार का सदस्य बन कर रह रहीं थी। उनके सामने ही मेरा जन्म हुआ था और अब मैं जवान भी हो चुका था। सविता आंटी के परिवार में उनकी एक बेटी थी जिसकी कुछ साल पहले मेरे पेरेंट्स ने ही धूम धाम से शादी कर दी थी। उनका पति बहुत पहले एक गंभीर बिमारी के चलते ईश्वर को प्यारा हो गया था। वो मुझे अपने बेटे की तरह प्यार करतीं थी और मैं खुद भी उन्हें वैसा ही सम्मान देता था जैसे अपनी मां को देता था। साविता आंटी बंगलो में ही रहतीं थी जबकि बाकी नौकरों के लिए अलग से सर्वेंट क्वार्टर बना हुआ था। सविता आंटी का कमरा ग्राउंड फ्लोर में ही बाईं तरफ एक कोने में था जबकि मम्मी पापा का कमरा दाईं तरफ था। दिन के सारे काम करने के बाद सविता आंटी बंगलो का मुख्य द्वार अंदर से बंद कर के अपने कमरे में आराम करने चली जाती थीं। दो से पांच बजे तक वो अपने कमरे में आराम करतीं थी उसके बाद वो फिर से अपने किसी न किसी काम में लग जाती थीं। मैंने दीवार पर टंगी घड़ी पर टाईम देखा। तीन बजने वाले थे। यानि मेरे पास अपने काम के लिए सवा दो घंटे का वक़्त था जो कि काफी से भी ज़्यादा था। मैं आहिस्ता से बेड से उठा और चल कर दरवाज़े के क़रीब आया। दरवाज़ा खोल कर मैं बाएं तरफ गैलरी में मुड़ा। कुछ ही देर में मैं सीढ़ियों के पास आ गया। सीढ़ियों के पास रुक कर मैंने नीचे ग्राउंड फ्लोर की तरफ देखा और अपने कान भी खड़े कर दिए। बंगलो में मुकम्मल ख़ामोशी कायम थी। ज़ाहिर था कि सविता आंटी अपने कमरे में सोई हुईं थी। मैं आगे बढ़ते हुए सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। सीढ़ियों पर कालीन बिछा हुआ था इस लिए कोई आवाज़ नहीं हो रही थी। ग्राउंड फ्लोर पर आ कर मैंने एक बार बाईं तरफ एक कोने में मौजूद सविता आंटी के कमरे की तरफ देखा। दरवाज़ा बंद था। मैं जानता था कि वो हमेशा अंदर से कुण्डी लगा कर ही बेड पर सोती थीं। कुछ पलों तक उनके कमरे की तरफ देखते रहने के बाद मैं पलटा और दाईं तरफ मम्मी पापा के कमरे की तरफ बढ़ चला। फर्श पर मैं इस तरह आहिस्ता से चल रहा था कि ज़रा सी भी आवाज़ न हो। कुछ ही देर में मैं मम्मी पापा के कमरे के पास पहुंच गया। हमेशा की तरह मम्मी पापा का कमरा उनके न रहने पर बाहर से सिर्फ कुण्डी लगा कर बंद था। मैंने हाथ बढ़ा कर आहिस्ता से कुण्डी को सरकाया और दरवाज़े को बहुत ही हल्के से अंदर की तरफ ढकेला। दरवाज़ा बेआवाज़ खुलता चला गया। कमरे में दाखिल हो कर मैंने दरवाज़े को वापस बंद कर दिया। अपने ही बंगलो में और अपने ही मम्मी पापा के कमरे में इस तरह दाखिल होने से उस वक़्त मेरा दिल बड़े ज़ोरों से धड़कने लगा था। माथे पर पसीना उभर आया था और साँसें तेज़ हो गईं थी। मेरा मकसद था मम्मी पापा के कमरे की तलाशी लेना। मैं नहीं जानता था कि उनके कमरे में मैं किस चीज़ की तलाश करने आया था लेकिन इतना ज़रूर समझ रहा था कि कुछ तो ऐसा ज़रूर मिले जिससे मेरे ज़हन में उभरे सवालों का जवाब मिल जाए। ख़ैर मैं तलाशी अभियान में जुट गया। तलाशी के वक़्त मैं इतनी सावधानी ज़रूर बरत रहा था कि उठाने के बाद हर चीज़ को यथा स्थान पर पहले की तरह ही रख रहा था। एक घंटे तक मैं मम्मी पापा के कमरे में तलाशी अभियान चलाए रहा लेकिन मुझे कुछ भी ऐसा नहीं मिला जिससे मेरे ज़हन को सुकून मिल जाए। बुरी तरह निराश और हताश हो चुका था मैं। बार बार मन में यही ख़याल उभरने लगे थे कि शायद मैं सच में बेवजह ही इस बारे में इतना कुछ सोच बैठा था। मैं निराश और हताश हो चुका था। एक घंटे की मेहनत से मैं बुरी तरह थक गया था और इसी वजह से मैं बेड पर बैठ गया था। कुछ देर मैं बेड पर ऐसे ही परेशान सा बैठा रहा था कि तभी मेरी नज़र फर्श पर बिछे ईरानी कालीन पर पड़ी। वो कालीन उतने में ही बिछा हुआ था जितने में बेड था। यानि बेड के सभी पाए उस कालीन पर ही रखे थे, बाकी कमरे में कालीन नहीं था। हालांकि ये कोई विशेष बात नहीं थी लेकिन मेरे लिए विशेष बात ये नज़र आई थी कि उस कालीन के एक तरफ का सिरा फर्श से थोड़ा सा ही उठा हुआ था, जबकि कालीन के बाकी तीनो सिरे फर्श पर बराबर तरीके से सटे हुए थे। मैं सोचने लगा कि ऐसा क्यों होगा कि कालीन के बाकी तीनो सिरे तो फर्श से चिपके हुए हैं लेकिन उसका एक सिरा फर्श से थोड़ा सा उठा हुआ है? ऐसा तो तभी हो सकता है जब उस एक सिरे को रोज़ाना पकड़ कर उठाया जाता हो। मन में इस बात के चलते उत्सुकता सी जाग उठी थी इस लिए मैं बेड से उठा और बेड के क़रीब उकडू बैठ कर उठे हुए कालीन के उस एक मात्रा सिरे को पकड़ कर उठाया तो मेरी आँखें चौड़ी हो गईं। मनो मस्तिष्क में बड़ी तेज़ी से ख़याल उभरा कि अच्छा तो ये बात है। अभी मैं उस कालीन के सिरे को पकड़े ये सोच ही रहा था कि तभी मैं डोर बेल की आवाज़ सुन कर मैं बुरी तरह उछल पड़ा। ज़हन में सवाल उभरा कि इस वक़्त कौन आया होगा? क्या मम्मी पापा आए होंगे? मैंने फ़ौरन ही कालीन को छोड़ा और तेज़ी से कमरे के बाहर आ कर दरवाज़े को बाहर से उसी तरह कुण्डी लगा कर बंद किया जैसे वो पहले बंद था। उसके बाद ये सोच कर तेज़ी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया था कि कहीं सविता आंटी डोर बेल की आवाज़ सुन कर अपने कमरे से बाहर ही न आ जाएं। अगर उन्होंने मुझे मम्मी पापा के कमरे से निकलते हुए या इस वक़्त ग्राउंड फ्लोर पर देख लिया तो उनके मन में कई तरह के सवाल उभर आएंगे। मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे में आ गया था। ☆☆☆ मैं अपने कमरे में दाखिल ही हुआ था कि अचानक ही मेरे ज़हन में एक ख़याल आया और मैं फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े के बाहर आ कर सीढ़ियों की तरफ लपका। असल में मेरे ज़हन में ये ख़याल उभरा था कि उस वक़्त जबकि बंगलो में मेरे और सविता आंटी के अलावा कोई नहीं था तो किसने डोर बेल बजाई होगी? मेरे दोस्त लोग मुझसे मिलने सुबह बारह बजे ही आए थे, इस लिए अब उनके आने उम्मीद नहीं थी। मम्मी पापा से मिलने वाले जानते थे कि उस वक़्त वो अपने ऑफिस में होते थे। तो सवाल था कि कौन आया होगा? मैं सीढ़ियों के पास आ कर ऐसी जगह पर छुप कर खड़ा हो गया था जहां से मैं ग्राउंड फ्लोर के उस हिस्से की तरफ आसानी से देख सकता था जहां पर बाहर से आने वाला मुझे दिख जाता। हालांकि अगर कोई मुख्य द्वार पर ही रुक जाता तो फिर मैं उसके बारे में नहीं जान सकता था क्योंकि उस सूरत में वो मुझे ऊपर से दिखता ही नहीं। मैंने देखा कि जब डोर बेल तीसरी बार बजी तो सविता आंटी अपने कमरे से निकल कर मुख्य द्वार की तरफ जा रहीं थी। मैं दुवा कर रहा था कि बाहर जो भी था वो अंदर आए ताकि मैं देख सकूं कि वो कौन है। थोड़ी ही देर में सविता आंटी अंदर की तरफ आईं और उस वक़्त मैं खुश हो गया जब उनके पीछे एक आदमी को आते देखा। ज़ाहिर था मेरी दुवा कुबूल हो गई थी। सविता आंटी के साथ आने वाले का चेहरा ठीक से दिख नहीं रहा था क्योंकि ऊपर से मुझे उसके सिर का ऊपरी भाग ही दिख रहा था। "दरवाज़ा खोलने में इतनी देर क्यों लगा दिया था तुमने?" आगंतुक ने धीमी आवाज़ में कहा किन्तु उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ चुकी थी और मैं उसकी आवाज़ सुन कर मन ही मन ये जान कर चौंक पड़ा था कि आगंतुक कोई और नहीं बल्कि रंजन के पापा संजय अंकल थे। मेरे मन में उस वक़्त उन्हें अपने घर में देख कर ढ़ेरों सवाल उभर आए थे। "आपको पहले बता देना था कि आप इतनी देरी से आएंगे।" सविता आंटी ने पलट कर उनके जैसे ही धीमी आवाज़ में कहा____"मैं तो आपके आने का इंतज़ार ही कर रही थी लेकिन जब आप अपने दिए टाईम पर नहीं आए तो मेरी आँख लग गई।" "मैं एक ज़रूरी काम में उलझ गया था।" संजय अंकल ने कहा____"इसी वजह से देर हो गई। ख़ैर ये बताओ कि वो कहां है और अब कैसी तबियत है उसकी?" "वो अपने कमरे में है।" सविता आंटी ने कहा____"और तबियत अब पहले से काफी बेहतर है उसकी। वैसे, आज दो बजे एक आदमी उससे मिलने आया था।" "हां पता है मुझे।" संजय अंकल ने कहा____"क्या तुमने उस आदमी के साथ विक्रम की बातें सुनी?" "क्या मुझे सुननी चाहिए थी?" सविता आंटी ने मानो सोचने वाले भाव से पूछा था। "नहीं ज़रूरत नहीं थी।" संजय अंकल ने कहने के साथ ही एक सिगरेट जलाई और फिर कहा____"और कोई विशेष बात?" "फिलहाल तो कुछ नहीं है।" सविता आंटी ने कहा____"लेकिन उसका चेहरा देखने से यही लगता है कि वो अभी भी किसी बात से परेशान है या किसी बात की उलझन में है।" "बेवकूफ है वो।" संजय अंकल ने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"आम खाने की जगह पेड़ गिनने की सनक सवार हो गई है उसे।" "कहीं इस सनक का कारण वही तो नहीं?" सविता आंटी ने शंकित भाव से कहा____"मुझे कुछ कुछ आभास हो रहा है। मेरा मतलब है कि जिस दिन भाई साहब की शादी की सालगिरह थी उसी रात से उसके चेहरे के भाव कुछ बदले बदले से लगे थे।" "उसने उस रात हमारी वो बातें सुन ली थीं जो हम उसके पेरेंट्स के कमरे में आपस में कर रहे थे।" संजय अंकल ने कहा____"हालाँकि हमारी बातें ऐसी थीं ही नहीं कि कोई उन बातों का दूसरा ही मतलब निकाल ले। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं ये कहने आया था कि उसकी गतिविधियों पर नज़र बनाए रखना। वो अब पहले से बेहतर है इस लिए मुमकिन है कि वो फिर से अपने मन में उठे सवालों के जवाब तलाशने निकले। तुम्हारा काम यही है कि अगर वो ऐसा करता है तो तुम हमें फ़ौरन ही इस बारे में सूचित करो।" "वो तो मैं करुँगी ही।" सविता आंटी ने कहा____"लेकिन मैंने आपसे जिस चीज़ की ख़्वाहिश वाली बात कही थी वो अभी तक आपने पूरी नहीं की। भाई साहब से एक बार कहा था लेकिन उन्होंने बुरी तरह डांट दिया था मुझे।" "चिंता मत करो।" संजय अंकल ने सविता आंटी के चेहरे को हल्के से सहलाया और फिर हल्की मुस्कान के साथ कहा____"इस बार तुम्हारी ख़्वाहिश हर कीमत पर पूरी होगी। बस कुछ समय और इंतज़ार कर लो।" "उफ्फ! ये इंतज़ार किसी दिन मेरी जान ही न ले ले।" सविता आंटी ने बड़े अजीब अंदाज़ में कहा____"काश मेरे दिल में ऐसी ख़्वाहिश ही न जन्म लेती।" "धैर्य रखो सविता।" संजय अंकल ने कहा_____"इस बार तुम्हारी ख़्वाहिश ज़रूर पूरी होगी। अच्छा अब चलता हूं मैं।" संजय अंकल पलट कर वापस बाहर की तरफ चल पड़े तो सविता आंटी भी उनके पीछे पीछे उन्हें बाहर तक छोड़ने चली गईं थी। इधर मैं उन दोनों की बातें सुन कर मानो पत्थर की मूर्ती में बदल गया था। मेरा ज़हन मानों अंतरिक्ष में परवाज़ कर रहा था। फिर जैसे एकदम से मेरी तन्द्रा टूटी तो मैं गहरी सांस लेते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर ये सब क्या चक्कर था? संजय अंकल का तो मैं सोच भी सकता था लेकिन सविता आंटी को इतना रहस्यमय देख कर उस दिन मैं बुरी तरह हैरत में पड़ गया था।
अब तक... संजय अंकल पलट कर वापस बाहर की तरफ चल पड़े तो सविता आंटी भी उनके पीछे पीछे उन्हें बाहर तक छोड़ने चली गईं थी। इधर मैं उन दोनों की बातें सुन कर मानो पत्थर की मूर्ती में बदल गया था। मेरा ज़हन मानों अंतरिक्ष में परवाज़ कर रहा था। फिर जैसे एकदम से मेरी तन्द्रा टूटी तो मैं गहरी सांस लेते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर ये सब क्या चक्कर था? संजय अंकल का तो मैं सोच भी सकता था लेकिन सविता आंटी को इतना रहस्यमय देख कर उस दिन मैं बुरी तरह हैरत में पड़ गया था। अब आगे....
