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Incest आह..तनी धीरे से.....दुखाता.

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Lovely Anand

Love is life
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आह ....तनी धीरे से ...दुखाता
(Exclysively for Xforum)
यह उपन्यास एक ग्रामीण युवती सुगना के जीवन के बारे में है जोअपने परिवार में पनप रहे कामुक संबंधों को रोकना तो दूर उसमें शामिल होती गई। नियति के रचे इस खेल में सुगना अपने परिवार में ही कामुक और अनुचित संबंधों को बढ़ावा देती रही, उसकी क्या मजबूरी थी? क्या उसके कदम अनुचित थे? क्या वह गलत थी? यह प्रश्न पाठक उपन्यास को पढ़कर ही बता सकते हैं। उपन्यास की शुरुआत में तत्कालीन पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए सेक्स को प्रधानता दी गई है जो समय के साथ न्यायोचित तरीके से कथानक की मांग के अनुसार दर्शाया गया है।

इस उपन्यास में इंसेस्ट एक संयोग है।
अनुक्रमणिका
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भाग 126 (मध्यांतर)
 
Last edited:

Sanju@

Well-Known Member
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भाग -51
सरयू सिंह और सुगना सूर्यास्त की प्रतीक्षा में थे सरयू सिंह मनोरमा के कमरे की चाबी लेकर उसकी साफ सफाई कर आए थे और सुगना की पसंद के कई फूल रख आए थे।


मनोरमा के इस कमरे में आज सुगना और सरयू सिंह के अरमान पूरे होने वाले थे।

सुगना अपने पुत्र के लिए उसे मुक्ति दिलाने वाली पुत्री की लालसा में गर्भवती होना चाहती थी और सरयू सिंह इच्छा का मान भी रखना चाहती थी।

इसका उपाय न तो सुगना को सूझ रहा और न नियति को….


अब आगे

बनारस महोत्सव का तीसरा दिन शाम 6 बजे...


सूर्य क्षितिज में विलीन होने को तैयार था दिन भर अपनी आभा से बनारस महोत्सव को रोशन करने वाला अब थक चुका था परंतु रंगीन शाम में अब युवा हृदय जवान हो रहे थे। जैसे-जैसे शाम की आहट बनारस महोत्सव में हो रही थी सुगना की सिहरन बढ़ती जा रही थी। वह अपने मन में तरह-तरह की रणनीति बना रही थी कि किस प्रकार अपने बाबू जी को अपनी कामकला से अपनी प्यासी बुर के अंदर ही स्खलित करा दिया जाए।

ऐसा नहीं था कि वह अपने बाबू जी को दिया वादा पूरा नहीं करना चाहती थी परंतु उसकी प्राथमिकता अलग थी और सरयू सिंह की अलग। यदि वह सरयू सिंह को सूरज की मुक्ति दायिनी बहन के बारे में बता पाती तो सरयू सिंह अपनी जान पर खेलकर भी उसे जी भर कर चोदते और गर्भवती अवश्य करते.

परंतु नियति को यह मंजूर नहीं था विद्यानंद की बातों को सुगना ने अक्षरसः आत्मसात कर लिया था और वह उस बात को किसी से साझा नहीं कर सकती थी। विद्यानंद का चमत्कार उसने देख लिया था और वह उनकी बातों से पूरी तरह आश्वस्त थी।

सुगना ने खूबसूरत सा लहंगा और चोली धारण किया और सज धज कर चुदने के लिए तैयार हो गयी। उधर सरयू सिंह अपने सामान की पोटली में शिलाजीत की दूसरी गोली को खोज रहे थे जो वह बड़ी उम्मीदों से बनारस महोत्सव में छुपा कर ले आए थे।

अधीरता और व्यग्रता सामान्य कार्य को भी दुरूह बना देती है। सरयू सिंह अपना पूरा सामान उलट-पुलट रहे थे परंतु वह दिव्य गोली उन्हें दिखाई न पड़ रही थी।

कजरी और पदमा ने उनकी व्यग्रता देखकर उनकी मदद करने की सोची कजरी ने पास जाकर कहा

"कुंवर जी का खोजा तानी?"

सरयू सिंह झेंप गए और बोले

"कुछ भी ना" पदमा पास में ही खड़ी थी वह किस मुंह से उस गोली का नाम लेते जिसको खाकर वह उसकी ही पुत्री के साथ अनैतिक और अप्राकृतिक कृत्य करने जा रहे थे।

पदमा और कजरी के जाने के बाद सरयू सिंह ने एक बार फिर बिखरे हुए सामानों पर ध्यान लगाया और वह छोटी सी दिव्य गोली उन्हें दिखाई पड़ गई।

देर हो रही थी। उन्होंने बिना पानी ही वह गोली लील ली।

सरयू सिंह वक्त के बेहद पाबंद थे और गोली के असर को वह किसी भी सूरत में कम नहीं करना चाह रहे थे और सुगना से मिलन के दौरान अपने लिंग की अद्भुत उत्तेजना का आनंद सुगना को देना चाह रहे थे। उन्हें शायद यह भ्रम था कि इस अप्राकृतिक मैथुन का सुगना भी उसी तरह आनंद लेगी जैसे उसने अपनी पहली चुदाई का लिया था।

कुछ देर बाद पदमा, सोनी और मोनी को लेकर बाहर बाजार में घूम रही थी। सूरज की उपस्थिति से प्रेम कीड़ा में बाधा आ सकती थी। सुगना ने सूरज को कजरी के हवाले किया और बोली

"मां थोड़ा बाबू के पकड़ हम सोनी मोनी खातिर कुछ सामान खरीदे जा तानी"

सुगना उन्मुक्त होकर सूरज की मुक्तिदाता का सृजन करने अपने मन में उत्तेजना और दिमाग में डर लिए मनोरमा के कमरे की तरफ चल पड़ी।

उधर बनारस महोत्सव में मनोरमा की मीटिंग आज ज्यादा लंबी चलने वाली थी। मीटिंग प्रारंभ हुए लगभग एक घंटा बीत चुका था। मीटिंग में भाग लेने वाले सभी अधिकारियों का चेहरा उतर गया था। सभी जलपान के लिए मीटिंग में ब्रेक चाह रहे थे। मनोरमा को जलपान से ज्यादा स्नान की आवश्यकता थी। सेक्रेटरी साहब का वीर्य उसकी जांघों पर सूख चुका था और मनोरमा को असहज कर रहा था।

जैसे ही मीटिंग में जलपान के ब्रेक का अनाउंसमेंट हुआ मनोरमा तेज कदमों से चलती हुई अपने कमरे की तरफ चल पड़ी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह इस समय का उपयोग स्नान करके स्वयं को तरोताजा कर लेगी।

अंधेरा हो चुका था घड़ी में 7:00 बज चुके थे मनोरमा अपने कमरे के दरवाजे पर पहुंची और ताला खोलकर अंदर प्रवेश कर गई. अस्थाई निर्माण अस्थाई ही होता कमरे का दरवाजा अंदर से बंद नहीं हो पा रहा था उसने बड़ी मुश्किल से चटकानी चढ़ाने की कोशिश की परंतु वह उसे बड़ी मुश्किल से उसे फंसा पाई। दरवाजा ठीक से बंद नहीं हुआ हल्का सा धक्का देने पर वह दरवाजा खुल जाता।

अंदर का कमरा आज बेहद खूबसूरती से सजा हुआ था बिस्तर पर कुछ मनोरम फूल भी रखे हुए थे जिसकी सुगंध कमरे में व्याप्त थी। मनोरमा को अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं था उसने इस कमरे की चाबी सरयू सिंह और उनकी बहु सुगना को देकर कोई गलती नहीं की थी।

मनोरमा के पास समय कम था उसने चिटकिनी के ठीक से बंद ना होने की बात पर ज्यादा ध्यान न दिया। वैसे भी उसके कमरे में आने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता था। सरयू सिंह और उनका परिवार ताला खुला देख कर किसी हाल में अंदर प्रवेश नहीं करता। मनोरमा अपने वस्त्रों को करीने से उतारती गई और उन्हें सहेजकर रखती गयी।यही वस्त्र उसे स्नान के बाद पुनः पहनने थे।

पूर्ण तरह निर्वस्त्र होकर वह बाथरूम में प्रवेश कर गयी और झरने को चालू कर स्नान करने लगी।

नियति मनोरमा की मनोरम काया देकर मंत्रमुग्ध हो गई। मनोरमा के हाथ उसके कोमल पर कसे हुए शरीर पर तेजी से चल रहे थे। अपनी जांघों पर हाथ फेरते हुए मनोरमा के हाथों में सेक्रेटरी साहब का सूखा हुआ वीर्य लग गया जो अब लिसलिसा हो चला था।

उस वीर्य को अपने शरीर से हटाने की कोशिस में मनोरमा अपनी जांघों और बुर् के होठों को सहलाने लगी। ज्यों ज्यों मनोरमा की उंगलियां बुर् के होठों को छूती उसके शरीर में सिहरन बढ़ जाती है और न चाहते हुए भी वह उंगलियां दरारों के बीच अपनी जगह तलाशने लगती। एक पल के लिए मनोरमा यह भूल गई कि वह यहां मीटिंग से उठकर स्नान करने आई है न की अपनी प्यासी बुर को उत्तेजित कर स्खलित होने।

परंतु जब तक उसके मन में यह ख्याल आता उसकी बूर् की संवेदना जागृत हो चुकी थी। मनोरमा ने अपने कर्तव्य के आगे अपने निजी सुख को अहमियत न दी और बुर को थपथपा कर रात्रि तक इंतजार करने के लिए मना लिया और अपने बालों में लपेटे हुए तौलिए को उतार कर अपने शरीर को पोछने लगी।

उधर सुगना बाजार से होते हुए मनोरमा के कमरे की तरफ बढ़ रही थी। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे उसके जीवन में भूचाल आने वाला हो। वह एक बार फिर गर्भवती होगी और फिर उसे गर्भावस्था के सुख और दुख दोनों झेलने पड़ेंगे। अभी उसकी कोख में सरयू सिंह का बीज आया भी न था और वह आगे होने वाली घटनाओं को सोच सोच कर आशंकित भी थी और उत्साहित भी। तभी एक पास की एक दुकान से आवाज आई..

"सुगना बेटा बड़ा भाग से तू आ गईले" यह आवाज पदमा की थी जो सुगना के पुत्र सूरज के लिए उपहार स्वरूप हाथ का कंगन खरीद रही थी। पद्मा ने सुगना को दुकान के अंदर बुला लिया और उसे तरह-तरह के कंगन दिखाने लगी। सोना वैसे भी स्त्रियों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है और ऊपर से वह उसके पुत्र सूरज के लिए था। सुगना एक पल के लिए यह भूल गई कि वह कहां जा रही थी। वह सूरज के हाथों के कंगन को पसंद करने में व्यस्त हो गई उसे यह ध्यान ही नहीं रहा कि कुछ ही देर में उसके बाबूजी भी मनोरमा के कमरे में पहुंच रहे होंगे।

उधर सरयू सिंह द्वारा निगली हुई शिलाजीत की गोली अपना असर दिखा चुकी थी। लंगोट में कसा हुआ उनका लण्ड तन चुका था। सरयू सिंह ने अपना लंगोट ढीला किया और अपने तने हुए लण्ड को लेकर दूसरे रास्ते से मनोरमा के कमरे की तरफ बढ़ने लगे। अपने मन मस्तिष्क में असीम उत्तेजना और तने हुए लण्ड को लेकर वह मनोरमा के कमरे के ठीक पास आ गए।

मनोरमा की गाड़ी आसपास न पाकर वह और भी खुश हो गए । वैसे भी आज मनोरमा ने उन्हें पदोन्नति देकर उनका दिल जीत लिया था। कमरे के दरवाजे पर ताला न पाकर वह खुशी से झूमने लगे उनकी सोच के अनुसार निश्चित ही सुगना अंदर आ चुकी थी।

अंदर स्थिति ठीक इसके उलट थी। अंदर मनोरमा अपना शरीर पोछने के बाद कमरे में आ चुकी थी। उसकी नग्न सुंदर और सुडौल काया चमक रही थी। मनोरमा की कद काठी सुगना से मिलती जुलती थी, पर शरीर का कसाव अलग था। मनोरमा का शरीर बेहद कसा हुआ था। शायद उसे मर्द का सानिध्य ज्यादा दिनों तक प्राप्त ना हुआ था और जो हुआ भी था मनोरमा की काम पिपासा बुझा पाने में सर्वथा अनुपयुक्त था।

मनोरमा ने जैसे ही आगे झुक कर अपना पेटीकोट उठाने की कोशिश की उधर सरयू सिह ने दरवाजे पर एक हल्का सा धक्का लगा और दरवाजा खुल गया।

जब तक मनोरमा पीछे मुड़ कर देख पाती बनारस महोत्सव के उस सेक्टर की बिजली अचानक ही गुल हो गई।

परंतु इस एक पल में सरयू सिंह ने उस दिव्य काया के दर्शन कर लिए। चमकते बदन पर पानी की बच गई बूंदे अभी भी विद्यमान थीं । सुगना ने संभोग से पहले स्नान किया यह बात सरयू सिंह को भा गई। उन्होंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि वह वह आज उसकी बूर को चूस चूस कर इस स्खलित कर लेंगे और फिर उसके दूसरे छेद का जी भर कर आनंद लेंगे।

कमरे में घूप्प अंधेरा हो चुका था सरयू सिंह धीरे-धीरे आगे बढ़े और अपनी सुगना को पीछे से जाकर पकड़ लिया। क्योंकि कमरे में अंधेरा था उन्होंने अपना एक हाथ उसकी कमर में लगाया और दूसरी हथेली से सुगना के मुंह को बंद कर दिया ताकि वह चीख कर असहज स्थिति न बना दे।

मनोरमा ने सरयू सिंह की धोती देख ली थी। जब तक कि वह कुछ सोच पाती सरयू सिंह उसे अपनी आगोश में ले चुके थे। वह हतप्रभ थी और मूर्ति वत खड़ी थी। सरयू सिंह उसका मुंह दबाए हुए थे तथा उसके नंगे पेट पर हाथ लगाकर उसे अपनी ओर खींचे हुए थे।

अपने नितंबों पर सरयू सिंह के लंड को महसूस कर मनोरमा सिहर उठी। सरयू सिंह को सुगना की काया आज अलग ही महसूस हो रही थी अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने अपनी हथेली को सुगना की चुचियों पर लाया और उनका शक यकीन में बदल गया यह निश्चित ही सुगना नहीं थी। चुचियों का कसाव चीख चीख कर कह रहा था कि वह सुगना ना होकर कोई और स्त्री थी।

सरयू सिंह की पकड़ ढीली होने लगी उन्हें एक पल के लिए भी यह एहसास न था कि जिस नग्न स्त्री को वह अपनी आगोश में लिए हुए हैं वह उनकी एसडीएम मनोरमा थी। अपने नग्न शरीर पर चंद पलों के मर्दाना स्पर्श ने मनोरमा को वेसुध कर दिया था। इससे पहले कि सरयू सिंह उसकी चुचियों पर से हाथ हटा पाते मनोरमा की हथेलियों ने सरयू सिंह की हथेलियों को अपनी चुचियों पर वापस धकेल दिया। मनोरमा कि इस अदा से सरयू सिंह बेहद उत्तेजित हो गए। स्त्री शरीर की उत्तेजना और हाव-भाव से सरयू सिंह स्त्री की मनो स्थिति भांप लेते थे उन्होंने मनोरमा के कानों को चूम लिया और अपनी दोनों हथेलियों से उसकी चुचियों को सहलाने लगे।

प्रणय निवेदन मूक होता है परंतु शरीर के कामुक अंग इस निवेदन को सहज रूप से व्यक्त करते हैं। विपरीत लिंग उसे तुरंत महसूस कर लेता है।

मनोरमा की गर्म सांसे, तनी हुई चूचियां , और फूल चुके निप्पल मनोरमा की मनोस्थिति कह रहे थे। और मनोरमा की स्थिति जानकर सरयू सिंह का लण्ड उसके नितंबों में छेद करने को आतुर था।

सरयू सिंह एक हाथ से मनोरमा की चूँचियों को सहला रहे थे तथा दूसरे हाथ से बिना किसी विशेष प्रयास के अपने अधोभाग को नग्न कर रहे थे।

उनका लण्ड सारी बंदिशें तोड़ उछल कर बाहर आ चुका था। उन्होंने शर्म हया त्याग कर अपना लण्ड मनोरमा के नितंबों के नीचे से उसकी दोनों जांघों के बीच सटा दिया। मनोरमा उस अद्भुत लण्ड के आकार को महसूस कर आश्चर्यचकित थी। एक तो सरयू सिंह का लण्ड पहले से ही बलिष्ठ था और अब शिलाजीत के असर से वह और भी तन चुका था। लण्ड पर उभर आए नसे उसे एक अलग ही एहसास दिला रहे थे। मनोरमा ने अपनी जाँघे थोड़ी फैलायीं और वह लण्ड मनोरमा की जांघो के जोड़ से छूता हुआ बाहर की तरफ आ गया।

मनोरमा ने एक बार फिर अपनी जांघें सिकोड़ लीं। सरयू सिह के लण्ड का सुपाड़ा बिल्कुल सामने आ चुका था। मनोरमा अपनी उत्सुकता ना रोक पायी और अपने हाथ नीचे की तरफ ले गई । सरयू सिंह के लण्ड के सुपारे को अपनी उंगलियों से छूते ही मनोरमा की चिपचिपी बुर ने अपनी लार टपका दी जो ठीक लण्ड के फूले हुए सुपाड़े पर गिरी

मनोरमा की उंगलियों ने सरयू सिंह के सुपाडे से रिस रहे वीर्य और अपनी बुर से टपके प्रेम रस को एक दूसरे में मिला दिया सरजू सिंह के लण्ड पर बल दिया मनोरमा की कोमल उंगलियों और चिपचिपे रस से लण्ड थिरक थिरक उठा। मनोरमा को महसूस हुआ जैसे उसने कोई जीवित नाग पकड़ लिया जो उसके हाथों में फड़फड़ा रहा था।

यह पहला अवसर था जब सरयू सिंह के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी। जिस सुंदर और नग्न महिला को अपनी बाहों में लिए उसे काम उत्तेजित कर रहे थे वह उनकी भाग्य विधाता एसडीएम मनोरमा थी सरयू सिंह यह बात भली-भांति जान चुके थे परंतु अब वह उनके लिए एसडीएम ना होकर एक काम आतुर युवती थी जो अपने हिस्से का सुख भोगना चाहती थी। अन्यथा वह पलट कर न सिर्फ प्रतिकार करती अपितु छिड़ककर उन्हें उनकी औकात पर ला देती।

जिस मर्यादा को भूलकर सरयू सिंह और मनोरमा करीब आ चुके अब उसका कोई अस्तित्व नहीं था। प्रकृति की बनाई दो अनुपम कलाकृतियां एक दूसरे से सटी हुई प्रेमालाप में लगी हुई थीं। धीरे धीरे मनोरमा सरयू सिंह की तरफ मुड़ती गई और सरयू सिंह का लण्ड उसकी जांघों के बीच से निकलकर मनोरमा के पेट से छूने लगा। सरयू सिंह ने इसी दौरान अपना कुर्ता भी बाहर निकाल दिया। मनोरमा अब पूरी तरह सरयु सिंह से सट चुकी थी। सरयू सिंह की बड़ी-बड़ी हथेलियों ने मनोरमा के नितंबों को अपने आगोश में ले लिया था। और वह उसे बेतहाशा सहलाए जा रहे थे।

उनकी उंगलियों ने उनके अचेतन मस्तिष्क के निर्देशों का पालन किया और सरयू सिंह ने न चाहते हुए भी मनोरमा की गांड को छू लिया। आज मनोरमा कामाग्नि से जल रही थी। उसे सरयू सिंह की उंगलियों की हर हरकत पसंद आ रही थी। बुर से रिस रहा कामरस सरयू सिंह की अंगुलियों तक पहुंच रहा था। मनोरमा अपनी चुचियों को उनके मजबूत और बालों से भरे हुए सीने पर रगड़ रही थी। सरयू सिंह उसके गालों को चुमे में जा रहे थे।

गजब विडंबना थी जब जब सरयू सिंगर का ध्यान मनोरमा के ओहदे की तरफ जाता वह घबरा जाते और अपने दिमाग में सुगना को ले आते। कभी वह मनोरमा द्वारा सुबह दिए गए पुरस्कार की प्रतिउत्तर में उसे जीवन का अद्भुत सुख देना चाहते और मनोरमा को चूमने लगते परंतु मनोरमा के होठों को छु पाने की हिम्मत वह अभी नहीं जुटा पा रहे थे। मनोरमा भी आज पुरुष संसर्ग पाकर अभिभूत थी। वह जीवन में यह अनुभव पहली बाहर कर रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह वशीभूत हो चुकी थी। वह अपने होठों से सरयू सिंह के होठों को खोज रही थी। मनोरमा धीरे धीरे अपने पंजों पर उठती चली गई और सरयू सिंह अपने दोनों पैरों के बीच दूरियां बढ़ाते गए और अपने कद को घटाते गए।

जैसे ही मनोरमा के ऊपरी होठों ने सरयू सिह के होठों का स्पर्श प्राप्त हुआ नीचे सरयू सिंह के लंड में उसकी पनियायी बूर् को चूम लिया। मनोरमा का पूरा शरीर सिहर उठा।

सरयू सिंह ने मनोरमा को अपनी तरफ खींचा और मनोरमा ने अपना वजन एक बार फिर अपने पैरों पर छोड़ती गई और सरयू सिह के मजबूत लण्ड को अपने बुर में समाहित करती गयी।

मनोरमा की बुर का अगला हिस्सा पिछले कई वर्षों से प्रयोग में आ रहा था उसने सरयू सिंह के सुपारे को थोड़ी मुश्किल से ही सही परंतु लील लिया। सरयू सिंह ने जैसे ही अपना दबाव बढ़ाया मनोरमा चिहुँक उठी।

सरयू सिंह मनोरमा को बिस्तर पर ले आए और उसकी जाँघे स्वतः ही फैलती गई सरयू सिंह अपने लण्ड का दबाव बढ़ाते गए और उनका मजबूत और तना हुआ लण्ड मनोरमा की बुर की अंदरूनी गहराइयों को फैलाता चला गया।

मनोरमा के लिए यह एहसास बिल्कुल नया था। बुर के अंदर गहराइयों को आज तक न तो मनोरमा की उंगलियां छु पायीं थी और न हीं उसके पति सेक्रेटरी साहब का छोटा सा लण्ड। जैसे जैसे जादुई मुसल अंदर धँसता गया मनोरमा की आंखें बाहर आती गयीं। मनोरमा ने महसूस किया अब वह दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाएगी उसने अपनी कोमल हथेलियों से सरयू सिंह को दूर करने की कोशिश की।

सरयू सिंह भी अपने लण्ड पर मनोरमा की कसी हुई बुर का दबाव महसूस कर रहे थे उन्होंने कुछ देर यथा स्थिति बनाए रखी और मनोरमा के होठों को छोड़कर अपने होंठ उसके तने हुए निप्पल से सटा दिए।

सरयू सिंह के होठों के कमाल से मनोरमा बेहद उत्तेजित हो गई उनकी हथेलियां मनोरमा की कोमल जाँघों और कमर और पेड़ू को सहला रही थी जो उनके लण्ड को समाहित कर फूल चुका था।

जैसे-जैसे मनोरमा सहज होती गयी सरयू सिह का लण्ड और अंदर प्रवेश करता गया। मनोरमा के मुख से चीख निकल गई उसने पास पड़ा तकिया अपने दांतो के बीच रखकर उसे काट लिया परंतु उस चीख को अपने गले में ही दबा दिया। उधर लण्ड के सुपारे ने गर्भाशय के मुख को फैलाने की कोशिश की इधर सरयू सिंह के पेड़ूप्रदेश ने मनोरमा की भग्नासा को छू लिया। मिलन अपनी पूर्णता पर आ चुका था भग्नासा पर हो रही रगड़ मनोरमा को तृप्ति का एहसास दिलाने लगी ।

मनोरमा की कसी हुई बुर का यह दबाव बेहद आनंददायक था। सरयू सिंह कुछ देर इसी अवस्था में रहे और फिर मनोरमा की चुदाई चालू हो गई।

जैसे-जैसे शरीर सिंह का का लण्ड मनोरमा के बुर में हवा भरता गया मनोरंम की काम भावनाओं का गुब्बारा आसमान छूता गया। बुर् के अंदरूनी भाग से प्रेम रस झरने की तरह पर रहा था और यह उस मजबूत मुसल के आवागमन को आसान बना रहा था।

सरयू सिंह पर तो शिलाजीत का असर था एक तो उनके मूसल को पहले से ही कुदरत की शक्ति प्राप्त थी और अब उन्होंने शिलाजीत गोली का सहारा लेकर अपनी ताकत दुगनी करली थी । मनोरमा जैसी काम सुख से अतृप्त नवयौवना उस जादुई मुसल का संसर्ग ज्यादा देर तक न झेल पाई और उसकी बुर् के कंपन प्रारंभ हो गए।

सरयू सिंह स्त्री उत्तेजना का चरम बखूबी पहचानते थे और उसके चरम सुख आकाश की ऊंचाइयों तक ले जाना चाहते थे उन्होंने अपने धक्कों की रफ़्तार में आशातीत वृद्धि कर दी और मनोरमा की चुचियों को चूसने लगे। वह मनोरमा की चुचियों से दूध तो नहीं निकाल पर उनकी सारी मेहनत का फल मनोरमा के बूर् ने दे दिया। मनोरमा झड़ रही थी और उसका शरीर में निढाल पढ़ रहा था।

इसी दौरान बनारस महोत्सव के आयोजन कर्ताओं ने बिजली को वापस लाने का प्रयास किया और कमरे में एक पल के लिए उजाला हुआ और फिर अंधेरा कायम हो गया। बिजली का यह आवागमन आकाशीय बिजली की तरह ही था परंतु सरयू सिंह ने स्खलित होती मनोरमा का चेहरा देख लिया। और वह तृप्त हो गए। मनोरमा ने तो अपनी आंखें बंद की हुई थी परंतु उसे भी यह एहसास हो गया की सरयू सिंह ने उसे पूर्ण नग्न अवस्था में देख लिया है। परंतु मनोरमा अब अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुकी थी। उसके पास अब कुछ न कुछ छुपाने को था न दिखाने को।

सरयू सिंह ने अपना लण्ड बाहर निकाल दिया और मनोरमा के वापस जागृत होने का इंतजार करने लगे। मनोरमा को अपना स्त्री धर्म पता था। जिस अद्भुत लण्ड में उसे यह सुख दिया था उसका वीर्यपात कराना न सिर्फ उसका धर्म था बल्कि यह नियति की इच्छा भी थी। मनोरमा अपने कोमल हाथों से उस लण्ड से खेलने लगी। कभी वह उसे नापती कभी अपनी मुठियों में भरती। अपने ही प्रेम रस से ओतप्रोत चिपचिपे लण्ड को अपने हाथों में लिए मनोरमा सरयू सिंह के प्रति आसक्त होती जा रही थी। सरयू सिंह के लण्ड में एक बार फिर उफान आ रहा था। उन्होंने मनोरमा को एक बार फिर जकड़ लिया और उसे डॉगी स्टाइल में ले आए।

सरयू सिंह यह भूल गए थे कि वह अपने ही भाग्य विधाता को उस मादक अवस्था में आने के लिए निर्देशित कर रहे थे जिस अवस्था में पुरुष उत्तेजना स्त्री से ज्यादा प्रधान होती है। अपनी काम पिपासा को प्राप्त कर चुकी मनोरमा अपने पद और ओहदे को भूल कर उनके गुलाम की तरह बर्ताव कर रही थी। वह तुरंत ही डॉगी स्टाइल में आ गयी और अपने नितंबों को ऊंचा कर लिया । सरयू सिंह अपने लण्ड से मनोरमा की बुर का मुंह खोजने लगे। उत्तेजित लण्ड और चिपचिपी बूर में चुंबकीय आकर्षण होता है।

उनका लंड एक बार फिर मनोरमा की बूर् में प्रवेश कर गया। अब यह रास्ता उनके लण्ड के लिए जाना पहचाना था। एक मजबूत धक्के में ही उनके लण्ड ने गर्भाशय के मुख हो एक बार फिर चूम लिया और मनोरमा ने फिर तकिए को अपने मुह में भर लिया। वाह चीख कर सरयू सिंह की उत्तेजना को कम नहीं करना चाहती थी।

लाइट के जाने से बाहर शोर हो रहा था। वह शोर उन्हें मनोरमा को चोदने के लिए उत्साहित कर रहा था।

सरयू सिंह की चुदाई की रफ्तार बढ़ रही थी। बिस्तर पर जो फूल व सुगना के लिए लाए थे वह मनोरमा के घुटनों और हाथ द्वारा मसले जा रहे थे। फूलों की खुशबू प्रेम रस की खुशबू के साथ मिलकर एक सुखद एहसास दे रही थी।

सरयू सिंह कभी मनोरमा की नंगी पीठ को चूमते कभी अपनी दोनों हथेलियों से उसके दोनों चुचियों को मीसते हैं कभी उसके बालों को पकड़कर मन ही मन एक घुड़सवार की भांति व्यवहार करते। अपने जीवन की इस विशेष उत्तेजना का मन ही मन आनंद लेते लेते सरयू सिंह भाव विभोर हो गए।

इधर मनोरमा दोबारा स्खलन की कगार पर पहुंच चुकी थी। मनोरमा के बूर की यह कपकपाआहट बेहद तीव्र थी। सरयू सिंह मनोरमा को स्खलित कर उसकी कोमल और तनी हुई चुचियों पर वीर्यपात कर उसे मसलना चाह रहे थे। बुर् की तेज कपकपाहट से सरयू सिंह का लण्ड अत्यंत उत्तेजित हो गया और अंडकोष में भरा हुआ वीर्य अपनी सीमा तोड़कर उबलता हुआ बाहर आ गया। मनोरमा के गर्भ पर वीर्य की पिचकारिया छूटने लगीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था बरसों से प्यासी धरती को सावन की रिमझिम में बूंदे भीगों रही थी। मनोरमा की प्यासी बुर अपने गर्भाशय का मुंह खोलें उस वीर्य को आत्मसात कर तृप्त तो हो रही थी।

मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।

नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..

