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Romance कायाकल्प [Completed]

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tuba javed

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Very good update.

or ye jo aapne kundan wala twist lagaya hai story me, uske bare me to kya hi kahe...... ab to or bhi maja aayega

ab to or bhi jayada intejar rahega ye soch ke ki jub kahani ke characters ko pata chalega is bare me to unka reaction janan ki utsukta hogi



or last me yahi ki aap bahoot badiya likhte hai
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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Very good update.

or ye jo aapne kundan wala twist lagaya hai story me, uske bare me to kya hi kahe...... ab to or bhi maja aayega

ab to or bhi jayada intejar rahega ye soch ke ki jub kahani ke characters ko pata chalega is bare me to unka reaction janan ki utsukta hogi

or last me yahi ki aap bahoot badiya likhte hai

बहुत बहुत धन्यवाद मित्र! कहानी तभी अच्छी है, जब वो पसंद आए!
आपने मेरी अन्य कहानियाँ पढ़ीं? यदि नहीं, तो गुज़ारिश है कि उनको भी पढ़ें!
मिलते हैं, जल्दी ही!
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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नीलम से आफिस के काम का झूठा बहाना बना कर, दो दिन बाद मैं गुड़गाँव चला गया – नेशनल जियोग्राफिक के ऑफिस, उस अफसर से मिलने, जिन्होंने मुझे अपनी तरफ से सारी मदद देने का वायदा किया था! उन्होंने मुझ पर कृपा कर के उस डाक्यूमेंट्री की सारी अतिरिक्त फुटेज, कैमरामैन और डायरेक्टर – सभी को बुला रखा था। कैमरामैन कुछ निश्चित तौर पर बता नहीं पाया – लेकिन उसका कहना था की हो न हो, यह शॉट गौचर में फिल्माया था। वह इतने विश्वास से इसलिए गौचर का नाम ले रहा था क्योंकि वहीँ पर हैलीकॉप्टर इत्यादि से त्रासदी के पीड़ित लोगों को लाया जा रहा था। सेना ने वही की एयर स्ट्रिप का प्रयोग किया था। इसलिए बहुत संभव है की गौचर के ही किसी अस्पताल की फुटेज रही हो। मैंने बाकी की फुटेज भी देख डाली, लेकिन न तो संध्या की कोई और तस्वीर दिखी, और न ही उस अस्पताल की!

मैंने उन सबसे बात कर के उनकी डाक्यूमेंट्री बनाते समय वो लोग किस किस जगह से हो कर गए, उसका एक सिलसिलेवार नक्शा बना लिया, और फिर उनसे विदा ली। इस पूरे काम में एक दिन निकल गया। अब जो हो सकता था, अगले ही दिन होना था। शाम को नीलम को फ़ोन कर के मैंने बता दिया की काम आगे बढ़ गया है, और कोई तीन चार दिन और लग जायेंगे। वो अपना ख़याल रखे, और वापसी में क्या चाहिए वो सोच कर रखे। हम खूब मस्ती करेंगे! उससे ऐसे बात करते समय मन में टीस सी भी उठ रही थी की मैं नीलम से झूठ बोल रहा था। वैसे यह उसके लिए भी एक तरह से अच्छा था – अगर उसको पता चलता की मैं संध्या की खोज में निकला हूँ, तो वो ज़रूर मेरे साथ हो लेती। और मुझे अभी तक नहीं मालूम था की जिस लड़की को मैंने टीवी पर देखा, वो सचमुच संध्या थी, या मेरा वहम। कुछ कह नहीं सकते थे। ऐसे में, अगर संध्या न मिलती, तो बिना वजह ही पुराने घाव कुरेदने वाली हालत हो जाती। नीलम बहुत ही भावुक और संवेदनशील लड़की है, ठीक संध्या के जैसे ही। और मन की सच्ची और अच्छी भी.. ऐसे लोगों को अनजाने में भी दुःख नहीं देना चाहिए। तो मेरा झूठ उसको एक तरह से रक्षा देने के लिए था।

रात में दिल्ली के एक होटल में रुका। वहां पर मेरी कंपनी जिस ट्रेवल एजेंसी का उपयोग करती थी, वहां पर फ़ोन लगा कर एक भरोसेमंद कार और ड्राईवर का इंतजाम किया – दिन रात की सेवा के लिये। वो अगले सुबह छः बजे होटल आने वाला था। शुभस्य शीघ्रम!


****


एक बार शेर को खून का स्वाद पता चल जाए, तो फिर उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल है। कुंदन का भी यही हाल था – एक तो शिलाजीत का अत्यधिक सेवन, और उससे होने वाले लाभ – दोनों का ही लालच उसको लग गया था। अगले दो दिन उसका यही क्रम चलता रहा। वह दिन भर यौन-शक्ति वर्द्धक दवाइयों, खास तौर पर शिलाजीत का सेवन करता, और जैसे कैसे किसी भी बहाने अंजू के साथ सम्भोग!

उसी के कहने पर अंजू घर पर या तो निर्वस्त्र रहती थी, या फिर उस गुलाबी ब्रा-पैंटीज में। अंजू की किसी भी प्रकार की नग्नावस्था का प्रभाव, कुंदन पर एक जैसा ही पड़ता था। जब भी वो उसकी गोरी टाँगे और जांघें देख लेता था, तो उसका मन डोल जाता था। जब अंजू चलती, तो उसके गदराये हुए ठुमकते नितम्ब उसके दिल पर कहर बरपा देते। उसकी कठोर चूचियाँ देख कर कुंदन सोचता की ऊपर वाले ने बड़ी फुर्सत से जैसे संगमरमर को तराश तराश कर निकाला हो। नमकीन चेहरा, और रसीले होंठ! कोई देख ले तो बस चूमने का मन करे!

सम्भोग के बाद से दोनों ही एक दूसरे को बहुत प्यार से देखते। साथ में हँसी मज़ाक भी करते। कुंदन हँसी मज़ाक में कभी कभी अंजू के बाल पकड़ लेता, तो कभी कमर पकड़ कर भींच लेता। अंजू उसकी हर बदमाशी पर हंसती रहती। जब वो रोमांटिक हो जाता, तो अंजू को कहता की आज बहुत सुन्दर लग रही हो। अंजू उसकी इतनी सी ही बात पर शर्म से लाल हो जाती। रह रह कर वो अंजू के नग्न नितम्बों पर हौले से चिकोटी काट लेता, तो कभी उसकी चूंचियाँ दबा देता। उसकी इन शैतानियों पर अंजू जब उसको झूठ मूठ में मारने दौड़ती, तो वो उसको प्यार से अपनी गोदी में उठा लेता, और उसके चूचकों को मुँह में भर कर चूमने लगता।

इसके बाद होता दोनों के बीच सम्भोग!

भले ही उनकी यौन क्रिया पांच मिनट के आस पास चलती, कुंदन के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उधर अंजू इस बात से संतुष्ट थी की कुंदन उसकी सेवा और देखभाल में कोई कसर नहीं रखता था। अपनी तरफ से खूब प्रेम उस पर लुटाता था। पिछले दो दिनों में उन दोनों ने तीन बार सम्भोग किया था – अंजू को हर बार आनंद आया था। प्रत्येक सम्भोग से एक तरीके से उसको मानसिक शान्ति मिल जाती थी। कुछ तो होता था, की संसर्ग के कुछ ही देर बाद अंजू आराम की अवस्था में आ जाती थी – और कब सो जाती थी, उसको खुद ही नहीं मालूम पड़ता।

बस दो बातें थीं जिनके कारण उसको खटका लगा रहता – एक तो यह की उसके सपनों का पुरुष हर बार दिखता था। इससे अंजू को विश्वास हो गया की वो कोई मानसिक कल्पना नहीं था – बल्कि उसके अतीत का एक हिस्सा था। कब और कैसे, उसको समझ नहीं आता। लेकिन जिस प्रकार से वो दोनों सपनों में निर्भीक हो कर सन्निकट रहते थे, उससे न जाने क्यों अंजू को लगता जा रहा था की अंजू उस पुरुष की पत्नी रही होगी।

लेकिन अगर यह सच था तो कुंदन से उसकी शादी कब हुई? अगर कुंदन से उसकी शादी हुई है, तो फिर इस घर में उसके कोई चिन्ह क्यों नहीं मौजूद हैं? घर को देख कर साफ़ लगता था की यह किसी कुंवारे पुरुष का घर है.. माना की वह इतने लम्बे अरसे तक अस्पताल में रही थी, लेकिन एक शादी-शुदा परिवार और घर में स्त्री का कुछ प्रभाव तो मौजूद रहना ही चाहिए था न?