"ट्रिन्निंग...ट्रिन्निंग।" टेबल पर रखे लैंड लाइन फ़ोन की घंटी एकदम से घनघना उठी तो जेलर शिवकांत वागले का ध्यान टूटा। वो विक्रम सिंह की डायरी में खोया हुआ था। फ़ोन के बजने से उसके चेहरे पर अप्रिय भाव उभरे, किन्तु फिर उसने गहरी सांस लेते हुए फ़ोन का रिसीवर उठा कर कान से लगाया। "जेलर शिवकांत वागले स्पीकिंग।" फिर उसने अपनी आवाज़ को प्रभावशाली बनाते हुए माउथ पीेस पर कहा। उधर से जाने ऐसा क्या कहा गया कि वागले के चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभरे। कुछ देर उधर की बातें सुनने के बाद उसने कहा____"इस बारे में भला मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं इंस्पेक्टर घोरपड़े? मेरे पास उससे सम्बंधित ऐसी कोई जानकारी नहीं है जिससे उस तक पहुंचने में तुम्हें मदद मिल सके।" वागले के ऐसा कहने पर फिर से कुछ कहा गया जिस पर वागले ने कहा_____"यकीनन इंस्पेक्टर, ये बेहद सोचने वाली बात है और चौकाने वाली भी लेकिन जो भी है उसके बारे में पता करना तुम्हारा ही काम है। मेरे पास अगर उससे सम्बंधित कोई भी जानकारी होती तो तुमसे साझा करने में मुझे ख़ुशी ही होती।" कुछ देर और उधर से कुछ कहा गया, उसके बाद वागले ने ठीक है कह कर रिसीवर रख दिया। रिसीवर रखने के बाद वागले गहरी सोच में डूबा नज़र आने लगा था। अभी उसने जिस इंस्पेक्टर से बात की थी उसका नाम वसंत घोरपड़े था जोकि धारावी के एक इलाके का थानेदार था। वागले ये जान कर चौंका था कि घोरपड़े ने उससे किसी आदमी के मर्डर का ज़िक्र किया था और उस मर्डर में प्राप्त फिंगर प्रिंट्स विक्रम सिंह के फिंगर प्रिंट्स से मैच करते मिले थे। इंस्पेक्टर घोरपड़े को पता चला था कि विक्रम सिंह नाम का शख़्स बीस साल की सज़ा काट कर जिस जेल से रिहा हुआ था उस जेल का जेलर शिवकांत वागले है। उसने यही सोच कर वागले को फ़ोन किया था कि शायद वागले उसे विक्रम सिंह के सम्बन्ध में कोई ऐसी जानकारी बता सके जिससे वो विक्रम सिंह तक आसानी से पहुंच सके। शिवकांत वागले इस वक़्त यही सोच रहा था कि बीस साल की सज़ा काटने के बाद विक्रम सिंह ने आख़िर किसी आदमी का मर्डर क्यों किया होगा? क्या इतने सालों बाद भी उसके अंदर कोई बदले की आग अपना डेरा जमाए बैठी हुई थी? उसने अपनी ज़िन्दगी के बीस साल उसकी जेल में बिताए थे। उस पर अपने ही माता पिता की हत्या का संगीन आरोप लगा था। वागले ने सोचा कि बीस साल का वक़्त थोड़ा नहीं होता, इतने सालों में इंसान की सोच बहुत हद तक बदल जाती है और वो जीवन को एक अलग ही नज़रिए से देखने लगता है लेकिन इस मामले में विक्रम सिंह का नज़रिया शायद सबसे जुदा था। वागले ने इंस्पेक्टर घोरपड़े को ये नहीं बताया था कि जिस विक्रम सिंह के बारे में उसने उससे जानकारी पाने की उम्मीद में फ़ोन किया था उस शख़्स से सम्बंधित एक डायरी उसके पास है। वागले समझ नहीं पा रहा था कि उसने विक्रम सिंह की डायरी का जिंक्र उस इंस्पेक्टर से क्यों नहीं किया था? संभव है कि इस डायरी की मदद से ही उसे विक्रम सिंह तक पहुंचने में कोई मदद मिल जाती। लंच का टाइम हो चुका था इस लिए वागले ने विक्रम सिंह की डायरी को बंद कर के उसे ब्रीफ़केस में रखा और श्याम के हाथों लाया हुआ अपने घर का खाना खाने लगा। लंच करते समय भी उसका ज़हन विक्रम सिंह के बारे में ही उलझा हुआ था। रह रह कर उसके ज़हन में यही सवाल उभर रहे थे कि उसकी जेल से रिहा होने के बाद विक्रम सिंह ने क्या सच में किसी का मर्डर किया होगा? इंस्पेक्टर घोरपड़े भला उसके बारे में झूठ क्यों बोलेगा? मतलब साफ़ है कि इंस्पेक्शन के अनुसार विक्रम सिंह ने किसी का मर्डर किया है लेकिन सवाल है कि क्यों? आख़िर बीस सालों तक वो अपने अंदर कौन सी आग को दबाए बैठा हुआ था? क्या इस सबका सम्बन्ध उसी चूत मार सर्विस जैसी संस्था से होगा जिसका वो कभी एजेंट था? लंच करने के बाद भी वागले इसी सबके बारे में सोचता रहा था। उसके बाद उसने पूरी जेल का एक चक्कर लगाया और फिर वापस केबिन में आ कर विक्रम सिंह की डायरी खोल कर बैठ गया। इस वक़्त उसके चेहरे पर अजीब से भाव गर्दिश कर रहे थे। उसने फ़ौरन ही डायरी के उस पेज़ को खोला जहां से उसे आगे पढ़ना था। ☆☆☆ सारा दिन मैं अपने कमरे में पड़ा संजय अंकल और सविता आंटी के बारे में सोचता रहा था। मैं समझ चुका था कि जो भी चक्कर था वो मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा बड़ा था। सबसे ज़्यादा हैरानी तो मुझे सविता आंटी के बारे में जान कर हो रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि जिस औरत को मैं एक मामूली सी समझता रहा हूं वो संजय अंकल जैसे ब्यक्ति के साथ किसी रहस्यमय चक्कर में फंसी हुई हो सकती है। अब तो मेरे लिए इन सारे चक्करों का पता लगाना निहायत ही ज़रूरी हो गया था। सविता आंटी की बातों से मैं ये भी जान गया था कि वो संजय अंकल के कहने पर या शायद उनके इशारे पर मुझ पर या ये कहें कि मेरी गतिविधियों पर नज़र रखती रहीं थी। इस बात से मैं ये भी सोचने पर मजबूर हो गया था कि अगर सविता आंटी सच में मेरी गतिविधियों पर नज़र रखती रहीं थी तो क्या वो ये भी जान गईं होंगी कि मैं किसी चूत मार सर्विस जैसी संस्था से जुड़ा हुआ हूं? अगर ऐसा था तो फिर मेरे लिए ये बड़ी ही गंभीर समस्या वाली बात थी। मुझे हर हाल में हर चीज़ का पता लगाना था, लेकिन कैसे ये मुझे समझ नहीं आ रहा था। मेरी नज़र में कुछ बातें क्लियर हो चुकीं थी। जैसे कोई अज्ञात ब्यक्ति ये नहीं चाहता था कि मैं अपने पापा का पीछा करूं। इससे ये भी साबित होता था कि पापा भी किसी गहरे चक्कर में थे जोकि रहस्यमयी हो सकता था। दूसरे संजय अंकल सविता आंटी के द्वारा अगर मुझ पर नज़र रखवा रहे थे तो वो दोनों भी किसी चक्कर में थे और उनके रहते मैं उनके किसी चक्कर का पता नहीं लगा सकता था। मतलब साफ़ था कि मुझे उनके चक्कर का पता इस तरीके से लगाना चाहिए था जो उनकी नज़र में न आए और ये यहाँ रहते हुए नहीं हो सकता था। मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या ये थी कि अभी मैं पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ था और मैं अच्छी तरह जानता था कि मेरे पेरेंट्स मुझे इस हालत में दूसरे शहर वापस नहीं जाने देंगे। ये सोच कर मैंने फिलहाल यही सोचा कि मैं यहीं रह कर सच का पता लगाता हूं। दूसरे दिन मैं उस वक़्त अपने कमरे से निकला जब दोपहर के दो बजे थे। मैं जानता था कि दो बजे तक सविता आंटी सारे काम से फ़ारिग हो कर अपने कमरे में आराम करने चली जाती थीं। दो से पांच बजे तक वो अपने कमरे में ही रहती थीं। यानि यही वो टाइम हो सकता था जब मैं अपनी तरफ से कोई काम कर सकता था। मेरे ज़हन में मम्मी पापा के कमरे का वो दृश्य अभी भी था जब मैं उनके बेड के नीचे बिछे कालीन को उठा कर उसके नीचे देखने वाला था। जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उस कालीन के नीचे कुछ ऐसा था जो अपनी आस्तीन में किसी बड़े रहस्य को छुपाए बैठा था। कुछ देर और गुज़र जाने के बाद मैं अपने कमरे से निकल कर सीढ़ियों के रास्ते नीचे आया। नीचे मुकम्मल तौर पर ख़ामोशी विद्यमान थी। मैं बड़ी ही सावधानी से चलते हुए मम्मी पापा के कमरे में दाखिल हुआ। कमरे में आ कर मैंने दरवाज़े को अंदर से बंद किया और फिर बेड के क़रीब बढ़ा। कमरे का दृश्य वैसा ही था जैसा कल था। बेड सलीके से बिछा हुआ था और बाकी मौजूद सामान भी अपनी जगह पर तरीके से रखा हुआ था। मैंने गौर से उस कालीन को देखा जिसके ऊपर बेड के पाए रखे हुए थे। जिस जगह से कालीन का एक सिरा हल्का उठा हुआ था उसे पकड़ कर मैंने उठाया तो उसके नीचे का फर्श मुझे कुछ ऐसा नज़र आया जो बाकी जगह से काफी अलग था। एक बड़े से चौकोर में फर्श पर एक दरार सी बनी हुई थी। ऐसा लगता था जैसे फर्श का वो चौकोर हिस्सा किसी ढक्कन जैसा हो। मैंने हाथ बढ़ा कर उन चौकोर दरारों को छुआ। कालीन के नीचे वो दरार अंदर तक बनी हुई थी। यानी बेड के नीचे से कालीन को अगर हटा दिया जाता तो वो जगह साफ़ दिखने लगती। कालीन के ऊपर बेड के पाए रखे होने की वजह से कालीन को हटाया नहीं जा सकता था। मैंने खड़े हो कर बेड को उस जगह से बड़ी सावधानी से हटाया। मेरे पेरेंट्स का कमरा इतना बड़ा तो था ही कि किंग साइज बेड को हटा कर एक तरफ कर देने के बाद भी काफी जगह बच जाती। हालांकि बेड को हटाना इतना भी आसान नहीं था। ख़ैर बेड को हटा कर मैंने उस कालीन को भी पकड़ कर फर्श से हटाया। कालीन के हट जाने से अब फर्श का वो हिस्सा साफ़ चमकने लगा था जिसमें एक बड़ा सा चौकोर निशान सा बना हुआ था। उस चौकोर निशान को देख कर मुझे पूरी तरह यकीन हो गया था कि कमरे के उस हिस्से पर कुछ तो बात ज़रूर है। मैं बड़े ध्यान से फर्श के उस हिस्से को कुछ देर तक देखता रहा। मुझे ये समझते देर न लगी कि वो हिस्सा मामूली नहीं हो सकता था। यानी उस हिस्से को हाथ से नहीं हटाया जा सकता था। यकीनन कोई ऐसा जुगाड़ था जिसके द्वारा फर्श के उस चौकोर हिस्से को हटाया जाता था। मैं नज़र घुमा कर कमरे में चारो तरफ ध्यान से देखने लगा। मेरी नज़रें उस ख़ास चीज़ को खोज रहीं थी जिसका सम्बन्ध फर्श के उस ख़ास हिस्से से था। कमरे में यूं तो काफी चीज़ें रखी हुईं थी लेकिन वो सब मामूली यूज़ वाली थी जबकि मुझे ख़ास चीज़ की तलाश थी। बाएं तरफ रखी आलमारी के बगल से दीवार से जुड़ी हुई बुक शेल्फ थी जिसमें कई सारी मोटी मोटी किताबें रखी हुईं थी। मैं उस बुक शेल्फ की तरफ बढ़ा। ये वैसी ही किताबें थी जैसे या तो किसी वकील के यहाँ हो सकतीं थी या फिर किसी बुक संग्रहालय में। ख़ैर मैं उस बुक शेल्फ के पास पहुंचा। उस बुक शेल्फ में कई सारे पार्ट्स थे। मैंने बड़े गौर से उन किताबों को देखना शुरू किया। सारी किताबें बड़े ही तरीके से रखी हुईं थी। मैं अभी उन्हें देख ही रहा था कि मेरी नज़र चार किताबों पर ठहर गई। मेरे लिए ये थोड़ा अजीब बात थी कि अगल बगल वाली किताबों के बीच रखी वो चार किताबें अपने अगल बगल वाली किताबों से थोड़ा सा ही सही लेकिन फांसला बना के क्यों रखी हुईं थी? गौर से देखने पर ऐसा लगता था जैसे वो चारो आपस में जुड़ी हुई हों। मैंने उत्सुकतावश हाथ बढ़ा कर उन्हें छुआ और उनमें से एक को निकालने की कोशिश की ही थी कि उस एक के साथ बाकी तीनों भी अपनी जगह से मेरी तरफ को झुकीं और जैसे ही वो चारो एक साथ झुकीं तो मैं अजीब सी आवाज़ को सुन कर उछल पड़ा। आवाज़ मेरे पीछे से आई थी। मैंने फ़ौरन ही गर्दन घुमा कर पीछे देखा तो बुरी तरह चौंक गया। फर्श का वो चौकोर हिस्सा अपनी जगह से गायब हो चुका था और अब उस जगह पर गढ्ढा दिख रहा था। मैं बुक शेल्फ में रखी उन किताबों को छोड़ कर जल्दी ही उस गड्ढे के पास आया। चकित आँखों से मैं कमरे में बने उस चौकोर गड्ढे को देखे जा रहा था। मैं ये जान कर हैरान था कि मेरा शक एकदम सही था। यानी बेड के नीचे सच में कुछ ख़ास था। उस गड्ढे में नीचे की तरफ जाने के लिए बनी सीढियां साफ़ नज़र आ रहीं थी। आज से पहले मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे उस घर में ऐसी कोई गुप्त चीज़ भी हो सकती थी। मेरे मन में अब ये जानने की उत्सुकता बढ़ गई थी कि उस गड्ढे के नीचे क्या होगा? आख़िर मेरे पेरेंट्स ने अपने कमरे के नीचे किस तरह की दुनियां बना रखी है? मैं धड़कते हुए दिल के साथ गड्ढे में दिख रही सीढ़ियों पर उतरने लगा। नीचे अँधेरा दिखा तो मैं वापस आया और कमरे में कोई टार्च खोजने लगा। जल्दी ही मुझे एक तरफ रखी टार्च मिल गई। टार्च ले कर मैं फिर से उस गड्ढे की तरफ बढ़ा और सीढ़ियों से होते हुए नीचे उतरने लगा। मैंने टार्च जला ली थी जिससे अब मुझे नीछे उतरने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी। मेरे दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ बज रहीं थी जिनकी धमक मुझे मेरी कनपटियों पर पड़ती साफ़ महसूस हो रही थी। कुछ देर बाद मैं सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। टार्च की रौशनी में मैंने देखा कि नीचे जिस फर्श पर मैं खड़ा था वो काफी साफ़ सुथरा था और चमक रहा था। मैंने टार्च की रोशनी में इधर उधर देखा तो मुझे एक तरफ दिवार में बिजली का स्विच नज़र आया। मैंने फ़ौरन ही एक बटन पर ऊँगली रखी तो पलक झपकते ही नीचे का पूरा हिस्सा तेज़ प्रकाश से भर गया। तेज़ रौशनी के होते ही मैंने चारो तरफ देखा। वो एक कमरा था जो मेरे पेरेंट्स के कमरे से थोड़ा ही छोटा था। उस कमरे को देख कर ऐसा लगता ही नहीं था कि मैं किसी तहख़ाने जैसी जगह पर खड़ा था। पूरा कमरा क़रीने से सजा हुआ था। एक कोने में शानदार बेड रखा हुआ था। दो तरफ की दीवार से जुडी कई सारी आलमारियां थीं। एक तरफ दो कंप्यूटर रखे हुए थे जो उस वक़्त बंद थे। कंप्यूटर के ऊपर यानी दीवार पर कुछ ऐसे इलेक्ट्रिक इंस्ट्रूमेंट्स दीवार पर चिपके हुए थे जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा था। उन इंस्ट्रूमेंट्स में लाल पीली और हरी बत्तियां जल रहीं थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वो किस चीज़ के इंस्ट्रूमेंट्स थे? मैं उस कमरे में मौजूद हर चीज़ को बड़े ही गौर से देखता जा रहा था और साथ ही ये भी सोचता जा रहा था कि आख़िर ये सब क्या है? क्या ये सब मेरे पापा का था? सवाल बचकाना ज़रूर था लेकिन मैं उस वक़्त ऐसी हालत में था कि उस सबको मैं अपने पापा से जोड़ने में समर्थ नहीं था या ये नहीं सोच सकता था कि वो सब मेरे पापा से सम्बंधित हो सकता है। मैं हर चीज़ को देखते देखते सीढ़ियों की तरफ पलटा ही था कि सीढ़ियों के नीचे वाली दिवार पर एक और चौकोर निशान को देख कर चौंक गया। उस चौकोर निशान में बस फ़र्क यही था कि वो दीवार पर बना हुआ था जबकि पहले वाला मेरे पेरेंट्स के कमरे के फर्श पर बना हुआ था। मतलब साफ़ था कि उस जगह पर भी कोई ख़ुफ़िया रास्ता था जहां पर कुछ न कुछ ऐसा हो सकता था जो मेरी कल्पनाओं से परे था। मेरी उत्सुकता एक बार फिर से ये जानने के लिए बढ़ गई थी कि अब उस हिस्से में आख़िर क्या होगा? मैं एक बार फिर से ऐसी ख़ास चीज़ की तलाश करने लगा जिसका सम्बन्ध उस चौकोर वाले निशान से हो सकता था। यानि कोई ऐसी चीज़ जिसके द्वारा उस चौकोर हिस्से पर या तो कोई गड्ढा नज़र आ जाता या फिर कोई दरवाज़ा दिख जाता। मैंने कमरे में रखी हर चीज़ को बड़ी बारीकी से देखा। कुछ चीज़ों पर मुझे शक हुआ और मैंने उन चीज़ों को घुमा फिरा कर भी देखा मगर सीढ़ियों के नीचे दीवार पर दिख रहे उस चौकोर हिस्से पर कोई फ़र्क न हुआ। अपनी तरफ से मैंने हर प्रयास किया लेकिन सफल न हुआ। मैं समझ गया था कि यहाँ का हर सिस्टम मेरी सोच से परे है। ख़ैर थक हार कर मैं वापस सीढ़ियों के रास्ते ऊपर कमरे में आ गया। बुक शेल्फ पर रखी उन चारो किताबों को सीधा किया तो फर्श पर दिख रहा वो गड्ढा भर गया। अब उस जगह पर फिर से पहले जैसा फर्श दिखने लगा था। मैंने कालीन को पहले जैसे ही उस चकोर निशान पर रखा और फिर बेड को भी। इस सारे काम में मैं पसीना पसीना हो गया था। अपने कमरे में आ कर मैं गहरी सोच में डूब गया था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे अभी कुछ देर पहले मैंने जो कुछ भी देखा था वो सब कोई ऐसा ख़्वाब था जिसका हक़ीक़त की दुनियां से कोई वास्ता नहीं था। मेरे ज़हन में ऐसे ऐसे ख़याल उभर रहे थे जिनको मेरा अपना ही मन मानने को तैयार नहीं था किन्तु इतना कुछ देख लेने के बाद मैं हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकता था। मुझे अब पूरी तरह यकीन हो गया था कि मेरे पापा कोई मामूली इंसान नहीं हैं बल्कि उनका किरदार बड़ा ही रहस्यमय है।
मेरे ज़हन में ऐसे ऐसे ख़याल उभर रहे थे जिनको मेरा अपना ही मन मानने को तैयार नहीं था किन्तु इतना कुछ देख लेने के बाद मैं हक़ीक़त को नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकता था। मुझे अब पूरी तरह यकीन हो गया था कि मेरे पापा कोई मामूली इंसान नहीं हैं बल्कि उनका किरदार बड़ा ही रहस्यमय है।
अब आगे....
उस वक़्त शाम के छह बज रहे थे जब संस्था द्वारा दिए गए मोबाइल पर मैसेज आया देख कर मैं हल्के से चौंका था। मैसेज के द्वारा संस्था के चीफ़ ने मुझे गुप्त भवन बुलाया था। जब से मेरे साथ हादसा हुआ था तब से ये पहली बार था जब संस्था द्वारा मेरे पास कोई सन्देश आया था। मैं ये तो जानता था कि चीफ़ को मेरे साथ हुए हादसे के बारे में पहले ही पता चल गया रहा होगा किन्तु ये समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे गुप्त भवन में आने का हुकुम किस लिए हो सकता था?
मैं क्योंकि चलने फिरने लायक हो गया था इस लिए सविता आंटी से ये कह कर बाहर निकल गया कि घूमने जा रहा हूं। मुझे पता था कि मेरे जाने के बाद सविता आंटी संजय अंकल को मेरे बारे में सूचित करेंगी। ख़ैर मैं हर तरह की सावधानी रखते हुए बंगलो से निकला और एक ऑटो कर के गुप्त भवन की तरफ निकल गया। गुप्त भवन यानी की चूत मार सर्विस का ऐसा मुख्यालय जिसके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था।
जब मैं "सी एम एस" के मुख्यालय पहुंचा तो उस वक़्त सात बज गए थे। मैं अंदर से काफी असामान्य हालत में था। यहाँ आने के बाद पता नहीं क्या हो जाता था कि मेरे अंदर एक तरह की घबराहट भर जाती थी और मैं थोड़ा असहज सा महसूस करने लगता था।
"ज़ीरो ज़ीरो सेवन।" हॉल में रहस्यमय ब्यक्ति यानी संस्था के चीफ़ की अजीब सी आवाज़ गूंजी____"तुमने संस्था के नियम तोड़ने की ज़ुर्रत क्यों की?" "क्...क्या????" चीफ़ की बात सुन कर मैं बुरी तरह उछल पड़ा था और साथ ही हकला भी गया था, किन्तु फिर जल्दी ही खुद को सम्हाल कर मैंने कहा____"मेरा मतलब है कि मैंने कब संस्था के किसी नियम को तोड़ा सर??"
