Chutka pyasa
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कुछ तो राज गहरे है,#23
“तुम्हे क्या चाहिए ” शकुन्तला ने पूछा
मैं- क्या दे सकती हो तुम
शकुन्तला- जो तुम सोच रहे हो वो मुमकिन नहीं
मैं- पर मैंने तो कुछ सोचा ही नहीं
शकुन्तला- कच्ची गोटिया नहीं खेली मैंने छोटे चौधरी, जितनी तुम्हारी उम्र है उस से जायदा साल मुझे चुदते हुए हो गए,
मैं- तो एक बार और चुदने में क्या हर्ज है
शकुन्तला- मैंने कहा न ये मुमकिन नहीं .
अब मैं उसे ये नहीं बताना चाहता था की मैं उतावला हूँ उसे चोदने को और औरत के आगे जितना मर्जी खुशामद करो उतना ही उसके नखरे बढ़ते है , तो मैं बिना उसका जबाब सुने वहां से चल दिया. घर आकर मैंने कपडे बदलने चाहे तो देखा की जिस्म पर गहरे नीले घाव थे, बदन में कही भी कोई दर्द नहीं था पर पुरे सीने, पेट पैरो पर ये नीले निशान थे, ये एक और अजीब बात थी .
मैंने रजाई ओढ़ी और आँखे बंद कर ली, दिमाग में शकुन्तला की कही बाते घूम रही थी ,मेरा उस सर्प से क्या रिश्ता था , और सबसे बड़ी बात शकुन्तला समझ गयी थी की मैं उसकी चूत लेना चाहता था , मेरे परिवार के इतिहास में कुछ तो ऐसे राज़ दफन थे , जिन पर समय की धुल जम चुकी थी मुझे कुछ भी करके उस धुल को साफ़ करना था .
जो भी था या नहीं था , फिलहाल इतना जरुर था की मैंने एक सपना देखा था , उस सपने में एक खेत था सरसों का लहलहाता और आंचल लहराती रूपा , मैं खेत के डोले पर बैठे उसे देख रहा था , पीली सरसों में नीला सूट पहने रूपा बाहें फैलाये मुझे अपनी तरफ बुला रही थी , मैं बस रूपा के साथ जीना चाहता था . मेरे अकेलेपन को अगर कोई भर सकती थी वो थी रूपा.
और किस्मत देखो , मैं भी जूनागढ़ जा रहा था जहाँ वो भी गयी हुई थी . रूपा का ख्याल आते ही होंठो पर एक ऐसी मुस्कान आ गयी जिसे बस आशिक लोग ही समझ सकते है . मैं उठा और खिड़की खोली, बिजली आ रही थी, डेक चलाया और गाने लगा दिए. दिल न जाने क्यों झूम रहा था .
शाम को मैं सरोज काकी के घर गया तो सबसे पहले वो चाय ले आई.
सरोज- पुरे दिन सेआये नहीं खाना भी नहीं खाया.
मैं- भूख -प्यास अब लगती नहीं मुझे
काकी- वो क्यों भला.
मैं- क्या मालूम
काकी- तो किस चीज की चाह है
मैं- मालूम नहीं , दिल ही जाने
काकी- अच्छा तो बात दिलो तक पहुँच गयी , मुझे बताओ कौन है वो , मैं करती हु तुम्हारे चाचा से बात , मैं भी थक जाती हु घर के कामो में कोई आएगी तो मेरा हाथ भी हल्का रहेगा.
मैं- बड़ी दूर तक पहुंच गयी काकी, ऐसा भी कुछ नहीं है वो तो मैं बस यु ही फिरकी ले रहा था .
काकी- मुझसे झूठ नहीं बोल पाओगे, ये जो चेहरे पर गुलाबी रंगत आई है समझती हु मैं .
मैंने चाय का कप निचे रखा और सरोज के पास जाकर बोला- इस रंगत का कारण तुम हो . जब से तुम्हे देखा है , तुम्हे पाया है एक नयी दुनिया देखि है,
मैंने सरोज की चूची पर हाथ रखा और उसे दबाने लगा.