दूसरा खटका उसको इस बात का लगता था की कुंदन हमेशा उसको पड़ोसियों से छुपा कर रखता था। उसकी इस हरकत का कोई तर्कसंगत विवरण उसके लाख पूछने पर भी उसको नहीं मिल पाता था। यह दोनों ही बातें मन ही मन में अंजू को बहुत अधिल साल रही थीं। उसको यकीन हो रहा था की कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। उसने सच का पता लगाने की ठान ली।

****
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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दिल्ली से गौचर पहुँचने में पूरे दो दिन लग गए। एक कारण तो पहाड़ी रास्ता है, और दूसरा यह की गौचर से कोई पचास किलोमीटर पहले ही से मैंने अस्पतालों में जा जा कर संध्या के बारे में पता लगाना शुरू कर दिया था। संध्या की तस्वीरों की प्रिंट मैंने दिल्ली में ही निकाल ली थीं, जिससे लोगों तो दिखाने में आसानी हो। मैं उनको सारी बातें विस्तार में बताता, यह भी बताता की नेशनल जियोग्राफिक वालों ने त्रासदी के समय डाक्यूमेंट्री फिल्माई होगी यहाँ। गौचर तक पहुँचते पहुँचते कोई पांच छोटे बड़े अस्पतालों में बात कर चुका था, लेकिन कोई लाभ, कोई सूत्र, अभी तक नहीं मिला था।


****


हर रोज़ की तरह कुंदन घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला डाल कर काम पर चला गया। जाने से पहले उसने दैनिक सम्भोग की खुराक लेनी न भूली। कुन्दन के जाने के कोई पंद्रह मिनट के बाद अंजू ने कपडे पहने, और दरवाज़े पर घर के अन्दर से दस्तक दी। पहले धीरे धीरे, और फिर तेज़ से। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

कोई पंद्रह बीस मिनट तक ऐसे ही खटखटाने के बाद अंजू बुरी तरह से निराश हो गई, और निरी हताशा, खीझ और गुस्से में आ कर दरवाज़े को पीटने लगी। अंत में बाहर से आवाज़ आई,

“कौन है अन्दर?”

“मैं हूँ.. अंजू!”

“अंजू? कौन अंजू? कौन हो तुम बेटी?”

“आप..?”

“मैं यहाँ पड़ोस में रहता हूँ.. मेरा नाम रामलाल है। तुम बहुत देर से दरवाज़ा पीट रही हो। यहाँ मेरे साथ सात-आठ और लोग हैं.. तुम घबराओ मत.. मेरी बात का जवाब दो.. कौन हो तुम?”

“जी.. मैं अंजू हूँ..”

“वो तो हमने सुना.. लेकिन कौन हो?”

“जी मैं.. इनकी.. पत्नी हूँ!”

“किसकी पत्नी?” रामलाल ने जोर से पूछा, जैसे उसको सुनाई न दिया हो।

“इनकी.. कुंदन की..”

“कुंदन की पत्नी?”

“जी!”

रामलाल कुछ कहते कहते रुक गया। फिर कहा,

“लेकिन तुम अन्दर क्यों बंद हो?”

“वो ही बाहर से बंद कर के गए हैं..”

“बाहर आना चाहती हो?”

“जी.. लेकिन..”

“देखो बेटी, अगर बाहर आना चाहती हो, तो बताओ.. हम तब ही कुछ कर पाएंगे।”

“जी.. मैं आना चाहती हूँ..”

“ठीक है.. कुछ पल ठहरो, और दरवाज़े से दूर हट जाओ..”

कुछ देर के बाद दरवाज़े पर जोर की खट-पट हुई.. फिर कुछ टूटने की आवाज़ आई। नहीं दरवाज़ा नहीं, बस ताला ही टूटा था। दरवाज़ा खुल गया। अंजू को घोर आश्चर्य हुआ जब उसने देखा की घर के बाहर कम से कम बीस पच्चीस लोगों की भीड़ लगी हुई थी। वो बहुत डर गई, और अपने आप में ही सिमट कर घर के कोने में बैठ गई।

उसकी ऐसी हालत देख कर दो महिलाएँ घर के अन्दर आईं, और उसको स्वन्त्वाना और दिलासा देने लगीं। उसको समझाने लगीं की यहाँ कोई उसको कैसे भी कुछ नहीं पहुंचाएगा। खैर, कोई आधे घंटे बाद अंजू बात करने की हालत में वापस आई।

“हाँ बेटी, अब बोल! तू कह रही थी की तू कुंदन की पत्नी है?”

“ज्ज्जी...”

अंजू को लग गया की कुछ गड़बड़ तो हो गई है। उसकी स्त्री सुलभ छठी इन्द्रिय कह रही थी कुछ भारी गड़बड़ थी। अगर वो कुंदन की पत्नी थी, तो कोई पडोसी उसको जानते क्यों नहीं थे?

“कब हुई तेरी शादी?”

इस बात का क्या उत्तर देती वो!

“आप मुझे नहीं जानते?” उसने एक तरीके से विनती करते हुए रामलाल से पूछा। मन ही मन भगवान् से प्रार्थना भी करी की काश उसको ये लोग जानते हों!

“उसका उत्तर मैं बाद में दूंगा, पहले ये बता की तू आई कब यहाँ?”

“चार दिन पहले!”

“कहाँ से?”

“मैं अस्पताल में थी न.. कोमा में.. कोई दो साल के आस पास..”

“कोमा में..?”

“ज्जी..”

“तो क्या तुमको याद नहीं है की तुम कौन हो?”

“नहीं..”

“और तुम्हारा नाम?”

“उन्होंने ही बताया..”

“अच्छा?”

“हाँ!”

“और यह भी बताया की तुम उसकी पत्नी हो?”

“जी..” इस पूरे प्रश्नोत्तर के कारण अंजू का दिल बहुत धड़क रहा था।

‘हे प्रभु! हे भगवान एकलिंग! बचा लो!’

“और तुम दोनों पति पत्नी के जैसे रह रहे हो – पिछले चार दिनों से?”

इस प्रश्न का भला क्या उत्तर दे अंजू? वो सिमट गई – कुछ बोल न पाई। लेकिन रामलाल को अपना उत्तर मिल गया।

“अब कृपा कर के मेरे प्रश्नों के उत्तर बताइए! क्या आप मुझे जानते हैं?”

“बिटिया,” रामलाल ने पूरी गंभीरता से कहा, “मैं अपनी पूरी उम्र यहाँ रहा हूँ.. इसी कस्बे में! और मेरे साथ ये इतने सारे लोग। मैं ही क्या, यहाँ कोई भी तुमको नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी बातों से मुझे और सबको समझ में आ रहा है की क्या हुआ है तुम्हारे साथ..”

रामलाल ने आखिरी कुछ शब्द बहुत चबा चबा कर गुस्से के साथ बोले। और फिर अचानक ही वो दहाड़ उठे,

“हरिया, शोभन.. पकड़ कर घसीटते हुए लाओ उस हरामजादे को..”

अंजू हतप्रभ रह गई! घसीटते हुए? क्यों? उसने डरी हुई आँखों से रामलाल को देखा।

कहीं इसी कारण से तो कुंदन उसको घर में बंद कर के तो नहीं रखता था? कहीं उसको पड़ोसियों से खतरा तो नहीं था? रामलाल ने जैसे उसकी मन की बात पढ़ ली।

“बिटिया.. घबराओ मत! इस बात की मैं गारंटी देता हूँ, की तू उस कुंदन की पत्नी नहीं है.. उस सूअर ने तेरी याददाश्त जाने का फायदा उठाया है, और तेरी... इज्ज़त से भी... खिलवाड़ किया है… पाप का प्रायश्चित तो उसे करना ही पड़ेगा..”

‘पत्नी नहीं.. फायदा उठाया... इज्ज़त से खिलवाड़..’

“..उसकी तो अभी तक शादी ही नहीं हुई है.. उस नपुंसक को कौन अपनी लड़की देगा?” रामलाल अपनी झोंक में कहते जा रहा था।

‘शादी नहीं.. नपुंसक..?’

अंजू को लगा की वो दहाड़ें मार कर रोए.. लेकिन उसको तो जैसे काठ मार गया हो। न रोई, न चिल्लाई.. बस चुप चाप बुत बनी बैठी रही.. और खामोश आंसू बहाती रही।

हाँलाकि अंजू अब किसी बात का कोई जवाब नहीं दे रही थी, लेकिन फिर भी रामलाल और कंपनी ने सारे घटना क्रम का दो दूनी चार करने में बहुत देर नहीं लगाई। उनको मालूम था की कुंदन केदारनाथ यात्रा करने गया था, और वहां वो भी त्रासदी की चपेट में आ गया था। वहीँ कहीं उसको यह लड़की मिली होगी – जाहिर सी बात है, इसका नाम अंजू नहीं है। उसने अपने आपको उस लड़की का पति बताया होगा, जिससे अस्पताल वाले खुद ही उस लड़की को उसके हवाले कर दें, और वो बैठे बिठाए मौज करे!