"यहां किसी एजेंट को सवाल के जवाब में कोई सवाल करने की इजाज़त नहीं है।" चीफ़ ने ख़तरनाक भाव से कहा____"तुमने संस्था के नियम का पालन नहीं किया जोकि अपराध है और इस अपराध के लिए तुम्हें मौत की सज़ा मिल सकती है।"
चीफ़ के ऐसा कहने के बाद मैं चाह कर भी कुछ बोल न सका। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैंने संस्था का कौन सा नियम तोड़ा था जिसके लिए मुझे मौत की सज़ा मिल जाएगी। मैं अभी इसी ख़याल में गुम था कि तभी हाल में चीफ़ की आवाज़ फिर गूँजी।
"संस्था के हर एजेंट का ये फ़र्ज़ है कि वो ऐसा कोई भी काम न करें जिसकी वजह से किसी को संस्था के बारे में या उसकी खुद की असलियत के बारे में पता चल जाए।" चीफ़ कह रहा था____"तुमने अपने निजी कारण के चलते संस्था की गोपनीयता को भी ताक पर रख दिया। वो तो शुक्र था कि सही समय पर हमारा एक एजेंट उस जगह पहुंच गया था वरना कोई दूसरा होता तो जाने क्या हो जाता।"
"मुझे माफ़ करें चीफ़ लेकिन प्लीज मुझे ये बताने की कृपा कीजिए कि मुझसे ऐसा कौन सा गुनाह हो गया है जिसके लिए आप ऐसा कह रहे हैं?" मैंने हिम्मत कर के पूछने की ज़ुर्रत की_____"अपनी समझ में तो मैंने अभी तक संस्था का कोई भी नियम नहीं तोड़ा है।"
"हम तुम्हारे साथ हुए उस हादसे के सम्बन्ध में ऐसा कह रहे हैं जिस हादसे में तुम संस्था द्वारा दिए गए मोबाइल को खो चुके थे।" चीफ़ ने कहा____"क्या तुम्हें हालात की गंभीरता का ज़रा भी एहसास है? ज़रा सोचो अगर वो मोबाइल किसी ऐसे ब्यक्ति के हाथ लग जाता जो उसकी खासियतों को देख कर उसकी जांच करने पर उतारू हो जाता तो क्या होता? वो कोई मामूली मोबाइल नहीं है और यही बात किसी के भी मन में ये जानने की उत्सुकता पैदा कर सकती है कि आख़िर वो मोबाइल ऐसा क्यों है कि उसमे कोई फंक्शन ही नज़र नहीं आता? मान लो अगर वो मोबाइल किसी पुलिस या इंटेलिजेंस वालों के हाथ लग जाता तब क्या होता?"
चीफ़ की बात सुन कर मुझे पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में उस मोबाइल को खो देने की मैंने कितनी बड़ी ग़लती की थी। हालांकि मुझे उसके खो जाने का बेहद मलाल भी हुआ था किन्तु उसके लिए मैं कर भी क्या सकता था। मैं तो इसी बात से राहत महसूस करने लगा था कि वो संदीप गुप्ता नाम के किसी अच्छे आदमी के हाथ लग गया था जिसने उसे सही सलामत मुझे लौटा दिया था।
"अब तुम्हें समझ आ गया होगा कि तुमने अपने निजी कारण के चलते संस्था के लिए कितना बड़ा ख़तरा पैदा कर दिया था।" चीफ़ ने कहा____"संस्था के हर एजेंट पर हमारी पैनी नज़र रहती है और यही वजह है कि हमने ख़तरे को तुरंत ही मिटा देने का काम करवा दिया। हम ये कैसे बरदास्त कर सकते हैं कि संस्था का कोई एजेंट अपने किसी निजी कारण के लिए संस्था के वजूद को ख़तरे में डाल दे?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए चीफ़।" मैंने आहत भाव से कहा_____"मैं मानता हूं कि मोबाइल को उस वक़्त एक्सीडेंट के चलते खो देने से संस्था के लिए ख़तरा बन गया था लेकिन वो सब मुझसे जान बूझ कर नहीं हुआ था। उस दिन वैसा कुछ हो जाएगा इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो बस अपने पिता जी का पीछा कर रहा था। ये जानने के लिए कि अगर वो उस दिन अपने ऑफिस नहीं जा रहे थे तो आख़िर कहां जा रहे थे?"
"माना कि तुम अपने पिता का किन्हीं कारणों से पीछा कर रहे थे।" चीफ़ ने कहा____"लेकिन उसके चलते तुमने इस संस्था के वजूद को ख़तरे में डाला उसका क्या? तुम्हें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि तुम एक आम इंसान नहीं हो बल्कि किसी ऐसी संस्था के एजेंट भी हो जिसके वजूद की हर तरह से हिफाज़त करना तुम्हारा सबसे पहला कर्त्तव्य है।"
मैं समझ सकता था कि चीफ़ अपनी जगह सही था लेकिन मैं अब उसे कैसे समझाता कि मैं आज कल किस तरह के हालातों से गुज़र रहा था?
"हम उम्मीद करते हैं कि अगली बार से तुम ऐसी कोई ग़लती नहीं करोगे।" मुझे चुप देख कर चीफ़ ने कहा____"अब तुम जा सकते हो।" "थैंक यू चीफ़।" मैंने खुश हो कर कहा____"थैंक यू सो मच।"
मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि चीफ़ इस तरह से जाने देगा। जिस तरह से उसने संस्था के नियम तोड़ने और उसके लिए सज़ा देने की बात कही थी उससे तो मैं हिल ही गया था किन्तु अब मैं ये सोच कर थोड़ा हैरान हुआ था कि उसने मुझे बिना कोई सज़ा दिए जाने दिया।
घर आया तो देखा मम्मी पापा ऑफिस से आ चुके थे। मुझे देख कर उन्होंने नाराज़गी से कहा कि मैं बाहर घूमने क्यों गया था जबकि मुझे अभी घर में ही रह कर आराम करना चाहिए था। मैंने मम्मी पापा को किसी तरह समझाया और अपने कमरे में चला गया।
दिन ऐसे ही गुज़रने लगे। मैं अपने कमरे में ही रहता और मम्मी पापा के ऑफिस चले जाने के बाद उनके कमरे में मौजूद तहख़ाने में जा कर उस दूसरे वाले दरवाज़े को खोलने की कोशिश करता। एक हप्ता गुज़र गया था और इस एक हप्ते में भी मुझे उस दूसरे वाले दरवाज़े को खोलने में कामयाबी नहीं मिल सकी थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर ऐसा कौन सा जुगाड़ था जिसकी वजह से वो दरवाज़ा खुलता था? संभव था कि उस दरवाज़े को खोलने का कोई जरिया ऐसा हो जो वहां मौजूद कंप्यूटर से ऑपरेट किया जाता हो। मेरे ज़हन में भी ये बात अब बैठ चुकी थी कि उस दरवाज़े को खोलने का जुगाड़ वहां मौजूद किसी कंप्यूटर में ही होगा, क्योंकि बाकी तो मैंने हर चीज़ को जाने कितनी ही बार बारीकी से चेक कर लिया था।
मेरे सिर की चोट अब काफी हद तक ठीक हो चुकी थी। मैंने ये सोचा था कि जब तक यहाँ पर हूं तब तक यहीं रह कर पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करता रहूंगा लेकिन सच तो ये था कि मैं उस तहख़ाने में ही फंस कर रह गया था। इस बीच मैंने दुबारा संजय अंकल को अपने घर पर सविता आंटी से मिलते नहीं देखा था। हालांकि मेरे दोस्त लोग मुझसे मिलने आते रहते थे। उस एक्सीडेंट के बाद से मैंने दुबारा पापा का पीछा भी नहीं किया था। इतना तो मैं समझ गया था कि मुझ पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। इस लिए मैंने भी किसी का पीछा कर के किसी के बारे में जानने का मंसूबा करना छोड़ दिया था।
मैंने एक दिन मम्मी पापा से अपने काम पर जाने की बात कही तो उन्होंने भी मुझे जाने की इजाज़त दे दी। असल में अब वो भी देख चुके थे कि मैं अब पहले से काफी बेहतर हो चुका हूं। दूसरे शहर में आ कर मैंने एक दो दिन तो अपने काम पर ही ध्यान दिया, उसके बाद मैंने एक ऐसे प्राइवेट डिटेक्टिव को तलब किया जो ऐसे मामलों को अंजाम देने में माहिर हो। मैंने उस डिटेक्टिव को अपने पापा और उनके सभी दोस्तों के बारे में गहराई से पता करने का काम सौंप दिया और साथ ही उसे ये भी बता दिया था कि इस काम में वो जितनी सावधानी रख सके रखे क्योंकि इस काम में उसकी जान को भी ख़तरा हो सकता है। मेरी बातें सुन कर वो डिटेक्टिव ऐसे मुस्कुराया था जैसे मैंने कोई बचकानी बात कह दी हो। ख़ैर डिटेक्टिव को काम पर लगा कर मैं अपने ऑफिस के काम में लग गया था और साथ ही उस डिटेक्टिव की रिपोर्ट का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा था।
☆☆☆
शाम को शिवकांत वागले अपनी ड्यूटी से फ़ारिग हो कर अपने घर पहुंचा। उसके ज़हन में तो आज कल विक्रम सिंह और उसकी कहानी ही छाई रहती थी किन्तु वो चाहता था कि घर आने के बाद वो स्वतंत्र मन से अपनी खूबसूरत बीवी सावित्री के साथ प्यार का वक़्त बिता सके। पिछले कुछ दिनों से उसे सावित्री के साथ सेक्स से भरा प्यार करने में बेहद ही आनंद आने लगा था और वो नहीं चाहता था कि अब किसी वजह से उसका ये आनंद फीका पड़ जाए। इसके लिए वो पूरी कोशिश कर रहा था लेकिन विक्रम सिंह की कहानी अब ऐसे मोड़ पर आ पहुंची थी कि वो चाह कर भी उससे अपना ध्यान हटा नहीं पाता था। उसके ज़हन में बार बार ये सवाल उभर आते थे कि आख़िर विक्रम सिंह के पिता और उसके पिता के सभी दोस्त किस चक्कर में थे और उसके बाद ऐसा क्या हुआ होगा जिसके चलते विक्रम सिंह ने अपने ही माता पिता की हत्या कर दी थी? वो जल्द से जल्द इस बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था किन्तु उसके पास इतना वक़्त भी नहीं होता था कि वो विक्रम सिंह की डायरी को एक ही बार में पढ़ कर सब कुछ जान ले।
घर का दरवाज़ा हमेशा की तरह उसकी बीवी सावित्री ने ही खोला और बीवी के होठों पर सजी मुस्कान को देख कर वागले जैसे सब कुछ भूल गया था। सावित्री का चेहरा आज कुछ ज़्यादा ही चमक रहा था। उसकी आँखों में ऐसे भाव थे जिन्हें देख कर वागले के जिस्म में मीठी सी झुरझुरी दौड़ती चली गई थी। वागले सावित्री को कुछ पल निहारने के बाद मुस्कुराया और फिर उसके बगल से निकल कर कमरे की तरफ बढ़ गया। बच्चे ड्राइंग रूम में बैठे थे। वागले को देख कर दोनों ने उससे फौरी तौर पर उसका हाल चाल पूछा जिसका जवाब उसने चलते चलते ही दिया था।
रात में डिनर करने के बाद वागले कमरे में अपनी बीवी का इंतज़ार कर रहा था। कुछ ही समय में जब सावित्री अपने सारे काम निपटा कर आई तो वागले ने उसे फ़ौरन ही दबोच लिया। वागले का उतावलापन देख कर सावित्री धीमे स्वर में हंस पड़ी थी।
"क्या बात है।" फिर उसने कहा____"आज तो जनाब बड़े ही बेसब्री हो रहे हैं।" "जिसकी बीवी इतनी सुन्दर हो और इतनी कामुक हो वो बेसब्र नहीं होगा तो और क्या होगा मेरी जान?" वागले ने सावित्री को बेड पर सीधा लेटा कर उसके चेहरे को सहलाते हुए कहा____"कितना बेवकूफ था मैं जो अब तक बेकार का जीवन जी रहा था। मैंने कभी ये देखने और समझने की कोशिश ही नहीं की थी कि मेरी बीवी आज भी ऐसी है जो सोलह साल की जवान लड़कियों को भी मात देती है। सच कहता हूं सावित्री तुम आज भी मस्त माल नज़र आती हो।"
"शरम कीजिए कुछ।" सावित्री ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस उमर में ये आप कैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं?" "उमर चाहे जो हो सवित्री।" वागले ने झुक कर सावित्री के होठों को चूम कर कहा____"लेकिन मन तो सदा जवान ही रहता है ना। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि सोच लेने भर से कोई बूढ़ा या जवान नहीं हो जाता। तुम खुद इस बात की गवाह हो कि पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से हमने एक दूसरे को प्यार किया है क्या वो किसी जवान इंसान से कमतर था?"
"हां ये बात तो मैं मानती हूं आपकी।" सावित्री ने वागले की आँखों में देखते हुए कहा____"आपके अंदर का जोश देख कर तो मैं हैरान ही हो गई थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि पचास की उम्र के क़रीब पहुंच रहा मेरा पति किसी जवान मर्द की तरह इतने जोश में और इतनी क्षमता के साथ मेरे साथ सम्भोग कर रहा है।"
"सम्भोग की जगह चुदाई शब्द का स्तेमाल किया करो मेरी जान।" वागले ने सावित्री की एक छाती को जोर से मसल कर कहा____"प्यार करते समय जितना खुल कर चीज़ों का नाम लोगी उतना ही मज़ा आएगा। ख़ैर छोड़ो और ये बताओ कि आज इतना खुश और कामुक क्यों लग रही हो तुम? कोई ख़ास बात है क्या?"
"ख़ास तो कुछ नहीं है।" सावित्री ने हया से लजाते हुए कहा____"किन्तु जब से हम दोनों के बीच ये सब शुरू हुआ है तब से हर वक़्त जाने क्यों मेरा मन उसी बारे में सोच सोच कर रोमांचित होता रहता है। अब तो ये हाल है कि आपके बिना अकेले इस घर में रहा भी नहीं जाता। मेरे अंदर एक बेचैनी सी छाई रहती है। मन यही किया करता है कि जल्दी से आप आ जाएं और मुझे अपनी बाहों में भर कर मुझे खूब सारा प्यार करें।"
"अच्छा।" वागले ने मन ही मन हैरान हो कर कहा____"और क्या क्या लगा करता है तुम्हें?" "कैसे बताऊं आपको?" सावित्री ने अपनी नज़रों को उससे हटा कर दूसरी तरफ देखते हुए कहा____"मेरा मन तो यही करता है कि कितनी जल्दी रात हो और फिर आप मुझे इस तरह प्यार करें कि मेरे जिस्म का रोम रोम ख़ुशी और आनंद से भर जाए। क्या आपको ऐसा नहीं लगता?"
"मेरी हालत तुमसे जुदा कैसे हो सकती मेरी जान?" वागले ने सावित्री के चेहरे को सीधा कर के फिर से उसके होठों को चूम कर कहा था____"मन तो मेरा भी यही करता है कि हर वक़्त तुम्हें अपनी बाहों में भर कर तुम्हें प्यार करता रहूं लेकिन क्या करूं जीवन में इसके अलावा भी बहुत से ऐसे ज़रूरी काम हैं जिन्हें करना जैसे मज़बूरी है।"
"सही कहा आपने।" सावित्री ने गहरी सांस ली____"बहुत कुछ सोचना पड़ता है और बहुत कुछ सहना भी पड़ता है। जवान हो चुके अपने बच्चों के बारे में भी सोचना पड़ता है कि अगर उन्हें किसी दिन हमारे ऐसे कर्मों का पता चला तो वो हमारे बारे में क्या सोचेंगे?"
"आज कल के बच्चे बहुत समझदार हैं सावित्री।" वागले ने कहा____"वो हमारे बारे में अच्छा ही सोचेंगे। तुम इस सबकी चिंता मत करो बल्कि इस प्यार का खुल कर आनंद लो। अब चलो छोड़ो ये सब बातें और आओ हम खुल कर एक दूसरे को प्यार करें।"
वागले की बात सुन कर सावित्री उसकी आँखों में देखने लगी। जबकि वागले ने कुछ पल उसे देखा और फिर झुक कर सावित्री के रसीले होठों को अपने मुँह में भर कर उनका रसपान करने लगा। एक हाथ से वो उसकी बड़ी बड़ी छातियों को भी बारी बारी से मसलने लगा था। सावित्री जल्दी ही एक मीठे आनंद में डूबती नज़र आने लगी थी। उसने भी खुल कर अपने पति का साथ देना आरम्भ कर दिया।
कुछ ही देर में आलम ये हो गया कि दोनों ही पूरी तरह निर्वस्त्र हो गए। वागले सावित्री के खूबसूरत जिस्म के हर हिस्से पर अपनी जीभ फिरा रहा था। सावित्री बेड पर किसी मछली की तरह मचल रही थी। सावित्री के सीने पर मौजूद उसके बड़े बड़े खरबूजों को वागले मुँह में भर कर चूस भी रहा था और हाथों से बुरी तरह मसलता भी जा रहा था। जल्दी ही वो उसके पेट से होते हुए उसकी चिकनी चूत पर आ गया। पहले तो उसने सावित्री की मोटी गुदाज़ जाँघों को चूमा चाटा और फिर एकदम से उसकी रस छोड़ती चूत पर अपनी जीभ लगा दी। चूत पर जैसे ही उसकी जीभ लगी तो उसे किसी गरम भट्ठी का आभास हुआ जिसकी तपिश से उसे अपना मुँह जलता हुआ सा प्रतीत हुआ।
वागले पागलों की तरह सावित्री की चूत को चाटता जा रहा था और एक हाथ की दो उंगली से वो उसकी चूत को भी छेड़ता जा रहा था जिससे सावित्री बुरी तरह आहें भरते हुए मचल रही थी। पूरे कमरे में सावित्री की घुटी घुटी सिसकियां और आहें गूँज रहीं थी। हालांकि वो अपनी सिसकियों और आहों को दबाने की भरपूर कोशिश कर रही थी लेकिन बावजूद इसके वो नाकाम हो रही थी। जल्दी ही सावित्री अपने चरम पर पहुंच गई और झटके खाते हुए झड़ गई। झड़ने के बाद वो गहरी गहरी साँसें लेते हुए बेड पर निढाल सी पड़ गई थी। उधर वागले उसकी चूत से निकले कामरस को सारा का सारा चाट गया था।
कुछ देर बाद जब सावित्री की साँसें थमी तो उसने अपनी आँखें खोल कर वागले को देखा। उसकी आँखों में परम संतुष्टी के भाव थे और वो वागले को बड़े ही प्यार से देख रही थी। उसे अपनी तरफ देखता देख वागले हल्के से मुस्कुराया और उसके चेहरे के पास आ कर उसने हल्के से उसके होठों को चूम लिया।
"तो कैसा लगा मेरी जान को?" फिर उसने मुस्कुराते हुए उससे पूछा" "मज़े के उस एहसास को मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती।" सावित्री ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"बस यही कह सकती हूं कि उस वक़्त मैं ऐसी दुनियां में थी जहां पर ऐसा आनंद था जैसा हक़ीक़त की दुनियां में कहीं हो ही नहीं सकता।"
"ऐसी बात है क्या।" वागले हल्के से मुस्कुराया____"फिर तो मुझे भी उसी दुनियां में उस आनंद को पाने की इच्छा है। मुझे भी उस दुनियां में भेजो डियर।" "जी बिल्कुल।" सावित्री कहने के साथ ही उठी और फिर वागले के चेहरे को अपनी हथेलियों में भर कर कहा____"आप लेट जाइए, मैं जल्द ही आपको उस अद्भुत दुनियां में भेजती हूं।"
वागले मुस्कुराते हुए लेट गया। सावित्री ने कुछ देर उसके होठों को अपने होठों के बीच ले कर चूसा और फिर उसी के जैसे उसके जिस्म के हर हिस्से पर अपनी जीभ फिराने लगी। वागले जल्द ही मज़े की तरंगों में डूबने लगा। सावित्री का कोमल स्पर्श और उसकी गर्म साँसें जब वागले के जिस्म पर पड़तीं थी तो वो एक अलग ही तरह के मीठे एहसास में खो जाता था। आँखें बंद कर के वो उसी एहसास में खुद को डूबाने लगा था। जल्दी ही सावित्री उसके जिस्म के उस हिस्से पर आ गई जहां पर उसका स्पर्श पड़ते ही वागले के जिस्म में उठती तरंगों में इज़ाफ़ा हो गया।
सावित्री ने वागले के लंड को अपने कोमल हाथ में लिया और उसे कुछ पलों तक सहलाने के बाद झुक कर उसे चूम लिया। वागले को अपना जिस्म अंतरिक्ष में उड़ता महसूस होने लगा। सावित्री ने जैसे ही उसके लंड को अपने मुँह में लिया तो मज़े की तरंगों से मजबूर हो कर वागले ने फ़ौरन ही अपने दोनों हाथ बढ़ा कर सावित्री के सिर को थाम लिया और नीचे से अपना पिछवाड़ा उठा कर अपने लंड को और भी उसके मुँह में ठेल दिया। सावित्री का गर्म मुख और जीभ के घर्षण की वजह से वागले जल्द ही स्वर्ग जैसे आनंद में पहुंच गया।
सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।
सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।
अब आगे....