सरोज- अभी नहीं , करतार बस दूकान तक गया है आता ही होगा. जल्दी ही करती हु तुम्हारे लिए कुछ .
मैं- ठीक है .
सरोज- क्या ख़ाक ठीक है , घर पर रहोगे जब कुछ होगा न, मै देना भी चाहू तो तुम रहते ही नहीं , पहले तो केवल रातो में गुम रहते थे अब दिन में भी गायब . क्या करू मैं तुम्हारा.
मैं- कभी कभी बस हो जाता है .
काकी- खैर, तुम कल दरजी के पास हो आओ, शादी के लिए नए कपडे सिलवा लो
मैं- मैं नहीं जा रहा शादी में
काकी- क्यों देव, ये अच्छा मौका है परिवार से जुड़ने का .
मैं- दरअसल मुझे कही और जाना है और समय पर लौट आया तो पक्का जाऊंगा.
काकी- कहाँ जाना है तुम्हे
मैं- बस यही शहर में
काकी- मुझे बताओ पूरी बात
मैं- कालेज में एक दोस्त बना है बस उसके साथ ही थोडा घुमने जा रहा हु मैं
काकी- जो करना है वो करना ही है तुम्हे , मेरी फ़िक्र क्या मायने रखती है तुम्हारे लिए ,
मैं- इसीलिए तो कह रहा हूँ बस दो चार रोज में आ जाऊंगा वापिस.
काकी- मैं जाने से नहीं रोक रही बस ये पूछ रही हूँ की जा कहाँ रहे हो .
मैं- बताया न दोस्त के साथ उसके गाँव वाले घर पर .
काकी- तुम लाख झूठ बोल लो पर जितना मैं तुम्हे जानती हूँ तुम्हारे हर झूठ को पकड़ ही लुंगी
मैं- सो तो है मेरी सरकार , पर मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ
काकी- बेशक
मैं- क्या कोई सांप मुझे यहाँ छोड़ कर गया था बचपन में
मेरी बात सुनकर सरोज के चेहरे के भाव बदल गए .
“किसने कहा तुमसे ऐसा ” सरोज काकी गुस्से से बोली
मैं- किसी ने नहीं बस मुझे मालूम हो गया .
“मैं जानती हूँ कौन लगा रही है ये आग, जरुर ये लाला की रांड ने तुम्हे कहा होगा. उसके सिवा कोई नहीं करेगा ऐसा, उस हरामजादी की चोटी उखाड़ दूंगी मैं तू देखना ” सरोज का पारा आसमान पर चढ़ गया था .
मैं- तो ये सच बात है .
काकी- देव मेरे बच्चे, तू समझने की कोशिश कर दुनिया वैसी नहीं है जैसी तुम समझते हो . , तू वादा कर उस रांड से दूर रहेगा, उसकी किसी भी बात पर विश्वास नहीं करेगा.
मैं- आप कहती हो तो नहीं करूँगा, पर शकुन्तला ने सच ही तो कहा .
काकी- कुछ नहीं पता उस चूतिया की बच्ची को . वो सांप बस इत्तेफाक से वहां पर था जब तुम्हारे दादा को तुम मिले थे .
मैं- और दादा को भी उसी ने मारा था .
काकी- हे भगबान क्या क्या सुन आये हो तुम
मैं- अभी तो तुमसे ही सुनना चाहता हूँ
काकी- तुम्हारे दादा को तुम कभी पसंद नहीं थे,वो तुम्हे तुम्हारे पिता का हत्यारा मानते थे .......
काकी के शब्दों ने बहुत गहरी चोट की थी मुझ पर
“मुझे, मुझे तो याद भी नहीं की मेरे माता-पिता कौन थे , कैसे दीखते थे फिर मैं कैसे ” मैंने कहा
काकी- मैं कहाँ ऐसा कह रही हूँ बस तुम्हारे दादा की सोच थी ये . क्योंकि तुम्हारे जन्म के कुछ महीनो बाद ही उनकी हत्या हो गयी थी , और आज तक कातिल का कोई पता नहीं मिला.
“क्या मेरी माँ जूनागढ़ की थी ” मैंने पूछा ......