तब तक हरिया और शोभन कुंदन को सचमुच में घसीटते हुए लाते दिखे। माब-जस्टिस के बारे में तो सुना ही होगा आप लोगो ने? खास तौर पर तब, जब मामला किसी लड़की की इज्ज़त का हो। भीड़ का पारा ऐसी बातों से सारे बंधन तोड़ कर चढ़ता है, और जब तक अत्याचारी की कोई भी हड्डी सलामत रहती है, तब तक उसकी पिटाई होती रहती है। हरिया और शोभन ने लगता है कुंदन को वहां लाने से पहले जम कर कूटा था।

अंजू ने देखा – कुंदन का सर लहू-लुहान था, उसकी कमीज़ फट गई थी, और कुहनियाँ और बाहें रक्तरंजित हो गई थी। घसीटे जाने से उसकी पैन्ट भी जगह जगह से घिस और फट गई थी। सवेरे का आत्मविश्वास से भरपूर कुंदन इस समय वैसे ही डरा हुआ लग रहा था, जैसे हलाल होने के ठीक पहले कोई बकरा। अंजू ने उसको देखा तो मन घृणा से भर उठा। कुंदन ने उसकी तरफ देखा – पता नहीं उसको अंजू दिखी या नहीं, लेकिन उसकी व्याकुल और कातर निगाहें किसी भी हमदर्दी भरी दृष्टि की प्यासी हो रही थीं। कोई तो हो, जो इस अत्याचार को रोक सके!

लेकिन लगता है की किसी को भी कुंदन पर लेशमात्र की भी दया नहीं थी। वहां लाये जाते ही भीड़ उस पर पिल पड़ी – बरसों की पहचान जैसे कोई मायने नहीं रखती थी। जिस गति से कुंदन पर लातें और घूंसे बरस रहे थे, उसी गति से उस पर भद्दी भद्दी गालियों की बौछार भी हो रही थी। कस्बे के चौराहे पर कुंदन के साथ साथ उसके पूर्वज, और पूरे खानदान की इज्ज़त नीलाम हो रही थी।

“मादरचोद, इस मरियल सी छुन्नी में बहुत गर्मी आ गई है क्या?” कोई गरजा।

अंजू ने उस तरफ देखा। कुंदन को वही एक तरफ पेड़ से टिका कर बाँध दिया गया था। वो इस समय पूरी तरह से नंगा था। वो कहते हैं न, आदमी शुरू की मार की पीड़ा से डरता है.. बाद मैं गिनती भी कहाँ याद रह जाती है? कुंदन एकदम निरीह सा लग रहा था! वो कुछ बोल नहीं पा रहा था, लेकिन उसकी आँखें चिल्ला चिल्ला कर अपने लिए रहम की भीख मांग रही थीं।

“अरे सोच क्या रहे हो.. साले को बधिया कर दो! वैसे ही नपुंसक है.. गोटियों का क्या काम?” किसी ने सुझाया।

ऐसा लग रहा था की न्यायपालिका वहीँ कस्बे के चौराहे पर खुल गई थी।

“सही कह रहे हो.. अबे शोभन.. ज़रा दरांती तो ला.. इस मादरचोद का क्रिया-करम यहीं कर देते हैं..” एक और न्यायाधीश बोला।

अंजू की आँखों की घृणा यह सब बातें सुन कर अचानक ही पहले तो डर, और फिर कुंदन के लिए सहानुभूति में बदल गई। ठीक है कुंदन ने उसके साथ वो सब कुछ किया, जो उसको नहीं करना चाहिए था, लेकिन उसने अंजू की जान भी तो बचाई थी। एक क्षणिक अविवेक, और स्वार्थ की भावना के कारण जो कुछ हो गया, उसकी ऐसी सजा तो नहीं दी सकती। कम से कम अंजू तो नहीं दे सकती।

“नहीईईईईईईईईईईईई!” वो जोर से चीखी! “बस करो यह सब! जानवर हो क्या सभी?”

एकाएक जैसे अफीम के नशे में धुत्त भीड़ को किसी ने झिंझोड़ के जगा दिया हो। सारे न्यायाधीश लोग एकाएक सकते में आ गए।

“जिसको अपनी उम्र भर जाना, उसके साथ यह सब करोगे? कोई मानवता बची हुई है? इसको तुम नपुंसक कहते हो? तो तुम लोग क्या हो? मर्द हो? ऐसे दिखाते हैं मर्दानगी?”

अंजू चीखती जा रही थी.. अचानक ही उसकी आवाज़ आना बंद हो गई। जिस वीभत्स दृश्य से वो अभी दो-चार हुई थी, उसके डर से अंजू का गला भर गया। उसकी हिचकियाँ बंध गई, और वो रोने लगी। कुंदन अचेत होने से पहले बस इतना समझ पाया की उसकी जान बच गई थी।


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मैं शाम को नीलम से बात कर रहा था की जिस प्रोजेक्ट को करने निकला हूँ, वो अगर ठीक से हो गया, तो हम दोनों की ज़िन्दगी बदल जाएगी! उत्तर में नीलम ने मुझसे कहा की उसको पूरा यकीन है की मेरा प्रोजेक्ट ज़रूर पूरा होगा। मैंने हंस कर उसकी बात आई गई कर दी। अगर उसको मालूम होता की मेरा प्रोजेक्ट क्या है, तब भी क्या वो ऐसे कहती? सच में हम दोनों की ही ज़िन्दगी बदल जाएगी! यह बात मैंने पहले सोची ही नहीं। अगर वाकई संध्या जीवित है, और उसको मिल जाती है, तो नीलम और मेरे वैवाहिक जीवन में बहुत सी जटिलताएं आ जाएँगी! और तो और, हमारे विवाह पर ही एक सवालिया निशान लग जायेगा।

यही सब सोचते सोचते मैं सो गया।

अगले दिन एक घंटे के सफ़र के बाद हम गौचर के इलाके में पहुंचे। मेरी उत्तराँचल यात्रा के समय में मैं यहाँ से हो कर गुजरा था। पुरानी बातें वापस याद आ गईं। एक वो समय था, जब मैंने संध्या को पहली बार देखा था.. और एक आज का समय है, मैं संध्या को ढूँढने निकला हूँ।

गौचर का सरकारी अस्पताल ढूंढ निकालने में मुझे अधिक दिक्कत नहीं हुई। लेकिन सरकारी अस्पताल में से सूचना निकालना बहुत ही मुश्किल काम है। इसी चक्कर में कल इतना समय लग गया था। रिसेप्शन पर दो बेहद कामचोर से लगने वाले वार्ड बॉयज बैठे हुए थे। देख कर ही लग रहा था की उनका काम करने का मन बिलकुल भी नहीं है; और वो सिर्फ मुफ्त की रोटियाँ तोडना चाहते हैं।

“भाई साहब,” मैंने बड़ी अदब से कहा, “एक जानकारी चाहिए थी आपसे।“

“बोलिए..” एक ने बड़ी लापरवाही से कहा।

“यह तस्वीर देखिए..” मैंने संध्या की तस्वीर निकाल कर रिसेप्शन की टेबल पर रख दी,

“इस लड़की को देखा है क्या आपने?”

उसने एक उचाट सी नज़र भर डाली और कहा, “नहीं! क्या साब! सवेरे सवेरे आ गए यह सब करने! देखते नहीं – हम कितना बिजी हैं..”

“अरे एक बार ठीक से देख तो लीजिए!” मैंने विनती करी।

इस बार उसने भारी मेहनत और अनिच्छा से तस्वीर पर नज़र डाली – जैसे मैंने उसको एक मन अनाज की बोरी ढोने को कह दिया हो।

“क्या साब! एकदम कंचा सामान है..” उसके शब्द कपटता से भरे हुए थे, “इसको यहाँ अस्पताल में क्यों ढूंढ रहे हैं?”

इसी बीच दूसरे वार्ड बॉय ने शिगूफा छोड़ा,

“ऐसे सामान तो देहरादून में भी नहीं मिलते हैं.. आहाहाहा!”

“सही कह रहे हो.. जी बी रोड जाना पड़ेगा इसके लिए तो..”

और दोनों ठठा कर हंसने लगे। उन दोनों निकम्मों की धूर्ततापूर्ण बातें सुन कर मेरे शरीर में आग लग गई। मेरा बायाँ हाथ विद्युत् की गति से आगे बढ़ा और पहले वाले वार्ड बॉय की गर्दन पर जम गया; दाहिना हाथ उससे भी तेज गति से उठा और उसका उल्टा साइड दूसरे वाले वार्ड बॉय के गाल पर किसी कोड़े के सिरे के जैसे बरसा।

तड़ाक!

