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जैसा की मैंने पहले भी लिखा है, यह एक विक्टोरियन शैली में बनाया गया बंगला था, जिसमें चार बड़े बड़े हाल नुमा कमरे थे। हर कमरे ही छतें ऊंची-ऊंची थीं, जिनको लकड़ी की मोटी मोटी शहतीरें सम्हाले हुई थी। बिस्तर पहले के ही जैसे साफ़ सुथरे थे। किस्मत की बात थी, एक कमरा खाली मिल गया हम लोगों को। होटल के सभी कमरों में मेहमान थे, लेकिन फिर भी वहां का माहौल बहुत शांत था। ड्राईवर को खाने के लिए पैसे दे कर संध्या और मैं अपने कमरे में आ गए। पहले की ही भांति मैंने वहां के परिचारक को कुछ रुपये दिए और गरमा-गरम खाना बाहर से लाने को कह ही रहा था की संध्या ने माना कर दिया – उसने कहा की हम दोनों बाहर ही चले जायेंगे।
खैर, मेरे लिए तो यह भी ठीक था। सामान तो कुछ खास था नहीं, इसलिए हम दोनों बाहर चले आये। दुकाने ज्यादातर बंद हो रही थीं, लेकिन एक दो दुकाने, जो लगभग सभी प्रकार की वस्तुएं बेच रही थीं, अभी भी खुली थीं। वहां जा कर संध्या के लिए हमने एक और जोड़ी शलवार कुर्ता खरीदा, और फिर खाने के लिए चल दिए। छोटी जगह पर कोई खासमखास इंतजाम तो रहता नहीं, लेकिन फिर भी उस छोटे से ढाबे में दाल तड़का, आलू की सब्जी और रोटियाँ खा कर अपार तृप्ति का अनुभव हुआ। खाने के बाद हम लोग तुरंत ही होटल में नहीं गए – संध्या के कहने पर वहां की मुख्य सड़क से अलग हट कर नीचे की तरफ जाने वाली सड़क की और चल दिए। उसने ही मुझे बताया की अलकनंदा नदी यहाँ से बहती है।
मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया – इतनी देर के बाद संध्या ने वापस कुछ कहना बोलना शुरू किया था – मेरे लिए वही बहुत था। बात उसी ने शुरू करी,
“आप अपना ख़याल नहीं रखते न?”
अब मैं उसको क्या बताता! उसके जाने के बाद मुझ पर क्या क्या बीती है, यह तो मैं ही जानता हूँ। और, वह सब बातें मैं संध्या को कैसे कह दूं?
“कैसे रखता? आपकी आदत जो है..” यह वाक्य बोलते बोलते गले में फाँस सी हो गई।
“मेरे कारण..” वो कुछ और कहती की मैंने उसको बीच में टोक दिया,
“जानू.. किसी के कारण कुछ भी नहीं हुआ.. जो हुआ, वो हुआ.. इसमें न किसी की गलती है, और न ही किसी का जोर! वो कहते हैं न.. आगे की सुध ले.. तो हम लोग भी आगे की ही सुध लेते हैं.. भगवान को जो करना था, वो कर दिया.. ज़रूर कुछ सिखाना चाहते थे, जिसके लिए यह सब हुआ!”
संध्या कुछ देर चुप रही।
हम लोग टहलते हुए जल्दी ही नदी के किनारे पहुँच गए। अलकनंदा अपनी मंथर गति से बहती जा रही थी। नदी की कर्णप्रिय ध्वनि से आत्मा तक को आराम मिल रहा था। हम लोग चुपचाप उस आवाज़ का देर तक आनंद लेते रहे... चुप्पी संध्या ने ही तोड़ी,
“पिछली बार जब हम यहाँ आये थे, तो मेरा मन हुआ था कि आपको यहाँ लाया जाए...”
“हम्म... तो फिर लाई क्यों नहीं?”
“आपको ठंडी लग जाती न... इसलिए..” संध्या मुस्कुराई।
ओह प्रभु! इस एक मुस्कान के लिए मैं अपना जीवन कुर्बान कर सकता हूँ! कितने सारे कष्ट सहे हैं बेचारी ने! हे मेरे प्रभु – प्लीज.. अब यह मुस्कान मेरी संध्या से कभी मत छीनना!
“अच्छा जी! आपको नहीं लगती?”
“नहीं! बिलकुल भी नहीं.. मैं तो पहाड़ों की बेटी हूँ.. याद है?” संध्या की मुस्कान बढती जा रही थी!
“हाँ! याद है... इन्ही पहाड़ों ने मेरा दिल और दिमाग दोनों ले लिया!”
“हैं! तो मुझे क्या मिला?”
“... और आपको दे दिया..”
“हा हा! बातें बनाना कोई आपसे सीखे!”
हम दोनों अब तक नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपनी टाँगों को पानी में डाले हुए सौम्य मालिश का आनंद उठा रहे थे।
“आपने बताया नहीं की आप यहाँ इतनी जल्दी कैसे आ गए?”
