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Fantasy HAWELI (purani haweli, suspence, triller, mystry)

gauravrani

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रहीं। फिर बहुत जल्दी हम अच्छे दोस्त बन गये। आज तक यह दोस्ती ज्यों की त्यों बरकरार थी। मैं उसके कमरे में पहुँचा वो कुछ लिखने में व्यस्त थी। ”हैल्लो।“ - मैं धीरे से बोला। ”हैल्लो“ - उसने सिर ऊपर उठाया और चहकती सी बोली -‘‘हल्लो विक्रांत प्लीज हैव ए सीट।’ ”नो थैंक्स मैं जरा जल्दी में हूँ।“ ‘‘कभी-कभार मेरे लिए भी वक्त निकाल लिया करो यार! वो कहावत नहीं सुनी चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी ना घटियो नीर। मुझे वो चोंच भर ही दे दिया करो कभी।‘‘ ‘‘ताने दे रही हो?‘‘ ‘‘हां मगर तुम्हारी समझ में कहां आता है।‘‘ कहकर वो हंस पड़ी मैंने उसकी हंसी में पूरा साथ दिया। ”कहीं बाहर जा रहे हो।“ ”हाँ?“ ”कहाँ?“ मैंने बताया। ”किसी केस के सिलसिले में या फिर.....।“ ”मालूम नहीं।“ ”लेकिन जा रहे हो।“
 

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”हाँ शीला भी वहीं हैं उसी ने फोन कर के मुझे वहाँ बुलाया है।“ ”ओह! यूं बोलो ना ऐश करने जा रहे हो।“ ”मुझे तुम्हारी कार चाहिए।“ मैं उसकी बात को नजरअंदाज करके बोला। उसने कार की चाबी मुझे पकड़ा दी। ”मुझे वहाँ हफ्ता-दस रोज या इससे ज्यादा भी लग सकते हैं।“ ”क्या फर्क पड़ता है यार!“ - वह बोली - ”वैसे अगर तुम चाहो तो मैं ड्राईवर को तुम्हारे साथ भेज दूँ, लम्बा सफर है थकान से बच जाओगे।‘‘ ”नो थैंक्स।“ ”तुम्हारी मर्जी“ - उसने कंधे उचकाये। ऑफिस से बाहर आकर मैं उसकी शानदार इम्पाला कार में सवार हो गया। सीतापुर मेरे लिए कदरन नई जगह थी, मगर पूरी तरह से नहीं। करीब दो साल पहले मैं एक बार सीतापुर आ चुका था, और काफी कुछ मेरा देखा-भाला था। मगर फिर भी था तो मैं वहां बेमददगार ही। जहाँ एक तरफ सीतापुर आई हॉस्पीटल के लिए मशहूर है, वहीं दूसरी तरफ मेरी निगाहों में आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से उसे क्राईम के लिए भी मशहूर होना चाहिए था। क्योंकि मेरे द्वारा
 
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विजिट किए गए शहरों में सबसे ज्यादा क्राइम वाला शहर है, वहाँ के लोग-बाग असलहा साथ लिए यूँ घूमते हैं मानो वो फॉयर-आर्म्स न होकर बच्चों के खिलौने हों। तेज रफ्तार से कार चलाता मैं रात के साढ़े आठ बजे सीतापुर पहुंचा। अधिकतर दुकानें बंद हो चुकी थीं बस इक्का-दुक्का ही खुली हुई थीं। जिनके दुकानदार इकट्ठे बैठकर गप्पे हांकने में व्यस्त थे, सड़क पर आवागमन ना के बराबर ही रह गया था। बस कभी-कभार रोडवेज की कोई बस आकर रूकती तो कोलाहल बढ़ सा जाता था। कुल मिलाकर चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। लाल बाग चौराहे पर पहुंचकर मैंने अपनी कार रोक दी और ड्राइविंग डोर खोलकर नीचे उतर आया। मैं लापरवाही से चलता हुआ बगल में बने एक वाइन शॉप पर पहुँचा।“ अपनी कुर्सी पर ढेर सा हुआ पड़ा दुकानदार मुझे देखकर सीधा होकर बैठ गया। ”क्या चाहिए?“ - वो उबासी लेता हुआ बोला। ”बीयर।“ उसने फौरन एक बीयर की बोतल निकालकर काउण्टर पर रख दिया। ”सौ रूपये“ - वो बोला।
 
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मैंने बिल पे कर दिया और कुछ देर अनिश्चित सा वहीं खड़ा रहा। ”आप मुझे लाल हवेली का पता बता सकते हैं।“ मैंने दुकानदार से पूछा। ‘‘आप सिंह साहब के रिश्तेदार मालूम होते हैं।‘‘ ‘‘सिंह साहब!‘‘ मैं अचकचाया। ‘‘हम मानसिंह बाबू जी की बात कर रहे हैं बड़े ही नेक और दयालु व्यक्ति थे। बहुत अफसोस हुआ उनका मौत का सुनकर।‘‘ ‘‘क्या कर सकते हैं भई जिसकी जब आई होती है जाना ही पड़ता है। अब कौन जाने अभी तुम अपनी दुकान में जाकर बैठो और आसमान से बिजली गिर पड़े.....मौत का कोई भरोसा थोड़े ही है।‘‘ ‘‘ठीक कहत हौ साहब मौत का कौनो भरोसा नाहीं।‘‘ मेरी बात से सहमति जताता हुआ वह दुकान से बाहर निकल आया फिर उसने विधिवत ढंग से मुझे रास्ता बताया और वापस अपनी दुकान में जाकर बैठ गया। मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा, मगर इससे पहले कि दरवाजा खोलकर अंदर बैठ पाता। ”धाँय“ फायर की जोरदार आवाज गूंजी।
 
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गोली मेरे सिर के ऊपर से गुजर गई। पलभर को मैं सूखे पत्ते की तरह कांप उठा। मगर यह वक्त अपनी कमजोरी जाहिर करने या हैरान होने का नहीं था। मैंने फौरन खुद को सड़क पर गिरा दिया और घिसटकर अपनी कार के नीचे पहुंच गया। इस दौरान मेरी रिवाल्वर बेल्ट से निकलकर मेरे हाथ में आ चुकी थी। धाँय...धाँय! लगातार दो फायर और हुए। दोनों गोलियां कार की बॉडी से कहीं टकराईं, मैंने अनुमान से आवाज की दिशा में एक फॉयर झोंक दिया। एक दर्दनाक चीख उभरी, कुछ दौड़ते हुए, किंतु दूर जाते कदमों की आवाज सुनाई दी, फिर एक जोड़ी कदमों की आवाज मुझे अपनी तरफ आती महसूस हुई। मैं दम साधे वहीं पड़ा रहा, थोड़ी दूरी पर किसी गाड़ी का इंजन जोर से गरजा फिर आवाज लगातार दूर होती चली गयी। मैं करीब पांच मिनट तक यथावत पड़ा रहा तत्पश्चात सावधानी से कार के नीचे से बाहर निकल आया। वाइन शॉप का अटेंडेंट ज्यों का त्यों अपनी दुकान में बैठा कान से मक्खी उड़ा रहा था़, मानों गोलियां ना चली हों किसी बच्चे ने पटाखा फोड़ा हो। मैंने अपने कपड़ों से धूल झाड़ा और एक उड़ती सी नजर अपने आस-पास डालने के पश्चात मैं कार के अंदर जा बैठा।
 
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अभी मैं कार स्टार्ट भी नहीं कर पाया था कि मुझे पिछली सीट पर हलचल का आभास मिला। ‘‘खतरा!‘‘ मेरे दिमाग ने चेतावनी दी, मगर तब तक देर हो चुकी थी। ”खबरदार“ - पीछे से रौबदार आवाज गूंजी - ”हिलना नहीं।“ मैं जहाँ का तहाँ फ्रीज होकर रह गया, क्योंकि अपनी गर्दन पर चुभती किसी पिस्तौल की ठण्डी नाल का एहसास मुझे हो चुका था। मुझे अपनी कमअक्ली पर तरस आने लगा। मैं बड़ी आसानी से उनके जाल में फंस गया था। ”बिना किसी शरारत के अपनी रिवाल्वर मुझे दो।“ आदेश मिला। मैंने चुपचाप रिवाल्वर उसे सौंप दी। तब वह दोनों सीटों के बीच से गुजरता हुआ अगली सीट पर मेरे पहलू में आकर बैठ गया। उसकी पिस्तौल की नाल अब मेरी पसलियों को टकोह रही थी। मैंने उसकी शक्ल देखी। तकरीबन चालीस के पेटे में पहुंचा हुआ वह तंदुरूस्त शरीर वाला सांवला, किन्तु बेहद रौब-दाब वाला व्यक्ति था, उसके चेहरे पर कठोरता थी और होंठों पर एक विषैली मुस्कान नाच रही थी। ”गाड़ी को वापस मोड़ो।“ - उसने हुक्म दिया।
 
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”मगर........।“ ”जल्दी करो“ - वो सर्द लहजे में बोला। ”मेरे ऊपर गोली तुमने चलाई थी।“ ”जुबान बंद रखो“ - उसने रिवाल्वर से मेरी पसलियों को टकोहा - ”यू टर्न लो फौरन।“ मैंने कार वापस मोड़ दिया। ”गुड अब सामान्य रफ्तार से आगे बढ़ो।“ मैंने वैसा ही किया। वह जो भी था मंझा हुआ खिलाड़ी था। एक पल को भी उसने लापरवाही नहीं दिखाई, ना ही कार की स्पीड तेज करने दी, वरना मैं तेजी से ब्रेक लगाकर उसके चंगुल से निकलने की कोई जुगत कर सकता था। तकरीबन पांच मिनट तक कार चलाने के बाद मेरी जान में जान तब आई जब सीतापुर कोतवाली के सामने पहुँचकर उसने कार अंदर ले चलने को कहा। कम्पाउण्ड में पहुँचकर मैंने कार रोक दी। निश्चय ही वो कोई पुलिसिया था। मुझे लेकर वो एक ऐसे कमरे में पहुँचा, जिसमें पहले से ही एक सब इंस्पेक्टर और एक कांस्टेबल मौजूद थे। उसे देखते ही वो दोनों उठ खड़े हुए और बिना कुछ कहे चुपचाप कमरे से बाहर निकल गये।
 
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”बैठो“ - वो खुद एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला। ”शुक्रिया“ - मैं बैठ गया। कुछ देर तक वो अपनी एक्सरे करती निगाहों से मुझे घूरता रहा, यूँ महसूस हुआ जैसे वो खुर्दबीन से किसी कीड़े का परीक्षण कर रहा हो। दो मिनट पश्चात। ”कहीं बाहर से आये हो।“ - वो बोला। मैंने सिर हिलाकर हामी भरी। ”कहाँ से?“ ”दिल्ली से।“ ”दिल्ली में कहाँ रहते हो?“ कहते हुए उसने एक राइटिंग पैड और पेन उठा लिया। ”तारा अपार्टमेंट में।“ ”करते क्या हो?“ ”प्राईवेट डिटेक्टिव हूँ, दिल्ली में रैपिड इंवेस्टिगेशन नाम से ऑफिस है मेरा।“ ”ओ आई सी“ - इस बार उसने नये सिरे से मेरा मुआयना किया -”नाम क्या है तुम्हारा?“ ”विक्रांत - विक्रांत गोखले।“ ”यहाँ क्या करने आये हो?“
 
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”किसी से मिलने के लिए।“ ”किससे?“ ”मानसिंह जी के यहां, लाल हवेली में।“ ”सच कह रहे हो, सिर्फ मिलने आये हो।“ ”मैं झूठ नहीं बोलता।“ ‘‘जरूर राजा हरिश्चंद्र के खानदान से होगे।‘‘ मैं खामोश रहा। ”मुझे लगता है तुम हवेली में हो रहे हंगामों की वजह से आये हो?“ ”कैसा हँगामा?“ ”वहीं पहुँचकर मालूम कर लेना। मुझे तो वो लड़की पूरी पागल नजर आती है। बड़ी अजीबो-गरीब बातें करती है। कहती है रात के वक्त उसकी हवेली में नर कंकाल घूमते हैं, हमने कई दफा उसके कहने पर इंक्वायरी भी की मगर हमारे हाथ कुछ नहीं लगा।“ ”आप भूत-प्रेतों पर यकीन करते हैं?“ ”नहीं।“ ”इसके बावजूद आप इंक्वायरी के लिए लाल हवेली चले गये।“ ”डियुटी जो करनी थी भई, उसका बाप यहां ‘वीआईपी‘ का दर्जा रखता था, मैं उसकी कंप्लेन को इग्नोर नहीं कर सकता था।“
 
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”अब आपकी फाइनल ओपनीयन ये है कि उसका दिमाग हिला हुआ है?“ ”ठीक समझ रहे हो। एक महीने पहले बाप के साथ हुए हादसे का उसके दिमाग पर कोई गहरा असर हुआ मालूम पड़ता है। लगता है उसका कोई दिमागी स्क्रू ढीला पड़ गया है, तभी वो यूँ बहकी-बहकी बातें करती है।“ ”ओह।“ ”तुमने जो कुछ अपने बारे में बताया क्या उसे साबित कर सकते हो?‘‘ ‘‘करना ही पड़ेगा जनाब क्योंकि अपनी रात हवालात में खोटी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।“ ‘‘समझदार आदमी हो।‘‘ ‘‘दुरूस्त फरमाया जनाब, आदमी तो खैर ये बंदा जन्म से ही है, अलबत्ता समझदार बनने में पच्चीस साल लग गये।‘‘ मैंने उसे अपना ड्राइविंग लाइसेंस और डिटेक्टिव एजेंसी का लाइसेंस दिखाया। वो संतुष्ट हो गया। ”बाहर चौराहे पर तुमने गोली क्यों चलाई थी?“ ”आत्मरक्षा के लिए।“ ”मतलब?“
 
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