भाग -66
सुगना ने अपने हाथ में पहनी हुई एक अंगूठी उस नर्स को देते हुए कहा
"हमार शरदा भगवान पूरा कर देले ई ल तहार नेग "
नर्स ने हाथ बढ़ाकर वह अंगूठी ले तो ली पर उसकी अंतरात्मा कचोट रही थी। उसे पता था कि उसने बच्चे बदल कर गलत कार्य किया था चाहे उसकी भावना पवित्र ही क्यों ना रही हो।
कुछ घटनाक्रम अपरिवर्तनीय होते हैं आप अपने बढ़ाएं हुए कदम वापस नहीं ले सकते वही स्थिति सोनी और उस नर्स की और शायद नियति की भी ..
अब आगे..
लाली की मा और कजरी लाली और सुगना से मिलने अंदर आ चुकी थीं। सुगना ने चहकते हुए कजरी से कहा..
"मां देख भगवान हमार सुन ले ले हमरा के बेटी दे दे ले"
कजरी ने बच्चे को गोद में ले लिया पर उसके चेहरे पर खुशी के भाव न थे।
"मां तू खुश नईखु का काहे मुंह लटकावले बाड़ू"
कजरी ने अपने होठों पर उंगलियां रखकर सुगना को चुप रहने का इशारा किया। और उसके कान में जाकर वस्तु स्थिति से सुगना को अवगत करा दिया।
सुगना सन्न पड़ गई जितनी खुशियां उसके दिलो-दिमाग मे थी. उन पर राजेश के मरने का गम भारी पड़ गया, अपनी सहेली के के लिए उसकी संवेदनाओं ने उन खुशियों को निगल लिया।
उधर लाली पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा था। वह एक बार फिर बेहोश हो गई। निष्ठुर नियति ने लाली का सुहाग छीन लिया था.
शाम होते होते सुगना और लाली अपने बच्चे के साथ अपने घर में आ चुकी थी।
राजेश की आत्मा ने अपने क्षत-विक्षत शरीर को त्याग कर सुगना के उसी गर्भ में अपना स्थान बनाया था जिसका निषेचन स्वयं उसके ही वीर्य से हुआ था। राजेश आज बालक रूप में अपनी ही पत्नी लाली की गोद में अपने घर में खेल रहा था और उन्हीं चुचियों पर बार-बार मुंह मार रहा था जिनको लाली उसे ज्यादा चूसने के लिए रोकती रहती थी।
काश लाली को यह पता होता वह बालक राजेश का ही अंश है तो शायद उसका दुख कुछ कम होता परंतु अपने पति को अपने बालक के रूप में देखकर शायद ही कोई महिला खुश हो।
पुरुष का पति रूप हर महिला को सबसे ज्यादा प्यारा होता है बशर्ते उन दोनों में और एक दूसरे के प्रति समझ आदर और प्यार हो।
सोनू भी घर पर आ चुका था। वह लाली को सांत्वना दे रखा था। लाली की मां को सोनू का इस तरह सांत्वना देना सहज तो लग रहा था परंतु कहीं ना कहीं कोई बात खटक रही थी।
स्त्री और पुरुष के आलिंगन को देखकर उनके बीच संबंधों का आकलन किया जा सकता है .. एक दूसरे के शरीर पर बाहों का कसाव खुशी और गम दोनों स्थितियों में अलग अलग होता है। शारीरिक अंगों का मिलन रिश्तो को परिभाषित करता है,
यदि आलिंगन के दौरान पुरुष और स्त्री के पेट आपस में कसकर चिपके हुए हों तो यह मान लीजिए की या तो उन दोनों में संबंध स्थापित हो चुके हैं या फिर निकट भविष्य में होने वाले हैं।
लाली और सोनू का यह मिलन जिन परिस्थितियों में हो रहा था वहां कामोत्तेजना का कोई स्थान न था परंतु लाली सोनू के जीवन में आने वाली पहली महिला थी जिसे वह मन ही मन प्यार करने लगा था यद्यपि इस प्यार में कामुकता का अहम स्थान था।
सोनू का शरीर पिछले कुछ ही महीनों में और मर्दाना हो गया था 6 फुट का लंबा शरीर भरने के बाद सोनू का व्यक्तित्व निखरने लगा था।
खबरों की अपनी गति होती है वह आज के युग में मोबाइल और व्हाट्सएप से पहुंचती हैं उस दौरान कानो कान पहुंचती थी। सुगना की पुत्री और राजेश की मृत्यु की खबर भी सलेमपुर पहुंची और अगले दिन अगले दिन सरयू सिंह भी बनारस में हाजिर थे।