“संध्या – भगवान् के खेल तो बस भगवान् ही जानता है! बस यह कह लो की हमको मिलना था वापस, इसीलिए भगवान् ने कोई युक्ति लगा कर मिला दिया... सोचने समझने जैसी बात ही नहीं है.. कोई और मुझे यह कहानी सुनाता तो मैं कहता की फेंक रहा है.. लेकिन, अब जब यह खुद मेरे साथ हुआ है, तो और कुछ भी नहीं कह सकता! अभी कोई सप्ताह भर पहले की बात है – मैं घर पर बैठा टीवी देख रहा था। वहां नेशनल जियोग्राफिक में उत्तराँचल त्रासदी के ऊपर कोई डाक्यूमेंट्री चल रही थी। उसी में मैंने झलक भर आपको देखा।“
उसके बाद मैंने संध्या को सब कुछ सिलसिलेवार तरीके से बता दिया। वो मंत्रमुग्ध सी मेरी बात सुनती रही।
“समझ ही नहीं आया की आँखों का देखा मानूं या दिल का कहा सुनूं, या फिर दिमाग पर भरोसा करूँ! मैंने तो इस बार बस भगवान् पर भरोसा कर के यह सब कुछ किया.. और देखो.. यहाँ तक आ गया..”
सारी बात पूरी करते करते मेरी आँखों से आंसूं गिर गए। संध्या ने कुछ कहा नहीं – बस मेरी बाँह को पकड़ कर मुझसे कस कर चिपक गई।
“अब तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाना..” बहुत देर के बाद मैंने बहुत ही मुश्किल से अपने दिल की बात संध्या को कह दी, “चाहे कुछ हो जाय..”
“नहीं जाऊंगी जानू.. कहीं नहीं! आपको छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाऊंगी!”
कह कर संध्या मुझसे लिपट गई, और हम दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बंधे भाव-विभोर हो कर रोने लगे। कुछ देर बाद जब हम दोनों आलिंगन से अलग हुए तो संध्या ने कहा,
“अब मैं रोऊंगी भी नहीं.. आप मुझे मिल गए.. अब क्या रोना?”
मैंने भी अपने आंसू पोंछे, और कहा, “सही है.. अब क्यों रोना! .... चलें वापस?”
संध्या ने उत्तर में मुझे नज़र भर कर देखा, और हलके से मुस्कुराई,
“जानू..” उसने पुकारा।
संध्या की आवाज़ में ऐसा कुछ था जिसने मेरे अन्दर के प्रेमी को अचानक ही जगा दिया। मैं इतनी देर से उसके अभिवावक, और रक्षक का रोल अदा कर रहा था। लेकिन संध्या की उस एक पुकार ने ही मेरे अन्दर के प्रेमी को भी जगा दिया।
“हाँ?”
“आपको शकुंतला और दुष्यंत की कहानी मालूम है?”
“हाँ..” क्या कहना चाहती है!
“आप मेरे दुष्यंत हो?”
“हाँ.. अगर आप मेरी शकुंतला हो!”
“मैं तो आप जो कहें वो सब कुछ हूँ..”
“लेकिन, मैं तो नहीं भूला .. भूली तो आप..”
संध्या मुस्कुराई, “वो भी ठीक है.. चलो, मैं ही दुष्यंत.. हा हा!”
“हा हा..”
“आप भी तो भूल गए होंगे..!”
“नहीं.. मैं कै..” मेरे पूरा कहने से पहले ही संध्या ने अपना कुरता उतार दिया।
“आप नहीं भूले?” वो मुस्कुराते हुए अपनी ब्रा का हुक खोल रही थी।
संध्या से मैंने इतने दुस्साहस की उम्मीद नहीं करी थी। एकदम नया था यह मेरे लिए। और आश्चर्यजनक भी। सुखद आश्चर्यजनक!
“ह्म्म्म.. अंगूठी किधर है?” मैंने भी ठिठोली करी।
“अंगूठी? हा हा.. आप फिलहाल तो इन अंगूरों से याददाश्त वापस लाइए.. अंगूठी आती रहेगी..” वो मुस्कुराई।
“बस अंगूर ही मिलेंगे?”
“नहीं जानू.. शहद भी...”
तब तक मेरा लिंग तन कर पूरी तरह तैयार हो चला था। शलवार का नाडा संध्या खोल ही चुकी थी, तो उसको उतारने का उपक्रम मैंने कर दिया। साथ ही साथ उसकी चड्ढी भी उतर गई।
“इन अंगूरों में रस कब आएगा?”
पूर्ण नग्न हो कर संध्या वहीँ पत्थर पर पीठ के बल लेट गई। उस पत्थर के वृत्त पर लेटने से संध्या का शरीर भी कमानीदार हो गया – अर्द्ध चांदनी में उसके शरीर का भली भांति छायांकन हो रहा था। यह सोच लीजिए जैसे खुलेआम एक बेहद निजी अनावृत्ति! उसके नग्न शरीर को सिर्फ मैं देख सकता था और कोई नहीं। हलकी चांदनी उसके शरीर के हर अंग को दिखा भी रही थी, और छुपा भी रही थी। उसके गाल, उसकी नाक, उसके होंठ, उसके कंधे, और उत्तेजना से जल्दी जल्दी ऊपर नीचे होते उसके स्तन! सपाट, तना हुआ पेट, और उसके अंत में सुन्दर नितम्ब! कुल मिला कर संध्या के शरीर में बहुत अंतर नहीं आया था – हाँ, कम खाने पीने से वो कुछ पतली तो हो गई थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं तो हफ्ते भर में ठीक न हो जाय। अस्पताल में सचमुच उसकी अच्छी देखभाल हुई थी।
वो मुस्कुराई, “जब आपका रस अन्दर जाएगा..”
