दुनियादारी से फुर्सत पाकर अब मैं अपनी संध्या से मिलने चला।
इतने दिनों के बाद.. ओह भगवान् मैं ख़ुशी से पागल न हो जाऊं! पैरों में मेरे पंख जैसे निकल आये..
संध्या कुछ व्यग्र सी रामलाल के घर के दरवाज़े के ठीक सामने एक चारपाई पर बैठी हुई थी। मन में न जाने कितने सारे विचार आ और जा रहे थे। भले ही किसी ने उसको पूरी बात विस्तार से न बताई हो, लेकिन किश्तों में और छोटे छोटे टुकड़ों में उसको जो सब कुछ पता चला, वो उसको हिला देने वाला था। सबसे पहले तो उसके आँखों के सामने वो दिल दहला देने वाला दृश्य पुनः सजीव हो उठा।
मष्तिष्क के खेल निराले होते हैं – केदारनाथ आपदा के समय जब अभी जीवन अभी मृत्यु जैसी दशा बन आई, तब किस तरह से वो, नीलम और उनके पिता शक्ति सिंह जी अपनी जान बचा कर वहां से निकले। माँ को तो उसने आँखों के सामने उस अथाह जलराशि में बह जाते हुए देखा था – बाढ़ में होटल का अहाता बुरी तरह से टूट गया था, और होटल ढलान पर होने के कारण, वहां से पानी भी बड़ी तीव्रता से बह रहा था। पकड़ने के लिए न कोई रेलिंग थी न कोई अन्य सहारा। बहुत सम्हाल कर निकलने के बाद भी माँ का पैर फिसल गया और वो सबकी आँखों के सामने बह गईं। एक पल को आँखों के सामने, और अगले ही पल गायब! कितनी क्षणिक हो सकती है ज़िन्दगी! कितनी व्यर्थ! पिताजी उनके पीछे भागे – बिना अपनी जान की परवाह किये! लेकिन पानी में इतना सारा मिट्टी और पत्थर मिला हुआ था, की उसकी रंगत ही बदल गई थी। माँ फिर कभी नहीं दिखाई दीं। वो कुछ दूर तक गए तो, लेकिन जब वापस आये तो लंगड़ा कर चल रहे थे – टूटे हुए किसी राह पर गलत पैर पड़ गया और उनके में चोट लग गई।
जान बचाते लोगों ने उनको पहाड़ पर ऊंचाई की तरफ जाने की सलाह दी। काफी सारे लोग वही काम कर रहे थे – मतलब लोग पहाड़ की ढलान के ऊपर की तरफ जा रहे थे। उन्ही की देखा देखी वो तीनों भी ऊपर की चढ़ाई करने लगे। पर्वतों की संतानें होने के बावजूद उस चढ़ाई को तय करने में बहुत समय लग गया। न तो पिताजी ही ठीक से चल पा रहे थे, और न ही खुद संध्या। वैसे भी गर्भावस्था में ऐसे कठिन काम करने से मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। चलते चलते अचानक ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई, और वो वहीँ एक जगह भहरा कर गिर गई। जब होश आया तो उसने देखा की पिताजी उसको पानी पिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
रात गहरा गई थी, और आस पास कोई भी नहीं दिख रहा था। बस इसी बात की आस थी की कम से कम हम तीनो तो बच गए.. लेकिन पिताजी दिन भर उल्टियाँ करते करते मृत्यु से हार गए। एक साथ कितनी यातनाएँ सहती वो? दिन भर के अंतराल में दोनों लड़कियों के सर से माँ बाप का साया उठ गया। अब तक वो भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक – तीनों स्तर पर अपने हथियार डाल चुकी थी। न जाने कहीं से कुछ सड़ा हुआ मांस मिल गया – जिसने कुछ देर और उन दोनों की जान बचाई। जंगली जानवरों की आवाज़ के बीच न चाहते हुए भी उसको नींद सी आ गई – पलकें बंद करते करते उसने नज़र भर नीलम को देखा। संध्या समझ गई की अब अंत समय आ गया – उसको दुःख बस इस बात का था, की वो अपनी छुटकी – अपनी छोटी बहन – के लिए कुछ नहीं कर पा रही थी। संभवतः प्रभु के घर उसको अपने माँ बाप के सामने लज्जित होना और लिखा था।
जब खुद का होश हुआ, तो मालूम हुआ की वो यहाँ इस अनजान सी जगह पर है, और डॉक्टर उसकी जांच पड़ताल कर रहे थे। उसको अपने शरीर में हुआ परिवर्तन समझ में आ गया था – संध्या समझ गई की रूद्र और उसके प्रेम की निशानी अब नहीं बची। उसका जी हुआ की बुक्का फाड़ कर रोए, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। डॉक्टर उससे सवाल जवाब कर रहे थे.. उसको समझ नहीं आया की उससे ऐसी जवाब-तलबी क्यों करी जा रही है.. लेकिन फिर भी वो पूरे संयम से उनकी बातों का ठीक ठीक उत्तर देती रही। फिर मालूम हुआ की रूद्र यहीं आने हैं.. यह सुन कर उसकी जान में जान आई – कम से कम पूरी बात तो समझ आएगी!