शेष अगले भाग में।
एक बहूत ही अप्रतिम सर्वोत्कृष्ट और उत्तेजक अपडेट है भाई मजा आ गया
सरयूसिंग और मनोरमा मॅडम के प्रथम चुदाई का अविश्वसनीय और मादकता से भरपूर मनमोहक वर्णन
अद्भुत, अद्वितीय अपडेट
 

Sanju@

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भाग 52

मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।


नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..

अब आगे

सरयू सिंह द्वारा की गई जबरदस्त चुदाई से मनोरमा तृप्त हो चुकी थी और उसके गर्भ में सरयू सिंह के खानदान का एक अंश आ चुका था। तृप्ति का भाव मनोरमा और सरयू सिंह दोनों में ही था। जिस प्रेम भाव और अद्भुत मिलन से इस गर्भ का सृजन हुआ था उसने स्वतः ही इस मिलन की गुणवत्ता को आत्मसात कर लिया था। मनोरमा जैसी काबिल मां और सरयू सिंह जैसे विशेष व्यक्तित्व वाले पिता की संतान निश्चित ही विलक्षण होती।

मनोरमा, सरयू सिंह के लण्ड निकालने का इंतजार कर रही थी। सरयू सिंह पूरी तरह स्खलित होने के बावजूद उस मखमली एहसास को छोड़ना नहीं चाह रहे थे। वह अभी भी मनोरमा की पीठ को चूमे जा रहे थे और अपनी हथेलियों से उसकी चुचियों को मीस रहे थे।

शिलाजीत के असर से लण्ड में तनाव अभी भी बना हुआ था। परंतु अंडकोशों ने उसका साथ छोड़ दिया था और ढीले पड़ चुके थे।

वैसे भी वह दोनों द्वारपाल की तरह हमेशा इस क्रीडा में बाहर ही छोड़ दिए जाते थे। वह तो काम कला में दक्ष और पारखी सुगना थी जो इस द्वारपालों को भी अपनी कोमल उंगलियों का स्पर्श देकर उनकी उपयोगिता को बनाए रखती थी। परंतु मनोरमा वह तो अभी कामकला के पहले पायदान पर ही थी। उसने तो यह चरम सुख आज शायद पहली बार प्राप्त किया था।

स्खलित हो जाना ही चरमोत्कर्ष नहीं है। जिस सुख की अनुभूति आज मनोरमा ने की थी वह सामान्य स्खलन से कई गुणा बढ़कर था। मनोरमा के शरीर का रोम रोम अंग अंग सरयू सिंह के इस अद्भुत संभोग का कायल था।

सरयू सिंह अपना लण्ड निकालने के बाद अपनी धोती ढूंढने लगे। थोड़ा प्रयास करने पर उन्होंने अपना धोती और कुर्ता ढूंढ लिया परंतु लंगोट को ढूंढ पाना इतना आसान न था। वह बिजली आने से पहले ही कमरे से हट जाना चाहते थे। मनोरमा से आंखें मिला पाने की उनकी हिम्मत अब नहीं थी। यह अलग बात थी की कामवासना के दौरान उन्होंने उसे कस कर चोदा था परंतु उसके कद और अहमियत को वह भली-भांति जानते थे। सरयू सिंह ने आनन-फानन में अपनी धोती को मद्रासी तरीके से पहना और कुर्ता डालकर कमरे से बाहर आ गए।

मनोरमा अभी भी बिस्तर पर निढाल पड़ी हुई थी। उसकी बुर से रिस रहा वीर्य जांघों पर आ चुका था। मनोरमा के सारे कपड़े बिस्तर पर तितर-बितर थे। बिना प्रकाश के उन्हें ढूंढना और धारण करना असंभव था। वह नग्न अवस्था में लेटी हुई बिजली आने का इंतजार करने लगी। नियत ने मनोरमा को निराश ना किया और जब तक मनोरमा की सांसें सामान्य होतीं बनारस महोत्सव की लाइट वापस आ गई।

मनोरमा ने अपनी जांघों पर लगे वीर्य को पोछने की कोशिश नहीं की। वह सरयू सिंह की चुदाई और उनके प्रेम के हर चिन्ह को सजाकर रखना चाहती थी। उसने फटाफट अपने कपड़े पहने और बिस्तर पर पड़े लाल लंगोट को देख कर मुस्कुराने लगी।

सरयू सिंह ने आज नया लंगोट पहना हुआ था परंतु लंगोट में कसे हुए लण्ड की खुशबू समाहित हो चुकी थी। मनोरमा ने उसे अपने हाथों में उठाया और मुस्कुराते हुये उसे मोड़ कर अपने पर्स में रख लिया। उसके लिए यह एक यादगार भेंट बन चुकी थी।

भरपूर चुदाई के बाद स्त्री का शरीर अस्तव्यस्त हो जाता है। वह चाह कर भी तुरंत अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ सकती। मनोरमा का चेहरा और शरीर अलसा चुका था। उसने अपने बाल ठीक किए और कमरे से बाहर आ गयी पर उसकी हालत कतई ठीक नहीं थी। उसे अभी मीटिंग में भी जाना था। वह अनमने मन से मीटिंग हाल की तरफ बढ़ने लगी तभी उसे सुगना दिखाई दे गयी जो उसके कमरे की तरफ ही आ रही थी।

सुगना ने मनोरमा को देखा और अपने दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।

"अरे मैडम जी इतनी रात को"

"हां सुगना आज मेरी मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी चल रही है"

सुगना ने मनोरमा के ऐश्वर्य भरे चेहरे और कसी हुई काया में आया बदलाव महसूस कर लिया उसने मनोरमा से पूछा

"मैडम जी आपकी तबीयत ठीक है ना? आप काफी थकी हुई लग रही है।"

सुगना ने जो कहा था इसका एहसास मनोरमा को भी था उसने बड़ी सफाई से अपने आप को बचाते हुए बोला..

"अरे सुगना होटल का खाना मुझे सूट नहीं किया पेट भी खराब हो गया है इसी लिए कमरे में आना पड़ा"

सुगना ने मन ही मन मनोरमा की स्थिति का आकलन कर लिया और उस कमरे के उपयोग के औचित्य के बारे में भी अपने स्वविवेक से सोच लिया।

सुगना को संशय में देखकर मनोरमा सोच में पड़ गई कहीं सुगना ने उसकी शारीरिक स्थिति देखकर कुछ अंदाज तो नहीं लगा लिया उसने बात बदलने की कोशिश की..

"तुमने बनारस घूम लिया कि नहीं?"

"अभी है ना दो-तीन दिन घूम लूंगी'

"कल मैं अपनी गाड़ी भेज दूंगी अपने बाबू जी के साथ जाकर बनारस घूम लेना"

सुगना बेहद प्रसन्न हो गई। मनोरमा ने कहा

"तुम उस कमरे में जा सकती हो मैं अब वापस जा रही हूँ।"

मनोरमा अपने मीटिंग हॉल की तरफ बढ़ चली और सुगना कमरे की तरफ।

सुगना मन ही मन घबरा रही थी कि निश्चित ही उसके बाबू जी आज उसका इंतजार करते करते थक चुके होंगे.. परंतु वह क्या कर सकती थी. उसकी मां ने कुछ देर तक उसे सूरज के कंगन में उलझाये रखा तभी बत्ती गुल हो गई थी। अंधेरे में वहां से कमरे तक जाना संभव न था।

जवान स्त्री तब भी मनचलों के आकर्षण का केंद्र रहती थी और आज भी।

पद्मा ने सुगना को लाइट आने तक रोक लिया था।

उधर सरयू सिंह कमरे से बाहर निकलने के पश्चात कुछ दूर पर जाकर खड़े हो गए थे। वह मनोरमा के कमरे से चले जाने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें अपना लंगोट भी लेना था।

उन्हें पूरा विश्वास था कि सुगना अवश्य आएगी। निश्चित ही वह बिजली गुल हो जाने होने की वजह से समय पर नहीं आ पाई थी।

सुगना को कमरे की तरफ आता देख सरयू सिंह सुगना की तरफ बढ़ चले उन्होंने सुगना पर झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा..

"सुगना बाबू कहां रह गईलू हा..?" अपने झूठे क्रोध में यह प्यार सिर्फ सरयू सिंह ही दिखा सकते थे।

सुगना ने अपना सच स्पष्ट शब्दों में बयान कर दिया. सरयू सिंह ने सुगना से कहा

"लागा ता आज देर हो गईल बा तोहार उपहार के भोग आज ना लाग पायी "

सचमुच देर हो चुकी थी सुगना तो पूरी तरह उत्तेजित थी और चुदना भी चाहती थी परंतु इस क्रिया में लगने वाला समय उन दोनों की हकीकत पूरे परिवार के सामने ला देता। खाने के समय न पहुंचने पर कजरी पदमा को लेकर उसे ढूंढती हुई यहां आ जाती।

सुगना ने अपना मन मसोसकर कहा

ठीक बा बाबू जी "काल एहि बेरा (बेरा मतलब समय)"

सरयू सिंह ने सुगना से चाबी मांगी और दरवाजा खोलकर अपना लंगोट ढूंढने लगे।

सुगना ने दरवाजे पर खड़े खड़े पूछा

" ...का खोजा तानी?".

सरयू सिंह क्या जवाब देते जो वह खोज रहे थे वह मनोरमा ले जा चुकी थी।

सुगना और शरीर सिंह धीरे-धीरे वापस पंडाल की तरफ आ रहे थे।

सूरज के परिवार का एक अभिन्न अंग मनोरमा के गर्भ में आ चुका था काश कि यह बात सुगना जान पाती तो अपने गर्भधारण को लेकर उसकी अधीरता थोड़ा कम हो जाती। हो सकता था की सूरज की जिस बहन की तलाश में वह गर्भधारण करना चाह रही थी वह मनोरमा की कोख में सृजित हो चुकी हो….

बनारस महोत्सव के बिजली विभाग के कर्मचारियों की एक गलती ने नियति को नया मौका दे दिया था।

सुगना से मिलने के बाद मनोरमा मीटिंग में पहुंची तो जरूर परंतु उसका मन मीटिंग में कतई नहीं लग रहा था। बिजली गुल होने की वजह से मीटिंग का तारत्म्य बिगड़ गया था और सभी प्रतिभागी घर जाने को आतुर थे।

अंततः मीटिंग समाप्त कर दी गई और मनोरमा एक बार फिर अपने पांच सितारा होटल की तरफ चल पड़ी।

कमरे में पहुंचकर उसने अपने वस्त्र उतारे और अपनी जाँघों और बूर् के होठों पर लगे श्वेत गाढ़े वीर्य के धब्बे को देख कर मुस्कुराने लगी। उसे अपने शरीर और चरित्र पर लगे दाग से कोई शिकायत न थी। उसने सरयू सिंह के साथ हुए इस अद्भुत संभोग को भगवान का वरदान मान लिया था। उसकी काम पिपासा कई वर्षों के लिए शांत हो चुकी थी। वह अपनी फूली और संवेदनशील हो चुकी बुर को अपनी हथेलियों से सहला रही थी और मन ही मन आनंद का अनुभव कर रही थी।

मनोरमा ने अपने हाथ पैर और चेहरे को धुला परंतु स्नान करने का विचार त्याग दिया। सरयू सिंह के वीर्य को अपने शरीर से वह कतई अलग नहीं करना चाह रही थी। अनजाने में ही सही मनोरमा ने पुरुष का वह दिव्य स्वरूप देख लिया था। वह मन ही मन भगवान के प्रति कृतज्ञ थी और इस संभोग को अपने गर्भधारण का आधार बनाना चाह रही थी।

मनोरमा ने अपने इष्ट देव को याद किया और अपने गर्भधारण की अर्जी लगा दी। सरयू सिंह जैसे बलिष्ठ और स्वस्थ पुरुष की संतान निश्चित ही उनके जैसी ही होगी।

मनोरमा के गर्भ से पुत्र होगा या पुत्री इसका निर्धारण नियति ने नियंता के हाथों छोड़ दिया।


बनारस महोत्सव का चौथा दिन……

बनारस महोत्सव के इन 3 दिनों में कथा के दो पात्रों का सृजन हो चुका था एक लाली के गर्भ में और दूसरा एसडीएम मनोरमा के गर्भ में नियति ने इन दोनों पात्रों का लिंग निर्धारण अपनी योजना के अनुसार कर दिया था। परंतु सुगना अभी भी अपने गर्भधारण का इंतजार कर रही थी। कल का सुनहरा अवसर उसने अनायास ही गवां दिया था और सरयू सिंह के प्यार और अद्भुत चुदाई का आनंद लेते हुए गर्भवती का होने का सुख सुगना की जगह मनोरमा ने उठा लिया था।

बनारस महोत्सव के चौथे दिन महिलाओं का एक विशेष व्रत था घर की सभी महिलाओं ने व्रत रखा हुआ था। सुगना भी उस से अछूती न थी। सुगना ही क्या उसकी दोनों छोटी बहनें भी आज व्रत थी सुगना को आज के व्रत का ध्यान ही नहीं आया था। कल शाम उसने अपने बाबू जी से मिलने के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था। परंतु अब यह व्रत... जिसे वह छोड़ नहीं सकती थी।

परंतु व्रत के दौरान संभोग क्या यह उचित होगा? सुगना अपनी अंतरात्मा से एक बार फिर लड़ रही थी।

क्या बनारस महोत्सव का चौथा दिन क्या यूं ही बीत जाएगा?

हे भगवान अब मैं क्या करूं। सुगना ने इससे पहले भी व्रत रखा था परंतु उस दौरान वह संभोग से सर्वथा दूर रही थी। बातों ही बातों में कजरी ने उसे व्रत की अहमियत और व्रत के दौरान पालन किए जाने वाले दिशा निर्देशों की जानकारी बखूबी दी हुई थी। परंतु आज का दिन वह किस प्रकार व्यर्थ जाने दे सकती थी।

यदि वह गर्भवती ना हुई तो?? सुगना की रूह कांप उठी। सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए वह हर हाल में गर्भवती होना चाहती थी।

उसकी अंतरात्मा ने आवाज दी

व्रत के पावन दिन यदि तू संभोग कर गर्भवती होना भी चाहेगी तो भगवान तेरा मनोरथ कभी नहीं पूर्ण करेंगे। हो सकता है तेरे गर्भ में आने वाला तेरी मनोकामना की पूर्ति न कर तुझे और मुसीबत में डाल दे।

सुगना एक बार फिर कांप उठी यदि सचमुच उसके गर्भ में पुत्री की जगह पुत्र का सृजन हुआ तो वह आने वाले समय में सूरज को मुक्ति किस प्रकार दिला पाएगी। क्या उसे स्वयं सूरज से …. इस विचार से ही उसके शरीर में कंपन उत्पन्न हो गए।

"मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी मेरी मजबूरी और मनोदशा को समझ कर वह मुझे माफ कर देंगे सुगना ने खुद को समझाने की कोशिश की"

"यदि भगवान चाहेंगे तो तेरा यह संभोग कल और परसों भी हो सकता है आज व्रत के दिन तुझे निश्चित ही इस से दूर रहना चाहिए।" अंतरात्मा ने फिर अपनी बात रखी।

सुगना चाह कर भी व्रत के नियम तोड़ पाने में स्वयं को असहज महसूस कर रही थी परंतु जैसे-जैसे समय बीत रहा था उसकी अधीरता बढ़ती जा रही थी।

सरयू सिंह को भी महिलाओं के व्रत का पता चल चुका था उनकी उत्तेजना भी व्रत के नाम पर शांत हो चुकी वैसे भी पिछले शाम उन्होंने अपनी मनोरमा मैडम की जी भर कर चुदाई की थी और उनकी कामोत्तेजना कुछ समय के लिए तृप्त हो गई थी।

सुबह-सुबह मनोरमा मैडम की गाड़ी विद्यानंद के पांडाल के सामने आ गई थी। सुगना ने इसकी सूचना पहले ही अपनी मां पदमा और सास कजरी को दे दी थी। सोनी और मोनी दोनों भी बनारस घूमने के नाम से बेहद उत्साहित थी।

सबको बनारस घूमने के कार्यक्रम के बारे में पता था परंतु यह बात सरयू सिंह को पता न थी कल शाम की मुलाकात में वह यह बात सरयू सिंह को बताना भूल गई थी।

पंडाल के सामने गाड़ी खड़ी देख सरयू सिंह उठ कर गाड़ी की तरफ गए उन्हें लगा जैसे मनोरमा मैडम स्वयं आई हैं। उन्हें देखकर ड्राइवर बाहर आया और अदब से बोला

" मैडम ने यह गाड़ी आप लोगों को बनारस घुमाने के लिए भेजी है शायद सुगना मैडम से उनकी बात हुई है"

सरयू सिंह ने पांडाल की तरफ देखा और अपने परिवार की सजी धजी महिलाओं को देखकर वह बेहद भाव विभोर हो उठे।

सोनी और मोनी युवावस्था की दहलीज लांघने को तैयार थी परंतु सरयू सिंह का सारा ध्यान अपनी जान सुगना पर ही लगा था। सुगना के कोमल अंगों को न जाने वह कितनी बार अपने हाथों से नाप चुके थे पर जब जब वह सुगना को देखते उनकी नजरें सुगना के अंगो का नाप लेने लगतीं और उसके अंदर छुपे हुए खजाने की कल्पना कर उनके लण्ड जागृत हो जाता। आज व्रत के भी दिन भी वह अपनी उत्तेजना पर काबू न रख पाए और उनका लण्ड एक बार फिर थिरक उठा।

सरयू सिंह दलबल समेत बनारस दर्शन के लिए निकल चुके थे। सुगना ने लाली को भी अपने साथ ले लिया। महिलाओं का सारा ध्यान बनारस की खूबसूरत बिल्डिंगों को छोड़कर मंदिरों पर था। सबकी अपनी अपनी मनोकामनाएं थी जहां सुगना सिर्फ और सिर्फ सूरज के बारे में सोच रही थी और अपने इष्ट देव से उसकी मुक्ति दाईनी बहन का सृजन करने के लिए अनुरोध कर रही थी वही पदमा अपने सोनू के उज्जवल भविष्य तथा उसके लिए भगवान से नौकरी की मांग कर रही थी।

कजरी भी अपने पुत्र मोह से नहीं बच पाई थी वह भी भगवान से अपने पुत्र रतन की वापसी मांग रही थी। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था।

माता का पुत्र के प्रति प्रेम दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है। यह बात इन तीनों महिलाओं पर लागू हो रही थी परंतु सुगना दुधारी तलवार पर चल रही थी यदि उसकी मांग पूरी ना होती तो सुगना को मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना होता। अपने ही पुत्र के साथ संभोग करने का दंड वह स्वीकार न कर पाती।

अपने अवचेतन मन से उसने अपने इष्ट देव को वह फैसला सुना दिया था। उसने अपने इष्ट देव को यह खुली धमकी दे दी थी यदि उसके गर्भ में पुत्री का सृजन ना हुआ और यदि सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए यदि उसे अपने ही पुत्र से संभोग करना पड़ा तो वह यह निकृष्ट कार्य भी करेगी परंतु उसके पश्चात अपनी देह त्याग देगी।

वह मंदिर मंदिर अनुनय विनय करती रही और अपनी एकमात्र इच्छा को पूरा करने के लिए मन्नतें मांगती रही।

उधर सरयू सिंह भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करते रहे । सरयू सिंह मनोरमा को जी भर कर चोदने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज थे। उन्होंने डॉक्टर की सलाह को झुठला दिया था और उनके निर्देशों के विपरीत जाकर न सिर्फ शिलाजीत का सेवन किया था अपितु एक नौजवान युवती के साथ जी भर कर संभोग किया था और उसे एक नहीं दो दो बार स्खलित किया था। भगवान ने उन्हें एक बार फिर मर्दाना ताकत से भर दिया था।

सभी के पास मांगने के लिए कुछ ना कुछ था परंतु सोनी जो चाहती थी उसे वह मांगना भी नहीं आता था। विकास उसे पसंद तो आने लगा था परंतु इस कच्ची उम्र में वह विकास से कोई रिश्ता नही जोड़ना चाहती थी। और जो वह विकास से चाहती थी उसे भगवान से मांगने का कोई औचित्य नहीं था। सोनी विकास से लिपटकर पुरुष शरीर का स्पर्श एवं आनंद अनुभव करना चाहती थी। वह अपनी चुचियों पर पुरुष स्पर्श के लिए लालायित थी। अपने दिवास्वप्न में वह कभी-कभी पुरुषों के लण्ड के बारे में भी सोचती और अपनी अस्पष्ट जानकारी के अनुसार उसके आकार की कल्पना करती।

अपने भांजे सूरज की नुन्नी सहलाकर उसने नुन्नी का बढ़ा हुआ आकार देखा था और पुरुष लिंग की कल्पना उसी के अनुरूप कर ली थी। परंतु क्या सभी पुरुषों का लिंग उसी प्रकार होता होगा? सोनी के मन में भविष्य को लेकर कई प्रश्न थे? तुरंत सारे प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए थे।

सोनी के ठीक उलट मोनी अभी इस कामवासना की दुनिया से बेहद दूर थी। घर के कामकाज में मन लगाने वाली मुनि धर्म परायण भी थी और एक निहायत ही पारिवारिक लड़की थी अपने संस्कारों से भरी हुई। जब सुगना के कहने पर मोनी ने सूरज के अंगूठे सहलाया था और उसकी बड़ी हुई नुन्नी को अपने होठों से छू कर छोटा किया था वह बेहद शर्मसार थी और फिर कभी सूरज के अंगूठे से ना खेलने का मन ही मन फैसला कर लिया था।

हालांकि यह फैसला कब तक कायम रहता यह तो नियति ही जानती थी। जब जांघों के बीच आग बढ़ेगी कई फैसले उसी आग में दफन हो जाने थे।

इस समय सिर्फ लाली ही की जिसके दोनों हाथों में लड्डू थे उसका पति राजेश उससे बेहद प्यार करता था और अब सोनू के उसके जीवन मे हलचल मचा दी थी। सोनू दो-तीन दिनों से लाली के घर नहीं आया था। लाली की अधीरता भगवान ने समझ ली थी।

मंदिर से बाहर निकलते समय सुगना ने सरयू सिंह के माथे पर तिलक लगाया और उनसे अनुरोध किया…

"बाबूजी कल और कोनो काम मत करब कल हम पूरा दिन आपके साथ रहब । उ वाला होटल ठीक कर लीं जवना में हमनी के पहला बार एक साथ रुकल रहनी जा जब हमार हाथ टूटल रहे।"

सरयू सिह बेहद प्रसन्न हो गए सुगना ने जिस बेबाकी से होटल में रहकर चुदने की इच्छा जाहिर की थी वह उसके कायल हो गए थे।

सरयू सिंह मुस्कुराते हुए बोले

"हां उहे वाला होटल में जवना में तू रात भर तक सपनात रहलु"

सुगना को उस रात की सारी बातें याद आ गई


((("मैं सुगना"

दिन भर की भागदौड़ से मैं थक गई थी। शहर के उस अनजान होटल के कमरे में लेटते ही मैं सो गई। बाबुजी दूसरे बिस्तर पर सो रहे थे.