मैंने संध्या के क्रोड़ की तरफ देखा – उसका योनि मुख – उसके दोनों होंठ फूले हुए थे। घने बालों के बीच से भी यह दिख रहा था। फूले हुए, रसीले भगोष्ठ!
“सचमुच भूल गया!”
“तो अब आप याद कर लीजिए, और मुझे भी याद दिला दीजिए..” संध्या ने बहुत ही धीमी आवाज़ में यह कहा – फुसफुसाते हुए नहीं, बस दबी हुई आवाज़ में!
“एक तरह से हमारी दूसरी सुहागरात!” उसने एक आखिरी प्रहार किया..
मुझे उस प्रहार की वैसे भी कोई आवश्यकता नहीं थी। मैंने संध्या के पैर थोड़े से फैलाए। और अपनी उंगली को उसकी योनि की दरार पर फिराने लगा। संध्या एक परिचित छुवन से कांप गई। इतने अरसे से दबी हुई कामुक लालसा इस समय उसके अन्दर पूरे चरम पर थी। कुछ देर योनि की दरार पर उंगली चलाने के बाद मैंने अपनी उंगली को अन्दर की तरफ प्रविष्ट किया – उंगली जैसे ही अन्दर गई, संध्या की योनि ने तुरंत ही उसके इर्द गिर्द घेरा डाल कर उसे कस कर पकड़ लिया। मैं मुस्कुराया।
“उ उंगली उंगली नहीं जानू..” संध्या हांफते हुए बोली।
संध्या की इस बात पर मेरा लिंग जलने सा लगा। मेरे तने हुए जलते लिंग को अगर मैं अमूल बटर की ब्रिक से लगा देता तो उसमें लिंग की मोटाई के समान ही एक साफ़ छेद हो जाता। खैर, मैंने अपनी उंगली को बाहर खींचा और उंगली और अंगूठे की सहायता से उसके योनि-पुष्प की पंखुड़ियों को अलग करने लगा। संध्या के उत्तेजक काम रसायनों की महक हमारे आस पास की हवा में घुल गई।
स्वादिष्ट!
मैंने उसकी खुली हुई योनि को अपने मुख से ढंका और उन रसायनों का आनंद उठाने लगा। संध्या का रस, नीलम के रस जैसा मीठा नहीं था। खैर, इस बात की मैं कोई शिकायत तो करने वाला नहीं था। मैंने धीरे धीरे से संध्या की पूरी योनि को चूसना चाटना आरम्भ कर दिया। उतनी जल्दी तो उसकी योनि काम रस बना भी नहीं पा रही थी। जल्दी ही जब इस क्रिया से उसका रस समाप्त हो गया, तब मैं कभी दाहिने, तो कभी बाएँ होंठ को चूसने लगा। हार मान कर उसकी योनि पुनः काम रस का निर्माण करने लगी। और मैं उस रस को सहर्ष पी गया।
संध्या बड़े प्यार से मेरे बालों में हाथ फिराती हुई मेरा उत्साह-वर्धन कर रही थी। आज एक अरसे के बाद मैं संध्या की योनि चाट रहा था, इसलिए मुझे बहुत रोमांचक आनंद आ रहा था। थोड़ी ही देर बाद मेरा लिंग खड़ा हो गया।
मैंने कहा, “जानू, लगाता है कि आज तुम मूड में हो।”
संध्या ने फुसफुसाते और कराहते हुए कहा, “आ ह हाँ, इतने दिनों बाद अपने कामदेव से मिली हूँ.. आज तो मैं सचमुच बड़े मूड में हूँ। आप मुझे चोदिये, और जम कर चोदिये.. जैसे मन करे वैसे.. जितनी बार मन करे, उतनी बार...।”
“तब तो आज खूब मज़ा आयेगा।”
कह कर मैं वापस संध्या की योनि को चाटने में मग्न हो गया। वो सचमुच बहुत ज्यादा जोश में आ चुकी थी। थोड़ी ही देर में संध्या स्खलित हो गई..