कुछ तो राजदारी है#24
“अब कोई फर्क नहीं पड़ता है की सुहासिनी कहाँ की थी , अब वो नहीं है न ” सरोज काकी ने कहा
मैं- फर्क पड़ता है बहुत फर्क पड़ता है मैं अपनी माँ के बारे में जानना चाहता हूँ , कभी उसे देख तो नहीं पाया पर उसकी यादो को महूसस करना चाहता हु
“यादे तुम्हे कुछ नहीं देंगी सिवाय दर्द के , रुसवाई के सुहासिनी कभी नहीं चाहती की तुम्हे अतीत मालूम हो ” सरोज ने कहा
मैं- ऐसा क्या था अतीत में , जिसने मेरे आज को बदल दिया .
सरोज- मैं नहीं जानती , क्योंकि वो दोनों गाँव छोड़कर चले गए थे , फिर कभी नहीं लौटे, अगर कुछ लौटा तो वो तुम थे , उनकी एकमात्र निशानी , वो तुम थे जिसे अभिशप्त समझा जाता है , वो तुम थे जिसे सबने ठुकरा दिया .
सरोज की बातो ने मेरे दिल को और दुखा दिया पर वो भी वही सब बोल रही थी जो श्याद हुआ होगा.
“तो मैं जाऊ अपने दोस्त के साथ घुमने , दो चार रोज में लौट आऊंगा ” मैंने फिर से कहा
सरोज- ठीक है , पर ऐसा वैसा कुछ न करना जिससे तुम्हे परेशानी हो
मैंने हाँ में सर हिला दिया और वापिस आ गया . मैंने कुछ जोड़ी कपड़े बैग में रख लिए, रूपये रखे और किसी चीज की मुझे जरुरत नहीं थी . बस इंतज़ार था सुबह का जब मन जूनागढ़ जाने वाला था . पूरी रात मैं खूब सोया बाबा के पास भी नहीं गया , सुबह सुबह ही मैं वहां पहुँच गया जहाँ मोना गाड़ी भेजने वाली थी , ठण्ड की सुबह पूरी धुंध से भरी थी और तेज चलती हवा, मौसम श्याद आज फिर बिगड़ने वाला था .
वैसे तो जूनागढ़ की दुरी कोई पंद्रह-बीस कोस ही रही होगी पर फिर भी समय लग गया .
जब मैं वहां पहुंचा तो दिन का उजाला ठीक ठाक हो गया था , बड़ा ही सुन्दर गाँव था , सड़क के दोनों तरफ खेत, फिर कुछ इलाका जंगल जैसा और फिर गाँव, जो बड़े पहाड़ो से घिरा था , मैंने देखा गाँव में ज्यादातर मकान अभी भी पुराने ज़माने के थे , बेशक खेतो में किसी जमींदार ने नयी कोठिया बना ली थी पर फिर अंचल ग्रामीण ही था .
गाँव थोडा सा ही शुरू हुआ था की ड्राईवर ने गाड़ी कच्ची सडक पर ले ली .
मैं- गाँव तो उस तरफ रह गया .
ड्राईवर- साहब, इसी तरफ रहती है ,
कच्चे रस्ते पर दोनों तरफ बड़े पेड़ थे, छायादार इलाका था वो , करीब बीस मिनट बाद मैं एक किले जैसी ईमारत के सामने था , पहली नजर में ही मालूम होता था की किसी ज़माने में बड़ी भव्य रही होगी ये इमारत.
“स्वागत है तुम्हारा देव ” मोना ने मुझसे कहा
मैंने सर हिला कर उसका अभिवादन किया , मोना ने साडी पहनी हुई थी बड़ी दिलकश लग रही थी वो , उसकी तारीफ किये बिना रहा नहीं गया मुझसे
“हुजुर, एक तो ये मौसम बेईमान और एक आप , समझ नहीं आता दो दो बिजलिया कैसे कोई बर्दाश्त करे ” मैंने कहा
मोना- तुम भी न , आओ अन्दर चले.
मैंने नौकर से हटने को कहा और मोना की चेयर को धकाते हुए अन्दर आ गया .