दूसरे दिन शिवकांत वागले ऑफिस पहुंचा। सबसे पहले उसने जेल का चक्कर लगाया और सारी सुरक्षा ब्यवस्थाओं को चेक किया। इतने से काम में उसे क़रीब एक से डेढ़ घंटे का समय लग गया। उसके बाद वो अपने केबिन में आ कर विक्रम सिंह की डायरी ले कर पढ़ने बैठ गया।
☆☆☆
क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था।
जिस डिटेक्टिव को मैंने अपने पिता और उनके दोस्तों के बारे में पता करने के लिए लगाया था वो अब तक मेरे पास नहीं लौटा था। पिछले एक हप्ते से मैं यही सोच सोच कर हलकान होता रहा था कि डिटेक्टिव आख़िर किस तरह की जानकारी ले कर मेरे पास आएगा? एक एक पल गुज़ारना जैसे मेरे लिए मुश्किल सा हो रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगते थे। कभी कभी ये भी सोचने लगता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस डिटेक्टिव को मैंने इस काम के लिए लगाया था वो पकड़ा गया हो और अब वो किसी मुसीबत में हो। मैं जानता था कि इस काम में उसकी जान को ख़तरा भी था और मैंने इस बात से उसे आगाह भी किया था। एक हप्ता गुज़र गया था लेकिन वो अभी तक नहीं लौटा था और ना ही किसी तरह उसने किसी प्रकार की सुचना दी थी मुझे। पल पल मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।
एक दिन ज़फर ने मुझे फ़ोन कर के बताया कि वो और उसके पेरेंट्स यहाँ का सब कुछ बेंच कर विदेश में रहने जा रहे हैं। मेरे लिए ये हैरानी की बात तो थी लेकिन भला मैं उसे या उसकी फॅमिली को कैसे कहीं जाने से रोक सकता था? ज़फर ने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैं अगले ही दिन उससे मिलने अपने शहर चला गया। वहां पर मैं ज़फर और उसके पेरेंट्स से मिला। उसकी बेटी जो किसी परी से कम नहीं थी उसे प्यार और स्नेह दिया। उसके बाद मैं अपने घर चला गया। शाम को घर में रुक कर और मम्मी पापा से मिल जुल कर मैं अगली सुबह ही वापस आ गया था।
दूसरे शहर आ कर जैसे ही मैं अपने ऑफिस जाने के लिए निकला तो डिटेक्टिव आ धमका। उसे देख कर मैंने ऐसा महसूस किया जैसे अब जा कर मुझ में जान आई है। ख़ैर डिटेक्टिव को मैंने अंदर ड्राइंग रूम में बैठाया और उससे मुख्य विषय पर बात शुरू की। डिटेक्टिव का चेहरा मुझे बेहद गंभीर नज़र आ रहा था और ये बात मेरे लिए अच्छी नहीं थी। मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो इतना गंभीर क्यों था और उसने मेरे कहने पर क्या जानकारी हासिल की थी?
"सब कुछ ठीक तो है न?" मैंने धड़कते दिल से उससे पूछा____"आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे हालात कुछ ठीक नहीं हैं।"
"सच कहा आपने।" उसने उसी गभीरता से कहा____"एक हप्ते पहले जब आपने मुझसे ये कहा था कि मैं अपना ख़याल रखूंगा क्योंकि इस काम में मेरी जान को ख़तरा भी हो सकता है तो मुझे उस वक़्त आपकी बातें बचकानी लगी थी। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे पेशे में ऐसा होना आम बात नहीं थी किन्तु मैं इस लिए बेफिक्र रहता था क्योंकि मुझे अपनी सुरक्षा करना भली भाँति आता है। पर आपका केस मेरे हर केस से कहीं ज़्यादा जुदा निकला। मैं इतना तो जानता था कि ऐसे काम आसान नहीं होते लेकिन इस बात का अंदाज़ा शायद मैंने ग़लत लगाया था कि ये केस मेरे पिछले केसेस जैसा ही होगा।"
"आख़िर बात क्या हुई है मिस्टेर कुलकर्णी?" मैंने ब्याकुलता से कहा____"प्लीज़ पहेलियाँ मत बुझाइए बल्कि मुझे साफ़ शब्दों में बताइए कि इस एक हप्ते में आपने क्या किया और किस तरह की जानकारी हासिल की? साथ ही ये भी बताइए कि आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता की वजह क्या है?"
"आपका केस लेने के बाद।" कुलकर्णी ने गहरी सांस लेने के बाद कहना शुरू किया____"जब मैं यहाँ से गया तो शुरू के दो तीन दिन तो मेरी समझ में ठीक ठाक ही गुज़रे किन्तु फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरा पीछा किया जा रहा है। मैंने ऐसा महसूस किया जैसे चारो तरफ से कुछ अज्ञात लोग मुझ पर नज़र रखे हुए हैं। इस बात का एहसास होते ही मैंने उन्हें चकमा देने की कोशिश की। एक दो बार मैं उन्हें चकमा देने में कामयाब हो भी गया लेकिन फिर मुझे समझते देर न लगी कि मेरे लिए उनकी पैनी निगाहों से ज़्यादा देर तक बच के रहना मुमकिन नहीं है। मैं ये भी समझ गया था कि जो लोग मेरे पीछे लगे हैं वो निहायत ही ख़तरनाक लोग हैं। शायद वो पहले ही समझ गए थे कि मैं किसी ऐसे चक्कर में हूं जो सरासर उनसे सम्बन्ध रखता है। मैं क्योंकि आपका केस ले चुका था और मेरा उसूल है कि किसी का केस लेने के बाद मैं उस केस को तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा देता। इस लिए मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस मामले में मैं अपना काम पूरा कर सकूं लेकिन पुरज़ोर कोशिश करने के बाद भी मैं सफल नहीं हो पाया। आज आलम ये है कि मैं खुद अपनी ही जान बचा कर किसी तरह आपके पास आ पहुंचा हूं और साथ ही ये भी कह रहा हूं कि मुझे आपका केस छोड़ना पड़ेगा। मेरे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने अपनी जान की परवाह करते हुए कोई केस छोड़ा है।"
डिटेक्टिव कुलकर्णी की बातें सुनने के बाद मैं एकदम से कुछ बोल नहीं पाया था। उसके द्वारा कहे गए एक एक शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे और मुझे सोचो के किसी गहरे समुद्र में डुबाते जा रहे थे। ऐसा नहीं था कि मुझे इस मामले में मौजूद भयानक ख़तरे का एहसास नहीं था बल्कि वो तो बखूबी था किन्तु मैं ये सोच कर चुप रह गया था कि जब एक सुलझा हुआ डिटेक्टिव इस काम में नाकाम हो कर लौटा है तो मैं भला कैसे इस मामले की तह तक जा सकता था? मेरे ज़हन में उस दिन का वो दृश्य उजागर हो गया जब मैं अपने पापा का पीछा कर रहा था और अचानक से उस मोड़ पर एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ मेरी मोटर साइकिल के आगे आ गया था। साफ़ ज़ाहिर था कि उस पत्थर के द्वारा मुझे रोक कर ये समझाने की कोशिश की गई थी कि जिस मकसद से मैं उस रास्ते पर आगे बढ़ रहा था वो मेरे लिए ख़तरनाक है। इससे ये भी ज़ाहिर हो गया था कि उस दिन मैं भले ही ये समझ रहा था कि मेरे पापा को अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी आभास नहीं था किन्तु मैं ग़लत था क्योंकि असल में मैं किसी न किसी की नज़रों में ही था उस वक़्त। अब सवाल ये था कि ऐसा क्यों? आख़िर कोई ऐसा क्यों चाह सकता था कि मैं अपने पिता का पीछा करते हुए उस रास्ते में आगे न जाऊं? क्या सच में मेरे पिता कोई ऐसी शख्सियत वाले थे जिनकी असलियत का मैं तसव्वुर भी नहीं कर सकता था?
"मिस्टर विक्रम।" डिटेक्टिव कुलकर्णी की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया तो मैंने उसकी तरफ देखा। जबकि उसने आगे कहा_____"मुझे बेहद खेद है कि मैं आपका केस लेने के बाद भी इस केस को छोड़ रहा हूं। जीवन में पहली बार मैं ख़तरे को देख कर ये सोच बैठा हूं कि जान है तो जहान है। अगर कोई मामूली ख़तरा होता तो मैं उसे सम्हाल लेता लेकिन ये ख़तरा मामूली नहीं है, बल्कि ये ऐसा है कि इस ख़तरे का मैं किसी भी तरह से सामना नहीं कर सकता।"
"कोई बात नहीं मिस्टर कुलकर्णी।" मैंने गहरी सांस ली____"मैं समझ सकता हूं कि जान से बढ़ कर कुछ नहीं होता। मैं बस ये जानना चाहता हूं कि क्या आप इस मामले में किसी भी तरह की जानकारी हासिल नहीं कर पाए?"
"ऐसा नहीं है मिस्टेर विक्रम।" कुलकर्णी ने कहा____"शुरुआत में मैंने जो कुछ पता किया उससे मैं यही कहूंगा कि आपका शक सही था। यानि आपके पिता और उनके सभी दोस्त जैसा नज़र आते हैं वैसे हैं नहीं। आपके साथ जिस रोड पर हादसा हुआ था उस रोड पर जा कर भी मैंने पता किया। वो रास्ता मुख्य सड़क से हट कर जिस तरफ को जाता है वहां कुछ दूरी पर मैंने दो तीन इमारतें बनी हुई देखी हैं। उसके बाद कुछ छोटे बड़े फार्म हाउस भी दिखे। हालांकि रास्ता उसके आगे भी जाता है लेकिन आगे क़रीब दस किलो मीटर तक सड़क के दोनों तरफ बंज़र ज़मीन के अलावा कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद एक छोटा सा गांव पड़ता है और वहीं से होते हुए वो रास्ता आगे एक मुख्य सड़क से मिल जाता है। जहां पर आपके साथ हादसा हुआ था उसके आगे जो दो तीन इमारतें थीं उनके बारे में पता करने की मैंने कोशिश की लेकिन वहां मौजूद गॉर्डस ने ये कह कर मुझे भगा दिया कि यहाँ बाहरी लोगों का आना एलाऊ नहीं है। मेरे लिए ये अजीब बात थी क्योंकि किसी जगह या इमारत के बारे में पूछना कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बारे में बताया न जा सके। यही हाल बाकी दोनों जगहों का भी था। मैंने सोचा कि शाम के समय जा कर वहाँ के बारे में अपने तरीके से पता करुंगा लेकिन उससे पहले ही मुझे मेरा पीछा किए जाने का एहसास हो गया। उसके बाद तो बस खुद को बचाते रहने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा।"
कुलकर्णी जिन इमारतों की बात कर रहा था उनमें से एक को मैं जानता था। उन इमारतों में से एक में सी. एम. एस. का मुख्यालय था जबकि दो इमारतें मेरे लिए भी अंजान थीं। हालांकि सी. एम. एस. के मुख्यालय में जाने के बाद भी कोई ये नहीं कह सकता था कि वहां पर इस नाम की कोई संस्था मौजूद हो सकती है क्योंकि मुख्यालय इमारत में तो था लेकिन ज़मीन के नीचे। इमारत के एक भाग में फैक्ट्री थी और मुख्य भाग को रेजिडेंस के लिए बनाया गया था जहां पर फैक्ट्री के मालिक की रिहाइश थी। इमारत का मालिक कौन था इस बारे में मुझे भी पता नहीं था और ना ही मैंने कभी देखा था उसे। हालांकि मैंने तो दूसरे भाग में मौजूद उस फैक्ट्री को भी नहीं देखा था जहां पर लाइट फिटिंग करने वाली पट्टियां बनतीं थी। सड़क के दूसरी तरफ दो और इमारतें थीं लेकिन वो किसकी थीं और वहां क्या था इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
"ख़ैर और क्या पता किया आपने?" मैंने फिर से गहरी सांस ले कर कुलकर्णी से पूछा।
"शुरु के दो तीन दिन मैंने यही देखा था कि आपके पिता जी के अलावा।" कुलकर्णी ने कहा____"उस रास्ते पर उनके सभी दोस्त भी जाते हैं। मेरी शुरू में की गई तहक़ीकात के अनुसार आपके पिता और उनके सभी दोस्त अपने अपने घरों से निकल कर पहले अपने ब्यवसायिक ऑफिस में जाते हैं। वहां से क़रीब एक या डेढ़ घंटे बाद वो निकलते हैं, उसके बाद आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में वो सब उसी रास्ते की तरफ जाते हैं। हालांकि उस रास्ते पर उनकी मंज़िल कहां होती है ये मैं पता नहीं कर पाया लेकिन मेरा अनुमान है कि वो सब उन तीन इमारतों में से ही किसी पर जाते होंगे, या ये भी हो सकता है कि उसी रास्ते से हो कर वो आगे मुख्य सड़क पर पहुंचते हों। जहां से वो कहीं दूसरी जगह जाते होंगे। मैं ऐसा इस लिए कह रहा हूं क्योंकि वो रास्ता दूसरे शहर जाने के लिए शार्ट रास्ते का भी काम करता है, जबकि इधर के मुख्य सड़क से वहां तक पहुंचने में क़रीब सात किलो मीटर का अंतर पड़ता है।"
"और कुछ?" मैंने बड़ी उम्मीद के साथ पूछा।
"एक दिन मैंने आपके दोस्त रंजन को भी उस रास्ते पर जाते देखा था।" कुलकर्णी ने ये कहा तो मैं बुरी तरह चौंका, फिर खुद को सम्हाल कर बोला____"इस बात का क्या मतलब हुआ?"
"मतलब तो मुझे भी शुरू में समझ नहीं आया था।" कुलकर्णी ने कहा____"लेकिन अपने अंदर पैदा हुए शक को दूर करने के लिए जब मैंने आपके दोस्त के बारे में पता किया तो एक बात मेरी समझ में नहीं आई।"
"कैसी बात??" मैं उससे पूंछ तो बैठा था लेकिन जाने क्यों मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था।
"आपने बताया था कि आपके सभी दोस्त अब अपने अपने पिता के कारोबार में लग गए हैं।" कुलकर्णी ने एक सिगरेट जलाने के बाद कहा____"इस बात को ध्यान में रख कर जब मैंने तहक़ीकात की तो पता चला कि रंजन के पिता यानि संजय भाटिया का ऑफिस तो उस तरफ है ही नहीं जिसके लिए रंजन को उस रास्ते की तरफ जाना पड़े। सोचने वाली बात है कि अगर रंजन अपने पिता के कारोबार में उनके साथ ही लगा हुआ है तो वो उस रास्ते की तरफ क्यों जाएगा जिस रास्ते में उसके पिता का ऑफिस है ही नहीं? बल्कि ऑफिस तो शहर के दूसरे रास्ते की तरफ है। उस वक़्त मुझे ये बात समझ नहीं आई थी किन्तु जब मैंने ये देखा कि आपके पिता और उनके सभी दोस्त आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में उसी ख़ास रास्ते की तरफ जाते हैं तो मुझे ये समझते देर न लगी कि रंजन भी अपने पिता की तरह मामूली शख्सियत वाला इंसान नहीं है।"
कुलकर्णी जाने क्या क्या कहे जा रहा था और यहाँ मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा चल पड़ा था। मनो मस्तिष्क में विस्फोट से होने लगे थे। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभर आया था कि इसका मतलब रंजन भी मेरी तरह सी. एम. एस. नाम की संस्था का एजेंट है। हालांकि मुझे अभी भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन कुलकर्णी की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था। अगर ये सच था तो यकीनन मेरे लिए ये हैरान कर देने वाली बात थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि रंजन ने कब और कैसे चूत मार सर्विस जैसी संस्था को ज्वाइन किया होगा?