लेकिन रूद्र के आने से पहले उसको लोगों की दबी आवाज़ में कही गई बातें सुनाई दे गईं। उसने डॉक्टर संजीव पर दबाव डाला की वो उसे सब कुछ सच सच बताएं – उसको सब सच जानने का पूरा हक़ था। संजीव और रामलाल ने उसको सारी बातें, हिचकते हुए ही सही, बता दीं। उसको यकीन ही नहीं हुआ की उसके दिमाग में जो बात अभी तक जीवित थी, वो कोई दो साल पुरानी यादें थीं, और यह की पिछले हफ्ता दस दिन तक उसके साथ जो कुछ भी हुआ, वो उसको याद ही नहीं था! उसने यह भी जाना की उसने ऐसे आदमी की जान बचाई थी, जिसने उसकी याददाश्त का फायदा उठा कर उसके साथ शारीरिक ज्यादतियां करी थीं। अब क्या मुँह दिखाएगी वो रूद्र को?
ऐसी ही न जाने कितनी बातें सोचती हुई, उम्मीद और नाउम्मीद के झूले में झूलते हुए, नीलम का अंतर्मन बेहद आंदोलित होता जा रहा था। वो बहुत बेसब्री से रूद्र की प्रतीक्षा कर रही थी।
‘रूद्र!’
रूद्र पर निगाह पड़ते ही वो चारपाई पर से उछल कर खड़ी हो गई। रूद्र को देखते ही जैसे उसके मन के सारे संताप ख़तम हो गए। उसके चेहरे पर तुरंत ही राहत के भाव आ गए। संध्या के मुँह से कोई बोल तुरंत तो नहीं फूटे, लेकिन रूद्र को जैसे उसके मन की बातें सब समझ आ गईं। संध्या ने सुना तो कुछ नहीं, लेकिन उसको लगा की रूद्र ने उसको ‘कुछ मत कहो’ जैसा कुछ कहा था।
रूद्र ने संध्या को देखा – अपलक, मुँह बाए हुए! दो वर्ष क्या बीते, जैसे दो जन्म ही बीत गए!
‘हे भगवान्! कितनी बदल गई है!’ उसका गुलाब जैसे खिला खिला चेहरा, एकदम कुम्हला गया था; सदा मुस्कुराती हुई आँखें न जाने किस दुःख के बोझ तले बुझ गईं थीं।
न जाने क्यों रूद्र का मन आत्मग्लानि से भर गया। रूद्र लगभग दौड़ते हुए उसकी तरफ बढ़ रहे थे; संध्या भी लपक कर उनकी बाहों में आ गई। आलिंगनबद्ध हुए ही रूद्र उसका शरीर यूँ टटोलने लगे जैसे उसकी मुकम्मल सलामती की तसदीक कर रहे हों!
“ओह जानू!” रूद्र ने कहा।
उनकी आवाज़ में गहरी तसल्ली साफ़ सुनाई दे रही थी – उम्मीद है की दिल का दुःख संध्या ने न सुना हो। आलिंगन बिना छोड़े हुए ही, रूद्र ने संध्या के कोमल कपोलों को अपनी हथेलियों में ले कर प्यार से दबाया,
“ओह जानू!”