“बड़ी अमीर हो तुम ” मैंने साज सज्जा देखते हुए कहा
मोना- अरे कुछ नहीं , बस पुरखो का मकान है
मैं मुस्कुरा दिया . जल्दी ही खाना आ गया .
“मैंने भी सुबह से कुछ नहीं खाया , तुम्हारा ही इंतज़ार था ” कहा उसने .
मैं- शुक्रिया
बेहद लजीज खाने के बाद मैं और मोना बाते करने लगे.
मोना- मुझे उम्मीद है तुम्हे अच्छा लगेगा यहाँ , तुम साथ हो तो मुझे भी अकेलापन नहीं लगेगा.
मैं- गाँव खूबसूरत है देखना चाहूँगा मैं
मोना- क्यों नहीं , शाम को चलते है , मेरा पैर ठीक होता तो और बेहतर होता.
मैं- कोई नहीं मैं हूँ न सँभालने के लिए .
मोना हंस पड़ी .
मैं- तो तुम बड़े घराने से ताल्लुक रखती हो
मोना-अब तुम्हे तो पता है ही .
मैं- बाकि परिवार कहाँ रहता है,
मोना- गाँव वाले नए घर में, एक घर शहर में भी है पर कही भी रहे मुझे क्या लेना देना , मैं तो अलग हु उनसे
मैं- समझता हु .
हम बाते कर ही रहे थे की नौकरानी मोना की दवाई और पैर में लगाने को कोई मलहम ले आई.
मैंने उस से वो सामान लिया और उसे जाने को कहा
मैंने मोना को दवाई दी . और मलहम हाथ में लिया .
मैं- मैं लगा देता हु
मोना- अरे नहीं तुम मेहमान हो हमारे
मैं- मैं सिर्फ दोस्त हूँ और अपने दोस्त के लिए इतना तो करने का हक़ है ही मुझे
मोना ने मुझे बिस्तर पर लेटाने को कहा .
मैं- पैर में तो ये प्लास्टर है मलहम किधर लगाना है फिर
मोना- बुद्धू ही हो तुम , कमर पर और पीठ पर
मैंने मोना को एडजस्ट किया और उसकी पीठ पर मलहम लगाने लगा. मोना ने अपना ब्लाउज खोल दिया मेरे सामने वो बस गुलाबी ब्रा में थी . पर मैंने ध्यान नहीं दिया. मैं बस उसकी पीठ पर मलहम लगाने लगा. मोना का मादक, मुलायम बदन मेरी कठोर उंगलियों की तान पर नाचने लगा.
“आराम मिल रहा है ” पूछा मैंने
मोना- बहुत बेहतर.
कुछ देर बाद मैं उसकी कमर को मसलने लगा. मोना औंधी सी हुई पड़ी थी तो मैंने उसके कुल्हो में होती थिरकन को साफ़ महसूस किया . दिन बड़ी जल्दी बीत गया शाम को हम दोनों गाँव की सैर के लिए निकल पड़े.
वो मुझे गाँव के बाजार ले गयी .
“बर्फिया बड़ी मशुर है यहाँ की ” मोना ने बताया मुझे तो बाबा की बात याद आई .
मैं- मीरा की दूकान पर ले चलो मुझे .
मोना ने हैरानी से देखा मुझे और बोली- मीरा ने बरसो से मिठाई नहीं बनाई है .
मैं- मैंने सुना की मीरा की बर्फिया बड़ी स्वाद है , मिठाई न सही मिल तो सकते है .
मोना- क्यों नहीं
जल्दी ही हम एक पुराणी की झोपडी के सामने थे , आँगन में एक बुढिया बैठी थी .
मोना- यही है मीरा
मैंने देखा मीरा को ७५-८० साल कु बुजुर्ग औरत थी , मैं उसके पास गया
“रामराम माई ”
मीरा ने मेरा अभिवादन स्वीकार किया
मैं- माई बर्फी चाहिए
मीरा- दूकान बंद किये जमाना हुआ बेटा बाजार जा यहाँ कुछ नहीं
मैं- बड़ी तारीफ सुनी है आपकी बनाई बर्फी की
मीरा- मैंने कहा न बाजार जा
मैं- सुहासिनी को तो कभी बाजार नहीं भेजा , उसके लिए तो बहुत चाव से बर्फिया बनाती थी माई तुम
मेरी बात सुनकर मीरा चौंक गयी . और मोना भी
मीरा- तू कैसे जाने है उसे .