डिटेक्टिव कुलकर्णी बस इतना ही जान पाया था। उसके बाद वो ये कह कर चला गया कि अब वो गधे के सिर के सींग की तरह इस शहर से ग़ायब हो जाएगा क्योंकि एक भयानक ख़तरे ने उसे चारो तरफ से घेर रखा है। कुलकर्णी के जाने के बाद मैं काफी देर तक इस सबके बारे में सोचता रह गया था। ख़ास कर रंजन के बारे में। मैं चाह कर भी रंजन से इस बारे में पूछतांछ नहीं कर सकता था, क्योंकि अगर सच में रंजन चूत मार सर्विस का एजेंट होगा तो संस्था के नियम के अनुसार मैं ना तो उसके बारे में जानने का सोच सकता था और ना ही उसके सामने ये ज़ाहिर कर सकता था कि मुझे असलियत पता है। मैंने महसूस किया कि अचानक से ही परिस्थितियां कितनी अजीब और तनावपूर्ण हो गईं थी।
ज़हन से सारी बातें निकाल कर मैं ऑफिस तो चला आया था लेकिन सारा दिन मैं इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा था। शाम को बाहर से ही डिनर कर के घर आया और अपने कमरे में बेड पर लेट गया। मैं सोचने लगा कि इसके पहले मेरी ज़िन्दगी कितनी बेहतर चल रही थी। यानि चूत मार सर्विस से जुड़ने के बाद मेरी सबसे बड़ी चाहत पूरी हुई थी और मैं तरह तरह की औरतों के साथ सेक्स का मज़ा लेता था किन्तु जबसे मुझे अपने पिता और उनके दोस्तों के रहस्यमयी होने का पता चला है तब से मैं निहायत ही चिंतित और परेशान सा रहने लगा हूं। मैं चाह कर भी अपने ज़हन से उनके ख़याल निकाल नहीं पा रहा था। मेरे अंदर सच जानने की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
डिटेक्टिव कुलकर्णी को इस मामले का पता करने के लिए लगाया तो मामला और भी ज़्यादा गंभीर नज़र आने लगा था। मुझे अब समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह से अपने पिता और उनके दोस्तों का सच पता करूं? सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या इस बारे में मुझे अपने पिता से पूछना चाहिए लेकिन सवाल था कि मैं उनसे आख़िर क्या पूछूंगा? कहने का मतलब ये कि मेरे पास कोई ऐसा आधार होना चाहिए जिसके बल पर मैं उनसे सवाल कर सकूं। मैं सोचने लगा कि उनसे कुछ पूछने के लिए किस चीज़ को आधार बनाना चाहिए मुझे? अभी मैंने ये सोचा ही था कि अचानक से मेरे ज़हन में मेरे मम्मी पापा के कमरे में मौजूद उस ख़ुफ़िया तहख़ाने का ख़याल आया। मैंने सोचा कि उस तहख़ाने को ही आधार बना कर मैं उनसे सवाल जवाब कर सकता हूं। मैंने इस बारे में काफी सोचा और आख़िर में मैंने यही फैसला किया कि मैं उस तहख़ाने के आधार पर ही उनसे सवाल जवाब करुंगा।
अपने घर से आए मुझे अभी आठ दिन ही हुए थे इस लिए मैं बिना वजह वापस घर नहीं जा सकता था। ऐसे में घर जा कर अगर मैं पापा से उनके कमरे में मौजूद उस तहख़ाने के सम्बन्ध में कुछ पूछूंगा तो संभव है कि उन्हें शक हो जाए। यानि वो ये सोच सकते हैं कि मैं सिर्फ तहख़ाने के बारे में जानने के लिए ही घर आया हूं। मैंने सोचा कि उनसे उस तहख़ाने के बारे में पूछने से पहले अलग से कोई भूमिका बनानी पड़ेगी, ना कि डायरेक्ट उनसे तहख़ाने के बारे में पूछा जाए।
रात पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। सुबह उठा और फ्रेश होने के बाद मैं ड्राइंग रूम में आ कर सोफे पर बैठ गया। घर में काम करने के लिए करुणा नाम की एक औरत आती थी। सुबह का चाय नास्ता वही बनाती थी। सोफे पर बैठ कर मैंने टीवी चालू किया। तभी करुणा चाय और नास्ता ले कर आ गई। उसने नास्ता और चाय सेण्टर टेबल पर रखा और चली गई। मैंने प्लेट में रखे गोभी के पराठे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि टीवी में चल रही न्यूज़ को देख कर मेरा हाथ जहां का तहां ठिठक गया। टीवी स्क्रीन पर मेरी निगाहें जमी की जमी रह गईं थी और मेरे दिल की धड़कनें मुझे रुक गईं सी प्रतीत हुईं।
टीवी पर न्यूज़ एंकर ख़बर सुना रही थी और स्क्रीन में उसके बगल से एक फोटो दिख रही थी। वो फोटो किसी और का नहीं बल्कि डिटेक्टिव कुलकर्णी का था। न्यूज़ एंकर बता रही थी कि पिछली रात पुलिस को मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी की लाश शहर से बाहर जाने वाले रास्ते पर सड़क के किनारे पड़ी हुई मिली। लाश को देख कर साफ़ पता चलता है कि मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी का मर्डर किया गया है। मृतक के सीने में दो गोलियां मारी गईं थी जिसके चलते उसकी मौत हो गई।
डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी के मर्डर की ख़बर टीवी में देख कर मेरे होश उड़ चुके थे। मैं ये तो समझता था कि मैंने जिस मामले को उसे सौंपा था उसमें उसकी जान तक जाने का ख़तरा था और ये बात आख़िर में कुलकर्णी भी जान चुका था किन्तु ना तो मुझे उसकी इस तरह जान चले जाने का यकीन था और ना ही शायद कुलकर्णी को रहा होगा। मेरी आँखों के सामने कुलकर्णी का चेहरा बार बार उजागर होने लगा था। अभी कल की ही तो बात थी। वो मेरे सामने इसी ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा था। मनीष कुलकर्णी की इस तरह से हुई मौत ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था। अगर मैं ये कहूं तो ज़रा भी ग़लत न होगा कि उसकी मौत का जिम्मेदार मैं खुद था। अगर मैं उसे अपने पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करने को नहीं कहता तो आज मनीष कुलकर्णी ज़िंदा होता। मेरा दिलो दिमाग़ एकदम से इस अपराध बोझ से भर गया। पलक झपकते ही मैं आत्मग्लानि में डूब गया। मेरा ज़मीर चीख चीख कर मुझे धिक्कारने लगा था। मेरी आँखों के सामने हर एक मंज़र बड़ी तेज़ी से घूमने लगा। ऐसा लगा जैसे मैं बेहोश हो जाऊंगा। मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और रिमोट उठा कर टीवी बंद कर दिया।
इस मामले में मुझे ख़तरे का आभास तो था लेकिन ऐसी कल्पना मैंने हरगिज़ नहीं की थी कि कुलकर्णी के सिर पर मंडराने वाला ख़तरा इस तरह से भयानक रूप ले कर इतना जल्दी उसकी जान ले लेगा। कुलकर्णी की अकस्मात हुई मौत ने जहां मुझे हिला कर रख दिया था वहीं मैं ये सोचने पर भी मजबूर हो गया था कि क्या उसके मर्डर में मेरे पापा या उनके दोस्तों का हाथ हो सकता है? यकीनन हो सकता है क्योंकि कुलकर्णी उन्हीं सब के बारे में तो पता कर रहा था।
न नास्ते करने का दिल किया और ना ही चाय पीने का। भारी मन से मैं उठा और अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से ऑफिस के लिए निकल गया। ऑफिस तो पहुंच गया लेकिन किसी भी चीज़ में मेरा मन नहीं लगा। बार बार आँखों के सामने टीवी स्क्रीन पर दिख रहे मनीष कुलकर्णी का फोटो उभर आता और कानों में न्यूज़ पढ़ने वाली उस संवाददाता की बातें गूजने लगतीं। बड़ी ही मुश्किल से दिन गुज़रा और मैं ऑफिस से घर आ गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस मामले में मुझे क्या करना चाहिए?
मैं अच्छी तरह जानता था कि कुलकर्णी की पहुंच ज़रूर पुलिस विभाग या उससे ऊपर तक भी हो सकती थी। ऐसे में पुलिस उसके मर्डर वाले मामले में चुप नहीं बैठेगी। यानि वो मनीष कुलकर्णी के मर्डर की बारीकी से जांच करेगी। ऐसे में अगर मैं उसके इस मामले में कुछ करुंगा तो ज़ाहिर है कि पुलिस का रुख़ मेरी तरफ भी होगा और उसके बाद पुलिस बाल की खाल निकालना शुरू कर देगी जो कि ज़ाहिर है कि मेरे लिए अच्छी बात नहीं होगी। मेरे माता पिता भी मुझे ऐसे मामले में फंसा हुआ नहीं देखना चाहेंगे। यही सोच कर मैंने कुलकर्णी के इस मामले में कुछ भी करने का अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।
डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?
सावित्री एक लय में अपने सिर को आगे पीछे करते हुए उसके लंड को चूस रही थी और साथ ही अपने हाथों से उसके टट्टों को भी सहला रही थी। वागले का लंड जल्द ही उसके मुख में फूलने लगा। सावित्री के मुख की गर्मी और उसके चूसने का जल्द ही असर हुआ। वागले ज़्यादा देर तक खुद को सम्हाल न पाया और किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर उसके मुख में ही झड़ता चलता गया। झड़ते वक़्त उसका पूरा जिस्म झटके खा रहा था और फिर कुछ ही झटकों के बाद वो बेजान सा हो कर शांत पड़ गया। कमरे में उसकी भारी हो चुकी साँसें ही गूँज रहीं थी।
अब आगे....
दूसरे दिन शिवकांत वागले ऑफिस पहुंचा। सबसे पहले उसने जेल का चक्कर लगाया और सारी सुरक्षा ब्यवस्थाओं को चेक किया। इतने से काम में उसे क़रीब एक से डेढ़ घंटे का समय लग गया। उसके बाद वो अपने केबिन में आ कर विक्रम सिंह की डायरी ले कर पढ़ने बैठ गया।
☆☆☆
क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था।
जिस डिटेक्टिव को मैंने अपने पिता और उनके दोस्तों के बारे में पता करने के लिए लगाया था वो अब तक मेरे पास नहीं लौटा था। पिछले एक हप्ते से मैं यही सोच सोच कर हलकान होता रहा था कि डिटेक्टिव आख़िर किस तरह की जानकारी ले कर मेरे पास आएगा? एक एक पल गुज़ारना जैसे मेरे लिए मुश्किल सा हो रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगते थे। कभी कभी ये भी सोचने लगता था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस डिटेक्टिव को मैंने इस काम के लिए लगाया था वो पकड़ा गया हो और अब वो किसी मुसीबत में हो। मैं जानता था कि इस काम में उसकी जान को ख़तरा भी था और मैंने इस बात से उसे आगाह भी किया था। एक हप्ता गुज़र गया था लेकिन वो अभी तक नहीं लौटा था और ना ही किसी तरह उसने किसी प्रकार की सुचना दी थी मुझे। पल पल मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी।
एक दिन ज़फर ने मुझे फ़ोन कर के बताया कि वो और उसके पेरेंट्स यहाँ का सब कुछ बेंच कर विदेश में रहने जा रहे हैं। मेरे लिए ये हैरानी की बात तो थी लेकिन भला मैं उसे या उसकी फॅमिली को कैसे कहीं जाने से रोक सकता था? ज़फर ने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैं अगले ही दिन उससे मिलने अपने शहर चला गया। वहां पर मैं ज़फर और उसके पेरेंट्स से मिला। उसकी बेटी जो किसी परी से कम नहीं थी उसे प्यार और स्नेह दिया। उसके बाद मैं अपने घर चला गया। शाम को घर में रुक कर और मम्मी पापा से मिल जुल कर मैं अगली सुबह ही वापस आ गया था।
दूसरे शहर आ कर जैसे ही मैं अपने ऑफिस जाने के लिए निकला तो डिटेक्टिव आ धमका। उसे देख कर मैंने ऐसा महसूस किया जैसे अब जा कर मुझ में जान आई है। ख़ैर डिटेक्टिव को मैंने अंदर ड्राइंग रूम में बैठाया और उससे मुख्य विषय पर बात शुरू की। डिटेक्टिव का चेहरा मुझे बेहद गंभीर नज़र आ रहा था और ये बात मेरे लिए अच्छी नहीं थी। मैं जानना चाहता था कि आख़िर वो इतना गंभीर क्यों था और उसने मेरे कहने पर क्या जानकारी हासिल की थी?
"सब कुछ ठीक तो है न?" मैंने धड़कते दिल से उससे पूछा____"आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे हालात कुछ ठीक नहीं हैं।"
"सच कहा आपने।" उसने उसी गभीरता से कहा____"एक हप्ते पहले जब आपने मुझसे ये कहा था कि मैं अपना ख़याल रखूंगा क्योंकि इस काम में मेरी जान को ख़तरा भी हो सकता है तो मुझे उस वक़्त आपकी बातें बचकानी लगी थी। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे पेशे में ऐसा होना आम बात नहीं थी किन्तु मैं इस लिए बेफिक्र रहता था क्योंकि मुझे अपनी सुरक्षा करना भली भाँति आता है। पर आपका केस मेरे हर केस से कहीं ज़्यादा जुदा निकला। मैं इतना तो जानता था कि ऐसे काम आसान नहीं होते लेकिन इस बात का अंदाज़ा शायद मैंने ग़लत लगाया था कि ये केस मेरे पिछले केसेस जैसा ही होगा।"
"आख़िर बात क्या हुई है मिस्टेर कुलकर्णी?" मैंने ब्याकुलता से कहा____"प्लीज़ पहेलियाँ मत बुझाइए बल्कि मुझे साफ़ शब्दों में बताइए कि इस एक हप्ते में आपने क्या किया और किस तरह की जानकारी हासिल की? साथ ही ये भी बताइए कि आपके चेहरे पर मौजूद गंभीरता की वजह क्या है?"
"आपका केस लेने के बाद।" कुलकर्णी ने गहरी सांस लेने के बाद कहना शुरू किया____"जब मैं यहाँ से गया तो शुरू के दो तीन दिन तो मेरी समझ में ठीक ठाक ही गुज़रे किन्तु फिर मुझे एहसास हुआ कि मेरा पीछा किया जा रहा है। मैंने ऐसा महसूस किया जैसे चारो तरफ से कुछ अज्ञात लोग मुझ पर नज़र रखे हुए हैं। इस बात का एहसास होते ही मैंने उन्हें चकमा देने की कोशिश की। एक दो बार मैं उन्हें चकमा देने में कामयाब हो भी गया लेकिन फिर मुझे समझते देर न लगी कि मेरे लिए उनकी पैनी निगाहों से ज़्यादा देर तक बच के रहना मुमकिन नहीं है। मैं ये भी समझ गया था कि जो लोग मेरे पीछे लगे हैं वो निहायत ही ख़तरनाक लोग हैं। शायद वो पहले ही समझ गए थे कि मैं किसी ऐसे चक्कर में हूं जो सरासर उनसे सम्बन्ध रखता है। मैं क्योंकि आपका केस ले चुका था और मेरा उसूल है कि किसी का केस लेने के बाद मैं उस केस को तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे अंजाम तक नहीं पहुंचा देता। इस लिए मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस मामले में मैं अपना काम पूरा कर सकूं लेकिन पुरज़ोर कोशिश करने के बाद भी मैं सफल नहीं हो पाया। आज आलम ये है कि मैं खुद अपनी ही जान बचा कर किसी तरह आपके पास आ पहुंचा हूं और साथ ही ये भी कह रहा हूं कि मुझे आपका केस छोड़ना पड़ेगा। मेरे जीवन में ऐसा पहली बार हुआ है कि मैंने अपनी जान की परवाह करते हुए कोई केस छोड़ा है।"
डिटेक्टिव कुलकर्णी की बातें सुनने के बाद मैं एकदम से कुछ बोल नहीं पाया था। उसके द्वारा कहे गए एक एक शब्द मेरे कानों में गूँज रहे थे और मुझे सोचो के किसी गहरे समुद्र में डुबाते जा रहे थे। ऐसा नहीं था कि मुझे इस मामले में मौजूद भयानक ख़तरे का एहसास नहीं था बल्कि वो तो बखूबी था किन्तु मैं ये सोच कर चुप रह गया था कि जब एक सुलझा हुआ डिटेक्टिव इस काम में नाकाम हो कर लौटा है तो मैं भला कैसे इस मामले की तह तक जा सकता था? मेरे ज़हन में उस दिन का वो दृश्य उजागर हो गया जब मैं अपने पापा का पीछा कर रहा था और अचानक से उस मोड़ पर एक बड़ा सा पत्थर लुढ़कता हुआ मेरी मोटर साइकिल के आगे आ गया था। साफ़ ज़ाहिर था कि उस पत्थर के द्वारा मुझे रोक कर ये समझाने की कोशिश की गई थी कि जिस मकसद से मैं उस रास्ते पर आगे बढ़ रहा था वो मेरे लिए ख़तरनाक है। इससे ये भी ज़ाहिर हो गया था कि उस दिन मैं भले ही ये समझ रहा था कि मेरे पापा को अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी आभास नहीं था किन्तु मैं ग़लत था क्योंकि असल में मैं किसी न किसी की नज़रों में ही था उस वक़्त। अब सवाल ये था कि ऐसा क्यों? आख़िर कोई ऐसा क्यों चाह सकता था कि मैं अपने पिता का पीछा करते हुए उस रास्ते में आगे न जाऊं? क्या सच में मेरे पिता कोई ऐसी शख्सियत वाले थे जिनकी असलियत का मैं तसव्वुर भी नहीं कर सकता था?
"मिस्टर विक्रम।" डिटेक्टिव कुलकर्णी की आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया तो मैंने उसकी तरफ देखा। जबकि उसने आगे कहा_____"मुझे बेहद खेद है कि मैं आपका केस लेने के बाद भी इस केस को छोड़ रहा हूं। जीवन में पहली बार मैं ख़तरे को देख कर ये सोच बैठा हूं कि जान है तो जहान है। अगर कोई मामूली ख़तरा होता तो मैं उसे सम्हाल लेता लेकिन ये ख़तरा मामूली नहीं है, बल्कि ये ऐसा है कि इस ख़तरे का मैं किसी भी तरह से सामना नहीं कर सकता।"
"कोई बात नहीं मिस्टर कुलकर्णी।" मैंने गहरी सांस ली____"मैं समझ सकता हूं कि जान से बढ़ कर कुछ नहीं होता। मैं बस ये जानना चाहता हूं कि क्या आप इस मामले में किसी भी तरह की जानकारी हासिल नहीं कर पाए?"
"ऐसा नहीं है मिस्टेर विक्रम।" कुलकर्णी ने कहा____"शुरुआत में मैंने जो कुछ पता किया उससे मैं यही कहूंगा कि आपका शक सही था। यानि आपके पिता और उनके सभी दोस्त जैसा नज़र आते हैं वैसे हैं नहीं। आपके साथ जिस रोड पर हादसा हुआ था उस रोड पर जा कर भी मैंने पता किया। वो रास्ता मुख्य सड़क से हट कर जिस तरफ को जाता है वहां कुछ दूरी पर मैंने दो तीन इमारतें बनी हुई देखी हैं। उसके बाद कुछ छोटे बड़े फार्म हाउस भी दिखे। हालांकि रास्ता उसके आगे भी जाता है लेकिन आगे क़रीब दस किलो मीटर तक सड़क के दोनों तरफ बंज़र ज़मीन के अलावा कुछ नज़र नहीं आया। उसके बाद एक छोटा सा गांव पड़ता है और वहीं से होते हुए वो रास्ता आगे एक मुख्य सड़क से मिल जाता है। जहां पर आपके साथ हादसा हुआ था उसके आगे जो दो तीन इमारतें थीं उनके बारे में पता करने की मैंने कोशिश की लेकिन वहां मौजूद गॉर्डस ने ये कह कर मुझे भगा दिया कि यहाँ बाहरी लोगों का आना एलाऊ नहीं है। मेरे लिए ये अजीब बात थी क्योंकि किसी जगह या इमारत के बारे में पूछना कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके बारे में बताया न जा सके। यही हाल बाकी दोनों जगहों का भी था। मैंने सोचा कि शाम के समय जा कर वहाँ के बारे में अपने तरीके से पता करुंगा लेकिन उससे पहले ही मुझे मेरा पीछा किए जाने का एहसास हो गया। उसके बाद तो बस खुद को बचाते रहने का जैसे सिलसिला ही चल पड़ा।"
कुलकर्णी जिन इमारतों की बात कर रहा था उनमें से एक को मैं जानता था। उन इमारतों में से एक में सी. एम. एस. का मुख्यालय था जबकि दो इमारतें मेरे लिए भी अंजान थीं। हालांकि सी. एम. एस. के मुख्यालय में जाने के बाद भी कोई ये नहीं कह सकता था कि वहां पर इस नाम की कोई संस्था मौजूद हो सकती है क्योंकि मुख्यालय इमारत में तो था लेकिन ज़मीन के नीचे। इमारत के एक भाग में फैक्ट्री थी और मुख्य भाग को रेजिडेंस के लिए बनाया गया था जहां पर फैक्ट्री के मालिक की रिहाइश थी। इमारत का मालिक कौन था इस बारे में मुझे भी पता नहीं था और ना ही मैंने कभी देखा था उसे। हालांकि मैंने तो दूसरे भाग में मौजूद उस फैक्ट्री को भी नहीं देखा था जहां पर लाइट फिटिंग करने वाली पट्टियां बनतीं थी। सड़क के दूसरी तरफ दो और इमारतें थीं लेकिन वो किसकी थीं और वहां क्या था इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
"ख़ैर और क्या पता किया आपने?" मैंने फिर से गहरी सांस ले कर कुलकर्णी से पूछा।
"शुरु के दो तीन दिन मैंने यही देखा था कि आपके पिता जी के अलावा।" कुलकर्णी ने कहा____"उस रास्ते पर उनके सभी दोस्त भी जाते हैं। मेरी शुरू में की गई तहक़ीकात के अनुसार आपके पिता और उनके सभी दोस्त अपने अपने घरों से निकल कर पहले अपने ब्यवसायिक ऑफिस में जाते हैं। वहां से क़रीब एक या डेढ़ घंटे बाद वो निकलते हैं, उसके बाद आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में वो सब उसी रास्ते की तरफ जाते हैं। हालांकि उस रास्ते पर उनकी मंज़िल कहां होती है ये मैं पता नहीं कर पाया लेकिन मेरा अनुमान है कि वो सब उन तीन इमारतों में से ही किसी पर जाते होंगे, या ये भी हो सकता है कि उसी रास्ते से हो कर वो आगे मुख्य सड़क पर पहुंचते हों। जहां से वो कहीं दूसरी जगह जाते होंगे। मैं ऐसा इस लिए कह रहा हूं क्योंकि वो रास्ता दूसरे शहर जाने के लिए शार्ट रास्ते का भी काम करता है, जबकि इधर के मुख्य सड़क से वहां तक पहुंचने में क़रीब सात किलो मीटर का अंतर पड़ता है।"
"और कुछ?" मैंने बड़ी उम्मीद के साथ पूछा।
"एक दिन मैंने आपके दोस्त रंजन को भी उस रास्ते पर जाते देखा था।" कुलकर्णी ने ये कहा तो मैं बुरी तरह चौंका, फिर खुद को सम्हाल कर बोला____"इस बात का क्या मतलब हुआ?"