वह थप्पड़ इतना झन्नाटेदार था की अस्पताल की पूरी गैलरी में उसकी आवाज़ गूँज उठी। वैसे भी सवेरा होने के कारण अधिक लोग वहां नहीं थे।

“लिसन टू मी यू बास्टर्ड्स! तुम जैसे हरामियों को मैं दो मिनट में ठीक कर सकता हूँ। समझे!”

मैंने पहले वार्ड बॉय के टेंटुए को दबाया, दूसरा वाला अभी अपने गाल को बस सहला ही रहा था।

“तमीज से बात करोगे, तो ज़िन्दगी में बहुत आगे जाओगे.. नहीं तो जिंदगी भी आगे नहीं जा पाएगी..”

मैं दांत पीस पीस कर बोल रहा था। मेरी संध्या की बेईज्ज़ती करी थी उसने। वो तो मैं सब्र कर गया, नहीं तो दोनों की आज खैर नहीं थी।

“ए मिस्टर.. ये क्या हो रहा है..”

मैंने आवाज़ की दिशा में देखा – एक अधेड़ उम्र की नर्स या मैट्रन तेजी से मेरी तरफ आ रही थी.. लगभग भागते हुए। मैंने पहले वार्ड बॉय को गर्दन से पकडे हुए ही पीछे की तरफ धक्का दिया, और उस नर्स ले लिए रेडी हो गया। अगर ज़रुरत पड़ी, तो इसकी भी बंद बजेगी – मैंने सोचा।

“ये अस्पताल है.. अस्पताल.. तुम्हारे मारा पीटी का अड्डा नहीं.. चलो निकालो यहाँ से..” उसने दृढ़ शब्दों में कहा।

“मैट्रन.. मुझे मालूम है, ये अस्पताल है! और मेहरबानी कर के इन दोनों को भी यह बात सिखा दीजिए। ये दोनों महानिकम्मे ही नहीं, बल्कि एक नंबर के धूर्त भी हैं..”

लगता है मैट्रन को भी उन दोनों की हरकतों की जानकारी थी.. मैंने उसके चेहरे पर कोई आश्चर्य के भाव नहीं देखे। उल्टा उसने उन दोनों वार्ड-बॉयज को घूर कर खा जाने वाली नज़र से देखा। दोनों सकपका गए।

“तुम दोनों ने मेरा जीना हराम कर दिया है.. दफा हो जाओ.. एडमिनिस्ट्रेशन से कह कर मैं तुम लोगो को सस्पेंड करवा दूँगी नहीं तो..”

दोनों निकम्मे सर पर पांव रख कर भागे।

“अब बताइए.. इन दोनों की किसी भी बात के लिए आई ऍम सॉरी! आप यहाँ कैसे आये?”

“जी मैं यहाँ अपनी पत्नी की तलाश में आया हूँ...”

“पत्नी की तलाश? यहाँ?”

“जी.. एक बार गौर से यह फोटो देखिए..” मैंने संध्या की तस्वीर मैट्रन को दिखाई,

“आपने इसको कभी देखा अपने अस्पताल में?”

मैट्रन ने तस्वीर देखी – उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गईं।

“ये ये.. फोटो.. आपको..”

“जी ये फोटो मेरी पत्नी की है.. उसका नाम संध्या है! आपने देखा है इसको?”

मैट्रन की प्रतिक्रिया देख कर मुझे कुछ आस जागी – इसने देखा तो है संध्या को। मतलब यही अस्पताल था डाक्यूमेंट्री का! मतलब मैं सही मार्ग पर था। मंजिल दूर नहीं थी अब!

“आपकी पत्नी? ये?”

“जी हाँ! आपने देखा है इसको?” मैंने अधीर होते हुए कहा।

“लेकिन लेकिन.. ये तो अंजू है.. कुंदन की पत्नी!”

“कुंदन? अंजू?”

‘हे प्रभु! रहम करना!’

“मैट्रन प्लीज! आप प्लीज मेरी बात पूरी तरह से सुन लीजिए.. प्लीज!”

मैंने हाथ जोड़ लिए।

मैट्रन आश्चर्यचकित सी भी लग रही थी, और ठगी हुई सी भी! ऐसा क्यों? मैंने सोचा। मेरी बात पर उसने सर हिलाया और मुझे वहां लगी बेंच पर बैठने का इशारा किया। वो मेरे बगल ही आ कर बैठ गई।

“मैट्रन, देखिए.. मेरा नाम रूद्र है..” कह कर मैंने उनको सारी बातें विस्तारपूर्वक सुना दीं। बस नीलम और मेरी शादी की बात छोड़ कर। मेरी बात सुन कर मैट्रन को जैसे काठ मार गया। वो बहुत देर तक कुछ नहीं बोली।

“आपने मेरी पूरी बात सुन ली है.. अब प्लीज आप बताइए.. ये अंजू कौन है?”

“जी ये लड़की, जिसकी तस्वीर आपके पास है, हमारे यहाँ भर्ती थी – जब ये यहाँ थी, तब से वो कोमा में थी। जिस डाक्यूमेंट्री की आप बात कर रहे हैं, शायद यहीं की ही हो.. मैं कह नहीं सकती.. लेकिन वो लड़की हूबहू इस तस्वीर से मिलती है। एक कुंदन नाम का मरीज़ भी भर्ती हुआ था उसी लड़की के साथ.. वो खुद को उसका पति कहता था। और उसको अंजू!”

“तो फिर?”

“वो अंजू को ले गया..”

“ले गया? कहाँ? कब?”

“अभी कोई पांच-छः दिन पहले.. रुकिए, मैं आपको उसका डिटेल बताती हूँ..”

‘पांच छः दिन पहले! हे देव! ऐसा मज़ाक!’

कह कर वो एक रिकॉर्ड रजिस्टर लेने चली गई। जब वापस आई, तो उसके पास एक नहीं, दो दो रजिस्टर थे।

“यह देखिए..” उसने एक पुराना रजिस्टर खोला, और उसमे कुंदन के नाम की एंट्री दिखाई, फिर दूसरे में अंजू के नाम की एंट्री दिखाई – दोनों में ही एक ही दस्तखत थे। मतलब वो सही कह रही है। एंट्री रिकॉर्ड में पता भी एक ही था, और फ़ोन नंबर भी। अंजू के डिस्चार्ज की तारिख आज से एक सप्ताह पहले की थी।

“देखिए मिस्टर...”

“रूद्र.. आप मुझे सिर्फ रूद्र कहिए..”

“रूद्र.. हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई.. लेकिन हमारे पास क्रॉस-चेक करने का कोई तरीका नहीं था.. उस बदमाश ने कहानी ही ऐसी बढ़िया बनाई थी! काश आप हमारे पास पहले आ जाते..”

“मैट्रन! इसमें आपकी कोई गलती नहीं है.. मैं खुद ही संध्या को भगवान के पास गया हुआ समझ रहा था.. मैं तो बस इतना चाहता हूँ की वो सही सलामत हो, और मेरे पास वापस आ जाय..”

“रूद्र.. आपके पास कोई सबूत है की ये लड़की आपकी पत्नी है?”

“जी बिलकुल है.. ये देखिए..” कह कर मैंने अपना और संध्या दोनों का ही पासपोर्ट दिखा दिया। ‘स्पाउस’ के नाम के स्थान पर हमारे नाम लिखे हुए थे, और दोनों पासपोर्ट में तस्वीरें हमारी ही थीं। शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

“थैंक यू मिस्टर रूद्र.. दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है..” कह कर उन्होंने मेरा पता लिख लिया और मुझसे मेरा फ़ोन नंबर माँगा, जिससे की अगर कोई ज़रूरी बात याद आये तो मुझे बता सकें! उन्होंने अपना नंबर भी मुझे दिया।

अगर यह कुंदन कहीं गया न हो, तो अभी कोई देर नहीं हुई है। लगता तो नहीं की वो कहीं जाएगा।

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अंजू जब सो कर उठी, तो उसके सर में भीषण पीड़ा थी। असंख्य विचार उठते गिरते – सब गड्डमड्ड हो रहा था।

“ओह रूद्र! मेरे रूद्र!” यह उठते ही उसके पहले शब्द थे।

“लेटी रह बेटी, लेटी रह.. तुम कल दोपहर अचेत हो गई थी.. याद है?” रामलाल की पत्नी ने अंजू को पुचकारा।

“कल?” अंजू कुछ समझ नहीं पाई।

“अच्छा कोई बात नहीं.. ये हैं डॉक्टर संजीव.. इनको पहचानती हो?”