मैं- ........................
कुछ परदे है कुछ पर्दानशी है#25
“किसने भेजा है तुझे मेरे पास ” मीरा ने सवाल किया
मैं- कौन भेजेगा मुझे मैं तो मुसाफिर हूँ बस इस ओर आ निकला , किसी ने बताया तो आपके यहाँ आ पहुंचा
मीरा- वापिस ले जा मोना इसे ,
मैं-बेशक लौट जाऊंगा , मेरे बाबा कहते है की पुरे जूनागढ़ में आप से बढ़कर कोई नहीं
मैंने उसे मजार वाले बाबा के बारे में बताया , यक़ीनन मीरा उसे जानती थी .
“सुन लड़के, उसकी बातो का कम ही विश्वास करना वो न जाने क्या क्या बडबडाता रहता है ” मीरा ने कहा
मैं- सुहासिनी का तो विश्वास कर सकता हूँ न मैं
मीरा- वो चली गयी , छोड़ गयी हमें , तू भी लौट जा
मोना ने मुझे इशारा किया तो हम वापिस हो लिए.
“सुहासिनी को कैसे जानते हो तुम ” मोना ने पूछा
मैं- हमारे गाँव में ब्याही थी वो तो जिक्र सुना उनका
मोना- आओ तुम्हे कुछ ऐसा दिखाती हूँ जो तुमने पहले कभी नहीं देखा होगा. पर उस से पहले कुछ खा लेते है बाजार में
हमने हल्का सा नाशता किया गाँव के बाजार में फिर मोना मुझे जंगल की तरफ ले आई, जैसे जैसे वो बताती रही मैं गाड़ी घुमाता रहा , हम जंगल में काफी अन्दर तक आ गए थे, फिर एक जगह उसने मुझे रुकने का इशारा किया .हम गाड़ी से उतरे
चूँकि सर्दियों का समय था शाम ढलने लगी थी कुछ हम पेड़ो में थे तो अँधेरा लगने लगा था .
“ये जगह बड़ी खास है देव, ”
मैंने देखा वहां पर कुछ भी खास नहीं था पहली नजर में तो बिलकुल नहीं , पर जल्दी ही मैं मोना का मतलब समझ गया . किसी ज़माने में ये कोई बगीचा रहा होगा पर अभी बस ये सूख गया था , पुरे जंगल में हरियाली थी बस यही नहीं थी , हमसे कुछ दूर एक छोटी सी पानी की खेली थी जो खाली पड़ी थी .
“कहते है किसी ज़माने में इस से खूबसूरत बगीचा कही नहीं था , ”
मैं- पर ये ऐसा कैसे हुआ
मोना- इसके बारे में एक कहानी है , कहते है की करीब १८-१९ साल पहले यहाँ पर कुछ ऐसा हुआ था की फिर ये जमीन बंजर हो गयी , ये खेली सूख गयी , मैंने बहुत कोशिश की पर फिर कभी इसमें पानी नहीं आया.
मैं- क्या हुआ था
मोना- ठीक से तो कोई नहीं जानता बस सुनी सुनाई बाते है की एक बाढ़ आई थी खून की बाढ़
मेरे लिए ये बड़ी हैरान करने वाली बात थी .
“ये दुनिया बस ऐसी ही नहीं है देव जो हम जी रहे है इसके परे भी कुछ ऐसा है जो हैं भी और नहीं भी, सबकुछ सामने होते हुए भी ओझल है ” मोना ने कहा
मैं- समझा नहीं
मोना- मैं भी कहा समझी .
मैंने मोना का हाथ पकड़ा , ठण्ड में उसका गर्म स्पर्श बड़ा सकून भरा लगा.
मैं- हम दोनों कोशिश करे तो समझ सकते है
मोना- क्या तुम समाज की बनाई लकीर को मानते हो
मैं- नहीं, मुझे क्या लेना देना समाज से , खासकर उस समाज से जिसने मुझे कभी अपनाया नहीं ,तुम नहीं जानती , मैं कैसे जिया हूँ , अकेलेपन के साथ नजाने कितनी राते मैंने बस बेख्याली में, तो कभी रोते हुए गुज़ार दी .
मोना- हम दोनों की कहानी भी एक सी ही है , मुझे देखो परिवार होते हुए भी अकेली हूँ , दरअसल हम दोनों ही मुसाफिर है .
मैं- सो तो है पर तुमने घर क्यों छोड़ा
मोना- बस सतनाम मुडकी की बेटी होने की सजा है , मेरे बाप के बारे में तो तुम्हे मालूम होगा ही .
मैं - बस इतना ही की वो बड़े नेता है
मोना- खैर जाने दो , हम अपनी बात करते है , ठण्ड बढ़ने लगी है घर चले
मैं- थोड़ी देर और बैठना चाहता हूँ
मोना- जब तुम्हे देखती हूँ तो लगता है की कोई तो है अपना इस जहाँ में
मैं- मुसाफिर को पनाह देना ठीक नहीं
मोना- पर उसके सफ़र का हिस्सा होना तो ठीक है न .
“रहे अलग है , मंजिले अलग है तुम आसमान हो मैं धरती , तुम्हारा एक मकाम है मैं आवारा ”
मोना- फिर भी हम दोस्त है , हैं न
मैं- हमेशा
मोना- वापिस चले, कल शादी में भी चलना है
मैं- हाँ
मैंने मोना को गाड़ी में बिठाया और हम वापिस उसकी हवेली की तरफ चल पड़े. अँधेरा खूब हो चूका था , मैंने गाड़ी की लाइट चालू कर दी . मोना ने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया . मैं मुस्कुराया
मोना- ये ठण्ड का मौसम भी न अपने आप में अजीब है इसमें मिलन है जुदाई है
मैं- क्या फर्क पड़ता है हर मौसम की तरह ये भी बीत जाता है .
बाते करते करते हम लोग मोना वापिस आये, थोड़ी देर में ही खाना लग गया . मैं थोडा थका हुआ था तो सीधा बिस्तर में घुस गया . फिर जब पानी पीने को मेरी आँख खुली तो मैंने पाया की मेरी खिड़की खुली है , मैं उसे बंद कर ही रहा था की मैंने देखा सामने सड़क पर एक काला साया था लालटेन लिए जो मेरी तरफ देख रहा था .
मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं छज्जे पर आया . वो साया अभी भी उस तरफ ही था . उसने मुझे देख लिया था , लालटेन हिला कर उसने मुझे निचे आने का इशारा किया .एक अजनबी साया पराये गाँव में मुझे बुला रहा था वो भी रात को .
क्या मेरा जाना ठीक रहेगा , ये गाँव मुझे उलझा हुआ तो लग रहा था पर अब यकीं सा हो रहा था , तीसरी बार जब इशारा हुआ तो मैं अन्दर आया, अपनी जैकेट पहनी और निचे चल दिया.
“जी हुकुम, किसी चीज की जरुरत थी , ” दरवाजे पर बैठे गार्ड ने पूछा मुझसे
मैं- नहीं , दरवाजा खोलो मुझे बाहर जाना है
गार्ड - इतनी रात को , मेरा मतलब है की रात को सुरक्षित नहीं है बाहर जाना
मैं- मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही , थोडा घूम लूँगा तो बेहतर महसूस करूँगा.
गार्ड- मैं साथ चलू हुकुम
मैं- अरे नहीं, बस मैं सामने सड़क पर ही दो चार चक्कर लगा कर आता हूँ
मैं हवेली से बाहर आया, और जहाँ वो साया खड़ा था उधर गया . अब सड़क पर पूरी तरह अँधेरा था , लालटेन शायद बुझा दी गयी थी,
“कहाँ हो तुम ” मैंने आवाज दी .
