- 910
- 1,312
- 123
इसके बाद पुलिस को किसी और उत्प्रेरक की जरूरत नहीं थी। पुलिस जी-जान से केस की जांच में जुट गई। जब तक पुलिस इसे सुसाइड समझ रही थी, तब तक इन्वेस्टिगेशन भी ढीली थी लेकिन हत्या और चोरी का खुलासा होने के बाद पुलिस ने उसी स्तर की जांच भी आरम्भ कर दी। कई संदिग्धों को हिरासत में लिया गया, पूछताछ की गई। अब तक तो गिरिराज वर्मा के परिजनों, परिचितों से ही पूछताछ की जा रही थी लेकिन अब पुलिस ने उस पूरे इलाके के लोगों से पूछताछ आरम्भ कर दी। क्या किसी ने गिरिराज वर्मा को किसी युवती के साथ घूमते देखा था? क्या उनके घर किसी युवती का आना-जाना था? जवाब था-हां। वहां आसपास रहने वाले लोगों के माध्यम से पुलिस को पता चला कि करीब साल भर से एक नौजवान युवती गिरिराज वर्मा के घर में रह रही थी। वो एक बेहद पॉश इलाका था, जिसमें कई घर नए बने थे। अपने पड़ोसियों के साथ गिरिराज वर्मा का कोई विशेष उठना-बैठना नहीं था, जिसके चलते उस इलाके में उनका घर होते हुए भी
घर के अंदर क्या हो रहा है, इसकी जानकारी किसी को नहीं थी। वैसे भी परिवार के नाम पर भी उनके यहां कोई नहीं था और करीब साल भर से गिरिराज वर्मा ने लोगों के यहां आना-जाना भी बेहद कम कर दिया था, जो किसी तरह के फैमिली गेट-टुगेदर में ही लोगों के बीच उठना-बैठना होता, जान-पहचान बनती। यहां तक कि किसी घर में होने वाले फंक्शन आदि के लिए भी उनको बुलावा आता था तो वे तबीयत खराब होने या कोई अन्य जरूरी काम होने का बहाना बना कर टाल जाते थे। ऐसे पॉश इलाकों में वैसे भी आस-पड़ोस में जान-पहचान न होना एक सामान्य-सी बात ही समझी जाती है। लोग सोशल मीडिया पर हजारों किलोमीटर दूर बैठे लोगों को दोस्त बना लेते हैं लेकिन उन्हें ये पता नहीं होता कि उनके पड़ोस में कौन रह रहा होता है? गिरिराज वर्मा के ‘आस-पड़ोस’ के मामले में भी कुछ ऐसा ही था। लेकिन ये नियम घर में काम करने वालों, दूध वाले, अखबार वालों आदि पर लागू नहीं होता है। अमीर लोग जहां अपनी दौलत से संतुष्ट होकर अपने-आप में सीमित होने की कोशिश करते हैं, नई जान-पहचान बनाने में सावधानी बरतते हैं और अपनी रिश्तेदारी और जितनी जान-पहचान होती है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, वहीं गरीब लोगों के लिए ये जान-पहचान ही उनकी दौलत होती है।
घर के अंदर क्या हो रहा है, इसकी जानकारी किसी को नहीं थी। वैसे भी परिवार के नाम पर भी उनके यहां कोई नहीं था और करीब साल भर से गिरिराज वर्मा ने लोगों के यहां आना-जाना भी बेहद कम कर दिया था, जो किसी तरह के फैमिली गेट-टुगेदर में ही लोगों के बीच उठना-बैठना होता, जान-पहचान बनती। यहां तक कि किसी घर में होने वाले फंक्शन आदि के लिए भी उनको बुलावा आता था तो वे तबीयत खराब होने या कोई अन्य जरूरी काम होने का बहाना बना कर टाल जाते थे। ऐसे पॉश इलाकों में वैसे भी आस-पड़ोस में जान-पहचान न होना एक सामान्य-सी बात ही समझी जाती है। लोग सोशल मीडिया पर हजारों किलोमीटर दूर बैठे लोगों को दोस्त बना लेते हैं लेकिन उन्हें ये पता नहीं होता कि उनके पड़ोस में कौन रह रहा होता है? गिरिराज वर्मा के ‘आस-पड़ोस’ के मामले में भी कुछ ऐसा ही था। लेकिन ये नियम घर में काम करने वालों, दूध वाले, अखबार वालों आदि पर लागू नहीं होता है। अमीर लोग जहां अपनी दौलत से संतुष्ट होकर अपने-आप में सीमित होने की कोशिश करते हैं, नई जान-पहचान बनाने में सावधानी बरतते हैं और अपनी रिश्तेदारी और जितनी जान-पहचान होती है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, वहीं गरीब लोगों के लिए ये जान-पहचान ही उनकी दौलत होती है।