फिर आई उसके भगनासे की बारी। मैंने उसके उस छोटे से अंग को देर तक कुछ इस तरह से चूसा जैसे कोई स्त्री अपने प्रेमी के लिंग को चूसती है। इस क्रिया का संध्या पर नैसर्गिक प्रभाव पड़ा – वो अपने नितम्ब गोल गोल घुमा कर और उछाल कर मुख मैथुन का पूरा आनंद उठा रही थी। खैर, जब तक मैंने उसके भगनासे से अपना मुँह हटाया, तब तक संध्या तीन बार और स्खलित हो गई। संध्या की संतुष्टि भरी आहें वातावरण में गूँज रही थीं।
“ओह गॉड!” उसने कामुकता भरी संतुष्टि से कराहा।
मैंने संध्या को रतिनिष्पत्ति का पूरा आनंद उठाने दिया। मुझे शंका थी की कहीं संध्या की आहें और कराहें सुन कर कोई आस पास न आ गया हो। उस जगह निर्जनता तो थी, लेकिन इतनी नहीं की कोई इतनी ऊंची आवाज़ न सुन सके। खैर, कोई देखता है, तो देखे! क्या फर्क पड़ता है! मैंने अपने भी कपडे उतार दिए। मेरा लिंग तो पूरी तरह से तना हुआ था।
मैंने अपने आप को संध्या की टाँगों के बीच व्यवस्थित किया और उसकी टाँगों को उठा कर अपने कंधे पर रख लिया। फिर मैंने उसकी योनि के होंठों को फैला कर अपने शिश्नाग्र को वहां व्यवस्थित किया। कोई दो ढाई साल बाद संध्या की चुदाई होने वाली थी (कुंदन वाला कुछ भी मान्य नहीं होगा) – इसलिए मुझे सम्हाल कर ही सब कुछ करना था।
संध्या को खुद भी इस बीते हुए अरसे का एहसास था – इसलिए वो भी उत्तेजना के मारे एकदम पागल सी होने लगी। खुले में सम्भोग करने जैसी हिमाकत वो ऐसे नहीं कर सकती थी।
“शुरू करें?” कह कर मैंने लिंग को उसकी चूत में फंसा कर एक जोर का धक्का लगाया। संध्या के मुँह से चीख निकल पड़ी। उसकी योनि सचमुच ही पहले जैसी हो गई थी – संकरी और चुस्त! मैंने नीचे देखा तो सिर्फ सुपाड़ा ही अन्दर गया था – बाकी का पूरा का पूरा अभी अन्दर जाना बचा हुआ था।
“क्या बात है रानी! आपकी चूत तो एकदम कसी हुई है! ठीक उस रात के जैसे जब हम दोनों पहली बार मिले थे! असल में, उस से भी ज्यादा कसी हुई...।”
पीड़ा में भी संध्या की खिलखिलाहट निकल गई।
“आप जो नहीं थे, इसके कस बल खोलने के लिए...”
“कोई बात नहीं... अब आपकी ये शिकायत दूर कर दूंगा..”
“वो मुझे मालूम है... अब शुरू कीजिए..”
“क्या?” मैंने छेड़ा।
“चुदाई...” उसने फुसफुसाते हुए कहा और मेरे लिंग को अपनी योनि के मुहाने पर छुआ दिया।
मैंने धीरे धीरे लिंग को अन्दर घुसाया; संध्या की कराह निकल रही थी, लेकिन उसके खुद में ही उसको ज़ब्त कर लिया। संध्या की चूत सचमुच संकरी हो गई थी। नीलम से भी अधिक कसावट लिए! उस घर्षण से लिंग के ऊपर की चमड़ी पीछे खिसक गई – अब मेरा मोटा सुपाड़ा संध्या की योनि की दीवारों को रगड़ रहा था। हम दोनों का ही उन्माद से बुरा हाल हो गया। मैं अन्दर के तरफ दबाव देता गया जब तक लिंग पूरी तरह से संध्या के अन्दर समां नहीं गया।
“देख तो! मेरा लंड कैसे तेरे अन्दर फिट हो गया है...”
संध्या ने सर उठा कर देखा और बोली, “ओ भगवान! शुक्र है की पूरा अन्दर आ गया.. मेरे अन्दर की खाली जगह आखिरकार भर ही गई! उम्म्म.. मुझे डर लग रहा था की शायद न हो पाए! अब बस.. आप जोर से चोद डालिए मुझे... यह भी तो बहुत आतुर हो रहा है..."
मैंने संध्या की दोनों टाँगे अपने कन्धों पर रख लिया।
“तैयार हो?”
"हाँ... आप ऐसे मत सताइए! मेरे पूरे शरीर में आग सी लगी हुई है। बुरी तरह...”, संध्या ने कहा।
"क्या सच में!” मैंने पूछा।
मेरे इतना कहने की देर थी कि संध्या नीचे से खुद ही धक्के लगाने लगी। मैंने कुछ नहीं कहा, बस संध्या को तेजी के साथ चोदना शुरु कर दिया। हम दोनों ही बहुत जोश में थे और तेजी से मंथन कर रहे थे। अति उत्तेजना के कारण सिर्फ पाँच मिनट में ही संध्या चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। संध्या की योनि से कामरस निकलता हुआ देख कर मेरा जोश भी बढ़ गया और मैंने भी अपनी गति बढ़ा दी। मैं उसको तेजी से चोदने लगा। हाँ, यही शब्द ठीक है! जो हम कर रहे थे, वो विशुद्ध सम्भोग था, जिसका सिर्फ एक और एक ही उद्देश्य था – और वो था हमारे शरीरों की काम पिपासा को शांत करना। और इसका सटीक शब्द चुदाई ही था। आगे दो तीन मिनटों में मेरे लिंग ने भी वीर्य छोड़ दिया और संध्या की योनि भरने लगी। पूरी तरह से स्खलित हो जाने के बाद मैंने अपना लिंग उसकी योनि से बाहर निकाला, और हट गया। संध्या ने मुझको अपनी तरफ़ खींच लिया, और मेरा लिंग चाटने लगी।
एक और नई बात!