रात में एक अनजान शख्स मेरी साड़ी और पेटीकोट को ऊपर की तरफ उठा रहा था. पता नहीं क्यों मुझे अच्छा लग रहा था। मैंने अपने घुटने मोड़ लिए। मेरा पेटीकोट मेरी जांघो को तक आ चुका था। पंखे की हवा मेरे जांघों के अंदरूनी भाग को छू रही थी और मुझे शीतलता का एहसास करा रही थी। उस आदमी ने मेरी पेटीकोट को मेरे नितंबों तक ला दिया था। उसे और ऊपर उठाने के मैने स्वयं अपने नितंबों को ऊपर उठा दिया। उस आदमी के सामने मुझे नंगा होने में पता नहीं क्यों शर्म नही आ रही थी। मैं उत्तेजित हो चली थी।

पेटिकोट और साड़ी इकट्ठा होकर मेरी कमर के नीचे आ गए। घुंघराले बालों के नीचे छुपी मेरी बूर उस आदमी की निगाहों के सामने आ गयी।
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उस आदमी का चेहरा मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा था पर उसकी कद काठी बाबूजी के जैसी ही थी। वह आदमी मेरी जाँघों को छू रहा था। उसकी बड़ी बड़ी खुरदुरी हथेलियां मेरे जाँघों को सहलाते हुए मेरी बुर तक पहुंचती पर उसे छू नही रही थीं।

मैं चाहती थी कि वह उन्हें छुए पर ऐसा नहीं हो रहा था। मेरी बुर के होठों पर चिपचिपा प्रेमरस छलक आया था। अंततः उसकी तर्जनी उंगली ने मेरी बुर से रिस रहे लार को छू लिया। उसकी उंगली जब बुर से दूर हो रही थी तो प्रेमरस एक पतले धागे के रूप में उंगली और बूर के बीच आ गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी बुर उस उंगली को अपने पास खींचे रखना चाहती थी।

उंगली के दूर होते ही वह पतली कमजोर लार टूट गयी जिस का आधा भाग वापस मेरी बूर पर आया और आधा उसकी उंगली से सट गया। उस आदमी ने अपनी उंगली को ध्यान से देखा और अपने नाक के करीब लाकर उसकी खुशबू लेने की कोशिश की। और अंततः अपनी जीभ से उसे चाट लिया। मेरी बुर उस जीभ का इंतजार कर रही थी पर उस अभागी का कोई पुछनहार न था। मैं अपनी कमर हिला रही थी मेरी जाघें पूरी तरह फैल चुकी थी ।

अचानक वह व्यक्ति उठकर मेरी चूँचियों के पास आ गया। मेरी ब्लाउज का हुक खुद ब खुद खुलता जा रहा था। तीन चार हुक खुलने के पश्चात चूचियां उछलकर ब्लाउज से बाहर आ गयीं। उस व्यक्ति ने मेरी चूचियों को चूम लिया। एक पल के लिए मुझे उसका चेहरा दिखाई दिया पर फिर अंधेरा हो गया। वह मेरी चुचियों को चूमे जा रहा था। उसकी हथेलियां भी मेरी चुचियों पर घूम रही थी। आज पहली बार किसी पुरुष का हाथ अपनी चुचियों पर महसूस कर मेरी उत्तेजना सातवें आसमान पर पहुंच गई। मेरी बुर फड़फड़ा रही थी। मैंने स्वयं अपनी उंगलियां को अपने बुर के होठों पर ले जाकर सहलाने लगी। मेरी बुर खुश हो रही थी और उसकी खुशी उसके होठों से बह रहे प्रेम रस के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।

अचानक मेरी चूचि का निप्पल उस आदमी के मुह में जाता महसूस हुआ। वह मेरे निप्पलों को चुभला रहा था। मैं कापने लगी। मैने इतनी उत्तेजना आज तक महसूस नहीं की थी।

कुछ देर बाद मैंने उस आदमी को अपनी धोती उतारते देखा। उसका लंड मेरी आंखों के ठीक सामने आ गया यह। लंड तो बाबुजी से ठीक मिलता-जुलता था मैं अपने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाह रही थी। वह मेरे पास था पर मैं उसे पकड़ नहीं पा रही थी। मेरी कोमल हथेलियां ठीक उसके पास तक पहुंचती पर उसे छु पाने में नाकाम हो रही थी।

मैं चाह कर भी उस आदमी को अपने पास नहीं बुला पा रही थी पर उसके लंड को देखकर मेरी बुर चुदवाने के लिए बेचैन हो चली थी। मैं अपनी जांघों को कभी फैलाती और कभी सिकोड़ रही थी।

वह आदमी मेरी उत्तेजना समझ रहा था कुछ ही देर में वह बिस्तर पर आ गया और मेरी जांघों के बीच बैठकर अपनी गर्दन झुका दिया वह अपने होठों से मेरी नाभि को चूम रहा था और हथेलियों से चूचियों को सहला रहा था। मैं स्वयं अपनी हथेलियों से उसके सर को धकेल कर अपनी बुर पर लाना चाहती थी पर जाने यह यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा था । मेरी हथेलियां उसके सर तक पहुंचती पर मैं उसे छू नहीं पा रही थी।

अचानक मुझे मेरी जाँघे फैलती हुई महसूस हुयीं। लंड का स्पर्श मेरी बुर पर हो रहा था बुर से निकल रहा चिपचिपा रस रिश्ते हुए मेरी कोमल गांड तक जा पहुंचा था। मैं उत्तेजना से हाफ रही थी तभी लंड मेरी बुर में घुसता हुआ महसूस हुआ।

मैं चीख पड़ी

"बाबूजी……"

मेरी नींद खुल गई पर बाबूजी जाग चुके थे। उन्होंने कहा

"का भईल सुगना बेटी"

भगवान का शुक्र था। लाइट गयी हुयी थी। मेरी दोनों जाँघें पूरी तरह फैली हुई थी और कोमल बुर खुली हवा में सांस ले रही थी। वह पूरी तरह चिपचिपी हो चली थी मेरी उंगलियां उस प्रेम रस से सन चुकी थी। मैंने सपने में अपनी बुर को कुछ ज्यादा ही सहला दिया था। मेरी चूचियां भी ब्लाउज से बाहर थी।
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मैंने बाबूजी की आवाज सुनकर तुरंत ही अपनी साड़ी नीचे कर दी।

मुझे चुचियों का ध्यान नहीं आया। बाबूजी की टॉर्च जल चुकी थी उसकी रोशनी सीधा मेरी चुचियों पर ही पड़ी। प्रकाश का अहसास होते ही मैंने अपनी साड़ी का पल्लू खींच लिया पर बाबूजी का कैमरा क्लिक हो चुका था। मेरी चुचियों का नग्न दर्शन उन्होंने अवश्य ही कर लिया था। साड़ी के अंदर चुचियां फूलने पिचकने लगीं।

मेरी सांसे अभी भी तेज थीं। बाबू जी ने टॉर्च बंद कर दी शायद वह अपनी बहू की चूँचियों पर टार्च मारकर शर्मा गए थे। उन्होंने फिर पूछा

" सुगना बेटी कोनो सपना देखलू हा का?" उनकी बात सच थी। मैंने सपना ही देखा था पर उसे बता पाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैंने कहा

"हां बाबू जी"

"चिंता मत कर….नया जगह पर नींद ठीक से ना आवेला"

" हा, आप सूत रहीं"

मैंने करवट लेकर अपनी चुचियों को बाबूजी से दूर कर लिया और मन ही मन मुस्कुराते हुए सोने लगी। डर वश मेरी बुर पर रिस आया प्रेमरस सूख गया था।


उपरोक्त यादें भाग 11 से ली गयी हैं))))
वह शर्म से पानी पानी हो गई।

सरयू सिंह सुगना के अंतर्मन को नहीं जान रहे थे परंतु होटल और एकांत दोनों एक ही बात की तरफ इशारा कर रहे थे जिसे वह बखूबी समझ रहे थे। वह बेहद प्रसन्न हो गए और सुगना को अपने सीने से सटा लिया कजरी और पदमा को आते देख इस आलिंगन का कसाव तुरंत ही ढीला पड़ गया और सुगना के द्वारा दिया प्रसाद सरयू सिंह मुंह में डालकर सभी को जल्दी चलने का निर्देश देने लगे।

शाम हो चली थी बनारस महोत्सव में आज धर्म हावी था हर तरफ पूजा-पाठ की सामग्री बिक रही थी लगभग हर पांडाल से शंख ध्वनि और आरती की गूंज सुनाई पड़ रही थी सभी महिलाएं भाव विभोर होकर अपने-अपने इष्ट देव की आराधना कर रही थीं।

बनारस महोत्सव का चौथा दिन पूजा पाठ की भेंट चढ़ गया।

पंडाल की छत को एकटक निहारती सुगना कल के दिन का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। कल का दिन सुगना के लिए बेहद अहम था। कल वह अपने बाबू जी से जी भर कर संभोग करना चाहती थी। और एक नहीं कई बार उनके वीर्य को अपने गर्भाशय में भरकर गर्भवती होना चाहती थी। अपने पुत्र मोह में वो यह बात भूल चुकी थी की डॉक्टर ने सरयू सिंह को संभोग न करने की सलाह दी हुई है।

सुगना की अधीरता को देख नियति भी मर्माहत हो चुकी थी वह सुगना के गर्भधारण को लेकर वह तरह-तरह के प्रयास कर रही थी। सुकुमारी और अपने पूरे परिवार की प्यारी सुगना के गर्भ से सुगना के परिवार की दशा दिशा तय होनी थी..

परंतु नियति निष्ठुर थी सुगना की तड़प को नजरअंदाज कर उसने अपनी चाल चल दी..

शेष अगले भाग में…
वाह रे नियती के खेल जो हर कोई समझ नहीं पाता
सुगना को सुरज को बचाने के लिये जल्द से जल्द गर्भधान की पडी हैं जो सरयूसिंग से हो सकता है उधर नियति ने मनोरमा और लाली को भी गर्भवती करने की मन में ठान ली है
बहुत ही मनोरम और रोमांचक अपडेट है भाई मजा आ गया
अगले धमाकेदार और रोमांचकारी अपडेट की प्रतिक्षा रहेगी
 

sunoanuj

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Mitr next update kab tak aayega…
 

Tiger 786

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50 वां भाग

बनारस महोत्सव का तीसरा दिन

सरयू सिंह आज सुबह से ही उत्साहित थे. सुगना ने अपना वादा पूरा करने के लिए आज शाम का वक्त तय किया था परंतु सरयू सिंह सुबह-सुबह ही नहा धोकर तैयार थे. जब तक सुगना और परिवार की बाकी महिलाएं तैयार होकर आती सरयू सिंह पंडाल के सात्विक नाश्ते को छोड़कर बाहर से कचोरी और जलेबी ले आए वह सुगना के लिए विशेष तौर पर मोतीचूर का लड्डू भी ले आए जो सुगना को बेहद पसंद था। अपनी बहू का ख्याल रखना वह कभी नहीं भूलते थे और आज तो वैसे भी विशेष दिन था.

कजरी सरयू सिंह की भावनाओं को पूरी तरह पहचानती थी और उनकी नस नस से वाकिफ थी। सरयू सिंह के उतावले पन और बार-बार सुगना के करीब आने से वह अंदाज लगा रही थी की सरयू सिंह और सुगना निश्चित ही आज मिलने वाले थे। कजरी को भी मनोरमा के कमरे और उसकी चाबी सुगना के पास होने की जानकारी थी। उस कमरे की उपलब्धता ने कजरी की सोच को बल दे दिया था। बनारस महोत्सव के इस पावन अवसर पर दोनों पूर्ण संभोग करेंगे ऐसा तो कजरी ने नहीं सोचा था पर मुखमैथुन और हस्तमैथुन उन दोनों के बीच बेहद सामान्य को चला था।

सुबह के नाश्ते के पश्चात लाली और राजेश अपने बच्चों के साथ अपने घर चले गए। सोनू को भी अपने दोस्तों की याद आई और वह उनसे मिलने चला गया.

सरयू सिंह सुगना को लगातार ताड़ रहे थे जो अपनी दोनों बहनों के साथ अपनी उम्र को भूलकर हंस खेल रही थी। अपनी छोटी बहनों के साथ खेलते हुए सुगना सचमुच एक भरे पूरे बदन की किशोरी लग रही थी। कोमल और मासूम चेहरा उसके गदराए जिस्म से मेल नहीं खा रहा था.. सरयू सिंह की भरपूर चुदाई से उसके फूले हुए नितंब चीख चीख कर उसके युवती होने की दुहाई दे रहे थे परंतु सुगना के चेहरे की मासूमियत विरोधाभास पैदा कर रही थी।

तभी विद्यानंद के एक चेले ने हॉल में आकर आवाज लगाई सरयू सिंह और कजरी महात्मा जी आप लोगों को बुला रहे हैं.

पिछली दोपहर सरयू सिंह ने विद्यानंद से मिलने की बहुत कोशिश की परंतु सफल न हुए। हार कर उन्होंने खत लिख कर विद्यानंद के चेले को पकड़ा दिया। शाम तक विद्यानंद की तरफ से कोई बुलावा ना आने पर उनका स्वाभिमान आड़े आने लगा।

सरयू सिंह सोच रहे थे ...यदि वह उनका भाई बिरजू था तो उसे उन्हें इतना इंतजार नहीं कराना था। खत में उन्होंने साफ-साफ अपना नाम पता लिखा हुआ था और यदि वह बिरजू नहीं था तो विद्यानंद से मिलने का कोई औचित्य भी न था। सरयू सिंह वैसे भी ऐसे भौतिक महात्माओं पर ज्यादा विश्वास नहीं करते थे.

परंतु अब आमंत्रण आ चुका था। सरयू सिंह और कजरी दोनों विद्यानंद से मिलने चल पड़े..

विद्यानंद के कमरे में प्रवेश करते ही सरयू सिंह और कजरी विद्यानंद के आलीशान कक्ष की शोभा से मोहित हो गए। सरयू सिंह तो इन भौतिक चीजों में ज्यादा विश्वास नहीं रखते थे पर

ऐश्वर्य की अपनी चमक होती है। आप ना चाहते हुए भी उससे अभिभूत हो जाते हैं।

वही हाल सरयू सिंह का था उनकी निगाहें बरबस ही कमरे की साज-सज्जा पर जा रही थी। एक पल के लिए उनका ध्यान विद्यानंद से हटकर उस कमरे की भव्यता में खो गया था परंतु कजरी विद्यानंद को देखे जा रही थी उसे भी अब एहसास हो रहा था कहीं यह रतन के पिता तो नहीं।

विद्यानंद अपने आसन से उठ कर खड़े हो गए

"आओ सरयू"

इनके इस अभिवादन ने सरयू सिंह और कजरी के मन में उठ रहे संदेशों को खत्म कर दिया। उनका यह अंदाज ठीक वैसा ही था जैसे वह अपनी युवावस्था में अपने छोटे भाई सरयू सिंह को बुलाया करते थे। सरयू सिंह एक पल के लिए भाव विभोर हो गए और तेज कदमों से चलते हुए विद्यानंद के गले जा लगे।

कृष्ण और सुदामा का यह मिलन नियति देख रही थी। विद्यानंद ने सांसारिक जीवन से अपना मोह भंग कर लिया था यह उसके आलिंगन से साफ साफ दिखाई पड़ रहा था परंतु सरयू सिह के आलिंगन में आज भी आत्मीयता झलक रही थी। उनकी मजबूत बाहों की जकड़ विद्यानंद महसूस कर पा रहे थे। सरयू सिंह के अलग होते ही कजरी की बारी आई।

कजरी वैसे तो अपने पति से नफरत करती थी परंतु आज विद्यानंद जिस रूप में उसके सामने खड़े थे वह उनका अभिवादन करने से स्वयं को ना रोक पायी और झुक कर उनके चरण स्पर्श करने की कोशिश की।

परंतु विद्यानंद पीछे हट गए और और स्वयं आगे झुक कर कजरी को प्रणाम किया तथा अपने चेहरे पर संजीदा भाव लाकर बोले

" देवी मुझे क्षमा कर देना मैंने आपके साथ जो किया वह मेरी नासमझी थी परंतु नियति का लिखा कोई मिटा नहीं सकता मुझसे वह अपराध होना था सो हो गया। हो सके तो मुझे माफ कर देना।"

कजरी निरुत्तर थी इतना बड़ा महात्मा उसके सामने अपने दोनों हाथ जोड़े से क्षमा मांग रहा था कजरी ने अपनी मधुर आवाज में कहा

"शायद हम सभी के भाग्य में यही लिखा था"

विद्यानंद ने सहमति में अपना सर हिलाया और सरयू सिंह तथा कजरी को बैठने का इशारा किया।

कजरी के माथे पर चमकता हुआ सिंदूर और चेहरे का सुकून देखकर विद्यानंद को एक पल के लिए यह एहसास हुआ जैसे कजरी और सरयू सिंह ने एक दूसरे से विवाह कर लिया हो ।

विद्यानंद का आकलन सही था वैसे भी सरयू सिंह और कजरी विवाह न करते हुए भी एक दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और एक सुखद दांपत्य जीवन का आनंद ले रहे थे।

विद्यानंद ने सरयू सिंह से खुलकर बातें की और अपने बचपन को याद किया कजरी का जिक्र भी स्वाभाविक तौर पर आ रहा था गांव के छोटे बड़े सभी व्यक्तियों का समाचार सुनकर विद्यानंद अपने युवा काल और बचपन को याद कर रहे थे।

तभी विद्यानंद ने कजरी से पूछा..

बच्चे कहां हैं अब तो सब बड़े हो गए होंगे ..

"हां, आपका एक बेटा है जो मुंबई में है.".

सरयू सिंह ने उत्तर दिया पर विद्यानंद को यह बात समझ ना आयी। उन्होंने कजरी के साथ संभोग अवश्य किया था परंतु उन्हें कतई उम्मीद न थी की कजरी गर्भवती हो गई होगी। विद्यानंद ने इस पचड़े में ज्यादा पड़ना उचित नहीं समझा।

अचानक विद्यानंद का ध्यान सरयू सिंह के माथे के दाग पर चला गया जो निश्चित ही अपना आकार कुछ कम कर चुका था परंतु अब भी वह स्पष्ट तौर पर अपने अस्तित्व का एहसास करा रहा था। बालों के हटने से वह दिखाई पड़ने लगा।

विद्यानंद ने उस दाग को देखकर असहज हो गए और कजरी से कहा..

"देवी अब आप जा सकती हैं मुझे सरयू से एकांत में कुछ बातें करनी है।"

कजरी को यह बात बुरी लगी परंतु विद्यानंद से न उसे कोई उम्मीद थी और नहीं कभी भविष्य में मिलने की इच्छा वह कमरे से बाहर आ गई।

विद्यानंद उठकर सरयू के पास आए और अपने उंगलियों से उनके बाल को हटाकर उस दाग को ध्यान से देखाऔर बोला..

"सरयू तूने पाप किया है"

"नहीं बिरजू भैया ऐसी कोई बात नहीं है"

"तेरे माथे पर यह दाग तेरे पाप का ही प्रतीक है। यह क्यों है यह मैं तुझे नहीं बता सकता परंतु इतना ध्यान रखना नियति सारे पापों का लेखा जोखा रखती है तू जितना इस पाप से दूर रहेगा तेरे लिए उतना ही अच्छा होगा।"

विद्यानंद की बात सुनकर सरयू सिंह का दिमाग खराब हो गया। यह दाग उन्हें बेहद खटकने लगा। विद्यानंद ने अपनी नसीहत देकर उन्हें मायूस कर दिया। सरयू सिह को यह बात पता थी कि इस दाग का सीधा संबंध सुगना से था और सुगना उनकी जान थी।

वह चाह कर भी उसके यौवन और प्रेम के आकर्षण से विमुक्त नहीं हो पा रहे थे। कितनी अल्हड़ नवयौवना थी सुगना और उनसे कितना प्यार करती थी? उम्र के अंतर को भूलकर वह उनकी गोद में फुदकती थी और उनका लण्ड खुद-ब-खुद सुगना की बूर् खोज लेता। इतना सहज और मधुर संभोग कैसे प्रतिबंधित हो सकता है? सरयू सिंह ने अब और देर करना उचित न समझा और उठकर खड़े हो गए। उन्होंने विद्यानंद को प्रणाम किया और कहा भैया अब मैं चलता हूं।

विद्यानंद ने एक बार फिर से सरयू सिह को अपने आलिंगन में लिया और अपना सर उसके कान के पास ले जाकर कहा

"मनुष्य का नियंत्रण यदि दिमाग करें तो प्रगति दिल करे तो आत्मीयता और संबंध और यदि नियंत्रण कमर के नीचे के अंग करने लगे तो मनुष्य वहशी हो जाता है।उसे ऊंच-नीच और पाप पुण्य का अंतर दिखाई नहीं पड़ता । मैं सिर्फ इतना कहूंगा मेरी बात को ध्यान रखना और अपने आने वाले जीवन को सुख पूर्वक व्यतीत करना जिस दिन तुम्हें इस दाग के रहस्य पता चलेगा तुम्हें असीम कष्ट होगा। मैं प्रार्थना करूंगा कि यह दाग इसी अवस्था में सीमित रह जाए और तुम्हें इस जीवन में इसका रहस्य पता ना चले।"

"ठीक है भैया"

सरयू सिह अब बाहर निकलने के लिए अधीर हो चुके थे। इस दाग ने उनके बड़े भाई बिरजू को उन्हें नसीहत देने की खुली छूट दे दी थी और वह चाह कर भी उसका जवाब नहीं दे पा रहे थे।

यह तो उन्हें भी पता था की दाग का सीधा संबंध सुगना से था और शुरुआती दिनों में जिस तरह से उन्होंने सुगना के पुत्र मोह की लालसा को एक अस्त्र के रूप में प्रयोग कर सुगना की अद्भुत कामकला को विकसित किया था तथा जी भर कर उसके यौवन का आनंद लिया था बल्कि अब भी ले रहे थे। इतना ही नहीं उन्होंने उसके साथ कजरी को भी अपने इस वासना चक्र में शामिल कर लिया था।

सरयू सिंह विद्यानंद के कक्ष से बाहर आ गए उनका मूड खराब हो चुका था। बाहर सुगना और कजरी उनका इंतजार कर रहे थे सुनना चहकती हुई उनके पास आई और बोली..

"बाबू जी महात्मा जी का कह तले हा?@

"सुगना बेटा छोड़ ई सब कुल फालतू आदमी हवे लोग"

"अपना दाग के बारे में ना पूछनी हां?"

सरयू सिंह ने कोई उत्तर न दिया वह इस विषय पर और बातें नहीं करना चाह रहे थे। वह धीरे धीरे पांडाल के उसे हिस्से में आ गए जहां पर उनकी बैठकर लगा करती थी….

सुबह के कुछ घंटे सरयू सिंह ने अपनी सुगना के साथ बड़े अच्छे से व्यतीत किए थे परंतु विद्यानंद से हुई मुलाकात ने उनका दिमाग पूरी तरह खराब कर दिया था अब उन्हें उस अवसाद से निकलना था। तभी एक संदेश वाहक चौकीदार सरयू सिह को खोजता हुआ आया और बोला

"सरयू भैया बधाई हो आपकी पदोन्नति हो गई है"

सरयू सिंह की खुशी का ठिकाना ना रहा। इस पदोन्नति के लिए वह बेहद आशान्वित थे। मनोरमा मैडम ने उनके पदोन्नति के कागज पर दस्तखत कर बनारस महोत्सव के आयोजन में उनके योगदान का प्रतिफल दे दिया था। उन्होंने पूछा

" मनोरमा मैडम कहां है?"

"सेक्टर ऑफिस में बैठी हैं चाहे तो चल कर मिठाई खिला आइए"

एक पल में ही सरयू सिंह के सारे अवसाद दूर हो गए।

जैसे तेज हवा आकाश पर छा रहे छुटपुट बादलों को बहा ले जाती हैं उसी तरह पदोन्नति की खुशी ने सरयू सिंह को विद्यानंद की बातों से हुए अवसाद से बाहर निकाल लिया । वह भागकर मिठाई की दुकान पर गए और मिठाई का डिब्बा लिए एक बार फिर पंडाल में आए। कजरी और सुगना दोनों बेहद प्रसन्न हो गए थे। सरयू सिंह की पदोन्नति मे वो दोनों निश्चित ही विद्यानंद के चमत्कारी प्रभाव का अंश मान रहे थे वरना जिस पदोन्नति की आशा सरयू सिंह पिछले एक-दो वर्षों से कर रहे थे वह अचानक यू हूं कैसे घटित हो गया?

बहुत ही घटनाएं अपनी रफ्तार और समय से घटती है पर जब यह खबर आपको प्राप्त होती है उस समय आपकी मनो अवस्था और परिस्थितियां उसके लिए कर्ता की तलाश कर लेतीं है और निश्चित ही वह कर्ता दिव्य शक्तियों वाला कोई विशेष होता है चाहे वह भगवान हो या कोई महात्मा…

अपनी जानेमन सुगना को मिठाई खिलाते हुए सरयू आज आज अपनी खुशकिस्मती पर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा कर रहे आज के दिन में दोहरी खुशी मिलने वाली थी।

सरयू सिंह लंबे लंबे कदम भरते हुए मनोरमा के अस्थाई ऑफिस जा पहुंचे मनोरमा उन्हें मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए अपनी तरफ आता दे उनका मंतव्य समझ चुकी थी अपने होठों पर खूबसूरत मुस्कुराहट लिए उनके आने का इंतजार करने लगी

"मैडम जी आपने हमको इस लायक समझा आपका आभार"

एक आभावान और बलिष्ठ शरीर का अधेड़ मार्ग पूर्ण कृतज्ञ भाव से मनोरमा के सामने अपना आभार प्रकट कर रहा था मनोरमा के चेहरे पर प्रसन्नता थी उसने सरयू सिंह से कहा..

आपका यह प्रमोशन आपकी काबिलियत की वजह से है मेरा इसमें कोई योगदान नहीं है।

"मैडम यह आपका बड़प्पन है लीजिए मुंह मीठा कीजिये।"

सरयू सिंह के मन में मनोरमा के प्रति बेहद आदर और सम्मान का भाव आया। नारी के इस रूप से सरयू सिंह कतई रूबरू न थे। आज तक जितनी भी स्त्रियों से उनकी मुलाकात हुई थी वह हमेशा उन पर भारी पड़े थे भगवान द्वारा दिए हुए सुंदर और सुडौल शरीर में न जाने उन्होंने कितनी महिलाओं का दिल जीता था और कितनों के दिलों में हूक पैदा की थी। परंतु मनोरमा को सम्मान देने से वह खुद को ना रोक पाए।

सरयू सिंह के पूरे परिवार में हर्ष और उल्लास का माहौल बन गया पदमा कजरी सोनी मोनी सभी शरीर से उनकी पदोन्नति की खुशियां मनाने लगे शरीर सिंह ने भी ढेर सारी मिठाइयां और सभी के लिए कुछ न कुछ मनपसंद सामग्री खरीद कर सबका मन मोह लिया। सरयू सिंह आज परिवार में एक हीरो की तरह दिखाई पड़ रहे थे और सुगना उन पर न्योछावर होने को तैयार थी उसे अपने निर्णय पर कोई अफसोस ना था उसने आज अपने दूसरे छेद को अपने प्यारी बाबूजी को भेट देने की ठान ली थी।

शाम का इंतजार जितना सरयू सिंह को था उतना ही सुगना को भी...


अपराहन 3:00 बजे

बनारस महोत्सव के पास का पांच सितारा होटल

आज सेक्रेटरी साहब एक बार फिर अपनी रौ में थे। वह अपनी कल की गई गलती को दोबारा नहीं दोहराना चाह रहे थे । उन्होंने आज मनोरमा को खुश करने की ठान ली थी।

आखिर पत्नी धर्म निभाना भी पति का कर्तव्य होता है और पत्नी की जांघों के बीच उस जादुई अंग को उत्तेजित कर पत्नी को चरम सुख देना भी उतना ही आवश्यक है जितना एक सेक्रेटरी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन।

मनोरमा खाना खाने के पश्चात बिस्तर पर आराम कर रही थी और सेक्रेटरी साहब उसके खूबसूरत शरीर को निहारते हुए उसे अपने करीब खींचने का प्रयास कर रहे थे। मनोरमा की नींद खुल चुकी थी परंतु वह सेकेट्री साहब के उत्तेजक भाव को पढ़ने का प्रयास कर रही थी।

मनोरमा की नाइटी ऊपर उठती जा रही थी और पतले चादर के नीचे उसके कोमल अंग नग्न होते जा रहे थे। सेक्रेटरी साहब उसकी भरी-भरी चुचियों को चूमते चूमते सरकते हुए नीचे आते गए और मनोरमा की फूली हुई बुर पर उन्होंने अपने होंठ टिका दिए।

मनोरमा लगभग ऐंठ गई। उसने अपनी जांघें सिकोड लीं। विरोधाभास का आलम यह था कि दिमाग जांघों को खोलने का इशारा कर रहा था परंतु बुर की संवेदना जांघों को करीब ला रही थी। सेक्रेटरी साहब पूरी अधीरता से मनोरमा की बूर को चूसने लगे।

जांघों के बीच का वह त्रिकोण पुरुषों का सबसे पसंदीदा भाग होता है। अपने गालों को मनोरमा की जाँघों से सटाते हुए सेक्रेटरी साहब स्वयं अपनी उत्तेजना को चरम पर ले आये। और उनका छोटा सा लण्ड एक बार फिर तन कर खड़ा हो गया।

वह बार-बार उसे शांत कर अपनी उत्तेजना को कम करने का प्रयास करते परंतु मनोरमा की गुदांज और चिकनी कसी हुयी बूर उनके लण्ड में जबरदस्त जोश भर दे रही थी। मनोरमा तड़प रही थी और अपने पति के बालों को सहला रही थी उसका भग्नासा फुल कर लाल हो चुका था।

स्त्री उत्तेजना को पूरी तरह समझना बरमूडा ट्रायंगल के रहस्य को समझने जैसा है। सेक्रेटरी साहब ने इतनी पढ़ाई और अनुभव हासिल करने के बाद भी मनोरमा की उत्तेजना का आकलन करने की क्षमता को प्राप्त नहीं किया था उन्हें यह आभास हो गया की अब कुछ ही देर की चुदाई में मनोरमा स्खलित हो जाएगी। उन्होंने अपने होठों को बुर से हटाया और एक बार फिर अपने तने हुए छोटे से लण्ड को मनोरमा की बुर से सटाकर उसके ऊपर चढ़ गए।

मनोरमा ने भी अपनी जाँघे फैला कर अपने पति का स्वागत किया और उत्तेजना से कांपते हुए उनके धक्कों का आनंद लेने लगी। वह अपनी उंगलियों से अपनी भग्नासा को छूने का प्रयास करती परंतु यह इतना आसान न था। सकेट्री साहब का मोटा पेट मनोरमा की उंगलियों को उसकी भग्नासा तक पहुंचने से रोक रहा था।

सेक्रेटरी साहब अधीर हो रहे थे मनोरमा की फूली हुई और की चिपचिपी हुई बुर में अपना लण्ड डालकर वह उसे गचागच चोद रहे थे और उसकी फूली हुई चुचियों को होठों से चूसकर उसे चरम सुख देने का प्रयास कर रहे थे।

मनोरमा जैसी मदमस्त युवती की चुचियों को चूस कर जितना वह उसे उत्तेजित करने का प्रयास कर रहे थे उससे ज्यादा उत्तेजना अपने मन में लेकर वह मनोरमा को चोद रहे थे लण्ड और बुर कि इस मधुर मिलन में अंततः सेक्रेटरी साहब अपनी उत्तेजना पर एक बार फिर काबू नहीं रख पाए और उनके लण्ड ने मनोरमा की बुर पर एक बार फिर उल्टियां कर दी।

मनोरमा तड़प कर रह गई वह बेहद खुश थी। आज वह अपने चरम सुख के ठीक करीब पहुंच चुकी थी परंतु सेक्रेटरी साहब स्खलन के ठीक पहले निढाल पड़ गए थे। मनोरमा को यदि उस चर्म दंड का स्पर्श कुछ पलों के लिए और प्राप्त होता तो वह आज जी भर कर झड़ती और अपने पति से संसर्ग का आनंद समेटे हुए अगले कई महीनों के लिए इस सुखद क्षण को अपने मन में संजोए अपने पति धर्म को निभाने के लिए तैयार रहती।

परंतु मनोरमा की उत्तेजना एक बार फिर अपने अंजाम तक न पहुंच पाई घड़ी की सुईओ ने एक बार फिर टन टन... टन कर 5:00 बजने का इशारा किया। मनोरमा को याद आया कि आज उसका ड्राइवर नहीं आएगा उसने अपने पति से कहा..