"मतलब तो मुझे भी शुरू में समझ नहीं आया था।" कुलकर्णी ने कहा____"लेकिन अपने अंदर पैदा हुए शक को दूर करने के लिए जब मैंने आपके दोस्त के बारे में पता किया तो एक बात मेरी समझ में नहीं आई।"
"कैसी बात??" मैं उससे पूंछ तो बैठा था लेकिन जाने क्यों मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था।
"आपने बताया था कि आपके सभी दोस्त अब अपने अपने पिता के कारोबार में लग गए हैं।" कुलकर्णी ने एक सिगरेट जलाने के बाद कहा____"इस बात को ध्यान में रख कर जब मैंने तहक़ीकात की तो पता चला कि रंजन के पिता यानि संजय भाटिया का ऑफिस तो उस तरफ है ही नहीं जिसके लिए रंजन को उस रास्ते की तरफ जाना पड़े। सोचने वाली बात है कि अगर रंजन अपने पिता के कारोबार में उनके साथ ही लगा हुआ है तो वो उस रास्ते की तरफ क्यों जाएगा जिस रास्ते में उसके पिता का ऑफिस है ही नहीं? बल्कि ऑफिस तो शहर के दूसरे रास्ते की तरफ है। उस वक़्त मुझे ये बात समझ नहीं आई थी किन्तु जब मैंने ये देखा कि आपके पिता और उनके सभी दोस्त आगे पीछे कुछ समय के अंतराल में उसी ख़ास रास्ते की तरफ जाते हैं तो मुझे ये समझते देर न लगी कि रंजन भी अपने पिता की तरह मामूली शख्सियत वाला इंसान नहीं है।"
कुलकर्णी जाने क्या क्या कहे जा रहा था और यहाँ मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा चल पड़ा था। मनो मस्तिष्क में विस्फोट से होने लगे थे। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभर आया था कि इसका मतलब रंजन भी मेरी तरह सी. एम. एस. नाम की संस्था का एजेंट है। हालांकि मुझे अभी भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन कुलकर्णी की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था। अगर ये सच था तो यकीनन मेरे लिए ये हैरान कर देने वाली बात थी। मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि रंजन ने कब और कैसे चूत मार सर्विस जैसी संस्था को ज्वाइन किया होगा?
डिटेक्टिव कुलकर्णी बस इतना ही जान पाया था। उसके बाद वो ये कह कर चला गया कि अब वो गधे के सिर के सींग की तरह इस शहर से ग़ायब हो जाएगा क्योंकि एक भयानक ख़तरे ने उसे चारो तरफ से घेर रखा है। कुलकर्णी के जाने के बाद मैं काफी देर तक इस सबके बारे में सोचता रह गया था। ख़ास कर रंजन के बारे में। मैं चाह कर भी रंजन से इस बारे में पूछतांछ नहीं कर सकता था, क्योंकि अगर सच में रंजन चूत मार सर्विस का एजेंट होगा तो संस्था के नियम के अनुसार मैं ना तो उसके बारे में जानने का सोच सकता था और ना ही उसके सामने ये ज़ाहिर कर सकता था कि मुझे असलियत पता है। मैंने महसूस किया कि अचानक से ही परिस्थितियां कितनी अजीब और तनावपूर्ण हो गईं थी।
ज़हन से सारी बातें निकाल कर मैं ऑफिस तो चला आया था लेकिन सारा दिन मैं इन्हीं सब बातों के बारे में सोचता रहा था। शाम को बाहर से ही डिनर कर के घर आया और अपने कमरे में बेड पर लेट गया। मैं सोचने लगा कि इसके पहले मेरी ज़िन्दगी कितनी बेहतर चल रही थी। यानि चूत मार सर्विस से जुड़ने के बाद मेरी सबसे बड़ी चाहत पूरी हुई थी और मैं तरह तरह की औरतों के साथ सेक्स का मज़ा लेता था किन्तु जबसे मुझे अपने पिता और उनके दोस्तों के रहस्यमयी होने का पता चला है तब से मैं निहायत ही चिंतित और परेशान सा रहने लगा हूं। मैं चाह कर भी अपने ज़हन से उनके ख़याल निकाल नहीं पा रहा था। मेरे अंदर सच जानने की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
डिटेक्टिव कुलकर्णी को इस मामले का पता करने के लिए लगाया तो मामला और भी ज़्यादा गंभीर नज़र आने लगा था। मुझे अब समझ में नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह से अपने पिता और उनके दोस्तों का सच पता करूं? सहसा मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या इस बारे में मुझे अपने पिता से पूछना चाहिए लेकिन सवाल था कि मैं उनसे आख़िर क्या पूछूंगा? कहने का मतलब ये कि मेरे पास कोई ऐसा आधार होना चाहिए जिसके बल पर मैं उनसे सवाल कर सकूं। मैं सोचने लगा कि उनसे कुछ पूछने के लिए किस चीज़ को आधार बनाना चाहिए मुझे? अभी मैंने ये सोचा ही था कि अचानक से मेरे ज़हन में मेरे मम्मी पापा के कमरे में मौजूद उस ख़ुफ़िया तहख़ाने का ख़याल आया। मैंने सोचा कि उस तहख़ाने को ही आधार बना कर मैं उनसे सवाल जवाब कर सकता हूं। मैंने इस बारे में काफी सोचा और आख़िर में मैंने यही फैसला किया कि मैं उस तहख़ाने के आधार पर ही उनसे सवाल जवाब करुंगा।
अपने घर से आए मुझे अभी आठ दिन ही हुए थे इस लिए मैं बिना वजह वापस घर नहीं जा सकता था। ऐसे में घर जा कर अगर मैं पापा से उनके कमरे में मौजूद उस तहख़ाने के सम्बन्ध में कुछ पूछूंगा तो संभव है कि उन्हें शक हो जाए। यानि वो ये सोच सकते हैं कि मैं सिर्फ तहख़ाने के बारे में जानने के लिए ही घर आया हूं। मैंने सोचा कि उनसे उस तहख़ाने के बारे में पूछने से पहले अलग से कोई भूमिका बनानी पड़ेगी, ना कि डायरेक्ट उनसे तहख़ाने के बारे में पूछा जाए।
रात पता नहीं कब मेरी आँख लग गई। सुबह उठा और फ्रेश होने के बाद मैं ड्राइंग रूम में आ कर सोफे पर बैठ गया। घर में काम करने के लिए करुणा नाम की एक औरत आती थी। सुबह का चाय नास्ता वही बनाती थी। सोफे पर बैठ कर मैंने टीवी चालू किया। तभी करुणा चाय और नास्ता ले कर आ गई। उसने नास्ता और चाय सेण्टर टेबल पर रखा और चली गई। मैंने प्लेट में रखे गोभी के पराठे की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि टीवी में चल रही न्यूज़ को देख कर मेरा हाथ जहां का तहां ठिठक गया। टीवी स्क्रीन पर मेरी निगाहें जमी की जमी रह गईं थी और मेरे दिल की धड़कनें मुझे रुक गईं सी प्रतीत हुईं।
टीवी पर न्यूज़ एंकर ख़बर सुना रही थी और स्क्रीन में उसके बगल से एक फोटो दिख रही थी। वो फोटो किसी और का नहीं बल्कि डिटेक्टिव कुलकर्णी का था। न्यूज़ एंकर बता रही थी कि पिछली रात पुलिस को मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी की लाश शहर से बाहर जाने वाले रास्ते पर सड़क के किनारे पड़ी हुई मिली। लाश को देख कर साफ़ पता चलता है कि मनीष कुलकर्णी नाम के इस आदमी का मर्डर किया गया है। मृतक के सीने में दो गोलियां मारी गईं थी जिसके चलते उसकी मौत हो गई।
डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी के मर्डर की ख़बर टीवी में देख कर मेरे होश उड़ चुके थे। मैं ये तो समझता था कि मैंने जिस मामले को उसे सौंपा था उसमें उसकी जान तक जाने का ख़तरा था और ये बात आख़िर में कुलकर्णी भी जान चुका था किन्तु ना तो मुझे उसकी इस तरह जान चले जाने का यकीन था और ना ही शायद कुलकर्णी को रहा होगा। मेरी आँखों के सामने कुलकर्णी का चेहरा बार बार उजागर होने लगा था। अभी कल की ही तो बात थी। वो मेरे सामने इसी ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठा था। मनीष कुलकर्णी की इस तरह से हुई मौत ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया था। अगर मैं ये कहूं तो ज़रा भी ग़लत न होगा कि उसकी मौत का जिम्मेदार मैं खुद था। अगर मैं उसे अपने पापा और उनके दोस्तों के बारे में पता करने को नहीं कहता तो आज मनीष कुलकर्णी ज़िंदा होता। मेरा दिलो दिमाग़ एकदम से इस अपराध बोझ से भर गया। पलक झपकते ही मैं आत्मग्लानि में डूब गया। मेरा ज़मीर चीख चीख कर मुझे धिक्कारने लगा था। मेरी आँखों के सामने हर एक मंज़र बड़ी तेज़ी से घूमने लगा। ऐसा लगा जैसे मैं बेहोश हो जाऊंगा। मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और रिमोट उठा कर टीवी बंद कर दिया।
इस मामले में मुझे ख़तरे का आभास तो था लेकिन ऐसी कल्पना मैंने हरगिज़ नहीं की थी कि कुलकर्णी के सिर पर मंडराने वाला ख़तरा इस तरह से भयानक रूप ले कर इतना जल्दी उसकी जान ले लेगा। कुलकर्णी की अकस्मात हुई मौत ने जहां मुझे हिला कर रख दिया था वहीं मैं ये सोचने पर भी मजबूर हो गया था कि क्या उसके मर्डर में मेरे पापा या उनके दोस्तों का हाथ हो सकता है? यकीनन हो सकता है क्योंकि कुलकर्णी उन्हीं सब के बारे में तो पता कर रहा था।
न नास्ते करने का दिल किया और ना ही चाय पीने का। भारी मन से मैं उठा और अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से ऑफिस के लिए निकल गया। ऑफिस तो पहुंच गया लेकिन किसी भी चीज़ में मेरा मन नहीं लगा। बार बार आँखों के सामने टीवी स्क्रीन पर दिख रहे मनीष कुलकर्णी का फोटो उभर आता और कानों में न्यूज़ पढ़ने वाली उस संवाददाता की बातें गूजने लगतीं। बड़ी ही मुश्किल से दिन गुज़रा और मैं ऑफिस से घर आ गया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस मामले में मुझे क्या करना चाहिए?
मैं अच्छी तरह जानता था कि कुलकर्णी की पहुंच ज़रूर पुलिस विभाग या उससे ऊपर तक भी हो सकती थी। ऐसे में पुलिस उसके मर्डर वाले मामले में चुप नहीं बैठेगी। यानि वो मनीष कुलकर्णी के मर्डर की बारीकी से जांच करेगी। ऐसे में अगर मैं उसके इस मामले में कुछ करुंगा तो ज़ाहिर है कि पुलिस का रुख़ मेरी तरफ भी होगा और उसके बाद पुलिस बाल की खाल निकालना शुरू कर देगी जो कि ज़ाहिर है कि मेरे लिए अच्छी बात नहीं होगी। मेरे माता पिता भी मुझे ऐसे मामले में फंसा हुआ नहीं देखना चाहेंगे। यही सोच कर मैंने कुलकर्णी के इस मामले में कुछ भी करने का अपना इरादा मुल्तवी कर दिया।
डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?
डिटेक्टिव कुलकर्णी के मर्डर का जिम्मेदार मैं था इस लिए अब मुझे हर कीमत पर ये जानना था कि उसका मर्डर किसने किया था और क्यों किया था? अगर कुलकर्णी को जान से मारने वाले मेरे अपने ही थे तो अब मुझे पता करना था कि आख़िर किस वजह से मेरे अपनों ने उसकी जान ली? आख़िर ऐसा क्या हो गया था जिसकी वजह से कुलकर्णी को उनके द्वारा अपनी जान से हाथ धोना पड़ा?
अब आगे....
डिटेक्टिव मनीष कुलकर्णी का मर्डर हुए क़रीब एक हप्ता गुज़र गया था। इस एक हप्ते में मैंने शहर में थोड़ी बहुत पुलिस की गहमा गहमी देखी थी और न्यूज़ चैनल पर भी उसके बारे में ख़बरें आती देखीं थी लेकिन जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे कुलकर्णी के मर्डर का मामला फीका पड़ता जा रहा था। मैं समझ गया कि या तो पुलिस उसके मर्डर पर कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है या फिर शायद ऐसा था कि कुलकर्णी के मर्डर वाले मामले को जान बूझ कर दबाया जा रहा था। मैं अच्छी तरह जानता था कि पुलिस अगर चाह लेती तो वो कुलकर्णी के खूनी को देर सवेर पकड़ सकती थी लेकिन मैं समझ गया था कि पुलिस पर दबाव बना दिया गया था।
मैं पिछले एक हप्ते से यही देखने और समझने की कोशिश कर रहा था कि पुलिस का इस मामले में कैसा बेहैवियर है। अब मैं समझ चुका था कि कुलकर्णी का हत्यारा अब कभी सामने नहीं आने वाला था लेकिन मेरी नज़र में ये सही नहीं था। कुलकर्णी की मौत मेरी वजह से हुई थी और जब तक मैं उसके हत्यारे का पता नहीं लगा लेता तब तक मुझे ना तो चैन मिलने वाला था और ना ही मैं अपराधबोझ से दूर हो सकता था।
मैं इतना तो अब पक्के तौर पर समझ चुका था कि कुलकर्णी की मौत में मेरे ही अपनों का हाथ था लेकिन असल में उसका क़ातिल कौन था ये जानना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था। अभी तक मैं ये सोच कर चुप बैठा था कि सारा मामला मेरे पेरेंट्स से सम्बन्ध रखता था और मैं इस बारे में जानने के लिए कहीं न कहीं झिझक महसूस करता था लेकिन अब मामला हद से बाहर हो चुका था।
रात में बेड पर लेटा मैं कुलकर्णी के ही बारे में सोच रहा था। मैंने फ़ैसला किया कि अब जो होगा देखा जाएगा किन्तु अब मैं हर कीमत पर सच का पता लगा के ही रहूंगा। सुबह मैं उठा और फ्रेश होने के बाद कपड़े पहने। उसके बाद अपना एक छोटा सा ब्रीफ़केस ले कर घर से निकल लिया। सड़क पर आ कर मैंने एक टैक्सी रूकवाई और उससे रेलवे स्टेशन चलने को कहा।
क़रीब चार घंटे के सफर के बाद मैं अपने शहर पहुंच गया। मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा था कि मेरे यहाँ आने तक किसी ने मेरा पीछा तो नहीं किया था। मैं नहीं चाहता था कि मेरे यहाँ आने का उन लोगों को पता चल जाए। ऐसे में वो सतर्क हो सकते थे।
मार्केट में जा कर मैंने कुछ ख़ास चीज़ें ख़रीदीं और उन्हें ले कर होटल पहुंच गया। मैंने यहाँ पर रुकने के लिए होटल में एक कमरा बुक करवा लिया था। होटल में पहुंच कर मैं पहले फ्रेश हुआ। मेरे पास अभी काफी वक़्त था इस लिए मैंने आराम करने का सोचा और बेड पर लेट गया।
शाम को मेरी आँख खुली तो मैं फ्रेश हो कर तैयार हुआ। छोटे से बैग में मैंने खरीदी हुई वो ख़ास चीज़ें भी रख लीं। उसके बाद मैं कमरे से निकल कर सीधा होटल के बाहर आ गया। मैंने एक कार किराए पर लेने के लिए एक जगह बात की थी इस लिए ऑटो में बैठ कर मैं उस जगह गया। किराए पर कार ले कर मैं उस कार मैं बैठ कर निकल पड़ा।
शाम का धुंधलका छा गया था। मैं कार से एक ऐसी जगह पहुंचा जहां आस पास कोई नहीं था और अँधेरे में किसी के देख लिए जाने का ख़तरा भी नहीं था। मैंने बैग से वो ख़ास चीज़ें निकाल कर कार की शीट पर रखी और अपना हुलिया चेंज करने लगा। क़रीब आधे घंटे बाद मैंने कार के अंदर की लाइट जला कर मिरर में खुद को देखा। मेरा हुलिया पूरी तरह बदल चुका था। अब इतना जल्दी मैं किसी की पहचान में नहीं आ सकता था। सब कुछ ठीक ठाक होने के बाद मैंने कार को स्टार्ट कर के आगे बढ़ा दिया। अब मैं अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ता चला जा रहा था।
क़रीब बीस मिनट बाद एक तीन मंजिला इमारत के क़रीब पहुंच कर मैंने कार रोकी। इमारत और मेरे बीच का फासला क़रीब बीस क़दम की दूरी पर था। हालांकि सड़क के दोनों तरफ इमारतें थी जो कि आपस में जुडी हुई ही थी, जैसा कि शहरों में दिखती हैं। दोनों तरफ की इमारतों के बीच काफी चौड़ी सड़क थी जिसके दोनों तरफ इक्का दुक्का वाहन खड़े हुए थे। मैंने अपने बाएं हाथ में बंधी घड़ी पर टाइम देखा। शाम के साढ़े आठ बज रहे थे। मैंने आहिस्ता से कार को एक वाहन के बगल से लगा कर खड़ी कर दिया।
कार में बैठे बैठे ही मैं बीस क़दम की दूरी पर दिख रही इमारत की तरफ देखने लगा। बताने की ज़रूरत नहीं कि मैंने कार के अंदर की लाइट बंद कर ली थी। कार के सभी शीशों पर काली पन्नी लगी हुई थी जिससे बाहर का कोई भी मुझे देख नहीं सकता था। ये कार मैंने इसी लिए किराए पर ली थी ताकि कोई अंदर का देख न सके।
क़रीब आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि बीस कदम की दूरी पर दिख रही इमारत का बड़ा सा गेट खुला और उस गेट से दो लोग बाहर निकले। एक मर्द था और दूसरी औरत। दोनों ऐसे सजे हुए थे जैसे किसी ख़ास जगह पर जाने के लिए तैयार हो कर निकले थे। दोनों के ही चेहरे चमक रहे थे और काफी खुश भी दिख रहे थे। मेरे देखते ही देखते वो दोनों सड़क पर आए और वहीं पास में ही किनारे पर खड़ी एक कार का दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर बैठ गए।
दोनो के बैठते ही कार स्टार्ट हुई। कार की हेड लाइट जल उठने से सड़क पर तेज़ रौशनी फ़ैल गई थी। मैं साँसें रोके उस कार को ही देख रहा था। कार आगे बढ़ी तो मैं भी उसके पीछे चलने के लिए तैयार हो गया। कार जब आगे जा कर एक मोड़ पर मुड़ गई तो मैंने भी अपनी कार स्टार्ट की और झट से उनके पीछे लग गया।
डिटेक्टिव कुलकर्णी के द्वारा मैं इतना तो समझ गया था कि अगर कोई उनका पीछा करता है तो शायद उन्हें फ़ौरन ही इसका पता चल जाता है। यही सोच कर मैंने अपना हुलिया बदला था और बदले हुए हुलिए के बावजूद मुझे इस बात का ख़ास ख़याल रखना था कि उन्हें मेरे द्वारा अपना पीछा किए जाने का ज़रा भी एहसास न हो। जहां से उनकी कार मुड़ी थी वहां पर "टी पॉइंट" था, यानी दो तरफ जाने के लिए रास्ता था। मैंने दूसरी तरफ को मुड़ने का सोच कर कार को उसी तरफ मोड़ दिया। ये दोनों ही रास्ते आगे जा कर मुख्य सड़क से मिल जाते थे। मुझे बस इतना ही करना था कि उनके मुख्य सड़क पर पहुंचने से पहले ही मुख्य सड़क पर पहुंच कर उनके पीछे पहुंच जाना था। मतलब कि उन्हें ऐसा लगे जैसे अन्य वाहन मुख्य सड़क पर उनके पीछे आ रहे हैं वैसे ही मैं भी उनका हिस्सा हूं।
मैं तेज़ी से मुख्य सड़क पर आ गया था। मुख्य सड़क पर आ कर जैसे ही मैं मुड़ा था तो कुछ ही पलों में उनकी कार भी आ कर मुड़ गई थी। ये मेरी किस्मत ही थी कि वो मेरे आगे जाने वाले रास्ते की तरफ मुड़ गए थे वरना अगर वो मेरी तरफ मुड़ते तो ज़ाहिर है कि मेरे लिए परेशानी हो जाती क्योंकि उनका पीछा करने के लिए मुझे भी वापस मुड़ना पड़ता। ख़ैर मैं उनकी कार पर नज़र जमाए उनके काफी पीछे फासला बना कर चलने लगा था।
काफी देर तक मैं उनके पीछे फासला बनाए चलता रहा। मैं जानता था कि जब तक मैं मुख्य सड़क पर हूं तब तक उन्हें अपना पीछा किए जाने का शक नहीं होगा क्योंकि मुख्य सड़क पर कई सारे वाहन आ जा रहे थे किन्तु मुख्य सड़क के बाद उन्हें शक हो सकता था। इधर मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि वो कार में किस तरफ जा रहे होंगे?