‘संजीव? नाम तो सुना हुआ सा है.. कहाँ सुना है?’

प्रत्यक्ष में अंजू ने ‘न’ में सर हिलाया।

डॉक्टर संजीव मुस्कुराए, “हेल्लो! अच्छा, तुमको अपना नाम याद है?”

अंजू ने हामी में सर हिलाया।

“हमको बताओगी?”

“जी क्यों नहीं! मेरा नाम संध्या है..” उसने बहुत ही खानदानी अंदाज़ में उत्तर दिया।

संजीव मुस्कुराए, “वैरी गुड! और ये रूद्र कौन है?”

“मेरे पति.. हम बैंगलोर में रहते हैं.. मैं कहाँ हूँ?”

“आप गौचर में हैं..”

“गौचर में?” कहते हुए संध्या सोच में पड़ गई। “लेकिन, मुझे तो केदारनाथ में होना चाहिए था!”

डॉक्टर संजीव समझ गए की संध्या / अंजू को अब सारी बातें याद आ गई हैं। हमारा मष्तिष्क कुछ ऐसे चेकिंग मैकेनिज्म (प्रणाली) लगाता है, जिससे हमको दुर्घटनाओं की याद नहीं रहती। एक तरीके से यह प्रणाली हमारे जीवित रहने के प्रयास में एक अति आवश्यक कड़ी होती है।

“हाँ! हम आपको सारी बातें बाद में विस्तार से बताएँगे.. लेकिन पहले आप एक बात बताइए, आप किसी कुंदन को जानती हैं?”

“कुंदन? नहीं...! पता नहीं.. कुछ याद नहीं आता..”

“आप मुझे जानती हैं? मतलब आज से पहले आपने मुझे देखा है?”

“नहीं डॉक्टर, याद नहीं आता.. सॉरी! लेकिन आप मुझसे यह सब क्यों पूछ रहे हैं?”

“डॉक्टर का काम है मरीज़ को ठीक करना.. मुझे लगता है की आप अब ठीक हो गईं हैं..”

“ठीक हो गई हूँ? लेकिन मुझे रोग ही क्या था?”

“आई प्रॉमिस! मैं आपको सब कुछ बताऊँगा.. लेकिन बाद में! अच्छा, आपको अपने पति का नंबर याद है?”

“जी हाँ! क्यों?”

“अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं उनसे बात कर सकता हूँ?”

“हाँ! क्यों नहीं!” संध्या कुछ समझ नहीं पा रही थी की यह सब क्या हो रहा है!

“आप मुझे उनका नंबर बताएंगी?”

“जी बिलकुल.. उनका नंबर है.. नाइन एट, एट जीरो...” कह कर संध्या ने उनको रूद्र का नंबर बता दिया।

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कुंदन का पता और फ़ोन नंबर ले कर, सिटी हॉस्पिटल से मैं जैसे ही बाहर निकला, मेरे फ़ोन की घंटी बजने लगी।

अनजाना नंबर था – मैंने फोन करने वाले को मन ही मन कोसा, ‘लोग कहीं भी पीछा नहीं छोड़ते...” मुझे लगा की किसी क्लाइंट का फ़ोन होगा। मैंने फ़ोन उठाया, और बहुत ही अनमने ढंग से जवाब दिया, “हल्लो!”

“मिस्टर सिंह..?” उधर से आवाज़ आई।

“स्पीकिंग! हू ऍम आई टाकिंग टू?”

“मिस्टर सिंह, आई ऍम डॉक्टर संजीव! आई वांट टू टॉक टू यू अबाउट योर वाइफ..”

“माय वाइफ?”

पहले तो डॉक्टर, और फिर अपनी पत्नी का जिक्र सुन कर मेरे पैरों के तले ज़मीन खिसक गई। क्या हुआ नीलम को? वो ठीक तो है न! मेरे दिल की धडकनें तेज हो गईं। अभी सुबह ही तो बात हुई थी उससे – उस समय तो सब ठीक था.. अचानक.. क्या हो गया? वो कहते हैं न, जब किसी अनिश्चित समय घर से दूर रहने वालों को घर से कॉल आता है तो उनके दिमाग में सबसे पहला ख्याल अमंगल का ही होता है.. वही हाल मेरा था।

“व्हाट हैप्पंड टू हर, डॉक्टर?”

“व्ही फाउंड हर..”

“फाउंड हर? डॉक्टर प्लीज.. ठीक ठीक बताइए.. यह पहेलियाँ न बुझाइए प्लीज..” मैं रिरियाया..

“आई ऍम सॉरी, मिस्टर सिंह! मैं पहेलियाँ नहीं बुझा रहा हूँ.. आपकी पत्नी संध्या मिल गई हैं..”

“क्या?” संध्या मिल गई है! ओह प्रभु! आपका करोड़ों करोड़ों धन्यवाद! “कहाँ है वो? कैसी है?”

“जी इस समय गौचर के बगल एक गाँव से बोल रहा हूँ.. सुगी!”

“सुगी से?” वहां तो कुंदन रहता है! मेरे दिमाग में ख्याल कौंधा! मतलब सचमुच संध्या ही है..!

“जी हाँ.. आप यहाँ कब तक आ सकते हैं?”

“जी एक बार संध्या से...”

“हाँ हाँ! क्यों नहीं? आप बात कर लीजिए उनसे!” कह कर डॉक्टर संजीव ने फ़ोन संध्या को पकड़ा दिया।

“जा नू.. मेरे.. रूद्र!”

“ओह भगवान्!”

यह आवाज़ सुने एक लम्बा लम्बा अरसा हो गया.. लेकिन अभी फिर से उसकी आवाज़ सुन कर जैसे दिल पर ठंडा पानी पड़ गया हो। भावातिरेक में आ कर मैं सिसकने लगा। एक मुद्दत के बाद दिल की सारी तमन्नाएँ पूरी हो गईं! उसकी आवाज़ सुन कर ऐसा लगा की जैसे ये बरस हुए ही नहीं!

“आप रो रहे हैं?” संध्या ने पूछा। उसके स्वर में वही जानी पहचानी चिंता!

“नहीं जानू!” मैंने आंसू पोंछते हुए कहा, “क्यों रोऊँगा भला! आज तो मेरे लिए सबसे ख़ुशी का दिन है..”

“आप कहाँ हैं?” मुझे उसकी आवाज़ से लगा की वो मुस्कुरा रही है।

“तुम्हारे बहुत पास!”

“तो जल्दी से आ जाइए...” संध्या को लग रहा होगा की मैं बैंगलोर में ही हूँ।

“आता हूँ जानू! बहुत जल्दी! बस वहीँ रहना!”

“आई लव यू!”

“सबसे ज्यादा जानू.. सबसे ज्यादा!”

“जी मिस्टर सिंह.. आप कब तक आ सकते हैं?” ये डॉक्टर संजीव थे।

“आप वहां पर कुछ देर और हैं डॉक्टर साहब?”

“जी हाँ.. क्यों?”

“मैं आता हूँ... आधे घंटे में!”

“क्या?”

“जी.. आप संध्या को मेरे आने की बात न बताइयेगा.. मैं आकर आपसे मिल कर सारी बात बताता हूँ..”

“जी ओके ओके! मुझे भी आपको कुछ बाते बतानी हैं.. आप जल्दी से आ जाइए”

इतना कह हर उन्होंने फ़ोन कॉल विच्छेद कर दिया।

मैं भागता हुआ कार के पास पहुंचा..

“ड्राईवर, जल्दी से चलो! जितना जल्दी हो सके!”

“किधर साहब?”

“सुगी.. मैं रास्ता बताता हूँ..”


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“डॉक्टर बाबू, क्या बात है? क्या हुआ है इस लड़की को? और अचानक ही पिछले कुछ दिन की बात याद क्यों नही है?”

संजीव को बाहर कोने में ले जा कर रामलाल ने चिंतातुर होते हुए पूछा।

“देखिए ठीक ठीक तो मैं भी कुछ नहीं बता सकता। आदमी का मष्तिष्क इतनी अबूझ पहेली है, की उसको सुलझाने के लिए कम से कम मेरे पास काबिलियत नहीं है... जहाँ तक इस लड़की का सवाल है, तो मुझे इतना तो समझ आ रहा था की एक लम्बी बेहोशी की वजह से इसकी याददाश्त गायब हुई थी.. कल की घटनाओं के कारण हो सकता है की इसके दिमाग पर इतना जोर पड़ा हो की उसको अपनी पुरानी सब बातें याद आ गईं हों!

“लेकिन, ये किसी को पहचान नहीं रही है न..”