"मुझे बनारस महोत्सव तक छुड़वा दीजिए मेरा ड्राइवर आज नहीं आएगा"

सेक्रेटरी साहब मनोरमा से नजरे मिला पाने की स्थिति में नहीं थे। वह इस प्रेम के खेल में लगातार दूसरी बार पराजित हुए थे। उन्होंने मनोरमा के छोटे से अनुरोध को सहर्ष स्वीकार कर लिया। समय की कमी के कारण मनोरमा ने आज स्नान नहीं किया अपनी जांघो और बुर पर गिरे वीर्य को उसने सेकेट्री साहब की बनियाइन से पोछा। समयाभाव के कारण स्नान संभव न था। उसने मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि वह मीटिंग के बाद बनारस महोत्सव में अपने कमरे में जाकर स्नान कर लेगी।

मनोरमा फटाफट तैयार हुई और अपने पर्स में एक पतली सी टॉवल डालकर कमरे से बाहर आ गई और सीढ़ियां उतरती हुई होटल के रिसेप्शन की तरफ बढ़ने लगी सेक्रेटरी साहब का ड्राइवर अपनी मेम साहब का इंतजार कर रहा था।

उधर सरयू सिंह और सुगना सूर्यास्त की प्रतीक्षा में थे सरयू सिंह मनोरमा के कमरे की चाबी लेकर उसकी साफ सफाई कर आए थे और सुगना की पसंद के कई फूल रख आए थे।

मनोरमा के इस कमरे में आज सुगना और सरयू सिंह के अरमान पूरे होने वाले थे।

सुगना अपने पुत्र के लिए उसे मुक्ति दिलाने वाली पुत्री की लालसा में गर्भवती होना चाहती थी और सरयू सिंह इच्छा का मान भी रखना चाहती थी।

इसका उपाय न तो सुगना को सूझ रहा और न नियति को….


शेष अगले भाग में।
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Tiger 786

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भाग -51
सरयू सिंह और सुगना सूर्यास्त की प्रतीक्षा में थे सरयू सिंह मनोरमा के कमरे की चाबी लेकर उसकी साफ सफाई कर आए थे और सुगना की पसंद के कई फूल रख आए थे।


मनोरमा के इस कमरे में आज सुगना और सरयू सिंह के अरमान पूरे होने वाले थे।

सुगना अपने पुत्र के लिए उसे मुक्ति दिलाने वाली पुत्री की लालसा में गर्भवती होना चाहती थी और सरयू सिंह इच्छा का मान भी रखना चाहती थी।

इसका उपाय न तो सुगना को सूझ रहा और न नियति को….


अब आगे

बनारस महोत्सव का तीसरा दिन शाम 6 बजे...


सूर्य क्षितिज में विलीन होने को तैयार था दिन भर अपनी आभा से बनारस महोत्सव को रोशन करने वाला अब थक चुका था परंतु रंगीन शाम में अब युवा हृदय जवान हो रहे थे। जैसे-जैसे शाम की आहट बनारस महोत्सव में हो रही थी सुगना की सिहरन बढ़ती जा रही थी। वह अपने मन में तरह-तरह की रणनीति बना रही थी कि किस प्रकार अपने बाबू जी को अपनी कामकला से अपनी प्यासी बुर के अंदर ही स्खलित करा दिया जाए।

ऐसा नहीं था कि वह अपने बाबू जी को दिया वादा पूरा नहीं करना चाहती थी परंतु उसकी प्राथमिकता अलग थी और सरयू सिंह की अलग। यदि वह सरयू सिंह को सूरज की मुक्ति दायिनी बहन के बारे में बता पाती तो सरयू सिंह अपनी जान पर खेलकर भी उसे जी भर कर चोदते और गर्भवती अवश्य करते.

परंतु नियति को यह मंजूर नहीं था विद्यानंद की बातों को सुगना ने अक्षरसः आत्मसात कर लिया था और वह उस बात को किसी से साझा नहीं कर सकती थी। विद्यानंद का चमत्कार उसने देख लिया था और वह उनकी बातों से पूरी तरह आश्वस्त थी।

सुगना ने खूबसूरत सा लहंगा और चोली धारण किया और सज धज कर चुदने के लिए तैयार हो गयी। उधर सरयू सिंह अपने सामान की पोटली में शिलाजीत की दूसरी गोली को खोज रहे थे जो वह बड़ी उम्मीदों से बनारस महोत्सव में छुपा कर ले आए थे।

अधीरता और व्यग्रता सामान्य कार्य को भी दुरूह बना देती है। सरयू सिंह अपना पूरा सामान उलट-पुलट रहे थे परंतु वह दिव्य गोली उन्हें दिखाई न पड़ रही थी।

कजरी और पदमा ने उनकी व्यग्रता देखकर उनकी मदद करने की सोची कजरी ने पास जाकर कहा

"कुंवर जी का खोजा तानी?"

सरयू सिंह झेंप गए और बोले

"कुछ भी ना" पदमा पास में ही खड़ी थी वह किस मुंह से उस गोली का नाम लेते जिसको खाकर वह उसकी ही पुत्री के साथ अनैतिक और अप्राकृतिक कृत्य करने जा रहे थे।

पदमा और कजरी के जाने के बाद सरयू सिंह ने एक बार फिर बिखरे हुए सामानों पर ध्यान लगाया और वह छोटी सी दिव्य गोली उन्हें दिखाई पड़ गई।

देर हो रही थी। उन्होंने बिना पानी ही वह गोली लील ली।

सरयू सिंह वक्त के बेहद पाबंद थे और गोली के असर को वह किसी भी सूरत में कम नहीं करना चाह रहे थे और सुगना से मिलन के दौरान अपने लिंग की अद्भुत उत्तेजना का आनंद सुगना को देना चाह रहे थे। उन्हें शायद यह भ्रम था कि इस अप्राकृतिक मैथुन का सुगना भी उसी तरह आनंद लेगी जैसे उसने अपनी पहली चुदाई का लिया था।

कुछ देर बाद पदमा, सोनी और मोनी को लेकर बाहर बाजार में घूम रही थी। सूरज की उपस्थिति से प्रेम कीड़ा में बाधा आ सकती थी। सुगना ने सूरज को कजरी के हवाले किया और बोली

"मां थोड़ा बाबू के पकड़ हम सोनी मोनी खातिर कुछ सामान खरीदे जा तानी"

सुगना उन्मुक्त होकर सूरज की मुक्तिदाता का सृजन करने अपने मन में उत्तेजना और दिमाग में डर लिए मनोरमा के कमरे की तरफ चल पड़ी।

उधर बनारस महोत्सव में मनोरमा की मीटिंग आज ज्यादा लंबी चलने वाली थी। मीटिंग प्रारंभ हुए लगभग एक घंटा बीत चुका था। मीटिंग में भाग लेने वाले सभी अधिकारियों का चेहरा उतर गया था। सभी जलपान के लिए मीटिंग में ब्रेक चाह रहे थे। मनोरमा को जलपान से ज्यादा स्नान की आवश्यकता थी। सेक्रेटरी साहब का वीर्य उसकी जांघों पर सूख चुका था और मनोरमा को असहज कर रहा था।

जैसे ही मीटिंग में जलपान के ब्रेक का अनाउंसमेंट हुआ मनोरमा तेज कदमों से चलती हुई अपने कमरे की तरफ चल पड़ी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह इस समय का उपयोग स्नान करके स्वयं को तरोताजा कर लेगी।

अंधेरा हो चुका था घड़ी में 7:00 बज चुके थे मनोरमा अपने कमरे के दरवाजे पर पहुंची और ताला खोलकर अंदर प्रवेश कर गई. अस्थाई निर्माण अस्थाई ही होता कमरे का दरवाजा अंदर से बंद नहीं हो पा रहा था उसने बड़ी मुश्किल से चटकानी चढ़ाने की कोशिश की परंतु वह उसे बड़ी मुश्किल से उसे फंसा पाई। दरवाजा ठीक से बंद नहीं हुआ हल्का सा धक्का देने पर वह दरवाजा खुल जाता।

अंदर का कमरा आज बेहद खूबसूरती से सजा हुआ था बिस्तर पर कुछ मनोरम फूल भी रखे हुए थे जिसकी सुगंध कमरे में व्याप्त थी। मनोरमा को अपने निर्णय पर कोई अफसोस नहीं था उसने इस कमरे की चाबी सरयू सिंह और उनकी बहु सुगना को देकर कोई गलती नहीं की थी।

मनोरमा के पास समय कम था उसने चिटकिनी के ठीक से बंद ना होने की बात पर ज्यादा ध्यान न दिया। वैसे भी उसके कमरे में आने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता था। सरयू सिंह और उनका परिवार ताला खुला देख कर किसी हाल में अंदर प्रवेश नहीं करता। मनोरमा अपने वस्त्रों को करीने से उतारती गई और उन्हें सहेजकर रखती गयी।यही वस्त्र उसे स्नान के बाद पुनः पहनने थे।

पूर्ण तरह निर्वस्त्र होकर वह बाथरूम में प्रवेश कर गयी और झरने को चालू कर स्नान करने लगी।

नियति मनोरमा की मनोरम काया देकर मंत्रमुग्ध हो गई। मनोरमा के हाथ उसके कोमल पर कसे हुए शरीर पर तेजी से चल रहे थे। अपनी जांघों पर हाथ फेरते हुए मनोरमा के हाथों में सेक्रेटरी साहब का सूखा हुआ वीर्य लग गया जो अब लिसलिसा हो चला था।

उस वीर्य को अपने शरीर से हटाने की कोशिस में मनोरमा अपनी जांघों और बुर् के होठों को सहलाने लगी। ज्यों ज्यों मनोरमा की उंगलियां बुर् के होठों को छूती उसके शरीर में सिहरन बढ़ जाती है और न चाहते हुए भी वह उंगलियां दरारों के बीच अपनी जगह तलाशने लगती। एक पल के लिए मनोरमा यह भूल गई कि वह यहां मीटिंग से उठकर स्नान करने आई है न की अपनी प्यासी बुर को उत्तेजित कर स्खलित होने।

परंतु जब तक उसके मन में यह ख्याल आता उसकी बूर् की संवेदना जागृत हो चुकी थी। मनोरमा ने अपने कर्तव्य के आगे अपने निजी सुख को अहमियत न दी और बुर को थपथपा कर रात्रि तक इंतजार करने के लिए मना लिया और अपने बालों में लपेटे हुए तौलिए को उतार कर अपने शरीर को पोछने लगी।

उधर सुगना बाजार से होते हुए मनोरमा के कमरे की तरफ बढ़ रही थी। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे उसके जीवन में भूचाल आने वाला हो। वह एक बार फिर गर्भवती होगी और फिर उसे गर्भावस्था के सुख और दुख दोनों झेलने पड़ेंगे। अभी उसकी कोख में सरयू सिंह का बीज आया भी न था और वह आगे होने वाली घटनाओं को सोच सोच कर आशंकित भी थी और उत्साहित भी। तभी एक पास की एक दुकान से आवाज आई..

"सुगना बेटा बड़ा भाग से तू आ गईले" यह आवाज पदमा की थी जो सुगना के पुत्र सूरज के लिए उपहार स्वरूप हाथ का कंगन खरीद रही थी। पद्मा ने सुगना को दुकान के अंदर बुला लिया और उसे तरह-तरह के कंगन दिखाने लगी। सोना वैसे भी स्त्रियों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है और ऊपर से वह उसके पुत्र सूरज के लिए था। सुगना एक पल के लिए यह भूल गई कि वह कहां जा रही थी। वह सूरज के हाथों के कंगन को पसंद करने में व्यस्त हो गई उसे यह ध्यान ही नहीं रहा कि कुछ ही देर में उसके बाबूजी भी मनोरमा के कमरे में पहुंच रहे होंगे।

उधर सरयू सिंह द्वारा निगली हुई शिलाजीत की गोली अपना असर दिखा चुकी थी। लंगोट में कसा हुआ उनका लण्ड तन चुका था। सरयू सिंह ने अपना लंगोट ढीला किया और अपने तने हुए लण्ड को लेकर दूसरे रास्ते से मनोरमा के कमरे की तरफ बढ़ने लगे। अपने मन मस्तिष्क में असीम उत्तेजना और तने हुए लण्ड को लेकर वह मनोरमा के कमरे के ठीक पास आ गए।

मनोरमा की गाड़ी आसपास न पाकर वह और भी खुश हो गए । वैसे भी आज मनोरमा ने उन्हें पदोन्नति देकर उनका दिल जीत लिया था। कमरे के दरवाजे पर ताला न पाकर वह खुशी से झूमने लगे उनकी सोच के अनुसार निश्चित ही सुगना अंदर आ चुकी थी।

अंदर स्थिति ठीक इसके उलट थी। अंदर मनोरमा अपना शरीर पोछने के बाद कमरे में आ चुकी थी। उसकी नग्न सुंदर और सुडौल काया चमक रही थी। मनोरमा की कद काठी सुगना से मिलती जुलती थी, पर शरीर का कसाव अलग था। मनोरमा का शरीर बेहद कसा हुआ था। शायद उसे मर्द का सानिध्य ज्यादा दिनों तक प्राप्त ना हुआ था और जो हुआ भी था मनोरमा की काम पिपासा बुझा पाने में सर्वथा अनुपयुक्त था।

मनोरमा ने जैसे ही आगे झुक कर अपना पेटीकोट उठाने की कोशिश की उधर सरयू सिह ने दरवाजे पर एक हल्का सा धक्का लगा और दरवाजा खुल गया।

जब तक मनोरमा पीछे मुड़ कर देख पाती बनारस महोत्सव के उस सेक्टर की बिजली अचानक ही गुल हो गई।

परंतु इस एक पल में सरयू सिंह ने उस दिव्य काया के दर्शन कर लिए। चमकते बदन पर पानी की बच गई बूंदे अभी भी विद्यमान थीं । सुगना ने संभोग से पहले स्नान किया यह बात सरयू सिंह को भा गई। उन्होंने मन ही मन निर्णय कर लिया कि वह वह आज उसकी बूर को चूस चूस कर इस स्खलित कर लेंगे और फिर उसके दूसरे छेद का जी भर कर आनंद लेंगे।

कमरे में घूप्प अंधेरा हो चुका था सरयू सिंह धीरे-धीरे आगे बढ़े और अपनी सुगना को पीछे से जाकर पकड़ लिया। क्योंकि कमरे में अंधेरा था उन्होंने अपना एक हाथ उसकी कमर में लगाया और दूसरी हथेली से सुगना के मुंह को बंद कर दिया ताकि वह चीख कर असहज स्थिति न बना दे।

मनोरमा ने सरयू सिंह की धोती देख ली थी। जब तक कि वह कुछ सोच पाती सरयू सिंह उसे अपनी आगोश में ले चुके थे। वह हतप्रभ थी और मूर्ति वत खड़ी थी। सरयू सिंह उसका मुंह दबाए हुए थे तथा उसके नंगे पेट पर हाथ लगाकर उसे अपनी ओर खींचे हुए थे।

अपने नितंबों पर सरयू सिंह के लंड को महसूस कर मनोरमा सिहर उठी। सरयू सिंह को सुगना की काया आज अलग ही महसूस हो रही थी अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने अपनी हथेली को सुगना की चुचियों पर लाया और उनका शक यकीन में बदल गया यह निश्चित ही सुगना नहीं थी। चुचियों का कसाव चीख चीख कर कह रहा था कि वह सुगना ना होकर कोई और स्त्री थी।

सरयू सिंह की पकड़ ढीली होने लगी उन्हें एक पल के लिए भी यह एहसास न था कि जिस नग्न स्त्री को वह अपनी आगोश में लिए हुए हैं वह उनकी एसडीएम मनोरमा थी। अपने नग्न शरीर पर चंद पलों के मर्दाना स्पर्श ने मनोरमा को वेसुध कर दिया था। इससे पहले कि सरयू सिंह उसकी चुचियों पर से हाथ हटा पाते मनोरमा की हथेलियों ने सरयू सिंह की हथेलियों को अपनी चुचियों पर वापस धकेल दिया। मनोरमा कि इस अदा से सरयू सिंह बेहद उत्तेजित हो गए। स्त्री शरीर की उत्तेजना और हाव-भाव से सरयू सिंह स्त्री की मनो स्थिति भांप लेते थे उन्होंने मनोरमा के कानों को चूम लिया और अपनी दोनों हथेलियों से उसकी चुचियों को सहलाने लगे।

प्रणय निवेदन मूक होता है परंतु शरीर के कामुक अंग इस निवेदन को सहज रूप से व्यक्त करते हैं। विपरीत लिंग उसे तुरंत महसूस कर लेता है।

मनोरमा की गर्म सांसे, तनी हुई चूचियां , और फूल चुके निप्पल मनोरमा की मनोस्थिति कह रहे थे। और मनोरमा की स्थिति जानकर सरयू सिंह का लण्ड उसके नितंबों में छेद करने को आतुर था।

सरयू सिंह एक हाथ से मनोरमा की चूँचियों को सहला रहे थे तथा दूसरे हाथ से बिना किसी विशेष प्रयास के अपने अधोभाग को नग्न कर रहे थे।

उनका लण्ड सारी बंदिशें तोड़ उछल कर बाहर आ चुका था। उन्होंने शर्म हया त्याग कर अपना लण्ड मनोरमा के नितंबों के नीचे से उसकी दोनों जांघों के बीच सटा दिया। मनोरमा उस अद्भुत लण्ड के आकार को महसूस कर आश्चर्यचकित थी। एक तो सरयू सिंह का लण्ड पहले से ही बलिष्ठ था और अब शिलाजीत के असर से वह और भी तन चुका था। लण्ड पर उभर आए नसे उसे एक अलग ही एहसास दिला रहे थे। मनोरमा ने अपनी जाँघे थोड़ी फैलायीं और वह लण्ड मनोरमा की जांघो के जोड़ से छूता हुआ बाहर की तरफ आ गया।

मनोरमा ने एक बार फिर अपनी जांघें सिकोड़ लीं। सरयू सिह के लण्ड का सुपाड़ा बिल्कुल सामने आ चुका था। मनोरमा अपनी उत्सुकता ना रोक पायी और अपने हाथ नीचे की तरफ ले गई । सरयू सिंह के लण्ड के सुपारे को अपनी उंगलियों से छूते ही मनोरमा की चिपचिपी बुर ने अपनी लार टपका दी जो ठीक लण्ड के फूले हुए सुपाड़े पर गिरी

मनोरमा की उंगलियों ने सरयू सिंह के सुपाडे से रिस रहे वीर्य और अपनी बुर से टपके प्रेम रस को एक दूसरे में मिला दिया सरजू सिंह के लण्ड पर बल दिया मनोरमा की कोमल उंगलियों और चिपचिपे रस से लण्ड थिरक थिरक उठा। मनोरमा को महसूस हुआ जैसे उसने कोई जीवित नाग पकड़ लिया जो उसके हाथों में फड़फड़ा रहा था।

यह पहला अवसर था जब सरयू सिंह के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी। जिस सुंदर और नग्न महिला को अपनी बाहों में लिए उसे काम उत्तेजित कर रहे थे वह उनकी भाग्य विधाता एसडीएम मनोरमा थी सरयू सिंह यह बात भली-भांति जान चुके थे परंतु अब वह उनके लिए एसडीएम ना होकर एक काम आतुर युवती थी जो अपने हिस्से का सुख भोगना चाहती थी। अन्यथा वह पलट कर न सिर्फ प्रतिकार करती अपितु छिड़ककर उन्हें उनकी औकात पर ला देती।

जिस मर्यादा को भूलकर सरयू सिंह और मनोरमा करीब आ चुके अब उसका कोई अस्तित्व नहीं था। प्रकृति की बनाई दो अनुपम कलाकृतियां एक दूसरे से सटी हुई प्रेमालाप में लगी हुई थीं। धीरे धीरे मनोरमा सरयू सिंह की तरफ मुड़ती गई और सरयू सिंह का लण्ड उसकी जांघों के बीच से निकलकर मनोरमा के पेट से छूने लगा। सरयू सिंह ने इसी दौरान अपना कुर्ता भी बाहर निकाल दिया। मनोरमा अब पूरी तरह सरयु सिंह से सट चुकी थी। सरयू सिंह की बड़ी-बड़ी हथेलियों ने मनोरमा के नितंबों को अपने आगोश में ले लिया था। और वह उसे बेतहाशा सहलाए जा रहे थे।

उनकी उंगलियों ने उनके अचेतन मस्तिष्क के निर्देशों का पालन किया और सरयू सिंह ने न चाहते हुए भी मनोरमा की गांड को छू लिया। आज मनोरमा कामाग्नि से जल रही थी। उसे सरयू सिंह की उंगलियों की हर हरकत पसंद आ रही थी। बुर से रिस रहा कामरस सरयू सिंह की अंगुलियों तक पहुंच रहा था। मनोरमा अपनी चुचियों को उनके मजबूत और बालों से भरे हुए सीने पर रगड़ रही थी। सरयू सिंह उसके गालों को चुमे में जा रहे थे।

गजब विडंबना थी जब जब सरयू सिंगर का ध्यान मनोरमा के ओहदे की तरफ जाता वह घबरा जाते और अपने दिमाग में सुगना को ले आते। कभी वह मनोरमा द्वारा सुबह दिए गए पुरस्कार की प्रतिउत्तर में उसे जीवन का अद्भुत सुख देना चाहते और मनोरमा को चूमने लगते परंतु मनोरमा के होठों को छु पाने की हिम्मत वह अभी नहीं जुटा पा रहे थे। मनोरमा भी आज पुरुष संसर्ग पाकर अभिभूत थी। वह जीवन में यह अनुभव पहली बाहर कर रही थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह वशीभूत हो चुकी थी। वह अपने होठों से सरयू सिंह के होठों को खोज रही थी। मनोरमा धीरे धीरे अपने पंजों पर उठती चली गई और सरयू सिंह अपने दोनों पैरों के बीच दूरियां बढ़ाते गए और अपने कद को घटाते गए।

जैसे ही मनोरमा के ऊपरी होठों ने सरयू सिह के होठों का स्पर्श प्राप्त हुआ नीचे सरयू सिंह के लंड में उसकी पनियायी बूर् को चूम लिया। मनोरमा का पूरा शरीर सिहर उठा।

सरयू सिंह ने मनोरमा को अपनी तरफ खींचा और मनोरमा ने अपना वजन एक बार फिर अपने पैरों पर छोड़ती गई और सरयू सिह के मजबूत लण्ड को अपने बुर में समाहित करती गयी।

मनोरमा की बुर का अगला हिस्सा पिछले कई वर्षों से प्रयोग में आ रहा था उसने सरयू सिंह के सुपारे को थोड़ी मुश्किल से ही सही परंतु लील लिया। सरयू सिंह ने जैसे ही अपना दबाव बढ़ाया मनोरमा चिहुँक उठी।

सरयू सिंह मनोरमा को बिस्तर पर ले आए और उसकी जाँघे स्वतः ही फैलती गई सरयू सिंह अपने लण्ड का दबाव बढ़ाते गए और उनका मजबूत और तना हुआ लण्ड मनोरमा की बुर की अंदरूनी गहराइयों को फैलाता चला गया।

मनोरमा के लिए यह एहसास बिल्कुल नया था। बुर के अंदर गहराइयों को आज तक न तो मनोरमा की उंगलियां छु पायीं थी और न हीं उसके पति सेक्रेटरी साहब का छोटा सा लण्ड। जैसे जैसे जादुई मुसल अंदर धँसता गया मनोरमा की आंखें बाहर आती गयीं। मनोरमा ने महसूस किया अब वह दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाएगी उसने अपनी कोमल हथेलियों से सरयू सिंह को दूर करने की कोशिश की।

सरयू सिंह भी अपने लण्ड पर मनोरमा की कसी हुई बुर का दबाव महसूस कर रहे थे उन्होंने कुछ देर यथा स्थिति बनाए रखी और मनोरमा के होठों को छोड़कर अपने होंठ उसके तने हुए निप्पल से सटा दिए।

सरयू सिंह के होठों के कमाल से मनोरमा बेहद उत्तेजित हो गई उनकी हथेलियां मनोरमा की कोमल जाँघों और कमर और पेड़ू को सहला रही थी जो उनके लण्ड को समाहित कर फूल चुका था।

जैसे-जैसे मनोरमा सहज होती गयी सरयू सिह का लण्ड और अंदर प्रवेश करता गया। मनोरमा के मुख से चीख निकल गई उसने पास पड़ा तकिया अपने दांतो के बीच रखकर उसे काट लिया परंतु उस चीख को अपने गले में ही दबा दिया। उधर लण्ड के सुपारे ने गर्भाशय के मुख को फैलाने की कोशिश की इधर सरयू सिंह के पेड़ूप्रदेश ने मनोरमा की भग्नासा को छू लिया। मिलन अपनी पूर्णता पर आ चुका था भग्नासा पर हो रही रगड़ मनोरमा को तृप्ति का एहसास दिलाने लगी ।

मनोरमा की कसी हुई बुर का यह दबाव बेहद आनंददायक था। सरयू सिंह कुछ देर इसी अवस्था में रहे और फिर मनोरमा की चुदाई चालू हो गई।

जैसे-जैसे शरीर सिंह का का लण्ड मनोरमा के बुर में हवा भरता गया मनोरंम की काम भावनाओं का गुब्बारा आसमान छूता गया। बुर् के अंदरूनी भाग से प्रेम रस झरने की तरह पर रहा था और यह उस मजबूत मुसल के आवागमन को आसान बना रहा था।

सरयू सिंह पर तो शिलाजीत का असर था एक तो उनके मूसल को पहले से ही कुदरत की शक्ति प्राप्त थी और अब उन्होंने शिलाजीत गोली का सहारा लेकर अपनी ताकत दुगनी करली थी । मनोरमा जैसी काम सुख से अतृप्त नवयौवना उस जादुई मुसल का संसर्ग ज्यादा देर तक न झेल पाई और उसकी बुर् के कंपन प्रारंभ हो गए।

सरयू सिंह स्त्री उत्तेजना का चरम बखूबी पहचानते थे और उसके चरम सुख आकाश की ऊंचाइयों तक ले जाना चाहते थे उन्होंने अपने धक्कों की रफ़्तार में आशातीत वृद्धि कर दी और मनोरमा की चुचियों को चूसने लगे। वह मनोरमा की चुचियों से दूध तो नहीं निकाल पर उनकी सारी मेहनत का फल मनोरमा के बूर् ने दे दिया। मनोरमा झड़ रही थी और उसका शरीर में निढाल पढ़ रहा था।

इसी दौरान बनारस महोत्सव के आयोजन कर्ताओं ने बिजली को वापस लाने का प्रयास किया और कमरे में एक पल के लिए उजाला हुआ और फिर अंधेरा कायम हो गया। बिजली का यह आवागमन आकाशीय बिजली की तरह ही था परंतु सरयू सिंह ने स्खलित होती मनोरमा का चेहरा देख लिया। और वह तृप्त हो गए। मनोरमा ने तो अपनी आंखें बंद की हुई थी परंतु उसे भी यह एहसास हो गया की सरयू सिंह ने उसे पूर्ण नग्न अवस्था में देख लिया है। परंतु मनोरमा अब अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुकी थी। उसके पास अब कुछ न कुछ छुपाने को था न दिखाने को।

सरयू सिंह ने अपना लण्ड बाहर निकाल दिया और मनोरमा के वापस जागृत होने का इंतजार करने लगे। मनोरमा को अपना स्त्री धर्म पता था। जिस अद्भुत लण्ड में उसे यह सुख दिया था उसका वीर्यपात कराना न सिर्फ उसका धर्म था बल्कि यह नियति की इच्छा भी थी। मनोरमा अपने कोमल हाथों से उस लण्ड से खेलने लगी। कभी वह उसे नापती कभी अपनी मुठियों में भरती। अपने ही प्रेम रस से ओतप्रोत चिपचिपे लण्ड को अपने हाथों में लिए मनोरमा सरयू सिंह के प्रति आसक्त होती जा रही थी। सरयू सिंह के लण्ड में एक बार फिर उफान आ रहा था। उन्होंने मनोरमा को एक बार फिर जकड़ लिया और उसे डॉगी स्टाइल में ले आए।

सरयू सिंह यह भूल गए थे कि वह अपने ही भाग्य विधाता को उस मादक अवस्था में आने के लिए निर्देशित कर रहे थे जिस अवस्था में पुरुष उत्तेजना स्त्री से ज्यादा प्रधान होती है। अपनी काम पिपासा को प्राप्त कर चुकी मनोरमा अपने पद और ओहदे को भूल कर उनके गुलाम की तरह बर्ताव कर रही थी। वह तुरंत ही डॉगी स्टाइल में आ गयी और अपने नितंबों को ऊंचा कर लिया । सरयू सिंह अपने लण्ड से मनोरमा की बुर का मुंह खोजने लगे। उत्तेजित लण्ड और चिपचिपी बूर में चुंबकीय आकर्षण होता है।

उनका लंड एक बार फिर मनोरमा की बूर् में प्रवेश कर गया। अब यह रास्ता उनके लण्ड के लिए जाना पहचाना था। एक मजबूत धक्के में ही उनके लण्ड ने गर्भाशय के मुख हो एक बार फिर चूम लिया और मनोरमा ने फिर तकिए को अपने मुह में भर लिया। वाह चीख कर सरयू सिंह की उत्तेजना को कम नहीं करना चाहती थी।

लाइट के जाने से बाहर शोर हो रहा था। वह शोर उन्हें मनोरमा को चोदने के लिए उत्साहित कर रहा था।

सरयू सिंह की चुदाई की रफ्तार बढ़ रही थी। बिस्तर पर जो फूल व सुगना के लिए लाए थे वह मनोरमा के घुटनों और हाथ द्वारा मसले जा रहे थे। फूलों की खुशबू प्रेम रस की खुशबू के साथ मिलकर एक सुखद एहसास दे रही थी।

सरयू सिंह कभी मनोरमा की नंगी पीठ को चूमते कभी अपनी दोनों हथेलियों से उसके दोनों चुचियों को मीसते हैं कभी उसके बालों को पकड़कर मन ही मन एक घुड़सवार की भांति व्यवहार करते। अपने जीवन की इस विशेष उत्तेजना का मन ही मन आनंद लेते लेते सरयू सिंह भाव विभोर हो गए।

इधर मनोरमा दोबारा स्खलन की कगार पर पहुंच चुकी थी। मनोरमा के बूर की यह कपकपाआहट बेहद तीव्र थी। सरयू सिंह मनोरमा को स्खलित कर उसकी कोमल और तनी हुई चुचियों पर वीर्यपात कर उसे मसलना चाह रहे थे। बुर् की तेज कपकपाहट से सरयू सिंह का लण्ड अत्यंत उत्तेजित हो गया और अंडकोष में भरा हुआ वीर्य अपनी सीमा तोड़कर उबलता हुआ बाहर आ गया। मनोरमा के गर्भ पर वीर्य की पिचकारिया छूटने लगीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था बरसों से प्यासी धरती को सावन की रिमझिम में बूंदे भीगों रही थी। मनोरमा की प्यासी बुर अपने गर्भाशय का मुंह खोलें उस वीर्य को आत्मसात कर तृप्त तो हो रही थी।

मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।

नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..

शेष अगले भाग में।
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भाग 52

मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।


नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..

अब आगे

सरयू सिंह द्वारा की गई जबरदस्त चुदाई से मनोरमा तृप्त हो चुकी थी और उसके गर्भ में सरयू सिंह के खानदान का एक अंश आ चुका था। तृप्ति का भाव मनोरमा और सरयू सिंह दोनों में ही था। जिस प्रेम भाव और अद्भुत मिलन से इस गर्भ का सृजन हुआ था उसने स्वतः ही इस मिलन की गुणवत्ता को आत्मसात कर लिया था। मनोरमा जैसी काबिल मां और सरयू सिंह जैसे विशेष व्यक्तित्व वाले पिता की संतान निश्चित ही विलक्षण होती।

मनोरमा, सरयू सिंह के लण्ड निकालने का इंतजार कर रही थी। सरयू सिंह पूरी तरह स्खलित होने के बावजूद उस मखमली एहसास को छोड़ना नहीं चाह रहे थे। वह अभी भी मनोरमा की पीठ को चूमे जा रहे थे और अपनी हथेलियों से उसकी चुचियों को मीस रहे थे।

शिलाजीत के असर से लण्ड में तनाव अभी भी बना हुआ था। परंतु अंडकोशों ने उसका साथ छोड़ दिया था और ढीले पड़ चुके थे।

वैसे भी वह दोनों द्वारपाल की तरह हमेशा इस क्रीडा में बाहर ही छोड़ दिए जाते थे। वह तो काम कला में दक्ष और पारखी सुगना थी जो इस द्वारपालों को भी अपनी कोमल उंगलियों का स्पर्श देकर उनकी उपयोगिता को बनाए रखती थी। परंतु मनोरमा वह तो अभी कामकला के पहले पायदान पर ही थी। उसने तो यह चरम सुख आज शायद पहली बार प्राप्त किया था।

स्खलित हो जाना ही चरमोत्कर्ष नहीं है। जिस सुख की अनुभूति आज मनोरमा ने की थी वह सामान्य स्खलन से कई गुणा बढ़कर था। मनोरमा के शरीर का रोम रोम अंग अंग सरयू सिंह के इस अद्भुत संभोग का कायल था।

सरयू सिंह अपना लण्ड निकालने के बाद अपनी धोती ढूंढने लगे। थोड़ा प्रयास करने पर उन्होंने अपना धोती और कुर्ता ढूंढ लिया परंतु लंगोट को ढूंढ पाना इतना आसान न था। वह बिजली आने से पहले ही कमरे से हट जाना चाहते थे। मनोरमा से आंखें मिला पाने की उनकी हिम्मत अब नहीं थी। यह अलग बात थी की कामवासना के दौरान उन्होंने उसे कस कर चोदा था परंतु उसके कद और अहमियत को वह भली-भांति जानते थे। सरयू सिंह ने आनन-फानन में अपनी धोती को मद्रासी तरीके से पहना और कुर्ता डालकर कमरे से बाहर आ गए।

मनोरमा अभी भी बिस्तर पर निढाल पड़ी हुई थी। उसकी बुर से रिस रहा वीर्य जांघों पर आ चुका था। मनोरमा के सारे कपड़े बिस्तर पर तितर-बितर थे। बिना प्रकाश के उन्हें ढूंढना और धारण करना असंभव था। वह नग्न अवस्था में लेटी हुई बिजली आने का इंतजार करने लगी। नियत ने मनोरमा को निराश ना किया और जब तक मनोरमा की सांसें सामान्य होतीं बनारस महोत्सव की लाइट वापस आ गई।

मनोरमा ने अपनी जांघों पर लगे वीर्य को पोछने की कोशिश नहीं की। वह सरयू सिंह की चुदाई और उनके प्रेम के हर चिन्ह को सजाकर रखना चाहती थी। उसने फटाफट अपने कपड़े पहने और बिस्तर पर पड़े लाल लंगोट को देख कर मुस्कुराने लगी।

सरयू सिंह ने आज नया लंगोट पहना हुआ था परंतु लंगोट में कसे हुए लण्ड की खुशबू समाहित हो चुकी थी। मनोरमा ने उसे अपने हाथों में उठाया और मुस्कुराते हुये उसे मोड़ कर अपने पर्स में रख लिया। उसके लिए यह एक यादगार भेंट बन चुकी थी।

भरपूर चुदाई के बाद स्त्री का शरीर अस्तव्यस्त हो जाता है। वह चाह कर भी तुरंत अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ सकती। मनोरमा का चेहरा और शरीर अलसा चुका था। उसने अपने बाल ठीक किए और कमरे से बाहर आ गयी पर उसकी हालत कतई ठीक नहीं थी। उसे अभी मीटिंग में भी जाना था। वह अनमने मन से मीटिंग हाल की तरफ बढ़ने लगी तभी उसे सुगना दिखाई दे गयी जो उसके कमरे की तरफ ही आ रही थी।

सुगना ने मनोरमा को देखा और अपने दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।

"अरे मैडम जी इतनी रात को"

"हां सुगना आज मेरी मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी चल रही है"

सुगना ने मनोरमा के ऐश्वर्य भरे चेहरे और कसी हुई काया में आया बदलाव महसूस कर लिया उसने मनोरमा से पूछा

"मैडम जी आपकी तबीयत ठीक है ना? आप काफी थकी हुई लग रही है।"

सुगना ने जो कहा था इसका एहसास मनोरमा को भी था उसने बड़ी सफाई से अपने आप को बचाते हुए बोला..

"अरे सुगना होटल का खाना मुझे सूट नहीं किया पेट भी खराब हो गया है इसी लिए कमरे में आना पड़ा"

सुगना ने मन ही मन मनोरमा की स्थिति का आकलन कर लिया और उस कमरे के उपयोग के औचित्य के बारे में भी अपने स्वविवेक से सोच लिया।

सुगना को संशय में देखकर मनोरमा सोच में पड़ गई कहीं सुगना ने उसकी शारीरिक स्थिति देखकर कुछ अंदाज तो नहीं लगा लिया उसने बात बदलने की कोशिश की..

"तुमने बनारस घूम लिया कि नहीं?"

"अभी है ना दो-तीन दिन घूम लूंगी'

"कल मैं अपनी गाड़ी भेज दूंगी अपने बाबू जी के साथ जाकर बनारस घूम लेना"

सुगना बेहद प्रसन्न हो गई। मनोरमा ने कहा

"तुम उस कमरे में जा सकती हो मैं अब वापस जा रही हूँ।"

मनोरमा अपने मीटिंग हॉल की तरफ बढ़ चली और सुगना कमरे की तरफ।

सुगना मन ही मन घबरा रही थी कि निश्चित ही उसके बाबू जी आज उसका इंतजार करते करते थक चुके होंगे.. परंतु वह क्या कर सकती थी. उसकी मां ने कुछ देर तक उसे सूरज के कंगन में उलझाये रखा तभी बत्ती गुल हो गई थी। अंधेरे में वहां से कमरे तक जाना संभव न था।

जवान स्त्री तब भी मनचलों के आकर्षण का केंद्र रहती थी और आज भी।

पद्मा ने सुगना को लाइट आने तक रोक लिया था।

उधर सरयू सिंह कमरे से बाहर निकलने के पश्चात कुछ दूर पर जाकर खड़े हो गए थे। वह मनोरमा के कमरे से चले जाने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें अपना लंगोट भी लेना था।

उन्हें पूरा विश्वास था कि सुगना अवश्य आएगी। निश्चित ही वह बिजली गुल हो जाने होने की वजह से समय पर नहीं आ पाई थी।

सुगना को कमरे की तरफ आता देख सरयू सिंह सुगना की तरफ बढ़ चले उन्होंने सुगना पर झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा..

"सुगना बाबू कहां रह गईलू हा..?" अपने झूठे क्रोध में यह प्यार सिर्फ सरयू सिंह ही दिखा सकते थे।

सुगना ने अपना सच स्पष्ट शब्दों में बयान कर दिया. सरयू सिंह ने सुगना से कहा

"लागा ता आज देर हो गईल बा तोहार उपहार के भोग आज ना लाग पायी "

सचमुच देर हो चुकी थी सुगना तो पूरी तरह उत्तेजित थी और चुदना भी चाहती थी परंतु इस क्रिया में लगने वाला समय उन दोनों की हकीकत पूरे परिवार के सामने ला देता। खाने के समय न पहुंचने पर कजरी पदमा को लेकर उसे ढूंढती हुई यहां आ जाती।

सुगना ने अपना मन मसोसकर कहा

ठीक बा बाबू जी "काल एहि बेरा (बेरा मतलब समय)"

सरयू सिंह ने सुगना से चाबी मांगी और दरवाजा खोलकर अपना लंगोट ढूंढने लगे।

सुगना ने दरवाजे पर खड़े खड़े पूछा

" ...का खोजा तानी?".

सरयू सिंह क्या जवाब देते जो वह खोज रहे थे वह मनोरमा ले जा चुकी थी।

सुगना और शरीर सिंह धीरे-धीरे वापस पंडाल की तरफ आ रहे थे।

सूरज के परिवार का एक अभिन्न अंग मनोरमा के गर्भ में आ चुका था काश कि यह बात सुगना जान पाती तो अपने गर्भधारण को लेकर उसकी अधीरता थोड़ा कम हो जाती। हो सकता था की सूरज की जिस बहन की तलाश में वह गर्भधारण करना चाह रही थी वह मनोरमा की कोख में सृजित हो चुकी हो….

बनारस महोत्सव के बिजली विभाग के कर्मचारियों की एक गलती ने नियति को नया मौका दे दिया था।

सुगना से मिलने के बाद मनोरमा मीटिंग में पहुंची तो जरूर परंतु उसका मन मीटिंग में कतई नहीं लग रहा था। बिजली गुल होने की वजह से मीटिंग का तारत्म्य बिगड़ गया था और सभी प्रतिभागी घर जाने को आतुर थे।

अंततः मीटिंग समाप्त कर दी गई और मनोरमा एक बार फिर अपने पांच सितारा होटल की तरफ चल पड़ी।

कमरे में पहुंचकर उसने अपने वस्त्र उतारे और अपनी जाँघों और बूर् के होठों पर लगे श्वेत गाढ़े वीर्य के धब्बे को देख कर मुस्कुराने लगी। उसे अपने शरीर और चरित्र पर लगे दाग से कोई शिकायत न थी। उसने सरयू सिंह के साथ हुए इस अद्भुत संभोग को भगवान का वरदान मान लिया था। उसकी काम पिपासा कई वर्षों के लिए शांत हो चुकी थी। वह अपनी फूली और संवेदनशील हो चुकी बुर को अपनी हथेलियों से सहला रही थी और मन ही मन आनंद का अनुभव कर रही थी।

मनोरमा ने अपने हाथ पैर और चेहरे को धुला परंतु स्नान करने का विचार त्याग दिया। सरयू सिंह के वीर्य को अपने शरीर से वह कतई अलग नहीं करना चाह रही थी। अनजाने में ही सही मनोरमा ने पुरुष का वह दिव्य स्वरूप देख लिया था। वह मन ही मन भगवान के प्रति कृतज्ञ थी और इस संभोग को अपने गर्भधारण का आधार बनाना चाह रही थी।

मनोरमा ने अपने इष्ट देव को याद किया और अपने गर्भधारण की अर्जी लगा दी। सरयू सिंह जैसे बलिष्ठ और स्वस्थ पुरुष की संतान निश्चित ही उनके जैसी ही होगी।

मनोरमा के गर्भ से पुत्र होगा या पुत्री इसका निर्धारण नियति ने नियंता के हाथों छोड़ दिया।


बनारस महोत्सव का चौथा दिन……

बनारस महोत्सव के इन 3 दिनों में कथा के दो पात्रों का सृजन हो चुका था एक लाली के गर्भ में और दूसरा एसडीएम मनोरमा के गर्भ में नियति ने इन दोनों पात्रों का लिंग निर्धारण अपनी योजना के अनुसार कर दिया था। परंतु सुगना अभी भी अपने गर्भधारण का इंतजार कर रही थी। कल का सुनहरा अवसर उसने अनायास ही गवां दिया था और सरयू सिंह के प्यार और अद्भुत चुदाई का आनंद लेते हुए गर्भवती का होने का सुख सुगना की जगह मनोरमा ने उठा लिया था।

बनारस महोत्सव के चौथे दिन महिलाओं का एक विशेष व्रत था घर की सभी महिलाओं ने व्रत रखा हुआ था। सुगना भी उस से अछूती न थी। सुगना ही क्या उसकी दोनों छोटी बहनें भी आज व्रत थी सुगना को आज के व्रत का ध्यान ही नहीं आया था। कल शाम उसने अपने बाबू जी से मिलने के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था। परंतु अब यह व्रत... जिसे वह छोड़ नहीं सकती थी।

परंतु व्रत के दौरान संभोग क्या यह उचित होगा? सुगना अपनी अंतरात्मा से एक बार फिर लड़ रही थी।

क्या बनारस महोत्सव का चौथा दिन क्या यूं ही बीत जाएगा?

हे भगवान अब मैं क्या करूं। सुगना ने इससे पहले भी व्रत रखा था परंतु उस दौरान वह संभोग से सर्वथा दूर रही थी। बातों ही बातों में कजरी ने उसे व्रत की अहमियत और व्रत के दौरान पालन किए जाने वाले दिशा निर्देशों की जानकारी बखूबी दी हुई थी। परंतु आज का दिन वह किस प्रकार व्यर्थ जाने दे सकती थी।

यदि वह गर्भवती ना हुई तो?? सुगना की रूह कांप उठी। सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए वह हर हाल में गर्भवती होना चाहती थी।

उसकी अंतरात्मा ने आवाज दी

व्रत के पावन दिन यदि तू संभोग कर गर्भवती होना भी चाहेगी तो भगवान तेरा मनोरथ कभी नहीं पूर्ण करेंगे। हो सकता है तेरे गर्भ में आने वाला तेरी मनोकामना की पूर्ति न कर तुझे और मुसीबत में डाल दे।

सुगना एक बार फिर कांप उठी यदि सचमुच उसके गर्भ में पुत्री की जगह पुत्र का सृजन हुआ तो वह आने वाले समय में सूरज को मुक्ति किस प्रकार दिला पाएगी। क्या उसे स्वयं सूरज से …. इस विचार से ही उसके शरीर में कंपन उत्पन्न हो गए।

"मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी मेरी मजबूरी और मनोदशा को समझ कर वह मुझे माफ कर देंगे सुगना ने खुद को समझाने की कोशिश की"

"यदि भगवान चाहेंगे तो तेरा यह संभोग कल और परसों भी हो सकता है आज व्रत के दिन तुझे निश्चित ही इस से दूर रहना चाहिए।" अंतरात्मा ने फिर अपनी बात रखी।

सुगना चाह कर भी व्रत के नियम तोड़ पाने में स्वयं को असहज महसूस कर रही थी परंतु जैसे-जैसे समय बीत रहा था उसकी अधीरता बढ़ती जा रही थी।

सरयू सिंह को भी महिलाओं के व्रत का पता चल चुका था उनकी उत्तेजना भी व्रत के नाम पर शांत हो चुकी वैसे भी पिछले शाम उन्होंने अपनी मनोरमा मैडम की जी भर कर चुदाई की थी और उनकी कामोत्तेजना कुछ समय के लिए तृप्त हो गई थी।

सुबह-सुबह मनोरमा मैडम की गाड़ी विद्यानंद के पांडाल के सामने आ गई थी। सुगना ने इसकी सूचना पहले ही अपनी मां पदमा और सास कजरी को दे दी थी। सोनी और मोनी दोनों भी बनारस घूमने के नाम से बेहद उत्साहित थी।

सबको बनारस घूमने के कार्यक्रम के बारे में पता था परंतु यह बात सरयू सिंह को पता न थी कल शाम की मुलाकात में वह यह बात सरयू सिंह को बताना भूल गई थी।

पंडाल के सामने गाड़ी खड़ी देख सरयू सिंह उठ कर गाड़ी की तरफ गए उन्हें लगा जैसे मनोरमा मैडम स्वयं आई हैं। उन्हें देखकर ड्राइवर बाहर आया और अदब से बोला

" मैडम ने यह गाड़ी आप लोगों को बनारस घुमाने के लिए भेजी है शायद सुगना मैडम से उनकी बात हुई है"

सरयू सिंह ने पांडाल की तरफ देखा और अपने परिवार की सजी धजी महिलाओं को देखकर वह बेहद भाव विभोर हो उठे।

सोनी और मोनी युवावस्था की दहलीज लांघने को तैयार थी परंतु सरयू सिंह का सारा ध्यान अपनी जान सुगना पर ही लगा था। सुगना के कोमल अंगों को न जाने वह कितनी बार अपने हाथों से नाप चुके थे पर जब जब वह सुगना को देखते उनकी नजरें सुगना के अंगो का नाप लेने लगतीं और उसके अंदर छुपे हुए खजाने की कल्पना कर उनके लण्ड जागृत हो जाता। आज व्रत के भी दिन भी वह अपनी उत्तेजना पर काबू न रख पाए और उनका लण्ड एक बार फिर थिरक उठा।

सरयू सिंह दलबल समेत बनारस दर्शन के लिए निकल चुके थे। सुगना ने लाली को भी अपने साथ ले लिया। महिलाओं का सारा ध्यान बनारस की खूबसूरत बिल्डिंगों को छोड़कर मंदिरों पर था। सबकी अपनी अपनी मनोकामनाएं थी जहां सुगना सिर्फ और सिर्फ सूरज के बारे में सोच रही थी और अपने इष्ट देव से उसकी मुक्ति दाईनी बहन का सृजन करने के लिए अनुरोध कर रही थी वही पदमा अपने सोनू के उज्जवल भविष्य तथा उसके लिए भगवान से नौकरी की मांग कर रही थी।

कजरी भी अपने पुत्र मोह से नहीं बच पाई थी वह भी भगवान से अपने पुत्र रतन की वापसी मांग रही थी। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था।

माता का पुत्र के प्रति प्रेम दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है। यह बात इन तीनों महिलाओं पर लागू हो रही थी परंतु सुगना दुधारी तलवार पर चल रही थी यदि उसकी मांग पूरी ना होती तो सुगना को मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना होता। अपने ही पुत्र के साथ संभोग करने का दंड वह स्वीकार न कर पाती।

अपने अवचेतन मन से उसने अपने इष्ट देव को वह फैसला सुना दिया था। उसने अपने इष्ट देव को यह खुली धमकी दे दी थी यदि उसके गर्भ में पुत्री का सृजन ना हुआ और यदि सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए यदि उसे अपने ही पुत्र से संभोग करना पड़ा तो वह यह निकृष्ट कार्य भी करेगी परंतु उसके पश्चात अपनी देह त्याग देगी।

वह मंदिर मंदिर अनुनय विनय करती रही और अपनी एकमात्र इच्छा को पूरा करने के लिए मन्नतें मांगती रही।

उधर सरयू सिंह भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करते रहे । सरयू सिंह मनोरमा को जी भर कर चोदने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज थे। उन्होंने डॉक्टर की सलाह को झुठला दिया था और उनके निर्देशों के विपरीत जाकर न सिर्फ शिलाजीत का सेवन किया था अपितु एक नौजवान युवती के साथ जी भर कर संभोग किया था और उसे एक नहीं दो दो बार स्खलित किया था। भगवान ने उन्हें एक बार फिर मर्दाना ताकत से भर दिया था।

सभी के पास मांगने के लिए कुछ ना कुछ था परंतु सोनी जो चाहती थी उसे वह मांगना भी नहीं आता था। विकास उसे पसंद तो आने लगा था परंतु इस कच्ची उम्र में वह विकास से कोई रिश्ता नही जोड़ना चाहती थी। और जो वह विकास से चाहती थी उसे भगवान से मांगने का कोई औचित्य नहीं था। सोनी विकास से लिपटकर पुरुष शरीर का स्पर्श एवं आनंद अनुभव करना चाहती थी। वह अपनी चुचियों पर पुरुष स्पर्श के लिए लालायित थी। अपने दिवास्वप्न में वह कभी-कभी पुरुषों के लण्ड के बारे में भी सोचती और अपनी अस्पष्ट जानकारी के अनुसार उसके आकार की कल्पना करती।

अपने भांजे सूरज की नुन्नी सहलाकर उसने नुन्नी का बढ़ा हुआ आकार देखा था और पुरुष लिंग की कल्पना उसी के अनुरूप कर ली थी। परंतु क्या सभी पुरुषों का लिंग उसी प्रकार होता होगा? सोनी के मन में भविष्य को लेकर कई प्रश्न थे? तुरंत सारे प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए थे।

सोनी के ठीक उलट मोनी अभी इस कामवासना की दुनिया से बेहद दूर थी। घर के कामकाज में मन लगाने वाली मुनि धर्म परायण भी थी और एक निहायत ही पारिवारिक लड़की थी अपने संस्कारों से भरी हुई। जब सुगना के कहने पर मोनी ने सूरज के अंगूठे सहलाया था और उसकी बड़ी हुई नुन्नी को अपने होठों से छू कर छोटा किया था वह बेहद शर्मसार थी और फिर कभी सूरज के अंगूठे से ना खेलने का मन ही मन फैसला कर लिया था।

हालांकि यह फैसला कब तक कायम रहता यह तो नियति ही जानती थी। जब जांघों के बीच आग बढ़ेगी कई फैसले उसी आग में दफन हो जाने थे।

इस समय सिर्फ लाली ही की जिसके दोनों हाथों में लड्डू थे उसका पति राजेश उससे बेहद प्यार करता था और अब सोनू के उसके जीवन मे हलचल मचा दी थी। सोनू दो-तीन दिनों से लाली के घर नहीं आया था। लाली की अधीरता भगवान ने समझ ली थी।

मंदिर से बाहर निकलते समय सुगना ने सरयू सिंह के माथे पर तिलक लगाया और उनसे अनुरोध किया…

"बाबूजी कल और कोनो काम मत करब कल हम पूरा दिन आपके साथ रहब । उ वाला होटल ठीक कर लीं जवना में हमनी के पहला बार एक साथ रुकल रहनी जा जब हमार हाथ टूटल रहे।"

सरयू सिह बेहद प्रसन्न हो गए सुगना ने जिस बेबाकी से होटल में रहकर चुदने की इच्छा जाहिर की थी वह उसके कायल हो गए थे।

सरयू सिंह मुस्कुराते हुए बोले

"हां उहे वाला होटल में जवना में तू रात भर तक सपनात रहलु"

सुगना को उस रात की सारी बातें याद आ गई


((("मैं सुगना"

दिन भर की भागदौड़ से मैं थक गई थी। शहर के उस अनजान होटल के कमरे में लेटते ही मैं सो गई। बाबुजी दूसरे बिस्तर पर सो रहे थे.

रात में एक अनजान शख्स मेरी साड़ी और पेटीकोट को ऊपर की तरफ उठा रहा था. पता नहीं क्यों मुझे अच्छा लग रहा था। मैंने अपने घुटने मोड़ लिए। मेरा पेटीकोट मेरी जांघो को तक आ चुका था। पंखे की हवा मेरे जांघों के अंदरूनी भाग को छू रही थी और मुझे शीतलता का एहसास करा रही थी। उस आदमी ने मेरी पेटीकोट को मेरे नितंबों तक ला दिया था। उसे और ऊपर उठाने के मैने स्वयं अपने नितंबों को ऊपर उठा दिया। उस आदमी के सामने मुझे नंगा होने में पता नहीं क्यों शर्म नही आ रही थी। मैं उत्तेजित हो चली थी।

पेटिकोट और साड़ी इकट्ठा होकर मेरी कमर के नीचे आ गए। घुंघराले बालों के नीचे छुपी मेरी बूर उस आदमी की निगाहों के सामने आ गयी।
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उस आदमी का चेहरा मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा था पर उसकी कद काठी बाबूजी के जैसी ही थी। वह आदमी मेरी जाँघों को छू रहा था। उसकी बड़ी बड़ी खुरदुरी हथेलियां मेरे जाँघों को सहलाते हुए मेरी बुर तक पहुंचती पर उसे छू नही रही थीं।

मैं चाहती थी कि वह उन्हें छुए पर ऐसा नहीं हो रहा था। मेरी बुर के होठों पर चिपचिपा प्रेमरस छलक आया था। अंततः उसकी तर्जनी उंगली ने मेरी बुर से रिस रहे लार को छू लिया। उसकी उंगली जब बुर से दूर हो रही थी तो प्रेमरस एक पतले धागे के रूप में उंगली और बूर के बीच आ गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी बुर उस उंगली को अपने पास खींचे रखना चाहती थी।

उंगली के दूर होते ही वह पतली कमजोर लार टूट गयी जिस का आधा भाग वापस मेरी बूर पर आया और आधा उसकी उंगली से सट गया। उस आदमी ने अपनी उंगली को ध्यान से देखा और अपने नाक के करीब लाकर उसकी खुशबू लेने की कोशिश की। और अंततः अपनी जीभ से उसे चाट लिया। मेरी बुर उस जीभ का इंतजार कर रही थी पर उस अभागी का कोई पुछनहार न था। मैं अपनी कमर हिला रही थी मेरी जाघें पूरी तरह फैल चुकी थी ।

अचानक वह व्यक्ति उठकर मेरी चूँचियों के पास आ गया। मेरी ब्लाउज का हुक खुद ब खुद खुलता जा रहा था। तीन चार हुक खुलने के पश्चात चूचियां उछलकर ब्लाउज से बाहर आ गयीं। उस व्यक्ति ने मेरी चूचियों को चूम लिया। एक पल के लिए मुझे उसका चेहरा दिखाई दिया पर फिर अंधेरा हो गया। वह मेरी चुचियों को चूमे जा रहा था। उसकी हथेलियां भी मेरी चुचियों पर घूम रही थी। आज पहली बार किसी पुरुष का हाथ अपनी चुचियों पर महसूस कर मेरी उत्तेजना सातवें आसमान पर पहुंच गई। मेरी बुर फड़फड़ा रही थी। मैंने स्वयं अपनी उंगलियां को अपने बुर के होठों पर ले जाकर सहलाने लगी। मेरी बुर खुश हो रही थी और उसकी खुशी उसके होठों से बह रहे प्रेम रस के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।

अचानक मेरी चूचि का निप्पल उस आदमी के मुह में जाता महसूस हुआ। वह मेरे निप्पलों को चुभला रहा था। मैं कापने लगी। मैने इतनी उत्तेजना आज तक महसूस नहीं की थी।

कुछ देर बाद मैंने उस आदमी को अपनी धोती उतारते देखा। उसका लंड मेरी आंखों के ठीक सामने आ गया यह। लंड तो बाबुजी से ठीक मिलता-जुलता था मैं अपने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाह रही थी। वह मेरे पास था पर मैं उसे पकड़ नहीं पा रही थी। मेरी कोमल हथेलियां ठीक उसके पास तक पहुंचती पर उसे छु पाने में नाकाम हो रही थी।

मैं चाह कर भी उस आदमी को अपने पास नहीं बुला पा रही थी पर उसके लंड को देखकर मेरी बुर चुदवाने के लिए बेचैन हो चली थी। मैं अपनी जांघों को कभी फैलाती और कभी सिकोड़ रही थी।

वह आदमी मेरी उत्तेजना समझ रहा था कुछ ही देर में वह बिस्तर पर आ गया और मेरी जांघों के बीच बैठकर अपनी गर्दन झुका दिया वह अपने होठों से मेरी नाभि को चूम रहा था और हथेलियों से चूचियों को सहला रहा था। मैं स्वयं अपनी हथेलियों से उसके सर को धकेल कर अपनी बुर पर लाना चाहती थी पर जाने यह यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा था । मेरी हथेलियां उसके सर तक पहुंचती पर मैं उसे छू नहीं पा रही थी।

अचानक मुझे मेरी जाँघे फैलती हुई महसूस हुयीं। लंड का स्पर्श मेरी बुर पर हो रहा था बुर से निकल रहा चिपचिपा रस रिश्ते हुए मेरी कोमल गांड तक जा पहुंचा था। मैं उत्तेजना से हाफ रही थी तभी लंड मेरी बुर में घुसता हुआ महसूस हुआ।

मैं चीख पड़ी

"बाबूजी……"

मेरी नींद खुल गई पर बाबूजी जाग चुके थे। उन्होंने कहा

"का भईल सुगना बेटी"

भगवान का शुक्र था। लाइट गयी हुयी थी। मेरी दोनों जाँघें पूरी तरह फैली हुई थी और कोमल बुर खुली हवा में सांस ले रही थी। वह पूरी तरह चिपचिपी हो चली थी मेरी उंगलियां उस प्रेम रस से सन चुकी थी। मैंने सपने में अपनी बुर को कुछ ज्यादा ही सहला दिया था। मेरी चूचियां भी ब्लाउज से बाहर थी।
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मैंने बाबूजी की आवाज सुनकर तुरंत ही अपनी साड़ी नीचे कर दी।

मुझे चुचियों का ध्यान नहीं आया। बाबूजी की टॉर्च जल चुकी थी उसकी रोशनी सीधा मेरी चुचियों पर ही पड़ी। प्रकाश का अहसास होते ही मैंने अपनी साड़ी का पल्लू खींच लिया पर बाबूजी का कैमरा क्लिक हो चुका था। मेरी चुचियों का नग्न दर्शन उन्होंने अवश्य ही कर लिया था। साड़ी के अंदर चुचियां फूलने पिचकने लगीं।

मेरी सांसे अभी भी तेज थीं। बाबू जी ने टॉर्च बंद कर दी शायद वह अपनी बहू की चूँचियों पर टार्च मारकर शर्मा गए थे। उन्होंने फिर पूछा

" सुगना बेटी कोनो सपना देखलू हा का?" उनकी बात सच थी। मैंने सपना ही देखा था पर उसे बता पाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैंने कहा

"हां बाबू जी"

"चिंता मत कर….नया जगह पर नींद ठीक से ना आवेला"

" हा, आप सूत रहीं"

मैंने करवट लेकर अपनी चुचियों को बाबूजी से दूर कर लिया और मन ही मन मुस्कुराते हुए सोने लगी। डर वश मेरी बुर पर रिस आया प्रेमरस सूख गया था।


उपरोक्त यादें भाग 11 से ली गयी हैं))))
वह शर्म से पानी पानी हो गई।

सरयू सिंह सुगना के अंतर्मन को नहीं जान रहे थे परंतु होटल और एकांत दोनों एक ही बात की तरफ इशारा कर रहे थे जिसे वह बखूबी समझ रहे थे। वह बेहद प्रसन्न हो गए और सुगना को अपने सीने से सटा लिया कजरी और पदमा को आते देख इस आलिंगन का कसाव तुरंत ही ढीला पड़ गया और सुगना के द्वारा दिया प्रसाद सरयू सिंह मुंह में डालकर सभी को जल्दी चलने का निर्देश देने लगे।

शाम हो चली थी बनारस महोत्सव में आज धर्म हावी था हर तरफ पूजा-पाठ की सामग्री बिक रही थी लगभग हर पांडाल से शंख ध्वनि और आरती की गूंज सुनाई पड़ रही थी सभी महिलाएं भाव विभोर होकर अपने-अपने इष्ट देव की आराधना कर रही थीं।

बनारस महोत्सव का चौथा दिन पूजा पाठ की भेंट चढ़ गया।

पंडाल की छत को एकटक निहारती सुगना कल के दिन का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। कल का दिन सुगना के लिए बेहद अहम था। कल वह अपने बाबू जी से जी भर कर संभोग करना चाहती थी। और एक नहीं कई बार उनके वीर्य को अपने गर्भाशय में भरकर गर्भवती होना चाहती थी। अपने पुत्र मोह में वो यह बात भूल चुकी थी की डॉक्टर ने सरयू सिंह को संभोग न करने की सलाह दी हुई है।

सुगना की अधीरता को देख नियति भी मर्माहत हो चुकी थी वह सुगना के गर्भधारण को लेकर वह तरह-तरह के प्रयास कर रही थी। सुकुमारी और अपने पूरे परिवार की प्यारी सुगना के गर्भ से सुगना के परिवार की दशा दिशा तय होनी थी..

परंतु नियति निष्ठुर थी सुगना की तड़प को नजरअंदाज कर उसने अपनी चाल चल दी..

शेष अगले भाग में…
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Tiger 786

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भाग 53

बनारस महोत्सव का पांचवा दिन…..

बीती रात अपने जमीर से द्वंद लड़ते हुए तथा आज के दिन की रणनीति बनाते बनाते सुगना को सोने में विलंब हो गया था।

आज के शुभ दिन सुगना को उसके व्रत का फल मिलना था। सूर्य की कोमल किरणें पांडाल को प्रकाशमान कर चुकी थी परंतु सुगना अब भी सोई हुई थी। कजरी और पदमा सुगना के खूबसूरत चेहरे को निहार रही थीं। एक बार के लिए पदमा का मन हुआ कि वह सुगना को जगा दे परंतु कजरी ने रोक लिया। उसे पता था जब सुगना नींद पूरी कर उठती थी खिली खिली रहती थी यह समय का ही चक्र था की सुगना को अब कजरी उसकी मां की से ज्यादा समझने लगी थी। पदमा अपनी पुत्री के खूबसूरत चेहरे को निहारते हुए कुछ देर वहीं बैठ गयी।

कजरी ने ही सुगना के मर्म को समझा था तथा न सिर्फ सुगना के गर्भधारण की इच्छा के लिए अपने कुँवर जी को उससे साझा किया था अपितु सुगना की काम इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह हर हद तक गई और उसकी इच्छाओं की पूर्ति करते करते स्वयं खुद की और सरयू सिंह की काम इच्छाओं को अतिरेक तक पहुंचा दिया था। इस वासना के अतिरेक का परिणाम ही कि सरयू सिंह सुगना के दूसरे छेद के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे। सुगना अभी मीठे स्वप्न में खोयी हुयी थी।

वह पूरी तरह निर्वस्त्र होकर सरयू सिह की गोद में बैठी हुई कभी उनकी मूछे सवांरती कभी वह उनकी मूछों पर ताव देकर उन्हें ऊंचा करती कभी अपने होठों से उसे गिला कर अलग आकार देती। सरयू सिंह उसके कोमल नितंबों को सहला रहे थे और अपनी मजबूत भुजाओं से खींच कर उसे अपने सीने से सटा ले रहे थे। सुगना सहज ही उनकी गोद में खेल रही थी।


यदि सुगना के स्तन विकसित ना हुए होते और शरीर पर वस्त्रों का आवरण होता तो यह वासना रहित दृश्य बेहद मधुर और पावन होता।

परंतु यह अवस्था वासनाजन्य थी। एक तरुणी एक अधेड़ की उम्र के मर्द की गोद में में नग्न बैठी हुई थी। सरयू सिंह का लण्ड पूरी तरह तन कर खड़ा हो गया था और सुगना के जांघों के बीच अपनी सहभागिनी को उत्तेजित कर रहा था। शरीर सिंह सुगना को सहलाए जा रहे थे और सुगना उन्हें चूमे जा रही थी। सुगना ने अपने दोनों पैर उनकी कमर पर लपेट लिए थे। जैसे ही सरयू सिंह के लण्ड ने सुगना की बुर के मुख को चुमा। सुगना की नींद खुल गई।

"बाबूजी…."

सुगना की आँखें खुल चुकी थीं।

सुगना की मां पद्मा ने अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार उसे उठाया और बोली..

"सुगना बेटा सपनात रहलु हा का?"

सुगना को अपने सुखद स्वप्न से जागने का अफसोस भी था और अपनी मां को करीब देखने का सुख भी। वैसे भी उसका स्वप्न आज हकीकत में बदलने वाला था।

इधर सुगना अपने मीठे सपनों में खोई हुई थी उधर पंडाल के पुरुष वाले भाग में सरयू सिंह तैयार हो चुके थे। उन्होंने होटल वाले से मिलकर कमरा भी बुक कर लिया था जिसमें आज वह सुगना के साथ रंगरलिया मनाने वाले थे। वह पंडाल में चहलकदमी करते हुए सुगना के आने का इंतजार कर रहे थे।

तभी पांडाल के गेट पर एक बार फिर मनोरमा की गाड़ी आकर रुकी। सरयू सिंह तो अपनी कामुक दुनिया में खोए हुए थे। उन्हें मनोरमा की गाड़ी आने का आभास नहीं हुआ। सरयू सिंह को अपनी तरफ आता न देखकर ड्राइवर गाड़ी से निकल कर भागता हुआ उनके पास गया आधी दूर पहुंचकर ही जोर से चिल्लाया

"सरयू जी मैडम गाड़ी में बैठी हैं"


शरीर सिंह की तो सांसें फूल गई वो भागते हुए मनोरमा के सामने पहुंच गए।

अपने दोनों हाथ जोड़े हुए वह कार की पिछली सीट के सामने खड़े थे। मनोरमा ने शीशा नीचे किया और कहा

"आपको सलेमपुर जाना होगा। बिजली गिरने से कई मवेशियों की मौत हो गई है गांव वाले बवाल कर रहे हैं। आप इसी गाड़ी से सलेमपुर चले जाइए और स्थिति के नियंत्रण में आने पर वापस आ जाइएगा। मैं आपकी मदद के लिए पुलिस फोर्स भी भेज रही हूँ"

सरयू सिंह जी को तो जैसे सांप सूंघ गया उनके सारे अरमान एक पल में मिट्टी में मिल गए थे उन्होंने हिम्मत करके एक बार फिर पूछा..

"मैडम दोपहर बाद चला जाऊं क्या?.".

नहीं आपको तुरंत जाना होगा मनोरमा की मीठी आवाज में छुपे आदेश की गंभीरता सरयू सिंह समझ चुके थे। उनके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी मनोरमा ने फिर कहा

"मैं आपका इंतजार कर रही हूं आप अपना सामान लेकर आ जाइये।"

मनोरमा ने जो काम बताया था वह उनके अलावा कोई और कर भी नहीं कर सकता था। यह तो मनोरमा का बड़प्पन था कि उसने आगे बढ़कर उन्हें अपनी ही गाड़ी ऑफर कर दी थी और उन्हें ससम्मान सलेमपुर भेजने की तैयारी कर दी थी।


परंतु सरयू सिंह ने जिस कृत्य की तैयारी की थी वह उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण था।

सरयू सिंह ने अभी दो दिनों पहले ही पदोन्नति पाई थी और वह मनोरमा के कृपा पात्र बने थे। कृपा पात्र ही क्या वह मनोरमा के गर्भ में पल रहे बच्चे के पिता भी बन चुके थे । वह किसी भी परिस्थिति में उसका कोपभाजन नहीं बनना चाह रहे थे। वह भागते हुए गए और अपना झोला लपेटा। उन्होंने महिला पंडाल की तरफ जाकर कजरी को आवाज लगाई और उसे सारी वस्तुस्थिति बताई। और अनमने मन से गाड़ी के करीब आ गए।

आज मनोरमा काम पिपासु युवती की भांति नहीं एक सजी-धजी और मर्यादित एसडीएम थी। हालांकि सरयू सिंह उसे अपने मजबूत शरीर के नीचे लाकर उसे कसकर चोद चुके थे फिर भी उसके साथ पिछली सीट पर बैठने की न वह हिम्मत जुटा पाए और न हीं मनोरमा ने यह आग्रह किया।

मनोरमा ने ड्राइवर को आदेश दिया मुझे होटल छोड़ दो और साहब के साथ सलेमपुर चले जाओ।

मनोरमा हमेशा सरयू सिंह को उनके नाम से ही पुकारती थी और अधिकतर नाम के आगे जी जोड़कर उनके व्यक्तित्व का सम्मान बनाए रखती थी परंतु आज मनोरमा ने उन्हें पहली बार साहब कहकर आदर दिया था। सरयू सिंह मनोरमा के कायल हुए जा रहे थे।

ड्राइवर के साथ अगली सीट पर बैठे सरयू सिंह बनारस महोत्सव को पीछे छूटते हुए देख रहे थे।

कुछ ही देर में मनोरमा की कार पांच सितारा होटल के गेट से अंदर प्रवेश कर चुकी थी। होटल की भव्यता देखकर सरयू सिंह आश्चर्यचकित रह गए । 6 मंजिला होटल की बिल्डिंग बेहद खूबसूरत और प्रभावशाली थी। गाड़ी जैसे ही पोर्च के अंदर खड़ी हुई अंदर हल्की-हल्की पीली लाइटों से सुसज्जित रिसेप्शन दिखाई पड़ गया। कितना खूबसूरत था वह होटल। वह उस पांच सितारा होटल की तुलना अपने बुक किए गए होटल से करने लगे। मटमैली जमीन और नीले आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। सरयू सिंह उस होटल में अपनी जान सुगना के साथ रंगरेलियां मनाने की सोचने लगे थे।


मन भी चंचल होता वह भौतिक दुनिया की सीमाओं और मजबूरियों को नजरअंदाज कर अपनी कल्पनाओं में वह हर उस सुख और संसाधन को शामिल करता है जिसे उसने देखा और महसूस किया हो चाहे वह उसके लिए संभव हो या ना हो।

अपनी कामुकता को शांत करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें सुगना जैसी सहभागीनी दे दी थी पर जिस ऐश्वर्य और वैभव के साथ उसका भोग करना चाहिए था वह सरयुसिंह की हैसियत के बाहर था।

यदि भगवान की बनाई सुगना की सुडौल और कमनीय काया की तुलना किसी भी राजरानी या तथाकथित परियों से की जाती तो सुगना की चमकती कुंदन काया निश्चित ही सब पर भारी पड़ती।

सरयू सिंह को अब जाकर पद की अहमियत समझ में आ रही थी। उन्हें पता था मनोरमा जी के पति सेक्रेटरी और अब वह सेक्रेटरी पद की आर्थिक और सामाजिक हैसियत जान चुके थे।


सरयू सिंह वैसे तो संतोषी स्वभाव के व्यक्ति थे परंतु जब जब वह वैभव और ऐश्वर्य को देखते उन्हें हमेशा सुगना की याद आती। वह सुगना को दुनिया के सारे ऐसो आराम देना चाहते थे और संसार की सारी खूबसूरत कृतियों से उसे रूबरू कराना चाहते थे। आखिर वह स्वयं इस संसार की एक अनुपम कलाकृति थी उसे इस वैभव को भोगने का पूरा हक था। सरयू सिंह अपनी भावनाओं में खोए हुए थे तभी मनोरमा कार से निकलकर बाहर आई और सरयू सिंह की तरफ देखकर बोली।

"मैं आपको आपके परिवार से अलग कर रही हूं इसका मुझे अफसोस है परंतु यह कार्य बेहद आवश्यक है और आपके बिना शायद ही कोई इसे पूरी दक्षता से पूरा कर पाए।"

सरयू सिंह ने अपने हाथ जोड़ लिए और खुशी-खुशी बोले

"मैं आपको कभी निराश नहीं करूंगा आपने मुझ पर विश्वास जताया है मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा"

ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। मनोरमा अभी भी सरयु सिंह को एकटक देखे जा रही थी। 2 दिन पहले उनके साथ बिताए पलों को याद करते हुए मनोरमा मुस्कुराते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चली।

इधर सुगना जाग चुकी थी। सुगना की मां पद्मा अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देख खुश हो गई और उसके बालों को सहलाते हुए बेहद प्यार से उसे उठाया। सुगना झटपट उठ ग़यी। उसका आज का पूरा कार्यक्रम पहले से तय था।


सर्वप्रथम वह अपने बाबूजी को देखने के लिए पुरुष पंडाल की तरफ गई। सरयू सिंह अपनी कद काठी की वजह से भीड़ में भी पहचाने जा सकते थे परंतु सुगना की आंखों को सरयू सिंह दिखाई नहीं पड़ रहे थे। सुगना अधीर हो रही थी वह भागती हुई फिर अंदर आई और कजरी को ढूंढने लगी। कजरी स्वयं सुगना को ढूंढ रही थी नजरें मिलते दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ने लगे

" मां बाबूजी कहां बाड़े" सुगना ने अधीर होकर कहा।

सुगना का यह संबोधन उसे और मासूम बना देता था। न तो कजरी उसकी मां थी और नहीं सरयू सिंह उसके बाबूजी पर संबोधनों का यह दौर तब शुरू हुआ था जब सुगना अबोध थी और तब से अब तक काफी समय बीत चुका था।


संबोधनों में अंतर अब भी न था परंतु संबंध बदल चुके थे।

कजरी ने सरयू सिंह के सलेमपुर जाने की बात सुगना को बता दी। सुगना के पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई वह आज के दिन के लिए पूरी तरह आस लगाए हुए थी और मन ही मन अपने गर्भधारण के लिए बेतहाशा चुदने को तैयार थी। बनारस महोत्सव में सूरज की मुक्तिदायिनी का सृजन सुगना के लिए जीवन मरण का प्रश्न था। सुगना का मायूस चेहरा देखकर कजरी परेशान हो गयी।

"ए सुगना काहे परेशान बाड़े?"

सुगना ने कोई उत्तर न दिया उसकी जबान पर विद्यानंद के वचन का ताला लगा हुआ था। वह किस मुंह कजरी को अपनी व्यथा बताती।

सुगना रुवांसी हो गई वह। धीमे धीमे कदमों से आकर पांडाल में बैठ गयी।

मनुष्य की चाल उसके मन में भरे उत्साह या निराशा को स्पष्ट कर देती है।

सुगना जमीन पर बैठ गई उसने अपने दोनों घुटने ऊपर किए और उस पर अपना सर टिका दिया। पदमा और कजरी दोनों सुगना के पास आकर बैठ गयीं और उसकी मनो व्यथा पढ़ने का प्रयास करने लगीं। परंतु जितना ही वह सुगना से उसके व्यथित होने का कारण पूछती सुगना उतना ही दुखी होती।


नियति का यह क्रूर मजाक सुगना को बेहद दुखी कर गया था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे भगवान ने उसके व्रत का उसे कोई प्रतिफल नहीं दिया था। पदमा और कजरी दोनों सुगना की उदासी का कारण जानना चाहते थे।

यदि सुगना को विद्यानंद की बातों पर थोड़ा भी अविश्वास होता तो वह निश्चय ही अपने मन की बात अपनी सास और सहेली कजरी से अवश्य साझा करती। इस समय कजरी सुगना के ज्यादा नजदीक थी बनिस्पत उसकी मां के।

पास लेटे हुए सूरज को देख कर सुगना की ममता हिलोरे मारने लगी। जब जब वह सूरज के मुखड़े की तरफ देखती वह और बेचैन हो जाती। कजरी और पदमा को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। सोनी और मोनी भी अब सुगना के पास आ चुकी थीं। सुगना जिस मुसीबत में थी उसका निदान किसी के पास ना था। सुगना को गर्भवती करने वाले सरयू सिंह अचानक ही सलेमपुर चले गए थे। बनारस महोत्सव का उत्तरार्ध शुरु हो चुका था। सुगना के दिमाग में बार-बार एक ही बात घूम रही थी यदि वह गर्भवती ना हुई तो……. यह यक्ष प्रश्न सुगना की बेचैनी को बढ़ा रहा था।

सोनी ने सुगना से कहा….

"चल दीदी हम लोग लाली दीदी के घर से घूम कर आते हैं"

सुगना सचेत हो गई पर कुछ बोली नहीं सोनी ने दुबारा कहा

"दीदी तुझे रास्ता तो मालूम है ना?"

सुगना के जबाब न देने पर सोनी उसे पैरों से पकड़ कर हिलाने लगी और बोली

"दीदी चल ना ऐसे मुह लटकाने से क्या मिलेगा चल हम लोग वहीं नाश्ता करेंगे"

सुगना ने सोनी की बात मान ली। लाली से मिलकर वह अपना दुख तो साझा नहीं कर सकती थी पर लाली के सानिध्य में रहकर थोड़ा हंसी मजाक कर सहज अवश्य हो सकती थी। सुगना धीरे धीरे उठ खड़ी हूं और अपने आशुओं को पोछते हुए तैयार होने चली गई।


उधर लाली के घर में ..

सोनू आज सुबह-सुबह ही लाली के घर आ धमका था। और अभी लाली की रसोई में अपनी दीदी की मदद कर रहा था। ऐसा नहीं था कि सोनू को अब रसोई के कार्यों में आनंद आने लगा था परंतु नाइटी में घूम रही लाली के शरीर के उभारों को देखने के लालच में सोनू लाली के साथ साथ लगा हुआ था।

सोनू लाली के ठीक बगल में खड़े होकर चाकू से प्याज काट रहा था। उसकी उंगलियां बहुत तेजी से चल रही थी। बगल में खड़ी लाली की उभरी हुई चूचियां सोनू का ध्यान खींच रही थी। जैसे ही लाली मुड़ी उसकी चूँची सोनू की मजबूत बांहों से टकरा गई। सोनू का ध्यान भटक गया और चाकू ने प्याज की जगह सोनू की उंगली को चुन लिया।


"आह" उसके मुंह से चीख निकल गई।

"क्या हुआ सोनू बाबू"


जैसे ही लाली की निगाह सोनू की उंगलियों पर पड़ी उसे सारा वाकया समझ में आ गया। इससे पहले कि सोनू कुछ बोलता लाली ने उसकी उंगली को अपने मुंह में भर लिया और उसे चूस कर खून के बहाव को शांत करने लगी।

खून का बहाव रोकने की यह विधि निराली थी जो आजकल के पढ़े लिखे समाज में शायद कम उपयोग में लाई जाती होगी पर उस समय यह बेहद कारगर थी।

सोनू लाली के सुंदर चेहरे को निहार रहा था और उसके गोल हो चुके हुए होंठ बेहद मादक लग रहे थे। एक पल के लिए सोनू पर महसूस हुआ काश लाली के होठों के बीच उसकी उंगलियां ना होकर उसका लण्ड होता। सोनू के इस ख्याल से ही उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जिसे लाली ने भांप लिया।


उसने उसकी उंगली को मुंह से बाहर निकाला और बड़ी अदा से बोली

" क्या सोच रहा है?" शायद लाली ने उसकी मनोदशा पढ़ ली थी

"कुछ नहीं दीदी"

"सच-सच बता नहीं तो?"

"सच दीदी कोई बात नहीं. देखिए उंगली से खून निकलना भी बंद हो गया"

"तु मुस्कुरा क्यों रहा था? सच बता क्या सोच रहा था? कुछ गंदा संदा सोच रहा था ना?"


लाली सोनू के मुंह में शब्द डालने की कोशिश कर रही थी.

सोनू ने शर्माते हुए कहा

"वह सब गंदी पिक्चरों में होता है ना… मेरे दिमाग में वही बात आ गई."

"क्या होता है साफ-साफ बताना"

"अरे वो विदेशी लड़कियां अपने होठों में लेकर लड़कों का…."

सोनू अपनी बात पूरी नहीं कर सका.

"मैंने तो सुना है कि लड़के भी…. " लाली ने शर्माते हुए कहा परंतु अपनी नजरें सोनू से हटाकर कड़ाही पर केंद्रित कर लीं।

"हां दीदी बहुत मजा आता होगा"। सोनू अब लाली से खुल रहा था।

"छी वह जगह कितनी गंदी होती है लड़के अपना मुंह कैसे लगाते होंगे.."

"दीदी मेरे लिए तो वह जन्नत का द्वार है मुझे तो उसमें कोई गलत बात दिखाई नहीं पड़ती मैं तो उसे चूम सकता हूं और…"

"और क्या.." लाली का चेहरा शर्म से लाल हो चुका था और वह अब सोनू से अपनी नजर नहीं मिला रही थी। कड़ाही मे प्याज भूनते हुए लाली ने सोनू को उकसाया।

"मेरी दीदी की तो मैं चाट भी सकता हूँ"

"अपनी सुगना दीदी की"

"आप कैसी गंदी बात करती हो"

"अरे वाह तूने ही तो कहा"

"अरे मैं अपनी प्यारी दीदी की बात कर रहा था" सोनू ने अपने दोनों हाथ लाली के पेट पर ले जाकर उसे अपनी और खींच लिया। सोनू का तना हुआ लण्ड लाली के नितंबों के बीच आ गया और उसकी गांड में छेद करने को आतुर हो गया।

लाली ने सोनू को फिर छेड़ा..

"अरे वाह सुगना के नाम से तो छोटे नवाब भी तन गए हैं"

सोनू को गुस्सा आ रहा था परंतु लाली की मदमस्त जवानी उसे अपना गुस्सा व्यक्त करने से रोक रही थी परंतु सोनू ने अपने लण्ड का दबाव लाली के नितंबों पर और बढ़ा दिया

"उइ माँ सोनू बाबू तनी धीरे से…."

सोनू ने लाली को छोड़ तो दिया था पर लाली खुद अपने चीखने का अफसोस कर रही थी। सोनू के लण्ड के सु पाडे ने उसकी बुर के होठों को सहला दिया था।

लाली अब आटा गूथ रही थी और सोनू उसे पीछे से अपने आगोश में लिए हुए था। उसकी हथेलियां लाली के कोमल हाथों के ऊपर घूम रही थी जो आटे से सनी हुयी थी। सोनू का पूरा शरीर लाली से सटा हुआ था और लण्ड रह-रहकर उसके नितंबों से छू रहा था सोनू लाली के सानिध्य का आनंद जी भर कर उठा रहा था।

सोनू की हथेलियां धीरे-धीरे लाली की भरी भरी चूची ऊपर आ गई। लाली जैसे-जैसे आटे को गूथ रही थी सोनू उसी लय में उसकी चुचियों को मीस रहा था। जैसे-जैसे लाली की उंगलियां चलती वैसे वैसे सोनू अपनी उंगलियां घुमाता। उधर उसका लण्ड अभी भी लाली के नितंबों में जगह-जगह छेद करने का प्रयास कर रहा था।


सोनू और लाली की मीठी छेड़छाड़ जारी थी। लाली में आह भरी। तवा गर्म हो चुका था…. गैस पर रखा हुआ भी और लाली की जांघों के बीच भी...

इधर सोनू और लाली मिलन की तैयारी में थे उधर सुगना और सोनी बनारस महोत्सव से लाली के घर आने के लिए निकल चुके थे..

कुछ अप्रत्याशित होने वाला था.


शेष अगले भाग में।
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भाग 54
सोनू और लाली की मीठी छेड़छाड़ जारी थी। लाली में आह भरी। तवा गर्म हो चुका था…. गैस पर रखा हुआ भी और लाली की जांघों के बीच भी...

इधर सोनू और लाली मिलन की तैयारी में थे उधर सुगना और सोनी बनारस महोत्सव से लाली के घर आने के लिए निकल चुके थे..

अब आगे..


लाली रोटियां बना रही थी और सोनू उसके गदराए बदन को सहला रहा। अब से कुछ देर पहले आटा गूँथते समय सोनू ने उसकी चुचियों को खूब मीसा था जिसका असर उसकी जांघों के बीच छुपी हुई बुर पर भी हुआ था जो अपनी लार टपका रही थी.

सोनू उस चासनी जैसी लार की कल्पना कर मदहोश हो रहा था। उसकी जीभ फड़फड़ा रही थी। वह अपनी दीदी के अमृत कलश से अमृत पान करना चाह रहा था। जैसे ही लाली ने रोटियां बनाना खत्म किया सोनू ने उसे उठा लिया और किचन स्लैब पर बैठा दिया.

"अरे सोनू क्या कर रहा है? गिर जाऊंगी"

"कुछ नहीं दीदी आप बैठे हो तो".

"लाली इतनी भी नासमझ न थी चार पांच वर्षों के वैवाहिक जीवन के पश्चात उसे स्लैब पर बैठने का अनुभव था और उसके बाद होने वाले क्रियाकलापों का भी। परंतु आज राजेश की जगह सोनू था लाली की नजरों में नासमझ और अनुभवहीन.

"क्या कर रहा है?".

"मुझे चासनी चाटनी है"

"लाली सोनू की मंशा समझ चुकी थी उसने हटाते हुए कहा.."

"अच्छा रुक में बाथरूम से आती हूं" लाली नहीं चाहती थी कि वह अपनी बुर से टपकती हुई लार सोनू को दिखाएं और अपने छोटे भाई के सामने अपनी उत्तेजना का नंगा प्रदर्शन करें".

परंतु सोनू नहीं माना वह अधीर हो गया और उसने लाली की नाइटी को ऊपर करना शुरू कर दिया. लाली के पैर नग्न होते गए जांघो तक पहुंचते-पहुंचते सोनू का सब्र जवाब दे गया। उसने अपने सर को लाली की दोनों जांघों के बीच रखा और नाइटी पर से अपना ध्यान हटा लाली की जांघों को अपने गालों से सहलाने लगा। नाइटी एक बार फिर नीचे आ चुकी थी परंतु सोनू नाइटी के कोमल आगोश में छुप गया था।

सोनू के होठ धीरे-धीरे लाली की जांघों के जोड़ की तरफ बढ़ रहे थे सोनू जैसा अधीर किशोर आज बेहद धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था लाली की बुर से आ रही खुशबू उसके नथुनों में भर रही थी वह उस मादक एहसास को खोना नहीं चाह रहा था।

कुछ ही देर में उसके होंठों ने अपनी प्रेमिका के निचले होठों को चूम लिया और उसकी लप-लपपाती जीभ अमृत कलश के मुहाने पर छलके प्रेम रस का आनंद लेने लगी।

लाली कांप रही थी ऐसा नहीं था की लाली को यह सुख पहली बार मिल रहा था परंतु आज यह सुख उसे अपने ही मुंहबोले छोटे भाई से मिल रहा था। नाइटी के अंदर सोनू के सर को सहलाते हुए कभी वह उसे अपनी तरफ खींचती कभी दूर करती। परंतु सोनू की जीव अमृत कलश पर से हटने को तैयार न थी।

सोनू की जीभ लाली की बुर की गहराइयों में उतर जाना चाहती थी। सोनू की नाक लाली के भग्नासा से टकरा रही थी। कुछ ही देर में लाली में अपने सोनू के लिए इतनी चासनी उड़ेल दी जिसे खत्म कर पाना सोनू के बस में नहीं था।

सोनू का चेहरा कामुक लाली के प्रेम रस से सन गया था ऐसा लग रहा था जैसे सोनू बड़े से पतीले में चासनी में तैर रहे रसगुल्ले को बिना अपने हाथों की सहायता से खाने का प्रयास कर रहा था।

सोनू अभी भी उस सुखद अहसास को छोड़ना नहीं चाह रहा था परंतु लाली ने स्लैप पर पड़े गिलास को नीचे गिरा कर उसका ध्यान भंग किया और जैसे ही सोनू ने अपना सर दूर किया लाली स्लैब से उतर गई इस बार लाली ने स्वयं ही अपनी नाइटी को ऊपर उठाया और सोनू को अपने कोमल और मखमली घेरे से आजाद कर दिया। सोनू उठ खड़ा हुआ उसके होठों और नाक पर लगी हुई चाशनी को देखकर लाली मोहित हो गई उसनें आगे बढ़कर सोनू के होठों को चूम लिया और बोली..

"सब कुछ बड़ा जल्दी सीख लिए हो पर पूरा चश्नी अपना मुंह में लभेर लिए हो"

सोनू की आंखों में वासना का असर साफ दिखाई दे रहा था उसकी भूख अभी शांत नहीं हुई थी उसने लाली को उठा लिया और हाल में रखे चौकी पर ले आया।

कुछ ही देर की चुदाई में लाली स्खलित हो गई। आधा कार्य तो सोनू के होठों ने पहले ही कर दिया था बाकी सोनू के मजबूत लण्ड ने कर दिया ।

अंदर कमरे में बच्चे सो रहे थे। लाली शीघ्र ही सोनू को स्खलित करना चाहती थी उसने अपना दांव खेला और एक बार फिर वह डॉगी स्टाइल में उपस्थित थी। सोनू आज दिन के उजाले में लाली के नितंबों को अनावृत कर उसके भी छुपे छेद का भोग करने लगा। लाली की गांड पर आज पहली बार उसका ध्यान गया। वह उतनी ही आकर्षक थी। जितनी लाली की रसीली बुर सोनू लाली की खूबसूरती का आनंद लेते हुए उसे गचागच चोद रहा था। कमरे में थप... थप..थप.. की मधुर आवाज गूंज रही थी. .

इधर सोनू और लाली की चुदाई जारी थी उधर दरवाजे पर सुगना आ चुकी थी। सोनी लालय के घर के सामने की परचून की दुकान पर लाली के बच्चों के लिए लॉलीपॉप लेने चली गई। और सुगना अपने प्यारे सूरज को गोद में लिए हुए लाली के दरवाजे पर आकर खड़ी थी। कमरे के अंदर से आ रही थप..थपा ..थप…..थप की आवाजें आ रही थी। छोटा सूरज भी अनजान ध्वनि से रूबरू हो रहा था और उछल उछल कर दरवाजे की तरफ जाने का प्रयास कर रहा था लगता था उसे यह मधुर थाप पसंद आ रही थी।

सुगना को वह आवाज जानी पहचानी लग रही थी उस ने भाप लिया कि अंदर लाली चुद रही है। सुगना शर्म से लाल हो गई उसकी दरवाजा खटखटाने की हिम्मत ना हुई वह दरवाजे के पास खड़ी लाली के नितंबों पर पड़ रही मधुर थाप को सुनती रही.

सोनी को दरवाजे की तरफ आते देख सुगना की सांसें फूल गई. वह भागती हुई सोनी की तरफ आई और बोली

"लगता है लाली अब तक सो रही है"

"अपने दरवाजा खटखटाया था"

" हां एक बार खटखटाया था" सुगना ने मीठा झूठ बोल दिया।

"अरे अब कोई सोने का वक्त है। रुकिए में खटखटाती हू"

सोनी सुगना को किनारे कर दरवाजे की तरफ बढ़ गई सुगना मन ही मन ऊपर वाले से प्रार्थना करने लगी की राजेश और लाली के बीच चल रहा प्रेम समाप्त हो चुका हो उसे क्या पता था कि अंदर लाली को चोद रहा व्यक्ति उसका पति राजेश नहीं सुगना का अपना भाई सोनू था. किशोर सोनी अंदर चल रही घटनाओं से अनजान थी उसने दरवाजा खटखटा दिया.

" दरवाजा खटखटाया जाने से लाली घबरा गई थी परंतु सोनू अभी भी उसे घपा घप चोदे जा रहा था अपनी उत्तेजना के आवेश में उसने लाली के नितंबों को अपने लण्ड पर तेजी से खींचा और लण्ड को एक बार फिर जड़ तक ठान्स दिया।

सोनू की पिचकारी फुलने पिचकने लगी लाली ने अपने आपको उससे अलग किया परंतु लण्ड से निकल रही वीर्य की धार लाली के शरीर पर गिरती रही लाली चौकी से उठकर दरवाजे की तरफ बढ़ रही थी और सोनू अपने वीर्य से उसे भिगोने की कोशिश कर रहा था.

वीर्य की धार जितना लाली के शरीर पर गिरी थी उतनी ही चौकी पर बिछे चादर पर भी थी और उसके कुछ अंश जमीन पर भी गिरा रहा था।

लाली ने दरवाजे की सांकल खोलने से पहले सोनू की तरफ देखा जो अपना पैजामा ऊपर कर रहा था.

जब तक लाली दरवाजा खोलती सोनू बाथरूम में घुस गया सुगना और सोनू अंदर आ चुके थे.

सोनी ने चहकते हुए कहा

"अरे लाली दीदी तो नहा धोकर तैयार हैं पर आपके बाल क्यों बिखरे हुए हैं. और आप हांफ क्यों रही हैं?

सुगना ने तो लाली की स्थिति देखकर ही अंदाजा लगा लिया था। कमरे से आ रही मधुर थाप, लाली के तन की दशा और दिशा दोनों को ही चीख चीख कर लाली की चुदाई की दास्तान कह रहे थे।

रेलवे के मकानों के सीमेंट से बने फर्श पर वीर्य की लकीर साफ दिखाई पड़ रही थी .

सोनी ने लाली के चरण छुए और इसी दौरान उसके नथुनों में लाली की ताजा चुदी हुई बुर की मादक खुशबू समा गई। सोनी ने लिए यह गंध जानी पहचानी सी लगी सोनी ने कई बार अपनी बुर को सहला कर उस से निकल रहे रस को सूंघ कर उसे जानने पहचानने की कोशिश की थी।

वह उस गंध के बारे में सोचती हुई चौकी पर बैठने लगी सोनी के नितंबों से पहले उसकी हथेलियों ने चौकी पर बिछी हुई चादर को छू लिया और चादर पर गिरा हुआ सोनू का बीर्य सोनी की हथेलियों में लग गया..

"छी राम लाली दीदी यह क्या गिरा है"

"लाली सन्न रह गई उसे कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था उसने अपने अनमने मन कहा

"अरे सोनी पानी गिर गया होगा"

"नहीं दीदी यह चिपचिपा है" सोनी बेपरवाह होकर अपनी बात रख रही थी।

सुगना पूरी तरह समझ चुकी थी कि वह निश्चित ही वीर्य की धार ही थी.

चादर पर गिरा हुआ वीर्य एक लकीर की भांति अपना निशान छोड़ चुका था। यह निशान भी वैसा ही था जैसा सुगना ने फर्श पर पहले ही देख लिया था सुगना ने सोनी से कहा।

"जा बाथरूम में हाथ धो ले मैं चादर बदल देती हूँ"

लाली स्वयं असहज स्थिति में थी । सोनू की भरपूर चुदाई से वह थक चुकी थी उसकी तेज चल रही सांसे धीरे-धीरे सामान्य हो रही थी। वह चादर लेने कमरे में जाने लगी।

सोनी ने लाली से पूछा

"लाली दीदी जीजा जी कहां है?"

"अरे वह शाम को आएंगे"

सुगना का दिल धक से हो गया इससे पहले कि वह कुछ सोच पाती बाथरूम से सोनू बाहर आ गया और उसके चरण छूते हुए बोला

"अरे दीदी आप ..अचानक"

"अरे सोनू भैया तो लाली दीदी के यहां है हम लोग वहां आपका इंतजार कर रहे थे."

मैं तो लाली दीदी को लेकर वहीं आ रहा था

"जीजू नहीं थे ना इसलिए मैं वाली दीदी को लेने आ गया था यह भी मेला में जाना चाहती थी।"

सोनू ने अपनी बातों से सोनी और सुगना को समझा तो लिया था. परंतु सुगना ने अपने कानो से जो सुना था और चादर तथा जमीन पर पड़ी वीर्य की लकीरों को अपनी आंखों से देखा था उसे झुठला पाना असंभव था। सुगना को पूर्ण विश्वास हो चला था की लाली और सोनू ने मर्यादाओं को तोड़ कर भरपूर चुदाई की है।

लाली भी चादर लेकर बाहर आ चुकी थी।

कुछ ही देर में स्थिति सामान्य हो गई और लाली द्वारा बनाई गई रोटियां सभी मिलजुल कर खाने लगे.

सोनु अपनी आंखें झुकाये हुए खाना खा रहा था। वह सोनी से तो बात कर रहा था परंतु सुगना से बात करने और नजरें मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। अब से कुछ देर पहले ही वह उसकी प्रिय सहेली को कस कर चोद चुका था।

कुछ देर की औपचारिक बातचीत के पश्चात सुगना ने सोनू से कहा जा सोनी को पंडाल में छोड़ आ और जाते समय यह सामान पांडाल में लिए जाना।। सुगना में कुछ सामानों की फेहरिस्त उसे बता दी और सोनू और सोनी लाली के घर से पांडाल के लिए निकल गए घर में अब सुगना और लाली ही थे।

लाली के बच्चे भी अब सूरज का ध्यान रखने लायक हो गए थे। सूरज इन दोनों के साथ बिस्तर पर आराम से खेल रहा था। सुगना बिस्तर पर अपने बालक को उन्मुक्त होकर खेलते हुए देखकर मन ही मन गदगद थी। परंतु जब जब उसे विद्यानंद की बातें याद आ रही थी। वह बेचैन होती जा रही थी। बनारस महोत्सव के 4 दिन बीत चुके थे।

सुगना का गर्भधारण एक जटिल समस्या बन चुकी थी। बनारस महोत्सव से लाली के घर आते समय सुगना अपनी शर्मो हया त्याग कर राह चलते मर्दो को देख रही थी क्या उसके गर्भ में बीज डालने के लिए कोई मर्द ना बचा था। उसके मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। कभी वह अपने अश्लील खयालों को सोच सोच खुद ही शर्मसार होती और कभी ऊपर वाले से यही गुहार करती कि एन केन प्रकारेण उसका गर्भधारण संपन्न हो और उसे सूरज की मुक्तिदायिनी बहन को जन्म देने का अवसर प्राप्त हो परंतु कोई उपाय न सूझ रहा था।

अपनी इस दुविधा को वह न तो किसी से बता सकती थी और न हीं अकेले गर्भधारण उसके बस में था। उसने हिम्मत जुटा घर लाली से अपना दुख साझा करने की सोची। विद्यानंद द्वारा दी गई नसीहत ओं का उसे पूरा ख्याल था परंतु बिना लाली के सहयोग के उसे और कोई रास्ता ना सूझ रहा था। उसने लाली के हाँथ को अपने कोमल हाथों में लेते हुए पुरी संजीदगी से कहा

"लाली मुझे दोबारा गर्भधारण करना है"

'अरे मेरी कोमल गुड़िया इतनी जल्दी क्या है बच्चा जनने की. अभी सूरज को और बड़ा हो जाने दे"

"नहीं तू नहीं समझेगी. मुझे यह कार्य इन 2 दिनों में ही करना है" लाली की आंखें आश्चर्य से फटी जा रही थी उसे सुगना की बात बिना सर पैर के प्रतीत हो रही थी। उस ने मुस्कुराते हुए कहा

"तू पागल हो गई है क्या?. अभी 2 दिन में तू कहां से गर्भधारण करेगी? रतन भैया जब आएंगे तब जी भर कर चुद लेना मेरी जान और फिर अपना पेट फुला लेना। "

लाली को क्या पता, सुगना की बेचैनी का कारण क्या था.

जिस प्रकार मानसिक वहम का शिकार व्यक्ति चाहकर भी अपनी बात दूसरे को नहीं समझा पाता हूं वही हाल सुगना का था वह अपने गर्भ धारण की जल्दी बाजी को बयां कर पाने में सर्वथा असमर्थ थी।

सुगना उदास हो गई उसने अपना सिर झुका लिया उसकी आंखों में पानी छलक आया। उसके मन में अचानक उठ रहा उम्मीदों का बुलबुला फूट गया। लाली भी क्या करती सुगना का गर्भधारण उसके बस में तो था नहीं। फिर भी उसने सुगाना के चेहरे की उदासी न देखी गयी वह उसकी अंतरंग सहेली थी उसने सुगना के चेहरे को अपनी हथेलियों से उठाया और बोला

"सुगना मुझे खुलकर बता क्या बात है"

"चल चल छोड़ जाने दे" सुगना ने कोई उत्तर न दिया वह उठकर रसोई की तरफ चली गई. लाली भी उसके पीछे पीछे आ गयी और उसे बाहों में पकड़ते हुए बोली..

" देख रतन भैया तो है नहीं और बिना इस रानी को खुश किये तू गर्भवती हो नहीं सकती। मेरी रानी नियोग के लिए इसका भोग लगवाना होगा " लाली ने सुगना की जांघों के बीच अपनी उंगलियां फिराते हुए बोला।

सुगना चुप ही रही उसकी शांति को लाली ने उसकी रजामंदी समझ कर कहा

"एक मर्द है परंतु मुझे नहीं पता वह तेरे साथ ऐसा कार्य कर पाएगा या नहीं…"

सुगना परेशान थी परंतु वह व्यभिचार के लिए किसी भी तरीके से तैयार न थी। उसके अंतर्मन में कई बार राजेश का ख्याल अवश्य आ रहा था परंतु जब जब वह अपने ख्यालों में उसके साथ स्वयं को नग्न रूप में देखती वह स्वयं को बेहद असहज महसूस करती और अपने ख्याल को तुरंत त्याग देती। राजेश के साथ मीठी छेड़खानी तो वह कई बार कर चुकी थी और अपने पिछले प्रवास के दौरान अपनी नग्न जांघों के दर्शन भी उसने राजेश को करा दिए थे। परंतु इससे आगे बढ़कर अपनी जांघे खोल कर उससे चुदने की कल्पना करना उसके लिए कठिन हो रहा था।

सुगना कतई व्यभिचारिणी नहीं थी वह हंसते मुस्कुराते और कामुकता का आनंद लेती थी परंतु अपनी सहेली के बिस्तर पर बिछकर उसके ही पति से चुदना उसके लिए यह बेहद शर्मनाक सोच थी।

जैसे-जैसे बनारस महोत्सव का समय बीत रहा था सुगना की अधीरता बढ़ रही थी वह अपने दिमाग में गर्भधारण के तरह-तरह के उपाय सोचने लगी। आखिर संभोग में होता क्या है लिंग और योनि का मिलन तथा लिंग से निकले उस श्वेत धवल हीरे का गर्भ पर गिरना और गर्भाशय द्वारा उसे आत्मसात कर एक नए जीव का सृजन करना। सुगना को नियति के इस खेल का सिर्फ इतना ही ज्ञान था।

क्या किसी पुरुष के वीर्य को वह अपने गर्भ में नहीं पहुंचा सकती? क्या इसके लिए संभोग ही एकमात्र उपाय है ? सुगना का दिमाग तेजी से चलने लगा अपनी व्यग्रता में उसने अपनी समझ बूझ के आधार पर एक नया मार्ग निकाल लिया.

वह अपने मन में उम्मीद लिए हुए लाली के पास पहुंची जो अपने बेटे राजू को खाना खिला रही थी। बच्चों के सामने ऐसी बातें करने में सुगना शर्मा रही थी। उसने इंतजार किया और अपनी सोच को सधे हुए शब्दों में पिरोने की कोशिश करने लगी ।

लाली राजू को खाना खिला कर बर्तन रखने की रसोई में आ गई और सुगना उसके पीछे पीछे।

"ए लाली क्या बिना मिलन के भी गर्भधारण संभव है" लाली का ज्ञान भी सुगना से कम न था

दोनों ने प्राथमिक विद्यालय से बमुश्किल स्नातक की उपाधि ली थी।

"लाली ने मुस्कुराते हुए कहा हां हां क्यों नहीं महाभारत की कहानी सुनी है ना?"

"सुगना के मन में फूल रहे गुब्बारे की हवा निकल गई उसे पता था न तो इस कलयुग में वैसे दिव्य महर्षि थे और न हीं सुगना एक रानी थी"

"ए लाली यदि किसी आदमी का वीर्य अपने अंदर पहुंचा दें तो क्या गर्भ ठहर सकता है।"

"अरे मेरी जान इतनी क्यों बेचैन है कुछ दिन इंतजार कर ले वरना मेरे पास एक और रास्ता है"

"सुगना ने शर्म से अपनी आंखें झुका ली उसे पता था लाली क्या कहने वाली है" राजेश के उसके प्रति आकर्षण को लाली कई बार व्यक्त कर चुकी थी और वह स्वेच्छा से राजेश को उसे समर्पित करने को तैयार थी।

"जाने दे मुझे तेरा रास्ता नहीं सुनना मैं जीजाजी के साथ वो सब नहीं कर सकती"

"अरे क्या मेरे पति में कांटे लगे हैं?"

" तू कैसी बीवी है तुझे जलन नहीं होगी"

"अरे मेरी जान मुझे जलन नहीं बेहद खुशी होगी यदि मेरे पति तेरे किसी काम आ सके"

"तू भटक गई है मैं कुछ और बात कह रही थी"

" क्या बात पहेलियां क्यों बुझा रही है साफ-साफ बोलना"

"मैं सोच रही थी की क्या पुरुष वीर्य को अपने गर्भ में पहुंचा कर मैं गर्भवती हो सकती हूँ?"

"और यह पुरुष वीर्य तुझे मिलेगा कहां"

"मेरी सहेली है ना? अभी सुबह जो इस कमरे में हो रहा था उसका एहसास मुझे बखूबी है तूने सोनू को आखिर अपने मोहपास में बांध ही लिया"

"ओह तो तूने सोनू को मिठाई खाते हुए देख लिया"

"नहीं मैंने खाते हुए तो नहीं देखा पर मुझे मिठाई खाने की चप चप...की आवाज जरूर सुनाई पड़ रही थी" अब शर्माने की बारी लाली की थी। वह आकर सुगना से लिपट गई चारों बड़ी-बड़ी चुचियों ने एक दूसरे का चुंबन स्वीकार कर लिया। जैसे-जैसे दोनों सहेलियों का आलिंगन कसता गया सूचियों का आकार गोल से सपाट होता गया।

लाली ने सुगना के कान में कहा..

"मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू है बता कौन सा लड्डू खाएगी"

सुगना ने अब तक सिर्फ और सिर्फ राजेश के बारे में ही सोचा था उसने अपने ख्यालों में राजेश के वीर्य से स्वयं को अपने मन में चल रही अनोखी विधि से गर्भवती करना स्वीकार कर लिया था।

"जिसने मेरी सहेली को दो प्यारे प्यारे फूल दिए हैं"

"पर कहीं होने वाले बच्चे का चेहरा राजेश पर गया तो तू दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगी"

मेरे ख्याल से तुझे दूसरा लड्डू ही लेना चाहिए

"क्या तू सोनू की बात कर रही है"

"मेरे पास और कोई उपाय नहीं दिख रहा है वैसे भी वो बाहर है पता नहीं कब आएंगे" लाली ने उत्तर देकर निर्णय सुगना पर ही छोड़ दिया।

"अरे जरूरी थोड़ी ही है कि उसका चेहरा पिता पर ही जाए मुझ पर भी तो जा सकता है" सुगना ने उत्तर दिया और मन ही मन खुद को राजेश के वीर्य से गर्भवती होने के लिए तैयार कर लिया था।

"ठीक है तो उनका इंतजार कर मैं कुछ उपाय करूंगी"

इंतजार शब्द ने सुगना के अंतर्मन पर गहरा प्रभाव दिखाया यही वह शब्द था जो उसे और अधीर कर रहा था। समय तेजी से बीत रहा था सुगना चैतन्य हो गयी। लाली ने एक बार फिर कहा..

"मैं अभी भी दूसरे लड्डू के पक्ष में हूं। उसे तो पता भी नहीं चलेगा अभी नया नया नशा है दिन भर पिचकारी छोड़ता रहता है. यदि तू कहे तो प्रयास किया जा सकता है" लाली हंस रही थी।

सुगना ने सर झुका लिया और बोला

"जैसी तेरी मर्जी"

उसके चेहरे के हाव भाव यह इशारा कर रहे थे कि वह लाली की बातों से इत्तेफाक नहीं रख रही थी पर मरता क्या न करता सुगना ने अनमने मन से ही सही लाली की बात को स्वीकार्यता दे दी थी। लाली ने सुगना के कोमल चेहरे को ठुड्डी से पकड़कर उठाते हुए कहा..

"अरे मेरी प्यारी चल मैं कुछ उपाय करती हूं, सुगना प्रसन्न हो गयी उसने अपनी आत्मग्लानि और मन में चल रहे द्वंद्व पर पर विजय पा लिया था"

सुगना ने अपने मन में चल रहे बवंडर को लाली के हवाले कर कुछ पलों के लिए चैन की सांस ले ली।

कल व्रत करने के पश्चात आज सुगना ने अपनी सहेली लाली और सोनू के सहयोग से बनी रोटियां कुछ ज्यादा ही खा ली थी भोजन में अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। सुगना जम्हाई भरने लगी। दिमाग में चल रहा द्वंद्व भी कुछ हद तक शांत हो गया था।

सुगना लाली के बिस्तर पर लेट गई और छोटे सूरज ने करीब आकर उसकी चूचियां बाहर निकाल ली और दुग्ध पान करने लगा सुगना धीरे धीरे सुखद नींद की आगोश में चली गई परंतु उसका अवचेतन मन अब भी जागृत था।

सुखना और लाली ने गर्भधारण के लिए जो तरीका चुना था वह अनोखा था उसने नियति के कार्य को और दुरूह बना दिया था नियति अपने ही बनाए जाल में फंस चुकी थी….
बहुत ही बेहतरीन अपडेट है
सोनू और लाली की धमाकेदार चूदाई हो रही है सुगना को भी लाली ने अपने दोनो हाथों के लड्डू के बारे में बता दिया देखते हैं सुगना कोन सा लड्डू खाती हैं
 

Sanju@

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भाग 55

अब तक आपने पढा...

कल व्रत करने के पश्चात आज सुगना ने अपनी सहेली लाली और सोनू के प्रेम और सहयोग से बनी रोटियां कुछ ज्यादा ही खा ली थी भोजन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। सुगना जम्हाई भरने लगी। दिमाग में चल रहा द्वंद्व भी कुछ हद तक शांत हो गया था।

सुगना लाली के बिस्तर पर लेट गई और छोटे सूरज ने करीब आकर उसकी चूचियां बाहर निकाल ली और दुग्ध पान करने लगा सुगना धीरे धीरे सुखद नींद की आगोश में चली गई परंतु उसका अवचेतन मन अब भी जागृत था।


अब आगे…..

धान की लहराती फसलों के बीच बनी कुटिया में खड़ी सुगना धरती पर बिछी हरियाली को देख रही थी जहां तक उसकी नजर आती धान के कोमल पौधे धरती पर मखमली घास की तरह दिखाई पड़ रहे थे। खेतों में एड़ी भर पानी लगा हुआ था। इन्हीं खेतों मे वह सोनू तथा अपनी छोटी बहनों सोनी और मोनी के साथ खेला करती थी। सुगना अपने बचपन की खूबसूरत यादों में खोई हुई थी परंतु उसके मन में विद्यानंद की बात गूंज रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसके दिमाग की शांति में ड्रम बजा कर कोई खलल डाल रहा हो। सुगना के मस्तिष्क में जितनी शांति और सुंदरता थी, मन में उतना ही उद्वेग और अस्थिरता.

विद्यानंद की आवाज उसके दिमाग में और भी तीव्र होती गई तुम्हें गर्भधारण करना ही होगा अन्यथा अपने पुत्र के साथ संभोग कर तुम्हें उसे मुक्ति दिलानी होगी यह आवाज अब सुगना को डराने लगी थी। जैसे-जैसे वह आवाज तीव्र होती गई सुगना की आंखों के सामने दृश्य बदलते गए वह मुड़ी और कुटिया की चारपाई पर एक युगल को देख आश्चर्यचकित हो गयी.

चारपाई पर लेटा हुआ युवक पूरी तरह नग्न था। सुगना को उस पुरुष की कद काठी जानी पहचानी लग रही थी परंतु चेहरे पर अंधेरा कायम था वह अपनी आंखें बड़ी-बड़ी कर उस व्यक्ति को पहचानने की कोशिश कर रही थी परंतु वह चाह कर भी उसे पहचान न सकी।

चारपाई पर बैठी हुई युवती का चेहरा भी अंधेरे में डूबा हुआ था परंतु उसकी कद काठी से सुगना ने उसे पहचान लिया और बोली..

"लाली... ये कौन है"

लाली ने न कोई उत्तर न दिया न उसकी तरफ देखा। वह उस युवक के लण्ड से खेल रही थी। वह चर्म दंड बेहद आकर्षक और लुभावना था। जैसे-जैसे अपनी उंगलियों और हथेलियों से उसे सहलाती वह अपना आकार बढ़ा रहा था और कुछ ही देर में वह पूरी तरह तन कर खड़ा हो गया।

उस गेहूंये रंग के या चर्म दंड पर उस स्त्री की गोरी उंगलियां बेहद खूबसूरत लग रही थी। उस स्त्री ने लंड की चमड़ी को नीचे खींचकर सुपाड़े को अनावृत करने का प्रयास कर रही थी। बेहद सुंदर और सुडोल था उस लण्ड का सुपाड़ा। लण्ड की चमड़ी पूरी तरह उस सुपाड़े को अपने आगोश में ली हुई थी। उस स्त्री को सुपारी को अनावृत करने में अपनी उंगलियों का दबाव लगाना पड़ रहा था। लण्ड का सुपाड़ा किसी नववधू के चेहरे की तरह अनावृत हो रहा था।

सुगना एक स्त्री को पुरुष का हस्तमैथुन करते देख शर्मा रही थी परंतु ध्यान मग्न होकर वह दृश्य देख रही थी उसका सारा आकर्षण अब उस लण्ड और उस पर घूमती उस स्त्री की उंगलियों पर केंद्रित था। लण्ड का सुपाड़ा पूरी तरह अनावृत होते ही सुगना उसकी खूबसूरती मैं खो गई। उस पुरुष का तना हुआ लण्ड जितना सुदृढ़ और मजबूत प्रतीत हो रहा था उतना ही कोमल उसका सुपाड़ा था। सुगना की उंगलियां फड़फड़ाने लगी वह उस लिंग को अपने हाथों से छूना चाहती थी और उसकी मजबूती और कोमलता दोनों को एक साथ महसूस करना चाहती थी।

सुगना की आंखें अब भी उस पुरुष को पहचानने की कोशिश कर रही थी। जैसे-जैसे उस स्त्री की उंगलियां लण्ड पर घूमती गई उस युवक के शरीर में ऐठन सी होने लगी। वह कभी अपने पैर फैलाता कभी पैर की उंगलियों को तान लेता कभी सिकोड़ता।

उस स्त्री की उंगलियों के जादू में उस युवक की तड़प बढ़ा दी थी ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस युवक की जान उस लण्ड में केंद्रित हो गई थी।

सुगना यह दृश्य देखकर पानी पानी हो गई उस पर उसकी उत्तेजना हावी हो चली थी। सुगना की बुर पनिया गई थी जैसे-जैसे वह युवक इस स्खलन के करीब पहुंच रहा था सुगना के मन में चल रही उत्तेजना अपने चरम पर पहुंच रही थी।

तभी उसे आवाज सुनाई दी

"ए सुगना आ जा" उस स्त्री की आवाज गूंजती हुई प्रतीत हुई एक पल के लिए सुगना को वह आवाज लाली की लगी।

सुगना यंत्रवत उस स्त्री के बेहद करीब पहुंच गई।

उस स्त्री ने अपने दूसरे हाँथ से सुगना के घागरे को ऊपर करने की कोशिश की। सुगना ने उसके इशारे को समझा और अपने दोनों हथेलियों से घागरे को अपनी कमर तक खींच लिया। सुगना की जाँघे और उसके जोड़ पर बना घोंसला नग्न हो गया। छोटे छोटे बालों के झुरमुट से झांकती हुई उसके बुर की दोनों फांके खुली हुयी थी तथा उस पर छलक आया रस नीचे आने गिरने के लिए बूंद का रूप ले चुका था।

लाली ने हथेली से सुगना के बुर् के होठों को छू कर न सिर्फ उस बूंद को अपनी हथेलियों का सहारा दिया अपितु होठों पर छलका मदन रस चुरा लिया । उस स्त्री की कोमल उंगलियों का स्पर्श अपने सबसे कोमल अंग पर पाकर सुगना सिहर उठी उसने अपनी जांघें सिकोड़ी और कमर को थोड़ा पीछे कर लिया परंतु कुछ न बोली नहीं ।

अपने होठों को अपने ही दातों में दबाए सुगाना यह दृश्य मंत्रमुग्ध होकर देख रही थी। स्त्री ने सुगना के प्रेम रस से भीगी हुई उंगलियां वापस उस युवक के लण्ड पर सटा दी सुगना के प्रेम रस ने स्नेहक का कार्य किया और उसी युवक का लण्ड इस चिकने दृव्य से चमकने लगा। स्त्री की उंगलियां अब बेहद आसानी से उस मजबूत लण्ड पर फिसलने लगीं उत्तेजना चरम पर थी।

जब जब उस स्त्री की हथेलियां लण्ड के सुपारे पर पहुंचती वह युवक उत्तेजना से सिहर उठता स्त्री अपने अंगूठे से सुपारे के निचले भाग को जैसे ही सहलाती युवक फड़फड़ाने लगता ... उसके मुंह से आह... की मधुर आवाज सुनाई पड़ती वह कभी अपने मजबूत हाथों से उस स्त्री के हाथों को पकड़ने की कोशिश करता कभी हटा लेता।

स्त्री बीच-बीच में सुगना की बुर से प्रेम रस चुराती और उस युवक ने लण्ड पर मल कर उसे उत्तेजित करती रहती। जब बुर् के होठों से प्रेम रस खत्म हुआ तो उसकी उंगलियां सुगना की बुर की गहराइयों में उतरकर प्रेम रस खींचने का प्रयास करने लगीं।

अपने बुर पर हथेलियों और उंगलियों के स्पर्श से सुगना स्वयं भी स्खलन के करीब पहुंच रही थी। यह दृश्य जितना मनोरम था उतना ही उस स्त्री का स्पर्श भी। वह युवक स्त्री की उंगलियों के खेल को ज्यादा देर तक न झेल पाया और लण्ड ने वीर्य की धार छेड़ दी।

वीर्य की पहली धार उछल कर ऊपर की तरफ गई और सुगना की आंखों को के सामने से होते हुए वापस उस युवक की जांघों पर ही गिर पड़ी। अब तक वह स्त्री सचेत हो चुकी थी और उसमें उस युवक के वीर्य पर अपनी हथेलियों का आवरण लगा दिया था। उस स्त्री की दोनों हथेलियां वीर्य से पूरी तरह सन गयी थी।

ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसने मक्खन में हाथ डाल दिया हो। वह सुगना की तरफ मुड़ी और उसकी बुर में अपनी उंगलियां बारी-बारी से डालने लगी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह उस वीर्य को सुनना की बुर में भरना चाह रही थी। सुगना अपनी जाघें फैलाएं उस अद्भुत निषेचन क्रिया को महसूस कर मन ही मन प्रसन्न हो रही थी।

तभी उसे युवक की आवाज सुनायी दी..

"लाली दीदी आपके हाथों में भी जादू है"

सोनू की आवाज सुन सुगना बेहद घबरा गयी उसने अपना लहंगा नीचे किया और उस कुटिया से भागती हुई खेतों की तरफ दौड़ पड़ी वह भागे जा रही थी उसे लग रहा था जैसे सोनू उसका पीछा कर रहा है वह किसी भी हालत में उसके समक्ष नहीं आना चाहती थी मर्यादा की जो दीवार उन दोनों के बीच थी उस दीवार की पवित्रता वह कतई भंग नहीं करना चाहती सुगना भागी जा रही थी।

अचानक सामने से आ रहे व्यक्ति ने सुगना को रोका और अपने आगोश में ले लिया सुगना उस बलिष्ठ अधेड़ के सीने से सट गई और बोली "बाबूजी…."

सुगना की नींद खुल चुकी थी उसने अगल-बगल देखा सूरज बगल में सो रहा था सुगना की दोनों चूचियां अभी भी अनाव्रत थी. सुगना अपने स्वप्न से जाग चुकी थी और मुस्कुरा रही थी।

सुगना की आवाज सुनकर लाली कमरे में आ गई और बोली

"का भईल सुगना"

सुगना ने कोई उत्तर न दिया परंतु उठकर अपनी चुचियों को ब्लाउज में कैद करते हुए बोली…

" तोरा बिस्तर पर हमेशा उल्टा सीधा सपना आवेला"

लाली उल्टा सीधा का मतलब बखूबी समझती थी उसने मुस्कुराते हुए कहां

"क्या जाने इसी बिस्तर पर तेरा सपना पूरा हो"

सुगना को अपनी जांघों के बीच चिपचिपा पन महसूस हो रहा था अपने ही स्वप्न से वह पूरी तरह उत्तेजित हो चुकी थी वह उठकर बाथरूम में चली गई।

उसके अंतर्मन में हलचल थी पर वह अपने स्वप्न और हकीकत के अंतर को समझ रही थी।

अपने उधेड़बुन में खोई हुई सुगना ने अपनी साड़ी और पेटीकोट को ऊपर किया और खुद को तनाव मुक्त करने के लिए जमीन पर मूत्र विसर्जन के लिए बैठ गई जैसे ही मूत्र की धार ने होठों पर रिसा आये मदन रस को खुद में समाहित करते हुए गुसलखाने के फर्श गिरी

बाहर दरवाजे पर खट खट..की आवाज हुई.

सुगना संभल गई उसने अपने मूत्र की धार को नियंत्रित करने की कोशिश की ताकि वह उससे उत्पन्न हो रही सुर्र …….की आवाज को धीमा कर सकें परंतु वह नाकामयाब रही। राजेश घर में आ चुका था…

बाथरूम से आ रही वह मधुर आवाज उसके भी कानों तक पडी..

बाथरूम में कौन है…?

राजेश ने कौतूहल बस धीमी आवाज में पूछा…

आपको कैसे पता कि बाथरूम में कोई है ? लाली ने अपनी आंखें नचाते हुए कहा

राजेश ने लाली को खींच कर अपने सीने से सटा लिया और उसके कोमल उभारों को सहलाते हुए उसके कान में बोला…

"बहुत बदमाशी सूझ रही है"

जब तक राजेश लाली को अपने आलिंगन से अलग करता सुगना बाथरूम से बाहर आ चुकी थी।

सुगना आगे बढ़ी और राजेश के चरण छुए।

राजेश का ध्यान बरबस ही सुगना के भरे हुए नितंबों पर चला गया वह एक पल के लिए मंत्र मुक्त होकर उसे देखता रहा उसे यह ध्यान भी नहीं आया की उसकी साली उसके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में है..

जीजा जी आशीर्वाद तो दीजिए सुगना ने झुकी अवस्था में ही कहा।

"अरे खूब खुश रही भगवान आपकी सारी मनोकामना पूरी करें"

सुगना मन ही मन सोच रही थी काश जीजा जी कोई सिद्ध पुरुष होते और उनके इस आशीर्वाद से ही वह गर्भवती हो जाती क्या कलयुग में किसी भी मनुष्य के पास जैसी दिव्य शक्तियां नहीं न थीं जैसी महाभारत काल में सिद्ध महापुरुषों के पास थीं।

सुगना के मन में ढेरों प्रसन्न थे बनारस महोत्सव का समय तेजी से बीत रहा था गर्भधारण का तनाव सुगना पर हावी हो रहा था परंतु अब भी गर्भधारण अभी उसके लिए एक दुरूह कार्य था उसके बाबूजी उसे मझधार में छोड़ कर अकेला चले गए थे। एक पल के लिए उसके मन में आया कि वह कोई उपाय कर अपने बाबूजी के पास सलेमपुर चली जाए और वहां अपने बाबू जी के साथ एकांत में रात्रि प्रवास में जी भरकर सहवास करें और नियति द्वारा निर्धारित गर्भधारण कर सूरज की मुक्ति दायिनी का सृजन करें।

सुगना की सोच और हकीकत में अंतर था वाहन विहीन व्यक्ति के लिए थोड़ी दूरी भी दुरूह हो जाती है सुगना के लिए सलेमपुर पहुंचना बनारस से दिल्ली पहुंचने जैसा था और दिल्ली अभी दूर थी।

सुगना अपने ख्यालों में खोई हुई थी राजेश सुगना के खयालों में। लाली रसोई से पानी लेकर आई और राजेश को देते हुए बोली..

"लीजिए यह मीठा खाकर पानी पीजिए यह मिठाई ( सुगना की तरफ इशारा करते हुए) अभी खाने को नहीं मिलेगी"

राजेश और सुगना दोनों हंसने लगे सुगना लाली के पीछे आकर लाली की पीठ पर अपनी हथेलियों से मीठे प्रहार करने लगी।

राजेश जब स्नान करने गुसल खाने में घुसा तो लाली ने सुगना से कहा…

"बड़ा भाग से तोरा जीजा जी आ गए. कह तो उनके जोरन से तेरे पेट में दही जमा दूं"

(जोरन दही का एक छोटा भाग होता है जो दूध से दही जमाने के लिए दूध में डाला जाता है)

सुगना ने कुछ कहा तो नहीं परंतु मुस्कुरा कर अपनी दुविधा पूर्ण सहमति दे दी।

जैसे ही राजेश आराम करने के लिए अंदर गया लाली सुगना को रसोई में छोड़कर कमरे में आ गई। राजेश के वीर्य दोहन और सुगना के गर्भधारण के इस अनोखे तरीके को अंजाम देने के लिए लाली अपनी तैयारियां पूरी कर चुकी थी... लाली ने अंदर का दरवाजा सटा दिया था...

सुगना रसोई में बर्तन सजाते अपने कल के व्रत के बारे में सोच रही थी कहीं उससे व्रत में कोई गलती तो नहीं हो गई? उसके बाबूजी अचानक उसे छोड़कर क्यों चले गए? आज का दिन वह अपने बाबू जी से जी भर चुद कर गर्भधारण कर सकती थी। क्या भगवान उससे रुष्ट हो गए थे?

उसका दिल बैठा जा रहा था ऐसा लग रहा था जैसे उसके जीवन में कोई पुरुष बचा ही न था। अपने कामुक ख्यालों में कभी-कभी वह राजेश के साथ अंतरंग जरूर हुई थी परंतु हकीकत में राजेश और उसके बीच अब भी मर्यादा की लकीर कायम थी हालांकि यह लकीर अब बेहद महीन हो चुकी थी। राजेश तो सुगना को अपनी बाहों में लेने के लिए मचल रहा था सिर्फ और सिर्फ सुगना को ही अपनी रजामंदी देनी थी परंतु वह अभी भगवान से सरयू सिंह के वापस आने की प्रार्थना कर रही। लाली राजेश का वीर्य दोहन करने अंदर जा चुकी थी और कुछ ही देर में उसे अंदर जाना था।

क्या वह अपने गर्भ में राजेश का वीर्य लेकर गर्भधारण करेगी क्या यह उचित होगा? क्या भगवान ने उसके व्रत के फलस्वरूप ही राजेश को यहां भेजा है…

परिस्थितियां तेजी से बदल रही थी और सुगना के मनोभाव भी। सुगना ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था और वह लाली के खाँसने का इंतजार कर रही थी जिसे सुनकर उसे कमरे के अंदर प्रवेश करना था।

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उधर सोनी रिक्शे में विकास के साथ बैठी हुई बनारस महोत्सव की तरफ जा रही थी उसे बार-बार अपनी उंगलियों में लगा हुआ चिपचिपा द्रव्य याद आ रहा था आखिर वह क्या था? जितना ही वह उसके बारे में सोचती उसके विचार में घृणा उत्पन्न होती उस किशोरी उस किशोरी ने तो आज तक कभी वीर्य को न देखा था और न हीं छुआ था। परंतु आज उसे अपने ही भाई के वीर्य को अपनी उंगलियों से अकस्मात ही छू लिया था। उस करिश्माई द्रव्य से सोनी कतई अनजान थी। जिस द्रव्य को सोनी अपनी अज्ञानता वश घृणा की निगाह से देख रही द्रव्य के अंश को सुगना अपने गर्भ में लेने के लिए सुगना तड़प रही थी।

उसने सोनू से पूछा

"भैया आप लाली दीदी के यहां हमेशा आते जाते हो?"

"क्यों तुझे क्यों जानना है?"

"ऐसी ही" सोनू ने उत्तर न दिया और अनमने मन से दूसरी तरफ देखने लगा उसे लगा जैसे लाली के घर आना जाना असामान्य था किसे सोनी ने अपने संज्ञान में ले लिया था।

"लगता है आजकल वर्जिश खूब हो रही है" सोनी ने सोनू की मजबूत भुजाओं को छूते हुए बोला

सोनू का ध्यान सोनी की तरफ गया उसके मुंह से अपनी तारीफ सुनकर सोनू खुश हो गया था।

सोनू ने रिक्शा रुकवाया और पास की दुकान से जाकर कुल्फी ले आया सोनी खुश हो गयी और कुल्फी खाने लगी। सोनी के गोल गोल होठों में कुल्फी देखकर सोनू के दिमाग में लाली घूमने लगी। वह देख तो सोनी की तरफ रहा था परंतु उसके दिमाग में लाली का भरा पूरा बदन घूमने लगा। कुल्फी चूसती हुई सोनी उसे लण्ड चूसती लाली दिखने लगी। अपनी ही छोटी बहन के प्रति उसके मन में बेहद अजीब ख्याल आने लगे।

उसका ध्यान सोनी के मासूम चेहरे से हटकर उसके शरीर पर चला गया जैसे जैसे वह सोनी को देखता गया उसे उसके उभारो का अंदाजा होता गया। सोनी अपनी अल्हड़ यौवन को भूलकर कुल्फी का आनंद ले रही थी। उसे क्या पता था की सोनु की नजरें आज पहली बार उसके शरीर का नाप ले रही थी।

"भैया आप भी अपनी कुल्फी खाइए पिघल रही है"

सोनी की बात सुनकर सोनु शर्मा गया एक पल के लिए उसे लगा जैसे सोनी ने उसके मनोभाव को पढ़ लिया है उसने अपना ध्यान हटाया और दोनों रिक्शा में बैठकर विद्यानंद के पंडाल की तरफ चल पड़े। अपनी मुंह बोली बहन लाली को चोद कर सोनू के दिमाग में बहन जैसे पावन रिश्ते के प्रति संवेदनशीलता कम हो रही थी।

सोनू ने सोनी को पंडाल तक छोड़ा और अपनी मां पदमा तथा कजरी से मिला। पद्मा ने सोनू को सदा खुश रहने और अच्छी नौकरी का आशीर्वाद दिया और अपने पिछले दिन के व्रत से अर्जित किए सारे पुण्य को अपने पुत्र पर उड़ेल दिया। पदमा को क्या पता था कि उसका पुत्र इस समय जीवन के सबसे अद्भुत सुख के रंग में रंगा हुआ अपनी मुंहबोली बहन लाली के जाँघों के बीच बहती दरिया में गोते लगा रहा है।

सोनू का मन पांडाल में नहीं लग रहा था उसे रह-रहकर लाली याद आ रही थी। हालांकि घर में उसकी बड़ी बहन सुगना भी मौजूद थी परंतु फिर भी वह लाली के मोहपाश से अपने आप को न रोक पाया और वापस लाली के घर जाने के लिए निकल पड़ा….

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उधर कजरी का व्रत सफल हो चुका था। कजरी ने जो मांगा था उसे शीघ्र मिलने वाला था।

मुंबई में रह रहा उसका पुत्र रतन बीती शाम बबीता से अपना पीछा छुड़ाकर गांव वापस आने के लिए तैयार था। उसने अपनी सारी जमा पूंजी इकट्ठा की और अपनी बड़ी पुत्री मिंकी को लेकर आज सुबह सुबह ट्रेन का इंतजार कर रहा था।

रतन के दिमाग में सिर्फ और सिर्फ सुगना घूम रही थी उसने कुछ दिनों पहले सूरज के लिए जो खिलौने और सुगना के लिए जो खत लिखा था उसका जवाब नहीं आया था, आता भी कैसे? रतन का पार्सल सलेमपुर के डाकखाने में एक कोने में पड़ा सरयू सिंह के परिवार के सदस्यों के आने का इंतजार कर रहा था।

रतन में मन ही मन फैसला कर लिया था कि वह सुगना के करीब आने और उसे मनाने की भरपूर कोशिश करेंगा यदि वह नहीं भी मानती है तब भी वह उससे एक तरफा प्यार करता रहेगा और उसे पत्नी होने का पूरा हक देगा। शारीरिक न सही परंतु स्त्री को जो पुरुष से संरक्षण प्राप्त होना चाहिए वह उसमें पूरी तरह खरा उतरेगा।

अपने चार-पांच सालों में सुगना के प्रति दिखाई बेरुखी को मिटा कर अपनी गलतियों का प्रायश्चित करना चाहता था। जैसे-जैसे उसका प्रेम सुनना के प्रति बढ़ रहा था नियति प्रसन्न हो रही थी। वह इस कहानी में उसकी भूमिका तलाश में लगी हुई थी।

रेलवे स्टेशन चूरमुरा खाते हुए। मिंकी ने पूछा

"पापा वहां पर कौन-कौन है. नई मम्मी मुझे परेशान तो नहीं करेगी. मम्मी कह रही थी कि नयी मम्मी तुझे बहुत मारेगी तू मत जा"

"बेटा तेरी नई मम्मी तुझे बहुत प्यार करेगी. वह बहुत अच्छी है... वहां गांव पर तेरे बाबा है दादी हैं और ढेर सारे लोग हैं. तुझे सब ढेर सारा प्यार करेंगे और एक छोटा भाई भी है सूरज तू उसे देख कर खुश हो जाएगी वह बहुत प्यारा है"

मिंकी खुश हो गई. उसे छोटे बच्चे बेहद प्यारे थे और यह बात उसे और भी अच्छी लग रही थी उसका कोई भाई होगा. मिंकी अपनी नई जिंदगी को सोच सोच कर खुश भी थी और आशान्वित भी। सूरज के चमत्कारी अंगूठी अंगूठे का एक और शिकार सलेमपुर पहुंचने वाला था नियति को अपनी कथा का एक और पात्र मिल रहा था और सुगना को उसका पति।

परंतु क्या सुगना रतन को अपना आएगी? क्या उसका गर्भधारण उसके पति द्वारा ही संपन्न होगा? क्या सुगना और रतन का मिलन अकस्मात ही हो जाएगा? सुगना जैसी संवेदनशील और मर्यादित युवती क्या अचानक ही रतन की बाहों में जाकर आनन-फानन में संभोग कर लेगी?

नियति सुगना के गर्भधारण का रास्ता बनाने में लगी हुई थी परंतु सुगना के भाग्य में जो लिखा वह टाला नहीं जा सकता था। सुगना था यह गर्भधारण उसे विद्यानंद के श्राप से मुक्ति दिला पाएगा इसकी संभावना उतनी ही थी जितनी गर्भधारण से पुत्र या पुत्री होने की। सुगना के भविष्य को भी सुगना के गर्भ के लिंग के तय होने का का इंतजार था।

###################################

परंतु लाली के घर में सुगना का इंतजार खत्म हो चुका था। लाली के खांसने की आवाज सुनकर सुगना का दिल तेजी से धड़कने लगा उसकी चूचियां और काम इंद्रियां सतर्क हो गई। आज पहली बार वह लाली के हाथों राजेश का वीर्य स्खलन देखने जा रही थी। देखने ही क्या उसे उस वीर्य को अपने गर्भ में आत्मसात भी करना था। सुगना का दिल और जिस्म एक दूसरे से सामंजस्य बैठा पाने में नाकाम थे। वह बदहवास सी अधूरे मन से गर्भधारण की आस लिए लाली के कमरे में प्रवेश कर गई...

शेष अगले भाग में...
बहुत ही बेहतरीन और सुन्दर अपडेट है
हर कोई किसी न किसी कसमकस में ही रतन आ गया सबकुछ छोड़ कर सोनू को लाली की आदत लग गई सुगना को अपने गर्भधारण की पड़ी है देखते है समय क्या खेल खेलता है
 

Lutgaya

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Awesome update
बहुत ही बेहतरीन और सुन्दर अपडेट है
हर कोई किसी न किसी कसमकस में ही रतन आ गया सबकुछ छोड़ कर सोनू को लाली की आदत लग गई सुगना को अपने गर्भधारण की पड़ी है देखते है समय क्या खेल खेलता है
आप दोनों ने इस कहानी के लिए
Lovely anand जी से भी ज्यादा मेहनत की है 24 घन्टे की ड्यूटी:dogwizz::DD::DD::updating::leghump:
 
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