आपके पास कई लेखकों/कवियों के उद्धरण भी हैं...मैं सिर्फ फागुन के दिन चार कहानी का अंत जिन पंक्तियों से हुआ है उसे दुहरा सकती हूँ
सुखिया सब संसार है खाये और सोये
दुःखिया दास कबीर है जागे और रोये।
और फ़ैज़ साहेब से चंद सतरें उधार मांग लेती हूँ अपनी बात कहने के लिए,
अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म
रेश-ओ-अठलस-ओ-कमख़ाब-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लितड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मग़र क्या कीजे - २
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
गाँव में होली गुजरते ही चैता शुरू हो जाता है होली की छुट्टी में आये परदेसी वापस चले जाते हैं, कोई टैक्सी चलाने, कोई दूध सब्जी बेचने, कोई खेती में काम करने कोई मिल में हाड़ तोड़ मेहनत करने,...
और गोदान में मुकेश ने जो चैता गाया था, बस बिन कहे सब कह देता है,
हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा
जरत रहत दिन रैन
अमवा की डाली पे बोलेली कोयलिया
तनिक न आवत चैन,
आस अधूरी प्यासी उमरिया, जाए अधूरी सूनी डगरिया
डरत जिया बेचैन
डरत जिया बेचैन ओ रामा,
जरत रहत दिन रैन
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सुना जरूर होगा, एक बार फिर कभी सुनियेगा,
हम बनजारे कहीं भी जाएँ, थोड़ा सा गाँव देस जरूर साथ ले जाते और कभी कोने अंतरे सूने सन्नाटे मुंह भर बतिया लेते हैं।
और उन्हें उचित जगह पर पेश करने की कला भी...
ये इस बात को दर्शाता है कि एक अच्छा लेखक होने से पहले एक अच्छा पाठक होना जरूरी है....
लेकिन हरेक पाठक अच्छा लेखक नहीं हो सकता...
उसके अच्छी समझ बूझ भी होना चाहिए...
जो आपमें कूट कूट के भरी हुई है...