“बायीं तरफ चलो , चलते रहो ” जवाब आया .
ये है देव की मां सुहासिनी#35
मेरे सामने वो उस इंसान की तस्वीर थी जिसे मैं कभी जिंदा नहीं देख पाया था मेरे सामने युद्ध वीर सिंह की तस्वीर थी, जो बहुत कुछ मेरे जैसे ही दिखते थे. ऊंचा लंबा कद कांधे तक आते बाल, घोड़े पर बैठे हुए. मैंने तस्वीर को उतारा और सीने से लगा लिया. दिल भारी सा हो आया था. सामने एक अलमारी थी जो किताबों से भरी थी. पास ही एक संदूक था जिसमें कपड़े रखे थे. मैंने कुछ और तस्वीरे देखी जो किसी जंगल की थी.
आँखों मे एक दरिया था पर इस शादी वाले घर मे मैं तमाशा तो कर नहीं सकता था इसलिए कमरे से बाहर आया. शाम तक मैं वहां रहा. अचानक से सीने मे दर्द बढ़ने लगा तो मैं बाबा से मिलने चल प़डा पर बाबा मजार पर नहीं थे. जब और कुछ नहीं सूझा तो मैं खेतों की तरफ हो लिया.
गांव से बाहर निकलते ही ढलते दिन की छाया मे जोर पकड़ती ठंड को महसूस किया, हवा मे खामोशी थी, मैं उस पीपल के पास से गुजरा जहां पहली बार रूपा मिली थी मुझे, जहां पहली बार उस सर्प से सामना हुआ था मेरा. जैकेट के अंदर हाथ डाल कर मैंने देखा पट्टियों से रक्त रिसने लगा था
.
साँझ ढ़ल रही थी हल्का अंधेरा होने लगा था, झोपड़ी पर जाकर मैंने अलाव जलाया, घाव ने सारी पट्टी खराब कर दी थी, जी घबराने लगा था. बाबा ने सही कहा था ये घाव बड़ा दर्द देगा, मैंने रज़ाई अपने बदन पर डाली और आंखे बंद कर ली. पर चैन किसे था, करार किसे था. आंख बंद करते ही उस रात वाला किस्सा सामने आ जाता था.
चाहकर भी मैं उस हादसे को भुला नहीं पा रहा था, वो श्मशान साधारण नहीं था कोई तो राज छुपा था वहां, मुझे फिर जाना होगा वहाँ मैंने सोचा. एक के बाद एक मैं सभी बातों को जोड़ने की कोशिश कर ही रहा था कि मुझे बाहर रोशनी सी दिखी, इससे पहले कि मैं बिस्तर से उठ पाता, झोपड़ी का पल्ला खुला और मेरे सामने रूपा थी.
"वापिस लौटते ही सबसे पहले तुझसे मिलने चली आयी मेरे मुसाफिर " रूपा ने कंबल उतारते हुए कहा
उसे देखते ही दिल अपना दर्द भूल गया.
"मैं तुझे ही याद कर रहा था " मैंने कहा
रूपा - तभी मैं कहूँ ये हिचकियाँ पीछा क्यों नहीं
छोड़ती मेरा. बाकी बाते बाद मे खाना लायी हू चल उठ परोसती हूं
मैं - अभी नहीं
रूपा - मुझे भी भूख लगी है, तेरे साथ ही खाने का सोचा था, पर कोई ना थोड़ी देर और सही, चल परे को सरक, ठंड बहुत है
रुपा बिस्तर पर चढ़ आयी उसका बोझ मेरे सीने पर आया तो मेरी आह निकल गई
रूपा - क्या हुआ देव
मैं - कुछ नहीं सरकार,
रूपा - तो फिर आह क्यों भरी, क्या छिपा रहा है
रूपा ने मेरे ऊपर से रज़ाई हटा दी और उसकी आँखों के सामने मेरा छलनी सीना था,
"किसने किया ये " पूछा उसने
मैने कुछ नहीं कहा
"किसने किया ये, किसकी इतनी हिम्मत जो मेरे यार को चोट पहुंचाने की सोचे मुझे नाम बता उसका " रूपा बड़े गुस्से से बोली
मैं - शांत हो जा मेरी जान, छोटा सा ज़ख्म है कुछ दिनों मे भर जाएगा. और फिर मुझे भला क्या फिक्र मेरी जान मेरे पास है
रूपा - मामूली है ये ज़ख्म पूरा सीना चीर दिया है, अब तू मुझसे बाते भी छुपाने लगा है मेरे दिलदार
रूपा की आँखों मे आंसू भर् आए, सुबक कर रोने लगी वो. मैंने उसका हाथ थामा.