"हाँ! यह बात तो वाकई बहुत निराली है.. ऐसा लग रहा है जैसे पिछले एक सप्ताह की बातें इसके दिमाग की स्लेट से किसी ने पोंछ दी है.. सच कहूं, मेरे पास आपके सवाल का कोई जवाब नहीं है। एक तरीके से अच्छा है.. ये अब अपनी पिछली जिंदगी मे वापस पहुँच गई है। ज़रा सोचिए – अगर इसको सारी बातें याद रहती, तो कुंदन वाला केस बिगड़ सकता था.. और आप लोग भी लम्बा नप जाते! इसलिए अच्छा ही है, की यह बात यहीं दब जाय, और ये लड़की अपने घर वापस चली जाय..”

“और इसके पति को क्या कहेंगे?”

“मैं उसको सब सच सच बता दूंगा.. वो आपका तो कोई नुकसान नहीं करेगा.. आपने तो इस लड़की की सिर्फ मदद ही करी है... हाँ, लेकिन हो सकता है की कुंदन पर केस ठोंक दे।“

“अच्छा ही है.. साला मनहूस नपुंसक जाएगा यहाँ से..”

“रामलाल जी, एक बात कहूँ.. आप बुरा मत मानियेगा.. वो नपुंसक है, तो उसमे उसका कोई अपराध नहीं। आप ठन्डे दिमाग से सोचिएगा कभी... उसने कभी भी किसी का भी नुकसान किया है? इस लड़की को भी उसी ने तो बचाया.. मेरी मानिए, जो हुआ उसको भूल जाइए, और उसको भी इज्ज़त से जीने का मौका दीजिए..”

रामलाल को प्रत्यक्षतः डॉक्टर संजीव की बात अच्छी तो नहीं लगी, लेकिन उसको मलूम था की वो सोलह आने सही बात कह रहे हैं! इसलिए वो चुप ही रहा।


****


कुंदन अपने शरीर पर पट्टियाँ बंधवाए, अपने घर में चारपाई पर लेटा हुआ था। कल जिस प्रकार से सारे कस्बे वालों ने जिस बेदर्दी से उसकी ठुकाई करी थी, उसको पूरा यकीन हो गया था की उसको वहां कोई भी पसंद नहीं करता। एक अंजू ही थी – नहीं अंजू नहीं.. संध्या! हाँ, यही नाम है उसका। एक वही थी, जिसने उसको अपने पास आने का मौका दिया, और उसको वो सुख दिया जो उसे अंजू से पहले कभी नहीं मिल सका, और अब लगता है की जीवन पर्यंत नहीं मिलेगा।

उसने गलत तो किया था – लेकिन न जाने क्यों वो सब करते समय उसको गलत नहीं लग रहा था। कल उसकी जान अंजू के कारण ही बची.. नहीं तो न जाने क्या हो जाता! उसके मष्तिष्क के पटल पर अनायास ही पिछले सप्ताह के सारे दृश्य उजागर होने लगे। कैसी प्यारी सी है अंजू! यह कहना अतिशयोक्ति नहीं थी की इतने कम समय में ही वो उसकी ज़रूरत बन चुकी थी। या यह भी हो सकता है की यह सब कुंदन का विमोह हो! उसको भला किसी स्त्री का संग कब मिला!

किसी ने उसको बताया की अंजू को अब उसके बारे में कुछ याद नहीं है.. इस बात की भी पीड़ा रह रह कर उसके दिल में उठ रही थी। उसकी आँखो मे आँसू आ गये – कुछ शरीर के दर्द के कारण, और कुछ भाग्य के सम्मुख उसकी विवशता के कारण! संभव है, आंसू की कुछ बूँदें पश्चाताप की भी हों!

‘हे बद्री विशाल, आपकी लीला भी अपरम्पार है! अब मैं इस बात पर हंसूं.. की रोऊँ? यह कैसी सज़ा है? अंजू के दिमाग से मेरी सारी स्मृति ही भुला दी? .. वैसे एक तरह से ठीक ही किया। उसकी स्मृतियों की ज़रुरत तो मुझे है.. उसको नहीं! उसका जीवन तो वैसे ही खुशियों से भरा हुआ था! सही किया प्रभु! अंजू की स्मृति मैं उम्र भर सम्हाल कर रखूंगा!’



****


सुगी में गाड़ी नहीं जाती – वहां पैदल जाना होता है। खैर, मैं ड्राईवर को पीछे छोड़ कर लगभग भागता हुआ सा सुगी तक पहुंचा। लोग बाग़ जैसे मुझे देखते ही पहचान गए की मैं कौन हूँ; वो सभी लोग मुझे इशारे से किसी रामलाल के घर जाने को कह रहे थे, और रास्ता भी बता रहे थे। खैर, मैं कोई आधे घंटे के अन्दर ही वहां पहुँच गया।

“मिस्टर सिंह?”

“डॉक्टर संजीव?”

हम दोनों एक दूसरे को देखते ही पहचान गए। संजीव इस बात पर हैरान थे की मैं सचमुच आधे घंटे में कैसे वहां पहुँच गया। मैंने उनको सारी बातें विस्तार से बता दीं। वो विस्फारित से नेत्रों से मुझे देखने लगे..

“सचमुच, कुदरत का करिश्मा है तुम दोनों की मोहब्बत!” उन्होंने मुझे बस इतना कहा और मुझे बहुत बहुत बधाइयाँ दीं।

फिर उन्होंने मुझे संध्या के साथ घटी सारी बातें विस्तार से बताई – उन्होंने मुझे बताया की कैसे लगभग मरणासन्न सी हालत में उसको वहां लाया गया था। उन्होंने बताया की उस अवस्था में संध्या का गर्भ भी गिर गया। उन्हें वैसे उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन कोई एक महीने के बाद अचानक ही संध्या की हालत सुधरने लगी। लेकिन वो इस पूरे घटनाक्रम के दौरान अपने होश में नहीं थी – कोमा में थी। डॉक्टर्स विदआउट बॉर्डर्स के कुछ सहयोगियों ने कुछ नवीन तरीके से संध्या का इलाज जारी रखा, इसलिए कोमा में रहने के बाद भी, उसकी मांसपेशियों का क्षय नहीं हुआ। बीच बीच में उसकी आँखें खुलती, लेकिन शायद वो किसी तरीके का रिफ्लेक्स रिएक्शन था। वो देखा और सुना हुआ कुछ समझ नहीं पाती थी।

लेकिन कोई आठ दस दिनों पहले.... फिर उन्होंने मुझे कुंदन, और कस्बे में जो घटना हुई, उसके बारे में बताया। सच कहूं, मुझे यह जान कर बिलकुल भी बुरा नहीं लगा, की कुंदन ने संध्या के साथ सम्भोग किया। उल्टा मुझे उस बेचारे पर दया आई। मेरी नज़र में उसको अपने किये की बहुत ही बड़ी सजा मिली थी.. उसका ऐसा अपराध था भी नहीं।

संध्या से मिलने से पहले मैंने कुंदन के घर का रुख किया – उसकी बुरी हालत देख कर मेरा दिल वैसे ही बैठ गया। हमारा परिचय हुआ, तो वो हाथ जोड़ कर बिस्तर से उठने की कोशिश करने लगा। मैंने उसको सहारा दे कर लिटाया, और लेटे रहने का आग्रह किया।

“कुंदन,” मैंने कहा, “तुमने मेरी संध्या के लिए जो कुछ किया, उसका एहसान मैं अपनी पूरी जिंदगी नहीं भूलूंगा! यह तुम्हारा एक क़र्ज़ है मुझ पर.. जिसको मैं चुका नहीं सकता। मैं तो यही सोच कर रह गया था की वो अब इस दुनिया में नहीं है.... लेकिन वो आज मुझे मिली है, तो बस सिर्फ तुम्हारे कारण!”

“लेकिन...” कुंदन कुछ कहने को हुआ..

“मुझे मालूम है, की तुमने संध्या के साथ सेक्स किया है। लेकिन वो तुम्हारी नादानी थी। वैसे भी संध्या को उस बारे में कुछ याद नहीं.. और क्योंकि कल उसी ने तुम्हारी जान बचाई थी, इसलिए मैं मान कर चल रहा हूँ की उसने तुमको माफ़ कर दिया..”

“मुझे माफ़ कर दीजिए..” उसने फिर से हाथ जोड़े।

“कुंदन, माफ़ी के लिए कुछ भी नहीं है! अगर तुम माफ़ी चाहते ही हो, तो मेरी एक बात सुनो, और हो सके तो अमल करो।“

“बताइए सर!”

“मैं चाहता हूँ की तुम आगे की पढाई करो – इंजिनियर बनो – ढंग के इंजिनियर! तुम्हारी पढाई लिखाई का खर्चा मैं दूंगा। बोलो – मंज़ूर है?”