कुछ ही देर में जब वो मुख्य सड़क से हट कर बाएं तरफ मुड़े तो मैं समझ गया कि वो कहां जा रहे हैं इस लिए मैं उनके पीछे गया ही नहीं बल्कि सीधा ही चला गया। सीधा जाने का एक मतलब ये भी था कि अगर किसी को मेरे द्वारा उनका पीछा करने का शक भी हुआ हो तो मेरे सीधा चले जाने पर उनका वो शक दूर हो जाए और वो मेरी तरफ से बेफिक्र हो जाएं।
मुख्य सड़क पर चलते हुए मैं क़रीब एक किलोमीटर के आगे ही आ कर रुका। कार को मैंने सर्विस लेन पर एक जगह खड़ी कर दिया। कार से उतर कर मैंने उसे लॉक किया और मुख्य सड़क पर आ गया। मैंने एक ऑटो वाले को हाथ दे कर रुकवाया और उससे अपने गंतव्य पर चलने के लिए कहा। ऑटो में बैठ कर मैं उसी तरफ को चल पड़ा जिधर वो कार मुड़ कर गई थी।
क़रीब दस मिनट बाद मैंने एक जगह ऑटो वाले को रुकने को कहा और उसे उसका किराया दे कर चलता किया। रात के सवा नव बज चुके थे। मैं अंदर से थोड़ा घबराया हुआ तो था लेकिन मैंने भी सोच लिया था कि अब जो होगा देखा जाएगा।
कुछ दूर पैदल चलने के बाद मैं एक जगह अँधेरे में रुक गया। कुछ ही दूरी पर मुझे एक इमारत दिख रही थी। उस इमारत के अगल बगल भी इमारतें थीं किन्तु थोड़ा हट कर। मैं अँधेरे का फायदा उठा कर आगे बढ़ चला। एकदम से मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था। ख़ैर जल्दी ही मैं इमारत के पिछले हिस्से की तरफ पहुंच गया। मैंने गौर से इधर उधर देखा और दिवार के किनारे किनारे चलते हुए मैं इमारत के साइड व्यू पर आ गया।
मैंने आस पास दिख रही इमारतों की तरफ बड़ी ही बारीकी से देखते हुए मुआयना किया। इमारतों के अंदर लाइट जल रही थी किन्तु मुझे ऐसा बिलकुल भी प्रतीत नहीं हुआ कि मैं जो करने वाला हूं उसे देखने वाला वहां कोई मौजूद था। सड़क पर भी इक्का दुक्का वाहन ही आते जाते दिख जाते थे जोकि कुछ समय के अंतराल में ही आते जाते थे। मैं जब अच्छी तरह मुतमईन हो गया तो मैंने पीठ पर टंगे अपने बैग को निकाला और उसमें से एक रस्सी निकाली। रस्सी को खोल कर मैंने ऊपर दिख रही बालकनी की तरफ देखा। बालकनी लोहे की थी। मैंने रस्सी के एक सिरे को पकड़ कर बड़ी सावधानी से ऊपर की तरफ उछाल दिया। रस्सी का सिरा ऊपर तेज़ी से गया और लोहे के स्टैंड पर जो ऊपर थोड़ा सा कुंडा उठा हुआ था उसमें फंस गया। रस्सी के दूसरे छोर पर मैंने तीन चार मोटी मोटी गाँठ बाँध दी थी जो उस कुंडे में फंस गई थी। मैंने इधर से ज़ोर लगा कर खींचा तो वो टस से मस न हुआ।
एक बार फिर से मैंने आस पास गौर से देखा और फिर आस्वस्त होने के बाद रस्सी को पकड़ कर ऊपर की तरफ चढ़ना शुरू कर दिया। मैं जानता था कि ये बहुत ही ख़तरनाक काम था किन्तु मैं ये भी जानता था कि अब बिना कोई ख़तरा उठाए कोई काम नहीं होने वाला था। ट्रेनिंग में ये सब मैं कर चुका था इस लिए मुझे रस्सी के सहारे ऊपर बालकनी में पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जल्दी ही मैं बालकनी में आ गया।
धाड़ धाड़ बजते अपने दिल की धड़कनों को मैंने काबू किया और फिर बालकनी की लम्बी राहदारी में आगे बढ़ चला। जल्दी ही मैं एक खिड़की के पास पहुंच गया। खिड़की में अंदर से पर्दा लगा हुआ था इस लिए अंदर का कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था किन्तु खिड़की पर लगा पर्दा चमक रहा था जिससे ज़ाहिर था कि अंदर कमरे में लाइट जल रही है। खिड़की लकड़ी की ही थी और उसके दोनों पल्लों में कांच का शीशा लगा हुआ था। पर्दा क्योंकि अंदर से लगा हुआ था इस लिए अगर मैं खिड़की के एक पल्ले को आहिस्ता से सरकाता भी तो अंदर कमरे में मौजूद किसी को पता नहीं चल सकता था। मैंने एक हाथ से खिड़की के उस पल्ले को बहुत ही आहिस्ता से बाएं तरफ को सरकाया जिससे क़रीब चार अंगुल की जगह बन गई। मेरे लिए इतना काफी था। मैंने एक बार पीछे पलट कर देखा। वातावरण में एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। हालांकि अगर कोई ध्यान से देखता तो पता चल जाता कि इमारत के पहले फ्लोर की खिड़की के पास कोई खड़ा है। मेरे पास छुपने का कोई जुगाड़ नहीं था किन्तु मजबूरी थी इस लिए जान हथेली पर रख कर मैं उस खिड़की के पास ही खड़ा था और खिड़की में बाशनी उस थोड़ी सी जगह में अपने कान लगा दिए थे मैंने।
"अवधेश और माधुरी नहीं आए क्या?" मेरे कान में खिड़की के अंदर से आवाज़ आई। आवाज़ तरुण के पापा सीराज पटेल की थी। मैं उन्हीं का पीछा करते हुए यहाँ तक आया था_____"ये दोनों कभी भी समय पर नहीं पहुंचते।"
"आते ही होंगे।" शेखर के पापा जीवन अंकल की आवाज़____"शायद रास्ते में होंगे। तुम दोनों तब तक व्हिस्की का आनंद लो।" "मूड तो बनाना ही पड़ेगा जीवन।" सीराज अंकल ने कहा____"वरना गरिमा भाभी से आँख कैसे मिला पाऊंगा?"
"ओहो! तो मुझसे आँख मिलाने के लिए आपको इस व्हिस्की का सहारा लेना पड़ेगा?" शेखर की मम्मी गरिमा आंटी की खनकती हुई आवाज़ आई_____"क्या यही मर्दानगी है?"
"मर्दानगी दिखाने का आपने मौका ही कब दिया भाभी?" सीराज अंकल की ऐसी आवाज़ आई जैसे उन्हें बड़ा अफ़सोस था____"वरना आपको भी पता चल जाता कि जीवन से किसी भी मामले में कम नहीं हूं मैं।"
"यही बात तो मैं भी जाने कब से सौम्या भाभी से कहता आ रहा हूं सीराज।" जीवन अंकल की आवाज़ आई। सौम्या, सीराज अंकल की वाइफ और तरुण की मम्मी का नाम था_____"लेकिन ये कभी मौका ही नहीं देती हैं।"
"हमारी बीवियों को तो बस एक ही सनक सवार है भाइयो।" संजय अंकल की आवाज़ आई_____"और वो ये कि जब तक ये सभी अपने अपने बेटों से सम्भोग का सुख नहीं ले लेतीं तब तक ये हमारी इच्छाएं पूर्ण नहीं करेंगी।"
"ये तो सरासर हम पर ज़ुल्म है कीर्ति भाभी।" सीराज अंकल ने संजय अंकल की वाइफ और रंजन की मम्मी का नाम लेते हुए कहा____"भला ये कैसी ज़िद पाल रखी है आप औरतों ने? अरे! भाई हमारा भी कुछ ख़याल रखिए।"
"पहले आप लोग हमारी इच्छा की पूर्ती कीजिए।" कीर्ति आंटी की आवाज़ आई____"उसके बाद हम सब आपकी इच्छाओं की भी पूर्ती कर देंगे।" "सही कहा कीर्ति तुमने।" गरिमा आंटी ने कहा____"ये लोग जब तक हमारी इच्छाएं पूरी नहीं करेंगे तब तक इनकी इच्छा भी नहीं पूरी होगी। अब इसे ये लोग हमारी ज़िद कहें या अपने अपने बेटों के प्रति हमारा पागलपन से भरा हुआ प्यार।"
"आप लोगों की इच्छा पूरी करने के काम में ही लगे हुए थे हम लोग।" सीराज अंकल की आवाज़ आई____"लेकिन अवधेश के लाडले विक्रम की वजह से हम फिलहाल एक अलग ही चक्कर में पड़ गए हैं। पता नहीं उसके अंदर कौन सी सनक सवार हो गई है कि उसे अपनी जान का भी कोई मोह नहीं रह गया है।"
"अवधेश भाई साहब की जिस दिन मैरिज एनिवर्सरी थी।" कीर्ति आंटी की आवाज़____"उस रात उसने पता नहीं ऐसा क्या सुन लिया था जिसकी वजह से उसके मन में हम सबके बारे में शक पैदा हो गया था। हालांकि हमने तो खुल कर कोई बात भी नहीं की थी। आज हालात यहाँ तक पहुंच गए हैं कि उसने हमारे बारे में पता करने के लिए मनीष कुलकर्णी नाम के किसी डिटेक्टिव को भी लगा दिया था।"
"बिल्कुल सही कहा आपने भाभी।" जीवन अंकल की आवाज़____"वो तो अच्छा हुआ की समय रहते हमें इस बात का पता चल गया और हमने उस कुलकर्णी नाम के डिटेक्टिव को धर लिया और उसका क्रिया कर्म करवा दिया वरना वो हमारी तह तक पहुंच जाता जोकि हमारे लिए ज़रा भी अच्छी बात नहीं होती।"
"कुलकर्णी तो स्वर्ग सिधार गया।" संजय अंकल की गंभीर आवाज़ आई____"लेकिन इससे प्रॉब्लम साल्व नहीं हुई है बल्कि और भी बढ़ गई है। विक्रम कोई छोटा सा बच्चा नहीं है जो इतना कुछ हो जाने के बाद डर जाएगा और अपने ज़हन से हमारे बारे में जानने का ख़याल निकाल कर चुप बैठ जाएगा। कुलकर्णी की मौत से यकीनन उसे बेहद झटका लगा होगा और कहीं न कहीं वो कुलकर्णी की मौत का जिम्मेदार खुद को ही मानने लगा होगा। ऐसे में अब वो हर कीमत पर यही चाहेगा कि वो कुलकर्णी की मौत की वजह का पता लगाए और साथ ही ये भी कि हमारी वास्तविकता क्या है। मैंने अपने आदमियों को उस पर कड़ी नज़र रखने के लिए लगा दिया है। अब देखना ये है कि वो इस मामले में क्या करता है?"
"मेरे हिसाब से तो अब उस पर नज़र रखने की ज़रूरत ही नहीं है।" सीराज अंकल की आवाज़ आई____"मैंने पहले भी यही कहा था कि ऐसे हर उस ब्यक्ति का जीवित रहना ठीक नहीं है जिसके मन में हमारे प्रति किसी तरह का शक पैदा हो चुका हो। हमारे द्वारा बनाए गए नियम कानून भी हैं यही कि अगर कोई हमारे बारे में पता करने का सोचे भी तो उसे इस दुनियां से ही उठा दिया जाए।"
"मैं सीराज की बात से सहमत हूं।" जीवन अंकल की आवाज़ आई____"जब हम ही कानून का पालन नहीं करेंगे तो दूसरा कोई कैसे करेगा? हमें किसी के साथ पक्षपात करने का कोई हक़ नहीं होना चाहिए।"
"अगर ऐसा मामला तुम्हारे अपने बेटे शेखर का होता।" संजय अंकल की आवाज़ आई____"क्या तब भी तुम इतनी आसानी से ऐसा कह सकते थे? मैं मानता हूं कि किसी के भी साथ पक्षपात करना जायज़ नहीं है लेकिन आखिरी निर्णय लेने का हक़ हमारा नहीं है। आज हम इसी बात के लिए यहाँ इकठ्ठा हुए हैं ताकि अवधेश से इस सम्बन्ध में बात की जाए और उसको हालात की गंभीरता से अवगत कराएं। मुझे यकीन है कि मौजूदा हालात में वो यही निर्णय लेगा जो क़ानूनी होगा और हमारे लिए हितकर होगा।"
संजय अंकल की इस बात के बाद अंदर कमरे में सन्नाटा छा गया था। इधर खिड़की के पास खड़ा मैं एक अलग ही दुनिया में पहुंच गया था। अंदर उन लोगों ने जो भी बातें की थी उसने मेरे शक को यकीन में बदल दिया था। सबसे ज़्यादा मैं ये सोच कर आश्चर्य चकित था कि हम सभी दोस्तों की मम्मियां अपने अपने बेटों के प्रति किस तरह की हसरत पाले हुए थीं। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि ये बात सच भी हो सकती है।
अभी मैं ये सोच ही रहा था कि फ़िज़ा में किसी वाहन के आने की आवाज़ सुन कर मैं चौंक गया। पलट कर पीछे देखा तो लोहे वाले गेट के बाहर सड़क पर एक कार रुकी हुई नज़र आई मुझे। मैं समझ गया कि वो मेरे पेरेंट्स हैं। मैं फ़ौरन ही अपनी जगह पर उकडू बैठ गया जिससे कि उस तरफ से मैं उन्हें दिखाई न दे सकूं। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें बड़ी तेज़ी से चल रहीं थी। मेरे ज़हन में तरह तरह की आशंकाएं उभरती जा रहीं थी। अंदर जो भी बातें हुई थी उन्हें सुनने के बाद मैं समझ गया था कि वो लोग मेरे पेरेंट्स के आने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं भी जानना चाहता था कि इस परिस्थिति में मेरे पापा उनसे क्या बातें करते हैं और मेरे बारे में क्या फैसला सुनाते हैं?
अभी मैं ये सोच ही रहा था कि फ़िज़ा में किसी वाहन के आने की आवाज़ सुन कर मैं चौंक गया। पलट कर पीछे देखा तो लोहे वाले गेट के बाहर सड़क पर एक कार रुकी हुई नज़र आई मुझे। मैं समझ गया कि वो मेरे पेरेंट्स हैं। मैं फ़ौरन ही अपनी जगह पर उकडू बैठ गया जिससे कि उस तरफ से मैं उन्हें दिखाई न दे सकूं। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें बड़ी तेज़ी से चल रहीं थी। मेरे ज़हन में तरह तरह की आशंकाएं उभरती जा रहीं थी। अंदर जो भी बातें हुई थी उन्हें सुनने के बाद मैं समझ गया था कि वो लोग मेरे पेरेंट्स के आने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं भी जानना चाहता था कि इस परिस्थिति में मेरे पापा उनसे क्या बातें करते हैं और मेरे बारे में क्या फैसला सुनाते हैं?
अब आगे....