अपनी पुत्री सुगना की गोद में मासूम बालिका को देखकर उनका हृदय भाव विह्वल हो उठा। उन्हें पता था की बनारस महोत्सव के दौरान सुगना की जांघों के बीच लगा वह वीर्य निश्चित ही राजेश का था। वह मन ही मन यह मान चुके थे कि सुगना का यह गर्भ राजेश से संभोग की देन थी।
उन्हें सुगना की पुत्री से कोई विशेष लगाव न था शायद इसकी वजह उसमें राजेश का अंश होना था परंतु सुगना... वह तो उन्हें जान से प्यारी थी उस कामुक रूप में भी और इस परिवर्तित पुत्री रूप में भी।
सुगना ने अपने बाबू जी के चरण छुए और एक बार फिर उनके आलिंगन में आने को तड़प उठी। परंतु सरयू सिंह ने अब मर्यादा की लकीर कुछ ज्यादा ही गहरी खींच रखी थी सुगना चाह कर भी उसे लांघ न पाई और सरयू सिंह ने सिर्फ उसके माथे को चूमकर उसे स्वयं से अलग कर दिया।
राजेश के मृत शरीर का अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर किया गया यद्यपि वह इस लायक कतई न था वासना का जो खेल वह खेल रहा था वह न शायद प्रकृति को पसंद था और नहीं नियति को।
विधि का विधान है दुख चाहे कितना भी गहरा और अवसाद भरा क्यों ना हो इंसान की सहनशक्ति के आगे हार जाता है ।
राजेश के जाने से लाली का पूरा परिवार हिल गया था परंतु कुछ ही दिनों में दिनचर्या सामान्य होती गयी। सोनू ने अपने दोस्तों की मदद से राजेश के विभाग से मिलने वाली सारी मदद लाली तक पहुंचवा दी तथा उसकी अनुकंपा नियुक्ति के लिए अर्जी भी लगवा दी।
सोनू जो उम्र में लाली से लगभग चार-पांच वर्ष छोटा था अचानक ही उसे बड़ा दिखाई पड़ने लगा। सोनू जब भी लाली के घर आता सारे बच्चे उसका भरपूर आदर करते हैं उसकी गोद में खेलते और लाली अपने सारे गम भूल जाती। जितना समय सोनू लाली के घर व्यतीत करता उतना तो शायद अपनी सगी बहन सुगना के यहां भी नहीं करता।
धीरे धीरे जिंदगी सामान्य होने लगी सुगना अपने बिस्तर पर रहती और पुत्री से एक पल के लिये भी अलग न होती। कजरी और सोनी मिलकर घर का कामकाज संभालती। कजरी को एक-दो दिन के लिए सरयू सिंह के साथ सलेमपुर जाना पड़ा घर की जिम्मेदारी संभालने का कार्य सोनी और रतन पर आ पड़ा। सोनी दिनभर कॉलेज में बिताती और घर आने पर चूल्हा चौका करती।
घर की जिम्मेदारियां किशोरियों और युवतियों को कामुकता से दूर कर देती हैं पिछले दो-तीन महीनों में सोनी विकास से नहीं मिल पा रही थी जिन चूचियों और जांघों के बीच उस झुरमुट में छुपी मुनिया को पुरुष हथेलियों का संसर्ग मिल चुका था वह भी इस बिछोह से त्रस्त हो चुकी थीं।
रसोई में कभी-कभी रतन उसका साथ देने आ जाता सोनी की उपस्थिति रतन को उत्साहित किए रखती। युवा लड़की आसपास के पुरुषों में स्वता ही उर्जा भर देती है .. रतन अपने आसपास सोनी को पाकर उत्साहित रहता और उसके साथ मिलजुल कर घर का काम निपटा लेता।
उधर सुगना अपनी पुत्री के लालन-पालन में खो गई थी। वह उसे अपने शरीर से एक पल के लिए भी अलग ना करती जैसे उसके लिए उससे ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं था। उसे सूरज की चिंता अवश्य थी जो उसके कलेजे का टुकड़ा था पर सूरज अब बड़ा हो चुका था और अपनी आवश्यकताएं अपने मुख से बोल कर अपनी प्यारी मौसी से मांग सकता था।
सुगना अपनी बच्ची को बार-बार चूमती और नियति को दिल से धन्यवाद देती जिसने उसे अपने ही पुत्र से संभोग करने से रोक लिया था परंतु जब जब वह अपनी फूल सी बच्ची के बारे में सोचती वह घबरा जाती..
एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई यही स्थिति सुगना की हो गई थी यह तो तय था की सुगना खाई में नहीं गिरेगी परंतु वह कैसे अपनी ही पुत्री को अपने ही पुत्र से संभोग करा कर उसे अभिशाप से मुक्ति दिलाएगी??
सुगना अपने विचारों में आज से 15- 20 वर्ष बाद की स्थिति सोचने लगी थी।
सुगना का ध्यान सूरज ने भंग किया जो उसकी ब्लाउज से दूसरी चूची को बाहर निकालकर पकड़ने का प्रयास कर रहा था..
"बाबू अब ना तू त बड़ हो गईला जा मौसी से दूध मांग ल में"
"मौसी के चूँची में दूध बा का? " सूरज ने अपना बाल सुलभ प्रश्न कर दिया तुरंत सुगना सिहर उठी उसने यह क्या कह दिया।
" बेटा मौसी गिलास में दूध दी"
सूरज ने मन मसोसकर दुखी मन से सुगना की सूचियां छोड़ी परंतु उसकी फूली चुचियों से दूध का कुछ अंश अपने होठों पर ले गया..
मौसी मौसी कहते हुए सूरज रसोई घर की तरफ चला गया.
सुगना अपनी पुत्री की खूबसूरती में खोई अपनी उसका नाम सोचने लगी... परंतु कोई भी नाम उसे सूझ नहीं सोच रहा था। वह अपने बाबूजी सरयू सिंह से उसका नाम कारण कराना चाहती थी । अब तक उसके जीवन में जो भी खुशियां आई थी उसके मूल में सरयू सिंह ही थे।
सुगना ने दिल से इच्छा जाहिर की और उसी शाम को सरयू सिंह हाजिर थे जो किसी शासकीय कार्य बस बनारस आए हुए थे।
"बाबूजी हम रउवे के याद करा तनी हां"
सुगना ने झुककर सरयू सिह के चरण छुए और सरयू सिंह की नशीली निगाहों ने ने एक बार फिर सुगना की पीठ और मादक नितंबों की तरफ दौड़ लगा दी। सरयू सिंह के मस्तिष्क ने निगाहों पर नियंत्रण किया और उनकी हथेलियां एक बार फिर सुगना के सर पर आशीर्वाद की मुद्रा में आ गयीं।
सरयू सिंह के अंग प्रत्यंग अब भी दिमाग का आदेश नजरअंदाज करने को उत्सुक रहते थे परंतु शरीर सिंह ने अपने काम भावना पर पूरी तरह नियंत्रण पा लिया था वह सुगना को सचमुच अपनी बेटी का दर्जा दे चुके थे।
"बाबूजी एकर का नाम रखाई" सुगना ने अपनी फूल सी बच्ची को सरयू सिंह जैसे मजबूत मर्द के हाथों में देते हुए कहा।
सरयू सिंह ने बच्ची को गोद में लिया.. सचमुच लाली और सोनू के अद्भुत प्यार और मिलन से जन्मी बच्ची बेहद कोमल और प्यारी थी। सरयू सिंह ने छोटी बच्ची को उठाया और उसके माथे को चूम लिया। सरयू सिंह के मुख से फूट पड़ा..
"सुगना बेटा ई ता शहद जैसन मीठा बिया एकर नाव मधु रखिह"
रतन पास ही खड़ा था उसने मिंकी को आगे कर दिया और बोला..