कुंदन की आँखों में आंसू आ गए।

“जी! मंज़ूर है..” उसने भर्राए हुए स्वर में कहा।


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दुनियादारी से फुर्सत पाकर अब मैं अपनी संध्या से मिलने चला।

इतने दिनों के बाद.. ओह भगवान् मैं ख़ुशी से पागल न हो जाऊं! पैरों में मेरे पंख जैसे निकल आये..

संध्या कुछ व्यग्र सी रामलाल के घर के दरवाज़े के ठीक सामने एक चारपाई पर बैठी हुई थी। मन में न जाने कितने सारे विचार आ और जा रहे थे। भले ही किसी ने उसको पूरी बात विस्तार से न बताई हो, लेकिन किश्तों में और छोटे छोटे टुकड़ों में उसको जो सब कुछ पता चला, वो उसको हिला देने वाला था। सबसे पहले तो उसके आँखों के सामने वो दिल दहला देने वाला दृश्य पुनः सजीव हो उठा।

मष्तिष्क के खेल निराले होते हैं – केदारनाथ आपदा के समय जब अभी जीवन अभी मृत्यु जैसी दशा बन आई, तब किस तरह से वो, नीलम और उनके पिता शक्ति सिंह जी अपनी जान बचा कर वहां से निकले। माँ को तो उसने आँखों के सामने उस अथाह जलराशि में बह जाते हुए देखा था – बाढ़ में होटल का अहाता बुरी तरह से टूट गया था, और होटल ढलान पर होने के कारण, वहां से पानी भी बड़ी तीव्रता से बह रहा था। पकड़ने के लिए न कोई रेलिंग थी न कोई अन्य सहारा। बहुत सम्हाल कर निकलने के बाद भी माँ का पैर फिसल गया और वो सबकी आँखों के सामने बह गईं। एक पल को आँखों के सामने, और अगले ही पल गायब! कितनी क्षणिक हो सकती है ज़िन्दगी! कितनी व्यर्थ! पिताजी उनके पीछे भागे – बिना अपनी जान की परवाह किये! लेकिन पानी में इतना सारा मिट्टी और पत्थर मिला हुआ था, की उसकी रंगत ही बदल गई थी। माँ फिर कभी नहीं दिखाई दीं। वो कुछ दूर तक गए तो, लेकिन जब वापस आये तो लंगड़ा कर चल रहे थे – टूटे हुए किसी राह पर गलत पैर पड़ गया और उनके में चोट लग गई।

जान बचाते लोगों ने उनको पहाड़ पर ऊंचाई की तरफ जाने की सलाह दी। काफी सारे लोग वही काम कर रहे थे – मतलब लोग पहाड़ की ढलान के ऊपर की तरफ जा रहे थे। उन्ही की देखा देखी वो तीनों भी ऊपर की चढ़ाई करने लगे। पर्वतों की संतानें होने के बावजूद उस चढ़ाई को तय करने में बहुत समय लग गया। न तो पिताजी ही ठीक से चल पा रहे थे, और न ही खुद संध्या। वैसे भी गर्भावस्था में ऐसे कठिन काम करने से मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। चलते चलते अचानक ही उसकी हिम्मत जवाब दे गई, और वो वहीँ एक जगह भहरा कर गिर गई। जब होश आया तो उसने देखा की पिताजी उसको पानी पिलाने की कोशिश कर रहे हैं।

रात गहरा गई थी, और आस पास कोई भी नहीं दिख रहा था। बस इसी बात की आस थी की कम से कम हम तीनो तो बच गए.. लेकिन पिताजी दिन भर उल्टियाँ करते करते मृत्यु से हार गए। एक साथ कितनी यातनाएँ सहती वो? दिन भर के अंतराल में दोनों लड़कियों के सर से माँ बाप का साया उठ गया। अब तक वो भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक – तीनों स्तर पर अपने हथियार डाल चुकी थी। न जाने कहीं से कुछ सड़ा हुआ मांस मिल गया – जिसने कुछ देर और उन दोनों की जान बचाई। जंगली जानवरों की आवाज़ के बीच न चाहते हुए भी उसको नींद सी आ गई – पलकें बंद करते करते उसने नज़र भर नीलम को देखा। संध्या समझ गई की अब अंत समय आ गया – उसको दुःख बस इस बात का था, की वो अपनी छुटकी – अपनी छोटी बहन – के लिए कुछ नहीं कर पा रही थी। संभवतः प्रभु के घर उसको अपने माँ बाप के सामने लज्जित होना और लिखा था।

जब खुद का होश हुआ, तो मालूम हुआ की वो यहाँ इस अनजान सी जगह पर है, और डॉक्टर उसकी जांच पड़ताल कर रहे थे। उसको अपने शरीर में हुआ परिवर्तन समझ में आ गया था – संध्या समझ गई की रूद्र और उसके प्रेम की निशानी अब नहीं बची। उसका जी हुआ की बुक्का फाड़ कर रोए, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। डॉक्टर उससे सवाल जवाब कर रहे थे.. उसको समझ नहीं आया की उससे ऐसी जवाब-तलबी क्यों करी जा रही है.. लेकिन फिर भी वो पूरे संयम से उनकी बातों का ठीक ठीक उत्तर देती रही। फिर मालूम हुआ की रूद्र यहीं आने हैं.. यह सुन कर उसकी जान में जान आई – कम से कम पूरी बात तो समझ आएगी!

लेकिन रूद्र के आने से पहले उसको लोगों की दबी आवाज़ में कही गई बातें सुनाई दे गईं। उसने डॉक्टर संजीव पर दबाव डाला की वो उसे सब कुछ सच सच बताएं – उसको सब सच जानने का पूरा हक़ था। संजीव और रामलाल ने उसको सारी बातें, हिचकते हुए ही सही, बता दीं। उसको यकीन ही नहीं हुआ की उसके दिमाग में जो बात अभी तक जीवित थी, वो कोई दो साल पुरानी यादें थीं, और यह की पिछले हफ्ता दस दिन तक उसके साथ जो कुछ भी हुआ, वो उसको याद ही नहीं था! उसने यह भी जाना की उसने ऐसे आदमी की जान बचाई थी, जिसने उसकी याददाश्त का फायदा उठा कर उसके साथ शारीरिक ज्यादतियां करी थीं। अब क्या मुँह दिखाएगी वो रूद्र को?

ऐसी ही न जाने कितनी बातें सोचती हुई, उम्मीद और नाउम्मीद के झूले में झूलते हुए, नीलम का अंतर्मन बेहद आंदोलित होता जा रहा था। वो बहुत बेसब्री से रूद्र की प्रतीक्षा कर रही थी।

‘रूद्र!’

रूद्र पर निगाह पड़ते ही वो चारपाई पर से उछल कर खड़ी हो गई। रूद्र को देखते ही जैसे उसके मन के सारे संताप ख़तम हो गए। उसके चेहरे पर तुरंत ही राहत के भाव आ गए। संध्या के मुँह से कोई बोल तुरंत तो नहीं फूटे, लेकिन रूद्र को जैसे उसके मन की बातें सब समझ आ गईं। संध्या ने सुना तो कुछ नहीं, लेकिन उसको लगा की रूद्र ने उसको ‘कुछ मत कहो’ जैसा कुछ कहा था।

रूद्र ने संध्या को देखा – अपलक, मुँह बाए हुए! दो वर्ष क्या बीते, जैसे दो जन्म ही बीत गए!

‘हे भगवान्! कितनी बदल गई है!’ उसका गुलाब जैसे खिला खिला चेहरा, एकदम कुम्हला गया था; सदा मुस्कुराती हुई आँखें न जाने किस दुःख के बोझ तले बुझ गईं थीं।

न जाने क्यों रूद्र का मन आत्मग्लानि से भर गया। रूद्र लगभग दौड़ते हुए उसकी तरफ बढ़ रहे थे; संध्या भी लपक कर उनकी बाहों में आ गई। आलिंगनबद्ध हुए ही रूद्र उसका शरीर यूँ टटोलने लगे जैसे उसकी मुकम्मल सलामती की तसदीक कर रहे हों!

“ओह जानू!” रूद्र ने कहा।

उनकी आवाज़ में गहरी तसल्ली साफ़ सुनाई दे रही थी – उम्मीद है की दिल का दुःख संध्या ने न सुना हो। आलिंगन बिना छोड़े हुए ही, रूद्र ने संध्या के कोमल कपोलों को अपनी हथेलियों में ले कर प्यार से दबाया,

“ओह जानू!”