जेलर शिवकांत वागले ने एक झटके से विक्रम सिंह की डायरी को बंद किया और गहरी गहरी साँसें लेने लगा। उसके ज़हन में डायरी के अंदर लिखी हुई बातें बड़ी तेज़ी गूंजने लगीं थी। विक्रम सिंह की तरह वो भी संजय भाटिया और उसके दोस्तों की बातें पढ़ कर आश्चर्यचकित था। अभी तक के किस्से को पढ़ कर वो इसी नतीजे पर पंहुचा था कि शायद विक्रम सिंह के पिता और उनके दोस्त या तो खुद चूत मार सर्विस जैसी संस्था के सदस्य थे या फिर उनका अपना कोई ऐसा काला कारनामा था जिसके बारे में विक्रम सिंह को पता चला होगा जिसके चलते विक्रम सिंह ने उनकी हत्या कर दी होगी। डायरी में उसे जो असलियत नज़र आई थी उसने उसे ज़बरदस्त झटका दिया था। वो सोच भी नहीं सकता था कि विक्रम सिंह और उसके दोस्तों की मम्मियां अपने अपने बेटों के बारे में ऐसी हसरत पाले हो सकती थीं।
काफी देर तक वागले का ज़हन इन्हीं सब बातों के चलते चकरघिन्नी बना रहा। फिर उसने गहरी सांस ले कर पहले टेबल में एक तरफ रखे पानी के गिलास को उठा कर पानी पिया और फिर एक सिगरेट जला कर उसके गहरे गहरे कश लेने लगा। दिमाग़ अभी भी उन्हीं सब बातों पर उलझा हुआ था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि दुनियां में ऐसे भी लोग हो सकते हैं जिनके ज़हन में ऐसे ख़याल हो सकते हैं। वागले के मन में सवाल उभरा कि क्या ये वास्तव में सच हो सकता है या फिर विक्रम सिंह ने बिना सिर पैर की बकवास लिख दिया था? वागले के मन में उठे इस सवाल पर उसने खुद ही विचार किया कि भला विक्रम सिंह ऐसी बकवास अपनी डायरी में क्यों लिखेगा? इससे भला उसे क्या मिल जाएगा? ज़ाहिर है उसने जो कुछ लिखा है वो एक कड़वा सच ही हो सकता है।
अपने मन को इन सारी बातों से दूर करने के लिए वागले कुर्सी से उठा और केबिन से बाहर चला गया। जेल में चक्कर लगाते हुए वो हर किसी से थोड़ी बहुत बातें करता जा रहा था लेकिन इसके बावजूद वो अपने मन से विक्रम सिंह की डायरी में लिखी हुई बातों को निकालने में कामयाब न हुआ। डायरी में लिखी बातें कोई मामूली बातें नहीं थी जो इतनी आसानी से उसके ज़हन से मिट जातीं।
वागले का ज़हन उन बातों के चलते न जाने कैसी कैसी बातें भी सोचने लगा था जिसका नतीजा ये निकला कि उसके ज़हन में अचानक से एक ऐसी बात आ गई जिसने उसके दिलो दिमाग़ को ज़बरदस्त झटका दिया। वागले के ज़हन में अचानक से ये ख़याल आ गया कि क्या उसकी खुद की बीवी भी ऐसी वाहियात हसरत अपने दिल में रख सकती है? माना कि वो उसे कई सालों से जानता है लेकिन औरत वो बला है जिसका भेद खुद उसे बनाने वाला भी नहीं जान पाया तो भला वो कौन से खेत की मूली था।
वागले की नज़र में उसकी बीवी यानि सावित्री एक ऐसी औरत थी जिसने एक अच्छी पत्नी होने के साथ साथ एक अच्छी माँ होने का भी फ़र्ज़ निभाया था। जहां तक उसके सेक्सुअल रिलेशन का सवाल है तो उसमें भी उसने कभी ये नहीं जताया था कि वो वागले से संतुष्ट नहीं है। कहने का मतलब ये कि एक भारतीय नारी जिस तरह की होती है वो बिलकुल वैसी ही थी। छोटी छोटी बातों पर कभी न कभी मन मुटाव हो जाता था लेकिन ऐसा तो दुनिया में हर किसी के घर में होता है। वागले का ज़हन बड़ी गहराई से सावित्री के बारे में चिंतन मनन कर रहा था। विक्रम सिंह की डायरी ने न चाहते हुए भी उसके मन में अपनी ही बीवी के प्रति शक पैदा कर दिया था। उसका दिल तो इस बात को नहीं मान रहा था लेकिन दिमाग़ तरह तरह के तर्क देते हुए उसके मन में सावित्री के बारे में शक के बीज बोने पर मानो आमादा था। वागले बुरी तरह उलझ गया और जब उससे बरदास्त न हुआ तो उसने भन्ना कर अपने दिमाग़ पर उपजे बुरे विचारों को दूर फेंका।
सारा दिन वागले अपने दिमाग़ को शांत करने के लिए जेल में इधर से उधर भटकता रहा और शाम को अपना ब्रीफ़केस ले कर घर चला गया। घर पहुंचा तो सावित्री ने ही दरवाज़ा खोला। सावित्री के होठों पर खिल आई मुस्कान को देख पहली बार वागले ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी वरना तो ऐसे अवसरों पर वो जब भी सावित्री को मुस्कुराता हुआ देखता था तो वो खुद भी ख़ुशी से मुस्कुरा उठता था। ख़ैर वागले बिना कोई प्रतिक्रिया दिए सावित्री के बगल से निकल गया। सावित्री को उससे ऐसे बेरुखे बर्ताव की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी इस लिए उसके चेहरे पर फिक्रमंदी की लकीरें उभर आईं। वो ये तो जानती थी कि उसका पति जिस पेशे में है उसमें ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन उसे क्या पता था कि इस वक़्त उसका पति किस तरह के ख़यालों के तहत इस तरह का बर्ताव कर के गया था।
सावित्री अपने चेहरे पर चिंता के भाव सजाए सीधा कमरे में ही चली गई। उसने देखा वागले अपनी वर्दी उतार रहा था। उसके चेहरे पर बड़े ही शख़्त भाव थे जैसे वो किसी से बेहद ख़फा हो। सावित्री को समझ न आया कि उसका पति इस वक़्त इतना शख़्त क्यों है? वो जानती थी कि उसका पति बाकी पुलिस वालों जैसा शख़्त फितरत का नहीं है और उसे इसके लिए कभी कोई मलाल भी नहीं हुआ था किन्तु इस वक़्त अपने पति को ऐसे रूप में देख कर उसके मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगे थे।
"क्या बात है?" फिर उसने वागले की तरफ देखते हुए फिक्रमंदी से ही पूछा____"आप कुछ उखड़े उखड़े से दिखाई दे रहे हैं। सब ठीक तो है न?"
"हां सब ठीक है।" वागले ने सपाट भाव से कहा____"तुम जा कर चाय ले आओ।"
सावित्री ने कुछ और भी कहना चाहा लेकिन फिर उसने अपना इरादा बदल दिया। उसे लगा इस वक़्त बात को बढ़ाना ठीक नहीं रहेगा इस लिए वो सिर हिला कर वापस मुड़ी और कमरे से बाहर निकल गई। उसके जाने के बाद वागले ने दरवाज़े की तरफ देखते हुए सोचा____क्या सच में सावित्री के मन में ऐसी वैसी कोई बात हो सकती है? नहीं नहीं, वो ऐसी नहीं है। अगर उसके मन में ऐसा वैसा कुछ होता तो इतने सालों में क्या मुझे कभी शक न हुआ होता? ये चीज़ें ऐसी नहीं हैं जो अंदर छिपाई जा सकें बल्कि ये तो ऐसी हैं कि इंसान के न चाहने के बावजूद बाहर आ जाती हैं। इस तरह की ख़्वाहिशें इंसान को इतना मजबूर कर देती हैं कि इंसान अपना विवेक खोने लगता है और फिर एक दिन वो बिना किसी अंजाम की चिंता किए गुनाह कर बैठता है। ज़ाहिर है अगर ऐसा कुछ होता तो मुझे इसकी भनक कभी तो लगती ही।
वागले न जाने क्या क्या सोचता जा रहा था। फिर जैसे उसे वस्तुस्थिति का एहसास हुआ तो उसने अपने दिमाग़ को झटका और बाथरूम में घुस गया। फ्रेश हो कर जब वो आया तो सावित्री को उसने कमरे में चाय का प्याला लिए हुए ही पाया। सावित्री उसकी तरफ अभी भी ध्यान से देखे जा रही थी। उसका यूं देखना जाने क्यों वागले को अच्छा नहीं लगा और शायद यही वजह थी कि उसका चेहरा एक बार फिर से शख़्त हो गया था।
"ऐसे क्यों देख रही हो मुझे?" सावित्री के हाथ से चाय का कप लेते हुए वागले ने कहा____"क्या मेरे सिर पर सींग निकल आए हैं?"
"न...नही तो।" सावित्री एकदम से बौखला गई, फिर जल्दी ही खुद को सम्हाल कर उसने कहा____"मैं तो बस ये देख रही थी कि आज ऐसी कौन सी बात हो गई है जिसकी वजह से आप थोड़ा विचलित से दिखाई दे रहे हैं?"
सावित्री की बात सुन कर वागले के ज़हन में अचानक से ख़याल उभरा कि सावित्री इतना ज़ोर दे कर उससे ये सब क्यों पूछ रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके मन में किसी तरह का चोर हो जिसके पकड़ लिए जाने का उसे ख़तरा हो? वागले को अपना ये ख़याल जंचा इस लिए उसने थोड़ा और शख़्त चेहरा बना लिया।
"आख़िर क्या जानना चाहती हो तुम?" वागले ने उसकी तरफ शख़्ती से देखते हुए कहा_____"मुझे ये बिलकुल भी पसंद नहीं है कि कोई मुझसे इस तरह से सवाल जवाब करे...समझ गई न तुम? अब जाओ और अपना काम करो।"
वागले ने जिस शख़्ती के साथ ये सब कहा था उसने सावित्री के जिस्म में झुरझुरी सी पैदा कर दी थी। उसकी बातें सीधा उसके दिल को चीरती चली गईं थी और यही वजह थी कि पलक झपकते ही उसकी आँखों से आंसू छलक पड़े थे। उसने बड़े ही कातर भाव से उसकी तरफ देखा और फिर बिना कुछ बोले कमरे से चली गई। उसके जाते ही वागले को झटका लगा। एकदम से उसके ज़हन में ये बात आई कि वो अपनी बीवी से इतने शख़्त लहजे में बात कैसे कर सकता है? इसमें उसकी बीवी का भला क्या कसूर है? संभव है कि वो जो कुछ अपनी बीवी के बारे में सोच रहा है वो सिरे से ही ग़लत हो। आज से पहले तो कभी उसने अपनी बीवी पर इस तरह से शक नहीं किया था, फिर आज आख़िर ऐसा क्या हो गया है कि वो अपनी बीवी के चरित्र पर शक करने लगा? क्या ये सब विक्रम सिंह की डायरी पढ़ने के चलते हो रहा है?
शिवकांत वागले के मनो मस्तिष्क में एकदम से जैसे विस्फोट हुआ। एक तेज़ धमाके के साथ मानो उसकी अक्ल के पर्दे खुल गए। उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। यकीनन ये विक्रम सिंह की डायरी का ही प्रभाव था कि उसने अपनी बीवी के चरित्र पर शक किया और इतना ही नहीं बल्कि उसी शक के चलते उसने उससे शख़्ती से बात भी की। यहाँ तक कि उसने उसे रुला भी दिया। वागले ये सब सोच कर बुरी तरह आहत हो गया। उसे अपने आप पर बेहद गुस्सा आया। विक्रम सिंह पर भी उसे गुस्सा आया कि वो उसे ऐसी वाहियात डायरी दे कर ही क्यों गया?
वागले कुर्ता पजामा पहन कर कमरे से बाहर निकला और घर में चारो तरफ देखा। उसे अपने दोनों बच्चे कहीं नज़र न आए। वो समझ गया कि बच्चे अपने टूशन पर गए होंगे। वागले ये जान कर थोड़ा खुश हुआ और सीधा किचन की तरफ बढ़ गया। किचन में सावित्री रात के लिए खाना बनाने की तैयार कर रही थी किन्तु वागले जैसे ही किचन के दरवाज़े के पास पंहुचा तो वो चौंक गया। उसके कानो में सावित्री के सिसकने की आवाज़ सुनाई दी थी। वो समझ गया कि उसकी बातों ने सावित्री के दिल को दुखा दिया है जिसके चलते वो यहाँ रो रही थी। वागले दबे पाँव किचन के अंदर दाखिल हुआ और पीछे से सावित्री को अपनी बाहों में भर लिया। उसके ऐसा करते ही सावित्री बुरी तरह हड़बड़ा गई और डर भी गई।
"मुझे माफ़ कर दो मेरी जान।" वागले ने उसे अपनी बाहों में लिए हुए और अपना चेहरा उसके चेहरे से सटाते हुए बड़े प्यार से कहा____"तुम तो जानती हो कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं। तुम्हारा दिल दुखाने का मैं सोच भी नहीं सकता। उस वक़्त मैं किसी और ही वजह से थोड़ा गुस्से में था इस लिए तुमसे ऐसी बेरुखी से बात की थी। चलो अब माफ़ कर दो न मुझे।"
"छोड़िए मुझे।" सावित्री ने खुद को उससे छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा____"बच्चे आ जाएंगे। अगर उन्होंने हमें इस तरह देख लिया तो क्या सोचेंगे हमारे बारे में?"
"जिसे जो सोचना है सोचता रहे।" वागले ने पीछे से सावित्री के दाहिने गाल को चूम कर कहा____"मुझे किसी के सोचने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आख़िर मैं अपनी खूबसूरत बीवी को प्यार कर रहा हूं। कोई गुनाह थोड़े न कर रहा हूं।"
"मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी।" सावित्री ने फिर से उससे खुद को छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा____"आप बहुत ही मतलबी इंसान हैं। जब अपना मतलब होता है तभी आप अपना झूठा प्यार दिखाते हैं। अब छोड़ दीजिए, मुझे ऐसे इंसान से बात ही नहीं करना जो अपनी पत्नी को दुखी कर के रुलाए।"
"अरे! मेरी जान से प्यारी सावित्री।" वागले ने उसे अपनी तरफ घुमा कर कहा____"मुझसे ग़लती हो गई, और इसके लिए मैं तुम्हारी हर सज़ा भुगतने को तैयार हूं। बस इस बार माफ़ कर दो। अगली बार से मैं अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी पत्नी को बिलकुल भी दुखी नहीं करुंगा।"
वागले को किसी छोटे बच्चे की तरह बातें करता देख सावित्री न चाहते हुए भी खिलखिला कर हंस पड़ी। उसकी झूठी नाराज़गी मानो पल में ही छू मंतर हो गई। वागले ने उसे हंसते देखा तो एकदम से उसका चेहरा पकड़ कर उसके होठों को अपने मुँह में भर लिया। सावित्री को उससे ऐसा करने की बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी। इस लिए वो बुरी तरह घबरा गई। घबराने की वजह ये थी कि वो दोनों किचेन में थे और बच्चों के आ जाने का ख़तरा था। आज से पहले कभी भी दोनों ने इस तरह कमरे से बाहर कहीं पर प्यार नहीं किया था।
"हाय राम!" सावित्री ने खुद को वागले से दूर करते हुए झट से कहा____"आप पागल हैं क्या? इतना भी नहीं देखते हैं कि किस जगह पर क्या कर रहे हैं? आप सच में बेशर्म बन गए हैं।"
"अपनी खूबसूरत बीवी से प्यार करने के लिए अगर मुझे बेशर्म बन जाना पड़े तो मैं ख़ुशी से बन जाऊंगा मेरी जान।" वागले ने मुस्कुराते हुए कहा____"वैसे इस वक़्त सच में तुम्हें प्यार करने का बहुत मन कर रहा है। चलें क्या कमरे में?"
"कोई सुने तो क्या कहे आपके बारे में?" सावित्री ने हैरानी से कहा____"कि इस उम्र में भी बुड्ढे पर ठरक सवार है। कुछ तो अपनी उम्र का लिहाज किया कीजिए।"
"ऐसी की तैसी कहने वालों की।" वागले ने हाथ झटकते हुए कहा____"और बुड्ढा किसको बोला तुमने? क्या तुम्हें पता नहीं है कि मैं आज भी नए जवान लौंडों को मात देने में पूरी तरह सक्षम हूं?"
"आपसे तो बात करना ही बेकार है।" सावित्री ने अपने माथे पर हथेली मारते हुए कहा____"अब जाइए यहाँ से। मुझे रात के लिए खाना बनाना है।"
"जो हुकुम मेरी जान।" वागले ने बाकायदा सिर को झुका कर कहा____"लेकिन ये याद रखना कि आज मैं अपनी जान को इतना प्यार करुंगा कि अपनी जान की जान निकाल दूंगा।"
वागले की बात सुन कर सावित्री फिर से खिलखिला कर हंस पड़ी, जबकि वागले कहने के बाद फ़ौरन मुड़ा और किचेन से बाहर निकल गया। स्थिति बदल चुकी थी। एक तरफ जहां सावित्री अपने पति का प्यार देख कर खुश हो गई थी तो वहीं दूसरी तरफ वागले भी ये सोच कर खुद को तसल्ली देता हुआ चला गया था कि अच्छा हुआ कि मैंने वक़्त रहते अपने ज़हन से बुरे ख़याल निकाल दिए थे।
रात में वागले ने सच में सावित्री को वैसा ही प्यार किया जैसा कि उसने सावित्री से वादा किया था। सावित्री ने भी उसका पूरी तरह साथ दिया था। सावित्री को अब इस तरह से खुल्लम खुल्ला प्यार करने में और पूरी बेशर्मी के साथ अपने पति का साथ देने में कोई झिझक नहीं होती थी बल्कि उसे अब इस सबसे बेहद मज़ा आने लगा था। यही वजह थी कि आज कल वो पहले की अपेक्षा कहीं ज़्यादा खुश दिखती थी। सारा दिन वो इसी सब के बारे में सोचती रहती थी और रात होने का इंतज़ार करती थी। उसे भी अब यही लगता था कि इसके पहले उसका अपने पति के साथ सेक्स सम्बन्ध महज औपचारिकता के सिवा कुछ नहीं था।
दूसरे दिन जेलर शिवकांत वागले अपने निर्धारित समय पर सेंट्रल जेल के अपने केबिन में पहुंचा। टेबल पर अपना ब्रीफ़केस रखने के बाद वो जेल की सुरक्षा ब्यवस्था के अलावा और भी बाकी चीज़ों को देखने के लिए निकल गाय। क़रीब डेढ़ घंटे बाद वो अपने केबिन में लौट कर आया। कुर्सी पर बैठने के बाद उसने कुछ देर खुद को रिलैक्स किया उसके बाद ब्रीफ़केस को खोल कर उसमें से विक्रम सिंह की डायरी निकाली। पिछले दिन उसने अपनी बीवी सावित्री के साथ जिस तरह का रूखा बर्ताव किया था उसकी वजह यकीनन ये डायरी ही थी और उसे इस डायरी के साथ साथ विक्रम सिंह पर भी बेहद गुस्सा आया था।
विक्रम सिंह का किस्सा अब ऐसे मोड़ पर था जहां पर न चाहते हुए भी वागले उसके बारे में सोचने के लिए मजबूर था। माना कि इस डायरी के चलते उसने पिछले दिन सावित्री को अपने रूखे ब्यौहार से रुला दिया था लेकिन ये भी एक सच था कि इस डायरी की वजह से ही उसने जाना था कि इंसान सेक्स के द्वारा कितना आनंद प्राप्त कर सकता है। डायरी पढ़ने के लिए मजबूर होने की दूसरी वजह ये भी थी कि वो जानना चाहता था कि विक्रम सिंह ने आख़िर किस वजह से और किन हालातों में अपने माता पिता की हत्या की थी? यही सब सोच कर उसने पहले एक गहरी सांस ली और फिर डायरी को खोल कर उस पेज पर पहुंचा जहां से उसे आगे पढ़ना था।