“आज तो मज़ा आ गया।” जब संध्या ने अपना काम ख़तम किया तो मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।
खैर, मेरे लिए तो यह भी ठीक था। सामान तो कुछ खास था नहीं, इसलिए हम दोनों बाहर चले आये। दुकाने ज्यादातर बंद हो रही थीं, लेकिन एक दो दुकाने, जो लगभग सभी प्रकार की वस्तुएं बेच रही थीं, अभी भी खुली थीं। वहां जा कर संध्या के लिए हमने एक और जोड़ी शलवार कुर्ता खरीदा, और फिर खाने के लिए चल दिए। छोटी जगह पर कोई खासमखास इंतजाम तो रहता नहीं, लेकिन फिर भी उस छोटे से ढाबे में दाल तड़का, आलू की सब्जी और रोटियाँ खा कर अपार तृप्ति का अनुभव हुआ। खाने के बाद हम लोग तुरंत ही होटल में नहीं गए – संध्या के कहने पर वहां की मुख्य सड़क से अलग हट कर नीचे की तरफ जाने वाली सड़क की और चल दिए। उसने ही मुझे बताया की अलकनंदा नदी यहाँ से बहती है।
मैंने कोई प्रतिरोध नहीं किया – इतनी देर के बाद संध्या ने वापस कुछ कहना बोलना शुरू किया था – मेरे लिए वही बहुत था। बात उसी ने शुरू करी,
“आप अपना ख़याल नहीं रखते न?”
अब मैं उसको क्या बताता! उसके जाने के बाद मुझ पर क्या क्या बीती है, यह तो मैं ही जानता हूँ। और, वह सब बातें मैं संध्या को कैसे कह दूं?
“कैसे रखता? आपकी आदत जो है..” यह वाक्य बोलते बोलते गले में फाँस सी हो गई।
“मेरे कारण..” वो कुछ और कहती की मैंने उसको बीच में टोक दिया,
“जानू.. किसी के कारण कुछ भी नहीं हुआ.. जो हुआ, वो हुआ.. इसमें न किसी की गलती है, और न ही किसी का जोर! वो कहते हैं न.. आगे की सुध ले.. तो हम लोग भी आगे की ही सुध लेते हैं.. भगवान को जो करना था, वो कर दिया.. ज़रूर कुछ सिखाना चाहते थे, जिसके लिए यह सब हुआ!”
संध्या कुछ देर चुप रही।
हम लोग टहलते हुए जल्दी ही नदी के किनारे पहुँच गए। अलकनंदा अपनी मंथर गति से बहती जा रही थी। नदी की कर्णप्रिय ध्वनि से आत्मा तक को आराम मिल रहा था। हम लोग चुपचाप उस आवाज़ का देर तक आनंद लेते रहे... चुप्पी संध्या ने ही तोड़ी,
“पिछली बार जब हम यहाँ आये थे, तो मेरा मन हुआ था कि आपको यहाँ लाया जाए...”
“हम्म... तो फिर लाई क्यों नहीं?”
“आपको ठंडी लग जाती न... इसलिए..” संध्या मुस्कुराई।
ओह प्रभु! इस एक मुस्कान के लिए मैं अपना जीवन कुर्बान कर सकता हूँ! कितने सारे कष्ट सहे हैं बेचारी ने! हे मेरे प्रभु – प्लीज.. अब यह मुस्कान मेरी संध्या से कभी मत छीनना!
“अच्छा जी! आपको नहीं लगती?”
“नहीं! बिलकुल भी नहीं.. मैं तो पहाड़ों की बेटी हूँ.. याद है?” संध्या की मुस्कान बढती जा रही थी!
“हाँ! याद है... इन्ही पहाड़ों ने मेरा दिल और दिमाग दोनों ले लिया!”
“हैं! तो मुझे क्या मिला?”
“... और आपको दे दिया..”
“हा हा! बातें बनाना कोई आपसे सीखे!”
हम दोनों अब तक नदी के किनारे एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर अपनी टाँगों को पानी में डाले हुए सौम्य मालिश का आनंद उठा रहे थे।
“आपने बताया नहीं की आप यहाँ इतनी जल्दी कैसे आ गए?”
“संध्या – भगवान् के खेल तो बस भगवान् ही जानता है! बस यह कह लो की हमको मिलना था वापस, इसीलिए भगवान् ने कोई युक्ति लगा कर मिला दिया... सोचने समझने जैसी बात ही नहीं है.. कोई और मुझे यह कहानी सुनाता तो मैं कहता की फेंक रहा है.. लेकिन, अब जब यह खुद मेरे साथ हुआ है, तो और कुछ भी नहीं कह सकता! अभी कोई सप्ताह भर पहले की बात है – मैं घर पर बैठा टीवी देख रहा था। वहां नेशनल जियोग्राफिक में उत्तराँचल त्रासदी के ऊपर कोई डाक्यूमेंट्री चल रही थी। उसी में मैंने झलक भर आपको देखा।“
उसके बाद मैंने संध्या को सब कुछ सिलसिलेवार तरीके से बता दिया। वो मंत्रमुग्ध सी मेरी बात सुनती रही।
“समझ ही नहीं आया की आँखों का देखा मानूं या दिल का कहा सुनूं, या फिर दिमाग पर भरोसा करूँ! मैंने तो इस बार बस भगवान् पर भरोसा कर के यह सब कुछ किया.. और देखो.. यहाँ तक आ गया..”