रूद्र का गला भर आया था। उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे।
“ओह जानू..” कहते कहते वो फफक फफक कर रो पड़े। गले की आवाज़ भावावेश में आ कर अवरुद्ध हो चली थी।
ऐसे भाव विह्वल मिलन का असर संध्या पर खुद भी वैसे हुआ, जैसे रूद्र पर! रूद्र को अपने आलिंगन में बांधे संध्या की आँखें बंद हो गईं। वो निःशब्द रोने लगी। उन आंसुओं के माध्यम से वो पिछले दो वर्षों की भयानक यादें भुला देना चाहती थी – अपनी भी, और संभवतः रूद्र की भी। रूद्र को इस तरह से रोते हुए उसने कभी नहीं देखा था – वो कभी कभी भावुक हो जाते थे, लेकिन, रोना!! संध्या को तो याद भी नहीं है की रूद्र कभी रोए भी हैं! संध्या को अपने आलिंगन में बांधे रूद्र रोते जा रहे थे। एक छोटे बच्चे के मानिंद! गाँव वाले पहले तो तमाशा देखने के लिए उन दोनों को घेर कर खड़े रहे, लेकिन रामलाल ने जब आँखें तरेरीं, तो सब चुपचाप खिसक लिए।
पता नहीं कब तक दोनों एक दूसरे को थामे, रोते रहे और एक दूसरे के आंसूं पोंछते रहे। लेकिन आंसुओं का क्या करें? थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। रूद्र विगत दो वर्षों की निराशा, दुःख, हताशा, और सब कुछ खो जाने के संताप से रो रहा था, और संध्या उन्ही सब बातों को सोच सोच कर! वो रूद्र के लिए रो रही थी, नीलम के लिए रो रही थी, अपने माता पिता के लिए रो रही थी, और अपनी अजन्मी संतान के लिए रो रही थी। कैसा था वो समय.. और कैसे होगा आने वाला कल?
रोते रोते एक समय ऐसा भी आता है जब रोने के लिए आँसूं भी नहीं बचते है... उस गहरे अवसाद में रूद्र ने ही सबसे पहले खुद को सम्हाला,
“बस जानू बस.. अब चलते हैं...”
संध्या की हिचकियाँ बंध गईं थीं। उसके ठीक से बोल भी नहीं निकल रहे थे।
“नी.. नी..ही..ही..अह..लम क..कैसी ..?” हिचकियों के बीच में उसने पूछा।
इस प्रश्न पर मुझको जैसे करंट लग गया। अचानक ही मेरे मन में अपराध बोध घर कर गया।
‘ओह भगवान्! क्या सोचेगी संध्या, जब उसको मेरी करतूत के बारे में पता चलेगा! इतना भी सब्र नहीं हुआ? और ऐसा भी क्या की उसी की छोटी बहन पर हाथ साफ़ कर दिया! कितनी ज़िल्लत! सुन कर क्या सोचेगी संध्या? अपने से चौदह साल छोटी लड़की के साथ! छिः छिः!’
“अच्छी है..”
मेरे गले में अपराध बोध वाली फाँस बन गई, “बड़ी हो गई है काफी..” जैसे तैसे वाक्य ख़तम कर के मैंने बस यही सोचा की संध्या अब नीलम के बारे में और पूछ-ताछ न करे।
“म म्मेरी अह अह.. उस उस से अह.. ब बात क क करा..अहइए..” संध्या ने बंधे गले से जैसे तैसे बोला।
“जानू.. अभी नहीं! अभी चलते हैं.. उसको सरप्राइज देंगे.. ठीक है?”