"चाचा एकरो त नाम स्कूल में लिखावे के बा मिन्की त ना नू लिखाई एकरो नाम तू ही ध द"
सरयू सिंह ने छोटी मिंकी को भी अपने पास बुलाया और बेहद प्यार से उसके माथे को सहलाते हुए बोले "एकर नाम मालती रही"
"हमरा सुगना बेटा के दुगो बेटी मधु - मालती"
सबके चेहरे पर खुशियां दिखाई देने लगी। सच सरयू सिंह ने दोनों ही बच्चों का नाम बड़ी सूझबूझ से रख दिया था।
"रतन तू ध्यान रखिह सुगना बेटी के कौनो कष्ट मत होखे"
रतन की निगाह में सरयू सिंह देवता तुल्य थे जिसने अपने निजी हित को ताक पर रखकर उसकी मां और पत्नी का ख्याल रखा था यहां तक की उन्होंने विवाह तक न किया था उसे सरयू सिंह की असलियत न पता थी और शायद यह उचित भी न था ।
रतन सरयू सिंह को पिता तुल्य मानता और उनके बड़प्पन के आगे हमेशा नतमस्तक रहता।
सुगना ने अपने बाबू जी सरयू सिंह की कामुकता को लगभग समाप्त मान लिया था उसे ऐसा प्रतीत होता जैसे उनकी उम्र हो चली थी। सुगना ने भी स्वयं पर नियंत्रण करना सीख लिया। वैसे भी अभी उसकी बुर अपना कसाव पाने की कोशिश कर रही थी। सुगना अपनी जांघों और बुर को सिकोड़ कर उसमें कसाव लाने का प्रयास करती। आज की कीगल क्रिया सुगना तब भी जानती थी।
समय दुख पर मरहम का कार्य करता है लाली के जीवन में भी खुशियां आने लगी। लाली को प्रसन्न देखकर सुगना भी धीरे धीरे धीरे खुश हो गई।
सूरज बार-बार मधु को अपनी गोद में लेने की कोशिश करता.. सुगना उसे रोकते परंतु वह जिद पर अड़ा रहा अंततः सुगना ने उसे बिस्तर पर पालथी मार कर बैठाया और उसकी गोद में अपनी फूल सी बच्ची मधु को दे दिया सूरज बेहद प्यार से मधु के माथे को चूम रहा था और उसके कोमल शरीर से खेल रहा था मधु भी अनुकूल प्रतिक्रिया देते हुए अपने कोमल होंठ फैला रही थी।
सुगना भाई बहन का यह प्यार देखकर द्रवित हो गयी। विधाता ने उसे कैसी अग्नि परीक्षा में झोंक दिया था कैसे हो इन दोनों मासूम भाई बहनों को परस्पर संभोग के लिए राजी करेंगी…
अगले कुछ दिनों में सुगना पूरी तरह स्वस्थ हो गई और अपने सभी इष्ट देवों के यहां जाकर मन्नत उतारने लगी रतन उसका साथ बखूबी देता।
सुगना द्वारा दी गई मोटरसाइकिल पर जब रतन सुगना को लेकर सुगना घुमाने और उसकी मन्नत पूरी कराने के लिए निकलता रतन की मन्नत स्वतः ही पूरी हो जाती। अपनी पत्नी सुगना के तन मन को जीतना रतन के जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। हालांकि उससे अब इंतजार बर्दाश्त ना होता। पूरे 1 वर्ष तक वह सुगना के आगे पीछे घूमता रहा था उसने अपने प्रयश्चित के लिए हर कदम उठाए चाहे वह सुगना के पैर दबाना हो या उसके माथे पर तेल लगाना। सुगना इसके अलावा अपने किसी अंग को हाथ न लगाने देती।
परंतु पिछले चार-पांच महीनों में वह सोनी की कमनीय काया के दर्शन सुख का आनंद भी गाहे-बगाहे लेता रहा था। उसके मन में पाप था या नहीं यह तो रतन ही जाने पर सोनी की चढ़ती जवानी और उसके चाल चलन पर नजर रखना रतन अपना अधिकार समझ रहा था और अपने इसी कर्तव्य निर्वहन में वह अपना आनंद भी ढूंढ ले रहा था। एक पंथ दो काज वाली कहावत उसकी मनोदशा से मेल खा रही थी।
और एक दिन वह हो गया जो नहीं होना था..
रतन को आज अपने होटल जल्दी जाना था. घर के अंदर गुसल खाने में सोनी घुसी हुई थी उसे कॉलेज जाने की देरी हो रही थी। सुगना ने सोनी से कहा..