सारी बात पूरी करते करते मेरी आँखों से आंसूं गिर गए। संध्या ने कुछ कहा नहीं – बस मेरी बाँह को पकड़ कर मुझसे कस कर चिपक गई।
“अब तुम मुझे छोड़ कर कहीं मत जाना..” बहुत देर के बाद मैंने बहुत ही मुश्किल से अपने दिल की बात संध्या को कह दी, “चाहे कुछ हो जाय..”
“नहीं जाऊंगी जानू.. कहीं नहीं! आपको छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाऊंगी!”
कह कर संध्या मुझसे लिपट गई, और हम दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बंधे भाव-विभोर हो कर रोने लगे। कुछ देर बाद जब हम दोनों आलिंगन से अलग हुए तो संध्या ने कहा,
“अब मैं रोऊंगी भी नहीं.. आप मुझे मिल गए.. अब क्या रोना?”
मैंने भी अपने आंसू पोंछे, और कहा, “सही है.. अब क्यों रोना! .... चलें वापस?”
संध्या ने उत्तर में मुझे नज़र भर कर देखा, और हलके से मुस्कुराई,
“जानू..” उसने पुकारा।
संध्या की आवाज़ में ऐसा कुछ था जिसने मेरे अन्दर के प्रेमी को अचानक ही जगा दिया। मैं इतनी देर से उसके अभिवावक, और रक्षक का रोल अदा कर रहा था। लेकिन संध्या की उस एक पुकार ने ही मेरे अन्दर के प्रेमी को भी जगा दिया।
“हाँ?”
“आपको शकुंतला और दुष्यंत की कहानी मालूम है?”
“हाँ..” क्या कहना चाहती है!
“आप मेरे दुष्यंत हो?”
“हाँ.. अगर आप मेरी शकुंतला हो!”
“मैं तो आप जो कहें वो सब कुछ हूँ..”
“लेकिन, मैं तो नहीं भूला .. भूली तो आप..”
संध्या मुस्कुराई, “वो भी ठीक है.. चलो, मैं ही दुष्यंत.. हा हा!”
“हा हा..”
“आप भी तो भूल गए होंगे..!”
“नहीं.. मैं कै..” मेरे पूरा कहने से पहले ही संध्या ने अपना कुरता उतार दिया।
“आप नहीं भूले?” वो मुस्कुराते हुए अपनी ब्रा का हुक खोल रही थी।
संध्या से मैंने इतने दुस्साहस की उम्मीद नहीं करी थी। एकदम नया था यह मेरे लिए। और आश्चर्यजनक भी। सुखद आश्चर्यजनक!
“ह्म्म्म.. अंगूठी किधर है?” मैंने भी ठिठोली करी।
“अंगूठी? हा हा.. आप फिलहाल तो इन अंगूरों से याददाश्त वापस लाइए.. अंगूठी आती रहेगी..” वो मुस्कुराई।
“बस अंगूर ही मिलेंगे?”
“नहीं जानू.. शहद भी...”
तब तक मेरा लिंग तन कर पूरी तरह तैयार हो चला था। शलवार का नाडा संध्या खोल ही चुकी थी, तो उसको उतारने का उपक्रम मैंने कर दिया। साथ ही साथ उसकी चड्ढी भी उतर गई।
“इन अंगूरों में रस कब आएगा?”
पूर्ण नग्न हो कर संध्या वहीँ पत्थर पर पीठ के बल लेट गई। उस पत्थर के वृत्त पर लेटने से संध्या का शरीर भी कमानीदार हो गया – अर्द्ध चांदनी में उसके शरीर का भली भांति छायांकन हो रहा था। यह सोच लीजिए जैसे खुलेआम एक बेहद निजी अनावृत्ति! उसके नग्न शरीर को सिर्फ मैं देख सकता था और कोई नहीं। हलकी चांदनी उसके शरीर के हर अंग को दिखा भी रही थी, और छुपा भी रही थी। उसके गाल, उसकी नाक, उसके होंठ, उसके कंधे, और उत्तेजना से जल्दी जल्दी ऊपर नीचे होते उसके स्तन! सपाट, तना हुआ पेट, और उसके अंत में सुन्दर नितम्ब! कुल मिला कर संध्या के शरीर में बहुत अंतर नहीं आया था – हाँ, कम खाने पीने से वो कुछ पतली तो हो गई थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं तो हफ्ते भर में ठीक न हो जाय। अस्पताल में सचमुच उसकी अच्छी देखभाल हुई थी।
वो मुस्कुराई, “जब आपका रस अन्दर जाएगा..”