तकदीर ने साथ दिया, संध्या मेरी बात मान गई, और उसने आगे कुछ नहीं पूछा। मैंने जल्दी जल्दी कई सारी औपचारिकताएँ पूरी करीं, सारे ज़रूरी कागज़ात इकट्ठे किए, स्थानीय पुलिस थाने में जा कर संध्या से सम्बंधित जानकारियों का लेखा जोखा पूरा किया और वहां से भी ज़रूरी कागज़ात इकट्ठे किए और फिर वापसी का रुख किया। निकलते निकलते ही काफी शाम हो गई थी, और गाँव वालों ने रुकने की सलाह दी, लेकिन मेरा मन नहीं माना। मेरा मन हो रहा था की उस जगह से जल्दी निजात पाई जाय – और यह की वहां का नज़ारा दोबारा न हो! मैंने अपने ड्राईवर से पूछ की क्या वो गाडी चला सकता है, तो उसने हामी भरी। हम लोग तुरंत ही वहां से निकल गए।
वैसे तो रात में पहाड़ी रास्तों में वाहन नहीं चलाना चाहिए, लेकिन अभी रात नहीं हुई थी। हमारा इरादा यही था की कोई दो तीन घंटे के ड्राइव के बाद कहीं किसी होटल में रुक जायेंगे, और फिर अगली सुबह वापस दिल्ली के लिए रवाना हो जाएँगे। ड्राईवर साथ होने से काफी राहत रही – संध्या न जाने क्या क्या सोच सोच कर या तो रोती, या फिर गुमसुम सी रहती। उस मनहूस घटना ने मेरी संध्या को सचमुच ही मुझसे छीन लिया था – मैं मन ही मन सोच रहा था की अपनी संध्या को वापस पाने के लिए क्या करूँ! ऊपर से संध्या के पीछे पीछे मैंने जो जो काण्ड किए थे, उनके संध्या के सामने उजागर हो जाने की स्थिति में उनसे दो चार होने का कोई प्लान सोच रहा था। लेकिन इतना सोचने पर भी कुछ समझ नहीं आ रहा था।
खैर, मन को बस यही कह कर धाडस बंधाया की अंत में सत्य तो उजागर हो कर रहेगा। इसलिए छुपाना नहीं है। वैसे भी नीलम को अभी तक कुछ भी मालूम नहीं हुआ था। वो तो सब कुछ बोल ही देगी। न जाने क्यों सब कुछ विधि के हिसाब से होने के बावजूद मन में एक अपराधबोध सा घर कर गया था। न जाने क्या होगा!
रास्ते में नीलम के कई सारे कॉल आए – जैसे हर रोज़ उससे रोमांटिक बातें होती थीं, आज करना संभव नहीं था। जैसे तैसे उसको भरोसा और दिलासा दिला कर और बाद में बात करने का वायदा कर के शांत किया। लेकिन फिर भी उसके sms आते रहे। वो तो संध्या गुमसुम सी बैठी थी, इसलिए यह सब सिलसिला चल गया। साला मैं तो बिना वजह ही चक्की की दोनों पाटिया के बीच बस फंस कर ही रह गया! कैसी किस्मत थी – दो दो बीवियाँ, और वो भी दोनों सगी बहने! ऊपर से दोनों को एक दूसरे के बारे में पता भी नहीं! वैसे यहाँ तक भी गनीमत थी... पिसना तो अभी बाकी है!
तो ऐसे गुमसुम हालात में मेरे से तो गाडी नहीं चलाई जा पाती। इसलिए ड्राईवर साथ होने से बहुत सहूलियत हो गई। हमारे पास वैसे भी कोई सामान नहीं था। मेरे पास बस दो जोड़ी कपडे थे, और संध्या के पास कुछ भी नहीं – जो उसने पहना हुआ था, बस वही था। मैंने दिमाग में नोट कर लिया की उसके लिए दिल्ली में कपड़े खरीदने हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद मैंने ड्राईवर को गाड़ी में लगे संगीत तंत्र को चलाने को कहा – कम से कम हम दोनों लोग अपनी अपनी चिंता के दायरे से बाहर निकालेंगे! मुझे तो लगा की बस कोई एक घंटा चले थे, लेकिन जब मैंने बाहर ध्यान दिया, तो घुप अँधेरा हो गया था, और अब मेरे हिसाब से गाड़ी चलाना बहुत सुरक्षित नहीं था।
“भाई, आगे कोई होटल या धर्मशाला आये, तो रोक लेना!”, मैंने ड्राईवर से कहा, “अब अँधेरा बढ़ गया है, और ऐसे में गाड़ी चलाना ठीक नहीं। आज रात वहीँ रुक जायेंगे, और कल आगे का सफ़र करेंगे। क्यों, ठीक है न?“
“बिलकुल ठीक है साहब! मैं भी यही कहने वाला था.. जैसे ही कोई सही होटल दिखेगा मैं वैसे ही रोक लूँगा। रात में ड्राइव करते रहने का कोई इरादा नहीं है मेरा।“
ऐसे ही बात करते हुए मुझे एक बंगलेनुमा होटल दिखा। मुझे अचानक ही पुरानी बातें याद हो आईं – शादी के बाद जब मैं संध्या को विदा कर के ला रहा था तो हम इसी होटल में रुके थे। मैंने ड्राईवर को उसी होटल के प्रांगण में पार्क करने को कहा, और उसको कहा की आज हम यहीं पर रुकेंगे।