"तनी जल्दी बाहर निकल तोरा जीजा जी के होटल जल्दी जाए के बा"
सोनी ने अंदर से आवाज दी
"दीदी अभी 10 मिनट लागी"
रतन ने अंदाज लगा लिया कि यह 10 मिनट निश्चित ही 20 मिनट में बदल जाएंगे। वैसे भी रतन ने यह अनुभव किया था की सोनी बाथरूम में जरूरत से ज्यादा वक्त लगाती है उसने सुगना से कहा
"हम जा तानी आंगन में नल पर नहा ले तानी"
"ठीक बा आप जायीं हम ओहिजे कपड़ा पहुंचा देब"
सुगना भी अब अपने पति रतन को उचित सम्मान देने लगी थी।
रतन घर के आंगन में खुली धूप में नहाने लगा यह पहला अवसर था जब वह खुले में नहा रहा था। रतन और सुगना के बीच जो मर्यादा की लकीर खींची हुई थी उसने कभी भी रतन को सुगना के सामने निर्वस्त्र होने ना दिया था।
परंतु आज उसे सुगना को अपना गठीला शरीर दिखाने का मौका मिल गया था सुगना कुछ ही देर में उसके कपड़े और तोलिया लेकर आने वाली थी।
रतन की गठीली काया खुली धूप में चमक रही थी। रतन ने अपने शरीर पर साबुन लगाया और अपनी पत्नी सुगना की कल्पना करने लगा सुगना का शरीर अब वापस अपने आकार में आ रहा था रतन को पूरा विश्वास था कि वह सुगना को खुश कर उसे नजदीक आने के लिए राजी कर लेगा।
सुगना के मदमस्त बदन को याद करते करते रतन का लण्ड खड़ा हो गया वाह साबुन की बट्टी अपने लण्ड पर मलने लगा रतन अपनी आंखें बंद किए मन ही मन सोच रहा था काश सुगना इसी समय उसे तोलिया देने आ जाती तो वह अनजान बनकर ही अपने लण्ड के दर्शन उसे करा देता…
तभी पीछे आवाज आई..
"जीजा जी लींआपन तोलिया"
रतन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
यह आवाज सोनी की थी। तो क्या सोनी ने उसे खड़े लण्ड पर साबुन बनते देख लिया था? हे भगवान…उसने झटपट अपनी लुंगी से अपने लण्ड को ढकने की नाकाम कोशिश की और अपना हाथ सोनी की तरफ बढ़ा दिया।
परंतु जो होना था वह हो चुका था. सोनी की सांसे तेज चल रही थीं। उसने आज जो दृश्य देखा था वह अनूठा था रतन एक पूर्ण मर्द था और उसका तना हुआ खूटे जैसा लण्ड देख कर सोनी अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं कर पा रही थी।
उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया था। रतन का लण्ड आज तो वह अपनी बहुप्रतीक्षित सुगना की बुर को याद कर खड़ा हुआ था उसमें दोहरी ऊर्जा थी।
सोनी उस अद्भुत लण्ड को याद करते हुए अंदर भाग गई। रतन के खड़े लण्ड का वह आकार कल्पना से परे था। रतन एक ग्रामीण और बलिष्ठ युवक था पर क्या पुरुषों का लण्ड इतना बड़ा होता है? सोनी अपने दिमाग में रतन के लण्ड की विकास के लण्ड से तुलना करने लगी।
निश्चित थी रतन विकास पर भारी था। सोनी ने विकास के लण्ड को न सिर्फ छुआ था अपितु कई बार अपनी हथेलियों में लेकर सहलाते हुए उसे स्खलित किया था।
सोनी अभी लिंग के आकार की अहमियत से अनजान थी। वह अपने आप को खुश किस्मत मान रही थी कि उसे भगवान ने विकास से ही मिलाया था .. जिसके लण्ड को सोनी अपनी बुर में जगह देने को तैयार हो रही थी। यदि उसके हिस्से में भगवान में रतन जीजा जैसे किसी ग्रामीण युवक को दिया होता तो उसका क्या हश्र होता ? जिस बुर में उसकी पतली सी उंगली न जा पाती हो उसमें इतना मोटा बाप रे बाप। सोनी मन ही मन अपने जीजा और सुगना दीदी के मिलन के बारे में सोच रही थी। सुगना दीदी कैसे झेलती होंगी...जीजा को..
"काहें हाफ तारे"
"ऐसे ही कुछो ना"
" बुझाता जीजाजी तोर इंतजार कर तले हा तू हमारा के भेज देलु हा"
"काहे अइसन बोल तारे"
"अपन खजाना खोल के बइठल रहले हा .. बुझात रहे धार लगावतले हा" सोनी ने मुस्कुराते हुए अपनी जांघे खोल दी और जांघों के बीच इशारा किया..