मैंने संध्या के क्रोड़ की तरफ देखा – उसका योनि मुख – उसके दोनों होंठ फूले हुए थे। घने बालों के बीच से भी यह दिख रहा था। फूले हुए, रसीले भगोष्ठ!
“सचमुच भूल गया!”
“तो अब आप याद कर लीजिए, और मुझे भी याद दिला दीजिए..” संध्या ने बहुत ही धीमी आवाज़ में यह कहा – फुसफुसाते हुए नहीं, बस दबी हुई आवाज़ में!
“एक तरह से हमारी दूसरी सुहागरात!” उसने एक आखिरी प्रहार किया..
मुझे उस प्रहार की वैसे भी कोई आवश्यकता नहीं थी। मैंने संध्या के पैर थोड़े से फैलाए। और अपनी उंगली को उसकी योनि की दरार पर फिराने लगा। संध्या एक परिचित छुवन से कांप गई। इतने अरसे से दबी हुई कामुक लालसा इस समय उसके अन्दर पूरे चरम पर थी। कुछ देर योनि की दरार पर उंगली चलाने के बाद मैंने अपनी उंगली को अन्दर की तरफ प्रविष्ट किया – उंगली जैसे ही अन्दर गई, संध्या की योनि ने तुरंत ही उसके इर्द गिर्द घेरा डाल कर उसे कस कर पकड़ लिया। मैं मुस्कुराया।
“उ उंगली उंगली नहीं जानू..” संध्या हांफते हुए बोली।
संध्या की इस बात पर मेरा लिंग जलने सा लगा। मेरे तने हुए जलते लिंग को अगर मैं अमूल बटर की ब्रिक से लगा देता तो उसमें लिंग की मोटाई के समान ही एक साफ़ छेद हो जाता। खैर, मैंने अपनी उंगली को बाहर खींचा और उंगली और अंगूठे की सहायता से उसके योनि-पुष्प की पंखुड़ियों को अलग करने लगा। संध्या के उत्तेजक काम रसायनों की महक हमारे आस पास की हवा में घुल गई।
स्वादिष्ट!
मैंने उसकी खुली हुई योनि को अपने मुख से ढंका और उन रसायनों का आनंद उठाने लगा। संध्या का रस, नीलम के रस जैसा मीठा नहीं था। खैर, इस बात की मैं कोई शिकायत तो करने वाला नहीं था। मैंने धीरे धीरे से संध्या की पूरी योनि को चूसना चाटना आरम्भ कर दिया। उतनी जल्दी तो उसकी योनि काम रस बना भी नहीं पा रही थी। जल्दी ही जब इस क्रिया से उसका रस समाप्त हो गया, तब मैं कभी दाहिने, तो कभी बाएँ होंठ को चूसने लगा। हार मान कर उसकी योनि पुनः काम रस का निर्माण करने लगी। और मैं उस रस को सहर्ष पी गया।
संध्या बड़े प्यार से मेरे बालों में हाथ फिराती हुई मेरा उत्साह-वर्धन कर रही थी। आज एक अरसे के बाद मैं संध्या की योनि चाट रहा था, इसलिए मुझे बहुत रोमांचक आनंद आ रहा था। थोड़ी ही देर बाद मेरा लिंग खड़ा हो गया।
मैंने कहा, “जानू, लगाता है कि आज तुम मूड में हो।”
संध्या ने फुसफुसाते और कराहते हुए कहा, “आ ह हाँ, इतने दिनों बाद अपने कामदेव से मिली हूँ.. आज तो मैं सचमुच बड़े मूड में हूँ। आप मुझे चोदिये, और जम कर चोदिये.. जैसे मन करे वैसे.. जितनी बार मन करे, उतनी बार...।”
“तब तो आज खूब मज़ा आयेगा।”
कह कर मैं वापस संध्या की योनि को चाटने में मग्न हो गया। वो सचमुच बहुत ज्यादा जोश में आ चुकी थी। थोड़ी ही देर में संध्या स्खलित हो गई..
