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इश्क़ आबाद करता है या बरबाद..
‘तू'... में इससे छोटा और इससे बड़ा शब्द कोई और नहीं। ये शब्द कितना छोटा है ये तो फ़ौरन पता चल जाता है, लेकिन कितना बड़ा है ये तब समझ में आता है जब इश्क़ सहराओं की ख़ाक उड़ा के, दरियाओं की वुसअत नाप के, कहकशाओं का तवाफ़ करके वापस एक अँधेरे बंद कमरे में लौटता है और मोबाइल फोन पर किसी की मुस्कराती हुई तस्वीर को बेतहाशा चूमते हुए दहाड़ें मार के रोता है। ख़ुदग़र्ज़ से ख़ुदग़र्ज़ तबीयत का इंसान, जिसने पूरी ज़िंदगी ‘मैं' से आगे कुछ नहीं सोचा, वो एक ‘तू' पे आकर इस क़दर मजबूर हो जाता है जैसे समंदर की कोख से निकले हुए सुनामी के आगे एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर। इश्क़ आबाद करता है या बरबाद, क़ैद करता है या आज़ाद... इन सवालों के जवाब वो नहीं दे पाये जिन्होंने पहाड़ों का सीना चीर के दूध की नदियाँ बहा
‘तू'... में इससे छोटा और इससे बड़ा शब्द कोई और नहीं। ये शब्द कितना छोटा है ये तो फ़ौरन पता चल जाता है, लेकिन कितना बड़ा है ये तब समझ में आता है जब इश्क़ सहराओं की ख़ाक उड़ा के, दरियाओं की वुसअत नाप के, कहकशाओं का तवाफ़ करके वापस एक अँधेरे बंद कमरे में लौटता है और मोबाइल फोन पर किसी की मुस्कराती हुई तस्वीर को बेतहाशा चूमते हुए दहाड़ें मार के रोता है। ख़ुदग़र्ज़ से ख़ुदग़र्ज़ तबीयत का इंसान, जिसने पूरी ज़िंदगी ‘मैं' से आगे कुछ नहीं सोचा, वो एक ‘तू' पे आकर इस क़दर मजबूर हो जाता है जैसे समंदर की कोख से निकले हुए सुनामी के आगे एक टूटी हुई कश्ती का मुसाफ़िर। इश्क़ आबाद करता है या बरबाद, क़ैद करता है या आज़ाद... इन सवालों के जवाब वो नहीं दे पाये जिन्होंने पहाड़ों का सीना चीर के दूध की नदियाँ बहा