सुगना को अंदाजा तो हो गया कि सोनी क्या कहना चाह रहे हैं परंतु उसे इस बात का कतई यकीन न था कि रतन इतनी हिम्मत जुटा सकेगा और आंगन में उसका इंतजार करते हुए अपने लण्ड पर धार लगा रहा होगा।
"साफ-साफ बोल का कहल चाह तारे?"
सोनी क्या बोलती जो दृश्य उसने देखा था उसे बयां करना कठिन था।
"दीदी चल जाए दे हमरा देर होता" सोनी अपने बाल झाड़ने लगी। उसकी सांसे और सांसों के साथ हिलती हुई भरी-भरी चूचियां कुछ अप्रत्याशित होने की तरफ इशारा कर रही थी।
"का भईल बा साफ-साफ बताऊ" * अपनी अधीरता न छुपा पा रही थी क्या रतन सचमुच उसे सोच कर उत्तेजित था।
"कुछ भी ना दीदी, दे कुछ खाए कि भूख लागल बा"
सुगना मन ही मन अफसोस कर रही थी कि क्यों उसने लाली को तोलिया लेकर भेज दिया था यदि वह स्वयं जाती तो रतन की मनोदशा को देख पाती और उसके हथियार को भी देख पाती। सुगना मन ही मन मुस्कुरा रही थी।
उधर रतन का खड़ा लण्ड अचानक ही सिकुड़ गया था। सोनी जैसी युवा लड़की ने जिस तरह उसे देखा था वह वास्तव में शर्मसार करने वाला था। वह सोनी के सामने क्या मुंह लेकर जाएगा ? यह सोच कर वह मन ही मन परेशान होने लगा। वह जानबूझकर अपने नहाने का समय बढ़ाता गया ताकि सोनी अपने कॉलेज के लिए निकल जाए। सुगना ने रतन को आवाज दी...
"अब देरी नईखे होत"
रतन अंदर आया और उसने सोनी को न पाकर राहत की सांस ली। सुगना ने रतन का नाश्ता निकाल कर रख दिया और वापस अपने कमरे में आकर अपनी पुत्री को दूध पिलाने की कोशिश करने लगी।
सुगना ने भी अब रतन के बारे में सोचना शुरू कर दिया था जैसे जैसे वह स्वस्थ हो रही थी उसकी बुर में कसाव आता जा रहा था और जांघों के बीच संवेदनाएं और सिहरन एक युवती की भांति होने लगे थे। पिछले छह आठ महीनों से जिस बुर ने कामकला से मुंह मोड़ लिया था वह मौका देख कर अपने होठों पर प्रेम रस लिए न जाने किसका इंतजार करती। सरयू सिंह की बेरुखी ने सुगना की बुर को रतन के लिए अपने होंठ खोलने पर मजबूर कर दिया था इसमें निश्चित जी रतन की लगन और पिछले कुछ महीनों में की गई सेवा का भी अहम योगदान था।
दिन बीत रहे थे...
जाने सुगना की चुचियों में क्या रहस्य था कि कुछ ही दिनों बाद बच्चे उसकी चूची ना पकड़ते यही हाल सूरज का भी था जब वह छोटा था
(पाठक एक बार अपडेट 4 पढ़ सकते हैं उनके दिमाग में यादें ताजा हो जाएंगी)
और अब यही स्थिति अब मधु की थी। कल शाम से वह सुगना की चूँचियां नहीं पकड़ रही थी। सुगना ने सारे जतन किए अपने हाथों से अपने निप्पलों को मसलकर दूध निकालने की कोशिश की और दूध निकला भी परंतु मधु चूँची पकड़ने को तैयार न थी।
सुगना अंततः कटोरी ले आई और अपनी चुचियों से दूध कटोरी में निकालने का प्रयास करने लगी.. परंतु यह कार्य अकेले संभव न था एक हाथ से वह कटोरी पकड़ती और दूसरे हाथ से अपनी मोटी मोटी चूचियों से दूध निकालने का प्रयास करती लाख जतन करने के बाद भी सुगना दूध की कुछ बूंदे ही कटोरी में निकाल पाई।
अपनी पुत्री को भूखा रखना सुगना को कतई गवारा न था जिस पुत्री का जन्म इतने मन्नतों और प्रार्थनाओं के बाद हुआ था उसे भूख से तड़पाना सुगना को कतई गवारा न था। उसने अपनी लज्जा को ताक पर रख रतन से मदद लेने की सोची…
शेष अगले भाग में..