फिर आई उसके भगनासे की बारी। मैंने उसके उस छोटे से अंग को देर तक कुछ इस तरह से चूसा जैसे कोई स्त्री अपने प्रेमी के लिंग को चूसती है। इस क्रिया का संध्या पर नैसर्गिक प्रभाव पड़ा – वो अपने नितम्ब गोल गोल घुमा कर और उछाल कर मुख मैथुन का पूरा आनंद उठा रही थी। खैर, जब तक मैंने उसके भगनासे से अपना मुँह हटाया, तब तक संध्या तीन बार और स्खलित हो गई। संध्या की संतुष्टि भरी आहें वातावरण में गूँज रही थीं।
“ओह गॉड!” उसने कामुकता भरी संतुष्टि से कराहा।
मैंने संध्या को रतिनिष्पत्ति का पूरा आनंद उठाने दिया। मुझे शंका थी की कहीं संध्या की आहें और कराहें सुन कर कोई आस पास न आ गया हो। उस जगह निर्जनता तो थी, लेकिन इतनी नहीं की कोई इतनी ऊंची आवाज़ न सुन सके। खैर, कोई देखता है, तो देखे! क्या फर्क पड़ता है! मैंने अपने भी कपडे उतार दिए। मेरा लिंग तो पूरी तरह से तना हुआ था।
मैंने अपने आप को संध्या की टाँगों के बीच व्यवस्थित किया और उसकी टाँगों को उठा कर अपने कंधे पर रख लिया। फिर मैंने उसकी योनि के होंठों को फैला कर अपने शिश्नाग्र को वहां व्यवस्थित किया। कोई दो ढाई साल बाद संध्या की चुदाई होने वाली थी (कुंदन वाला कुछ भी मान्य नहीं होगा) – इसलिए मुझे सम्हाल कर ही सब कुछ करना था।
संध्या को खुद भी इस बीते हुए अरसे का एहसास था – इसलिए वो भी उत्तेजना के मारे एकदम पागल सी होने लगी। खुले में सम्भोग करने जैसी हिमाकत वो ऐसे नहीं कर सकती थी।
“शुरू करें?” कह कर मैंने लिंग को उसकी चूत में फंसा कर एक जोर का धक्का लगाया। संध्या के मुँह से चीख निकल पड़ी। उसकी योनि सचमुच ही पहले जैसी हो गई थी – संकरी और चुस्त! मैंने नीचे देखा तो सिर्फ सुपाड़ा ही अन्दर गया था – बाकी का पूरा का पूरा अभी अन्दर जाना बचा हुआ था।
“क्या बात है रानी! आपकी चूत तो एकदम कसी हुई है! ठीक उस रात के जैसे जब हम दोनों पहली बार मिले थे! असल में, उस से भी ज्यादा कसी हुई...।”
पीड़ा में भी संध्या की खिलखिलाहट निकल गई।
“आप जो नहीं थे, इसके कस बल खोलने के लिए...”
“कोई बात नहीं... अब आपकी ये शिकायत दूर कर दूंगा..”
“वो मुझे मालूम है... अब शुरू कीजिए..”
“क्या?” मैंने छेड़ा।
“चुदाई...” उसने फुसफुसाते हुए कहा और मेरे लिंग को अपनी योनि के मुहाने पर छुआ दिया।
मैंने धीरे धीरे लिंग को अन्दर घुसाया; संध्या की कराह निकल रही थी, लेकिन उसके खुद में ही उसको ज़ब्त कर लिया। संध्या की चूत सचमुच संकरी हो गई थी। नीलम से भी अधिक कसावट लिए! उस घर्षण से लिंग के ऊपर की चमड़ी पीछे खिसक गई – अब मेरा मोटा सुपाड़ा संध्या की योनि की दीवारों को रगड़ रहा था। हम दोनों का ही उन्माद से बुरा हाल हो गया। मैं अन्दर के तरफ दबाव देता गया जब तक लिंग पूरी तरह से संध्या के अन्दर समां नहीं गया।
“देख तो! मेरा लंड कैसे तेरे अन्दर फिट हो गया है...”
संध्या ने सर उठा कर देखा और बोली, “ओ भगवान! शुक्र है की पूरा अन्दर आ गया.. मेरे अन्दर की खाली जगह आखिरकार भर ही गई! उम्म्म.. मुझे डर लग रहा था की शायद न हो पाए! अब बस.. आप जोर से चोद डालिए मुझे... यह भी तो बहुत आतुर हो रहा है..."
मैंने संध्या की दोनों टाँगे अपने कन्धों पर रख लिया।
“तैयार हो?”
"हाँ... आप ऐसे मत सताइए! मेरे पूरे शरीर में आग सी लगी हुई है। बुरी तरह...”, संध्या ने कहा।
"क्या सच में!” मैंने पूछा।
मेरे इतना कहने की देर थी कि संध्या नीचे से खुद ही धक्के लगाने लगी। मैंने कुछ नहीं कहा, बस संध्या को तेजी के साथ चोदना शुरु कर दिया। हम दोनों ही बहुत जोश में थे और तेजी से मंथन कर रहे थे। अति उत्तेजना के कारण सिर्फ पाँच मिनट में ही संध्या चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। संध्या की योनि से कामरस निकलता हुआ देख कर मेरा जोश भी बढ़ गया और मैंने भी अपनी गति बढ़ा दी। मैं उसको तेजी से चोदने लगा। हाँ, यही शब्द ठीक है! जो हम कर रहे थे, वो विशुद्ध सम्भोग था, जिसका सिर्फ एक और एक ही उद्देश्य था – और वो था हमारे शरीरों की काम पिपासा को शांत करना। और इसका सटीक शब्द चुदाई ही था। आगे दो तीन मिनटों में मेरे लिंग ने भी वीर्य छोड़ दिया और संध्या की योनि भरने लगी। पूरी तरह से स्खलित हो जाने के बाद मैंने अपना लिंग उसकी योनि से बाहर निकाला, और हट गया। संध्या ने मुझको अपनी तरफ़ खींच लिया, और मेरा लिंग चाटने लगी।
एक और नई बात!
“आज तो मज़ा आ गया।” जब संध्या ने अपना काम ख़तम किया तो मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया।