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भाग १०७
बुच्ची और चुनिया
२७,१०,२१४
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लेकिन तभी नीचे से बुच्ची की सहेलियों की आवाज आयी और वो छुड़ाकर, हँसते खिलखिलाते कमरे से बाहर।
और इमरतिया भी साथ साथ लेकिन निकलने के पहले सूरजु को हिदायत देना नहीं भूली
" स्साले, का लौंडिया की तरह शर्मा रहे थे, सांझ होते ही मैं आउंगी बुकवा लगाने, आज खाना भी जल्दी हो जाएगा।
यहीं छत पे नौ बजे से गाना बजाना होगा, तोहरी बहिन महतारी गरियाई जाएंगी। तो खाना आठ बजे और दो बात, पहली अब कउनो कपडा वपडा पहनने की जरूरत नहीं है, इसको तनी हवा लगने दो और ये नहीं की हम आये तो शर्मा के तोप ढांक के,
और दूसरे बुच्ची जब खाना खिलाती है तो अपने गोद में बैठाओ, ओकर हाथ तो थाली पकडे में खिलाने रहेगा , बस फ्राक उठा के दोनों कच्चे टिकोरों का स्वाद लो,"
पर बात काट के सूरजु ने मन की बात कह दी,
" पर भौजी, हमार मन तो तोहार, लेवे का,….. "
" आज सांझ को, आउंगी न बुकवा लगाने, …चला तब तक सोय जा। "
मुस्कराकर जोर जोर से बड़े बड़े चूतड़ मटकाकर, मुड़ कर इमरतिया भौजी ने सूरजु देवर से वादा कर दिया .
इमरतिया का मन हर्षाय गया, कितने दिन से ये बड़का नाग लेने के चक्कर में थी और आज ये खुद,...
बुच्ची सीढ़ी पर इमरतिया का इन्तजार कर रही थी.
सीढ़ी पर से नीचे उतरते हुए, इमरतिया ने बुच्ची की छोटी छोटी चूँची फ्राक के ऊपर से दबाते हुए बोली, " हमार देवर दबाय दबाय के इसको बड़ा कर देगा " और नीचे से फ्राक को उठा के चिकनी बिल के छेद पे ऊँगली रगड़ते हुए चिढ़ाया “ और इसको चोद चोद के "
अपने को छुड़ा के नीचे आंगन में दौड़ के पहुँचती हुयी सहेलियों के बीच से बुच्ची ने मुंह चिढ़ाते हुए कहा
" अरे भौजी, तोहरे मुंह में घी गुड़, भौजी क बात जल्द सही हो "
लेकिन एक भौजाई के चंगुल से छूटी थी तो यहाँ तो दर्जनों भौजाई मौजूद थीं, कच्ची उमर की ननद का रस लेने, एक बोली,
"आय गयी, हमरे देवर से चुदवा के. फ्राक उठा के देखो, बिल बजबजा रही होगी,… सफ़ेद मलाई से "
" अरे एक देवर से कहाँ काम चलेगा, देखना, देवरन से पेलवायेगी, उहो एक साथ, क्यों बुच्ची, बबुनी ,…एक बुरिया में एक गंडिया में, "
एक गाँव की कहारिन हँसते हुए बोली।
सब को मालूम था की बुच्ची ऐसे मजाक से बहुत छनछनाती थी इसलिए और रगड़ाई होती थी उसकी।
" अरे खाली अपने भाई को दोगी की,... हमरे भाइयों को भी दोगी, "
चुनिया, रामपुर वाली भाभी की छोटी बहन बोली,
वो लोग अभी थोड़ी देर पहले आये थे, वो भी नौवें में पढ़ती थी और बुच्ची की पक्की सहेली।
उसका भाई गप्पू बारहवें में था और बहुत दिन से बुच्ची के चक्कर में था।
रामपुर वाली भौजी का नाम रामपुर वाली कैसे पड़ गया?
असल में गाँव में भौजियों की कमी तो होती नहीं, तो कोई बड़की भौजी, कोई नयकी, कोई छोटकी, लेकिन फिर आगे लगाने वाले विशेषण कम पड़ जाते हैं, तो भौजी के मायके का नाम का जोड़ के, और रामपुर कोई ऐसी वैसी जगह भी नहीं थी, क़स्बा था, बड़ा कस्बा, समझिये छोटे मोटे शहर की टक्कर लेता, लड़कियों, लड़को का इंटर तक स्कूल, हॉस्पिटल, और सबसे बढ़कर सिनेमा हाल, और उससे भी बड़ी बात की वहां से बस चलती थी, जो सूरजु के ननिहाल, रामपुर वाली के ससुराल से दो मील पहले एक बजार थी, वहां तक, और गाँव के सब लोग कोई बड़ी खरीददारी करने हो, घूमने जाना हो तो रामपुर ही, तो बस भौजी रामपुर वाली हो गयी।
रामपुर वाली से सूरजु की माई की बहुत दोस्ती थी, और भौजी के गौने उतरने से ही, असल में,
बताया तो था, सूरजु के बाबू को नवासा मिला था, सूरजु के माई के न कोई भाई न बहन, तो सूरजु के नाना ने सब कुछ, सूरज बली सिंह, अपने नाती के नाम लिख दिया था, १०० एकड़ जमीन पे तो खाली गन्ना होता था, ओहि गाँव में, बाकी धान, गेंहू, आम क दो बाग़ और अगल बगल के गाँव में भी कई जगह जमीन, सब सूरजु के नाम। तो सूरजु की माई और सूरजु दोनों, बोवाई, जुताई, कटाई और बीच बीच में जाते रहते, और रामपुर वाली भाभी का घर एकदम बगल में, तो कभी उन्ही के यहाँ टिक जाते,
मिजाज भी सूरजु की माई का और रामपुर वाली का बहुत मिलता था, खूब खुल के हंसी मजाक, छेड़छाड़ वाला, और सूरजु कभी अकेले जाते तो पक्का रामपुर वाली भौजी के यहाँ, अब एक आदमी के लिए क्या घर खोले।
एक बार पहुंचे वो तो भौजी उदास, असल में उनके पति शहर में कारोबार करते थे तो हफ्ते में पांच दिन तो शहर में, कभी कभी भौजी भी, लेकिन जुताई, बुआई, खेती के काम के टाइम वही रामपुर वाली मोर्चा सम्हालती, और जब सूरजु ने बहुत पूछा तो मुस्करा के चिढ़ा के बोलीं
" जब मरद घर नहीं होता तो उसकी सब जिम्मेदारी देवर की होती है, सब काम करना होता है मरद का, "
" एकदम मंजूर आप परेशानी बताइये न भौजी " बिना कुछ सोचे सूरजु बोले। आज तक उन्होंने भौजी को उदास नहीं देखा था
" अरे जुताई हुयी नहीं है, बड़का खेत में भी और पोखरा के बगल वाले में भी, और हफ्ता दस दिन में बुवाई का टाइम हो जाएगा हरवाह बीमार हैं दोनों और तोहार भैया कउनो कारोबार के चक्कर में बम्बई गए हैं,... दस दिन बाद आएंगे, "
अपनी परेशानी भौजी ने देवर को बतायी,
" अरे देवर के रहते जुताई क कौन परेशानी, बात आपकी सही है, मरद न होने पे देवर क जिम्मेदारी, भैय्या नहीं है, आपका देवर तो है न "
बस अगले दो दिन में रामपुर वाली का सब खेत जुत गया, लेकिन रात में रामपुर वाली ने खुल के छेड़ा, सूरजु को,
" हे देवर, खाली बाहर के खेत क जुताई करते हो की घर के अंदर भी, "
सूरजु शर्मा गए, चेहरा लाल, " धत्त भौजी," धीमे से बोले, और भौजी ने सीधे देवर के लोवर की ओर हाथ बढ़ाया, बेचारा घबड़ा के पीछे हटा तो रामपुर वाली खिलखिला उठी,
"अरे तू तो इतना लजा रहे हो, इतना तो लौंडिया नहीं लजातीं, हम तो बस ये देख रहे हैं की कही देवर की जगह ननद तो नहीं है"
और उस दिन से देवर भाभी की जोड़ी जम गयी,
लजाधुर, झिझक शर्म में कमी नहीं आयी लेकिन अपने मन की बात जो माई से नहीं कह पाते थे वो रामपुर वाली से, और रामपुर वाली की एक रट, हमें देवरानी चाहिए, उन्होंने समझाया भी कुश्ती छोड़ना पड़ेगा तो वो चिढ़ा के बोलतीं,
"अरे नहीं, हमरे देवरानी से लड़ना न कुश्ती, तोहें पटक देगी हमार गारंटी, और फिर साली, सलहज, कुश्ती लड़ने वालों की कमी नहीं होगी, कब तक बेचारे नीचे वाले पहलवान को बाँध छान के रखोगे "
और सूरजु रामपुर वाली से ही क़बूले,
"भौजी बस यह नागपंचमी को आखिरी कुश्ती, एक पहलवान पंजाब से आया है, हर जगह चैलेंज दिया है एक बार उसे पटक दें तो फिर जउन भौजी कहें वो कबूल "
और ये ख़ुशख़बरी जब रामपुर वाली ने सूरजु की माई को दी तो बस उन्होंने गले लगा लिया और बोलीं,
खाली बरात बिदा करे, देवरानी उतराने मत आना,जिस दिन से लग्न लगेगी, उस दिन से, तोहार देवर तोहार देवरानी तू जाना, मैं तो खाली चौके चढ़ के बैठी रहूंगी। और हाँ कुल जनी.
तो उन्ही रामपुर वाली भौजी क छोट बहिन चुनिया, बुच्ची क ख़ास सहेली और उन का छोटा भाई गप्पू, अभी बारहवें में गया, रेख क्या हल्की हलकी मूंछ भी आ रही थी, और सूरजु सिंह जैसा लजाधुर नहीं, लेकिन बहिन क ससुराल तो थोड़ा बहुत झिझक
लेकिन जितना रामपुर वाली भौजी सूरजु की माई के करीब उतना ही ये दोनों, और गरमी की छुटियों में, जाड़े में, कई बार सावन में राखी में वो आता चुनिया के साथ तो हफ़्तों,
और कई बार बुच्ची भी उसी समय सूरजु की माई के साथ पहुँच जाती तो बस, कभी आम के बाग़ में तीनो छुपा छिपाई खेलते तो कभी पेड़ पर चढ़कर कच्चे टिकोरे तोड़ते, और दोनों लड़किया मिल के अकेले लड़के को, गप्पू को छेड़ती भीं,
एक दिन चुनिया और बुच्ची दोनों एक आम के पेड़ की मोटी डाल पर बैठीं थी और नीचे गप्पू, वो दोनों टिकोरे तोड़ के फेंक रही थी, गप्पू बटोर रहा था, साल डेढ़ साल पहले की बात है।
" हे भैया एकदम खट्टी मीठी कच्ची अमिया चाहिए " मुस्कराते हुए बुच्ची के कंधे पर हाथ रख के चुनिया ने गप्पू को छेड़ा,
गप्पू को पेड़ पर चढ़ने में डर लगता था पर ये दोनों, बुच्ची और चुनिया, दोनों सहेलियां, बंदरिया की तरह, एक डाल से दूसरी डाल पर चढ़ कर पूरा बाग़ नाप देतीं।
गप्पू कुछ बोलता उसके पहले बुच्ची के कंधे पर रखा चुनिया का हाथ नीचे सरका और अपनी सहेली की कच्ची अमिया दबाते बोली
" अरे पेड़ के टिकोरे नहीं, ....मेरी सहेली के बुच्ची के "
अब वो बेचारा झेंप गया और जो लड़के लजाते हैं लड़कियां और उनकी खिंचाई करती है और सहेली के भाई पर तो लड़कियां अपना पहला हक समझती हैं तो बुच्ची बोली,
" टिकोरे के लिए तो ऊपर चढ़ना पड़ता है,.... नीचे से तो खाली ललचाते रहो "
लेकिन उस दिन से गप्पू और बुच्ची में जबरदस्त नैन मटक्का चालू हो गया, वो लाइन मारता था और ये न ना न हाँ, लेकिन कभी मुस्करा के कभी अदा से गाल पे आयी लट झटक के,
बुच्ची और चुनिया

२७,१०,२१४
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लेकिन तभी नीचे से बुच्ची की सहेलियों की आवाज आयी और वो छुड़ाकर, हँसते खिलखिलाते कमरे से बाहर।
और इमरतिया भी साथ साथ लेकिन निकलने के पहले सूरजु को हिदायत देना नहीं भूली
" स्साले, का लौंडिया की तरह शर्मा रहे थे, सांझ होते ही मैं आउंगी बुकवा लगाने, आज खाना भी जल्दी हो जाएगा।
यहीं छत पे नौ बजे से गाना बजाना होगा, तोहरी बहिन महतारी गरियाई जाएंगी। तो खाना आठ बजे और दो बात, पहली अब कउनो कपडा वपडा पहनने की जरूरत नहीं है, इसको तनी हवा लगने दो और ये नहीं की हम आये तो शर्मा के तोप ढांक के,
और दूसरे बुच्ची जब खाना खिलाती है तो अपने गोद में बैठाओ, ओकर हाथ तो थाली पकडे में खिलाने रहेगा , बस फ्राक उठा के दोनों कच्चे टिकोरों का स्वाद लो,"

पर बात काट के सूरजु ने मन की बात कह दी,
" पर भौजी, हमार मन तो तोहार, लेवे का,….. "
" आज सांझ को, आउंगी न बुकवा लगाने, …चला तब तक सोय जा। "
मुस्कराकर जोर जोर से बड़े बड़े चूतड़ मटकाकर, मुड़ कर इमरतिया भौजी ने सूरजु देवर से वादा कर दिया .
इमरतिया का मन हर्षाय गया, कितने दिन से ये बड़का नाग लेने के चक्कर में थी और आज ये खुद,...

बुच्ची सीढ़ी पर इमरतिया का इन्तजार कर रही थी.
सीढ़ी पर से नीचे उतरते हुए, इमरतिया ने बुच्ची की छोटी छोटी चूँची फ्राक के ऊपर से दबाते हुए बोली, " हमार देवर दबाय दबाय के इसको बड़ा कर देगा " और नीचे से फ्राक को उठा के चिकनी बिल के छेद पे ऊँगली रगड़ते हुए चिढ़ाया “ और इसको चोद चोद के "
अपने को छुड़ा के नीचे आंगन में दौड़ के पहुँचती हुयी सहेलियों के बीच से बुच्ची ने मुंह चिढ़ाते हुए कहा
" अरे भौजी, तोहरे मुंह में घी गुड़, भौजी क बात जल्द सही हो "
लेकिन एक भौजाई के चंगुल से छूटी थी तो यहाँ तो दर्जनों भौजाई मौजूद थीं, कच्ची उमर की ननद का रस लेने, एक बोली,
"आय गयी, हमरे देवर से चुदवा के. फ्राक उठा के देखो, बिल बजबजा रही होगी,… सफ़ेद मलाई से "
" अरे एक देवर से कहाँ काम चलेगा, देखना, देवरन से पेलवायेगी, उहो एक साथ, क्यों बुच्ची, बबुनी ,…एक बुरिया में एक गंडिया में, "
एक गाँव की कहारिन हँसते हुए बोली।

सब को मालूम था की बुच्ची ऐसे मजाक से बहुत छनछनाती थी इसलिए और रगड़ाई होती थी उसकी।
" अरे खाली अपने भाई को दोगी की,... हमरे भाइयों को भी दोगी, "
चुनिया, रामपुर वाली भाभी की छोटी बहन बोली,
वो लोग अभी थोड़ी देर पहले आये थे, वो भी नौवें में पढ़ती थी और बुच्ची की पक्की सहेली।

उसका भाई गप्पू बारहवें में था और बहुत दिन से बुच्ची के चक्कर में था।
रामपुर वाली भौजी का नाम रामपुर वाली कैसे पड़ गया?
असल में गाँव में भौजियों की कमी तो होती नहीं, तो कोई बड़की भौजी, कोई नयकी, कोई छोटकी, लेकिन फिर आगे लगाने वाले विशेषण कम पड़ जाते हैं, तो भौजी के मायके का नाम का जोड़ के, और रामपुर कोई ऐसी वैसी जगह भी नहीं थी, क़स्बा था, बड़ा कस्बा, समझिये छोटे मोटे शहर की टक्कर लेता, लड़कियों, लड़को का इंटर तक स्कूल, हॉस्पिटल, और सबसे बढ़कर सिनेमा हाल, और उससे भी बड़ी बात की वहां से बस चलती थी, जो सूरजु के ननिहाल, रामपुर वाली के ससुराल से दो मील पहले एक बजार थी, वहां तक, और गाँव के सब लोग कोई बड़ी खरीददारी करने हो, घूमने जाना हो तो रामपुर ही, तो बस भौजी रामपुर वाली हो गयी।

रामपुर वाली से सूरजु की माई की बहुत दोस्ती थी, और भौजी के गौने उतरने से ही, असल में,
बताया तो था, सूरजु के बाबू को नवासा मिला था, सूरजु के माई के न कोई भाई न बहन, तो सूरजु के नाना ने सब कुछ, सूरज बली सिंह, अपने नाती के नाम लिख दिया था, १०० एकड़ जमीन पे तो खाली गन्ना होता था, ओहि गाँव में, बाकी धान, गेंहू, आम क दो बाग़ और अगल बगल के गाँव में भी कई जगह जमीन, सब सूरजु के नाम। तो सूरजु की माई और सूरजु दोनों, बोवाई, जुताई, कटाई और बीच बीच में जाते रहते, और रामपुर वाली भाभी का घर एकदम बगल में, तो कभी उन्ही के यहाँ टिक जाते,
मिजाज भी सूरजु की माई का और रामपुर वाली का बहुत मिलता था, खूब खुल के हंसी मजाक, छेड़छाड़ वाला, और सूरजु कभी अकेले जाते तो पक्का रामपुर वाली भौजी के यहाँ, अब एक आदमी के लिए क्या घर खोले।
एक बार पहुंचे वो तो भौजी उदास, असल में उनके पति शहर में कारोबार करते थे तो हफ्ते में पांच दिन तो शहर में, कभी कभी भौजी भी, लेकिन जुताई, बुआई, खेती के काम के टाइम वही रामपुर वाली मोर्चा सम्हालती, और जब सूरजु ने बहुत पूछा तो मुस्करा के चिढ़ा के बोलीं
" जब मरद घर नहीं होता तो उसकी सब जिम्मेदारी देवर की होती है, सब काम करना होता है मरद का, "
" एकदम मंजूर आप परेशानी बताइये न भौजी " बिना कुछ सोचे सूरजु बोले। आज तक उन्होंने भौजी को उदास नहीं देखा था
" अरे जुताई हुयी नहीं है, बड़का खेत में भी और पोखरा के बगल वाले में भी, और हफ्ता दस दिन में बुवाई का टाइम हो जाएगा हरवाह बीमार हैं दोनों और तोहार भैया कउनो कारोबार के चक्कर में बम्बई गए हैं,... दस दिन बाद आएंगे, "

अपनी परेशानी भौजी ने देवर को बतायी,
" अरे देवर के रहते जुताई क कौन परेशानी, बात आपकी सही है, मरद न होने पे देवर क जिम्मेदारी, भैय्या नहीं है, आपका देवर तो है न "
बस अगले दो दिन में रामपुर वाली का सब खेत जुत गया, लेकिन रात में रामपुर वाली ने खुल के छेड़ा, सूरजु को,
" हे देवर, खाली बाहर के खेत क जुताई करते हो की घर के अंदर भी, "
सूरजु शर्मा गए, चेहरा लाल, " धत्त भौजी," धीमे से बोले, और भौजी ने सीधे देवर के लोवर की ओर हाथ बढ़ाया, बेचारा घबड़ा के पीछे हटा तो रामपुर वाली खिलखिला उठी,
"अरे तू तो इतना लजा रहे हो, इतना तो लौंडिया नहीं लजातीं, हम तो बस ये देख रहे हैं की कही देवर की जगह ननद तो नहीं है"

और उस दिन से देवर भाभी की जोड़ी जम गयी,
लजाधुर, झिझक शर्म में कमी नहीं आयी लेकिन अपने मन की बात जो माई से नहीं कह पाते थे वो रामपुर वाली से, और रामपुर वाली की एक रट, हमें देवरानी चाहिए, उन्होंने समझाया भी कुश्ती छोड़ना पड़ेगा तो वो चिढ़ा के बोलतीं,
"अरे नहीं, हमरे देवरानी से लड़ना न कुश्ती, तोहें पटक देगी हमार गारंटी, और फिर साली, सलहज, कुश्ती लड़ने वालों की कमी नहीं होगी, कब तक बेचारे नीचे वाले पहलवान को बाँध छान के रखोगे "
और सूरजु रामपुर वाली से ही क़बूले,
"भौजी बस यह नागपंचमी को आखिरी कुश्ती, एक पहलवान पंजाब से आया है, हर जगह चैलेंज दिया है एक बार उसे पटक दें तो फिर जउन भौजी कहें वो कबूल "
और ये ख़ुशख़बरी जब रामपुर वाली ने सूरजु की माई को दी तो बस उन्होंने गले लगा लिया और बोलीं,
खाली बरात बिदा करे, देवरानी उतराने मत आना,जिस दिन से लग्न लगेगी, उस दिन से, तोहार देवर तोहार देवरानी तू जाना, मैं तो खाली चौके चढ़ के बैठी रहूंगी। और हाँ कुल जनी.
तो उन्ही रामपुर वाली भौजी क छोट बहिन चुनिया, बुच्ची क ख़ास सहेली और उन का छोटा भाई गप्पू, अभी बारहवें में गया, रेख क्या हल्की हलकी मूंछ भी आ रही थी, और सूरजु सिंह जैसा लजाधुर नहीं, लेकिन बहिन क ससुराल तो थोड़ा बहुत झिझक
लेकिन जितना रामपुर वाली भौजी सूरजु की माई के करीब उतना ही ये दोनों, और गरमी की छुटियों में, जाड़े में, कई बार सावन में राखी में वो आता चुनिया के साथ तो हफ़्तों,
और कई बार बुच्ची भी उसी समय सूरजु की माई के साथ पहुँच जाती तो बस, कभी आम के बाग़ में तीनो छुपा छिपाई खेलते तो कभी पेड़ पर चढ़कर कच्चे टिकोरे तोड़ते, और दोनों लड़किया मिल के अकेले लड़के को, गप्पू को छेड़ती भीं,
एक दिन चुनिया और बुच्ची दोनों एक आम के पेड़ की मोटी डाल पर बैठीं थी और नीचे गप्पू, वो दोनों टिकोरे तोड़ के फेंक रही थी, गप्पू बटोर रहा था, साल डेढ़ साल पहले की बात है।
" हे भैया एकदम खट्टी मीठी कच्ची अमिया चाहिए " मुस्कराते हुए बुच्ची के कंधे पर हाथ रख के चुनिया ने गप्पू को छेड़ा,

गप्पू को पेड़ पर चढ़ने में डर लगता था पर ये दोनों, बुच्ची और चुनिया, दोनों सहेलियां, बंदरिया की तरह, एक डाल से दूसरी डाल पर चढ़ कर पूरा बाग़ नाप देतीं।
गप्पू कुछ बोलता उसके पहले बुच्ची के कंधे पर रखा चुनिया का हाथ नीचे सरका और अपनी सहेली की कच्ची अमिया दबाते बोली
" अरे पेड़ के टिकोरे नहीं, ....मेरी सहेली के बुच्ची के "
अब वो बेचारा झेंप गया और जो लड़के लजाते हैं लड़कियां और उनकी खिंचाई करती है और सहेली के भाई पर तो लड़कियां अपना पहला हक समझती हैं तो बुच्ची बोली,
" टिकोरे के लिए तो ऊपर चढ़ना पड़ता है,.... नीचे से तो खाली ललचाते रहो "

लेकिन उस दिन से गप्पू और बुच्ची में जबरदस्त नैन मटक्का चालू हो गया, वो लाइन मारता था और ये न ना न हाँ, लेकिन कभी मुस्करा के कभी अदा से गाल पे आयी लट झटक के,
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