"कैसे हुआ ये " पूछा उसने
मैने उसे बताया कि कैसे उस रात मैं रास्ता भटक गया और शिवाले जा पहुंचा और ये हमला हुआ
"सब मेरी गलती है, मुझे डर था कि कोई तुझसे मिलते ना देख ले इसलिए मैंने तुझे वहां बुलाया, तुझे कुछ हो गया तो मैं किसके सहारे रहूंगी, मेरे यार मेरी गलती से ये क्या हो गया " रूपा रोने लगी
मैं - रोती क्यों है पगली, भाग मे दुख है तो दुख सही, चल अब आंसू पोंछ
मैंने रूपा के माथे को चूमा.
"मैंने सोचा है कि इधर ही कहीं नया मकान बना लू " मैंने कहा
रूपा - अच्छी बात है
मैं - बस तू कहे तो तेरे बापू से बात करू ब्याह की, अब दूर नहीं रहा जाता, तेरे आने से लगता है कि जिंदा हूं तू दुल्हन बनके आए तो घर, घर जैसा लगे
रूपा - इस बार फसल बढ़िया है, बापू कह रहा था सब ठीक रहा तो कर्जा चुक जाएगा, सावन तक नसीब ने चाहा तो हम एक होंगे.
मैं--जो तेरी मर्जी, मुझ तन्हा को तूने अपनाया मेरा नसीब है,
रूपा - अहसान तो तेरा है मेरे सरकार
मैंने उसे अपनी बाहों मे भर् लिया
"अब तो दो निवाले खा ले बड़े प्यार से बनाकर लाई हूं तेरे लिए " उसने कहा
रूपा ने डिब्बा खोला और खाना परोसा. एक दूसरे को देखते हुए हमने खाना खाया. बात करने की जरूरत ही नहीं थी निगाहें ही काफी थी.
"चल मैं चलती हूं, कल आऊंगी " उसने कहा
मैं - रुक जा ना यही
रूपा - आज नहीं फिर कभी
उसने मेरे माथे को चूमा और चली गई. मैं सोने की कोशिश करने लगा.
रात का अंतिम पहर था. सर्द हवा जैसे चीख रही थी, वेग इतना था कि जैसे आँधी आ गई हो, चांद भी बादलों की ओट मे छिपा हुआ था. पर एक साया था जो बेखौफ चले जा रहा था. क्रोध के मारे उसके कदम कांप रहे थे, आंखे जल रही थी. कोई तो बात थी जो उसकी आहट से शिवाले के कच्चे कलवे भी जा छुपे थे.
वो साया अब ठीक शंभू के सामने था, एक पल को तो वो मूर्ति भी जैसे उन क्रोधित आँखों का सामना नहीं कर पायी थी. उसने पास स्थापित दंड को उठाया और पल भर् मे उसके दो टुकड़े कर दिए. इस पर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ तो उसने पास पडी शिला को उठाकर फेंक दिया.
"किस बात की सजा दे रहे हो मुझे किस बात की क्या दोष है मेरा जो हर खुशी छीन लेना चाहते हो मेरी. महत्व तो तुम्हारा बरसो पहले ही समाप्त हो गया था, पर अब मैं चुप नहीं हूं, तीन दिन मे मुझे तोड़ चाहिए, सुन रहे हो ना तुम बस तीन दिन, उसे यदि कुछ भी हुआ तो कसम तुम्हारी इस संसार को राख होते देर नहीं लगेगी, शुरू किसने किया मुझे परवाह नहीं समाप्त मेरे हाथो होगा. तीन दिन बस तीन दिन. "