रूद्र का गला भर आया था। उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे।

“ओह जानू..” कहते कहते वो फफक फफक कर रो पड़े। गले की आवाज़ भावावेश में आ कर अवरुद्ध हो चली थी।

ऐसे भाव विह्वल मिलन का असर संध्या पर खुद भी वैसे हुआ, जैसे रूद्र पर! रूद्र को अपने आलिंगन में बांधे संध्या की आँखें बंद हो गईं। वो निःशब्द रोने लगी। उन आंसुओं के माध्यम से वो पिछले दो वर्षों की भयानक यादें भुला देना चाहती थी – अपनी भी, और संभवतः रूद्र की भी। रूद्र को इस तरह से रोते हुए उसने कभी नहीं देखा था – वो कभी कभी भावुक हो जाते थे, लेकिन, रोना!! संध्या को तो याद भी नहीं है की रूद्र कभी रोए भी हैं! संध्या को अपने आलिंगन में बांधे रूद्र रोते जा रहे थे। एक छोटे बच्चे के मानिंद! गाँव वाले पहले तो तमाशा देखने के लिए उन दोनों को घेर कर खड़े रहे, लेकिन रामलाल ने जब आँखें तरेरीं, तो सब चुपचाप खिसक लिए।

पता नहीं कब तक दोनों एक दूसरे को थामे, रोते रहे और एक दूसरे के आंसूं पोंछते रहे। लेकिन आंसुओं का क्या करें? थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। रूद्र विगत दो वर्षों की निराशा, दुःख, हताशा, और सब कुछ खो जाने के संताप से रो रहा था, और संध्या उन्ही सब बातों को सोच सोच कर! वो रूद्र के लिए रो रही थी, नीलम के लिए रो रही थी, अपने माता पिता के लिए रो रही थी, और अपनी अजन्मी संतान के लिए रो रही थी। कैसा था वो समय.. और कैसे होगा आने वाला कल?

रोते रोते एक समय ऐसा भी आता है जब रोने के लिए आँसूं भी नहीं बचते है... उस गहरे अवसाद में रूद्र ने ही सबसे पहले खुद को सम्हाला,

“बस जानू बस.. अब चलते हैं...”

संध्या की हिचकियाँ बंध गईं थीं। उसके ठीक से बोल भी नहीं निकल रहे थे।

“नी.. नी..ही..ही..अह..लम क..कैसी ..?” हिचकियों के बीच में उसने पूछा।

इस प्रश्न पर मुझको जैसे करंट लग गया। अचानक ही मेरे मन में अपराध बोध घर कर गया।

‘ओह भगवान्! क्या सोचेगी संध्या, जब उसको मेरी करतूत के बारे में पता चलेगा! इतना भी सब्र नहीं हुआ? और ऐसा भी क्या की उसी की छोटी बहन पर हाथ साफ़ कर दिया! कितनी ज़िल्लत! सुन कर क्या सोचेगी संध्या? अपने से चौदह साल छोटी लड़की के साथ! छिः छिः!’

“अच्छी है..”

मेरे गले में अपराध बोध वाली फाँस बन गई, “बड़ी हो गई है काफी..” जैसे तैसे वाक्य ख़तम कर के मैंने बस यही सोचा की संध्या अब नीलम के बारे में और पूछ-ताछ न करे।

“म म्मेरी अह अह.. उस उस से अह.. ब बात क क करा..अहइए..” संध्या ने बंधे गले से जैसे तैसे बोला।

“जानू.. अभी नहीं! अभी चलते हैं.. उसको सरप्राइज देंगे.. ठीक है?”

तकदीर ने साथ दिया, संध्या मेरी बात मान गई, और उसने आगे कुछ नहीं पूछा। मैंने जल्दी जल्दी कई सारी औपचारिकताएँ पूरी करीं, सारे ज़रूरी कागज़ात इकट्ठे किए, स्थानीय पुलिस थाने में जा कर संध्या से सम्बंधित जानकारियों का लेखा जोखा पूरा किया और वहां से भी ज़रूरी कागज़ात इकट्ठे किए और फिर वापसी का रुख किया। निकलते निकलते ही काफी शाम हो गई थी, और गाँव वालों ने रुकने की सलाह दी, लेकिन मेरा मन नहीं माना। मेरा मन हो रहा था की उस जगह से जल्दी निजात पाई जाय – और यह की वहां का नज़ारा दोबारा न हो! मैंने अपने ड्राईवर से पूछ की क्या वो गाडी चला सकता है, तो उसने हामी भरी। हम लोग तुरंत ही वहां से निकल गए।

वैसे तो रात में पहाड़ी रास्तों में वाहन नहीं चलाना चाहिए, लेकिन अभी रात नहीं हुई थी। हमारा इरादा यही था की कोई दो तीन घंटे के ड्राइव के बाद कहीं किसी होटल में रुक जायेंगे, और फिर अगली सुबह वापस दिल्ली के लिए रवाना हो जाएँगे। ड्राईवर साथ होने से काफी राहत रही – संध्या न जाने क्या क्या सोच सोच कर या तो रोती, या फिर गुमसुम सी रहती। उस मनहूस घटना ने मेरी संध्या को सचमुच ही मुझसे छीन लिया था – मैं मन ही मन सोच रहा था की अपनी संध्या को वापस पाने के लिए क्या करूँ! ऊपर से संध्या के पीछे पीछे मैंने जो जो काण्ड किए थे, उनके संध्या के सामने उजागर हो जाने की स्थिति में उनसे दो चार होने का कोई प्लान सोच रहा था। लेकिन इतना सोचने पर भी कुछ समझ नहीं आ रहा था।

खैर, मन को बस यही कह कर धाडस बंधाया की अंत में सत्य तो उजागर हो कर रहेगा। इसलिए छुपाना नहीं है। वैसे भी नीलम को अभी तक कुछ भी मालूम नहीं हुआ था। वो तो सब कुछ बोल ही देगी। न जाने क्यों सब कुछ विधि के हिसाब से होने के बावजूद मन में एक अपराधबोध सा घर कर गया था। न जाने क्या होगा!

रास्ते में नीलम के कई सारे कॉल आए – जैसे हर रोज़ उससे रोमांटिक बातें होती थीं, आज करना संभव नहीं था। जैसे तैसे उसको भरोसा और दिलासा दिला कर और बाद में बात करने का वायदा कर के शांत किया। लेकिन फिर भी उसके sms आते रहे। वो तो संध्या गुमसुम सी बैठी थी, इसलिए यह सब सिलसिला चल गया। साला मैं तो बिना वजह ही चक्की की दोनों पाटिया के बीच बस फंस कर ही रह गया! कैसी किस्मत थी – दो दो बीवियाँ, और वो भी दोनों सगी बहने! ऊपर से दोनों को एक दूसरे के बारे में पता भी नहीं! वैसे यहाँ तक भी गनीमत थी... पिसना तो अभी बाकी है!

तो ऐसे गुमसुम हालात में मेरे से तो गाडी नहीं चलाई जा पाती। इसलिए ड्राईवर साथ होने से बहुत सहूलियत हो गई। हमारे पास वैसे भी कोई सामान नहीं था। मेरे पास बस दो जोड़ी कपडे थे, और संध्या के पास कुछ भी नहीं – जो उसने पहना हुआ था, बस वही था। मैंने दिमाग में नोट कर लिया की उसके लिए दिल्ली में कपड़े खरीदने हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद मैंने ड्राईवर को गाड़ी में लगे संगीत तंत्र को चलाने को कहा – कम से कम हम दोनों लोग अपनी अपनी चिंता के दायरे से बाहर निकालेंगे! मुझे तो लगा की बस कोई एक घंटा चले थे, लेकिन जब मैंने बाहर ध्यान दिया, तो घुप अँधेरा हो गया था, और अब मेरे हिसाब से गाड़ी चलाना बहुत सुरक्षित नहीं था।

“भाई, आगे कोई होटल या धर्मशाला आये, तो रोक लेना!”, मैंने ड्राईवर से कहा, “अब अँधेरा बढ़ गया है, और ऐसे में गाड़ी चलाना ठीक नहीं। आज रात वहीँ रुक जायेंगे, और कल आगे का सफ़र करेंगे। क्यों, ठीक है न?“

“बिलकुल ठीक है साहब! मैं भी यही कहने वाला था.. जैसे ही कोई सही होटल दिखेगा मैं वैसे ही रोक लूँगा। रात में ड्राइव करते रहने का कोई इरादा नहीं है मेरा।“

ऐसे ही बात करते हुए मुझे एक बंगलेनुमा होटल दिखा। मुझे अचानक ही पुरानी बातें याद हो आईं – शादी के बाद जब मैं संध्या को विदा कर के ला रहा था तो हम इसी होटल में रुके थे। मैंने ड्राईवर को उसी होटल के प्रांगण में पार्क करने को कहा, और उसको कहा की आज हम यहीं पर रुकेंगे।

 
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